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५. पुण्य निरवद्य योग से होता है (ढाल गा० ४ ) :
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स्वामीजी ने इस गाथा में पुण्य कैसे होता है, इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला हैं आत्म-प्रदेशों में कर्म-प्रदेश के निमित्त मुख्यतः पाँच हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । पहले चार हेतुओं से पाप कर्म का आगमन होता है। योग का अर्थ है-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति - क्रिया । योग दो तरह के होते हैं - (१) निरवद्य योग और (२) सावद्य योग । अवद्य योग पाप को कहते हैं। मन, वचन, काया की जो प्रवृत्ति पाप-रहित होती है वह निरवद्य योग है। जो प्रवृत्ति पाप-सहित होती है उसे सावद्य योग कहते हैं । सावद्य योग के पाप-कर्मों का अर्जन होता है । निरवद्य योग पुण्य के हेतु हैं । उदाहरण स्वरूप सत्य बोलना निरवद्य योग है और मिथ्या बोलना सावद्य योग । पहले से पुण्य बंधता है और दूसरे से पाप कर्म ।
इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र (अ० ६ ) के निम्न सूत्र स्मरण रखने जैसे हैं : कायावाङ्मनः कर्मयोगः | १ |
स आस्रवः | २ |
शुभः पुण्यस्य | ३ |
अशुभः पापस्य |४|
आचार्य उमास्वाति ने अन्यत्र भी लिखा है :
३.
'योगः शुद्धः पुण्यास्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यास:"
दिगम्बराचार्य भी ऐसा ही मानते हैं ।
नव पदार्थ
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जीव के या तो शुभ उपयोग होता है अथवा अशुभ उपयोग। शुभ उपयोग से पुण्य का सञ्चय होता है और स्वर्ग-सुख की प्राप्ति होती है । अशुभ उपयोग से पाप का सञ्चय होता है और जीव को कुनर, तिर्यंच, नारक के रूप में संसार-भ्रमण करना पड़ता है। श्रमण शुद्ध उपयोगयुक्त भी होता है। शुद्ध उपयोग वाला श्रमण आस्रव-रहित होता है और उसे मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है ।
१. उमास्वातीयं नवतत्त्वप्रकरणम् (नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः) : आस्रवतत्त्वम् २. द्रव्यसंग्रह ३८ :
सुह असुह भावजुत्ता पुण्णं पापं हवंति खलु जीवा ।
प्रवचनसार २.६४; १.११ १.१२; ३.४५
उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तध पावं तेहिसमभावे ण चयमत्थि ।। धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि शुद्धसंयेागजुदो । पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं । । असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णरइयो । दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंतं । । समणा सुवजुत्ता सुहोवजुत्त य होंति समयम्हि । तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ।।