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अजीव पदार्थ : टिप्पणी २०
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इस योजन के प्रमाण से आयाम और विष्कंभ में एक योजम, ऊँचाई में एक योजन और परिधि में सविशेष त्रिगुण एक पल्य हो । उस पल्य में एक दिन, दो दिन, तीन दिन और अधिक-से-अधिक सात रात के उगे करोड़ों बालाग्र किनारे तक ठूस कर इस तरह भरे हों कि न उन्हें अग्नि जला सकती हों, [न उन्हें वायु हर सकती हो, जो न कुत्थित हो सकते हों, न विध्वंस हो सकते हों,] न पूतिभाव - सड़न गलन को प्राप्त हो सकते हों। उसमें से सौ सौ वर्ष के बाद एक एक बालाग्र निकालने से वह पल्य [ जितने काल में क्षीण, नीरज, निर्मल, निष्ठित, निर्लेप, अपहृत और विशुद्ध होगा उतने] काल को पल्योपम कहते हैं। ऐसे कोटाकोटि पल्योपम काल को जब दस गुना किया जाता है तो एक सागरोपम होता है। इस सागरोपम के प्रमाण से चार कोटाकोटि सागरोपम काल का एक सुषमसुषमा, आरा तीन कोटाकोटि सागरोपम काल का एक सुषमदुःषमा, ४२ हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम काल का एक दुःषमसुषमा, इक्कीस हजार वर्ष का दुषमा, इक्कीस हजार वर्ष का दुःषमदुःषमा आरा होता है। इन छहों आरों के समुदाय-काल को अवसर्पिणी कहते हैं। फिर इक्कीस हजार वर्ष का दुःषमदुःषमा, इक्कीस हजार वर्ष का दुःषमा ४२ हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का [दुःषम- सुषमा, दो कोटाकोटि सागरोपम का सुषमदुःषमा, तीन कोटाकोटि सागरोपम का] सुषमा और चार कोटाकोटि सागरोपम का सुषमासुषमा आरा होता है। इन छः आरों के समुदाय को उत्सर्पिणी काल कहते हैं। दस कोटाकोटि सागरोपम काल की एक अवसर्पिणी दस कोटाकोटि सागरोपम काल की एक अवसर्पिणी होती है। बीस कोटिकोटि सागरोपम काल का अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल चक्र होता है ।"
२०. अनन्त काल-चक्र का पुद्गल - परावर्त होता है । ( गा० ३८ ) :
गाथा ३६-३७ में 'समय' से लेकर 'पुद्गल परावर्त' तक के काल के भेदों का वर्णन किया गया है। स्वामीजी कहते हैं-काल के ये भेद शाश्वत हैं। अतीत में काल यही भेद थे। आगामी काल में उसके यही भेद होंगे। वर्तमान काल हमेशा एक समय रूप होता
है ।
१. भगवती ६.७
२. भगवती १२.४ । पुद्गल के साथ परिवर्त-परमाणुओं के मिलने को पुद्गल परिवर्त कहते हैं। ऐसे परिवर्त में जो काल लगता है वह यह काल है ।