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द्वितीयः सर्गः
आकीर्णमेव तैनित्यं सभामण्डलमहतः । हीयते वा कदा स्फीतैर्भानुभिर्भानुमण्डलम् ॥१४४॥ नोदयास्तमितं तत्र ज्ञायते ब्रधनमण्डलम् । धर्मचक्रप्रमाचक्रप्रभामण्डलरोचिषा ॥१४५॥ तत्र तीर्थकरः कुर्वन् प्रत्यहं धर्मदेशनम् । सेवितः श्रेणिकेनास्य न हि तृप्तिस्त्रिवर्गजा ॥१४६॥ गौतमं च समासाद्य तदा तदुपदेशतः । सर्वानुयोगमागेषु प्रवीणः स नृपोऽभवत् ॥१४॥ ततो जिनगृहैस्तुङ्गैः राज्ञा राजगृहं पुरम् । कृतमन्तर्बहिर्याप्तमजनमहिमोत्सवैः ।।१४८।। कृतः सामन्तसंघातैमहामन्त्रिपुरोहितः । प्रजाभिर्जिनगेहाढयो मगधो विषयोऽखिलः ॥१४९॥ पुरेषु ग्रामघोषेषु पर्वतानेष्वदृश्यत । नदीतटवनान्तेषु तदा जिनगृहावली ॥१५॥
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः तिष्ठन्नेव महोदये विघटयन् मोहान्धकारोन्नति प्राग्देशप्रजया विधाय मगधादेशं प्रबुद्धप्रजम् । तद्भूत्या पृथुमध्यदेशमगमन्मध्यन्दिनश्रीधरं
मिथ्याज्ञान हिमान्तकृजिनरविर्बोधप्रभामण्डलः ॥१५॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती धर्मतीर्थप्रवत्तंनो नाम द्वितीयः सर्गः ॥२॥
उस समय वह सभा भीतर प्रवेश करते तथा बाहर निकलते हुए जन-समूहोंसे क्षुभित हो रही थी॥१४३।। अहंन्त भगवान्का वह सभामण्डल मनुष्योंसे सदा व्याप्त ही दिखाई देता था सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यमण्डल अपनी विस्तृत किरणोंसे कब रहित होता है ? अर्थात् कभी नहीं ॥१४४॥ वहाँ धर्मचक्र और भामण्डलको कान्तिके कारण सूर्यबिम्बके उदय-अस्तका पता नहीं चलता था ॥१४५।। वहाँ विपुलाचलपर धर्मोपदेश करनेवाले श्री तीर्थंकर भगवान्की राजा श्रेणिक प्रतिदिन सेवा करता था अर्थात् वह प्रतिदिन आकर उनका धर्मोपदेश श्रवण करता था सो ठीक ही है क्योंकि त्रिवर्गके सेवनसे किसीको तृप्ति नहीं होती ॥१४६।। वह राजा श्रेणिक, गौतम गणधरको पाकर उनके उपदेशसे सब अनुयोगोंमें प्रवीण हो गया ॥१४७|| तदनन्तर राजा श्रेणिकने जिनमें निरन्तर महिमा और उत्सव होते रहते थे ऐसे ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिरोंसे राजगृह नगरको भीतर और बाहर व्याप्त कर दिया ॥१४८।। राजाके भक्त सामन्त, महामन्त्री, पुरोहित तथा प्रजाके अन्य लोगोंने समस्त मगध देशको जिनमन्दिरोंसे युक्त कर दिया ॥१४९।। वहाँ नगर, ग्राम, घोष, पर्वतोंके अग्रभाग, नदियोंके तट और वनोंके अन्त प्रदेशोंमें-सर्वत्र जिन मन्दिर ही जिनमन्दिर दिखाई देते थे ।।१५०।। इस प्रकार जो महान् अभ्युदयमें स्थित थे, मोहरूपी अन्धकारको उन्नतिको नष्ट कर रहे थे, मिथ्याज्ञानरूपी हिमका अन्त करनेवाले थे तथा ज्ञानरूपी प्रभामण्डलसे सहित थे ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्ररूपी सूर्यने पूर्व देशको प्रजाके साथ-साथ मगध देशको प्रजाको प्रबुद्ध कर मध्याह्नको शोभा धारण करनेवाले विशाल मध्य देशकी ओर उसी पूर्वोक्त विभूतिके साथ गमन किया ।।१५१।।
इस प्रकार जिसमें भगवान् अरिष्टनेमिके पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे श्रीजिनसेनाचार्य
रचित हरिवंशपुराणमें 'धर्मतीर्थ प्रवर्तन' नामका दूसरा सर्ग समाप्त हुआ ॥२॥
१. किरणः । २. सूर्यमण्डलम् । ३. देशः।
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