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नव पदार्थ
दो भेद करते रहे। एक कु-मनुष्य और दूसरे उत्तम मनुष्य । उनके अनुसार कु-मनुष्यों का आयुष्य अशुभ उपयोग का परिणाम ठहरता है और वह शुभ आयुष्य कर्म का भेद नहीं हो सकता ।
आगम में कहा गया है : "चार कारणों से जीव किल्विषीदेव योग्य कर्म का बंध करता है - अरिहंत के अवर्णवाद से, अरिहंत धर्म के अवर्णवाद से, आचार्योपाध्याय के अवर्णवाद से और चतुर्विध संघ के अवर्णवाद से। ऐसे कारणों से प्राप्त होने वाला किल्विषीदेव गति का आयुष्य शुभ कैसे होगा ?
जो कर्म शुभ योग से आते हैं और विपाकावस्था में शुभ फल देते हैं वे ही पुण्य कर्म हैं। कई मनुष्य, कई देव और कई तिर्यंचों का आयुष्य शुभ हेतुओं का परिणाम नहीं होता। फलस्वरूप में भी उनका आयुष्य अत्यन्त पापपूर्ण और कष्टप्रद होता है ।
इस तरह सिद्ध होता है कि उत्तम देव, उत्तम मनुष्य और उत्तम तिर्यंचों के आयुष्य को प्राप्त कराने वाले आयुष्य कर्म ही शुभ हैं।
८. शुभ नामकर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियाँ (ढाल गा० ९-२५ ) :
गाथा ८ में शुभ नामकर्म की परिभाषा दी गई है। बाद की ६ से २६ तक की गाथाओं शुभ नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों का स्वरूप का, उनके फल-कथन द्वारा अथवा उनकी परिभाषा देकर, विवेचन किया गया है।
नामकर्म की परिभाषा टिप्पणी ३ (१) (च) (पृ० १५५) में दी जा चुकी है। जिस कर्म के उदय से जीव को अमुक गति, एकेन्द्रियादि अमुक जाति प्रभृति प्राप्त होते हैं उसे नामकर्म कहते हैं। जो उदयावस्था में जीव को शुभ गति, शुभ जाति आदि अनेक बातों को प्रापक कर्म है वह 'शुभ नामकर्म' कहलाता है ( गा० ८ ) ।
शुभ नामकर्म की उत्तर प्रकृतियां ३७ हैं। नीचे क्रमशः उनका विवेचन किया जाता
है :
(१) जिस नामकर्म से शुभ मनुष्य - गति - उच्च मनुष्य-भव की प्राप्ति होती है । उसे 'शुभ मनुष्यगति नामकर्म' कहते हैं (गा० ६) ।
(२) जिस नामकर्म से शुभ मनुष्यानुपूर्वी मिलती है उसे 'शुभ मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म' कहते हैं (गा० ६)
जीव जिस स्थान में मरण प्राप्त करता है वहां से उत्पत्ति स्थान समश्रेणी में न होने पर उसी वक्र गति करनी पड़ती है । जिस कर्म से जीव आकाश प्रदेश की श्रेणी का अनुसरण करता हुआ जहाँ वह मनुष्य रूप से उत्पन्न होने वाला है उस उत्पत्ति क्षेत्र के अभिमुख गति कर सके उसे मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं ।
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