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पुण्य पदार्थ
दोहा
१. तीसरा पदार्थ पुण्य है। इसके संचय से लोग सुख मानते हैं। पुण्य से कामभोग-शब्दादि प्राप्त होते हैं । अतः लोग इसे उत्तम समझते हैं ।
पुण्य से प्राप्त सुखपौद्गलिक होते हैं। वे कामभोग- शब्दादि रूप हैं। कर्म की अंधीनता के कारण जीव को ये सुख मीठे लगते हैं ज्ञानी पुरुष तो इन्हें जहर के समान जानते हैं।
२.
जिस तरह जब तक शरीर में विष व्याप्त रहता है तब तक [ नीम के पत्ते मीठे लगते हैं, उसी तरह कर्म के उदय से जीव को कामभोग अमृत के समान लगते हैं । ] ४. पौद्गलिक पुण्य-सुख विनाशशील हैं। इनमें जरा भी वास्तविकता मत समझो। मोह कर्म की अधीनता से बेचारे जीव नाशवान सुखों में आसक्त हैं !
५. पुण्य पदार्थ शुभ कर्म हैं, उसकी जरा भी कामना नहीं करनी चाहिए' । अब पुण्य पदार्थ का यथातथ्य वर्णन करता हूँ, चित्त लगा कर सुनना ।
३.
१.
ढाल : १
पुण्य पुद्गल की पर्याय है। कर्म-योग्य पुद्गल आत्मा में प्रवेश कर उसके प्रदेशों से बंध जाते हैं। बंध हुए जो कर्म शुभरूप से उदय में आते हैं, उन पुद्गलों का नाम पुण्य है |
पुण्य और लौकिक दृष्टि
पुण्य और ज्ञानी की दृष्टि
विनाशशील और रोगोत्पन्न सुख (दो. ३-४)
पुण्य
कर्म है अतः हेय है
पुण्य की परिभाषा