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पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी
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सम= समान । चतुर-चार | अस्त्रि= बाजू ।
पर्यंकासन में स्थित होने पर जिस पुरुष के बायें कंधे और दाहिने घुटने, दाहिने कंधे और बायें घुटने, दोनों घुटनों के बीच का अन्तर तथा ललाट और पर्यंक के बीच का अन्तर- ये चारों अन्तर समान हों उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं । (१६-१६) जिन नामकर्मों से शुभ वर्ण, शुभ गंध, शुभ रस और शुभ स्पर्श मिलते हों अथवा जिन कर्मों से शरीर के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श शुभ होते हों' उन कर्मों को क्रमशः 'शुभ वर्ण नामकर्म', 'शुभ गन्ध नामकर्म', 'शुभ रस नामकर्म' और 'शुभ वर्ण नामकर्म, शुभ गन्ध नामकर्म, शुभ रस नामकर्म' और 'शुभ स्पर्श नामकर्म' कहते हैं । गा० १२-१५) ।
२.
(२०) जिस नामकर्म के उदय से जीव में स्वतन्त्र रूप से चलने-फिरने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है उसे 'शुभ त्रस नामकर्म' कहते हैं। जिस जीव में धूप से छाया में और छाया से धूप में आने आदि रूप शक्ति हो वह त्रस जीव है (गा० १७)। (२१) जिस नामकर्म के उदय से जीव का शरीर नेत्रों से देखा जा सके ऐसा स्थूल हो, उसे 'शुभ बादर नामकर्म' कहते हैं (गा० १७)।
(२२) जिस नामकर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो, उसे 'शुभ प्रत्येक शरीरी नामकर्म' कहते हैं (गा० १८ ) ।
(२३) जिस नामकर्म के उदय से जीव स्वयोग पर्याप्तियाँ पूरी कर सके शरीर, इन्द्रियादि की पूर्णताएँ प्राप्त कर सके, उसे 'शुभ पर्याप्त नामकर्म' कहते हैं ( गा० १८ ) ।
(२४) जिस नामकर्म के उदय से शरीर के अवयव दाँत, अस्थि आदि मजबूत हों उसे 'शुभ स्थिर नामकर्म' कहते हैं (गा० २१) ।
(२५) जिस नामकर्म से जीव के नाभि से मस्तक तक के भाग-अंग शुभ हों उसे 'शुभ नामकर्म' कहते हैं (गा० १६) ।
(२६) जिस नामकर्म से जीव सबका प्रिय होता है उसे 'शुभ सौभाग्य नामकर्म' कहते, हैं (गा० २०) ।
(२७) जिस नामकर्म के उदय से जीव को सुस्वर की प्राप्ति होती है, उसे 'शुभ सुस्वर नामकर्म' कहते हैं (गा० २० ) ।
१.
श्री नवतत्त्वप्रकरणम् ६-१६ की वृत्ति 'वण्णचउक्क' त्ति यदुदयाज्जीवस्य शुभो वर्ण: शुभ गन्धः शुभो रसः शुभः स्पर्शः स्यादिति वर्णचतुष्कम् ।
वही : यदुदयादाहारशरीरेन्द्रियोच्छ्वासनिःश्वासभाषामनोभिः पूरिपूर्णता स्यात् तत्पर्याप्तनामकर्म
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