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पुण्य पदार्थ ( ढाल : २) : टिप्पणी १४
गौतम : "भन्ते जीव असाता वेदनीय कर्म का बंध कैसे करते हैं ?"
महावीर : "गौतम ! परदुःख से, परशोक से, परजूरण से, परटिप्पण से, परपिट्टन से, परपरितापन से, बहु प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को दुःख देने से, शोक करने से, जूरण से, टिप्पण से, पिट्टन से, परितापन से। इस तरह गौतम ! जीव असातावेदनीय कर्म करता है । "
'तत्त्वार्थसूत्र' में साता और असातावेदनीय कर्म के बंध हेतु इस प्रकार बतलाये गये हैं:
भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादि योगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य (६.१३) दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य । ६.१२
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(१) भूत-अनुकम्पा, (२) व्रती - अनुकम्पा, (३) दान, (४) सरागसंयम आदि योग, (५) क्षान्ति और (६) शौच-ये साता वेदनीय कर्म के हेतु हैं ।
(१) दुःख, (२) शोक, (३) ताप, (४) आक्रन्दन, (५) वध और (६) परिदेवन-ये असातावेदनीय कर्म के हेतु हैं ।
सरागसंयम के बाद के 'आदि शब्द द्वारा भाष्य और 'सर्वार्थसिद्धि' दोनों में अकाम निर्जरा और बाल तप को ग्रहण किया गया है।
यह स्पष्ट है कि सातावेदनीय कर्म के जो बंध हेतु 'तत्त्वार्थसूत्र' में प्रतिपादित हैं वे आगमिक उल्लेख से भिन्न हैं । आगम में दान, सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम-निर्जरा और बाल तप इनमें से एक का भी उल्लेख नहीं है । 'तत्त्वार्थसूत्र' में 'व्रती अनुकम्पा' को अलग स्थान दिया है पर आगम में वैसा नहीं है । 'तत्त्वार्थसूत्र' में वर्णित इन सब हेतुओं का सम्यक् अर्थ करने पर ये सब भी निरवद्य ठहरते हैं ।
जीवों को दुःख आदि देना सावद्य कार्य है । दुःखादि न देना निरवद्य है। जीवों को दुःख आदि न देने से निर्जरा होती है, यह पहले सिद्ध किया जा चुका है। यहाँ उनसे सातावेदनीय कर्म का बंध कहा गया है, जो पुण्य कर्म है। इस तरह शुभ योग निर्जरा और आनुषंगिक रूप से पुण्य के हेतु सिद्ध होते हैं ।
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१४. कर्कश-अकर्कश वेदनीय कर्म के बंध - हेतु (गा० १८ ) :
यहाँ उल्लिखित संवाद 'भगवतीसूत्र' में इस प्रकार है :