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नव पदार्थ
- वे चीजें खुद हैं। चीजें अपनी ही प्रेरणा से गमन, स्थिति आदि क्रियाएँ करती हैं और ऐसा करते हुए धर्म, अधर्म द्रव्य का सहारा लेती हैं।
आकाश द्रव्य का स्वभाव जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म और काल को स्थान देना-अवकाश देना है। आकाश जीवादि समस्त द्रव्यों का भाजन-रहने का स्थान है। ये द्रव्य आकाश के प्रदेशों को दूर कर नहीं रहते परन्तु आकाश के प्रदेशों में अनुप्रवेश कर रहते हैं। इसलिये आकाश का गुण अवगाह कहा गया है। आकाश अपने में अनन्त जीव और पुद्गलादि शेष द्रव्यों को उसी तरह स्थान देता है जिस तरह जल नमक को स्थान देता है। फर्क केवल इतना ही है जल केवल खास सीमा (Saturation Point) तक ही नमक को समाता है परनतु आकाश के समाने की सीमा नहीं है। जिस तरह नमक जल को हटा कर उसका स्थान नहीं लेता परन्तु जल के प्रदेशों में प्रवेश करता है ठीक उसी तरह जीवादि पदार्थ आकाश को दूर हटा कर उसका स्थान नहीं लेते परन्तु उसमें अनुप्रवेश कर रहते हैं।
धर्म, अधर्म और आकाश के अवगाढ़ गुण पर प्रकाश डालने वाला एक सुन्दर वार्तालाप इस प्रकार है : “एक बार गौतम ने पूछा : 'इस धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय
और आकाशास्तिकाय में कोई पुरुष बैठने, खड़ा होने अथवा लेटने में समर्थ है ?' महावीर ने उत्तर दिया : “नहीं गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। पर उस स्थान में अनन्त जीव अवगाढ़ हैं। जिस प्रकार कोई कूटागारशाला के द्वार बन्द कर, उसमें एक यावत् हजार दीप जलावे, तो उन दीपों के प्रकाश परस्पर मिलकर, स्पर्श कर यावत् एक रूप होकर रहते हैं पर उनमें कोई सोने बैठने में समर्थ नहीं होता हालांकि अनन्त जीव वहाँ अवगाढ़ होते हैं। उसी तरह धर्मास्तिकाय आदि में कोई पुरुष बैठने आदि में समर्थ नहीं हालांकि वहाँ अनन्त जीव अवगाढ़ होते हैं।"
___ आकाश के दो भेद हैं-एक लोक और दूसरा अलोक । अनन्त आकाश में जो क्षेत्र पुद्गल और जीव से संयुक्त है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय से भरा हुआ है वही क्षेत्र तीनों काल में लोक कहा जाता है। लोक के बाद जो द्रव्यों से रहित अनन्त आकाश है उसको अलोक कहते हैं। इस तरह साफ प्रगट है कि धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल, जीव
१. पंचास्तिकाय : १.८६, ८८-८६ २. (क) पञ्चास्तिकाय : १.६०
(ख) उत्तराध्ययन २८.६ : भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं ।। ३. भगवती १३.४