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नव पदार्थ
३२. (गा० ५९-६१) :
इन गाथाओं में वे ही भाव है जो गा० ४४-४५ तथा ५३-५४ में हैं। स्वामीजी ने पुद्गल के विषय में निम्न सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं :
(१) पुद्गल द्रव्यतः शाश्वत है और भवतः अशाश्वत। (२) द्रव्य-पुद्गल कभी उत्पन्न नहीं होते और न उनका कभी विनाश ही होता है। (३) भाव-पुद्गल उत्पन्न होते रहते हैं और उन्हीं का विनाश होता है। (४) भाव-पुद्गलों की उत्पत्ति और विनाश होने पर भी उनके आधारभूत द्रव्य-पुद्गल
ज्यों-के-त्यों रहते हैं। (५) अनन्त द्रव्य-पुद्गलों की संख्या कभी घटती-बढ़ती नहीं।
भगवती सूत्र में पुद्गल को द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत और पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत कहा है। इसी तरह ठाणाङ्ग में पुद्गल को विनाशी और अविनाशी दोनों कहा है। इस तरह स्वामी जी का प्रथम कथन आगम आधारित है।
जीव-द्रव्य के विषय में कहा जाता है :
“जीव भाव-सत्प पदार्थ है। सुर-नर-नारक-तिर्यञ्च रूप उसकी अनेक पर्यायें हैं। मनुष्य पर्याय से च्युत देही (जीव) देव होता है अथवा कुछ और (नारकी, तिर्यञ्च या मनुष्य)। दोनों भाव-पर्यायों में जीव जीव रूप रहता है। मनुष्य पर्याय के सिवा अन्य का नाश नहीं हुआ। देवादि पर्याय के सिवा अन्य की उत्पत्ति नहीं हुई। एक ही जीव उत्पन्न होता है और मरण को प्राप्त करता है। फिर भी जीव न नष्ट हुआ और न उत्पन्न हुआ है। पर्यायें ही उत्पन्न और नष्ट हुई हैं। देव-पर्यायें उत्पन्न हुई हैं। मनुष्य-पर्याय का नाश हुआ है। संसार में भ्रमण करता हुआ जीव देवादि भाव-पर्यायों-को करता है और मनुष्यादि भाव-पर्याय-की उत्पत्ति करता हैं । जीव गुण-पर्याय सहित विद्यमान है। सत् जीव का विनाश नहीं होता; असत् जीव की उत्पत्ति नहीं होती। एक ही जीव की मनुष्य, देव आदि भिन्न-भिन्न गतियाँ हैं।
यही बात पुद्गल द्रव्य के सम्बन्ध में भी लागू पड़ती है। विविध लक्षणे वाले द्रव्यों में एक सत् लक्षण सर्व द्रव्यगत है। सत् का अर्थ है-'उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होना'। पुद्गल-द्रव्य भी सत् वस्तु है। उसके एक रूप का नाश होता है, दूसरे की उत्पत्ति होती है पर मूल द्रव्य सदाकाल अपने स्वभाव में स्थिर रहते हैं और कभी नाश को प्राप्त नहीं होते। १. देखिए पृ १०५ टि० २६, ३० २. भगवती १.४:१४.४ ३. ठाणाङ्ग २.३.८२ : दुविहा पोगल्ला पं तं० भेउरधम्मा चेव नोभेउरधम्मा चेव। ५. पञ्चास्तिकाय १.१६-१८,२१.१६ का सार।