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तृतीयः सर्गः
मध्यदेशे जिनेशेन धर्मतीर्थे प्रवर्तिते । सर्वेष्वपि च देशेषु तीर्थमोहो न्यवर्तत ।।। 'आशयाः स्वच्छता जग्मुर्जिनेन्द्रोदयदर्शनात् । लोकेऽगस्त्योदये यद्वत् कलुषाश्च जलाशयाः ॥२॥ काशिकौशलकौशल्यकुसंध्यास्वष्टनामकान् । साल्वत्रिगर्तपञ्चालभद्रकारपटच्चरान् ॥३॥ मौकमत्स्यकनीयांश्च सूरसेनवृकार्थपान् । मध्यदेशानिमान् मान्यान् कलिङ्गकुरुजालान् ॥४॥ कैकेयाऽऽत्रेयकाम्बोजबाह्रीकयवन श्रुतीन् । सिन्धुगान्धारसौवीरसूरमीरुदशेरुकान् ॥५|| वाडवानभरद्वाजक्वाथतोयान् समुद्रजान् । उत्तरास्तार्णकामांश्च देशान् प्रच्छालनामकान् ।।६।। धर्मेणायोजयद् वीरो विहरन् विभवान्वितः । यथैव भगवान् पूर्व वृषभो भव्यवत्सलः ॥७॥ द्योतमाने जिनादित्ये केवलोद्योतभास्करे । क्व लीना इति न ज्ञातास्तीर्थखद्योतसंपदः ॥८॥ सर्वज्ञवीतरागस्य वपुर्वचनवैभवम् । तदोपलभमानानां सक्ति मत्परोक्तिपु ।।९।। नित्यं निर्मलनिःस्वेदं गोक्षारनिभशोणितम् । दिव्यसंहतिसंस्थानरूपसौरभलक्षणम् ।।१०॥ अनन्तवीर्य पर्याप्त स्वहितप्रियभाषणम् । स्वाभाविकपवित्रात्मदशातिशयशोभितम् ॥११॥ निमेपोन्मेषविगमप्रशान्तायतलोचनम् । सुव्यवस्थितसुस्निग्धनखकेशोपशोमितम् ॥१२॥
अथानन्तर श्री वर्धमान जिनेन्द्रके द्वारा मध्यदेशके धर्म तीर्थकी प्रवृत्ति होनेपर समस्त देशोंमें तीर्थ विषयक मोह दूर हो गया अर्थात् धर्मके विषयमें लोगों का जो अज्ञान था वह दूर हो गया ॥१॥ जिस प्रकार संसारमें अगस्त्य नक्षत्रका उदय होनेपर मलिन तालाब स्वच्छताको प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार जिनेन्द्रदेवका उदय होनेपर लोगोंके कलुषित हृदय स्वच्छताको प्राप्त हो गये ।।२।। जिस प्रकार पहले भव्यवत्सल भगवान् ऋषभदेवने अनेक देशोंमें विहार कर उन्हें धर्मसे यक्त किया था उसी प्रकार भगवान महावीरने भी वैभवके साथ विहार कर मध्यके काशी, कौशल. कौशल्य, कुसन्ध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगतं, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्त्य, कनीय, सूरसेन और वृकार्थक, समुद्रतटके कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कम्बोज, बाह्रोक, यवन, सिन्ध, गान्धार, सौवीर, सूर, भीरु, दरोरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोष, तथा उत्तर दिशाके ताणं, कार्ण और प्रच्छाल आदि देशों को धर्मसे युक्त किया था ।।३-७|| केवल ज्ञानरूपी प्रभाको फैलानेवाले श्री जिनेन्द्ररूपी सूर्य के प्रकाशमान होनेपर नाना मिथ्याधर्मरूपी जुगनुओंके ठाट-बाट कहाँ विलीन हो गये थे यह नहीं जान पड़ता था ।।८। उस समय जिन लोगोंने श्री वर्धमान जिनेन्द्रके शरीरका साक्षात् दर्शन किया था, उनकी दिव्यध्वनिका साक्षात् श्रवण किया था तथा उनके वैभवका साक्षात अवलोकन किया था तथा उनकी अन्य पुरुषों के वचनोंमें आसक्ति नहीं रह गयी थी ||२|| निरन्तर मलमूत्रसे रहित शरीर, स्वेदका अभाव, गो दुग्धके समान सफेद रुधिर, वज्रवृषभनाराचसंहनन, समचतुरस्रसंस्थान, अत्यन्त सुन्दर रूप, अतिशय सुगन्धता, एक हजार आठ लक्षण युक्त शरीर, अनन्त बल और हितमित प्रिय वचन इन पवित्र दस अतिशयोंसे तो वे जन्मसे ही सुशोभित थे,परन्तु केवलज्ञान होनेपर निमेष उन्मेषसे रहित अत्यन्त शान्त विशाल लोचन, अत्यन्त व्यवस्थित अर्थात् वृद्धिसे रहित कान्तिपूर्ण नख और केशोंसे शोभित होना, कवलाहारका अभाव, वृद्धावस्थाका न होना, शरीरकी छाया नहीं पड़ना, परम कान्तियुक्त मुखका एक होनेपर भी १. चित्तानि । २. समवसरणलक्ष्मोयुक्तः । ३. मिथ्यात्वतीर्थखद्योतलक्ष्म्यः । ४. शक्ति क., म., ग.। ५. गोदुग्धसदृशरक्तम् ।
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