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नव पदार्थ
जीव द्रव्य के स्वरूप वर्णन में जीव को शरीर-व्याप्त बताया गया है (पृ० ३६ (२३))। जिस तरह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि लोक-प्रमाण और आकाशास्तिकाय लोकालोक-प्रमाण है उसी प्रकार जीवास्तिकाय शरीर-प्रमाण है। कह सकते हैं कि आत्मा शरीर में धूप और छाया की तरह विस्तीर्ण और संलग्न रूप से व्याप्त पदार्थ है।
इस अपेक्षा से पुद्गल और काल के स्वरूप पृथ्क हैं। उसका विवेचन बाद में किया जायगा।
१२. धर्मास्तिकाय आदि के माप का आधार परमाणु है (गा० १८) :
हमने टिप्पणी १० (पृ० ८० अनु० २) में कहा है कि पुद्गल का चौथा भेद परमाणु होता है। प्रदेश अविभक्त संलग्न सूक्ष्मतम अंश होता है। परमाणु पुद्गल का वह सूक्ष्मतम अंश है जो उस से बिछुड़ कर अकेला-जुदा हो गया हो। पुद्गल का विभक्त सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अंतिम अविभाज्य खण्ड परमाणु है। सुतीक्ष्ण शस्त्र से भी जिसका छेदन-भेदन नहीं किया जा सकता वह परमाणु है। इसे सिद्धों-केवलियों ने सर्व प्रमाण का आदि भूत प्रमाण कहा है। यह सूक्ष्मतम परमाणु ही धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के माप का आधार है और उसीसे उनके प्रदेशों की संख्या का परिमाण निकाला गया है।
१३. धर्मादि की प्रदेश-संख्या (गा० १९-२०) :
प्रदेश की परिभाषा इस रूप में मिलती है-"जितनी आकाश अविभागी पुद्गल-परमाणु से रोका जाय उसे ही समस्त परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो।"
धर्मादि द्रव्यों की प्रदेश-संख्या क्रमशः असंख्यात आदि कही गई है। वह इसी आधार पर कि द्रव्य आकाश के उपर्युक्त कितने प्रदेशों को रोकता है।
दूसरे शब्दों में परमाणु के बराबर आकाश स्थान को प्रदेश कहा जाता है। आकाश के प्रदेश परमाणुओं के माप से अनन्त हैं। इसी तरह धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य के प्रदेश
१. भगवती ६.७ : सत्थेण सुतिक्खेण वि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सक्का, तं परमाणु सिद्धा ... वयंति आई पमाणाणं २. द्रव्यसंग्रह : २७
जावदियं आयासं अदिमागणपुग्गलाणुबट्ठद्धं । तं सु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ।।