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पट
नव पदार्थ
स्कंध परमाणुओं से उत्पन्न हैं। वे दो परमाणुओं से लेकर अनन्त परमाणुओं तक के संयोगज हैं। अनन्त परमाणु स्कंध यावत् द्वयणुक स्कंध तक का विच्छेद संभव है क्योंकि स्कंध परमाणु-पुद्गल के पर्याय विशेष हैं, उनसे रचित हैं, भाव-पुद्गल हैं। जब स्कंधों पर किसी भी ऐसे प्रकार का प्रयोग किया जाता है जिससे उनका भंग या विच्छेद होता हो तो वे परमाणुओं को छोड़ते हैं। पर वे परमाणु सुरक्षित रहते हैं उनका नाश नहीं होता। स्कंध के सब परमाणु स्वतंत्र कर दिये जायें तो स्कंध का नाश होगा; पर उस स्कंध के परमाणु ज्यों-के-त्यों रहेंगे। बिछुड़ें हुये परमाणु जब इकट्ठे होते हैं तो स्कंध बनता है। इस तरह स्कंध की उत्पत्ति होती है परन्तु परमाणुओं का नाश नहीं होता। वे उस स्कंध सुरक्षित रहते हैं। इस तरह द्रव्य-पुद्गल हमेशा शाश्वत होते हैं। उनकी जितने भी पर्याय हैं, वे विनाशशील हैं। उत्पत्ति पर्यायों की होती है और विनाश भी उन्हीं का।
___ अणु का स्वरूप बतलाते हुये कहा गया है कि वह अच्छेद्य है, अभेद्य है, अदाह्म है, अग्राह्य है, अनर्द्ध है, अमध्य है, अप्रदेशी है और अविभाज्य है। ऐसी स्थिति में परमाणु पुद्गल के नाश का सवाल ही नहीं उठता।
परमाणु-पुद्गल संख्या में अनन्त कहे गये हैं। अयोगिक और विनाशशील होने से उनकी संख्या हर समय अनन्त ही रहती हैं-उसमे घट-बढ़ नहीं होती।
'द्रव्य' के स्वरूप के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं :
"जो अपने सत् स्वभाव को नहीं छोड़ता, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से संबद्ध होता है और जो गुण और पर्याय सहित है उसे द्रव्य कहते हैं। स्वभाव में अवस्थित सत् रूप वस्तु द्रव्य है। अर्थों में-गुण पर्यायों में संभाव-स्थिति नाश रूप परिणमन करता द्रव्य का स्वभाव हैं। व्यय रहित उत्पाद नहीं होता, उत्पाद रहित व्यय नहीं होता। उत्पाद और व्यय, बिना ध्रौव्य पदार्थ के नहीं होते। द्रव्य संभव-स्थिति-नाश नामक अर्थों (भावों) से निश्चय कर समवेत है वह और भी एक ही समय में। इस कारण निश्चय कर उत्पादिक त्रिक द्रव्य के स्वरूप हैं। द्रव्य की एक पर्याय उत्पन्न होती है और एक विनष्ट होती है तो भी द्रव्य न नष्ट होता है और न उत्पन्न । “द्रव्य की उत्पत्ति अथवा विनाश नहीं है। द्रव्य सद्भाव है। उसी द्रव्य की पर्यायें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को करती हैं। भाव (सत् रूप पदाथ) का नाश नहीं है। अभाव की उत्पत्ति नहीं है। भाव-(सत् रूप पदाथ) गुण पर्यायों में उत्पादव्यय करते हैं। १. ठाणाङ्ग ३.१.१६५ : ततो अच्छेज्जा पं० तं० - समयेपदेसे परमाणू १, एवमभेज्जा २
अडज्झा २ अगिज्झा ४ अणड्ढा ५ अमज्झा ६ अपएसा ७ ततो अविभातिमा पं० तं० समते
पएसे परमाणू ८ २. प्रवचनसार २.१-११ का सार। ३. पञ्चास्तिकाय १.११-१५ का सार।