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नव पदार्थ
३. 'साधु के सिवा दूसरों को अन्नादि देने से तीर्थंकर पुण्य प्रकृति से भिन्न पुण्य प्रकृति का बंध होता है' इस प्रतिपादन की अयौक्तिता (दो० २ - ३ ) :
'अन्न पुण्य' आदि के साथ विशेषात्मक अथवा व्याख्यात्मक शब्द नहीं हैं । अतः इनका अर्थ दो प्रकार से किया जा सकता है :
१. पंच महाव्रतधारी मुनि को, जो योग्य पात्र है, प्रासुक एषणीय आहार आदि का देना अन्न पुण्य आदि हैं ।
२. पात्रापात्र के भेदातिरिक्त चाहे जो भी हो उसे सचित्त - अचित्त अन्न आदि का देना अन्न पुण्य आदि हैं ।
स्वामीजी कहते हैं- "अन्न पुण्य आदि की पहली व्याख्या ही ठीक है । क्योंकि निरवद्य दान से ही पुण्य हो सकता है सावद्य दान से नहीं । अपात्र को सचित्त-अचित्त देना सावद्य दान है वह पुण्य का हेतु नहीं ।" उदाहरणस्वरूप स्वामीजी कहते हैं- "जल के एक बिन्दु में असंख्य अप्कायिक जीव हैं । उसमें वनस्पति जीवों की नियमा है । धान्यादि भी सचित्त हैं । जो इन सजीव चीजों का दान करता है उसके पुण्य का बंध कैसे होगा ? मुनि ऐसी अप्रासुक वस्तुओं को लेते ही नहीं । वे प्रासुक अचित्त वस्तुएँ लेते हैं । इन वस्तुओं को अपात्र ही ले सकते हैं । अपात्र दान सावद्य है ।"
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स्वामीजी कहते हैं कि जो सावद्य दान में पुण्य बतलाते हैं वे ज्ञान चक्षुओं को खो
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चुके ।
स्वामीजी के समय में कई जैन साधु ऐसी प्ररूपणा करते रहे कि पंचव्रतधारी साधु को आहार आदि देने से तीर्थंकर पुण्य प्रकृति का बंध होता है और साधु के सिवा अन्य को देने से अन्य पुण्य प्रकृति का बंध होता है - ऐसा स्थानाङ्ग में लिखा है ।
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स्वामीजी कहते हैं—“स्थानाङ्ग के मूल पाठ में ऐसा कुछ नहीं है । जैसे अंक के बिना शून्य का कोई मूल्य नहीं रहता वैसे ही पाठ बिना ऐसा अर्थ करना 'अजागलस्तनवत्' है।" फिर ऐसा अर्थ भी स्थानांग की सब प्रतियों में नहीं है। किसी-किसी प्रति में जो ऐसा अर्थ देखा जाता है वह स्पष्टतः बाद में जोड़ा हुआ है।
स्थानाङ्ग के उस सूत्र की, जिसमें नौ पुण्यों का उल्लेख है, टीका करते हुए अभयदेव सूरि लिखते हैं :
“पात्रायान्नदानाद् यस्तीर्थकरनामादिपुण्यप्रकृतिबन्धस्तदन्नपुण्यमेवं सर्वत्र”अर्थात् पात्र को अन्न देने से तीर्थंकर नामादि पुण्यप्रकृति का बन्ध होता है। अतः अन्न दान 'अन्न पुण्य' कहलाता है। इसी प्रकार पान से लेकर शयन पुण्य तक जानना