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पुण्य पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी ७
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१. प्राणातिपात न करना, २. मृषा न बोलना और
३. तथारूप श्रमण माहन को वंदन-नमस्कार, सत्कार-सम्मान कर, उस कल्याणरूप, मंगलरूप, दैवत चैत्य की पर्युपासना कर उसे मनोज्ञ, प्रियकारी आहार से प्रतिलाभित करना।
शुभ दीर्घायुष्यकर्म पुण्य की प्रकृति है। उसके यहाँ वर्णित बंध-हेतु भी शुभ हैं।
“समवायाङ्ग' में कहा है-निर्जरा पाँच हैं : प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण और परिग्रहविरमण :
पंच निज्जरट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा-पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावायाओ वेरमणं, अदिन्नादाणाओ वेरमणं, मेहुणाओ वेरमणं, परिग्गहाओ वेरमणं (५.६) ।
___ इस पाठ को 'स्थानाङ्ग' के उपर्युक्त पाठ के साथ पंढ़ने से यह स्पष्ट है कि जिन बोलों से शुभायुष्यकर्म का बंध बतलाया गया है उनसे निर्जरा भी होती है।
७. अशुभ-शुभ आयुष्यकर्म का बंध और भगवतीसूत्र (गा० १०) :
यहाँ 'भगवती सूत्र' के जिस पाठ का उल्लेख है, वह इस प्रकार है :
कहं णं भंते ! जीवा असुभदीउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा, माहणं वा हीलित्ता निंदित्ता खिंसित्ता गरहित्ता अवमन्नित्ता अन्नयरेणं अमणुन्नेणं अपीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेण पडिलाभेत्ता एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति (५.६)। ___कहं णं भंते ! जीवा सुभदीहाउयत्ताय कम्मं पकरेंति ?
गोयमा ! नो पाणे अइवाइत्ता नो मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता वा नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता अन्नयरेणं मणुन्नेणं पीतिकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभत्ता एवं खल नीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति (५.६)
'भगवती' का यह पाठ गौतम और भगवान महावीर के प्रश्नोत्तर रूप में है जबकि 'स्थानाङ्ग' का पाठ 'भगवती के उत्तर मात्र का संकलन है। दोनों पाठों का अर्थ एक ही है। यह पाठ भी इसी बात को सिद्ध करता है कि पुण्य-कर्म के बंध-हेतु शुभ योग रूप होते हैं और पापकर्म के बंध-हेतु अशुभ योग रूप।