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पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी ४
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एक बार कालोदायी ने श्रमण भगवान महावीर से पूछा : "भन्ते ! क्या कल्याण कर्म (पुण्य) जीवों के लिये कल्याण फलविपाकसंयुक्त-अच्छे फल के देने वाले हैं ?" भगवान ने उत्तर दिया : "हे कालोदायी ! कल्याण कर्म (पुण्य) ऐसे ही होते हैं। जैसे कोई एक पुरुष मनोहर, स्वच्छ थाली में परोसे हुए रसदार अठारह व्यंजनयुक्त औषधि - मिश्रित आहार का भोजन करे तो आरम्भ में वह भद्र-अच्छा नहीं लगता पचने पर वह सरूपता, सुवर्णता, सुगन्धता, सुरसता, सुस्पर्शता, इष्टता, कान्तता, प्रियता, शुभता, मनोज्ञता, मनापता, ईप्सितता, उर्ध्वता आदि परिणाम उत्पन्न करता हैं बार-बार सुख रूप परिणमन करता है, दुःख रूप नहीं, उसी तरह है कालोदायी ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, [परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान ] पैशुन, परपरिवाद, रति -अरति मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य का विरमण और त्याग आरम्भ में जीवों को भद्र - अच्छा नहीं लगता पर बाद में परिणाम के समय सुरूपता, सुवर्णता आदि भाव उत्पन्न करता है, बार-बार सुखरूप परिणमन करता है दुःख रूप नहीं । इसलिये हे कालोदायी! कल्याण (पुण्य) कर्म जीवों को अच्छे फल देने वाले होते हैं ऐसा कहा है ।"
स्वामीजी ने जो यह कहा है कि पुण्य से सुख ही होता है दुःख जरा भी नहीं होता वह उपर्युक्त आगम-स्थल से समर्थित है।
४. पुण्य की अनन्त पर्यायें (ढाल गा० ३ ) :
इस गाथा में स्वामीजी ने जो बात कहीं है उसका आधार निम्न आगम-गाथा है : सव्वेसि चेव कम्मांण, पएसम्ममणंतगं ।
गठियसत्ताईयं, अंतो, सिद्धांण आहिय' ।।
सब कर्मों के प्रदेश अनन्त हैं, जो अभव्य जीवों से अनन्त गुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं।
जीव के प्रदेशों साथ पुण्य कर्मों के अनन्त प्रदेश बंध हुए रहते हैं। कर्मों में फल देने की सक्रियता परिषाकावस्था में आती है। यह अवस्था कर्मों का उदयकाल कहलाती है। इसके पहले कर्म फल नहीं देते । अनन्तप्रदेशी पुय कर्म उदय में आकर अनन्त प्रकार के सुख उत्पन्न करते हैं। इस तरह पुण्य कर्मों की अनन्त पर्यायें - परिणाम - अवस्थाएँ होती है ।
१. भगवती ७.१०
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उत्त० ३३.१७