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पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी १२
पुद्गल के जो शुभ नाम हैं जैसे 'तीर्थङ्कर नाम कर्म', 'उच्चगोत्र नामकर्म' वे इस कारण से हैं कि इन पुद्गलों ने जीव को शुद्ध - स्वच्छ किया है।
जिन पुद्गलों के संयोग से जीव सुखी, तीर्थङ्कर आदि कहलाता है वे कर्म भी उत्तम संज्ञा से घोषित किये जाते हैं - उन्हें पुण्य कहा जाता है ।
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि पुद्गल जीव से पर वस्तु है, पुद्गल-संबद्ध होने से ही जीव को संसार भ्रमण करना पड़ता है फिर पुद्गल से जीव के शुद्ध होने की बात किस तरह घटती है ? इसका उत्तर इस प्रकार है : जिस तरह तालाब में गन्दा जल रहने से वह गंदा कहलाता है और स्वच्छ जल रहने से स्वच्छ । उसी तरह पाप कर्मों से जीव मलिन कहलाता है और पुण्य कर्मों से शुद्ध । जिस तरह स्वच्छ या अस्वच्छ जल के सूखने पर ही तालाब रिक्त होता है और भूमि प्रगट होती है वैसे ही शुद्ध - अशुद्ध दोनों प्रकार के कर्म पुद्गलों के क्षय होने से ही जीव शुद्ध-स्वभाव अवस्था में प्रगट होता है। इस तरह पुण्य कर्मों से जीव के शुद्ध होने की बात पापकर्मों के परिशाटन की अपेक्षा से है ।
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पुण्य का अर्थ है - जो आत्मा को पवित्र करें। अशुभ - पाप कर्मों से मलिन हुई आत्मा क्रमशः शुभ कर्मों का - पुण्य कर्मों का अर्जन करती हुई पवित्र होती है गन्दी नहीं रहती, स्वच्छ होती है। जैसे कुपथ्य आहार से रोग बढ़ता है, पथ्य आहार से रोग घटता है और पथ्य-अपथ्य दोनों प्रकार के आहार का त्याग करने से जीव शरीर से रहित होता है वैसे ही पाप से मोक्ष होता है।
दुःख होता है, पुण्य से सुख होता है, और पुण्य-पाप दोनों से रहित होने से
१२. पुण्य कर्म के फल ( गा० ३५-४५ ) :
किस प्रकृति के पुण्य कर्म से किस बात की प्राप्ति होती है, इसका विवेचन ( गा० ४ से ३१ में) कर चुकने के बाद प्रस्तुत गाथाओं में स्वामीजी ने पुण्योदय से प्राप्त होने वाले सुखों का सामान्य वर्णन किया है । उपसंहारात्मक रूप से स्वामीजी कहते हैं : "पुण्योदय से ही जीवों को (१) उच्च पदवियाँ; (२) संयोगिक सुख; (३) शारीरिक स्वस्थता; (४) बल और वैभव; (५) सुख-संपदा और समृद्धि; (६) सर्व प्रकार के परिग्रह; (७) सुशील, सुन्दर और विनयी स्त्री और संतान तथा पारिवारिक सुख और (८) सुन्दर व्यक्तित्व (रूप
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पुन्यं नाम पुनाति आत्मानं पवित्रीकरोतीति पुन्यम्