________________
अजीव पदार्थ : टिप्पणी ३६
१२६
प्राप्त करता है । जीव उपयोग लक्षणवाला है।
"पुद्गलास्तिकाय द्वारा जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर; श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, ध्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिया; मनोयोग, वचनयोग और कामयोग तथा श्वासोच्छ्वास का ग्रहण होता है। पुद्गलास्तिकाय ग्रहणलक्षण वाली है । "
३६. साधर्म्य वैधर्म्य
प्रथम दो ढालों में षट् द्रव्यों का विवेचन है। इन द्रव्यों में परस्पर में क्या साधर्म्य वैधर्म्य है वह यथास्थान बताया जा चुका है। पाठकों की सुविधा के लिए उनकी संक्षिप्त सूचि यहां दी जा रही है :
१. षट् द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं और बाकी चार द्रव्य
अपरिणामी हैं। पर्यायान्तरप्राप्ति जिसके होती है उसे परिणामी कहते हैं । धर्मादि द्रव्य औपाधिक परिणामी हैं । वे सदा एक रूप में रहते हैं अतः स्वाभाविक परिणामी नहीं । जीव पुद्गल स्वभावतः ही परिणमन-पर्यायान्तर- करते हैं अतः परिणामी कहे गये हैं ।
२. एक जीव द्रव्य जीव है; बाकी पाँच द्रव्य अजीव हैं।
३. एक पुद्गल रूपी है; बाकी पाँच अरूपी हैं।
४. पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं- सप्रदेशी हैं केवल द्रव्य एक अप्रदेशी है ।
५. धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक हैं; बाकी द्रव्य अनेक हैं।
६. आकाश क्षेत्र है और अन्य पाँच द्रव्य उसमें रहने वाले - क्षेत्री हैं।
७. जीव और पुद्गल दो द्रव्य सक्रिय हैं; बाकी चार अक्रिय हैं।
८. धर्म, अधर्म और आकाश काल ये चार द्रव्य एक रूप में रहते हैं अतः नित्य हैं। जीव और पुद्गल एक रूप में नहीं रहते इस अपेक्षा से नित्य नहीं हैं। ६. जीव अकारण है- दूसरे द्रव्यों का उपकारी नहीं; बाकी पाँच कारणरूप हैं-जीव के उपकारी हैं ।
१०. जीव कर्त्ता है - पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष का कर्त्ता है और बाकी पाँच अकर्त्ता । ११. आकाश सर्वगत है; और बाकी पाँच असर्वगत |
१२. षट् द्रव्य परस्पर अवगाढ़ नीरक्षीरवत् अर्थात् एक क्षेत्रावगाही हैं परन्तु प्रवेश रहित है अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्य स्वरूप में परिणत नहीं हो सकता ।