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नव पदार्थ
सात-सौख्य का अनुभव करता है वह सातावेदनीय कर्म है।
उत्तराध्ययन में कहा है 'सायस्व उबहूभेया'-सातावेदनीय कर्म के बहुत भेद होते हैं। सात-सौख्य-सुख अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे-जैसे सौख्य का अनुभव होता है। वैसे-वैसे ही भेद सातावेदनीय कर्म के होते हैं।
साता (सुख) के छः प्रकार हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रिय साता; (२) घ्राणेन्द्रिय साता, (३) रसनेन्द्रिय साता (४) चक्षुरिन्द्रिय साता; (५) स्पर्शनेन्द्रिय साता और (६) नोइन्द्रिय (मन) साता | सातावेदनीय कर्म के इन सब साताओं (सुखों) की प्राप्ति होती है।
मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ गंध, मनोज्ञ स्पर्श, मनः शुभता और वचःशुभता-ये सब सातावेदनीय कर्म के अनुभाव हैं।
७. शुभ आयुष्य कर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियाँ (ढाल गा० ६-७)
इन गाथाओं में पुण्यरूप शुभ आयुष्य कर्म की परिभाषा और उसकी उत्तर प्रकृतियों-भेदों का वर्णन है।
शुभ आयुष्य कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ तीन कही गयी हैं। (१) जिससे देवभव की आयुष्य प्राप्त हो वह देवायुष्य कर्म, (२) जिससे मनुष्यभव की आयुष्य प्राप्त हो वह मनुष्यायुष्य कर्म; और (३) जिससे तिर्यञ्चभव की आयुष्य प्राप्त हो वह तिर्यञ्चायुष्य कर्म।
प्रायः आचार्यों ने सर्व देव, सर्व मनुष्य और सर्व तियञ्चों की आयुष्य के हेतु आयुष्य कर्म को शुभायुष्य कर्म के अन्तर्गत माना है। स्वामीजी ने शुभ देव, शुभ मनुष्य और युगलिक तिर्यञ्चों की आयुष्य के हेतु आयुष्य कर्मों को ही पुण्यरूप शुभ आयुष्य कर्म के भेदों में ग्रहण किया है। उनके विचार से सर्व देव शुभ नहीं होते, न सर्व मनुष्य शुभ होते हैं और सर्व तिर्यञ्च ही। शुभ देव, शुभ मनुष्य और युगलिक तिर्यञ्च के भव-विषयक आयुष्य के हेतु कर्म ही शुभ आयुष्य कर्म के उत्तर भेद हैं। स्वामीजी के अनुसार
१. उत्त० ३३.७ : २. ठाणाङ्ग ६.३.४८८ ३. ठाणाङ्ग ७.३.५८८ : ४. देखिए 'नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः' में संगृहीत सभी नवतत्त्व प्रकरण के पुण्याधिकार