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पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी ८
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(३) जिस नामकर्म से शुभ देवगति प्राप्त होती है उसे 'शुभ देवगति नामकर्म' कहते
हैं (गा० ६) ।
स्वामीजी के कथनानुसार गति और आनुपूर्वी आयुष्य के अनुरूप होती है। शुभ आयुष्य के देव और मनुष्यों की गति और आनुपूर्वी भी शुभ होती है।
(४) जिस नामकर्म से शुभ देवानुपूर्वी प्राप्त होती है उसे 'शुभ देवानुपूर्वी नामकर्म' कहते हैं। जिस देव का आयुष्य शुद्ध होता है उसकी आनुपूर्वी भी शुद्ध होती है ( गा० ६) ।
जिस कर्म के उदय से वक्रगति से देवगति की ओर आते हुए जीव के आकाश प्रदेश की श्रेणी के अनुसार उत्पत्ति क्षेत्र के अभिमुख गति होती है उसे 'शुभ देवानुपूर्वी नामकर्म' कहते हैं । ( गा० ६) ।
(५) जिस नामकर्म से विशुद्ध पंचेन्द्रिय जीवों की जाति-कोटि प्राप्त होती है उसे 'शुभ पंचेन्द्रिय नामकर्म' कहते हैं (गा० ६) ।
(६) जिस नामकर्म से जीव को निर्मल औदारिक शरीर मिलता है उसको 'शुभ औदारिक शरीर नामकर्म' कहते हैं (गा० १०) ।
उदार अर्थात् स्थूल । स्थूल औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से निर्मित शरीर अथवा मोक्ष प्राप्ति में साधन रूप होने से उदार - प्रधान शरीर औदारिक कहलाता है ।
(७) जिस नामकर्म से निर्मल वैक्रिय शरीर मिलता है उसे 'शुभ वैक्रिय शरीर नामकर्म' कहते हैं (गा० १०) |
छोटे, बड़े, मोटे, पतले आदि विविध प्रकार के रूप-विक्रियाओं को करने में समर्थ शरीर को वैक्रिय शरीर कहते हैं। यह वैक्रिय वर्गणाओं के पुद्गलों से रचित शरीर है। देवों का शरीर ऐसा ही होता है।
यह शरीर स्वाभाविक और लब्धिकृत दोनों प्रकार का होता है।
(८) जिस नामकर्म से निर्मल आहारक शरीर मिलता है उसे 'शुभ आहारक शरीर नामकर्म' कहते हैं (गा० १० ) ।
आहारक शरीर चौदह पूर्वधर लब्धिधारी मुनियों के होता है। संशय होने पर उसके निवारण के लिए अन्य क्षेत्र में स्थित तीर्थङ्कर अथवा केवलज्ञानी के पास जाने के लिए वह अपनी लब्धि द्वारा हस्तप्रमाण तेजस्वी शरीर धारण करता है। यह शरीर आहारक वर्गणा के पुद्गलों से रचित होता है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है ।