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अजीव पदार्थ : टिप्पणी ८
हैं। लोक इनसे व्यापत हैं। और ये लोक में फैले हुए हैं-लोकावगाढ़-लोक-व्यापी हैं।
___ आचार्य कुन्दकुन्द ने धर्मास्तिकाय के स्वरूप का विवेचन करते हुए उसे “लोगोगाढं पुढं पिहुलम्" कहा है। पृथुल का अर्थ है स्वभाव से ही सर्वत्र विस्तृत-"स्वभावादेव सर्वतो विस्तृतत्वात्पृथुलः ।" पृथुल शब्द पर टीका करते हुए जयंसेनाचार्य लिखते हैं-"पृथुलोऽनाद्यंतरूपेण स्वभावविस्तीर्णः न च केवलिसमुद्धाते जीवप्रदेशवल्लोके वस्त्रादिप्रदेशविस्तारवद्वा पुनरिदानी विस्तीर्णः ।" इसका अर्थ है : जीव-प्रदेश समुद्घात के समय ही लोक-प्रामण विस्तीर्ण होते हैं पर धर्मास्तिकाय अनादि अनन्त काल से अपने स्वभाव से ही लोक में विस्तृत है। उसका विस्तार वस्त्र की तरह सादि सान्त और एक देश रूप नहीं वरन् स्वभावतः समूचे लोक में अनादि अनन्त रूप से है।
(२) निष्क्रिय का अर्थ है गति का अभाव । आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-"जीव द्रव्य पुद्गल द्रव्य निमित्तभूत पर द्रव्य की सहायता से क्रियावंत होते हैं। शेष के जो चार द्रव्य हैं वे क्रियावंत नहीं हैं। जीव द्रव्य पुद्गल का निमित्त पाकर क्रियावंत होते हैं और पुद्गल स्कंध निश्चय ही काल द्रव्य के निमित्त से क्रियावंत है। इसका भावार्थ है-एक प्रदेश से प्रदेशान्तर में गमन करने का नाम क्रिया है। षट् द्रव्यों में से जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य प्रदेश से प्रदेशान्तर में गमन करते हैं और कंप रूप अवस्था को भी धारण करते हैं, इस कारण ये क्रियावन्त कहे जाते हैं। शेष चार द्रव्य निष्क्रिय, निष्कम्प हैं। जीव द्रव्य की क्रिया के बहिरंग निमित्त कर्म नोकर्म रूप पुद्गल हैं। इनकी ही संगति से जीव अनेक विकार रूप होकर परिणमन करता है। और जब काल पाकर पुद्गलमय कर्म नोकर्म का अभाव होता है तब जीव सहज निष्क्रिय निष्कम्प स्वाभाविक अवस्थारूप सिद्ध पर्याय की धारण करता है। इस कारण पुद्गल का निमित्त पाकर जीव क्रियावान् होता है। और काल का बहिरंग कारण पाकर पुद्गल अनेक स्कन्ध रूप विकार को धारण करता है। इस कारण काल पुद्गल की क्रिया का सहकारी कारण है। परन्तु इतना
१. ठाणाङ्ग : ४.३. ३३३ :
चउहिं : अत्थिकाएहिं लागे फुडे पं० तं०-धम्मत्थिकाएणं अधम्मकत्थिकाएणं जीवत्थिकाएणं
पुग्गलस्थिकाएणं २. पञ्चास्तिाय : १.८३ ३. पञ्चास्तिाय : १.८३ की अमृतचन्द्रीय टीका ४. वही ५. पञ्चास्तिकाय : १.६८
जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा। पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु।।