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पुण्य पदार्थ (ढाल : १)
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५२. पुण्य की वाञ्छा करने से एकान्त-केवल पाप लगता है
जिसके इस लोक में दुःख पाना पड़ता है और जीव के शोक-संताप बढते जाते हैं।
पुण्य की वाञ्छा
से पाप-बंध (गा० ५२-५३)
५३. जो पुण्य की वाञ्छा-कामना करता है वह कामभोगों की
कामना करता है। उसको नरक निगोद के दुःख होंगे,
और प्रिय वस्तुओं का वियोग होगा। ५४. पुण्य के सुख अशाश्वत हैं परन्तु वे भी शुभ करनी बिना
नहीं प्राप्त होते । जो निरवद्य करनी करते हैं उनके पुण्य तो सहज ही आकर लगते हैं।
पुण्य-बंध के हेतु (गा०५४-५६)
५५. पुण्य पुण्य की कामना से प्राप्त नहीं होते, पुण्य तो सहज
ही आकर लगते हैं। पुण्य निरवद्य योग से तथा निर्जरा की
करनी से संचित होते हैं। ५६. भली लेश्या और भले परिणाम से निश्चय ही निर्जरा होती
है और तब निर्जरा के साथ-साथ पुण्य सहज ही स्वाभाविक
तौर पर आकर लग जाते हैं१५ | ५७. जो पुण्य की कामना से निर्जरा की करनी करते हैं वे
बेचारे उसी करनी को व्यर्थ ही खो कर मनुष्य-जन्म को हारते हैं।
पुण्य काम्य क्यों
नहीं? (गा० ५७-५८)
५८. पुण्य चतुर्पी कर्म हैं। जो उसकी कामना करते हैं वे
मूर्ख हैं। वे कर्म और धर्म के अन्तर को नहीं समझते और केवल मिथ्यात्व की रूढ़ि में पड़े हैं१६ | पुण्य से जो वस्तुएँ मिलती हैं उनके त्याग करने से निर्जरा होती है परन्तु जो पुण्य-फल को गृद्ध होकर भोगता है। उसके चिकने कर्मों का बंध होता है |
५६.
त्याग से निर्जरा भेग से कर्म-बंध
६०. यह जोड़ पुण्य तत्त्व का बोध कराने के लिए श्रीजीद्वार में
सं० १८५५ की जेठ बदी ६ सोमवार को की है।