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पुण्य पदार्थ : (ढाल : २)
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५४. यदि पाँच पदों को छोड़कर अन्य को नमस्कार करने से
एकान्त पाप लगता हो तब अन्नादि सचित्त देने में कौन पुण्य की स्थापना करेगा ?२६
५५. पुण्य निरवद्य करनी से होता है, सावद्य करनी से पाप सावद्य करनी से पाप
का बंध लगता है। सावद्य निरवद्य की पहचान यह है कि निरवद्य
होता है कार्यों की खुद भगवान आज्ञा देते हैं।
(गा० ५५-५८)
५६. पात्र को (निर्दोष ऐषणीय) अशन, पान आदि बहराने तथा
स्थान, शय्या, वस्त्र आदि देने की जिन देव आज्ञा करते हैं। इनसे पुण्य का बंध होता है।
५७. अन्न-पानी आदि तथा स्थान, शय्या, वस्त्र, पात्र अन्य को
देने की जिन भगवान आज्ञा नहीं देते। इसलिये ऐसे दान से जीव के पुण्य-बंध कैसे हो सकता है ?
५८. सुपात्र को देने से पुण्य होता है। यह करनी जिन-आज्ञा
सम्मत है; यदि अन्य किसी को देने से भी पुण्य होता है तो उसके लिए जिन-आज्ञा क्यों नहीं है ?
पुण्य और निर्जरा की करनी एक है
५६. स्थान-स्थान पर सूत्रों में देख लो कि निर्जरा और पुण्य की
करनी एक है। जहाँ पुण्य होता है वहाँ निर्जरा भी होती है और जहाँ निर्जरा होती है वहाँ विशेष रूप से जिन-आज्ञा
है
पुण्य की ६ प्रकार से उत्पत्ति ४२ प्रकार से भोग
६०. पुण्य नौ प्रकार से उत्पन्न होता है तथा वह ४२ प्रकार से
भोग में आता है। जीव के पुण्य का उदय होने से वह ।
संसार में सुख पाता है। ६१. पुण्य-जात सुख क्षणिक हैं। उनके विनाश होते देर नहीं ।
लगती; इन सुखों की कभी वांछा नहीं करनी चाहिए। जिससे कि संसार रूपी समुद्र के पार पहुंचा जा सके।
पुण्य आवाञ्छनीय मोक्ष वाञ्छनीय (गा०६१-६३)