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नव पदार्थ
अव्यय, अवस्थित और नित्य हैं; भाव से अवर्ण, अंगध, अरस, अस्पर्श-अरूपी जीव द्रव्य है तथा गुण से उपयोगगुण वाला है।
"पुद्गलास्तिकाय द्रव्य से अनंत द्रव्य है; क्षेत्र से लोकप्रमाण मात्र है; काल से कभी नहीं था ऐसा नहीं, नहीं है ऐसा नहीं, नहीं होगा ऐसा नहीं, ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है; भाव से वर्ण-गंध-रस-स्पर्शवान रूपी अजीव द्रव्य है और गुण से ग्रहणगुण वाला है। ____ “काल द्रव्य से अनन्त द्रव्य है; क्षेत्र से समयक्षेत्र प्रमाण मात्र है; काल से कभी नहीं था ऐसा नहीं, नहीं है ऐसा नहीं, नहीं होगा ऐसा नहीं, ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है; भाव से अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श-अरूपी अजीव द्रव्य है तथा गुण से वर्तना गुण है।
३५. जीव और धर्मादि द्रव्यों के उपकार
धर्मास्तिकाय आदि का जीवों के प्रति क्या उपकार है इस विषय में 'भगवती में बड़ा सारगर्भित वर्णन है :
"धर्मास्तिकाय द्वारा जीवों का आगमन, गमन, बोलना, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, तथा जो तथा प्रकार के अन्य गमन भव हैं वे सब प्रवर्तित होते हैं। धर्मास्तिकाय गतिलक्षण वाली है।
"अधर्मास्तिकाय द्वारा जीवों का खड़ा रहना, बैठना, सोना, मन का एकाग्रभाव करना तथा जो तथा प्रकार के अन्य स्थिर भाव हैं वे सब प्रवर्तित होते हैं। अधर्मास्तिकाय स्थितिलक्षण वाली है।
"आकाशास्तिकाय जीव द्रव्य और अजीव द्रव्यों का भाजन-आश्रयरूप, स्थानरूप है। आकाशस्तिकाय अवगाहना लक्षणवाली है।
जीवास्तिकाय द्वारा जीव अभिनिबोधक-मतिज्ञान की अनंत पर्याय, श्रुतज्ञान की अनंत पर्याय, अवधिज्ञान की अनंत पर्याय, मनःपर्यवज्ञान की अनंत पर्याय, केवलज्ञान की अनंत पर्याय, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगअज्ञान की अनंत पर्याय तथ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन की अनंत पर्यायों की अनंत पर्यायों के उपयोग को १. काल का ऐसा वर्णन उल्लिखित सूत्रों में नहीं है पर अनेक स्थलों के आधार से ऐसा
ही बनता है।