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ढाल : २
१. पुण्य शुभ योग से उत्पन्न होता है। शुभ योग जिन आज्ञा
में है। शुभ योग निर्जरा की करनी है; उससे पुण्य सहज ही आकर लगते हैं।
शुभ योग निर्जरा के हेतु हैं, पुण्य बंध सहज फल है
जिस करनी से निर्जरा होती है, उसकी आज्ञा स्वयं जिन. निर्जरा के हेतु भगवान देते हैं। निर्जरा की करनी करते समय पुण्य अपने
जिन-आज्ञा में हैं ही आप उत्पन्न (संचय) होता है जिस तरह गेहूँ के साथ तुष।
३. जहाँ पुण्योपार्जन होगा वहां निर्जरा निश्चय ही होगी; जिस
करनी से पुण्य की उत्पत्ति होगी वह निश्चय ही निरवद्य होगी। सावध करनी से पुण्य नहीं होता। (इसका खुलासा । करता हूं।) चतुर और विज्ञ जन सुनें!
जहाँ पुण्य होता है वहाँ निर्जरा और शुभ योग की नियमा है
४. स्थानाङ्ग सूत्र के तृतीय स्थानक में कहा है कि हिंसा अशुभ अल्पायुष्य करने से, झूठ बोलने से तथा साधु को अशुद्ध आहार देने ।
के हेतु सावध हैं से-इन तीन बातों से जीव के अल्प आयुष्य का बंध होता है। यह अल्प आयुष्य पाप कर्म की प्रकृति है।
शुभ दीर्घायु के हेतु
निरवद्य हैं
५.६. वहीं कहा है कि जीवों की हिंसा न करने से, झूठ नहीं
बोलने से और तथारूप श्रमण निर्ग्रन्थ को चारों प्रकार के प्रासुक निर्दोष आहार देने से इन तीनों बातों से दीर्घ आयुष्य का बंध होता है। यह दीर्घ आयुष्य पुण्य में है।