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अजीव पदार्थ : टिप्पणी ११
"हे गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं।" हे भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहते हैं ?" "हे गौतम ! चक्र का खण्ड चक्र होता है, या सकल चक्र चक्र ?" "हे भगवन् ! सकल चक्र चक्र होता है, चक्र का खण्ड चक्र नहीं होता।
"हे गौतम ! जिस तरह पूरा चक्र, छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, आयुध, मोदक-चक्र, छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, आयुध, मोदक होता है, उनका अंश चक्र, छत्र आदि नहीं इसी हेतु से गौतम ! ऐसा कहा हूँ कि धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता, धर्मास्तिकाय के प्रदेश धर्मास्तिकाय है ऐसा नहीं कहा जा सकता, एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।"
"हे भगवन् ! फिर किसे यह धर्मास्तिकाय है, ऐसा कहा जा सकता है ?
"हे गौतम ! धर्मास्तिकाय के असंख्येय प्रदेश हैं। वे सब जब कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निःशेष, एकग्रहणग्रहीत होते हैं तब वे धर्मास्तिकाय कहलाते हैं।"
“हे गौतम'! अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी ऐसा वक्त्व्य है। अन्तिम तीन के अनन्त प्रदेश जानो। इतना ही अन्तर है, शेष पूर्ववत् । ११. धर्मास्तिकाय विस्तृत द्रव्य है (गा० १७) :
गा० १० में कहा गया है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोक में और आकाशस्तिकाय लोकालोक में फैली हुई हैं। यह बताया जा चुका है कि वे किस तरह पृथुल-विस्तीर्ण हैं (पृ० ७४ टि० ८ (१))। इस गाथा में इसी बात को पुनः मौलिक उदाहरणों द्वारा समझाया गया है। कहीं पर पड़े हुए धूप या छाया पर हम दृष्टि डालें तो देखेंगे कि वे विस्तीर्ण हैं-भूमि पर संलग्न रूप से छाए हुए हैं। विस्तीर्ण धूप या छाया में बीच में कहीं जोड़ नहीं मालूम देगी, न किसी तरह का घेरा दिखाई देगा। धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का स्वरूप भी ऐसा समझाना चाहिए।
१. भगवती २.१० २. जीव के प्रदेश इसी भगवती तथा अन्य आगमों में असंख्येय ही कहे गये हैं। श्वे० दिग०
सभी आचार्य ऐसा ही मानते हैं। यहाँ जीव की भी प्रदेश-संख्या अनन्त किस विवक्षा
से कही है-समक्ष में नहीं आता। ३. भगवती २.१०