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नव पदार्थ
(छ) जिस कर्म की प्रकृति जीव की जाति, कुल आदि को निर्धारण करने की होती
है उसे गोत्र-कर्म कहते हैं। (ज) जिस कर्म की प्रकृति लाभ, दान आदि में विघ्न-बाधा करने की होती है उसे
अन्तराय कर्म कहते हैं।
इन आठ कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म एकान्त पाप रूप हैं।
वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-(१) साता वेदनीय और (२) असातावेदनीय' । साता वेनदनीय कर्म पुण्य-रूप है।
इसी तरह आयुष्म कर्म के दो भेद हैं-(क) शुभ आयुष्य और (ख) अशुभ आयुष्य। शुभ आयुष्य पुण्य स्वरूप है।
नाम कर्म भी दो प्रकार का है-(क) शुभ नाम कर्म और (ख) अशुभ नाम कर्म । शुभ नाम कर्म शुभ नाम वर्ण पुण्य स्वरूप है।
गोत्र कर्म के भी दो भेद हैं-(क) उच्च गोत्र कर्म और (ख) नीचा गोत्र कर्म । उच्च गोत्र कर्म पुण्य रूप है।
(२) पुण्य केवल सुखोत्पन्न करते हैं : पुण्य और पाप दोनों एक दूसरे के विरोधी पदार्थ हैं। एक पदार्थ दो परिणमन नहीं कर सकता। पुण्य सुख और दुःख दोनों का कारण नहीं हो सकता। वह केवल सुख का कारण होता है। पुण्य की परिभाषा करते हुए कहा गय है-'सुहहेऊ कम्मपगई पुन-सुख की हेतु कर्म-प्रकृति पुण्य है।
१. (क) उत्त० ३३.७ :
वेयणियं पि य दुविहं, सायमसायं च आहियं । (ख) ठाणाङ्ग २.४.१०५ २. (क) उत्त० ३३.१३
नाम कम्मं तु दुविहं, सुहमसुहं च आहियं । (ख) ठाणाङ्ग २.४.१०५ ३. (क) उत्त० ३३.१४ :
गोयं कम्मं तु दुविहं, उच्च नीयं च आहियं (ख) ठाणाङ्ग २.४.१०५ ४. देवेन्द्रसूतिकृत श्री नवतत्त्वप्रकरणम् (नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः) गा० २८