Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 19 Pragyapana Mool evam Vrutti Part 2
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागमनमो नमो निम्मलदसणस्सा 3. पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमःम भाग सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि आगम १५ "प्रज्ञापना” मूलं एवं वृत्ति: [2] मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा HOSHHot ~2~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता । Pामानात पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 ~34 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਹਾਸ ਰਸ ਨੂੰ ਉਸ ਦੀ ਗਲ ਹੈ ਵੀ ਹਾਸ वाचना शताब्दी वर्ष काम न ਕਲਾ ਸ ਸ ੜ ਸ਼ ਰ ਰਸਤੇ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-१९] श्री प्रज्ञापना (उपांगसूत्रम्-१५/२) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "प्रज्ञापना" मूलं एवं वृत्ति: (भाग-२) मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः] [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ R 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१८ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट': ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | . सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... . -.. -.. -.. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। *मुनि दीपरत्नसागर... -.. -.. -.. -.. -.. ~7~ . . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। - मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका : ३४९ + २३१ । प्रज्ञापना (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम - १ दीप-अनुक्रमा: ६२२ ३५३ ०४१ ०६० १७१ मूलाक: विषय: | पृष्ठांक: । । मूलांक: । विषय: | पृष्ठांक: मूलांक: विषय: | पृष्ठांक: ००१ | पद ०१- प्रज्ञापना | पद ०३- बहवक्तव्यता (वर्तते) | पद ०७-उच्छवास: १९२ | पद ०२- स्थानं --दवार २०- संजी ३५४ | पद ०८- संज्ञा ०४६ २५७ | पद ०३- बहुवक्तव्यता --द्वार २१- भवसिद्धिक: ३५६ | पद ०९- योनि: ०५२ --द्वार ०१- दिशा -द्वार २२- अस्तिकाय: ३६१ पद १०- चरिम: |--द्वार ०२- गतिः -वार २३- चरम: --द्वार ०३- इन्द्रियं --दवार २४- जीव: ३७५ पद ११- भाषा ०९५ --- --द्वार ०४- काय: |--द्वार २५-क्षेत्रं ४०० पद १२- शरीरं १४० --द्वार ०५- योग: -द्वार २६- बन्धं ४०५ | पद १३. परिणाम: | --द्वार ०६- वेदः |--द्वार २७- पद्गल, दिशा ४१३ पद १४- कषाय: १८२ | --द्वार ०७- कषाय: आदि अल्पबहत्त्वं |--द्वार ०८- लेश्या ४१९ पद १५- इन्द्रियं १८८ |--द्वार ०९- द्रष्टि : २९८ पद ०४- स्थितिः --उद्देशक: ०१- नामादि १८९ --दवार १०- ज्ञानं ३०७ | पद ०५- विशेष --उद्देशक: ०२- उपचयादि २२० |--द्वार ११- अज्ञानं ३२६ पद ०६- व्युत्क्रान्ति: पद १६- प्रयोग: २३८ --दवार १२- दर्शनं |--द्वार ०१- द्वादश: --द्वार १३- संयत: --द्वार ०२- चतुर्विंशति: | पद १७- लेश्या २६३ --दवार १४- उपयोग: --दवार ०३- सांतरं --उद्देशक: ०१- समाहारादि। २६४ --दवार १५- आहारक: --द्वार ०४- एकसमयं |--उद्देशक: ०२- षडभेदाः २९० --दवार १६- भाषक: --दवार ०५- आगति: --उद्देशक: ०३- उपपातादि । ३०७ --द्वार १७- परित्त: --द्वार ०६- उद्वर्तना/गति: --उद्देशक: ०४- परिणामादि ३१९ | --दवार १८- पर्याप्त: | --दवार ०७- परभवाय: ०३६ --उद्देशक: ०५- वर्णादि | ३४४ --द्वार १९- सूक्ष्म -द्वार ०८- आकर्ष:/आयुबंध: । ०३७ --उद्देशक: ०६- मनुष्यापेक्षया | ३४८ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ० ४३८ ० ० ० ० ० ० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: ३४९ + २३१ प्रज्ञापना (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम - २ दीप-अनुक्रमा: ६२२ पष्ठाक: ३९० मूलांक: विषय: पृष्ठांक: मूलांक: विषय: पृष्ठांक: मूलाक: विषय: ४४१ | पद १८- कायस्थिति: ३५१ | पद १८- बहवक्तव्यता (वर्तते) पद २८-आहाराउद्देशक:२-वर्तते --दवार ०१- जीव: ३५१ --दवार २१- अस्तिकाय: । --दवार ०२- भवसिद्धिकत्वं | --द्वार ०२- गति: ३५१ |--द्वार २२- चरिम: -द्वार ०३- संज्ञी --द्वार ०३- इन्द्रिय ३५७ -द्वार ०४- लेश्या --दवार ०४- काय: ३६० ४९५ | पद १९- सम्यकत्वं ३९४ -द्वार ०५-द्रष्टि : --दवार ०५- योग: ३६८ ४९६ | पद २०- अंतक्रिया ३९५ --दवार ०६- संयत: |--द्वार ०६- वेदं ३६९ ५०९ | पद २१- अवगाहनासंस्थान/शरीर | ४१८ -द्वार ०७- कषाय: --द्वार ०७- कषाय: ३७४ ५२५ | पद २२- क्रिया ४७३ -द्वार ०८- ज्ञानं |--द्वार ०८- लेश्या ३७६ --द्वार ०९- योग: |--द्वार ०९- सम्यकत्वं ३७८ ५३४ | पद २३- कर्मप्रकृत्ति : -द्वार १०- उपयोग: --- --दवार १०- ज्ञानं ३८१ | --उद्देशक: ०१- अष्टविधा -वार् ११- वेदः ---- --उद्देशक: ०२-भेद-प्रभेदा: -द्वार १२- शरीरं | -दवार ११- दर्शनं ३८३ -दवार १३- पर्याप्ति: |--दवार १२- संयत: ३८६ ५४६ पद २४- कर्मबन्धं --दवार १३- उपयोग: ૩૮૬ ५४७ पद २५- कर्मवेदनं ५७२ | पद २९- उपयोग: --द्वार १४- आहार: ३८८ ५४८ पद २६- कर्मवेदबन्धं ५७३ | पद ३०- पश्यता --दवार १५- भाषक: ५४९ पद २४- कर्मवेदवेदनं ५७५ पद ३१- संज्ञी --द्वार १६- परित: ३९० पद ३२- संयत: --वार १७- पर्याप्त: ५७० | पद २८- आहार: ५७९ | पद ३३-अवधि: --द्वार १८- सूक्ष्म ३९० --उद्देशक: ०१- सचित्तादि ५८४ | पद ३४- प्रविचारणा |--दवार १९-संज्ञी | ३९० ।। --- --- --उद्देशक: ०२ ५९५ | पद ३५- वेदना --द्वार २०- भवसिद्धिक: । ३९० । -द्वार ०१- आहारकत्वं ५९९-६२२ | पद ३६- समुद्घात: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ३९० ५७७ ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['प्रज्ञापना' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “प्रज्ञापना सूत्रम्" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दूसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खदने तो कछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर पद, उद्देश, द्वार, और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा पद, उद्देश, द्वार एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हए ही है. इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक पद, उद्देश, द्वार और मूल लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। अभी तो ये Jaln_e_llbrary.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ........मुनि दीपरत्नसागर. ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [६], ---------------उद्देशक: [-1, -------------- दारं [१], -------------- मूलं [१२२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२२] प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती. ॥२०॥ Desese गाथा अथ षष्ठमुपपातोद्वर्तनापदं । ६उपपा तोद्वत्तेनातदेवं व्याख्यातं पञ्चमं पदम् ॥ सम्प्रति पष्ठमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे औदयिकक्षायोपशमिकक्षायिकभावाश्रयं पर्यायपरिमाणावधारणं प्रतिपादितं, इह त्वौदयिकक्षायोपशमिकविषयाः सत्वानामुपपातविरहादयश्चिन्त्यन्ते, तत्रादावियमधिकारसङ्ग्रहणिगाथा वारस चउवीसाई सअंतरं एगसमय कत्तो य । उबट्टण परभवियाउयं च अदेव आगरिसा ॥१॥ निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा । जहन्नेणं एक समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । तिरियगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । मणुयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । देवगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं बारस मुटुत्ता । सिद्धिगई णं मंते ! केवइयं कालं विरहिया सिझणाए पनचा?, गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं छम्मासा । निरयगई णं भंते ! NIR०४॥ केवइयं कालं विरहिया उदहणाए पन्नचा, गोयमा! जहन्नेणं एक समयं उकोसेणं चारस मुहत्ता । तिरियगई णं भंते ! I केवइयं कालं विरहिया उबट्टणीए पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । मणुयगई णं मंते ! दीप अनुक्रम [३२६-३२७] अथ पद (०६) "व्युत्क्रान्ति/ (उपपात-उद्वर्तना)" आरभ्यते "अस्य 'पदस्य' मूलगाथा-दत्त नाम 'व्युत्क्रान्ति' अस्ति, परन्तु वृत्तिकारेण अत्र पदारम्भे उपपात-उद्वर्तना लिखितं, तत्कारणात् मया वे अपि नाम्ने अत्र लिखितं ~ 12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२२] + गाथा दीप अनुक्रम [३२६ -३२७] पदं [६], • उद्देशक: [ - ], ------------- दारं [१], -------------- - मूलं [१२२ ] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - harयं कालं विरहिया उट्टणाए पत्ता १, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं बारस मुहुत्ता । देवगई णं भंते ! hari कालं विरहिया उबट्टणाए पत्रत्ता १, गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं वारस मुहुत्ता । दारं । (सूत्रं १२२) 'बारस चउवीसाई' इत्यादि, प्रथमं गतिषु सामान्यतः उपपातविरहस्य उद्वर्त्तनाविरहस्य च द्वादश मुहूर्त्ताः प्रमाणं वक्तव्यं, तदनन्तरं नैरयिकादिषु भेदेषु उपपातविरहस्योद्वर्त्तनाविरहस्य च चतुर्विंशतिर्मुहूर्त्ताः गतिषु प्रत्येकमादौ वक्तव्याः, ततः 'संतरं 'ति सान्तरं नैरविकादयः उत्पद्यन्ते निरन्तरं चेति वक्तव्यं, तदनन्तरमेकसमयेन नैरयिकादयः प्रत्येकं कति उत्पद्यन्ते कति बोद्वर्त्तन्ते इति चिन्तनीयं, ततः कुत उत्पद्यन्ते नारकादय इति चिन्त्यते, तत 'उच्चदृणा' इति नैरयिकादय उद्वृत्ताः सन्तः कुत्रोत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं, तदनन्तरं कतिभागावशेषेऽनुभूयमानभवायुपि जीवाः पारभविकमायुर्वनन्तीति वक्तव्यं, तथा कतिभिराकर्षैरुत्कर्षतः आयुर्वन्धका इति चिन्तायां अष्टावाकर्षा वक्तव्याः । एष सङ्ग्रहणिगाथासङ्क्षेपार्थः । एनमेव क्रमेण विवरीपुराह - 'निरयगई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववारणं पन्नत्ता' इत्यादि, निरयगतिनाम - नरकगतिनामकम्मदियजनितो जीवस्यौदयिको भावः, स चैकः सप्तपृथिवीव्यापी चेति एकवचनं, सप्तानां च पृथिवीनां परिग्रहः, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्तेति गुर्यामन्त्रणे परमकल्याणयोगिन् ! 'केवइयं' ति कियन्तं कालं विरहिता - शून्या 'उपपातेन' उपपतनमुपपातः तदन्यगतिकानां सत्त्वानां नारकत्वेनोत्पाद इति भावः तेन 'प्रज्ञता' प्ररूपिता भगवताऽन्यैश्च ऋषभादिभिस्तीर्थकरैः, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह - Ja Eucation Internation षष्ठं पदे द्वार -(१) "द्वादश" For Parts Only ~13~ waryra Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [६], ---------------उद्देशक: [-], -------------- दारं [१], -------------- मूलं [१२२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक याः मलयवृत्ती. [१२२] ॥२०५॥ गतिषु सू. गाथा गौतम ! जघन्यत एक समयं यावत् उत्कर्षतो द्वादश मुहूर्तान् , अत्र मुग्धप्रेरक आह-नन्वेकस्यामपि पृथिव्यामग्रेश६ उपपा द्वादशमुहर्तप्रमाण उपपातविरहो न वक्ष्यते, चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिप्रमाणस्य वक्ष्यमाणत्वात् , ततः कथं सर्वपृथिवी- तोद्वर्तनासमुदायेऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणं, 'प्रत्येकमभावे समुदायेऽ(प्य)भावादिति न्यायस्य श्रवणात् , तदयुक्तं, वस्तुतत्वा- पदे उपपापरिज्ञानात् , यद्यपि हि नाम रत्नप्रभादिष्वेकैकनिर्धारणेन चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिप्रमाण उपपातविरहो वक्ष्यते तथापि |ते विरहो यदा ससापि पृथिवीः समुदिताः अपेक्ष्योपपातविरह श्चिन्त्यते तदा स द्वादशमुहूर्तप्रमाण एव लभ्यते, द्वादशमुहूर्त्तानन्तरं अवश्यमन्यतरस्यां पृथिव्यामुत्पादसंभवात् , तथा केवलवेदसोपलब्धेः, यस्तु प्रत्येकमभावे समुदायेऽप्यभाय' इति न्यायः १२२रत्न प्रभादिभेस कारणकार्यधर्मानुगमचिन्तायां नान्यत्रेत्यदोषः, यथा नरकगतिर्द्वादश मुहूर्तानुत्कर्षतः उपपातेन विरहिता एवं तिर्यग्मनुष्यदेवगतयोऽपि, सिद्धिगतिस्तूत्कर्षतः षड्र मासान् उपपातेन विरहिता, एवमुद्वर्तनाऽपि, नवरं सिद्धा नोद्वर्त्तन्ते, तेषां साद्यपर्यवसितकालतया शाश्वतत्वादिति सिद्धिरुद्वर्त्तनया विरहिता वक्तव्या । गतं प्रथमं द्वारम् , इदानीं चतुर्विंशतिरिति द्वितीयं द्वारमभिधित्सुराहरयणप्पभापुढविनेरझ्या णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समय उक्कोसेणं चउच्चीसं मुहुत्ता, सक्करप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं एगं २०५॥ समयं उक्कोसेणं सचराइंदियाणि, वालुयप्पभापुढविनेरइया गं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवचारणं पन्नचा?, गोयमा! दीप अनुक्रम [३२६-३२७] षष्ठं पदे द्वार-(२) "चतुर्विंशति" ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२], -------------- मूलं [१२३-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३ -१२४] जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं अद्भमासं, पंकप्पभापुढविनेरड्या णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवयाएणं पता, गोयमा! जहणं एगं समयं उकोसेणं मासं, धूमप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं दो मासा, तमापुढविनेरड्या ण भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं चत्तारि मासा, अहेसचमापुडविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएण पन्नता, गोयमा! जहनेणं एग समयं उक्कोसेणं छम्मासा, असुरकुमारा गं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं चउनीसं मुहुत्ता, नागकुमारा पं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं चञ्चीसं मुहुत्ता, एवं सुवनकुमाराणं विज्जुकुमाराणं अग्गिकुमाराणं दीवकुमाराणं दिसाकुमाराणं उदहिकुमाराणं वाउकुमारार्ण थणियकुमाराणं पत्तेयं जहनेणं एग समय उक्कोसेणं चउबीसं मुहुत्ता, पुढविकाइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता ?, गोयमा! अणुसमयमविरहियं उववाएणं पनत्ता, एवं आउकाइयाणवि तेउकाइयाणवि वाउकाइयाणवि वणस्सइकाइयाणवि अणुसमयं अविरहिया उववाएगं पन्नत्ता । बेइंदिया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसणं अंतोमुहत्तं एवं तेइंदियचउरिदिया । समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता?, गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उकोसेणं अंतोमुहुर्त, गम्भवकतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्सा णं भंते ! केवइयं कालं विर दीप अनुक्रम [३२८-३२९] cer ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२३ -१२४] दीप अनुक्रम [३२८ -३२९] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [६], ------- उद्देशकः [--], -------------- दारं [२], [------- - मूलं [१२३-१२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥२०६ ॥ sentatoesses हिया उचवाएणं पद्मत्ता ?, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं चरबीसं मुहुत्ता, गन्भवतियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेगं एगं समयं उकोसेणं वारस मुहुत्ता, वाणवंतराणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता, जोइसियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं चउवीसं मुहुत्ता, सोहम्मे कप्पे देवा णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवाएणं पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उकोसेणं चउवीसं मुहुत्ता, ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं चउक्तीसं मुहुत्ता, सगँकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एगं समयं उक्कोसेणं णव राईदियाई, माहिंदे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेगं एवं समयं उक्कोसेणं बारस राईदियाणं दस , बंगलो देवा पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं अद्धतेवीस राईदियाई, लंगदेवाणं पुच्छा, गोमा ! जहणं एवं समयं उकोसेणं पणतालीस राईदियाई, महासुकदेवाणं पुच्छा, गोषमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं असीई राईदियाई, सहस्सारे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं राईदियसयं, आणयदेवपुच्छा, गोमा ! नेणं एवं समयं उकोसेणं संखेज्जमासा, पाणयदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणं एवं समयं उकोसेण संखेजमासा, आरणदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं संखिजवासा, अच्चुयदेवाणं पुच्छा, गोमा ! जहणं एवं समयं उकोसेणं संखिज्जवासा, हिट्टिमगेविजाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं संखिञ्जाई वाससयाई, मज्झिमगेविञ्जाणं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उकोसेणं संखिजाई वाससहस्साई, उदरिमगेविजाणं पुच्छा, गोयमा ! जहोणं एवं समयं उक्कोसेणं संखिजाई वाससयसहस्सा, विजयवेजयंत जयंत अपराजितदेवाणं Eucation International For Penal Use Only ~16~ ६ उपपातोद्वर्त्तना पदे रत्नप्रभादिभेदे रुपपात विरहः सू. १२३ ॥ २०६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२], -------------- मूलं [१२३-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३ -१२४] पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एग समय उकोसेणं असंखेज कालं, सबसिद्धगदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणं एग समयं उकोसेणं पलिओवमस्स संखिजइभाग । सिद्धा पे भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिझणाए पन्नत्ता?, गोयमा जहनेणं एगं समयं उफोसेणं छम्मासा।। (सूत्रं १२३) रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उचट्टणाए पनत्ता, गोयमा ! जहरेण एग समय उक्कोसेणं चउनीसं मुहुत्ता, एवं सिद्धवजा उबट्टणावि भाणियवा जाव अणुचरोषवाइयत्ति, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणति अहिलावो कायचो । दारं ॥ (सूत्रं १२४) 'श्यणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उपवाएणं पन्नत्ता ?' इत्यादि पाठसिद्ध, नवरमत्रो-18 त्कर्षविपया इमाः संग्रहणिगाथा:-'चउयीसयं मुहुत्ता, सत्त य राईदियाई पक्खो य । मासो एको दुनि उ चउरोध छम्मास नरएसु ॥१॥ कमसो उकोसेणं चउबीसमुहुत्त भवणवासीसुं । अविरहिया पुढवाई विगलाणऽन्तोमुहुत् | तु॥२॥ [स]मुच्छिमतिरियपणिदिय एवं चिय गम्भ बारस मुहुत्ता । संमुच्छगम्भमणुया, कमसो चउवीस वारस || य॥३॥ पणजोइससोहम्मीसाणकप्प चउवीसई मुहुत्ता उ । कप्पे सर्णकुमारे दिवसा णव वीसई मुहुत्ता ॥४॥ माहिंदे राइंदिय वारस दस मुहुत्त बंभलोगम्मि । राईदिअद्धतेबीस लंतए होति पणयाला ॥५॥ महसुकमि असीई सहसारि सयं ततो उ कप्पदुगे । मासा संखेज्जा तह वासा संखेज उवरिदुगे ॥६॥ हिहिममज्झिमउपरिम। जहसंखं सयसहस्सलक्खाई। वासाणं विनेो उकोसेणं विरहकालो ॥७॥ कालो संखाईतो विजयाइनु चउसु | दीप अनुक्रम [३२८-३२९] ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ---------------उद्देशक: -], -------------- दारं [३], -------------- मूलं [१२५-१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५-१२६] प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती. ६ उपपातोद्वर्तनापदे ७द नाविरहःसू.२४ सान्तरेतरोपपातो ॥२०७॥ होइ नायचो । संखेजो पलस्स उ भागो सवठ्ठसिद्धमि ॥ ८॥ गतं द्वितीयं द्वारं । अधुना तृतीयद्वारमाह नेरइया णं भंते ! कि संतरं उबवजंति निरंतरं उववजंति ?, गोयमा! संतरपि उववजंति निरंतरपि उववजंति, तिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि संतरं उववअंति निरंतरं उबवजंति, मोयमा! संतरंपि उववअंति निरंतरपि उववअंति । मणुस्सा णं भंते ! कि संतरं उववअंति निरंतरं उववअंति?, गोयमा ! संतरपि उववजंति निरंतरंपि उववजति । देवाणं भंते ! कि संतरं उपवजति निरंतर उववज्जति ?, गोयमा ! संतरपि उववज्जति निरंतरपि उवबज्जति । रयणप्पभापुढविनेरहया णं भंते । किं संतरं उववजंति निरंतरं उववज्जति , गोयमा ! संतरपि उवयज्जति निरंतरपि उववज्जति एवं जाब अहेसत्तमाए संतरपि उववज्जति निरंतरंपि उववज्जति । असुरकुमारा णं देवा णं भंते ! किं संतरं उबवज्जति निरंतर उववजति ?, गोयमा ! संतरपि उववजति निरंतरपि उचवज्जति, एवं जाव थणियकुमाराणं संतरपि उवयजति निरंतरंपि उववअंति । पुढविकाइया णं भंते ! किं संतरं उववजंति निरंतरं उववञ्जति ?, गोयमा! नो संतरं उवयअंति निरंतरं उववअंति, एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं उववजंति निरंतरं उववअंति । बेइंदिया णं भंते ! किं संतरं उववअंति निरंतरं उववअंति ?, गोयमा ! संतरंपि उबवजंति निरंतरंपि उववजंति, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया । मणुस्सा णं भंते ! किं संतरं उववर्जति निरंतरं उववअंति', गोयमा ! संतरपि उववनंति निरंतरपि उववति । एवं वाणमंतरा जोइसिया सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदवंभलोयलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणचुयहिडिमगेविजगमज्झिमगेवि द्वर्त्तने दीप अनुक्रम [३३०-३३१] सू. १२५ सू.१२६ SeSCA ॥२०७॥ | षष्ठं पदे द्वार-(३) “सान्तर' ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ---------------उद्देशक: -], -------------- दारं [३], -------------- मूलं [१२५-१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५-१२६] eeeesercedese अगउपरिमगेविजगविजयवेजयंतजयंतअपराजितसबद्दसिद्धदेवा य संतरपि उबवजंति निरंतरपि उववजंति । सिद्धाणं भंते! किं संतरं सिझंति निरंतरं सिझंति ?, गोयमा ! संतरंपि सिझंति निरंतरपि सिझंति ।। (सूत्रं १२५) नेरइया णं भंते! किं संतरं उपहति निरंतरं उबट्टति ?, गोयमा ! संतरंपि उबदृति निरंतरपि उबट्टति, एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उबट्टणापि सिद्धवजा भाणियबा जाव बेमाणिया, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणति अहिलाबो कायो । दारं ॥ (मत्र १२६) 'नेरहया णं भंते ! किं संतरं उववजंति' इत्यादि, पाठसिद्धं, प्रागुक्तसूत्राथोंनुसारेण भावार्थस्य सुप्रतीतत्वात् । गतं तृतीयं द्वारं । अधुना चतुर्थमाह नेरइया णं भंते ! एगसमएणं केवइया उबवअंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि वा उफोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववज्जति एवं जाव अहेसत्तमाए । असुरकुमारा णं भंते ! एगसमएणं केवइया उववजंति, गोयमा ! जहनेणं एको वा दो वा तिनि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा, एवं नागकुमारा जाव थणियकुमारावि भाणियबा । पुढविकाइया णे भंते ! एगसमएणं केवइया उववज्जति', गोयमा ! अणुसमयं अविरहियं असंखेजा उबवजंति, एवं जाव वाउकाइया । वणस्सइकाइया णं भंते ! एगसमएणं केवइया उववज्जति ?, गोयमा! सट्टाणुववाइयं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया अणंता उववजति, परठाणुववाइयं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया असंखेजा उवयजति । बेइंदिया ण भंते ! केवइया एगसमएणं उववजंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगो बा दो वा तिन्निवा उकोसेणं संखेजा वा असंखेजावा, एवं तेइंदिया चउरि दीप अनुक्रम [३३०-३३१] B षष्ठं पदे द्वार-(४) "एकसमय" ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-1,-------------- दारं [४], -------------- मूलं [१२७-१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Saedeoe प्रत सूत्रांक [१२७-१२८] प्रज्ञापना- दिया । समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया समुच्छिममणुस्सा वाणमंतरजोइसिययाः मल- सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदवंभलोयलंतगमहामुकसहस्सारकप्पदेवा ते जहा नेरइया, गम्भवकं तियमणूसआणयपाणयआरणय. वृत्ती. अचुअगेवेजगअणुत्तरोववाइया य एते जहन्नेणं इको वा दोवा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखिजा [वा] उबवजति । सिद्धा णं भंते! एगसमएणं केवड्या सिझंति , गोयमा ! जहन्नेणं एक वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं अट्ठसयं ।। (मूत्रं १२७) नेरइया ण २०८॥ भंते ! एगसमएणं केवइया उबदृति !, गोयमा ! जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा उबटुंति, एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उच्वट्टणावि भाणियत्वा जाय अणुत्तरोववाइया, गबरं जोइसियवेमाणियाणं चयणेणं अहिलावो कायवो । दारं । (मूत्रं १२८) 'नेरइया णं भंते ! एगसमइएणं केवइया उपवति ' इत्यादि. निगदसिद्ध, नवरं वनस्पतिसूत्र 'सट्टाणुषवार्य पडुच अणुसमयमविरहिया अनंता' इति खस्थान-वनस्पतीनां वनस्पतित्वं, ततोऽयम-यघनन्तरभववनस्पतय एव वनस्पतित्पद्यमानाचिन्त्यन्ते तदा प्रतिसमयमविरहितं सर्वकालमनन्ता विज्ञेयाः, प्रतिनिगोदमसहययभागस्य | निरन्तरमुत्पद्यमानतया उद्वर्त्तनमानतया च लभ्यमानत्वात् , 'परठाणुववाइयं पडुच अणुसमयमविरहियमसंखेजा, 1 इति परस्थान-पृधिव्यादयः, किमुक्तं भवति ?-यदि पृथिव्यादयः खभवाददुत्य वनस्पतिपूत्पद्यमानाश्चिन्त्यन्ते तदाऽनु समयमविरहितमसोया वक्तव्या इति, तथा गर्भव्युत्क्रान्तिका मनुष्या उत्कृष्टपदेऽपि सङ्ख्येया एव नासहयेयाः, तत ६ उपपातोद्वर्त्तनापदे उपपातसंख्या तथा उद्ध नसंख्या सू.१२७ १२८ दीप अनुक्रम [३३२-३३३] Desesesersercederse ॥२८॥ SAREauraton international ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२७ -१२८] दीप अनुक्रम [३३२ -३३३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - मूलं [ १२७-१२८] पदं [६], ------------ FÈRT: [-], --------------- GT [8], ------ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः स्तत्सूत्रे उत्कर्षतः सङ्ख्येया वक्तव्याः, आनतादिषु देवलोकेषु मनुष्या एवोत्पद्यन्ते न तिर्यञ्चोऽपि मनुष्याश्च सवेया एवेत्यानतादिसूत्रेष्वपि सङ्ख्येया एव वक्तव्याः नासङ्ख्येयाः, सिद्धिगतावुत्कर्षतोऽष्टशतं, एवमुद्वर्त्तनासूत्रमपि वक्तव्यं, नवरं 'जोइसवेमाणियाणं चयणेणं अहिलायो कायघो' इति ज्योतिष्कवैमानिकानां हि स्वभवादुद्वर्त्तनं च्यवनमित्युच्यते, तथाऽनादिकालप्रसिद्धेः, ततः तत्सूत्रे च्यवनेनाभिलाषः कर्त्तव्यः, स चैवं- 'जोइसिया णं भंते 1 एगसमयेणं केवइया चयंति ?, गोयमा ! जहन्त्रेणं एगो वा दो वा' इत्यादि, गतं चतुर्थद्वारम् । इदानीं पञ्चमद्वारमभिधित्सुराह नेरइयाणं भंते! तोहिंतो उववज्जंति ? - किं नेरइएहिंतो उबवज्जंति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति मणुस्सेहिंतो उबवजति देवेहिंतो उवयज्ज॑ति १, गोयमा ! नो नेरहएहिंतो उवबजंति तिरिक्खजोणिएहिंतो उबवज्जंति मणुस्से हिंतो उववज्जंति नो देवेहिंतो उबवज्जंति, जह तिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं एगिंदियतिरिक्खजोगिएहिंतो उपयजति बेईदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्र्ज्जति तेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति चउरिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उवबजंति पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! नो एगिंदिय० नो बेइंदिय० नो तेइंदिय० नो चउरंदिय० तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्र्जति पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्र्ज्जति, जइ पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उपवअंति किं जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्र्जति थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उवबजंति खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिए षष्ठं पदे द्वार (५) "आगति" For Penal Use Only ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------उद्देशक: [-1, -----------दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. -१३७] ६ उपपातोद्वर्तनापदे नारकादीनामागतिः सू. १२९ ॥२०॥ गाथा: Seceaseeeeeeeeeeeee हिंतो उचवजति ?, गोयमा! जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, जइ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति गम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवनति ?, गोयमा! संमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति गम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, जइ समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं पञ्जत्तयसमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं अपजत्नसमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववर्जति ?, गोयमा! पञ्जत्तयसमुच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति नो अपजत्तगसमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, जइ गम्भवतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं पजत्तगगम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उवय अंति अपञ्जतयगम्भ० जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ?, गोयमा पजत्तयगम्भ० जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववर्जति नो अपज्जत्तगगम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवनंति, जइ थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववधति किं चउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उपयजंति परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजीणिएहिंतो उववअंति', गोयमा ! चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवअंति परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितोऽवि उववजंति, जड़ चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उबवज्जति किं समुच्छिमेहितो उपवजंति गम्भवकतिएहितो उपवर्जति ?, गोयमा! समुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितोऽपि उबवज्जति गम्भवतियच ASA920 दीप अनुक्रम ॥२०॥ [३३४ -३४४] XI ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: दीप अनुक्रम [ ३३४ -३४४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [५], • मूलं [ १२९- १३७] + गाथा: पदं [६], ------------ उद्देशक: [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ----------- उप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणि एहिंतोऽवि उववअंति, जइ समुच्छिमधउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए हिंतो उववअंति किं पतगसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवजंति अपजत्तगचउप्पयथलयर संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उवबअंति ?, गोयमा ! पत्तसमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिए हिंतो उवचजंति नो अपजस संमुच्छिम च उप्पयथलय रपंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उपयअंति, जइ गम्भवकंतियचउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवअंति किं संखेजवासाउअगन्भवकं तियच उप्पयथ लयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति असंखेजवासाउयगन्भवतियच उप्पयथ लयरपंचिदियतिरिक्ख जोणिएहिंतो उचवअंति ?, गोयमा ! संखेजवासाउ एहिंतो उववअंति नो असंखेजवासाउएहिंतो उवचजंति, जर संखेजवा साउयगन्भवकंतिय चउप्पयथल यरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उनवअंति किं पञ्जत्तगसंखेज्जवासाउयगन्भवकंतियच उप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबबजंति अपजतगसंखेजवा साउयगम्भवकंतियच उप्पयथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवअंति १, गोयमा । पञ्जतेहिंतो उबवजंतिनो अपजत संखेजवासाउएहिंतो उबब अंति, जइ परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवजति भूयपरिसप्पथलयरपंचिदियति रिक्खजोणिएहिंतो उबवजंति ?, गोयमा ! दोहिंतोवि उववअंति, जड़ उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संयुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति गम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवजंति ?, गोयमा ! संमुच्छ मेहिंतो उववजंति गन्भवतिएहिंतोवि उववअंति, जइ संमुच्छिमउरपरिसप्पथल वरपंचिंदियतिरिक्खजोणि For Parts Use One ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------उद्देशक: [-1, -----------दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९-१३७] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. N६ उपपा तोद्वर्त्तनापदे नारकादीनामागतिः सू. १२९ २१०॥ गाथा: एहितो उववअंति किं पञ्जत्तरहितो उववजंति अपजत्तगेहिंतो उववअंति ?, गोयमा ! पञ्जत्तमसमुच्छिमेहिंतो उववअंति नो अपजत्तगसमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिएहिंतो उपवजंति, जइ गम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उबव अंति किं पञ्जत्तएहिंतो उ० अपजत्तएहिंतो उ०१, गोयमा! पजत्तगगम्भवातिएहिंतो उववअंति नो अपञ्जत्तगगम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवजंति, जइ भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववर्जति किं समुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति गम्भवकतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उघवजंति?, गोयमा ! दोहितोऽपि उबवजंति, जइ समुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं पञ्जत्तयसमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोगिए. हिंतो उपवजंति अपजत्यसमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति', गोयमा पजत्तएहिंतो उववर्जति नो अपजत्तएहितो उपवअंति, जइ गम्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिती उववजति किं पजत्तएहिंतो उबवजंति अपजत्तएहिंतो उववअंति, गोयमा! पजत्नएहिंतो उववअंति नो अपञ्जत्तएहितो उववअंति, जइ खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति किं समुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिती उबवति गम्भवतियखयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववअंति?, गोयमा! दोहितोऽवि उववअंति, जइ समुच्छिमखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पजत्तएहितो उववजंति अपजत्तएहितो उववज्जति , गोयमा ! पजचएहितो उववअंति नो अपजत्तएहिंतो उववअंति, जइ पजत्नगगम्भवतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववर्जति कि संखे. दीप अनुक्रम [३३४ ॥२१०॥ -३४४] ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: दीप अनुक्रम [ ३३४ -३४४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) दारं [५], • मूलं [ १२९- १३७] + गाथा: पदं [६], ------------ उद्देशक: [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 50000999999 Educatin internation ---------- अवासाउएहिंतो उबवअंति असंखेजवासाउएहिंतो उववज्र्ज्जति १, गोयमा ! संखिजवासाउएहिंतो उबवअंति नो असंखिअबासाउएहिंतो उबवजंति, जर संखिजवासाउयगन्भवकं तियख हयरपंचिदियतिरिक्ख जोणिएहिंतो उबवजंति किं पजतएहिंतो उववज्जंति अपजचएहिंतो उववज्जंति १, गोयमा ! पजचएहिंतो उववज्जंति नो अपजत्तएहिंतो उववज्र्ज्जति । जह मणुस्सेहिंतो उववज्र्जति किं संमुच्छिममणुस्सेहिंतो उववज्जंति गन्भवदंतियमणुस्सेहिंतो उबवजंति ?, गोयमा ! नो संमुच्छिममणुस्सेर्हितो उववज्जति गम्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति, जइ गन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति किं कम्म - भूमिगगब्भवतिय मणुस्सेहिंतो उचवज्जंति अकम्मभूमिगन्भवतियमणुस्सेर्हितो उववज्जंति अंतरदीवगगन्भवकंतियमणुसेहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! कम्मभूमिगगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति नो अकम्मभूमिगगन्भवतिय मणुस्सेहिंतो उववज्जंति नो अंतरदीवगगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति, जइ कम्मभूमिगगब्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववअंति किं संखेजवासाउएहिंतो उ० असंखेजवा साउएहिंतो उ० १, गोयमा ! संखेजवा साउय कम्म भूमिगगन्भवकंतियमणूसेहिंतो उववज्जंति नो असंखिजवा साउय कम्मभूमिमगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति, जइ संखेअवासाउयकम्म भूमिगगब्भवकतियमणुस्सेहिंतो उपवज्जंति किं पञ्जतेहिंतो उववअंति अपजतेहिंतो उववर्जति १, गोषमा ! पञ्जतएहिंतो उबवजंति नो अपत्तएहिंतो उबवजंति, एवं जहा ओहिया उववाइया तहा रयणप्पभापुढ विनेरथावि उववाएयचा, सकरप्पभापुढविनेरयाणं पुच्छा, गोयमा ! एतेवि जहा ओहिया तद्देवोववाएयज्ञा नवरं समुच्छि मेहिंतो पडिसेहो कायचो, वालुयप्पभापुढविनेरइया णं भंते! कतोहिंतो उववज्र्ज्जति १, गोयमा ! जहा सकरप्पमापुढविनेरइया नवरं परिसप्पेहिंतो पडिसेहो For Pale Only ~ 25~ 202020 2029 2020 2029 ১৬১৩১ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------उद्देशक: [-1, ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ६ उपपातोद्वर्तनापदे नारकादीनामुपपातः -१३७] ॥२१॥ गाथा: कायचो, पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहा बालुयप्पभापुढविनेरझ्या नवरं खहयरेहितो पडिसेहो कायद्यो, धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा गोयमा! जहा पंकप्पभापुढविनेरइया नवरं चउप्पएहितोचि पडिसेहो कायबो, तमापुढविनेरहया णं भंते ! कओहिंतो उववजति गो०! जहा धूमप्पभापुढविनेरइया नवरं थलयरहितोवि पडिसेहो कायद्दो, इमेज अभिलावणं जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं जलयरपंचिदिएहिंतो उबवजंति थलपरपंचिदिएहितो उववर्जति खयरपंचिंदिएहिंतो उववअंति, गोयमा! जलयरपंचिंदिएहिंतो उवबअंति नो थलयरेहिंतो नो खयरेहितो उववजंति, जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति किं कम्मभूमिएहितो उपवजति अकम्मभूमिपहिंतो उववअंति अंतरदीवएहितो उववअंति, गोयमा! कम्मभूमिपहिंतो उववअंति नो अकम्मभूमिएहिंतो उववर्जति नो अंतरदीवहिंतो उबवजति, जह कम्मभूमिपहिंतो उववज्जति किं संखेजवासाउएहिंतो उववजंति असंखेजवासाउएहितो उववज्जति ?, गोयमा! संखेजवासाउएहिती उववज्जति नो असंखेजवासाउएहिंतो उवषजति, जड संखेजवासाउएहिंतो उववअंति किं पजचएहिंतो उवषअंति अपअत्तएहितो उवयअंति, गोयमा! पजचएहिंतो उववजति नो अपजत्तरहिंतो उववअंति, जइ पजत्तगसंखेअवासाउयकम्भभूमिएहितो उववजंति किं इस्थिरहितो उबवजति पुरिसेहितो उववजंति नपुंसएहितो उववर्जति , गोवमा! इत्थीहिंतो उववअंतिपुरिसहिंतो उववअंति नसएहितोवि उववजंति, अहेसनमापुढविनेरइया णं भंते ! कतोहिंतो उववअंति', गोयमा । एवं चेव नवरं इत्थीहिंतो पडिसेहो कायबो,-'अस्सनी खलु पढमं दोचंपि सिरीसवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउस्थि उरगा पुण पंचमिं पुढचं ॥१॥छट्टिच इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तर्मि W0020908 120939 दीप अनुक्रम [३३४ ॥२१॥ -३४४] ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------उद्देशक: [-1, -----------दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७]] गाथा: पुढवि । एसो परमोवाओ चोद्धच्चो नरगपुढवीण ॥२॥(स्त्रं १२९) । असुरकुमारा ण भंते ! कतोहिंतो उववअंति, गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति मणुस्सेहिंतो उवरजति नो देवेहितो उववजंति, एवं जेहिंतो नेरइयाणं उववाओ तेहितो असुरकुमाराणवि भाणियहो, नवरं असंखेजवासाउयअकम्मभूमगअंतरदीवगमणुस्सतिरि खजोणिएहितोवि उववअंति, सेसंत चेव, एवं जाव थणियकुमारामाणियबा।। (सूत्रं१३०) पुढविकाइया भंते ! कतोहितो उववअंति किं नेरदपहिंतो जाव देवेहितो उववअंति, गोयमा ! नो नेरहएहिंतो उववअंति तिरिक्खजोणिएहिंतो मणुस्सहिंतो देवेहिंतोवि उववजंति, जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवजंति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियहिंतो उववञ्जति ?, मोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिएहितोचि जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतोषि उवबज्जति,जइ एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पुढविकाइएहिंतो जाव वणस्सइकाइएहिंतो उववअंति?, गोयमा! पुढविकाइपहिंतोवि जाव वणस्सइकाहपहिंतोवि उ०, जइ पुढविकाइएहितो उववअंति कि सुहमपुढविकाइएहितो उववर्जति बायरघुढविकाइएहिंतो उववजंति ?, गोयमा!दोहिंतोवि उववअंति, जइ सुहमपुडविकाइएहितो उवयति किं पजत्तपुढवीकाइएहिंतो उववअंति अपजत्तपुढवीकाइएहिंतो उववजंति !, गोयमा! दोहिंतोवि उपवजंति, जइ बायरपुढविकाइएहितो उववअंति किं पजत्तएहितो उ० अपज्जत्तपहिंतो उववज्जति ?, गोयमा ! दोहितोवि उववअंति, एवं जाव वणस्सइकाइया चउकएणं भेदेण उववाएयच्या, जइ बेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं पजत्तयवेइंदिएहितो उववअंति अपजत्तयबेईदिएहितो उववज्जति !, गोयमा! दोहितोवि उववजंति, एवं तेइंदियचउरिदिएहितोवि उववजंति, जा पंचिंदिय दीप अनुक्रम [३३४ ease -३४४] ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------उद्देशक: [-1, -----------दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. पदेनार -१३७] ॥२१२॥ कादीनामुपपातः गाथा: तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उचवज्जति एवं जेहिंतो नेरइयाणं उववाओ भणिओ तेहिंतो एतेसिंपि भाणियहो नवरं पजसगअपञ्जनगेहिंतोवि उववजंति, सेसं तं चेक, जइ मणुस्सहिंतो उववजति किं संमुच्छिममणुस्सहिंतो उववजति गन्भवतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति ?, गोयमा! दोहिंतोवि उववज्जति, जद्द गम्भवतियमणुस्सहिंतो उववज्जति किं कम्मभूमगगम्भवतियमणुस्सहिंतो उववज्जति अकम्मभूमगगम्भवतियमणुस्सेहितो उववजंति सेसं जहा नेरइयाणं नवरं अपजचएहितोवि उववज्जति, जइ देवेहितो वि] उबवजंति किं भवणवासिवाणमंतरजोइसवेमाणिएहितो उववजति , गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतोचि उचव अंति जाव चेमाणियदेवेहिंतोवि उववअंति, जइ भवणवासिदेवेहिंतो उबवजंति किं असुरकुमारदेवहितो जाब थणियकुमारेहिंतो उचवअंति', गोयमा ! अमरकुमारदेवहिंतोवि उववअंति जाव थणियकुमारदेवेहिंतोवि उपपजंति, जइ वाणमंतरदेवेहिंतो उववअंति किं पिसाएहिंतो जाव गंधचेहितो उववअंति !, गोयमा! पिसाएहितोवि जाव गंधयेहितोवि उववअंति, जइ जोइसियदेवेहितो उववजंति किं चंदविमाणेहिंतो उववजंति जाव ताराविमाणेहिंतो उववजंति !, गोयमा! चंदविमाणजोइसियदेवेहितोवि जाव ताराविमाणजोइसियदेवेहितोवि उववजति,जह बेमाणियदेवेहिंतो उववजंति किं कप्पोवगवेमाणियदेवेहितो उववज्जति कप्पातीतवेमाणियदेवहिंतो उववअंति, गोयमा ! कप्पोवगवेमाणियदेवेहिंतो उववजंति नो कप्पातीतवेमाणियदेबेहितो उववजंति, जइ कप्पोवगवेमाणियदेवेहिंतो उववजंति किं सोहम्महितो जाव अचुएहिंतो उववज्जति , गोयमा ! सोहम्मीसाणेहिंतो उववजति नो सर्णकुमारजावअचुएहिंतो उववज्जति एवं आउकाइयावि, एवं तेउवाउकाइयावि, नवरं दीप अनुक्रम foeesersececeselers २१२॥ [३३४ -३४४] ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------ उद्देशक: [-], ----------- दारं [७], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: easeseseserverseerecenese देवबोहितो उववअंति, वणस्सइकाइया जहा पुढविकाइया ॥ (सूत्र१३१) इंदिया तेइंदिया चउरिदिया एते जहा तेउवाऊ देवयजेहिंतो भाणियथा । (सूत्रं१३२)पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते कोहिंतो उववजेति', कि नेरइएहिंतो उ० जाव किं देवेहिंतो उवयजति ?, गोयमा! नेरइएहितोवि तिरिक्खजोणिएहितोवि मणुस्सेहिंतोवि देवेहिंतोवि उववअंति, जब नेरइएहितो उपवअंति किं स्यणप्पभापुढविनेरइएहिंतो जाव आहेसत्तमापुढविनेरइएहिंतो उववजति ?, गोयमा! रयणप्पभापुढविनेरहएहितोवि उववजति जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएहिंतोवि उववअंति, जइ तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति कि एगिदिएहितो उववअंति जाव पंचिदिएहिंतो उववअंति, गोयमा! एगिदिएहितोवि उववअंति जाव पंचिदिएहिंतोवि उपयजति, जइ एगिदिएहिंतो उववअंति किं पुढविकाइएहिंतो उववजंति एवं जहा पुढविकाइयाणं उववाओ भणिओ तहेव एएसिपि भाणियबो नवरं देवेहिंतो जाच सहस्सारकप्पोबगवेमाणियदेवेहितोवि उववअंति नो आणयकप्पोबगवेमाणियदेवेहिंतो जाव अधुएहिंतोवि उववजंति (मूत्रं १३३) मणुस्सा णं भंते ! कओहितो उववअंति किं नेरहएहिंतो उववअंति जाव देवेहितो उववअंति, गोयमा! नेरइएहिंतोवि उववजंति जाव देवेहिंतोवि उववअंति, जड़ नेरइएहिंतो उववअंति कि रयणप्पभापुढविनेरइएहितो उपवअंति कि सकरप्पभापुढविनेरइएहितो उववजंति किं वालुयप्पभापुढविनेरइएहितो पंकप्पभा हितो धूमप्पभा हितो तमप्पभा हितो अहेसत्तमापुढविनेरइएहितो उववजंति ?, गोयमा ! स्यणप्पभापुढविनेरइएहिंतोवि जाव तमापुढविनेरइएहिंतोवि उबवजंति, नो अहेसचमापुढविनेरहपहिंतो उववअंति, जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति एवं जेहिंतो पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दीप अनुक्रम [३३४ -३४४] ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------उद्देशक: [-1, -----------दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना या मलयवृत्ती. [१२९ IN६ उपपा तोद्वर्तनापदे नारकादीनामुपपातः -१३७] ॥२१॥ गाथा: उववाओ भणिओ सेहितो मणुस्साणवि निरवसेसो भाणियबो, नवरं आहेसत्तमापुढविनेरइएहितो तेउवाउकाइएहितो ण उघवजंति, सवदेवहितो य उववाओ कायबो जाव कप्पातीतबेमाणियसवट्ठसिद्धदेवेहितोवि उववजावयचा (मूत्र १३४) वाणमंतरदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववअंति किं नेरइएहितो तिरिक्खजोणिय०मणुस्स० देवहितो उववजंति ?, गोयमा! जेहिंतो असुरकुमारा तेहिंतो भाणियबा (सूत्र १३५) जोइसिया णं भंते । देवाण कओहिंतो उववजंति, गोयमा! एवं चेव नवरं समुच्छिमअसंखिजवासाउयसहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियबजेहिंतो अंतरदीवमणुस्सवअहिंतो उववआवेयवा (मूत्र १३६) वैमाणिया यं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं नेरइएहितो किं तिरिक्खजोणिएहितो मणुस्सेहितो देबेहितो उववनंति ?, गोयमा ! णो णेरइएहितो उववजति पंचिदियतिरिक्खजोणिपहितो उपवनति मणुस्सहिंतो उबवज्जति णो देवेहिंतो उपद्धति एवं सोहम्मीसाणगदेवाऽवि भाणियबा, एवं सर्णकुमारदेवावि भाणियबा नवरं असंखञ्जवासाउयअकम्मभूमगवजेहिंतो उववअंति, एवं जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवा भाणियबा, आणयदेवाणं भंते ! कओहितो उववति किं नेरइएहितो कि पंचिदियतिरिक्खजोणिय०मषुस्स०देवेहितो उवयजति , गोयमा ! णो रहएहितो उववअंति नो तिरिक्खजोणिएहितो उववर्जति मणुस्सेहितो उववअंति णो देवेहितो उववजंति, जइ मणुस्सेहितो उववअंति किं समुच्छिममणुस्सेहितो गम्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति ?, गोयमा ! गम्भवतियमणुस्सेहितो नो संम्च्छिममणुस्सेहितो उववअंति, जइ गम्भवतियमणुस्सेहिंतो उववअंति किं कम्मभूमिगेहिंतो अकम्मभूमिगेहितो अंतरदीवगेहितो उववअंति !, गोयमा ! नो अकम्मभूमिगेहितो णो अंतरदीवगेहिंतो उबवअंति कम्मभूमिगगम्भवतियमणुस्से दीप अनुक्रम [३३४ ॥२१॥ -३४४] ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: दीप अनुक्रम [ ३३४ -३४४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [६], ------------ उद्देशक: [ - ], दारं [५], • मूलं [ १२९- १३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ৫৩১৬১৬১৬১ Education Internation ---------- हिंतो उववज्जंति, जइ कम्मभूमगगन्भवकंतियम णूसेहिंतो उववज्र्ज्जति किं संखेअवा साउएहिंतो असंखेजवा साउएहिंतो उ० १, गोयमा ! संखेजवासाउएहिंतो नो असंसिजवासाउएहिंतो उववज्जंति, जह संखिजवासा उयकम्मभूम गगब्भवर्कतियमसेहिंतो उववज्जंति किं पञ्जतएहिंतो उववज्र्ज्जति अपजत्तएहिंतो उववज्र्ज्जति १, गोयमा ! पत्तएहिंतो उववज्जंति नो अपजत्तएहिंतो उववज्जंति, जइ पञ्जत्तसंखे अवासाउय कम्म भूमगगब्भवकंतियमणु स्सेहिंतो उववज्जंति किं सम्मद्दिट्ठीपञ्जत्तगसंखेजचासाउयकम्मभूमगेहिंतो उववज्जति मिच्छदिद्विपञ्चत्तगेहिंतो उववज्र्जति सम्मामिच्छद्दिट्ठिपजत्तगेहिंतो उववज्र्जति ?, गोयमा ! सम्मदिपित्तगसंखेजयासाउयकम्मभूमगगन्भवकंतियमणु से हिंतो उववज्जंति मिच्छदिट्ठिपजतहिंतो उववज्जंति णो सम्मामिच्छद्दिद्विपञ्जत्तएहिंतो उववज्जंति, जइ सम्मद्दिट्ठीपजत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवकंतियमणूसेहिंतो उबवज्जंति किं संजतसम्मद्दिहीहिंतो असंयतसम्मदिट्ठीपअनएहिंतो संजयासंजयसम्मद्दिद्वीपअत्तसंखेअ० हिंतो उचवज्जति १, गोयमा ! तीहिंतोवि उबवजंति, एवं जाव अचुगो कप्पो, एवं चैव गेविजगदेवावि नवरं असंजतसंजतासंजता एते पडिसेहेयवा, एवं जहेब गेविजगदेवा तहेव अणुसरोववाइयावि, णवरं इमं नाणसं संजया चेव, जइ सम्मद्द्द्विी संजतप अत्तसंखेअवासाज्यकम्मभूमगगन्भवतियमणूसेहिंतो उनवअंति किं पमत्तसंजयसम्मदिट्ठीपजत्तएहिंतो अपमत्त संजयसम्मद्दिद्वि० एहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! अपमत्तसंज० एहिंतो उपयज्जंति नो पमत्त संज० एहिंतो उवनअंति, जइ अपमत्त संज० एहिंतो उववअंति किं इडिपत्त संजयहिंतो अणिपित्तसंजएहिंतो ?, गोयमा ! दोहिंतो उबबअंति । दारं (सूत्रं १३७ ) For Parts Only ~31~ ১৬১৬১৩৯৯9.১৬১৬১৬১৬৬99 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ------------उद्देशक: [-1, ----------- दारं [५], ----------- मूलं [१२९-१३७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९ -१३७] गाथा: 'नेरइया ण भंते ! कओहितो उववजति' इत्यादि पाठसिद्धं नवरमेष संक्षेपार्थः-सामान्यतो नरकोपपातचि- प्रज्ञापना उपपायाः मल Sन्तायां रत्नप्रभोपपातचिन्तायां च देवनारकपृथिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकाणां तथाऽसङ्ख्येयवर्षायुश्चतुष्पदखचराणांतोद्वर्त्तनायवृत्ती. शेषाणामपि चापर्याप्सकानां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां तथा मनुष्याणां संमूछिमानां गर्भव्युत्क्रान्तिकानामप्यकर्मभूमि-पदे नार जानां अन्तरद्वीपजानां कर्मभूमिजानामप्यसङ्ख्येयवर्षायुषां सङ्ख्येयवर्षायुषामपि अपर्याप्तकानां प्रतिषेधः शेषाणां कादीना॥२१॥ विधानं, शर्कराप्रभायां समूच्छिमानामपि प्रतिषेधः वालुकाप्रभायां भुजपरिसर्पाणामपि पङ्कप्रभायां खचराणामपि मुपपातः धूमप्रभायां चतुष्पदानामपि तम:प्रभायां उर-परिसर्पाणामपि सप्तमपृथिव्यां स्त्रीणामपि । भवनवासिषूपपातचिKान्तायां देवनारकपृथिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकापर्यासतिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूछिमापर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां प्रतिषेधः शेषाणां विधानं, पृथिव्यवनस्पती सकलनैरयिकसनत्कुमारादिदेवानां तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सर्वनारकसर्वदेवानां तिर्यक्पश्चेन्द्रियेष्बानतादिदेवानां मनुष्येषु सप्तमपृथिवीनारकतेजोवायूनां व्यन्तरेषु देवनारक|थिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकापर्याप्ततिर्यपञ्चेन्द्रियसंमूछिमापर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां ज्योतिषकेषु संमूछिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियासङ्खयेयवर्षायुष्कखचरान्तरद्वीपजमनुष्याणामपि प्रतिषेधः, एवं सौधर्मेशानयोरपि सनत्कुमारादिषु सहस्रारपर्यन्तेष्वकर्मभूमिजानामपि प्रतिषेधः आनतादिषु तिर्यक्पश्चेन्द्रियाणामपि विजयादिषु मिथ्याष्टिमनुष्याणामपीति । गतं पञ्चमद्वारं, इदानीं षष्ठं द्वारमभिषित्सुराह दीप अनुक्रम [३३४ -३४४] SAREauratoninimational ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [], -------------- मूलं [१३८-१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८ -१४३] नेरया गं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जति किं नेरइएसु उववजति तिरिक्खजोणिएसु उबवजति मणुस्सेसु उववज्जति देवेसु उववजति ?, गोयमा ! नो नेरइपसु उववज्जति तिरिक्खजोणिएसु उववजति मणुस्सेस उवयजति नो देवेसु उववजति, जइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति किं एगिदिएसु उपवज्जति जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति , गोयमा ! णो एगिदिएसु जाव नो चउरिदिएसु उववजंति, एवं जेहिंतो उववाओ भणिओ तेसु उबट्टणावि भाणियवा, नवरं समुच्छिमेसु न उववज्जति, एवं सबपुढवीसु भाणियई, नवरं अहेसत्तमाओ मणुस्सेसु ण उववज्जति । (सूत्रं १३८)। असुरकुमारा णं भंते ! अणंतरं उबहित्ता कहिं गच्छति कहिं उववज्जति किं नेरइएसु जाव देवेसु उ०१, गोयमा ! नो नेरइएमु उववज्जति तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति मणुस्सेसु उववजति णो देवेसु उववजति, जइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति किं एगिदिएसु उववज्जति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उववज्जति !, गोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिएसु उववअंति नो बेइंदिरासु जाव नो चउरिदिएमु उववअंति पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उववअंति, जइ एगिदिएसु उववज्जति किं पुढविकाइयएगिदिएसु जाव वणस्सइकाइयएगिदिएसु उववजंति, गोयमा! पुढविकाइयएगिदिएसुवि आउकाइयएगिदिएसुवि उववजंति नो तेउकाइएसु नो बाउकाइएसु उववजंति वणस्सइकाइएसु उववअंति, जइ पुढविकाइएसु उबवजंति किं सुहुमपुढविकाइएसु बायरपुढविकाइएमु उववअंति, गोयमा ! बायरपुढविकाइएसु उववजंति नो सुहुमपुढविकाइएसु उववजति, जइ वायरपुढविकाइएसु उववअंति किं पञ्जत्तगवायरपुढविकाइएसु उववजति अपजत्तवायरपुढविकाइएसु उववजति , गोयमा! पजचएसु उववअंति नो अपजत्तएसु उबव दीप अनुक्रम [३४५-३५०] easeseeeee imlunaurary.orm | षष्ठं पदे द्वार-(६) "उद्वर्तना/गति" ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ---------------उद्देशक: [-], -------------- दारं [], -------------- मूलं [१३८-१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ६ उपपा प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. तोद्वर्तना सूत्रांक पदे नारकादीना ॥२१५॥ [१३८-१४३] मुद्वर्त्तना अंति, एवं आउवणस्सइसुधि भाणिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणियमण्सेसु व जहा नेरइयाणं उपट्टणा समुच्छिमवा तहा भाणियवा एवं जाव थणियकुमारा (सूत्रं१३९)। पुढविकाइया णं भंते ! अणंतरं उत्पट्टित्ता कहिं गच्छति किं नरइएमु जाव देवेसु, गोयना! नो नेरइएसु तिरिक्खजोणियमसेसु उववजति नो देवेसु उववअंति एवं जहा एतेसि चेव उववाओ तहा उपट्टणावि देववजा भाणियबा, एवं आउवणस्सइवेइंदियतेइंदियचउरिदियावि एवं तेउवाउ० नवरं मणुस्सबजेसु उववजंति (सूत्रं१४०) पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! अणंतरं उज्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जति', गोयमा ! नेरइएसु जाव देवेसु उववजति, जइ नेरइएसु उववजति किं स्यणप्पभापुढविनेरइएसु उववअंति जाव अहेसतमापुढविनेरइएसु उववजंति ?, गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववअंति जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएसु उववअंति, जइ तिरिक्खजोणिएसु उववअंति किं एगिदिएसु जाव पंचिदिएमु उ०१, गोयमा। एगिदिएसु जाव पंचिदिएम उववजंति, एवं जहा एतेसिं चेव उवषाओ उपटणावि तहेव भाणियचा नवरं असंखेजवासाउएसुवि एते उववअंति, जह मणुस्सेसु उववर्जति किं समुच्छिममणुस्सेसु उववर्जति गम्भवकंतियमसेसु उववजति ?, गोयमा ! दोसृवि, एवं जहा उववाओ तहेच उबट्टणावि भाणियबा, नवरं अकम्मभूमग अंतरदीवग० असंखेजवासाउएसुवि एते उववअंतित्ति माणियवं, जइ देवेसु उववर्जति किं भवणचईसु उववजंति जाव किं वेमाणिएसु उववजंति !, गोयमा ! सोमु चेव उववर्जति, जइ भवणवईसु किं असुरकुमारसु उववजंति जाव थणियकुमारेसु उववजंति , गोयमा ! सबेसु चेव उववअंति, एवं वाणमंतरजोइसियवमाणिएसु निरंतर उववजंति जाव सहस्सारो कप्पोत्ति । (सूत्र१४१) । मणुस्सा णं भंते! अणंतरं उघट्टित्ता O20393e दीप अनुक्रम [३४५-३५०] ला॥२१५॥ ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ---------------उद्देशक: [-], -------------- दारं [], -------------- मूलं [१३८-१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८ -१४३] ceaeeeeeeeeeeeसरस कहिं गच्छंति कहिं उववअंति किं नरइएसु उववर्जति जाव देवेसु उवघजंति !, गोषमा! नेरइएसुवि उववअति जाव देवेसुचि उववअंति, एवं निरंतरं सवेसु ठाणेमु पुच्छा, गोयमा ! सद्देसु ठाणेसु उवव अंति न किंचेषि पडिसेहो कायहो, जाब सबट्टसिद्धदेवेसुवि उववजंति, अत्थेगतिया सिझंति बुमति मुचंति परिनिहायति सबदुक्खाणं अंतं करेंति । (मु०१४२)। चाणमंतरजोइसियवेमाणियसोहम्मीसाणा य जहा असुरकुमारा नवरं जोइसियाणय वेमाणियाण य चयंतीति अभिलावो कायचो, सणंकुमारदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहा असुरकुमारा नवरं एगिदिएसुण उववअंति, एवं जाव सहस्सारगदेवा, आणय जाव अणुत्तरोववाइयादेवा एवंचेव, नवरं नो तिरिक्खजोणिएमु उववर्जति मणुस्सेसु पञ्जत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूसेसु उववजंति । दारं । ( सूत्रं १४३)। 'नेरइया णं भंते ! अणंतर उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरमत्राप्येष संक्षेपार्थःनरयिकाणां खभवादुदृत्तानां गर्भजसद्धयेयवर्षायुष्कतिर्वक्पञ्चेन्द्रियमनुष्येपूत्पादः अधःसप्तमपृथिवीनारकाणां गर्भजसङ्ख्येयवर्षायुष्कतिर्यक्पश्चेन्द्रियेवेच असुरकुमारादिभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां बादरपर्याप्तपृथिव्यवनस्पतिगर्भजसङ्ख्येयवर्षायुष्कतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु पृथिव्यवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तिर्यग्गतौ मनुष्यगती च तेजोवायूनां तिर्यग्गती एव तिर्यक्पश्चेन्द्रियाणां नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिषु नवरं वैमानिकषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्याणां सर्वेष्वपि स्थानेषु, सनत्कुमारादिदेवानां सहस्रारदेवपर्यन्तानां गर्भजसङ्ख्येयवर्षायुष्कतिर्यक्पश्चेन्द्रियमनु दीप अनुक्रम [३४५-३५०] aurary.org ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], ---------------उद्देशक: [-], -------------- दारं [], -------------- मूलं [१३८-१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मल- ६ उपपातोद्वत्तेनापदे नार सूत्रांक यवृत्ती. कादीना [१३८-१४३] ॥२१॥ मुदर्शना व्येषु, आनतादिदेवानां गर्भजसङ्ख्येयवर्षायुष्कमनुष्येष्वेवेति । गतं पष्ठं द्वारं, इदानीं सप्तमं द्वार, तस्स चायमभिस- म्बन्धः-येषां जीवानां नारकादिषु गतिषु विविध उपपातो वर्णितस्तै वैः पूर्वभवे एव वर्तमानरायुर्वद्धं ततः पश्चा- दुपपातः, अन्यथोपपातायोगात् , तत्र कियति पूर्वभवायुपि शेषे पारभविकमायुर्वद्धमिति संशयानः पृच्छति नेरइया णं भंते ! कतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति ?, गोयमा! नियमा छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं, एवं असुरकुमारावि, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया गं भंते ! कतिभागावसेसाउया परमवियाउयं पकरेंति', गोयमा! पुढविकाइया दुविहा पनचा, तंजहा सोवकमाउया य निरुवकमाउया य, तत्थ गंजे ते निरुवकमाउया ते नियमा तिभागावसेसाउया परभषियाउयं परति, तत्थ णं जे ते सोवकमाउया ते सिय विभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेति सिय तिभागतिभागावसेसाउया परभचियाउयं पकरेंति सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेति, आउतेउवाउचणफइकाइयाणं बेइंदियतेइंदियचउरिदियाणवि एवं चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति, गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पबत्ता, तंजहा-संखेजबासाउया य असंखेजवासाउया य, तत्थ णं जे ते असंखेजवासाउया ते नियमा छम्मासाबसेसाउया परभषियाउर्य पकरेंति, तत्थ णं जे ते संखिजवासाउया ते दुपिहा पबत्ता, तंजहा-सोवकमाउया य निरुवकमाउया य, तत्थ गंजे ते निरुवकमाउया ते नियमा तिमागावसेसाउया परमवियाउयं पकरेंति, तत्य ण जे ते सोवकमाउया ते णं सिय तिभागे परम दीप अनुक्रम [३४५-३५०] ॥२१॥ | षष्ठं पदे द्वार-(७) "परभवायु" ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४४] दीप अनुक्रम [३५१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [६], ------------उद्देशक: [ - ], ---------दारं [७], मूलं [१४४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः aers करेंति aिr तिभागतिभागे परभवियाउयं पकरैति सिय विभागतिभागतिभागावसेसाउया परभवियाउयं करेंति, एवं मणूसावि, वाणमंतरजोइसियवेमानिया जहा नेरहया । दारं । (सूत्रं १४४ ) 'नेरइया णं भंते ! कहभागावसेसाउया परभवियाउयं बंध (पकरें) ति' इत्यादि पाठसिद्धं । गतं सप्तमं द्वारं, इदानीमष्टमं द्वारं तदेयं यदूभागावशेषेऽनुभूयमानभवायुषि पारभविकमायुर्वन्ति तत्प्रतिपादितं सम्प्रति यत्प्रकारं बञ्जन्ति तत्प्रकारं नैरयिकादिदण्डकक्रमेण प्रतिपादयति कवि णं भंते ! आजयबंधे पनते १, गोयमा । छविहे आउयबंधे पत्ते, तंजा - जातिनामनिहत्ताउए गतिनामनिहचाउए ठितीणामनिहताउए ओगाहणनामनिहत्ताउए पएसनामनिहत्ताउए अणुभावनामनिहत्ताउए, नेरइयाणं भंते ! कहविहे आउयबंधे पनते ?, गोयमा ! छवि आउयबंधे पनचे, तंजहा- जातिनामनिहत्ताउए गतिणामनिहत्ताउए ठितीणामनिहताउए ओगाहणणामनिहत्ताउए पदेसणामनिहत्ताउए अणुभावणामनिहत्ताउए एवं जाब वेमाणियाणं । जीवा णं भंते! जातिनामनिहचाउयं कतिहिं आगरिसेहिं पगरेंति ?, गोयमा ! जहस्रेण एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा उद्योसेणं अहिं, नेरइया णं भंते! जातिनामनिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पगति १, गोयमा ! जहन्त्रेणं एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा उकोसेणं अहिं एवं जाव बेमाणिया, एवं गतिनामनिहत्ताउएवि ठिवीणामनिहत्ताउएवि ओगाहणानामनिहत्ताउ एवि पदेसनामनिहत्ताउएवि अणुभावनामनिहत्ताउएषि एतेसिं णं मंते ! जीवाणं जातिनामनिहत्ताउयं जहनेणं एकेण वा षष्ठं पदे द्वार - (८) "आकर्ष / आयुबन्ध" For Pale Only ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [८], -------------- मूलं [१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [१४५] ॥२१७॥ Reserseseelpeiseisenelera दोहिं वा तीहि वा उकोसेणं अहिं आगरिसेहिं पकरेमाणाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा जातिणामनिहत्ताउयं अहहिं आगरिसेहिं पकरेमाणा सत्तहिं आगरिसेहिं पकरे- न्तपदे माणा संखेजगुणा छहिं आगरिसेहिं पकरेमाणा संखेजगुणा एवं पंचहिं संखिजगुणा चउहिं संखिज्जगुणा तीहि संखिज- आयुर्वन्धगुणा दोहिं संखिज्जगुणा एगणं आगरिसेणं पगरेमाणा संखेजगुणा, एवं एतेणं अभिलावणं जाव अणुभागनामनिहचाउयं, भदाः अः एवं एते छप्पिय अप्पाबहुदंडगा जीवादीया भाणियब्वा । (सूत्रं १४५) इति पन्नवणाए वर्कतियपर्य छई समत्तं ६॥ ॥ ल्पबहुत्वं 'नेरइयाणं भंते ! कइविहे आउयवंधे पन्नते' इत्यादि, 'जाइनामनिहत्ताउए' इति जातिः--एकेन्द्रियजात्यादिः। पञ्चप्रकारा सैव नाम-नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषरूपं जातिनाम तेन सह निधत्तं-निषितं यदायुस्तजातिनाम-181 निधत्तायुः१, निषेकश्च कर्मपुद्गलानामनुभवनार्थ रचना, सा चैवं लक्षणा-'मोत्तण सगमवाहं पढमाइ ठिईएँ बहुतरं दवं । सेसे विसेसहीणं जावुक्कोसंति उकोसा ॥१॥'गतिनामनिहत्ताउए' इति गतिर्नरकगत्यादिभेदाचतुओं सेव नाम गतिनाम तेन सह निधत्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः २, स्थितियत्तेन भवेन स्थातव्यं तत्प्रधानं नाम स्थितिनाम १ मुक्त्वा स्वकीयामवाधा [ अबाधाकाले नानुभव इति न तत्र दलिकरचना ] प्रथमायां [ जपन्यायामन्तर्मुहूर्तरूपायां ] खिती बहुतरं द्रव्यं [ एकाकर्षगृहीतेष्वपि दलिकेषु बहूनां जघन्यस्थितीनामेव भावात् शेषायां [ समयाद्यधिकान्तमुहर्तादिकायां ] विशेषहीनं, एवं 18| INR१७॥ यावदुत्कृष्टां स्थिति उत्कृष्टतो [ विशेषहीनं सर्वहीनं दलिक [॥ १॥ दीप अनुक्रम [३५२] ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [८], -------------- मूलं [१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] यद्यस्मिन् भवे उदयमागतमवतिष्ठते तद् गतिजातिशरीरपञ्चकादिव्यतिरिक्तं स्थितिनामावसेयमिति भावः, गत्यादीनां वर्जनं तेषां खपदैः 'गइनामनिहत्ताउए' इत्यादिभिरुपात्तत्वात् , तेन सह निधत्तायुः स्थितिनामनिधत्तायुः ३, तथा अवगाहते यस्यां जीवः साऽवगाहना-शरीरं औदारिकादिः तस्य नाम-श्रीदारिकादिशरीरनामकर्म अवगाहनानाम शेष तथैव ४, 'पएसनामनिहत्ताउए'त्ति प्रदेशा:-कर्मपरमाणवः ते च प्रदेशाः संक्रमतोऽप्यनुभूयमानाः परिगृह्यन्ते तत्प्रधानं नाम प्रदेशनाम, किमुक्तं भवति ?-पयस्मिन् भवे प्रदेशतोऽनुभूयते तत्प्रदेशनामेति, अनेन विपाकोदयमप्राप्तमपि नाम परिगृहीतं, तेन प्रदेशनाना सह निधत्तमायुः प्रदेशनामनिधत्तायुः ५, तथाऽनुभावो-विपाकः, स चेह प्रकर्षप्राप्तः परिगृह्यते तत्प्रधानं नाम अनुभावनाम-यद्यस्मिन् भने तीव्रविपाकं नामकर्मानुभूयते त(य)था नारकायुषि अशुभवर्णगन्धरसस्पर्शीपघातानादेयदुःखरायशःकीत्यादिनामानि तदनुभावनाम तेन सह निधत्तमायुरनुभावना- मनिधत्तायुः ६, अथ कस्माजात्यादिनामकर्मभिरायुर्विशेष्यते ?, उच्यते, आयुःकर्मप्राधान्यख्यापनार्थ, तथाहि-नार काद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति नान्यथेति भवत्यायुषः प्रधानता इति, अथ जात्यादिनामवि-IN ४शिष्टमायुः कियद्भिराकर्वनातीति जिज्ञासुजीवादिदण्डकक्रमेण पृच्छति-'जीवाणं भंते ! जातिनामनिहत्ताउयं कहहिं आगरिसेहिं पगरंति' इत्यादि, आकर्षो नाम तथाविधेन प्रयत्नेन कर्मपुद्गलोपादानं यथा गौः पानीयं पिबन्ती भयेन पुनः पुनराघोटयति एवं जीवोऽपि यदा तीनेणायुर्घन्धाध्यवसायेन जातिनामनिधत्तायुः अन्यद्वा बभाति दीप अनुक्रम [३५२] ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [६], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [८], -------------- मूलं [१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- या मल- य०वृत्तो. ॥२१८॥ तदा एकेन मम्देन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा मन्दतरेण त्रिभिश्चतुर्मिळ मन्दतमेन पञ्चभिः पद्भिः ससभिरष्टमिळ, ह जासादिनाम्नामाकर्षनियम आयुपा सह बध्यमानानामवसातव्यो न शेषकालं, कासांचित् प्रकृतीनां ध्रुवन्धिनीत्वा- दपरास परावत्तेमानत्वात् प्रभूतकालमपि बन्धसम्भवेनाकर्षानियमात् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रजापना- टीकायां व्युत्क्रान्त्याख्यं षष्ठं पदं समाप्तम् । व्युत्कान्तपर्दे युवन्य भेदाः अल्पबहुत्वं [१४५] दीप अनुक्रम [३५२] इति श्रीप्रज्ञापनासूत्रे श्रीमन्मलयगिरिसरिवर्यविरचितं व्युत्कान्त्याख्यं षष्ठं पदं समासम्॥ २१८॥ e अत्र पद (०६) “व्युत्क्रान्ति/ (उपपात-उद्वर्तना)" परिसमाप्तम् ~ 40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [७], --------------- उद्देशकः [-, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: अथ सप्तममुच्छ्वासाख्यं पदं। प्रत करररर सूत्रांक [१४६] दीप व्याख्यातं षष्ठं पदं, इदानीं सप्तममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे सत्त्वानामुपपातविरहादयोऽभिहिताः, अस्मिन् पुनर्नारकादिभावनोत्पन्नानां प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तानां यथासंभवमुच्छासनिःश्वासक्रियाविरकाहाविरहकालपरिमाणमभिधेयं, इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्पेदमादिसूत्रम् नेरइया णं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा?, मोयमा! सततं संतयामेव आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ।। असुरकुमारा गंभंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंसि वा नीससंति वा ,गोयमा! जहणं सत्तण्डं थोवाणं उकोसेणं सातिरेगस्स पक्खस्स आणमंति या जाव नीससंति ।। नागकुमारा ण भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा?, गोयमा! जहन्नेणं सत्तहं थोवाणं उकोसेणं मुहुनपुहुत्तस्स, एवं जाव थणियकुमाराणं ।। पुढविकाइया णं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा, मोयमा ! वेमायाए आणमंति वा जाव नीससंति वा ॥ एवं जाव मणूसा ॥ वाणमंतरा जहा नागकुमारा ॥ जोइसिया णं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा,गोयमा ! जहनेणं मुहुत्त हुत्तस्स उकोसेणवि मुहुत्त हुत्तस्स जाव नीससंति वा । माणिया णं भंते! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ?, गोयमा! जहणं मुहुत्पुहुचस्स उकोसेणं अनुक्रम [३५३] Neerajastaram.org अथ पद (०७) "उच्छवास" आरभ्यते ~ 41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [७], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -,-------------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ७ उच्छासपदे उघवासविरहः सू. [१४६]] १४६ दीप अनुक्रम [३५३] प्रज्ञापना-I'तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, सोहम्मदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! याःमल जहन्नेणं मुहुच हुत्तस्स उकोसेणं दोण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, ईसाणगदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा यवृत्ती. जाब नीससंति या ?, गोयमा! जहन्नेणं सातिरेगस्स मुहुत्त हुत्तस्स उकोसेणं सातिरेगाणं दोहं पक्खाणं जाव नीससंति वा, सर्णकुमारदेवाण भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंतिवा?, गोयमा! जहणं दोहं पक्खाणं उक्कोसेणं सत्तण्हं ॥२१॥ पक्खाणं जाव नीससंति वा, माहिंदगदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स आणगंति वा जाब नीससंति वा ?, गोयमा ! जहनेणं साइरेगं दोहं पक्खाणं उकोसेणं साइरेगं सचण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, बंभलोगदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा?, गोयमा जहन्त्रेण सत्तव्हं पक्खाणं उकोसेणं दसहं पक्खाणं जाव नीससंति वा, लंतगदेवाणं भंते! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंतिवारी,गोयमा! जहनेणं दसहं पक्खाणं उकोसेणं चउदसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, महासुकदेवाणं भंते केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ?, गोयमा! जहनेणं चउदसण्हं पक्खाणं उकोसेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं जाव नीससंतिवा, सहस्सारगदेवाणं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाप नीससंति वार, गोयमा! जहन्नेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं उक्कोसेणं अट्ठारसहं पक्खाणं जाव नीससंति वा, आणयदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठारसण्हं पक्खाणं उक्कोसेणं एगणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, पाणयदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा?, गोयमा ! जहन्नेणं एग्रणवीसाए पक्खाणं उकोसेणं पीसाए.पक्खाणं जाव नीससंति वा, आरणदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा !, गोयमा ! जहन्नेणं वीसाए पक्खाणं उक्को ॥२१९॥ ~ 42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [ ३५३ ] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [७], --------- उद्देशकः [-], -------------- दारं [-], ----- • मूलं [ १४६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ১১৩ ১৬৩ ১9999,১৬১৬১৬১৩ ৩% से एगवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, अच्चुयदेवा णं भंते! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहनेणं एगवीसाए पक्खाणं उकोसेणं बावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । हिट्टिमहिट्टिमगेविज्जगदेवा णं भंते! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहमेणं बावीसाए पक्खाणं उकोसेणं तेवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, हिद्विममज्झिमगेचिज्जगदेवा णं भंते! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहत्रेणं तेवीसाए पक्खाणं उकोसेण चवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, हिद्विमउवरिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा जहन्नेणं चउवीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं पणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, मज्झिमहिद्विमगेविज्जगाणं देवा णं भंते ! के वइकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहनेणं पणवीसाए पक्खाणं उकोसेणं छब्बीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । मज्झिममज्झिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहणं छबीसाए पक्खाणं उफोसेणं सत्तावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, मज्झिमउवरिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते! केवइकालस्स जाव नीससंति वा १, गोयमा ! जहनेणं सत्तावीसाए पक्खाणं उकोसेणं अट्ठावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उबरिमहेट्टिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते! केवइकालस्स जाव नीससंति वा?, गोयमा ! जभेणं अट्ठावीसाए पक्खाणं उकोसेणं एगूणतीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उबरिममज्झिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइकालस्स जाब नीससंति वा १, गोयमा ! जहनेणं एगुणतीसाए पक्खाणं उकोसेणं तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उवरिमउवरिमगेविज्जगाणं देवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहत्रेणं तीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं For Parts Only ~ 43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [७], --------------- उद्देशक: -, -------------- दारं , -------------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक मज्ञापनाया: मलय. वृत्ती . ॥२२०॥ च्वासवि [१४६]] १४६ दीप अनुक्रम [३५३] एकतीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । विजयविजयंतजयंतअपराजितविमाणेसुणं देवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाकर उच्चानीससंति वा, गोयमा! जहन्नेणं एकतीसाए पक्खाणं उकोसेणं तेतीसाए पक्खाणं जाव नीससंकि वा, सबट्ठमसिद्ध सपदे - देवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा! अजहन्नमणुकोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाब नीससंक्ति KARI वा ॥ (सूत्रं १४६) इतिः पन्नवणाए भगवईए सत्तमं ऊसासपर्य समत्तं ७॥ रहः सू. नेरइया णं भंते !' इत्यादि, नैरयिका णमिति वाक्यालयारे भदन्त ! 'केवाइकालस्स' इति प्राकृतशैल्या NH पञ्चम्यर्थे वा तृतीयार्थे वा पष्ठी ततोऽयमर्थः-कियतः कालात् कियता वा कालेन 'आणमंति' आनन्ति 'अन् प्राणने' इति धातुपाठात् मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्रापि यथायोगं परिभावनीयं, 'पाणमंति वा प्राणन्ति वा-INI शब्दी समुपयार्थों, एतदेव पदद्वयं क्रमेणार्थतः स्पष्टयति-'ऊससंति वा नीससंति वा' यदेवोक्तमानन्ति तदेवोक्तमुच्छुसन्ति तथा यदेवोक्तं प्राणन्ति तदेवोक्तं निःश्वसन्ति, अथवा आनमन्ति प्राणमन्ति इति ‘णम् प्रदत्वे' इत्यस्य द्रष्टव्यं, धातूनामनेकार्थतया श्वसनार्थत्वस्याप्यविरोधः, अपरे आचक्षते-आनन्ति प्राणन्तीत्यनेनान्तः स्फुरन्ती उम्छासनिःश्वासक्रिया परिगृह्यते उच्सन्ति निःश्वसन्तीत्यनेन तु वाया, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-गीतम! K ॥२२॥ सततमविरहितं, अतिदुःखिता हि नरयिकाः, दुःखितानां च निरन्तरमुच्छासनिःश्वासो, तथा लोके दर्शनात्, तच्च सततं प्रायोवृत्त्याऽपि स्थादत आह-संतयामेव' सततमेव-अनवरतमेव, नेकोऽपि समयस्तद्विरहकालः, दीर्घत्वं ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [ ३५३ ] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [७], --------- उद्देशकः [-], ------- दारं [-], ----- • मूलं [ १४६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्राकृतस्वात्, आममन्तीत्यादेः पुनरुच्चारणं शिष्यवचने आदरोपदर्शनार्थ, गुरुभिराद्रियमाणवचना हि शिष्याः सन्तो-पवन्तोः भवन्ति, तथा च सति पौनःपुन्येन प्रश्नश्रवणार्थनिर्णयादिषु घटन्ते लोके चाऽऽदेयवचना भवन्ति एवं प्रभूतभव्योपकारस्तीर्थाभिवृद्धिश्च । असुरकुमारसूत्रे 'उक्कोसेणं सातिरेयस्स पक्खस्सः इति, इह देवेषु यस्य यावन्ति सागरोपमाणि स्थितिस्तस्य तावत्पक्षप्रमाण उच्छासनिःश्वास क्रियाविरहकालः, असुरकुमाराणां चोत्कृष्टश स्थित्तिरेकं सातिरेकं सागरोपमं 'चमरबलि सारमहिय' मिति वचनात् ततः 'सातिरेगस्स पक्खस्स' इत्युक्तं, सातिरेकात्पक्षादूर्द्वसु सतीत्यर्थः, पृथिवीकाविकसूत्रे 'बेमायाए' इति विषमा मात्रा विमात्रा तया, किमुक्तं भवति ?-अनियतविरहकालप्रमाणा तेषामुच्छ्रासनिःश्वासक्रिया, तथा देवेषु यो यथा महायुः स तथा सुखी, सुखितानां च यथोत्तरं महानुच्छ्वासनिःश्वासक्रियाविरह कालः, दुःखरूपत्वादुच्छ्रासनिःश्वासक्रियायाः, ततो यथा यथाऽऽयुषः सागरोपमवृद्धिरस्ता तयोच्छ्रासनिःश्वासक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां सप्तमहासाख्यं पदं समासं ॥ Eucation Internation SUTAVYAAVA PANAYANNAVAVVVVINA ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविरचितवृत्तियुतं सप्तममुछ्वासपदं समाप्तम् ॥ PANANAKANANNANAKKAAKINAKKAAUNARKRAALAN अत्र पद (०७) "उच्छ्वास" परिसमाप्तम् For Park Use Only ~ 45~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१४७ -१४८] दीप अनुक्रम [ ३५४-३५५] पदं [८], • उद्देशक: [ - ], -------------- - दारं [-], ------- मूलं [१४७-१४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥२२९॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) अथ अष्टमं संज्ञाख्यं पदं प्रारभ्यते । तदेवं व्याख्यातं सप्तमं पदं, इदानीमष्टममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे सवानामुच्छ्वासपर्यासिनामकर्मयोगाश्रया क्रिया विरहाविरहकालप्रमाणेनोक्ता, सम्प्रति वेदनीयमोहनीयोदयाश्रयान् ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रयश्वात्मपरिणामविशेषानधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह कइ णं भंते ! सन्नाओ पन्नताओ ?, गोयमा ! दस सन्नाओ पन्नताओ, तंजहा- आहारसन्ना भवसन्ना मेहुणसन्ना परिग्गहसना कोहसना माणसभा मायासन्ना लोहसना लोयसन्ना ओषसन्ना || नेरइयाणं भंते ! कति सन्नाओ पद्मत्ताओ ?, गोयमा ! दस सभाओ पद्मत्ताओ, जहा आहारसन्ना जाव ओषसन्ना । असुरकुमाराणं भंते ! कइ सन्नाओ पचताओ ?, गोयमा ! दस सन्नाओ पन्नताओ, तंजहा आहारसन्ना जाब ओघसन्ना, एवं जाव थणियकुमाराणं । एवं पुढविकाइयाणं जाव वेमाणियावसाणाणं नेतवं (सूत्रं १४७) । नेरइयाणं भंते! किं आहारसन्नोव उत्ता भयसन्नोवउत्ता मेहुणासभोवउत्ता परिग्गहसनोवउत्ता?, गोयमा ! ओसन्नं कारणं पडुच भयसन्नोवउत्ता, संतभावं पडुच आहारसभोवउत्तावि जाव परिग्गहसन्नोवउत्तावि । एएसि णं भंते! नेरइयाणं आहारसन्नोवउत्ताणं भयसन्नोवउत्ताणं मेहुणसन्नोव उत्ताणं परिग्गहसभोवउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा नेरइया मेहुणसनोवरचा आहारसन्नो Ja Education International संज्ञायाः दश भेदस्य वर्णनं For Par Use Only अथ पद (०८) "संज्ञा" आरभ्यते ~ 46~ ८संज्ञापदं दश संज्ञाः सू. १४७ दण्डकभे दिन आहारसंज्ञादि मतामल्प. बहुता सू. ૩૮ ॥२२१॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [८], ---------------उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१४७-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७ -१४८] दीप अनुक्रम [३५४-३५५] Reeeee वउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता संखिजगुणा भयसन्नोवउत्ता संखिजगुणा । तिरिक्खजोणियाणं भंते ! किं आहारसन्नोवउता जाव परिग्गहसबोवउचा?, गोयमा ! ओसन्न कारणं पहुच आहारसभोवउत्ता संतदभावं पडुच आहारसनोवउचावि जाव परिग्गहसनोवउत्तावि, एएसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं आहारसबोवउत्ताणं जाव परिग्गहसन्नोवउत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा चा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया चा?, गोयमा ! सवत्थोवा तिरिक्खजोणिया परिग्गहसनोवउत्ता मेहुणसनोवउत्ता संखिज्जगुणा भयसन्नोवउत्ता संखिजगुणा आहारसन्नोवउत्ता संखिजगुणा ।। मणुस्सा णं भंते ! किं आहारसन्नोवउत्ता जाव परिग्गहसनोवउत्ता, गोयमा ! ओसन्न कारणं पडुच्च मेहुणसबोवउत्ता संततिभावं पडुच्च आहारसन्नोव उत्तावि जाव परिग्गहसनोवउत्तावि, एएसिणं भंते ! मणुस्साणं आहारसन्नोवउत्ताणं जाव परिग्गहसन्नोवउत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, मोयमा ! सवत्थोवा मणूसा भयसबोवउत्ता आहारसनोवउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता संखिजगुणा मेहुणसन्नोवउत्ता संखिजगुणा ॥ देवाणं भंते ! किं आहारसन्नोवउत्ता जाव परिग्गहसनोवउत्ता, गोयमा ! ओसन्नं कारणं पहुच्च परिग्गहसनोवउत्ता संततिभावं पडुच्च आहारसबोवउत्तावि जाव परिग्गहसन्नोवउचावि, एएसिणं भंते ! देवाणं आहारसन्नोवउचाणं जाव परिग्गहसन्नोवउताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सवत्थोवा देवा आहारसमोवउत्ता भयसनोवउत्ता संखिजगुणा मेहुणसनोवउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता संखेजगुणा (मूत्रं १४८) । इति पत्रवणाए भगवईए अट्टमं सन्नापदं समत्तं । ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [१४७-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मल- य. वृत्ती. [१४७-१४८] ॥२२शा दीप अनुक्रम [३५४-३५५] 'कइ णं भंते ! साओ पन्नत्ताओं' इति कति-कियत्सङ्ख्या णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! सज्ञाः प्रज्ञप्ताः, तत्र संज्ञापदं संज्ञान संज्ञा आभोग इत्यर्थः यदिवा सज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति सज्ञा उभयत्रापि वेदनीयमोहोदयाश्रिता दश सज्ञात ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्राऽऽहारादिप्राप्तिक्रिया, सा चोपाधिभेदाइशविधा, तथा चाह सू. १४७ गौतम ! दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तदेव दशविधत्वं नामग्राहमाह-'आहारसन्ना' इत्यादि, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयात् या दण्डकभेकवलाद्याहारार्थ तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया साऽऽहारसंज्ञा, तस्या आभोगात्मिकत्वात् , यदिवा संज्ञायते जीवोऽन- संजादियेति, एवं सर्वत्रापि भावना कार्या, तथा भयमोहनीयोदयात् भयोद्धान्तस्य दृष्टिबदनविकाररोमाञ्चोझेदादिक्रिया भय- मतामल्य|संज्ञा, पुंवेदोदयान्मैथुनाय ख्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरवेपनप्रभृतिलक्षणक्रिया मैथुनसम्ज्ञा, तथा लोभोदयात् बहुता सू. प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसज्ञा, तथा क्रोधवेदनीयोदयात् तदावेश- १४८ गर्भा पुरुषमुखबदनदन्तच्छदस्फुरणचेष्टा क्रोधसञ्जा, तथा मानोदयादहङ्कारात्मिका उत्सेकादिपरिणतिर्मानसज्ञा, मायावेदनीयेनाशुभसंक्लेशादनृतसंभाषणादिक्रिया मायासंज्ञा, तथा लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभसज्ञा, तथा मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमनात शब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावयोधक्रिया ओघसंज्ञा.T तथा तद्विशेषावबोधक्रिया लोकसजा, एवं चेदमापतितं-दर्शनोपयोग ओघसम्ञा ज्ञानोपयोगो लोकसब्जा, अन्ये त्वभिदधति सामान्यप्रवृत्तिर्यथा वल्या वृत्त्यारोहणमोघसज्ञा लोकस हेया प्रवृत्तिलोकसज्ञा, तदेवमेताः सुखप NA SARERatinintennatural wirectorary.com ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१४७-१४८] (१५) प्रत सूत्रांक । [१४७ -१४८] तिपत्तये स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य व्याख्याताः, एकेन्द्रियाणां त्वेता अव्यक्तरूपा अवगन्तव्याः, नैरयिकसूत्रे 'ओसन्नकारणं पडुप भयसन्नोवउत्ता' इति, तत्रोत्सन्नशब्देन बाहुल्यमुच्यते कारणशब्देन च बाखं कारणं, ततोऽयमर्थःबायकारणमाश्रित्य नैरयिका बाहुल्येन भयसन्जोपयुक्ताः, तथाहि-सन्ति तेषां सर्वतः प्रभूतानि परमाधार्मिकाय:कवल्लीशक्तिकुन्तादीनि भयोत्पादकादीनि, 'संतइभावं पडुच' इति इहानन्तरोऽनुभवभावः सन्ततिभाव उच्यते, तत आन्तरमनुभवभावमपेक्ष्य नैरयिका आहारसजोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अपि । अस्पबदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः, नैरयिका हि चक्षुर्निमीलनमात्रमपि न मुखिनः केवलमनवरतमतिप्रबलदुःखाग्निना संतप्यमानशरीराः, उक्तं च-"अच्छिनिमीलणमेत्तं नथि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । नरए नेरइयाणं अहोनिसंपचमाणाणं ॥१॥" ततो मैथुनेच्छा नैतेषां भवतीति, यदि परं क्वचित्कदाचित्केषांचित् भवति साऽपि च स्तोककाला इति पृच्छासमये स्तोका मैथुनसझोपयुक्ताः, तेभ्यः सक्येयगुणा आहारसम्जोपयुक्ताः, दुःखितानामपि प्रभूतानां प्रभूतकालं चाहारेच्छाया भावतः पृच्छासमये अतिप्रभूतानामाहारसज्ञोपयुक्तानां संभवात् , तेभ्यः सङ्ख्येयगुणाः परिग्रहसम्जोपयुक्ताः, आहारेच्छा हि देहायमेव भवति परिग्रहेच्छा तु देहे प्रहरणादिषु च, प्रभूततरकालावस्थायिनी च परिग्रहेच्छा, ततः पृच्छासमयेऽतिप्रभूततराः परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अवाप्यन्ते इति भवन्ति पूर्वेभ्यः सयेयगुणाः, १ अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखं दुःखमेव प्रतिबद्धम् । नरके नैरयिकाणामनिशं पच्यमानानाम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३५४-३५५] wwjanatarary.om ~ 49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [८], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [१४७-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. [१४७-१४८] ॥२२३॥ १४९ दीप अनुक्रम [३५४-३५५] तेभ्यो भयसझोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, नरकेषु हि नैरयिकाणां सर्वतो भयमामरणान्तभावि ततः पृच्छासमयेऽति- संज्ञापदे प्रभूततमा भयसनोपयुक्ताः प्राप्यन्ते इति सङ्घयेयगुणाः ॥ तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिया अपि बाझं कारणं प्रतीस बाहुल्येनाहारसम्झोपयुक्का भवन्ति न शेषसज्ञोपयुक्ताः, तथा प्रत्यक्षत एवोपलब्धः, आन्तरमनुभवभावमाश्रित्याहारसम्जो- या:संज्ञा पयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अपि, अल्पबदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः परिग्रहसज्ञोपयुक्ताः, परिग्रहसजायाः दण्डकः स्तोककालत्वेन पृच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात् , तेभ्यो मैथुनसज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः मैथुनसज्ञो | अल्पबहुपयोगस्थ प्रभूततरकालत्वात् , तेभ्योऽपि भयसञोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, सजातीयात्परजातीयाच तेषां भयसंभवतो भयोपयोगस्य च प्रभूततमकालत्वात् पृच्छासमये भयसञोपयुक्तानामतिप्रभूततराणामवाप्यमानत्वात् , तेभ्यः सङ्ख्ये गुणाः आहारसझोपयुक्ताः,प्रायः सततं सर्वेषामाहार(संज्ञा)संभवात्। मनुष्या बार्य कारणमधिकृत्य बाहुल्येन मैथुनसज्ञोपयुक्ताः स्तोका शेषसंज्ञोपयुक्ताः, सन्ततिभावमान्तरानुभवभावरूपं प्रतीत्याहारसज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसज्ञोपयुक्ता अपि, अल्पबदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका भयसञोपयुक्ताः, स्तोकान स्तोककालं च भयसंज्ञासंभवात् , तेभ्य आहारसज्ञोपयुक्ताः सोयगुणाः, आहारसझोपयोगस्य प्रभूततरकालभावात् , अत एव हेतोः तेभ्यः सजबयगुणाः परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः, तेभ्यो मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्येवगुणाः, मैथुनसंज्ञाया अतिप्रभूततरकालं यावद् भाष-18|| तः पृच्छासमये तेषामतिप्रभूततराणामवाप्यमानत्वात् ॥ स्था वाह्यं कारणमधिकृत्य बाहुल्येन देवाः परिग्रहसनो-8 ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [८], ---------------उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१४७-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७ |पयुक्ताः, मणिकनकरत्नादीनां परिग्रहसंज्ञोपयोगहेतूनां तेषा सदा सन्निहितत्वात् , संततिभावं यथोक्तरूपं प्रतीत्य । पुनराहारसंज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्ता अपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका आहारसंज्ञोपयुक्ताः, आहा-RI रेच्छाविरहकालस्यातिप्रभूततया आहारसंज्ञोपयोगकालस्य चातिस्तोकतया तेषा पृच्छासमये सर्वस्तोकानां तेषामवाप्यमानत्वात् , ततो भयसंज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्यगुणाः, भयसंज्ञायाः प्रभूतानां प्रभूतकालं च भावात् , तेभ्योऽपि मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः सञ्जयेयगुणाः, तेभ्यः परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, जीवापेक्षया बहवो वक्तव्यास्ते च तथैव भाविता इति । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामष्टमं संज्ञाख्यं पदं समाप्त । -१४८] दीप अनुक्रम [३५४-३५५] ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतमष्टमं संज्ञापदं समाप्तम् ।। अत्र पद (०८) "संज्ञा" परिसमाप्तम् ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [९], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१४९-१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत अधुना नवमपदं प्रारभ्यते । सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. |९योनिपदे शीताया योनयः [१४९-१५०] ॥२२॥ दीप अनुक्रम [३५६-३५७] तदेवं व्याख्यातमष्टमं पदं, अधुना नवममारभ्यते, तस्य चायमभिसंवन्धः-इहानन्तरपदे सत्त्वाना संज्ञापरि- णामा उक्ताः, इह तु तेषामेव योनयः प्रतिपाद्यन्ते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कतिविहा णं भंते ! जोणी पं०, गोयमा ! तिविहा जोणी पं०, ०-सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी । (मूत्रं १४९)। नेरइयाणं भंते ! किं सिता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा! सीतावि जोणी उसिणावि जोणी णो सीतोसिणा जोणी । असुरकुमाराणं भंते ! किं सिता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा! नो सीता जोणी नो उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, एवं जाव थणियकुमाराणं | पुढविकाइयाणं भंते ! किं सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा ! सितावि जोणी उसिणावि जोणी सीतोसिणावि जोणी, एवं आउकाउवणस्सइबेईदियतेइंदियचउरिदियाणवि पत्तेयं भाणियत्वं । तेउकाइयाणं णो सीता उसिणा णो सीउसिणा ।। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा! सीयावि जोणी उसिणावि जोणी सीतोसिणावि जोणी।। समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणवि एवं चेव ।। गम्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाण भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा! णो सीता जोणी नो उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी ॥ टरररररररररर edeisekese | ॥२२४॥ JIREucatinintentational अथ पद (०९) “योनि" आरभ्यते विविध जीवानाम् योनि (उत्पत्तिस्थान) प्ररुप्यते योनि एवं तस्या शीत-उष्ण-शीतोष्ण भेदा: ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [९], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१४९-१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९-१५०] दीप अनुक्रम [३५६-३५७] cceaesesersesedeseveretta मणस्साणं भंते ! कि सिता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा ! सीयावि जोणी उसिणावि जोणी मीना मिणावि जोणी ।। समुच्छिममणुस्सागं भंते ! किं सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा! तिविहा जोणी ॥ गम्भवतियमणुस्साणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी, गोयमा ! णो सीता०णो उसिणा० सीतोसिणा।। वाणमंतरदेवाणं भंते ! किं सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी?, गोयमा! णो सीताणो उसिणा, सीतोसिणा जोणी ।। जोइसियवेमाणियाणवि एवं चेव । एएसि णं भंते ! सीतजोणियाणं उसिणजोणियाणं सीतोसिणजोणियाणं अजोणियाण य कयरेशहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवा जीवा सीतोसिणजोणिया उसिणजोणिया असंखेजगुणा अजोणिया अपंतगुणा सीतजोणिया अणंतगुणा ॥ (मूत्रं १५०)। 'कतिविहा णं भंते ! जोणी' इत्यादि, कतिविधा-कतिप्रकारा णमिति पूर्ववत् भदन्त ! योनिः प्रज्ञप्ता, अथ योनिरिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, “यु मिश्रणे" युवन्ति तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकादिशरीरप्रायोग्य-18 पुद्गलस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनिः--उत्पत्तिस्थानं, औणादिको निप्रत्ययः, भगवानाह-गौतम!18 त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-शीता उष्णा शीतोष्णा, तत्र शीतस्पर्शपरिणामा शीता उष्णस्पर्शपरिणामा उष्णा शीतोष्णरूपोभयस्पर्शपरिणामा शीतोष्णा, तत्र नैरयिकाणां द्विविधा योनि:-शीता उष्णा च, न तृतीया शीतोष्णा, कस्यां पृथिव्यां का योनिरिति चेत् , उच्यते, रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां च यानि नैरयिकाणामुपपा ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं - -------------- मूलं [१४९-१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मलय०वृत्ती. [१४९-१५०] ॥२२५॥ दीप अनुक्रम [३५६-३५७] तक्षेत्राणि तानि सर्वाण्यपि शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि, उपपातक्षेत्रव्यतिरेकेण चान्यत्सर्वमपि तिसृष्वपि पृथिवी-1 योनिपदे खूष्णस्पर्शपरिणामपरिणतं तेन तत्रत्या नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदनां वेदयन्ते, पङ्कप्रभायां बहुन्युपपातक्षेत्राणि शीताद्या शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि स्तोकान्युष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकावासेषु शीत योनयः स्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि तेषु तयतिरेकेणान्यत्सर्पमुष्णस्पर्शपरिणाम येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकाबासेषु उष्णस्पर्शपरिणामानि उपपातक्षेत्राणि तेषु तव्यतिरेकेणान्यत्सर्व शीतस्पर्शपरिणामं तेन तत्रत्या बहवो नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदनां वेदयन्ते स्तोका उष्णयोनिकाः शीतवेदनामिति । धूमप्रभायां बहून्युपपातक्षेत्राणि उष्ण-20 स्पर्शपरिणामपरिणतानि स्तोकानि शीतस्पर्शपरिणामानि, येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकावासेषु चोष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि उपपातक्षेत्राणि तेषु तयतिरेकेणान्यत्सर्वं शीतपरिणाम, येषु च शीतस्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि तेष्वन्यदुष्णस्पर्शपरिणाम, तेन तत्रया बहवो नारका उष्णयोनिकाः शीतवेदनां वेदयन्ते तोकाः शीतयोनिका उष्णवेदनामिति । तमःप्रभायां तमस्तमःप्रभायां चोपपातक्षेत्राणि सर्वाण्यप्युष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि, तव्यतिरे-15 केण चान्यत्सर्वं तत्र शीतस्पर्शपरिणाम, तेन तत्रत्या नारका उष्णयोनिकाः शीतवेदनां वेदयितार इति । भवनवा- २२५ सिनां गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां चोपपातक्षेत्राणि || शीतोष्णरूपोभयस्पर्शपरिणतानि तेन तेषां योनिरुभयखभावा न शीता नाप्युष्णा । एकेन्द्रियाणामकायिकर्जानां ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [९], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [१४९-१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९-१५०] दीप अनुक्रम [३५६-३५७] द्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूचिमतिर्यपञ्चेन्द्रियसंमूछिममनुष्याणां चोपपातस्थानानि शीतस्पर्शान्युष्णस्पर्शान्युभयस्पर्शा-11 न्यपि भवन्तीति तेषां त्रिविधा योनिः। तेजःकायिका उष्णयोनिकाः (तथा अप्कायिकाः शीतयोनिकाः) तथा| प्रत्यक्षत उपलब्धेः । अल्पवहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः शीतोष्णयोनयः-शीतोष्णरूपोभययोनिकाः, भवनवासिगर्मजतिर्यक्पञ्चेन्द्रियगर्भजमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामेयोभययोनिकत्वात् , तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणा उष्णयोनिकाः, सर्वेषां सूक्ष्मबादरभेदमिन्नानां तेजःकायिकानां प्रभूततराणां नैरयिकाणां कतिपयानां पृथिव्यब्वायुप्रत्येकवनस्पतीनां चोष्णयोनिकत्वात् , अयोनिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यः शीतयोनिका अनन्तगुणाः, अनन्तकायिकानां सर्वेषामपि शीतयोनिकत्वात् , तेषां च सिद्धेभ्योऽपि अनन्तगुणत्वात् । भूयः प्रकारान्तरेण योनीः प्रतिपिपादयिषुराहकतिविहा भते ! जोणी पं०१, गोयमा ! तिविहा जोणी प०, तं०-सचित्ता अचित्ता मीसिया । नेरइयाणं भंते ! किं सचिसा जोणी अचित्ता जोणी मीसिया जोणी, गोयमा ! नो सचित्ता जोणी अचित्ता जोणी नो मीसिया जोणी । असुरकुमाराणं भंते ! किं सचित्ता जोणी अचित्ता जोणी मीसिया जोणी ?, गोयमा ! नो सचित्ता जोणी अचिचा जोणी नो मीसिया जोणी, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढवीकाइआणं भंते ! किं सचित्ता जोणी अचित्ता जोणी मीसिया जोणी, गोयमा ! सचित्ता जोणी अचिना जोणी मीसियावि जोणी, एवं जाब चउरिदियाणं ॥ समुच्छिमपंचेदियतिरिक्ख awralianchurary.orm योनि एवं तस्या सचित्त-अचित्त-मिश्र भेदा: ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [३५८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [९], ---------- उद्देशकः [-], -------------- दारं [-], ----- - मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२२६॥ जोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य एवं चैव । गम्भव के तियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं गन्भवतियमणुस्साण य नो सचित्ता नो अचित्ता मीसिया जोणी । वाणमंतरजोइसियवेमा णियाणं जहा असुरकुमाराणं । एतेसि णं भंते ! जीवाणं सचित्तजोगीणं अचित्तजोणीणं मीसजोणीणं अजोणीण य कयरे २ हिंतो अ० ब० तु० वि० १, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा मीसजोगिया अचित्तजोणिया असंखेज्जगुणा, अजोणिया अनंतगुणा, सचित्तजोणिया अनंतगुणा । ( सूत्रं १५१ ) 1 'कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता' इत्यादि, सचित्ता जीवप्रदशसंवद्धा, अचित्ता सर्वथा जीवविप्रमुक्ता, मिश्रा | जीवविप्रमुक्ताविप्रमुक्तख रूपा । तत्र नैरयिकाणां यदुपपातक्षेत्रं तन्न केनचिज्जीवेन परिगृहीतमिति तेषामचित्ता योनिः, यद्यपि सूक्ष्मैकेन्द्रियाः सकललोकव्यापिनस्तथाऽपि न तत्प्रदेशैरुपपातस्थानपुद्गला अन्योऽन्यानुगमसंबद्धा इत्यचित्चैव तेषां योनिः । एवमसुरकुमारादीनां भवनपतीनां व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां चाचित्ता योनिर्भावनीया । पृथिवीकायिकादीनां संमूहिम मनुष्यपर्यन्तानामुपपातक्षेत्रं जीवैः परिगृहीतमपरिगृहीतमुभयखभावं च संभवतीति त्रिवि धाऽपि योनिः, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां (च) यत्रोत्पत्तिस्तत्राचित्ता अपि शुक्रशोणितादिपुद्गलाः सन्तीति मिश्रा तेषां योनिः । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका जीवा मिश्रयोजिकाः, गर्भव्युत्क्रा|न्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव मिश्रयोनिकत्वात्, तेभ्योऽचित्तयोनिका असङ्ख्येयगुणाः, नैरयिकदेवानां कतिपयानां च प्रत्येकं पृथिव्य तेजोवायुप्रत्येक वनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूच्छिम तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूच्छिममनुष्याणामचि For Parts Only ~56~ ९ योनिपदे सचित्ताया योनयः सू. १५१ ॥२२६॥ wor Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५१] meरररsheetSemesesea दीप अनुक्रम [३५८] चयोनिकत्वात् , तेभ्योऽप्ययोनिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यः सचित्तयोनिका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानां सचित्तयोनिकत्वात् तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । भूयोऽपि प्रकारान्तरेण योनीः प्रतिपादयितुकाम आहकइविहा गं भंते ! जोणी पं०१, गोयमा! तिविहा जोणी प०,०-संबुडा जोणी वियडा जोणी संखुडवियडा जोणी । नेरइयाणं भंते ! कि संवुडा जोणी वियडा जोणी संबुडवियडा जोणी, गोयमा! संबुडजोणी, नो वियडजोणी नो संवुडवियडजोणी, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । बेइंदियाणं पुच्छा , गोयमा! नो संयुडजोणी वियडजोणी नो संवुडवियडजोणी । एवं जाव चउरिदियाणं । समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं समुच्छिममणुस्साण य एवं चेय । गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिय गन्भवतियमणुस्साण य नो संबुडा जोणी नो वियडा जोणी संवुडवियडा जोणी । चाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । एतेसिणं भंते ! जीवाणं संवुडजोणियाणं वियडजोणियाणं संचुडवियडजोणियाणं अजोणियाण य कयरे २ हिंतो अ० ब० तु. वि०१, गोयमा! सवत्थोवा जीवा संबुडवियडजोणिया वियडजोणिया असंखिजगुणा अजोणिया अणंतगुणा संवुडजोणिया अणंतगुणा ।। (सूत्र १५२) 'काविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता' इत्यादि, तत्र नारकाणां संवृता योनिः, नरकनिष्कुटानां नारकोत्पत्ति| स्थानानां संवृतगवाक्षकल्पत्वात् , तत्र च जाताः सन्तो नैरयिकाः प्रबर्द्धमानमूतेयस्तेभ्यः पतन्ति, शीतेभ्य उष्णेषु योनि एवं तस्या संवृत-विवृत-संवृतविवृत भेदा: ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५२] दीप अनुक्रम [ ३५९ ] “प्रज्ञापना" पदं [९], --------- उद्देशकः [-], ------- दारं [-], [----- - मूलं [१५२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ४ ॥२२७॥ - • उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) उष्णेभ्यः शीतेष्विति, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामपि संवृता योनिः तेषां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिते उत्पादात् “देवसयणिज्जंसि देवदूतरिए अंगुलासंखेज्जइभागमेत्ताए सरीरोगाहणाए उववज्जइ" इति वचनात् एकेन्द्रिया अपि संवृतयोनिकाः, तेषामपि योगेः स्पष्टमनुपलक्ष्यमानत्वात्, द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रियपर्यन्तानां संमूच्छिम तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूच्छिममनुष्याणां च विष्टता योनिः तेषामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयादेः स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात्, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां च संवृतविता योनिः गर्भस्य संवृतविवृतरूपत्वात्, गर्भो ह्यन्तः खरूपतो नोपलभ्यते बहिस्तृदरवृज्यादिनोपलक्ष्यते इति । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः संवृतविवृतयो निकाः, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव संवृतविवृतयोनिकत्वात्, तेभ्यो विवृतयोनिका असंख्येयगुणाः, द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रियपर्यवसानानां संमूर्च्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूर्च्छिममनुष्याणां च विवृतयोनिकत्वात्, तेभ्योऽयोनिका अनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तत्वात्, तेभ्यः संवृत्तयोनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां संतयोनिकत्वात् तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ॥ सम्प्रति मनुष्ययोनिविशेषप्रतिपादनार्थमाह कइविहा गं भंते ! जोणी पं० १, गोयमा ! तिविहा जोणी पं० तं० – कुम्मुष्णया संखावत्ता सीपत्ता, कुम्मुण्णया जं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं, कुम्मुण्णयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गन्भे वकमंति तं० – अरहंता चकवट्टी वलदेवा वासु योनि एवं तस्या कुर्मोन्नत्त शङ्खावत- वंसीपत्र भेदाः For Penal Use On ~58~ ९ योनिपदे संताया योनयः सू. १५२ ॥२२७॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५३] दीप अनुक्रम [३६० ] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) ------- दारं [-], ------- पदं [९], --------------- उद्देशक: [ - ], - मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः देवा । संखायचा णं जोणी इत्थीरयणस्स, संखावतार जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला व बकमंति विकर्मति चयंति उबचयंति, नो चेव णं णिष्फज्र्जति । बंसीपचा णं जोणी पिहुजणस्स, बसीपत्ताए णं जोगीए पिहुजणे मन्ये वकमंति । (सूत्रं १५३) पद्मवणाए नवमं जोगीवदं समत्तं ९ ॥ 'कविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता' इत्यादि, कूर्मपृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता, शङ्खस्येवावर्तो यस्याः सा शावर्ता, संयुक्तवंशीपत्रद्वयाकारत्वाद् वंशीषत्रा, शेषं सुगमं, नवरं शङ्खावर्तायां योनौ बहवो जीवा जीवसंबद्धा पुलाबावक्रमन्ते - आमच्छन्ति व्युत्क्रामन्ति - गर्भतषोत्पद्यन्ते, तथा चीयन्ते – सामान्यतभयमागच्छन्ति, उपचीयन्तेविशेषत उपचयमायान्ति परं न निष्पद्यन्ते, अतिप्रबलकामाग्निपरितापती ध्वंसगमनादिति वृद्धप्रवादः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां योन्याख्यं नवमं पदं समाप्तम् ! Education Internationa अत्र पद (०९) "योनि" परिसमाप्तम् ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं नवमं योनिपदं समाप्तम् ॥ For Parts Only ~59~ ९ योनिपदे कूर्मोनता या योजाः सू. १५३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. पृथ्वीनां सूत्रांक [१५४] १०चरमादशमं चरमाचरमपदम् । चरमपदे तदेवं व्याख्यातं नवमं पदं, इदानीं दशममारभ्यते, तस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तरपदे सत्त्वानां योनयःचरमाचरप्रतिपादिताः, अस्मिंश्च यदुपपातक्षेत्र रत्नप्रभादि तख चरमाचरमविभागप्रदर्शनं क्रियते, तत्र चेदमादिसूत्रम् मता सू. कति णं भंते ! पुढवीओ पं०१. गोयमा ! अट्ट पुटवीओ पं०, तं०-रयणप्पभा सकरप्पभा वालुयप्पभा पंकप्पभा धूम १५४ प्पभा तमप्पमा तमतमप्पभा ईसीपम्भारा ।। इमा णं मंते ! रयणप्पभा पुढवी किं चरमा अचरमा चरमाई अचरमाई चरमंतपदेसा अचरमंतपदेसा, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी नो चरमा नो अचरमा नो घरमातिं नो अचरमातिं नो चरमंतपदेसा नो अचरमंतपदेसा नियमा चरमं चरमाणि य चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य, एवं जाव अधेसत्तमा पुढवी, सोहम्माती जाव अणुत्तरविमाणाणं, एवं चेव ईसीपब्भारावि, एवं चेव लोगेषि, एवं चैव अलोगेवि । (सूत्र १५४) 'कति णं भते । पुढवीओ पण्णताओं' इत्यादि सुगम, नवरमीपत्प्राग्भारा पश्चचत्वारिंशद्योजनलक्षायामवि-1 कम्भप्रमाणा शुद्धस्फटिकसंकाशा सिद्धशिला । 'इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं चरमा अचरमे स्यादि पृच्छा, ॥२२८॥ अथ केयं चरमाचरमपरिभाषा ?, उच्यते, चरमं नाम पर्यन्तवर्ति, तच्चरमत्वमापेक्षिकं, अन्यापेक्षया तस्य भावात् , यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमशरीरमिति, अचरमं अप्रान्तं मध्यवर्तीतियावत् , तदपि चापेक्षिकं, तस्य चरमापेक्षया दीप अनुक्रम [३६१] atoe अथ पद (१०) “चरिम" आरभ्यते ...अस्य अध्ययनस्य (पदस्य) 'चरिम' इति मूलसूत्र (गाथा) '८' दत्त नाम. तत्स्थाने वृत्तिकारेण 'चरमाचरम' नाम दत्तवान् | ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [३६१] भावात् , यथा तथाविधान्यशरीरापेक्षया मध्यशरीरमचरमशरीरं, तदेवं चरमाऽचरमेत्येकवचनान्तः प्रश्नः कृतः, सम्प्रति बहुवचनान्तमाह-'चरमा अचरमाई' इति, एतानि चत्वारि प्रश्नसूत्राणि तथाविधैकत्वपरिणामविशिष्टद्रव्यविषयाणि कृतानि, सम्प्रति प्रदेशानधिकृस्य प्रश्नसूत्रद्वयमाह-'चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य इति, चर-N माण्येवाम्सपर्सित्वात् अन्साबरमान्तावत्प्रदेशाब चरमान्तप्रदेशाः, अचरममेव कस्याप्यपेक्षयाऽनन्तवर्तित्वादन्तः अच-IN रमान्तस्तत्प्रदेशा अचरमान्सप्रदेशाः। तदेवं षट्सु प्रश्भेषु कृतेषु भगवानाह-गौतम! सा रत्नप्रभा पृथिवी न घरमा, चरमत्वं सापेक्षिकमित्युक्तं, न चानान्यदपेक्षणीयमस्ति, केवलाया एव तदन्यनिरपेक्षायाः पृष्टत्वात् , नाप्यचरमा, सत एष हेतोः, तथाहि-अचरमत्वमपि आपेक्षिक, न पात्रान्वदपेक्षणीयमस्तीति. किमुक्तं भवतिनयं रत्नप्रभा पृथिवी न पश्चिमा नापि मध्यमा, तदन्यस्यापेक्षणीयस्याविवक्षणादिति, अत एव न चरमाणि, चरमत्वन्यपदेशखेवासंभवतस्तद्विषयवहुवचनासंपवात्, तथाहि-यदा तस्याश्चरमत्वन्यपदेश एवोक्तयुक्तर्नोपपद्यते तदा कथं तद्विपयं बहुवचनमुपपचुबहतीति , एवमचरमाण्वपि प्रतिषेधनीयानि, प्रागुक्तयुक्तरचरमत्वव्यपदेशस्यासंभवात् , तथा न च चरमान्तप्रदेशा नाप्यचरमान्तप्रदेशाः, उक्तयुक्सा चरमत्वस्याचरमत्वस्य चासंभवतस्तत्प्रदेशकल्पनाया अप्यसंभवात्, बिबेवं तर्हि किंखरूपा खा? इत्यत माह-नियमाद्' निवमेनाचरमं चरमाणि च, किमुक्तं भवति १-यदीवमखडरूपा विवक्षितत्वात् (ख) पृच्छयते सरायोक्तभज्ञानामेकेनापि भक्केन व्यपदेशो न भवति, यदा त्वसोव-N For P OW ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] १५४ दीप अनुक्रम [३६१] प्रज्ञापना- प्रदेशावगाढेत्यनेकावयवविभागात्मिका विवक्ष्यते तदा यथोक्तनिर्वचनविषया भवति, तथाहि-रत्नप्रभा पृथिवी १०चरमाया: मल तावदनेन प्रकारेण व्यवस्थिता, स्थापना चेयं । एवमवस्थिताया अस्या यानि प्रान्तेष्ववस्थितानि खण्डानि प्रत्येकं चरमपदे २०त. तथाविधविशिष्टैकत्वपरिणामपरिणतानि तानि चरमाणि, यत्पुनर्मध्ये महद्रलप्रभायाः खण्डं तत्तथाविधैकत्वपरिणाम | रत्नप्रभा॥२२९॥ वादेकत्येन विवक्षितमित्यचरमं, उभयसमुदायरूपा चेयं, अन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, तदेवमवयवावयविरूपतया मतादि स. चिन्तायामचरमं चरमाणि चेत्यखण्डकनिषेचनविषया प्रतिपादिता, यदा पुनः प्रदेशचिन्ता क्रियते तदेवं निर्वेच-15 नम्-चरमान्तप्रदेशाश्च अचरमान्तप्रदेशाच, तथाहि-ये बायखण्डेषु गताः प्रदेशास्ते चरमान्तप्रदेशाः, ये पुनर्मध्यैकखण्डगताः प्रदेशास्ते अचरमान्तप्रदेशाः, अन्ये तु ब्याचक्षते-चरमाणि नाम तथाविधप्रविष्टेतरप्रान्तैकग्रादेशिकणिपटलरूपाणि, मध्यभागोऽचरम इति, तदपि समीचीनं. दोषाभावात, चरमान्तप्रदेशा यथोक्तरूपप्रान्तैकग्रादेशिकश्रेणिपटलगताः प्रदेशाः, अचरमान्तप्रदेशा मध्यभागगताः प्रदेशाः, अनेन निर्वचनसूत्रेण एकान्त-|| दुर्नयनिरोधप्रधानेन अवयवावयविरूपरलप्रभादिकं वस्तु तयोश्चावयवावयविनोर्मेदाभेद इत्यावेदितं, यथा चावय वावयविरूपतायां न परोक्तदूषणावकाशस्तथा धर्मसंग्रहणिटीकायां वायवस्तप्रतिष्ठाऽवसरे प्रतिपादितमिति ततोऽ-18 ॥२२९॥ विधार्य । 'एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवी'यादि, यथा रत्नप्रभा प्रथिवी प्रश्ननिर्वचनाभ्यामुक्ता एवं शर्कराद्या अपि पृथिव्यः सौधर्मादीनि च विमानानि अनुत्तरविमानपर्यवसानानि ईपत्प्रारभारा लोकश्च वक्तव्यः । सूत्रपाठोऽपि ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [३६१] पदं [१०], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - Educatin internation • उद्देशक: [ - ], ------ ------- दारं [-], -------मूलं [ १५४] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः --------- | सुगमत्वात्स्वयं परिभावनीयः, स चैवम्- 'सकरप्पभा णं भंते! पुढवी किं चरमा अचरमा चरमाणि अचरमाणि' इत्यादि । एवं 'अलोगेचि' इति, एवम् उक्तेन प्रकारेणालोकोऽपि वक्तव्यः, स चैवम् - "अलोए णं भंते! किं चरमे अचरमे" इत्यादि प्रश्नसूत्रं तथैव निर्वचनसूत्रं 'गोयमा! अचरमे चरमाणि य चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य' तत्र चरमाणि यानि खण्डानि लोकनिष्कुटेषु प्रविशनि शेषमन्यत्सर्वमचरमं चरमखण्डगताः प्रदेशाः चरमान्तप्र| देशाः अचरमखण्डगताः प्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाः ॥ सम्प्रत्येतेषु रत्नप्रभादिषु प्रत्येकं चरमाचरमादिगतमल्पबहुत्वमभिधित्सुरिदमाह इसीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए अचरमस्स य चरमाण य चरमंतपरसाण य अचरमंतपएसाण य दबट्टयाए पएसट्टयाए दसट्टयाए कयरे २ हिंतो अ० ० तु० वि० १, गोयमा ! सवत्थोवा इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए दबट्टयाए एगे अचरमे चरमाई असंखिज्जगुणाई, अचरमं चरमाणि य दोवि विसेसाहिआ, परसट्टयाए सङ्घत्थोवा इमीसे रयणभाए पुढची चरमन्तपदेसा, अचरमंतपदेसा असंखेजगुणा, चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य दोवि विसेसाहिआ, दबट्ठपएसइयाए सवत्थोवा इमीसे रयणप्यभार पुढवीए दट्टयाए एगे अचरिमे, चरिमाई असंखेज्जगुणाई, अचरिमं चरिमाणि य दोषि विसेसाहिआ, चरमंतपएसा असंखेज्जगुणा, अचरमंतपरसा असंखिज्जगुणा, चरमंतपएसा य अचरमंतपसा य दोषि विसेसाहिआ, एवं जाव अहेसत्तमाए सोहम्मस्स जाव लोगस्स एवं चैव । (सूत्रं १५५ ) अलोगस्स गं For Parks Use Only ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५५ -१५६] दीप अनुक्रम [३६२ -३६३] पदं [१०], ----- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], [-------------- • मूलं [१५५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य०वृत्ती. ॥ २३०॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) - भंते ! अचरमस्स व चरमाण य चरमन्तपदेसाण य अचरमन्तपदेसाण व दट्टयाए परसट्टयाए दबट्टपएसद्वधाए कमरे २ हिंतो अ० ० ० वि० १, गोयमा ! सवत्थोवे अलोगस्स दबट्टयाए एगे अचरमे चरमाई असंखिजगुणाई अचरमं चरमाणि य दोवि विसेसाहियाई, पएसइयाए सबत्थोवा अलोगस्स चरमन्तपदेसा अचरमन्तपएसा अणन्तगुणा चरमन्तपसा य अचरमन्तपदेसा य दोवि विसेसाहिया, दवदृपएसपाए सहत्थोवे अलोगस्स एगे अचरमे चरमाई असंखेजगुणाई अचरमं च चरमाणि य दोवि विसेसाहियाई, चरमन्तपएसा असंखेजगुणा, अचरमन्तपसा अणन्वगुथा, चरमन्तपसा य अचरमन्तपसा य दोवि विसेसाहिया ।। लोगालोगस्स णं भंते ! अचरमस्स य चरमाण य चरमन्तपरसाण य अचरमन्तपसाण थ दवट्टयाए परसट्टयाए दबट्टपरसट्टयाए कमरे २ हिंतो अ० ० तु० वि० १, गोयमा ! सवत्थोवे लगालोगस्स दाए एगमेगे अचरमे, लोगस्स चरमाई असंखेज्जगुणाई, अलोगस्स चरमाई विसेसाहियाई लोगस्स (य) अलोगस्स य अचरमं यः चरमाणि य दोषि विसेसाहियाई, पएसट्टयाते सवत्थोवा लोगस्स चरमन्वपदेसा, अलोगस्स चरमन्वपदेसा विसेसाहिआ, लोगस्स अचरमन्तपएसा असंखेजगुणा, अलोगस्स अचरमन्तपएसा अणन्वगुणा, लोगस्स य लोगस्स प चरमन्तवदेसा च अचरमन्तपदेसा य दोवि विसेसाहिया । दवट्ठपएसडबाए सबत्थोवे लोगालोगस्स दबट्टयाए एगमेगे अचरमे, लोगस्स चरमाई असंखेजगुणाई, अलोगस्स चरमाई विसेसाहियाई, लोगस्स य अलोगस्स य अचरमं मानिय दोषि विसेसाहियाई, लोगस्स चरमन्तपदेसा जसंखेअगुणा, अलोगस्स य चरमन्तपसा विसेसाहिया, लोगस्स Education International For Parata Use Only ~64~ १० घरमा चरमपदे रत्नप्रभादिश्वरमादीनामल्पबहुत्वं सू. १५५-१५६ ||२३०|| Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५५ -१५६] दीप अनुक्रम [३६२ -३६३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [१०], ------- उद्देशक: [ - ], -------------- दारं [-], [-------------- • मूलं [१५५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः अचरमन्तपसा असंखेअगुणा, अशोमस्स अचरमंतपरसा अनंतगुणा, लोगस्स व अलोगस्स य चरमन्तपसा यरमन्तपसा य दोबि चिसेसाहिया, सहृदवा विसेसाहिया, सबपएसा अनंतगुणा, सबपज्जवा अर्णवगुणा । (सूत्रं १५६ ) 'हमसे गं भंते । रथषयमाए पुडवीए मचरमस्स व चरमाणय' इत्यादि प्रमसूत्रं सुगमं, निर्वचनसूत्रे सर्वलोकं द्रष्वार्थतया अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अचरमखण्डं, कस्मात् ? इति चेत्, जत आह-एक, “निमित्तकारणरेषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति न्यायादत्र देसी प्रथमा, ततोऽयमर्थः — यस्मात्तथाविधैकस्कन्धपरिणामपरिणतत्वादेकं ततः स्तोकं, तस्माद्र बानि चरमाणि खण्डानि तान्यसंख्येयगुणानि तेषामसङ्ख्यातत्वात्, अथाचरमं चरमाणि च समुदितानि चरमाणां तुल्यानि विशेषाधिकानि वा ? इति शङ्कायामाह - अचरमं चरमाणि च समुदितानि विशेषाधिकानि, तथाहि--यदचरमं द्रव्यं तत् चरमद्रव्येषु प्रक्षिप्तं, ततश्वरमेभ्य एकेनाधिकत्वात् विशेपाधिकसमुदायो भवति । प्रदेशार्थत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाश्चरमान्तप्रदेशाः, यतश्चरमखण्डानि मध्यखण्डापेक्षयाऽतिसूक्ष्माणि ततस्तेषामसयेयगुणानामपि ये प्रदेशास्ते मध्यखण्डगतप्रदेशापेक्षया सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽचरमप्रदेशा असवेयगुणाः, अचरमखण्डस्यैकस्यापि चरमखण्डसमुदायापेक्षया क्षेत्रतोऽसवेयगुणत्वात्, चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाश्च इषेऽपि समुदिता अचरमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिकाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह चरमान्तप्रदेशा बचरमान्तप्रदेशापेक्षवा असह्येवभागप्रमाणाः, ततोऽचरमान्तप्रदेशेषु चरमान्तप्रदेशप्रक्षेपेऽपि तेऽचरमान्तप्रदेशेभ्यो Education Internation For Parts Only ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५-१५६] दीप अनुक्रम [३६२-३६३] प्रज्ञापना विशेषाधिका एव भवन्ति, द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तायां 'अचरमं चरमाणि य दो विसंसाहियाई चरमन्तपएसा असंखेजयाःमल- ISगुणा' इति अचरमचरमसमुदायाचरमान्तप्रदेशा असङ्ग्येयगुणाः, कथं ?, उच्यते, इह यदचरमखण्डं तदसङ्ख्येयप्रदेशा- |चरमपदे यवृत्ती. वगाढमपि द्रव्यार्थतया एकं, चरमेषु पुनः खण्डेषु प्रत्येकमसोयाः प्रदेशाः, ततो भवन्ति चरमाचरमद्रव्यसमुदाया- रत्नप्रभा दसवेयगुणाथरमान्तप्रदेशाः, तेभ्योऽप्यचरमान्तप्रदेशा असोयगुणाः, तेभ्योऽपि चरमाचरमप्रदेशाः समुदिता ॥२३॥ |दिचरमाइति पूर्ववत् । अलोकसूत्रे प्रदेशार्थतायां सर्वस्तोका अलोकस्य चरमान्तप्रदेशाः, लोकनिष्कुटेप्वेवान्तस्तेषां भावात् , तेभ्योऽचरमान्तप्रदेशा अनन्तगुणाः, अलोकस्यानन्तत्वात् , चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाश्च समुदिता विशेषा- बहुत्व सू. Iधिकाः, चरमान्तप्रदेशा बचरमान्तप्रदेशापेक्षया अनन्तभागकल्पाः , ततस्तेषामचरमान्तप्रदेशराशी प्रक्षेपेऽपि ते अच-18 १५५-१५६ रमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिका एव भवन्ति । सम्प्रति लोकालोकसमुदायविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'लोगालोगस्स 181 भंते ! अचरमस्स य चरमाण य' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमं, निवर्चनमाह-'गोयमे स्यादि, गौतम ! लोकस्य अलो-18 कस्य च यदेकैकं चरमखण्डं तत्स्तोकं, एकत्वात् , तेभ्यो लोकस्य चरमखण्डद्रव्याण्यसबेयगुणानि, तेषामसङ्ख्यात-181 त्वात् , तेभ्योऽप्यलोकस्य चरमखण्डानि विशेषाधिकानि, कथमिति चेत् , उच्यते, इह यद्यपि लोकस्य चरमख- ॥२३॥ ण्डानि तत्त्वतोऽसद्ध्येयानि तथापि प्रागुपदर्शितपृथिवीन्यासपरिकल्पनया तान्यष्टौ परिकल्प्यन्ते, तद्यथा-एकैक चितसृषु दिक्षु एकैकं च विदिविति, अलोकचरमखण्डानि तभ्यासपरिकल्पनया परिगण्यमानानि द्वादश, तद्यथा ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५५ -१५६] दीप अनुक्रम [३६२ -३६३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [१०], ------- उद्देशक: [ - ], -------------- दारं [-], [-------------- • मूलं [१५५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः एकैकं चतसृषु दिक्षु द्वे द्वे विदिश्विति, द्वादश चाष्टभ्यो न द्विगुणानि न त्रिगुणानि च, किन्तु विशेषाधिकानि, तेभ्योऽलोकस्य चरमखण्डेभ्यो लोकालोकस्य चरमाचरमखण्डानि समुदितानि विशेषाधिकानि, तथाहि-- लोकस्य चरमखण्डानि प्रागुक्तपरिकल्पनया अष्टौ एकमचरमखण्डमित्युभयमीलने नव, अलोकस्यापि चरमाचरमखण्डानि समुदितानि त्रयोदश, उभयेषामेकत्र मीलनेन द्वाविंशतिः, सा च द्वादशभ्यो न द्विगुणा नापि त्रिगुणा किन्तु विशेषाधिकेति अलोकस्य चरमखण्डेभ्यो लोकालोकचरमाचरमखण्डानि समुदितानि विशेषाधिकानि । प्रदेशार्थताचिन्तायां सर्वस्तोका लोकस्य चरमान्तप्रदेशाः, अष्टखण्डसत्कानामेव प्रदेशानां भावात्, तेभ्योऽलोकस्य चरमान्तप्रदेशा विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि लोकस्य अचरमान्तप्रदेशा असङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यातिप्रभूततया तत्प्रदेशानामप्यतिप्रभूतत्वात्, तेभ्योऽप्यलोकस्याचरमान्तप्रदेशा अनन्तगुणाः, क्षेत्रस्यानन्तगुणत्वात्, तेभ्योऽपि लोकस्य चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशा अलोकस्यापि चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाः समुदिता विशेषाधिकाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इहालोकस्या चरमान्तप्रदेशराशौ लोकस्य चरमाचरमान्तप्रदेशा अलोकस्य चरमान्तप्रदेशाश्च प्रक्षिष्यन्ते, ते च सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्या (संख्यया) श्चानन्तराश्यपेक्षयाऽतिस्तोका इति प्रक्षेपेऽपि तेऽलोकस्याचरमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिका एव । एतदनुसारेण द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तासूत्रमपि स्वयं परिभावनीयं, नवरं लोकालोकचरमाचरमखण्डेभ्यो लोकस्य चरमान्तप्रदेशा असङ्ख्येयगुणा इति, लोकस्य किल चरमाणि खण्डान्यष्टौ, एकैकस्मिंश्च खण्ड Educatin internation For Pass Use Only ~67~ waryra Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: [-1,-------------- दारं [-], -------------- मूलं [१५५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना सूत्रांक [१५५-१५६] यवृत्ती. ॥२३॥ दीप अनुक्रम [३६२-३६३] देशे खण्डप्रदेशा असङ्ख्यया लोकालोकयामाचरमखण्डानि च समुदितानि द्वाविंशतिः, ततो घटन्ते लोकालोकचरमा- १०चरमा चरमखण्डेभ्यो लोकस्य चरमान्तप्रदेशा असोयगुणाः, शेषपदभावना प्राग्वत्, 'सबदबा विसेसाहिया' इति चरमपदे |लोकालोकचरमाचरमान्नप्रदेशेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, अनन्तानन्तसङ्ग्यानां जीवानां तथा परमाण्वादी- परमाणा चरमतानामनन्तपरमाण्वात्मकस्कन्धपर्यन्तानां प्रत्येकानामनन्तसङ्ख्यानां पृथक् पृथक् द्रव्यत्वात् , तेभ्योऽपि सर्वप्रदेशा अन-INAR दिविचारः न्तगुणाः, तेभ्योऽपि सवेपयोंया अनन्तगुणाः, प्रतिप्रदेश खपरभेदभिन्नानां पयोयाणामानन्यात् । तदेवं रत्नप्रभादिकं चरमाचरमभेदतथिन्तितं, इदानीं परमाण्बादिकं चिन्तयन्नाह परमाणुपोग्गले में मवेकिंचरिमे १ अचरिमे २ अवचवए ३ चरमाई ४ अचरमाई ५ अवत्तबयाई ६ उदाहु चरिमे य अपरिमे व ७ उदाहु परमे य अचरमाई ८ उदाहु चरमाई अचरमे २९ उदाहु चरमाई च अचरमाई च १० पढमा चउमंगी। उदाहु परिमे व अवत्सबए य ११ उदाहु चरमे य अवनश्चयाई च १२ उदाहु चरमाई च अवचाए य १३ उदाहु परमाईच अवचाबाई च १५ वीवा पाउमंगी उदाहु अचरिमे व अवलबए य १५ उदाहु अचरमेय अवत्तवयाई च १६ उदाहु अचरमाइंच ॥२३॥ अबचाए य १७ उदाहु बबरमाई च अवजयाई च १८ तहबा चउभंगी उदाहु चरमे य अचरमेय अवत्तबए य १९ उदाहुचरमे यअगर य अबचायाई १२० उदाह परमेच अचरमाई च अवचबए य २१ उदाहु चरमे य अचरमाई च अवताबाईच २२ उदाहु परमाई च अचरमे य अवचबए य९३ उदाहु घरमाईच अचरमे य अवतच्याई (च)२४ उदाहु चरमाई चबचरमाईच ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,-----------दारं -], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कएर [१५७-१५८] + गाथा: अवचवर य२५ उदाहु घरमाईच अचरमाई व अवचाबाई च २६, एते छबीसं अंगा, गोयमा! परमाशुपोम्पले बो चरये नो अचरम नियमा अवनबए, सेसा भमा पडिसेहेयवा ।। (मत्रं १५७) दुपएसिए पं भंते ! संधे पुच्छा, गोषमा! दुपएसिए खंथे सिय चरमे नो अचरमे सिय अनचाए, सेमा भंगा पडिसेहेयवा । निपएसिए पं भवे ! खंधे पुच्छा, मोपमा ! तिपएसिए बंधे सिर चरमे, नो अचरमे, सिय अवतए, नो चरमाई, नो अचरमाई, नो अवतवयाई, नो चरमे व अचरमे य, नो चरमे य अचरमाई, सिय चरमाई च अचरमे य, नो चरमाई च अधरमाई च, सिय चरमे य अवचवए य, सेसा भंगा पडिसेहेयवा । चउपएसिए पं भवे । खंधे पुच्छा, गोयमा ! चउपएसिए पं खंधे सिय चरमे १ नो अचरमे २ सिय अवचबए ३ नो चरमाई ४ नो अचरपाई ५ नो बच्चबयाई ६नो चरमे प अचरमे १७ नो चरमे व अचरमाई च८ सिय चरमाई अचरिमे य ९सिय चरमाई च अचरमाईच १० सिय घरमे य अवताए य ११ सिय चरमे य अवचनयाई च १२ नो चरमाई च अवत्तवए य १३ नो चरमाई च अवचाबाई म १४ नो अचरम य अवसथए । १५ नो अचरमे य अवत्तायाई च १६ मो अचरमाई च अवचार थ१७ नो अचरिबाई च अवचवयाई १८ नो चरमेय अचरिमे य अवचाए य १९ नो चरिमेय अचरिमे य अवचबमाई च २०नो चरमे व अचरमाई च अबचाए य २१ नो चरमे य अचरमाई च अवचबयाई च २२ सिय चरमाहं च अचरिमे व धरमबए य २३ । सेसा भमा पडिसेहेयथा ।। पंचपएसिए पं भंतेसिंघे गुच्छा, गोयमा| पंचपएलिए खंधे सिय चरखे१नो अचरमे २ सिव अवचबए ३णो चरमाई ४णो अचरमाई ५नो अवतन्वयाई ६ सिय चरमे य अचरमे य ७नो चरमे य अचरमाई च ८ सिय चर दीप अनुक्रम [३६४-३७१] For P OW ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती. [१५७-१५८] १०चरमाचरमपदे द्विप्रदेशादीनां चरमादितासू. १५८ ॥२३॥ गाथा: माई च अचरमे य ९सिय चरमाई च अचरमाई च १० सिय चरमे य अवत्तबए य ११ सिय चरमे य अवत्तवयाई च १२ सिय चरमाई च अवत्ताए य १३ नो चरमाइं च अवत्तबयाई च १४ नो अचरमे य अवत्तवर य १५ नो अचरमे य अवत्तबयाई च १६ नो अचरमाई च अवत्तवए य १७ नो अचरमाई च अवत्तवयाई च १८ नो चरमे य अचरमे य अवत्तवए य १९ नो चरमे य अचरमे य अवत्सबयाई च २० नो चरमे य अचरमाई च अवत्तबए य २१ नो चरमे य अचरमाई च अवत्तायाई च २२ सिय चरमाई च अचरमे य अवत्तबए य २३ सिय घरमाई च अचरमे य अवत्तत्वयाई च २४ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तवए य २५ नो चरमाई च अचरमाई च अवत्तायाई च २६ । छप्पएसिए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा छप्पएसिए णं खंधे सिय चरमे १ नो अचरमे २ सिय अवत्तवए ३ नो चरमाई ४ नो अचरमाई ५ नो अवत्तवयाई ६ सिय चरमे य अचरमे य ७ सिय चरमे य अचरमाई च ८ सिय चरमाई च अचरमे य ९ सिय चरमाई च अचरमाई च १० सिय चरमे य अवत्तवए अ११ सिय चरमे य अवत्तवयाई च १२ सिय चरमाई च अवत्तवए अ१३ सिय चरमाई च अवत्तवयाई च १४ नो अचरमे य अवत्तबए य १५ नो अचरमे य अवत्तवयाई च १६ नो अचरमाई च अवत्तवए य १७ नो अचरमाई च अवत्तबयाई च १८ सिय चरमे य अचरमे य अवत्तबए य १९ नो चरमे य अचरमे य अवत्तबयाई च २० नो चरमे य अचरमाइं च अवत्तवए य २१ नो चरमे य अचरमाई च अवत्तवयाई च २२ सिय चरमाई च अचरमे य अवत्तबए य २३ सिय चरमाई च अचरमे य अवत्तवयाई च २४ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तवए य २५ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तबयाई च २६ । सत्तपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा, मोयमा ! सत्चपएसिए ण खंधे दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ॥२३॥ ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत TAsa सूत्रांक [१५७-१५८] + गाथा: eesesekseeeeeech सिय चरिमेणो अचरिमे २ सिय अवतबए ३ णो चरिमाई४ णो अचरिमाई ५णो अवत्तबयाई ६ सिय चरमे य अचरमे य ७ सिय चरमे य अचरमाइं च ८ सिय चरमाई च अचरमे य ९ सिय चरमाइं च अचरमाई च १०सिय चरमे य अवत्तवए य ११ सिय चरमे य अवत्तवयाई च १२ सिय चरमाई च अवत्तवए य १३ सिय चरमाई च अवत्तवयाई च १४ णो अचरमे य अवत्तवए य १५ णो अचरमे य अवत्तवयाई च १६ णो अचरमाई च अवत्तबए य १७ पो अचरमाई च अवत्तवयाई च १८ सिय चरमे य अचरमे य अवत्तवए य १९ सिय चरमे य अचरमे य अवत्तवयाई च २०सिय चरमे य अचरिमाई च अवत्तबए अ२१ णो चरिमे य अचरिमाई च अवत्तवयाई च २२ सिय घरमाई च अचरमे य अवत्तबए य २३ सिय चरमाई च अचरमे य अवत्तवयाई च २४ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तहए य २५ सिय चरमाई च अचरमाई च अवत्तबयाई च २६ । अट्ठपएसिए गं भंते ! खंधे पुच्छा, गोषमा ! अट्टपएसिए खंधे सिय चरमे १ नो अचरमे २ सिय अवत्तवए ३ नो चरमाई ४ नो अचरमाई ५ नो अबत्तत्वयाई ६ सिय चरिमे य अचरिमे य ७ सिय चरिमे य अचरिमाईच ८ सिय चरिमाई च अचरिम य ९सिय चरमाई च अचरमाई च १० सिय चरमे य अवत्तवए य ११ सिय चरमे य अवचबयाई च १२ सिय चरिमाइं च अवत्तवए य १३ सिय चरिमाई च अवत्तवयाई च१४ णो अचरिमे य अवत्तवए य १५ णो अचरिमे य अवत्तवयाई च १६ णो अचरिमाई च अवत्तवए य १७ णो अचरिमाइं च अवत्तवयाई च १८ सिय चरिमे य अचरिमे य अवत्तबए य १९ सिय चरिमे य अचरिमे य अबत्तव्बयाई च २०सिय चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तबए अ२१ सिय चरिमे य अचरिमाई च अवत्तवयाई च २२ सिय चरिमाई च अचरिमेय दीप अनुक्रम [३६४-३७१] 24sese ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: प्रज्ञापना अवत्तबए अ २३ सिय चरिमाई च अचरिमेय अवत्तबयाई च २४ सिय चरिमाई च अचरिमाई च अवचाए य २५ सिय १०चरमाथाः मल- चरिमाई च अचरिमाई च अवत्तबयाई च २६ । संखेजपएसिए असंखेञ्जपएसिए अणंतपएसिए खंधे०, जहेव अट्ठपएसिए चरमपदे य. वृत्ती. तहेव पत्तेयं भाषिया । परमाणुम्मि य तइओ पढमो तइओ य होति दुपएसे । पढमो तइओ नवमो एकारसमो य तिप द्विप्रदेशाएसे ॥१॥ पढमो तइओ नवमो दसमो एकारसो य वारसमो । भंगा चउप्पएसे तेवीसहमो य पोद्धवो ॥२।। पढमो सइओ दीनां चर॥२३४॥ सचमनवदसइकारचारतेरसमो । तेषीसचउबीसो पणवीसइमो य पंचमए ॥३॥ विचउत्थपंचछर्ट पनरस सोलं च सत्तरद्वारं । मादितासू. वीसेकयीस बावीसगं च बजे छ₹मि ॥४॥ विचउत्थपंचछर्ट पण्णर सोलं च सत्तरद्वारं । बावीसहमविहगा सत्तपदेसंमि ला १५८ बंधम्मि ॥५॥ विचजत्य पंचछद्रं पण्णर सोलं च सन्चरहारं । एते वजिय भंगा सेसा सेसेसु खंधेमु ॥ (सूत्रं १५८), 'परमाणुपोग्गलेणं भंते । इत्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रे पडूविंशतिर्भङ्गाः, यतस्त्रीणि पदानि चरमाचरमावक्तव्यलक्षणानि | तेषां पैकैकसंयोगे प्रत्येकमेकवचनाखयो भङ्गाः, तद्यथा-चरमोऽचरमोऽवक्तव्यकः, त्रयो बहुवचनेन, तद्यथा-चरमाणि १ अचरमाणि २ अवक्तव्यानि ३, सर्वसत्यया पटू, द्विकसंयोगात्रयः, तद्यथा-चरमाचरमपदयोरका चरमावक्तव्यकपदयोद्वितीयः अचरमावक्तन्यकपदयोस्तृतीयः, एकैकस्मिन् चत्वारो भङ्गाः, तत्र प्रथमे द्विकसंयोग एवं-N॥२३॥ चरमयाचरमश्च, चरमधाचरमाथ, चरमाथाचरमच, चरमाश्चाचरमाथ, स्थापना । एवमेव चतुर्भशी चरमावतव्य-| ॥ पदयोः, प्रबमेवाचरमायकव्यपदयोः, सर्वमायया द्विकसंयोगे द्वादश भङ्गाः, त्रिकसंयोगे एकवचनबहुवचनाभ्यामष्टी, दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ -१५८] गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१०], ------------- उद्देशकः [ - ], ----------- दारं [-], मूलं [ १५७ - १५८] + गाथा: (१-५) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः स्थापना - | सर्वसंकलनया पविंशतिः । अत्र निर्वचनमाह - 'परमाणुपोग्गले नो परमे' इत्यादि, परमाणुपुद्गलश्रमो न भवति, चरमत्वं सन्यापेक्षं, न चान्यदपेक्षणीयमस्ति तस्य, अविवक्षणात्, न च सांशः परमाणुर्येनांशापेक्षया चरमत्वं प्रकल्प्येत, निरवयवत्वात् (तस्य), तस्मान्न चरमो, नाप्यचरमः, निरवयवतया मध्यत्वायोगात् किन्त्ववक्तव्यः, चरमाचरमव्यपदेशकारण [तः] शून्यतया चरमशब्देनाचरमशब्देन वा व्यपदेष्टुमशक्यत्वात्, वकुं शक्यं हि वक्तव्यं, यत्तु चरमशब्देन अचरमशब्देन वा स्वस्खनिमित्तशून्यतया वक्तुमशक्यं तदवक्तव्यमिति स्थापना- । शेषास्तु भङ्गाः | प्रतिषेध्याः, परमाणौ तेषामसंभवात्, वक्ष्यति च - "परमाणुमि य तहओ" अस्थायमर्थः - परमाणौ - परमाणुचिन्तायां तृतीयो भङ्गः परिप्रायः, शेषास्तु निरवयवत्वेन प्रतिषेध्याः । 'दुपएसिए णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, | निर्वचनमाह - 'सिय चरमे नो अचरमे सिय अवत्तधए' इत्यादि, द्विप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात् कदाचित् चरमः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह यदा द्विप्रदेशिकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोरवगाढो भवति समश्रेण्या व्यवस्थिततया, | स्थापना - तदा एकोऽपि परमाणुरपरपरमाण्यपेक्षया चरमः, अपरोऽप्यपरपरमाण्यपेक्षया चरम इति चरमः, अचरमस्तु न भवति, सर्वद्रव्याणामपि केवलाचरमत्वस्यायोगात्, यदा तु स एव द्विप्रदेशिकः स्कन्धः एकस्मिन्नाकाशप्रदेशे अवगाहते तदा स तथाविधैकत्वपरिणामपरिणततया परमाणुवत् चरमाचरमव्यपदेशकारणशून्यत्वान्न चरमशब्देन व्यपदेष्टुं शक्यते नाप्यचरमशब्देनेति अवक्तव्यः, शेषास्तु भङ्गाः प्रतिषेध्याः, तथा च वक्ष्यति “पढमो Education Internation For Parts Only ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,-----------दारं -], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: का प्रसार समिति 1 • गाथा प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना [१५७-१५८] यवृत्ती. ॥२३५॥ गाथा: तइओ य होइ दुपएसे" अस्थायमर्थः-द्विप्रदेशिके स्कन्धे प्रथमो भङ्गः-चरम इति, तृतीयः-अबक्तव्य इति भवति,१०चरमाशेषास्तु प्रतिषेध्याः, असंभवात् , स चासंभवः सुप्रतीत एव । 'तिपएसिए णं भंते ! खंधे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , चरमपदे निर्वचनं 'गोयमा ! सिय चरमे' इत्यादि, इह यदा त्रिप्रदेशिकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरेवमवगाढो भवति, स्थापना-,तदाऽसौ चरमः, सा चरमत्वभावना द्विप्रदेशिकस्कन्धवद् भावनीया, अचरम-18 दीनां चरप्रतिषेधः प्राग्वत् , 'स्यादवक्तव्य' इति यदा स एव त्रिप्रदेशिकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते तदा परमा मात्वादि णुवत चरमाचरमव्यपदेशकारणशून्यतया चरमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेष्टमशक्यत्वात् अवक्तव्यः, चतुथोदयोऽष्टमप-12 यन्ताः प्रतिषेध्याः, असंभवात् , असंभवस्तु सुप्रतीतत्वात् खयमुपयुज्य वक्तव्यः, नवमस्तु ग्राह्यः, तथा चाह|'सिय चरमाई च अचरमे य' प्राकृते द्वित्वेऽपि बहुवचनं, ततोऽयमर्थः-स्थात्-कदाचिदयं भङ्गः-चरमो अचर|मश्च, तत्र यदा स त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते, स्थापना-,तदाऽऽदि|मान्तिमौ द्वौ परमाणू पर्यन्तवर्तित्वाचरमौ मध्यमस्तु मध्यवर्तित्यादचरम इति, दशमस्तु प्रतिषेध्यः, स्कन्धस्य ॥२३५॥ त्रिप्रदेशिकतया चरमाचरमशब्दयोर्वहुवचननिमित्तासंभवात् , एकादशस्तु ग्राह्यः, तथा चाह-'सिय चरमे य अवत्तबए य' स्यात्-कदाचिदयं भङ्गश्चरमश्चायक्तव्यश्च, तत्र यदा स त्रिप्रदेशिकः समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते स्थापना-,तदा द्वौ परमाणू समश्रेण्या व्यवस्थिताविति द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरमव्यपदेशकारणभावतश्च दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] + गाथा: रमः, एकश्च परमाणुर्विश्रेणिस्थश्चरमाचरमशब्दाभ्या व्यपदेष्टुमशक्य इत्यवक्तव्यः, शेषास्तु भङ्गाः सर्वेऽपि प्रतिषेध्याः, वक्ष्यति च "पढमो तइओ नवमो इकारसमो य तिपएसे" अस्थायमर्थ:-त्रिप्रदेशे स्कन्धे प्रथमो भङ्गावरम इति, तृतीयोऽवक्तव्य इति, नवमचरमौ चाचरमश्च, एकादशश्चरमश्चावक्तव्यश्चेति भवति, शेषा भक्का न घटन्ते ॥ 'चउ-101 पएसिए णं भंते ! खंधे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनमाह-गोयमा ! सिय चरमें' इत्यादि, अत्र प्रथमतृ- पतीयनवमदशर्मकादशद्वादशत्रयोविंशतितमरूपाः सप्त भङ्गा प्रायाः, शेषाः प्रतिषेध्याः, तत्र प्रथमभकोऽयम्-'स्थाच-11 रम' इति, इह यदा चतुष्प्रदेशकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समवेण्या व्यवस्थितयोरेवमवगाहते स्थापनातदा चरमः, सा च चरमत्वभावना समश्रेण्या व्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धव भावनीया, तृतीयो भगः स्यादवक्तव्य इति, स चैवं यदा स एव चतुष्प्रदेशकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते स्थापना-तदा परमाणुवदवक्तव्यः, नवमः 'स्याचरमौ चाचरमश्च स चैवं-यदा स चतुष्प्रदेशात्मकः स्कन्धः त्रिष्वाकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते, स्थापना-,तदा आद्यन्तप्रदेशावगाढौ चरमौ मध्यप्रदेशावगाढस्त्वचरमः, दशमः स्याचरमौ चाचरमौ च, तत्र यदा चतुष्प्रदेशात्मकः स्कन्धः समश्रेण्या व्यवस्थितेषु चतुयोकाशप्रदेशेषु एवमवगाहते, स्थापना-तदाऽऽद्यन्तद्विप्रदेशावगाढी वो परमाणू चरमौ द्वयोस्तु मध्यमयोराकाशप्रदेशयोरवगाढौ द्वौ परमाणू अचरमाविति, एकादशः स्थाचरमश्वावक्तव्यश्च, स चै-,यदा स चतुष्प्रदेशकः स्कन्धः त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमयगाहते दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: स्थापना-, तदा समश्रेणिव्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढात्रयः परमाणयो द्विप्रदेशायगाढद्विप्रदेशस्कन्धवत् चरमः एकवचरमाप्रज्ञापनायाः मल- विश्रेणिस्थः परमाणुरिव परमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् अवक्तव्य इति, द्वादशः स्याचरमश्चावक्तव्यौ च, स चरमपदे य.वृत्ती. चैवं-,यदा स चतुष्पदेशात्मकः स्कन्धश्चतुर्णाकाशप्रदेशेषु एवमवगाहते-द्वौ परमाणू द्वयोः समश्रेण्या व्यवस्थित- परमाण्या योराकाशप्रदेशयोः द्वौ परमाणू द्वयोर्विश्रेण्या व्यवस्थितयोः, स्थापना--, तदा द्वौ परमाणू समश्रेण्या व्यवस्थितौ द्वि- दीनां चर॥२३६॥ प्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धयत् चरमः द्वौ च परमाणू विश्रेणिव्यवस्थितौ केवलपरमाणुक्चरमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेष्टुम- मात्वादि शक्यापित्यवक्तव्यो, प्रयोविंशतितमः स्थाचरमी चाचरमचावक्तव्यश्च, कथमिति चेद्, उच्यते, इह या स यनु-ई। प्रदेशकः स्कन्धः चतुर्थाकाशप्रदेशेष्येवमवगाहते-त्रयः परमाणवस्त्रिषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वाकाशप्रदेशेषु एको विश्रेणिस्थे प्रदेशे, स्थापना--तदा त्रिषु परमाणुषु समथेणिव्यवस्थितेषु मध्ये आद्यन्ती परमाणू पर्यन्तवर्सित्याचरमी मध्यमस्त्वचरमः विश्रेणिस्थस्त्ववक्तव्य इति, वक्ष्यति च-पढमो तइओ नवमो दसमो इकारसो य पारसमो ।। सभा चउप्पएसे तेवीसइमो य बोद्धचो ॥१॥" गतार्था । 'पंचपएसिए 'णं मंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्यम्, निर्यचनमाह-गोयमा! सिय चरमे इत्यादि, इह प्रथमतृतीयसप्तमनवमदशमैकादशद्वादशत्रयोदशत्रयोविंशतितमचतुर्विंशतितमपञ्चविंशतितमरूपा एकादश भङ्गा ग्राहाः, शेषाः प्रतिषेध्याः, वक्ष्यति च-"पढमो तइओ सत्तम नवदसइकारबारसेरसमो । तेवीसचउच्चीसा पणयीसइमो य पंचमए॥१॥" सायं प्रथमो भङ्गा-स्वाधरम दीप अनुक्रम [३६४-३७१] SARERatininemarana For P OW ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,-----------दारं -], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] + गाथा: इति, इह यदा पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समवेण्या व्यवस्थितयोरेवमवगाहते, त्रयः परमाणन एक-II स्मिनाकाशप्रदेशे द्वौ द्वितीये, स्थापना, सदा द्विप्रदेशामगाद्विप्रदेशकस्कन्धपचरमः, तृतीयोऽयक्तव्यः, सर्वयिदा स पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धः एकस्मिन् आकाशप्रदेशे अगाहते, स्थाना-तदास परमाणुवदवक्तव्यः, सामः स्वाथरमश्चाधरमच, स चैक्म्-यदान पश्चप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेष्येक्मवगाहसे, स्थापना-सदा ये चरमाश्चत्वारः परमाणन पामेकसंबन्धिपरिणामपरिणतत्वादेकवर्णत्वादेकगन्यत्वादेकरसत्वादेकस्पर्शत्वाचकत्यव्यपदेशे चरम इति व्यपदेशः, मध्यस्तु परमाणुमध्यवर्तित्वाद चरम इति, नवमः चरमौ चाचरमञ्च, तत्र यदा स पञ्चप्रदेशकः स्कन्धविष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते द्वौ-परमाणू आधे आकाशप्रदेशे वाले एको मध्ये, स्थापना-,तदाऽऽद्यप्रदेशावगाढी वौ चरमो द्वावन्त्यप्रदेशावगाढौ चस्म इति चरमो मध्यस्तु मध्यकर्त्तित्वादचरमः, दशमः चरमी चाचरमी च, तत्र यदा स पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धश्च काशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थिसेवेयमयगाहते-त्रयः परमाणयस्त्रिप्वाकाशप्रदेशेषु एकस्मिन् द्वाविति, स्थापना-, सदा आयप्रदेशवर्ती परमाणुश्चरमः, ही चान्त्यप्रदेशवर्तिनी चरम इति चरमौ द्वौ च मध्यवर्तित्वादचरमो, एकादशः चरमश्चायतव्यः, कथमिति चेत् 2, उच्यते, यदा स पञ्चप्रदेशात्मकखिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चेयमवगाहते-द्वी द्वौ परमाणू द्वयोसकाश-18 प्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोः एको विश्रेणिस्थः, स्थापना-, तदा चत्वारः परमाणवो द्विप्रदेशावगाहित्यात् । दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: प्रज्ञापना द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरम एकश्च विश्रेणिस्थः परमाणुरवक्तव्यः, द्वादशः चरमश्चावक्तव्यो च, तत्र यदा स||१०चरमायाः मल- पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धश्चतुळकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-दौ परमाणू द्वयोराकाशप्रदेशयोः सम- चरमपदे य० वृत्ती. श्रेण्या व्यवस्थितयोरेको विश्रेणिस्थे द्वौ चान्यस्मिन् विश्रेणिस्थे, स्थापना-, तदा द्वौ परमाणू समश्रेणिव्यवस्थितद्वि परमाण्वाप्रदेशावगाढी द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरमः एको द्वौ च विश्रेणिस्थपृथगेकैकाकाशप्रदेशावगाढौ चावक्तव्यौ, त्रयोदनाचर॥२३७॥ दशः चरमौ चायक्तव्यश्च, तत्र यदा स पञ्चप्रदेशावगाढः पञ्चखाकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते-द्वी परमाणू उपरि द्वयोरा IN मात्वादि काशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरवगाढी द्वौ च द्वयोस्तथैवाधः एकः पर्यन्ते मध्यसमे, स्थापना-तदा द्वावुप-18 रितनौ द्विप्रदेशावगाढवणुकस्कन्धवचरमः द्वौ चाधस्तनी चरम इति चरमौ एकश्च केवलः परमाणुरिवावक्तव्य इति, |त्रयोविंशतितमः चरमी चाचरमवावक्तव्यथ, स चैवं-यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धथताकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रे-IN ण्या चैवमवगाहते-त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वाद्ये एकः परमाणुः मध्ये द्वौ अन्ते एकः चतुर्थेऽपि विश्रेणिस्थ एकः, स्थापना-तदा त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु मध्ये आद्यन्तप्रदेशावगाढौ चरमौ मध्यप्रदेशवी तु घणुको बामध्यवर्तित्वादचरमो विश्रेणिस्थश्चावक्तव्य इति, चतुर्विशतितमः चरमी चाचरमश्रावक्तव्यौ च, कथमिति चेत्, उच्यते ॥२३॥ स एव यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-त्रयः परमाणवस्त्रियाकाशप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेषु द्वयोराकाशप्रदेशयोः परमायोर्विश्रेणिस्थयोः, स्थापना-,तदा त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु मध्ये दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ -१५८] गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१०], ------------- उद्देशकः [ - ], ----------- दारं [-], मूलं [ १५७ - १५८] + गाथा: (१-५) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः द्वावाद्यन्तप्रदेशवर्तिनौ चरमौ मध्यश्वाचरमो द्वौ च विश्रेणिस्थाववक्तव्यौ, पञ्चविंशतितमः चरमौ चाचरमौ चावक्तव्यश्व, स चैवं - यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते - चत्वारथ तुपवकाशप्र देशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेषु एको विश्रेणिस्थः, स्थापना, तदा चतुर्व्वाकाशप्रदेशेषु मध्ये द्वावाद्यन्तप्रदेशवर्तिनी चरमो | द्वौ च मध्यवर्तिनावचरमौ एको विश्रेणिस्थोऽवक्तव्यः । 'छप्पएसिए णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनं 'गोयमा ! सिय चरमे' इत्यादि, इह द्वितीयचतुष्पञ्चमपष्ठपञ्चदश पोडश सप्तदशाष्टादशविंशतितमैकविंशतितमद्वाविं| शतितमरूपा एकादश भङ्गाः प्रतिषेध्याः, वक्ष्यति च – “विचउत्थपञ्चङ्कं पन्नरसोलं सत्तरद्वारं । वीसेक्कवीस बावीसगं च बजेज छमि ॥ १ ॥” शेपास्त्वेकादयः परिश्रायाः, घटमानत्वात्, तत्र यथा यादयो न घटन्ते एकादयस्तु घटन्ते तथा भाव्यन्ते -- इह यदा पट्प्रदेशकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरेवमवगा| हते - एकस्मिन्ना काशप्रदेशे त्रयः परमाणवोऽपरस्मिन्नपि त्रय इति, स्थापना, तदा द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरमः, अचरमलक्षणस्तु द्वितीयो भङ्गो न घटते, चरमरहितस्य केवलस्याचरमस्यासंभवात्, न खलु प्रान्ताभावे । मध्यं भवतीति भावनीयमेतत्, तृतीयोऽयक्तव्यलक्षणः, स चैवं - यदा स षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते, स्थापना, तदा परमाणुव बरमाचरमशब्देन व्यपदेष्टुमशक्यत्वादवक्तव्यः, चतुर्थश्वरमाणीति पञ्चमो - ऽचरमाणीति पष्ठोऽवक्तव्यानीति पञ्चदशोऽचरमश्चायक्तव्यश्च पोडशोऽचरमश्चावक्तव्यानि च सप्तदशोऽचरमाणि चावक्त Education Intention For Parts Only ~79~ org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,-----------दारं -], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: SHदार मामल, va) • गाथा-(- प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥२३८॥ गाथा: व्यश्च अष्टादशोऽधरमाणि चावक्तव्यानि चेत्येते सप्त भका ओघत एवन संभवन्ति, तथाप्रकाराणा द्रव्याणामेवासम-१०चरमावात्, न ह्येवं जगति केवलानि चरमादीनि द्रव्याणि संभवन्ति, असंभवश्च प्रागुक्तभावनानुसारेण सुगमत्वात्स्वयं भाव-IN चरमपदे परमावानीयः, सप्तमश्च चरमश्चाचरमश्चेत्येवरूप एच, यदा स षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः पञ्चस्वाकाशप्रदेशेष्वेकपरिक्षेपेण व्यवस्थि-INI दीनां चरतेष्वेवमवगाहते, स्थापी-,द्वौ परमाणू मध्यप्रदेशे एकैकः शेषेषु, तदा तेषां चतुर्णा परमाणूनामेकसंबन्धिपरिणाम-NE मात्वादि परिणतत्वादेकषर्णत्वादेकगन्धत्वादेकरसत्वादेकस्पर्शत्वाच्चैकत्वव्यपदेशः एकत्वव्यपदेशत्वाचरम इति व्यपदेशः, यो तु द्वी परमाणू मध्ये तावेकत्वपरिणामपरिणतावित्यचरमः, अष्टमश्चरमश्चाचरमौ च, तत्र यदा स एव पट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः पदसु प्रदेशेषु एकपरिक्षेपेणैकाधिकमेवमवगाहते, स्थापना-तदा पर्यन्तवर्तिनः परिक्षेपेणावस्थिताश्चत्वारः परमाणयः प्रागुक्तयुक्तरेकश्वरमः, द्वौ मध्यवर्तिनावचरमाथिति, अन्ये त्वभिदधति-चतुर्णा परमाणूनां क्षेत्रप्रदेशान्तरव्यवहिता|धिकत्वपरिणामो न भवति तदभावाच नैष भङ्ग उपपद्यते, प्रतिषिद्धश्च सूत्रे, यतो वक्ष्यति-"विचउत्थपंचछट्ट"मिति प्राकृतशैल्या 'छ?' 'अह' इत्येतयोः पदयोर्निर्देशः, ततोऽयमर्थः-षष्ठमष्टमं च वर्जयित्वेति, अथ नामैवंरूपोऽपि | भो भवति तदैवं गम्यते-ये एकवेष्टका अव्यवधानेन चत्वारः परमाणबस्ते तथाविधैकत्वपरिणामपरिणतत्वाच-18 ॥२३॥ | रमः, तस्मादधिकोऽपि समश्रेण्यैव प्रतिबद्धत्वान्न तदतिरिक्त इति सोऽपि तस्मिन्नेव चरमे गण्यते इत्येकं चरम, पुनश्च योऽधिकमध्ये व्यवस्थित इति स मध्यवर्तित्वादनेकपरिणामित्वाच्च वस्तुनोऽचरमोऽपि ततोऽ( तश्वरमा) दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,-----------दारं -], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] + गाथा: चरमायित्सपि भवति, अत्रापि न कश्चिद् विरोषः, तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्मि, नवमश्चरमा चचिरमस्थ, पक्ष एव षट्प्रदेशका स्कन्धनिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेक्मवगाहते-एकैकस्मिझाकाशप्रदेशे शो हौ परमाण इति, स्थापना-तदाऽऽद्यप्रदेशवर्तिनी द्वौ परमाणू घरमःद्धायन्त्यप्रदेशवर्तिनी चरम इति चरमो, द्वौ तु मध्यप्रदेशवर्तिनी एकोऽचरम इति, दशमश्चरमौ चाचरमौ च, स चैवं यदा स षट्प्रदेशकः स्कन्धश्चतु काशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमगाहते-द्वावाद्ये प्रदेशे द्वौ द्वितीये एकस्तृतीये एकश्चतुर्थे इति, स्थापना-,तदा द्वौ परमाणु प्रथमप्रदेशवर्तिनावेकश्वरमः एकोऽन्त्यप्रदेशवर्ती चरम इति चरमौ द्वौ परमाणू द्वितीयप्रदेशवर्तिनावेकोऽचरमः एकस्तृतीयप्रदेशवी अचरम इत्यचरमावपि द्वौ, एकादशश्चरमधावक्तव्यब, स चै-यदा स एव यप्रदेशात्मकः स्कन्धविष्याकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-द्वाचाये प्रदेशे द्वौ समश्रेण्या व्यवस्थिते द्वितीये प्रदेशे द्वौ विश्रेणिस्थे तृतीये प्रदेशे, स्थापना-तदा द्विप्रदेशावगाढाश्चत्वारः परमाणवः समश्रेणिव्यवस्थितद्विप्रदेशावगाडयणुकस्कन्धवदेकश्चरमः द्वौ च विश्रेणिस्थप्रदेशावगाढौ परमाणुषदेकोऽवक्तव्यः, द्वादशश्चरमश्चावक्तव्यौ च, तत्र यदास पट्नदेशात्मकः स्कन्धश्चतुर्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-द्वौ परमाणू प्रथमे प्रदेशे द्वौ समश्रेणिव्यवस्थिते द्वितीय प्रदेशे एकः ततः परमपरि तृतीये प्रदेशे एकश्चाधवतुर्थे इति, स्थापना-तदा चत्वारः परमा-1 णवो द्विप्रदेशावगाढाः पूर्ववदेकश्चरमः द्वौ च विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयावगाढायवक्तव्याविति, त्रयोदशश्चरमौ चायकव्यश्च, दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती. ॥२३९॥ गाथा: यदा स एव पदप्रदेशकः स्कन्धः पञ्चस्थाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-द्वी परमाणू द्वयोराकाशप्र-181१०चरमादेशयोः समश्रेणिव्यवस्थितयोः द्वौ तयोरेवाधः समश्रेणिव्यवस्थितयोराकाशप्रदेशयोः श्रेणिद्वयमध्यभागसमश्रेणिस्थेचरमपदे कस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वाविति, स्थापना-तदा द्विप्रदेशावगाढवणुकस्कन्धवदुपरितनहिप्रदेशाधगाढी द्वी परमाणापरमाण्याएकश्चरमो द्वावधस्तनाविति चरमी, द्वावेकप्रदेशावगाढी परमाणुवदेकोऽवक्तव्यः, चतुर्दशश्वरमी चायक्तव्यौ च, दीनांचर| तत्र यदा स एव षट्प्रदेशकः स्कन्धः षट्खाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैयमवगाहते-द्वी परमाण द्वयोरा-IN मात्वादि काशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोः द्वौ तयोरेवाधः समश्रेणिव्यवस्थितयोराकाशप्रदेशयोः एकः श्रेणिद्वयमध्यभा-1| गसमणिस्थे प्रदेशे. एक उपरितनयोयोर्षिश्रेणिस्थे, स्थापना-तदा द्वावपरितनावेकथरमो द्वावधस्तनाविति चरमौ द्वी चावक्तव्यापिति, एकोनविंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यः, स चवं-यदा स षट्रप्रदेशकः स्कन्धः पट्खाका-11 शप्रदेशेषु एकपरिक्षेपेण विश्रेणिस्थैकाधिकमवगाहते, स्थापना-तदा एकवेष्टकाश्चत्वारः परमाणवः प्रागुक्तयुक्तरेकश्वरम एकोऽचरमो मध्यवर्ती एकोऽवक्तव्यः, यश्च विंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यौ च, स्थापना-स सप्तप्रदेशकस्यैवोपपद्यते न षट्प्रदेशकस्य, योऽप्येकविंशतितमश्चरमश्चाचरमौ चाबक्तव्यश्च, स्थाना-सोऽपि सप्तप्रदेशकस्यैव In||२३९॥ न षट्प्रदेशकस्य, यस्तु द्वाविंशतितमश्चरमश्चाचरमौ चावक्तव्यौ च, स्थापना-सोऽष्टप्रदेशकस्यैवेति, त्रयोऽप्येते विंशत्यादयोऽत्र प्रतिषिद्धाः, यश्च त्रयोविंशतितमश्चरमौ चाचरमश्चावक्तव्यः, स एवं-यदा स एव षट्प्रदेशकः स्कन्ध दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत rce सूत्रांक [१५७-१५८] गाथा: शताकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते-द्वी ही परमाणू द्वयोराकाशप्रदेशयोः एकस्तयोरेव समश्रेणिस्थे तृतीये आकाशप्रदेशे एको विश्रेणिस्थे इति, स्थापना-,तदा आद्यप्रदेशावगाढौ द्वौ परमाणू चरमस्तृतीयप्रदेशावगाढश्चरम इति द्वौ चरमौ द्वितीयप्रदेशावगाढौ द्वौ परमाणू घरमो विश्रेणिस्थोऽवक्तव्यः, चतुर्विंशतितमः चरमौ चाचरमश्चावक्तव्यौ च, तत्र यदा स एव षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः पञ्चखाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-त्रिप्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वाये एकः द्वितीये एकः तृतीये द्वौ द्वयोर्विश्रेणिस्थयोरेकैक इति, स्थापना-,तदा आद्यन्तप्रदेशावगाढी चरमो मध्यावगाढोऽचरमः विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयाचगाढौ अवक्तव्यौ, पञ्चविंशतितमः चरमी चाचरमौ चावक्तव्यश्च, यदा स एव पट्रप्रदेशात्मकः स्कन्धः पञ्चसु प्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते-चतुर्णाकाशप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेष्वाद्यप्रदेशत्रये एकैकश्चतुर्थे द्वौ पञ्चमे विश्रेणिस्थे एकः, स्थापना-, तदा आद्यन्तप्रदेशवर्तिनी चरमी मध्यप्रदेशद्वयवर्तिनी द्वावचरमी विश्रेणिप्रदेशस्थ एकोऽवक्तव्यः, पडूविंशतितमः चरमौ चाचरमौ चावक्तव्यौ च, स चैवं-यदा स षट्रप्रदेशकः स्कन्धः षट्स्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते18 स्थापना-तदा आयन्तप्रदेशावगाढौ द्वौ चरमी द्वौ मध्यप्रदेशावगाढायचरमौ द्वौ च विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयायगाढावव क्तव्याविति । 'सत्तपएसिए णं भंते ! खंधे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनमाह-'गोयमा! सत्तपएसिए णं खंधे सिय चरमे नो अचरम' इत्यादि, इह द्वितीय चतुर्थपञ्चमषष्ठपञ्चदशषोडशसप्तदशाष्टादशद्वाविंशतितमरूपा नव दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,----------- दारं [-], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. । सोनं २६ १८. १००००० २६ | N D १०चरमा चरमपदे TONपरमावा दीनां चरमात्वादि ॥२४॥ : [१५७-१५८] + गाथा: * चिह्नात् परतोऽङ्कानुक्रमेण स्थापनाः प्राग निर्दिष्टाः । चरमाणि अवक्तव्यानि अचरमावक्तव्ययोः४ अचरम अपसव्यं अचरम अबरुव्यानि अचरमाणि अवक्तव्यं अधरमाणि अवक्तव्यानि बिके ८ च.१ अच.१ अव.१ च. अच.१ अव.३ च.१ अच.३ अष.१ च.१ अच.३ अब.३ च.३ अच.१ अब.१ च.३ अच.१ अव.३ च.३ अच.३ अब.१ च.३ अच.३ अब.३ पत्र २३५ पृष्ठ १एक बहुत्वे६ १ चरम ४चरमाणि २ अचरम ५ अचरमाणि ३ अवक्तव्यं ६ अवक्तव्यानि द्विके १२ चरमाचरमयोः चतुर्भशी चरमं अचरम चरम अचरमाणि चरमाणि अचरम चरमाणि अधरमाणि चरमाषक्तव्ययीः४ चरम अवसव्यं चरम अवक्तव्यानि चरमाणि अधक्तव्यं معلم اسراى مر اه اه اه اه اه اه IMISS : - -:--- :6089900 - । 2E31211818RIFIER - elo.. OOO -0.08 .00POLe दीप अनुक्रम [३६४-३७१] घerseeneweatreese. ॥२४॥ اه . Gurmurary.com ~84 ~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ -१५८] गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] - - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) “प्रज्ञापना” पदं [१०], ------------- उद्देशकः [ - ], ----------- दारं [-], • मूलं [ १५७ - १५८] + गाथा : (१-५) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः भङ्गाः प्रतिषेध्याः, शेषा उपादेयाः, वक्ष्यति च - "विचउत्थपंचछ पन्नरसोलं च सत्तरद्वारं । वज्जिय बाबीसइमं सेसा भंगा उ सत्तम ॥ १ ॥” तत्र व्यादीनामष्टादशपर्यन्तानां प्रतिषेधकारणं प्रागुक्तमनुसर्तव्यं न केवलमत्र किन्तु सर्वेव्वप्युत्तरेषु स्कन्धेषु यस्तु द्वाविंशतितमः सोऽष्टप्रदेशकस्यैव घटते न सप्तप्रदेशकस्येत्युक्तं प्राक्, तत् इह प्रतिषेधः, शेपास्तु प्रथमादयः षड्विंशतितमपर्यन्ताः सप्तदश भङ्गाः पप्रदेशकस्कन्धस्येव भावनीयाः, केवलं विनेयजनानुग्रहाय | स्थापनामात्रेणोपददर्शन्ते---प्रथमो भङ्गश्वरमभङ्गः ॥ तृतीयोऽवक्तव्यः सप्तमश्वरमश्चाचरमश्च न अष्टमश्चरमथाचरमीच 10 नवमथरमौ चाचरमश्च |:::. | दशमधरमी चाचरमौ च । एकादशश्वरमश्वावक्तव्यश्च | | | द्वादशश्चरमश्चावक्तव्यौ च त्रयोदशश्चरमौ चावक्तव्यश्च :: चतुर्दशश्वरमौ चावक्तव्यौ च: एकोनविंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यश्च विंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चाक्थ्यौ च एकविंशतितमश्चरमश्चाचरमौ चावक्तव्यश्च 80 त्रयोविंशतितमश्वरमौ चाचरमश्चाबक्तव्यश्च :::/-/ चतुवैिशतितमश्वरमौ चाचरमश्चावक्तव्यश्च पञ्चविंशतितमश्वरमौ चाचरमौ चावक्तव्यश्थ :::: पविंशतितमश्वरमाँ चाचरमौ चावक्तव्यौ च |oo|| । इह यस्मात्सप्तप्रादेशिकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते द्वयोरपि त्रिष्वपि Education intention ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ For Pale Only ~ 85~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -,-----------दारं -], -----------मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. [१५७-१५८] + गाथा: ॥२४॥ eceptioticerselseneelaeroscoerce यावत्सप्तखपि तत एवं भङ्गाः संभवन्ति ॥ 'अपएसिए णं भंते! खंधे इत्यादि प्रशसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनसूत्र|१०चरमा. श'अट्ठपएसिए णं बंधे सिय चरमे' इत्यादि, अत्र द्वितीयचतुर्थपञ्चमपष्टपञ्चदशषोडशससदशाष्टादशरूपा अष्टीचरमपदं भङ्गाः प्रतिषेध्याः, शेषा प्रायाः, वक्ष्यति च-बिचउत्थपंचछर्ट पन्नर सोलं च सत्तरष्ट्रारं । एए बजिय भंगा |सेसा सेसेसु खंघेसु ॥१॥" सगमा, नवरं 'सेसा सेसेसु खंधेसु' इति शेषाः भनाः शेषेषु सप्तप्रदेशकात् स्कन्धादितरेषु-अष्टप्रदेशादिकेषु सर्वेषु स्कन्धेषु द्रष्टव्याः, अन्ये त्यमुत्तरार्द्धं पठन्ति-"एए वज्जिय भंगा तेण | परमवटिया सेसा" सुगमं, ते च प्रशमादयो भङ्गाः षड्विंशतिपर्यन्ता अष्टादश भावनातः स्थापनातश्च प्रागवद् | |भावनीयाः, नवरं 'चरमश्चाचरमौ चावक्तव्यौ च' इत्येवंरूपो द्वाविंशतितमो भगः स्थापनात एवं नान! । अथ| द्विप्रदेशकादिषु स्कन्धेषु अवक्तव्यौ इत्येवंरूपः षष्ठो भङ्गः कस्मात्प्रतिषिध्यते ?, तस्यापि युक्तितः संभवभावात्, तथाहि-यदैकः परमाणुरेकस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वितीयो विश्रेणिस्थे प्रदेशे, स्थापना- तथा एकोऽप्यवक्तव्यो द्वितीयोऽप्यवक्तव्य इति भवत्यवक्तव्याविति भङ्गः, त्रिप्रदेशकचिन्तायामेकस्मिन्नेकः परमाणुः अपरस्मिन् द्वौ ||60|| चतुष्प्रदेशकचिन्तायां प्रत्येकं द्वौ वी परमाणू 89 इत्यादि, सत्यमेतत. केवलमेवंरूपं जगति द्रव्यमेव नास्ति. ॥२४॥ कथमेतदवसितम् ? इति चेत्, उच्यते, अत एव प्रतिषेधवचनात् , यदि हि तथारूपं द्रव्यं संभवेद् नाचार्यः प्रतिषेध कुर्यादिति, यदिवा संभवेऽपि जातिपरनिर्देशात् तृतीयभङ्गक एवान्तर्भावो वेदितव्यः । यथा चाष्टप्रदेशके स्कन्धे दीप अनुक्रम [३६४-३७१] ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१५७ -१५८] गाथा: दीप अनुक्रम [३६४ -३७१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१०], ------------- उद्देशकः [ - ], ----------- दारं [-], • मूलं [१५७-१५८] + गाथा: (१-५) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः भङ्गाः प्रतिषेध्या विधेयाथोक्तास्तथा संख्यातप्रदेशके असंङ्ख्यातप्रदेशके च प्रत्येकं वक्तव्याः, तथा चाह— 'संखेजपएसिए असंखेज्जपएसिए' इत्यादि, पाठसिद्धं, नवरमियं सर्वत्र भावना - यस्मादेकादिष्वप्याकाशप्रदेशेष्वष्टप्रदेशकादीनां स्कन्धानामवगाहो भवति तथा (तो) घटन्ते यथोक्ताः सर्वेऽपि भङ्गाः, नन्यसंख्यातप्रदेशात्मकस्यानन्तप्रदेशात्मकस्य च स्कन्धस्य कथमेकस्मिन्ना काशप्रदेशेऽवगाहः १, उच्यते, [तथा ] तथामाहात्म्यात्, न चैतदनुपपन्नं, युक्तितः सम्भा व्यमानत्वात्, तथाहि - अनन्तानन्ता द्विप्रदेशकाः स्कन्धा यावदनन्तानन्ताः संख्येयप्रदेशात्मकाः अनन्तानन्ता | असंख्येयप्रदेशात्मकाः स्कन्धा अनन्तानन्ता अनन्तप्रदेशात्मकाः, लोकश्च सर्वात्मनाऽप्यसंख्येयप्रदेशात्मकस्ते च सर्वेऽपि लोक एवावगाढा नालोके, ततोऽवसीयते सन्त्येकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽवगाढा बहवः परमाणवो बहवो द्विप्रदेशकाः स्कन्धाः यावद्वहवोऽनन्तप्रदेशात्मकाः स्कन्धाः, तथा चात्र पूर्वसूरयः प्रदीपरष्टान्तमुपवर्णयन्ति - यथै| कस्य प्रदीपस्य गृहमध्ये प्रज्वलितस्य प्रभापरमाणवः सर्वमेव गृहं प्राशुवन्ति तथा प्रत्येकं प्रदीपसहस्रस्यापि न च प्रतिप्रदीपं प्रभापरमाणवो न भिन्नाः, प्रतिप्रदीपे पुरुषस्य मध्यस्थितस्य छायादिदर्शनात्, ततो यथैते स्थूला अपि प्रदीपप्रभापरमाणवः एकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे बहवो मान्ति तथा परमाण्वादयोऽपीति न कश्चिद्दोषः, आकाशस्य तथा तथाऽवकाशदानस्वभावतया वस्तूनां च विचित्रपरिणमनस्वभावतया विरोधाभावात्, सम्प्रति परमाण्वादिषु ये भङ्गा ग्रायाः ये च षष्ठादिषु न प्रायास्तत्सङ्ग्राहिकाः संग्रहणिगाथा आह- 'परमाणुमि य तइओ' इत्यादि, Ja Education International For Parts Only ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------ उद्देशक: -, ----------- दारं [-], ----------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] + गाथा: प्रज्ञापना-पाठसिद्धं, भावितार्थत्वात् , नपरं षट्प्रदेशादिचिन्तायां प्रतिषेध्या भशाः स्तोका इति लाघवार्थ त एष संगृहीताः१०चरमायाः मल- इहानन्तरं स्कन्धाना चरमाचरमादिवक्तव्यतोक्ता, स्कन्धाश्च यथायोगं परिमण्डलादिसंस्थानवन्तो भवन्ति इत्यतः चरमपदं यवृत्ती. IS संस्थानवक्तव्यतामाह॥२४॥ कह णं भंते ! संठाणा पं०, गो० पंच संठाणा पं०, तं०-परिमंडले बट्टे तसे चउरंसे आयते य । परिमंडला पं भंते ! संठाणा किं संखेजा असंखेजा अर्णता, गो! नो संखिज्जा नो असंखेजा अर्णता, एवं जाव आयता । परिमंडले ण भंते ! संठाणे किं संखेञ्जपएसिए असंखेञ्जपदेसिए अणंतपदेशिए, गो०! सिय संखेजपएसिए सिय असंखेञ्जपएसिए सिय अणंतपदेसिए एवं जाव आयते । परिमंडले णं भंते ! संठाणे संखेजपएसिए कि सैखेजपएसोगाढे असंखे अपएसोगाढे अणंतपएसोगाढे, गो.! संखेजपएसोगाढे नो असंखेजपएसोगाढे नो अर्थतपएसोगाढे, एवं जाव आयते, परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेजपएसिए कि संखेजपएसोगाढे असंखेजपएसोगाढे अर्थतपएसोगाढे, गो! सिय संखेजपएसोगाढे सिय असंखेजपएसोगाढे नो अर्णतपएसोगाढे एवं जाव आयते, परिमंडलेणं भंते ! संठाणे अणंतपएसिए कि संखेजपएसोगाढे असंखेजपएसोगाढे अर्णतपएसोगाढे, गो.! सिय संखेजपएसोगाढे सिय असंखेजपएसोगाढे नो अर्थतपएसोगाडे, एवं जाव आयते । परिमंडलेणं भंते ! संदाणे संखेजपएसिए संखेजपएसोगाढे किं चरमे अचरमे चस्माई अचरमाई चरमंतपएसा अचरमंतपएसा, गो.! परिमंडले ण संठाणे संखेजपएसिए संखेजपएसोगाडे selesesee दीप अनुक्रम [३६४-३७१] eacher ॥२४२॥ ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] नो चरमे नो अचरमे नो चरमाई नो अचरमाई नो चरमंतपएसा नो अचरमंतपएसा, नियमं अचरमं चरमाणि य चरमतपएसा य अचरमंतषएसा य, एवं जाव आयते, परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेजपएसिए संखेज्जपएसोगाडे किं चरमे पुच्छा, गो०! असंखेजपएसिए संखेजपएसोगाढे जहा संखेजपएसिए, एवं जाव आयते, परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेजपएसिए असंखेजपएसोगाढे किं चरमे पुच्छा, गो! असंखिञ्जपएसिए असंखिजपएसोगाढे नो चरमे जहा संखेजपदेशोगाढे एवं जाव आयते, परिमंडले णं भंते! संठाणे अणंतपएसिए संखिज्जपएसोगाढे किं परमे० पुच्छा, गो०) तहेव जाव आयते, अपंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे जहा संखेजपएसोगाढे, एवं जाव आयते । परिमंडलस्सणं भंते! संठाणस्स संखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स अचरिमस्स य चरिमाण य चरमंतपदेसाण य अचरमंतपएसाण य दवयाए पएसट्टयाए दबट्टपएसट्टयाए कयरेशहितो अ० ब० तु. वि०१, गो० सवत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स संखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स दबट्टयाए एगे अचस्मेि चरिमाई संखेजगुणाई अचरमं चरमाणि य दोकि विसेसाहियाति पदेसट्टयाए सवत्थोवा परिमंडलस्स संठाणस्स संखिजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स चरमंतपएसा अचरमंतपएसा संखज्जगुणा चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया दबट्टपएसट्टयाए सबथोवे परिमंडलस्स संठाणस्स संखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स दबट्टयाए एगे अचरिमे चरिमाई संखेज्जगुणाति अचरमं च चरमाणि य दोवि विसेसाहियाति चरमंतपएसा संखेजगुणा अचरिमंतपएसा संखेझगुणा चरिमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया एवं वट्टतंसचउरंसायएसुवि जोएयो । परिमंडलस्स पं. भंते ! संठाणस्स असंखेजपएसियस्स संखेजपए दीप अनुक्रम [३७२] esercerceaeesereecedede Heretaurary.org ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं , -------------- मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती. १०चरमाचरमपदं प्रत सूत्रांक [१५९] ॥२४॥ दीप अनुक्रम [३७२] सोगाढस्स अचरमस्स चरमाण य चरमंतपएसाण य अचरमंतपएसाण य दवयाए पएसहयाए दबदुपएसट्टयाए कयरे२ हितो अ०० तु० वि०१, गो०! सवत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेजपएसिअस्स संखेजपएसोगाढस्स दवट्ठयाए एगे अपरमे परमार्ति संखेजगुणातिं, अचरमं च चरमाणि य दोषि विसेसाहियाति पदेसहयाते सबथोवा परिमडलसंठागरस असंखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स चरमंतपएसा अचरमंतपएसा संखिजगुणा चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया दबहपएसद्वयाए सव्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स दबयाए एगे अचरिमे चरमाति संखेजगुणाति अचरमं च चरमाणि य दोवि विसेसाहियाति चरमंतपएसा संखेजगुणा अचरमतपएसा संखेनगुणा चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया, एवं जाव आयते । परिमंडलस्स णं भंते! संठाणस्स असंखेजपएसियस्स असंखेजपएसोगाढस्स अचरमस्स चरमाण य चरमंतपएसाण य अचरमंतपएसाण य दबट्टयाए पएसद्वयाए दबदुपएसट्टयाए कपरेशहितो अ००तु०वि०, गो! जहा रयणप्पभाए अप्पावहुयं तहेब निरवसेस भाणिया, एवं जाव आयते । परिमंडलस्स ण भंते ! संठाणस्स अणंतपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स अचरिमस्स य ४ दबट्टयाए ३ कयरेशहितो अब तु०वि०१, गो० जहा संखेजपएसिअस्स संखेजपएसोगाढस्स, नवरं संकमेणं अणंतगुणा, एवंजाब आयए, परिमंडलस्स णं भंते । संठाणस्स अणंतपएसियस्स असंखेअपएसोगाढस्स अचरमस्स य जहा रयणप्पभाए, नवरं संकमे अणतगुणा, एवं जाव आयते (सूत्रं १५९)॥ ॥२४॥ ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं , -------------- मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] दीप अनुक्रम [३७२] Pal 'कइ णं भंते ! संठाणा पं०' इत्यादि सुगमं, परिमण्डलादीनां संस्थानानां खरूपस्याधः प्रथमपद एव सविस्तरं । प्ररूपितत्वात् शेष पाठसिद्धं, नवरं 'परिमंडले णं भंते ! संठाणे संखेजपएसिए कि संखेजपएसोगाढे पुच्छा, गो० ! संखेजपएसोगाढे नो असंखेजपएसोगाढे नो अणंतपएसोगाढे' इति यस्मात् तस्य सङ्ख्येया एव प्रदेशास्ततः कथमसङ्ख्येयेष्वनन्तेषु वा प्रदेशेष्ववगाहते इति, असङ्ख्यातप्रदेशात्मकमनन्तप्रदेशात्मकं वा पुनः परिमण्डलसंस्थान सङ्ख्ययेष्वसद्धयेयेषु वा प्रदेशेष्ववगाहते विरोधाभावान्नानन्तप्रदेशेषु असङ्ख्यातप्रदेशात्मकस्थानन्तेषु प्रदेशेष्यवगाहनाविरोधात्, अनन्तप्रदेशात्मकस्यापि विरोध एव, यस्मालोकोऽप्यसलयातप्रदेशात्मक एव, लोकादन्यत्र च पुद्गलानां गत्यसम्भवः, तस्मादनन्तप्रदेशिकमप्यसङ्ख्येयेषु प्रदेशेष्ववगाहते नानन्तेषु, एवं वृत्तादीन्यपि संस्थानानि प्रत्येक भावनीयानि, सङ्घवातप्रदेशासङ्ख्यातप्रदेशानन्तप्रदेशपरिमण्डलादिसंस्थानचरमाचरमादिचिन्तायां निर्वचनसूत्राणि रत्नप्रभाया इव प्रत्येतव्यानि, अनेकावयवाविभागात्मकत्वविवक्षायामचरमं च चरमाणि चेति निर्वचनं प्रदेशविवक्षायां चरमान्तप्रदेशाचाचरमान्तप्रदेशाच । सम्प्रति सङ्ख्यातप्रदेशस्य सङ्ख्यातप्रदेशावगाढस्य परिमण्डलादेश्वरमाचरमादिविषयमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह-'परिमंडलस्स णं भंते !' इत्यादि, सुगमं नवरं द्रव्यार्थताचिन्तायां 'चरमाणि संखे. जगुणाई' इति सर्वात्मना परिमण्डलसंस्थानस्य सङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वात् , असङ्ख्यातप्रदेशस्थासङ्ख्यातप्रदेशावगाढस्याल्पवहुत्वं रत्नप्रभाया इस भावनीयं, अनन्तप्रदेशकस्याप्यसङ्ख्यातप्रदेशावगाढस्य, नवरं 'सङ्कमे अनन्तगुणा' इति ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया मलय. वृत्ती. सूत्रांक ॥२४४॥ [१५९] दीप अनुक्रम [३७२] क्षेत्रचिन्तातो यदा द्रव्यचिन्तां प्रति सङ्क्रमणं तदा तानि चरमाण्यनन्तगुणानि वक्तव्यानि, तद्यथा-'सवत्थोवे एगे १०चरमाअचरम चरमाई खेत्ततो असंखेजगुणाई दवओ अणंतगुणाई अचरमं चरमाणि य दोषि विसेसाहियाई' इति चरमपदं तदेवं संस्थानान्यपि घरमाचरमादिविभागेन चिन्तितानि, सम्प्रति जीवादीन् चरमाचरमविभागेन चिन्तयति, जीवे णं भंते ! गतिचरमेणं किं चरमे अचरमे ?, गो! सिय चरमे सिय अचरमे, नेरइए ण भंते ! गतिचरमेणं किं चरिमे अचरिमे ?, गो! सिय चरमे सिय अचरम एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! गतिचरमेणं किं चरिमा अचरिमा, गो० चरिमावि अचरिमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए णं भंते! ठितीचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो०! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! ठितीचरमेणं किं चरमा अचरमा, गो०! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव येमाणिया । नेरइया णं भंते ! भवचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो01 सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! भवचरमेणं किं चरमा अचरमा, गो! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरहए णं भंते ! भासाचरमेणं किं चरमे अचरमे, गो! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतर जाव बेमाणिए, नेरइया मते ! भासाचरमेणं किं चरमा अचरमा, मो.! चरमावि AS२४४॥ अचरमावि, एवं जाव एगिदियवजा, निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! आणापाणुचरमेणं किं चरमे अचरमे, गो! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरहया ण भंते ! आणापाणुचरमेणं किं चरमा अच For P OW ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -1, ------------ मूलं [१६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६०] Cotioe गाथा रमा ?, गो! चरमावि अचरमाचि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! आहारचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो। सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरझ्या णं भंते ! आहारचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गोचरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! भावचरमेणं किं चरमे अचरमे, मो.! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरंजाब माणिए, नेरइया णं भंते! भावचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए णं भंते ! वष्णचरमेणं किं चरमे अचरमे 1, गो! सिय चरमे सिव अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते ! वण्णचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो! चरिमावि अचरिमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरदए णं भंते! गंधचरमणं किं चरमे अचरमे ?, गो! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव बेमाणिए, नेरइया णं भंते ! गंधचरमेणं किं चरमा अचरमा', गो.! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया । नेरइए ण भंते ! रसचरमेणं किं चरमे अचरमे, गो.! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतर जाव येमाणिए, नेरइया पं भंते । रसचरमेणं कि चरमा अचरमा , गो०। चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! फासचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो०! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव बेमाणिए, नेरइया णं भंते ! फासचरमेणं किं चरमा अचरमा ?, गो०! चरमावि अचरमावि एवं जाव वेमाणिया । संगहणिगाहा-"गतिठिइभवे य भासा आणापाणुचरमे य बोद्धबा । आहारभावचरमे वण्णरसे गंधफासे य ॥१॥" दसमं चरमपदं समर्च (सूत्रम् १६०)॥ दीप अनुक्रम [३७३-३७४] SAREaratunasha ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१०], ------------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं -1, ------------ मूलं [१६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६० गाथा मज्ञापना- 'जीवे णं भंते ! गइचरमेणं किं चरमे ?' इत्यादि, गतिपर्यायरूपं चरमं गतिचरमं तेन जीवो भदन्त! चिन्त्यमानः किं १०चरमाचरमः अचरमः ?, भगवानाह-हे गौतम ! स्यात् चरमः स्थादचरमः, कश्चिच्चरमः कश्चिदचरम इत्यर्थः, तत्र यः य० वृत्ती. चरमपदं पृच्छासमये सामर्थ्यान्मनुष्यगतिरूपे पर्याये वर्तमानोऽनन्तरं न किमपि गतिपर्यायमवाप्स्यति, किन्तु मुक्त एव भविता स गतिचरमः, शेषस्त्वगतिचरम इति, नेरइए णं भंते ! गइचरमे' इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! गतिचरमेण सामर्थ्यान्नरकगतिपर्यायरूपेण चरमेण चिन्त्यमानः किं चरमः अचरमो वा ?, भगवानाह-गौतम ! स्याचरमः स्थादचरमो, नरकगतिपर्यायादुद्धृतो न भूयोऽपि नरकगतिपर्यायमनुभविष्यति स चरमः शेषस्त्वचरमः, एवं चतु विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद् वक्तव्यं यावद् वैमानिको-बैमानिकसूत्रं, बहुवचनदण्डकसूत्रे निर्वचनं 'चरमावि || IM अचरमावि' इति, पृच्छासमये ये केचन नैरयिकास्तेषां मध्येऽवश्यं केचन नरयिकगतिपर्यायेण चरमा इतरे त्वचरमा स्तत एकमेवेदमत्र निर्वचनं-चरमा अपि अचरमा अपि, एवं सर्वस्थानेष्वपि तां तां गतिमधिकृत्य भावनीयं । 'नेरइए भिंते ! ठिइचरमेणं' इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! तत्रैव नरकेषु चरमसमये स्थितिपर्यायरूपेण चरमेण चिन्यमानः |किं चरमोऽचरमो वा ?, भगवानाह-स्थाचरमः स्यादचरमः, किमुक्तं भवति ?-यो भूयोऽपि नरकमागत्य स्थितिच-1 ॥४५॥ रमसमयं प्राप्स्यति सोऽचरमः शेपस्तु चरमः, एवं निरन्तरं यावद् वैमानिकः, बहुत्वदण्डकचिन्तायां 'चरमावि -अचरमावि' इति, इह ये पृच्छासमये स्थितिचरमसमये वर्तन्ते, ते चिन्त्यन्ते इत्येतन्न, अन्यथा उद्वर्तनाया विरह दीप अनुक्रम [३७३ -३७४] ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६० ] + गाथा दीप अनुक्रम [३७३ -३७४] पदं [१०], - मूलं [ १६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Eaton Inte “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], --------दारं [-1, -- ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ स्यापि सम्भवात् एकादीनामपि चोद्वर्त्तनाया भावात् 'चरमावि अचरमावी'त्युभयत्राप्यवश्यंभाविना बहुवचनेन निर्वचनं नोपपद्यते, किन्तु ये पृच्छासमये वर्त्तन्ते ते क्रमेण स्ववस्थितिचरमसमयं प्राप्ताः सन्तस्तेन रूपेण चरमा अचरमा वा इत्येतचिन्तनेन उपपद्यते यथोक्तं निर्वचनमिति भवचरमसूत्रं गतिचरमसूत्रवत्, 'नेरइए णं भंते ! भासाचरमेण' मित्यादि, भाषाचरमं चरमभाषा, ततोऽयमर्थः नैरयिको भदन्त ! चरमया भाषया किं चरमोऽचरमो वा?, शेषं सुगमं, बहुवचनसूत्रे प्रश्नभावार्थों-ये पृच्छासमये नारका ते स्वकालक्रमेण चरमां भाषां प्राप्ताः सन्तः तया चरमया भाषया चरमा अचरमा वा इति, ततो निर्वचनसूत्रमप्युपपन्नं, एवमुच्छ्वासाहारसूत्रे अपि भावनीये, भाव औदयिकः, शेषं सुगमं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां दशमं चरमाख्यं पदं समाप्तम् ॥ १० ॥ एकादशं भाषापदम् । तदेवं व्याख्यातं दशमं पदं, इदानीमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे सत्त्वानां यदुपपातक्षेत्रं रत्नप्रभादि तस्य चरमाचरमविभागः प्रतिपादितः, इह [सत्या १ मृषा २ सत्यामृषा ३ असत्यामृषा ४] भाषापर्याप्तानां सत्यादिभाषाविभागोपदर्शनं क्रियते, तत्र वेदमादिसूत्रम् अत्र पद (१०) "चरिम" परिसमाप्तम् For Pernal Use Only अथ पद (११) "भाषा" आरभ्यते ~95~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [३७५] प्रज्ञापनासे पूर्ण मते ! मण्णामीति ओहारिणी भासा चिंतेमीति ओहारिणी भासा अह मण्णामीति ओधारिणी भासा अह चिंते ११भाषाया: मल- मीति ओधारणी भासा तह मण्णामीति ओधारिणी भासा तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा !, हंता गो० मण्यामीति य. वृत्ती. ओधारिणी भासा चिंतेमीति ओधारिणी भासा अह मण्णामीति ओधारिणी भासा अह चिंतेमीति ओधा तह मण्णा मीति ओधा० तह चिंतेमीति ओधा०, ओहारिणी णं भंते ! भासा किं सच्चा मोसा सच्चामोसा असञ्चामोसा, गो! ॥२४६॥ सिय सचा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असचामोसा, से केणडेणं भंते ! एवं पति-ओधारिणी णं भासा सिय संचा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असचामोसा?, गो.! आराहिणी सच्चा विराहिणी मोसा आराहणविराहिणी सञ्चामोसा जाणेव आराहणी व विराहिणी गेवाराहणविरहिणी सा असच्चामोसा णाम सा चउत्थी भासा, से तेणटेणं गोषमा! एवं बुचति--ओहारिणी णं भासा सिय सच्चा सिय मोसा सिय सञ्चामोसा सिय असचामोसा (मूत्रं १६१)॥ 'से णूणं भंते ! मण्णामि इति ओहारिणी भासा' इत्यादि, सेशब्दो अधशब्दार्थः, स च वाक्योपन्यासे, नून-12 ISI मुपमानावधारणतर्कप्रश्नहेत इहावधारणे, भदन्त ! इत्यामत्रणे, मन्ये-अवबुध्ये इति-एवं, यद्त अवधारणी। भाषा अवधार्यते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेत्यवधारणी-अवबोधबीजभूता इत्यर्थः, भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया ॥२४॥ परिणामितनिसृज्यमानद्रव्यसंहतिः, एष पदार्थः, वाक्यार्थः पुनरयं-अथ भदन्त ! एवमहं मन्ये, यदुतावश्यम-1 वधारणी भाषेति, न चैतत् सकृत् अनालोच्यैव मन्ये, किन्तु चिन्तयामि युक्तिद्वारेणापि परिभावयामीति-एवं भाषाया: विविध-भेदा: ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [३७५] यदुत अवधारणीय भाषेति, एवमात्मीयमभिप्रायं भगवते निवेद्याधिकृतार्थविनिश्चयनिमित्तमेवं भगवन्तं पृच्छति'अह मण्णामी इइ ओहारिणी भासा' इति, 'अथ-प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेयु' इह प्रश्ने, काका चास्य सूत्रस्य पाठस्ततोऽयमर्थः-अथ-भगवन्नेवमहं मन्ये एवमहं मननं कुर्या, यथा-अवधारणी भाषेति, द्वितीयाभिप्रायनिवेदनमधिकृत्य प्रश्चमाह-'अह चिंतेमी ओहारिणी भासा' इति, अथ भगवन् ! एवमहं चिन्तयामि?-एवमहं चिन्तनं कुर्या, यदुतावधारिणी भाषेति निरवद्यमेतदित्यभिप्रायः, सम्प्रति पृच्छासमयात् यथा पूर्व मननं चिन्तनं वा कृतवानिदानीमपि पृच्छासमये तथैव मननं चिन्तनं वा करोमि नान्यथेति भगवतो ज्ञानेन संवादयितुकामः पृच्छति-'तह मन्नामी इति ओहारिणी भासा तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा' इति, 'तथेति समुच्चयनिशावधारणसारश्याशेपु' इह निर्देशे, काका चास्यापि पाठः, ततः प्रभार्थत्वावगतिः, भगवन ! यथा | पूर्व मतवानिदानीमप्यहं तथा मन्ये इति–एवं यदुत अवधारिणी भाषेति, किमुक्तं भवति ?-नेदानीन्तनमननस्य पर्वमननस्य च मदीयस्य कश्चिद्विशेषोऽस्त्येतत् भगवन्निति, तथा यथा पूर्व भगवन् ! चिन्तितवान इदानी-10॥ मप्यहं तथा चिन्तयामि इति एवं यदुत अवधारणी भाषेति, अस्त्येतदिति ?, एवं गौतमेनाभिप्रायनिवेदने प्रश्ने चि कृते भगवानाह-'हंता गोयमा ! मन्नामी इति ओहारिणी भासा' इति, 'हन्तेति सम्प्रेषणप्रत्यवधारणविवा-18| देषु' इह प्रत्यवधारणे, मन्नामी इत्यादीनि क्रियापदानि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच युष्मदर्थेऽपि प्रयुज्यन्ते, ततोऽ ceptseeeeeee Seseseseseseracroeserserceloe ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. पदं सूत्रांक [१६१] ||२४७॥ दीप अनुक्रम [३७५] यमर्थ:-हन्त गौतम! मन्यसे त्वं यदुत अवधारणी भाषेति जानाम्यहं केवलज्ञानेनेदमियभिप्रायः, तथा चिन्तयसि भाषात्वमित्येवं यदुतावधारणी भाषेति इदमप्यहं वेनि केवलित्वात् , 'अह मन्नामी इति ओहारिणी भासा' इति अथेत्या-11 नन्तर्ये, मत्सम्मतत्वात् , ऊर्दू निःशकं मन्यख, इति-एवं यदुतावधारिणी भाषेति, अथ इत ऊ निःशकं चिन्तयः । इति-एवं यदुतावधारणी भाषेति, अतीवेदं साध्वनवद्यमित्यभिप्रायः, तथा तथा-अविकलं परिपूर्ण मन्यख इतिएवं यदुतावधारणी भाषेति यथा पूर्व मतवान् , किमुक्तं भवति ?-यथा त्वया पूर्व मननं कृतमिदानीमपि मत्सम्म-1 तत्वात् सर्व तथैव मन्यख मा मनागपि शङ्का कार्षीरिति, तथा तथा-अविकलं परिपूर्ण चिन्तय इति-एवं यदुत अवधारिणी भाषेति, यथा पूर्व चिन्तितवान् , मा मनागपि शतिष्ठा इति, तदेवं भाषा अवधारणीति निर्णीतमि-18 दानीमियमवधारिणी भाषा सत्या उत मृषेत्यादिनिर्णयार्थ पृच्छति-'ओहारिणी ण भंते !' इत्यादि, अवधारिणीअवबोधवीजभूता, णमिति प्राम्बत् , भदन्त ! भाषा किं सत्या मृषा सत्यामृषा असत्यामृपा ? इति, तत्र सन्तोमुनयस्तेषामेव भगवदाज्ञासम्यगाराधकतया परमशिष्टत्वात् सभ्यो हिता-इहपरलोकाराधकत्वेन मुक्तिप्रापिका सत्या, युगादिपाठाभ्युपगमात् यः प्रत्ययः, यद्वा यो यस्मै हितः स तत्र साधुरिति सत्सु साध्वी सत्या, 'तत्र साधा-8॥२७॥ विति यः प्रत्ययः, यदिवा सन्तो-मूलोत्तरगुणास्तेषामेव जगति मुक्तिपदप्रापकतया परमशोभनत्वात् अथवा सन्तो-विद्यमानास्ते च भगवदुपदिष्टा एव जीवादयः पदार्थाः अन्येषां कल्पनामात्ररचितसत्ताकतया तत्त्वत्तोऽस ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [३७५] त्वात् तेभ्यो हिता तेषु साध्वी वा यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणेन सत्या, विपरीतखरूपा मृषा, उभयस्वभावा सत्यामृषा, या पुनस्तिसृष्वपि भाषाखनधिकृता-तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्त विनी सा आमन्त्रणाज्ञापनादिविषया असत्यामृषा, उक्तं च-"सचा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्या वा । तबिवरीया मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ॥१॥ अणहिगया जा तीसुवि सद्दो चिय केवलो असचमुसा" इति, भगवानाह-गौतम ! सिय सञ्चा' | इत्यादि, स्थात् सत्या सत्याऽपि भवतीत्यर्थः, एवं स्यादसत्या स्यात्सत्यामृषा स्वादसत्यामृषेति, अत्रैवार्थे प्रश्नमाहRI'से केणट्रेणं भंते ! इत्यादि, सुगम, भगवानाह-गौतम ! आराधनी सत्या, इद विप्रतिपत्ती सत्यां वस्तुप्रतिष्ठापनबुद्ध्या या सर्वज्ञमतानुसारेण भाष्यते अस्त्यात्मा सदसन्नित्यानित्याधनेकधर्मकलापालिङ्गित इत्यादि सा यथावस्थितयस्त्वभिधायिनी आराध्यते मोक्षमार्गोऽनयेत्याराधनी, आराधिनीत्वात् सत्येति, विराधिनी मृषेति, विराध्यते मुक्तिमार्गोऽनयेति विराधिनी, विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतप्रातिकूल्येन या भाष्यते यथा नास्त्यात्मा एकान्तनित्यो वेत्यादि तथा सत्याऽपि परपीडोत्पादिका सा विपरीतवस्त्यभिधानात् परपीडाहेतुत्वाद्वा मुक्तिविराधनाद्विराधनी विराधिनीत्वाच मृषेति, या तु किञ्चन नगरं पत्तनं वाऽधिकृत्य पञ्चसु दारकेषु जातेष्वेवमभिधीयते, यथाऽस्मिन् अथ दश दारका जाता इति सा परिस्थूरव्यवहारनयमतेन आराधनविराधिनी, इयं हि पञ्चानां दारकाणां यजन्म तावताउंशेन संवादनसम्भवादाराधिनी, दश न पूर्यन्ते इत्येतावताशेन विसंवादसम्भवात् विरा ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] प्रज्ञापना-धिनी, आराधिनी चासौ विराधिनी च आराधनविराधिनी, कर्मधारयत्वात् पुंवभावः, आराधनविराधिनीत्वाच११भाषाया: मल- सत्यामृपा, या तु नैवाराधनी तलक्षणविगमात् नापि विराधिनी विपरीतवस्त्वभिधानाभावात् परपीडाहेतुत्वाभावा- पद य०वृत्ती. च नाप्याराधनविराधिनी एकदेशसंवादविसंवादाभावात् , हे साधो ! प्रतिक्रमणं कुरु स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षखेत्या॥२४८॥ |दिव्यवहारपतिता आमन्त्रिण्यादिभेदभिन्ना सा असत्यामृषा नाम चतुर्थी भाषा, से एएण?ण मित्याद्युपसंहारवाक्यं ॥ इह यथावस्थितवस्तुतत्त्वाभिधायिनी भाषा आराधिनीत्वात् सत्येत्युक्तं, ततः संशयापनस्तदपनोदाय पृच्छति अह भंते! गाओ मिया पमू पक्खी पण्णवणीणं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो! जा य गाओ मिया पम् पक्खी पण्णयणी णं एसा भासा, [पण्णवणी] ण एसा भासा मोसा, अह भंते ! जा य इत्थीवऊ जा य पुरिसबऊ जा यणपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो०! जा य इत्थीवऊ जा य पुमवऊ जा य नपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा, अह भंते ! जा य इथिआणमणी जा य पुमआणवणी जा य नपुंसगआणमणी पणवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो०जा य इथिआणवणी जा य पुमआणवणी जा य नपुंसगआणवणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा । अहं भंते ! जा य इत्थिपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी ॥२४॥ जाय नपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो! जा य इत्थिपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी जा य नपुंसगपण्णवणी, पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, अह भंते ! जा जायीति इथिवऊ Reseatseeeee दीप अनुक्रम [३७५] एeceseeneceneces ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] जातीइ पुमवऊ जातीति णपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हता! गो.! जातीति इस्थिवऊ जाईति पुमवऊ जातीति गपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा । अह भंते ! जा जातीइ इत्थियाणमणी जाइनि पुमआणवणी जातीति गपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा, हता! गो.! जातीति इस्थिआणमणी जातीति पुमआणवणी जातीति णपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा । अह भंते ! जातीति इस्थिपण्णवणी जातीति पुमपण्णवणी जातीति णापुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा ?, हंता ! गो० ! जातीति इत्थिपण्णवणी जाईति घुमपण्णवणी जाईति गपुंसगपण्णवणी पाणवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा (सूत्र १६२) 'अह भंते ! गाओ मिया' इत्यादि. अथ भदन्त! गावः प्रतीताः, मृगा अपि प्रतीताः, पशवः-अजाः, पक्षिणोऽपि प्रतीताः, प्रज्ञापनी प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, किं अर्थप्रतिपादनी?,प्ररूपणीयेतियावत् , णमिति वाक्यालङ्कार, एषा भाषा सत्या नैषा भाषा सपेति, इयमत्र भावना-गाव इति भापा गोजातिं प्रतिपादयति, जाती च त्रिलिङ्गा अप्यथा अभिधेयाः, लिङ्गत्रयस्यापि जाती सम्भवात्, एवं मृगपशुपक्षिष्वपि भावनीयं, न चैते शब्दास्त्रिलिङ्गाभि-18 धायिनस्तथाप्रतीतेरभावात् किन्तु पुंलिङ्गगर्भास्ततः संशयः किमियं प्रज्ञापनी किंवा नेति', भगवानाह-'हंता गोयमा !' हन्तेत्यवधारणे, गौतम ! इत्यामन्त्रणे, गाव इत्यादिका भाषा प्रज्ञापनी, तदर्थकथनाय प्ररूपणीया, यथा For P OW ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] मूलं [१९६२ ] पदं [११], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥२४९॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - · उद्देशक: [ - ], -------दारं [-], वस्थितार्थप्रतिपादकतया सत्यत्वात्, तथापि जात्यभिधायिनीयं भाषा, जातिश्च त्रिलिङ्गार्थसमवायिनी, ततो जास्यभिधानेन त्रिलिङ्गा अपि यथासम्भवं विशेषा अभिहिता भवन्तीति भवति यथावस्थितार्थाभिधानादियं प्रज्ञापनी भाषेति यदप्युक्तम् - किन्तु पुंलिङ्गगर्भा इति, तत्र शब्दे लिङ्गव्यवस्था लक्षणवशात्, लक्षणं च 'स्त्रीपुंनपुंसकसहोती परं' तथा 'ग्राम्याशिशुद्विखुरस स्त्री प्राय' इत्यादि, ततो भवेत् क्वचित् शब्दे लक्षणवशात् स्त्रीत्वं कचित् पुंस्त्वं कचित् नपुंसकत्वं वा, परमार्थतः पुनः सर्वोऽपि जातिशब्दस्त्रिलिङ्गानप्यर्थान् तत्तद्देशकालप्रस्तावादिसामर्थ्यवशादभिधत्ते इति न कश्चिद्दोषः, न चेयं परपीडाजनिका नापि विप्रतारणादिदुष्टविवक्षासमुत्था ततो न मृषेति प्रज्ञापनी । 'अह भंते ! जा य इत्थिवऊ' इत्यादि, अथेति प्रश्ने भदन्त । इत्यामन्त्रणे, या च स्त्रीवाक्- स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका भाषा खद्दा लतेत्यादिलक्षणा या पुरुषवाकू घटः पट इत्यादिरूपा या च नपुंसकवाक् कुव्यं काण्डमित्यादिलक्षणा प्रज्ञापनीयं भाषा नैषा भाषा मृषेति ?, किमत्र संशयकारणं येनेत्थं पृच्छति ? इति चेत्, उच्यते, इह खट्ाघटकुख्यादयः शब्दाः यथाक्रमं स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गाभिधायिनः, स्त्रीपुंनपुंसकानां च लक्षणमिदम् - "योनिर्मृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता क्लीयता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥ १ ॥ मेहनं खरता दाढ, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता । स्त्री कामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षसे ॥२॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३ ॥” तथाऽन्यत्राप्युक्तम्- “स्तनकेशवती स्त्री स्यालोमशः पुरुषः स्मृतः । उभयोरन्तरं यच, तत्र भावे नपुंसकम् ॥ १ ॥” Education International For Parts Only ~102~ ११ भाषा पर्द ॥२४९॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६२ ] दीप अनुक्रम [३७६] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [११], • उद्देशक: [ - ], ------ ------- दारं [-], -------मूलं [ १६२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः न चैवंरूपाणि रूयादिलक्षणानि खट्ठादिषूपलभ्यन्ते, तथाहि —– यद्येकैकावयव पृथक्करणेन सम्यग् निभालनं क्रियते तथापि न तेषां ख्यादिलक्षणानां तत्रोपलम्भोऽस्ति ततः प्रज्ञापनीयं भाषा न वेति जातसंशयः तदपनोदाय पृच्छति, अत्र भगवानाह - 'हंता गोयमेत्यादि अक्षरगमनिका प्राग्वत्, भावार्थस्स्त्वयं-- नेह शब्दप्रवृत्तिचिन्तायां यथोक्तानि |रूयादिलक्षणानि स्त्रीलिङ्गादिशब्दाभिधेयानि किन्त्वभिधेयधर्मा इयमयमिदंशब्दव्यवस्थाहेतवः गुरूपदेश पारम्पर्यगम्याः स्त्रीलिङ्गादिशब्दाभिधेयाः, न चैते कल्पनामात्रं, वस्तुतस्तत्तच्छन्दाभिधेयतया परिणमनभावात् तेषामभिधेयधर्माणां तत्त्वतस्तात्त्विकत्वात्, आह च शकटसूनुरपि -- “ अयमियमिदमितिशब्दव्यवस्थाहेतुरभिधेयधर्म उपदेशगम्यः स्त्रीपुंनपुंसकत्वानी "ति, व्यवस्थापितश्चायमर्थो विस्तरकेण खोपज्ञशब्दानुशासनविवरण इति, ततः शाब्दव्यवहारापेक्षया यथावस्थितार्थप्रतिपादनात् प्रज्ञापनीयं भाषा, दुष्टविवक्षातः समुत्पत्तेरभावात् परपीडाहेतुत्वाभावाच्च न मृषेति । 'अह मंते !' इत्यादि, अथ भदन्त ! या च रुयाज्ञापनी आज्ञाप्यते— आज्ञासम्पादने प्रयुज्यतेऽनया सा आज्ञापनी स्त्रिया आज्ञापनी ख्याज्ञापनी, स्त्रिया आदेशदायिनीत्यर्थः, या च पुमाज्ञापनी नपुंसकाज्ञापनी, प्रज्ञापनीयं भाषा नैषा भाषा मृषेति ?, अत्रेदं संशयकारणं-किल सत्या भाषा प्रज्ञापनी भवति, इयं च भाषा आज्ञासम्पादनक्रियायुक्ताभिधायिनी, आज्ञाप्यमानश्च ख्यादिः तथा कुर्यान्न वा ?, ततः संशयमापन्नो विनिश्चयाय पृच्छति, अन भगवानाह - 'हंता गोयमा !' इत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, भावार्थस्त्वयं - आज्ञापनी भाषा द्विधा - परलोका For Penal Use On ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलया वृत्ती. पदं सूत्रांक [१६२] ॥२५०॥ दीप अनुक्रम [३७६] बाधिनी इतरा च, तत्र या खपरानुग्रहबुया शाठ्यमन्तरेण आमुष्मिकफलसाधनाय प्रतिपन्नैहिकालम्बनप्रयोजना१भाषाविवक्षितकार्यप्रसाधनसामर्थ्ययुक्ता विनीतस्यादिविनेयजनविषया सा परलोकाबाधिनी एव च साधूना प्रज्ञापनी | परलोकाबाधनात्, इतरा वितरविषया, सा च स्वपरसङ्क्लेशजननात् सृषेत्यप्रज्ञापनी साधुवर्गस्य, उक्तं च-"अविणी-IN यमाणवतो किलिस्सई भासई मुसं तह य । घंटालोह नाउं को कडकरणे पवत्तेजा? ॥१॥" क्रिया हि द्रव्यं । विनमयति नाद्रव्यमित्यभिप्रायः । 'अह भंते ! जा य इत्थिपण्णवणी' इत्यादि अथ भदन्त ! या च भाषा स्त्रीप्रज्ञापनी-स्त्रीलक्षणप्रतिपादिका, 'योनिर्मंदुत्वमस्थैर्य मुग्धते'त्यादिरूपा, या च पुंप्रज्ञापनी-पुरुषलक्षणप्रतिपादिका 'मेहनं खरता दाय' इत्यादिरूपा या च [.६...] नपुंसकमज्ञापनी-नपुंसकलक्षणाभिधायिनी 'स्तनादि-15 श्मश्रुके शादिभावाभावसमन्वितमित्यादिलक्षणा प्रज्ञापनीयं भाषा नेपा भाषा मृषेति !, कोऽत्राभिप्राय इति चेत्, उच्यते, एहसीलिझादयः शब्दाः शान्दव्यवहारवलादन्यत्रापि प्रवर्तन्ते, यथा खट्टाघटकुव्यादयः सदादिप्यर्थेषु, न खलु तत्र यथोक्तानि ख्यादिलक्षणानि सन्ति यथोक्तं प्राक, ततः किमियमव्यापकत्वात् ख्यादिलक्षणप्रतिपादिका भाषा न वक्तव्या आहोश्चित् वक्तव्येति संशयापन्नः पृष्टवान्, अत्र भगवानाह-'हंता गोयमे त्यादि, अक्षरगम ॥२५॥ निका सुप्रतीता, भावार्थस्त्ययं-इह ख्यादिलक्षणं द्विधा-शाब्दव्यवहारानुगतं वेदानुगतं च, तत्र यदा शाब्दव्य १ अविनीतमाशापयम् हिश्यति भाषते मृषा तथा च । घण्टालोहं च ज्ञात्वा कः कटकरणे प्रवत्तेत ॥१॥ ~ 104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] वहाराश्रितं प्रतिपादयितुमिष्यते तदैवं न वक्तव्यमव्यापकत्वात् , यथा चाव्यापकता तथा प्रागेव लेशतो दर्शिता, विस्तरतस्तु खोपज्ञशब्दानुशासनविवरणे, तत इयं तदधिकृत्य प्रज्ञापनी, यदा तु बेदानुगतं प्रतिपादयितुमिप्यते । तदा यथावस्थितार्थाभिधानात् प्रज्ञापन्येव, न मृषेति । 'अह भंते ! जा जातीति इत्थिवऊ' इत्यादि, अथ भदन्त ।। या जातिः स्त्रीवाक् जातौ स्त्रीवचनं सत्तेति, या जातौ पुंवाक् पुवचनं भाव इति, या च जातौ नपुंसकवाक् सामान्यमिति, प्रज्ञापनी एपा भाषा नैषा भाषा भूषेति !, कोऽत्राभिप्राय इति चेत्, उच्यते, जातिरिह सामान्यमुच्यते, सामान्यस्य च न लिङ्गसमयाभ्यां योगो, वस्तूनामेव लिङ्गसङ्ख्याभ्यां योगस्य तीर्थान्तरीयैरभ्युपगमात् , ततो यदि परं। जातावौत्सर्गिकमेकवचनं नपुंसकलिङ्गं चोपपद्येत न त्रिलिङ्गता, अथ च त्रिलिङ्गाभिधायिनोऽपि शब्दाः प्रवर्त्तन्ते । पायथोक्तमनन्तरं ततः संशयः-किं एषा भाषा प्रज्ञापनी उत नेति ?, अथ भगवानाह-हंता गोयमा ! इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-जाति म सामान्यमुच्यते, सामान्यं च न परिकल्पितमेकमनवयवमक्रियं, तस्य प्रमाणबाधितत्वात् , यथा च प्रमाणबाधितत्वं तथा तत्त्वार्थटीकायां भावितमिति ततोऽवधार्य, किन्तु समानः परिणामो 'वस्तुन एव समानः परिणामो यः स एव सामान्य' मिति वचनात्, समानपरिणामश्चानेकधर्मात्मा, धर्माणां परस्परं धर्मिणोऽपि च सहान्योऽन्यानवेधाभ्युपगमात् तथा प्रमाणेनोपलब्धेः, ततो घटते जातेरपि त्रिलिङ्गतेति || प्रज्ञापन्येपा भाषा, नैपा भाषा मृषेति । 'अह भंते !' इत्यादि, अथ भदन्त ! या जातिरुयाज्ञापनी-जातिमधिकृत्य RELIGunintentATHREE For P OW ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: पदं प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] प्रज्ञापना [खिया आज्ञापनी, यथा अमुका जायणी क्षत्रिया वा एवं कुर्यादिति, एवं जातिमधिकृत्य पुमाज्ञापनी नपुंसकाज्ञा-II या मल-1पनी, प्रज्ञापनी एषा भाषा नैषा भाषा मृषेति ?, अत्रापि संशयकारणमिदं-आज्ञापनी हि नाम आज्ञासम्पादन-1 यवृत्ती. |क्रियायुक्तख्याद्यभिधायिनी, सयादिश्चाज्ञाप्यमानस्तथा कुर्यान्न वेति संशयः, किमियं प्रज्ञापनी किं वाऽन्येति ?, अत्र निर्वचनमाह-'हंता ! गोयमा' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-आज्ञापनी हि नाम परलोकावाधिनी ॥२५॥ |सा प्रोच्यते या स्वपरानुग्रहबुद्ध्या विवक्षितार्थसम्पादनसामोपेतविनीतल्यादिविनेयजनविषया, यथा अमुका। ब्राह्मणी साध्वी शुभ नक्षत्रमद्येत्यमुकमहं श्रुतस्कन्धं च पठेत्यादि सा प्रज्ञापन्येव, दोषाभावात् , शेषा तु खपरपी-18 डाजननान्मृत्यप्रज्ञापनीति । 'अह भंते।' इत्यादि, अथ भदन्त ! या जाप्तिषीप्रज्ञापनी जातिमधिकृत्य खियास्त्रीलक्षणस्य प्रतिपादिका, यथा स्त्रीः खभावात् तुच्छा भवति गौरवबहुला चलेन्द्रिया दुर्वेला च धृत्येति, उक्तं च"तुच्छा गारवबहुला चलिंदिया दुबला य धीईए' इत्यादि, या च जातिमधिकृत्य पुम्प्रज्ञापनी-पुरुषलक्षणस्य खरूं|पनिरूपिका, यथा पुरुषः खभावात् गम्भीराशयो भवति महत्यामपि चापदि न क्लीयतां भजते इत्यादि, या च जाति-| मधिकृत्य नपुंसकप्रज्ञापनी नाम-नपुंसकजातिप्ररूपिका, यथा नपुंसकः खभावात् क्लीवो भवति, प्रवलमोहानलज्वा-2॥२५१॥ लाकलापज्वलितश्चेत्यादि प्रज्ञापन्येषा भाषा नैषा भाषा मृषेति, अत्रापीदं संशयकारणं वर्ण्यते-खलु जातिगुणाः एवंरूपाः परं कचित्कदाचिद् व्यभिचारोऽपि रश्वते, तथाहि-रामाऽपि काचित् गम्भीराशया भवति धृत्या चातीच ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [३७६] बलवती, पुरुषोऽपि च कश्चित्तुच्छप्रकृतिरूपो लभ्यते स्तोकायामपि चापदि क्लीवतां भजते, नपुंसकोऽपि कश्चि-1 न्मन्दमोहानलो दृढसत्त्वश्च, ततः संशयः-किमेपा प्रज्ञापनी किं वा नेति ?, अत्र भगवानाह-'हंता! गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, परं भावार्थस्त्वयं-इह जातिगुणप्ररूपणं बाहुल्यमधिकृत्य भवति न समस्तव्यक्त्याक्षेपणात एव जातिगुणान् प्ररूपयन्तो विमलधियः प्रायः शब्दं समुच्चारयन्ति, प्रायेणेदं द्रष्टव्यं, यत्रापि न प्रायःशब्द-19 श्रवणं तत्रापि स द्रष्टव्यः प्रस्तावात् , ततः कचित्कदाचिद् व्यभिचारेऽपि दोषाभावात् प्रज्ञापन्येषा भाषा न मृषेति॥ इह भाषा द्विधा दृश्यते-एका सम्यगुपयुक्तस्य द्वितीया वितरस्य, तत्र यः पूर्वापरानुसन्धानपाटबोपेतः श्रुतज्ञानेन पर्यालोच्यार्थान् भाषते स सम्यगुपयुक्तः, स चैवं जानाति-अहमेतद्भापे इति, यस्तु करणापटिष्टतया वातादिनो-16 पहतचैतन्यकतया या पूर्वापरानुसन्धानविकलो यथाकथंचित् मनसा विकल्प्य विकल्प्य भाषते स इतरः, स| चैवमपि न जानाति-यथा अहमेतत् भाषे इति, बालादयोऽपि च भाषमाणा दृश्यन्ते, ततः संशयः-किमेते। जानन्ति यद्वयमेतत् भाषामहे इति किं वा न जानन्तीसि पृच्छति अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति बुयमाणा अहमेसे बुयामीति , गो.! नो इणढे समहे, णण्णत्थ सणिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ आहारं आहारेमाणे अहमेसे आहारमाहारेमिति, गो०! नो इणढे समडे, णण्णत्थ सणिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अम्मापियरी, गी०! ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ११भाषा प्रत सूत्रांक [१६३] प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. RSee ॥२५॥ दीप अनुक्रम [३७७]] सस्टरseeeeeeee णो इणडे समढे, पणत्थ सणिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अतिराउलो अयं मे अइराउलेत्ति ?, गो०! णो तिणढे समहे, णण्णस्य सणिणो, अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे भटिदारए अयं मे भट्टिदारियति ?, गो०! जो इणढे समढे, णणत्थ सणिणो, अह भंते ! उद्धे गोणे खरे धोडए अए एलते जाणति चुयमाणे अहमेसे बुयामि , गो० णो इणढे समढे, गण्णत्थ सणिणो, अह भंते ! उट्टे जाव एलते जाणति आहारं आहारेमाणो अहमेसे आहारेमि, गो! णो इणहे समढे जाव णण्णत्थ सणिणो, अह मंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणति, अयं मे अम्मापियरो', गो०! गो इणहे समढे जाव णण्णत्थ सणिणो, अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति, अयं मे अतिराउलेत्ति', गो०! णो इणढे समढे जाव णण्यात्थ सणिणो, अह भंते! उट्टे जाव एलए जाणति अयं मे भटिदारए २१, गोयमा! णो इणढे समढे जाव णण्णत्थ सणिणो (मूत्र १६३) 'अह भंते! मंदकुमारए या' इत्यादि, अथ भदन्त ! मन्दकुमारकः-उत्तानशयो वालको मन्दकुमारिका-उत्तान-1 शया बालिका भाषमाणा-भाषायोग्यान् पुद्गलानादाय भाषात्वेन परिणमय्य विसृजती एवं जानाति-यथाऽहमेतद् ब्रवीमि इति ?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थः-युक्त्युपपन्नो, यद्यपि मनःपर्याप्त्या पर्याप्तस्तथापि तस्याया- कापि मनःकरणमपटु अपद्धत्वाच मनःकरणस्य क्षयोपशमोऽपि मन्दः, श्रुतज्ञानावरणस्य हि क्षयोपशमः प्रायो मनः करणपटिष्टतामवलम्ब्योपजायते, तथा लोके दर्शनात् , ततो न जानाति मन्दकुमारो मन्दकुमारिका वा भाषमाणा ॥२५॥ SAREauratonintamanna ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६३] यथाऽहमेतत् प्रवीमीति, किं सोऽपि न जानातीत्यत आह-'नण्णत्थ सण्णिणो' इति, अन्यत्रशब्दोऽत्र परिवर्ज-15 नार्थः, रष्टचाम्यत्रापि परिवर्जनाओं यथा-'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां, सर्वे योधाः पराङ्मुखा' इति. द्रोणभीष्मी वर्जयित्वा इत्यर्थः, संज्ञी-अवधिज्ञानी जातिस्परः सामान्यतो विशिष्टमनःपाटवोपेतो वा तस्मादन्यो न जानाति, संज्ञी तु यथोक्तखरूपो जानीते । एवमाहारादिविषयाण्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, नवरमतिराउले इति देशीपदं, एतत् खामिकुलमित्यर्थः, 'भट्टिदारए' इति भर्त्ता-खामी तस्य दारक:-पुत्रो भर्तृदारका, एवमुदादिविषयाण्यपि पश्च सूत्राणि भावयितव्यानि, नवरमुष्टादयोऽप्यतिवालावस्थाः परिग्राखाः न जरठा, जरठावस्थायां हि परिज्ञानस्य सम्भयात् ॥ सम्प्रत्येकवचनादिभाषाविषयसंशयापनोदार्थ पृच्छति अह भंते ! मणुस्से महिसे आसे हत्थी सीहे वग्धे विगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोईतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सवासा एगवऊ, हंता गो०! मणुस्से जाव चिल्ललए जे यावन्ने त० सवा सा एगवऊ । अह भंते! मणुस्सा जाव चिल्ललगा जे याव० तहप्पगारा सव्वा सा बहुवऊ, हंता गो० मणुस्सा जाय चिल्ललगा सवा सा बहुवऊ। अह भंते ! मणुस्सी महिसी बलवा हत्थिणिया सीही बग्धी विगी दीविया अच्छी तरच्छी परस्सरा रासभी सियाली बिराली सुणिया कोलसुणिया कोकंतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया जे यावन्ने तह सबा सा इत्विवऊ?, इंता गो० मणुस्सी जाव चिल्लालिगा जे यावन्ने तहप्पगारा सबा सा इत्थिवऊ । अह भंते ! मणुस्से जाव चिल्ललये जे दीप अनुक्रम [३७७]] 22012 0 38 ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ११भाषापर्द सूत्रांक [१६४] ॥२५३॥ दीप अनुक्रम [३७८] याचने तहप्पगारा सवा सा पुषवाकी, हत्ता गो! मणुस्से महिसे जाब चिललए जे यायो तहप्पणारा सवा सा पुलपाऊ। अहमसे । कंस कंसोमं परिमंडलं सेलं धूम जालं थालं तारं रूपं अपिछपर्व कुंख पउमं दुद्धं दाहिं णवणीतं असणं सवर्ण भवणं क्मिाणं छत्तं कामसं भिंगारं अंगणं गिरंगणं आमरणं रयणं जे यावनेतहप्पगारा सई तं पुंसगवऊ, हम गो! कसं जाक रयणं जे यावनेतहप्पणारा तं सकंणपुंसमवऊ । अह भैते! पुढवी इत्थिवऊ आउत्ति पुमघऊ धणित्ति नपुंसगचऊ पनवणी में एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो! पुढवित्ति इस्थिवऊ आउत्ति पुमऊ धणिति नपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा पर एसा भासा मोसा । अह भंते ! पुढचीत्ति इस्थिआणमणी आउत्ति पुमआणमणी घण्णेत्ति नपुंसगाणमणी पण्णवणीणं एसा भासा ण एसा भासा मोसा?, हंता गो०! पुढवित्ति इत्थिआणमणी आउत्ति पुमआणमणी धण्णेति नपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा । अह भंते ! पुढवीति इस्थिपण्णवणी आउत्ति पुमपग्णवणी धणेत्ति णपुंसगषण्णवणी आराहणी एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हता! गो! पुढवीति इरिथपण्णवणी आउत्ति पुमपण्णवणी धणेचि नपुंसगपण्णवणी आराहणीणं एसा भासा, न एसा भासा मोसा ।[०४०००] इच्चेवं भंते इत्थिववणं वा घुमवपणं वा नपुंसगवयणं का वयमाणे पण्णवणी पं एसा भासा ण एसा भासा मोसा, हंता गो! इथिवयणं वा पुमवयणं वा णपुंसगवयणं वा वयमाणे पणवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा ।। (मूत्रं १६४) अथ भदन्त ! मनुष्यो महिषोऽश्वो हस्ती सिंहो व्यानो कृक एते प्रतीताः, द्वीपी-चित्रकविशेषः ऋक्षः - preceneswerब्रटहाटsene |॥२५३॥ ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम LATESTAR0902 अच्छभल्लः तरक्षो-व्याघ्रजातिविशेषः परस्सरो-गण्डः शृगालो-गोमायुः बिडालो-मार्जारः शुनको-मृगकादशः कोलशुनको-मृगयाकुशलः था शशक:-प्रतीतः कोकंतिया-लुडी चित्रका-प्रतीतः चिखलका|आरण्यः पशुविशेषः, 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा एकवचनान्ता इत्यर्थः, सर्वा सा एक-18 वाक्-एकत्वप्रतिपादिका वाणी, अयमत्र प्रश्नहेतुरभिप्रायः-इह वस्तु धर्माधमिसमुदायात्मकं धर्माश्च प्रतिवस्त्वनन्ताः मनुष्य इत्यांद्युक्तौ च सकलं वस्तु धर्मधर्मिसमुदायात्मकं परिपूर्ण प्रतीयते, तथा व्यवहारदर्शनात् , एकस्मिंश्चार्थे एकवचनं बहुषु बहुवचनं, अत्र बहवो धम्मा अभिधेयाः ततः कथमेकवचनं ?, अथ च दृश्यते लोके एकवचनेनापि व्यवहार इति पृच्छति-सर्वा सा एकत्वप्रतिपादिका वाग् भवति ?, काका चेदं पठ्यते ततः प्रश्चार्थत्वावगतिः, भगवानाह-हंता गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-शब्दप्रवृत्तिरिह विवक्षाधीना, विवक्षा च तत्तत्प्रयोजनवशात् वक्तुः क्वचित् कदाचित् कथञ्चित् भवतीत्यनियता, तथाहि-स एवैकः पुरुषो |यदाऽयं मे जनक इति पुत्रेण विवक्ष्यते तदा जनक इत्यभिधीयते, स एव यदा तेनैव मामध्यापयतीति विवक्ष्यते तदा तूपाध्याय इति, तत्र यदा उपसर्जनीभूतधर्मा धर्मी प्राधान्येन विवक्ष्यते तदा धम्मिण एकत्यात् एकवचन, धर्माश्च धमिण्यन्तर्गता इति परिपूर्णवस्तुप्रतीतिर्यथा त्वमिति, यदा तूपसर्जनीभूतधर्मिणो धर्माः पाण्डित्यपरोपकारित्वमहादानदातृत्वादयः प्राधान्मेन विवक्ष्यन्ते तदा धर्माणां बहुत्वादेकस्मिन्नपि बहुवचनं यथा यूवमिति, तत [३७८] । ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [३७८] प्रज्ञापना-इहापि मनुष्य इत्यादावुपसर्जनीकृतधा धर्मी प्राधान्येन विवक्षित इति भवति सर्वाप्येवंजातीया एकत्वप्रतिपा- ११भाषायाः मल दिका वाक् । 'अह भंते ! मणुस्सा' इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत्, अत्रापीदं संशयकारणं-मनुष्यादयः शब्दापदं य०वृत्ती. जातिवाचकाः, जातिश्च सामान्य सामान्यं चैकं 'एक निसं निरवयवमक्रियं सर्वगं च सामान्य मितिवचनात्, ततः कथमत्र बहुवचनं १, अथ च दृश्यते बहुवचनेनापि व्यवहार इति पृच्छति-सर्वा सा बहुत्वप्रतिपादिका वाक ॥२५४|| भवति ?, काका पाठात् प्रश्नार्थत्वावगतिः, अत्र भगवानाह-हंता गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं-यद्यपि नामैते जातिवाचकाः शब्दाः तथापि जातिरभिधीयते समानपरिणामः, समानपरिणामश्चासमान-IN परिणामाविनाभावी, अन्यथैकत्वापत्तितः समानत्यायोगात्, ततो यदा समानपरिणामोऽसमानपरिणामसंलुलितः प्राधान्येन विवक्ष्यते तदाऽसमानपरिणामस्य प्रतिव्यक्ति भिन्नत्वात् तदभिधाने बहुवचनं, यथा घटा इति, यदा तु स एव एकः समानपरिणामः प्राधान्येन विवक्ष्यते इतरस्त्वसमानपरिणाम उपसर्जनीभूतस्तदा सर्वत्रापि समानप-15 रिणामस्य एकत्वात् तदभिधाने एकवचनं, यद्वा सर्वोऽपि घटः पृथुवृनोदराद्याकार इति, अत्रापि मनुष्या इत्यादौ । समानपरिणामोऽसमानपरिणामसंलुलितः प्राधान्येन विवक्षित इति, तस्थानेकत्वभावात् बहुवचनं । 'अह भंते ITBIR५४॥ मणुस्सी'त्यादि, अत्रेदं संशयकारणं-इह सर्व वस्तु त्रिलिङ्गं, तथाहि-मृद्रूपोऽयमिति पुंल्लिङ्गता मृत्परिणतिरियं । घटाकारा परिणतिरियमिति स्त्रीलिङ्गता, इदं वस्त्विति नपुंसकलिङ्गता, तत्रैवं शबलरूपे वस्तुनि व्यवस्थिते कथमे ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम ॥ कलिङ्गमात्राभिधायी शब्दस्तदभिधायी भवति, न खलु नरसिंहे सिंहशब्दो नरशब्दो वा केवलसदभिधायी भवति, अथ च दृश्यते तदभिधायितयाऽपि लोके व्यवहारस्ततः पृच्छति 'सवा सा इत्थिवऊ' इति, सर्वा सा एवंप्रकारा। | स्त्रीवाक-स्त्रीलिङ्गविशिष्टार्थप्रतिपादिका वाक् भवति ?, काका पाठात् प्रश्नार्थत्वावगतिः, भगवानाह-'हंता ! गोयमे'I त्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयं यद्यपि नाम शबलरूपं वस्तु तथाऽप्येप शाब्दो न्यायः-येन धर्मेण| । विशिष्टः प्रतिपादयितुमिष्यते स तं प्रधानीकृत्य तेन विशिष्टं न्यग्भूतशेषधर्माणं धर्मिणं प्रतिपादयति, यथा पुरुषत्वे शास्त्रज्ञत्वे दातृत्वे भोक्तृत्वे जनकत्वेऽध्यापयितृत्वे च युगपद् व्यवस्थितेऽपि पुत्रः समागच्छन्तमवलोक्य पिता आग-11 च्छतीति ब्रूते, शिष्यस्तु उपाध्याय इति, एवमिहापि यद्यपि मानुषीप्रभृतिकं सर्व त्रिलिङ्गात्मकं तथापि योनिदृदुत्वमस्थैर्यादिलक्षणं स्त्रीत्यमत्र प्रतिपादयितमिष्टमिति ततः प्रधानीकृत्य तेन विशिष्टं न्यग्भतशेषधाणं धमिण प्रति-II पादयतीति भवति सवों सा खीवाक, एवं पुंवागनपुंसकवाचावपि भावनीये । 'अह भंते ! पुढवी' इत्यादि सुगम, नवरं 'आऊ' इति पुंलिङ्गता प्राकृतलक्षणवशात्, संस्कृते तु खीत्वमेव, 'अह भंते ! पुढवीति इत्थीआणवणी' | इत्यादि, अथ भदन्त ! पृथिवीं कुरु पृथ्वीमानयेत्येवं खियां-स्त्रीलिङ्गे पृथिव्या आज्ञापनी एवमाऊ इति पुमाज्ञा|पनी धान्यमिति नपुंसकाज्ञापनी प्रज्ञापन्येषा भाषा नैषा भाषा मृषेति !, भगवानाह-'हंता गो! इत्यादि| सुगम, 'अह भंते' इत्यादि, अथ भदन्त ! पृथिवी इति स्त्रीप्रज्ञापनी-स्त्रीत्वस्वरूपस्य प्ररूपणी एवं आऊ इति पुंग 9099909aoories 3930252392989-95920ra [३७८] ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [३७८] प्रज्ञापना- ज्ञापनी धान्यमिति नपुंसकप्रज्ञापनी आराधनी-मुक्तिमार्गाप्रतिपन्धिनी एषा भाषा नेपा भाषा सृषेति ?, किमुक्त ११भाषायाः मल- भवति ?-नैवं बदतो मिथ्यामापित्यप्रसङ्गः, भगवानाह-आराधनी एषा भाषा, नेपा भाषा मृषेति, शान्यव-18 यवृत्ती. हारापेक्षया यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणात् , इह कियत् प्रतिपदं प्रष्टुं शक्यते ततोऽतिदेशेन पृच्छति-'इवेवं भते । इत्यादि, इतिः-उपदर्शने एवंशब्दः प्रकारे उचदर्शितेन प्रकारेणान्यदपि स्त्रीवचनं पुंवचनं नपुंसकवचनं का वदति ॥२५॥ साधुस्तदा तस्मिन्नेवं वदति या भाषा सा प्रज्ञापनी भाषा नैषा भाषा मृषेति , गगवानाह-प्रज्ञापनी एपा भाषा, शाब्दव्यवहारानुसरणतो दोषाभावात् , अन्वयास्थिते हि वस्तुन्वन्यथा भाषणं दोषः, बदा तु यस्तु स्थावस्थित तत् तथा भाषते, तदा को दोष इति ? ॥ तदेकं भाषाप्रतिपादनविषया ये केचन सन्देहास्ते सर्वेऽप्यपनीताः, सम्प्रति सामान्यतो भाषायाः कारणादि पिच्छिकुराहभासा गं भंते ! किमादीया किंपवहा किंसंठिया कि पज्जवसिया, गो. भासा णं जीवादीया सरीरप्पभका वजसंठिया लोगंतपञ्जवसिया पण्णता,-'भासा कओ य पभवति, कतिहि व समएहि भासती भासं । भासा कतिप्पगारा कति वा मासा अणुमया उ॥१॥ सरीरप्पमवा भासा दोहि य समएहि भासती भासं । भासा चउप्पगारा दोष्णि य भासा ॥२५॥ अणुमता उ॥२॥ कतिषिहा मंते ! भासा पणता?, गो० दुविहा भासा पं०,०-जत्तिया य अपअतिया य, पजत्तिया के भंते ! भासा कतिविहा पं०१, मो! दुविहा ,तर-सचा मोता य, सवा मते ! भासा पजत्तिया एeeseseलण्डर 9923929 For P OW ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं ------------- मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] गाथा: कतिविहा पं०, गो० दसपिहा, पं०, तं०-जणवक्सचा १ सम्मयसमा २ ठवणसवा ३ नामसचा ४ रूवसच्चा ५ पडुच्चसच्चा ६ वबहारसचा ७ भावसाचा जोमसचा ९ ओवम्मसचा १०, जनक्य १ संमत २ ठक्या ३नामे ४ सये ५पापसोय। ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओचम्मसच्चे व १०॥१॥मोसाणं भंते भासा पजत्तिया कतिषिहा पं०१, गो! दसविहा पं०,०-कोहणिस्सिया १मापनिस्सिया २ मायानिस्सिया ३ लोदनिस्सिया ४ पेज्जणिस्सिया ५ दोसनिस्सिया ६हासणिस्सिया ७ भयणिस्सिया ८ अक्खाइयाणिस्सिया ९ उवघाइयणिस्सिया १०–'कोहे माणे माया लोभे पिज्जे तहेव दोसे य । हास भए अक्खाइय उवघाइयणिस्सिया दसमा ॥१॥ अपञ्जत्तिया णे भंते ! कइविहा भासा पं०१, मो०! दुविहा पं०, तं०-सच्चामोसा असचामोसा य, सच्चामोसा णं भंते ! भासा अपजतिया कतिविहा पं०१, गो० दसविहा पं० २०, उप्पण्णमिस्सिया १ विगतमिस्सिया २ उप्पण्ण विगतमिस्सिया ३ जीवमिस्सिया ४ अजीवमिस्सिया ५ जीवाजीवमिस्सिया ६ अर्णतमिस्सिया ७ परिचमिस्सिया ८ अद्धामिस्सिया ९ अद्धद्वामिस्सिया १० । असञ्चामोसा णं भंते ! भासा अपजत्तिया कइविहा पं०, गो० ! दुवालसविहा, पं०, त०-आमंतणि १ आणमणी २ जायणि ३ तह पुच्छणी य ४ पण्णवणी ५। पञ्चक्खाणी ६ भासा भासा इच्छाणुलोमा, ७ य ॥१॥ अणभिग्गहिया भासा ८ भासा य अभिग्गहीम बोद्धवा ९ । संसयकरणी भासा १० बोगड ११ अयोगडा चेव १२ ॥२॥ (सूत्र १६५) 'भासा णं भंते ! किमाइया' इत्यादि, भाषा अवबोधवीजभूता, णमिति वाक्यालङ्कारे, किमादिका-उपादा दीप अनुक्रम [३७९-३८८] भाषाया: दशविध-भेदा: ~115~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं ------------- मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] गाथा: प्रज्ञापना नकारणव्यतिरेकेण किमादिः-मौलं कारणं यस्याः सा किमादिका, तथा किंप्रभवा-कस्मात् प्रभव-उत्पादो ११भाषाया मल-10 यस्याः सा किंप्रभवा, सत्यपि मीले कारणे पुनः कस्मात् कारणान्तरादुत्पद्यते इति भावः, तथा किंसंस्थितेति- पर्द यवृत्ती. केनाकारेण संस्थिता किंसंस्थिता, कस्येव संस्थानमस्खा इति भावः, तथा किंपर्यवसिता इति-कस्मिन् स्थाने पर्यवसिता-निष्ठां गता किंपर्यवसिता ?, भगवानाह-गौतम ! 'जीवादिका' जीव आदि:-मौलं कारणं यस्याः सा ॥२५॥ जीवादिका जीवगततथाविधप्रयलमन्तरेणावबोधवीजभूतभाषाया असम्भवात् , आह च भगवान् भद्रबाहुखामी"तिविहमि सरीरंमि जीवपएसा हवंति जीवस्स । जेहि उ गेण्हइ गहणं तो भासद भासओ भासं ॥१॥" 'किंप-IN भवा' इत्यस्य निर्वचनमाह-शरीरप्रभवा' औदारिकवैक्रियाहारकान्यतमशरीरसामर्थ्यादेव भाषाद्रव्यविनिर्गतेः, तथा IS सिंस्थिता इत्यस्य निर्वचनं 'वजसंस्थिता' बज्रस्येव संस्थानं यस्याः सा वज्रसंस्थिता, भाषाद्रव्याणि हि तथाविधप्र यननिसृष्टानि सन्ति सकलमपि लोकमभिव्यामवन्ति, लोकश्च वज्राकारसंस्थित इति सापि बज्रसंस्थिता, 'किंपयेव-18 |सिते'त्यत्र निर्वचनं लोकान्तपर्यवसिता, परतो भाषाद्रव्याणां गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावतो गमनासम्भवात्, प्रज्ञप्ता मया शेषेव तीर्थकृद्भिः॥ पुनरपि प्रश्नमाह-'भासा कतो य पभवा' इत्यादि, भाषा कुतो-योगात् प्रभव- २५६॥ १ त्रिविधे शरीरे (औदारिकवैक्रियाहारकेषु ) जीवप्रदेशाः भवन्ति जीवस्य ( संबद्धा इति ज्ञापनाय) यैस्तु गृह्णाति ग्रहणं (भाषाद्रव्यं ) ततो भाषते भाषकः (प्राहक एव ) भाषा ( भाषणसमय एव भाषात्वज्ञापनाय ) ॥१॥ 1299992836 दीप अनुक्रम [३७९-३८८] SARERainintamasana ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], -------------उद्देशक: [-, ------------ दारं ------------- मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] गाथा: ति-उत्पद्यते काययोगाद्वाग्योगाद्वा?, तथा कतिभिः समयैर्भाषा भाषते ?, किमुक्तं भवति ?-कतिभिः समर्निसृज्यमानद्रव्यसंहत्यात्मिका भाषा भवति, तथा भाषा कतिप्रकारा-कतिप्रभेदा ? कति वा भाषाः साधूनां वक्तुमनुमता-अनुज्ञाता ? । अत्र निर्वचनं-'सरीरप्पभवा' इत्यादि, अत्र शरीरग्रहणेन शरीरयोगः परिगृह्यते, शरीरमात्र-IM प्रभवत्वस्य प्रागेव निर्णीतत्वात्, शरीरप्रभवा इति कोऽर्थः -काययोगप्रभवा, तथाहि-काययोगेन भाषायोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्य वाग्योगेन निसृजति, ततः काययोगवलाद्भाषा उत्पद्यते इति काययोगप्रभवेत्युक्तं, आह च भगवान् भद्रबाहुखामी-गिण्हइ य काइएणं निसरइ तह वाइएण जोगेण मिति, 'कहि व समएहिं भासई भास'मित्यस्य निर्वचनं द्वाभ्यां समयाभ्यां भाषते भाषां, तथाहि-एकेन समयेन भाषायोग्यान्| | पुद्गलान् गृह्णाति द्वितीय समये भाषात्वेन परिणमय्य विसृजतीति, भासा कइप्पगारा' इत्यस्य निर्वचनं भाषा 18 | सत्यादिभेदाच्चतुःप्रकारा ते च सत्यादयो भेदाः प्रागेव भाविता इति, 'कइ वा भासा अणुमया य' इत्यस्य निर्वचनं सत्यादी द्वे भाषे साधूनां वक्तुमनुमते, तद्यथा-सत्या असत्यामृपा च, अर्थात् ये मृषासत्यामृषे ते नानुज्ञाते, तयोरयधावस्थितार्थप्रतिपादनपरतया मुक्तिप्रतिपन्धित्वात्, पुनः प्रश्नयति-'कइविहा ण'मित्यादि, 'पज्जत्तिया अपज्ज-18 त्तिया' इति पयोप्ता नाम या प्रतिनियतरूपतया अवधारयितुं शक्यते सा पर्यासा, सा च सत्या मृषा वा द्रष्टव्या, उभयोरपि प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यत्वात् , या तु मिश्रतया उभयप्रतिषेधात्मकतया वा न प्रतिनियत teaeseserveeeeeeeees दीप अनुक्रम [३७९-३८८] ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं ------------- मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ११भाषा [१६५] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥२५७॥ गाथा: रूपतयाऽवधारयितुं शक्यते सा अपर्याप्ता, सा च सत्यामृषा असत्यामृषा वा द्रष्टव्या, उभयोरपि प्रतिनियतेन रूपे- (णावधारयितुमशक्यत्वात् । 'पज्जत्तिया णं भंते ! इत्यादि भावितं, नवरं सत्या मृषा चेत्युक्तमतः सत्याभेदावगमाय प्रश्नमाह-सच्चा णं भंते ! भासा पजत्तिया कइविहा पण्णत्ता' इति पाठसिद्धं, भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि 'जणवयसच्चा' इति तं तं जनपदमधिकृत्येष्टार्थप्रतिपत्तिजनकतया व्यवहारहेतुत्वात् सत्या जनपदसत्या यथा कोकणादिषु पयः पिचमित्यादि १, सम्मतसत्या या सकललोकसाम्मत्येन सत्यतया प्रसिद्धा कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पसंभवत्वे गोपालजना अरविन्दमेव पङ्कजं मन्यन्ते न शेपमित्यरविन्दे पकूजमिति सम्मतसत्या २ स्थाप-| नासत्या या तथाविधमकादिविन्यासं मुद्राविन्यासं चोपलभ्य प्रयुज्यते यथा एककं पुरतो बिन्दुद्यसहितमुपलभ्य शतमिदमिति, बिन्दुप्रयसहितं सहस्रमिदमिति, तथा तथाविधं मुदाविन्यासमुपलभ्य मृत्तिकादिषु मापोऽयं कार्पोप-1 णोऽयमिति, तथा नामतः सत्या नामसत्या यधा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलबर्द्धन इति, तथा रूपतः सत्या रूपसत्या, यथा दम्भतो गृहीतप्रजितरूपः प्रत्रजितोऽयमिति, तथा प्रतीय-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसत्या यथा अना मिकाया कनिष्ठामधिकृल्प दीर्घत्वं मध्यमामधिकृत्य इखत्वं, न च वाच्यं कथमेकस्यां हखत्वं दीर्घत्वं च तात्त्विकं !, परस्परविरोधादिति, भिन्ननिमित्तत्वेन परस्परविरोधासम्भवात् , तथाहि-तामेव यदि कनिष्ठ मध्यमा वा एकामङ्गुलिमङ्गीकृत्य इखत्वं दीर्घत्वं च प्रतिपाद्येत ततो विरोधः सम्भवेत् , एकनिमित्तपरस्परविरुद्धकार्यद्वयासम्भवात् , दीप अनुक्रम [३७९-३८८] Eccidence ।।२५७॥ ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं ],------------ मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] गाथा: कायदा त्वेकामधिकृत्य इस्खत्वमपरामधिकृत्य दीर्घत्वं तदा सत्त्वासत्त्वयोरिव भिन्ननिमित्तत्वान्न परस्परं विरोधः, अध|| यदि तात्त्विके इखत्वदीर्घत्वे तत ऋजुत्ववक्रत्वे इव कस्मात्ते परनिरपेक्षे न प्रतिभासेते ?, तस्मात् परोपाधिकत्वात् ॥ काल्पनिके इमे इति, तदयुक्तं, द्विविधा हि वस्तुनो धर्माः-सहकारिव्ययरूपा इतरे च, तत्र ये सहकारिव्यङ्ग्यरूपास्ते सहकारिसम्पर्कवशात् प्रतीतिपथमायान्ति, यथा पृथिव्यां जलसम्पर्कतो गन्धः, इतरे स्वेवमेवापि यथा कर्पूरादिगन्धः, इखत्वदीर्घत्वे अपि च सहकारियङ्ग्यरूपे, ततस्ते तं सहकारिणमासायाभिव्यक्तिमायात इत्यदोषः, तथा व्यवहारो-लोकविवक्षा, व्यवहारतः सत्या व्यवहारसत्या, यथा गिरिदयते गलति भाजन अनुदरा कन्या अलोमिका एडका, लोका हि गिरिगततृणदाहे तृणादिना सह गिरेरभेदं विवक्षित्वा गिरिर्दयते इति ब्रुवन्ति, भाजनादुदके श्रवति उदकभाजनयोरभेदं विवक्षित्वा गलति भाजनमिति, संभोगवीजप्रभवोदराभावे अनुदरा इति, लवनयोग्यलोमाभावे अलोमिकेति, ततो लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तयात्रुवतो भाषा ब्यवहारसत्या भवति, तथा भावो वर्णादिर्भावतः सत्या भावसत्या, किमुक्तं भवति ?-यो भाषो वर्णादिवस्मिन्नुत्कटो भवति तेन या सत्या भाषा (सा)भावसत्या, यथा सत्सपि पञ्चवर्णसम्भये बलाका शुक्लेति, तथा योगः-सम्बन्धः तस्मात् सत्या योगसला, तत्र छत्रयोगात् विवक्षितशब्दप्रयोगकाले छत्राभावेऽपि छत्रयोगस्य सम्भवात् छत्री एवं दण्डयोगात् दण्डी, औपम्यसत्या यथा समुद्रवत्तडागः, अत्रैमा पिनेयजनानुप्रहाय सहणिगायामाह-'जणवयसम्मवठवणा' इत्यादि भाविता दीप अनुक्रम [३७९-३८८] ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६५ ] + गाथा: दीप अनुक्रम [३७९ -३८८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [११], • मूलं [ १६५] + गाथा: ------- उद्देशकः [-], ---दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥२५८॥ मृषाभाषा दशविधा, तद्यथा - 'कोहनिस्सिया' इत्यादि, क्रोधान्निःसृता क्रोधाद्विनिर्गता इत्यर्थः एवं सर्वत्रापि भावनीयं, तंत्र क्रोधाभिभूतो विसंवादनवुद्ध्या परप्रत्यायनाय यत्सत्यमसत्यं वा भाषते तत्सर्वं मृषा, तस्य हि आशयोऽतीव दुष्टस्ततो यदपि घुणाक्षरन्यायेन सत्यमापतति शाख्यबुद्ध्या वोपेत्य सत्यं भाषते तदाऽप्याशयदोषदुष्टमिति मृषेति १, माननिःसृता यत् पूर्वमननुभूतमप्यैश्वर्यमात्मोत्कर्षख्यापनायानुभूतमस्माभिस्तदानीमैश्वर्यमित्यादि वदतः २ मायानिःसृता यत् परवञ्चनाद्यभिप्रायेण सत्यमसत्यं वा भाषते लोभनिःसृता यलोभाभिभूतः कुटतुलादि कृत्वा यथोक्तप्रमाणमिदं तुलादीति वदतः ४ प्रेमनिःसृता यदतिप्रेमवशाद्दासोऽहं तवेत्यादि वदतः ५ द्वेषनिःसृता यत्प्रतिनिविष्टः तीर्थकरादीनामध्यवर्ण भाषते ६ हास्यनिःसृता यत्केलिवशतोऽनृतभाषणं ७ भयनिःसृता तस्करादिभयेनासमजसभाषणं ८ आख्यायिका निःसृता यत्कथावसम्भाव्याभिधानं ९ उपघातनिःसृता चौरस्त्वमित्याद्यभ्याख्यानं १०, अत्रापि सङ्ग्रहणिगाथामाह - 'कोहे माणे' इत्यादि, भावितार्था । सत्यामृषा दशविधा, तद्यथा - 'उप्पण्णमिस्सिया' इत्यादि, उत्पन्ना मिश्रिता अनुत्पन्नैः सह सङ्ख्यापूरणार्थं यत्र सा उत्पन्नमिश्रिता, एवमन्यत्रापि यथायोगं भावनीयं तत्रोत्पन्नमिश्रिता यथा कस्मिंश्चित् ग्रामे नगरे वा ऊनेष्वधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका अस्मिन्नद्य जाता इत्यादि १, एवमेव मरणकथने विगतमिश्रिता २, तथा जन्मतो मरणस्य च कृतपरिमाणस्याभिधाने विसंवादेन चोत्पन्नविगतमिश्रिता ३, तथा प्रभूतानां जीवतां स्वोकानां च मृतानां शङ्खशङ्खनकादीनामेकत्र राशी दृष्टे यदा For Parts Only ------------ ~ 120~ ११ भाषा पदं ॥२५८॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------ दारं ],------------ मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] cerseoescece6CSCAKA गाथा: कश्चिदेवं वदति-अहो महान् जीवराशिरयमिति तदा सा जीवमिश्रिता, सत्यामृषात्वं चास्या जीवत्सु सत्यत्वात् मृतेषु मृषात्वात् ४, तथा यदा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शङ्खादिष्वेवं वदति-अहो महानयं मृतो जीवराशिरिति तदा सा अजीवमिश्रिता, अस्या अपि सत्यामृषात्वं मृतेषु सत्यत्वात् जीवत्सु मृषात्वात् ५, तथा तस्मिन्नेव राशी एतावन्तोऽत्र जीवन्त एतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयतो विसंवादे जीवाजीवमिश्रिता ६. तथा मूलकादिकमनन्तकार्य तस्यैव सत्केः परिपाण्डुपत्रैरन्येन पा केनचित्प्रत्येकवनस्पतिना मिश्रमवलोक्य सर्योऽप्येपोड-18 नन्तकायिक इति वदतोऽनन्तमिश्रिता ७, तथा प्रत्येकवनस्पतिसवातमनन्तकायिकेन सह राशीकृतमवलोक्य प्रत्येकवनस्पतिरय सर्वोऽपीति वदतः प्रत्येकमिश्रिता ८, तथा अद्धा-कालः, स चेह प्रस्तावात दिवसो रात्रि परिगृह्यते, स मिश्रितो यया साऽद्धामिश्रिता, यथा कश्चित् कञ्चन त्वरयन् दिवसे वर्तमान एव वदति-उत्तिष्ठ रात्रिर्या-19 तेति, रात्रौ वा वर्तमानायामुत्तिष्ठोद्गतः सूर्य इति ९, तथा दिवसस्य रात्रेवा एकदेशोऽद्धाद्धा सा मिश्रिता यया सा अद्धाद्धामिश्रिता, यथा प्रथमपीरुष्यामेव वर्तमानायां कश्चित् कञ्चन त्वरयन एवं पदति-चल मध्याहीभूतं इति । असत्यामृषा द्वादशविधा, तद्यथा-'आमंतणि' इति तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त इत्यादि, एपा हि प्रागुक्तसत्यादिभापात्रयलक्षणविकलत्वान्न सत्या नापि मृषा नापि सत्यामृषा केवलं व्यवहारमात्रप्रवृत्तिहेतुरित्यसत्यामृषा १ एवं सर्वत्र भावना कार्या, आज्ञापनी कार्य परस्य प्रवर्त्तनं, यथेदं कुर्विति २ याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणं ३|| दीप अनुक्रम [३७९-३८८] For P OW ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६५ ] + गाथा: दीप अनुक्रम [३७९ -३८८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [११], • मूलं [ १६५] + गाथा: ------- उद्देशकः [-], ---दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनाया: मल य० वृत्ती. ॥२५९॥ पृच्छनी अविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्श्वे चोदना ४ प्रज्ञापनी विनीतविनयस्य विनेयजनस्योपदेशदानं यथा प्राणिवधान्निवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुष इत्यादि, उक्तं च – “पांणिवहाउ नियत्ता हवंति दीहाउया अरोगा य । एमाई पण्णत्ता पण्णवणी वीयरागेहिं ।। १ ।। ५ याचमानस्य प्रतिषेधवचनं | प्रत्याख्यानी ६ इच्छानुलोमा नाम यथा कश्चित्किञ्चित्कार्यमारभमाणः कञ्चन पृच्छति, स प्राह-- करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति ७ अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा बहुकार्येष्ववस्थितेषु कश्चित् कञ्चन पृच्छति - किमि दानीं करोमि ?, स प्राह-यत्प्रतिभासते तत्कुर्विति ८ अभिगृहीता प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा इदमिदानीं | कर्त्तव्यमिदं नेति ९ संशयकरणी या वाक् अनेकार्थाभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति, यथा सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दो लवणवस्त्रपुरुषवाजिषु १० व्याकृता या प्रकटार्था ११ अव्याकृता अतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा अविभावितार्थत्वात् १२ । शेषं सुगमं यावत् 'कह णं भंते! भासज्जाया' इत्यादि । जीवाणं मंते ! किं भासगा अभासगा ?, गो० ! जीवा भासगाव अभासगावि, से केणट्टेणं भंते ! एवं वुन्नतिजीवा भासगाव अभासगावि १, गो० ! जीवा दुबिहा पं० तं० – संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य, तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णा ते णं सिद्धा सिद्धा णं अभ्रासगा, तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णमा ते दुबिहा पं० [सं० १ प्राणिवधान्निवृत्ता भवन्ति दीर्घायुषोऽरोगाञ्च । एवमाद्या प्रज्ञप्ता प्रज्ञापनी वीतरागैः ॥ १ ॥ भासाक - अभाषक सम्बन्धी प्ररूपणा For Parts Only ------------ ~122~ ११ भाषा पर्द ॥२५९॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [-], -------------- मूलं [१६६-१६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६६-१६७] दीप 299290920209080p सेलेसीपडिवण्णगा य असेलेसीपडिवण्णगा य, तत्थ ण जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं अभासगा, तत्थ पंजे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते दुविहा पं० त०-एगिदिया य अणेगिंदिया य, तत्थ णं जे ते एगिदिया ते णं अभासगा, तत्थ णं जे ते अणेगेंदिया ते दुविहा पं०, ०-पज्जनगा य अपज्जत्तमा य, सस्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते गं अभासगा, तत्थ णं जे ते पज्जतगा ते णं भासगा, से एएणटेणं गोयमा! एवं चुचति-जीवा भासगावि अभासगावि । नेरइया णं भंते ! किं भासगा अभासगा, गो! नेरइया भासगावि अभासगावि, से केणटेणं मंते ! एवं चुचति-नेरइया भासगावि अभासगावि ?, गो.! नेरइया दुविहा, पं०, तं०--पज्जनगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं अभासगा, तत्थ णं जे ते पजत्तगा ते णं भासगा, से एएणद्वेणं गो! एवं वुच्चति-नेरइया भासगावि अभासगावि, एवं एगिदियवजाणं निरंतर भाणिया ।। (मूत्र १६६)॥ कति णं भंते ! भासज्जाया पण्णता, गो! चत्तारि भासज्जाया पं०, तं०-सच्चमेगं भासजाय वितिय मोसं ततियं सच्चामोसं चउत्थं असचामोसं, जीवा णं भंते! किं सचं भासं भासंति मोसं भासं भासंति सचामोसं भासं भासंति असच्चामोसं भासं भासंति, गो०! जीवा सञ्चपि भासं भासंति मोसंपि भासं भासंति सच्चामोसंपि भासं भासंति असञ्चामोसंपि भासं भासंति, नेरइया णं भंते ! कि सचं भासं भासंति जाव असञ्चामोसं भासं भासंति ?, गो०! नेरइया णं सच्चपि भासं भासंति जाव असच्चामोसंपि भासं भासंति, एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा, बेइंदियतेइंदियचउरिदिया य नो सच्चं नो मोसं नो सच्चामोसं भासं भासंति असच्चामोसं भासं भासंति, पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! किं सच भासं भासंति जाब किं असच्चामोसं भासं भासंति?, गो. पंचिंदियतिरिक्त अनुक्रम [३८९-३९० ~123~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६६ -१६७] दीप अनुक्रम [३८९ -३९०] पदं [११], - मूलं [१६६-१६७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रापना याः मठ य० वृत्ती. ॥२६०॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], [-------------- Education Internation जोणियाणो सभासं भाति णो मोसं भासं भासंति णो सच्चामोसं भासं भासति एवं असचामोसं भासं भासति पण्णत्थ सिक्खाgai उत्तरगुणलद्धिं वा पश्च सबंपि भासं भासंति मोसंपि सचामोसंप असच्चामोसंपि भासं भासंति, मणुस्सा जाव वैमाणिया, एते जहा जीवा तहा भाणियता || (सूत्रं १६७ ) कति भदन्त ! भाषाजातानि - भाषाप्रकाररूपाणि प्रज्ञप्तानि ?, इदं प्रागुक्तमपि भूयोऽप्युपात्तं सूत्रान्तरसम्वन्धनार्थ, तान्येव सूत्रान्तराणि दर्शयति- 'जीवा णं भंते ! किं सचं भासं भाति ?" इत्यादि सुगमं, नवरं द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सत्यादिभाषात्रयप्रतिषेधस्तेषां सम्यक्परिज्ञानपरवञ्चनाद्यभिप्रायासम्भवात् तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया अपि न सम्यग्यथावस्थितवस्तुप्रतिपादनाभिप्रायेण भाषन्ते नापि परविप्रतारणबुद्ध्या किन्तु यदा भाषन्ते तदा कुपिता अपि परं मारयितुकामा अध्येवमेव भाषन्ते ततस्तेषामपि भाषा असत्यामृषा, किं सर्वेषामपि तेषामसत्यामृषा ?, नेत्याह'नन्नत्थे'त्यादि, सत्यादिकां भाषां न भाषन्ते शिक्षादेरन्यत्र, शिक्षापूर्वकं पुनः शुकसारिकादयः संस्कारविशेषात् तथा कुतश्चित्तथाविधक्षयोपशमविशेषाज्जातिस्मरणरूपां विशिष्टव्यवहारकौशलरूपां वा लब्धि प्रतीत्य सत्यादिकां चतुर्विधामपि भाषां भाषन्ते, शेषं सुगमं ॥ सम्प्रति भाषा द्रव्यग्रहणादिविषयसंशयापनोदार्थमाह जीवे णं भंते ! जातिं दद्यातिं भासताए गिण्हति ताई कि ठियाई गेण्हति अठियाई गेण्हति १, गो० ! ठियाई गिण्हति नो अठियाई गिण्हति, जाई भंते ! ठियाई गिण्हति ताई किं दवतो गिण्हति खेचतो गिन्हति कालतो गिन्हति भावतो अत्र भाषाद्रव्यग्रहण आदि विषय प्ररूप्यते For Parts Only ~124~ ११ भाषा पर्द २६०/ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ----------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक Seectse [१६८ -१६९] elesese Scer गाथा गिण्डति ?, गो! दबओवि गिण्हति खेतओवि कालओवि भावओवि गिण्हति, जाति भंते ! दवओ गेण्हति ताई कि एगपदेसिताई गिण्डति दुपदेसियाई जाव अणंतपदेसियाई गेण्हति , गो० नो एगपदेसियाई गेहति जाव नो असंखिजपदेसियाई, गिण्हह अणंतपदेसियाई गेहति, जाई खेतओ गेहति ताई कि एगपएसोगाढाई गेण्हति दुपएसोगाढाई गेण्हति जाव असंखेज्जपएसोगाढाई गेण्हति', गो.1 नो एगपएसोगाढाई गेण्हति जाव नो संखेजपएसोगाढाई गेहति असंखेजपएसोगाढाई गेण्हति, जाई कालतो गेहति ताई कि एगसमयठिइयाई गेहति दुसमयठिड्याई गिण्हति जाव असंखिजसमयठिइयाई गेण्हति ?, गो० एगसमयठितीयाईपि गेण्हति दुसमयठितीयाईपि गेण्हति जाव असंखेजसमयठितीयाईपि गेण्हति, जाई भावतो गेण्हति ताई किं षण्णमंताई गेहति गंधमंताई रसमंताई फासमंताई गेण्हति , गो.! वण्णमंताईपि जाब फासमंताईपि गेहति, जाई भावओ वण्णमंताईपि गेण्हति ताई कि एगवण्णाई मेण्हति जाव पंचवण्णाई गेहति !, गो! गहणदवाई पहुच एगवण्याईपि गेण्हति जाव पंचवण्णाईपि गेहति, सबग्गहणं पडच णियमा पंचषणाई गेण्हति, तंजहा–कालाई नीलाई लोहियाई हालिद्दाई सुकिल्लाई, जाई वष्णतो कालाई गेण्हति ताई कि एगगुणकालाई गेण्हति जाव अणंतगुणकालाई गिण्हति , गो! एगगुणकालाईपि गिण्हति जाव अणंतगुणकालाईपि गेण्हति, एवं जाव सुकिलाईपि, जाई भावतो गंधमंताई गिण्हति ताई कि एगगंधाई गिण्हति दुगंधाई गिण्हति , गो०! गहणदखाई पडुन एगगंधाईपि दुगंधाइपि गिणहति, सहग्गहणं पड़प नियमा दुगंधाई गिहति, जाई गंधतो सुम्मिगंधाई गिण्हति ताई कि एगगुणसुब्भिगंधाई गिण्हति जाव अर्णतगुणमुभिगंधाईपि गिण्हति ?, गो०! एगगुणसुब्भिगंधाईपि जाव अणंतगुणसुब्भि दीप अनुक्रम [३९१-३९३] ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ११भाषा प्रज्ञापनायामलयवृत्ती. पद [१६८ -१६९] ॥२६॥ गाथा गंधाईपि गेण्हइ, एवं दुब्भिगंधाईपि गेण्हइ, जाई भावतो रसमंताई गेहति ताई कि एगरसाई गेहति जाव किं पंचरसाई गेण्हति ?, गो०! गहणदबाई पडुच्च एगरसाईपि गेहति जाव पंचरसाईपि गेहति सम्बग्गहणं पडुच्च नियमा पंचरसाई गेहति, जाई रसओ तित्तरसाई गेहति ताई कि एगगुणतित्तरसाई गिण्हति जाव अणंतगुणतित्तरसाई गिण्हति ?, मो०। एगगुणतिताइपि मिण्हइ जाव अणंतगुणतित्ताइपि गिण्हति, एवं जाच मधुररसो, जाई भावतो फासमंताई गेण्हति ताई कि एगफासाई गेहद जाव अडफासाई गिण्हति , गो! गहणदबाई पडुच्च णो एगफासाई गेहति, दुफासाई गिर जाब चउफासाई गेण्हति, णो पंचफासाई मेण्हति, जाव नो अट्ठफासाई गेहति, सबगहणं पहुच नियमा चउफासाई गेण्हति, तंजहासीतफासाई गेहति उसिणफासाई निद्धफासाई लुक्खफासाई गेहति, जाई फासतो सीताई गिण्हति ताई कि एगगुणसीताई गेण्हति जाव अणतगुणसीताई गेहति , गो! एगगुणसीताईपि गेहति जाव अणंतगुणसीताईपि गेहति, एवं उसिणणिद्धलुक्खाई जाव अणंतगुणाईपि गिण्हति, जाई भंते ! जाव अर्णतगुणलुक्खाई गेण्हति ताई किं पुढाई गेण्हति अपहाई गेण्हति !, गोपुट्टाई गेहति नो अपुट्ठाई गेण्हति, जाई भंते ! पुट्ठाई गेण्हति ताई किं ओगाढाई गेण्हति अणोगाढाई गेण्हति ?, गो० ओगाढाई गेण्हति नो अणोगाढाई गेण्हति, जाई भंते ! ओगाढाई गेहति ताई कि अणंतरोगाढाई गेहति परंपरोगाढाई गेहति , गो०! अणंतरोगाढाई गिण्हति नो परंपरोगाढाई मेहति, जाई मते ! अर्णतरोगाढाई गेण्हति ताई भंते ! किं अणूई गेण्हति वायराई गेहति', गो! अणूईपि गेहति बायराइपि गेण्हति, जाई भंते ! अणूई मेण्हति ताई कि उड्डे गेहति अधे गेहति तिरियं गेहति ?, गो। उ९पि गेहति अधेवि गेहति तिरियपि गेहति, दीप अनुक्रम [३९१-३९३] ReceetACA ॥२६॥ ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ----------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक रटseen [१६८ -१६९] गाथा जाई भते । उपि गेहति अधेवि गेण्हति तिरियपि गेहति ताई कि आदि गेण्डति मजो गेहति पजवसाणे गेण्डति ?. गो०! आदिपि गेहति मज्झवि गेण्हति पञ्जवसाणेवि मेहति, जाई मंते ! आदिपि गिण्हति मज्झेवि मेहति पज्जबसाणेवि गिण्हति ताई कि सविसए गिष्हति अविसए गिण्हति', गो! सविसए गेण्हति नो अविसए गेहति, जाई मंते ! सविसए गेहति ताई किं आणुपुर्वि गेण्हति अणाणुपुरि गेण्हति ?, गो! आणुपुत्विं गेहति, नो अणाणुपुष्विं गेण्हति, जाई भंते ! आणुपुर्वि गेण्हति ताई किं तिदिसिं गेहति जाव छद्दिसिं गेहति ?, गो! नियमा छदिसिं गेहति, "पुढोगाढअणंतर अणू य तह वायरे य उहुमहे । आदिविसयाणुपुर्वि णियमा तह छद्दिसि चेव ।। १।।" (सूत्रं १६८) जीवे छ भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गेहति ताई कि संतरं गेहति निरंतरं गेहति , गो.! संतरंपि गेण्हति, निरंतरंपि गेहति, संतरं गिण्हमाणे जहष्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जसमए अंसरं कटु गेण्हति, निरंतरं गेण्हमाणे जहण्णेणं दो समए उकोसेणं असंखेजसमए अणुसमयं अविरहियं निरंतरं गेहति, जीवे गं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गहियाई णिसिरह ताई किं संतरं निसरह निरंतर निसरह?, गो०१ संतरं निसरह नो निरंतरं निसरह, संतरं निस्सरमाणे एगेणं समएणं गेहति एगेणं समएणं निसरइ, एतेणं गहणनिसरणोवाएणं जहणं दुसमइयं उक्कोसेणं असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तिगं गहणनिसरणोचायं करेति, जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासचाए गहियाई णिसिरति ताई किं भिण्णाई णिसरति अभिण्णाई णिसरति ?, मो० भिन्नाइपि निस्सरइ अभिनाईपि निस्सरइ, जाई भिन्नाई णिसरति ताई अर्णतगुणपरिखुट्टीएणं परिवुडमाणाई लोयंत फसन्ति, जाई अभियाई निसरइ ताई असंखेज्जाओओगाहणवग्गणाओ गंता भेदमावअंति दीप अनुक्रम [३९१-३९३] Halancinrary.org ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ११भाषा अज्ञापनाया मलय० वृत्ती. पर [१६८ -१६९] ॥२६शा sekese गाथा संखेजाति जोअणाति गंता विद्धसमागच्छंति ॥ (सूत्रं १६९) 'जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गिण्हई' इत्यादि, सुगर्म नवरं 'ठियाई स्थितानि न गमनक्रियावन्ति। द्रव्यतश्चिन्तायामनन्तप्रादेशिकानि-अनन्तपरमाण्वात्मकानि गृह्णाति, नैकपरमाण्वाद्यात्मकानि, तेषां खभावत एच जीवाना ग्रहणायोग्यत्वात् , क्षेत्रचिन्तायामसङ्ख्यातप्रदेशावगाडानि, एकप्रदेशाद्यवगाढानां तथाखभावतया ग्रहणायोग्यत्वात् , कालतश्चिन्तायामेकसमयस्थितिकान्यपि याषदसङ्ख्येयसमयस्थितिकान्यपि गृह्णाति, पुद्गलानामसवे| यमपि कालं यावदवस्थानसम्भवात् , तथा चोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ सैजनिरेजपुद्गलावस्थानचिन्तायां-'अणंतपएसिए |णं भंते ! खंधे केवइकालं सेए १. गो.! जहन्नेणं एक समयं उकोसेणं आवलियाए असोजतिभाग, निरेए जह-1॥ नेणं एक समयं उकोसेणं असंखेजं कालमिति, तेषां च गृहीतानां ग्रहणानन्तरसमये अवश्यं निसर्ग इति स्वभावस्थानन्तरसमये ग्रहणं प्रतिपत्तव्यं, अन्ये तु व्याचक्षते-एकसमयस्थितिकान्यपीति आदिभाषापरिणामापेक्षया द्रष्टव्यं, विचित्रो हि पुद्गलानां परिणामः, तत एकप्रयत्नगृहीतमुक्ता अपि ते केचिदेकं समयं भाषात्वेनावतिष्ठन्ते केचिद् द्वौ समयौ यावत् केचिदसङ्ख्येयानपि समयानिति, तथा 'गहणदबाई' इति गृह्यन्ते इति ग्रहणानि प्रह-MIRI णानि च तानि द्रव्याणि च ग्रहणद्रव्याणि, किमुक्तं भवति? -यानि ग्रहणयोग्यानि द्रव्याणि तानि कानिचित् वर्णपरिणामेन एकेन वर्णेनोपेतानि कानिचित् द्वाभ्यां कानिचित् त्रिभिः कानिचित् चतुर्मिः कानिचित्पञ्चभिः, यदा दीप अनुक्रम [३९१-३९३] PAudiorary.com ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६८ -१६९] गाथा दीप अनुक्रम [३९१ -३९३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • मूलं [ १६८ - १६९ ] + गाथा पदं [११], ------------ उद्देशक: [ - ], · दारं [-], ------------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ------------ पुनरेकप्रयत्नगृहीतानामपि सर्वेषां द्रव्याणामपि समुदायो विवश्यते तदा नियमात् पञ्चवर्णानि गृह्णन्ति (हृति), एवं गन्ध| रसेष्वपि भावनीयं, स्पर्शतः चिन्तायामेकस्पर्शप्रतिषेध एकस्यापि परमाणोरवश्यं स्पर्शद्वयभावात्, तथा चोक्तम्- “कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १ ॥ द्विस्पर्शानि - मृदुशीतानि मृदूष्णानीत्यादि, 'जाब चउफासा' इति यावच्छन्दकरणात् त्रिस्पर्शपरिग्रहः, तत्र त्रिस्पर्शान्येवं कानिचित् द्रव्याणि किल मृदुशीतस्पर्शानि कानिचित् मृदुखिग्धस्पर्शानि, तत्र मृदुस्पर्शो मृदुस्पर्श एवान्तर्भूत इत्येकस्पर्शः शीतस्निग्धरूपौ तु द्वावन्यौ स्पर्शाविति समुदायमधिकृत्य त्रिस्पर्शानि, एवं स्पर्शान्तरयोगेऽपि त्रिस्पर्शानि भावनीयानि कानिचिचतुःस्पर्शानि तत्र चतुःस्पर्शेषु मृदुलघुरूपौ द्वौ स्पर्शाववस्थिती सूक्ष्मस्कन्धेषु तयोरवश्यंभावात्, अन्यौ तु द्वौ स्पर्शो खिग्धोष्णो त्रिग्धशीती रुक्षोष्णी रुक्षशीतौ, सर्वसमुदायमपेक्ष्य नियमात्तानि चतुःस्पर्शानि गृह्णाति तत्र यौ द्वौ मृदुलघुरूपौ स्पर्शाववस्थितौ ताववस्थितत्वादेव व्यभिचाराभावान्न गण्येते ये त्वन्ये स्निग्धादयश्चत्वारस्ते किल वैकल्पिका इति तानधिकृत्य सूत्रमाह, तद्यथा - 'सीयफासाई गेण्हइ' इत्यादि सुगमं, यावत् 'जाई भंते! अनंतगुणलुक्खाई गेण्डर' इह किल चरमं सूत्रमनन्तरमिदमुक्तं 'अनंतगुणलुक्खाईपि गिण्हइ' ततः सूत्रसम्बन्धवशादिदमुक्तं, जाई भंते! जाव अनंतगुणलुक्खाई गेण्हइ', इति यावता जाई भंते! एगगुणकालवण्णाई' इत्याद्यपि द्रष्टव्यं, 'ताई भंते । किं पुट्टाई' इत्यादि, तानि भदन्त ! किं स्पृष्टानि - आत्मप्रदेशसंस्पृष्टानि गृह्णाति, उतास्पृष्टानि ?, भगवानाह - गौतम ! स्पृष्टानि - Education International For Parata Use Only ~129~ waryra Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८ -१६९]] गाथा प्रज्ञापना- आत्मप्रदेशैः सह संस्पर्शमागतानि गृह्णाति नास्पृष्टानि, इहात्मप्रदेशः संस्पर्शनमात्मप्रदेशावगाहक्षेत्रावहिरपि सम्भवति|११भाषाया मल- ततः प्रश्नयति-'जाई भंते !' इत्यादि, अवगाढानि-आत्मप्रदेशैः सह एकक्षेत्रावस्थितानि गृह्णन्ति नानवगा-8 पद य० वृत्ती. ढानि, 'जाई मते ! इत्यादि, अनन्तरावगाढानि-अव्यवधानेनावस्थितानि गृह्णाति न परम्परावगाढानि, किमुक्तं ॥२६॥ भवति ?-येष्वात्मप्रदेशेषु यानि भाषाद्रव्याण्यवगाढानि तैरात्मप्रदेशैस्तान्येव गृह्णाति न त्वेकद्विव्यात्मप्रदेशव्यवहितानि, 'जाई भंते ! अणंतरोगाढाई' इत्यादि, अणून्यपि-स्तोकप्रदेशान्यपि गृह्णाति बादराण्यपि-प्रभूतप्रदेशोपचितान्यपि, इहाणुत्ववादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्सोकबाहुल्यापेक्षया व्याख्याते, मूलटीका-12 कारेण तथाव्याख्यानात् , 'जाई भंते ! अणूइंपि गेण्हई' इत्यादि, ऊर्द्धमपि अधोऽपि तिर्यगपीति, इह जीवस्य यावति क्षेत्रे ग्रहणयोग्यानि भाषाद्रव्याण्यवस्थितानि तावत्येव क्षेत्रे ऊधस्तियक्त्वं द्रष्टव्यं, 'जाई मंते ! उहृषि मेण्हइ' इत्यादि, यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहुर्त यावत् ग्रहणोचितानि तानि ग्रहणोचितकालस्य उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूशाप्रमाणस्यादावपि-प्रथमसमये गृह्णाति मध्येऽपि-द्वितीयादिष्वपि समयेषु गृह्णाति, पर्यवसानेऽपि-पर्यवसा-1 नसमयेऽपि गृह्णाति, 'जाई भंते ! आईपि गेहई' इत्यादि, खविषयान्-स्वगोचरान् स्पृष्टावगाढानन्तराचगाढा-| ॥२६॥ ख्यान् गृह्णाति, न त्वविषयान् स्पृष्टादिव्यतिरिक्तान् , 'जाई भंते ! सचिसए गेहई' इत्यादि आनुपूर्वी नाम ग्रहणापेक्षया यथासन्नत्वं तद्विपरीता अनानुपूर्वी, तत्रानुपूर्ध्या गृह्णाति न त्वनानुपूा, 'जाई भंते ! आणु दीप अनुक्रम [३९१-३९३] यह ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ----------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८ -१६९] SIपुर्वि गेण्हइ' इत्यादि तिदिसिं'ति त्रिदिशि गृह्णाति तिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि गृह्णाति एवं चतुर्दिशि पञ्चदिशि पदिशि च, एवमुक्त भगवानाह-गौतम! नियमात् षड्दिशि गृह्णाति-षड्भ्यो दिग्भ्यः आगतानि गृह्णाति, भाषको हि नियमात् प्रसनाब्यां अन्यत्र प्रसकायासम्भवात् , सनायां च व्यवस्थितस्य नियमात् पड्दिगाग-15 तपुद्गलसम्भवात् । एतेषामेवार्थानां सङ्ग्रहणिगाथामाह-'पुट्ठोगाढअणंत'रमित्यादि प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्रं तदनन्तरमवगाढसूत्रं ततोऽनन्तरावगाढसूत्रं ततोऽणुवादरविपयं सूत्रं तदनन्तरमूद्धांधःप्रभृतिविषयं सूत्र तत 'आई' इति 1ST उपलक्षणमेतत् आदिमध्यावसानसूत्रं ततो विषयसूत्र तदनन्तरमानुपूर्वीसूत्रं ततो नियमात् पड्दिशीतिसूत्रं, 'जीवाणं भंते ! जाई दबाई' इत्यादि, जीवा 'ण'मिति वाक्यालकारे, भदन्त ! यानि द्रव्याणि भाषकत्वेन गृह्णाति तानि किं सान्तरं-सन्यवधानं गृह्णाति किं वा निरन्तरं-निर्व्यवधानं?, भगवानाह–सान्तरमपि गृह्णाति निरन्तरमपि, उभयथापि ग्रहणसम्भवात् , तत्र सान्तरनिरन्तरग्रहणयोः प्रत्येकं कालमानं प्रतिपादयति-'संतरं गिण्हमाणे' इत्यादि, सान्तरं गृह्णन् जघन्यतः एकं समयं अन्तरं कृत्वा गृण्हाति, एतच जघन्यत एक समयमन्तरं सततं भापाप्रवृत्तस्य | भापमाणस्थावसेय, तचैवं-कश्चिदेकस्मिन् समये भाषापुद्गलान् गृहीत्वा तदनन्तरं मोक्षसमये अनुपादानं कृत्वा पुन-1 स्तृतीये समये गृह्णात्येव न मुञ्चति द्वितीये समये प्रथमसमयगृहीतान् पुद्गलान् मुञ्चति अन्यानादत्ते, अथान्येन प्रयत विशेषेण ग्रहणमन्येन च प्रयत्नविशेषेण [च निसर्गः तौ च परस्परं विरुद्धौ परस्परविरुद्धकार्यकरणात् ततः SO900 गाथा दीप अनुक्रम [३९१-३९३] ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत a सूत्रांक [१६८ -१६९] ॥२६॥ गाथा प्रज्ञापना-18कथमेकस्मिन् समये तो स्यातां ?, तदयुक्तं, जीवस्य हि तथाखाभाब्यात् द्वावुपयोगावेकस्मिन् समये न स्याता, ये याः मल तु क्रियाविशेषास्ते बहवोऽप्येकस्मिन् समये घटन्त एव, तथादर्शनात् , तथाहि-एकापि नर्तकी भ्रमणादिनृत्तं पदं यवृत्ती. 18 विदधाना एकस्मिन्नपि समये हस्तपादादिगता विचित्राः क्रियाः कुर्वती दृश्यते, सर्वस्यापि वस्तुनः प्रत्येकमेकस्मिन् समये उत्पादग्ययावुपजायते, एकस्मिन्नेव च समये सङ्घातपरिशाटावपि, ततो न कश्चिद्दोषः, आह च भाष्यकृत्“गहणनिसग्गपयत्ता परोप्परविरोहिणो कह समये । समए दो उबओगा न होज किरियाण को दोसो ? ॥१॥" इति. तृतीये पुनः समये तानेव द्वितीयसमयोपात्तान् पुद्गलान् मुश्चति न पुनरन्यानादत्ते, उत्कर्षेण वसावेयान् । यावनिरन्तरं गृह्णाति, तथा चाह-उत्कर्षणासयेयान् समयान् गृह्णाति इति योगः, कदाचित्परोऽसङ्ख्येयः समयैरेकं ग्रहणं मन्येत तत आह–'अनुसमयं प्रतिसमयं गृह्णाति, तदपि कदाचिद्विरहितमपि व्यवहारतोऽनुसमय-| मित्युच्येत ततस्तदाशक्य व्यवच्छेदार्थमाह-अविरहितं, एवं निरन्तरं गृह्णाति, तत्राये समये ग्रहणमेव न निसर्गः, अगृहीतस्य निसर्गाभावात् , पर्यन्तसमये च मोक्ष एव, भाषाभिप्रायोपरमतो ग्रहणासम्भवात् , शेषेषु द्वितीयादिषु समयेषु ग्रहणनिसर्गों युगपत्करोति स्थापना चेयम्-प्र।प्र। । । । । 'जीवा गं भंते ! जाई दबाई ॥२४॥ भासत्ताए गहियाई निसरइ' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, नि । नि । नि । नि । नि। निर्वचनमाह-सान्तरं निसृजति II १ ग्रहणनिसर्गप्रयत्नौ परस्परविरोधिनी कथं समये । समये द्वावुपयोगौ न भवेता क्रिययोस्तु को दोषः । ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३९१-३९३] Hirwastaram.org ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------ उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८ -१६९] गाथा ASIनो निरन्तरं, इयमत्र भावना-इह तावत् ग्रहणं निरन्तरमुक्तं, तथा चानन्तरसूत्र 'अणुसमवमविरहियं निरंतर गण्हइ' इति ततो निसर्गोऽपि प्रथमवर्जेषु शेषेषु समयेषु निरन्तरं प्रतिपत्तव्यो, गृहीतस्यावश्यमनन्तरसमये । निसर्गात् , ततो यदुक्तं 'सान्तरं निसृजति नो निरन्तर मिति, तत्र ग्रहणापेक्षया द्रष्टव्यं, तथाहि-यस्मिन् समये | यानि भाषाद्रव्याणि गृह्णाति न तानि तस्मिन्नेव समये मुञ्चति, यथा प्रथमसमये गृहीतानि न तस्मिन्नेव प्रथम-19 समये मुश्शति किन्तु पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन् समये गृहीतानि उत्तरस्मिन् समये, ततो ग्रहणपूर्वो निसर्गोऽगृहीतवर निसर्गायोगात् इति सान्तरं निसर्ग उक्तः, आह च भाष्यकृत्-"अणुसमयमणंतरियं गहणं मणिवं ततो विमोक्खोऽपि । जुत्तो निरन्तरोवि य भणइ कहं संतरो भणिओ?॥१॥ गहणावेक्खाएँ तो निरंतरं जमि जावं गहियाई । नउ तम्मि चेक निसरइ जह पढमे निसिरणं नत्थि ॥ २॥ निसिरिजइ नागहियं गहणंतरियंति संतरंग तेण।" इति, एतदेव सूत्रकृदपि स्पष्टयति-'संतरं निसरमाणो एगेणं समएणं गेहद एगेणं समरणं निस्सरह इति, एकेन-पूर्वपूर्वरूपेण समयेन गृह्णाति एकेन-उत्तरोत्तररूपेण समयेन निसृजति, अथवा ग्रहणापेक्षं निसर्ग-11 भावात् एकेन-आयेन समयेन गृहात्येव न निसृजत्यगृहीतस्य निसर्गाभावात् , तथा एकेन-पर्यवसानसमयेन निसुजत्येव न गृहाति, भाषाभिप्रायोपरमतो ग्रहणासम्भवात् , शेषेषु तु द्वितीयादिषु समयेषु युगपद् ग्रहणनिसर्गो करोति, तौ च निरन्तरं जघन्यतो द्वौ समयौ उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयान् समयान्, एतदेवाह-'एतेयं महबनिसरणो-14 दीप अनुक्रम [३९९ -३९३] ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ----------- उद्देशक: [-1, ------------ दारं [-], ----------- मूलं [१६८-१६९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मलय. वृत्ती. [१६८ -१६९] ॥२५॥ गाथा Recene वाएणं जहण्णणं दुसमइयं उकोसेणं असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तिगं गहणनिसिरणं करेइ' इति, 'जीवणं जाई दवाई' ११भाषाइत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! भिन्नान्यपि निसृजति अमिन्नान्यपि, इयमत्र भावना-इह द्विविधो पर्द वक्का-मन्दप्रयत्नस्तीत्रप्रयत्नश्च, तत्र यो व्याधिविशेषतोऽनादरतो वा मन्दप्रयत्नः स भाषाद्रव्याणि तथाभूतान्येव स्थूलखण्डात्मकानि निसृजति, यस्तु नीरोगतादिगुणयुक्तस्तथाविधादरभावतस्तीवप्रयत्वः स भाषाद्रच्याणि आदाननिसर्गप्रयत्नाभ्यां खण्डशः कृत्वा निसृजति, आह च भाष्यकृत्-"कोई मंदपयत्तो निसिरइ सकलाई सघदवाई। | अन्नो तिवपयत्तो सो मुंचइ मिंदिउं ताई ॥१॥" तत उक्तं-'भिन्नाइपि निसिरइ अभिन्नाईपि निस्सरह, जाई |भिन्नाई निसरई' इत्यादि, यानि तीव्रप्रयत्नो वक्ता प्रथमत एव भिन्नानि निसृजति तानि सूक्ष्मत्वात् बहुत्वाच प्रभूतान्यन्यानि द्रव्याणि वासयन्ति, तदन्यद्रव्यवासकत्वादेव चानन्तगुणवृया परिवर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तं स्पृशन्ति, लोकान्तं प्रामुवन्तीत्यर्थः, उक्तं च-"भिन्नाई सुहुमयाए अणंतगुणयद्धियाई लोगंतं । पावंति पूरयंति य भासाएँ निरंतरं लोग ॥१॥" यानि पुनर्मन्दप्रयत्नो वक्ता यथाभूतान्येव प्राक् भाषाद्रव्याण्यासीरन् तथाभूता-18 न्येव सकलान्यभिन्नानि भाषात्वेन परिणमय्य निसृजति तान्यसङ्ख्येया अवगाहनावर्गणा गत्वा, अवगाहना:-एक- | ॥२६॥ कस्य भाषाद्रव्यस्थाधारभूता असङ्ख्येयप्रदेशात्मकक्षेत्रविभागरूपास्तासामवगाहनानां वर्गणाः-समुदायास्ता असलोया अतिक्रम्य भेदमापद्यन्ते, विशरारुभावं बिभ्रतीत्यर्थः, पिशरारुभावं बिभ्राणानि च सङ्ग्यानि योजनानि गत्वा विध्वं दीप अनुक्रम [३९१-३९३] SMEmainlandana For P OW ~134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१६८ -१६९] गाथा दीप अनुक्रम [३९१ -३९३] - - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) “प्रज्ञापना” पदं [११], ------------ उद्देशक: [ - ], - दारं [-], ------------- • मूलं [ १६८ - १६९ ] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः समागच्छन्ति, शब्दपरिणामं विजहतीत्यर्थः, उक्तं च - "गंतुमसंखेज्जाओ अवगाहणवग्गणा अभिन्नाई । भिजंति धंसमेति य संखिजे जोयणे गंतुं ॥ १ ॥” भिन्नान्यपि निसृजतीत्युक्तं, तत्र कतिविधः शब्दद्रव्याणां भेद इति पृच्छति Eucation internation ------------ तेसि णं भंते! दवाणं कतिविहे मेए पण्णत्ते १, गो० ! पञ्चविधे भेदे पं० तं० खंडाभेदे पयरभेदे चुण्णियाभेदे अणुतडियाभेदे उकरियाभेदे से किं तं खंडाभेदे?, २ जण्णं अयखंडाण वा तउखंडाण वा तंबखंडाण वा सीसखंडाण वा रययखंडाण वा जातरूवखंडाण वा खंडएण भेदे भवति से तं खंडाभेदे १ । से किं तं पयराभेदे १, २ जणं वैसाण वा वेताण वा नलाण वा कदलीथंभाण वा अन्भपडलाण वा पयरेण भेदे भवति, से तं पयराभेदे २ । से किं तं चुण्णियामेदे १, २ जण्णं तिलचुण्णाण वा मुग्गचुष्णाण वा मासचुण्णाण वा पिप्पलीचुष्णाण वा मिरीयचुण्णाण वा सिंगबेरचुण्णाण वा चुणियाए भेदे भवति से तं चुण्णियाभेदे ३ । से किं तं अणुतडियाभेदे १, २ जण्णं अगडाण वा तडागाण वा दहाण वा नदीण वा वावीण वा पुक्खरिणीण वा दीहियाण वा गुंजालियाण वा सराण वा सरसराण वा सरपंतिया वा सरसरपंतियाण वा अणुतडियाभेदे भवति, से तं अणुतडियाभेदे ४ । से किं तं उकरियाभेदे १, २ जणं मूसाण वा मंहसाण वा तिलर्सिगाण वा मुग्गसिंगाण वा माससिंगाण वा एरंडवीयाण वा फडिता उकरियाभेदे भवति, सेतं उकरियाभेदे ५ । एएसि णं भंते ! दवाणं खंडाभेएणं पयराभेदेणं चुण्णियाभेदेणं अणुतडियाभेदेणं उक्करियाभेदेण अन्न द्रव्यस्य पञ्च भेदाः प्ररुप्यते For Pernal Use On ~135~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , ------------- मूलं [१७०-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: |११भाषा प्रत सूत्रांक [१७०-१७३] प्रलपनाया: भलयवृत्ती. ॥२६६॥ दीप अनुक्रम [३९४ य भिज्जमाणाणं कयरेशहितो अ०० तु.वि., गो.! सक्वत्थीबाई दबाई उकारियाभेदेणं भिजमाणाई अगुतडियाभेएणं भिजमाणाई अणंतगुणाई चुणियाभेदेणं भिजमाणाई अर्णतगुणाई पयराभेदे मिजमाणाई अणंतगुमाई खंडाभेदेणं भिजमाणाई अर्णतगुणाई ॥ (सूत्र १७०) नेरइएवं भंते ! जाई दबाई मासचाए मेहति ताई कि ठियाई गेण्हति अठियाई गेण्हति !, गो01 एवं चेव जहा जीवे दत्तवया भणिया सहा नेरझ्यस्सवि जाव अप्पाबडुयं । एवं एगिंदियवजो दंडतो जान वैमाणिता ॥ जीवाणं भंते ! जाई दबाई भासचाए गेहंति ताई किं ठियाई मेहति अठियाई गेहति ?, गो! एवं चेव पुदुत्तेपविणेतवं, जाब वेमाणिया २। जीवे ज भंते ! जाई दवाई सबभासताए मेण्हति ताई किं ठियाई गेहति अठियाई गेहति ?, गो! जहा ओहियदंडओ तहा एसोवि, गावरं विगलिंदिया ण पुच्छिजंति, एवं मोसाभासाएवि, सच्चामोसाभासाएवि, असामोसाभासाएवि एवं चेव, नवरं असञ्चामोसामासार विगलिंदिया पुचिजति इमेणं अमिलावणं-विगलिदिए भंते ! जाई दबाई असञ्चामोसामासाए गिण्हइ ताई किं ठिवाई गेण्हइ अठियाई मेव्हइ , गो ! जहा ओहिवदंडओ, एवं एए एगत्तपत्तेणं दस दंडगा भाणियबा (त्र १७१) जीवे णे भंते ! जाई दवाई सचभासचाए गिण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए निसिरइ मोसमासत्ताए निसरइ सच्चामीसभासचाए निसरति असन्चामोसभासत्ताए निसरह, गो! सचभासत्ताए निसरह नो मोसमासत्ताए निसरति नो सचामोसभासत्ताए निसरति नो असचामोसमासत्ताए निसरह, एवं एगिदियविगलिंदियवसओ दंडतो जाव वेमाणिया, एवं पुहुचेणचि । जीवे णं भंते ! जाई दबाई मोसमासत्ताए गिण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए निसरति मोसमासचाए सचामोसमा -३९७] 13 uren weredturary.com ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , ------------- मूलं [१७०-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७०-१७३] एलटeaee दीप अनुक्रम [३९४ Recememeseseseseae सत्ताए असचामोसमासत्ताए निसरद, गो०1नो सच्चभासचाए निसरति मोसमासत्ताए निसरति णो सनामोसणो असच्चामोसमासत्ताए निसरति । एवं सचामोसमासत्ताएवि, असच्चामोसमासत्ताएवि एवं चेव, नवरं असचामोसमासत्ताए विगलिंदिया तहेव पुच्छिअंति, जाए चेव गिण्हति ताए चेव निसरति, एवं एते एगत्तपुहुत्तिया अट्ट दंडमा भाणियबा (सूत्र १७२) कतिविहे भंते ! वयणे पं०१, गो०! सोलसविहे वयणे पं०,०-एगवयणे दुवयणे पहुक्यणे इत्थिवयणे पुमवयणे णपुंसगवयणे अज्झत्थवयणे उवणीयवयणे अवणीयवयणे उवणीयावणीयवयणे अवणीयोवणीयवयणे तीतवयणे पडप्पनवयणे अणागयवयणे पचक्खवयणे परोक्खवयणे । इच्चेइतं भंते ! एगवयणं वा जाव परोक्खवयर्ण वा वदमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा मासा मोसा, हता! गो० इन्चेइतं एगवयणं वा जाब परोक्खवयणं वा बदमाणे पण्णवणी ण एसा मासा ण एसा भासा मोसा (मूत्रं १७३) 'तेसि णं भंते ! दवाण मित्यादि, तत्र खण्डभेदो लोहखण्डादिवत् प्रतरभेदोऽभ्रपटलभूर्यपत्रादिवत् चूर्णिकाभेदः क्षिसपिष्टवत् अनुतटिकाभेद इत्वगादिवत् उत्कटिकाभेदः स्त्रयाघर्षवत् । एतानेव भेदान् व्याख्यातुकामः प्रश्ननि-1 वचनसूत्राण्याह-से किं तं खंडभेदे ?' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरमनुतटिकामेदे अवटाः-कृपाः तडागानि-प्रतीतानि, हूदा अपि प्रतीताः, नद्यो-गिरिनद्यादयः, वाप्य:-चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ताकारा पुष्करिण्यः दीर्घिका:ऋज्व्यो नयः वक्रा नद्यो गुजालिकाः बहूनि केबलकेवलानि पुष्पप्रकरवत् विप्रकीर्णानि सरांसि तान्येव एकैक-18 -३९७] SARERatininemarana ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , ------------- मूलं [१७०-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत eeeeers सूत्रांक [१७०-१७३] e दीप अनुक्रम [३९४ प्रज्ञापना-पल्या व्यवस्थितानि सरःपतयः येषु सरस्सु पकथा व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया सञ्चरति सा सर सर पक्तिः ११भाषायाः मल- अप्रतीता भेदा लोकतः प्रत्येतन्याः, अल्पबहुत्वं सूत्रप्रामाण्यात् तथेति प्रतिपत्तव्यं, युक्तरविषयत्वात्, शेष सूत्र पर्द यवृत्ती. सर्वमपि पाठसिद्धं, 'जाव कतिविहे गं भंते ! वयणे पण्णत्ते' इति, एकवचनं पुरुष इति द्विवचनं पुरुषाविति बहु-18 ॥२६७|| वचनं पुरुषा इति, खीवचनमियं स्त्री, पुरुषवचनमयं पुमान् , नपुंसकवचनमिदं कुण्डं, अध्यात्मवचनं यदन्यचेतसि निधाय विप्रतारकबुद्ध्याऽन्यद् विभणिपुरपि सहसा यच्चेतसि तदेव ब्रूते, उपनीतवचन-प्रशंसावचनं यथा रूपवतीयं स्त्री, अपनीतवचनं-निन्दावचनं यथेयं कुरूपा स्त्री, उपनीतापनीतवचनं यत्प्रशस्य निन्दति, यथा रूपवतीयं स्त्री परं दुःशीला, अपनीतोपनीतवचनं-यनिन्दित्वा प्रशंसति यथेयं कुरूपा परं सुशीलेति, अतीतवचनमकरोदित्यादि प्रत्युत्पन्नवचनं-वर्तमानकालवचनं करोतीत्यादि अनागतकालवचनं करिष्यतीत्यादि, प्रत्यक्षवचनंअयमित्यादि परोक्षवचनं-स इत्यादि ॥ एतानि च षोडशापि वचनानि यथावस्थितवस्तुविषयाणि न काल्पनिकानि, ततो यदैतानि सम्यगुपयुज्य वदति तदा सा भाषा प्रज्ञापनी द्रष्टव्या, तथा चाह-इचेइयं भंते ! एगवयर्ण दुवयण मित्यादि, भावितार्थमक्षरार्थः प्रतीत एव ॥ सम्प्रति प्रागुक्तमेव सूत्रं सूत्रान्तरसम्बन्धनार्थ भूयः पठति, | ॥२६७॥ कति गं भंते ! भासजाया पण्णता, गो! चत्वारि भासआया पं०, ०-सच्चमेगं भासजायं वितियं मोसं भासातं तइयं सच्चामोसं भासज्जातं चउत्थं असच्चामोसं मासज्जातं, इच्चेझ्याई भंते ! चत्तारि भासआयाई भासमाणे -३९७] Caesee ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , ------------- मूलं [१७४-१७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४-१७५] किं आराहते विराहते ?, गो०! इच्चेइयाई चत्तारि भासज्जायाई आउत्तं भासमाणे आराहते नो विराहते, तेण परं असंजतअविरयअपडितहतअपञ्चक्खायपावकम्मे सर्च भासं भासतो मोसं वा सच्चामोसं वा असचामोसं वा भासं भासमाणे नो आराहते विराहते (मूत्रं १७४) एतेसि णं भंते ! जीवाणं सचभासगाणं मोसमासगाणं सच्चामोसभासगाणं असचामोसभासगाणं अभासगाण य कयरेशहितो अ० ब०तु०वि०१, मो०! सबत्थोवा जीवा सच्चभासगा सच्चामोसभासमा असंखिज्जगुणा मोसभासगा असंखेजगुणा असञ्चामोसभासगा असंखेजगुणा अभासगा अणतगुणा (सूत्रं १७५)॥ पण्णवणाए भगवईए भासापदं समत्तं ॥११॥ 'कइ णं भंते ! भासज्जाया पण्णत्ता' इत्यादि सुगम, नवरं 'आउत्तं भासमाणे' इति सम्यक् प्रवचनमालिन्या|दिरक्षणपरतया भाषमाणः, तथाहि-प्रवचनोडाहरक्षणादिनिमित्तं गुरुलाघवपर्यालोचनेन मृपापि भाषमाणः। IM साधुराराधक एवेति, 'तेण पर'मित्यादि, तत आयुक्तभाषमाणात्परोऽसंयतो-मनोवाकायसंयमविकलोऽविरतो|विरमति स्म विरतो न विरतोऽविरतः सायद्यब्यापारादनिवृत्तमना इत्यर्थः अत एव न प्रतिहतं-मिथ्यादुष्कृतदानप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना न नाशितमतीतं तथा न प्रत्याख्यातं भूयोऽकरणतया निषिद्धमनागतं पापकर्म येनासावप्रतिहताप्रत्याख्यातपापकर्मा, शेष पाठसिद्धं । अल्पवहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः सत्यभाषकाः, इह यः सम्यगुपयुज्य सर्वज्ञमतानुसारेण वस्तुप्रतिष्ठानबुया भाषते स सत्यभाषकस्ते च पृच्छाकाले कतिपया एप लभ्यन्ते इति सर्व दीप 3929292882200020 अनुक्रम [३९८-३९९] eeseseleses ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [११], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , ------------- मूलं [१७४-१७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ११भाषा सूत्रांक [१७०-१७३] प्रज्ञापना- सस्तोकाः, तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः सत्यमृषाभाषकाः, बहूनां प्रायो यथा तथा वा सत्यामृपाभाषणसम्भवात् , लोके याः मल- तथा दर्शनात् , तेभ्योऽसङ्ख्येय गुणा मृषाभाषकाः, क्रोधाभिभूतानां परवञ्चनाधभियुक्तानां च प्रभूततराणामुपलय. वृत्ती. म्भात् तेषां च मृषाभाषकत्वात् , तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः असत्सामृषाभाषकाः द्वीन्द्रियादीनामप्यसत्यामृषाभाषकत्वात् , तेभ्योऽनन्तगुणाः अभाषकाः, सिद्धानामेकेन्द्रियाणां चानन्तत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटी॥२६८॥ कायां भाषाख्यमेकादशमं पदं समासम् ॥ ११ ॥ १२. खeo अथ द्वादशं प्रारभ्यते। दीप अनुक्रम [३९४ -३९७] ॥२६॥ तदेवं व्याख्यातमेकादशं पदं, इदानी द्वादशममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बधः-दहानन्तरपदे जीवानां सत्यादिभाषाविभागोपदर्शनं कृतं, भाषा च शरीरायचा, 'शरीरप्रभवा भाषे'त्यत्रैव प्रतिपादितत्वात् , अन्यत्राप्युकं-'गिण्हइ य काइएणं निस्सरइ तह वाइएण जोएण'मिति, तत्र शरीरप्रविभागप्रदर्शनार्थमिदमारभ्यते, तत्र चेदमादि सूत्रम् कति णं भत्रे ! सरीरा पण्णता ?, मो.1 पंच सरीरा पं०,०-ओरालिए वेउदिए आहारए तेयए कम्मए, नेरइयाण IS SARERatunintamatkarma अत्र पद (११) "भाषा' परिसमाप्तम् अथ पद (१२) "शरीर" आरभ्यते ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: INE प्रत सूत्रांक [१७४-१७५] दीप भंते ! कति सरीरया पण्णता ?, गो ! तओ सरीरया पं ० -वेउबिए तेयए कम्मए, एवं असुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं | पुढविकाइयाणं भंते ! कति सरीरया पं०१, गो ! तओ सरीरया पं०,०-ओरालिए तेयए कम्मए, एवं वाउकाइयवज जाव चउरिदियाणं, वाउकाइयाण मंते ! कति सरीरया पं०१, गो! चत्तारि सरीरया, पं०, तं0ओरालिए वेउविते तेथए कम्मए, एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणवि, मणुस्साणं भंते ! कति सरीरया पं०१, गो०! पंच सरीरया पं०, त-ओरालिए बेउविते आहारए तेयए कम्मए, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं, जहा नारगाणं (सूत्र १७६) 'कह णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता' इत्यादि, उत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिक्षणं शीर्यन्ते इति शरीराणि, तानि भदन्त ! कति–कियत्सङ्ख्याकानि, णमिति वाक्यालकारे, प्रज्ञसानि, भगवानाह-पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तान्येव नामत आह-'ओरालिए' इत्यादि, अमीषां शब्दार्थमात्रमने वक्ष्यामस्तथाऽपि स्थानाशून्याय किश्चिदुच्यते-उदारं-प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनत्वात् , अथवा ओरालं नाम विस्तरवत्, विस्तरवत्ता चास्यावस्थितखभावस्य सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात् , वैक्रियं चैतावदवस्थितप्रमाणं न लभ्यते, उत्कर्षतोऽप्यवस्थितप्रमाणस्य पक्षधनुःशतप्रमाणत्वात् , तच तावत्प्रमाणं सप्तम्यां नान्यत्र, यत्तूत्तरवे-18 क्रिय योजनलक्षप्रमाणं न तदवस्थितमाभववर्तित्वाभावात्, ततो न तदपेक्षा, आह च चूर्णिकृत्-“ओरालं नाम वित्थरालं विसालंति जं भणिय होइ, कहं १, साइरेगजोयणसहस्समवटियप्पमाणमोरालियं अन्नमेहहमे नस्थिति, अनुक्रम [३९८-३९९] रियन्टरटsectsers For P OW शरीरस्य पञ्च-भेदाः, नैरयिक-आदीनाम् शरीरस्य भेदा: ~141~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥२६॥ [१७६] विउवियं होजा तं तु अणवट्टियप्पमाणं, अवडियं पुण पंच धणुसयाई अहेसत्तमाए, इमं पुण अवट्ठियप्पमाणं साइरेग १२ शरीजोयणसहस्सं वनस्पतीना"मिति, अथवा उरलं-विरलप्रदेश न तु घनं स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच भेण्ड- | रपदं वत् , यदिवा ओरालं-समयपरिभाषया मांसास्थित्रावाद्यवबद्धं, सर्वत्र खार्थिक इकप्रत्ययः, इहोदारमेव औदारिक, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, प्राकृतत्वात् ओरालियमिति, उक्तं च-तत्थोदारमुरालं उरलं ओरालमेव विष्णेयं । ओरालियति पढम पहुच तित्थेसरसरीरं ॥१॥ भण्णइ य तहोरालं वित्थरवंतं वणस्सई पप्प । पगईऍ नत्थिी अण्णं एहमित्तं विसालंति ॥ २॥ उरलं वपएसोचियंति महलगं जहा भिण्डं । मंसटिण्हारुबद्धं ओरालं सम-IN यपरिभासा ॥३॥" ११ तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रिय, उक्तं च-"विविहा विसिहगा चा किरिया तीए उजं भवं तमिह । वेउवियं तयं पुण नारगदेवाण पगईए ॥१॥" अथवा वैकुर्विकमिति शब्दसंस्कारः, तत्र विकुर्य इति सिद्धान्तप्रसिद्धोऽयं धातुः, विकुर्वणं विकुर्वः विविधा क्रिया इत्यर्थः, तेन निर्वृत्तं बैकुर्विकं २, तथा चतुर्दशपूर्वविदा कार्योत्पत्ती योगबलेनाहियते इत्याहारकं ३, तेजसो विकारस्तैजसं ४, कर्मणो जातं कर्मजमिति ५। नन्वौदारिकादीनां शरीराणामित्थमुपन्यासे किञ्चिदस्ति प्रयोजनमुत यथाकथञ्चिदेप प्रवृत्त इति ?, ॥२६९॥ उच्यते, अस्तीति ब्रूमः, किं तदिति चेत्, उच्यते, परम्परप्रदेशसौक्ष्म्यं परम्परं वर्गणासु प्रदेशवाहुल्यं (च), तथा हि-औदारिकात् वैक्रियस्य प्रदेशसौक्ष्म्यं वैक्रियादप्याहारकस्य आहारकादपि तैजसस्य तैजसादपि कार्मणस्य, तथा 209929202929782 दीप अनुक्रम [४००] estere ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] IS औदारिकात् वैक्रियस्य वर्गणासु प्रदेशवाहुल्यं वैक्रियादाहारकस्याहारकादपि तैजसस्य तैजसादपि कार्मणस्येति, एता न्येव शरीराणि नैरयिकादिषु सम्भवतश्चिन्तयति-'नेरइयाणं भंते ! केवइया सरीरा पण्णत्ता' इत्यादि, पाठसिद्धं, शरीराणि च जीवानां द्विविधानि, तद्यथा-बद्धानि मुक्तानि च, तत्र यानि चिन्ताकाले जीयैः परिगृहीतानि वर्तन्ते तानि बद्धानि, यानि च पूर्वभवेषु परित्यक्तानि तानि मुक्तानि, तेषां बद्धानां मुक्तानां च परिमाणमिदानीं द्रव्यक्षेत्रकालैः प्ररूपणीय, तत्र द्रव्यैरभव्यादिभिः क्षेत्रेण श्रेणिप्रतरादिना कालेनाबलिकादिना, तत्रौदारिकशरीरमधिकृत्याहकेवड्या णं भंते ! ओरालियसरीरया पं०१, गो० दुविहा पं०,०---बद्धिल्लया य मुकिल्लया य, तत्थ ण जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजा लोगा, तत्थ णं जे ते मुकेल्लया ते गं अर्णता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो खेत्तओ अर्णता लोगा अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणा सिद्धा(ण)णतभागो। केवतियाणे भंते ! वेउवियसरीरया पं०१, गो! दुविहा पं०, तर-बद्धेल्लया य मुकेल्लगा य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्गा तेणं असंखेज्जा असंखे जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरति कालतो खेत्ततो असंखेज्जातो सेढीओ पयरस्स असंखेजतिभागो, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो जहा ओरालियस्स मुफेल्लया तहेव वेउवियस्सवि भाणियबा । केवतिया णं भंते ! आहारगसरीरया पण्णता, एन्टरटseserceaeee टाएersectsecre दीप अनुक्रम [४००] wereumstaram.org औदारिक-आदि शरीराणां स्वरुपम् ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलय.वृत्ती. रपदं प्रत सूत्रांक IR७०॥ [१७७] गो! दुविहा, पं०, तं-बद्धेल्लया य मुकेल्लया य, तत्थ ण जे ते बद्धेल्लगा ते णं सिय अस्थि सिय नस्थि, जद अत्यि | १२ शरीजहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उकोसेणं सहस्सपुहुर्त, तत्थ णं जे ते मुकेल्लया ते णं अणंता जहा ओरालियस्स मुकिल्लया तहेव भाणितबा । केवइया णं मंते ! तेयगसरीरया पण्णता, मो०! दुबिहा पण्णता, तं०-बदेल्लगा य मुकेल्लगा य, तत्थ पं जे ते बद्धेष्ठगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो खेतओ अणंता लोगा दवओ सिद्धेहितो अणतगुणा सबजीवाणंतभागुणा, तत्व गंजे ते मुकेल्लगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो खेत्ततो अर्णता लोगा दडओ सबजीवेहितो अणंतगुणा जीववग्गस्साणतभागे । एवं कम्ममसरीराणिवि भाणितबाणि ।। (सूत्र १७७) 'केवइया णं भंते ! ओरालियसरीरया पण्णत्ता' इत्यादि, इह प्राकृतलक्षणवशादिलप्रत्ययः कप्रत्ययश्च खार्थे ततो 'वद्धिलया' इति बद्धानीत्यर्थः, 'मुकिलया' इति मुक्तानीत्यर्थः, तत्र वद्धान्यसायेयानि, असङ्ख्येयत्वमेव प्रथमतः कालतो निरूपयति-'असंखिजाहि' इत्यादि, प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारेण असङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसप्पिणीभिरनवयवशो:पहियन्ते, किमुक्तं भवति? असोयासु उत्सर्पिण्ययसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि बद्धान्यौदारिकशरी-॥२७॥ राणि वर्तन्ते, इदं कालतः परिमाणं, क्षेत्रत आह–'खेत्तओ असंखेजा लोगा' इति, क्षेत्रतः परिसञ्चयानमसझोया लोकाः, एतदुक्तं भवति–सर्वाण्यपि बद्धान्यौदारिकशरीराणि आत्मीयात्मीयावगाहनाभिराकाशप्रदेशेषु परस्परम दीप अनुक्रम [४०१] SAREauratonintemational ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] पिण्डीभावेन क्रमेण स्थाप्यन्ते तदानीं तैरेवमास्तीर्यमाणैरसङ्ख्यया लोका अवाप्यन्ते, इह एकैकस्मिन्नयाकाशप्रदेशे ॥ |एकैकौदारिकशरीरस्थापनया असङ्ख्यया लोका व्याप्यन्ते परं पूर्वाचार्या आत्मीयावगाहनास्थापनया प्ररूपणां कुर्व-1 ||न्ति ततोऽपसिद्धान्तदोषो मा प्रापदित्यस्माभिरपि तथैव प्ररूपणा क्रियते, आह च चूर्णिकारोऽपि-"जइवि इकेके |पएसे सरीरमेगं ठविजइ तोऽवि असंखेज्जा लोगा भवंति किंतु अवसिद्धंतदोसपरिहरणथमप्पप्पणियाहिं ओगाहणाहिं ठविजंति" इति, आह-नन्वनन्ता जीवास्ततः कथमसङ्ख्ययान्यौदारिकशरीराणि ?, उच्यते, इह द्विविधा जीवा:प्रत्येकशरीरिणोऽनन्तकायिकाश्च, तत्र ये ते प्रत्येकशरीरिणस्तेषां प्रतिजीवमेकैकौदारिकशरीरमन्यथा प्रत्येकशरीरत्वायोगात् , ये त्वनन्तकायिकास्तेषामनन्तानामनन्तानामकैकमौदारिकशरीरमतः सर्वसङ्ख्ययापि असङ्ख्येयान्यौदारिकश-18 रीराणि, मुक्तान्यीदारिकशरीराणि अनन्तानि, तच्चानन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यैर्निरूपयति-'अर्णताहिं' इत्यादि, कालतः परिमाणं प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारेऽनन्ताभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्वात्मनाऽपहियन्ते, किमुक्तं भवति ?अनन्तासु उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति, क्षेत्रतः परिमाणमनन्ता लोकाः, अनन्तेषु । लोकप्रमाणेष्वाकाशखण्डेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः, द्रव्यतः परिमाणमभवसिद्धिकेभ्यः-अभव्येभ्योऽनन्तगुणानि, ययेयं तर्हि सिद्धराशिप्रमाणानि भविष्यन्ति तत आह-सिद्धानामनन्तभाग:-अनन्तभागमात्राणि, ननु द्वयोरपि राश्योरभवसिद्धिकसिद्धिरूपयोर्मध्ये पठ्यन्ते प्रतिपतितसम्यग्दृष्टयः तत् किं तद्राशिप्रमाणानि Hetaurary.com ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप प्रज्ञापना- भवेयुः, उच्यते, यदि तरत्रमाणानि स्पुतर्हि तयेष निर्देशः क्रियेत, सुखप्रतिपत्तिकृतप्रतिज्ञा हि भगवन्त गार्यश्या-18१२ शरीया: मल- माः, ततस्तथा निर्देशाभावादपसीयतेन सदाशिप्रमाणानि, ननु तर्हि तेषां प्रतिपतितसम्बग्रष्टीनामधस्ताद् भवेयु-18 रपदं २. वृत्ती. रुपरिवा, उच्यते, कदाचिदयस्तात्कदाचिदुपरि कदाचित्तुल्यान्यपि अनियतप्रमाणत्वात्, नतु सर्वकालं तत्त्रमा॥२७॥ णानीति, आह च चूर्णिकृत्-"तो किं परिवडियसम्महिहिरासिप्पमाणाई होजाते, तेसिं दोण्हवि रासीणं, मझे। पढिजंतित्तिकाउं?, मण्णा, जह तप्पमाणाई होता तो तेर्सि चेव निदेसो होतो तम्हा न तप्पमाणाई, तो किं तमिडिदा होजा उवरि होजा, मन्नइ, कयाइ हेहा कयाइ उरि होंति कयाइ तल्लाई न निकालं तप्पमाणाई इति, अपरः प्राह-कथं मुक्तानि यथोक्तानन्तसङ्ख्यापरिमाणान्युपपद्यन्ते ?, यतो यदि तावदौदारिकादिशरीराणि यावदविकलानि तावद् गृखन्ते ततस्तेषामनन्तकालमवस्थानामावादनन्तत्वं न घटते, यदि बनन्तमपि कालमवस्थान भवेत् ततोऽनन्तेन कालेन तत्तच्छरीरगणनादनन्तानि भवेयुः, यावताऽनन्तं कालमवस्थानं नास्ति, पुद्गलानामुत्कर्षतोऽप्यसयेयकालावस्थानाभिधानात्, अथ च ये पुद्गला जीवैरौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ता अतीताद्धायां तेषां ग्रहणं तर्हि सर्वेऽपि पुद्गलाः सर्वैरपि जीवैः प्रत्येकमौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ता इति सर्वपुद्गलग्रहणमापन्नं, तथा च सति R ॥२७॥ यदुक्तम्-अभवसिद्धिकेभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागमात्राणीति तद् विरुध्यते, सर्वजीवेभ्योऽनन्तानन्तगुMणकारेणानन्तगुणत्वस्य प्रसक्तत्वादिति चेत्, उच्यते, इह मुक्तानामौदारिकशरीराणां नाविकलानामेव केवलानां ग्रहणं| अनुक्रम [४०१] ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] नाप्यौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ताः पुद्गलाः, तेषामुक्तदोषप्रसङ्गात् , किन्तु यच्छरीरमौदारिक जीवेन गृहीत्वा मुक्त तत् विशरारुभावं बिभ्राणमनन्तभेदभिन्नं भवति ते चानन्ता भेदा भवन्तो यावत्ते पुद्गला औदारिकपरिणामं न जहति तावत्प्रत्येकमौदारिकशरीरव्यपदेशं लभन्ते, ये पुनरौदारिकपरिणामं त्यक्तवन्तस्ते न गण्यन्ते, तत एवमेकस्थापि शरीरस्थानन्तानि शरीराणि जातानि, एवं सर्वशरीरेष्वपि भावनीयं, तथा च सत्येकैकस्य शरीरस्थानन्तभेदभिन्नत्वादेकस्मिन्नपि समये प्रभूतान्यनन्तानि शरीराण्यवाप्यन्ते, तेषां चासत्येयकालमवस्थानं, तेन चासङ्ग्येयेन कालेनान्यानि जीवैर्विप्रमुक्तान्यसङ्ग्येयान्यवाप्यन्ते, तान्यपि च प्रत्येकमनन्तभेदभिन्नानि, तेषु च मध्ये तावता कालेन यान्यौदारिकशरीरपरिणामं विजहति तानि परित्यज्यन्ते शेषाणि गण्यन्ते, तत एवं मुक्कानि यथोक्तप्रमाणानन्तस याकान्यौदारिकशरीराण्युपपद्यन्ते इति, न चैतत्खमनीषिकाविजृम्भितं, यत आह चूर्णिकृत्-"नवि अधिगलाणमेNR केवलाणंपि गहणं एयं न य ओरालियगहणमुक्काणं सबपुग्गलाणं, किन्तु जं सरीरमोरालिकं जीवेण मुकं तं चेव अणंतभेयभिन्नं [च] होइ जाव ते पुग्गला तं जीवनिवत्तियं ओरालियसरीरकायप्पओगं न मुंचंति न ताव अण्णपरिणामेण परिणमंति ताई पत्तेयं सरीराई भण्णंति, एवमेकेकस्स ओरालियसरीरस्स अणंतभेयभिन्नत्तणओ अणंताई चेच ओरालियसरीराई भवति" इत्यादि, आह-कथमेकैकशरीरद्रव्यदेशः शरीरत्वेन व्यवहियते ?, उच्यते, लवणदृष्टान्तेन, तथाहि खार्यपि लघणमुच्यते द्रोणोऽपि लवणमाढकोऽपि लवणं यावदेकापि शर्करा लवणमेवमिहापि सकलमप्यो स्वरकर 20a ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] प्रशापना- दारिकशरीरमुच्यते तदर्द्धमपि तदेकदेशोऽपि यावदनन्तभागोऽपि शरीरमिति, कोऽत्राभिप्राय इति चेत् ?, उच्यते,|१२ शरीयाः मल- इह यथा लवणपरिणामपरिणतः स्तोको बहुर्वा पुद्गलसङ्घातो लवणमुच्यते तथौदारिकशरीरयोग्यपुद्गलसङ्घातोऽपि रपर्द य०वृत्तौ. औदारिकत्वेन परिणतः स्तोको वा बहुर्वा औदारिकशरीरव्यपदेशं लभते, अथवा भवति समुदायैकदेशेऽपि समुदा॥२७॥ यशब्दोपचारो, यथा-अनुल्यने स्पृष्टे स्पृष्टो मया देवदत्त इत्यादौ, तत उपचारान्न कश्चिद्दोषः, ननु यद्येवं कथं तान्यनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यौदारिकशरीराण्येकस्मिन् लोकेऽवगाढानि ?, उच्यते, प्रदीपप्रकाशवत् , तथाहियथैकस्यापि प्रदीपस्वाचीपि सकलभवनावभासीनि भवन्ति, अन्येषामनेकेषां प्रदीपानामचींषि तत्रैवानुप्रविशन्ति, परस्परमविरोधात् , तथौदारिकाण्यपि, एवं शेषशरीरेष्वपि मुक्तेष्वायोज्यं, ननु द्रव्यक्षेत्रे विहाय किमिति प्रथमतः कालेन प्ररूपणा कृता, उच्यते, कालान्तरावस्थायितया पुद्गलेषु शरीरोपचारो नान्यथा ततः कालो गरीयान् इति। प्रथमतस्तेन प्ररूपणा । उक्तान्यौदारिकाणि, सम्प्रति वैक्रियसूत्रमाह-केवइया णं भंते !' इत्यादि, बद्धान्यसायेSयानि, तत्र कालतः परिमाणं प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्स्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, किमुक्तं भवति ?-असङ्ख्येयासूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति, क्षेत्रतोऽसबेयाः श्रेणयस्तासां ॥२७या श्रेणीनां परिमाणं प्रतरस्थासङ्ख्येयो भागः, किमुक्तं भवति ?-प्रतरस्यासङ्खयेयतमे भागे यावत्यः श्रेणयस्तासु च श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि बद्धानि वैक्रियशरीराणीति, अथ श्रेणिरिति किमभिधीयते ?, उच्यते, घनीक ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] तस्य लोकस्य सर्वतः सप्तरजुप्रमाणस्थायामतः सत्वरज्जुप्रमाणा मुक्तावलिरिवैकाकाशप्रदेशपक्तिः, कथं पुनर्लोको घनी| क्रियते ?, कथं वा सप्तरज्जुप्रमाणो भवति इति चेत् ?, उच्यते, इह लोक ऊर्ध्वाधश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणोऽधस्ताद्विस्तरतो देशोनसप्तरज्जुप्रमाणः एकरज्जुर्मध्यभागे ब्रमलोकप्रदेशे बहुमध्यदेशभागे पञ्चरज्जुरुपरि एका रज्जुर्लोकान्ते, रजोश्च परिमाणं खयम्भूरमणसमुद्रस्य पूर्ववेदिकान्तादारभ्यापरवेदिकान्तं यावत्, एवंप्रमाणस्य लोकस्य वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस बुद्ध्या त्रसनाच्या दक्षिणभागवय॑धोलोकखण्डमधो देशोनत्रिरज्जुविस्तारमतिरिक्तससरज्जूच्छूयं परिगृह्य प्रसनाच्या उत्तरपार्थे ऊ धोभागविपर्यासेन सङ्कायते-ऊर्श्वभागोऽधः क्रियते अधोभाग| स्तू मिति सङ्घात्यते इति, तत ऊईलोके त्रसनाख्या दक्षिणभागवर्तिनी ये द्वे खण्डे कूर्पराकारसंस्थिते प्रत्येकं देशोISI नार्द्धचतुष्टयरज्जूच्छ्ये ते बुद्धा समादाय वैपरीत्येनोत्तरपार्थे सहायेते, एवं च किं जातम् ?, अधस्तनं लोकार्थे | देशोनचतूरज्जुविस्तारं सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्रयं उपरितनमर्द्ध त्रिरज्जुविस्तारं देशोनसप्तरज्जूच्छूयं, तेन उपरितनमर्द्ध बुद्ध्या गृहीत्वाऽधस्तनस्वार्द्धस्योत्तरपार्थे सङ्घात्यते, तथा च सति सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्यो देशोनसप्तरज्जुविस्तारो घनो जातः, अतः सप्तरज्जूनामुपरि यदधिकं तत्परिगृह्य ऊर्दाध आयतमुत्तरपार्थे सङ्घात्यते, ततो विस्तरतोऽपि परिपूणों सप्त रज्जवो भवन्ति, एवमेष लोको घनीक्रियते. घनीकृतश्च सप्तरज्जुप्रमाणो भवति, यत्र च कचन घनत्वेन सप्तरज्जु-I प्रमाणता न पूर्यते तत्र बुद्ध्या परिपूरणीयं, एतच्च पट्टिकादो लिखित्वा दर्शयितन्यं, सिद्धान्ते च यत्र कचनापि ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. ॥२७॥ [१७७] दीप श्रेणेः प्रतरस्य वा ग्रहणं तत्र सर्वत्राप्येवं घनीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुप्रमाणस्यावसातव्यं, मुक्तान्यौदारिकवद् भाव- १२ शरी|नीयानि । आहारकविषयं सूत्रं 'केवइया ण भंते ! आहारगसरीरगा इत्यादि, 'बद्धानि सिय अस्थि सिय नत्थिरपद इति अस्तीति निपातो बहुवचनगर्भः कदाचित्सन्ति कदाचित् न सन्तीत्यर्थः, यस्यादन्तरमाहारकशरीरस्य जघन्यत एकः समयः उत्कर्षतः षण्मासाः, उक्तं च-"आंहारगाई लोए छम्मासे जा न होतिवि कयाइ । उक्कोसेणं नियमा। एक समयं जहन्नेणं ॥१॥” इति, यदापि भवन्ति तदाऽपि जघन्यतः एकं द्वे वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, मुक्तान्यो-10 दारिकवत् । तैजसविषयं सूत्रमाह-'केवइया णं भंते ! तेयगसरीरया' इत्यादि, तत्र बद्धान्यनन्तानि, अनन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यनिरूपयति-'अर्थताहिं' इत्यादि, कालतः परिमाणमनन्तोत्सपिण्यवसर्पिणीसमयप्रमाणानि क्षेत्रतोऽनन्तलोकप्रमाणाकाशखण्डप्रदेशपरिमाणानि, द्रव्यतः परिमाणं सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि, तेजसं हि शरीरं सर्वसंसारिजीवानां प्रत्येकं, संसारिणश्च जीवाः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः, ततस्तैजसशरीराण्यपि सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि भवन्ति,IST 'सबजीवअर्णतभागूणा' इति सर्वजीवानां योऽनन्ततमो भागस्तेनोनानि, इयमत्र भावना-सिद्धानां तैजसशरीर न विद्यते, सर्वशरीरातीतत्वात् तेषां, सिद्धाश्च सर्वजीवानामनन्तभागे, ततस्तेनोनानि सर्वजीवानामनन्तभागोनानि NE||२७३॥ भवन्ति, मुक्तानि अनन्तानि, तदेवानन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यैः प्ररूपयति-'अणंताहिं' इत्यादि, कालक्षेत्रसूत्रे प्राग्वत्, । १ आहारकाणि लोके षण्मासान यावन्न भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कृष्टतो नियमादेका समयो जघन्येन ॥ १ ॥ अनुक्रम [४०१] ~150~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक Satra29082908 2018 [१७७] दीप अनुक्रम [४०१] द्रव्यतः परिमाणं सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह एकैकस्य संसारिजीवस्य एकैकं तैजसशशरीरं, तानि च जीवैविप्रमुक्तानि सन्ति प्रागुक्तयुक्तरनन्तभेदभिन्नानि भवन्ति, तेषां चासङ्ख्येयं कालं यावदवस्थानं, तावता च कालेन जीवैषिप्रमुक्तान्यन्यानि तैजसशरीराणि प्रतिजीवमसङ्ख्येयानि अवाप्यन्ते, तेषामपि प्रत्येकं प्रागुशक्तयुक्त्या अनन्तभेदभिन्नतेति भवन्ति सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि, तत्ति जीववर्गप्रमाणानि भवेयुरत आह-'जीव वग्गस्स अर्णतभागे' इति, जीववर्गस्यानन्तभागप्रमाणानि, जीववर्गप्रमाणानि कस्मान्न भवन्तीति चेत्, उच्यते, यदि एकैकस्य जीवस सर्वजीवराशिप्रमाणानि किश्चित्समधिकानि वा भवेयुर्यन सिद्धानन्तभागपूरणं भवति ततो जीववर्गप्रमाणानि भवन्ति, वर्गो हि तेनैव राशिना तस्य राशेर्गुणने भवति, यथा चतुष्कस्य चतुष्केन गुणने षोडशात्मको वर्ग इति, न चैकैकस्य जीवस्य सर्वजीवप्रमाणानि किश्चित्समधिकानि वा तैजसशरीराणि किन्त्यतिस्तोकानि, तान्यपि असक्येयकालावस्थायीनीति, तावता कालेन यान्यप्यन्यानि भवन्ति तान्यपि स्तोकानि, कालस्य स्तोकत्वात् , ततो जीववर्गप्रमाणानि न भवन्ति, किन्तु जीववर्गस्थानन्तभागमात्राणि, अनन्तभागप्रमाणतायां च पूर्वाचार्यप्रदर्शितमिदं निदर्शनं-सर्वजीवास्तत्त्ववृत्त्या अनन्ता अपि असत्कल्पनया दश सहस्राणि, तेषां च दशसहखाणां वर्गो दश कोट्यः, तैजसशरीराणि च मुक्तान्यसत्कल्पनया दशलक्षप्रमाणानि, ततः सर्वजीवेभ्यः किल शतगुणानीति सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान्युक्तानि, जीववर्गस्य च शततमे भागे वर्तन्ते, ततो जीववर्गस्यानन्तभागमात्राणि 8292 rajastaram.org ~151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १२ थरी प्रज्ञापनायाः मल- य.वृत्ती. प्रत सूत्रांक रपद ॥२७॥ [१७८] दीप अनुक्रम [४०२] एवं कार्मणशरीराण्यपि बद्धानि मुक्तानि च भावनीयानि, तैजसैः सह समानसङ्ख्यत्वात् । उक्तान्यौधिकानि पञ्चापि शरीराणि, सम्प्रति नैरयिकादिविशेषणविशेपितानि चिन्त्यन्तेनेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पं० १, गो! दुविहा पं०,०-बद्धेल्लमा य मुफेल्लगा य, तत्थ गंजे ते बद्धेल्लगा ते णं णत्थि, तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते णं अणंता जहा ओरालियमुकेल्लगा तहा भाणियचा | नेरइयाणं भंते ! केवइया वेउबियसरीरा पं०१, गो. दु०, तं०--बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणिहिं अबहीरंति कालतो, खेचतो असंखिज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजहभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभमूई अंगुलपढमवग्गमूलं वितीयवग्गमूलपडप्पण्णं अहवर्ण अंगुलवितीयवग्गमूलघणप्पमाणमेचाओ सेढीतो, तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते गं जहा ओरालियस्स मुक्केलगातहा भाणियचा । नेरइयाणं भंते ! केवइआ आहारगसरीरा पं०१, गो. दु० त०-बद्धे० मुक्के, एवं जहा ओरालिए बद्धेल्लगा मुकेल्लया य भणिया तहेव आहारगावि भाणियबा, तेयाकम्मगाई जहा एएसिं चेव बेउवियाई (सूत्र १७८)। 'नेरइयाणं भंते !' इत्यादि, नैरयिकाणां बद्धान्यौदारिकशरीराणि न सन्ति, भवप्रत्ययतस्तेषामौदारिकशरीरास- म्भवात् , मुक्तान्यौधिकमुक्तौदारिकशरीरवत्, वैक्रियाणि बद्धानि यावन्तो नैरयिकास्तावत्प्रमाणानि, तानि चासययानि, तदेवासङ्ख्येयत्वं कालक्षेत्राभ्यां प्ररूपयति-'असंखेजाहि' इत्यादि, कालतः परिमाणं प्रतिसमयमेकैकश २७en ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] रीरापहारे सामस्त्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, किमुक्तं भवति ?-असङ्ख्येयासूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि, क्षेत्रतोऽसलबेयाः श्रेणयः, असलयेयासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावप्रमाणानीति भावः, अथ प्रतरेऽपि सकले असङ्ख्येयाः श्रेणयो भवन्ति प्रतरस्यार्द्धभागे त्रिभागादौ च ततः कियसङ्ख्याकास्ताः श्रेणय इलाशङ्कायां विशेषनिर्धारणार्थमाह-प्रतरस्थासङ्ख्येयभागः, किमुक्तं भवति -प्रतरस्यासयेयतमे भागे यावत्यः श्रेणयस्तावत्यः परिगृह्यन्ते, इदमन्यद्विशेषतरपरिमाणं-'तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई' इत्यादि, तासां श्रेणीनां विष्कम्भतो-विस्तारमधिकृत्य सूचिः-एकप्रादेशिकी श्रेणिरङ्गुलप्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलगुणितं, ॥ इयमत्र भावना-इह प्रज्ञापकेन घनीकृतः सप्तरज्जुप्रमाणो लोकः पट्टिकादौ स्थापनीयः, श्रेणिश्च रेखाकारेण दर्श|नीया, दर्शयित्वा चैवं प्रमाण वक्तव्य-अलप्रमाणमात्रस्य प्रदेशस्य क्षेत्रस्य यावान् प्रदेशराशिस्तस्यासोयानि वर्गमूलानि भवन्ति, तद्यथा-प्रथम वर्गमूलं तस्यापि यद्वर्गमूलं तद् द्वितीयं वर्गमूलं तस्यापि यद् वर्गमूलं तत् तृतीयं वर्गमूलं एवमसङ्ख्येयानि वर्गमूलानि भवन्ति, तत्र प्रथमं यद्वर्गमूलं तद् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुण्यते, गुणिते च सति यावन्तः प्रदेशा भवन्ति तावत्प्रदेशात्मिका सूचिर्बुद्धया क्रियते, कृत्वा च विष्कम्भतो दक्षिणोत्तरायततया स्थाप-18M नीया, तया च स्थाप्यमानया यावत्यः श्रेणयः स्पृश्यन्ते तावत्यः परिगृखन्ते, तत्रेदं निदर्शनम्-अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिस्तत्त्वतोऽसङ्ख्यातोऽप्यसत्कल्पनया पट्रपञ्चाशदधिके द्वे शते कल्प्येते, तयोः प्रथम वर्गमूलं षोडश द्वितीयं दीप अनुक्रम [४०२] ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना या: मलयवृत्ती. ।।२७५॥ [१७८] दीप अनुक्रम [४०२] PASCH चत्वारस्तृतीयं द्वौ, तत्र द्वितीयेन वर्गमूलेन चतुष्कलक्षणेन प्रथम वर्गमूलं पोडशलक्षणं गुण्यते जाताः चतुःषष्टिः, शरीएतावत्यः श्रेणयः परिगृह्यन्ते, अमुमेवार्थ प्रकारान्तरेण कथयति-'अहवण'मित्यादि अथवेति प्रकारान्तरे णमितिरपदं वाक्यालङ्कारे अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेर्द्वितीयस्य वर्गमूलस्थासत्कल्पनया चतुष्कलक्षणस्य यो घनस्तावत्प्रमाणाः, इह यस्य राशेयों वर्गः स तेन राशिना गुण्यते ततो घनो भवति, यथा द्विकस्याष्टी, तथाहि-द्विकस्य वर्गश्चत्वारस्ते विकेन गुण्यन्ते जाता अष्टाविति, एवमिहापि चतुष्कस्य वर्गः षोडश ते चतुष्केन गुण्यन्ते ततश्चतुष्कस्य घनो भवति, IS तत्रापि सैव चतुःषष्टिरिति, प्रकारद्वयेऽप्यर्थाभेदः, इहायं गणितधर्मो यहु स्तोकेन गुण्यते, ततः सूत्रकृता प्रकारद्वयमेवोपदार्शतं, अन्यथा तृतीयोऽपि प्रकारोऽस्ति 'अंगुलविइयवग्गमूलं पढमवग्गमूलपडुप्पण्ण'मिति अन्ये त्वभिदधति-अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः खप्रथमवर्गमूलेन गुणने यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणया सूच्या यावत्यः स्पृष्टाः श्रेणयस्तापतीषु श्रेणिपु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि नैरयिकाणां बद्धानि क्रियशरीराणीति, मुक्तान्यौदारिकवत् । आहारकाणि बद्धानि न सन्ति, तेषां तलुध्यसम्भवात् । मुक्तानि पूर्ववत्, तैजसकामणानि बद्धानि वैक्रियवत् , मुक्तानि पूर्ववत् । ||२७५॥ असुरकुमाराणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पं० १, गो० ! जहा नेरइयाणं ओरालियसरीरा भणिता तहेच एतेसि भाणितहा, असुरकुमाराणं भंते ! केवइया वेउवियसरीरा पं०१, गो०! दुविहा पं०, तं०---बट्टेल्लगा य मुकेल्लगा य, तत्थ णं ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१७९ -१८०...] दीप अनुक्रम [ ४०३ -४०४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], ----- - उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], -------- मूलं [१७९-१८०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Eucation International जे ते बलगा ते णं असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो खेचतो असंखेज्जाओ सेढीतो • पयरस्स असंखेज्जतिभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपटमबम्गमूलस्स संखेजतिभागो, तत्थ णं जे ते मुकेलगा ते णं जहा ओरालियस्स मुकेलगा तहा भाणियचा, आहारसरीरगा जहा एतेसिं चेव ओरालिया सहेव दुबिहा भाणियचा, तेयाकम्मगसरीरा दुबिहावि जहा एतेसिं चैव विउडिया, एवं जाव थणियकुमारा ( सूत्रं १७९) पुढषिकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरमा पं० १, गो० ! दुविहा, पं० तं० बदेलगा व मुकेलगाय, तत्थ णं जे ते लगा ते णं असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेचतो असंखेजा लोगा, तस्थ णं मुलगा ते अनंता अनंताहिं उस्सप्पिणिओस्सप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेचतो अनंता लोगा, अभवसि - जिहिंतो अनंतगुणा सिद्धाणं अनंतभागी, पुढविकाइयाणं भंते! केवतिया वेडवियसरीरगा पण्णत्ता, गो० ! दु० पं०, ० - बद्धे० मु०, तत्थ णं जे ते बद्धेलगा ते णं णत्थि, सत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते णं जहा एएसिं चैव ओरालिया तब भाणिया, एवं आहारगसरीरावि, तेथाकम्मगा जहा एएसिं चैव ओरालिया, एवं आउकाइयतेउकाइयादि, बाउकाइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पं० १, गो० ! दु० पं० तं० - बद्वे० मुके०, दुविहावि जहा पुढविकाइयाणं ओरालिया, बेविया पुच्छा, गो० ! दु० सं० – बलगा व मुकेलगाय, तत्थ णं जे ते बलगा ते णं असंखेज्जा सभए समय अबहीरमाणा २ पलितोबमस्स असंखेज्जइभागमेचेणं कालेणं अवहीरंति नो वेव णं अवहिया सिया, मुलगा जहा पुढविकाइयाणं, आहारयतेयाकम्मा जहा बुढवीकाइयाणं, वणण्फइकाइयाणं जहा पुढविकाइयाणं णवरं तेयाकम्मगा जहा For Peralata Use Only ~ 155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -, ------------- मूलं [१७९-१८०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. १२ शरीरपदं [१७९ ॥२७६॥ -१८०...] ओहिया तेयाकम्मगा। बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालिया सरीरगा पं० १, गो०! दु० त०-बद्धे० मुके०, तत्व णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरति कालतो खेत्ततो असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, वासिणं सेढिणं विक्खंभमुई असंखेजाओ जोयणकोडाकोडिओ असंखेजाई सेढिवग्गमूलाई । असुरकुमाराणामौदारिकशरीराणि नैरयिकवत् , वैक्रियाणि बद्धान्यसङ्खयेयानि, तदेवासङ्ख्येयत्वं कालक्षेत्राभ्यां | प्ररूपयति, तत्र कालसूत्रं प्राग्वत् , क्षेत्रतोऽसङ्ख्याः श्रेणयः, असङ्खयेयासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशातावत्प्रमा-18 णानीत्यर्थः, ताश्च श्रेणयः प्रतरस्थासक्यो भागः, प्रतरासङ्ख्ययभागप्रमिता इत्यर्थः, तत्र नारकचिन्तायामपि प्रतरासङ्खयेयभागप्रमिता उक्ताः, ततो विशेषतरं परिमाणमाह-'तासि ण'मित्यादि, तासां श्रेणीनां परिमाणाय या विष्कम्भसूचिः सा अङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनः प्रथमवर्गमूलस्य सहयेयो भागः, किमुक्तं भवति -अङ्गु-12 लमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेरसत्कल्पनया षट्पञ्चादशदधिकशतदयप्रमाणस्य यत्प्रथमवर्गमूलं षोडशलक्षणं तस्य सक्वेयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशा असत्कल्पनया पञ्च पड़ बा तावत्प्रदेशात्मिका श्रेणिः परिमाणाय विष्कम्भसूचिरवसा-11 तच्या, एवं च नैरयिकापेक्षयाऽमीषां विष्कम्भसूचिरसङ्ख्यगुणहीना, तथाहि-नैरयिकाणां श्रेणिपरिमाणाय विष्कम्भसूचिरगुलप्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नं यावद् भवति तावत्प्रदेशात्मिका द्वितीयं च वर्गमूलं तत्त्वतो|ऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मकं ततोऽसञ्जयगुणप्रथमवर्गमूलप्रदेशात्मिका नैरयिकाणां च सूचिरमीषा त्वकुलप्रथमवर्गमूलसवे दीप अनुक्रम [४०३-४०४] ॥२७॥ ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७९-१८०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९-१८०...] यभागप्रदेशात्मिकेति, युक्तं चैतत् , यस्मान्महादण्डके सर्वेऽपि भवनपतयो रवप्रभानैरयिकेभ्योऽप्यसयेय गुणहीना | उक्तास्ततः सर्वनैरयिकापेक्षया सुतरामसङ्ख्येयगुणहीना भवन्ति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, आहारकाणि नैरपिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवैक्रियवत् मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, यथा चासुरकुमाराणामुक्तं तथा शेषाणामपि भवनपतीनां वाच्यं, यावत्स्तनितकुमाराणां । पृथिव्यप्तेजःसूत्रेषु बद्धान्यौदारिकशरीराणि असह्मवेयानि, तत्रापि कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्त्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतः परिमाणचिन्तायामसङ्ख्येयालोका:-आत्मीयावगाहनाभिरसङ्ख्येया लोका व्याप्यन्ते, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, वातकायस्याप्यौदारिकशरीराणि पृथिव्यादिवत्, वैक्रियाणि बद्धान्य|सङ्ख्ययानि, तानि च प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे पल्योपमासङ्ख्येयभागेन निःशेषतोऽपहियन्ते, किमुक्तं भवति ?पल्योपमासङ्ख्येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति न पुनरभ्यधिकानि स्युः, तथाहि-वायुकायिकाश्चतुर्विधाः, तद्यथा-सूक्ष्मा बादराश्च, एकैके द्विधा-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, तत्र बादरपर्याप्तव्यतिरिक्ताः शेषाखयोऽपि प्रत्येकमसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, ये तु वादरपर्याप्तास्ते प्रतरासङ्ख्येयभागप्रमाणाः, तत्र त्रयाणां राशीनां वैक्रियलब्धिव नास्ति, बादरपर्याप्तानामपि सङ्ख्येयभागमात्राणां लब्धिः न शेषाणां, आह च चूर्णिकृत्-"तिण्हं ताव रासीणं वेषियलद्धी चेव नस्थि, वायरपजत्ताणंपि संखेजहभागमेत्ताणं लद्धी अत्थि"ति, ततः पल्योपमासमवेयभागसमयप्र-1 दीप अनुक्रम [४०३-४०४] ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१७९ -१८०...] दीप अनुक्रम [४०३ -४०४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], ----- - उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], -------- मूलं [१७९-१८०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२७७॥ माणा एव पृच्छासमये वायवो वैक्रियवर्त्तिनोऽवाप्यन्ते नाधिका इति, इह केचिदाचक्षते ---सर्वे वायवो वैक्रियवर्त्तिन एव, अवैक्रियाणां चेष्टाया एवासम्भवात्, तदसमीचीनं, वस्तुगतेरपरिज्ञानात्, वायवो हि स्वभावाचलास्ततोवैक्रिया अपि ते वान्ति इति प्रतिपत्तव्यं, वाताद्वायुरिति व्युत्पत्तेः, आह च चूर्णिकृत् - "जेण ससु चैव लोगागासेसु चला वायवो वायंति तम्हा अवेउधियावि वाया वायंतीति चित्तव”मिति, मुक्तानि वैक्रियाण्यौधिकमुक्तवत्, तेजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् मुक्तान्यधिकमुक्तवत्, मनस्पतिकायिक चिन्तायामौदारिकाणि पृथिष्यादिवत्, तैजसकार्मणान्यौधिक तैजस कार्मणयत् । द्वीन्द्रियसूत्रे बद्धान्यौदारिकशरीराणि असङ्ख्येयानि ततः कालतः परिमाणचिन्तायामसङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते – असङ्ख्यातासूत्सपिण्यवसर्पिणीषु यायन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति भावः, क्षेत्रतोऽसङ्गेयाः श्रेणयोऽसङ्ख्यातासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः, तासां श्रेणीनां परिमाण विशेष निर्द्धारणार्थमाह- प्रतरासङ्ख्येयभागः प्रतरस्यासङ्ख्येय भागप्रमिता असलेया श्रेणयः परिगृयन्ते इति भावः । प्रतरासङ्ख्येयभागो नैरयिकभवनपतीनामपि प्रतिपादितस्ततो विशेषतरपरिमाणनिरूपणार्थं सूचीमानमाह - 'तासि णं सेढीण' मित्यादि, तासां श्रेणीनां परिमाणावधारणाय या विष्कम्भसूची सा असल्या योजन कोटी कोट्यः अस येययोजनकोटी कोटिप्रमाणा इत्यर्थः, अथवेदमन्यद्विशेषतः परिमाणं - 'असंखेज्जाएं सेढिवग्गमूलाई' इति, एकस्याः परिपूर्णायाः श्रेणेर्यः प्रदेशराशिस्तस्य प्रथमं वर्गमूलं द्वितीयं तृतीयं च वर्गमूलं यावदसत्येयतमं Education International For Parata Use Only ~158~ १२ शरीरपदं ॥२७७| war Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१७९-१८०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९-१८०...] 9999999999 वर्गमूलं एतानि सर्वाण्यप्येकत्र सङ्कल्प्यन्ते, तेषु च सङ्कल्पितेषु यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रदेशात्मिका विष्कम्भसू-18 चिरवसेया, अत्र निदर्शनं-श्रेणी किल प्रदेशा असङ्ख्याता अप्यसत्कल्पनया पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षटत्रिंशदधिकानि ६५५३६, तेषां प्रथम वर्गमूलं द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके २५६ द्वितीयं षोडश १६ तृतीयं चत्वारः४ चतुर्थ दौ २, एतेषां च सङ्कलने जाते द्वे शते अष्टसप्तत्यधिके २७८, एतावता किलासत्कल्पनया प्रदेशानां सूचिरिति, अर्थते द्वीन्द्रियाः किंप्रमाणाभिरवगाहनाभिरास्तीर्यमाणाः कियता कालेन सकलं प्रतरमापूरयन्ति ?, उच्यते, अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणाभिरवगाहनाभिः प्रत्यावलिकाऽसङ्ख्येयभागमेकैकावगाहनारचनेनासङ्ख्ययाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरापूयन्ते, इयमत्र भावना-एकैकस्मिन्नावलिकायाः असङ्ख्येयतमे भागे एकैका अङ्गुलासङ्ख्येयप्रमाणा अवगाहना रयते, 18 ततोऽसद्धयेयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सकलमपि प्रतरं द्वीन्द्रियशरीरैरापूर्यते, एतदेवापहारद्वारेण सूत्रकृदाहबेइंदियाण ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लगेहिं पयरो अवहीरति, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालतो, खेत्ततो अंगुलपयरस्स आवलियाते य असंखेजतिभागपलिभागेणं, तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते अहा ओहिया मोरालियमुकेल्लगा, वेउविया आहारगा य बदिल्लगा पत्थि, मुकिल्लगा जहा ओहिया ओरालियमुकेल्लगा, तेयाकम्मगा जहा एतेसिं चेव ओहिया ओरालिया, एवं जाव चरिंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव, नवरं वेउवियसरीरएसु इमो विसेसो पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवड्या बेउवियसरीरया पं०, गो०! दु०५०-बद्धे मुके०, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं दीप अनुक्रम [४०३-४०४] ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं -1, ------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १२ शरीरपदं प्रत सूत्रांक ॥२७॥ [...१८०] असंखिजा, जहा असुरकुमाराणं, णवर तासि णं सेढीणं विक्खंभमई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेजहभागो, मुकेल्लगा तहेव । मणुस्साणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरगा पं०१, गो०! दु० त०-बदेल्लगा य मुके०, तत्थ णं जे ते बद्धेलगा ते णं सिय संखिजा सिय असंखिज्जा जहण्णपदे संखेजा संखेजाओ कोडाकोडीओ तिजमलपयस्स उवरि चउजमलपयस्स हिडा, अहब गं छटो वग्गो अहव गं छण्णउईछेयणगदाइरासी, उक्कोसपए असंखिजा, असंखिजाहिँ उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरति कालतो खेचओ रुवपक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरइ, तीसे सेढीए आकासखेत्तेहिं अबहारो मग्गिज्जइ असंखेा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि कालतो खेत्ततो अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपटुप्पणं, तस्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते जहा ओरालिया ओहिया मुकेल्लगा, वेउबियाणं भंते ! पुच्छा, गो०। दु०, तं०-बद्धे० मुके०, तत्थ णं जे ते बद्धेलगा ते ण संखिजा, समए २ अबहीरमाणे २ संखेजेणं कालेणं अवहीरति, नो चेव णं अवहीरिया सिया, तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते गं जहा ओरालिया ओहिया, आहारगसरीरा जहा ओहिया, तेयाकम्मगा जहा एतेसिं चेव ओरालिया । वाणमंतराणं जहा नेरइयाणं ओरालिया आहारगा य, वेउवियसरीरया जहा नेरइयाणं, नवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभमई संखेजजोअणसयवग्गपलिभागो पयरस्स, मुकिल्लया जहा ओरालिया, आहारगसरीरा जहा असुरकुमाराणं तेयाकम्मया जहा एवेसिणं चेव वेउविता । वासिणं सेढीणं विक्संभवई विछप्प-गुलसयवग्मपलिभागो पयरस्स, वेमाणियाणं एवं चेव, नवरं तासिणं सेढीण विक्खंभमूई अंगुलवितीयवम्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पन्न अहवणं अंगुलतइयवग्गमूलधणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ, सेसं तं चेव ॥ (सूत्र १८०) सरीरपर्य समत्तं ।। १२॥ ecemerceneselecteGE दीप अनुक्रम [४०४] । ॥२७८॥ ~160~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [...१८०] दीप अनुक्रम [४०४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [ - ], , दारं [-1], [------------- • मूलं [... १८० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 'बेइंदियाण' मित्यादि, द्वीन्द्रियाणा सम्बन्धिभिरौदारिकशरीरैर्वद्धैः प्रतरमसङ्ख्ये याभिरुत्सर्पिण्यव सर्पिणीभिरपहियते, अत्र प्रतरमिति क्षेत्रतः परिमाणं उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरिति कालतः, किंप्रमाणेन पुनः क्षेत्रेण कालेन वा अपहरणमत आह- 'अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभाग पलिभागेणं'ति, अङ्गुलमात्रस्य प्रतरस्य – एकप्रादेशिक श्रेणिरूपस्य असङ्ख्य भाग प्रतिभागप्रमाणेन खण्डेन, इदं क्षेत्रविषयं परिमाणं, कालपरिमाणमावलिकाया। असङ्ख्य भागप्रतिभागेना संख्येयतमेन प्रतिभागेन, किमुक्तं भवति ?- एकेन द्वीन्द्रियेणाङ्गुला संख्येय भागप्रमाणं खण्डमावलिकाया असङ्ख्येयतमेन भागेनापहियते, द्वितीयेनापि तावत्प्रमाणं खण्डं तावता कालेन, एवमपहियमाणं प्रतरं द्वीन्द्रियैः सर्वैरसङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यव सर्पिणीभिः सकलमपहियते इति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, तेजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत्, वैक्रियाणि पुनर्वद्धानि तेषां न सन्ति, मुक्तान्यधिकमुक्तवत्, एवं त्रिचतुरिन्द्रियाणामपि । तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां वद्धानि मुक्तानि चौदारिकाणि द्वीन्द्रियवत्, वैक्रियाणि बद्धानि असङ्ख्येयानि, तत्र कालतः परिमाणचिन्तायामसङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यव सर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयासु श्रेणिषु यावन्तः आकाशप्रदे शास्तावत्प्रमाणानि, तासां च श्रेणीनां परिमाणं प्रतरस्यासङ्ख्येयो भागः, तथा चाह- 'जहा असुरकुमाराण' मिति, यथा असुरकुमाराणां तथा वक्तव्यं, नवरं विष्कम्भसूचिपरिमाणचिन्तायां तत्राङ्गुलप्रमाणवर्गमूलस्य सङ्ख्येयो भाग उक्त इह त्वसङ्ख्येयो भागो वक्तव्यः, किमुक्तं भवति ? - अङ्गुलमात्र क्षेत्र प्रदेशराशेः यत्प्रथमं वर्गमूलं तस्यासङ्ख्ये यतमे For Pasta Use Only ~ 161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं -1, ------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १२ शरी प्रत याः मल- य०वृत्ती. सुत्रांक [...१८० ॥२७९॥ दीप अनुक्रम [४०४] भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रदेशात्मिका सूचिः परिगृवते, तावत्या च सूच्या याः श्रेणयः स्पृष्टास्तासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां बद्धानि वैक्रियशरीराणि, उक्तं च-"अङ्गुलमूलासंखेयभागप्पमियाउ होंति सेढीओ । उत्तरविउधियाणं तिरियाणं सन्निपजाणं ॥१॥" मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् , मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , मनुष्याणां बद्धान्यौदारिकशरीराणि स्यात्-कदाचित सङ्ख्येयानि कदाचिदसोयानि, कोऽत्राभिप्रायः इति चेत् ।, उच्यते, इह द्वये मनुष्या-गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सम्मूछिमाश्च, तत्र गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सदावस्थायिनो, न स कश्चित्कालोऽस्ति यो गर्भव्युत्क्रान्तिकममुण्यरहितो भवति, सम्मूछिमाश्च कदाचिद्विद्यन्ते कदाचित्सर्वथा तेषामभावो भवति, तेषामुत्कर्षतोऽन्तर्मुहर्त्तायुष्कत्वात् , उत्प-18 स्यन्तरस्य चोत्कर्षतश्चतुर्विंशतिमुहूर्तप्रमाणत्वात् , ततो यदा सर्वथा सम्मूछिममनुष्या न विद्यन्ते किन्तु केपला गर्भव्युत्क्रान्तिका एव तिष्ठन्ति तदा स्यात् सङ्ख्ययाः, सङ्ख्येयानामेव गर्भव्युत्क्रान्तिकानां भावात् , महाशरीरत्वे प्रत्येकशरीरत्वे च सति परिमितक्षेत्रवर्चित्वात् , यदा तु सम्मूञ्छिमास्तदा असङ्येयाः, सम्मूछिमानामुत्कर्षतः श्रेण्यसङ्ग्येयभागवर्जिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तथा चाह-जहन्नपदे संखेजा' इत्यादि, जघन्यपदं नाम यत्र सर्वस्तोकाः मनुष्याः प्राप्यन्ते, आह-किमत्र सम्मूञ्छिमाणां ग्रहणमुत गर्भव्युत्कान्तिकानां ?, उच्यते, गर्भव्युत्क्रा-18 न्तिकानां, तेषामेव सदाऽवस्थायितया सम्मूछिमविरहे सर्वस्तोतया प्राप्यमाणत्वात् , उत्कृष्टपदे तूमयेषामपि ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: -, ------------- दारं -,------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [...१८० ग्रहणं, यदाह मूलटीकाकार:-"सेतराणां ग्रहणमुत्कृष्टपदे, जघन्यपदे गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव केवलानां ग्रहण"मिति, अस्मिन् जघन्यपदे सोया मनुष्याः, तत्र सङ्ख्येयकं सङ्गयेयभेदभिन्नमिति न ज्ञायते कियन्तस्ते इति विशेष-8 सयां निर्धारयति-सङ्ख्येयाः कोटीकोव्यः, अथवा इदमन्यत् विशेषतरं परिमाणं-'तिजमलपयस्स उवरि चाउज-18 मलपयस्स हेटा' इति, इह मनुष्यसङ्ख्याप्रतिपादिकान्येकोनत्रिंशदकखानानि प्रक्ष्यमाणानि, तत्र समयपरिभाषया | अष्टानां अष्टानामङ्कस्थानानां यमलपदमिति संज्ञा, चतुर्षिशत्या चाङ्कस्थानः त्रीणि यमलपदानि लब्धानि, उपरि पञ्चाङ्कस्थानानि तिष्ठन्ति, अथ च यमलपदमष्टभिरङ्कस्थानस्ततश्चतुर्थ यमलपदं न प्राप्यते सत उक्त प्रयाणां यमलपदानामुपरि-पञ्चभिरङ्कस्थानैर्वर्द्धमानत्वात् चतुर्धस्य च यमलपदस्थावस्तात्-त्रिभिरकस्थानहीनत्वात् , अथवा द्वी द्वौ वर्गों समुदितौ एकं यमलं चत्वारो वर्गाः समुदिता द्वे यमले षड् वर्गाः समुदितास्त्रीणि यमलपदानि अष्टौ वर्गाः समुदिताश्चत्वारि यमलपदानि, तत्र यस्मात् षण्णां वर्गाणामुपरि वर्तन्ते सप्तमस्य च वर्गस्याधस्तात् तत उक्तत्रियमलपदस्योपरि चतुर्यमलपदस्याधस्तादिति, त्रियमलपदस्खेति-त्रितवानां यमलपदानां समाहारस्त्रियमलपदं| तस्य, तथा चतुर्णा यमलपदानां समाहारश्चतुर्यमलपदं तस्य, सम्प्रति स्पष्टतरं सङ्ख्यानमुपदर्शयति-'अहव णं छहवग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो' इति अथवेति पक्षान्तरे णमिति वाक्यालङ्कारे षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गेण प्रत्युत्पन्नो-गुणितः सन् यावान् भवति तावत्प्रमाणा जघन्यपदे मनुष्याः, तत्र एकस्य वर्ग एक एव स च वृद्धिंन गत इति वर्गों न दीप अनुक्रम [४०४] A asurary.com ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं -1, ------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. प्रत esea सूत्रांक [...१८०] ॥२८ ॥ दीप अनुक्रम [४०४] गण्यते, द्वयोर्वर्गश्चत्वारः एष प्रथमो वर्गः४, चतुगी वर्गः षोडश एष द्वितीयो वर्गः १६, षोडशानां वर्ग द्वे शते १२ शरी पट्पञ्चाशदधिके एप तृतीयो वर्गः २५६, द्वयोः शतयोः षट्रपञ्चाशदधिकयोर्वर्गः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानिरपदं शपत्रिंशदधिकानि, एष चतुर्थी वर्गः ६५५३६, एतस्य वर्गश्चत्वारि कोटिशतानि एकोनत्रिंशत्कोट्यः एकोनपञ्चा-13 शलक्षाः सप्तपष्टिः सहस्राणि द्वे शते षण्णवत्यधिके एष पञ्चमो वर्गः ४२९४९६७२९६, उक्तं च-"चत्तारि य कोडिसया अउणत्तीसं च होन्ति कोडीओ। अउणावन्नं लक्खा सत्तट्ठी चेव य सहस्सा ॥१॥दो य सया छण्णा-14 उया पंचमवग्गो समासओ होइ । एयस्स कतो वग्गो छट्ठो जो होइ तं वोच्छं ॥२॥” एतस्य पञ्चमस्य वर्गस्य यो वर्गः स पष्ठो वर्गः, तस्य परिमाणमेकं कोटीकोटीशतसहस्रं चतुरशीतिः कोटीकोटीसहस्राणि चत्वारि सप्तषष्टय|धिकानि कोटीकोटीशतानि चतुश्चत्वारिंशत्कोटिलक्षाणि ससकोटीसहस्राणि त्रीणि सप्तत्यधिकानि कोटिशतानि पञ्चनवतिलेक्षाः एकपञ्चाशत्सहस्राणि पद शतानि पोडशोत्तराणि, १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ एप पाठो वर्गः, उक्तं च-"लक्खं कोडाकोडी चउरासीइ भवे सहस्साई। चत्तारि य सत्तट्ठा होंति सया कोडीकोडीणं ॥२॥ चउयालं लक्खाई कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा । तिणि सया सत्तयरी कोडीणं हुंति नायवा ॥२॥ पंचाणउई | |२८०॥ लक्खा एकावन्नं भवे सहस्साई । छसोलसुत्तरसया एसो छट्ठो हवइ वग्गो ॥३॥” इति, एष षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गेण गुण्यते, गुणिते च सति यावान् राशिर्भवति तावत्प्रमाणा जघन्यपदे मनुष्याः, ते च एतावन्तो भवन्ति, ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं -1, ------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [...१८० दीप अनुक्रम [४०४] || ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ एतान्येकोनत्रिंशदङ्कस्थानानि, एतानि च कोटीकोव्यादिद्वारेण | कथमपि अभिधातुं न शक्यन्ते ततः पर्यन्तवर्तिनोऽङ्कस्थानादारभ्य अङ्कस्थानसहमात्र पूर्वपुरुषप्रणीतेन गाथाद्वयेASI नाभिधीयते-'छत्तिपिण तिण्णि सुण्णं पंचेव य नव य तिण्णि चत्तारि । पंचेव तिण्णि नव पंच सत्त तिण्णेव (तिण्णि) |ति चउ छटो ॥१॥ दो चउ इको पंच दो छक्कगेकग(गं च )छेव । दो दो णव सत्तेव य ठाणाई उवरि हुंताई ॥२॥" (छत्तिनि तिन्नि सुन्नं पंचेच य नय य तिन्नि चत्तारि । पंचेव तिण्णि नव पश्च सत्त तिन्नेव तिन्नेव ॥ १॥ चउ छद्दो | चउ एको पण छोकगो य अटेव । दो दो नव सत्तेव य अंकहाणा पराहुंता ॥२॥ इत्यनुयोगद्वारवृत्ती) अथवाऽयमङ्कस्थानप्रथमाक्षरसङ्गहः 'छत्तितिसु पण नव ति च प ति ण प स ति ति चउ छंदो। च एप दो। छ ए अबे वेण स पढमक्खरसन्तियट्टाणा ॥१॥ एतेषामेव एकोनत्रिंशदङ्कस्थानानां पूर्वपुरुषैः पूर्वानः परिस-8 बानं कृतं तदुपदर्शयति, तत्र चतुरशीतिर्लक्षाणि पूर्वाङ्ग चतुरशीतिर्लक्षाश्चतुरशीतिर्लक्षैर्गुण्यन्ते ततः पूर्व भवति, तस्य परिमाणं-ससतिः कोटिलक्षाणि पटपञ्चाशत्कोटिसहस्राणि ७०५६००००००००००, एतेन भागो हियते | तत इदमागतं,-एकादश पूर्वकोटीकोट्यो द्वाविंशतिः पूर्वकोटीलक्षाणि चतुरशीतिः पूर्वकोटीसहस्राणि अष्टादशोत्त राणि पूर्वकोटीशतानि एकाशीतिः पूर्वलक्षाणि पञ्चनवतिः पूर्वसहस्राणि त्रीणि षट्पञ्चाशदधिकानि पूर्वशतानि, 18 अत ऊ पूर्वैर्भागो न लभ्यते ततः पूर्वाङ्गर्भागहरणं, तत्रेदमागतं-एकविंशतिः पूर्वाङ्गलक्षाणि सप्ततिः पूर्वाङ्गस ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं -1, ------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मल प्रत यवृत्ती. सुत्रांक [...१८० ॥२८॥ दीप अनुक्रम [४०४] हस्राणि षट् एकोनषश्यधिकानि पूर्वाङ्गशतानि, तत ऊ च इदमन्यत् उद्धरितमवतिष्ठते-त्र्यशीतिर्लक्षाणि पञ्चा- १२ शरीशत् सहस्राणि त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि मनुष्याणामिति ११२२८४११८८१९५३५६ ॥ २१७०६५९ । तथा 8 रपदं |च पूर्वाचार्यप्रणीता अत्र गाथा-"मणुयाण जहन्नपदे एक्कारस पुवकोडिकोडीउ । बावीस कोडिलक्खा कोडिस-18 हस्साई नुलसीई ॥१॥ अटेव य कोडिसया पुषाण दसुत्तरा तओ होति । एकासीई लक्खा पंचाणउई सह-18 स्साई ॥२॥ छप्पण्णा तिन्नि सया, पुवाणं पुछवणिया अण्णे । एचो पुवंगाई इमाई अहियाई अण्णाई ॥३॥ लक्खाई एगवीसं पुर्वगाण सयरी सहस्सा य । छच्चेवेगूणहा पुधंगाणं सया होति ॥४॥ तेसीइ सयसहस्सा पण्णासं खलु भवे सहस्साई । तिणि सया छत्तीसा, एवइया अविगला मणुया ॥५॥” इति, इमामेव सङ्ख्या विशेषोपलम्भनिमित्तं प्रकारान्तरेणाह-अहव णं छण्णउईछेयणगदायी रासी' इति, 'अहवणे'ति प्राग्वत्, पण्णवतिच्छेदनकानि यो राशिर्ददाति स षण्णवतिछेदनकदायी राशिः, किमुक्तं भवति ?-यो राशिरर्द्धनार्दैन छिद्यमानः पण्णवतिं वारान् छेदं सहते पर्यन्ते च सकलमेकं रूपं पर्यवसितं भवति स षण्णवतिछेदनकदायी राशिरिति, का पुनरेवंविध इति चेत् ?, उच्यते, एष एव षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गगुणितः, कोऽत्र प्रत्यय इति चेत्, उच्यते, वह ॥२८१॥ प्रथमवर्गश्छिद्यमानो वे छेदनके ददाति, तद्यथा-प्रथमच्छेदनकं द्वौ द्वितीयमेकमिति, द्वितीयो वर्गश्चत्वारि छेदन-1 कानि, तत्र प्रथममष्टी द्वितीयं चत्वारस्तृतीयं द्वौ चतुर्थमेक इति, एवं तृतीयवर्गोऽष्टौ छेदनकानि प्रयच्छति, elsecse ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [...१८०] दीप अनुक्रम [४०४] - “प्रज्ञापना” - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशक: [ - ], ------------ दार [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पदं [१२], - मूलं [... १८० ] ------ चतुर्थः पोडश पञ्चमो द्वात्रिंशतं पष्ठश्चतुःषष्टिं स चैवं पञ्चमवर्गेण गुणितः षण्णवतिः, कथमेतदवसेयमिति चेतू १, उच्यते, इह यो यो वर्गो येन येन वर्गेण गुण्यते तत्र तत्र तयोर्द्वयोरपि छेदनकानि प्राप्यन्ते, यथा प्रथमवर्गेण गुणिते द्वितीयवर्गे पटू, तथाहि - द्वितीयो वर्ग: पोडशलक्षणः प्रथमवर्गेण चतुष्करूपेण गुण्यते जाता चतुःषष्टिः, तस्याः प्रथमं छेदनकं द्वात्रिंशत् द्वितीयं षोडश तृतीयमष्टौ चतुर्थ चत्वारः पञ्चमं द्वौ षष्ठं एक इति, एवमन्यत्रापि भावनीयं तत्र पञ्चमवर्गे द्वात्रिंशच्छेदनकानि षष्ठे चतुःषष्टिः, ततः पञ्चमवर्गेण षष्ठे वर्गे गुणिते षण्णवतिछेदनकानि प्राप्यन्ते, अथवा एकं रूपं स्थापयित्वा ततः षण्णवतिवारान् द्विगुणद्विगुणीक्रियते, कृतं च सत् यदि तावत्प्रमाणो राशिर्भवति ततोऽवसातव्यं एष षण्णवतिच्छेदनकदायी राशिरिति, तदेवं जघन्यपदमभिहितम्, इदानीमुत्कृष्टपदमाह – 'उक्कोसपए असंखेज्जा' इत्यादि, उत्कृष्टपदे ये मनुष्या भवन्ति ते असङ्ख्येयाः, तत्रापि कालतः परिमाणचिन्तायां प्रति समय मे कैकमनुष्यापहारे सामस्त्येनासङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतो रूपे प्रक्षिसे मनुष्यैरेका श्रेणिः परिपूर्णाऽपह्रियते, किमुक्तं भवति १ – उत्कृष्टपदे ये मनुष्यास्तेषु | मध्ये एकस्मिन्न सत्कल्पनया रूपे प्रक्षिसे सकलाऽपि श्रेणिरेकाऽपहियते, तस्याश्च श्रेणेः क्षेत्रकालाभ्यामपहारमार्गणा कालतस्तावदसङ्ख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिः क्षेत्रतोऽङ्गुलप्रथमवर्गमूलं तृतीय वर्गमूलप्रत्युत्पन्नं, किमुक्तं भव| ति १ - अङ्गुलमात्रक्षेत्र प्रदेशराशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्तस्य यत्प्रथमं वर्गमूलमसत्कल्पनया For Parts Only ------------- ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं , ------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [...१८०] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥२८॥ दीप अनुक्रम [४०४] षोडशलक्षणं ततस्तृतीयेन वर्गमूलेनासत्कल्पनया द्विकलक्षणेन गुण्यते, गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति १२ शरीअसत्कल्पनया द्वात्रिंशत् एतावत्प्रमाणः खण्डैरपहियमाणा यावत् श्रेणिनिष्ठामियर्ति तावत् मनुष्या अपि निष्ठामुपयान्ति, आह-कथमेकस्याः श्रेणेर्यथोक्तप्रमाणैः खण्डैरपहियमाणायाः असङ्ख्यया उत्सर्पिण्यवसप्पिण्यो लगन्ति ? | उच्यते, क्षेत्रस्थातिसूक्ष्मत्वात् , उक्तं च सूत्रेऽपि-"सुहेमो य होइ कालो तत्तो सुहुमयरयं हवइ खेत्तं । अंगुलसढीमत्ते उस्सप्पिणीओ असंखेज्जा ॥१॥" इति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, क्रियाणि बद्धानि सङ्खबेयानि, गर्भ-I व्युत्क्रान्तिकानामेव केषांचित् वैक्रियलब्धिसंभवात्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , आहारकाण्योषिकाहारकवत् , तेजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् , मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, व्यन्तराणामौदारिकाणि यथा नैरयिकाणां, वैकियाणि बद्धान्यसोयानि, तत्र कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमयमेकैकापहारे असोयाभिरुत्सपिण्यवसांप्पणी-1 मिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसवेयाः श्रेणयः, असङ्ख्यातासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीति भावः, ताश्च। श्रेणयः कियत्य इति चेत् १, उच्यते, प्रतरस्यासक्येयो भागः, प्रतरासययभागप्रमिता इत्यर्थः, तथा चाह-वउवि-13 यसरीरा जहा नेरइयाण'मिति, वैक्रियशरीराणि व्यन्तराणां यथा नैरयिकाणां, केवलं सून्यां विशेषः, तथा चाह-RRAI 'नवर'मित्यादि, नवरं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्वक्तव्येति शेषः, सा च सुप्रसिद्धत्वान्नोक्ता, कथं सुप्रसिद्धति १ सूक्ष्मश्च भवति कालस्ततः सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्र । अङ्गुलमात्रायां श्रेणावुत्सर्पिण्योऽसङ्खयेयाः ॥ १ ॥ ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [... १८० ] दीप अनुक्रम [४०४] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], मूलं [... १८० ] , दारं [-1], [------------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः चेत् ? उच्यते, इह महादण्ड के पञ्चेन्द्रियतिनपुंसकेभ्योऽसङ्ख्येयगुणहीना व्यन्तराः पठ्यन्ते, तत एवां विष्कम्भसूचिरपि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियविष्कम्भसूचेरसङ्ख्येयगुणहीना वक्तव्या इति, आह च मूलटीकाकारोऽपि - "जम्हा महादंडए पंचिदियतिरियनपुंसएहिंतो असंखेज्जगुणहीणा वाणमंतरा पढिजंति, तम्हा विक्खंभसूईवि तेहिंतो असंखेज्जगुणहीणा चैव भाणियचा' इति, सम्प्रति प्रतिभाग उच्यते- प्रतिभागो नाम खण्डं, 'संखेज्जजोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स' इति सत्यययोजनशतवर्गप्रमाणः प्रतिभागः प्रतरस्य पूरणे अपहरणे वा इति वाक्यशेषः, इयमत्र भावनाअसङ्ख्येययोजनशतवर्गप्रमाणे श्रेणिखण्डे यदि एकैको व्यन्तरः स्थाप्यते ततस्ते सकलमपि प्रतरमापूरयन्ति, यदिवा यद्येकैकव्यन्तरापहारे एकैकं सङ्ख्येययोजनशतवर्गप्रमाणं श्रेणिखण्डमपहियते तत एकत्र व्यन्तरा निष्ठां यान्ति परतः सकलं प्रतरमिति, मुक्तान्यधिकमुक्तवत्, आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवैक्रियवत्, मुक्तान्यधिकमुक्तवत् । ज्योतिष्काणा मौदारिकाणि नैरविकवत्, वैक्रियाणि बद्धान्यसङ्ख्ये यानि, तत्र कालतो मार्गणायां | प्रतिसमय मे कैकापहारे सामस्त्येना सङ्ख्ये या भिरुत्सर्पिण्यव सर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयाः श्रेणयः, ताच श्रेणयः प्रतरासङ्ख्येयभागमिताः, तथा चाह - 'जोइसियाणं एवं चेव' इति, नवरमित्यादिना विशेषं दर्शयति, नवरं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्वक्तव्येति शेषः, इयमपि सुप्रसिद्धत्वान्नोक्ता, कथमियं सुप्रसिद्धेति चेत् ?, उच्यते, यस्मान्महादण्डके व्यन्तरेभ्यो ज्योतिष्काः सङ्ख्येयगुणा उक्तास्तत एतेषां विष्कम्भसूचिरपि तेषां विष्कम्भसूचेः सङ्ख्ये Education International For Penal Use On ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [... १८०] दीप अनुक्रम [४०४] “प्रज्ञापना” पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-], , दारं [-1], [------------- मूलं [... १८० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२८३॥ - - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) यगुणा द्रष्टव्या, तथा चाह मूलटीकाकार:- 'जम्हा वाणमंतरेहिंतो जोइसिया संखिजगुणा पढिज्जंति, तम्हा विक्संभसूईवि तेसिं तेहिंतो संखेज्जगुणा चैव भवति' इति नवरं प्रतिभागे स्पष्टतरो विशेषस्तमेवाह - 'बिछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स' इति षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणः प्रतिभागः प्रतरस्य पूरणेऽपहरणे च, अत्रापीयं भावना - षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणे श्रेणिखण्डे यद्येकैको ज्योतिष्कोऽवस्थाप्यते ततस्ते सकलमपि प्रतरमापूरयन्ति, यदिवा यद्येकैकज्योतिष्कापहारेण एकैकं षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणं श्रेणिखण्डमपहियते तत एकत्र ज्योतिष्काः परिसमाप्तिमुपयान्ति अपरत्र सकलं प्रतरमिति, एवं च ज्योतिष्काणां व्यन्तरेभ्यः सङ्ख्येयगुणहीनः प्रतिभागः सङ्ख्येयगुणाभ्यधिका सूचिः, पञ्चसङ्ग्रहे पुनः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाण एव प्रतिभाग उक्तो नतु षट्पञ्चाशदधिकशतद्वय वर्गप्रमाणः तथा च तद्ग्रन्थः-- "छप्पन्न दोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइयं पयरं । जोइसिएहिं हीरइ" इति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि वैक्रियवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् । वैमानिकानामौदारिकाणि नैरयिकवत्, वैक्रियाणि बद्धानि असङ्ख्येयानि, तत्र कालतो मार्गणा ज्योतिष्कवत्, क्षेत्रतो मार्गणाऽसङ्ख्येयाः श्रेणयः, किमुक्तं भवति १ – असोयासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीति, तासां च श्रेणीनां परिमाणं प्रतरस्यासङ्ख्येयो भागः, प्रतरासङ्ख्येयभाग प्रमिता प्राह्मा इत्यर्थः, तत्र प्रतरासङ्ख्येयभागो नैरयिकादिमार्गणायामपि गृहीत इति विशेषतरं परिमाणं प्रतिपादयति- 'तासि ण' मित्यादि, Education internationa For Pass Use Only ~ 170~ १२ शरीरपदं ॥२८३॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१२], ------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं -1, ------------- मूलं [...१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [...१८० तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिरकुलद्वितीयवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नं, एतदुक्तं भवति-अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्य यत् द्वितीयं वर्गमूलं, असत्कल्पनया चतुष्कलक्षणं, तत्तृतीयेन वर्ग-R मूलेन, असत्कल्पनया द्विकरूपेण गुण्यते, गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति, असत्कल्पनया अष्टौ, तावत्प्रदेशात्मिकया विष्कम्भसूच्या परिमिताः श्रेणयः परिग्राह्याः, तत्रापि ता एव अष्टौ श्रेणय इति प्रकारद्वयेऽप्यर्थाभेदः, आहारकाणि नैरयिकवत्, सैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवैक्रियवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां द्वादशमं पदं समासम् ॥१२॥ अथ त्रयोदर्श प्रारभ्यते। दीप अनुक्रम [४०४] तदेवं व्याख्यातं द्वादशमं पदं, सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते, तस्स चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे औदारिकादिशरीरविभाग उक्त, तानि पुनः शरीराणि तथा परिणामे भवन्ति नान्यथा, ततः परिणामखरूपप्रतिपादनार्थमिदमारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रI कतिविधे पं भंते ! परिणामे पण्णते?, गो० ! दुविहे परिणामे पं०, तं० जीयपरिणामे य अजीवपरिणामे य (सूत्र १८१) अत्र पद (१२) "शरीर" परिसमाप्तम् अथ पद (१३) “परिणाम" आरभ्यते ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-1,------------- दारं -------------- मूलं [१८१-१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत १३ परि णामपर्द सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥२८॥ [९८१-१८२] जीवपरिणामेण भते! कति विधे पं०१, गोदस विधे पं०, त-गतिपरिणामे १ इंदियपरिणामे २ कसायपरिणामे ३ लेसापरिणामे ४ जोगपरिणामे ५ उचओगपरि० ६णाणपरि० ७ देसणपरि०८ चरित्तपरि० ९ वेदपरिणामे १०(सूत्रं १८२) | 'कइविहे णं भंते ! परिणामे पं०?' इत्यादि, कतिविधः-कतिप्रकारो, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! परिराणामः प्रज्ञसः, परिणमनं परिणामः, 'अकर्तरी ति भावे घञ्प्रत्ययः, परिणमनं च नयभेदेन विचित्र, नयाश्च नैगमा-15 दयोऽनेके, तेषां च समस्तानामपि सङ्ग्राहकी प्रवचने द्वौ नयौ, तद्यथा-द्रव्यास्तिकनयः पर्यायास्ति कनयश्च, तथा चाहुः श्रीमलवादिनः-"तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणा । दबढिओ य पजवनओ य सेसा विगप्पा । सिं ॥१॥" तत्र द्रव्यास्तिकनयमतेन परिणमनं नाम यत्कथञ्चित् सदेयोत्तरपर्यायरूपं धर्मान्तरमधिगच्छति, न च KIपूर्वपयोयस्यापि सर्वेथाऽवस्थानं नाप्येकान्तेन विनाशः, तथा चोक्तम्-"परिणामो बर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥" पर्यायास्तिकनयमतेन पुनः परिणमनं पूर्वसत्प ोयापेक्षया विनाश उत्तरेण चासता पर्यायेण प्रादुर्भावः, तथा चामुमेय नयमधिकृत्यान्यत्रोक्तं-'सत्पयोयेण विनाशः [प्रादुभावोऽसद्भावपर्ययतः। द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य ॥१॥" भगवानाह-गौतम 1 द्विविधः १ तीर्थकरवचनसामान्यविशेषप्ररूपणामूलव्याकर्तारौ । द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च शेषा भेदा अनयोः ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [४०५-४०६] ॥२८४॥ Mi 'परिणामस्य भेदा:, 'जीवपरिणामस्य दशविध-प्रकारा: ~172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८१ -१८२] दीप अनुक्रम [४०५ -४०६] ““प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) | ------------- उद्देशकः [-], -------------- - दारं [-1, मूलं [१८१-१८२] पदं [१३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education International परिणामः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— जीवपरिणामश्वाजीवपरिणामश्च तत्र जीवस्य परिणामो जीवपरिणामः, स प्रायोगिकः, अजीवस्य परिणामोऽजीवपरिणामः, स वैश्रसिकः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ, तांथ भेदान् अग्रे सूत्रकृदेव वक्ष्यति, तथा चाह - 'जीवपरिणामे णं भंते!' इत्यादि, दशविधो जीवपरिणामः, तद्यथा--गतिपरिणाम इत्यादि, तत्र गम्यते नैरयिकादिगतिकर्मोदयवशादवाप्यते इति गतिः - नैरयिकत्वादिपर्याय परिणतिः गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः १, तथा इन्दनादिन्द्रः - आत्मा ज्ञानलक्षणपरमैश्वर्ययोगात् तस्येदं, 'इन्द्रिय' मिति निपातनादिन्द्रशब्दादियप्रत्ययः, इन्द्रियाण्येव परिणाम इन्द्रियपरिणामः २, तथा कर्षन्ति - हिंसन्ति परस्परं प्राणिनोऽस्मिन्निति कषः - संसारस्तमयन्ते - अन्तर्भूतव्यर्थत्वात् गमयन्ति प्रापयन्ति ये ते कपायाः 'कर्मणोऽणि' त्यण् प्रत्ययः, कषाया एव परिणामः कषायपरिणामः ३, लेश्यादिशब्दार्थो वक्ष्यमाणः, लेश्या एव परिणामो लेश्यापरिणामः ४ योग एव परिणामो योगपरिणामः ५ उपयोग एव परिणाम उपयोगपरिणामः ६ एवं ज्ञानपरिणाम ७ दर्शनपरिणाम ८चारित्रपरिणाम ९ वेदपरिणामेष्वपि भावनीयं । सम्प्रत्यमीषां पदानामित्थं क्रमेणोपन्यासे कारणमभिधीयते तत्र | सर्वे भावास्तत्तद्भावाश्रिता गतिपरिणामं विना न प्रादुष्ष्यन्ति ततः प्रथमं गतिपरिणामः १ गतिपरिणामे च सत्यवश्यमिन्द्रियपरिणाम इति तदनन्तरमिन्द्रियपरिणाम उक्तः २ इन्द्रियपरिणामे च सति इष्टानिष्टविषयसम्बन्धाद्रागद्वेषपरिणतिरुपजायते इति तदनन्तरं कषायपरिणामः ३ कषायपरिणामश्वावश्यं लेश्यापरिणामाविनाभावी, तथाहि For Parts Only ----- ~ 173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -1, ------------- मूलं [१८१-१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९८१-१८२] प्रज्ञापना- लेश्यापरिणामः सयोगिकेवलिनमपि यावद्भवति, यतो लेझ्यानां स्थितिनिरूपणावसरे लेश्याध्ययने शुक्ललेश्याया|| १३ परि-. याः मल-18 जघन्या उत्कृष्टा च स्थितिः प्रतिपादिता-"मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुषकोडी उ । नवहिं वरिसेहिं ऊणाणामपदं यवृत्ती. नायवा सुक्कलेसाए ॥१॥” इति, सा च नववर्षोनपूर्वकोटिप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिः शुक्ललेश्यायाः सयोगिकेव लिन्युपपद्यते, नान्यत्र, कपायपरिणामस्तु सूक्ष्मसम्परायं यावद्भवति, ततः कषायपरिणामो लेश्यापरिणामाऽविना॥२८५॥ भूतो लेश्यापरिणामश्च कषायपरिणामं विनापि भवति, ततः कपायपरिणामानन्तरं लेश्यापरिणाम उक्त, नत लेश्यापरिणामानन्तरं कषायपरिणामः ४, तथा लेश्यापरिणामो. योगपरिणामात्मको 'योगपरिणामो लेश्या' इति । वचनात् , उपपादयिष्यते चायमर्थों लेश्यापदे सविस्तरमतो लेश्यापरिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः ५ संसारिणां च योगपरिणतानामुपयोगपरिणतिस्ततो योगपरिणामानन्तरमुपयोगपरिणामः ६ सति चोपयोगपरिणामे ज्ञानपरिणाम इति तदनन्तरं ज्ञानपरिणाम उक्तः ७ ज्ञानपरिणामश्च द्विधा सम्यग्ज्ञानपरिणामो मिथ्याज्ञानपरिणामध, || तौ च न सम्यक्त्वमिथ्यात्वब्यतिरेकेण भवत इति तदनन्तरं दर्शनपरिणाम उक्तः ८ सम्यग्दर्शनपरिणामे च। जीवानां जिनवचनाकर्णनतो नवनवसंवेगाविर्भावतश्चारित्रावरणकर्मक्षयोपशमतः चारित्रपरिणाम उपजायते ततो ॥ IN२८५॥ दर्शनपरिणामानन्तरं चारित्रपरिणाम उक्तः ९ चारित्रपरिणामवशाचे वेदपरिणामं प्रलय मुफ्नयन्ति महासत्त्वास्तत १ जघन्या मुहूर्तान्तरेव भवति उत्कृष्टा पूर्वकोट्येव । नवभिर्वर्यैरूना ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः (स्थितिः) ॥१॥ दीप अनुक्रम [४०५-४०६] ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [४०७] चारित्रपरिणामानन्तरं वेदपरिणाम उक्तः१०॥ तदेवमुक्ता जीवस्य गत्यादयः परिणामविशेषाः, सम्प्रत्येतेषामेव यथाक्रम भेदान् दर्शयति गतिपरिणामे पं भंते ! कतिविषे. पं०१, गो०! चउबिहे पन्नते, तं-नरयगतिपरिणामे तिरियगतिप० मषुयगतिपरिणामे देवगतिप०११ इंदियपरिणामे गं भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! पंचविधे पं०, तं०-सोर्तिदिवपरि० पक्विदियप० घाणिदियप० जिम्मिदियपरिणामे फासिदियपरिणामे २। कसायपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! चउबिधे पं०, तं.--कोहकसायप० माणकसायप० मायाकसायप० लोभकसायप० ३। लेस्सापरिणामे गं भंते ! कतिविधे ५०१, गो.! छबिहे पं०, तं-कण्हलेसाप नीललेसाप. काउलेसाप० तेउलेसाप० पम्हलेसाप० सुकलेसाप०४ाजोगपरिणामे गं भंते ! कइविहे पं०१, गो! तिविधे पं०, तं०-मणजोगप० वइजोगप० कायजोगप० ५। उवओगपरिणामे गं भंते ! कइविहे पं०१, गो०! दुविहे पं०, तं०-सागारोवओगप० अणागारोवओगप०६॥ गाणपरिणामे पो भते! कइविहे पं०१, गो! पंचविहे पं०,०-आमिणिबोहियणाणप० सुयणाणप० ओहिनाणप० मणपज्जवणाणप० केवलणाणप०, अण्णापरिणामे णं भंते ! काविहे पं०१, मो०! तिबिहे पं०, तं०-मइअण्णाणप० सुयअण्णाणप० विभंगणाणप०७ देसणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पं०१, गो०! तिविधे पं०, तं०-सम्मईसणपरि० मिच्छादसणप० सम्ममिच्छादसणप०८॥ चारित्तपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! पंचविहे पं०, तं०-सामाइयचारित्तप० छेदोवट्ठावणियचारित्तप० परिहारविसुद्धियचारित्तप० सुहुमसंपरायचरित्तप० अहक्खायचरित्नप० । वेदपरिणामे पं भंते ! कइविहे पं०१, गो०। 8889999999 गति आदि परिणामस्य प्रभेदा: ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना-1 याः मलयवृत्ती. १३ परिNणामपदं प्रत सूत्रांक [१८३] ॥२८६॥ दीप तिविहे पं०, त०-इस्थिवेदप० पुरिसवेदप० णपुंसगवेदप० १०॥ नेरइया गतिपरिणामेण निरयगतीया इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया कसायपरिणामेणं कोहकसाईवि जाव लोभकसायीवि, लेसापरिणामेणं कण्हलेसाचि नीललेसावि काउलेसावि, जोगपरिणामेणं मणजोगीवि वयजोगीवि कायजोगीवि, उवओगपरिणामेणं सागारोबउनावि अणागारोवउत्तावि, णाणपरिणामेणं आभिणिचोहियणाणीवि सुयणाणीवि ओहिणाणीवि, अण्णाणपरिणामेणं मइअण्णाणीवि सुयअण्णाणीवि विभंगणाणीवि, देसणपरिणामेणं सम्मादिट्ठीवि मिच्छादिट्टीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि, चरित्तपरिणामेणं नो चरिती नो चरित्चाचरित्ती अचरित्ती, वेदपरिणामेणं नो इत्थीवेदगा नो परिसवेदगा नपुंसगवेदगा । असुरकुमारावि एवं चेव, णवरं देवगतिया कण्हलेसावि जाव तेउलेसावि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेदगावि पुरिसवेदगावि नो नपुंसगवेदगा, सेसं तं चेव, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया इंदियपरिणामणं एगिदिया, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं लेसापरिणामेणं तेउलेसावि, जोगपरिणामेणं कायजोगी णाणपरिणामे णत्थि अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी दसणपरिणामेणं मिच्छदिट्टी, सेसं तं चेव, आउवणफइकाइयावि, तेऊवाऊ एवं चेव, णवरं लेसापरिणामेणं जहा नेरहया, बेइंदिया गतिपरिणामेण सिरियगतिया इंदियपरिणामेणं वेईदिया, सेसं जहा नेरहयाण, गवरं जोगपरिणामेणं वयजोगी कायजोगी, णाणपरिणामेणं आभिणियोहियणाणीवि सुअणाणीवि अण्णाणपरिणामेणं महअण्णाणीवि सुअअण्णाणीवि नो विभंगणाणी देसणपरिणामेणं सम्मदिट्टीवि मिच्छदिद्वीवि नो सम्मामिच्छादिट्ठी [वि.] सेसं तं चेव, एवं जाव चउरिदिया, गवरं इंदियपरिवुड्डी कायवा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, सेसं जहा नेरइयाणं, णवरं लेसापरि अनुक्रम [४०७] ecemenetise S२८६॥ ~ 176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [४०७] णामेणं जाव सुक्कलेसाथि, चरितपरिणामेणं नो चरित्ती अचरित्तीवि चरित्ताचरितीवि, वेदपरिणामेणं इथिवेदगावि पुरिसवेदगावि नपुंसगवेदगावि । मणुस्सा गतिपरिणामेणं मणुयगतिया इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया अणिदियावि कसायपरिणामेणं कोहकसाईवि जाव अकसाईवि, लेसापरिणामेणं कण्हलेसावि जाव अलेसावि, जोगपरिणामेणं मणजोगीवि जाव अजोगीवि, उपओगपरिणामेण जहा नेरइया, णाणपरिणामेण आभिणिचोहियणाणीवि जाव केवलणाणीवि, अण्णाणपरिणामणं विण्णिवि अण्णाणा, देसणपरिणामेणं तिण्णिवि दंसणा, चरित्तपरिणामेणं चरित्तीवि अचरित्तीवि चरिचाचरिचीचि, बेदपरिणामेणं इत्थीवेयगावि पुरिसवेदगावि नपुंसगवेयगावि अवेयगावि । वाणमंतरा गतिपरिणामेणं देवगतिया, जहा अमुरकुमारा एवं जोइसियावि नवरं तेउलेसा, वेमाणियावि एवं चेव, नवरं लेसापरिणामेणं तेउलेसावि पम्हलेसावि सुक्कलेसाबि, से तं जीवपरिणामे (मूत्र १८३) 'गइपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' इत्यादि, पाठसिद्धं सम्प्रति नैरयिकादयो यैः परिणामविशेषैर्विशिष्टास्तान तथा प्रतिपादयति-'नेरइया' इत्यादि, सुगम, नवरं नैरयिकाणां कृष्णनीलकापोतरूपास्तिन एव लेश्या न शेषाः, Iता अपि तिस्रः पृथिवीक्रमेणैवं-आद्ययोर्द्वयोः पृथिव्योः कापोतलेश्या तृतीयस्यां कापोतलेश्या नीललेश्या च चतुर्थ्या नीललेश्या पञ्चम्यां नीललेश्या कृष्णलेश्या च षष्ठीसप्तम्योः कृष्णलेश्यैव, तत उक्तम्-'कण्हलेसावि नीललेसावि काउलेसावि' तथा तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यतिरेकेणान्यत्र चारित्रपरिणामः सर्वथा न भवति भवस्खाभाव्यात् , ततः ent 99900 SARERatininemarana ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -,------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: S24 प्रत प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती. सूत्रांक ॥२८७॥ [१८३] दीप अनुक्रम [४०७] कृतश्चारित्रपरिणाम निषेधः, वेदपरिणामचिन्तायां च नैरयिका नपुंसका एव न स्त्रियो नापि पुरुषाः, "नारकसम्मू-18 १३ परिछिनो नपुंसकानी" (तत्त्वा० अरसूत्रं ५०)तिवचनात्, एवमसुरकुमाराणामपि, नवरं गतिमधिकृत्य देवगतिका- णामपदं तेषां च महर्द्धिकानां तेजोलेश्या अपि भवति, तत उक्तम्-'तेउलेस्साधि' इति, वेदपरिणामचिन्तायां त्रियः पुरुषा वा न नपुंसकाः, देवानां नपुंसकत्वस्थासम्भवात् , तथा पृथिवीकायिकसूत्रे, नवरं 'लेसापरिणामेण मित्यादि, इह पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां तेजोलेश्यापि सम्भवति येन सौधर्मेशानपर्यन्तानां देवानामेतेपूत्पादसम्भवात् (वः), तत उक्तम्-'तेउलेसाबि' इति, एतेषां च पृथिव्यादीनां पञ्चानामपि सासादनसम्यक्त्वमपि न भवति, आगमे निषेधात् , ततो ज्ञाननिषेधः सम्यक्त्वनिषेधश्च कृतः, सम्यग्मिध्यात्वपरिणामस्तु संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव भवति, न शेषाणामतस्तन्निषेधः, द्वीन्द्रियादीनां पुनः केषाञ्चित् करणापर्याप्तावस्थानां सासादनसम्यक्त्वमवाप्यते ततस्ते ज्ञानपरिणता अपि सम्यग्दृष्टयोऽप्युक्ताः, तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां च षडपि लेश्याः सम्भवन्ति, ततः सूत्रे उक्तम्-'जाव सुफलेसावि' इति, तथा देशतश्चारित्रपरिणामोऽपि तेषामुल्लसति तत उक्तम्-'चरित्चाचरित्तीवि' इति, तथा ज्योति|काणां तेजोलेश्यैव केवला न शेषा लेश्याः, ततोऽभिहितम्-'लेसापरिणामेणं तेउलेस्सा'। |॥२८७॥ अजीवपरिणामे थे भंते ! कतिविधे पं० १, गो०! दसविधे ५०, ०-बंधणपरिणामे १ मतिपरिणामे २ संठाणपरिणामे ३ भेदपरिणामे ४ वष्णपरिणामे ५ गंधपरिणामे ६ रसपरि०७ फासपरिणामे ८ अगुरुलहुयपरिणामे ९ सदपरिणामे १० 'अजीवपरिणामस्य दशविध-भेदा: ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ---------- उद्देशक: -, ---------- दारं , ---------- मूलं [१८४-१८५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८४-१८५] गाथा: (मर्च १८४) बंधणपरिणामेण भंते! कतिविधे पं०१, गो! दुविहे पं०, तं-णिबंधणपरिणामे लुक्खबंधणपरिणामे य,-'समणिद्धयाए बंधो न होति समलुक्खयाएविण होति । वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंघो उ खंधाणं ॥१॥ णिद्धस्स णिद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहण्णवज्जो विसमो समो वा ।। २॥2, गतिपरिणाम ण भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! दुविहे पं०, तं०-फुसमागगतिपरिणामे य अफुसमाणगतिपरिणामे य, अहवा दीहगइपरिणामे य हस्सगइपरिणामे य २, संठाणपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! पंचविधे पण्णचे, तं-परिमंडलसंठाणपरि० जाप आयतसंठाणपरिणामे ३, भेदपरिणामे ण भंते ! कतिविधे पं०१, गो०। पंचविधे पं०,०-खंडभेदपरि० जाव उकरियाभेदपरि०४, वग्णपरिणामे थे भंते ! कतिविधे पं०१, गो.1 पंचविधे पं०, त-कालवण्णप० जाव सुकिलवण्णपरि० ५, गंधपरिणामे णं भंते ! कतिविधे प०१, गो! दुविहे पं०,०सुब्भिगंधपरि० दुभिगंधपरिणामे य ६, रसपरिणामे ण भंते ! कतिविधे पं०१, गो० ! पंचविहे पं०, ०-तित्तरसपरिणामे जाव महुररसपरिणामे ७, फासपरिणामे णं भंते ! कतिविधे पं०१, मो०! अविधे पं०, तं०-कक्खडफासपरिणामे य जाव लुक्खफासपरिणामे य ८,अगुरुलहुयपरिणामेणं भंते कतिविहे पं०१, मो० एगागारे पं०१, सहपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पं०१, मो० दुविहे पं० तंजहा-सुन्भिसद्दपरिणामे य दुन्भिसहपरिणामे य १० सेचं अजीवपरिणामे य (सूत्रं १८५) परिणामपदं समतं ॥१३॥ 'बंधणपरिणामे णं भंते !' इत्यादि, स्निग्धवन्धनपरिणामश्च रूक्षबन्धनपरिणामश्च, तत्र स्निग्धस्य सतो बन्धनप-18 दीप अनुक्रम [४०८ -४१२] SAREauratonintenariand | 'बन्ध' आदि परिणामस्य प्रभेदा: ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८४ -१८५] गाथा: दीप अनुक्रम [ ४०८ -४१२] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१३], ---------- उद्देशक: [-], दारं [-1, - मूलं [ ९८४ ९८५ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५]उपांगसूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥२८८॥ ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ य० वृत्ती. प्रज्ञापना- ६रिणामः स्त्रिग्धबन्धन परिणामः, तथा रूक्षस्य सतो बन्धनपरिणामः रूक्षबन्धन परिणामः चशब्दों खगतानेकमेयाः मल- दसूचकी, अथ कथं स्निग्धस्य सतो बन्धनपरिणामो भवति कथं वा रूक्षस्य सत इति बन्धनपरिणामस्य लक्षणमाह - 'समनिद्धयाए' इत्यादि, परस्परं समस्निग्धतायां - समगुणनिग्धतायां तथा परस्परं समरूक्षतायां - ४ समगुणरूक्षतायां बन्धो न भवति, किन्तु यदि परस्परं त्रिग्धत्वस्य रूक्षत्वस्य च विषममात्रा भवति तदा बन्धः स्कन्धानामुपजायते, इयमत्र भावना - समगुणस्निग्धस्य परमाण्वादेः समगुणस्निग्धेन परमाण्वादिना सह सम्बन्धो न भवति, तथा समगुणरूक्षस्यापि परमाण्वादेः समगुणरूक्षेण परमाण्वादिना सह सम्बन्धो न भवति, किन्तु यदि त्रिग्धः खिग्धेन रूक्षः रूक्षेण सह विषमगुणो भवति तदा विषममात्रत्वात् भवति तेषां परस्परं सम्बन्धः । विषममात्रया बन्धो भवतीत्युक्तं ततो विषममात्रानिरूपणार्थमाह- 'गिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिएणे' यादि, यदि स्निग्धस्य परमाण्वादेः खिग्धगुणेनैव सह परमाण्वादिना बन्धो भवितुमर्हति तदा नियमात् व्यादिकाधिकगुणेनैव परमाण्वादिनेति भावः, रूक्षगुणस्यापि परमाण्वादेः रूक्षगुणेन परमाण्वादिना सह यदि बन्धो भवति तदा तस्यापि तेन व्याद्यधिकादिगुणेनैव नान्यथा, यदा पुनः त्रिग्धरुक्षयोर्वन्धस्तदा कथमिति चेत् ?, अत आह— 'णिद्धस्स लुक्खेणे'त्यादि, स्निग्धस्य रूक्षेण सह बन्ध उपैति — उपपद्यते जघन्यवर्जी विषमः समो वा, किमुक्तं भवति ? एकगुणसिग्धं एकगुणरूक्षं च मुक्त्वा शेषस्य द्विगुण स्निग्धादिद्विगुणरूक्षादिना सर्वेण बन्धो भवतीति । उक्तो बन्धनप 1 Education international ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ For Parts Only ~ 180~ १३ परिणामपदं ॥२८८॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ---------- उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ---------- मूलं [१८४-१८५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८४-१८५] गाथा: रिणामोऽधुना गतिपरिणाममाह-'गइपरिणामे णं भंते' इत्यादि, द्विविधो गतिपरिणामः, तद्यथा-स्पृशद्गतिपरिणामोऽस्पृशद्गतिपरिणामश्च, तत्र वस्त्वन्तरं स्पृशतो यो गतिपरिणामः स स्पृशद्गतिपरिणामो, यथा-'ठिकरि-18 काया जलस्योपरि प्रयत्नेन तिर्यप्रक्षिप्तायाः, सा हि तथा प्रक्षिप्ता सती अपान्तराले जलं स्पृशन्ती २ गच्छति, बालजनप्रसिद्धमेतत् , तथाऽस्पृशतो गतिपरिणामोऽस्पृशतिपरिणामः, यद्वस्तु न केनापि सहापान्तराले संस्पर्शनमनुभवति तस्यास्पृशतिपरिणाम इति भावः, अन्ये तु व्याचक्षते-स्पृशद्गतिपरिणामो नाम येन प्रयत्नविशेषात् क्षेत्रप्रदेशान् स्पृशन् गच्छति, अस्पृशद्गतिपरिणामो येन क्षेत्रप्रदेशानस्पृशन्नेव गच्छति, तन्न बुद्धामहे, नभसः सर्वच्यापितया तत्प्रदेशसंस्पर्शव्यतिरेकेण गतेरसम्भवात् , बहुश्रुतेभ्यो वा परिभावनीयं, अत्रैव प्रकारान्तरमाह'अहवा दीहगतिपरिणामे य रहस्सगइपरिणामे य' इति, अथवेति प्रकारान्तरे अन्यथा वा गतिपरिणामो द्विविधः, तद्यथा-दीर्घगतिपरिणामो इस्वगतिपरिणामश्च, तत्र विप्रकृष्टदेशान्तरप्राप्तिपरिणामो दीर्घगतिपरिणामस्तद्विपरीतो। इखगतिपरिणामः २, परिमण्डलादिसंस्थानविशेषाः खण्डभेदादयश्च प्रागेव व्याख्याता इति न भूयो व्याख्यायन्ते, ३, अगुरुलघुपरिणामो भाषादिपुद्गलानां 'कम्मगमणभासाई एयाई अगुरुलहुयाई' [कर्ममनोभाषाद्रव्याण्येतान्यगुरुलघू-10 नि] इति वचनात्, तथा अमूर्तद्रव्याणां वाऽऽकाशादीनां, अगुरुलघुपरिणामग्रहणमुपलक्षणं तेन गुरुलघुपरिणामोMISपि द्रष्टव्यः, स चौदारिकादिद्रव्याणां तैजसद्व्यपर्यन्तानामयसेयः, "ओरालियवेउविय आहारगतेय गुरुलहू दवा" दीप अनुक्रम [४०८ -४१२] ~181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१३], ---------- उद्देशक: [-], ---------- दारं [], ---------- मूलं [१८४-१८५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. १४ कपायपदं [१८४ औदारिकवैक्रियाहारकतेजांस्यगुरुलघूनि द्रव्याणि ] इति वचनात् , 'सुन्भिसद्दे' इति शुभशब्दः, 'दुम्भिसद्दे' इति अशुभशब्दः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां त्रयोदशं पदं समाप्तम् ॥ १३ ॥ अथ चतुर्दशं पदं ॥१४॥ -१८५] ||२८९॥ गाथा: दीप अनुक्रम तदेवं व्याख्यातं त्रयोदशं पदमिदानी चतुर्दशमारभ्यते-तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गत्यादिलक्षणो जीवपरिणाम उक्तः सामान्येन, सामान्यं च विशेषनिष्ठम् , अतः स एव विशेषतः कश्चित् कचित् प्रतिपाद्यते, तत्रैकेन्द्रियाणामपि क्रोधादिकपायभावात् 'सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते' (तत्त्वा० अ०९सू०२) इति वचनात् प्रधानबन्धहेतुत्वाचादावेव विशेषतः कषायपरिणामप्रतिपादनार्थमिदमारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कति भंते ! कसाया पण्णचा, मो० चत्तारि कसाया पं०, ०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए, 18 ॥२८॥ नेरइयाणं भंते ! कतिकसाया पं०१, गो० चचारि कसाया पं०१, ०-कोहकसाए जाब लोभकसाए, एवं जाव वेमाणियाणं । (सूत्र १८६) कतिपतिहिए णं भंते ! कोहे पं०१, गो० चउपतिहिए कोहे पं०, तं०-आयपतिहिए परपतिहिए तदुभयपतिहिए अप्पइद्विते, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं दंडतो, एवं माणेणं दंडतो मायाए दंडओ लोभेणं [४०८ -४१२] FarPurwanamuronm अत्र पद (१३) “परिणाम" परिसमाप्तम् अथ पद (१४) "कषाय" आरभ्यते ...'कषाय'स्य चतुर्विध-भेदाः, क्रोध-आदीनाम् प्रतिष्ठितता-उत्पत्ति-भेदस्य वर्णनं ~182~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८६ -१८८] दीप अनुक्रम [४१३ -४१५] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) - पदं [१४], -------------- उद्देशकः [-], ------------- - दारं [-], • मूलं [१८६-१८८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः bestesesesses९८ Educatan Internation दंडओ | कति (हिं णं भंते! ठाणेहिं को हुप्पत्ती भवति ?, गो० ! चउहिं ठाणेहिं कोहुप्पत्ती भवति, तं० खेत्तं पडुच्च वत्युं पहुच सरीरं पड़च उबहिं पडच, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं । एवं माणेणवि मायाएव लोभेणवि, एवं एतेवि चारि दंडगा । (सूत्रं १८७) कतिविधे णं भंते! कोधे पण्णत्ते ?, गो० ! चउविहे कोहे पं० तं० - अणंताणुबंधि कोहे अपच्चक्खाणे कोहे पच्चक्खाणावरणे कोहे संजलणे कोहे, एवं नेरइयाणं जात्र बेमाणियाणं । एवं माणेणं मायाए लोभेणं, एएवि चत्तारि दंडगा ( सूत्रं १८८ ) 'करणं भंते! कसाया' इत्यादि, कति - कियत्सङ्ख्याकाः [कषायाः, ]णमिति पूर्ववत् भदन्त ! - परमकल्याणयोगिन् कषायाः प्रज्ञताः, ? 'कृष विलेखने' कृपन्ति-विलिखन्ति कर्मरूपं क्षेत्रं सुखदुःखशस्योत्पादनायेति कषायाः, औणादिक आयप्रत्ययो निपातनाच्च ऋकारस्य अकारः, यदिवा कलुषयन्ति शुद्धखभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः पूर्ववत् आयप्रत्ययः निपातनाच्च कलुषशब्दस्य णिजन्तस्य कषायादेशः, उक्तं च- "सुहदुक्खबहुस्सइयं कम्म खेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जं च जीवं तेण कसायत्ति वुञ्चति ॥ १ ॥” निर्वचनसूत्रं क्षुण्णार्थ, | नैरयिकादिदण्डकसूत्रमपि सुगमं, 'कइपइट्टिए णं भंते!' इत्यादि, कतिषु कियत्प्रकारेषु स्थानेषु प्रतिष्ठितो भदन्त ! क्रोधः ?, भगवानाह चतुष्प्रतिष्ठितः, तद्यथा- आत्मप्रतिष्ठित इत्यादि, आत्मन्येव प्रतिष्ठितः आत्मप्रतिष्ठितः, किमुक्तं भवति ? - खयमाचरितस्य ऐहिकं प्रत्यपायमवबुद्ध्य कश्चिदात्मन एवोपरि कुध्यति तदा आत्मप्रतिष्ठितः क्रोध -------- For Parts Only ~ 183~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८६ -१८८] दीप अनुक्रम [४१३ -४१५] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) - • मूलं [१८६-१८८ ] पदं [१४], -------------- उद्देशकः [-], ------------- - दारं [-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥२९० ॥ प्रज्ञापना- इति यदा पर उदीरयति आक्रोशादिना कोपं तदा किल तद्विषयः क्रोध उपजायते इति स परप्रतिष्ठित इति, याः मल- २ नैगमनयदर्शनमेतत्, नैगमनयो हि तद्विषयमात्रेणापि तत्प्रतिष्ठितं मन्यते यथा जीवे सम्यग्दर्शनमजीवे सम्यग्दर्शनयवृत्ती. मित्यादयोऽष्टौ भङ्गाः सम्यग्दर्शनस्याधिकरणचिन्तायामावश्यके, तदुभयप्रतिष्ठितः - आत्मपररूपोभयप्रतिष्ठितः, यदा कश्चित् तथाविधापराधवशादात्मपरविषयं क्रोधमाधत्ते इति, अप्रतिष्ठितो नाम यदैष स्वयं दुश्चरणमाक्रोशादिकं च कारणं विना निरालम्बन एव केवलक्रोधवेदनीयादुपजायते, स हि नात्मप्रतिष्ठितः स्वयं दुश्वरणाभावतः खात्मविषयत्वाभावात् नापि परप्रतिष्ठितः परस्यापि निरपराधतया अपराधसम्भावनाया अभावतः क्रोधालम्बनत्वायोगात्, ( तथा नोभयप्रतिष्ठितोऽपि दृश्यते च कस्यापि कदाचिदेवमेव केवलक्रोधवेदनीयोदयादुपजायमानः क्रोधः, तथा च स पश्चात् ब्रूते-अहो मे निष्कारणः कोपो नैव ( कोऽपि ) विरूपं भाषते न च किञ्चिद्विनाशयति, अत एवोक्तं पूर्वमहर्षिभिः - 'सापेक्षाणि निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम् ॥ १ ॥” इति, एवं मानमायालोमा अपि आत्मपरोभयप्रतिष्ठिता अप्रतिष्ठिताश्च भावनीयाः । तदेवमधिकरणभेदेन भेद उक्तः, सम्प्रति कारणभेदतो भेदमाह-'कति (हिं) णं भंते! ठाणेहिं को हुप्पत्ती हवाई' इत्यादि, तिष्ठन्त्येभिरिति स्थानानि - कारणानि कतिभिः कियत्सङ्ख्याकैः स्थानैः कारणैः क्रोधोत्पत्तिर्भवति १, भगवानाह - चतुर्भिः स्थानैः, तान्येव स्थानान्याह - 'खेत्तं पहुंच' इत्यादि, तत्र नैरयिकाणां नैरयिकक्षेत्रं प्रतीत्य तिरश्चां तिर्यक्षेत्रं प्रतीत्य मनुष्याणां Jan Eucatury International For Parts Only --------- ~ 184~ १४ कषायपदं ॥२९०॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , ------------- मूलं [१८६-१८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६-१८८] दीप अनुक्रम [४१३ मनुष्यक्षेत्रं देवानां देवक्षेत्रं 'वत्थु पहुचेति वस्तु सचेतनमचेतनं वा शरीरं प्रतीत्य-दुःसं स्थितं विरूपं वा 'उपधि प्रतीसेति यत् यस्योपकरणं तस्य तत् चौरादिनाऽपहियमाणमन्यथा वा प्रतीत्य, एवं नैरयिकादिदण्डकसूत्रमपि, सम्प्रति सम्यग्दर्शनादिगुणविघातित्वेन भेदमाह-काविहे णं भंते' इत्यादि, अनन्तानुबन्ध्यादिशब्दार्थमने कर्म-13 प्रकृतिपदे वक्ष्यामो, भावार्थस्त्वयं-सम्यक्त्वगुणविघातकृदनन्तानुबन्धी देशविरतिगुणविघाती अप्रत्याख्यानः सर्व|विरतिगुणविघाती प्रत्याख्यानावरणः यथाख्यातचारित्रविघातकः संज्वलनः, एतांश्चतुरोऽपि नैरयिकादिदण्डकक्रमेण |चिन्तयति, एवं मानमायालोमा अपि प्रत्येकं चतुर्विधाः सामान्यतो दण्डकक्रमेण च भावनीयाः। सम्प्रत्येतेषामेव K क्रोधादीनां निर्वृतिभेदतोऽवस्थाभेदतश्च भेदमाह कतिविधे णं भंते ! कोधे पं० १, गो० चउधिहे कोहे पं०, तंजहा-आभोगनिवत्तिए अणाभोगनिवत्तिए उनसते अणुवसते, एवं नेरइयाणं जाव चेमाणियाणं । एवं माणेणवि, मायाएवि, लोभेणवि, चचारि दंडगा । (सूत्रं १८९)जीवा पं भंते! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु, गो० चउहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडिओ चिणि तं--कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जीवा णं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिर्णति, गो०! चउहि ठाणेहि, तं०-कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं नेरइया जाव वेमाणिया । जीवाणं भंते! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिस्संति ?, गो० चउहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिस्संति, तं०-कोहेण माणेणं मायाए -४१५] | क्रोधस्य चत्वारः भेदा: (अन्य-प्रकारेण), अष्ट-कर्मप्रकृतेः उपादानं ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], -------------उद्देशक: -1, ------------- दारं - ------------- मूलं [१८९-१९०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९-१९०] प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती. ॥२९॥ गाथा लोभेणं, एवं नेरइया जाव वेमाणिया । जीवा णं भंते! कतिहिं ठाणेहिं अट्ट कम्मपगडिओ उवचिणिसु, गो० चाहिं १४ कपाठाणेहिं अट्ट कम्मपगडीओ उवचिणिसु, तं०-कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं नेरड्या जाव बेमाणिया, जीवा गं यपद भंते ! पुच्छा, गो०! चाहिं ठाणेहिं उवचिणंति जाव लोभणं, एवं नेरइया जाब बेमाणिया, एवं उवचिणिस्संति । जीवा पं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अह कम्मपगडीओ बंधिसु, गो! चउहिं ठाणेहि, अट्ठ कम्मपगडिओ बंधिसु तं०-कोहेणं माणेषां जाव लोभेणं, एवं नेरइया जाव वेमाणिया, बंधिंसु बंधति बंधिस्संति, उदीरेंसु उदीरति उदीरिस्संति, वेदिसु वेदेति वेदइरसंति, निजरिंसु निजरेंति निजरिस्संति, एवं एते जीवाइया वेमाणियपज्जवसाणा अट्ठारस दंडगा जाव वेमाणिया, निजरिमु निजरेति निअरिस्संति,-आतपतिद्विय खेत्तं पडुच्चणंताणुबंधि आभोगे । चिण उवचिण बंध उदीर वेद तह निजरा चेव ॥ १॥ (सूत्रं १९०) इति पण्णवणाए भगवईए कसायपर्य समत्तं ॥ १४ ॥ 'काविहेणं भंते!' इत्यादि, यदा परस्यापराधं सम्यगवबुद्ध कोपकारणं च व्यवहारतः पुष्टमवलम्व्य नान्यथाऽस्य शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं विधत्ते तदा स कोप आभोगनिर्वर्तितः, यदा खेवमेव तथाविधमुहर्तवशाद्गुणदो-18 पविचारणाशून्यः परवशीभूय कोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोगनिर्तितः २ उपशान्तः-अनुदयावस्थः ३ अनु-181 ॥२९॥ पशान्तः-उदयावस्थः ४, एवमेतद्विषयं दण्डकसूत्रमपि भावनीयं, एवं मानमायालोभाः प्रत्येकं चतुष्प्रकाराः सामान्यतो दण्डकक्रमेण च वेदितव्याः। सम्प्रति फलभेदेन कालत्रयवर्तिनां भेदमभिधातुकाम आह-'जीवा गं| दीप अनुक्रम [४१६ -४१८] ~186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१८९ -१९०] गाथा दीप अनुक्रम [४१६ -४१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [१४], -------------- उद्देशकः [-], ------ · दारं [-], -------------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः • मूलं [१८९-१९० ] + गाथा भंते! कहहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिर्णिसु' इत्यादि, जीवा भदन्त ! कतिभिः स्थानैरष्टौ कर्मप्रकृतीश्चितवन्तः, चयनं नाम कपायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रं, भगवानाह - गौतम! चतुर्भिः स्थानैस्तद्यथा - क्रोधेन मानेन मायया लोभेन, एवं नैरयिकादिदण्डकेऽपि वक्तव्यं, एष दण्डकोऽतीतकालविषयः, एवं वर्तमानकालभविष्यत्कालविषयावपि वाच्यौ, एवमुपचयबन्धोदीरणावेदननिर्जराविषयाः प्रत्येकं त्रयस्त्रयो दण्डका वाच्या इति सर्वसङ्ख्यया अष्टादश दण्डकाः, तत्र उपचयो नाम स्वस्याबाधाकालस्योपरि ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानां वेदनार्थं निषेकः, स चैवं - प्रथमस्थितौ सर्वप्रभूतं, द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषहीनं, ततोऽपि तृतीयस्यां विशेषहीनं, एवं विशेषहीनं २ तावद्वाच्यं यावत्तत्तत्कालबध्यमानायाः स्थितेश्वरमा स्थितिरेतच सविस्तरं कर्मप्रकृतिटीकायां पञ्चसंग्रहटीकायां चाभिहितमिति ततोऽयधायें, बन्धनं नाम - ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानां यथोक्तप्रकारेण स्वस्वाबाधाकालोत्तरकालं निषिक्तानां यद्भूयः कषायपरिणतिविशेपान्निकाचनं, उदीरणं - उदीरणाकरणवशतः कर्मपुद्गलानामनुदयप्राप्तानामुदयावलिकायां प्रवेशनं, तदपि हि किञ्चित्तथाविधकपायपरिणतिवशाद्भवतीति 'चउहिं ठाणेहिं उदीरंसु उदीरन्ति उदीरिस्संती' त्युक्तम्, अन्यथा कषायव्यतिरेकेणापि क्षीणमोहोदये ज्ञानावरणादीनामुदीरका वर्त्तन्ते इति, वेदना-खवाबाधाकालक्षयादुदयप्राप्तस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य कर्मण उपभोगः, निर्जरा-कर्मपुद्गलानामनुभूय २ अकर्मत्वापादनं, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टानां ज्ञानावरणीयादिकर्म पुद्गलानामनुभूय २ शातनमिति भावः, Eucation Internation For Parts Only ~ 187 ~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१४], -------------उद्देशक: -1, ------------- दारं - ------------- मूलं [१८९-१९०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाःमल [१८९-१९०] १५ इन्द्रियपदं उद्देशः १ यवृत्ती. उक्तं च-"पुवकयकम्मसाडण निजरा" इति, इयं च देशनिर्जरा द्रष्टव्या, कषायजनितत्वात् , न सर्वनिर्जरा, सा हि निष्कषायस्य सर्वनिरुद्धयोगस्य मोक्षप्रासादमधिरोहतो भवति, न शेषस्य, अत एव चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रमपि अवि- रुद्धं, देशनिर्जरायाः सर्वकालं सर्वेषामपि भावात् , सम्प्रति यत् यत् पदमधिकृत्य प्राक् सूत्राण्युक्तानि तानि विनेय- जनानुग्रहाय संग्रहणिगाथया निर्दिशति-'आयपतिट्टिय' इत्यादि, प्रथम सामान्यसूत्रं सुप्रतीतमिति न संगृहीतं, द्वितीयमात्मप्रतिष्ठितपदोपलक्षितं सूत्रं ततोऽनन्तानुबन्धिपदोपलक्षितं तदनन्तरमाभोगपदोपलक्षितं ततश्चयोपचयबन्धोदीरणवेदनानिर्जराविषयाणि क्रमेण सूत्राणि, अत्र चिणेति उपचयसूत्रोपलक्षणम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां चतुर्दशं पदं समाप्तम् ॥ १४ ॥ ॥२९२॥ गाथा अथ पंचदशं पदं ॥१५॥ nama दीप अनुक्रम [४१६-४१८] ॥२९॥ तदेवं व्याख्यातं चतुर्दशं, सम्प्रति पञ्चदशमारभ्यते-इहानन्तरपदे प्रधानवन्धहेतुत्वात् विशेषतः कषायपरिणाम || उक्तः, तदनन्तरमिन्द्रियवतामेव लेश्यादिसद्भाव इति विशेषत इन्द्रियपरिणामनिरूपणार्थमिदमारभ्यते, अत्र च द्वावुद्देशकौ, तत्र च प्रथमोद्देशके येऽर्थाधिकारास्तत्संग्राहकमिदं गाथाद्वयं RELIGunintentmatkarma अत्र पद (१४) "कषाय" परिसमाप्तम् अथ पद (१५) "इन्द्रिय" आरभ्यते ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], ------------- उद्देशक: [१], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [१९०...] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९०... संठाणं बाहल्लं पोहत्तं कतिपदेस ओगाढे । अप्पाबहु पुट्ठ पविट्ठ विसय अणगार आहारे ॥१॥ अदाय असी य मणी दुद्ध पाणे तेल फाणिय वसा य । कंबल घृणा थिग्गल दीवोदहि लोगालोगे य ॥२॥ 'संठाणं वाहलं' इत्यादि, प्रथममिन्द्रियाणां संस्थानं, संस्थानं नाम आकारविशेषः, ततो बाहल्यं वक्तव्यं, बाहल्य नाम बहलता पिण्डत्वमिति भावः, तदनन्तरं पृथुत्वं वक्तव्यं, पृथुत्वं-विस्तारः, तदनन्तरं 'कतिपदेस'त्ति कतिप्रदेशमिन्द्रियमिति वक्तव्यं, तत ओगाढमिति–कतिप्रदेशाचगाढमिन्द्रियमिति वाच्यं, तदनन्तरमवगाहनाविषयं कर्कशादिगुणविषयं चाल्पबहुत्वं, ततः 'पुत्ति स्पृष्टग्रहणमुपलक्षणं तेन स्पृष्टास्पृष्टविषयं सूत्रं वक्तव्यं तदनन्तरं 'पविट्ठति प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्ताविषयं ततो विषयपरिमाणं ततोऽनगारविषयं सूत्रं तदनन्तरमाहारविषयं [ततो लोकविषयं ] तत 'अहाय'ति आदर्शविषयं तदनन्तरमसिविषयं ततो मणिविषयं ततो दुग्धोपलक्षितं ततः पानकविषयं ततस्तैलविषयं ततः फाणितविषयं तदनन्तरं वसाविषयं ततः कम्बलविषयं ततः स्थूणाविषयं तदनन्तरं 'थिम्गल ति आकाशथिग्गलविषयं ततो द्वीपोदधिविषयं ततो लोकविषयं तदनन्तरमलोकविषयं इति । तत्र संस्था-18 नादिकमिन्द्रियाणां वक्तव्यमिति प्रथमत इन्द्रियविषयसूत्रमाहकति णं मंते ! इंदिया पं०१, गो.! पंच इंदिया पं०,०-सोविदिए चक्खिदिए धाणिदिए जिभिदिए फासिदिए, सोर्तिदिए णं भंते ! किंसंठिए पं०१, गो! कलंबुयापुप्फसंठाणसंठिते पं०, चक्खिदिए णं भंते ! किंसंठिते पं०१, गो! Pras80000292292029 ||गाथा|| दीप अनुक्रम [४१९-४२०] अथ (१५) इन्द्रिय-पदे उद्देशक- (१) आरभ्यते ...ईन्द्रियस्य भेदः, संस्थानं, बाहल्यं आदि ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं , -------------- मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मज्ञापनाया:मलय० वृत्ती. |१५ इन्द्रियपदं उद्देशः१ प्रत सूत्रांक ॥२९॥ [१९१] दीप अनुक्रम [४२१] ममूरचंदसंठाणसंठिते पं०, पाणिदिए णं भंते! पुच्छा, मो०! अइमुत्तगचंदसंठाणसंठिते, जिभिदिए ण पुच्छा, गो०! खुरप्पसंठाणसंठिते पं०, फासिदिए णं पुच्छा गो०! णाणासंठाणसंठिते पं०१। सोइंदिए णं मते! केवइयं बाहल्लेणं पं०1, गो! अंगुलस्स असंखेजहभागे बाहल्लेणं पं० २, एवं जाव फासिदिए । सोतिदिए णं भंते! केवइतं पोहत्तेणं पण्णत्ते, गो०! अंगुलस्स असंखेजइभागं पोहत्तेणं पं०, एवं चक्खिदिएवि पाणिदिएवि, जिभिदिए छ पुच्छा मो०! अंगुलपुहुतेणं पं०, फासिदिए णं पुच्छा गो०! सरीरपमाणमेचे पोहचणं पं०३। सोतिदिए णं भंते ! कतिपदेसिते पं०१, गो०! अणंतपदेसिते पं०, एवं जाव फासिदिए । (सूत्रं १९१) 'कइ णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता' इत्यादि, कति-कियत्सङ्ख्याकानि, गमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! इन्द्रियाणि प्राग्निरूपितशब्दार्थानि प्रज्ञप्तानि !, भगवानाह-गौतम ! पञ्चेन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि, तान्येव नामत आह–'सोइंदिए' इत्यादि, एतानि च पञ्चापीन्द्रियाणि द्विधा, तद्यथा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो निर्वृत्युपकरणरूपाणि भावतो लब्ध्युपयोगात्मकानि, आह च तत्त्वार्थसूत्रकृत्-निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रिय (तत्त्वार्थे अ०२ सू०१७-१८) मिति, तत्र नितिन म प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः, सापि द्विधा-वाया अभ्यन्तरा च, तत्र बाबा पपेटिकादिरूपा, सा च विचित्रा, न प्रतिनियतरूपतयोपदेष्टुं शक्यते, तथाहि-मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्थतो भाविनी, भ्रुवौ चोपरितनश्रवणबन्धापेक्षया समे, वाजिनो नेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादि, जातिभेदान्ना ॥२९॥ ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९१] दीप अनुक्रम [४२१] नाविधा, अभ्यन्तरा तु निर्वृतिः सर्वेषामपि जन्तूनां समाना, तामेव चाधिकृत्य वक्ष्यमाणानि संस्थानादिविषयाणि सूत्राणि, केवलं स्पर्शेन्द्रियस्य निर्वृतेर्वाह्याभ्यन्तरभेदो न प्रतिपत्तव्यः, पूर्वसूरिभिनिषेधाद्, अत एव च बाह्यसंस्थाISI नविषयमेव तत्सूत्रं वक्ष्यति-‘फासिदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते' इति, उपकरणं खड्गस्थानीयाया बाह्यनिर्वृता खाधारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिका, अभ्यन्तरा निर्वृतिस्तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमान्तरनिवृतेः कथञ्चिदर्थान्तरं, शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिद्भेदात् , कथञ्चिद्भेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तरनिर्वृतौ द्रव्यादिनोपकरणस्य विधातसम्भवात् , तथाहि-सत्यामपि कदम्बपुष्पाधाकृतिरूपायामान्तरनिर्वृता-18 वतिकठोरतरघनगर्जितादिना शक्त्युपधाते सति न परिच्छेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति, भावेन्द्रियमपि द्विधालब्धिः उपयोगश्च, तत्र लब्धिः-श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगः-खखविषये लब्ध्यनुसारेणात्मनो व्यापारः प्रणिधानमाह । साम्प्रतमाभ्यन्तरां निर्वृतिमधिकृत्य संस्थानादि विचिन्तयिपुः प्रथमतः संस्थानं चिन्तयति-'सोइंदिए णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते' इत्यादि पाठसिद्धं, अधुना बाहल्यं चिन्तयति-'सोई-1 दिए णं भंते ! केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' इत्यादि, इदमपि पाठसिद्धम् , उक्तश्थायमर्थोऽन्यत्रापि-"बाहलतो य सबाई अंगुलअसंखभाग"मिति [वाहल्यतश्च सर्वाणि अङ्गुलासङ्ख्यभागमानानि । अत्राह-यद्यङ्गुलस्यासययभागो बाहल्यं स्पर्शनेन्द्रियस्य ततः कथं खड्गारिकाद्यभिघाते अन्तः शरीरस्य वेदनानुभवः ?, तदेतदसमीचीनं, सम्यग्वस्तुतत्त्वा ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती. ॥२९४॥ [१९१] दीप अनुक्रम [४२१] DERecemene परिज्ञानात् , त्वगिन्द्रियस्य विषयः शीतादयः स्पर्शा यथा चक्षुषो रूपं गन्धो भ्राणस्य, न च खगक्षुरिकाद्यभिघाते १५ इन्द्रिअन्तः शरीरस्य शीतादिस्पर्शवेदनमस्ति, किन्तु केवलं दुःखवेदनं, तच दुःखरूपवेदनमात्मा सकलेनापि शरीरेणा-18 यपद नुभवति न केवलेन त्वगिन्द्रियेण ज्वरादिवेदनवत् ततो न कश्चिद्दोपः, अथ शीतलपानकादिपाने अन्तः शीतस्पर्शवेदनाप्यनुभूयते ततः कथं सा घटामटाट्यते इति ?, उच्यते, इह त्वगिन्द्रियं सर्वत्रापि प्रदेशपर्यन्तवर्ति विद्यते, तथा पूर्वसूरिभिर्व्याख्यानात् , तथा चाह मूलटीकाकार:-"सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्तित्वात् त्वचोऽभ्यन्तरेऽपि शुषिरस्योपरि त्वगिन्द्रियस्य भावादुपपद्यतेऽन्तः शीतस्पर्शवेदनानुभवः" । अधुना पृथक्त्वविषयं सूत्रमाह-'सोइंदिए णं भंते !! केवाइयं पोहत्तेणं पण्णत्ते" इत्यादि, इह पृथुत्वं स्पर्शनेन्द्रियव्यतिरेकेण शेषाणां चतुर्णामिन्द्रियाणामात्मागुलेन प्रतिपत्तव्यं, स्पर्शनेन्द्रियस्य उच्छ्याङ्गलेन, ननु देहाश्रितानीन्द्रियाणि देहश्चोच्छ्याङ्गुलेन प्रमीयते 'उस्सेहपमाणतो मिणसु देह'मिति वचनात् [ उत्सेधाङ्गुलप्रमाणेन मिनुहि देहं] तत इन्द्रियाण्यप्युच्छ्याङ्गुलेन मातुं युज्यन्ते नात्माहुलेनेति, तदयुक्तम् , जिहादीनामुच्छ्याङ्गुलेन पृथुत्वप्रमित्यभ्युपगमे त्रिगन्यूतादीनां मनुष्यादीनां रसाभ्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः, तथाहि-त्रिगन्यूतानां मनुष्याणां पड्गव्यूतानां च हस्त्यादीनां खखशरीरानुसारितया अतिविशालानि || ॥२९॥ मुखानि जिह्वाश्च, ततो यधुच्छ्याङ्गुलेन तेषां क्षुरप्राकारतयोक्तस्याभ्यन्तरनिर्वयात्मकस्य जिहेन्द्रियस्याङ्गुलपृथक्त्वलक्षणो विस्तारः परिगृह्यते तदाऽल्पतया न तत्सा जिह्वां व्याप्नुयात् , सर्वव्यापित्वाभावे च योऽसौ वाहल्येन सर्वा ह ~192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९१] IS त्मना जिह्वाया रसवेदनलक्षणः प्रतिग्राणि प्रसिद्धो व्यवहारः स व्यवच्छेदमानुयाद्, एवं प्राणादिविषयेऽपि यथायोग| गन्धादिव्यवहारोच्छेदो भावनीयः, तस्मादात्माङ्गुलेन जिह्वादीनां पृथुत्वमवसेयं नोच्छ्याङ्गुलेनेति, आह च भाष्यकृत्"इंदियमाणेवि तयं भयणिज्जं जं तिगाउयाईणं । जिभिदियाइमाणं संववहारे विरुज्झज्झा ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-'तत्' उच्छ्याङ्गुलमिन्द्रियमानेऽपि आस्तामिन्द्रियविषयपरिमाणचिन्तायामित्यपिशब्दार्थः, 'भजनीयं विकल्पनीयं, कापि न गृह्यते इत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-स्पर्शनेन्द्रियपृथुत्वपरिमाणचिन्तायां प्रायमन्येन्द्रियपृथुत्वपरिमाणचिन्तायां न प्राचं, तेषामात्माङ्गुलेन परिमाणकरणात् इति, कथमेतदवसेयं इति चेत् ? अतआह–'यत्' यस्मात् सर्वेषामपि इन्द्रियाणां उच्छ्याङ्गुलेन परिमाणकरणे त्रिगव्यूतादीनामादिशब्दात् द्विगन्यूता दिपरिग्रहो जिहेसन्द्रियादिमानं सूत्रोक्तं संव्यवहारे विरुध्येत, यथा च विरुध्यते तथाऽनन्तरमेव भावितमिति । सम्प्रति कतिप्रदेशावगाहनाद्वारं प्रतिपादयति सोईदिए णं भंते ! कतिपदेसोगाढे पं०१, गो! असंखेजपएसोगाढे पं०, एवं जाव फासिदिए । एएसिणं भंते ! सोतिदियचक्खिदियघाणिदिय जिभिदियफासिंदियाणं ओगाहणट्ठयाए पएसट्टयाए ओगाहणपएसट्टयाए कतरेशहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गो। सवयोवे चक्खिदिते ओगाहणद्वयाते सोतिदिए ओमाहणट्ठयाते संखेजगुणे धाणिदिए ओगाहणद्वयाते संखेजगुणे जिभिदिए ओगाहणयाए असंखेजगुणे फासिदिए ओगाहणट्टयाए ceaeeeeee Recene दीप अनुक्रम [४२१] ese ईन्द्रियस्य प्रदेश-अवगाहना ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १५इन्द्रियपदे उद्देशः १ प्रत सूत्रांक ॥२९५॥ [१९२] दीप अनुक्रम [४२२] संखेजगुणे पदेसट्टयाते सबत्थोवे चक्खिदिए पदेसट्टयाए सोतिदिए पएसट्टयाए संखेजगुणे पाणिदिए पएसहयाए संखिजगुणे जिभिदिए पएसट्टयाए असंखेजगुणे फासिदिए पएसट्टयाए संखेजगुणे ओगाहणपदेसट्टयाए सबथोवे चर्षिखदिए ओगाहणट्टयाए सोतिदिए ओगाहणद्वयाए असंखेजगुणे धाणिदिए ओगाहणद्वयाए संखिजगुणे जिभिदिए ओगाहण याए असंखेजगुणे फासिदिए ओगाहणट्टयाए संखिजगुणे फार्सिदियस्स ओमाहणट्टयाहिंतो चक्खिदिए पएसट्टयाए अणंतगुणे सोत दिए पएसट्टयाए संखेजगुणे पाणिदिए पएसट्टयाए संखिजगुणे जिभिदिए पएसट्टयाए असंखेजगुणे फासिंदिए पदेसद्वयाते संखेजगुणे, सोतिदियस्सणं भंते ! केवइया कक्खडगुरुयगुणा पं०१, गो! अणंता कक्खडगुरुयगुणा पं०, एवं जाव फासिंदियस्स, सोर्ति दियस्स णं भंते ! केवइया मउयलहुयगुणा पं०१, गो01, अणंता मउयलहुयगुणा पं०, एवं जाव फासिं दियस्स । एतेसिणं भंते! सोइंदियचक्खिदियघाणिदियजिम्भिदियफासिंदियाणं कक्खडगुरुयगुणाणं मउयलहुपगुणाण य कयरेशहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबत्थोवा चक्खिदियस्स कक्खडगरुपगुणा सोतिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा पाणिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा जिम्मिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा, मउयलहुयगुणाणं सवत्थोवा फार्सिदियस्स मउयलहुयगुणा जिभिदियस्स मउयलहुयगुणा अनंतगुणा घाणिदियस्स मउयलहुयगुणा अर्णतगुणा सोतिदियस्स मउपलहुयगुणा अणंतगुणा चक्खिदियस्स मउयलहुयगुणा अर्णतगुणा, कक्खडगरुयगुणार्ण मउयलहुयगुणाण य सबथोवा चक्खिदियस्स कक्खडगुरुयगुणा सोर्तिदियरस कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा पाणिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अर्णतगुणा जिभिदियस्स कक्खडगुरुयगुणा अणंत INT॥२९५॥ ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२] गुणा फासिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा फासिंदियस्स कक्खडगुरुयगुणहितो तस्स घेच मउयलहुयगुणा अणंतगुणा जिम्भिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा घाणिदिवस मउयलहुयगुणा अणंतगुणा सोतिंदियस्स मउपलहुयगुणा अणंतगुणा चविखदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा (सूत्रं १९२) 'सोइंदिए गं भंते !' इत्यादि निगदसिद्धं, अल्पबहुत्वद्वारमाह-'एएसिणं भंते ।' इत्यादि, सर्वस्तोकं चक्षुरि-N |न्द्रियमवगाहनार्थतया, किमुक्तं भवति?-सर्वस्तोकप्रदेशावगाढं चक्षुरिन्द्रियं, ततः श्रोत्रेन्द्रियमवगाहनार्थतया संख्येयगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यावगाहनाभावात् , ततोऽपि माणेन्द्रियमवगाहनार्थतया सङ्ख्येयगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु । तस्यावगाहनोपपत्तेः, ततोऽपि जिद्धेन्द्रियमयगाहनार्थतया असङ्ख्येयगुणं, तस्याकुलपृथक्त्वपरिमाणविस्तारात्मकत्वात्,8 यस्तु दृश्यते पुस्तकेषु पाठः सङ्ख्येयगुणं इति सोऽपपाठो, युक्त्यनुपपन्नत्वात् , तथाहि-चक्षुरादीनि त्रीण्यपीन्द्रियाणि प्रत्येकमङ्गुलासङ्ख्येयभागविस्तारात्मकानि, जिह्वेन्द्रियं अङ्गुलपृथक्त्वविस्तारमतोऽसङ्खवेयगुणमेव तदुपपद्यते न तु सङ्ख्येयगुणमिति, ततः स्पर्शनेन्द्रियं सहयेयगुणं, तथाहि-अङ्गुलपृथक्त्वप्रमाणविस्तारं जिह्वेन्द्रियं, पृथक्त्वं द्विप्रभृत्यानवभ्यः स्पर्शनेन्द्रियं तु शरीरप्रमाणमिति सुमहदपि तदुपपद्यते सयेयगुणमिति, यस्तु बहुपु पुस्तकेषु दृश्यते पाठोडसङ्ख्येयगुणमिति सोऽपपाठो, युक्तिविकलत्वात् , तथाहि-आत्माङ्गुलपृथक्त्वपरिमाणं जिह्वेन्द्रियं शरीरपरिमाणं तु स्पर्शनेन्द्रियं शरीरं तूत्कर्षतोऽपि लक्षयोजनप्रमाणं ततः कथमसङ्ख्येयगुणमुपपद्यते इति ?, अनेनैव च क्रमेण प्रदेशार्थ दीप अनुक्रम [४२२] 2025 SAREaratunintamational ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयावृत्ती. १५४न्द्रियपदे प्रत सूत्रांक [१९२] ॥२९॥ दीप अनुक्रम [४२२] तयाऽपि सूत्रं भावनीयं, उक्तप्रकारेणैव चोभयसूत्रमपि, यानि कर्कशगुरुगुणादिसूत्राणि तानि पाठसिद्धानि, नवरम- ल्पबहुत्वसूत्रे चक्षुःश्रोत्रप्राणजिह्वास्पर्शनेन्द्रियाणां यथोत्तरं कर्कशगुरुगुणा अमीषामेव पश्चानुपूर्ध्या यथापूर्व मृदुलघु- गुणा अनन्तगुणास्तथैवो(वयथो)त्तरं कर्कशतया यथापूर्व चातिकोमलतयोपलभ्यमानत्वात् , युगपदुभयाल्पबहुत्वसूत्रे फासिंदियकक्खडगुरुयगुणेहितो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा' इति, शरीरे हि कतिपया एवं प्रदेशा उपरिवर्तिनः शीतातपादिसम्पर्कतः कर्कशा वर्तन्ते अन्ये तु बहवस्तदन्तर्गता अपि मृदव इति घटन्ते स्पर्शनेन्द्रियस्य कर्कशगुरुगुणेभ्यो मृदुलघुगुणा अनन्तगुणा इति । अमून्येव संस्थानादीन्यल्पबदुत्वपर्यन्तानि द्वाराणि नैरयिकेषु चिन्तयतिनेरइयाणं भंते ! कइ इंदिया पं० १, गो०! पंच, तं०-सोर्तिदिए जाव फासिदिए, नेरइयाणं भते! सोतिदिए किसलिए पं०१, गो! कलंबुयासंठाणसंठिते पं०१, एवं जहा ओहियाणं बत्तवया भणिता तहेव नेरइयागंपि जाव अप्पाबहुयाणि दोष्णि, नवरं नेरइयाणं भंते ! फासिदिए किंसंठिए पं०१, गो०! दुविधे पं०, तं-भवधारणिजे य उत्तरवेउविते य, तत्थ णं जे से भवधारणिजे से णं इंडसंठाणसंठिते पं०, तत्थ पंजे से उत्तरवेउविते सेवि तहेव, सेसं तं चेव ।। असुरकुमाराणं भंते ! कइ इंदिया पं०१, गो०1 पंच, एवं जहा ओहिवाणिजार अप्पाबहुगाणि दोणिवि, नवरं फासिदिए दुविधे पण्णते, तं०-भवधारणिजे य उत्तरचे उबिते य, तत्य जे से भवधारणिजे से णं समचउरससंठाणसंठिते पं०, तत्थ ॥२९॥ ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक Reeeeeee [१९३] गंजे से उत्तरउचित से पंणाणासंठाणसंठिते, सेस तं चेव एवं जाव थणियकुमाराणं ॥ पुढविकाइयाण भंते ! कति इंदिया पं०१, गो० एगे फासिदिए पं०, पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिते किंसंठाणसंठित पं०१, गो.! मसूरचंदसंठाणसंठिते पण्णते, पुढविकाइयाणं भंते ! फासिंदिते केवइयं वाहल्लेणं पं०१, गो.! अंगुलस्स असंखेजहभागं बाहल्लेणं पं०, पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए केवतितं पोहत्तेणं पं०?, गो०! सरीरप्पमाणमेने पोहत्येणं, पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए कतिपदेसिते पं०१, गो०! अणंतपदेसिते पं०, पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिते कतिपदेसोगाढे पं०१, गो०! असंखेजपएसोगाढे पं० । एतेसिणं भंते । पुढविकाइयाणं फासिंदियस्स ओगाहणद्वयाए पएसद्वयाए ओगाहणपएसहाए कयरेरहिंतो अप्पा वा ४१, गो०! सबथोवे पुढविकाइयाणं फासिदिए ओगाहणहयाते ते चेक पदेसट्ठयाते अर्णतगुणे, पुढविकाइयाण भंते ! फासिदियस्सं केवइया कक्खडगरुयगुणा पं०१, गो०1 अणंता, एवं मउयलहुयगुणावि, एतेसि णं भंते! पुढविकाइयाणं फासिदियस्स कक्खडगरुषगुणाणं मउयलहुयगुणाण य कयरेशहितो अ०४१,गो! सबथोवा पुढविकाइयाणं फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा तस्स चेव मउयलहुयगुणा अर्णतगुणा । एवं आउकाइयाणवि जाव वणफइकाइयाणं, णवरं संठाणे इमो विसेसो दबो-आउकाइयाण थियुगचिंदुसंठाणसंठिते पं०, तेउकाइयाण सूहकलावसंठाणसंठिते पं०, चाउकाइयाणं पडागासंठाणसंठिते पं०, वणफइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिते पं० । बेइंदियाणं मंते ! कति इंदिया पं०१, गो०!दो इंदिया पं०, तं०-जिभिदिए फासिदिए, दोण्हपि इंदियाण संठाणं बाहल्लं पोहत्तं पदेस ओगाहणा य जहा ओहियाणं भणिता तहा भाणियबा, णवरं फासिदिए हुंडसंठाणसंठिते पण्णतेत्ति इमो विसेसो, एतेसिणं SO2020050202002 दीप अनुक्रम [४२३] SARELatun international ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९३] दीप अनुक्रम [४२३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - मूलं [१९३] पदं [१५], --------------- उद्देशक: [१], -------- दारं [-], [------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥२९७॥ भंते ! चेइंदियाणं जिम्भियिकासिंदियाणं जगाहणद्वयाते पदेसयाते ओगाहणपदेसयाते कयरे२हिंतो अ० ४१, गो० ! सवत्थोचे बेइंदियाणं जिम्भिदिए ओगाहणद्वयाते फार्सिदिए ओगाहणट्टयाते संखेज्जगुणे पदेसट्टयाते सवस्थोवे बेइंदियाणं जिभिदिते पएसल्याए फार्सिदिए संखेज्जगुणे ओगाहणपएसइयाते सहत्थोवे बेइंदियस्स जिम्भिदिए ओगाहणट्टयाते फार्सिदिए ओगाहणडयाते संखेजगुणे फासिंदियस्स ओगाहयतिहिंतो जिम्मिंदिए परसट्टयाते अनंतगुणा फार्सिदिए एसए संजगुणा, बेइंदियाणं भंते! जिम्भिदियस्स केवइया कक्खडगरुयगुणा पं० १ गो० ! अनंता, एवं फार्सिदियसवि, एवं मउयल हुयगुणावि, एतेसि णं भंते! बेइंदियाणं जिम्भिदियफा सिंदियाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलडुयगुणाण कक्खडगुरुयगुणमयल हुयगुणाण य कतरे२हिंतो अ० ४१, गो० ! सवत्थोवा बेइंदियाणं जिम्भिदियस्स कक्खडगरुयगुणा फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अनंतगुणा, फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणेहिंतो तस्स चैव मउयलहुय० अनंतगुणा जिम्मिंदि महुयगुणा अनंतगुणा, एवं जाब चउरिंदियत्ति, नवरं इंदियपरिवुड्डी कातवा, तेइंदियाणं घार्णिदिए थोत्रे चउरिंदियाणं चक्खिदिए थोवे, सेसं तं चैव ॥ पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा नेरइयाणं, गवरं फार्सिदिए छबिहसंठाणसंठिते पं० तं० - समचउरंसे निग्गोह परिमंडले सादी खुज्जे बामणे हुंडे || वाणमंतरजोइसियमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं (सूत्रं १९३ ) 'नेरयाणं भंते!' इत्यादि सुगमं, नवरं 'नेरइयाणं भंते ! फार्सिदिए किंसंटिए पण्णत्ते' इत्यादि, द्विविधं हि नैरयिकाणां शरीरं भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च तत्र भवधारणीयं तेषां भवखभावत एव निर्मूलविलुसपक्षोत्पाटितस Education International For Parts Only ~ 198~ १५ इन्द्रि यपदे उद्देशः ९ ॥२२७॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३] दीप अनुक्रम [४२३] कलग्रीवादिरोमपक्षिशरीरवत् अतिबीभत्ससंस्थानोपेतं, यदप्युत्तरक्रियं तदपि हुंडसंस्थानमेव, तथाहि-ययपि ते वयमतिसुन्दरं शरीरं विकुर्विध्याम इत्यभिसन्धिना शरीरमारभन्ते तथापि तेषामत्यन्ताशुभतथाविधनामकर्मोदयादतीवाशुभतरमेवोपजायते इति । असुरकुमारसूत्रे भवधारणीयं समचतुरस्रसंस्थानं तथाभवखाभाब्यात् , उत्तरक्रिय तु नानासंस्थितं, खेच्छया तस्य निष्पत्तिभावात् । पृथिव्यादिविषयाणि तु सूत्राणि सुप्रतीतान्येव । सम्प्रति स्पृष्टद्वारमाहपुट्ठाई भंते ! सद्दाई सुणेति अपुढाई सद्दाई सुणेति ?, गो० ! पुढाई सद्दाई सुणेति नो अपुट्ठाई सद्दाई सुणेति, पुट्ठाई भंते ! रूवाई पासति अपुट्ठाई पासति ?, गो०! नो पुढाई रुवाई पासति, अपुट्ठाई रूवाई पासति, पुट्ठाई मते ! गंधाई अग्पाइ अपुट्ठाई गंधाई अग्घाइ, गो० पुटाई गंधाई अग्याइ नो अपुढाई अग्धाइ, एवं रसाणवि फासाणवि, णवरं रसाई अस्साएति फासाई पडिसंवेदेतित्ति अभिलावो कायदो। पविट्ठाई भंते ! सद्दाई सुणेति अपचिट्ठाई सदाई सुणेति ?, गोपविहाई सदाई सुणेति नो अपविट्ठाई सदाई सुणेति, एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविटाणिवि । (मूत्रं १९४) 'पुट्ठाई भंते । सद्दाई सुणेति' इत्यादि, प्राकृतत्वात् सूत्रे शब्दस्य नपुंसकत्वं, अन्यथा पुंस्त्वं प्रतिपत्तव्यं, स्पृष्टान् । भदन्त ! श्रोत्रेन्द्रियमिति कर्तृपदं सामर्थ्यालभ्यते शब्दान् शृणोति, तत्र स्पृश्यन्ते इति स्पृष्टास्तान तनौ रेणुमिवालिङ्गितमात्रानित्यर्थः, 'पुढे रेणुं व तणुंमि' [स्पृष्टं तनौ रेणुरिव] इति बचनात्, शच्यन्ते-प्रतिपाद्यन्ते अर्था। ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. प्रत सूत्रांक ॥२९८॥ [१९४] दीप अनुक्रम [४२४] एभिरिति शब्दाः तान् शृणोति-गृह्णाति उपलभते इतियावत् , किमुक्तं भवति ?-स्पृष्टमात्राण्येव शब्दद्रव्याणि श्रोत्रे-१५ इन्द्रिन्द्रियमुपलभते न तु घाणेन्द्रियादिवत् बद्धस्पृष्टानीति, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह शब्दद्रव्याणि प्राणेन्द्रियादिवि- यपदे षयभूतेभ्यो द्रव्येभ्यः सूक्ष्माणि तथा बहूनि तथा तत्क्षेत्रभाविशन्दयोग्यद्रव्यवासकानि च, ततः सूक्ष्मत्वादतिप्रभूत-| त्वात्तदन्यद्रव्यवासकत्वाच्चात्मप्रदेशैः स्पृष्टमात्राण्यपि निवृतीन्द्रियमध्ये प्रविश्य झटित्युपकरणेन्द्रियमभिव्यञ्जयन्ति, श्रोत्रेन्द्रियं च घाणेन्द्रियाद्यपेक्षया खविषयपरिच्छेदे पटुतरं, ततः स्पृष्टमात्राण्यपि तानि श्रोत्रेन्द्रियमुपलभते, नास्पृष्टान्-सर्वधाऽऽत्मप्रदेशः सम्बन्धमप्राप्तान , श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्तविषयपरिच्छेदस्वभावत्वात् , यथा च श्रोत्रेन्द्रियस्थ प्राप्तकारिता तथा नन्द्यध्ययनटीकादौ चर्चितमिति ततोऽवधार्य, 'पुट्ठाई भंते ! रूवाई' इत्यादि सुगमं, निर्वचनमाह-गौतम! न स्पृष्टानि रूपाणि पश्यति चक्षुः किन्त्वस्पृष्टानि, चक्षुयोऽप्राप्तकारित्वात् , तचाप्राप्तकारित्वं तत्त्वार्थटीकादी| सविस्तरेण प्रसाधितमिति ततोऽवधारणीयं, गन्धादिविषयाणि सूत्राणि सुप्रसिद्धानि, नवरं स्पृष्टान् गन्धान आजिप्रति इत्यादि यद्यप्युक्तं तथापि बद्धस्पृष्टानिति द्रष्टव्यम् , यत उक्तमावश्यकनियुक्ती-"पुढं सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढे | तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुट वियागरे॥१॥" [स्पृष्टं शृणोति शब्दं रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टमेव । गन्धं रसं च स्पर्श च | बद्धस्पृष्टं व्याकुर्यात् ॥१॥] इति, तत्र स्पृष्टानिति पूर्ववत् बद्धानिति आत्मप्रदेशैरात्मीकृतान् ‘बद्धमप्पीकयं पएसेहि' [बद्धमात्मीकृतं प्रदेशः] इति वचनात्, विशेषणसमासश्च, पाच ते स्पृष्टाश्च बद्धस्पृष्टास्तान , इह स्पृष्टाः। ॥२९८॥ ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९४] दीप अनुक्रम [४२४] स्पर्शमात्रेणापि भवन्ति यथा शब्दस्ततः स्पर्शमात्रव्यवच्छेदेन स्पर्शविशेषप्रतिपत्तिरव्याहता स्थादिति बद्धग्रहणं, बद्धरूपा ये स्पृष्टास्तान् परिच्छिनत्ति, नान्यानि, कस्मादेवमिति चेत् १, उच्यते, गन्धादिद्रव्याणां वादरत्वात् अल्पत्वादभावुकत्वाच प्राणादीन्द्रियाणामपि च श्रोत्रेन्द्रियापेक्षया मन्दशक्तिकत्वादिति । सम्प्रति प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्तां कुर्वन्नाह-'पविहाई भंते ! सद्दाई' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरं स्पर्शस्तनी रेणुरिवापि भवति प्रवेशो मुखे कवलस्येवेति शब्दार्थस्य भिन्नत्वात् भिन्नविषयता स्पृष्टप्रविष्टसूत्राणामिति । सम्प्रति विषयपरिमाणनिरूपणार्थमाहसोतिदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते?, गो०। जहण्ययेणं अंगुल स्स असंखेजतिभागो उक्कोसेणं पारसहिं जोअणेहितो अच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविद्वाति सद्दाति सुणेति, चक्विंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पं०१, गो! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजतिभागो उकोसेणं सातिरेगाओ जोयणसतसहस्साओ अच्छिण्णे पोग्गले अपुढे अपविट्ठातिं रूबाई पासइ, पाणिदियस्स पुच्छा, गो० जहष्णेणं अंगुलअसंखेज्जतिभागो उकोसेणं णवहिं जोयणेहितो अच्छिष्णे पोग्गले पूढे पविट्ठाति गंधाति अग्धाइ, एवं जिभिदियस्सवि फासिदियस्सवि (सूत्रं १९५) 'सोइंदियस्सणं भंते ! केवइए विसए पं०'इत्यादि, इह श्रोत्रादीनि प्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वात् अहुलासययभा-11 गादप्यागतं शब्दादिद्रव्यं परिच्छिन्दन्ति, नयनं चाप्राप्तकारीति तत् जघन्यतोऽझुलसङ्ख्येयभागादव्यवहितं परिच्छिनत्ति, किमुक्तं भवति?-जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रे व्यवस्थितं पश्यति न तु ततोऽप्यक्तिरमिति, प्रतिप्राणि For P OW अथ श्रोत्रेन्द्रिय आदि पञ्च-इन्द्रियस्य विषय-परिमाणस्य निरूपणं क्रियते ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. [१९५] ॥२९॥ रररररररर दीप अनुक्रम [४२५] प्रसिद्धश्चायमर्थः, तथा च नातिसनिकृष्टमजनरजोमलादिकं चक्षुः पश्यतीति, उक्तं च-"अवरमसंखेजंगुलभागातो १५ इन्द्रिनयणवजाणं ॥ संखेजंगुलभागो नयणस्स" [जघन्यमसोयाङ्गुलभागात् नयनवर्षाणां सङ्खये यो भागो नयनस्य]इति, यपदे उत्कर्षतस्तु श्रोत्रेन्द्रियं द्वादशभ्यो योजनेभ्यः आगतान् अग्छिन्नान्-अव्यवहितान् नान्यैः शब्दान्तरैर्वातादिका प्रतिहतशक्तिकानित्यर्थः पुद्गलान् , अनेन पौगलिकः शब्दो नाम्बरगुण इति प्रतिपादितं, यथा च शब्दस्य पौगलिकता तथा तत्त्वार्थटीकायां प्रपञ्चितमिति न भूयः प्रपश्यते, स्पृष्टान्-स्पृष्टमात्रान् शब्दान् प्रविष्टान्-निर्दृतीन्द्रि-1 यमध्यप्रविष्टान् शृणोति न परतोऽप्यागतान्, कस्मादिति चेत् !, उच्यते, परत आगतानां तेषां मन्दपरिणामत्वभावात् , तथाहि-परत आगताः खलु ते शब्दपुद्गलास्तथाखामाव्यान्मन्दपरिणामास्तथोपजायन्ते येन खविषयं श्रोत्र-18 ज्ञानं नोत्पादयितुमीश्वराः, श्रोत्रेन्द्रियस्यापि च तथाविधं अद्भुततरं बलं न विद्यते येन परतोऽपि आगतान् शम्दान् शृणुयादिति, चक्षुरिन्द्रियमुत्कर्षतः सातिरेकात् योजनशतसहस्रादारभ्याच्छिन्नान् कटकुट्यादिभिरव्यवहितान् पुगलान् अस्पृष्टान् दूरस्थितान् अत एवाप्रविष्टान् ‘रूवाईति रूपात्मकान् पश्यति, परतोऽव्यवहितस्यापि परिच्छेदे चक्षुषः शक्यभावात् , तत्वङ्गुलमिह विधा, तद्यथा-आत्मानुलमुच्छ्याङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलंच, तत्र "जे णं जया मणूसा |॥२९॥ | तेर्सि जंहोइ माणरूवं तु।तं भणियमिहायंगुलमणिययमाणं पुण इमं तु ॥१॥" [ये यदा मनुष्यास्तेषां यद्भवति मानरूपं तु । तदेव भणितमिहात्मागुलमनियतमानं पुनरिदं तु ॥१॥] इत्येवंरूपमात्माकुलं "परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं सव esese ~202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-],-------------- मूलं [१९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९५] दीप अनुक्रम [४२५] च वालस्स । लिक्खा जूया य जवा, अहगुणविवडिया कमसो॥१॥"[परमाणुनसरेणू रथरेणुरमकं च पालख । लिक्षा यूका च यवोऽष्टगुणविवृद्धाः क्रमशः॥१॥] इत्यादिरूपमुच्छ्याङ्गुलं, तृतीयं-'उस्सेहंगुलमेगं हयह पमाणंगुलं सहस्सगुणं। तं चेव दुगुणियं खलु वीरस्सायंगुलं भणियं ॥१॥ [उत्सेधाङ्गलादेकस्मात् भवति प्रमाणाङ्गुलं सहस्रगुणम् ।। तदेव द्विगुणितं वीरस्थात्माङ्गुलं भणितम् ॥१॥ इत्येवं प्रमाणाङ्गुलं, तत्रात्माङ्गुलेन मीयते तत्काले पापीकूपादिकं। वस्तु उच्छ्याङ्गुलेन नरतिर्यग्देवनैरयिकशरीराणि प्रमाणानुलेन पृथिवीचिमानानि, उक्तं च-"आयंगुलेण वत्थु उस्से-IN हपमाणतो मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥१॥[ आत्माङ्गुलेन वस्तु उत्सेधप्रमाणतो | मिनु देहम् । नगपृथ्वीविमानानि मिनु प्रमाणानुलेनैव ॥१॥] तत्रेदमिन्द्रियविषयपरिमाणं किमात्माजलेनाहोभित् उच्छ्याङ्गुलेन उत प्रमाणाङ्गुलेन ?, उच्यते, आत्माङ्गुलेन, तथा चाह चक्षुरिन्द्रियविषयपरिमाणचिन्तायां भाष्यकृत्-"अप्पत्तकारि नयण मणो य नयणस्स विसयपरिमाणं । आयंगुलेण लक्खं अइरित्तं जोअणाणं तु ॥१॥"N [[अप्राप्तकारि नयनं मनश्च नयनस्य विषयपरिमाणम् । आत्मागुलेन लक्षमतिरिक्त योजनानां तु ॥१॥] ननु देहप्रमाणमुच्छ्याङ्गुलेन तु क्रियते देहाश्रितानि चेन्द्रियाणि ततस्तेषां विषयपरिमाणमपि उच्छ्याङ्गुलेन कर्तुमुचितं, कथमुच्यते आत्माङ्गुलेनेति !, नैष दोषः, यद्यपि हि नाम देहाश्रितानीन्द्रियाणि तथापि तेषां विषयपरिमाणमात्मामुलेनैव देहादन्यत्वाद्विषयपरिमाणस्य, तथा चामुमेवार्थमाक्षेपपुरस्सरं भाष्यकृदयाह-"नणु भणियमुस्सयंगुलपमाणतो ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक ॥३०॥ [१९५] दीप जाय देहमाणाइ । देहपमाणं तं चिय नउ इंदियविसयपरिमाणं ॥१॥"[ननु भणितमुच्छ्याङ्गुलप्रमाणतो यावत् १५ इन्द्रि(जीव) देहमानानि। देहप्रमाणमेव तत् , नत्विन्द्रियविषयपरिमाणं ॥१॥] अत्र 'देहपमाणं तं चिय' इति यत्तत्र उच्छु- यपदे याङ्गुलमेयत्वेनोक्तं तद् देहप्रमाणमात्रमेव, नत्विन्द्रियविषयपरिमाणं, तस्यात्माकुलप्रमेयत्वादिति,अथ यदि विषयप-1 उद्देशः १ रिमाणमिन्द्रियाणामुच्छ्रयाङ्गुलेन स्यात्ततः को दोष आपद्येत ', उच्यते, पञ्चधनुःशतादिमनुष्याणां विषयव्यवहारव्यवच्छेदः, तथाहि-यरतस्यात्माङ्गुलं तत्किल प्रमाणाङ्गुलं,तब प्रमाणाङ्गुलमुच्छ्याङ्गुलसहस्रेण भवति "उस्सेहंगुलमेगं हवह पमाणंगुलं सहस्सगुण"मिति वचनात् [उच्छ्रयाङ्गुलादेकस्मात् भवति प्रमाणांगुलं सहस्रगुणम् ] ततो भरतसगरा-1 दिचक्रवर्तिनां या अयोध्यादयो नगर्यो ये तु स्कन्धावारा आत्माङ्गुलेन द्वादशयोजनायामतया सिद्धान्ते प्रसिद्धास्ते उच्छ्याङ्गुलप्रमिता अनेकानि योजनसहस्राणि स्युः, तथा च सति तत्रायुधशालादिषु ताडितभेर्यादिशब्दश्रवणं न | सर्वेषामापोत, "बारसहिं जोयणेहिं सोयं अभिगेहए सद्द"मिति वचनात् [द्वादशभ्यो योजनेभ्यः श्रोत्रमभिगृह्णाति|| शब्दम् ॥] अथ समग्रनगरव्यापी समस्तस्कन्धाचारव्यापी च विजयढकादिशब्द आगमे प्रतिपाद्यते तथैव च जन-11 व्यवहारः, तत एवमागमप्रसिद्धः पञ्चधनुःशतादिमनुष्याणां विषयव्यवहारोच्छेदो मा प्रापदित्यात्मालेनेन्द्रियाणां ॥३०॥ विषयपरिमाणमवसातव्यं नोच्छ्याङ्गुलेन, तथा चाह भाष्यकृत्-"ज तेणं पंच(पण)धणुसयनरादिविसयववहारबोच्छेओ। पावइ सहस्सगुणियं जेण पमाणंगुलं तत्तो ॥१॥"[यत्तेन पञ्चधनुःशतनरादिव्यवहारब्युच्छेदः । प्राप्नोति अनुक्रम [४२५] Reterotoes ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 2600 प्रत सूत्रांक [१९५] दीप अनुक्रम [४२५] celate6seiseoere सहस्रगुणितं येन प्रमाणाडलं ततः॥१॥] अत्र तस्मादात्माङ्गुलेनैवेन्द्रियाणां विषयपरिमाणं नोत्सेधाजलेनेति उपसंहारवाक्यं स्वतः परिभावनीयं, यदप्युक्तं प्राक् 'देहाश्रितानीन्द्रियाणीति तेषां विषयपरिमाणमुच्छ्याएलेने'ति, सदप्ययुक्तं, इन्द्रियाणामपि केषाश्चित् पृथुत्वस्य आत्मामुलेन मीयमानत्वाभ्युपगमात् , भावितं चैतत्प्रागपि इन्द्रियप्र|माणचिन्तायां 'भयणिज्ज'मित्यादिभाष्यकारवचनावष्टम्भनेनेति, तस्मात् सर्वमिन्द्रियविषयपरिमाणमात्मानुलेनैवेति स्थितं, ननु भवत्वात्माङ्गुलेन विषयपरिमाणं तथाप्यधिकृतसूत्रोक्तं चक्षुरिन्द्रियविषयपरिमाणं न घटते, अधिकस्यापि तद्विषयपरिमाणस्थागमान्तरे प्रतिपादनात्, तथाहि-पुष्करवरद्वीपार्द्ध मानुषोत्तरपर्वतसमीपवर्तिनो मनुष्याः कर्कसङ्क्रान्ती प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नः सातिरेकैरेकविंशतियोजनलक्षैर्व्यवस्थितमादित्यमयलोकमानाः प्रतिपाद्यन्ते शास्त्रान्तरे, तथा च तद्ग्रन्थः-"इगवीसं खलु लक्खा चउतीसं चेव तह सहस्साई। तह पंचसया भणिया सत्तत्तीसाए अतिरित्ता ॥१॥ इइ नयणविसयमाणं पुक्खरदीवद्धवासिमणुयाणं । पुत्रेण य अवरेण य पिहं पिहं होइ मणुयाणं |॥२॥"इत्यादि [ एकविंशतिः खलु लक्षाश्चतुर्विशतिश्चैव तथा सहस्राणि । तथा पञ्च शतानि भणितानि सप्तविंशतिश्वातिरिक्तानि ॥१॥ इति नयनविषयमानं पुष्करवरद्वीपार्धवासिमनुष्याणां । पूर्वस्यामपरस्यां च पृथक् पृथक् भवति मनुष्याणां॥२॥ ततः कथमधिकृतसूत्रमात्माङ्गुलेनापि घटते ?,प्रमाणाङ्गुलेनापि व्यभिचारभावात् , उक्तं च-"लक्खेहि एकवीसाए साइरेगर्हि पुक्खरद्धंमि। उदये पेच्छति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे ॥१॥णयर्णिदियस्स तम्हा विसयपमाणं Hiralandarary.orm ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मल- यवृत्ती. ॥३०॥ [१९५] जहा सुए भणियं । आउस्सेहपमाणगुलाण एकेणवि न जुत्ता२॥"[लक्षेवेकर्विशती सातिरेकषु पुष्कराधै। उदये प्रेक्ष-18|१५इन्द्रिन्ते नराः सूर्य उत्कृष्टे दिवसे ॥१॥ नयनेन्द्रियस्य तस्मात् विषयप्रमाणं यथा श्रुते भणितं । आत्मोत्सेधप्रमाणा-18 यपदे लानामेकेनापि न युक्तं ॥२॥] सत्यमेतत् , केवलमिदं सूत्रं प्रकाश्यविषयं द्रष्टव्यं, न तु प्रकाशकविषय, ततः प्रका-18 | उद्देशः १ शकेऽधिकतरमपि विषयपरिमाणं न विरुध्यते इति न कश्चिद्दोषः, कथमेवंविधोऽर्थोऽवसीयते इति चेत् ?, उच्यते, पूर्वसूरिकृतव्याख्यानात् , सकलमपि हि कालिकश्रुतं पूर्वसूरिकृतव्याख्यानानुसारेणैव व्याख्यानंयन्ति महाधियो, नारा यथाऽक्षरमात्रसन्निवेशं, पूर्वगतसूत्रार्थसहपरतया कालिकश्रुतस्य कचित्सलिसस्याप्यर्थस्य महता विस्तरेण कचि-श द्विस्तरवतोऽप्यतिसझेपेणाभिधाने अक्तिनैः खमतियथावस्थितार्थतया ज्ञातुमशक्यत्वादत एवोक्तमिदमन्यत्र-"ज जह भणियं सुत्ते तहेब जइ तं पियालणा नत्थि । किं कालियाणुओगो दिट्ठो दिटिप्पहाणेहि ॥१॥" [यद्यथा भणितं सूत्रे तथैव यदि तद्विचालना नास्ति । किं कालिकानुयोगो दृष्टः प्रधानदृष्टिभिः॥१] तस्मात् पूर्वसूरिकृतव्याख्यानानाधिकृतग्रन्थविरोधः, आह च भाष्यकृत्-"मुत्ताभिप्पाओऽयं पयासणिजे तयं नउ पयासे । वक्खाजाउ विसेसो नहि संदेहादलक्खणया ॥१॥" इति [ सूत्राभिप्रायोऽयं प्रकाशनीये तकत् नतु प्रकाशके । व्याख्यानाद्विशेषो नैव संदेहादलक्षणता ॥१॥] तथा प्राणेन्द्रियजिह्वेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रियाणि गन्धादीनुत्कर्षतो नवयोजनेभ्य ॥३०१॥ आगतान् अच्छिन्नान-द्रव्यान्तरैरप्रतिहतशक्तिकान् परिच्छिन्दन्ति न परत आगतान् , परत आगतानां मन्दपरिणा । दीप अनुक्रम [४२५] eela SARERatininematural For P OW ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९५] दीप अनुक्रम [४२५] मत्वभावात् , घाणेन्द्रियादीनां च तथारूपाणामपि [दूरागतानां गन्धादिरूपाणामपि तेषां परिच्छेदं कर्तुमशक्यत्वात् ,31 आह च भाष्यकृत्-“वारसहिंतो सोत्तं सेसाणं नवहि जोयणेहितो। गिण्हंति पत्तमत्थं एत्तो परतो न गिण्इंति ॥१॥ दवाण मंदपरिणामियाएँ परतो न इंदियबलंपि” इति [द्वादशभ्यः श्रोत्रं शेषाणां नवभ्यो योजनेभ्यः । गृह्णन्ति प्राप्तमर्थ अस्मात् परतो न गृहन्ति ॥ १॥ द्रव्याणां मन्दपरिणामितया परतो नेन्द्रियबलमपि] । इन्द्रियविषयाधिकारे इदमपि सूत्रम् अणगारस्सणं भंते ! भावियप्पणो मारणतियसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरमा णिज्जरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पण्णता समणाउसो! सर्व लोगपि यणं ते ओगाहित्ता गं चिट्ठति', हता! मो01 अणगारस्स भाषियप्पणो मारणांतियसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा गं ते पोग्गला पण्णचा समणाउसो! सई लोगपि य पं ओगाहिचा णं चिति । छउमत्थे णं भंते ! मणसे तेर्सि णिज्जरापोग्गलाणं किं आणतं वा नाणतं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणति पासति ?, गो.! णो इणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-छउमत्थे णं मणूसे तेर्सि णिजरापोग्गलाणं णो किंचि आण वाणाणतं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुय वा जाणइ पासह, देवेवि य णे अत्थेगतिए जे णं तेसिं निजरापोग्गलाणं नो किंचि आणतं वा ओम वा तुच्छ वा गरुय वा लहुयत्तं वा जाणति पासति, से तेणडेणं गो०। एवं बुचति छउमत्थे णं मणूसे तेर्सि गिजरापोग्गलाणं नो किंचि आणत्तं वा ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-],-------------- मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १५ इन्द्रि यपदे प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. P उद्देशः१ सूत्रांक [१९६]] ॥३०॥ cerseenetics टOES दीप अनुक्रम [४२६] जाव जाणति पासति, एवं सुहुमा णं ते पोग्गला पणता समणाउसो!, सबलोगंपिय णं ते ओगाहित्ताणं चिट्ठति । नेरइया ण भंते ! निजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारति उदाहु न याति न पासंति आहारैति', गो०! नेरइया णिजरापोग्गले न जाणंति न पासंति आहारेंति, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, मण्सा णं भंते! ते निजरापोग्गले किं जाणति पासंति आहारंति उदाहु न याणंति न पासंति आहारंति ?, गो! अत्थेगतिया जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगतिया न याणंति न पासंति आहारेति, से केणटेणं भंते ! एवं वुञ्चति-अस्थेगतिया जाणंति पासंति आहारति अत्धेगतिया न जाणंति न पासंति आहारति , गो! मनसा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-सण्णिभूया य असण्णिभूया य, तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं न याति नपासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते दुविहा पं०, तं0-उपउत्ता य अणुवउत्ता य, तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं न याति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एएणद्वेणं गो०! एवं चुचइ-अत्थेगतिया न याति न पासंति आहारॅति, अत्थेगतिया जाणंति पासंति आहारैति । वाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया । वेमाणिया ण भंते ! ते निजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेति , जहा मासा, पवरं वेमाणिया दुविहा पं०,०-माइमिच्छदिट्ठीउववण्णमा य अमायिसम्मदिहीउबवण्णगा य, तत्थ णे जे ते माहमिच्छदिट्ठीउववण्णगा ते णं न याणति न पासंति न आहारैति, तत्थ ण जे ते अमायिसम्मदिद्विउवचण्णमा ते दुविहा पं०, ०-अणंतरोववण्णमा य परंपरोपवण्णगा य, तत्थ णं जे ते अर्णतरोववण्णगा ते णं न याति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते परंपरोक्वणगा ते दुविहा पं०,०-पञ्जनगा य अपज्जतगा य, तत्थ णं जे ते अप ॥३०॥ SAREautatuninternational ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक Ceesesesesese [१९६]] जत्तगाते गं न जाणंति न पासंति आहारैति, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा पं०, तं०-उवउत्ता य अणुवउत्ता य, तत्थ णजे ते अणुवउत्ता ते णं न याति न पासंति आहारैति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एतेणडेणं गो० ! एवं वुच्चति–अत्थेगतिया थाणंति जाव अत्यंगतिता आहारेति (सूत्रं १९६) 'अणगारस्स णं भंते !' इत्यादि, न विद्यते अगारं-गृहं द्रव्यतो भावतश्च यस्यासावनगारः-संयतस्ततस्तस्य, णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! 'भावियप्पणों' इति भावितो-बासित आत्मा ज्ञानदर्शनचारित्रैस्तपोविशेषैश्च येन स भावितात्मा तस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समबहतस्य ये चरमा:-शैलेशीकालान्त्यसमयभाविनो निर्जरापुद्गला:-अपगतकर्मभावाः परमाणवः 'सुहुमा णे ते पोग्गला' इतिणमिति निश्चये निपातानामनेकार्थत्वात् निश्चितमेतत् 'सूक्ष्माः' चक्षुरादीन्द्रियपथमतिक्रान्तास्ते पुद्गलाः प्रज्ञप्ता भगवद्भिः हे श्रमण ! आयुष्मन् , गौतमकृतं भगवतः सम्बोधनमेतत् , तथा निश्चितमेतत् सर्वलोकेऽपि पुद्गलाः स्पृष्ट्वा णं वाक्यालङ्कृतौ तिष्ठन्ति !, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह'हंता! गोयमा । हन्तेति प्रत्यवधारणे एवमेवैतत् गौतमः 'अणगारस्त णं भावियप्पणों इत्यादि तदेवं पुनरपि प्रश्नः, 'छ उमत्थे णं भंते' इत्यादि । अथ कोऽस्व प्रश्नस्थावकाशः, उच्यते, इह प्रागुक्तं स्पृष्टानि प्रविष्टानि च शब्दद्न्याणि| शृणोतीत्यादि, निर्जरापुद्गला अपि सर्वलोकस्पर्शिन इति तेषामपि श्रोत्रादिषु स्पर्शनप्रवेशौ न स्तः १ इति संशयस्तत्र | प्रश्नः-छमस्थो भदन्त ! मनुष्यः, छद्मस्थग्रहणं केवलिब्युदासाथै, केवली हि सर्वैरप्यात्मशरीरप्रदेशः सर्वे जानाति दीप अनुक्रम [४२६] Dem.feelCacise । SAREauraton international ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-],-------------- मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- याः मल- य. वृत्ती. [१९६]] टिट दीप अनुक्रम [४२६] पश्यति च, यथोक्तम्-"सवतो जाणइ केवली सच्चतो पासइ केवली" [ सर्वतो जानाति केवली सर्वतः पश्यति ||१५इन्द्रिकेवली ] स्तुतिकारोऽप्याह-"समन्ततः सर्वगुणं निरक्ष"मिति, छमस्थस्त्वकोपाङ्गनामकर्मविशेषसंस्कृतैरेवेन्द्रियद्वा- यपदे रैर्जानाति पश्यति चेति छद्मस्थग्रहणं, अत एवेह छमस्थो विशिष्टावधिज्ञानविकलः परिगृह्यते, तेषां निर्जरापुद्गलानां उद्देशः १ 'आणत्त'मिति अन्यत्वं, द्वयोरनगारयोः सम्बन्धिनोर्ये निर्जरापुद्गलाः तेषां परस्परं भिन्नत्वमिति भावः 'नानात्वं परनिरपेक्षमेकस्यैव वर्णादिकृतं वैचित्र्यं 'ओमत्वं' अवमता हीनत्वमितियावत् 'तुच्छत्वं' निःसारता 'गुरुलघुत्वे'प्रतीते, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, नायमों युक्त्युपपन्नः, छपस्थमनुष्यस्तेषां निर्जरापुद्गलानामन्यत्वादिकं जानाति पश्यति, अत्रैवार्थे प्रश्नमाह-से केणटेणं भंते' इत्यादि, सुगर्म, भगवानाह-देवेवि य णमित्यादि, देवोऽप्यस्त्येकः कश्चित्कर्मपुद्गलविषयावधिज्ञानविकलो यस्तेषां निर्जरापुद्गलानां न किञ्चिदप्यन्यत्वादिकं जानाति पश्यति वा, किमुक्त भवति?-देवानां किल मनुष्येभ्यः पटुतराणि इन्द्रियाणि विद्यन्ते, तत्र देवोऽपि तावन्न जानाति न पश्यति | या किमुत मनुष्य इति ?, 'से एएण'मित्याद्युपसंहारवाक्यं सुगर्म, 'सुहुमा णं ते'इत्यादि, एतावन्मानेन सूक्ष्मास्ते पुद्गलाः निर्जरापुद्गलाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, गौतमस्य भगवत्कृतं सम्बोधनमेतत् , सर्वलोकमपि ते एवंरूपाः अत्यन्तसूक्ष्माः पुद्गलाः अवगाह तिष्ठन्ति पुद्गलाः न तु बादररूपाः, अन्यथा सांव्यवहारिकप्रत्यक्षविरोधप्रसक्तः, सर्वलोकस्पर्शिनस्ते पुद्गलास्ततोऽयमपि प्रश्न:-'नेरइया णं भंते ! इत्यादि, नैरयिकास्तावत्तान् निर्जरापुद्गलानाहारय ॥३०३॥ sekese weredturary.com ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम [४२६] न्तीति सिद्धं, पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीवशतो विचित्रपरिणमनखभायतया आहाररूपतयाऽपि तेषां परिणमनसम्भवात् , केवलमेतद् प्रष्टव्यं ते नैरयिका जानन्तीत्यादि, प्राकृतत्वात् क्रियाहेतुत्वेऽपि वर्तमाना, ततोऽयमर्थ:-जानन्तः । पश्यन्त आहारयन्ति उताजानन्तोऽपश्यन्त इति !, भगवानाह-अजानन्तोऽपश्यन्त इति, कस्मादिति चेत् । उच्यते, तेषामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादिपथातीतत्वात् नैरपिकाणां च कार्मणशरीरपुद्गलालम्बनावधिज्ञानविकलत्वात् ।। एवमसुरकुमारादिविषयाण्यपि सूत्राणि तावद् वाच्यानि यावत्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियसूत्रं । मनुष्यसूत्रे 'सन्निभूया य' इति संज्ञिनो भूताः संज्ञिभूताः संज्ञित्वं प्राप्ता इत्यर्थः, तयतिरिक्ताः असंज्ञिभूताः, संज्ञी चेह विशिष्टावधिज्ञानी परिगृह्यते यस्य ते कार्मणशरीरपुद्गला विषयमा विनति, शेषं सुगमं । वैमानिकसूत्रे 'मायीमिच्छदिट्टी'इत्यादि, माया-तृतीयः कषायः साऽन्येषामपि कषायाणामुपलक्षणं माया विद्यते येषां ते मायिन उत्कटरागद्वेषा इत्यर्थः ते च ते मिध्यादृ-IN ष्टयश्च मायिमिथ्यादृष्टयस्तथारूपा उपपन्नका-उपपन्ना मायिमिथ्यादृष्टधुपपन्नकास्तद्विपरीता अमायिसम्यग्रष्टधुपप-1 नकाः, इह मायिमिथ्याटपपन्नकग्रहणेन नवमवेयकपर्यन्ताः परिगृह्यन्ते, यद्यप्यारातीयेष्वपि कल्पेषु वेयकेषु च सम्यग्दृष्टयो देवाः सन्ति तथापि तेषामवधिन कार्मणशरीरपुद्गल विषय इति तेऽपि मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नका इब मायिमिथ्यारष्टयुपपन्नका इत्युपमानतो मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकशब्देनोच्यन्ते, ये त्वमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नकास्तेऽनुत्तरसुराः, तेऽपि द्विविधा-तद्यथा-अनन्तरोपपन्नकाः परम्परोपपन्नकाश्च, अनन्तरम्-अव्यवधानेनोपपन्नकाः अनन्तरो SARERaunintamanna ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मज्ञापना याः मल १५ इन्द्रियपदे उद्देशः१ प्रत सूत्रांक यवृत्ती. ॥३०॥ [१९६]] cersecseenewelesecccccc दीप अनुक्रम [४२६] पपन्नकाः उपपत्तिप्रथमसमयवर्तिन इत्यर्थः, परम्परया उपपन्नकाः परम्परोपपन्नकाः, उत्पत्त्यनन्तरं द्वित्रादिसमयव- तिन इत्यर्थः, तत्रानन्तरोपपन्नका न जानन्ति न पश्यन्ति, तेषां एकसामयिकोपयोगासम्भवादपर्याप्तित्वाच, परम्परो- पपन्नका अपि द्विधा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाच, तत्रापर्याप्सा न जानन्ति न पश्यन्त्यपर्याप्तत्वेन सम्यगुपयोगासम्भवात् , पर्यासा अपि द्विधा-उपयुक्ताः अनुपयुक्ताश्च, तत्रानुपयुक्ता न जानन्ति न पश्यन्ति, सामान्यरूपतया विशेपरूपतया वा परिच्छेदस्य प्रणिधानमन्तरेण कर्तुमशक्यत्वात् , ये तूपयुक्तास्ते जानन्ति पश्यन्ति च, कथमिति चेत् ?, उच्यते-इहावश्यके अवधिज्ञानविषयचिन्तायामिदमुक्तं-"संखेज कम्मदबे लोगे थोखूणगं पलियं' अस्थायमर्थःकर्मद्रव्याणि-कर्मशरीरद्रव्याणि पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य सङ्ख्येयान् भागान् पश्यति, अनुत्तरसुराश्च सम्पूर्णी लोकनाडी पश्यन्ति, "सम्भिन्न लोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा" पश्यन्त्यनुत्तरा देवाः संपूर्णा लोकनाडी] इति वचनात्, ततस्ते उपयुक्ता जानन्ति पश्यन्ति चावधिज्ञानेन तानिर्जरापुद्गलानिति, आहारयन्तीति च सर्वत्रापि लोमाहारेणेति प्रतिपत्तव्यं । इन्द्रियाधिकारादयमपि प्रश्नः-. अहायं पेहमाणे माणसे अद्दायं पेहति अत्ताणं पेहइ पलिभागं पेहति ?, गो० ! अहायं पेहति नो अप्पाणं पेहति पलिभार्ग पेहति, एवं एतेणं अभिलावेणं असि मणि दुद्धं पाणं तेलं फाणियं वसं (मूत्र १९७) 'अहायं पेहमाणे' इत्यादि, 'अहाय'मिति आदर्श 'पेहमाणे' इति प्रेक्षमाणो मनुष्यः किमादर्श प्रेक्षते आहोविदा ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत Caese । सूत्रांक [१९७] दीप अनुक्रम [४२७] |त्मानं १, अत्रात्मशब्देन शरीरमभिगृह्यते, उत 'पलिभाग'मिति प्रतिभागं प्रतिबिम्ब ?, भगवानाह-आदर्श तावत् । प्रेक्षत एव, तस्य स्फुटरूपस्य यथावस्थिततया तेनोपलम्भात् , आत्मानं-आत्मशरीरं पुनर्न पश्यति, तस्य तत्राभावात् , खशरीरं हि खात्मनि व्यवस्थितं नादर्श ततः कथमात्मशरीरं च तत्र पश्येदिति ?, प्रतिभागं-खशरीरस्य प्रतिविम्ब 11 पश्यति, अथ किमात्मकं प्रतिबिम्ब ?, उच्यते, छायापुद्गलात्मकं, तथाहि-सर्वमैन्द्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचयधर्मक रश्मिवच, रश्मय इति छायापुद्गलाः, व्यवहियन्ते च छायापुद्गलाः प्रत्यक्षत एव सिद्धाः, सर्वस्यापि स्थूलवस्तुनः छाया, अध्यक्षतः प्रतिप्राणि प्रतीतेः, अन्यच्च यदि स्थूलवस्तु व्यवहिततया दूरस्थिततया वा नादर्शादिश्ववगाढरश्मिर्भवति ततो न तत्र तदृश्यते तस्मादवसीयते सन्ति छायापुद्गला इति, ते च छायापुद्गलास्तत्तत्सामग्रीवशाद्विचित्रपरिणमनखभावास्तथाहि-ते छायापुद्गला दिवा वस्तुन्यभाखरे प्रतिगताः सन्तः खसंबंधिद्रव्याकारमाविनाणाः श्यामरू-1 पतया परिणमन्ते निशि तु कृष्णाभाः, एतच प्रसरति दिवसे सूर्यकरनिकरे निशि तु चन्द्रोद्योते प्रत्यक्षत एव सिद्धं, त एव छायापरमाणवः आदर्शादिभाखरद्रव्यप्रतिगताः सन्तः स्वसंबंधिद्रव्याकारमादधानाः यारा वर्णः स्वसम्बन्धिनि द्रव्ये कृष्णो नीलः शितः पीतो वा तदाभाः परिणमन्ते, एतदप्यादर्शादिष्वध्यक्षतः सिद्ध, ततोऽधिकृतसूत्रेऽपि ये मनुसाव्यस्य छायापरमाणव आदर्शमुपसंक्रम्य स्खदेहवर्णतया खदेहाकारतया च परिणमन्ते तेषां तत्रोपलब्धिर्न शरीरस्य, ते 81 च प्रतिविम्बशब्दा वाच्या अत उक्त-न शरीरं पश्यति किन्तु प्रतिभागमिति, नैवैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, यत । ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९७] दीप अनुक्रम [४२७] मूलं [१९७] पदं [१५], | -------------- उद्देशक: [१], -------- दारं [-], [------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥ ३०५ ॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - उक्तमागमे - 'सामा उ दिया छाया अभासुरगता निसिं तु कालाभा । सा चैव भासुरगया सदेहवण्णा मुणेयवा ॥ १ ॥ जे आदरिसस्सन्तो देहावयवा हवंति संकंता । तेसिं तत्थुवलंभो पगासजोगा न इयरेसिं ॥ २ ॥” मूलटीकाकारोऽध्याह - "यस्मात् सर्वमेव हि ऐन्द्रियकं स्थूलं द्रव्यं चयापचयधर्मिकं रश्मिवच भवति, यतश्चादर्शादिषु छाया स्थूलस्य दृश्यते अवगाढरश्मिनः ततः स्थूलद्रव्यस्य कस्यचिद्दर्शनं भवति, न चान्तरितं दृश्यते किञ्चित् अतिदूरस्थं वा अतः 'पलिभागं' प्रतिभागं 'पेहति' पश्यतीति । एवम सिमण्यादिविषयाण्यपि पटू सूत्राणि भावनीयानि, सूत्रपाठोऽप्येवम्" असिं देहमाणे मणूसे किं असिं देहइ अत्ताणं देहइ पलिभागं देहइ ?” इत्यादि, गोयमा ! असिं देहइ नो अत्ताणं | देहह पलिभागं देहइ" इत्यादि ॥ इह निर्जरापुद्गलाः छद्मस्थानामिन्द्रियविषये न भवन्ति तेषामतीन्द्रियत्वादित्युक्तमतोऽतीन्द्रियप्रस्तावादिदमप्यतीन्द्रियविषयं प्रश्नमाह कंबलसाडे णं भंते ! आवेदितपरिवेढिते समाणे जावतियं उवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठति विरल्लिएवि समाणे तावइयं चैव उवासंतरे सित्ताणं चिट्ठति १, हंता गो० ! कंबलसाडए णं आवेदियपरिवेढिते समाणे जावतियं तं चैव । धूणाणं भंते! उद्धुं ऊसिया समाणी जावइयं खेत्तं ओगाहइत्ता गं चिह्नति, तिरियंपिअ णं आयता समाणी तावइयं चैव खे ओगाह१ श्यामा तु दिवा छाया अभास्वरगता निशि कालाभा । सैव भाखरगता स्वदेहवर्णा ज्ञातव्या । १ || ये आदर्शस्यान्सदेहावयवा भवन्ति संक्रान्ताः । तेषां तत्रोपलम्भः प्रकाशयोगात् नेतरेषां ॥ २ ॥ Education International For Penal Use Only ~ 214~ १५ इन्द्रि यपदे - उद्देशः १ ॥३०५|| Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९८] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ४२८ -४३२] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१५], -------------उद्देशक: [१], ----- दारं [-1], ---------- • मूलं [१९८ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education International ताणं चिति तिरियंपिणं आयता समाणी तावइयं चैव खेचं ओगाहित्ता चिडंति, हंता गो० ! घृणा णं उङ्कं ऊसिया तं चैव चिट्ठति । आगासथिग्गले णं भंते! किंणा फुडे कइहिं वा काएहिं फुडे-किं धम्मत्थिकारणं फुडे धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मत्थिकायस्स पदेसेर्हि फुडे, एवं अधम्मत्थिकारणं आगासत्थिकारणं, एएणं भेदेणं जाव पुढविकाएणं फुडे जाव तसकाएणं अद्धासमएणं फुडे १, गो० । धम्मत्थिका एवं फुडे नो धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, एवं अधम्मत्थिकाएणवि, नो आगासत्थिकाएणं फुडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं जाव वणस्सकाएणं फुडे तसकाएणं सिय फुडे अद्धासमणं देसे फुडे देसे णो फुडे । जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे किंणा फुडे काहिं वा काएहिं फुडे, किं धम्मत्थिकारणं जाव आगासत्थिकारणं फुडे १, गो० ! णो धम्मत्थिकारणं फुडे धम्मत्थिकायस्त देसेणं फुडे धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, एवं अधम्मत्थिकायस्तवि आगासत्थिकायस्तचि, पुढविकाइणं फुडे, जाव वणस्सइकाएणं फुडे, तसकाइएणं फुडे सिय णो फुडे, अद्धासमएणं फुडे, एवं लवणसमुद्दे धायतिसंडे दीवे कालोए समुद्दे अभितरपुक्खरद्धे, बाहिरपुक्खरद्धे एवं चैव, णवरं अद्धासमएणं नो फुडे, एवं जाव सर्वभूरमणसमुद्दे, एसा परिवाडी इमाहिं गाहाहिं अणुगंतवा तं० " जंबुद्दीवे लवणे घायति कालोय पुवखरे वरुणो । खीरघयखोयणंदिय अरुणवरे कुंडले रुयते || १ | आभरणवत्थगंधे उप्पलतिलए य पउमनिहिरयणे । वासहरदहनईओ विजया वक्खारकप्पिदा || २ || कुरु मंदर आवासा कूडा नक्खत्तचंदसूरा य। देवे णागे जक्खे भूए य सयंवरमणे य || ३ || एवं जहा बाहिरपुक्खरद्धे भणिए तहा जाब सयंभूरमणसमुद्दे जाव अद्धासमएणं नो फुडे । लोगे णं भंते । किंणा फुडे कहहिं वा For Parks Use Only ~215~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. काएहिं जहा आगासथिग्गले । अलोएणं भंते ! किंणा फुडे कतिहिं वा काएहिं पुच्छा, गो! नो धम्मस्थिकाएक फुडे जाव नो आगासत्थिकारणं फुडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे, जाव नो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदयदेसे अगुरुलहुए अणतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासअर्णतभागूणे ॥ (सूत्र १९८)॥१६१ ॥ इंदियपयस्स पढमो उद्देसो ।। १५ इन्द्रियपदे उद्देशः१ ॥३०६॥ गाथा: दीप अनुक्रम [४२८-४३२] 'कंबलसाडए णं भंते !' इत्यादि, कम्बलशाटकः-कम्बलरूपः शाटकः कम्बलशाटक इति व्युत्पत्तेः आवेष्टितपरिवेटितः-गाढतरं संवेल्लितः, एवंभूतः सन् यावदवकाशान्तरं, यावत आकाशप्रदेशानित्यर्थः, 'स्पृष्ट्वा' अवगाय तिष्ठति I'विरलिएवी'ति विरलितोऽपि विरलीकृतोऽपि तावदेवावकाशान्तरं-तावत एवाकाशप्रदेशान् स्पृष्ट्वा तिष्ठति , भगवानाह-हंता गोयमा !' इत्यादि, इंतेति प्रत्यवधारणं, एवमेतत् गौतम ! यत् 'कम्बलसाडए णं' इत्यादि, तदेवं एषोऽत्र सोपा:-यावत एवाकाशप्रदेशान् संवेलितः सन् कम्बलशाटकोऽवगाबावतिष्ठते तावत एवाकाशप्रदेशान् ततोऽप्यवगाद्यावतिष्ठते, केवलं घनप्रतरमात्रकृतो विशेषः, प्रदेशसङ्ख्या तूभयत्रापि तुल्या, उक्तश्चायमर्थोऽन्यत्रापि नेत्रपटमधिकृत्य-"जह खलु महप्पमाणो नेत्तपडो कोडिओ म(न)हग्गमि । तंमिवि तावइए चिय फुसइ परसे (विरलिएवि)” [यथैव महाप्रमाणो नेत्रपटः संकुचितो नभोभागे । तावत एव स्पृशति विततोऽपि प्रदेशान् ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत । सूत्रांक [१९८] गाथा: तदीयान् ॥१॥] इति । एवं स्थूणासूत्रमपि भावनीयं । 'आगासथिग्गले गं भंते !' इत्यादि, आकाशथिग्गलंलोकः, स हि महतो बहिराकाशस्य विततपटस्थ विग्गलमिव प्रतिभाति, भदन्त ! केन 'स्पृष्टो' व्याप्तः, एतत्सामस्त्येन पृष्टमेतदेव विशेषतः प्रश्चयति-'कतिभिः' कियत्सङ्ख्याकः कार्यः स्पृष्टः, पाशब्दः पक्षान्तरद्योतनार्थः, प्रकारान्तर च सामान्याद्विशेषतः, तान् कायान् प्रत्येकं पृच्छति-किं धम्मत्थिकाएणं फुडे !' इत्यादि सुगम, भगवानाह-गौतम ! धर्मास्तिकायेन स्पृष्टः, धर्मास्तिकायस्य सर्वात्मना तत्रावगाढत्वात् , अत एव नो धर्मास्तिकायस्य देशेन स्पृष्टो, यो हि येन सर्वात्मना व्याप्तो नासौ तस्यैव देशेन व्याप्तो भवति, विरोधात् , प्रदेशैस्तु व्याप्तः, सर्वेषामपि धर्मास्तिकायप्रदेशानां तत्रावगाढत्वात् , एवमधर्मास्तिकायविषयेऽपि निर्वचनं वाच्यं, तथा नो आकाशास्तिकायेन सकलेन द्रव्येण स्पृष्टः, आकाशास्तिकायदेशमात्रत्वाल्लोकस्य, किन्तु देशेन व्याप्तः, प्रदेशैश्च पृथिव्यादयोऽपि सूक्ष्माः सकललोकापन्ना वर्तन्ते ततस्तैरपि सर्वात्मना व्याप्तः, 'तसकाएक सिय फुडे' इति, यदा केवली समुद्घातं गतः सन् चतुर्थे समये वर्तते तदा तेन खप्रदेशैः सकललोकपूरणात् त्रसकायेन स्पृष्टः, केवलिनखसकायत्वात् , शेषकालं तु न स्पृष्टः, सर्वत्र त्रसकायानामभाषात् , एवं जम्बूद्वीपादिविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं बहिःपुष्करार्द्धचिन्तायां 'अद्धासमएणं न फुडे' इति, अद्धासमयो बर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वी न बहिः, एतच धर्मसहणिटीकायां भावितं, ततो बहिद्वीपसमुद्राणामद्धासमयस्पर्शनप्रतिषेधः, 'जंबुद्दीवे लवणे' गाहा, सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरवती जम्बूद्वीपस्तत्परिक्षेपी 30000000000202020 दीप अनुक्रम [४२८-४३२] ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. [१९८] ॥३०७॥ गाथा: लवणसमुद्रस्तदनन्तरं धातकीखण्डाभिधानो द्वीपस्ततः कालोदः समुद्रः तदनन्तरं पुष्करबरो द्वीपः, अत ऊज़ द्वीप- १५इन्द्रिसदृशनामानः समुद्राः, ततः पुष्करवरसमुद्रः तदनन्तरं वरुणवरो द्वीपो वरुणवरः समुद्रः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदःयपद समुद्रः, घृतबरो द्वीपो घृतोदः समुद्रः, इक्षुवरो द्वीपो इक्षुवरः समुद्रः, नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः समुद्रः, एतेऽष्टावपि च समुद्रा एकप्रत्यवताराः, एकैकरूपा इति भावः, अत ऊर्व द्वीपाः समुद्राश्च त्रिप्रत्यवताराः, तद्यथा-अरुण इति अरुणोऽरुणवरो अरुणवरावभासः कुण्डलः कुण्डलबरः कुण्डलवरावभासः रुचको रुचकवरो रुचकवरावभास|| इत्यादि, एष चात्र क्रमः-नन्दीश्वरसमुद्रानन्तरं अरुणो द्वीपोऽरुणः समुद्रः, ततोऽरुणवरो द्वीपोऽरुणवरः समुद्र इत्यादि, कियन्तः खलु नामग्राहं द्वीपसमुद्राः वक्तुं शक्यन्ते? ततस्तन्नामसङ्ग्रहमाह-'आभरणवत्थे'त्यादिगाथाद्वयं, यानि कानिचिदाभरणनामानि-हारार्द्धहाररत्नावलिकनकावलिप्रभृतीनि यानि च वस्त्रनामानि-चीनांशुकप्रभृतीनि यानि च गन्धनामानि-कोठपुटादीनि यानि चोत्पलनामानि-जलरुहचन्द्रोद्योतप्रमुखानि यानि च तिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि यानि च पद्मनामानि-शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथिवीनामानि-पृथिवीरतशर्केरावालुकेत्या-IN दीनि यानि च नवानां निधीनां चतुर्दशानां चक्रवर्तिरजानां चुल्लहिमवदादिकानां वर्षधरपर्वतादीनां पनादीनां इदानां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां कच्छादीनां विजयानां माल्यवदादीनां वक्षस्कारपर्वतानां सौधर्मादीनां कल्पानां शक्रा-३०॥ दीनामिन्द्राणां देवकुरुउत्तरकुरुमन्दराणामावासाना-शकादिसम्बन्धिनां मेरुप्रत्यासन्नादीनां कूटानां क्षुल्लहिमवदा दीप अनुक्रम [४२८-४३२] ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [१९८] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ४२८ -४३२] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१५], -------------- उद्देशक: [१], , दारं [-], -------------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मूलं [१९८] + गाथा: दिसम्बन्धिनां नक्षत्राणां कृत्तिकादीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानि तद्यथा-- हारो द्वीपो हारः समुद्रः हारवरो द्वीपो हारवरः समुद्रः हारवरावभासो द्वीपो हारवरावभासः समुद्र इत्यादिना प्रकारेण त्रिप्रत्यवतारास्तावद् वक्तव्याः यावत् सूर्यो द्वीपः सूर्यस्समुद्रः सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरस्समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभासः समुद्रः, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णो - " अरुणाई दीवसमुद्दा तिपडोयारा यावत् सूर्यवरावभासः समुद्रः " ततः सूर्यवरावभासपरिक्षेपी देवो द्वीपस्ततो देवः समुद्रः, तदनन्तरं नागो द्वीपो नागः समुद्रः, ततो यक्षो द्वीपो यक्षः समुद्रः, ततो भूतो द्वीपो भूतः समुद्रः, स्वयम्भूरमणो द्वीपः खयम्भूरमणः समुद्रः, एते पञ्च देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्राः एकरूपाः, न पुनरेषां प्रत्यवतारः, उक्तं च जीवाभिगम चूर्णो- 'एते पञ्च द्वीपाः पञ्च समुद्रा एकप्रकारा' इति, जीवाभिगमसूत्रेऽप्युक्तम् - "देवे नागे जक्खे भूए सयंभूरमणे य एकेको चैव भाणियचो, तिपडोयारं नत्थित्ति" इति । पूर्वमाकाशथिग्गलशब्देन लोकः पृष्टोऽधुना लोकशब्देनैव तं पिपृच्छिपुराह— 'लोए णं भंते! किंणा फुडे' इत्यादि, पाठसिद्धं, अलोकसूत्रमपि पाठसिद्धं, नवरं 'एगे अजीवदधदेसे' इति अलोक एकोऽजीवद्रव्यदेशः, आकाशास्तिकायस्य देश इत्यर्थः, परिपूर्णस्त्वाकाशास्तिकायो न भवति, लोकाकाशेन हीनत्वात्, अत एवागुरुलघुको मूर्त्तत्वात्, अनन्तैरगुरुलघुकगुणैः संयुक्तः, प्रतिप्रदेशं खपर| मेदभिन्नानामनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां भावात् किंप्रमाणः सोऽलोक इति चेत्, अत आह— सर्वाकाशमनन्त For Parts Only ~ 219~ waryru Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], ------------- मूलं [१९९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] याः मलय०वृत्ती. भागोन-लोकाकाशमात्रखण्डहीनं सकलाकाशप्रमाणं इति भावः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीका-१५ इन्द्रियामिन्द्रियपदस्योद्देशक: प्रथमः समाप्तः॥१॥ यपदे उद्देश:२ ॥३०८॥ गाथा: टatisesesesercerseroen दीप अनुक्रम [४३३-४३५]] व्याख्यातः प्रथमः उद्देशकः, सम्प्रति द्वितीय आरभ्यते-तत्रेदमादावर्थाधिकारसङ्ग्राहकं गाथाद्वयंइंदियउवचय १ णिवत्तणा २ य समया भवे असंखेज्जा ३ । लद्धी ४ उचओगई ५ अप्पाबहुए विसेसहिया ॥१॥ ओगाहणा ६ अवाए ७ ईहा ८ तह वंजणोग्गहे ९-१० चेव । दबिंदिय ११ भाविदिय १२ तीया बद्धा पुरक्खडिया ॥२॥ कतिविहे ण भंते ! इंदियउवचए पं०, गो०! पंचविहे इंदियउवचए पं०१, ०-सोतिदिए उवचते चक्खिदिए उवचते पाणिदिए उवचते जिभिदिए उवचते फासिदिए उवचते । नेरइयाणं भंते ! कतिविहे इंदिओवचएपं०१, गो०! पंचविहे इंदिओवचए पं०, तं०-सोसिदिओवचए जाव फार्सिदिओवचए, एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जब इंदिया तस्स ततिविहो चेव इंदिओवचओ भाणियो १ । कतिविहा गं भंते! इंदियनिवत्तणा पं०१, गो! पंचविहा इंदियनिवत्तणा, पं० तं०-सोतिदियनिव्वत्तणा जाव फासिदियनिव्वत्तणा, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि २। सोतिदियणिवत्तणा पं भंते ! कइसमइया, पं०१, मो०! असंखिज्जइसमया अंतोमुहुत्तिया पं०, एवं जाव फासिंदियनिबत्तणा, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ३ । कइविहा गं भंते ! इंदिवलद्धी पं०१, गो! पंचविहा इंदियलद्धी पं०, ॥३०८॥ ब्र अथ (१५) इन्द्रिय-पदे उद्देशक- (२) आरभ्यते ...ईन्द्रियउपचय आदि द्वादश-विषयस्य प्ररुपणा ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] गाथा: तं०-सोतिंदियलद्धी जाब फासिदियलद्धी, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं जस्स जब इंदिया अस्थि तस्स तावड्या भाणियबा ४ । कतिविहाणं भंते ! इंदियउवओगद्धा पं०१, गो०! पंचविहा इंदियउवओगद्धा पं०, तं०-सोर्तिदियउवओगद्धा जाब फासिदियउवभोगद्धा, एवं नेरइयाणं जान बेमाणियाणं, णवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि । एतेसि गं भंते! सोत दियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाणं जहण्णयाए उवओगद्धाए उक्कोसियाए उवओगद्धाए जहबुकोसियाए उवओगद्वाए कयरेशहितो अप्पा वा०४१, गो०! सबथोवा चक्खिदियस्स जहणिया उवोगद्धा सोतिंदियस्स जहणिया उवोगद्धा विसेसाहिया पाणिदियस्स जहणिया उबोगद्धा विसे० जिम्भिदियस्स जहणिया उपओगद्धा विसे० फासिदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसे० उक्कोसियाए उवओगद्धाए सबत्थोवा चक्खिदियस्स उकोसिया उवओगद्धा सोर्तिदियस्स उकोसिया उवओगद्धा विसे० घाणिदियस्स उको० उव०विसे जिम्भिदियस्स उको उव विसे. फासिदियस्स उको उब विसे० जहण्णाउकोसियाए उबोगद्धाए सवत्थोवा चक्खिदियस्स जहणिया उवोगद्धा सोर्तिदियस्स जहण्णिया उवओगद्धा विसेसाहिया घाणिदियस्स जह० उव. विसे• जिभिदियस्स ज०उव०वि० फासिदियस्स जह० उप० वि० फासिंदियस्स जहणियाहिंतो उवओगद्धाहिंतो चक्खिदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसे० सोतिदियस्स उको० उव०वि० पाणिदियस्स उको उव० वि० जिभिदियस्स उक्को० उव. विसे० फासिंदियस्स उकोसिया उव० विसे०५। कतिविहा णं भंते ! इंदियओगाहणा पं०१, गो! पंचविहा इंदियओगाहणा पं०, तं०- सोतिदियोगाहणा जाव फासिदियोगाहणा, एवं नेरहयाणं जाब वेमाणियाणं, नवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि ६ (सूत्रं १९९) esceaeeeee 9002000-20209393920 दीप अनुक्रम [४३३-४३५]] ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] गाथा: प्रज्ञापन- 'इंदियउवचय'इत्यादि, प्रथमत इन्द्रियाणामुपचयो वक्तव्यः, उपचीयते-उपचयं नीयते इन्द्रियमनेनेत्युपचयः- १५इन्द्रियामल- इन्द्रियप्रायोग्यपुद्गलसङ्ग्रहणसम्पत् , इन्द्रियपर्यासिरित्यर्थः, तदनन्तरं निवर्त्तना वक्तव्या, निर्वर्तना नाम बाह्याभ्ययवृत्ती. उद्देशः न्तररूपा या निवृत्तिः-आकारमात्रस्य निष्पादनं, तदनन्तरं सा निर्वर्तना कतिसमया भवतीति प्रश्ऽसङ्ख्येयाः ॥३०९॥ समयास्तस्या भवेयुरिति निर्वचनं वाच्यं, तत इन्द्रियाणां लन्धिः-तदापरणकर्मक्षयोपशमरूपा वक्तव्या, तत उपयो-1 गाद्धा, तदनन्तरमल्पबहुत्वे चिन्त्यमाने पूर्वस्याः पूर्वस्याः उत्तरोत्तरा उपयोगाद्धा विशेषाधिका वक्तव्या, 'ओगाहणा' इति अपग्रहणं-परिच्छेदो वक्तव्यः, स च परिच्छेदोऽपायादिभेदादनेकधेति तदनन्तरमपायो वक्तव्यः, तत ईहा, तदनन्तरं व्यजनावग्रहः, चशब्दस्यानुक्तार्थसमुचायकत्वादावग्रहश्च वक्तव्यः, तदनन्तरं द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियसूत्र, ततोऽतीतबद्धपुरस्कृतानि द्रव्येन्द्रियाणि तदनन्तरं भावेन्द्रियाणि चचिन्तनीयानि । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश'इति न्यायात प्रथ-18 मत इन्द्रियोपचयसूत्रमाह-'काबिहेणं भंते ! इंदियउबचए पण्णत्ते' इत्यादि सुगम,नवरं 'जस्स जइ इंदिया इत्यादि, यस्य Mनैरयिकादेयति-यावन्ति इंद्रियाणि सम्भवन्ति तस्य ततिविधः-तावत्प्रकार इन्द्रियोपचयो वक्तव्यः, तत्र नैरयिकादीनां 18 स्तनितकुमारपर्यवसानानां पञ्चविधः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीनामेकविधो द्वीन्द्रियाणां द्विविधः त्रीन्द्रियाणां त्रिवि-18 ॥३०९॥ || घश्चतुरिन्द्रियाणां चतुर्विधः, तिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यन्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां पञ्चविधः, क्रमश्रेयं-स्पर्शनरसन-18 प्राणचक्षुःश्रोत्राणीति, एवमिन्द्रियनिर्वर्चनादिसूत्राण्यपि वेदितव्यानि, प्रायः सुगमत्वात् , नवरं 'इंदियउचओगद्धा दीप अनुक्रम [४३३-४३५]] R eltinary arg ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१९९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] गाथा: ६ इति यावन्तं कालमिन्द्रियरुपयुक्त आस्ते तावत्काल इन्द्रियोपयोगाद्धा । 'कतिविहा णं भंते ! ओगाहणा पण्णत्ता' | इति कतिविध-कतिप्रकारं भदन्त ! इन्द्रियैरवग्रहण-परिच्छेदः प्रज्ञप्तः। एतत्सामान्यतः पृष्टं, सामान्यं च विशेपनिष्ठमतोऽपायादिविशेषविषयाणि सूत्राण्याह कतिविधे णं भंते ! इंदियअवाए पं०१, गो०! पंचविधे इंदियअवाए पं०, तं०-सोतिदियअवाए जाव फार्सिदियअवाए, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि । कतिविहा णं भंते ! ईहा पं०१, गो! पंचविहा इहा पं०,०-सोतिदियईहा जाव फासिंदियईहा, एवं जाव वेमाणियाणं, गवरं जस्स जइ इंदिया ८ । कतिविधे मंते ! उग्गहे पं०१, गो०! दुविहे उग्गहे पं०, तं०-अत्थोग्गहे ये बंजणोग्गहे य । वंजणोग्गहे पं भंते! कतिविधे पं०१, गो०1 चउविधे पं०, ०–सोतिदियवंजणोग्गहे पाणिदियवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे फासिंदिय० । अत्योग्गहेणं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! छविहे पं०,०-सोतिदियअत्थोवग्गहे चक्खिदियब० जिभिदियअ० फासिंदियअ० नोइंदियअत्थो । नेरइयाणं भंते ! कतिविहे उम्गहे पण्णत्ते ?, गो०! दुविहे पं०, ०-अत्थोग्गहे य बंजगोग्गहे य, एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविधे उग्गहे, पं०१, गो०! दुविधे उग्गहे पं०-अत्थोग्गहे य वंजणोवग्गहे या पुढविकाइयाणं भंते! वंजणोग्गहे कतिविधे पं०१ गो० एगे फासिंदियबंजणोग्गहे पं० । पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविधे अत्थोग्गहे पण्णचे ?, गो! एगे फासिंदियअयोग्गहे पं०, एवं जाव दीप अनुक्रम [४३३-४३५]] ईन्द्रियस्य अपाय एवं अवग्रहस्य प्ररुपणा ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशकः [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक मज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥३१॥ [२००] दीप अनुक्रम [४३६] वणस्सइकाइयाणं, एवं बेइंदियाणवि, नवरं बेइंदियाणं वंजणोग्गहे दुविहे पं० अत्थोग्गहे दुविहे पं०, एवं तेइंदियचरिदियाणवि, णवरं इंदियपरिवुही कायदा, चउरिदियाणं वंजणोग्गहे तिविधे पं० अत्थोग्गहे चउविधे पं०, सेसाणं जहा यपदे नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ९-१० (मूत्रं २००) उद्देशः२ 'कतिविहे णं भंते ! इंदियअवाए पं०' इत्यादि, तत्रावग्रहज्ञानेनावगृहीतस्य ईहाज्ञानेन ईहितस्वार्थस्य निर्णयरूपो। योऽध्यवसायः सोऽपायः, शाङ्खएवायं शाई एव वायं इत्यादिरूपोऽवधारणात्मको निर्णयोऽवाय इति भावः।ईहा इति, ईह चेष्टायां' ईहनमीहा, सद्भूतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-अवग्रहादुत्तरकालमवायात् पूर्व सद्भतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखःप्रायोऽत्र मधुरत्वादयः शङ्खादिशब्दधा दृश्यन्ते न-18 कर्कशनिष्ठुरतादयः शादिशब्दधा इत्येवंरूपो मतिविशेष ईहा, आह च भाष्यकृत-"भूयाभूयविसेसादाणचायाभिमुहमीहा" । [भूताभूतविशेषादानत्यागाभिमुख्यमीहा] 'दुविहे ओग्गहे पं०,०-बंजणोग्गहे य अत्थोग्गहे य'इति, मवग्रहो द्विविधः-अर्थावग्रहो व्यअनावग्रहश्च, तत्र अवग्रहणमवग्रहः अर्थस्यावग्रहोऽर्थावग्रहः, अनिर्देश्यसामान्यरू-13 पाद्यर्थग्रहणमिति भावः, आह च नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत्-"सामन्नस्स रूवाइविसेसणरहियस्स अनिद्देस्सस्समवग्गहर्ण- १०॥ अवग्गह" इति, तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं, तच उपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्रव्याणां चयः परस्परं सम्बन्धः, सम्बन्धे हि सति सोऽर्थः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यजितुं शक्यते नान्यथा ततः सम्बन्धो व्यञ्जनं, लिएeserveercentee ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२००] दीप अनुक्रम [४३६] आह च भाष्यकृत्-"बंजिज्जइ जेणत्यो घडोब दीवेण वंजणं तं च । उवगरणिदियसद्दाइपरिणयद्दबसंबंधी ॥१॥"ST ISI[व्यज्यते येनार्थो घट इय दीपेन व्यअनं, तच्चोपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धः ॥१॥] व्यअनेन-सम्बन्धेISनावग्रहणं-सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यअनावग्रहः, अथवा व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि 'कृद्धहुल'मिति वचनात् कर्मण्यनद , व्यअनानां-शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्प्राप्तानामबग्रहः-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, आह-प्रथमं व्यजनावग्रहो भवति ततोऽर्थावग्रहस्ततः कस्मादिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्तः ?, उच्यते, स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात् , तथाहि-अर्थावग्रहः स्पष्टरूपतया सर्वैरपि जन्तुभिः । संवेद्यते, शीघ्रतरगमनादौ सकृत्सत्त्वरमुपलभ्यते, किश्चिद् दृष्टं न परिभावितं सम्यगिति व्यवहारदर्शनात् , अपिचका अर्थावग्रहः सन्द्रियमनोभावी व्यञ्जनावग्रहस्तु नेति प्रथममर्थावग्रह उक्तः । सम्प्रति व्यअनावग्रहाय अर्थावग्रह इति क्रममाश्रित्य प्रथमं व्यअनावग्रहखरूपं प्रतिपिपादयिषुः प्रश्नं कारयति शिष्यं-'वंजणोग्गहे णं भंते । कइविहे पं०' इत्यादि, इह व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियस्थ शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्ध इत्युक्तं प्राक्, ततचतुर्णामेव श्रोत्रादीनामिन्द्रियाणा व्यञ्जनावग्रहो न नयनमनसोः, तयोरप्राप्यकारित्वात् , सा चाप्राप्यकारिता नन्धध्ययनटीकायां प्रदर्शितेति नेह प्रदश्यते, अर्थावग्रहः षविधः, तद्यथा-'सोइंदियअत्थुग्गहे' इत्यादि, श्रोत्रेन्द्रियेणा-18 विग्रहो न्यानावग्रहोत्तरकालमेकसामयिकमनिर्देश्य सामान्यमात्रार्थग्रहणं श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः, एवं प्राणजिता-14 weredturary.com ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२००] दीप अनुक्रम [४३६] स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहेष्यपि वाच्यं, चक्षुर्मनसोस्तु व्यञ्जनावग्रहो न भवति, ततस्तयोः प्रथममेव खरूपद्रव्यगुणक्रिया-१५ इन्द्रिप्रज्ञापनाया: मल कल्पनातीतमनिर्देश्यसामान्यमात्रखरूपार्थावग्रहणमर्थावग्रहोऽवसेयः, 'नोइंदियअत्थावग्गहो' इति नोइन्द्रियं-मनः, यपदे २० वृत्ती. तथ द्विधा-द्रव्यरूपं भावरूपं च, तत्र मनःपर्याप्सिनामकमोदयतो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन | उद्देशः २ परिणमनं तद् द्रव्यरूपं मनः, तथा चाह नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत्-'मणपजत्तिनामकम्मोदयओ जोग्गे मणोदचे घिनुं ॥३१॥ मणतेण परिणामिया दबा दबमणो भन्नई"इति, तथा द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जीवस्य यो मनःपरिणामः स भावमनः, तथा चाह नन्धध्ययनचूर्णिकदेव-"जीवो पुण मणपरिणामकिरियावंतो भावमणो, किं भणियं होइ ?-मणद-18 घालवणो जीवस्स मणवावारो भावमणो भण्णइ" इति, तत्रेह भावमनसा प्रयोजनं, तद्ग्रहणे ह्यवश्यं द्रव्यमनसो-| पि ग्रहणं भवति, द्रव्यमनोऽन्तरेण भावमनसोऽसम्भवात् , भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति यथा भवस्थके-IN वलिनां, तत उक्तं भावमनसा प्रयोजनं, तत्र नोइंद्रियेण-भावमनसाऽर्थावग्रहो-द्रव्येन्द्रियव्यापारनिरपेक्षघटाद्य र्थखरूपपरिभावनाभिमुखः प्रथममेकसामयिको रूपाधूर्खाकारादिविशेषचिन्ताविकलोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रचिन्तात्मिको बोधो नोइंद्रियार्थावग्रहः, अवग्रहग्रहणं चोपलक्षणं तेन नोइंद्रियार्थावग्रहस्य साक्षादितरयोस्तु (ईहापाययोः) 18 उपलक्षणत उपादानं, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरित्यदोषः । कतिविहा णं भंते ! इंदिया पं०?, गो० ! दुविहा पं०, तं०-दबिंदिया य भाबिंदिया य, कति णं भंते ! ददिदिया. ॥३१॥ RELIGunintentATHREE For P OW अथ ईन्द्रियस्य द्रव्य एवं भाव-रूप भेद-प्रभेदा: ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] 2009 दीप अनुक्रम [४३७] पं० १, गो.! अह दबिंदिया पं०, तं०-दो सोता दो नेचा दो घाणा जीहा फासे । नेरइयाणं भंते ! कति दविंदिया पं०१, गो.! अट्ठ एते चेव, एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणचि । पुढविकाइयाणं भंते ! कति दबिंदिया, पं०१, गो.1 एगे फासिदिए पं०, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । बेइंदियाणं भंते ! कति दबिंदिया पं०१, गो०! दो दबिंदिया पं० त०-फासिदिए य जिभिदिए य, तेइंदियाणं पुच्छा, गो! चत्तारिदबिंदिया पं०, तं०-दो घाणा जीहा फासे, चरिंदियाणे पुच्छा, गो०! छ दबिंदिया पं० त०-दो णेत्ता दो घाणा जीहा फासे, सेसाणं जहा नेरइयाणं जाब वेमाणियाणं । एगमेगस्स पं भंते ! नेरइयस्स केवइया दबिंदिया अतीता ?, गो.! अणंता, केवइया बद्धेल्लगा !, गो. ? अट्ठ, केवड्या पुरेक्खडा, गो०! अट्ट वा सोल वा सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेसा वा अणंता वा । एगमेगस्स गं भंते ! असुरकुमारस्स केवइया दविंदिया अतीता?, गो! अणंता, केवइया बद्धेल्लगा, अह, केवड्या पुरेक्खडा, अट्ट वा नव वा सत्तरस वा संखेजा वा असंखेजा वा अर्णता वा, एवं जाब थणियकुमाराणं ताव भाणियई । एवं पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइकाइयावि, नवर केवइया बद्धेल्लगत्ति पुच्छाए उत्तरं एके फासिदियदविदिए, एवं तेउकाइयवाउकाइयस्सवि, नवरं पुरेक्खडा नव वा दस वा, एवं बेईदियाणवि, गवरं बद्धेल्लगपुच्छाए दोष्णि, एवं तेइंदियस्सवि, णवरं बद्धेल्लगा चचारि, एवं चरिंदियस्सवि नवरं बद्धेल्लगा छ, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा बाणमंतरा जोइसियसोहम्मीसाणगदेवस्स जहा असुरकुमारस्स, नवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सत्थि अट्ठ वा नव वा संखेजा वा असंखेजावा अणंता वा, सर्णकुमारमाहिंदवंभलंतगसुकसहस्साराणयपाणयारणअशुयगेवेजगदेवस्स य celee ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥३१॥ १५ इन्द्रियपदे उद्देशः २ प्रत सूत्रांक [२०१] Receaera दीप अनुक्रम [४३७] eveeeeeeee जहा नेरइयस्स, एगमेगस्स णं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवस्स केवइया दबिंदिया अतीता ?, गो० अणंता, केवड्या बद्धेल्लगा ?, अह, केवइया पुरेक्खडा ?, अट्ट वा सोलस वा चउदीसा वा संखेजा था, सबसिद्धगदेवस्स अतीता अणंता बद्धेल्लगा अढ पुरेक्खडा अट्ठ । नेरइयाणं भंते! केवइया दविंदिया अतीता, गो०! अणता, केवड्या बढेगा, गो० असंखेजा, फेवइया पुरेक्खडा, गो० अणंता, एवं जाव मेवेज्जगदेवाणं, नवरं मणसाणं बद्धेल्लगा सिय संखेज्जा सिय असंखेजा, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवाणं पुच्छा, गो०! अतीता अर्णता बद्धेल्लगा असंखेजा पुरेक्खडा असंखेज्जा, सबढसिद्धगदेवाणं पुच्छा, गो ! अतीता अर्णता, बदल्लगा संखेज्जा, पुरेक्खडा संखेजा। एगमेगस्स णं नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता ?, गो! अर्णता, केवइया बद्धेल्लगा, गो० ! अह, केवइया पुरेक्खडा, गो.! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । एगमेगस्सणं नेरइयस्स असुरकुमारते केवइया दविदिया अतीता, गो०! अणंता, केवइया बहेल्लगा, गो०! णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि अह वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं जाव थणियकुमारत्ति । एगमेगस्स ण नेरइयस्स पुढविकाइयचे फेवड्या दविदिया अतीता, गो! अणंता, केवड्या बद्धेल्लगा, गो०! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सइ नस्थि, जस्सस्थि एको वादो वा तिणि वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता चा, एवं जाव वणस्सइकाइयत्ते । एगमेगस्स णं भंते! नेरदयस्स बेईदियते केवड्या दबिंदिया अतीता ?, गो० ! अणंता, केवइया बद्धेल्लमा ?, गो.! पत्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो० ! कस्सइ ॥३१॥ SARERainintamanna ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [४३७] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - - मूलं [२०१] पदं [१५], --------------- उद्देशक: [२], -------- दारं [-], [------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Eaton International अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि दो वा चत्तारि वा संखेजा वा असंखेज्जा वा अनंता वा, एवं तेईदिय तेवि, नवरं पुरेक्खडा चार अट्ट वा वारस वा संखेजा वा असंखेज्जा वा अनंता वा, एवं चउरिदियत्तेवि, नवरं पुरेक्खडा छ वा वारस वा अट्ठारस वा संखेजा या असंखेजा वा अनंता वा, पंचिदियतिरिक्ख जोणियचे जहा असुरकुमारचे मणूसत्तेवि एवं चैव, नवरं केवइया पुरेक्खडा ?, अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, सधेसि मणूस जाणं पुरेक्खडा मणूसत्ते कस्सह अस्थि कस्सइ नत्थि एवं ण बुचति, वाणमंतरजोइसिय सोहम्मग जाव गेवेजगदेवते अतीता अता बल्ला नत्थ, पुरेक्खडा कस्सई अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अत्थि अट्ठ वा सोलस वा चडवीसा वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अनंता था, एगमेगस्स णं मंते ! नेरइयस्स विजयवेजयंत जयंत अपराजितदेवते केवइया दबिंदिया अतीता १, णत्थि केवइया पुरेक्खडा १, कस्सर अस्थि कस्सर नत्थि जस्स अस्थि अट्ठ वा सोलस वा सङ्घट्टसिद्धगदेवते अतीता नत्थि, बलगा गत्थि, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ गत्थि जस्स अस्थि अद्ध। एवं जहा नेरइयदंडओ नीतो तहा असुरकुमारेणवि नेतवो, जाव पंचिदियतिरिक्खजोगिएणं, नवरं जस्स सट्टाणे जह बलगा तस्स तह भाणियत्वा। एगमेगसणं भंते! मणूसस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो० ! अनंता, केवइया बद्धेलगा ?, णत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्सत्थि अट्ठ वा सोलस वा चउबीसा वा संखेआ वा असंखेज वा अणंता वा, एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियचे, णवरं एगिंदियविगलिदिएमु जस्स जर पुरेक्खडा तस्स ततिया भाणियवा, एवमेगस्स गं भंते! मणुसस्स मणूस केवइया दबिंदिया अतीता, गो० ! अगंता, केवइया बढेलगा, गो० ! अट्ट, केवइया पुरेकक्खडा ?, For Pasta Use Only ~ 229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १५ इन्द्रियपदे उद्देशः२ प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२०१] ॥३१॥ दीप अनुक्रम [४३७] कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि अट्ट वा सोलस वा उघीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अर्णता वा, वाणमंतरजोइसिया जाच गेवेज्जगदेवचे जहा नेरइयचे, एगमेगस्स णं भंते ! मासस्स विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दकिंदिया अतीता ?, गो! कस्सइ अस्थि कस्सह नस्थि, जस्स अत्थि अट्ट वा सोलस वा, केवड्या बबेल्लगार, नथि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा, एगमेगस्सणं भंते! मणूसस्स वा सबट्टसिदुगदेवत्ते केवतिता दहिंदिया अतीता', गो! कस्सइ अत्थि कस्सइ नस्थि, जस्सत्थि अह, केवइया बद्देल्लगा, णत्थि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्यि, जस्स अस्थि अट्ट, वाणमंतरजोतिसिए जहा नेरतिए । सोहम्मगदेवेवि जहा नेरइए, नवरं सोहम्मगदेवस्स विजयवेजयंतजयंतापराजियत्ते केवइया अतीता, गो! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्वि, जस्स अस्थि अट्ट, केवइया बद्धेल्लगा, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सति पत्थि, जस्स अस्थि अट्टचा सोलस था, सबसिद्धगदेवत्ते जहा नेरइयस्स, एवं जाव गेवेअगदेवस्स, सबढसिद्धग ताव णेत । एगमेगस्स णं भंते! विजयवेजयंतजयंतापराजितदेवस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो! अर्णता, केवइया बद्धेल्लगा, पत्थि, केवड्या पुरेक्खडा, पत्थि, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ते मणूसत्ते अतीता अणंता, बद्धेल्लगा णस्थि, पुरेक्खडा अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा, वाणमंतरे जोइसियत्ते जहा नेरइयत्ते, सोहम्मगदेवतेऽतीता अर्णता, बद्धेलगा णस्थि, पुरेक्खडा कस्सह अस्थि कस्सह नथि, जस्स अस्थि अट्ट वा सोलस वा चउषीसा वा संखेजा बा, एवं जाव गेवेजगदेवते, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते अतीता कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि अह, केवतिया बद्धे celerate ॥३१३॥ ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [४३७] ल्लगा?, अट्ठ, केवतिया पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि अह, एगमेगस्स णं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवस्स सबट्ठसिद्धगदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो०! णत्यि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्स अस्थि अह, एगमेगस्स णं भंते ! सबढसिद्धगदेवस्स नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो०! अर्णता, केवइया बद्देल्लगा ?, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, णस्थि, एवं मणसवजं जाव गेवेजगदेवत्ते, नवरं मणूसते अतीता अणंता, केवइया पद्धेल्लगा, णस्थि, केवड्या पुरेक्खडा, अट्ठ, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवते अतीता कस्सति अस्थि कस्सति नस्थि, जस्स अस्थि अट्ठ, केवइया बद्दलगा, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, णस्थि, एगमेगस्स णं भंते ! सबढसिद्धगदेवस्स सबढसिद्धगदेवचे केवइया दबिंदिया अतीता, गो! गस्थि, केवइया बद्धेल्लगा, अह, केवड्या पुरेक्खडा, णस्थि । नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिता दर्षिदिया अतीता, गो० अर्णता, केवइया बढ़ेलगा?, असंखेजा, केवड्या पुरेक्खडा?, अर्णता, नेरइयाणं भंते ! असुरकुमारत्ते केवइया दविदिया अतीता?, गो०! अर्णता, केवइया बद्धेल्लगा, पत्थि, केवड्या पुरेक्खडा, अणंता, एवं जाव गेवेजगदेवते, नेरइयाणं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता?, नस्थि, केवइया बद्धेल्लगा, पत्थि, केवइया पुरेक्खडा, असंखिज्जा, एवं सबसिद्धगदेवत्तेवि, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सबसिद्धगदेवत्ते भाणिय, नवरं वणस्सइकाइयाणं विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते सबद्दसिद्धगदेवत्ते य पुरेक्खडा अर्णता, सन्वेसि मणुससबद्दसिद्धगवजाणं सहाणे बद्धेल्लगा असंखेजा, परहाणे बद्धेल्लगा णत्थि, वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगा अणंता, भणसाणं नेरइयत्ते अतीता अणंता ब लगा णस्थि . ecenecemenesear ~231~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्तो. ॥३१४॥ दीप अनुक्रम [४३७] पुरेक्खडा अणंता, एवं जाव मेवेञ्जगदेवत्ते, नवरं सवाणे अतीता अर्णता बद्धेल्लगा सिय संखेजा सिय असंखेज्जा पुरेक्खडा । १५इन्द्रिअणंता, मणसाणं भंते ! विजययेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता ?, संखेजा, केवइया बद्धेल्लगा ?, यपदे पत्थि, केवइया पुरेक्खडा, सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं सबढसिद्धगदेवचे अतीता णस्थि बद्धेल्लगा णत्थि Kउद्देशः२ पुरेक्खडा असंखेजां, एवं जाव गेजगदेवाणं, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, गो० अर्णता, केवड्या पद्धेल्लगा, णस्थि, केवइया पुरेक्खडा, णस्थि, एवं जाव जोइसियत्तेषि, णवरं मणूसत्ते अतीता अर्णता, केवइया बद्धलगा ?, णस्थि, पुरेक्खडा असंखिज्जा, एवं जाव गवेजगदेवत्ते सट्ठाणे अतीता असंखेजा, केवइया बद्धेल्लगा ?, असंखिज्जा, केवइया पुरेक्खडा, असंखेजा, सबट्ठसिद्धगदेवचे अतीता नस्थि बद्धेल्लगा नत्थि पुरेक्खडा असंखेजा, सबढसिद्धगदेवाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया दविंदिया अतीता?, गो० ! अणंता, केवतिया बद्धेल्लगा, नत्थि, केवतिया पुरेक्खडा, णस्थि, एवं मणूसवजं ताव गेवेजगदेवत्ते, मणुसत्ते अतीता अणंता, बद्धेल्लगा नत्थि, पुरेक्खडा संखेजा, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्ते केवइया दबिंदिया अतीता, संखेजा, केवइया बद्धल्लगा, पत्थि, केवड्या पुरेक्खडा, णत्थि, सबद्दसिद्धगदेवाणं भंते ! सबढसिद्धगदेवत्ते केवइया दविंदिया अतीता, णत्थि, केवड्या बद्धलगा, संखिज्जा, केवइया पुरेक्खडा, णत्थि, दार ११ । कति णं भंते ! भाबिंदिया, पं०१, गो! पंच भाविंदिया, पं०, तं०-सोतिदिए जाव फासिदिए, नेरइयाणं भंते ! कति भाबिंदिया पं०१, गो०। पंच भाविदिया पं०, ०–सोतिंदिते जाव फासिंदिते, एवं जस्स जइ इंदिया तस्स तइ भाणितबा, जाव वेमाणियाणं, एगमेगस्स ॥३१४॥ ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] Preseleselor ण भंते ! नेरदयस्स केवइया भाविंदिया अतीता, गो०! अर्णता, केवइया पद्धेल्लगा, पंच, केवइया पुरेक्खडा . पंच वा दस वा एकारस वा संखेजा वा असंखेआ वा अर्णता वा, एवं असुरकुमारस्सवि, नवरं पुरेक्खडा पंच या छ वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणता वा, एवं जाव थणियकुमारस्सवि, एवं पुढविकाइयाउकाइयवणस्सइकाइयस्सवि, बेईदियतेइंदियचउरिदियस्सवि, तेउकाइयवाउकाइयस्सवि एवं चेव, नवरं पुरेक्खडा छ वा सत्त वा संखेजा वा असंखेज्जा वा अर्णता वा, पांचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जाब ईसाणस्स जहा असुरकुमारस्स, नवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थिति भाणियवं, सर्णकुमार जाव गेवेञ्जगस्स जहा नेरइयस्स, विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवस्स अतीता अणता, बद्धेल्लगा पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेजा वा, सबद्दसिद्धगदेवस्स अतीता अर्णता, बदेल्लगा पंच, केवइया पुरेक्खडा, पंच । नेरइयाणं भंते ! केवइया भाबिंदिया अतीता, मो०! अर्णता, केवइया बदल्लगा', असंखेजा, केवइया पुरेक्खडा, अर्णता, एवं जहा दर्विदिएसु पोहणं दंडतो भणितो तहा भाविदिएसुवि पोहत्तेणं दंडतो भाणियबो, नवरं वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगा अणंता, एगमेमस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया भाविंदिया अतीता?, गो०! अणंता, बद्धेल्लगा, पंच, पुरक्खडा कस्सवि अस्थि कस्सवि नत्थि, जस्स अस्थि पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं, नवरं बद्धेल्लगा नस्थि, पुढविकाइयत्ते जाव येइंदियने जहा दबिंदिया, तेइंदियत्ते तहेव नवरं पुरेक्खडा तिणि वा छ वा णव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं चउरिंदियत्तेवि, नवरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा eceedees दीप अनुक्रम [४३७] ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मज्ञापन या।मल यपदे प्रत सूत्रांक [२०१] यवृत्ती. बयान ॥३१५॥ दीप अनुक्रम [४३७] eeseaseseseree अणंता वा, एवं एए चेच गमा चत्तारि जाणेतवा जे चेव दविदिएस, णवरं तइयगमे जाणितवा जस्स जइ इंदिया ते १५इन्द्रिपुरेक्खडेसु मुणेतबा, चउत्थगमे जहेच दविंदिया, जाव सबसिद्धगदेवाणं सबढसिद्धगदेवत्ते केवतिया भाविदिया अतीता', नत्थि, बद्धेल्लगा ?, संखिजा, पुरेक्खडा, णत्थि ( सूत्र २०१) ॥ इंदियपयं समतं ॥ १६ ॥ INउद्देशः २ . 'कतिविहा णं भंते ! इंदिया पं०' इति द्रव्येन्द्रियसूत्रं सुगम, प्राग्भावितत्वात् , 'कइ णं भंते ! दबिंदिया पर इत्यादि, द्रव्येन्द्रियसङ्ख्याविषयं दण्डकसूत्रं च पाठसिद्धं, एकैकजीवविषयातीतबद्धपुरस्कृतद्रव्येन्द्रियचिन्तायां 'पुरक्खडा अट्ट वा सोल वा सत्तरस वा संखिज्जा वा असंखिज्जा वा अणंता वा' इति, यो नैरयिकोऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य मानुषभवसम्बन्धीन्यष्टी, यः पुनरनन्तरभवे तिर्यपञ्चेन्द्रियत्वमवाप्य तत उद्धृत्तो मनुष्येषु । गत्वा सेत्स्यति तस्याष्टौ तिर्यपञ्चेन्द्रियभवसम्बन्धीन्यष्टौ मनुष्यभवसम्बन्धीनीति षोडश, यः पुनरनन्तरं नरकादुत्तस्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियत्वमवाप्य तदनन्तरमेकं भवं पृथिवीकायादिको भूत्वा मनुष्येषु समागत्य सेत्स्यति तस्थाष्टी| तिर्यपञ्चेन्द्रियभवसम्बन्धीनि एकं पृथिवीकायादिभवसम्बन्धि अष्टौ च मनुष्यभवसम्बन्धीनीति सप्तदश सङ्ख्येयकालं संसारावस्थायिनः सोयानि असंङ्ख्येयं कालमसङ्ख्येयानि अनन्तं कालमनन्तानि । असुरकुमारसूत्रे 'पुरक्खडा | ॥१५॥ अट्ट वा नव वा' इत्यादि, तत्रासुरभवादुत्त्यानन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यतोऽष्टी, असुरकुमारादयस्त्वीशानपर्य-| न्ताः पृथिव्यवनस्पतिषूत्पद्यन्ते ततोऽनन्तरभवे पृथिव्यादिषु गत्वा तदनन्तरं मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तख नव, ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [४३७] सजायेयादिभावना प्राग्वत् , पृथिव्यवनस्पतिसूत्रे 'पुरक्खडा अट्ट वा नवे ति पृथिव्यादयो बनन्तरमुवृत्त्य मनुष्येषु उत्पद्यन्ते सिध्यन्ति च, तत्र योऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य मनुष्यभवसम्बन्धीन्यष्टौ, यस्त्वनन्तरमेकं | पृथिव्यादिभवमवाप्य तदनन्तरं मनुष्यो भूत्वा सेत्स्यति तस्य नव, तेजोवायवोऽनन्तरमुछ्त्ता मनुष्यत्वमेव न प्रामुवन्ति। द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्त्वनन्तरं मनुष्यत्वमवामुवन्ति परं न सियन्ति ततस्तेषां सूत्रेषु जघन्यपदे नव नवेति वक्तव्यं, शेषभावना प्रागुक्तानुसारेण कर्त्तव्या, मनुष्यसूत्रे पुरस्कृतानि द्रव्येन्द्रियाणि कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्तीति, तद्भव एव सियतो न सन्ति शेषस्य सन्तीति भावः, यस्यापि सन्ति सोऽपि यद्यनन्तरभवे भूयोऽपि मनुष्यो भूत्वा । सेत्स्यति तस्याष्टी, यः पुनः पृथिव्यायेकभवान्तरितो मनुष्यो भूत्वा सिद्धिगामी तस्य नव, शेषभावना प्राग्वत् , सनत्कुमारादयो देवा अनन्तरमुद्दृत्ताः न पृथिव्यादिष्वायान्ति किन्तु पञ्चेन्द्रियेषु, ततस्ते नैरयिकवद्वक्तव्याः, तथा चाह"सणंकुमारमाहिदबंभलोयलंतगसुक्सहस्सारआणयपाणयआरणअचुयगेविजदेवस्स य जहा नेरइयस्स” विजया-| दिदेवचतुष्टयसूत्रेषु योऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्याष्टी, यः पुनरेकवारं मनुष्यो भूत्वा भूयोऽपि मनुष्य-N त्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य षोडश, यस्त्वपान्तराले देवत्वमनुभूय मनुष्यो भूत्वा सिद्धिगामी तस्य चतुर्विंशतिः, मनु-| व्यभवे अष्टौ देवभवेऽष्टौ भूयोऽपि मनुष्यभये अष्टाविति, सङ्ख्येयानि सङ्ख्येयं कालं संसारावस्थायिनः, इह विजया|दिषु चतुर्यु गताः प्रभूतमसङ्खयेयमनन्तं वा कालं संसारे नावतिष्ठन्ते ततः संखेज्जा वा इत्येवोक्तं, 'नासंखेजा वा अणंता ~235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥३१६॥ दीप अनुक्रम [४३७] वा' इति, सर्वार्थसिद्धस्त्वनन्तरभवे नियमतः सिद्ध्यति ततस्तस्याजघन्योत्कृष्टं पुरस्कृता अष्टाविति । बहुवचनचिन्तायां नरयिकसूत्रे बद्धानि द्रव्येन्द्रियाण्यसङ्ख्येयानि, नैरयिकाणामसङ्ख्यातत्वात् , एवं शेषसूत्रेवप्युपयुज्य वक्तव्यं, नवरं यपदे मनुष्यसूत्रे 'सिय संखेजा सिय असंखेजा' इह सम्मूछिममनुष्याः कदाचित् सर्वथा न सन्ति, तदन्तरस्य चतु उद्देशः २ विशतिमुहूर्तप्रमाणस्य प्रागभिधानात् , तत्र यदा पृच्छासमये सर्वथा न सन्ति तदा सक्येयानि, गर्भजमनुष्याणां सङ्ख्येयत्वात् , यदा तु सम्मूछिमा अपि सन्ति तदा असह्वयेयानि, सर्वार्थसिद्धमहाविमानदेवाः सङ्खयेयाः, बादरत्वे महाशरीरत्वे च सति परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् , ततो वद्धानि पुरस्कृतानि वा तेषां द्रव्येन्द्रियाणि साधेयानि, 'एगमे-15 |गस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते' इत्यादि, 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि' इति यो नरकादुदृत्तो भूयोऽपि नैरयिकत्वं नावाप्स्यति तस्य न भवन्ति, यस्त्ववाप्स्यति तस्य सन्ति, सोऽपि यद्येकवारमागामी ततोऽष्टौ द्वौ वारी चेत् तर्हि पोडश यदि त्रीन् बारान् ततश्चतुर्विंशतिः सङ्ख्येयान् वारान् आगामिनः सङ्ख्येयानीत्यादि, मनुष्यत्वचिन्तायां 'कस्सइ अत्थि कस्सइ पत्थि' इति न वक्तव्यं, मनुष्येध्यागमनस्यावश्यंभावित्वात् , ततो जघन्यपदेऽष्टौ उत्कर्पतोऽनन्तानी-1 ति वक्तव्यं, विजयवैजयंतजयन्तापराजितचिन्तायां अतीतानि द्रव्येन्द्रियाणि न सन्ति, कस्मादिति चेत् !, उच्यते, ॥३१॥ इह विजयादिषु चतुर्पु गतो जीवो नियमात् तत उद्धृत्तो न जातुचिदपि नैरयिकादिपञ्चेन्द्रियतिर्यकपर्यवसानेषु तथा न्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु च मध्ये समागमिष्यति तथाखाभाब्यात्, मनुष्येषु सौधर्मादिषु चागमिष्यति, तत्रापि ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१५], -------------- उद्देशक: [२], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१] जघन्यत एक द्वौ (चीन) वा भवानुत्कर्षतः सङ्ख्येयान् न पुनरसङ्ख्येयान् अनन्तान् वा, ततो नैरयिकस्य विजयादित्वेऽतीतानि द्रव्येन्द्रियाणि न सन्तीत्युक्तं, पुरस्कृतानि अष्टौ षोडश वा, विजयादिषु द्विरुत्पन्नस्यानन्तरभवे नियमतो मोक्षगमनात्, एवं यथा नैरयिकस्य नैरयिकत्वादिषु चतुर्विशती स्थानेषु चिन्ता कृता तथा असुरकुमारादीनामपि प्रत्येक कर्तव्या, पूर्वोक्तभावनाऽनुसारेण च खयमुपयुज्य परिभावनीया, भावेन्द्रियसूत्राण्यपि सुगमान्येव, केवलं द्रव्येन्द्रियगतभावनानुसारेण तत्र भावना भावयितव्या ॥१५॥ दीप अनुक्रम [४३७] इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां पञ्चदश मिन्द्रियाख्यं पदं समाप्तम् ॥ BSITE24 अत्र पद (१५) "इन्द्रिय" परिसमाप्तम् ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०२] दीप अनुक्रम [४३८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [ - ], -------------- दारं [-1, [----- - मूलं [२०२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥३१७॥ अथ षोडशं पदं ॥ १६ ॥ तदेवं व्याख्यातं पञ्चदशमधुना षोडशमारभ्यते - तस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे प्रधान पद हेतुत्वादिन्द्रि यवतामेव लेश्यादिसद्भावात् विशेषत इन्द्रियपरिणाम उक्तस्ततस्तदनन्तरमिह परिणामसाम्यात् प्रयोगपरिणामः प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् - कतिविहे णं भंते । पओगे पं० १, गो० ! पण्णरसविहे पओगे पं० तं सचमणप्पओगे १ असचमणप्पओगे २ सच्चामोसमणप्पओगे ३ असच्चामोसमणप्पओगे ४ एवं वइप्पओगेवि चउहा ८ ओरालियसरीरकायप्पओगे ९ ओरालियमीससरीरकायप्पओगे १० वेउद्वियसरीरकायप्पओगे ११ वेउधियमीससरीरकायप्पओगे १२ आहारकसरीरका यप्पओगे १३ आहारगमीससरीरकायप्पओगे १४ ( तेया ) कम्मासरीरकायप्पओगे १५ (सूत्रं २०२ ) 'कविहे णं मंते !' इत्यादि, कतिविधः कतिप्रकारः, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! प्रयोगः प्रज्ञप्तः १, प्रयोग इति प्रपूर्वस्य 'युजिरायोगे' इत्यस्य घञन्तस्य प्रयोगः, परिस्पन्दक्रिया आत्मव्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते व्यापार्यते क्रियासु सम्बन्ध्यते वा साम्परायिकेर्यापथकर्मणा सहात्मा अनेनेति प्रयोगः 'पुंनानी'ति करणे घन्प्र Eucation International ... अत्र 'प्रयोग'स्य पञ्चदश भेदा: प्ररुप्यते For Prata Use Only अथ पद (१६) "प्रयोग" आरभ्यते ~238~ १६ प्रयोगपदं ॥३१७॥ waryra Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०२] त्ययः, भगवानाह–पञ्चदशविधः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चदशविधत्वं दर्शयति-'सच्चमणप्पओगे' इत्यादि, सन्तो-मुनयः पदार्था वा तेषु यथासङ्ख्यं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थितवस्तुखरूपचिन्तनेन च साधु सत्यं-अस्ति जीवः सदसद्रूपो । देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुचिन्तनपरं, सत्यं च तत् मनश्च सत्यमनः तस्य प्रयोगो-व्यापारः सत्यमनप्रयोगः, 'असचमणप्पओगे' इति, सत्यविपरीतमसत्यं, यथा-नास्ति जीवः एकान्तसद्रूपो वेत्यादिकुविकल्पनपरं, तब सम्मनच तस्य प्रयोगोऽसत्यमनःप्रयोगः, 'सच्चमोसमणप्पओग' इति सत्यमृपा-सत्यासले यथा धवख-11 |दिरपलाशादिमिश्रेषु बहुप्पशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनपरं, तत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावातू सत्यता अन्येषामपि धवस्खदिरादीनां सद्भावादसत्यता, व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, यथाविकल्पितार्थायोगात् , तच तन्मनश्चेत्यादि प्राग्वत् , तथा 'असचामोसमणप्पओगे' इति यन्न सत्यं नापि | मृषा तदसत्यामृषा, इह चिनतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते यथा अस्ति जीवः सदस-१ Nद्रूप इति तत्किल सत्यं परिभाषितमाराधकत्वात् , यत्पुनर्विप्रतिपत्ती सत्यां यद्वस्तुप्रतिष्ठाशयाऽपि सर्वज्ञमतोत्तीर्ण |विकल्प्यते यथा नास्ति जीवः एकान्तनित्यो वेत्यादि तदसत्सं विराधकत्वात् , यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठासामन्तरेण खरूपमात्रपर्यालोचनपरं यथा-देवदत्तात् ३ घट आनेतन्यो गौर्याचनीया इत्यादिचिन्तनपरं तन् असत्यामृषा, इदं हि खरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वात् न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषा, एतदपि व्यवहारनयमतापेक्षया द्रष्टव्यं, अन्यथा Sectionistreesearcheeroenesaceae दीप अनुक्रम [४३८] FREExam Heerajastaramorg ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. प्रत सूत्रांक [२०२] ॥३१॥ yaee दीप अनुक्रम [४३८] विप्रतारणबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति अन्यत्तु सत्ये, तच तन्मनश्च तस्य प्रयोगोऽसत्याऽमृपामनःप्रयोगः । एवं 'वइ- १६ प्रयोप्पओगोवि चउहा' इति, यथा मनःप्रयोगश्चतुर्की तथा वाक्प्रयोगोऽपि चतुर्की, तद्यथा-सत्यवाक्प्रयोगो मृपा- गपदं वाक्प्रयोगः सत्यामृपावाप्रयोगः असत्यामृषावाक्प्रयोगः, एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनःप्रभृतिवद्भावनीया इति । 'ओरालियसरीरकायप्पओगे' इति औदारिकादिशब्दार्थमने वक्ष्यामः, औदारिकमेव शरीरं तदेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वात् उपचीयमानत्वाय कायः औदारिकशरीरकायः तस्य प्रयोगः औदारिकशरीरकायप्रयोगः, अयं च तिरथो मनुष्यस्य च पर्याप्तस्य १, 'औदारिकमिश्रकायशरीरप्रयोग' इति औदारिकं च तन्मियं च औदारिकमिश्र, केन सह मिश्रितमिति चेत् ?, उच्यते, कार्मणेन, तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण शख (आहार) परिज्ञाध्ययने-'जोएणं कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ॥१॥[योगेन कार्मणेनाहारयत्यनन्तरं जीवः। ततः परं मिश्रेण यावत् शरीरस्य निष्पत्तिः ॥१॥] ननु मिश्रत्वमुभयनिष्ठं, तथाहि-यथा औदारिक कार्मणेन मिथ तथा कार्मणमपि औदारिकेण मिश्र ततः कस्मादौदारिकमिश्रमेव तदुच्यते न कार्मणमिश्रमिति !, उच्यते, इह व्यपदेशः स प्रवर्तनीयो येन विवक्षितार्थप्रतिपत्तिनिष्प्रतिपक्षा श्रोतृणामुपजायते, अन्यथा संदेहापत्तितो विवक्षि- ॥१८॥ तार्थाप्रतिपच्या न तेषामुपकारः कृतः स्यात्, कार्मणं च शरीरमासंसारमविच्छेदेनाव स्थितत्वात् सकलेवपि शरी-TRI रेषु सम्भवति, ततः कार्मणमिश्रमित्युक्ते न ज्ञायते कि तिर्यग्मनुष्याणामपर्याप्तावस्थायां तद्विवक्षितमुत देवनारका 26tice SARERainintamanna ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: eceoRNA प्रत सूत्रांक [२०२] दीप अनुक्रम [४३८] णामिति १, तत उत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रधानत्वात् कादाचित्कत्वाच निप्रतिपक्ष विचक्षितार्थप्रतिपयर्थमौदारिकेण व्यपदिश्यते-औदारिकमिश्रमिति, तथा यदीदारिकशरीरो वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यस्तिर्यपश्चेन्द्रियः पर्याप्तकवादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदा किलौदारिकशरीरप्रयोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुगलानुपादाय वैक्रियशरीरपर्याप्त्या यावन पर्याप्तिमुपगच्छति तावत् यद्यपि वैक्रियेण मिश्रतोदारिकस्योभयनिष्ठा तथाप्यौदारिकस्य प्रारम्भकतया प्रधानत्वात् तेन व्यपदेश औदारिकमिश्रमिति, न वैक्रियेणेति, तथा आहारकमपि शरीरं यदा कश्चिदाहारकलब्धिमान् पूर्वधरः करोति तदा यद्यप्याहारकेण मिश्रत्वमौदारिकस्योभयनिष्ठं तथाप्यौदारिकमारभकतया प्रधानमिति तेन व्यपदेशप्रवृत्तिरौदारिकमिश्रमिति, न त्वाहारकेणेति, औदारिकमिश्रं च तत् शरीरं चेत्यादि पूर्ववत् २, वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य ३, वैक्रिहायमिश्रशरीरकायप्रयोगो देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां, मिश्रता च तदानीं कार्मणेन सह वेदितव्या, अत्राक्षेपप-1 रिहारी प्राग्वत् , तथा यदा मनुष्यस्तिर्यपञ्चेन्द्रियो वायुकायिको वा वैक्रियशरीरी भूत्वा कृतकार्यों वैक्रियं परिजि-11 हीर्घरौदारिके प्रवेष्टुं यतते तदा किल वैक्रियशरीरबलेनौदारिकोपादानाय प्रवर्त्तते इति वैक्रियस्य प्राधान्यात्तेन व्यपदेशो नौदारिकेणेति वैक्रियमिश्रमिति ४, तथा आहारकशरीरकायप्रयोगः आहारकशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य ५, आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः आहारकादौदारिकं प्रविशतः, एतदुक्तं भवति यदा आहारकशरीरी भूत्वा ~241~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं - -------------- मूलं [२०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना- या मलयवृत्ती. १६ प्रयोगपदं प्रत सूत्रांक [२०२] ॥३१९॥ कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदा यद्यपि मिश्रत्वमुभयनिष्टं तथाप्यौदारिके प्रवेश आहारकबलेनेत्याहारकस्य प्रधानत्वात् तेन व्यपदेशो नौदारिकेणाहारकमिश्रमिति ६ । एतच सिद्धान्ताभिप्रायेणोक्तं, कार्मग्रन्थिकाः पुनक्रि- यस्य प्रारम्भकाले परित्यागकाले च वैक्रियमिश्रमाहारकशरीरस्य प्रारम्भकाले परित्यागकाले च आहारकमिश्र, न त्वेकस्यामप्यवस्थायामौदारिकमिश्रमिति प्रतिपन्नाः, तैजसकामणशरीरप्रयोगो विग्रहगती समुद्घातावस्थायां वा सयोगिकेवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु, इह तैजसं कार्मणेन सहाव्यभिचारीति युगपत्तैजसकार्मणग्रहणं, अमूनेव पञ्चदश प्रयोगान् जीवादिषु स्थानेषु चिन्तयन्नाह जीवाणं भंते ! कतिविधे पओगे पणते ?, गो! पण्णरसविधे पण्णते, सञ्चमणप्पओगे जाव कम्मासरीरकायप्पओगे, नेरयाणं भंते । कतिविधे पओगे पष्णते, गो! एकारसविधे पओगे पं०, तं0---सञ्चमणप्पओगे जाव असचामोसवयप्पओगे बेउवियसरीरकायप्पओगे वेउवियमीससरीरकायप्पओगे (तेया) कम्मासरीरकायप्पओगे, एवं असुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो० तिविहे पओगे पं०, ०-ओरालियसरीरकायप्पओगे ओरालियमीससरीरकायप्पओगे कम्मासरीरकायप्पओगे य, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, णवरं वाउकाइयाणं पंचविहे पओगे पं०, तं ओरालियकायप्पओगे ओरालि यमीससरीरकायप्पओगे य वेउबिए दुविधे कम्मासरीरकायप्पओगे य, बेईदियाणं पुरुछा, गोचविहे पओगे पं०, तं०--असञ्चामोसवइप्पओगे ओरालियसरीरकायप्प० ओरालियमीससरीरकायप्प० कम्मा Estroceae दीप अनुक्रम [४३८] se ॥३१९॥ 'कस्य जीवस्य कतिविधा प्रयोगा वर्तते?' तत् प्ररुपणा क्रियते ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०३] एटर सरीरकायप्प एवं जाव चरिंदियार्ण, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो तेरसविधे पओगे ५०,०-सच्चमणप्पओगे मोसमणप्पओगे सच्चामोस० असचामोसमणप्प०, एवं बइप्पओगेवि, ओरालियसरीरकायप्प० ओरालियमीससरीरकायप्प० वेउवियसरीरकायप० वेउवियमीससरीरकायप्प० कम्मासरीरकायप्पओगे, मणूसाणं पुच्छा, गो.! पण्णरसविधे पओगे पं०, तं०-सच्चमणप्प० जाव कम्मासरीरकायप्प०, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं (सूत्रं २०३) 'जीवाणं भंते ! कतिविधे पओगे पं०' इत्यादि, तत्र जीवपदे पञ्चदशापि प्रयोगाः, नानाजीवापेक्षया सदैव पञ्चदशानामपि योगानां लभ्यमानत्वात्, नैरपिकपदे एकादश, औदारिकौदारिकमिश्राहारकाहारकमिश्रप्रयोगाणां तेषामसम्भवात् , एवं सर्वेष्वपि भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयं, पृथिव्यादिषु वायुकायवर्जेवेके-18 न्द्रियेषु प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयस्वयः प्रयोगाः औदारिकौदारिकमिश्रकार्मणलक्षणाः, वायुकायिकेषु पञ्च, वैक्रियवैक्रियमिश्रयोरपि तेषां सम्भवात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं चत्वारः औदारिकमौदारिकमिकं कार्मणमसत्यामृषाभाषा च, शेषास्तु सत्यादयो भाषास्तेषां न सम्भवन्ति 'विगलेसु असचमोसेव' [विकलेषु असत्यामुषैव ] इति वचनात्, पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकानां त्रयोदश आहारकाहारकमिश्रयोस्तेषामसम्भवादसम्भवचतुर्दशपूर्वाधिगमासम्भवात् , मनु-1 व्येषु पञ्चदशापि, मनुष्याणां सर्वभावसम्भवात् । अधुना जीवादिषु पदेषु नियतप्रयोगमावं विचिन्तयिषुरिदमाह जीवाणं भंते । किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मसरीरकायप्पओगी, जीवा सत्वेवि ताव होज सच्चमणप्पओगीवि दीप अनुक्रम [४३९] Sectoticeae For P OW ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १६ प्रयो प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. गपदं [२०४] ॥३२001 दीप जाव वेउदियमीससरीरकायप्पओगीचि कम्मासरीरकायप्पओगीवि १३, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी यर अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य ३, अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पोगिणो य ४, चउमंगो, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पोगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, एए जीवाणं अह१। नेरइयाण मंते ! कि सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मसरीरकायप्पओगी १११, नेरइया सवेवि ताव होआ सच्चमणप्पओगीवि जाव वेउदियमीसासरीरकायप्पओगीवि, अहवेगे य कम्मसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पोगिणो य २, एवं असुरकुमारावि, जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं भंते ! किं ओरालियसरीरकायप्पओगी ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी कम्मासरीरकायप्पयोगी?, गो! पुढविकाइया ओरालियसरीरकायप्पओगीवि ओरालियमीससरीरकायष्पओगीवि कम्मासरीरकायप्पओगीवि, एवं जाव वणफइकाइयाणं, णवरं बाउकाइया वेउवियसरीरकायप्पओगीवि वेउवियमीसासरीरकायप्पओगीवि, बेईदियाण मंते ! कि ओरालियसरीरकायप्पओगी जाव कम्मासरीरकायप्पओगी, गो! बेइंदिया सबेवि ताव होजा असच्चमोसवइप्पओगीवि ओरालियसरीरकायप्पओगीवि ओरालियमीससरीरकायप्पओगीषि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगीवि, अहवेगे य कम्मासरीरकायपओगिणो य, एवं जाव चउरिदियावि, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, नवरं ओरालियसरीरकायप्पओगीवि अनुक्रम [४४० एecestaese. 101॥३२॥ ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] ओरालियमीसासरीकायप्पओगीवि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणी य, मणूसाणं भंते ! किं सबमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी?, गो०! मणूसा सवेचि वाव होजा सश्चमणप्पओगीवि जाव ओरालियसरीरकायप्पओगीवि, वेउवियसरीरकायप्पओगीवि वेउबियमीससरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २, अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगीय अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगी य अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २, एते अह भंगा पत्तेयं, अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य ४ एवं एते चत्तारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, चचारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २, अहवेगे ओरालियमीसासरीरकाय 928 ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १६प्रयो प्रज्ञापनया:मलय. वृत्ती. प्रत सूत्रांक [२०४] गपदं ॥३२॥ दीप प्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी व ३, अहवेगे ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य४, एते चत्वारि भंगा, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, चत्तारि भंगा, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगीय कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य४, चउरो भंगा, अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे व आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी. य ३ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४, चउरो भंगा, एवं चउच्चीसं भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरका यप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, अहवेगे य ओरालियमीसा-' serserseasee अनुक्रम [४४० ॥३२१॥ ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] 802t dobacasesasa सरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायपओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ७, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारकसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ८, एते अट्ट भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य१, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ८ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरी ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. १६ प्रयोगपदं [२०४] ॥३२२॥ दीप रकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ अहबेगे य ओरालियमीसासरी- स्कायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहबेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायपओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ५अहवेगे य ओरालियमीसासरी रकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ८, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्पासरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पनोगिणो य कम्मसरीरकायप्पओगिणो य ८॥ एवं एए तियसंजोएणं चत्तारि अह भंगा, सबेवि मिलिता बचीसं भंगा अनुक्रम [४४०] ॥३२२॥ ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] SO900 दीप अनुक्रम [४४०] जाणितथा ३२ ॥ अहवेगे य ओरालियमिस्सासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पयोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्प ओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७ अहबेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ९ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्यओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १० अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ११ अहवेगे ecenesta ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १६ प्रयोगपदं [२०४] दीप प्रज्ञापना- य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मा- या: मल- सरीरकायप्पओगिणो य १२ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहाया वृत्ती. रगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य १३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहा॥३२॥ रंगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगीय कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य १५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पजोगिणो य आहारगसरीरकायप्पजोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १६, एवं एते चउसंजोएणं सोलस भंगा भवंति, सद्देऽवि यणं संपि ढिया असीति भंगा भवंति । वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमारा (सूत्रं २०४) INT 'जीयाणं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रे सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सत्यमनःप्रयोगिण इत्यादिरेको भङ्गः, किमुक्तं भवति ?-सदैव जीवा बहन एव सत्यमनःप्रयोगिणोऽप्यसत्यमनःप्रयोगिणोऽपि यावद्वैक्रियमि शरीरकायप्रयोगिणोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगिणोऽपि लभ्यन्ते, तत्र सदैव वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिणो नार- कादीनां सदैवोपपातोत्तरवैक्रियारम्भसम्भवात् , सदैव कार्मणशरीरकायप्रयोगिणः सर्वदेव वनस्पत्यादीनां विग्रहेणावान्तरगतौ लभ्यमानत्वात्, आहारकशरीरी च कदाचित्सर्वथा न लभ्यते, षण्मासान् यावदुत्कर्षतोऽन्तरसम्भ टकर अनुक्रम [४४०] ब्र ३२३॥ ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [ १६ ], - मूलं [२०४] उद्देशक: [ - ], ------------- दारं [-1, ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः वात् यदापि लभ्यते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, उक्तं च- “आहारगाई लोए छम्मासे जा न होंतिवि कयाई । उक्कोसेणं नियमा एकं समयं जहन्त्रेणं ॥ १ ॥ होताई जहन्त्रेणं इक्कं दो तिष्णि पंच व हवंति । उक्कोसेणं जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं ॥ २ ॥ [ आहारकाणि लोके पण्मासान् यावत् न भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कृष्टतो नियमात् एकं समयं जघन्येन ॥ १ ॥ भवन्त्यपि जघन्येन एकं द्वे त्रीणि पञ्च वा भवन्ति । उत्कृष्टेन युगपत् पृथक्त्वमात्रं सहस्राणां ॥ २ ॥ ] ततो यदा आहारकशरीरकायप्रयोगी आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी चैकोऽपि न लभ्यते तदा बहुवचनविशिष्टत्रयोदशपदात्मक एको भङ्गः, त्रयोदशपदानामपि सदैव बहुत्वेनावस्थितत्वात् यदा त्वेक आहारकशरीरकायप्रयोगी लभ्यते तदा द्वितीयः, तेऽपि यदा बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयः, एवमेव आहारकमि श्रशरीरकायप्रयोगिपदेनापि द्वौ भङ्गौ लभ्येते इत्येकयोगे चत्वारो भङ्गाः, द्विकसंयोगेऽपि प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वार इति सर्वसङ्ख्यया जीवपदेन नव भङ्गाः, नैरयिकपदे सत्यमनः प्रयोगिप्रभृतीनि वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिपर्यन्तानि सदैव बहुवचनेन दश पदान्यवस्थितानीत्येको भङ्गः, अथ वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदैव कथं लभ्यन्ते १, द्वादशमौहूर्तिक गत्युपपातविरहकालभावात् उच्यते, उत्तरबैक्रियापेक्षया, तथाहि - यद्यपि द्वादशमौहूर्त्तिको गत्युपपातविरहकालस्तथापि तदानीमपि उत्तरवैक्रियारम्भिणः संभवन्ति, उत्तरवैक्रियारम्भे च भवधारणीयं वैक्रियमिश्रं तद्बलेनोत्तरवैक्रियारम्भात् भवधारणीयप्रवेशे चोत्तरवै क्रिय Education international For Parts Only ~ 251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप प्रज्ञापना- मिश्र, उत्तरवैक्रियवलेन भवधारणीये प्रवेशात् , तत एवमुत्तरक्रियापेक्षया भवधारणीयोत्तरवैक्रियमिश्रसम्भवात् । १६ प्रयोया मल- तदानीमपि वैक्रियशरीरमिश्रकायप्रयोगिणो नैरयिका लभ्यन्ते, कार्मणशरीरकायप्रयोगी च नैरयिकः कदाचिदेकोऽपि गपदं य० वृत्ती. न लभ्यते, द्वादशमौहूर्तिकगत्युपपातविरहकालभावात्, यदापि लभ्यते तदापि जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्ष॥३२॥ तोऽसङ्ख्येयाः, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते तदा प्रथमो भगो यदा पुनरेकस्तदा द्वितीयो यदा बहवस्तदा तृतीय इति, अत एव त्रयो भनाः भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयाः, पृथिव्य जोवायुवनस्पतिषु औदारिकशरीरकायप्रयोगिणोऽपि औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगिणोऽपि सदा बहव एव उभ्यन्ते इति पदत्रयबहुवचनात्मकः प्रत्येकमेक एव भङ्गः, वायुकायिकेवीदारिकद्विक-18 वैक्रियद्विककार्मणशरीरलक्षणपदपञ्चकबहुवचनात्मक एको भङ्गः, तेषु वैक्रियशरीरिणां वैक्रियमिश्रशरीरिणां च | सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , द्वीन्द्रियेषु यद्यप्यान्तर्मुहर्तिक उपपातविरहकालस्तथाप्युपपातविरहकालोऽन्तर्मुहते लघु औदारिकमिश्रगतमन्तर्मुहर्तमतिबृहत्प्रमाणमत औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपि तेषु सदैव लभ्यन्ते, कार्मणशरीरकायप्रयोगीतु कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते, आन्तर्मुर्तिकोपपातविरहकालभावात्, यदापि लभ्यते ॥३२॥ तदापि जघन्यत एको द्वी वा उत्कर्षतोऽसङ्खबेयाः, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते तदा प्रथमो भङ्गः, यदा पुनरेकः कार्मणशरीरी लभ्यते तदा द्वितीयः, यदा बहवस्तदा तृतीय इति, एवं त्रिचतुरिन्द्रिये अनुक्रम [४४०] ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [४४०] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१६], उद्देशक: [ - ], ------------- दारं [-1, ---- - मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः -------------- ध्वपि भावनीयं, 'पंचिंदियतिरिक्खजोगिया जहा नेरइया' इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका यथा नैरविकास्तथा वक्तव्याः, नवरं वैक्रियमिश्रवै क्रियशरीरकायप्रयोगिस्थाने औदारिकओदारिक मिश्रशरीरका यप्रयोगिणो वक्तव्याः, किमुक्तं भवति ? - सत्यमनः प्रयोगिणोऽपीत्यादि तावद्वक्तव्यं यावदसत्यामृपावाग्योगिनोऽपि तत औदारिकशरीरकायप्रयोगि गोऽपि औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपीति वक्तव्यं, एतानि दश पदानि बहुवचनेन सदाऽवस्थितानि, यद्यपि च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामप्युपपातविरहकाल आन्तर्मुहूर्त्तिकस्तथाऽप्युपपात विरह कालान्तर्मुहूर्त्त लघु औदारिक मिश्रान्तमुहूर्तमतिबृहदित्यत्राप्यौदारिक मिश्रशरीरकाय प्रयोगिणः सदा लभ्यन्ते यस्तु द्वादशमौहूर्त्तिक उपपातविरहकालः स गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिरश्चां न सामान्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चामिति, कार्मणशरीरका यप्रयोगी तु तेष्वपि कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते, आन्तर्मुहूर्तिकोपपातविरह कालभावात्, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरी न लभ्यते तदा प्रथमो भङ्गः यदा पुनरेको लभ्यते तदा द्वितीयः यदा बहवस्तदा तृतीयः, मनुष्येषु मनश्चतुष्टयवाक्चतुष्टयौदारिकवैक्रियद्विकरूपाण्येकादश पदानि सदैव बहुवचनेन लभ्यन्ते, वैक्रियमिश्रशरीरिणः कथं सदैव लभ्यन्ते इति चेत् ? उच्यते, विद्याधराद्यपेक्षया, तथाहि - विद्याधरा अन्येऽपि केचिन्मिथ्यादृष्ट्यादयो वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः अन्यान्यभावेन सदैव विकुर्वणायां लभ्यन्ते, आह च मूलटीकाकारः - "मनुष्या वैक्रियमिश्रशरीरप्रयोगिणः, सदैव विद्याधरादीनां विकुर्वणाभावादिति, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी कार्मणशरीरकायप्रयोगी च कदाचित्सर्वथा न Eucation Internationa For Pale Only ~ 253~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप प्रज्ञापना- लभ्यते, द्वादशमौहर्तिकोपपातविरहकालभावात् , आहारकशरीरी आहारकमिश्रशरीरी च कादाचित्कः प्रागेवोक्तः, १६ प्रयो. या: मल- तत औदारिकमिभायभावे पदैकादशबहुवचनलक्षण एको भङ्गः, तत औदारिकमिश्रपदेन एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ गपदं य० वृत्ती. INभी , एवमेव द्वौ भनी आहारकपदेन द्वौ चाहारकमित्रपदेन द्वौ कार्मणपदेनेत्येकैकसंयोगे अष्टौ भङ्गाः, द्विकसंयोगे| प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यामौदारिकमिश्राहारकपदयोश्चत्वारः, एवमेव औदारिकमिश्राहारकमिश्रपदयोश्चत्वारः। ॥३२५॥ जौदारिकमिश्रकार्मणयोश्चत्वारः आहारकआहारकमिश्रयोश्चत्वारः आहारककार्मणयोश्चत्वारः आहारकमिश्रकार्मणयोश्चत्वार इति सर्वसङ्ग्यया द्विकसंयोगे चतुर्विंशतिर्भहाः, त्रिकसंयोगे औदारिकमिश्राहारकाहारकमिश्रपदानामेकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गाः, अष्टौ औदारिकमिश्राहारककामणानामष्टौ औदारिकमिश्राहारकमिश्रकार्मणानामष्टा-IN वाहारकाहारकमिश्रकामणानामिति सर्वसङ्ख्यया त्रिकसंयोगे द्वात्रिंशद्भङ्गाः, औदारिकमिश्राहारकाहारकमिश्रकार्मणरूपाणां तु चतुर्णा पदानामेकवचनबहुवचनाभ्यां षोडश भङ्गाः, सर्वसङ्कलनया भङ्गानामशीतिरिति । उक्तः प्रयोगः, प्रयोगवशाच जीवानामजीवानां च गतिर्भवति, ततो गतिनिरूपणार्थमाह काविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णते ?, गो! पंचविहे गइप्पवाए पं०, तं०-पओगगती १ ततगती २ बंधणछेदण- ॥३२५॥ गती ३ उववायगती ४ विहायगती ५, से किं तं पओगगती?, २ पण्णरसविहा पं०, तं०-सच्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगो भणितो तहा एसावि भाणितबा जाव कम्मगसरीरकायपओगगती । जीवाणं भंते ! कतिचिहा पओगगती अनुक्रम [४४०] अत्र ‘गतिप्रपातस्य भेदा: आदि विषय कथ्यते ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अनुक्रम [४४१] पं० १, गो०- पण्णरसविहा पं०, ०–सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगत्ती, नेरइयाणं भंते! कइविहा पओगगती पं०१, गो०-एकारसविहा पत्रचा, तं०-सच्चमणप्पओगगती, एवं उपउज्जिऊण जस्स जतिविहा तस्स ततिविहा भाणितवा जाब बेमाणियाणं, जीवाणं भंते ! सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती, गो! जीवा सोचि ताव होज सच्चमणप्पओगगतीवि, एवं तं चेव पुत्ववणितं माणितई भगा तहेव जाव वेमाणियाणं, से ते पओगगती १ । से किं तं ततगती?, २जे गं जं मामं वा जाव सण्णिवेसं वा संपडिते असंपत्ते अंतरापहे वद्दति, से तं ततगती २ । से किं तं बंधणछेदणमती, २ जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ, से तं बंधणछेदणगती ३ । से कि तं उबवायगती ?, २ तिविहा पं०, तं०-खेचोवपायगती भवोववायगती नोभवोवचायगवी, से किं तं खेतोववायगती !, २पंचविहा पं०,०-नेरइयखेचोववायगती १तिरिक्खजोणियखेचोववायगती २ मणसखेचोववायगती ३ देवखेतोववायगती ४ सिद्धखेतोववायगती ५से फैि त नेरइयखेलोक्वायगती ?, २ सत्तविहा पं०,०-यणप्पभापुढपिनेरइयखेतोववायगती जाव अधेसत्तमापुढचिनेरइयखेतोचवायगती, से तं नेरइयखेतोववायगती १, से किं तं तिरिक्खजोणियखेचोववायगती ?, २पंचविहा पं०, तं०-एगिदियातरिक्खजोणियखेनोववायगती जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियखेत्तोवायगती, से तं तिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती २, से किं तं मणूसखेचोववायगती, २ दुविहा पं० त०-समुच्छिममणूस गम्भवतियमणूसखेतोक्वायगती, से तं मणसखेत्तोवयायगती ३, से किं तं देवखेत्तोववायगती,२ चउबिहा पं०,०-भवणवति जाव वेमाणियदेवखेचोक्वायगती, से तं देवखेत्तोववायगती ४, से किं तं सिद्धखेत्तोववायगती, ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १६प्रवी प्रत सूत्रांक [२०५] गपदं प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. occess ॥३२६॥ दीप अनुक्रम [४४१] Saeedererest अणेगविहा पं०, ०-जंबुद्दीवे दीवे भरहेरययवासे सपक्खंसपडिदिसि सिद्धखेतोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे नुल्ल हिमवंतसिहरिवासहरपवतसपक्खंसपडिदिसि सिद्धखेत्तोषवायगती, जंबुद्दीवे दीवे हेमवतहेरणवाससपक्खंसपडिदिसि सिद्धखेचोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे सद्दावइवियडावइबट्टवेयड्नुसपक्खसपडिदिसि सिद्धखेचोववायगती जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंतरुप्पिवासहरपातसपक्खंसपडिदिसिं सिद्धखेतो. जंबुद्दीवे दीवे हरिवासरम्मगवाससपक्खिसपडिदिसि सिद्धखे जंबुद्दीव दीवे गंधावातिमालवंतपवयवटवेयड्डसपक्खंसपडिदिसं सिद्ध० जंबुद्दीवे दीवे णिसहणीलवंतवासहरपवतसपक्खिसपडिदिसि सिद्धखे० जंबुद्दीवे दीवे पुत्वविदेहावरविदेहसपक्खिसपडिदिसि सिद्धखे० जंबुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरुसपक्खिसपडिदिसि सिद्ध जंबुद्दीवे दीवे मंदरपवयस्स सपक्खिसपडिदिसि सिद्धखे लवणे समुद्दे सपक्खि सपडिदिसि सिद्ध धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धपच्छिमद्धमंदरपवतसपक्खिसपडिदिसि सिद्धखित्तो कालोयसमुद्दसपक्खिसपडिदिसि सिद्ध पुक्खरखरदीवद्धपुरथिमद्धभरहेरवयवाससपक्खिसपडिदिसि सिद्ध एवं जाव पुक्खरवरदीपद्धपच्छिममंदरपत्तसपक्खिसपडिदिसि सिद्धखेत्तोववायगती, से तं सिद्धखेतोववायगती ५, से किं तं भयोववायगती, २ चउबिहा ५०, तं०-नेरहय० जाव देवभवोववायगती, से किं तं नेरइयभवोववायगती,२ सत्तविहा पं०, तं, एवं सिद्धवजो भेदो भाणितवो जो चेव खेतोषवायगतीए सो चेव, से तं देवभवोववायगती, से तं भवोपवायगती, से कि तं नोभवोववायगती, २ दुविहा पं०,०-पोग्गलणोभवीयवायगती सिद्धनोभवोचवायगती, से किं तं पोग्गलनोभवोषवायगती,२ जण्णं परमाणुपोग्गले लोगस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ पचस्थिमिल्लं चरमंतं एगसमएणं गच्छति पचत्थि C. S ॥३२६॥ ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: -], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अनुक्रम [४४१] मिल्लाओ वा चरमंताओ पुरथिमिल्लं चरमंतं एगसमएणं गच्छति दाहिणिल्लाओ वा चरमंताओ उत्तरिलं चरमतं एगसमएणं गच्छति एवं उत्तरिल्लाओ दाहिणिल्लं उवरितातो हेदिल्लं हिडिल्लाओ उवरिलं, से तं पोग्गलणोभवोववायगती. से किं तं सिद्धणोभवोववायगती, २ दुविहा पं०, त०-अणंतरसिद्धणोभवोचवाय परंपरसिद्धणोभवोववायगती य, से किं तं अणंतरसिद्धणोभवोववायगती, २ पण्णरसबिहा पं० त०-तित्थसिद्धअणंतरसिद्धणोभवोववायगती य जाव अणेगसिद्धणोभवोववायगती य, से कि तं परंपरसिद्धणोभवोक्वायगती १,२ अणेगविहा पं०, तं०-अपढमसमयसिद्धणोभवोववायगती एवं दुसमयसिद्धणोभवोववायगती जाव अणंतसमयसिद्धणोभवोचवायमती, से सिद्धणोभवोववायगती, से तंणोभवोववायगती, से तं उबवायगती ४ । से किं तं विहायगती, २ सत्तरसविहा पण्णत्ता, तं०-फुसमाणगती १ अफुसमाणगती २ उवसंपज्जमाणगती ३ अणुवसंपज्जमाणगती ४ पोग्गलगती ५ मंयगती ६ णावागती ७ नयगई ८ छायागती ९ छायाणुवातगती १० लेसागई ११ लेसाणुवातमती १२ उहिस्सपविभत्तगती १३ चउपुरिसपविभत्तगती १४ वंकगती १५ पंकगती १६ बंधणविमोयणगती १७, से किं तं फुसमाणगती, २ जण्ण परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं अण्णमणं फुसंताणं गती पवत्तइ सेत्तं फुसमाणगती १, से कितं अफुसमाणगती, २ जणं एतेर्सि चेव अफुसंताणं गती पवत्तति से तं अफुसमाणगती २, से किं तं उपसंपजमाणगती,२ जणं रायं वा जुवरायं वा ईसरं वा तलवरं वा माडंवितं वा कुटुंवितं वा इन्भ वा सिद्धि वा सेणावति वा सत्थवाहं वा उपसंपजिचा णं गच्छति, से ते उपसंपज्जमाणगती ३, से किं तं अणुवसंपज्जमाणगती, २ जणं एतेसिं चेव अण्णमणं अणुवसंपन्जिता गं गच्छति, से तं अणुय whmational ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 1 १६ प्रयो गपदं प्रत सूत्रांक [२०५]] प्रज्ञापनया मलय. वृत्ती. ॥३२७॥ choot दीप अनुक्रम [४४१] संपज्जमाणगती ४, से किं तं, पोग्गलगती?,२ जणं परमाणुपोग्गलाणं जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं गती पवत्तति से तं पोग्गलगती ५, से किं तं मंडूयगती १,२ जणं मंडओ फिडिसा गच्छति, से तं महूयगती ६, से किं तं णावागती, जणं णावा पुत्ववेतालीमो दाहिणवेयालि जलपहेणं गच्छति, दाहिणवेतालिओ वा अवरवेतालिं जलपहेणं गच्छति, से तं णावागती ७, से किं तं गयगती १, २ जणं णेगमसंगहववहारउज्जुसुयसहसमभिरूढएवंभूयाणं नयाणं जा गती अहवा सबणयावि जं इच्छंति, से तं नयगती ८,से किं तं छायागती!,२ णं हयलार्य वा गयछायं वा नरछायं वा किण्णरछायं वा महोरगछायं वा गंधबछायं वा उसहछायं वा रहछायं वा छत्तछायं वा उपसंपज्जिताणं गच्छति, से तं छायागती ९, से कितं छायाणुवायगती १,२ जेणं पुरिसं छाया अणुगच्छति नो पुरिसे छायं अणुगकछति, से तं छायाअणुवायगती १०, से किस लेस्सागती, २ जणं किण्हलेसा नीललेस पप्प तारूवचाए तावण्णचाए तागंधत्ताए तारसताए ताफासत्ताते भुजोरपरिणमति, एवं नीललेसा काउलेसं पप्प तालवत्ताए जाव ता कासत्ताए परिणमति, एवं काउलेसावि तेउलेसं तेउलेसावि पम्हलेसं पम्हलेसावि सुकलेसं पप्प तारूवत्ताते जाव परिणमति, से तं लेसागती ११, से किसे लेसाणुवायगती, २ जल्लेसाई दबाई परियाइता कालं करेह तल्लेसेसु उववज्जति, तं०किण्हलेसेसु वा जाच सुकलेसेसु वा से तं लेसाणुवायगती १२, से किं तं उदिस्सपविभत्तगती, २ जणं आयरियं वा उवज्शायं वा थेरं वा पवति वा गणि वा गणहरं वा गणावच्छेदं या उदिसिय २ गच्छति, से तं उदिस्सियपविभत्तगती १३, से कितं चउपुरिसपविभचमती, से जहानामए चत्वारि पुरिसा समग पज्जवहिया समग पहिता १ समर्ग पजवष्टिया Recene ॥३२७॥ SAREauratoninternational ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: -], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अनुक्रम [४४१] विसमग पहिया २ विसमं पज्जवडिया विसमं पहिया ३ विसमं पज्जवट्ठिया समग पहिया ४, से तं चउपुरिसपधिभत्तगती १४, से कि तं वंकगती,२ चउबिहा पं०,०-घट्टनया भणया लेसणया पवडणया, से तं वंकगती १५, से किं तं पंकगती १,२ से जहाणामते केह पुरिसे पंकसि वा उदयंसि वा कार्य उबिहिया गच्छति, से तं पंकगती १६, से किं तं बंधणविमोयणगती,२ जण्णं अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुंगाण वा बिल्लाण वा कविद्वाण वा [भवाण वा] फणसाण वा दालिमाण वा पारेवताण वा अक्खोलाण वा चाराण वा वोराण घा तिडुयाण वा पकाणं परियागयाणं बंधणातो विप्पमुकाणं निवापातेणं अधे पीससाए गती पवत्तइ, से तं बंधणविमोयणगती (सूत्रं २०५) (से तं विहायोगती) १७ ॥ पण्णवणाए भगवईए पओगपदं समतं ॥ १६ ॥ 'कइविहे णं भंते ! गइप्पवाए' इत्यादि, गमनं गतिःप्रासिरित्यर्थः, प्राप्तिश्च देशान्त रविषया पर्यायान्तरविषया च, उभयत्रापि धात्वर्थोपपत्तेः गतिशब्दप्रयोगदर्शनाच, तथाहि-क मतो देवदत्तः?, पत्तनं गतः, तथा वचनमात्रेणाप्यसौ गतः कोपमिति, लोकोत्तरेऽप्युभयथा प्रयोगः-परमाणुरेकसमयेन एकस्मालोकान्तादपरं लोकान्तं गच्छति, तथा तानि तान्यध्यवसायान्तराणि गच्छन्तीति, गतेः प्रपातो गतिप्रपातः, स कतिविधः प्रज्ञसः ?, कुत्र कुत्र गति-IN शब्दप्रवृत्तिरुपनिपततीत्यर्थः, भगयानाह-पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं दर्शयति-'प्रयोगगति रित्यादि, प्रयोगः प्रागुक्तः पश्चदशविधः स एव गतिः प्रयोगगतिः, इयं देशान्तरप्राप्तिलक्षणा द्रष्टव्या, सत्यमनःप्रभृतिपुगलानां sesecticee ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: |१६ प्रयो प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अनुक्रम [४४१] प्रज्ञापना जीवेन ब्यापार्यमाणानां यथायोगमल्पबहुदेशान्तरगमनात् १ । 'ततगई' इति तता-विस्तीर्णा सा चासौ गतिश्च। थाः मल- ततगतिः, तथाहि-यं ग्राम सन्निवेशं वा प्रति प्रतिष्ठितो देवदत्तादिस्तं ग्रामादिकं यावदद्यापि न प्राप्नोति ताव- गपदं य. वृत्ती. दन्तरा पथि एकैकस्मिन् पदन्यासे तत्तद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणा गतिरस्तीति ततगतिः, इयं विस्तीर्णत्वविशेषणात् पृथ गुपात्ता, अन्यथा प्रयोगगतावेवेयमन्तर्भवति, पादन्यासस्य शरीरप्रयोगात्मकत्वात् , एवमुत्तरत्रापि यथायोगं परि॥३२८॥ भावनीयं २ तथा 'बंधणछेयणगई' इति, बन्धनस्य छेदनं बन्धनच्छेदनं तस्मात् गतिर्वन्धनच्छेदनगतिः, सा च | जीवेन विमुक्तस्य शरीरस्य शरीराद्वा विच्युतस्य जीवस्यावसातव्या, न तु कोशसम्बन्धविच्छेदादेरण्डवीजादेः, तथा विहायोगतिभेदत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् ३। 'उबवायगई' इति, उपपातः-प्रादुर्भावः, स च क्षेत्रभवनोभवभेदात् त्रिविधः, तद्यथा-क्षेत्रोपपातो भवोपपातो नोभवोपपातश्च, तत्र क्षेत्रं-आकाशं यत्र नारकादयो जन्तवः सिद्धाः पुद्गला वा अवतिष्ठन्ते, भवः-कर्मसम्पर्कजनितो नैरयिकत्वादिकः पर्यायः, भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भव इति व्युत्पत्तेः, नोभवः-भयव्यतिरिक्तः कर्मसम्पर्कसम्पाद्यनैरयिकत्वादिपर्यायरहित इति भावः, स च पुद्गलः सिद्धो वा, उभयस्यापि यथोक्तलक्षणभवातीतत्वात् , उपपात एवं गतिरुपपातगतिरिति ४ । विहायसा-आकाशेन ॥२८॥ IS गतिर्विहायोगतिः, सा चोपाधिभेदात् सप्तदशविधा, तद्यथा-स्पृशद्गतिरित्यादि, तत्र परमाण्वादिकं यदन्येन परमाण्वादिकेन परस्परं संस्पृश्य संस्पृश्य-सम्बन्धमनुभूयानुभूयेत्यर्थः इति भावः गच्छति सा स्पृशद्गतिः, स्पृशतो ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] गतिरिति व्युत्पत्तेः, तद्विपरीता अस्पृशद्गतिः, यत्परमाण्यादिकमन्येन परमाण्यादिना सह परस्परसम्बन्धमननुभूय ग-18 च्छति यथा परमाणुरेकेन समयेन एकस्मालोकान्तादपरं लोकान्तमिति, उपसंपद्यमानगतिर्यदन्यमुपसम्पद्य-आश्रित्य तदवष्टम्भेन गमनं यथा धनसार्थवाहावष्टम्भेन धर्मघोपसूरीणां, अनुपसम्पद्यमानगतियत् परस्परमुपष्टम्भरहितानां पथि गमनं, मण्डूकगतिर्यत् मण्डूकस्येवोत्प्लुत्य गमनं, नावागतियनावा महानद्यादौ गमनं, नयगतिर्यनयानां नैगमादीनां खखमतपोषणं अथवा यनयानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यवस्थापन सा नयगतिः, छायागतिः-छायामनुसृत्य तदुपष्टम्भेन या समाधयितुं गतिः छायागतिः, छायानुपातगतिरिति छायायाः खनिमित्तपुरुषादेरनुपातेन-अनुसरणेन गतिः छायानुपातगतिः, तथाहि-छाया पुरुषमनुसरति न तु पुरुषः छायामतश्च्छायाया अनुपातगतिः, लेश्यागतियत्तिर्यध्वनुष्याणां कृष्णादिलेश्याद्रव्याणि नीलादिलेश्याद्रव्याणि सम्प्राप्य । तद्रूपादितया परिणमन्ति सा लेश्यागतिरिति, लेश्यानुपातगतिरिति लेश्याया अनुपातः-अनुसरणं तेन गतिलेश्यानुपातगतिः, लेश्याया इत्यत्र विग्रहवेलायां कर्मणि पष्ठी, यतो वक्ष्यति–'यानि लेश्याद्रव्याणि पर्यादाय जीवः कालं करोति तलेश्येषूपजायते न शेषलेश्येषु' ततो जीवो लेश्याद्रव्याण्यनुसरति, न तु तानि जीवमनुसरन्तीति, 'उद्दिश्यप्रविभक्तगति रिति प्रविभक्त-प्रतिनियतमाचार्यादिकमुद्दिश्य यत्तत्वार्थे गच्छति सा उद्दिश्यप्रविभक्तगतिः, 'चतुःपुरुषप्रविभक्तगतिरिति चतुर्दा पुरुषाणां प्रविभक्तगतिः चतुःपुरुषप्रविभक्तगतिः, तचतुर्द्धात्वं 'समग पज्जवट्ठिया' crescicensesCodeorekeseksee दीप अनुक्रम [४४१] ट ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१६], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥३२९॥ दीप अनुक्रम [४४१] Cocetice/EASce इत्यादिना ग्रन्थेन खयमेव वक्ष्यति, तथा वंका-वक्रा सा चासौ गतिश्च वंकगतिः, सा च चतुर्दा, तद्यथा-पट्ट- १६ प्रयोनता स्तम्भनता श्लेषणता पतनता, तत्र घट्टनशब्दस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं घट्टनमेय वेति, एवं शेषपदशब्दार्थोऽपि गपर्द भावनीयः, तत्र घट्टनं-खजा गतिः स्तम्भनं-ग्रीवायां धमण्यादीनां तिष्ठतो वाऽऽत्मनोऽप्रदेशानां श्लेषणं-ऊर्वादीनां जानुप्रभृतिभिः सम्बन्धः पतनं-तिष्ठत एव गच्छतो वा यल्लुठनं, एतानि च घट्टनादीनि जीवस्यानीप्सितत्वादप्रशस्खत्वाच बंकगतिशब्दवाच्यानि, तथा पक्के गतिः पङ्कगतिः, पकग्रहणमुदकस्याप्युपलक्षणं, तेन पङ्के उदके वाऽतिदस्तरं यदात्मीयं कार्य केनापि सहोदध्य तद्वलेन गच्छति सा पङ्कगतिः, बन्धनविमोचनगतिरिति बन्धमा-18 द्विमोचनं बन्धनविमोचनं तेन गतिबन्धन विमोचनगतिः-यदानादिफलानामतिपरिपाकगतानामत एष बन्धनाद्विच्युतानां यदधो विश्रसया-निर्व्याघातेन गमनं सा बन्धनविमोचनगतिरिति भावः, एतदेव सूत्रकृदुपदर्शयतिसे किं तं पयोगगई' इत्यादि सुगममापदपरिसमासे, नवरं 'जंबुद्दीवे दीये भरहेरवयवासस्स सपक्खं सपडिदिसिं सिद्धिखेतोववायगई' इति जंबूद्वीपे द्वीपे यत् भरतवर्ष ऐरावतवर्ष च तयोरुपरि सिद्धिक्षेत्रोपपातगतिर्भवति, कथमित्याह-'सपक्षं सप्रतिदिक् च तत्र सह पक्षाः-पार्थाः पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः यस्मिन् सिद्धिक्षेत्रोपपातगतिमवने ॥३२९॥ तत् सपक्षं सह प्रतिदिशो-विदिश आनेय्यादयो यस्मिन् तत्सप्रतिदिक, क्रियाविशेषणमेतत् , एषोऽत्र भावार्थ:जंबूद्वीपे द्वीपे भरतैरायतवर्षयोपरि सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च सर्वत्र सिद्धिक्षेत्रोपपातगतिर्भवतीति, एवं शेषसूत्र-श ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अनुक्रम [४४१] पदं [१६], - मूलं [२०५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [ - ], ------------- दारं [-1, ---- व्यपि भावनीयं, उपसंपद्यमानगतिसूत्रे 'जण्णं रायं वा' इत्यादि, राजा - पृथिवीपतिः युवराजो - राज्यचिन्ताकारी राजप्रतिशरीरं ईश्वरः - अणिमाद्यैश्वर्ययुक्तस्तलवरः -- परितुष्टनर पतिप्रदत्त पट्टबन्धविभूषितो राजस्थानीयः | माडम्बिकः - छिन्नमडम्बाधिपः कौटुम्बिकः - कतिपयकुटुम्बस्वामी इममर्हतीतीभ्यो — धनवान् श्रेष्ठी - श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः सेनापतिः - नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकः सार्थवाहः – सार्थनायकः, नौगतिसूत्रे 'पुनवेतालिओ' इत्यादि बैतालीशब्दोऽत्र देशीवचनत्वाद्वेतालातटवाची ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां षोडशं प्रयोगपदं समाप्तम् ॥ अथ सप्तदशं पदं ॥ १७ ॥ तदेवमुक्तं षोडशं प्रयोगपदं, सम्प्रति सप्तदशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे प्रयोगपरिणाम उक्तः, सम्प्रति परिणामसाम्यालेश्या परिणाम उच्यते - अथ लेश्येति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, लिप्यते - लिप्यते आत्मा कर्मणा सहानयेति लेश्या, कृष्णादिद्रव्यसाचिन्यादात्मनः परिणामविशेषः, उक्तं च- "कृष्णादिद्रव्यसा Education Internation अत्र पद (१६) "इन्द्रिय" परिसमाप्तम् For Parts Only अथ पद (१७) "लेश्या" आरभ्यते ~263~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: -, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [२०५...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] प्रज्ञापना-चिच्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्त्तते ॥१॥" अथ कानि कृष्णादीनि १५ प्रयोयाः मल-द्रव्याणि ?, उच्यते, इह योगे सति लेश्या भवति, योगाभावे च न भवति, ततो योगेन सहान्वयव्यतिरेकदर्शनात् ॥ गपदं य० वृत्ती. योगनिमित्ता लेश्येति निश्चीयते, सर्वत्रापि तन्निमित्तत्वनिश्चयस्यान्वयव्यतिरेकदर्शनमूलत्वात् , योगनिमित्तताया॥३३॥ मपि विकल्पद्वयमवतरति-किं योगान्तर्गतद्रव्यरूपा योगनिमित्तकर्मद्रव्यरूपा वा ?, तत्र न तावद्योगनिमित्तकर्मद्रव्यरूपा, विकल्पद्वयानतिक्रमात्, तथाहि-योगनिमित्तकर्मद्रव्यरूपा सती घातिकर्मद्रव्परूपा अधातिकर्मद्रव्यरूपा वा !, न तावद् घातिकर्मद्रव्यरूपा, तेषामभावेऽपि सयोगिकेवलिनि लेयायाः सद्भावात, नापि अघा|तिकर्मरूपा, तत्सद्भावेऽपि अयोगिकेवलिनि लेश्याया अभावात् , ततः पारिशेष्यात योगान्तर्गतद्रव्यरूपा प्रत्येया, तानि च योगान्तर्गतानि द्रव्याणि यावत्कपायास्तावत्तेषामप्युदयोपबृंहकाणि भवन्ति, दृष्टं च योगान्तर्गतानां द्रव्याणां कपायोदयोपबृंहणसामर्थ्य, यथा पित्तद्रव्यस्य, तथाहि-पित्तप्रकोपविशेषादुपलक्ष्यते महान् प्रवर्द्धमानः कोपः, अन्यच याह्यान्यपि द्रव्याणि कर्मणामुदयक्षयोपशमादिहेतव उपलभ्यन्ते, यथा-बाहयौपधिर्ज्ञानावरण[स्य क्षयोपशमस्य सुरापानं ज्ञानाबरणोदयस्य, कथमन्यथा युक्तायुक्तविवेकविकलतोपजायते, दधिभोजनं निद्रारूपदर्श-13॥३॥ नावरणोदयस्य, तत्किं योगद्रव्याणि न भवन्ति ?, तेन यः स्थितिपाकविशेषो लेश्यावशादुपगीयते शास्त्रान्तरे स सम्यगुपपन्नः, यतः स्थितिपाको नामानुभाग उच्यते, तस्य निमित्तं कषायोदयान्तर्गतकृष्णादिलेश्यापरिणामाः, eemegelacoccer दीप अनुक्रम [४४१] For P OW अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (१) आरभ्यते ...'लेश्या' शब्दस्य व्याख्या ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: -, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [२०५...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अनुक्रम [४४१] ते च परमार्थतः कषायस्वरूपा एव, तदन्तर्गतत्वात् , केवलं योगान्तर्गतद्रव्यसहकारिकारणभेदवैचित्र्याभ्यां ते कृष्णादिभेदर्भिन्नाः तारतम्यभेदेन विचित्राश्चोपजायन्ते, तेन यद् भगवता कर्मप्रकृतिकृता शिवशर्माचार्येण शतकाख्ये ग्रन्थेऽभिहितं “ठिइअणुभागं कसायओ कुणाई" इति तदपि समीचीनमेव, कृष्णादिलेश्यापरिणामानामपि कषायोदयान्तर्गतानां कषायरूपत्वात् , तेन यदुच्यते कैश्चिद्-योगपरिणामत्वे लेश्यानां "जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभार्ग कसायो कुणइ" इति वचनात् प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वमेव स्यान्न कर्मस्थितिहेतुत्वमिति, तदपि न समीचीनं, यथोक्तभावार्थापरिज्ञानात्, अपि च-न लेश्याः स्थितिहेतवः, किंतु कषायाः, लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गताः अनुभागहेतवः, अत एष च 'स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण' इत्यत्रानुभागप्रतिपत्त्यर्थ पाकग्रहणं, एतच सुनिश्चितं कर्मप्रकृतिटीकादिषु, ततः सिद्धान्तपरिज्ञानमपि न सम्यक् तेषामस्ति, यदप्युक्तम्-'कम्र्मनिप्यन्दो लेश्या, निष्यन्दरूपत्वे हि यावत् कषायोदयः तावन्निष्यन्दस्थापि सद्भावात् कर्मस्थितिहेतुत्वमपि युज्यते | एवे'त्यादि, तदप्यश्लीलं, लेश्यानामनुभागवन्धहेतुतया स्थितिवन्धहेतुत्वायोगात्, अन्यञ्च-कर्मनिष्यन्दः किं कर्मकल्क उत कर्मसारः, न तावत्कर्मकल्कः, तस्यासारतयोत्कृष्टानुभागबन्धहेतुत्वानुपपत्तिप्रसक्तः, कल्को हि असारो भवति असारश्च कथमुत्कृष्टानुभागवन्धहेतुः, अथ चोत्कृष्टानुभागवन्धहेतयोऽपि लेश्या भवन्ति, अथ कर्मसार इति पक्षस्तहि कस्य कर्मणः सार इति वाच्यं , यथायोगमष्टानामपीति चेत् अष्टानामपि कर्मणां । ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], --------------दारं --------------- मूलं २०६-२०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०६-२०७]] गाथा प्रज्ञापना-बाशाने विपाका वर्ण्यन्ते, न च कस्यापि कर्मणो लेश्यारूपो विपाक उपदर्शितः, ततः कथं कर्मसारपक्षमझीकर्महे .१७लेश्याया: मल तस्मात् पूर्वोक्त एष पक्षः श्रेयानित्यङ्गीकर्त्तव्यः, तस्य हरिभद्रसूरिप्रभृतिभिरपि तत्र (तत्र) प्रदेशे अङ्गीकृतत्वादिति ।। |पदम् यवृत्ती. अस्मिंश्च लेश्यापदे पटू उद्देशकाः, तत्रेयं प्रथमोद्देशकार्थसङ्ग्रहगाथा॥३३॥ आहार समसरीरा उस्सासे कम्म्मवन लेसासु । समवेदण समकिरिया समाउया चेव बोद्धया ॥१॥णेरड्या ण मंते ! सबे समाहारा सबे समसरीरा सवे समुस्सासनिस्सासा, गो०। णो इणद्दे समहे, से केणडेणं भैते! एवं बुच्चह-रहया नो सवे समाहारा जाव णो सवे समुस्सासनिस्सासा, गोयमा! णेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-महासरीरा य अप्पसरीरा य, तत्थ णं जे ते महासरीरा ते गं बहुतराए पोग्गले आहारेंति बहुतराए पोग्गले परिणामेति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले नीससंति अभिक्खणं आहारेंति अभि० परिणामेंति अभि० ऊससंति अभि० नीससंति, तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पो. आहा० अप्प. पो० परि० अप्प० पो० ऊससंति अप्प० पो० नीससंति आहछ आहारैति आहच परिणामेंति आहच ऊससंति आहच्च नीससंति, से एएणटेणं गो! एवं वुच्चइ-नेरइया नो सवे समाहारा नो सत्वे समसरीरा णो सबे समुस्सासनिस्सासा (सूत्र २०६) नेरइया णं भंते ! सचे समकम्मा?, गो० मो इणढे समहे, से ॥३१॥ केणटेणं भंते । एवं बुबह-नेरइया नो सके समकम्मा, गो० नेरइया दुविहा पत्ता, तंजहा-पुचोववनगा य पच्छोववनगा य, तत्थ णं जे ते पुबोववनगा ते णं अप्पकम्मतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववनगा ते णं महाकम्मतरागा, से दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं --------------- मूलं २०६-२०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Tea प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] गाथा तेणणं गो एवं घुच्चइ-नेरइया णो सवे समकम्मा । नेरइया णं भंते! सवे समवन्ना, गो० णो इणद्वे सभडे, से केण?ण भंते ! नेरइया नो सके समवचा, गो०! मेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुढोववनगा य पच्छोववनगा य, तत्व पंजे ते पुत्बोचवन्नगा ते णं विसुद्धवनतरागा, तत्थ ण जे ते पच्छोचवन्नगा ते णं अविसुद्धवनतरागा, से एएणडेणं गोल! एवं वुच्चइ-नेरइया नो सच्चे समवना । एवं जहेव वन्नेण मणिया तहेब लेसासु विसुद्धलेसतरागा अविसुद्धलेसतरागा य माणियत्वा । नेरइया गं भंते ! सके समवेदणा, गो० नो इणहे समडे, से केण एवं वुञ्चति नेरइया णो सवे समवेयणा, गो. नेरइया दुविहा पत्रचा, संजहा-सन्निभूया य असत्रिभूया य, तत्थ पंजे ते सभिभूता ते ण महावेदणतरागा, सत्य जे ते असन्निभूता ते णं अप्पवेदणतरागा, से तेणद्वेणं गो०। एवं बुचह-नेरइया नो सबै समवेयणा (सूत्र २०७) समशब्दः पूर्वार्द्ध प्रत्येकमपि सम्बध्यते, उत्तरार्द्ध प्रतिपदं साक्षात्सम्बन्धित एवास्ति, ततोऽयमर्थः-प्रथमोऽधिकारः सर्वे समाहाराः सबै समशरीराः सर्वे समोच्छ्रासा इति प्रश्नोपलक्षितः, द्वितीयः समकाण इति, तृतीयः समवर्णा इति, चतुर्थः समलेश्याका इति, पञ्चमः समवेदनाका इति, षष्ठः समक्रिया इति, सप्तमः समायुष इति । अथ लेश्यापरिणामविशेषाधिकारे कथममीषामर्थानामुपन्यासोपपत्तिः, उच्यते, अनन्तरप्रयोगपदे उक्तं-'कतिविहेणं भिंते ! गइप्षयाए इति (पं०)१, गोयमा! पंचविहे, पयोगगई ततगई बंधणछेदणगई उववायगई विहायोगई, तत्य जा सा उपवायगई सा तिविहा-खित्तोववायगई भवोववायगई नोभवोचवायगई, तत्थ भवोववायगई चउचिहा दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------दारं --------------- मूलं २०६-२०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. tise ॥३३॥ गाथा नेरइयभवोववायगई देवभवो तिरिक्खजोणियभवो मणुस्सभवोववायगई' इति, तत्र नारकत्वादिभवत्वेनोत्पन्नानां | १७लेश्याजीवानामुपपातसमयादारभ्य आहाराद्यर्थसम्भवोऽवश्यंभावी ततो लेश्याप्रक्रमेऽपि तेषामुपन्याससूत्रं । 'यथोद्देशं पदम् |निर्देश' इति न्यायात् प्रथम समाहारा इत्यादिप्रश्नोपलक्षितमर्थाधिकारमाह-'नेरइया णं भंते' इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, नायमर्थः समर्थः-नायमों युक्त्युपपन्न इति भावः, पुनः प्रश्नयति-'से केणतुण'मित्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, अथ केनार्थेन-केन प्रयोजनेन केन प्रकारेणेति भावः भदन्त ! एवमुच्यते-11 नैरयिकाः सर्वे समाहारा इत्यादि १, भगवानाह-गोयमे त्यादि, इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिकं, तत्र जघन्यमल्पत्वं | अनुलासङ्ख्येयभागमात्रत्वं उत्कृष्टं महत्त्वं पञ्चधनुःशतमानत्वं, एतच भवधारणीयशरीरापेक्षया, उत्तरवैक्रियापेक्षया तु जघन्यमल्पत्वं अनुलसायातभागमात्रत्वं इतरद्धनुःसहस्रमानत्वं, एतावता च किं समशरीरा इत्यस्य प्रश्नस्योत्तरमुक्त । अथ शरीरप्रश्नो द्वितीयस्थानोक्तः तत्कथमस्य प्रथमत एव निर्वचनमुक्तं ?, उच्यते, शरीरविषमताभिधाने सति आहारोच्छासयोर्वेषम्यं सुप्रतिपादितं भवतीति द्वितीयस्थानोक्तस्यापि शरीरप्रश्वस्य प्रथम निर्वचनमुक्त। | इदानी आहारोच्छ्रासयोनिर्वचनमाह-तत्थ 'मित्यादि, 'तत्र अल्पशरीरमहाशरीररूपराशिद्वयमध्ये 'ण' मितिश्शा वाक्यालङ्कारे ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति महाशरीरत्वादेव, दृश्यते हि लोके बृह-18 छरीरो बदाशी यथा हस्ती, अल्पशरीरोऽल्पभोजी शशकवत्, बाहुल्यापेक्षं चेदमुदाहरणमुपन्यखते, अन्यथा कोऽपि Sente दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------दारं --------------- मूलं २०६-२०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] गाथा बृहच्छरीरोऽप्यल्पमश्नाति कश्चिदल्पशरीरोऽपि भूरि मुळे, तथाविधमनुष्यवत् , नारकाः पुनरुपपातादिसवेद्यानुभावादन्यत्रासद्धेद्योदयवर्णित्वादेकान्तेन यथा महाशरीराः दुःखितास्तीवाहाराभिलाषाश्च भवन्ति तथा नियमाद् बहुतरान्पुद्गलानाहारयन्ति तथा बहुतरान् पुद्गलान् परिणामयन्ति, आहारपुद्गलानुसारित्वात् परिणामस्थ, परिणामबाप-18 धेऽप्याहारकार्यमित्युक्तः, तथा बहुतराए पुग्गले उस्ससंति' इति बहुतरान् पुद्गलान् उच्चासतया गृहन्ति 'नीससं-18 ति' इति निःश्वासतया मुञ्चन्ति, महाशरीरत्वादेव, रश्यन्ते हि बृहच्छरीरासतज्जातीयेतरापेक्षया बहूच्छासनिःश्रासा इति, दुःखिता अपि तथैव, दुःखिताश्च नारका इति । आहारस्यैव कालकृतं वैषम्यमाह-'अभिक्खण'मित्यादि,18 अभीक्ष्णं-पौनःपुन्येनाहारयन्ति, ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया शीघ्रशीपतराहारग्रहणखभावा इत्यर्थः, अभीक्ष्णं | | उच्चसन्ति अभीक्ष्णं निःश्वसन्ति, महाशरीरत्वेन दु:खिततरत्वादनवरतमुच्छ्वासादि कुर्वन्तीति भावः, 'तत्थ णं जे ते इत्यादि, 'जे ते' इति इह ये इत्येतावतैवार्थसिद्धौ ये ते इति (यद्) उच्यते तद्भाषामात्रमेव, अल्पशरीरास्ते अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, ये यतोऽल्पशरीरास्ते तदाहरणीयपुलापेक्षया अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, अल्पशरीरत्वादेवेति भावार्थः, 'आह आहारयन्ति' इति कदाचिदाहारयन्ति कदाचिन्नाहारयन्ति, महाशरीराहारग्रहणान्तरालापेक्षया बहुतरकालान्तरतयेत्यर्थः 'आच्च ऊससंति आहच नीससंति' एते हि अल्पशरीरत्वेनैव महाशरीरापेक्षया अल्पतरदुःखत्वादाहच-कदाचित् सान्तरमित्यर्थः, उच्छ्रासादि कुर्वन्तीति भावा, अथवा अपर्याप्तिकाले अल्पश दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०६ -२०७] + गाथा दीप अनुक्रम [४४२ -४४४] “प्रज्ञापना” पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], दारं [-], -------------- • मूलं [ २०६ २०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनया मलय० वृत्तौ. ॥२३३॥ - - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) |रीराः सन्तो लोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति उष्वासापर्याप्तकत्वेन च नोष्वसन्ति, अन्यदा त्वाहारयन्ति उच्चसन्ति चेत्यत [आहे ]- 'आहच आहारयन्ति आहथ ऊससंती' त्युक्तं । 'से एएणद्वेण' मित्यादि निगमनवाक्यं सुगमं । संप्रति समकर्मत्वाधिकारमाह- 'नेरइयाण' मित्यादि 'पुचोववनगा व पच्छोववन्नगा य' इति पूर्व-प्रथमं उपपन्नाः पूर्वो त्पन्नाः त एव 'स्वार्थिकः क' इति कप्रत्यय विधानात् पूर्वोत्पन्नकाः, एवं पश्चादुत्पन्नकाः, तत्र पूर्वोत्पन्नपश्चादुत्पन्नानां मध्ये ये पूर्वोत्पन्नास्तैर्नर कायुर्नरकगत्यसातंवेदनीयादिकं प्रभूतं निर्जीर्णमल्पं विद्यत इति अल्पकर्म्मतरकाः, इतरे तद्विपर्ययात् महाकर्म्मतरकाः, एतच्च समानस्थितिका ये नारकास्तानधिकृत्य प्रणीतमवसेयं, अन्यथा हि रखप्रभावां उत्कृष्टस्थितेर्नारकस्य बहुन्यायुषि क्षयमिते पल्योपमावशेषे च तिष्ठति तस्यामेव रवप्रभायां दशवर्षसहस्रस्थितिर्नारकोऽन्यः कश्चिदुत्पन्नः स किं प्रागुत्पन्नं पल्योपमावशेषायुषं नारकमपेक्ष्य वकुं शक्यो यथा महाकम्मैति १, वर्णसूत्रे 'विशुद्धवर्णतरका' इति विशुद्धतरवर्णा इत्यर्थः, कथमिति चेद्र, उच्यते, इह यस्मान्नैरविकाणामप्रशस्तचर्णनामकर्म्मगोऽशुभस्तत्रोऽनुभागोदयो भवापेक्षः, तथा चोक्तम् - "कालभवखेत्तवेक्खो उदओ सविद्यागअविवायो" [कालभवक्षेत्रापेक्ष उदयः सविपाकोऽविपाकः ] नन्वायूंषि तत्र भवविपाकानि उक्तानि तत्कथमप्रशस्तवर्णनामकर्मण उदयो भवापेक्षो वर्ण्यते ?, सत्यमेतत्, तथाप्यसौ वर्णनामकर्मणोऽप्रशस्तस्त्रोदयस्तीत्रानुभागो ध्रुवश्च भवापेक्षः पूर्वाचार्यैवदतः स पूर्वोत्पन्नैः प्रभूतो निर्जीर्णः लोकः शेषोऽवतिष्ठते, पुद्गलविपाकि च वर्णनाम, तेन पूर्वोत्पन्ना विशुद्धतर Ja Education International For Parts Only ~ 270~ १७ लेश्यापदम् ॥ ३३३॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], --------------दारं --------------- मूलं २०६-२०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] लहर गाथा वर्णाः, पश्चादुत्पन्नस्तु नाद्यापि प्रभूतो निर्जीर्ण इति ते अविशुद्धतरवर्णाः, एतदपि समानस्थितिनैरयिफविषयमव-|| सेयं, अन्यथा पूर्वोक्तरीला व्यभिचारसंभवात् , 'एवं जहेव बन्ने भणिया' इत्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण पयैव वर्णे भणितास्तथैव लेश्यास्वपि वक्तव्याः, तद्यथा-'नेरइया णं भंते ! सचे समलेस्सा ?, गोयमा ! नो इणढे समडे' इत्यादि, सुगमं चैतत् , नवरं पूर्वोत्पन्ना विशुद्धलेश्याः यस्मात्पूर्वोत्पन्नः प्रभूताम्यप्रशस्तलेश्याद्रव्याणि अनुभूव अनुभूय क्षयं नीतानि तस्मात्ते विशुद्धलेश्याः, इतरे पश्चादुत्पन्नतया विपर्ययादविशुद्धलेश्याः, एतदपि लेश्यासूत्रं समानस्थितिकनैरयिकापेक्षमवसेयं । समवेदनपदोपलक्षितार्थाधिकारप्रतिपादनार्थमाह-'नेरइया णं भंते ।' इत्यादि, समवेदनाः-समानपीडाः 'सन्निभूया य' इति संज्ञिनः-संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूता-नारकत्वं गताः संज्ञिभूताः ते महावेदनाः, तीत्राशुभाध्यवसायेनाशुभतरकर्मवन्धनेन महानरकेषूत्पादात्, असजिन:-असज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूता असजिभूताः, असजिनो हि चतसृष्वपि गतिषूत्पद्यन्ते, तद्योग्यायुर्वन्धसंभवात् , तथा चोक्तम्-“काविहे गं भंते ! असन्निआउए पन्नत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे असन्निआउए पन्नत्ते, तंजहा-नेरइयअसन्निआउए तिरिक्ख जोणियअसन्निआउए मणुस्सजोणियअसन्निआउए देवअसनिआउए" इति, तत्र देवेषु नैरपिकेषु च असश्याMयुषो जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपमासङ्घयेवभागः, तिर्यक्षु मनुष्येषु च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः पल्योपमासयेयभागः, एवं चासजिनः सन्तो ये नरके पूत्पद्यन्ते तेऽतितीवाशुभाध्यवसायाभावात् रत्नप्र दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं --------------- मूलं २०६-२०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: भज्ञापना प्रत सूत्रांक [२०६-२०७]] था। मल ॥३३४॥ गाथा भायामनतितीत्रवेदनेषु नरकेषुत्पद्यन्ते अल्पस्थितिकाश्चेत्यल्पवेदनाः, अथवा सञीभूता:-पर्याप्तकीभूतास्ते महा- लेश्यावेदनाः, पर्याप्तत्वादेव, असब्जिनस्तु अल्पवेदनाः, अपर्याप्ततया प्रायो वेदनाया असंभवात् , यदिवा 'सन्निभूय'त्ति पदम् सम्ज्ञा-सम्यग्दर्शनं सा एषामस्तीति सजिनः सन्जिनो भूताः-याताः सज्ञीभूताः सन्जित्वं प्राप्ता इत्यर्थः ते महावेदनाः, तेषां हि यथावस्थितं पूर्वकृतकर्मविपाकमनुस्मरतामहो महहुःखसंकटमिदमस्माकमापतितं न कृतो भगवदहत्प्रणीतः सकलदुःखक्षयंकरोऽतिविषमविषयविषपरिभोगविप्रलुब्धचेतोभिर्धर्म इत्येवं महदुःखं मनस्युपजायते || ततो महायेदनाः, असज्ञिनस्तु मिथ्यादृष्टयः, ते तु खकृतकर्मफलमिदमित्येवं न जानते, अजानानाश्चानुपतसमानसा अल्पवेदना इति । अधुना 'समकिरिया' इत्यधिकारं विभावयिषुराह रइया गं भंते ! सो समकिरिया ?, गो.! नो इणढे समडे, से केणटेणं मंते ! एवं बुञ्चति ? नेरहया णो सवे समकिरिया, गोका नेरइया तिविहा पत्रचा, तंजदा-सम्मट्टिी मिच्छद्दिट्ठी सम्ममिच्छदिही, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी तेसि णं चचारि किरियाओ कजति तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपचक्खाणकिरिया, तत्थ ण जे ते मिच्छदिट्ठी जे सम्मामिच्छट्टिी तेसि ण नियताओ पञ्च किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावचिया ॥२४॥ अपचक्खाणकिरिया मिच्छादसणवत्तिया, से तेणढे णे गो०! एवं बुचइ-नेरइया नो सबै समकिरिया । नेरहया णं भंते ! सो समाउआ , गोणो इणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ, गो! नेरदया चउविहा पाचा, तंजहा दीप अनुक्रम [४४२-४४४] ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [४४५] अत्धेगतिया समाउआ समोववनगा अत्यंगतिया समाउया विसमोचवन्नगा अत्थेगतिया विसमाउया समोववनगा अत्थेगतिया विसमाउया विसमोववन्नगा, से तेणडेणं गो०! एवं बुच्चइ-नेरइया नो सवे समाउया नो सवे समोववनगा (सूत्र २०८) 'मेरइया णं भंते ! सबे समकिरिया' इत्यादि, समाः-तुल्याः क्रियाः-फर्मनिवन्धनभूता आरम्भिक्यादिका येषां ते समक्रियाः 'चत्तारि किरियाओ कज्जति' इति क्रियन्ते इति कर्मकर्तरिप्रयोगः तेन भवन्तीत्यर्थः, आरम्भः-13 पृथिव्याधुपमर्दनं स प्रयोजन-कारणं यस्याः सा आरंभिकी 'परिग्गहिय'त्ति परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तु-| खीकारः धर्मोपकरणमूछों स च प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी 'मायावत्तिया' इति माया-अनार्जवमुपलक्षणत्वात् कोधादिरपि स च प्रत्ययः-कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया 'अपचक्याणकिरिया' इति अप्रत्याख्यानेननिवृत्त्यभावेन क्रिया-कर्मबन्धकारणं अप्रत्याख्यानक्रियेति, नियइयाओं' इति नैयतिक्यो नियता इत्यर्थः अवश्य|भावित्वात् , सम्यग्दृष्टीनां त्वनियताः, संयतादिषु व्यभिचारात्, 'मिच्छादसणवचिय'त्ति मिथ्यादर्शनं प्रत्ययःकारणं यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, ननु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः कर्मवन्धहेतक इति प्रसिद्धिः, इह तु। आरम्भिक्यादयस्तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः', उच्यते, इहारम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योगः परिगृहीतो, योगानां तद्रूपत्वात् , शेषपदैस्तु शेषा बन्धहेतव इत्यदोषः, 'सचे समाउआ' इत्यादेः प्रश्नस या निर्वचनचतुर्भङ्गी तद्भावना क्रियते-निवद्धदशवर्षसहस्रप्रमाणायुषो युगपचोत्पन्ना इति प्रथमो भगः, तेषु एव दशवर्षसहस्रस्थितिषु नरकेषु एके ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक stoece [२०८] दीप अनुक्रम [४४५] प्रज्ञापना- प्रथमतरमुत्पन्नाः अपरे पचादिति द्वितीयः, अन्यैर्विषममायुर्निबद्ध कैश्चिद्दशवर्षसहस्रस्थितिषु कैश्चिच पञ्चदशवर्षसह-181१७ लेश्यायाः मल- 1सस्थितिषु उप्तत्तिः पुनर्युगपदिति तृतीयः, केचित् सागरोपमस्थितयः केचित्तु दशवर्षसहस्त्रस्थितय इत्येवं विषमायुषो पदम् य० वृत्ती. विषममेव चोत्पन्ना इति चतुर्थः । सम्प्रति असुरकुमारादिषु आहारादिपदनवकं विभावयिषुरिदमाह॥३३५॥ असुरकुमारा णं भंते ! सवे समाहारा एवं सद्देवि पुच्छा ?, गो० नो इणट्टे समढे, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जहा नेरइया । असुरकुमारा णं मंते ! सखे समकम्मा?, गो०। णो इणढे समहे, से केपण एवं बुच्चइ १, गो! असुरकुमारा दुविहा पन्नता, तंजहा-पुबोववनगाय पच्छोववनमा य, तत्थ णं जे ते पुबो० ते णं महाकम्म० तत्व जे ते पच्छोववनमा ते गं अप्पक०, से तेणटेणं गो०! एवं बुञ्चति-असुरकुमाराणो सब्बे समकम्मा एवं बालेस्साए पुच्छा, तत्थ ण जे ते पुबोववनगा ते गं अविसुद्धवनतरागा तत्थ णं जे ते पच्छोववनगा ते णं विसुद्धवनतरागा से तेणद्वेणं गो०! एवं बुधह-असुरकुमारा णं सो णो समवना, एवं लेस्साएवि, बेयणाए जहा नेरइया, अवसेसं जहा नेरइयाणं, एवं जाव थणियकुमारा ।। (सत्र २०९) 'असुरकुमारा णं भते । सवे समाहारा इसादि, तत्रास्मिन् सूत्रे नारकसूत्रसमानेऽपि भावना विशेषेण लिख्यतेअसुरकुमाराणामल्पशरीरत्वं भवधारणीयशरीरापेक्षया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्घयभागमानत्वं महाशरीरत्वं तूत्कर्षतः सप्त- ३३५॥ हस्तप्रमाणत्वं, उत्तरवैक्रियापेक्षया तु अल्पशरीरत्वं जघन्यतोऽङ्गुलसयभागमानत्वं उत्कर्षतो महाशरीरस्वं योजनलक्षमानत्वमिति, तत्रेते महाशरीरा बहुतरान् पुद्गलानाहारयत्ति, मनोभक्षणलक्षणाहारापेक्षवा, देवानां हि जसौ eceasesed ~274~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक २०९] दीप अनुक्रम [४४६] संभवति प्रधानथ, प्रधानापेक्षया च शास्त्रे निर्देशो वस्तूनां, ततोऽल्पशरीरमाथाहारपुद्गलापेक्षया ये पुद्गला बहुतराते तानाहारयन्ति, बहुतरान्परिणामयन्तीत्यादिपदत्रयव्याख्यानं प्राग्वत्, तथाऽभीक्ष्णमाहारयन्ति अधीक्ष्णमुसति, अत्र ये चतुर्थादेरुपयर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादेश्वोपर्युच्छ्रुसन्ति तानाश्रित्याभीक्ष्णमुच्यते, वे सातिरेकवर्षसहस्र स्योपर्याहारयन्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युवसन्ति तानङ्गीकृत्यैतेषामल्पकालीनाहारोच्छासत्वेन पुनः पुनराहारवरान्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वात् , तथाऽल्पशरीरा अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति उच्सन्ति च अल्पशरीरत्वादेव, यत्पुनस्तेषां कादाचित्कत्वमाहारोच्छ्रासयोस्तन्महाशरीराहारोच्छासान्तरालापेक्षया बहुतमान्तरालत्वात् , तत्र हि अन्तराले ते आहारादि न कुर्षन्ति तदन्यत्र ते कुर्वन्तीत्येवंविवक्षणान्महाशरीराणामप्याहारोच्यासयोरन्तरालमति किं तु तदल्पमित्यविवक्षितत्वादभीक्ष्णमित्युक्तं, सिद्धं च महाशरीराणां तेषामाहारोच्छ्रासयोरल्पान्तरत्वं, अल्पशशरीराणां तु महान्तरत्वं, यथा सौधर्मादिदेवानां सप्तहस्तमानतया महाशरीराणां तयोरन्तरं वर्षसहस्रद्वयं पक्षद्ववंच अनुत्तरसुराणां च हस्तमानतयाऽल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्राणि प्रयस्त्रिंशदेव च पक्षा इति, एषां च महाशरी-| राणामभीक्ष्णाहारोच्छ्वासाभिधानेनाल्पस्थितिकत्वमवसीयते इतरेषां तु विपर्ययः वैमानिकवदेवेति, अधया लोमाहारापेक्षयाऽभीक्ष्णम्-अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्याप्तकावस्थायां उच्छासस्तु यथोक्तमानेनापि भवन् परिपूर्णभवापेक्षया पुनः पुनरित्युच्यते, अपर्याप्तकावस्थायां लल्पशरीरा लोमाहारतो नाहारयन्ति ओजा(ज आ)हारत एवाहर ~275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०९] दीप अनुक्रम [४४६] प्रज्ञापना-णात् ततस्ते कदाचिदाहारयन्तीत्युच्यते, अपर्याप्तकावस्थायां च नोच्छ्रुसन्ति अन्यदा तूच्छसन्ति तत उच्यते आह-१७लेश्यायाः मल- चोच्छसन्तीति ॥ कर्मसूत्रमाह-'असुरकुमाराणं भंते ! सके समकम्मा' इत्यादि, अत्र नैरयिकसूत्रापेक्षया विप- पदम् यवृत्ती. यासः, नैरयिका हि पूर्वोत्पन्ना अल्पकर्माण उक्ता इतरे तु महाकाणः असुरकुमारास्तु ये पूर्वोत्पन्नास्ते महाक॥३६॥ र्माणः इतरेऽल्पकर्माणः, कथमिति चेद् , उच्यते, इहासुरकुमाराः खभवादुद्धृतास्तिर्यसूत्पद्यन्ते मनुष्येषु च, तिर्यत्पद्यमानाः केचिदेकेन्द्रियेषु पृषिच्यवनस्पतित्पद्यन्ते केचित् पञ्चेन्द्रियेषु, मनुष्येष्वपि चोत्पद्यमानाः कर्मभूमिकगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येषूत्पद्यन्ते न शेषेषु, पण्मासावशेषायुषश्च सन्तः पारभविकमायुर्वन्ति, पारभविकायुर्वन्धकाले च या एकान्ततिर्यग्योनिकयोग्या एकान्तमनुष्ययोग्या वा प्रकृतयस्ता उपचिन्वन्ति, ततः पूर्वोत्पन्ना महाकर्मतराः, ये तु पश्चादुत्पन्नास्ते नाद्यापि पारभविकमायुर्वन्ति नापि तिर्यग्मनुष्ययोग्याः प्रकृतीरुपचिन्वन्ति ततस्तेऽल्पकर्मतराः, एतदपि सूत्रं समानस्थितिकसमानभवपरिमितासुरकुमारविषयमवसेयं, पूर्वोत्पन्नका अपि बद्धपारभविकायुषः पश्चादुत्पन्ना अपि अबद्धपारमविकायुषः स्तोककालान्तरिता प्रायाः, अन्यथा तिर्यग्मनुष्ययोग्यप्रकृतिवन्धेऽपि पूर्वोत्पत्रकात् पश्चादत्पन्न उत्कृष्टस्थितिकोऽभिनवोत्पन्नोऽनन्तसंसारिका महाकर्मतर एव भवति | |३३६॥ वर्णसूत्रे ये ते पूर्वोत्पन्नकाते अविशुद्धवर्णतराः, कथमिति चेदुच्यते-एतेषां हि भवापेक्षा प्रशस्तवर्णनानः शुभस्तीत्रानुभाग उदयः, स च पूर्वोत्पन्नानां प्रभूतः क्षयमुपगत इति ते अविशुद्धतरवर्णाः, इतरे तु पश्चादुत्पन्नतया नाद्यापि ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक २०९] दीप अनुक्रम [४४६] IS प्रभूतो निर्जीर्ण इति विशुद्धवर्णाः, एतच समानस्थितिकासुरकुमारविषयं सूत्रं, एवं लेस्साएऽवी'ति एवं वर्णसूत्र वत् लेश्यासूत्रमपि वक्तव्यं, पूर्वोत्पन्नाः अविशुद्धलेश्या वक्तव्याः पश्चादुत्पन्ना विशुद्धलेश्या इति भावः, काऽत्र भावनेति चेदुच्यते-इह देवानां नैरयिकाणां च तथाभवस्खाभाव्यात् लेश्यापरिणाम उपपातसमयात् प्रभृत्याभवक्षयाद्। भवति, यतो वक्ष्यति तृतीये लेश्योद्देशके-से नूणं भंते ! कण्हलेसे नेरइए कण्हलेसेसु नेरइएसु उववजइ कण्हलेसे || उबट्टइ ?, जल्लेसे उबजइ तलेसे उबट्टइ ?' इति, अस्थायं भावार्थः-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको मनुष्यो वा नरकेषुत्पद्यमानो यथाक्रमं तिर्यगायुषि मनुष्यायुषि वा क्षीणे नैरयिकायुः संवेदयमान ऋजुसूत्रनयदर्शनेन विग्रहेऽपि वर्तमानो नारक एवं लभ्यते तस्य च कृष्णादिलेश्योदयः पूर्वभवायुषि अन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्के एव वर्तमानस्य भवति, तथा 18चोक्तम्-"अन्तमुत्तम्मि गए अन्तमुहुत्तम्मि सेसए चेव । लेस्साहि परिणयाहिं जीवा वचंति परलोयं ॥१॥"IN [अन्तर्मुहूर्ते गतेऽन्तर्मुहूर्ते शेष एव । लेश्यायाः परिणामे जीवा ब्रजन्ति परलोकम् ॥१॥] एवं देवेष्वपि भावनीयं, तथा लेश्याध्ययने नैरयिकादिषु कृष्णादिलेश्यानां जघन्योत्कृष्टा च स्थितिरियमुक्ता-"दस वाससहस्साई काऊऍ ठिई| जहनिया होइ । उक्कोसा तिन्नुदही पलियस्स असंखभागं च ॥१॥ नीलाएँ जहन्नठिई तिन्नुदहि असंखभाग पलियं च । दस उदही उकोसा पलियस्स असंखभागं च ॥२॥ कण्हाए जहनलिई दस उदही असंखभाग पलियं च ।। |तित्तीससागराई मुहुत्तअहियाई उक्कोसा ॥३॥ एसा नेरइयाणं लेसाण ठिई उ वनिया इणमो । तेण परं चोच्छामि 200rparde838009002 ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. १७लेश्या१७ पदे उद्देशः [२०९] ॥३३७॥ दीप अनुक्रम [४४६] तिरियाण मणुस्सदेवाणं ॥४॥ [दश वर्षसहस्राणि कापोत्याः स्थितिजैपन्या भवति । उत्कृष्टा त्रय उदधयः पल्यस्या- सङ्ख्यभागच ॥१॥नीलाया जघन्या स्थितिखय उदधयोऽसङ्ख्यभागः पल्यस्य । दशोदधय उत्कृष्टा पल्यस्यासङ्ख्यभागश्च |॥२॥ कृष्णाया जघन्या स्थितिर्दशोदधयोऽसयभागः पल्यस्य । त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि मुहूर्त्ताधिकान्युत्कृष्टा ॥३॥ एषा नैरयिकाणां लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णितेयं । ततः परं वक्ष्ये तिरश्चां मनुष्यदेवानां ॥ ४॥] अंतोमुहुत्तमद्धा लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ । तिरियाण नराणं वा बज्जित्ता केवलं लेसं ॥५॥" अस्या अक्षरगमनिका-अन्तमुहूर्त कालं यावत् लेश्यानां स्थितिर्जघन्योत्कृष्टा च भवति, कासामित्याह-'जहिं जहिं जा उ' यस्मिन् यस्मिन्पृथिवीकायिकादी संमूछिममनुष्यादौ च याः-कृष्णाद्या लेश्यास्तासां, एता हि कचित् काश्चिद् भवन्ति, पृथिव्यवनस्पतीनां कृष्णनीलकापोततेजोरूपावतस्रो लेश्याः, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूछिमतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुप्याणां कृष्णनीलकापोतरूपास्तिस्रः, गर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां गर्भजमनुष्याणां च षडपीति, नन्वेयं शुक्ललेश्याया अपि अन्तर्मुहूर्तमेव स्थितिःप्राप्नोतीत्याशङ्कायामुक्त-वर्जयित्वा केवला शुद्धलेश्या-शुक्ललेश्यामिति भावः, तस्या इयं स्थितिः "मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुषकोडी उ । नवहिं बरिसेहिं ऊणा नायचा सुकलेस्साए ॥१॥ एसा तिरियनराणं लेसाण ठिई उ बनिया होइ । तेण परं वोच्छामि लेसाण ठिई उ देवाणं ॥२॥ दस वाससहस्साई कण्हाइ ठिई जहनिया होइ । पल्लासंखियभागो उक्कोसा होइ नायबा ॥३॥जा कण्हाइ ठिई खलु उकोसा चेव समय e ॥३३७॥ अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने “उद्देश: २" इति मुद्रितं ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - - प्रत सूत्रांक २०९] दीप अनुक्रम [४४६] cacaboracass9992.. मब्भहिया । नीलाइ जहन्नेणं पलियासंखं च उक्कोसा ॥४॥जा नीलाइ ठिई खलु उक्कोसा चेव समयमभहिया। काऊइ जहन्नेणं पलियासंखं च उक्कोसा ॥ ५॥ तेण परं बोच्छामि तेउलेस्सं जहा सुरगणाणं । भवणवइयाणमंतरजोइसवेमाणियाणं च ॥ ६॥ दस वाससहस्साई तेऊएँ ठिई जहन्निया होइ । उक्कोसा दो उदही पलियस्स असंखभागं च ॥७॥ जा तेऊइ ठिई खलु उक्कोसा चेव समयमभहिया । पम्हाइ जहन्नेणं दसमुहुत्तहियाई उक्कोसा |॥८॥" [मुहूर्त्तान्तस्तु जघन्योत्कृष्टा भवति पूर्वकोटबेव । नवभिर्वर्षेरूना ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः॥१॥ एषा नरतिरश्चां लेश्यानां स्थितिवर्णिता तु भवति । ततः परं वक्ष्ये लेश्यानां स्थितीस्तु देवानां ॥२॥ दश वर्षसहस्राणि कृष्णायाः स्थितिर्जघन्या भवति । पल्यासङ्ख्यभाग उत्कृष्टा भवति ज्ञातव्या ॥३॥ या कृष्णायाः स्थितिः खलूस्कृष्टा समयाभ्यधिकैव । नीलाया जघन्येन पल्यासङ्घयश्च भाग उत्कृष्टा ॥४॥ या नीलायाः स्थितिः खलु समया-18 भ्यधिकैवोत्कृष्टा । कापोत्याः स्थितिर्जघन्येन पल्यासङ्ग्यश्चोत्कृष्टः॥५॥ ततः परं वक्ष्ये तेजोलेश्यां यथा सुरगणानां । भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां च ॥६॥ दशवर्षसहस्राणि तेजस्याः स्थितिर्जघन्या भवति । उत्कृष्टा द्वौ उदधी पल्यस्थासङ्ख्यो भागश्च ॥७॥ वा तेजस्याः स्थितिः खलु उत्कृष्टा समयाभ्यधिका । पद्मायाः जघन्येन दश (सागरोपमाणि) मुहुर्ताभ्यधिकान्युत्कृष्टा ॥८॥] दश सागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकान्युत्कृष्टेतिभावः, अन्तर्मुहूर्त |चाभ्यधिकं यत्प्रायभवमान्यन्तर्मुहूर्त यच्चोत्तरभवभावि तद्वयमप्येकं विवक्षित्वोक्तं, देवनैरयिकाणां हि खखलेश्या SAREILLEGuninternational ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२०९] दीप अनुक्रम [४४६] मूलं [२०९] पदं [१७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य०वृत्ती. ॥ ३३८ ॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - ----------- उद्देशकः [१], -------- दारं [-], [------- प्रागुत्तरभवान्तर्मुहूर्त्तद्वय निजायुः कालप्रमाणावस्थाना भवति, तथा "जा पन्हाइ टिई खलु उक्कोसा चैव समयमम्भहिया । सुकाऍ जहन्त्रेण तेत्तीसकोस [ मुहुत्त ] मन्महिया ॥ १ ॥” इति [ या पद्मायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा समयाभ्यधिकैव । शुक्लाया जघन्येन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि मुहूर्त्ताभ्यधिकानि उत्कृष्टा ॥ १ ॥ ] ततोऽस्माल्लेश्यास्थितिपरिमाणात् प्रागुक्ताय तृतीयलेश्योद्देशवक्ष्यमाणसूत्रादवसीयते देवानां नैरयिकाणां च लेश्याद्रव्यपरिणाम उपपातसमयादारभ्याभवक्षयात् भवति इति । पूर्वोत्पन्नैश्च सुरकुमारैः प्रभूतानि तीत्रानुभागानि लेश्या द्रव्याणि अनुभूयानुभूय क्षयं नीतानि स्तोकानि मन्दानुभावान्यवतिष्ठन्ते ततस्ते पूर्वोत्पन्ना अविशुद्धलेश्याः पश्चादुत्पन्नास्तु तद्विपर्ययाद्विशुद्ध लेश्याः । 'बेयणाए जहा नेरइया' इति वेदनायां यथा नैरयिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, तत्राप्यसन्जिनोऽपि लभ्यमानत्वात्, तत्र यद्यपि वेदनासूत्रं पाठतो नारकाणामिवासुरकुमाराणामपि तथापि भावनायां विशेषः, स चायं ये सज्जीभूतास्ते सम्यग्रदृष्टित्वात् महावेदनाः चारित्रविराधनाजन्यचित्तसन्तापात् इतरे तु असञ्जीभूता मिध्यादृष्टित्वादल्पवेदना इति, 'अवसेसं जहा नेरइयाणं' ति अवशेषं क्रियासूत्रमायुःसूत्रं च यथा नैरयिकाणां तथा वक्तव्यं, एतच सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयं 'एव' मित्यादि, एवम सुरकुमारोक्तेन प्रमाणेन नागकुमारादयोऽपि तावद्वक्तव्याः यावत्स्वनितकुमाराः ॥ पुढ विकाइया आहारकम्मवन्नलेस्साहिं जहा नेरइया, पुढविकाइया सबै समवेयणा [१०] १, हंता गो० ! सबै समवेदणा, से Education Internation For Parts Only अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र "उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश : २" इति मुद्रितं ~280~ १७लेश्या पदे उद्देशः २ ॥ ३३८ ॥ war Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१०] दीप अनुक्रम [४४७] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - ----------- उद्देशकः [१], -------- दारं [-], [------- पदं [१७], - मूलं [२१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education Internationa केणट्टेणं १, गो० ! पुढविकाइया सबै असन्नी असन्निभूयं अणिययं वेयणं वेयन्ति, से तेणट्टेणं गो० ! पुढविकाइया स समवेदना | पुढविकाइयाणं भंते! सबै समकिरिया १, हंता गो० ! पुढविकाइया सबै समकिरिया से केणद्वेणं १, गो० ! पुढविकाइया सबै भाइमिच्छादिट्टी तेसिं णियइयाओ पंच किरियाओ कअंति, तं० – आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अप्पचक्खाणकिरिया मिच्छादंसणवत्तिया य, से तेणद्वेणं गो० ! एवं०, जाव चउरिंदिया, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया नवरं किरियाहिं सम्मद्दिट्ठी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते दुबिहा पन्नत्ता, तंजा असंजता य संजया संजता य, तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसि णं तिनि किरियाओ कज्जंति, तं० आरं० परि० माया०, तत्थ णं जे अस्संजता तेसि णं चत्तारि किरिया कज्जति, तं०- आरं० परि० माया० अपच, तत्थ णं जे ते मिच्छादिट्ठी जे य सम्मामिच्छदिट्ठी तेसि णं णियइयाओ पंच किरि० कज्जंति, तं०—आरंभि० परि० माया० अपच० मिच्छा०, सेसं तं चैव (सूत्रं २१० ) 'विकाया' इत्यादि, पृथिवीकायिका आहारकर्मवर्णलेश्याभिर्यथा नैरविका उक्तास्तथा वाच्याः पृथिवीकायिकानामाहारादिविषयाणि चत्वारि सूत्राणि नैरयिकसूत्राणीय पृथिवीकायिकाभिलापेनाभिधातव्यानीति भावः, केवलमाहारसूत्रे भावनैवं — पृथिवीकायिकानामङ्गुलासत्येय भागमात्रशरीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वमहाशरीरत्वे आगमवचनादवसेये, स चायमागमः- “पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए" इत्यादि, तत्र महाश For Parts Only ~ 281~ nary org Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१०] दीप अनुक्रम [४४७] - मूलं [२१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनया मल य० वृत्ती. ॥ ३३९॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१७], --------------उद्देशक: [१], -------- दारं [-], [------- रीरा लोमाहारतो बहुतरान् पुगलानाहारयन्त्युच्छ्वसन्ति च अभीक्ष्णमाहारयन्त्यभीक्ष्णं चोच्छ्रसन्ति, महाशरीरत्वादेव, अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छ्रासत्वं अल्पशरीरत्वादेव, कादाचित्कत्वं चाहारोच्छ्वासयोः पर्याप्सेतरावस्थापेक्षमिति । वेदनासूत्रमाह--' पुढविकाइया णं भंते! सधे समवेयणा' इत्यादि, असन्नीति - मिथ्यादृष्टयोऽमनस्का वा 'असन्निभूयं ति असज्जीभूता असब्ज्ञिनां या जायते तामित्यर्थः, एतदेव व्यनक्ति - 'अणिययति अनियताम् - अनिर्धा|रितां वेदयन्ते, वेदनामनुभवन्तोऽपि न पूर्वोपात्ताशुभकर्मपरिणतिरियमित्यवगच्छन्ति, मिध्यादृष्टित्वादमनस्कत्वाद्वा मत्तमूच्छितादिवदितिभावः, क्रियासूत्रे 'माइमिच्छद्दिद्वित्ति मायावन्तो हि तेषु प्रायेणोत्पद्यन्ते, यदाह शिवशम्र्माचार्यः- “उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ गूढहियय माइलो। सढसीलो य ससलो तिरियाउं बंधई जीवो ॥ १२॥” [उन्मा७र्गदेशको मार्गनाशको गूढहृदयो मायावी । शठता (शठोऽ) शीलश्च सशल्यस्तिर्यगायुर्वभाति जीवः ॥ १ ॥ ] ततस्ते मायिन उच्यन्ते, अथवा माया इह समस्तानन्तानुबन्धिकषायोपलक्षणं ततो मायिन इति किमुक्तं भवति १ - अनन्तानुबन्धिकषायोदयवन्तः अत एव मिथ्यादृष्टयः, 'ताणं णियइयाओ' इति तेषां पृथिवीकायिकानां नैयतिक्यो-नियताः पञ्चैव न तु त्रिप्रभृतय इत्यर्थः 'से एएणद्वेण 'मित्यादि, निगमनं 'जाब चउरिंदिया' इति इह महाशरीरत्वाल्पशरीरत्वे स्वखावगाहनानुसारेणावसेये, आहारश्च द्वीन्द्रियादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽपीति, 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' इति प्रतीतं, नवरमिह महाशरीरा अभीक्ष्णमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्छ्रसन्तीति यदुच्यते तत्सङ्ख्यात Education International For Parts Only अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र "उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने "उद्देश : २" इति मुद्रितं ~282~ १७ लेश्या | पदे उद्देशः २ ॥ ३३९॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०] दीप अनुक्रम [४४७] वर्षायुषोऽपेक्ष्य तथैव दर्शनात् , नासङ्ख्यातवर्षायुषः, तेषां प्रक्षेपाहारस्य षष्ठस्योपरि प्रतिपादितत्वात् , अल्पशरीराणां वाहारोच्छ्रासयोर्यत् कादाचित्कत्वं तदपर्यासावस्थायां लोमाहारोच्छ्वासयोरभवनेन पर्यासावस्थायां तद्भवनेन चावसेवं, कर्मसूत्रे यत्पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्वं इतरेषां तु महाकर्मत्वं तदायुष्कादितद्भवेबद्यकांपेक्षं, वर्णलेश्यासूत्रयोरपि यत्पूर्वोत्पन्नानां शुभवर्णाधुक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नानां चाशुद्धवर्णादि बाल्यादबसेयं, लोके तथादर्शनादिति, तथा 'संजयासंजया' इति देशविरताः स्थूलात् प्राणातिपातादेर्निवृत्तत्वात् इतरस्मादनिवृत्तत्वात् ॥ मनुष्यविषयं सूत्रमाह मणुस्सा णं भंते ! सवे समाहारा ?, गो० णो इणढे समढे, से केण०१, गो! मणुस्सा दुविहा पं० त०-महासरीरा य अप्पसरीरा य, तत्थ णं जे ते महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले आहारति जाव बहुतराए पोग्गले नीससंति आहब आहारति आहच नीससंति तत्थ ण जे ते अप्पसरीरा ते ण अप्पतराए पोग्गले आहारति जाव अप्पतराए पोग्गले नीससंति अभिक्खणं आहारेंति जाव अभिक्खणं नीससंति, से तेणढेणं गो०! एवं बुचति-मणुस्सा सवे णो समाहारा, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं किरियाहिं मणूसा तिबिहा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मद्दिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छदिडी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्टी ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-संयता असंयता संयतासंयता, तत्थ पंजे ते संयता ते दु. ५०, तं-सरागसंयता वीयरागसंयता य, सत्य ण जे ते चीयरागसंयता ते णं अकिरिया, तत्थ ण जे ते सरागसंयता ते दु.५०,०-- ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १७लेश्या प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. पदे उद्देशः प्रत सूत्रांक [२११] ॥३४॥ पमनसंयता य अपमत्तसंयता य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेर्सि एगा मायावत्तिया किरिया कजति, तत्थ ण जे ते पमत्तसंजया तेसिं दो किरियाओ कजंति-आरंभिया मायावत्तिया य, तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिं तिन्नि किरियाओ कजंति तं-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया, तत्थ णं जे ते अस्संजया तेसिं चत्तारि किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपञ्चक्खाणकिरिया, तत्थ पंजे ते मिच्छदिट्ठी जे सम्मामिच्छदिट्टी तेसिं नियझ्याओ पंच किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपचक्खाणकिरिया मिच्छादसणवत्तिया, सेसं जहा नेरइयाणं ॥ (सूत्रं २११) 'मणुस्सा ण भंते ! सबे समाहारा' इत्यादि, सुगमं नवरं 'आहच आहारेंति आहच्च ऊससंति आहच नीससंति' इति, महाशरीरा हि मनुष्या देवकुर्धादिमिथुनकास्ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण "अट्ठमभत्तस्स आहारो" [अष्टमभक्तेनाहारः] इति वचनात् उच्छ्वासनिःश्वासावपि तेषां शेषमनुष्यापेक्षया अतिसुखित्वात् कादा| चित्की, अल्पशरीरास्त्वभीक्ष्णमल्पं चाहारयन्ति, बालानां तथादर्शनात्, संमूछिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसंभवाच, उच्छासनिःश्वासावप्यल्पशरीराणामभीक्ष्णं प्रायो दुःखबहुलत्वात् , 'सेसं जहा नेरइयाण'मिति शेषकर्मवर्णादिविषयं सूत्रं यथा नैरयिकाणां तथाऽवसेयं, नवरमिह पूर्वोत्पन्नानां शुद्धवर्णादित्वं तारुण्याद् भावनीयं, क्रियासूत्रे विशेषमाह-नवरं 'किरियाहि मणुया तिविहा' इत्यादि, तत्र सरागसंयता-अक्षीणानुपशान्तकषाया दीप अनुक्रम [४४८] ॥३४॥ अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने “उद्देश: २" इति मुद्रितं ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२११] वीतरागसंयता-उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्च 'अकिरिया' इति वीतरागत्वेनारम्भादीनां क्रियाणामभावात्, 'एगा मायावत्तिया' इति अप्रमत्तसंयतानामेकैव मायाप्रत्यया क्रिया 'कजई'त्ति क्रियते भवति, कदाचिदुडाहरक्ष-N णप्रवृत्तानाम् , अक्षीणकषायत्वात् , 'आरंभिया मायावत्तिया' इति प्रमत्तसंयतानां हि सर्वः प्रमत्तयोग आरम्भ इति | भवत्यारम्भिकी क्रिया अक्षीणकषायत्वाच मायाप्रत्ययेति, 'सेसं जहा नेरइयाण'मिति शेषमायुर्विषयं सूत्रं यथा नैरयिकाणां तथा वक्तव्यं, तच्च सुगमत्वात् वयं भावनीयं । | वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं, एवं जोइसियमाणियाणवि, नवरं ते वेदणाए दु. ५००-माइमिच्छदिट्ठीउवव- | नगा य अमाइसम्मदिहीउववनगा य, तस्थ णं जे ते माईमिच्छदिट्टीउववनगा ते णं अप्पवेदणतरागा तत्थ णं जे ते । अमाईसम्मदिट्ठीउववनगा ते णं महावेदणतरागा, से तेण० गो०! एवं बु०, सेसं तहेब (सूत्र २१२) 'वाणमन्तराणं जहा असुरकुमाराण' मित्यादि, यथा असुरकुमारा 'सन्निभूया य असन्निभूया य, तत्थ णं जे सन्निभूया ते महायणा असन्निभूया अप्पवेयणा' इत्येवमधीता व्यन्तरा अपि तथैवाध्येतव्याः, यतोऽसुरादिषु व्यन्तराहान्तेषु देवेष्वसजिन उत्पद्यन्ते, तथा चोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ प्रथमशते द्वितीयोद्देशके-"असन्नी णं जहन्नेणं भवणवा सीसु उकोसेणं वाणमंतरेसु" इति [असंज्ञिनो जघन्येन भवनवासिषु उत्कृष्टेन व्यन्तरेषु] ते चासुरकुमारप्रकरणोक्तयु-1 तरल्पवेदना भवन्तीत्यवसेयं, यत्तु प्रार व्याख्यानं कृतं सञ्जिनः सम्यग्दृष्टयोऽसब्जिनस्त्वितरे इति, तदेवमपि दीप अनुक्रम [४४८] Etaeseटहरeneracelete ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१२] प्रज्ञापना- या: मलय० वृत्ती. ॥३४॥ दीप अनुक्रम [४४९] घटते इति वृद्धव्याख्यानुसरणतः कृतमित्यदोषः 'एव' मित्यादि, एवमसुरकुमारोक्तप्रकारेण ज्योतिष्कबैमानिकाना-१७ लेश्यामपि वक्तव्यं, नवरं ते वेदनायामेवमध्येतव्या-'दुविहा जोइसिया पन्नत्ता, तंजहा-मायिमिच्छदिट्टीउपवनगा यापदे उद्देशः इत्यादि, अथ कस्मादेवमधीयते यावता असुरकुमारवत् 'असन्निभूया य' इति किन्नाधीयते ?, उच्यते, तेष्वसजिन उत्पादाभावात् , एतदपि कथमवसेयं इति चेत् ?, उच्यते, युक्तिवशात् , तथाहि-असञ्ज्यायुष उत्कृष्टा स्थितिः |पल्योपमासययभागः, ज्योतिष्काणां च जघन्यापि स्थितिः पल्योपमसङ्ख्येयभागः, वैमानिकानां पल्योपम, ततोऽ-18 वसीयते नास्ति तेष्वसजी, तदभावाञ्चोपदर्शितप्रकारेणैवाध्येतव्या नासुरकुमारोक्तप्रकारेणेति, तत्र मायिमिथ्या|दृष्टयोऽल्पवेदना इतरे महावेदनाः शुभवेदनामाश्रित्येति । अथ चतुर्विंशतिदण्डकमेव सलेश्यपदविशेषितमाहारादिपदैनिरूपयति सलेसाणं भंते । नेरइया सबे समाहारा समसरीरा समुस्सासनिस्सासा सवेवि पुच्छा, गो! एवं जहा ओहिगमओ तहा सलेसागमओवि निरवसेसो भाणियबो जाच वेमाणिया । कण्हलेसा णं भंते ! नेरहया सवे समाहारा पुच्छा, गो० जहा ओहिया, नवरं नेरइया वेयणाए माइमिच्छदिट्ठीउववनगा य अभाइसम्मदिट्ठीउववनगा य भाणियबा, सेसं तहेब जहा ॥३४॥ ओहियाण, असुरकुमारा जाव वाणमंतरा, एते जहा ओहिया, नवरं मणुस्साणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्थ पंजे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-संजया अस्संजया संजयासंजया य, जहा ओहियाणं, जोइसियवेमाणिया आइल्लियासु अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने “उद्देश: २" इति मुद्रितं ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१३] तिम लेसासु ण पुपिछज्जति, एवं जहा किण्हलेसा विचारिया तहानीललेस्सा विचारेयवा, काउलेसा नेरदरहितो आरम्म जाव वाणमंतरा, नवरं काउलेस्सा नेरइया वेदणाए जहा ओहिया । तेउलेसा गं भंते ! असुरकुमाराणं ताओ चेव पुच्छाओ, गो.! जहेब ओहिया तहेव नवरं वेयणाए जहा जोइसिया, पुढविआउवणस्सइपंचेदियतिरिक्खमणुस्सा जहा ओहिया तहेव भाणियबा, नवरं मणूसा किरियाहिं जे संजता ते पमत्ता य अपमचा य भाणियवा सरागवीयरागा नथि, वाणमंतरा तेउलेसाए जहा असुरकुमारा एवं जोइसियवेमाणियावि, सेसं तं चेव, एवं पम्हलेसावि भाणियबा, नवरं जेसि अस्थि, सुकलेस्सावि तहेब जेसिं अस्थि, सई तहेव जहा ओहियाणं गमओ, नवरं पम्हलेस्समुफलेस्साओ पंचेदियतिरिक्खजोणियमणूसवेमाणियाणं चेव, न सेसाणंति (सूत्रं २१३) । पन्नवणाए भगवईए लेस्साए पढमो उद्देसओ समत्तो। 'सलेसा णं भंते ! नेरहया' इत्यादि, यथा अनन्तरमौधिको-विशेषणरहितःप्राक् गम उक्तस्तथा सलेश्वगमोऽपि निरवशेषो वक्तव्यः यावद्वैमानिका:-वैमानिकविषयं सूत्रं, सलेश्यपदरूपविशेषणमन्तरेणान्यस्य विशेषणस्य कचिदष्यभावात् । अधुना लेश्याभेदकृष्णादिविशेषितान षडू दण्डकानाहारादिपदैविभणिपुराह-'कण्हलेसा णं भंते ! नेरइया'। इत्यादि, यथा औधिका-विशेषणरहिताः आहारशरीरोच्छ्रासकर्मवर्णलेश्यावेदनानियोपपाताख्यैनवभिः पदैः प्राय | नरयिका उक्तास्तथा कृष्णलेश्याविशेषिता अपि वक्तव्याः, नवरं वेदनापदे नैरयिका एवं वक्तव्याः-'माइमिच्छदिट्ठीउववन्नगा य अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नगाय' इति, न चौधिकसूत्रे इव 'सन्निभूया य इति, कस्मादिति चेद् , उच्यते, 920928989028 दीप अनुक्रम [४५०] eseRecenese 3s ~287~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१३] दीप अनुक्रम [४५०] प्रज्ञापना- इहासज्जिनः प्रथमपृथिव्यामेवोत्पद्यन्ते "अस्सन्नी खलु पढम"मिति [असंज्ञिनः खलु प्रथमां ] वचनात् , प्रथमायां १७लेश्याया: मल- 18च पृथिव्यां न कृष्णलेश्या यत्र च पञ्चम्यादिषु पृथिवीषु कृष्णलेश्या न तत्रासज्ञिन इति, तत्र मायिनो मिथ्या-पदे उद्देशः 'य०वृत्ती. दृष्टयश्च महावेदना भवन्ति, यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी स्थितिमशुभां ते निवर्तयन्ति, प्रकृष्टायां च तस्यां महती वेदना ॥३४२॥ इतरेषु विपरीतेति । असुरकुमारादयो यावत् व्यन्तरास्तावद्यथा ओधिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, नवरं मनुष्याणां क्रियाभिर्विशेषः, तमेव विशेष दर्शयति-तत्थ णं जे ते' इत्यादि, तत्र-तेषु सम्यगष्टयादिषु मध्ये ये ते सम्यग्द-11 ष्टयस्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संयता असंयताः संयतासंयताश्च, 'जहा ओहियाण'मिति एतेषां यथोषिकानामुक्तं तथा कृष्णलेश्यापदविशेषितानामपि वक्तव्यं, तद्यथा-संयतानां द्वे क्रिये आरम्भिकी मायाप्रत्यया च,N कृष्णलेश्या हि प्रमत्तसंयतानां भवति नाप्रमत्तसंयताना, तेषां तु यथोक्तरूपे एव द्वे क्रिये, संयतासंयतानां तिस्रःआरम्भिकी पारिग्रहिकी मायाप्रत्यया च, असंयतानां चतस्रः-आरम्भिकी पारिग्रहिकी मायाप्रत्यया अप्रत्याख्यानक्रिया चेति । ज्योतिष्कवैमानिकास्तु आद्यासु तिसूषु लेश्यासु न पृच्छयन्ते, किमुक्तं भवति ?-तद्विषयं सूत्र न वक्तव्यं, तासां तेष्वभावात् , यथा च कृष्णलेश्याविपर्य सूत्रमुक्तं तथा नीललेश्याविषयमपि वक्तव्यं, नानात्वाभावाद्, एतदेवाह-एवं जहा किण्हलेसा विचारिया तहा नीललेस्सा विचारेयवा' नीललेश्याविषयोऽपि सूत्रदण्डक एवमेव, केवलं कृष्ललेश्यापदस्थाने नीललेश्यापदमुच्चरितव्यमिति भावः, 'कापोतलेस्सा' इत्यादि, कापोतलेश्या हि 908708829290829202 ॥३४॥ अत्र मूल-संपादने शीर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र “उद्देश: १" एव वर्तते तत् स्थाने “उद्देश: २" इति मुद्रितं ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१३] सूत्रतो नीललेश्येव नैरयिकेभ्य आरभ्य यावद्यन्तरास्तावद्वक्तव्या, नवरं कापोतलेश्यायों नैरयिका वेदनासूत्रे यथीधिकास्तथा वक्तव्याः-'नेरइया दुविहा पन्नत्ता-सन्निभूया य असन्निभूया य' इत्येवं वक्तव्या इति भावः, असज्ञिनामपि प्रथमपृथिव्यामुत्पादात् तत्र च कापोतलेश्याभावात् , तेजोलेश्याविषयं सूत्रमाह-'तेउलेस्सा णं भंते ! असुरकुमारा' इत्यादि, इह नारकतेजोवायुविकलेन्द्रियाणां तेजोलेश्या न संभवति ततः प्रथमत एवासुरकुमार|विषयं सूत्रमुक्तं, अत एव तेजोवायुविकलेन्द्रियसूत्रमपि न वक्तव्यं, असुरकुमारा अपि यथा प्रागोपत उक्तास्तथा वक्तव्याः, नपरं वेदनापदे यथा ज्योतिष्कास्तथा वक्तव्याः, 'सन्निभूया य असन्निभूया य' इति न धक्तव्याः, किंतु 'माइमिच्छदिहिउववनगा अमाइसम्मदिविउववनगा' इति वक्तव्या इति भावः, असब्जिनां तेजोलेश्यावत्सूत्पादा-10 भावात्, पृथिव्यवनस्पतयः तिर्यपञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्च यथा प्रागोधिकास्तथा वक्तव्याः, नवरं मनुष्याः क्रियाभिये | संयतास्ते प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च भणनीयाः, उभयेषामपि तेजोलेश्यायाः संभवात् , 'सरागा पीयरागा य नत्यि'त्ति सरागसंजया वीअरागसंजया य इति न वक्तव्या इत्यर्थः, वीतरागाणां तेजोलेश्याया असंभवेन वीतरागपदोपन्यासस्य | तेजोलेश्यायाः सरागत्वाव्यभिचारात् सरागपदोपन्यासय चायोगात, वाणमंतरा तेउलेसाए जहा असुरकुमारा' इति, तेऽपि 'माइमिच्छदिहिउववनगा अमाइसम्महिटिउपवनगा य' इत्येवं वक्तव्याः न तु 'सन्निभूया य असन्निभूया य' इति, तप्यपि तेजोलेश्यावत्सु मध्येऽसब्जिनामुत्पादाभावात् 'एवं पम्हलेसावि भाणियचा' इति, एवं 20290920022920209929 दीप अनुक्रम [४५०] ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [१], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलबावृत्ती. १७लेश्यापद उदश प्रत सूत्रांक तेजोलेश्योक्तप्रकारेण पालेश्याऽपि वक्तव्या, किमविशेषेण सर्वेष्वपि ?, नेत्याह-'नवरं जेसिं अत्थि' इति नवरम्- अयं विशेषः येषां पालेश्याऽस्ति तेष्वेव वक्तव्या, न शेषेसु तत्र पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां वैमानिकानां चास्ति न शेषाणामिति तद्विषयमेवैतस्याः सूत्र, शुक्ललेश्याऽपि तथैव वक्तव्या यथा पालेश्या, साऽपि येषामस्ति तेषां वक्तव्या सर्वमपि सूत्रं तथैव यथोषिकानां गम उक्तः, पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च येषामस्ति तान् साक्षादुपदर्शयति-'नवरं पम्हलेससुक्कलेसाओ' इत्यादि सुगम ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥ ॥२४॥ [२१३] दीप अनुक्रम [४५०] उक्तः पद्वाराद्यर्थाभिधायी प्रथम उद्देशकः, अधुना द्वितीय उद्देशक उच्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् करणं भंते ! लेसाओ पनत्ताओ, गोयमा ! छल्लेसाओ पन्नताओ, तंजहा-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा मुकलेस्सा (सूत्र २१४) नेरइयाणं भंते ! कद लेसाओ पन्नताओ, गो! तिनि, तं०-किण्ह नील. काउलेसा । तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कर लेस्साओ पत्रचाओ?, गो! छल्लेसाओ पं०,०-कण्हलेस्सा जाव मुक्कलेसा । एगिदियाणं भंते ! कइ लेसाओ पं०१, गो. चत्वारि लेसाओ प०,०-कण्ह० जाव तेउलेसा । पुढविकाइयाणं भैते ! कइ लेसाओ पं०१, गो! एवं चेव, आउवणस्सइकाइयाणवि एवं चेच, तेउवाउनेईदियतेइंदियचउरिदियाणं जहा ॥३४३॥ SAREauratonintamational FarPranamamumony अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (२) आरभ्यते ...लेश्याया: षड़ भेदाः, अत्र 'कस्य कतिविधा लेश्या: वर्तते?' तस्य निरूपणं ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१४-२१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१४ -२१६] So70080928 Feereeeeeeeeeeeeeee दीप नेरइयाणं । पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो०! छल्लेस्सा-कण्ह० जाव सुक्कलेसा, समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो० ! जहा नेरइयाणं, गन्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो.! छल्लेसा कण्ह० जाब सुक्कलेसा, तिरिक्खजोगिणीणं पुच्छा, गो०! छल्लेसा एयाओ चेव । मण्साणं पुच्छा, गो०1 छल्लेसा एयाओ चेव, संमुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गो. जहा नेरइयाणं, गन्भवतियमणुस्साणं पुच्छा, गो० छल्लेसाओ तं०- कण्ह० जाव सुक्कलेसा, मणुस्सीणं पुच्छा, गो! एवं चेव । देवाणं पुच्छा, गोछ एयाओ चेव, देवीणं पुच्छा, गो! चत्तारि कण्ह० जाय तेउलेस्सा, भवणवासीणं भंते ! देवाणं पुच्छा, गो०। एवं चेव, एवं भवणवासिणीणवि, वाणमंतरदेवाणं पुच्छा, गो! एवं चेव, वाणमंतरीणवि, जोइसियाण पुच्छा, गो०! एगा तेउलेसा, एवं जोइसिणीणवि । वेमाणियाण पुच्छा, गो! तिन्नि, त-उ० पम्ह सुक्कलेस्सा, वेमाणिणीणं पुच्छा, गो०! एगा तेउलेस्सा (सूत्र २१५) एतेसि णं भंते ! जीवाणं सलेस्साणं कण्हलेसाणं जाव सुकलेस्साणं अलेस्साण य कयरे २ अप्पा वा ४१, गो०! सबत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सा संखेजगु तेउलेस्सा संखेजगु० अलेस्सा अणंतगु० काउलेसा अर्णतगु० नीललेसा विसेसाहिया कण्हलेसा विसेसाहिया सलेस्सा विसेसाहिया (सूत्र २१६) 'कइ गं भंते ! लेसाओ' इत्यादि, कः पुनरस्य सूत्रस्य सम्बन्ध इति चेद् ?, उच्यते, उक्तं प्रथमोद्देशके 'सलेसा णं भंते ! नेरइया' इत्यादि इह तु ता एव लेश्याश्चिन्त्यन्ते 'कद लेसा' इति, तत्र लेश्याः प्राग्निरूपितशब्दार्थाः 'क'त्ति अनुक्रम [४५१-४५३] ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१४ -२१६] दीप अनुक्रम [४५१ -४५३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], ----- - उद्देशक: [२], ------------- • दारं [-], ------- - मूलं [२१४-२१६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥ ३४४॥ किंपरिमाणाः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम ! पड़, ता एव नामतः कथयति - ' कण्हलेसा' इत्यादि, कृष्णद्रव्यात्मिका कृष्णद्रव्यजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्या एवं नीललेश्येत्यादिपदेष्वपि भावनीयं । 'नेरइयाणं भंते!' इत्यादि, सूत्रमल्पबहुत्ववक्तव्यतायाः प्राक् सकलमपि सुगमं, नवरं वैमानिकसूत्रे यद्वैमानिकानामेका तेजोलेश्योक्ता तत्रेदं कारणं- त्रैमानिक्यो हि देव्यः सोधम्र्मेशानयोरेव तत्र च केवला तेजोलेश्येति, सामान्यतः सङ्ग्रहणिगाथा अत्रेमाः-- " किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसाण तेउलेसा मुणेयचा ॥ १ ॥ कप्पे सणकुमारे माहिंदे चैव बंभलोए य । एएस पम्हलेसा तेण परं सुकलेसा उ ॥ २ ॥ पुढवी आउ वणस्सह वायर | पत्तेय लेस चत्तारि । गन्भयतिरियनरेसुं छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥ ३ ॥ " [ कृष्णा नीला कापोती तैजसी च लेश्या भवनच्यन्तराणां । ज्योतिष्कसौधर्मेशानाः तेजोलेश्याका ज्ञातव्याः ॥ १ ॥ कल्पे सनत्कुमारे माहेन्द्रे चैव ब्रह्मलोके च । एतेषु पद्मलेश्या ततः परं शुक्ललेश्यैव ॥ २ ॥ पृध्यभ्यनस्पतिवा दरप्रत्येकानां चतस्रो लेश्याः । गर्भजतिर्यशरेषु षड् लेश्याः शेषाणां तिस्रः ॥ ३] सम्प्रति लेश्यादीनामष्टानामल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णं भंते! जीवाणं सलेस्साण'मित्यादि, अमीषामष्टानां मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पाः कतरे कतरेभ्यो बहवः कतरे कतरैः सह तुल्याः, इह प्राकतत्वात् तृतीयायामपि कतरेहिंतो निर्देशोऽयं भवतीत्येवं व्याख्यायामदोषः, तथा कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिकाः ?, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - गौतम ! सर्वस्वोकाः शुक्कलेश्याः, शुक्ला शुक्लद्रव्यजनिता वा वेश्या येषां ते Education Internation For Parts Only ~292~ १७लेश्यापदे उद्देशः २ ॥ ३४४॥ wor Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१४ -२१६] दीप अनुक्रम [ ४५१ -४५३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], ----- - उद्देशकः [२], ------------- • दारं [-], ------- मूलं [२१४ - २१६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः | शुक्ललेश्याः, एवं शेषपदेष्वपि विग्रहभावना कार्या, सर्वस्तोकाः, कतिपयेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु मनुष्येषु च लान्तकादिदेवेषु च तस्याः सद्भावात्, तेभ्यः पद्मलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः सङ्ख्येयगुणेषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोक कल्पवासिषु च देवेषु पद्मलेश्याभावात्, अथ लान्तकादिदेवेभ्यः सनत्कुमारादिकल्पत्रयवासिनो देवा असङ्ख्यातगुणाः ततः शुक्ललेश्येभ्यः पद्मलेश्याः असङ्ख्येयगुणाः प्राप्नुवन्ति कथं सङ्ख्येयगुणा उक्ताः १, उच्यते, इह जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्यातानां सनत्कुमारादिकल्पप्रयवासिदेवेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां पञ्चेन्द्रियतिरथां शुक्ललेश्या ततः पद्म| लेश्या चिन्तायां सनत्कुमारादिदेवप्रक्षेपेऽप्यसङ्ख्ये यगुणत्वं न भवति किं तु यदेव तिर्यक् पञ्चेन्द्रियापेक्षयैव सङ्ख्येयगुणत्वं | तदेवास्तीति सङ्ख्येयगुणाः शुक्ललेश्येभ्यः पद्मलेश्याः, तेभ्योऽपि सङ्ख्येयगुणाः तेजोलेश्याः, बादरपृथिव्यपप्रत्येकवनस्पतिकायिकेषु सङ्ख्येयगुणेषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्येषु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क सौ धम्र्मेशान देवेषु च तेजोलेश्याभावात् भावना सङ्ख्येयगुणत्वे प्राग्वदत्रापि कर्त्तव्या, तेभ्योऽप्यनन्तगुणा अलेश्याः, सिद्धानामलेश्यानां प्राक्तनेभ्योऽनन्तगुणत्वात्, तेभ्योऽपि कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणानां वनस्पतिकायिकानां कापोतलेश्यावतां सद्भावात्, तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, क्लिष्टक्लिष्टतराष्यवसायानां प्रभूततराणां सद्भावात्, कृष्णलेश्येभ्योऽपि सलेश्या विशेषाधिकाः, नीललेश्यादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ तदेवं सामान्यतोऽल्पबहुत्वं चिन्तितं, सम्प्रति नैरयिकेषु तदल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाह - Education Internation For Parts Only ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१७-२१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७-२१८] १७ लेश्यापदे उद्देशः प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ता . ॥३४५॥ दीप एएसिणं मंते ! नेरहयाणं कण्हलेसाणं नीललेस्साणं काउलेस्साण य कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, मो० ! सबथोवा नेरइया कण्हलेसा नीललेसा असं काउले. असं० (सूत्र २१७) एतेसि गं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेसाण य कयरे २१, अप्पा वा ४ गो० स० तिरिक्खजोणिया सुकलेसा एवं जहा ओहिया नवरं अलेस [सलेस बज्जा, एएसि एगिदियाणं कण्ह० नील काउ० तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबत्थोवा एगिदिया तेउलेस्सा काउले० अणं नीलले. विसेसा कण्हलेसा० (विसेसा०)। एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं कण्हलेसाणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गो०! जहा ओहिया एगिदिया नवरं काउलेस्सा असंखेनगुणा, एवं आउकाइयाणवि, एतेसि भंते ! तेउकाइयाणं कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा बा ४१, गो०। सबथोवा तेउकाइया काउलेस्सा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया, एवं वाउकाइयाणवि, एतेसि ण मंते! वणस्सइकाइयाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य जहा एगिदिय ओहियाणं, बेइंदियाणं तेइंदियाणं चरिंदियाणं जहा तेउकाइयाणं, एएसि णं भंते ! पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेसाणं एवं जाव सुक्कलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गो०! जहा ओहियाणं तिरिक्खजोणियाणं नवरं काउलेस्सा असंखेजगुणा, समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण जहा तेउकाइयाण, गम्भवतियपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं जहा ओहियाण तिरिक्खजोणियाणं नवरं काउलेस्सा संखेजगुणा, एवं तिरिक्खजोणिणीणवि, एएसिणं भंते ! संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य कण्ह० जाव मुकलेसाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबथोवा गम्भवफंतियपंचेदियतिरि० मुक्का अनुक्रम [४५४ -४५५]] ४॥४५॥ लेश्या विषयक अल्प-बहुत्वं ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१७ -२१८] दीप अनुक्रम [ ४५४ -४५५] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१७], ----- - उद्देशक: [२], ------------- • दारं [-], ------- मूलं [२१७-२१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 979,999 ৯৩ ১৩,১৫১৫ पम्ह० संखेअगुणा तेउले० संखे० काउ० संखे० नीललेस्सा विसेसा० कण्हलेसा विसेसा० काउलेसा संमुच्छिमपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया असंखेज ० नीललेसा विसेसा० कण्हलेसा विसेसा०, एएसि णं भंते! संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोगिणीण य कण्हले० जाव सुकलेसाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गो० ! जहेव पंचमं तहा इमं छ भाणिय, एएसिणं भंते! गम्भवकंतियपंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गो० सवत्थोवा गम्भव कंतिय पंचेदिय तिरिक्खजोणिया सुकलेसा सुकलेसाओ तिरिक्खजोगिणीओ संखेज्जगुणाओ पम्हलेसा गब्भवकंतियपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया संखे० पम्हलेसाओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेज्ज० तेउले० तिरिक्खजोणिया संखे० तेउलेसा तिरिक्खजोणिणीओ सं० काउले० सं० नीलले० विसेसा० कण्हले ० विसेसा० काउलेसाओ सं० नीललेसाओ विसेसाहियाओ कण्हलेसाओ विसेसाहियाओ, एएसि णं भंते । संमुच्छिमपंचें● तिरिक्खजोणि० गम्भवकंतियपंचें० तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेसाणं जाव सुकलेस्साण य कयरे कमरेहिंतो अप्पा वा ४१, गो० ! सवत्थोवा गम्भ० तिरिक्खजोगिया सुकलेसा सुकलेसाओ संखेज्जगुणाओ पम्हलेसा गन्भवः संखेज० पहलेसाओ तिरिक्ख० संखेजगुणाओ तेउलेसा गम्भव० तिरिक्ख० संखेज्जगु० तेउलेसाओ तिरि० संखेज्जगुणाओ काउलेसाओ सं० नीललेसा विसे० कण्हले० विसे० काउले० सं० नीललेसा वि० कण्हलेसाओ बिसेसाहियाओ कण्हले ० सं० पंचेदि० तिरिअ० सं० नीलले० विसे० कण्हले० विसेसाहिया। एएसि णं भंते ! पंचेंदियतिरिकखजोणियाणं तिरिक्खजोगिणीण य कण्हलेस्साणं जाव सुकलेसाणं कयरे कमरेहिंतो अप्पा वा ४१, गो० 1 सवत्थोवा पंचेंदियतिरि० For Park Use Only ~ 295~ war Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१७-२१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 1382 मज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. [२१७ -२१८] ॥३४६॥ दीप सुकलेस्सा सुकलेसाओ संखि० पम्हलेसा सं० पम्हलेसाओ संखेनगुणाओ तेउलेसा सं० तेउलेस्साओ संखिजगुणाओ १७लेश्याकाउले० संखे० नीललेसाओ विसेसाहिआओ कण्हलेसा विसेसा० काउले० असंखेजगुणा नीलले० विसे० कण्हले. पदे उद्देशः विसेसाहियाओ, एएसिणं भंते । तिरितिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेजाव सुका कचरे कयरहितो अप्पा वा ४, गो० ! जहेब नवमं अप्पाबहुगं तहा इमंपि, नवरं काउले. तिरि० अण०, एवं एते दस अप्पाबहुगा तिरिक्खजोणियाणं (सूत्र २१८)। 'एएसिणं भंते! नेरइयाण'मित्यादि, नैरयिकाणां हि तिस्रो लेश्याः, तद्यथा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या, उक्तं च “काउय दोसु तईयाएँ मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मिस्सा कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥१॥" [कापोती द्वयोस्तृतीयस्यां मिश्रा नीला चतुथ्यो । पञ्चम्यां मिश्रा कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥१॥] ततोऽत्र, त्रयाणामेव पदानां परस्परमल्पबहुत्वचिन्ता, तत्र सर्वस्तोकाः कृष्णलेश्यानरयिकाः, कतिपयपश्चमपृथिवीगतनरकावासेषु षष्ठयां सप्तम्यां च पृथिव्यां नैरयिकाणां कृष्णलेश्यासद्भावात् , ततोऽसवेयगुणा नीललेश्याः, कतिपयेषु तृतीयपृथिवीगतनरकाचासेषु चतुर्थी समस्तायां पृथिव्यां कतिपयेषु च पञ्चमपृथिवीगतनरकावासेषु नैरयिकाणां पूर्वोक्त ॥३४६॥ भ्योऽसङ्ख्येयगुणानां नीललेश्याभावात् , तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, प्रथमद्वितीयपृथिव्योस्तृतीयपृथिवी गतेषु च कतिपयेषु नरकावासेषु नारकाणामनन्तरोकेम्पोऽसोयगुणानां कापोतलेश्यासापात् । बधुना तिर्यक् अनुक्रम [४५४-४५५] N ~2964 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१७-२१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७-२१८] 889 दीप अनुक्रम [४५४-४५५] पञ्चेन्द्रियेष्वल्पबहुत्वमाह-'एएसिणं भंते !' इत्यादि, ‘एवं जहा ओहिया' इति एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण - यथा प्रागोषिकास्तथा वक्तव्याः, नवरमलेश्यावर्जाः, तिरश्चामलेश्यानामसंभवात् , ते चवं-सर्वस्तोकाः तिर्यग्योनिकाः शुक्ललेश्याः, ते च जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्याता द्रष्टव्याः, तेभ्य सङ्घवेयगुणाः पद्मलेश्याः, तेभ्योऽपि सजयेयगुणास्तेजोलेश्याः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः कापोतलेश्याः, तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णेलश्या विशेपाधिकाः, तेभ्योऽपि सलेश्या विशेषाधिकाः। साम्प्रतमेकेन्द्रियेष्वल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! एगिदियाण'मित्यादि, सर्वस्तोका एकेन्द्रियास्तेजोलेश्याः, कतिपयेषु बादरपृथिव्यवनस्पतिकायिकेष्वपर्याप्तावस्थायां तस्याः सद्भावात् , तेभ्यः कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, अनन्तानां सूक्ष्मवादरनिगोदजीवानां कापोतलेश्यासद्भावात् , तेभ्यो|ऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अत्र भावना प्रागेवोक्का । सम्प्रति पृथिवी| कायिकादिविषयमल्पबहुत्वं वक्तव्यं, तत्र पृथिव्यवनस्पतिकायानां चतस्रो लेश्याः तेजोवायूनां तिस्र इति तथैव सूत्रमाह-एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाण' मित्यादि, सुगम, द्वित्रिचतुरिन्द्रियविषयमपि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रे कापोतलेश्या असङ्ख्यातगुणा नत्वनन्तगुणाः, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्यातत्वात् , संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिरश्यां यथा तेजस्कायिकानामुक्तं तथा वक्तव्यं, तेजस्कायिकानामिव तेषामप्यायलेश्यात्रयमात्रसद्भावात् , गर्भव्युक्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रे तेजोलेश्याभ्यः कापोतलेश्या असहयगुणा वक्तव्याः, तावतामेव तेषां केवलवे SCSCREE CCCCCEER ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२१७-२१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- या मल- य० वृत्तौ. [२१७ -२१८] ॥३४७॥ दीप दसोपलब्धत्वात् , शेपमीषिकसूत्रवद् वक्तव्यं, एवं तिर्यग्योनिकीनामपि सूत्रं वक्तव्यं, तथा चाह-एवं तिरिक्ख-18|१७ लेश्याजोणिणीणवि' । अधुना संमूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियतिर्यकत्रीविषयं सूत्रमाह-एएसिणं भंते पदे उद्देशः इत्यादि सुगम, एतच प्राग्वदू भावनीयं, इदं किल पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाधिकारे षष्ठं सूत्रमनन्तरोक्तं च पञ्चममत उक्तं 'जहेब पंचमं तहा इमं छटुं भाणियचं,' अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यकपञ्चेन्द्रियतिर्यस्त्रीविषयं सप्तमं सूत्रमाह-एएसि णं भंते ! इत्यादि सुगम, नवरं सर्वाखपि लेश्यासु खियः प्रचुराः, सर्वसङ्ख्ययापि च तिर्यकपुरुष-11 भ्यस्तिर्यकत्रियस्त्रिगुणाः “तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयवा" [ त्रिगुणाविरूपाधिकास्तिरां त्रियो ज्ञातव्याः] इति वचनात्, ततः सङ्ख्यातगुणा उक्ताः, नपुंसकास्तु गर्भव्युत्क्रान्तिकाः कतिपय इति न ते यथोक्तमल्पब हुत्वं व्यामुवन्ति, सम्प्रति संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकगर्भव्युत्क्रान्तिकपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकतिर्यकुखीविषयमष्टमं सामान्यतः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकतिर्यकत्रीविषयं नवमं सामान्यतस्तिर्यग्योनिकतिर्यस्वीविषयं दशमं सूत्रमाह । एवं मणुस्साणवि अप्पाबहुगा भाणियच्वा, नवरं पच्छिमगं अप्पाबहुगं नत्थि (सूत्र २१९) एएसि णं भंते ! देवाणं IN||३४७॥ कण्हलेसा जाव सुफलेसाण य कयरे कयरेहितो?, अप्पा वा ४ गो! सवत्थोवा देवा सुकले० पम्हलेस्सा असं० काउले. असं नीललेस्सा विसेसा कह बिसेसा० तेउलेसा संखेजगुणा, एएसिणं भंते ! देवीण कण्हले. जाव तेउलेसाण य स अनुक्रम [४५४-४५५] INI ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] कयरे कयरहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबथोवा देवीओ काउले. नीललेसाओ विसेक कण्हले. पिसेसा तेउले० संखे० एवं, एएसि ण भंते ! देवाणं देवीण य कण्हले. जाव सु० कयरे २ अप्पा वा ४१, गो ! सबथोवा देवा मुकले० पम्हले. असं० काउले० असं० नीलले० विसे० कण्हले० विसे० काउले. देवीओ संखे० नीलले० विसे० कण्हले० विसे० तेउले. देवा संखे० तेउ० देवीओ संखे०, एएसिणं भंते ! भवणवासीणं देवाणं कण्हले. जाव तेउलेस्साण य कयरे २ अप्पा वा ४, गो०! सब० भवणवासी देवा तेउले. काउलेसा० असं० नीललेसा विसे० कण्हलेसा विसेसा । एतेसि ण भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं कण्हले जाव तेउले. कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४१, गो०! एवं चेव, एएसिणं भंते । भवणवासीणं देवाणं देवीण य कण्हलेसाणं जाब तेउलेसाण य कयरे २१ अप्पा वा ४१, गो! सबत्थो० भवणवासी देवा तेउलेसा भवणवासिणीओ तेउलेसाओ संखे० काउले. भवणवासीओ असंखे० नीललेसा विसे० कण्हलेसा विसे० काउलेसाभवणवासिणीओ देवीओ संखेजगु० नीलले. विसे० कण्हलेसाओ विसेसाहियाओ, एवं वाणमंत तिन्नेव अप्पावहुया जहेब भवणवासिणं तहेब भा० । एतेसिणं भंते ! जोइसि० देवाणं देवीण य तेउलेसाणं कयरे २१ अप्पा वा ४१, मो! सबत्थो जोइसिया देवा तेउले. जोइसिणीओ देवीओ० तेउले० संखेजाओ। एएसि णं भंते ! बेमाणियाणं देवाणं तेउले० पम्हलेसाणं सुक्कलेसाण य कयरे २१ अप्पा वा ४१, गो०! सबथो० वेमाणिया देवा सुकलेस्सा पम्हलेसा असं० तेउलेसा० असं०, एतेसिणं भंते! वेमाणियाणं देवाणं देवीण य तेउलेसा पम्हसुक्कलेस्साण य कयरे २ अप्पा वा ४१, गो० सवत्थोवा बेमाणिया देवा सुकलेस्सा पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा तेउलेस्सा असं acheseeeeeeee दीप अनुक्रम [४५६-४५८] e ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१९ -२२१] दीप अनुक्रम [४५६ -४५८] पदं [१७], ----- - उद्देशक: [२], ------------- • दारं [-], ------- - मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनाया: मल य० वृत्ती. ॥१४८॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) Education international खेज्जगुणा तेउलेसाओ बेमाणिणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ, एएसि णं भंते! भवणवासीदेवाणं वाणमंतराणं जोड़सियाणं वैमाणियाण य देवाण य कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाणं कयरे २ अप्पा वा ४१, गो० !, सवत्थोवा वैमाणिया देवा सुकलेस्सा पहलेस्सा असंखेजगुणा वेउलेस्सा असंखेअगुणा तेउलेसा भवगवासीदेवा असं० काउलेस्सा असं० नीलले० विसेसा० कण्हले० विसेसा० तेउलेसा वाणमंतरा देवा असं० काउले० असं० नीलले० विसेसा कण्हले० विसेसा तेउलेसा जोइसिया देवा संखे०, एएसि णं भंते! भवणवासिणीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कण्हलेसाणं जाव तेउलेस्साण य कयरे २१, गो० ! सवत्थोवाओ देवीओ वैमाणिणीओ तेउलेसाओ भवणवासिणीओ तेउलेसाओ असं० काउलेसाओ असं० नीललेसाओ विसेसा० कण्हले० विसेसा० तेउलेसाओ वाणमंतरीओ देवीओ असं० काउले० असं० नीललेसाओ विसेसा० कण्हलेसाओ बिसेसा० तेउलेसाओ जोइसिणीओ देवीओ संखेजगुणाओ || एएसि णं भंते! भवणवासीणं जाव बेमाणियाणं देवाण य देवीण य कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कयरे २ अप्पा वा ४१, गो० ! सहत्थोवा वेमाणिया देवा सुकलेसा पम्हलेसा असंखे ० तेउलेसा असंखे० तेउलेसाओ वैमाणियदेवीओ संखे ० तेउले भवणवासीदेवा असं० तेउलेसाओ भवणवासीदेवीओ संखे० काउलेसा भवणवासी असं० नीलले० विसेसा० कण्हले० विसेसा० काउलेसाओ भवणवासिणिओ संखे० नीलले० विसेसाहियाओ कण्हलेसाओ घिसे० तेउलेसा वाणमंतरा सं० तेउलेसाओ वाणमंतरीओ संखे० काउले वाणमंतरा असं० नीलले० विसेसा० कण्हले० विसेसा० काउले० वाणमं० संखे० नीललेसाओ विसे० कम्हलेसा विसेसा० तेउले ० जोइसिया संखे ० तेउले जोइसिपीओ संखिजगुणाओ । (सूत्रं २२०) For Parts Only ~300~ १७लेश्यापदे उद्देशः २ ||३४८॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] ReceDesenceRECENTRE दीप अनुक्रम [४५६-४५८] एएसिणं भंते ! कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कयरे २ अप्पडिया वा महड्डिया वा?, गो! कण्हलेसेहितो नीललेसा महड्डिया नीललेसेहितो काउलेसा महड्डिया एवं काउलेस्सहिंतो तेउलेसा महहिया तेउलेसेहितो पम्हलेसा महडिया पम्हलेसेहिंतो सुक्कलेसा महड्डिया, सबप्पहिया जीवा कण्हले० सवमहड्डिया सुकलेसा ।। एएसिणं भंते ! नेरइयाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउलेसाण य कयरे २ अप्पडिया वा महहिया वा, गो. कण्हलेसेहितो नीलले. महड्डिया नीललेसेहिंतो काउलेसा महड्डिया, सबप्पड्डिया नेरइया कण्हले०, सल्बमहड्डिया नेरइया काउले०॥ एएसिणं भंते! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेसाणं जाव सुकलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्प मह०१, गो०!, जहा जीवाणं । एएसि भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणि कण्हलेजाव तेउलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पड्डिया वा महड्डिया वा, गो०, कण्हलेसेहिंतो एगिदियतिरिक्खजो नीलले. महड्डिया नीलले तिरि० काउले. मह काउले. तेउले. महड्डिया, सहप्पड्डिया एगेंदियतिरिक्खजोणिया कण्हले. सबमहड्डिया तेउले । एवं पुढविकाइयाणवि, एवं एएणं अभिलावणं जहेब लेस्साओ भावियाओ तहेव नेय जाव चरिंदिया । पंचेंदियतिरिक्खजोणितिरिक्खजोणिणीणं समुच्छिमाणं गम्भवतियाण य सबेसि भाणि जाप अप्पहिया वेमाणिया देवा तेउले. सचमह० मा० सुकलेसा । केई भणति-चउनीसं दंडएणं इड्डी माणि०(सूत्र २२१) बीओ उद्देसओ समचो । 'एएसिणं भते । इसादि भावना प्रागुक्तानुसारेण कर्तव्या, तिर्यग्योनिकविषयसूत्रसंकलनामाई-एवमेए ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] दीप अनुक्रम [४५६-४५८] प्रज्ञापना दस अप्पाबहुगा तिरिक्खजोणियाण मिति सुगम, नवरमिहेमे पूर्वाचार्यप्रदर्शिते सङ्ग्रहणिगाथे-"ओहिय पणिदि १७लेश्याया: मल-itel समुच्छिमा २ य गम्भे ३ तिरिक्खइत्थीओ ४ । संमुच्छगभतिरिया ५ मुच्छतिरिक्खी य ६ गम्भंमि ७ ॥२॥ सम्मु-पदे उदशः २० वृत्ती. च्छिमगम्भ इत्थी८ पणिदितिरिगित्वीया ९ य ओहित्थी १० । दस अप्पबहुगभेया तिरियाणं होंति नायचा ॥२॥"8 यथा तिरश्चामल्पबहुत्वान्युक्तानि तथा मनुष्याणामपि वक्तव्यानि, नवरं पश्चिमं दशममल्पबहुत्वं नास्ति, मनुष्याणा॥३४९॥ मनन्तत्वाभावात् , तदभावे काउलेसा अणंतगुणा इति पदासम्भवात् । अधुना देवविषयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! देवाण'मित्यादि, सर्वस्तोका देवाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिदेवलोकेष्वेव तेषां सद्भावात् , तेभ्यः पालेश्याः असङ्ख्येयगुणाः, सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोककल्पदेवेषु पद्मले श्याभावात् , तेषां च लान्तकादिदेवेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वात् , तेभ्यः कापोतलेश्याः असहाययगुणाः, भवनपतिव्यन्तरदेवेषु सनत्कुमारादिदेवेभ्योऽसवेयगुणेषु कापोतलेश्यासद्भावात, तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः,प्रभूततराणां भवनपतिव्यन्तराणां तस्याः सम्भवात् , तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषा|धिकाः प्रभूततमानां तेषां कृष्णलेश्याकत्वात् , तेभ्योऽपि तेजोलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः, कतिपयानां भवनपतिव्यन्तराणां समस्तानां ज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां तेजोलेश्याभावात्॥ अधुना देवीविषयं सूत्रमाह-एएसिणं भंते ! देवीण'मि ॥३४९॥ त्यादि देव्यश्च सौधर्मशानान्ता एव न परत इति तासां चतस्र एव लेश्यास्ततस्तविषयमेवाल्पबहुत्वमभिधित्सुना 'जाव तेउलेस्साण य' इत्युक्तं सर्वस्तोका देव्यः कापोतलेश्याः कतिपयानां भवनपतिव्यन्तरदेवीनां कापोतले ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] दीप अनुक्रम [४५६-४५८] श्याभावात् तेभ्यो विशेषाधिका नीललेश्याः प्रभूतानां भवनपतिव्यन्तरदेवीनां तस्याः संभवात् तेभ्योऽपि कृष्णले-19 श्या विशेषाधिकाः प्रभूतानां तासां कृष्णलेश्याकत्वात् , ताभ्यस्तेजोलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः, ज्योतिष्कसौधर्मेशानदेबीनामपि समस्तानां तेजोलेश्याकत्वात् । सम्प्रति देवदेवीविषयं सूत्रमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका देवाः शुक्ललेश्याः, तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः पद्मलेश्याः, तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, तेभ्यो नीललेश्या विशेपाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, एतावत्प्रागेव भावितं, तेभ्योऽपि कापोतलेश्याका देव्यः सङ्ख्य| यगुणाः, ताश्च भवनपतिभ्यन्तरनिकायान्तर्गता वेदितव्याः, अन्यत्र देवीनां कापोतलेश्याया असंभवात् , देव्यश्च । देवेभ्यः सामान्यतः प्रतिनिकायं द्वात्रिंशद्गुणाः ततः कृष्णलेश्येभ्यो देवेभ्यः कापोतलेश्या देव्यः सङ्ग्येयगुणा अपि पटन्ते, ताभ्यो नीललेझ्या विशेषाधिकाः, ताभ्यः कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अत्रापि प्राग्वद् भावना, ताभ्योऽपि तेजोलेश्या देवाः सञ्जयेयगुणाः, कतिपयानां भवनपतिव्यन्तराणां समस्तानां ज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां तेजो8 लेश्याकत्वात् , तेभ्योऽपि तेजोलेश्याका देव्यः सववेयगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । सम्प्रति भवनवासिदेवविषयं सूत्रमाह-एएसिणं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोकास्तेजोलेश्या महर्द्धयो हि तेजोलेश्याका भवन्ति महर्द्धयश्चापे इति ते सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽसङ्खयेयगुणाः कापोतलेश्याः, अतिशयेन प्रभूतानां कापोतलेश्यासंभवात् , तेभ्यो । ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती. ॥३५॥ 93592529 दीप अनुक्रम [४५६-४५८] नीललेश्या विशेषाधिकाः, अतिप्रभूततराणां तस्याः संभवात् , तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अतिप्रभूत-IN समानां कृष्णलेश्याभावात् । एवं भवनपतिदेवीविषयमपि सूत्रं भावनीयं । अधुना भवनपतिदेवदेवीविषयं सूत्र-जायदे उदेशः माह-एएसि ण' मित्यादि, सर्वस्तोका भवनवासिनो देवाः तेजोलेश्याकाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता, तेभ्यस्तेजोलेश्याका भवनवासिन्यो देव्यः सङ्ग्येयगुणाः, देवेभ्यो हि देव्यः सामान्यतः प्रतिनिकायं द्वात्रिंशद्गुणास्तत उपपद्यते सोयगुणत्वमिति, तेभ्यः कापोतलेश्या भवनवासिनो देवा असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, युक्तिरत्र प्रागुक्ताऽनुसरणीया, तेभ्यः कापोतलेश्या भवनवासिन्यो देव्यः सङ्ख्येयगुणाः, भावना प्रागुक्तभावनानुसारेण भावनीया, ताभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकार, ताभ्यः कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, एवं वानमन्तरविषयमपि सूत्रत्रयं भावनीयं, ज्योतिष्कविषयमेकमेव सूत्र, तनिकाये तेजोलेश्याव्यतिरेकेण लेश्यान्तरासम्भवतः पृथग् देवदेवीविषयसूत्रद्वयासम्भवात्, वैमानिकदेव विषयं सूत्रमाह-'एएसिणं भंते ! वेमाणियाण'मित्यादि, सर्वस्तोका वैमानिका देवाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिदेवानामेव शुक्ललेश्यासम्भवात्, तेषां चोत्कर्षतोऽपि श्रेण्यसङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्यः पद्मलेश्या असङ्ग्येयगुणाः, सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रयलोककल्पवासिनां सर्वेषामपि देवानां पालेश्यासम्भवात् , तेषां चातिवृहत्तमश्रेण्यसोयभागवार्तिनःप्रदे- ३ शराशिप्रमाणत्वात् , लान्तकादिदेवपरिमाणहेतुश्रेण्यसङ्ख्येयभागापेक्षया बबीषां परिमाणहेतुः शेण्यसवेयभागो-18 एeroeceneseleseयर For P OW ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२१९ -२२१] दीप अनुक्रम [४५६ -४५८] “प्रज्ञापना” पदं [१७], - उद्देशक: [२], ------------- • दारं [-], ------- - मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः - - उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) सङ्ख्यगुणः, तेभ्योऽपि तेजोलेश्या असङ्ख्येयगुणाः, तेजोलेश्या हि सौधर्मेशानदेवानां, ईशानदेवा बाहुलमाप्रक्षेत्र प्रदेशराशेः सम्बन्धिनि द्वितीयवर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभः प्रदेशाः तावत्प्रमाण ईशानकल्पगतदेवदेवीसमुदायः, तद्वत किञ्चिदून द्वात्रिंशसमभागकल्पा देवाः, तेभ्योऽपि च सौधर्म्मकल्प देवाः सङ्ख्येयगुणाः, ततो भवन्ति पद्मलेश्येभ्यस्तेजोलेश्या असङ्ख्येयगुणाः, देव्यश्च सौधम्र्मेशानकल्पयोरेव, तत्र च केवला तेजोलेश्या, ततो लेश्यान्तरासम्भवान्न तद्विषयं पृथग्सूत्रं अतः। सम्प्रति देवदेवीविषयं सूत्रमाद - 'एएसि णं भंते ! वैमाणियाणं देवाणं देवीण य' इत्यादि सुगमं, नवरं 'तेउलेसाओ वेमाणिणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ' इति, देवेभ्यो देवीनां द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ॥ अधुना भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकविषयं सूत्रमाह - 'एएसि णं भंते ! भवणवासीय 'मित्यादि, तत्र सर्वखोका वैमानिका देवाः शुक्कलेश्याः, पद्मलेश्या असङ्ख्येयगुणाः, तेजोलेश्या असङ्ख्येयगुणा इत्यत्र भावनाऽनन्तरमेव कृता, तेभ्योऽपि भवनवासिनो देवास्तेजोलेश्याका असङ्ख्येयगुणाः, कथमिति चेद् १, उच्यते, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गमूले तृतीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणो भवनपतिदेवदेवीसमुदायः, तद्गतर्किंचिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा भवनपतयो देवाः, तत इमे प्रभूता इति घटन्ते सौधम्र्मेशान देवेभ्यस्तेजोलेश्याका असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः Eucatur intention For Pale Only ~ 305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापना- या मल [२१९ य. वृत्ती. -२२१] ॥३५॥ दीप अनुक्रम [४५६-४५८] toeepersectsee कापोतलेश्या भवनपतय एवासङ्ख्येयगुणाः, अल्पर्धिकानामप्यतिप्रभूतानां कापोतलेश्यासम्भवात्, तेभ्योऽपि भव-१७ लेश्यानयासिन एवं नीललेश्या विशेषाधिकाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता, तेभ्योऽपि वानमन्तरास्तेजोलेश्याका असङ्ख्येयगुणाः, पददश पदे उद्देशः कथमिति चेद, उच्यते, इह सङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणानि सचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन्प्रतरे भवन्ति । तावान् ग्यन्तरदेवदेवीसमुदायः, तद्भूतकिंचिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा व्यन्तरदेवाः, तत इमे भवनपतिभ्योऽतिप्र-2 भूततमा इत्युपपद्यते, कृष्णलेश्येभ्यो भवनपतिभ्यो वानमन्तरास्तेजोलेश्याका असङ्ख्यगुणाः, तेभ्योऽपि वानमन्तरा एव कापोतलेश्याका असहयगुणाः, अल्पर्धिकानामपि कापोतलेश्याभावात्, तेभ्योऽपि वानमन्तरा नील-11 लेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अत्रापि युक्तिः प्रागुक्ताऽनुसरणीया, तेभ्यस्तेजोलेश्या ज्योतिष्का देवाः सङ्ख्येयगुणाः, यतः षट्पञ्चाशदधिकागुलशतद्वयप्रमाणानि सूचिरूपाणि यावन्ति खण्डान्येकस्मिन् । प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणो ज्योतिष्कदेवदेवीसमुदायः, तद्तकिश्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा ज्योतिष्कदेवाः, ततः कृष्णलेश्येभ्यो वानमन्तरेभ्यः सङ्ख्येयगुणा एव घटन्ते ज्योतिष्कदेवा न त्वसङ्ख्येयगुणाः, सूचिरूपखण्डप्रमाणहेतोः सयेययोजनकोटीकोट्यपेक्षया षट्पञ्चाशदधिकाङ्गुलशतद्वयस्य सङ्गवेयभागमात्रवर्त्तित्वात् ॥ सम्प्रति भवनयास्यादि- ॥३५॥ देवदेवीविषयं तदनन्तरं भवनवास्यादिदेवदेवीसमुदायविपर्य सूत्रमाह-एतच्च सूत्रद्वयमपि प्रागुक्तभावनानुसारेण भावनीयं । सम्प्रति लेश्याविशिष्टानामल्पर्द्धिकत्वमहर्द्धिकत्ये प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-'एएसि णं भंते ! जीवाणं ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [२], -------------- दारं -],-------------- मूलं [२१९-२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९-२२१] कण्हलेसाणमित्यादि, सुगम, नवरं लेश्याक्रमेण यथोत्तरं महद्धिकत्वं यथाऽर्वाक अल्पर्द्धिकत्वं भावनीयं, एवं 8 नरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यवैमानिकविषयाण्यपि सूत्राणि येषां यावत्यो लेश्यास्तेषां तावतीः परिभाब्य भावनीयानि ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः 9809929202090899802 दीप अनुक्रम [४५६-४५८] उक्तो द्वितीय उद्देशकः, सम्प्रति तृतीय-आरभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जइ अनेरइए नेरइएसु उववज्जा, गो०1, नेरदए नेरइएसु उववजह नो अनेरइए नेरद्दएसु उववज्जइ, एवं जाव वेमाणियाण । नेरइए णं भंते ! नेरइएहिंतो उबबट्टइ अनेरइए नेरइएहितो उववदृति !, गो, अनेरइए नेरइएहिंतो उवबद्दति णो नेरइए नेरइएहितो उववइ, एवं जाव वेमाणिए, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयर्णति अभिलावो कायहो । से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे नेरहए कण्हलेसेसु नेरइएसु उववजति कण्हलेसे उववइ, जल्लेसे उववजइ तल्लेसे उबवट्टइ, हंता गो01, कण्हलेसे नेरइए कण्हलेसेसु नेरइएमु उववज्जति कण्हलेसे उववइ, जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ, एवं नीललेस्सेचि, एवं काउलेस्सेवि । एवं असुरकुमाराणवि जाव थणियकुमारा, नवरं लेस्सा अब्भहिया, से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु पुढविकाइएमु उववज्जति कण्हलेसे उच्चद्वइ जल्लेसे उववजति तल्लेसे उनबद्दति ?, ecemesesese SARERaunihanmational अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (३) आरभ्यते ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं [-],-------------- मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १७लेश्यापदे उद्देश: प्रत सूत्रांक ॥३५२॥ एन्टरटर [२२२] दीप अनुक्रम [४५९] हता गो!, कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु पुढविकाइएमु उववज्जति, सिय कण्हलेसे उवषट्टइ सिय नीललेसे उचवट्टइ सिय काउलेसे उववह सिप जल्लेसे उववजति सिय तल्लेसे उववइ, एवं नीलकाउलेस्सामुवि से नूर्ण भंते ! (तेउल्लेसे पुढवीकाइए ) तेउलेस्सेसु पुढविकाइएसु उववज्जइ पुच्छा, हंवा गो01, तेउलेस्सेसु पुढविकाइएसु उववजइ, सिव काहलेसे उववहह सिय नीललेसे उववर सिय काउलेसे उववइ तेउलेसे उववाह नो चेव पं तेउलेसे उबबट्टइ, एवं उकाइया वणस्सइकाइयावि, तेऊवाआ एवं चेव, नवरं एतेसि तेउलेस्सा नत्थि, वितियचउरिदिया एवं चेव तिसु लेसासु, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा पुढविकाइया आदिल्लिया तिसु लेसासु मणिया तहा छसुवि लेसासु भा०, नवरं छप्पि लेस्साओ चारेयवाओ । वाणमं० जहा असुरकु०, से नूर्ण भंते ! तेउलेस्से जोइसिए तेउलेस्सेस जोहसिपस उवव० जहेब असुरकु०, एवं वेमाणियावि, नवरं दोहंपि चयंतीति अमिलायो । से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे नीललेसे काउ. लेसे नेरहए कण्हलेसेसु नीललेसेसु काउलॅसेसु नेरइएसु उवव० कण्ह. नील० काउले० उववइ जल्लेसे उवव० तल्लेसे उववाह, हंता गो०1, कण्हनीलकाउलेसे उववजइ जल्ळेसे उववजइ तल्लेसे उववइ, से नूर्ण भंते ! कण्हलेसे जाव तेउकेस्से असुरकुमारे कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु असुरकुमारेसु उववजइ, एवं जहेब नेरइए तहा असुरकुमारावि जाच थणियकुमारावि, से नूर्ण मते ! कण्हलेसे जाप तेउलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु पुढविकाइएसु उववजा, एवं पुच्छा जहा असुरकुमाराण, हंता गो.1, कण्हलेसे जाव तेउलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु पुढविकाइएसु सिय कण्हलेसे उववइ सिय नीललेसे सिय काउलेसे उबट्टइ सिय जल्बेसे उववजइ तलेसे उववर, बेउलेसे उववञ्जद नो SAR५२॥ ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [४५९] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], ----- ------ दारं [-], [------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः • मूलं [२२२] चेवणं तेउलेसे उबवट्टर, एवं आउकाइया वणस्सइकाइयावि भाणियता से नूणं भंते! कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे तेउकाइए कण्हलेसेसु नीललेसेस काउलेसेस तेउकाइएस उववज्जइ कण्हले से नीललेसे काउलेसे उबबहह जल्छेसे उबबाद तसे उबबहह ?, हंता गो० 1, कण्ह० नील० काउलेसे तेउकाइए कण्ह० नील० काउलेसेसु तेउकाइएस उबवजह सिय कण्हलेसे उबट्ट सिय नीललेसे उबवहति सिय काउलेसे उबबहह सिय जल्लेसे उबवजह तल्लेसे उबवट्टर, एवं वाउकायबेदियतेइंदियचउरिंदियावि भाणियता से नूणं भंते ! कण्हलेसे जान सुफलेसे पंचेंदियतिरिक्खजोगिया कण्हलेसेसु जाव सुकलेसेसु पंचेंदियतिरिक्खजोगिएसु उबवजह १, पुच्छा, हंता गोयमा !, कण्हलेसे जाव सुकलेस्से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु जाव सुक्कलेसेसु पंचदियतिरि० उबव० सिय कण्हलेसे उववहह जाब सिय सुकलेसे उचबट्टद सिय जल्लेसे उचवज्जइ तल्लेसे उबवहर। एवं मणूसेवि । वाणमंतरा जहा असुरकुमारा जोइसियवैमाणियादि एवं चेष, नवरं जस्स जल्लेसा, दोन्हचि चयणंति भाणियां (सूत्रं २२२ ) 'नेरहए णं भंते । नेरइए उपवज्जद्द' इत्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः -- द्वितीयोदेश के नारकादीनां लेश्यापरिसङ्ख्यानं अल्पबहुत्वं महर्द्धिकत्वं चोक्तं, इह तु तेपामेव नारकादिजीवानां तास्ता लेश्याः किमुपपातक्षेत्रोपपन्नानामेव भवन्ति उत विग्रहेऽपि इत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थे प्राक् नयान्तरमाश्रित्य नारकादिव्यपदेशं पृच्छति 'नेरइए 8 भंते! नेरइपसु उबवजह अनेरइए नेरइएस उबवज्जर' इति, इदं च प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह गौतम ! अथ लेश्याया: उपपातक्षेत्रम् प्ररुप्यते For Parts Only ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [४५९] पदं [१७], |-------------- उद्देशक: [३], -------- दारं [-], [------- मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल ० वृत्तौ ॥ ३५३॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - नैरयिको नैरयिकेषूत्पद्यते नो अनैरयिकः, कथमिति चेद् १, उच्यते, इह यस्मान्नारकादिभवोपग्राहकमायुरेव न ४ १७ लेश्या४ पदे उद्देशः शेषं, तथाहि - नारकायुषि उदयमागते नारकभवो भवति मनुष्यायुषि मानुषभव इत्यादि, ततो नारकाद्यायुर्वेदन- ३ प्रथमसमये एवं नारकादिव्यपदेशं लभते, एतच ऋजुसूत्रनयदर्शनं, तथा च नयविद्भिः ऋजुसूत्रनयखरूपनिरूपणं ६ कुर्वद्भिरिदमुक्तं - "पठालं न दहत्यग्निर्भियते न घटः कचित् । नाशून्ये निष्क्रमोऽस्तीह, न च शून्यं प्रविश्यते ४ ॥ १ ॥ नारकव्यतिरिक्तश्थ, नरके नोपपद्यते । नरकान्नारकश्चास्य, न कश्चिद्विप्रमुच्यते ॥ २ ॥ " इत्यादि, 'एवं जाव वैमाणिए' एवं-नैरयिकोक्तप्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिको - वैमानिकविषयं सूत्रं तच्च सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयं ॥ अधुना उद्वर्त्तनाविषयं नैरयिकेषु सूत्रमाह- 'नेरइए णं भंते ' इत्यादि, एतदपि ऋजुसूत्रनयदर्शनेन वेदितव्यं तथाहि - परभवायुषि उदयमागते तत उद्वर्त्तते यद्भवायुश्वोदयमागतं तेन भवेन व्यपदेशः, यथा नारकायुपि उदयमागते नारकभवेन नारक इति, ततो नैरयिकेभ्योऽनैरयिक एवोद्वर्त्तते न नैरयिक इति । एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण तावत्सूत्रं वक्तव्यं यावद्वैमानिकविषयं, नवरं ज्योतिष्क वैमानिकविषये व्यवनं इत्यभिलापः कर्त्तव्यः, तेभ्य उद्वर्त्तनस्य व्यवनमिति प्रसिद्धेः, तथा चाह-' एवं जाव बेमाणिए नवर' मित्यादि ॥ अधुना | कृष्णलेश्याविषयमुत्पत्तौ सूत्रमाह- 'से नृणं भंते!' इत्यादि, शब्दोऽथशब्दार्थः स चेह प्रश्ने नूनं - निश्चितमेतत् भदन्त ! कृष्णलेश्यो नैरयिकः कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषु मध्ये उत्पद्यते तेभ्यश्च कृष्णलेश्येभ्यो नैरयिकेभ्य उद्व Education International For Park Use Only ~310~ ॥३५३॥ www.landbrary or Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] शर्तमानः कृष्णलेश्य एवोद्वर्तते, एतदेव निश्चयदायोत्पादनार्थ प्रकारान्तरेणाह-यल्लेश्य उत्पद्यते तल्लेश्य उद्वर्त्तते । न लेश्यान्तरगत इति ?, भगवानाह-हंता गोयमा ! इत्यादि, हन्तेत्यनुमतौ अनुमतमेतत् मम गौतम ! 'कण्हलेसेसु नेरइए' इत्यादि, अथ कथं कृष्णलेश्यः सन् कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषुत्पद्यते न लेश्यान्तरोपेतः, उच्यते, इह तिर्यपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा बद्धायुष्कतया नरकेपुत्पत्ति(तितु)कामो यथाक्रम तिर्यगायुपि मनुष्यायुषि च साकल्येनाक्षीणेऽन्तर्मुहुर्तशेपे यलेश्येषु नरकेषुत्पत्स्यते तद्गतलेश्यया परिणमति, ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन परिणामेन नरकायुः। प्रतिसंवेदयते, तत उच्यते कृष्णलेश्यः कृष्णलेश्येषु नैरयिकेपूत्पद्यते न लेश्यान्तरयुक्तः, अथ कथं कृष्णलेश्याक एवोद्व ते ?, उच्यते, देवनैरयिकाणां हि लेश्यापरिणाम आभवक्षयाद् भवति, एतच प्रागेव प्रपञ्चत उपपादितं, एवं नीललेश्याविषयं कापोतलेश्याविषयं च सूत्रं वक्तव्यं, एवं असुरकुमारादीनामपि सनत्कुमारपर्यवसानानां वक्तव्यं, नवरं तेजोलेश्यासूत्र तत्राभ्यधिकमभिधेयं, तेजोलेश्याया अपि तेषां भावात् ॥ अधुना पृथिवीकायिकेषु कृष्णलेश्याविषयं सूत्रमाह-से नूणं भंते ! इत्यादि, इह तिरवां मनुष्याणां च लेश्यापरिणाम आन्तमुहर्तिकस्ततः कदाचित् यल्लेश्य उद्वर्त्तते कदाचिलेश्यान्तरपरिणतोऽपि उद्वर्त्तते, एष पुनर्नियमो यो यल्लेश्येषूत्पद्यते स नियमतस्तल्लेश्य एवोत्पद्यते, "अंतमुहुत्तम्मि गए अंतमुहुत्तम्मि सेसए आउं (चेव)। लेसाहिं परिणयाहिं जीवा वचंति परलोयं ॥१॥" दीप अनुक्रम [४५९] ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं [-],-------------- मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] ५४ प्रज्ञापना-NI[अन्तर्मुहः गतेऽन्तर्मुहू शेष आयुषि (एव)। लेश्यापरिणामे जीवा ब्रजन्ति परलोकम् ॥१॥] इति वचनात् , १७लेश्या तत उक्तं 'गोयमा ! कण्हलेसे पुढपिकाइए कण्हलेसेसु पुढयिकाइएसु उववज्जइ सिय कण्हलेसे उघट्टा' इत्यादि, पदे उद्देश: य०वृत्ती. एवं नीललेश्याविषयं कापोतलेश्याविषयं च सूत्रं वक्तव्यं, तथा यदा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवाः ॥३५४॥ तेजोलेश्यावन्तः स्वभवाच्युत्वा पृथिवीकायिकेषूत्पद्यन्ते तदा कियत्कालमपर्याप्तावस्थायां तेषु तेजोलेश्याऽपि लभ्यते | तत ऊद्धे तु न भवति, तथा भवखभाषतया तेजोलेश्यायोग्यद्रव्यग्रहणशक्त्यसम्भवात् , ततस्तेजोलेश्यासूत्रे उक्तश'तेउल्लेसे उववजइ नो चेव णं तेउलेसे उबवट्टई' इति, यथा च पृथिवीकायिकानां चत्वारि सूत्राण्युक्तानि तथाऽ कायिकवनस्पतिकायिकानामपि वक्तव्यानि, तेषामप्यपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्यासंभवात्, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रि-1 यविषयाणि प्रत्येकं त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि, तेषां तेजोलेश्याया असम्भवात् ॥ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुप्याथ यथाऽऽद्यासु तिसृषु लेश्यासु पृथिवीकायिका उक्काः तथा षट्खपि लेश्यासु वक्तव्याः, षण्णामप्यन्यतमया लेश्यया तेषामुत्पत्तिसम्भवात् , उत्पत्तिगतैकैकलेश्याविपये चोद्वर्तनायां पण्णां विकल्पानां सम्भवात्, सूत्रपाठ-13 श्चैवं-से नूणं भंते ! कण्हलेसे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उवयज्जइ कण्हलेसेसु उववट्टा जलेसे उववजइ तलेसे उबट्ट, हंता गोयमा, कण्हलेसे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जइ सिय कण्हलेसे उववट्टर सिय नीललेसे उववइ सिय काउलेसे उच्च दीप अनुक्रम [४५९] eesटर ॥३५४॥ SAREauratonintamational ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 300 प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [४५९] वट्टा सिय तेउलेसे उवषट्टर सिय पम्हलेसे उववइ सिय सुकलेसे उबबट्टइ सिय जलेसे उववज्जइ तलेसे उवय-1 ह' एवं नीलकापोततेजःपद्मशुक्ललेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि 'चाणमंतरा जहा असुरकुमारा' इति | 'जलेसे उववजह तलेसे उबवट्टा' इति वक्तव्या इति, सर्वदेवानां लेश्यापरिणामस्याऽऽभवक्षयाद् भावात् , एवं लेण्यापरिसङ्ख्यानं परिभाब्य ज्योतिष्कवैमानिकविषयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि, नवरं तत्र 'चयन्ती'सभिलपनीयं, तदेवमेकैकलेश्याविषयाणि चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण नैरयिकादीनां सूत्रापयुक्तानि तत्र कश्चिदाशङ्केत-प्रविरलैककनारकादिविषयमेतत् सूत्रकदम्बकं यदा तु बहवो भिन्नलेश्याकास्तस्यां गतायुत्पद्यन्ते तदाऽन्यथाऽपि वस्तुगतिर्भवेत्, एकैकगतधर्मापेक्षया समुदायधर्मस्य कचिदन्यथाऽपि दर्शनात्, ततस्तदाशङ्काऽपनोदाय येषां यावत्यो लेश्याः सम्भवन्ति तेषां युगपत्तावलेश्याविषयमेकैकं सूत्रमनन्तरोदितार्थमेव प्रतिपादयति-'से नूणं भंते ! कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे नेरइए कण्हलेसेसु नीललेसेसु काउलेसेसु नेरइएसु उववजई' इत्यादि, समस्तं सुगमं । सम्प्रति कृष्णलेश्यादिनरयिकसत्कावधिज्ञानदर्शनविषयक्षेत्रपरिमाणतारतम्यमाह कण्हलेसे णं भंते ! नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाए ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणे केवतियं खेनं जाणइ केवइयं खेर्स पासइ, गो.1, णो बहुयं खेनं जाणइ णो बहुयं खेत्तं पासइ णो दूर खेत्तं जाणइ णो दूरं खेतं पासह इत्तरियमेव खित्तं जाणइ इत्तरियमेव खेतं पासइ, से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ कण्हलेसे गं नेरइए तं चेव जाव इसरियमेव खेत 03552020-3302020 अथ लेश्याया: सम्बन्धे अवधिज्ञान-दर्शनस्य विषयक्षेत्र प्ररुप्यते ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२३] दीप अनुक्रम [४६०] पदं [१७], | -------------- उद्देशक: [३], ------ दारं [-], ----- - मूलं [२२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्तौ. ॥३५५॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - Internationa पास १, गो० !, से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जंसि भूमिभागंसि ठिच्चा सबओ समंता समभिलोएज्जा, तर गं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाए सबओ समता समभिलोएमाणे जो बहुयं खेतं जाव पासह जाब इत्तरियमेव खेचं पासह, से तेणद्वेण गोयमा ! एवं बुच्चइ कण्हले से गं नेरइए जाव इसरियमेव खेचं पासइ, नीललेसे गं भंते । नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाय ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणे २ केवतियं खेतं जाणइ केवतियं खेत्तं पासह १, गो० 1, बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासह दूरतरखेचं जाणइ दूरतरखेत्तं पासइ वितिमिरतरगं खेत्तं जाणइ वितिमिरतरगं खेत्तं पासह विसुद्धतरागं खेत्तं जाणइ विसुद्वतरागं खेत्तं पासद, से केणट्टेणं मंते ! एवं बुच्चइ- नीललेसे णं नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेतं जाणइ विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ?, से जहा नामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पवयं दुरुहिता सबओ समता समभिलोएजा वर णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय सबओ समता समभिलोमा २ बहुतरागं खेतं जाणइ जाव विमुद्धतरागं खेत्तं पास से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्च नीललेस्से नेरइए कण्हलेस जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ, काउलेस्से णं भंते ! नेरइए नीललेस्स नेरइयं पणिहाय ओहिणा सओ समंता समभिलोएमाणे २ केवतियं खेतं जाणइ पासह ?, गो० ! बहुतरागं खेतं जाणइ पासइ जाव विमुद्वतरागं खेत्तं पासति से केणट्टेणं भंते ! एवं बु० काउलेस्से णं नेरइए जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासह १, गो० ! से जहा नामए के पुरिसे बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पवयं दुरूहइ २ दोवि पाए उच्चाविया (वता) सओ समंता समभिलोएजा तए णं से पुरिसे पचयगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय सबओ समंता समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं For Parts Only ~314~ १७लेश्या२ पदे उद्देशः ३ ॥ ३५५॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२३] दीप अनुक्रम [४६०] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१७], ----------- उद्देशक: [३], -------- दारं [-], [------- - मूलं [२२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासह जाब चितिमिरतरागं पासह, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - काउलेस्से णं नेरइए नीललेस्स नेरइयं पणिहाय तं चैव जाव वितिमिरतरागं खेतं पास || (सूत्रं २२३ ) 'लेसे णं भंते!' इत्यादि, कृष्णलेश्यो भदन्त कश्विन्नैरयिकोऽपरं कृष्णलेश्याकं प्रणिधाय — अवेक्ष्यावधिनाअवधिज्ञानेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः- सर्वासु विदिक्षु समभिलोकमानो - निरीक्षमाणः कियत्-- किंपरिमाणं क्षेत्रं जानाति कियद्वा क्षेत्रमवधिदर्शनेन पश्यति ?, भगवानाह - गौतम ! न बहु क्षेत्रं जानाति नापि बहु क्षेत्रं पश्यति, किमुक्तं भवति ? – अपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्य न विवक्षितः कृष्णलेश्याको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धोऽपि नैरयिकोऽतिप्रभूतं क्षेत्रमवधिना जानाति पश्यति, एतदेवाह-न दूरम्— अतिविप्रकृष्टं क्षेत्रं जानाति नाप्यतिविप्रकृष्टं क्षेत्रं पश्यति, किं तु इत्वरमेव - स्वल्पमेवाधिकं क्षेत्रं जानाति इत्वरमेवाधिकं क्षेत्रं पश्यति, एतच्च | सूत्रं समानपृथिवीककृष्ण लेश्यनैरयिकविषयमवसे यमन्यथा व्यभिचारसम्भवात् तथाहि - सप्तमपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको नैरयिको जघन्यतो गय्यूतार्द्धं जानाति उत्कर्षतो गव्यूतं, पष्ठपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको जघन्यतो गव्यूतमुत्कर्षतः सार्द्धं पञ्चमपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको जघन्यतः सार्द्धं गव्यूतमुत्कर्षतः किञ्चिदूने द्वे गव्यूते, ततो द्विगुणत्रिगुणाधिक क्षेत्रसंभवाद् भवत्यधिकृतसूत्रस्य व्यभिचारः, यथा समानपृथिवीकमपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्यातिविशुद्धोऽपि कृष्ण लेश्याको नैरयिको मनागधिकं पश्यति नातिप्रभूतं तथा दृष्टान्तेनोपपिपादयिषुराह - 'से केणट्ठे Education Internation For Parts Only ~ 315~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२३] दीप अनुक्रम [४६०] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१७], | -------------- उद्देशक: [३], ------ दारं [-], ----- - मूलं [२२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥ ३५६ ॥ णं भंते । इत्यादि, इयमत्र भावना -- यथा समभूभागव्यवस्थित एव कश्चित् विवक्षितः पुरुषः चक्षुर्नैर्मल्यवशात् मनागधिकं पश्यति न प्रभूततरं तथा विवक्षितोऽपि कश्चित् कृष्णलेश्याको नैरयिकः खभूमिकानुसारेणातिविशुद्धोऽपि समानपृथिवीकमपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्य यदि परमवधिना मनागधिकं पश्यति न तु प्रभूततरं, अन्न समभूभागस्थानीया समाना पृथिवी स्वभूमिकासमाना च कृष्णरूपा लेश्या चक्षुःस्थानीयमवधिज्ञानमेतावता चैतदपि ध्वनितं यथा समभूभागव्यवस्थितः पुरुषः सर्वतः समन्तादभिलोकमानो गर्त्तागतं पुरुषमपेक्ष्यातिप्रभूततरं | पश्यति तथा पञ्चमपृथिवीगतः स्वभूमिकानुसारेणातिविशुद्धः कृष्णलेश्याको विवक्षितोऽपि नैरयिकः सप्तमपृथिवीगतं कृष्णलेश्या कमतिमन्दानुभागावधिनैरयिकमपेक्ष्यातिप्रभूतं पश्यति, मनागधिकत्रिगुणक्षेत्रसम्भवात् ॥ सम्प्रति | नीललेश्याकविषयं सूत्रमाह- 'नीललेसे णं भंते! नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाए' इत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, नवरं 'वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ' इति विगतं तिमिरं-- तिमिरसम्पाद्यो भ्रमो यत्र तद्वितिमिरं, इदं वितिमिरमिदं वितिमिरमनयोरतिशयेन वितिमिरं वितिमिरतरं 'इयोर्विभज्ये तरवि'ति तरप्प्रत्ययः, ततः प्राकृतलक्षणात् खार्थे कप्रत्ययः पूर्वस्य च दीर्घत्वं अत एव विशुद्धतरं निर्मलतरं अतीव स्फुटप्रतिभासमितियावत्, भावना त्वियंयथा धरणितलगतं पुरुषमपेक्ष्य पर्वतारूढः पुरुषोऽतिदूरं क्षेत्रं पश्यति तदपि प्रायः स्फुटप्रतिभासं तथा विवक्षितोऽपि नीललेश्याको नैरयिको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धावधिः कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्यातिदूरं वितिमिर For Parts Only ~316~ १७लेश्यापदे उद्देशः ।।३५६॥ www.landbrary or Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं [-],-------------- मूलं [२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२३] 18 तरं स्फुटप्रतिभासं च क्षेत्रं जानातीति, अत्र पर्वतस्थानीया उपरितनी तृतीया पृथिवी अतिविशुद्धा च खभूमिकानु सारेण नीललेश्या धरणितलस्थानीया अधस्तनी कृष्णलेश्या चक्षुःस्थानीयमवधिज्ञानमिति ॥ सम्प्रति नीललेश्याकमपेक्ष्य कापोतलेश्याविषयं सूत्रमाह-काउलेस्से णं भंते! नरहए नीललेस्सं नेरइयं पणिहाये'त्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, नवरं 'दोवि पाए उच्चावइत्ता' इति द्वावपि पादौ उचैः कृत्वा, द्वावपि पाणी उत्पादयेत्यर्थः, भावना त्वियं-यथा पर्वतस्योपरि वृक्षमारूढः सर्वतः समन्तादवलोकमानो बहुतरं पश्यति स्पष्टतरं च तथा कापोतलेश्यो। नरयिकोऽपरं नीललेश्याकमपेक्ष्य प्रभूतं क्षेत्रमवधिना जानाति पश्यति च तदपि च स्पष्टतरमिति, इह वृक्षस्था-18 नीया कापोतलेश्या उपरितनी च पृथिवी पर्वतस्थानीया नीललेश्या तृतीया च पृथिवी चक्षुःस्थानीयमवधिज्ञानहामिति ॥ सम्प्रति का लेश्याः कतिषु ज्ञानेषु लभ्यन्ते इति निरूपयितुकाम आह दीप अनुक्रम [४६०] कण्हलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा, मो०! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा, दोसु होमाणे आभिणियोहियसुयनाणे होजा, तिमु होमाणे आभिणियोहियसुयनाणओहिनाणेसु होना, अहवा तिसु होमाणे आभिणिवोहियसुयनाणमणपज्जवनाणेसु होजा, चउसु होमाणे आभिणियोहियसुयोहिमणपजवनाणेसु होज्जा, एवं जाव पम्हलेसे, सुकलेसेणं भैते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा?, गो! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होज्जा, दोसु होमाणे ~317 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ३ प्रत सूत्रांक [२२४] दीप अनुक्रम [४६१] प्रज्ञापना-IN आभिणियोहियनाण एवं जहेब कण्हलेसाणं तहेव भाणियचं जाव चउहि, एगमि नाणे होजा, एगमि केवलनाणे १७ लेश्यायाः मल- होजा (सूत्र २२४ ) पन्नवणाए भगवईए लेस्सापए तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ पदे उद्देशः य. वृत्ती. 'कण्हलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! योखिषु चतुर्प ॥३५७॥ च ज्ञानेषु भवति, तत्र द्वयोराभिनिबोधिकश्रुतज्ञानयोः त्रिषु आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानेषु यदिवाऽऽमिनिबो[धिकश्रुतमनःपर्यायज्ञानेषु, इहावधिरहितस्यापि मनापर्यवज्ञानमुपजायते, सिद्धप्राभूतादावनेकशस्तथा प्रतिपादनात् , अन्यच विचित्रा प्रतिज्ञानं तदावरणक्षयोपशमसामग्री, तत्र कस्यापि चारित्रिणोऽप्रमत्तस्यामापध्याद्यन्यतमकतिपयलब्धिसमन्वितस्य मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ता सामग्री तथारूपाध्यवसायादिलक्षणा सम्पद्यते न त्ववधिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ता ततस्तस्य मनःपर्यवज्ञानमेव भवति, ननु मनःपर्यवज्ञानमतिविशुद्धस्योपजायते कृष्णलेश्या च संक्लिष्टाध्यवसायरूपा ततः कथं कृष्णलेश्याकस्य मनःपर्यायज्ञानसम्भवः', उच्यते, इह लेश्यानां प्रत्येकासयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसायस्थानानि प्रमत्त-18 | संयतस्यापि लभ्यन्ते, अत एव कृष्णनीलकापोतलेश्या अन्यत्र प्रमत्तसंयतान्ता गीयन्ते, मनःपर्यवज्ञानं च प्रथम-18|| ॥३५७|| तोऽप्रमत्तसंयतस्योत्पद्यते ततः प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यते इति सम्भवति कृष्णलेश्याकस्यापि मनःपर्यवज्ञानं, चतुसोभिनिबोधिकश्रुतावधि मनःपर्यवज्ञानेषु, "एवं जाव पम्हलेसे' इति एवं-कृष्णलेश्योक्तेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं । ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [३], -------------- दारं ], -------------- मूलं [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: टsesedeo प्रत सूत्रांक [२२४] यावत् पद्मलेश्या, किमुक्तं भवति ?-नीललेश्यः कापोतलेश्यः तेजोलेश्यः पनलेश्यश्च उक्तप्रकारेण द्वघोत्रिषु चतुर्यु वा ज्ञानेषु भणनीयः, स च एवं 'नीललेस्से णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा?, गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होजा' इत्यादि, शुक्ललेश्येषु विशेष इति तं पृथक् वक्ति-'सुक्कलेसे णं भंते ।' इत्यादि, इह शुक्ललेश्यायामेव केवलज्ञानं न लेश्यान्तरे ततः शेषलेश्याकेभ्योऽस्य शुक्ललेश्यस्य विशेषः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य तृतीयोद्देशकः।। 00000उक्तस्तृतीयोद्देशकः, सम्प्रति चतुर्थ आरभ्यते, तत्र चेयमादावधिकारगाथाप्रथमं परिणामाधिकारः द्वितीयो वर्णाधिकारः तृतीयो रसाधिकारः चतुर्थो गन्धाधिकारः पञ्चमः शुद्धाशुद्धाधिकारः षष्ठः प्रशस्ताप्रशस्ताधिकारः सप्तमः संक्लिष्टासंक्लिष्टाधिकारः अष्टम उष्णशीताधिकारः नवमो गत्यधिकारः दशमः परिणामाधिकारः एकादशोऽप्रदेशः प्रदेशप्ररूपणाधिकारः द्वादशोऽवगाहाधिकारः त्रयोदशो वर्गणाधिकारः |चतुर्दशः स्थानप्ररूपणाधिकारः पञ्चदशोऽल्पबहुत्वाधिकारः । तत्र प्रथम परिणामलक्षणमभिधित्सुर्यासां परिणामो वक्तव्यः ता एव लेझ्याः प्रतिपादयतिपरिणामवनरसगंधसुद्धअपसस्थसंकिलिट्ठण्हा । गतिपरिणामपदेसोगाढवग्गणठाणाणमप्पबई ॥१॥ कह गं भंते ! लेसाओ 38688 दीप अनुक्रम [४६१] For P OW | अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश- (४) आरभ्यते ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], ------------- दारं -------------- मूलं [२२५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५]] प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती. eles १७लेश्यापदे उद्देशः ॥३५८॥ गाथा करररर पत्रचाओ, गो.! छल्लेसाओ पबत्ताओ, तंजहा-कह० जाव सुकलेसा, से नूर्ण भंते ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए तावण्णचाए तागंधत्ताए तारसचाए ताफासत्ताए भुञ्जो २ परिणमति, हंता गो०! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूबताए जाव भुञ्जो २ परिणमति, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ-कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो २ परिणमति ?, गो० ! से जहा नामए खीरे दूर्सि पप्प सुद्धे वा वत्ये रागं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुजो २ परिणमइ, से तेणतुणं गो०! एवं बुचद-कण्हलेसा नीललेसं पाप वारूवत्ताए जाव भुजो २ परिणमइ, एवं एतेणं अभिलावेणं नीललेसा काउलेसं पप्प का उले. तेउलेसं पप्प तेउले० पम्हलेसं पप्प पम्हले० सुकलेसं पप्प जाव भुञ्जो २ परिणमद, से नूर्ण भंते ! कण्हलेसा नीललेस काउलेसं तेउलेसं पम्हलेसं सुकलेसं पप्प तारूचाए तावणचाए तागंधत्ताए तारसचाए ताफासचाए भुज्जो २ परिणमइ १, हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प जाव सुकलेस पप्प तारूव० तागंध० ताफा भुओ २ परिणमइ, से केणढेगं भंते! एवं बुचह-कण्हले० नीलले जाव सुकलेसं पप्प तारूबत्ताए जाव भुओ २ परिणमइ, गोयमा ! से जहा नामए बेरुलियमणी सिया कण्हसुत्तए वा नीलसुत्तए वा लोहिय हालिद सुकिल्ल० आइए समाणे तारूव० जाब भुजो २ परिणमइ, से तेणटेणं एवं बुचइ-कण्हलेसा नीललेसं जाव सुक्कलेस पप्प तारूवत्ताए भुजओ २ परिणमति । से नूणं भंते ! नीललेसा किण्हलेसं जाच सुकलेसं पप तारूवत्ताए जाय भुओ २ परिणमइ, हंता गोयमा! एवं चेव, काउलेसा किण्हलेसं नील. तेउ० पम्ह० मुकलेस, एवं तेउलेसा किण्ह नील. काउ० पम्ह० मुफलेसं, एवं पम्हलेसा किण्ह० नील० काउ० तेउ• सुकलेसं पप्प जाव भुज्जो २ परिणमइ, हन्ता दीप अनुक्रम [४६२-४६३] R॥३५॥ SARERatunintenhatarna अथ लेश्याया: भेदा: एवं परिणमनं प्ररुप्यते ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], ------------- दारं [-],------------- मूलं [२२५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूत्रांक [२२५] गाथा गोयमा ! तं चेव, से नूर्ण भंते ! सुकलेसा किण्ह० नील० काउ० तेउ० पम्ह० लेसं पप्प जाव भुजो २ परिणमइ ?, हंता गोयमा! तं चेव (सूत्र २२५) | 'कइ णं भंते ! लेसाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, इदं सूत्रं प्रागप्युक्तं परं परिणामाबर्थप्रतिपादनार्थ भूय उपन्यस्त 'से नूणं भंते' इत्यादि, अथ भदन्त कृष्णलेश्या-कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि नीललेश्यां नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि प्राध्य-अन्योऽन्यावयवसंस्पर्शमासाद्य तद्रूपतया-नीललेश्यारूपतया, रूपशब्दोऽत्र खभाववाची, नीललेश्याख| भावतयेत्यर्थः भूयो भूयः परिणमतीति योगः, तत्खभावश्च तद्वर्गणा(द्वर्णा)दिरूपतया भवति तत आह-तद्वर्णतया 1 तद्रसतया तद्न्धतया तत्स्पर्शतया, सर्वत्रापि तच्छब्देन नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि परामृशन्ति, भूयो भूयः अनेकवार तिर्यगमनुष्याणां तत्तद्भवसङ्कान्ती शेषकालं वा परिणमते, इदं हि तिर्यगमनुष्यानधिकृत्य वेदितव्यं, एवं| गीतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'हंता गोइत्यादि, हन्तेत्यनुमती अनुमतमेतत् गौतम ! कृष्णलेश्या नीललश्या। प्राप्येत्यादि प्राग्वत्, इयमत्र भावना-यदा कृष्णलेश्यापरिणतो जन्तुस्तिर्यग्मनुष्यो वा भवान्तरसङ्क्रान्तिं चिकीर्षनीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृह्णाति तदा नीललेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्तानि कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि तथारूपजीवपरिणामलक्षणं सहकारिकारणमासाय नीललेश्याद्रव्यरूपतया परिणमन्ते, पुद्गलानां तथातथापरिणम-18 नखभावत्वात् , ततः स केवलनीललेश्यायोग्यद्रव्यसाचिब्यान्नीललेश्यापरिणतः सन् कालं कृत्वा भवान्तर समुत्प सeeseeeeeeeeee दीप अनुक्रम [४६२-४६३] ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], ------------- दारं -1, ------------- मूलं [२२५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५] प्रज्ञापना- या मलया वृत्ती. 44 ॥३५॥ गाथा द्यते, उक्तं च-जलेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करइ तल्लेसे उबवजई' इति, तथा स एव तिर्यग्मनुष्यो वा १७ लेश्यातस्मिन्नेव भवे वर्तमानो यदा कृष्णलेश्यापरिणतो भूत्वा नीललेश्याभावेन परिणमते तदापि कृष्णलेश्यायोग्यामि | न्याणि तत्कालगृहीतनीललेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतो नीललेश्यायोग्यद्रव्यरूपतया परिणमन्ते, अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन विभावयिपुः प्रथमं प्रश्नसूत्रमाह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि, सुगमं भगवानाह-गौतम ! 'से जहानामए खीरे' इत्यादि, ततः लोकप्रसिद्धं यथानामकं गोक्षीरम् अजाक्षीरं महिषीक्षीरमित्यादिनामकं क्षीर 'दूसि'मिति देशीवचनादृष्यमेतत् मथितं तकं प्राप्यान्योऽन्यावयवसंस्पर्शनाविभागं गत्वा यथा च शुद्ध-मलरहितं समले हि रागः सम्पद्यमानोऽपि न तथारूपो लगति तत उक्तं शुद्ध वस्त्रं-चेलं रज्यतेऽनेनेति रागः 'करणे पतं-मअिष्ठादिकं। प्राप्य तद्रूपतया-मञ्जिष्ठादिरागद्रव्यस्वभावतया, एतदेव ब्याचष्टे-'तद्वर्णतये'त्यादि, सुगमं, तथा कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि प्राप्य तद्रूपतया परिणमन्ते, इयमत्र भावना-यथा क्षीरलक्षणकारणगता रूपादयस्तकरूपादिभावं प्रतिपद्यन्ते यथा वा शुद्धवस्त्रकारणगता रूपादयो मजिष्ठादिरागद्रव्यरूपादिभावं प्रतिपद्यन्ते तथा कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्यरूपकारणगता रूपादयो नीललेश्यायोग्यद्रव्यरूपादिभावं प्रतिपद्यन्ते, 'से ॥३५९॥ तेण?ण'मित्याद्युपसंहारवाक्यं सुगम, एवं नीललेश्या कापोतलेश्यां प्राप्येत्यादीन्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, तदेवं पूर्वस्याः पूर्वस्या लेश्याया उत्तरामुत्तरां लेश्या प्रतीत्य तद्रूपतया परिणमनमुक्त, इदानीमेकैकस्याः लेश्याया दीप अनुक्रम [४६२-४६३] ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], ------------- दारं -1, ------------- मूलं [२२५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूत्रांक [२२५] गाथा यथायोगं क्रमेण शेषसमस्तलेश्यापरिणमनमाह-'से नूर्ण भंते ! कण्हलेसा नीललेस्सं काउलेस्स'मित्यादि, वाशब्दोऽत्र सर्वत्राप्यनुक्तो द्रष्टव्यः, नीललेश्यां वा कापोतलेश्यां वा यावत् शुक्ललेश्यां वा, एकस्सा लेश्यायाः परस्प-1 रविरुद्धतया युगपदनेकलेश्यापरिणामासंभवात् , शेषाऽक्षरगमनिका प्राग्वत् , अत्रैवार्थे दृष्टान्तमभिधित्सुरिदमाह| 'से केगट्ठणं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं यथा वैडूर्यमणिरेक एव तत्तदुपाधिद्रव्यसम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणमते तथैव तान्यपि कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि तत्तन्नीलादिलेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्तत्तद्रूपतया परिणमन्ते इति, एतावताऽशेन दृष्टान्तो नतु पुनर्यथा वैडूर्यमणिः खखरूपमजहानस्तत्तदुपाधिद्रव्यसम्बन्धतस्तत्तदाकारमात्रभाजितया || तत्तद्रूपतया परिणमते तथैतान्यपि कृष्णलेश्यायोग्यानि खखरूपमजहानान्येव द्रव्याणि तत्तन्नीलादिलेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्तत्तदाकारमात्रधारितया तत्तद्रूपतया परिणमन्ते इत्यनेनांशेन, तिरश्चां मनुष्याणां च लेश्याद्रव्याणां | सामस्त्वेन तद्रूपतया परिणामाभ्युपगमात्, अन्यथा नैरयिकदेवसत्कलेश्याद्रव्याणामिव तिर्यग्मनुष्याणामपि लेश्याद्रव्याणां सर्वथा स्वरूपापरित्यागेन चिरकालमवस्थानसंभवात् , यत उत्कर्षतोऽप्येषामन्तर्मुहूर्तलक्षणं स्थितिपरिमाणमन्यत्रोक्तं तद्विरुध्येत, पल्योपमत्रयमपि यावत् उत्कर्षतः स्थितिसंभवात् , तदेवं तदन्यलेश्यापश्चकपरिणाममधि-15 कृत्य कृष्णलेश्याविपर्य सूत्रमुक्त, एवं नीलादिलेश्याविषयाण्यपि प्रत्येकं तदन्यलेश्यापञ्चकपरिणाममधिकृत्य पञ्च सूत्राणि वक्तव्यानि, तदेवं तिर्यमनुष्याणां भवसङ्क्रान्ती शेषकालं च लेण्याद्रव्यपरिणाम उक्तः, देवनैरयिकसत्कानि दीप अनुक्रम [४६२-४६३] ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], ------------- उद्देशक: [४], ------------- दारं -1, ------------- मूलं [२२५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५] १७लेश्यापदे उद्देशः गाथा प्रज्ञापना- तु लेण्याद्रव्याणि आभवक्षयमवस्थितानि यत्तदन्यलेश्याद्रव्यसंपर्कत आकारमात्रं तदत्रैव वक्ष्यते । तत उक्तः परि- याः मल-Nणामलक्षणाधिकारः, अधुना वर्णाधिकारमभिधित्सुराहयवृत्ती. कण्हलेसा ण मंते ! वन्नेणं केरिसिया पन्नत्ता ?, गो०! से जहा नामए जीमूते इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कजले ॥३६॥ इ वा गवले इ वा मवलए इ वा जंबूफले इ वा अद्दारिटपुष्फेड वा परपुढेइ वा भमरेइ वा भमरावली इ वा गयकलमे इ वा किण्हकेसरे इ वा आगासथिग्गले इ वा किण्हासोए इ वा कण्हकणवीरए इ वा कण्हर्बधुजीवए इवा, भवे एतारूवे, गो! णो इणहे समहे, कण्हलेस्सा ण इत्तो अणियरिया चेव अकंतयरिया चेव अप्पियतरिया चेव अमणुन्नतरिया चेव अमणामतरिया चेव वनेण पन्नत्ता, नीललेस्सा णं भंते ! केरसिया बनेणं पन्नत्ता, गोयमा! से जहा नामए भिंगर इ वा भिंगपत्ते इ वा चासे इ वा चासपिच्छए इ वा सुए इ वा सुयपिछे इ वा सामा इ वा वणराइ इ वा उच्चतए इ वा पारेक्यगीवा इ वा मोरगीवा इ वा हलहरबसणे इ वा अयसिकुसुमे इ वा वणकुसुमे इ वा अंजणकेसिया [इ वा कुसुमे इवा नीलुप्पले इ वा नीलासोए इ वा नीलकणवीरए इ वा नीलबंधुजीवे इ वा, भवेयारूवे, गोयमा! णो इणढे समडे, एत्तो जाब अमणामयरिया चेव बनेणं पन्नत्ता, काउलेस्सा ण मं! केरिसिया बनेणं पत्रता , गोयमा से जहानामए खदिरसारए दवा कइरसारए इ वा धमाससारे इ वा तंबे इ वा तंबकरोडे इ वा तेवच्छिवाडियाए इ वा बाइंगणिकुसुमे इ वा कोइलच्छदकुमुमे इ वा जवासाकुसुमे इ वा, भवेयारूवे, गोयमा! णो इणढे समढे, काउलेस्सा दीप अनुक्रम [४६२-४६३] ॥३६॥ अथ लेश्याया: वर्ण-परिणामं वर्ण्यते ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] णं एतो अणिद्वयरिया चेव जाव अमणामयरिया चेव, तेउलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वन्नेणं पन्नत्ता, गोयमा ! से जहानामए ससरुहिरए इ वा उरूभरुहिरे इवा वराहरुहिरे इ वा संवररुहिरे इ वा मणुस्सरुहिरे इ वा इंदगोपे इ वा बालेंदगोपे हवा बालदिवायरे इ वा संझारागे इ वा गुंजद्धरागे इ वा जातिहिंगुले इ वा पवालंकरे इ वा लक्खारसे इ वा लोहितक्खमणी इ वा किमिरागकंबले इ वा गयतालुए इ वा चीणपिहरासी ह वा परिजायकुसुमे इ वा जासुमणकुसुमे इ वा किंसुयपुप्फरासी इ वा रत्तुष्पले इ वा रचासोगे इ वा रचकणवीरए इ वा रत्तबंधुपजीवए । वा, भवेयारूवे, गोयमा ! णो इणढे समढे, तेउलेसा णं एत्तो इट्टतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव वनेण पत्रचा, पम्हले. भंते ! केरिसिया बनेणं पन्नता, गोयमा ! से जहानामए चंपे इ वा चंपयछल्ली हवा चंपयभेदे इ वा हालिदा इ या हालिगुलिया हवा हालिद्दभेदे इ वा हरियाले इ वा हरियालगुलिया इ वा हरियालभेदे इ वा चिउरे इ वा चिउररागे इ वा सुवनसिप्पी हवा बरकणगणिहसे हवा वरपुरिसवसणे इ वा अल्लइकुसुमे इ वा चंपयकुसुमे इ वा कणियारकुसुमे इ वा कुहंडयकुसुमे या सुवण्णजुहिया इवा सुहिरनियाकुसुमे इ वा कोरिंटमल्लदामे हवा पीतासोगेह वा पीतकणवीरे दवा पीतबंधुजीवए इवा, भवेयारूबे, गोयमा ! णो इणढे समढे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया जाच मणामयरिया चेव वनेणं पचता, सुकलेस्सा णं भंते ! केरिसिया बनेण पत्रता, गोयमा! से जहानामए अंके इ वा संखे हवा चंदे इ वा कुंदे इ वा दगे इ वा दगरए इ वा दधी हवा दहिपणे ह वा खीरे इवा खीरपूरए इधा सुकच्छिवाडिया इ या पेहुणमिंजिया इ वा धंतधोयरुप्पपट्टे इ वा सारदवलाहए इ वा कुमुददले इ वा पोंडरीयदलेवा सालिपिहरासीति वा कुड Recene दीप अनुक्रम [४६४] हररररर ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥३६॥ दीप गपुष्फरासीति वा सिंदुवारमलदामे इ वा सेपासोए इ वा सेयकणधीरे इ वा सेतबंधुजीवए इवा, भवेयारूपे, गो.! १७लेश्यानो इणढे समडे, सुकलेसा णं एसो इद्वतरिया चेव मणुण्णयरिया चेव बन्नेणं पन्नत्ता, एयाओ ण भंते ! छल्लेसाओ कइस पदे उद्देशः वनेसु साहि जति , गोयमा ! पंचसु वनेसु साहिति, तंजहा-कण्हलेसा कालए गं बनेणं साहि जति नीललेस्सा नीलवनेणं साहिजति काउलेस्सा काललोहिएणं वमेणं साहिजति तेउलेस्सा लोहिएणं वनेणं साहिजति पम्हलेस्सा हालिद्दएणं बनेणं साहिजइ सुकलेस्सा सुकिल्लपणं वनेणं साहिति (सूत्र २२६) 'कण्हलेसा भंते ! वण्णेणं केरिसिया पन्नत्ता' इत्यादि, कृष्णद्रन्यात्मिका लेश्या कृष्णलेश्या, कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि इत्यर्थः, तेषामेव वर्णादिसंभवात् न तु कृष्णद्रव्यजनिता भावरूपा कृष्णलेश्या, तस्या वर्णाद्ययोगात्, भदन्त ! कीदशी वर्णेन प्रज्ञसा , भगवानाह-गौतम! स लोकप्रसिद्धो यथानामको 'जीमूत इति वा' जीमूतोबलाहका, स चेह प्रावृप्रारम्भसमयभावी जलभृतो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसंभवात्, इतिशब्द उपमानभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतका, बाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुचये, एवं सर्वत्र इतियाशब्दी द्रष्टव्यो, अञ्जनं-सौवीराञ्जनं रत्नविशेषो वा खञ्जनं-दीपमल्लिकामलः स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षघर्षणोद्भवमित्यपरे कजलं-प्रतीतं, ॥३६॥ गवलं-माहिषं शृङ्गं तदपि च उपरितनत्वग्रभागापसारणे द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य कालिनः सम्भवात् , जम्बूफलं प्रतीतं, अरिष्ठफं-फलविशेषः परपुष्टः-कोकिलः अमरः-चंचरिकः भ्रमरावलिः-भ्रमरपशिः गजकलभः-करि-1 अनुक्रम [४६४] ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप पोतः कृष्णकेशरः-कृष्णबकुलः आकाशथिग्गलं--शरदि मेघापान्तरालवाकाशखण्ड, तदपि हि बतीय उष्णं प्रतिभाति इत्युक्तं, कृष्णाशोककृष्णकणवीरकृष्णबन्धुजीवाः-अशोककणवीरवन्धुजीवाः वृक्षविशेषाः, अशोकादयो हि जातिभेदेन पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासार्थ कृष्णग्रहणं, एतावत्युक्ते गौतम आह-'भवे एयारूवा? भगवन् ! भवेत् कृष्णलेश्या वर्णेन एतद्रूपा १, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः-नायमर्य उपपन्नः, एतदूपा कृष्णलेश्येति, किंतु ?, सा कृष्णलेश्या इतो जीमूतादेः कृष्णेन वर्णेन अनिष्टतरिका चैव इयमनिष्टा २ इयम-18 नयोर्मध्येऽतिशयेनानिष्टा अनिष्टतरा अनिष्टतरैवानिष्टतरिका अनिप्सिततरिका एवेति भावः, इह किञ्चिदनिष्टमपि खरूपतः कान्तं भवति ततः कान्तताव्युदासार्थमाह-अकान्ततरिकैव, किञ्चित्केषाञ्चिदनिष्टमपि खरूपतोऽकान्त-18 INमपि अपरेषां प्रियं भवति ततः सर्वथा प्रियताब्युदासार्थमाह-अप्रियतरिकैव, अत एवामनोज्ञतरिकैव, वस्तुतः सम्यक् परिज्ञाने सति मनागप्युपादेयतया तत्र मनसः प्रवृत्त्यसंभवात् , अमनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भवति ततः प्रकृष्टतरप्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-अमनआपतरिकैव, मनांसि आमोति-आत्मवशतां नयतीति मनापा न मनपा अमनापा ततो द्वयोः प्रकर्षे तरप एवंभूता वर्षेन प्रज्ञप्ता, 'नीललेस्सा भंते। इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरं भृङ्गः-पक्षिविशेषः पश्मलः भृङ्गपत्रं-तस्यैव पक्षिविशेषस्य पक्ष्म चासः-पक्षिविशेषः 'चासपिच्छं' चासस्य पतत्रं शुकः-कीरः 'शुकपिर्छ' शुकस्य पतत्रं श्यामा-प्रियनुः वनराजी-प्रतीता उच्चन्तको-दन्तरागः अनुक्रम [४६४] weredturary.com ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [४६४] पदं [१७], -------------- • उद्देशक: [४], ---------दारं [-], [---- • मूलं [२२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य०वृती. ॥३६२॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - आह च मूलटीकाकार:- "उच्चंतगो दन्तरागो भन्न” पारापतग्रीवा मयूरग्रीवा च सुप्रतीता, हलधरो-बलदेवः तस्य बसनं वस्त्रं हलधरवसनं तद्धि नीलं भवतीत्युपात्तं, अतसीकुसुमं वणवृक्षकुसुमं च प्रतीतं, अञ्जनकेसिका -- वनस्पतिविशेषः तस्याः कुसुमं अञ्जनकेसिकाकुसुमं नीलोत्पलं – कुवलयं नीलाशोकनीलकणवीरनीलबन्धुजीवा - अशो कादिवृक्षविशेषाः, 'काउलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, अत्राप्यक्षरगमनिका प्राग्वत्, खदिरसारो धमासासारश्च लोकप्रतीतः 'तंबे इ वा तंबकरोडए इ वा तंबछेवाडिया इ वा' इति सम्प्रदायादवसेयं वृन्ताकीकुसुमं प्रतीतं कोइल|च्छदकुसुमए वेति-कोकिलच्छदः - तैलकंटकः, तथा च मूलटीकाकृत् - 'वन्नाहिगारे जो एत्थ कोइलच्छदो सो तिलकंटओ भन्नइ' इति, तस्य कुसुमं प्रतीतं 'तेउलेस्सा णं भंते !" इत्यादि, शशकोर अवराह मनुष्यरुधिराणि शेषरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं, वालेन्द्रगोपकः - सद्योजातः इन्द्रगोपकः, स हि प्रवृद्धः सन् ईषत्पाण्डुरक्तो भवति ततो बालग्रहणं, इन्द्रगोपकः प्रावृप्रथमसमयभावी फीटविशेषः, बालदिवाकरः - प्रथममुद्गच्छन् सूर्यः, गुआ - लोकप्रतीता तस्या अर्धरागो गुञ्जार्धरागः, गुञ्जाया हि अर्धमतिरक्तं भवति अर्ध चातिकृष्णमिति अर्धग्रहणं, जालः -- प्रधानो हिङ्गुलको जालहिडुलकः प्रवालः- शिलादलं तस्याङ्करः प्रवालाङ्करः, स हि प्रथममुद्गच्छन् अत्यन्तरक्तो भवति ततस्तदुपादानं, लाक्षारसः - प्रतीतः, लोहिताक्षमणिः - लोहिताक्षनामा रत्न- विशेषः कृमिरागेण रक्तः कम्बलः कृमिरागकम्बलः, शाकपार्थिवादिदर्शनान्मध्यमपदलोपी समासः, गजतालुचीनपि Education Internation For Parts Only ~328~ १७लेश्यापदे उद्देशः ४ ||३६|| wor Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप राशिपारिजातकुसुमजपाकुसुमकिंशुकपुष्पराशिरक्तोत्पलरक्ताशोकरक्तकणवीररक्तबन्धुजीवा लोकप्रतीताः भवे एयारूबा' इति पदयोजना प्राग्वत्, भगवानाह-गौतम ! णो इणढे समढे' यतस्तेजोलेश्या इतः-शशकरुधिरादिभ्यो लोहितेन वर्णेनेष्टतरिकैव, तत्र किञ्चिदकान्तमपि केषांचिदिष्टतरं भवति ततः कान्ततरताप्रतिपादनार्थमाह-कान्ततरिकैव, केषाश्चिदिष्टतरमपि खरूपतः कान्ततरमप्यपरेषामप्रियं भवति ततः प्रियतरताप्रतिपत्त्यर्थमाह-प्रियतरिकैव, अत एव मनोज्ञतरिका, मनोज्ञतरमपि किश्चिन्मध्यमं संभवेदतः प्रकृष्टतरप्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-मनापत-18| रिकव वर्णेन प्रज्ञप्ता, 'पम्हलेस्सा गं भंते !' इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरं चम्पकः-सामान्यतः सुवर्णचम्पको-वृक्षविशेषः 'चम्पकछली इवा' इति सुवर्णचम्पकत्वक 'चम्पकमेए इवा' इति सुवणेचम्पकस्य भेदोद्विधाभावः, भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षों भवति ततो भेदग्रहणं, हरिद्रा इह पिण्डहरिद्रा हरिद्रागुटिका-हरिद्रानिर्ति ता गुटिका हरिद्राभेदो-हरिद्राया द्वैधीभावः हरितालो-धातविशेषः हरितालगुटिका-हरितालमयी गुटिका| दाहरितालभेदो-हरितालच्छेदः चिकुरः-पीतद्रव्यविशेषः चिकुररागः-तन्निष्पादितो वस्त्रादौ रागः 'सुवन्नसिप्पीकाइ वा' इति सुवर्णमयी शुक्तिका, वर-प्रधानं यत्कनकं तस्य निकषः-कपपट्टके रेखारूपः परकनकनिकपः वरपु रुषः-पासुदेवस्तस्य वसनं-वखं वरपुरुषवसनं तद्धि पीतं भवतीत्युपातं अलकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं चम्पककुसुम| सुवर्णचम्पकवृक्षपुष्पं 'कन्नियारकुसुमेह वा' इति काञ्चनारककुसुमं कूष्माण्डिकाकुसुमं-पुष्पा(पुंस्फ)लिकापुष्पं सुव weet अनुक्रम [४६४] ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] प्रज्ञापना- या मलय०वृत्ती. ॥३६॥ दीप यूधिकाकुसुमं प्रतीतं सुहिरण्यका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं कोरण्टकमास्यदामपीताशोकपीतकणवीरपी- १७ लेश्यातबन्धुजीवाः प्रतीताः, 'सुक्कलेसा णं भंते' इत्यादि, अत्राप्यक्षरगमनिका प्राग्वत् , नवरमडो-रतविशेषः शचन्द्रौपदे उद्देशः प्रतीतौ कुन्दं-कुसुमं दकं-उदकं उदकरजः-उदककणाः, ते हि अतिशुभ्रा भवन्तीत्युपात्ताः, दधि-प्रतीतं दधिघनो-दधिपिण्डः क्षीरं-प्रतीतं क्षीरपूर-कथ्यमानं अतितापादूर्व गच्छत् क्षीरं 'सुक्कच्छिवाडियाइ वा' इति छिवाडि:-पलादिफलिका सा च शुष्का सति किलातीय शुक्ला भवतीत्युपाता 'पेहुणमिजिया इवे ति पेहुणं-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिना पिहुणमिआ सा चातीव शुक्लेत्यभिहिता 'धंतधोयरुप्पपट्टेदवा' इति ध्माता-अनिसम्पर्कतो निर्मलीकृतः धौतो-भूतिखरण्टितहस्तसम्माजनेनातिनिशितीकृतो यो रूप्यमयः पट्टः स ध्मातधौतरूप्यपट्टः, 'सारइयबलाहगे इ वा' इति शारदिकः-शरत्कालभावी बलाहकः पुण्डरीकं-सिताम्बुर्ज तस्स दसं-पत्रं पुण्डरीकदलं शालिपिष्टराशिकुटजपुष्पराशिसिन्दुवारमाल्यदामवेताशोकश्वेतकणवीरतवन्धुजीवाः प्रतीताः ॥ इह वर्णाः पश्च भवन्ति, तबधा-कृष्णो नीलो लोहितो हारिद्रः शुक्लश्च, लेश्याच पट्र, तत उपमानतो पर्णमिदेशे कृतेऽपि संशयः का लेश्या कस्मिन्वर्णे भवति , ततः पृच्छति-'एयाओणं भंते ! इत्यादि, एता अनन्तरोदिता भदन्त ! ॥३६शा षड् लेश्याः 'कइसु बन्नेसु'त्ति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी यथा-"तिसु सेसु अलंकिया पुडवी' [त्रिभिस्सैरलंकृता | पृथ्वी] इत्यत्र, ततोऽयमर्थः-कतिभिर्वणः 'साहि जंति' कथ्यते प्ररूप्यते इतियावत् , भगवानाह-गौतम ! 'पंचसु अनुक्रम [४६४] estors बद ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप हरररररररsese बनेसु' इति पञ्चभिर्वर्णैः शिष्यते यथा शिष्यंते तथा तद्यथा इत्यादिना दर्शयति । उक्तो वर्णपरिणामः, सम्प्रति रसपरिणामममिधित्सुराह कण्हलेस्सा णं भंते ! केरिसिया आसाएक पन्नता , गोयमा 1 से जहानामए निचे या निवसारे।वा निघाली इवा निंबफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफलए इ वा कुडगछल्ली इ वा कुडगफाणिए इवा कडुगतुंबीइ वा कडुगतुंविफले हवा खारतउसी इवा खारतउसीफले इ वा देवदालीति वा देवदालीपुष्के इ वा भिगवालुंकी हवा मियवालुंकीफले हवा घोसाडए इ या घोसाडिफले इ वा कण्हकंदए इ वा वजकंदए इवा, भवेयारूवे 1, गो. जो इणहे समढे, कण्हलेसा एतो अणिहतरिया चेव जाव अमणामयरिया चेव आँसाएणं पनत्ता, नीललेसाए पुच्छा, गोयमा ! से नहानामए भगीति वा भंगीरए हवा पाढा इवा [चरिया इवा] चित्तामूलए इ वा पिप्पली इ वा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पलीसुण्णे हया मिरिए इ वा मिरियचुण्णए इवा सिंगवेरे दवा सिंगवेरचुण्णे इवा, भवेयारूवे, गोयमा! णो इणढे समढे, नीललेस्सा एचो जाय अमणामतरिया चेव आसाएणं पत्ता, काउलेस्साए पुच्छा, गोपमा 1 से जहानामए अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलिंगाण वा बिल्लाण वा कविद्वाण वा [भजाण वा ] फणसाण या दाडिमाण वा पारेबताण वा अपखोडयाण या चोराण वा तियाण वा अपकाणं अपरिवागाणं वनेणं अणुववेयाणं गंधेणं अणुववेयाणं फासेणं अणु०, भवेयारूवे , गोणो इणडे समढे, जाव एत्तो अमणामयरिया चेव काउलेस्सा अस्साएणं पन्नत्ता, तेउलेस्सा णे पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए अंबाण वा पकाणं परियावनेणं उववेयाणं पसत्येणं जाप फासेणं जाव एत्तो अनुक्रम [४६४] अथ लेश्याया: रस-परिणामं वर्ण्यते ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२७] मज्ञापनाया:मलयवृत्ती. ॥३६४॥ दीप अनुक्रम [४६५] ब्रटeseekers मणामयरिया चेत्र तेउलेस्सा आसाएणं पन्नत्ता, पम्हलेस्साए पुच्छा, गोयमा! से जहानामए चंदप्पभा इ वा मणसिला १७लेश्याइ वा वरसी इवा चरवारुणी इ वा पत्तासवे इ वा पुष्फासवे इ वा फलासवे इ वा चोयासवे इ वा आसचे इ वा महूइ वा पदे उद्देश मेरएइ वा कविसाणए इ या खजूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ वा सुपकखोतरसे हवा अढपिणिविया इवा जंबुफलकांलिया इ वा चरप्पसचाइ वा [आसला ] मंसला पेसला ईसि ओढवलंबिणी इसि वोच्छेदकहुई ईसि तंवच्छिकरणी उक्कोसमदपत्ता वनेणं उववेया जाव फासेणं आसायणिजा वीसायणिज्जा पीणणिजा विहणिज्जा दीवणिज्जा दप्पणिज्जा मदणिजा सर्वेदियगायपलहायणिज्जा, भवेयारूवा?, गो. जो इणद्वे समढे पम्हलेस्सा एनो इद्वतरिया चेव जाव मणामयरिया चेव आसारण पनत्ता, सुकले० मते ! केरिसिया आस्साएणं पन्नता, गोयमा ! से जहानामए गुले इवा खंडे इवा सकराइ वा मच्छंडिया इ वा पप्पडमोदए इ वा भिसकंदए इ वा पुप्फुचरा इ वा पउमुत्तरा हवा आदंसिया हवा सिद्धत्थिया हवा आगासफालितोवमा इ वा उवमा इ वा अणोवमा हवा, भवेतारूवे, गोयमा ! णो इणढे समहे, सुकलेस्सा एत्तो इद्वतरिया चेव पियतरिया चेव मणामयरिया चेव आसाएर्ण पत्रचा (सूत्र २२७) 'कण्हलेसा गं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! स लोकप्रतीतो यथानामको निम्बो वृक्ष-II |विशेषः निम्बसारो-निम्बमध्यवर्त्यवयव विशेषः 'निम्बछली' निम्बत्वक निम्बफाणितं-निम्बकाथः कुटजोवृक्षविशेषः तस्यैव फलं कुटजफलं तस्यैव त्वक् कुटजछली तस्यैव काथं-कुटजफाणितं कटुकतुम्पी प्रसिद्धा तस्या ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: y प्रत सूत्रांक [२२७] दीप अनुक्रम [४६५] एव फलं कटुकतुम्बीफलं, खारतउसीति खारशब्दः कटुकवाची तथाऽऽगमे अनेकधा प्रसिद्धः, ततः कटुका पुषी क्षारत्रपुपी तस्या एव फलं क्षारत्रपुषीफलं देवदाली-रोहिणी तस्या एव पुष्पं देवदालीपुष्पं मृगवालुछी-लोकतोऽवसेया तस्या एव फलं मृगवालुक्कीफलं घोषातकी प्रसिद्धा तस्या एव फलं पोषातकीफलं कृष्णकन्दो-वज्रकन्दश्चानन्तकायवनस्पतिविशेषौ लोकतः प्रत्येतब्यौ, एतावति उक्ते गौतमः पृच्छति-भगवन् ! भवेत् रसतः कृष्णलेश्या एतद्रूपा-निम्बादिरूपा १, भगवानाहगौतम ! नायमर्थः समर्थः, यतः कृष्णलेश्या इतो-निम्बादिरसमधिकृत्यानिष्टतरिकवेत्यादि प्राग्वत् । 'नीललेसाए' इत्यादि, भगी-वनस्पतिविशेषः तस्या एव रजो भगीरजः पाठाचित्रमूलके लोकप्रतीते पिप्पलीपिप्पलीमूलपिप्पलीचूर्णमरिचमरिचचूर्णशृङ्गबेरशङ्गाबेरचूपर्णान्यपि प्रसिद्धानि । 'काउलेस्साए' इत्यादि, आम्राणां फलानामेवं सर्वत्रापि भावनीयं 'अंबाडयाण वा' इति आनाटकाःफलविशेषाः मातुलिबिल्वकपित्थपनसदाडिमानि प्रतीतानि पारापताः फलविशेषाः अक्षोडवृक्षफलानि अक्षोडानि बोरवृक्षफलानि बोराणि-बदराणि तिन्दुकानि च प्रतीतानि, एतेषां फलानामपकाना, तत्र सर्वथापि अपक्कं | फलमुच्यते तत आह-अपरिपाकानां न विद्यते परिपाका-परिपूर्णः पाको येषां तान्यपरिपाकानि तेषामीषत्पकानामित्यर्थः, एतदेव वर्णादिभिः कथयति-वर्णेनातिविशिष्टेन गन्धेन घाणेन्द्रियनितिकरण स्पर्शेन विशिष्टपरिपाकाविनाभाविना अनुपपेताना-असम्प्राप्तानां यादृशो रसः, अत्र गौतमः पृच्छति-एतद्रूपा-एवंरूपरसोपेता amerecastseeeeeeeeee रायटर ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२७] दीप अनुक्रम [४६५] • मूलं [२२७] पदं [१७], -------------- • उद्देशक: [४], ---------दारं [-], [---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥ ३६५॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - भवेत् कापोतलेश्या ?, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थः, किं तु इतः - अपरिपक्का फलादेरनिष्टतरिकैवेत्यादि ४ प्राग्वत् ॥ 'सेउलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, तेषामेव जाम्रफलादीनां पकानां तत्रेषयत् किमपि पक्कं लोके पर्क व्यवहियते तत आह--पर्यायापन्नानां परिपूर्णपाक पर्याय प्राप्तानां एतदेव वर्णादिभिर्निरूपयति-वर्णेन प्रशस्तेनएकान्ततः प्रशस्येन तथा प्रशस्तेन गन्धेन प्रशस्तेन स्पर्शनोपेतानां वादग्रसः, एतावत्युक्ते गौतम आह-रसमधिकृत्य एतद्रूपा --- पक्कानादिफलरूपा तेजोलेश्या भवेत् १, भगवानाह - नायमर्थः समर्थः, किंतु परिपक्कान्रफलादेरिष्टतरिके| देवादि प्राग्वत् 'पम्हलेसाए पुच्छा' सूत्रपाठोऽक्षरगमनिका च प्राग्वत्, नवरं 'से जहानामए' इति सा - लोकप्र सिद्धा 'यथा' येन प्रकारेण नाम यस्याः सा यथानामिका पुंस्त्वं सूत्रे प्राकृतलक्षणवशात्, प्राकृते हि लिङ्गमनियतं, वदाह पाणिनिः खप्राकृतलक्षणे - 'लिङ्गं व्यभिचार्यपी'ति 'चन्द्रप्रभा इति वे 'ति चन्द्रस्येव प्रभा -- आकारो बस्याः सा चन्द्रप्रभा मणिशिलाकेव मणिशिलाका वरं च तत् सीधु च बरसीधु वरा चासी वारुणी च वरवारुणी पत्रैः - धातकीपत्रैर्निष्पाद्य आसवः पत्रासवः एवं पुष्पासवः फलासवश्च परिभावनीयः चोओ – गन्धद्रव्यं तन्निष्पाद्य आस्रषः चोयासवः, पत्रादिविशेषेण व्यतिरिक्त आसव आसव इति गीयते, मधुमेरककापिशायनानि मद्यविशेषाः, मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्न आसयः खर्जूरसारः मृद्वीका - द्राक्षा तत्सारनिष्पन्नो मृद्वीकासारः सुपक्केक्षुरसमूलदलनिष्पन्नःसुपक्के रसः अष्टभिः शास्त्रप्रसिद्धैः पिष्टैः निष्ठिता अष्टपिष्टनिष्ठिता जम्बूफलवत् कालेव कालिका जम्बूफलकालिका Eucation International For Para Use Only ~334~ १७ लेश्या पदे उद्देशः ४ ॥३६५ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२७] वरा चासी प्रसन्ना च वरप्रसन्ना, एते सर्वेऽपि मद्यविशेषाः पूर्वकाले लोकप्रसिद्धा इदानीमपि शाखान्तरतो लोकतो INवा यथाखरूपं वेदितव्याः, वरप्रसन्नाविशेषणान्याह-मांसला-उपचितरसा पेशला-मनोजा मनोज्ञत्वादेव पाईपत्-मनाए ततः परम्परमाखादतया झटित्येवाग्रतो गच्छति ओष्ठेऽवलम्बते-लगतीत्येवंशीला ईषदोष्ठावलम्बिनी तथा ईषत्-मनाक पानव्यवच्छेदे सति तत ऊर्ध्वं कटुका एलादिद्रव्यसम्पर्कतः उपलक्ष्यमाणतिक्तवीर्येतियावत् तथा ईषत्-मनाक ताने अक्षिणी क्रियेते अनयेति ईपत्ताम्राक्षिकरणी मद्यस्य प्रायः सर्वस्यापि तथाखभावत्वात् 'उकोसमयपत्ता' इति उत्कर्षतीति उत्कर्षः स चासौ मदश्च उत्कर्षमदः तं प्रासा उत्कर्षमदप्राप्ता, एतदेव। वर्णादिभिः समर्थयते-वर्णेनोत्कृष्टमदाविनाभाविना प्रशस्वेन गन्धेन प्राणेन्द्रियनितिकरण रसेन परमसुखासिकाKAIजनकेन स्पर्शन मदपरिपाकाव्यभिचारिणा अत एवाखादनीया विशेषतः खादनीया विवादनीया प्रीणयतीति । प्रीणनीया 'कृदु बहुल'मिति वचनात् कर्तर्यनीयप्रत्ययः, एवं दर्पयतीति दर्पणीया मदयतीति मदनीया सर्वाणीसन्द्रियाणि सर्व च गात्रं प्रहादयति इति सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीया, एतावत्युक्ते भगवान् गौतम आह-'भवेया रूवा। भगवन् !एतद्रूपा-एवंरूपरसोपेता पद्मलेश्या भवेत् 1, भगवानाह-'नो इणढे समढे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'सुक्कलेस्सा णं भंते ! इत्यादि, गुडखण्डे प्रसिद्ध शर्करा-काशादिप्रभवा मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा पर्पटमोदकादयः सम्प्रदायादवसेयाः, शेष सुगम ॥ तदेवमुक्तो लेश्याद्रव्याणां रसः, सम्प्रति गन्धमभिधित्सुराह सरररcिe दीप अनुक्रम [४६५] ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मज्ञापनायाः मल प्रत सूत्रांक [२२८] ॥३६॥ दीप काइ ण भंते ! लेस्साओ दुन्भिगंधाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा! तओ लेस्साओ दुभिगंधाओ पं०१, तं-कहलेस्सा नील. १७लेश्याकाउलेस्सा। कइ णं भंते ! लेस्साओ सुभिगंधाओ पचत्ताओ?, गोयमा! तओ लेस्साओ मुभिगंधाओ पं०, तं० तेउ० पदे उद्देशः पम्ह० सुक०, एवं तओ अविसुद्धाओ तओ बिसुद्धाओ तओ अप्पसत्थाओ तओ पसत्थाओ तओ संकिलिट्ठाओ तो असंकिलिट्ठाओ तओ सीतलुक्खाओ तओ निदुण्हाओ तओ दुग्गतिगामियाओ तओ सुगतिगामियाओ (सूत्र २२८) 'कइ णं भंते !' इत्यादि, सुगम, नवरं कृष्णनीलकापोतलेश्या दुरभिगन्धाः मृतगवादिकडेवरेभ्योऽप्यनन्तगुणदुरभिगन्धोपेतत्वात् तेजःपद्मशुक्ललेश्याः सुरभिगन्धाः पिथ्यमाणगन्धवाससुरभिकुसुमादिभ्योऽनन्तगुणपरमसुरभिगन्धोपेतत्वात् , उक्तं चोत्तराध्ययनेषु लेश्याध्ययने-"जह गोमडस्स गंधोणागमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तो उ अणंतगुणो लेस्साणं अप्पसत्थाणं ॥१॥जह सुरभिकुसुमगंधो गंध वासाण पिस्समाणाण । एत्तो उ अणंतगुणो पसस्थलेसाण तिण्डंपि ॥२॥"[यथा गोमृतकस्य गन्धो हस्तिमृतकस्य वा यथाऽहिमृतकस्य । इतोऽनन्तगुण एवं लेश्यानामप्रशस्तानां ॥१॥ यथा सुरभिकुसुमगन्धो गन्धो वासानां पिष्यमाणानां । इतोऽनन्तगुण एव प्रशस्तानां लेश्यानां तिसृणामपि ॥२॥] उक्तो गन्धपरिणामः, अधुना शुद्धाशुद्धत्वप्रतिपादनार्थमाह-एवं तओ अविसु- ॥६॥ द्धाओ ततो विसुद्धाओं' इति, एवम्-उक्तेन प्रकारेण आद्यास्तिस्रो लेश्या अविशुद्धा वक्तव्याः, अप्रशस्तवणेगन्ध-131 रसोपेतत्वात् , उत्तरास्तिस्रो लेश्या विशुद्धाः, प्रशस्तवर्णगन्धरसोपेतत्वात् , ततश्चैवं वक्तव्याः-'कइ णं भंते ! eace-CEle अनुक्रम [४६६] अथ लेश्याया: गन्ध-परिणामं वर्ण्यते ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२८] दीप अनुक्रम [४६६ ] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • मूलं [२२८] पदं [१७], -------------उद्देशक: [४], ---- दारं [-], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः लेस्साओ अविसुद्धाओ पं० १, गोवमा ! तओ लेस्साओ [अप्पसत्थाओ] अविसुद्धाओ पं०, तंजा - कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा, कह णं भंते! लेस्साओ विसुद्धाओ पं०१, गोयमा ! तओ लेस्साओ विसुद्धाओ पं०, तंजहातेउ० पउम० सुकलेसा' इति, उक्के शुद्धत्वाशुद्धत्वे, सम्प्रति प्राशस्त्याप्राशस्त्ये प्रतिपादयति- 'तभ अप्पसत्थाओ तओ पसत्थाओ' आयास्तिस्रो लेश्या अप्रशस्ता वक्तव्याः, अप्रशस्तद्रव्यत्वेनाप्रशस्ताध्यवसायहेतुत्वात्, उत्तरास्तिस्रो लेश्याः प्रशस्ताः, प्रशस्तद्रव्यतया प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् सूत्रपाठः प्राग्वदवसेयः 'कर णं भंते । लेस्साओ अप्पसत्थाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, उक्ते प्राशस्त्याप्राशस्त्ये, अधुना संक्लिष्टासंक्लिष्टत्वे प्रतिपादयति – 'तओ संकिलिट्टाओ तओ असंकिलिट्टाओ' इति, आद्यास्तिस्रो लेश्याः संक्लिष्टाः, संक्लिष्टार्त्तरौद्रध्यानानुगताध्यवसायस्थानहेतुत्वात्, उत्तरास्तिस्रो लेश्या असंक्लिष्टाः, असंक्लिष्टधर्मशुक्लध्यानानुगताध्यवसायकारणत्वात्, अत्रापि पाठः प्राग्वत्'कइ णं भंते । लेस्साओ संकिलिट्ठाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, अधुना शीतोष्णस्पर्शप्रतिपादनार्थमाह- 'तओ सीयलुक्खाओ तओ निदुण्डाओ' इति, आद्यास्तिस्रो लेश्याः शीतरूक्षाः - शीत रूक्षस्पर्शोपेताः, उत्तरास्तिस्रो लेश्याः स्त्रिग्धोष्णस्पर्शाः, इहान्येऽपि लेश्याद्रव्याणां कर्कशादयः स्पर्शाः सन्ति यत उक्तं लेश्याध्ययने- "जह करवयस्स फासो गोजि भाए व सागपत्ताणं । एत्तोवि अनंतगुणो लेस्साणं अप्पसत्थाणं ॥ १ ॥ जह बूरस्स व फासो नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । एतोवि अनंतगुणो पसत्थलेस्साण तिण्हंपि ॥ २ ॥” इति [ यथा क्रकचस्व स्पर्शो गोजिह्वाया Educat Internationa For Parts Only ~337~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. [२२८] ॥३६७॥ दीप वा सागपत्राणां । इतोऽनन्तगुणो लेश्यानामप्रशस्तानाम् ॥ १॥ यथा दूरस्य वा स्पर्शी नवनीतस्य वा शिरीषकुसु- १७लेश्यामानां । इतोऽप्यनन्तगुणः प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि ॥२॥] तथापि शीतरूक्षी स्पशी आद्यानां तिहणां लेश्यानां पद उदशा चित्तास्वास्थ्यजनने स्निग्धोष्णस्पी उत्तरासां तिसृणां लेश्यानां परमसन्तोपोत्पादने साधकतमाविति तावेव पृथका पृथक साक्षादुक्तावित्सदोषः, सूत्रपाठः प्राग्वत् , 'कइणं भंते! लेस्साओ सीयलुक्खाओ पन्नताओ' इत्यादि । सम्प्रति गतिद्वारमभिधित्सुराह-तओ दुग्गइगामिणीओ तओ सुगइगामिणिओ' इति, आद्यास्तिस्रो लेश्या दुर्गतिगामि-18 न्यः-दुर्गतिं गमयन्तीत्येवंशीला दुर्गतिगामिन्यः, संक्लिष्टाध्यवसायहेतुत्वात् , उत्तरास्तिस्रो लेश्याः सुगतिं गमय-12 न्तीत्येवंशीलाः सुगतिगामिन्यः, प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् , उभयत्रापि गमेय॑न्तादिन्प्रत्ययः, सूत्रपाठः प्राग्वत् 'कइ णं भंते ! लेस्साओ दुग्गइगामिणीओ पन्नताओ' इत्यादि । अधुना परिणामद्वारमभिधित्सुराहकण्हलेस्सा गं भंते ! कतिविहं परिणामं परिणमति ?, गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसविहं वा एक्कासीतिविहं वा बेतेयालीसतविहं वा बहुयं वा बहुविहं वा परिणाम परिणमइ, एवं जाव सुकलेसा । कण्हलेसा गं भंते! कतिपदेसिया पत्रचा, गोयमा! अणंतपदेसिया पन्नचा, एवं जाव सुकलेसा | कण्हलेस्सा णं भंते ! कइपएसोगाढा पनत्ता, गोयमा! असंखेजपएसोगाढा पत्रचा, एवं जाव सुकलेस्सा । कण्हलेस्साए पा भंते ! केवतियाओ वग्गणाओ पन्नचाओ, गोयमा ! अणंताओ वग्गणाओ, एवं जाव सुक्कलेस्साए ॥ (मूत्र २२९) अनुक्रम [४६६] ॥३६७॥ SAREarattunintamatkarma अथ लेश्याया: परिणाम-द्वारम् वर्ण्यते ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९] दीप 'कण्हलेसा णमित्यादि, अत्र 'कइविहं परिणाम' इत्यत्र प्राकृतत्वात् तृतीयाधे द्वितीया द्रष्टच्या यथाऽऽचाराओं HI"अगणि(च खलु) पुट्ठा" इत्यत्र, ततोऽयमर्थ:-कृष्णलेश्या णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! कतिविधेन परिणामेन। परिणमति ?, भगवानाह-गोयमा । तिविहं वा' इत्यादि, इह त्रिविधो-जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन नवविधो यदै पामपि जघन्यादीनां खस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येकं जघन्यादित्रयेण गुणना, एवं पुनः पुनखिकगुणनया सप्तविंकाशतिविधत्वं एकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशदधिकशतद्वयविधत्वं बहुत्वं बहुविधत्वं भावनीयं, सर्वत्र च तृतीया)। द्वितीया, ततत्रिविधेन वा परिणामेन परिणमति नवविधेन वा इत्येवं पदानां योजना कर्तव्या, 'एवं जाव सुक-11 लेसा' इति एवं-कृष्णलेश्यागतेन प्रकारेण नीलादयोऽपि लेश्यास्तावद्वक्तव्याः यावत् शुक्ललेश्या, सूत्रपाठस्तु सुगमत्वात् खयं परिभावनीयः ॥ सम्प्रति प्रदेशद्वाराभिधित्सया प्राह-'कण्हलेसा णं मंते ! कइपएसिया' इत्या-1 दि सुगम, नवरमनन्तप्रादेशिकेति-अनन्तानन्तसङ्ख्योपेताः प्रदेशा:-तद्योग्याः परमाणवो यस्याः कृष्णलेश्यायाःकृष्णलेश्याद्रव्यसंघातस्य साऽनन्तप्रादेशिका, अन्यथा-अनन्तप्रदेशव्यतिरेकेण स्कन्धस्य जीवग्रहणयोग्यताया एवा-18 भावात् , एवं नीलादयोऽपि लेश्या वक्तव्याः , तथा चाह-एवं जाव मुक्कलेसा' इति ॥ अवगाहनाद्वारमाह-कण्ह-18 लेस्सा णं भंते !' इत्यादि, इह प्रदेशाः-क्षेत्रप्रदेशाः प्रतिपत्तव्याः, तेष्वेवावगाहप्रसिद्धेः, ते चानन्तानामपि वर्गणानामाधारभूता असङ्ख्या एव द्रष्टव्याः, सकलस्यापि लोकस्य प्रदेशानामसङ्ख्यातत्वात् ॥ वर्गणाद्वारमाह-'कण्ह अनुक्रम [४६७] ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२२९] दीप अनुक्रम [४६७] पदं [१७], -------------- • उद्देशक: [४], ---------दारं [-], [---- • मूलं [२२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥ ३६८ ॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - लेस्सा णं भंते ! केवइयाओ वग्गणाओ पन्नताओ' इत्यादि, इह वर्गणा - औदारिकादिशरीरप्रायोग्यपरमाणुवर्गणावत् कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्य परमाणुवर्गणा गृह्यन्ते, ताश्च वर्णादिभेदेन समानजातीयानामेक (व) सद्भावात् अनन्ताः प्रत्येतन्याः, एवं नीललेश्यादीनामपि वर्गणाः प्रत्येकं वक्तव्याः, तथा चाह एवं जाव सुकलेस्साए' इति ॥ अधुना स्थानद्वाराभिधित्सया आह Education Internation केवतिया णं भंते ! कण्हलेस्साणं ठाणा पन्नत्ता १, गोयमा ! असंखेजा कण्हलेस्साणं ठाणा पन्नत्ता, एवं जाब सुकलेस्सा । एएसि णं भंते! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुकलेस्साठाणाण य जहन्नगाणं दबट्टयाए पएसट्ट्याए दट्ठपएसइयाए कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४ १, गोयमा ! सवत्योवा जहन्नगा काउलेस्साठाणा दबट्ट० जहनगा नीललेसाठाणा दबट्टयाए असंखेज्जगुणा जहन्नगा कण्हलेसाठाणा दखट्ट० असं० जहनतेउलेसाठाणा दव० असं० जहन्नगा पम्हलेसाठाणा दद्द० असं० जहनगा० सुकलेसाठाणा दव० असं० पएस० सवत्थो जहन्नगा काउलेसाठाणा पएस० जहन्नगा नीललेसाठाणा पएस० असं० जह नगा कण्हलेसाठाणा पएस ० असं० जहन्नतेउलेस्साए ठाणा पएसदृ० असं० जहन्नगा पम्हलेसाठाणा पएस० असं० जहन्नगा सुकलेसाठाणा पएस० असं० दबट्ठपएस ट्टयाए सबत्थोवा जहन्नगा काउलेसाठाणा दबट्ट० जहनगा नीललेसाठाणा दद्द० असं ० एवं कण्हलेस्सा० उ० पम्ह० जहन्नगा सुकलेसाठाणा दव० असं जहन्नएहिंतो सुकलेस्साठाणेहिंतो दबट्ट० जनकाउलेसठाणा पएस० असं० जहनया नीललेसाठाणा पएस० असं० एवं जाव सुकलेस्साठाणा । एतेसि णं कण्डलेस्साठाणाणं अथ लेश्याया: स्थान द्वारम् वर्ण्यते For Para Use Only ~ 340~ १७लेश्या पदे उद्देशः ४ ॥१६८॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३०] दीप जाव सुकलेसाठाणाण य उकोसगाणं दबढ० पएस० दवढपएसह० कयरे २ हितो अप्पा चा ४१, गोयमा! सवत्थोवा उकोसगा काउलेस्साठाणा दबट्टयाए उकोसगा नीललेसाठाणा दबट्टयाए असंखेजगुणा एवं जहेव जहागा तहेब उकोसमावि, नवरं उकोसत्ति अभिलावो, एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्सठाणाणं जाव मुकलेस्सठाणाण य जहनउकोसगाणं दबट्टयाए पएसट्टयाए दबद्दपएसट्टयाए कतरे २हिंतो अप्पा वा ४१, मोयमा ! सबथोवा जहन्नगा काउलेसठाणा दवट्टयाए जहन्नया नीललेसठाणा दव० असं० एवं कण्हतेउपम्हलेस्स० जह० सुक्कलेसठाणा दव० असं० जहाएहिती सुफलेसठाणेहितो दव० उक्कोसा काउलेसठाणा दबट्टयाए असं० उकोसा नीललेसाठाणा दब० असं० एवं कण्हतेउपम्ह उकोसा सुक्कलेसाठाणा दब० असं० पएसट्टयाए सवत्थोवा जहन्नमा काउलेसठाणा पएसट्टयाए जहन्नगा नीललेसठाणा पएसट्टयाए असंखेजगुणा एवं जहेव दबट्टयाए तहेव पएसट्टयाएवि भाणिया, नवरं पएसट्टयाएचि अभिलारविसेसो, दबट्टपएसहयाए सवत्थोवा जहन्नमा काउलेसठाणा दबयाए जहन्नगा नीललेसठाणा दवढयाए असं० एवं कण्हतेउपम्ह० जहनया सुक्कलेसठाणा दबट्टयाए असं०, जहन्नएहितो सुकलेसाठाणेहिंतो दबट्टयाए उकोसा काउलेसठाणा दबद्वयाए असं० उकोसा नीललेस्सठाणादब० असं०एवं कण्हतेउपम्ह० उकोसगा सुकलेसठाणा दव० असं०, उकोसएहिंतो सुकलेसठाणे दब जहन्नगा काउलेसठाणा पएसट्टयाए अणंतगुणा, जहनगा नीललेसठाणा पएस० असं०, एवं कण्हतेउपम्ह० जहन्नमा मुकलेसठाणा असं०, जहाएहितो सुकलेसाठाणेहितोपएस० उको काउलेसाठाणा पएस० असं० उक्कोसया नीललेसाठाणा पएस० असं०, एवं कण्हतेउपम्ह० उक्कोसया सुक्कलेसाठाणा पएसट्टयाए असं० (मूत्र २३०) पनवणाए भगवईए लेस्सापदस्स चउत्थी उद्देसओ समनो॥ अनुक्रम [४६८] SAREauratonintamanna ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: जलेश्या प्रत सूत्रांक [२३०] दीप प्रज्ञापना-IN | 'केवइया णं भंते ! कण्हलेसा ठाणा पन्नत्ता' कियन्ति भदन्त ! कृष्णलेश्यास्थानानि-प्रकर्षापकर्षकृताः स्वरूपभेदाः या: मल- प्रज्ञप्तानि , सूत्रे च पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् , इह यदा भावरूपाः कृष्णादयो लेश्याश्चिन्त्यन्ते तदा एकैकस्या लेश्यायाः यवृत्ती. प्रकर्षापकर्षकृतखरूपभेदरूपाणि स्थानानि कालतोऽसङ्ग्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीसमयप्रमाणानि क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयलो॥३६९॥ काकाशप्रदेशप्रमाणानि, उक्तं च-"असंखेजाणुस्सप्पिणीण अवसप्पिणीण जे समया । संखाईया लोगा लेस्साणं होति ठाणाई ॥१॥"[असङ्ख्येयानामुत्सर्पिणीनामवसर्पिणीनां च ये समयाः (तत्प्रमाणानि) सङ्ख्यातीता लोका लेश्यानां भवन्ति स्थानानि ॥१॥] नवरमशुभानां संक्लेशरूपाणि शुभानां च विशुद्धरूपाणि, एतेषां च भावलेश्यागतानां | स्थानानां यानि कारणभूतानि कृष्णादिद्रन्यवृन्दानि तान्यपि स्थानान्युच्यन्ते तान्येव चेह ग्राखाणि, कृष्णादिद्रव्याणामेवेहोद्देशके चिन्त्यमानत्वात् , तानि च प्रत्येकमसङ्ख्ययानि, तथाविधैकपरिणामनिवन्धनानामनन्तानामपि द्रव्याणामेकाध्यवसायहेतुत्वेनैकत्वात् , तानि च प्रत्येक द्विविधानि, तद्यथा--जघन्यान्युत्कृष्टानि च, जघन्यलेश्यास्थानपरिणामकारणानि जघन्यानि उत्कृष्टलेश्यास्थानपरिणामकारणान्युत्कृष्टानि, यानि तु मध्यमानि तानि जपन्यप्रत्यासन्नानि जघन्येष्वन्तर्भूतानि उत्कृष्टप्रत्यासन्नानि तूत्कृष्टेषु, एकैकानि च स्वस्थाने परिणामगुणभेदतोऽसङ्ख्येयानि, अत्र दृष्टान्तो-यथा स्फटिकमणेरलक्तकवशेन रक्तता भवति, सा च जघन्यरक्ततागुणालक्तकवशेन जघन्यरक्तता एकगुणा(धिका)लक्तकवशेनैकगुणाधिकजघन्या, एवमेकैकगुणवृल्या जघन्यायामेव रक्ततायामसङ्ख्ययानि स्थानानि अनुक्रम [४६८] ॥३६॥ ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशकः [४], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कयटकटरse [२३०] दीप भवन्ति, तानि च व्यवहारतः स्तोकगुणत्वात् सर्वाण्यपि जघन्यान्येवोच्यन्ते, एवमात्मनोऽपि जघन्यैकगुणाधिकद्विगुणाधिकलेश्याद्रव्योपधानवशतो लेश्यापरिणामविशेषा असङ्ख्यया भवन्ति, ते च सर्वेऽपि व्यवहारतोऽल्पगुणत्वात् जघन्यव्यपदेशं लभन्ते, तत्कारणभूतानि च द्रव्याणामपि स्थानानि जघन्यानि, एवमुत्कृष्टान्यपि स्थानान्यसयेयानि भावनीयानि ॥ सम्प्रत्यल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते !' इत्यादि, इह त्रीणि अल्पबहुत्यानि, तद्यथाजघन्यस्थानविषयं उत्कृष्ट स्थानविषयं उभयस्थानविषयं च, एकैकमपि त्रिविधं, तद्यथा-द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया |उभयार्थतया च, तत्र जघन्यस्थानविषये द्रव्यार्थतायां प्रदेशार्थतायां च प्रत्येक कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि, उभयार्थतायां प्रथमतो द्रव्यार्थतया कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि, ततः शुक्ललेश्यास्थानानन्तरं प्रदेशार्थतया कापोतलेश्यास्थानानि अनन्तगुणानि वक्तव्यानि तदनन्तरं नीलकृष्णतेजःपाशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण प्रदेशार्थतया यथोत्तरमसहयगुणानि, एवमुत्कृष्टान्यपि स्थानानि द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया उभयार्थतया च चिन्तयितम्यानि, तथा चाह-एवं जहेब जहन्नगा तहेव उक्कोसगावि नवरमुक्कोसत्ति अभिलावो' इति ॥जघन्योत्कृष्ट स्थानसमुदायविषये त्वल्पबहुत्वे प्रथमतो जघन्यानि द्रव्यार्थतया कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि, तदनन्तरं जघन्य शुक्ललेश्यास्थानेभ्य उत्कृष्टानि कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्था अनुक्रम [४६८] For P OW ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३०] दीप अनुक्रम [४६८] पदं [१७], -------------- • उद्देशक: [४], ---------दारं [-], [---- • मूलं [२३०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना या मठ य० वृत्ती. ||३७०|| ॐ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - नानि क्रमेण द्रव्यार्थतयैव यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वाच्यानि, एवं प्रदेशार्थतयापि जघन्योत्कृष्टस्थानविषयमल्पबहुत्वं भावनीयं तथा चाह- 'एवं जहेब दबट्टयाए तहेव पएसट्र्याएवि भाणियां, नवरं पएसट्टयाएत्ति अभिलावे विसेसो' इति, द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतायां प्रथमतो द्रव्यार्थतया जघन्यानि कापोतनीलकृष्णतेजःपद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि ततो जघन्येभ्यः शुकुलेश्यास्थानेभ्य उक्तक्रमेणैव चोत्कृष्टानि स्थानानि द्रव्यार्थतया यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वाच्यानि तत उत्कृष्टेभ्यः शुकुलेश्यास्थानेभ्यो जघन्यानि कापोतलेश्यास्थानानि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि वक्तव्यानि ततः प्रदेशार्थतयैव जघन्यानि नीलकृष्ण तेजः पद्मशुक्ल लेश्यास्थानानि यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि एवमुत्कृष्टस्थानान्यपि उक्तक्रमेणैव यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानीति ॥ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य चतुर्थ उद्देशकः परिसमासः ॥ उक्तवतुर्थोद्देशकः सम्प्रति पञ्चम आरभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् - करणं भंते ! लेस्साओ पनत्ताओ ?, गोयमा ! छ लेसाओ पन्नताओ, जहा - कन्हलेसा जाब सुकलेसा, से नूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेसं पप्प तारुवताए तावनत्ताए तागंधचाए वारसचाए ताफासचाए भुज भुजो परिणमति, इतो आढतं जहा चउत्थओ उद्देसओ तहा भाणियां जाव वेरुलियमगिदितोचि ॥ से नूणं भंते ! कण्हलेसा नीललेस पप्प Internationa अथ (१७) लेश्या-पदे उद्देश (५) आरभ्यते For Park Lise Only ~344~ १७लेश्यापदे उद्देशः ५ www.landbrary or Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [५], ------------- दारं -], -------------- मूलं [२३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१] दीप लरकररररsea णो तारूवत्ताए जाव णो ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमइ ?, हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेस्स पप्प णो तारूवताए जो तावत्ताए णो तागंधचाए णो तारसत्ताए णो ताफासचाए भुजो २ परिणमति, से केणढे० भंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा ! आगारभावमायाए पा से सिया पलिभागभावमायाए वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा णो खलु नीललेसा तत्थ गया ओसकइ उस्सकहवा, से तेणढे मोयमा एवं बुच्चइ कण्हलेसा नीललेसं पप्पणो तारूवत्ताए जाव भुजोर परिणमति, से नूगं भंते ! नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो २ परिणमति , हंता गोयमा! नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूबताए जाव भुजो २ परिणमति, से केणढे० भंते! एवं खुबह-नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारूवत्ताए. जाव शुओ २ परिणमति, गोयमा आगारभावमायाए वा सिता पलिभागभावमायाए वा सिता मीललेस्सा णं सा णो खलु सा काउलेसा तत्थगया ओसकइ उस्सकति वा, से एएणढे०.१, गोयमा! एवं बुचद-नीललेसा काउलेसं पप्प जो तारूवचाए जाव भुजओ २परिणमति, एवं काउलेसा तेउलेसं पप्प तेउलेसा पम्हलेसं पप्प पम्हलेसा मुक्कलेसं पप्प, से नूर्ण भैते ! सुकलेसा पम्हलेसं पण णो तारूवत्ताए जाव परिणमति, हता गोयमा! सुक्कलेसा चेव से केण२० मते! एवं बुचति-सुकलेसा जाव णो परिणमति ?, गो०! आगारभावमायाए वा जाव सुकलेस्सा णं सा षो खल सा पम्हलेसा तत्थगया ओसकइ, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं चुच्चइ जावणो परिणमइ (सूत्र २३१)पण्णवणाए भगवईए लेसापदे पंचपदेसो। 'कइ णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, चतुर्थोद्देशकवत् तावद्वक्तव्यं यावद्वैडूर्यमणिदृष्टान्तः, व्याख्या च अनुक्रम [४६९] ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [५], ------------- दारं -], -------------- मूलं [२३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१] . दीप प्रज्ञापना- प्राग्वदेव निरवशेषा कर्त्तव्या, प्रागुपन्यस्तस्याप्यस्य सूत्रस्य पुनरुपन्यासोऽतनसूत्रसम्बन्धार्थः, तदेव सूत्रमाह-से २७लेश्या या: मल- नूर्ण भंते ।' इत्यादि, इह तिर्यधनुष्यविषयं सूत्रमनन्तरमुक्तं, इदं तु देवनरयिकविषयमवसेयं, देवनैरयिका हि पूर्व- पदे उद्देश यवृत्ती. भिवगतचरमान्तर्मुहूर्त्तादारभ्य यावत् परभवगतमाद्यमन्तर्मुहूर्त तावदवस्थितलेश्याकाः ततोऽमीषां कृष्णादिलेश्या-1 द्रव्याणां परस्परसम्पर्केऽपि न परिणम्यपरिणामकभावो घटते ततः सम्यगधिगमाय प्रश्नयति-से नुणं भंते ! ॥३७शा 8| इत्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, स च प्रश्ने, अथ नूनं-निश्चितं भदन्त ! कृष्णलेश्या-कृष्णलेश्याद्रव्याणि नीललेश्या-1 नीललेण्याद्रव्याणि प्राप्य, प्राप्तिरिह प्रत्यासन्नत्वमात्रं गृह्यते नतु परिणम्यपरिणामकभावेनान्योऽन्यसंश्लेषः, तद्रूप-18 तया-तदेव-नीललेण्याद्रव्यगतं रूपं-खभावो यस्य कृष्णलेश्याखरूपस्य तत्तद्रूपं तद्भावस्तद्रूपता तया, एतदेव ब्याचष्टे-न तद्वर्णतया न तद्गन्धतया न तद्रसतया न तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमते, भगवानाह-हन्तेसादि, हन्त गौतम ! कृष्णलेश्येत्यादि. तदेव ननु यदिन परिणमते तर्हि कथं सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्व-14 लाभः, स हि तेजोलेश्यादिपरिणामे भवति सप्तमनरकपृथिव्यां च कृष्णलेश्येति, कथं चैतत् वाक्यं घटते ? 'भावपरायत्तीए पुण सुरनेरइयाणंपि छल्लेसा' इति [भावपरावृत्तेः पुनः सुरनरयिकाणामपि षड् लेश्याः ] लेश्यान्तरद्रव्य- ॥३७॥ सम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणामासंभवेन भावपरावृत्तरेवायोगात् , अत एव तद्विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-से केणटे-11 - भंते! इत्यादि, तत्र प्रश्नसूत्रं सुगम निर्वचनसूत्र-आकारः-तच्छायामानं आकारस्य भावः-सत्ता आकारभावः स । अनुक्रम [४६९] ~346~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [५], ------------- दारं -], -------------- मूलं [२३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१] दीप एच मात्रा आकारभावमात्रा तयाऽऽकारभावमात्रया मात्राशब्द आकारभावातिरिक्तपरिणामान्तरप्रतिपत्तिव्यदा|सार्थः, 'से' इति सा कृष्णलेश्या नीललेश्यारूपतया स्यात् यदिवा प्रतिभागः-प्रतिबिम्बमादर्शादाषिव विशिष्टः प्रतिविम्ब्यवस्तुगत आकारः प्रतिभाग एव प्रतिभागमात्रा तया, अत्रापि मात्राशब्दः प्रतिबिम्बातिरिक्तपरिणामान्तरव्युदासार्थः स्यात् कृष्णलेश्या नीललेश्यारूपतया, परमार्थतः पुनः कृष्णलेश्यैव नो खलु नीललेश्या सा, खखरूपापरित्यागात्, न खल्वादर्शादयो जपाकुसुमादिसन्निधानतस्तत्प्रतिबिम्बमात्रामादधाना नादर्शादय इति परिभावनीयमेतत् , केवलं सा कृष्णलेश्या तत्र-स्वखरूपे गता-अवस्थिता सती उत्प्यष्कते तदाकारभावमात्रधारणतस्तत्प्रतिबिम्बमात्रधारणतो वोत्सर्पतीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या विशुद्धा ततस्तदाकारभावं तत्प्रतिबिम्बमानं वा दधाना सती मनाक विशुद्धा भवतीत्युत्सर्पतीति व्यपदिश्यते, उपसंहारवाक्यमाह-से एएणद्वेण'मित्यादि, सुगमं । एवं नीललेश्यायाः कापोतलेश्यामधिकृत्य कापोतलेश्यायास्तेजोलेश्यामधिकृत्य तेजोलेश्यायाः पद्मलेश्यामधिकृत्य पालेश्यायाः शुक्ललेश्यामधिकृत्य सूत्राणि भावनीयानि, सम्प्रति पमलेश्यामधिकृत्य शुक्ललेश्याविषयं सूत्रमाह-'से नूणं भंते ! सुकलेसा पम्हलेसं पप्प' इत्यादि, एतच्च प्राग्वद् भावनीयं, नवरं शुक्ललेश्यापेक्षया पालेश्या हीनपरिणामा ततः शुक्ललेश्या पद्मलेश्याया आकारभावं तत्प्रतिबिम्बमात्रं वा भजन्ती मनागविशुद्धा भवति ततोऽववष्कते इति व्यपदिश्यते, एवं तेजःकापोतनीलकृष्णलेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, ततः पद्मलेश्या-1 अनुक्रम [४६९] ~347~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३१] दीप अनुक्रम [४६९] • मूलं [२३१] पदं [१७], -------------- • उद्देशक: [ ५ ], ------------ दारं [ - ], [---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - प्रज्ञापना- मधिकृत्य तेजः कापोतनी लकृष्णलेश्याविषयाणि तेजोलेश्यामधिकृत्य कापोतनीलकृष्णविषयाणि कापोतलेश्यामधिकृत्य नीलकृष्णलेश्याविषये नीललेश्यामधिकृत्य कृष्णलेश्याविषयमिति, अमूनि च सूत्राणि साक्षात् पुस्तकेषु न दृश्यन्ते केवलमर्थतः प्रतिपत्तव्यानि तथा मूलटीकाकारेण व्याख्यानात्, तदेवं यद्यपि देवनैरयिकाणामवस्थितानि लेश्याद्रव्याणि तथापि तत्तदुपादीयमानलेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतः तान्यपि तदाकारभावमात्रां भजन्ते इति भावपरातियोगतः षडपि लेश्या घटन्ते, ततः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभ इति न कचिद्दोषः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां लेश्यापदस्य पञ्चमोदेशकः समाप्तः ॥ याः मल य० वृत्ती. ॥३७२॥ तदेवमुक्तः पञ्चमोदेशकः, सम्प्रति षष्ठ उच्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् - कति णं भंते! लेसा पत्ता १, गोयमा छ लेसा पद्मचा, तंजहा— कण्ह० जाव सुकलेसा, मणुस्साणं भंते ! कइ लेसा पं० १, गो० छ लेस्साओ पं० तं० कण्हलेसा जाब सुफलेसा । मणुस्सी णं भंते! पुच्छा, गो० । छल्लेस्साओ पं० तं०कहा जा सका । कम्मभूमयमणुस्साणं भंते ! कह लेसाओ पं० १, गो० छ ले० पं० तं० – कण्हा जाब सुक्का, एवं कम्मभूमयमणुस्सीणवि । भरहेरवयमणुस्साणं भंते ! कति लेसाओ पं० १, गो० छले० पं० तं० कण्हा जाव सुक्का, एवं Ecatur International अथ (१७) लेश्या - पदे उद्देश- (६) आरभ्यते •••अथ कस्य कति लेश्याः वर्तते? तस्य प्ररूपणा- For Parts Only ~348~ १७लेश्यापदे उद्देशः ५ waryru Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [६], ------------- दारं - -------------- मूलं [२३१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१R] दीप अनुक्रम [४७०] मणुस्सीणवि, अकम्मभूमयमणुस्साणं पुच्छा, गो! चचारि लेसाओ पं०,०-कण्हा जाव तेउ०, एवं अकम्मभूमिगमणुस्सीणवि, एवं अंतरदीवमणुस्साणं मणुस्सीणवि, एवं हेमवयएरनवयअकम्मभूमयमणुस्साणं मणस्सीण य कह लेसाओ पं०, गो! चत्तारि, तं०-कण्हा जाव तेउ०, हरिवासरम्मयअकम्मयभूमयमणुस्साणं मणुस्सीण य पुच्छा, गो.! चत्वारि, तं०-कण्हा जाव तेउ०, देवकुरुउत्तरकुरुकम्मभूमयमणुस्सा एवं चेव, एतेसिं चेव मणुस्सीणं एवं चेव, धायइसंडपुरिमद्धेवि एवं चेच, पच्छिमद्धेवि, एवं पुक्खरदीवेवि भाणिया । कण्हलेसे ण भंते ! मणुस्से कण्हलेसं गम्भ जणेजा, इंता गो! जाणेजा, कहले० मणुस्से नीलले० गम्भं जणेज्जा', हंता गो! जाणेजा, जाव सुकलेसं गम्भ जणेजा, नीलले. मणुस्से कण्हले० गम्भं जाणेजा, हंता गो! जाणेजा, एवं नील• मणुस्से जाव सुकले० गम्भं जणेजा, एवं काउलेसेणं छप्पि आलाचगा भाणियवा, तेउलेसाणवि पम्हलेसाणवि सुकले०, एवं छत्तीसं आलावगा भा०1 कण्ह. इत्थिया कण्ह० गन्भं जणेजा, हंता गोयमा! जणेज्जा, एवं एतेवि छत्तीसं आलावगा माणि । कण्हले० भंते! मणुस्से कण्हलेसाए इत्थियातो कण्हले० गम्भं जणेज्जा हंता गोयमा! जणेज्जा, एवं एते छत्तीस आलावगा, कम्मभूमगकण्हलेसे मं भंते ! मणुस्से कण्ह. इत्थियाए कण्हले० गम्भ जणेज्जा', हंता गोयमा! जणेजा, एवं एते छत्तीस०, अकम्मभूमयकण्ह० मणु० अ० कण्ह० इस्थियार अकम्मभूमयकण्हलेस गम्भ जणेज्जा', हेता गोयमा ! जणेज्जा, नवरं चउस लेसास, सोलस आलावगा, एवं अंतरदीवगाणवि । (त्रं २३१)। इति पनवणाए भगवईए लेस्सापदं समत्तं ।। सचरसं पर्व च समचं ॥ eBatistseeestomoseetsClot मूल-संपादने अत्र सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोषात् (सूत्रं २३१) इति २३१' क्रम द्विवारान् मुद्रितं ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१७], -------------- उद्देशक: [६], ------------- दारं - -------------- मूलं [२३१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१R] प्रज्ञापना-1 'कइ णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओं' इत्यादि, सुगम उद्देशकपरिसमाप्तिं यावत् , नवरमुत्पद्यमानो जीवो जन्मा-1.१७ लेश्यायाः मल-18न्तरे लेश्याद्रव्याण्यादायोत्पद्यते तानि च कस्यचित्कानिचिदिति । कृष्णलेश्यापरिणतेऽपि जनके जन्यस्य विचित्र-19 पदं यवृत्ती. | लेश्यासंभवः, एवं शेषलेश्यापरिणतेऽपि भावनीयं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां सप्तदर्श ॥३७॥ 18 लेश्यापदं समाप्तमिति ॥ दीप अनुक्रम [४७०] ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीमत्प्रज्ञापनोपाने सप्तदशपदमयं पूर्वाधं समाप्तम् ॥ DAN LAINAAMUANZIAWATAALATAAVUTAN అంశాలు rajastaram.org अत्र पद (१७) "लेश्या" परिसमाप्तम् ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-]------------- दारं [१,२], -------------- मूलं [२३२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत अथ अष्टादशपदं कायस्थितिनामकं प्रारभ्यते ॥१८॥ सूत्रांक [२३२] गाथा: wिeekerserseseerata 20298. दीप अनुक्रम [४७१-४७३] तदेवमुक्तं सप्तदर्श पदं, अधुनाऽष्टादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे लेश्यापरिणाम उक्तः, सम्प्रति परिणामसाम्यात् कायस्थितिपरिणाम उच्यते, तत्र चेदमधिकारगाथायं जीव गइंदिय काए जोए वेए कसायलेसा य । सम्मत्तणाणदंसण संजय उवओग आहारे ॥१॥ भासगपरित्त पज्जत सुहूम सनी भवास्थि परिमे य । एतेसि तु पदाणं कायटिई होइ णायचा ॥२॥ जीवे णं भंते ! जीवेत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा ! सबद्धं । दारं १ नेरइए गंभंते ! नेरइएत्ति कालओ केचिरं होई , भोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं तेचीस सागरोवमाई ॥ तिरिक्खजोणिए णं भंते ! तिरिक्खजोणिएत्ति कालओ केच्चिर होइ, गोयमा ! जह० अंतोमुहुतं उकोसेणं अर्थतं कालं अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्तओ अणंता लोगा असंखेजपोग्गलपरियहा ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखिजहभागे । तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! तिरिक्खजोणिणिति कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा। जहन्नेणं अंतोमुहु उक्कोसेणं तिनि पलिओचमाई पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियाई ॥ एवं मणुस्सेवि मणुस्सीवि एवं चेव ॥ देवे णं भंते । देवत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहेब नेरइए, देवी णं भंते । देवित्ति कालतो केनचिरं होई, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं पणवर्ष पलिओवमाई । सिद्धे णं भंते ! सिद्धेचि र अथ पद (१८) “कायस्थिति" आरभ्यते अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारे (१ एवं २)-जीव एवं गति आरब्धे ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३२] + गाथा: दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] पदं [१८], ------------ उद्देशकः [-], दारं [१,२], -------------- - मूलं [२३२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥३७४॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) Education International कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सादिए अपजवसिए। नेरइए णं मंते ! नेरइयअपअत्तपत्ति कालतो केवचिरं होह १, गोयमा ! जहनेणचि उकोसेणवि अंतोमुडुतं एवं जान देवी अपज्जत्तिया । नरेइयपत्तए णं ते! नेरइयपज्जतएति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहत्रेणं दस बाससहस्साई अंतोमुडुत्तूणाई उकोसेणं तेतीसं सागरोबमाई अंतोमुडुनूणाई । तिरिक्खजोणियपजत्तए णं भंते! तिरिक्खजोणियपअत्तपत्ति कालतो केवचिरं होइ १, गोयमा । जह मेणं अंतोतंउकोसेणं तिनि पलिओ माई तोहुणाई, एवं तिरिक्खजोणिणिषज्जत्तियावि, एवं मणुस्सेवि मणुस्सीवि, एवं चैव देवपअत्तए जहा नेरइयपत्तए, देवीपत्तिया णं भंते । देवीपजत्तियत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहोणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं पणपत्रं पलिओनमाई अंतोमुडुत्तूणाई | दारं २ (मूत्रं २३२ ) 'जीवगइंदियकाए' इत्यादि, प्रथमं जीवपदं किमुक्तं भवति १ – प्रथमं जीवपदमधिकृत्य कायस्थितिर्वक्तव्या इति १ ततो गतिपदं २ तदनन्तरमिन्द्रियपदं ३ ततः कायपदं ४ ततो योगपदं ५ तदनन्तरं वेदपदं ६ ततः कषायपदं ७ ततो लेश्यापदं ८ तदनन्तरं सम्यक्त्वपदं ९ ततो ज्ञानपदं १० तदनन्तरं दर्शनपदं ११ ततः संयतपदं १२ तत उपयोगपदं १३ तदनन्तरमाहारपदं १४ ततः परीत्तपदं १५ ततो भाषकपदं १६ ततः पर्याप्तपदं १७ ततः सूक्ष्मपदं १८ संज्ञिपदं १९ ततो भवसिद्धिकपदं २० तदनन्तरमस्तिकायपदं २१ ततश्चरमपदं २२ । एतेषां द्वाविंशतिसङ्ख्यानां पदानां कार्यस्थितिर्भवति ज्ञातव्या यथा च भवति ज्ञातव्या तथा यथोद्देशं निर्देश्यते, अथ For Parts Only ~352~ १८ काय स्थितिपदं ॥३७४॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३२] + गाथा: दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१८], ------------ उद्देशकः [-] दारं [१,२], -------------- - मूलं [२३२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः कार्यस्थितिरिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, काय इह पर्यायः परिगृह्यते, काय इव काय इत्युपमानात् स च द्विधासामान्यरूपो विशेषरूपश्च तत्र सामान्यरूपो निर्विशेषणो जीवत्वलक्षणः विशेषरूपो नैरयिकत्वादिलक्षणः तस्य | स्थितिः -- अवस्थानं कायस्थितिः, किमुक्तं भवति १ – सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा पर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य यदव्यवच्छेदेन भवनं सा कायस्थितिः, ततः प्रथमतः सामान्यरूपेण पर्यायेणादिष्टस्याव्यवच्छेदेन यद् भवनं तचिचिन्तविषुराह - 'जीवे णं भंते!' इत्यादि, इह जीवनपर्यायविशिष्टो जीव उच्यते, ततः प्रश्नयति-जीवा 'णं' इति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! जीव इति जीवनपर्यायविशिष्टतया इत्यर्थः 'कालतः' कालमधिकृत्य 'कियचिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति १, भगवानाह - गौतम ! 'सर्वाद्धां' सर्वकालं यावत्, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह जीवनमुच्यते प्राणधारणं, प्राणाथ द्विधा - द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च, द्रव्यप्राणा इन्द्रियपञ्चकवलत्रिकोच्छ्वासनिःश्वासायुः कर्मानुभवलक्षणाः, भावप्राणाः ज्ञानादयः, तत्र संसारिणामायुःकर्मानुभव लक्षणप्राणधारणं सदैवावस्थितं न हि सा का| चिदवस्था संसारिणामस्ति यस्यामायुः कर्मानुभवनं न विद्यते इति, मुक्तानां तु ज्ञानादिरूपप्राणधारणमवस्थितं, मुक्तानामपि हि ज्ञानादिरूपाः प्राणाः सन्ति, यैर्मुक्तोऽपि द्रव्यप्राणैः जीवतीति व्यपदिश्यते, ते च ज्ञानादयो मुक्तानां शाश्वतिकाः, अतः संसार्यवस्थायां मुक्तावस्थायां च सर्वत्र जीवनमस्तीति सर्वकालभावी जीवनपर्यायः ॥ सम्प्रति तस्यैव जीवस्य नैरयिकत्वादिपर्यायैरादिष्टस्य तैरेवे पर्यायैरव्यवच्छेदेनावस्थानं चिन्तयन्नाह - 'नेरइए णं भंते!" Education International For Parts Only ~ 353~ Allnary or Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-------------- दारं [१,२], -------------- मूलं [२३२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२] गाथा: प्रज्ञापना IN इत्यादि, सुगम, नवरं नैरयिकास्तथाभवखाभाब्यात् खभवाच्युत्वा अनन्तरं न भूयो नैरयिकत्वेनोत्पद्यन्ते, ततोte याः मल यदेव तेषां भवस्थितेः परिमाणं तदेव कायस्थितेरपि इत्युपपद्यते जघन्यत उत्कर्पतश्च यथोक्तपरिमाणा कायस्थितिः। |स्थितिपदं यवृत्ती. तिरिक्खजोणिए णं भंते !' इत्यादि, तत्र यदा देवो मनुष्यो नैरयिको वा तिर्यक्षुत्पद्यते तत्र चान्तमुहूर्त स्थित्वा भूयः खगती गत्यन्तरे या सामति तदा लभ्यते जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा कायस्थितिः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं ॥३७५॥ यावत् , तस्य चानन्तस्य कालस्य प्ररूपणा द्विधा, तद्यथा-कालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः, उत्सर्पिण्यवसर्पिणीपरिमाणं च नन्द्यध्ययनटीकातोऽवसेयं, तत्र सविस्तरमभिहितत्वात् , क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, किमुक्तं भवति ?-अनन्तेषु लोकाकाशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे क्रियमाणे यावत्योऽनन्ता उत्सप्पिSण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावतीर्यावत् तिर्यक् तिर्यक्त्येनावतिष्ठते, एतदेव कालपरिमाणं पुद्गलपरावर्त्तसङ्ख्यातो निरू पयति-अस येयाः पुद्गलपरावर्ताः, पुद्गलपरावर्तखरूपं च पञ्चसङ्ग्रहटीकायां विस्तरतरकेणाभिहितमिति ततोऽवधाय, इह तु नाभिधीयते, ग्रन्थगौरवभयात्, असङ्ख्याता अपि पुद्गलपरावर्ताः कियन्त इति विशेषसङ्ग्यानिरूपणार्थमाह-'ते णं' इत्यादि, ते पुद्गलपरावर्त्ता आवलिकाया असक्वेयभागः, किमुक्तं भवति-आवलिकाया अस-IIM३७॥ यतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणा असत्ययाः पुदलपरावी इति, एतचैवं कायस्थितिपरिमाणं वन-1 स्पत्यपेक्षया द्रष्टव्यं न शेषतिर्यगपेक्षया, बनस्पतिव्यतिरेकेण शेषविरश्चामेतावत्कालप्रमाणकायस्थितेरसंभवात् , दीप अनुक्रम [४७१-४७३] ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], --------------उद्देशक: [-], ------------- दारं [१,२], -------------- मूलं [२३२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत S सूत्रांक [२३२] गाथा: तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! इत्यादि, इहोत्तरत्र च जघन्यान्तर्मुहूर्तभावना प्रागुक्तान्तर्मुहूर्तभावनानुसारेण खयं | भावनीया, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि, कथं इति चेत् !, उच्यते, इह तिर्यशानुष्याणां सक्षिपञ्चेन्द्रियाणामुत्कर्षतोऽप्यष्टौ भवाः कायस्थितिः “नरतिरियाण सत्तट्ठ भवा" [नरतिरश्चां सप्ताष्टौ (वा)। भवाः ] इति वचनात्, तत्रोत्कर्षस्य चिन्त्यमानत्वात् अष्टावपि भवा यथासंभवमुत्कृष्टस्थितिकाः परिगृखन्ते, अस-1 येयवर्षायुष्कस्तु मृत्वा नियमतो देवलोकेषुत्पद्यते न तिर्यक्षु, ततः सप्त भवाः पूर्वकोट्यायुषो वेदितव्याः अष्टमस्तु तापर्यन्तवती देवकुर्वादिष्विति त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि भवन्ति 'एवं मणुस्सेवि मणुस्सीवि' ॥ इति, एवं-तिर्यकत्रीगतेन प्रकारेण मनुष्योऽपि मानुष्यपि च वक्तव्या, किमुक्तं भवति ?-मनुष्यसूत्रे मानुषीसूत्रे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि वक्तव्यानीति, सूत्रपाठस्त्वेवं-'मणुस्से णं भंते ! मणुस्सत्ति कालजो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुष-14 कोडीपुहुत्तमम्भहियाई, मणुस्सी णं भंते ! मणुस्सित्ति कालओ केवचिरं होई' इत्यादि, देवसूत्रे 'जहेव नेरइए' इति, यथैव नैरयिकः प्रागुक्तः तथैव देवोऽपि वक्तव्यः, देवस्यापि जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि वक्तव्यानीति भावः, देवा अपि हि खभवाच्युत्वा न भूयोऽनन्तरं देवत्वेनोपपद्यन्ते "नो देवे देवेसु उववजह" [न देवो देवेषूत्पद्यते] इति वचनात् , ततो यदेव देवानामपि भवस्थितेः परिमाणं तदेव कायस्थितेरपि, दीप अनुक्रम [४७१-४७३] Sainaurary.orm ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३२] + गाथा: दीप अनुक्रम [४७१ -४७३] पदं [१८], ------------ उद्देशकः [-] दारं [१,२], --------------- - मूलं [२३२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना या मल य० वृत्ती. ॥१७६॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) Jan Educator देवीसूत्रे उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानीति, देवीनां भवस्थितेरुत्कर्षतोऽप्येतावत्प्रमाणत्वात्, एतञ्चेशान देव्यपेक्षया द्रष्टव्यं अन्यत्र देवीनामेतावत्याः स्थितेरसंभवात् । सिद्धसूत्रे साद्यपर्यवसित इति सिद्धत्वस्य क्षयासंभवात्, सिद्धत्वाद्धि व्यावयितुं ईशा रागादयो, न च ते भगवतः सिद्धस्य संभवन्ति, तन्निमित्तकर्मपरमाण्वभावात्, तदभावश्च तेषां निर्मूलकार्षकपितत्वात् ॥ सम्प्रत्येतावतो नैरयिकादीन् पर्याप्तापर्याप्तविशेषणद्वारेण चिन्तयन्नाह — 'नेरहएणं भंते !" इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! अपर्याप्त इति - अपर्याप्तत्व पर्याय विशिष्टोऽविच्छेदेन कालतः कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह - गौतम ! इत्यादि, इहापर्याप्तावस्था जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तप्रमाणा, तत ऊर्द्ध हे नैरयिकाणामवश्यं पर्याप्तावस्थाभावात्, तत उक्तं 'जहन्त्रेणवि अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं' । 'एवं जाव देवी अपजत्तिया' इति, एवं -- नैरनिकोक्तेन प्रकारेणापर्यासास्तिर्यगादयस्तावद्वक्तव्याः यावद्देव्यपर्याप्तिका, अपर्यासकदेवीसूत्रं यावदित्यर्थः, तत्र तिर्यञ्चो मनुष्याश्च यद्यप्यपर्यातका एव मृत्वा भूयो भूयोऽपर्यासत्वेनोपपद्यन्ते तथापि तेषापर्याप्तावस्था नैरन्तर्येणोत्कर्षतोऽपि अन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणैव लभ्यते, यद्वक्ष्यति 'अपजत्तए णं भंते । अपजत्तपत्ति कालतो केवश्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुदुत्तं' इति, देवदेवीसूत्रे अन्तर्मुहूर्त भावना नैरयिकवत् वक्तव्या । 'नेरइयपज्जत्तए णं भंते ।' इत्यादि, नैरयिकपर्याप्त इति—पर्याप्तो नैरयिक इत्येवमविच्छेदेन कालतः कियच्चिरं भवति १, भगवानाह - गौतम । जघन्यतो दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्त्तेनानि, अन्तर्मुहूर्त्तस्याद्यस्या For Park Use Only ~356~ १८ कायस्थितिपदं ॥३७६॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१,२], -------------- मूलं [२३२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२] गाथा: पर्याप्तावस्थायां गतत्वात् , अत एवोत्कर्षतोऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्तोनानि, तिर्यसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तभावना प्रागिव, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमान्यन्तर्मुहूर्तोनानि, एतच्चोत्कृष्टायुषो देवकुर्वादिभाविनस्तिरश्वोऽधिकृत्य |वेदनीयं, अन्येषामेतावत्कालप्रमाणायाः पर्याप्सायस्थाया अविच्छेदेनाप्राप्यमाणत्वात् , अत्राप्यन्तर्मुहूर्तोनत्वमन्तर्मुहू-18 संस्थावस्यापर्याप्तावस्थायां गतत्वात्, एवं तिर्यकस्त्रीमनुष्यमानुषीसूत्रेष्वपि भावनीयं । देवदेवीसूत्रयोस्तु जघन्यत उत्कर्षतश्च कायस्थितिपरिमाणं प्रागुक्तमेव अपर्याप्तावस्थाभाविनाऽन्तर्मुहूर्तेन हीनं परिभावनीयं । गतं गतिद्वारं, इदानीमिन्द्रियद्वारमभिधित्सुराह सईदिए णं मंते ! सईदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सईदिए दुविहे पन्नते, तंजहा-अणाइए वा अपजबसिए अणाइए सपज्जवसिए । एगिदिए णं भंते ! एगिदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! जहनेणं अंतोमहत्तं उफोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो ॥ बेईदिए णं भंते ! बेईदिएत्ति कालतो केवचिरं होह, गोयमा! जहमेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं संखेनं कालं । एवं तेइंदियचउरिदिएवि । पंचिंदिए णं भंते ! पंचिंदिएति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगे । अणिदिए णं पुच्छा, गोयमा ! साइए अपजवसिए । सईदियपज्जचए गं भंते ! सइंदियपज्जत्तएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं । एगिदियपज्जचए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजाई cerseeररररररररर दीप अनुक्रम [४७१-४७३] SAREauratanA ma अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (३) "इन्द्रिय" आरब्धम् ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [४७४] पदं [१८], -------------- • उद्देशक: [-], ------------ • दारं [३], • मूलं [२३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥३७७ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - Ja Eucation International चाससहस्साई । वेइंदियपज्जत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उकोसेणं संखेज्जवासाई, तेइंदियपज्जतए णं - पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उकोसेणं संखेजाई राईदियाई, चउरिदियपत्तए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं संखेजा मासा | पंचिदियपजचए णं भंते ! पंचिंदियपज्जतएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहणं अंतोतं उकोसेणं सागरोबमसयपुहुत्तं । सइंदियअपज्जचए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहत्रेणवि उको सेवि अंतोमुहुत्तं, एवं जाव पंचिदियअपज्जत्तए । दारं ३ ( सू २३३ ) 'सदिए णं भंते!' इत्यादि, सहेन्द्रियं यस्य येन वा स सेन्द्रियः, इन्द्रियं च द्विधा - लब्धीन्द्रियं द्रव्येन्द्रियं च, तत्रेह लब्धीन्द्रियमवसेयं तद्विग्रहगतावप्यस्ति इन्द्रियपर्याप्तस्यापि च ततो निर्वचनसूत्रमुपपद्यते, अन्यथा तदघटमानकमेव स्यात्, निर्वचनसूत्रमेवाह — गौतम ! इत्यादि, इह यः संसारी स नियमात् सेन्द्रियः, संसारश्वानादिः इत्यनादिः सेन्द्रियः, तत्रापि यः कदाचिदपि न सेत्स्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः, सेन्द्रियत्व पर्यायस्य कदाचिदप्यव्यवच्छेदात्, यस्तु सेत्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, मुक्तत्यवस्थायां सेन्द्रियत्वपर्यायस्याभावात् । एकेन्द्रियसूत्रे यदुक्तं - 'उकोसेणं अणतं कालं' इति तमेवानन्तकालं सविशेषं निरूपयति- 'वणस्सइकालो' इति, यावान् वनस्पतिकालोऽग्रे | वक्ष्यते तावन्तं कालं यावदित्यर्थः, वनस्पतिकायश्चैकेन्द्रियः, एकेन्द्रियपदे तस्यापि परिग्रहात् स च वनस्पतिकालः एवंप्रमाणः - 'अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते For Parts Only ~ 358~ १८ काय स्थितिपद ॥३७७॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [३], -------------- मूलं [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [४७४] णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागो' इति द्वीन्द्रियसूत्रे 'संखेनं कालं'ति सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणीत्यर्थः, 'विगलिंदियाण य वाससहस्सा संखेजा' [विकलेन्द्रियाणां वर्षसहस्राणि संख्येयानि ] इति वचनात्, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिययोरपि सूत्रे वक्तव्ये, तत्रापि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः सङ्खबेयकालमिति वक्तव्यमिति भावः, सहयेयश्च कालः सङ्ग्यानि वर्षसहस्राणि प्रत्येतव्यानि । पञ्चेन्द्रियसूत्रे उत्कर्षतः सातिरेक सागरोपमसहस्रं, तच नैरयिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवभवनमणेन द्रष्टव्यं, अधिकं तु न भवति, एतावत एव कालस्य केवलवेदसोपलब्धत्वात् । अनिन्द्रियो द्रव्यभावेन्द्रियविकलः स च सिद्ध एव सिद्धश्च साद्यपर्यवसितः तत उक्तं 'साइए अपज्जवसिए' इति । 'सइंदियअपजत्तए णं' इत्यादि, इहापर्याप्सा लब्ध्यपेक्षया करणापेक्षया च द्रष्टव्याः, उभयथापि तत्पर्यायस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणत्वात् , एवं तावद्वाच्यं यावत्पञ्चेन्द्रियापर्याप्तकः-पञ्चेन्द्रियापर्याप्तकसूत्रं, तच सुगमत्वात् खयं परिभावनीयं, अनिन्द्रियोऽत्र न वक्तव्यः, तस्य पर्याप्तापर्यासविशेषणरहितत्वात् । 'सइंदियपज्जत्तए णं भंते !' इत्यादि, इह पर्याप्तो लब्ध्यपेक्षया वेदितव्यः, स हि विग्रहगतावपि संभवति, करणैरपर्याप्तस्यापि, तत उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमशतपृथक्त्वमिति यन्निर्वचनं तदुपपद्यते, अन्यथा करणपर्याप्तत्वस्योत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूत्तोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणतया लभ्यमानत्वात् यथोक्तं निर्वचनं नोपपद्यते, एवमुत्तरसूत्रेऽपि पर्याप्तत्वं लब्ध्यपेक्षया द्रष्टव्यं । एकेन्द्रियपर्याससूत्रे सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणीति, एकेन्द्रियस्य हि पृथिवीकायस्योत्कर्षतो ~359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [], ------------- दारं [३], -------------- मूलं [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. se ॥३७८० दीप अनुक्रम [४७४] द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि भवस्थितिः अप्कायस्य सप्त वर्षसहस्राणि वातकायस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायस्य ||१८ कायदश वर्षसहस्राणि ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवसंकलनया सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणि घटन्ते इति । द्वीन्द्रियपर्या-8 स्थितिपदं ससूत्रे सोयानि वर्षाणि, द्वीन्द्रियस्य हि उत्कर्षतो भवस्थितिपरिमाणं द्वादश संवत्सराणि, म च सर्वेष्वपि भषेपूत्कृष्टस्थितिसंभवः, ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसंकलनयापि सजयेयानि वर्षाण्येव लभ्यन्ते न तु वर्षशतानि वर्षसहस्राणि या । त्रीन्द्रियपर्याससूत्रे सोयानि रात्रिन्दिवानि, तेषां च भवस्थितेरुत्कर्पतोऽप्येकोनपञ्चाशदिनमानतया कतिपयनिरन्तरपर्यासभवसंकलनायामपि सङ्ख्येयानां रात्रिन्दिवानामेव लभ्यमानत्वात चतुरिन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सङ्ख्यया मासाः, तेषां भवस्थितरुत्कर्षतः षण्मासप्रमाणतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवकालसंकलनायामपि सङ्ख्ये-IN यानां मासानां प्राप्यमाणत्वात् । पञ्चेन्द्रियसूत्रं सुगमं । गतमिन्द्रियद्वारं, इदानी कायद्वारमभिधित्सुराहसकाइए णं भंते ! सकाइएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सकाइए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा—अणाइए वा अपज्जबसिए अणाइए वा सपज्जवसिए जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवाससमन्भहियाई, अकाइए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! अकाइए सादिए अपज्जवसिए, सकाइयअपजत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि ॥३७८॥ अंतोमुहुत्तं, एवं जाव तसकाइयअपज्जत्तए । सकाइयपज्जचए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेग, पुढविकाइए णं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्स अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (४) "काय" आरब्धम् ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३४] eseeeeeeeeeest4 प्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा, एवं आउतेउवाउकाइयावि, वणस्सइकाइया णं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणिओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेजा पुग्गलपरियहा ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइमागो । पुढचिकाइए पञ्जत्तए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं संखेन्जाई वाससहस्साई, एवं आउवि, तेउकाइए पज्जत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्च उकोसेणं संखेज्जाई राईदियाई, बाउकाइयपज्जतए णं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं संखेआई वाससहस्साई, वणस्सइकाइयपज्जत्तए पुच्छा, गोयमा! जहनेणं अंतोमुहु उक्कोसेणं संखेजाई वाससहस्साई, तसकाइयपजत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं दार ४ । (सूत्र २३४) 'सकाइए णं भंते ।' इत्यादि, सह कायो यस्य येन या स सकायः सकाय एव सकायिकः आपत्वात् खार्थे इकप्रत्ययः, कायः-शरीरं, तचौदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदात् पञ्चधा, तह कार्मणं तैजसं वा द्रष्टव्यं, तस्यैवाऽऽसंसारभावात् , अन्यथा विग्रहगतौ वर्तमानस्य शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य च शेषशरीरासंभवादकायिकत्वं स्यात् , तथा च सति निर्वचनसूत्रप्रतिपादितं वैविध्यं नोपपद्यते, अथ निर्वचनसूत्रमाह-'सकाइए दुविहे पन्नत्ते' इत्यादि, तत्र यः संसारपारगामी न भविष्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः कदाचिदपि तस्य कायस्य व्यवच्छेदासंभवात् यस्तु मोक्षमधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः तस्य मुक्त्यवस्थासंभवे सर्वात्मना शरीरपरित्यागात्, पृथिव्यसेजोवायुवनस्प 20029290823201202092e दीप अनुक्रम [४७५] ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३४] Tas दीप प्रज्ञापना-तिसूत्राणि सुगमानि, अन्यत्रापि तदर्थस्य प्रतीतत्वात् , तथा चोक्तं-'असंखोसप्पिणिओसप्पिणीओ एगिदियाण १८ काययाः मल- उ चउण्हं । ता चेव उ अणंता वणस्सईए उ बोद्धचा ॥१॥ [असंख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य एकेन्द्रियाणां चतु- स्थितिपदं य० वृत्ती. णां । ता एवानन्ता वनस्पती बोद्धव्याः ॥१॥] ननु यदि वनस्पतिकालप्रमाणं असहययाः पुद्गलपरावत्तास्ततो। ॥३७९॥ यद्गीयते सिद्धान्ते-मरुदेवाजीवो यावज्जीवभावं वनस्पतिरासीदिति, तत्कथं स्यात् १, कथं वा वनस्पतीनामना-1 आदित्वं, प्रतिनियतकालप्रमाणतया वनस्पतिभावस्थानादित्वविरोधात्, तथाहि असावेयाः पुद्गलपरावत्तास्तेषाम-IN वस्थानमानं, तत एतावति कालेऽतिक्रान्ते नियमात् सर्वेऽपि कायपरावत कुर्वते, यथा खस्थितिकालान्ते सुरादयः, उक्तं च-"जइ पुग्गलपरियट्टा संखाईया वणस्सईकालो। तो अबंतवणस्सईणमणाइयत्तमहेतूओ ॥१॥ न य मरुदेवाजीवो जावजी वणस्सई आसी । जमसंखेजा पुग्गलपरियट्टा तत्वऽवस्थाणं ॥२॥ कालेणेवइएणं जम्हा कुवंति कायपलई । सधेवि वणस्सइणो ठिइकालंते जह सुराई ॥३॥ [यदि पुद्गलपरावर्ताः संख्यातीता वनस्प-| |तिकालः । तदाऽऽत्यन्तवनस्पतीनामनादित्वमहेतुकं ॥ १॥ न च मरुदेवीजीवो यावज्जीवं वनस्पतिरासीत् ।। यदसंख्ययाः पुद्गलपरावस्तित्रावस्थानं ॥ २॥ कालेनैतावता यस्मात् कुर्वन्ति कायपरावत्त । सर्वेऽपि वनस्पतयः ॥७९॥ स्थितिकालान्ते यथा सुराद्याः ॥३॥] किं च-एवं यद्वनस्पतीनां निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं तदपीदानी प्रसक्तं, कथमिति चेद् ?, उच्यते, इह प्रतिसमयमसङ्ख्यया बनस्पतिभ्यो जीया उद्वर्तन्ते, वनस्पतीनां च कायस्थितिपरि अनुक्रम [४७५] . ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [४७५] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • उद्देशक: [-], ------------- • दारं [४], • मूलं [२३४] पदं [१८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ माणमसङ्ख्येयाः पुद्गलपरावर्त्तास्ततो यावन्तोऽसङ्ख्येयेषु पुद्गलपरावर्त्तेषु समयास्तैरभ्यस्ता एकसमयोद्वृत्ता जीवा यावन्तो भवन्ति तावत्परिमाणमागतं वनस्पतीनां ततः प्रतिनियतपरिमाणतया सिद्धं निर्लेपनं, प्रतिनियतपरिमाणत्वादेव च गच्छता कालेन सिद्धिरपि सर्वेषां भव्यानां प्रसक्ता, तत्प्रसक्तौ च मोक्षपथव्यवच्छेदोऽपि प्रसक्तः, सर्वभव्यसि - द्विगमनानन्तरमन्यस्य सिद्धिगमनायोगात्, आह च - "कायडिइका लेणं ते सिमसंखेज्जयावहारेणं । निलेवणमावनं सिद्धीवि य सबभवाणं ॥ १ ॥ पइसमयमसंखेजा जेणुधद्वंति तो तदग्भत्था । कार्यट्ठिइऍ समया वणस्सईणं च परिमाणं ॥ २ ॥ [ कायस्थितिकालेन तेषामसंख्येयकापहारेण । निर्लेपनमापन्नं सिद्धिरपि च सर्वभव्यानां ॥ १ ॥ प्रतिसमयमसंख्येया येनोद्वर्त्तन्ते ततस्तदभ्यस्ताः । कायस्थितेः समयाः वनस्पतीनां च परिमाणं ॥ २ ॥] न चैतदस्ति, वनस्पतीनामनादित्वस्य निर्लेपनप्रतिषेधस्य सर्वभव्यासिद्धेर्मोक्षपथाव्यवच्छेदस्य च तत्र तत्र प्रदेशे सिद्धान्तेऽभिधानात्, उच्यते, इह द्विविधा जीवाः -- सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति, तत्र ये निगोदावस्थात उद्धृत्य पृथि वीकायिकादिभेदेषु वर्त्तन्ते ते लोकेषु दृष्टिपथमागताः सन्तः पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते, ते च यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति तथापि ते सांव्यवहारिका एव, संव्यवहारे पतितत्वात्, ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपथातीतत्वाद सांव्यवहारिकाः, कथमेतदवसीयते १ द्विविधाः जीवाः सांव्यवहारिकाः असांव्यवहारिकाश्चेति, उच्यते, युक्तिवशात्, इह प्रत्युत्पन्नवन् For Parts Only ~ 363~ wor Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [४७५] प्रज्ञापना- स्पतीनामपि निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं, किं पुनः सकलवनस्पतीना, तथा भव्यानामपि, य(त)च यद्यसांव्यवहारि- १८ काययाः मल- कराशिनिपतिता असन्तवनस्पतयो न स्युः ततः कथमुपपद्येत १, तस्मादवसीयते अस्त्यसांव्यवहारिकराशिरपिस्थितिपदं व०वृत्ती. यद्तानां बनस्पतीनामनादिता, किं चेयमपि गाथा गुरूपदेशादागता समये प्रसिद्धा-"अस्थि अणंता जीवा ॥३०॥ जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो । तेवि अणताणता निगोयवासं अणुवसंति ॥ १॥" [सन्त्यनन्ता जीवा यैर्न प्रास-11 खसादिपरिणामः । तेऽप्यनन्तानन्ता निगोदवासमनुवसन्ति ॥१॥] तत इतोऽप्यसांव्यवहारिकराशिः सिद्धः, उक्तं च-"पचुप्पन्नवणस्सईण निल्लेवर्ण न भवाणं । जुत्तं होइन तं जइ अचंतवणस्सई नत्थि ॥ २॥ एव मणादिवणस्सईणमस्थित्तमत्थओ सिद्धं । भण्णइ [य] इमावि गाहा गुरूवएसागया समये ॥२॥ अत्थि अर्णता हाजीवा" प्रत्युत्पन्नवनस्पतीनां तथा भव्यानां निर्लेपनं न । युक्तं भवति न तद् यद्यत्यन्तवनस्पतिनोति ॥१॥ एवमनादिवनस्पतीनामस्तित्वमर्थतः सिद्धं । भण्यते चैषाऽषि गाथा गुरूपदेशागता समये ॥२॥] इत्यादि, तत्रेदं । सूत्र सांव्यवहारिकानधिकृत्यावसेयं, न चासांव्यवहारिकान् , अविषयत्वात् सूत्रस्य, न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, यत आहुः जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादा:-"तह कायटिइकालादओ विसेसे पडुच्च किर जीवे । नाणाइवणस्स- ॥३०॥ इणो जे संववहारवाहिरया ॥१॥"[तथा कायस्थितिकालादयो विशेषान् प्रतीत्य किल जीवान् । नानादिवनस्पतीन् ये संव्यवहारबाहाः ॥१॥] अत्रादिशब्दात् सर्वेरपि जीवैः श्रुतमनन्तशः स्पृष्टमित्यादि यदस्यामेव प्रज्ञाप For P OW ~364~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [४], -------------- मूलं [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३४] नायां वक्ष्यति प्रागुक्तं च तत्परिग्रहः, ततो न कश्चिद्दोषः। त्रसकायसूत्रं सुप्रतीतं ॥ एतानेव त्रसकायिकादीन् पर्यासापर्याप्तविशेषणविशिष्टान् चिन्तयन्नाह-'सकाइयअपज्जत्तए णं भंते !' इत्यादि, सुगम, नवरं तेजःकायसूत्रे उत्क-18 र्षतः सङ्ख्ययानि रात्रिन्दिवानीति, तेजाकायस्य हि भवस्थितिरुत्कर्षतोऽपि त्रीणि रात्रिन्दिवानि, ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवकालसंकलनायामपि सङ्ख्येयानि रात्रिन्दिवान्येव लभ्यन्ते, न तु वर्षाणि वर्षसहस्राणि वा । सम्प्रति कायद्वारान्तःप्रवेशसंभवात् सूक्ष्मकायिकादीनिरूपयितुकाम आहसुहुमे थे भंते ! सुहुमेत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गो०! जह० अंतो० उ० असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा, सहमपद्धविकाइते सुहुमआउका सुहुमतेउका० सुहुमवाउका० सुहुमवणफइकाइते० सुहुमनिगोदेवि ज. अंतोमुत्तं उको असंखेज कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा, सुहुमेणं मंते ! अपञ्जत्तएत्ति पुच्छा, गो.! ज० उ० अंतोमुहुत्ते, पुढविकाइयआउकायतेउकायबाउकायवणफइकाइयाण य एवं चेव, पज्जत्तियाणवि एवं चेव जहा ओहियाणं । बादरेण भंते ! वादरेत्ति कालतो केवचिरं होति, गो०!जह अंतो. उक्को० असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालओ खेचओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं, बादरपुढविकाइए णं भंते ! पुच्छा, गो! जह० अंतो० उक्को० सचरि सागरोक्मकोडाकोडीतो, एवं बादरआउक्काइएवि जाव बादरतेउकाइएवि वादरखाउकाइएवि, बादरवणफइकाइते बादर० पुच्छा, गो०! Eaesesedecescrsectice दीप अनुक्रम [४७५] ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [५], -------------- मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३५] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १८ कायस्थितिपदं ॥३८॥ दीप ज० अंतो० उको. असंखजं कालं जाव खेसओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं, पत्तेयसरीखादरव गफइकाइर णं भंते ! पुच्छा, गो०! जह. अंतो० उको सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो । निगोदे गं भंते । निगोएति केवञ्चिर होति ?, मो०! जह० अंतो. उकोसेणं. अर्णताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अड्डाइजा पोग्गलपरियट्टा, बादरनिगोदे णं भंते ! बादर० पुच्छा, गो.! जह• अंतो० उको सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो। बादरतसकाइया गं भंते ! बादरतसकाइयचि काल केवचिरं होई, गो! जह० अंतो. उको दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, एतेसिं चेव अपज्जत्तगा सवेवि जह० उको. अंतो०, बादरपजते णं भंते ! बादरपञ्जत्त० पुच्छा, गो० ! जह. अंतो० उको० सागरोवमसतपुहुचं सातिरंग, बादरपुढविकाइयपजचए णं भंते ! बादर पुच्छा, गो० जह० अंतो० उको संखिजाई वाससहस्साई, एवं आउकाइएवि, तेउकाइयपज्जत्तए णं भंते ! तेउकाइयपज० पुच्छा, गो० ज० अंतो० उक्को० संखिज्जाई राईदियाई, वाउकाइयवणस्सइकाइयपत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइते पुच्छा, गो! ज. अंतो० उ० संखेज्जाई वाससहस्साई, निगोयपजत्तते चादरनिगोदपजत्तए पुच्छा, गो! दोहवि ज. अन्तो० उको अंतो। बादरतसकाइयपज्जत्तए णं भंते। बादरतसकाइयपज्जत्तएत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गो० ज० अंतो० उ० सागरोवमसतपुडुत्तं सातिरेगं । दारं ४ (सूत्रं २३५) 'सुहुमे णं मंते !' इत्यादि 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मकायिको भदन्त ! सूक्ष्म इति सूक्ष्मत्वपर्यायविशिष्टः सन्नव्यवच्छेदेन का-18 eesersersesesesesecालय 20262902039302929829202ora अनुक्रम [४७६] ॥३८॥ ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [५], -------------- मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १२३५] दीप लतः कियधिरं भवति, भगवानाह-गौतम ! 'जहन्नेण'मित्यादि, एतदपि सूत्रं सांव्यवहारिकजीवविषयमवसातव्यं, अन्यथा उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालमिति यन्निर्वचनमुक्तं तन्नोपपद्यते, सूक्ष्म निगोदजीवानामसांव्यवहारिकराशिनिपति| तानाम नादितायाः प्रागुपपादितत्वात् , 'खेत्ततो असंखेजा लोगा' इति, असङ्ख्येयेषु लोकाकाशेपु प्रतिसमयमेकैकप्र| देशापहारे यावत्य उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्प्रमाणा असङ्ख्येया उत्सपिण्यवसर्पिण्य इत्यर्थः । सूक्ष्मवन स्पतिकायसूत्रमपि प्रागुक्तयुक्तिवशात् सांव्यवहारिकजीवविषयं व्याख्येयं । तथा सूक्ष्माः सामान्यतः पृथिवीकायि| कादिविशेषणविशिष्टाश्च पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च निरन्तरं भवन्तो जघन्यतः उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् न पर-18 मपि, ततस्तद्विषयसूत्रकदम्बके सर्वत्रापि जघन्यतः उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहुर्तमुक्तं, बादरसामान्यसूत्रे यदुक्तम् 'असंखेजकालं' तस्य विशेषनिरूपणार्थमाह-असङ्ख्यया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, इदं कालतः परिमाणमुक्तं, क्षेत्रत आह'अंगुलस्स असंखेज्जइभागों' इति, अङ्गलस्थासक्येयभागः, किमुक्तं भवति-अमुलस्थासङ्ख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशातेषां प्रतिसमयं एकैकप्रदेशापहारे यावन्त्योऽसङ्ख्यया उत्सपिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति, अथ कथं अङ्गुलासङ्घवेयभागमात्रस्यापि प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे असङ्खबेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो लगन्ति ?, उच्यते, क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् , उक्तं च-"सुहुमो य होइ कालो तत्तो सुहुमयरयं हवइ खिच"मित्यादि, [ सूक्ष्मश्च भवति कालस्ततः सूक्ष्मतरकं भवति क्षेत्रं ] एतच बादरवनस्पतिकायापेक्षयाऽवसातव्यं, अन्यस्य बादरस्यैतावत्का अनुक्रम [४७६] 9299 Cate.८८ ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [५], -------------- मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३६] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥३८॥ दीप यस्थितेरसम्भवात् , शेषसूत्राणि द्वारसमाप्तिं यावत् सुगमानि । गतं कायद्वारम् , इदानीं योगद्वारमभिधित्सुराह १८ कायसजोगी णं भंते ! सजोगित्ति काल०१, मो०! सजोगी दुविहे पं०, तं-अणादीए वा अपज्जवसिते अणादीए का स्थितिपदं सपज्जवसिते, मणजोगी णं भंते ! मणजोगीति कालतो., गो.ज. एक समयं उक्को अंतो०, एवं वइजोगीवि, कायजोगी णं भंते ! काल ?, गो! जहन्नेणं अंतो० उको० वणफइकालो, अजोगी गं भंते ! अजोगिति कालो केवचिरं होति ?, गो० ! सादीए अपञ्जवसिते । दारं ५ (सूत्र २३६) 'सजोगी णं भंते !' इत्यादि, योगाः-मनोवाकायच्यापाराः, योगा एषां सन्तीति योगिनः मनोवाकायाः सह योगिनो यस्ख येन वा स सयोगी, अत्र निर्वचनं 'सजोगी दुविहे पं.' इत्यादि, अनाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि । मोक्षं गन्ता स हि सर्वकालमवश्यमन्यतमेन योगेन सयोगी ततोऽनाद्यपर्यवसितो, यस्तु यास्यति मोक्षं सोऽनादिसपर्यवसितः, मुक्तिपर्यायप्रादुर्भावे योगस्य सर्वथापगमात् , मनोयोगिसूत्रे जघन्यतः एक समयमिति-यदा कश्चिदौदारिककाययोगेन प्रथमसमये मनोयोग्यान पुद्गलानादाय द्वितीयसमये मनस्त्वेन परिणमय्य मुञ्चति तृतीयसमये चोपरमते | | म्रियते वा तदा एकं समयं मनोयोगी लभ्यते, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, निरन्तरं मनोयोग्यपुद्गलानां ग्रहणनिसर्गों कुर्वन् ॥३८२॥ तत ऊ सोऽवश्यं जीवखाभाब्यादुपरमते, उपरम्य च भूयोऽपि ग्रहणनिसगौं करोति, परं कालसीक्ष्म्यात् कदा-1 चिन्न खसंवेदनपथमायाति, तत उत्कर्षतोऽपि मनोयोगोऽन्तर्मुहूर्तमेव, एवं 'वयजोगीवि' इति, एवं मनोयोगीय अनुक्रम [४७७] SARERainintamanna अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (५) “योग" आरब्धम् ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [५], -------------- मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३६] दीप वाग्योग्यपि वक्तव्यः, तद्यथा-'वइजोगी भंते ! वइजोगीति कालओ केवचिरं होति?, मो.! जह. एक समय। उको अंतोमुडुत्त'मिति तत्र यः प्रथमसमवे काययोगेन भाषायोग्यानि द्रव्याणि गृहाति द्वितीयसमये तानि |भाषात्वेन परिषमय्य मुञ्चति तृतीयसमये चोपरमते म्रियते वा स एकं समयं वाग्योगी लभ्यते, आह च मूलटीकाकास-पढमसमये कायजोगण गहियाणं भासादवाणं बिइयसमये वइजोगेण निसर्ग काऊय उवरमंतस्स मरंतस्स वा एगसमओ लम्मई' इति, अन्तर्मुहर्त निरन्तरं ग्रहणनिसगौं कुर्वन् तदनन्तरं चोपरमते, तथाजीव-11 खामाव्यात् , काययोगी जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति, इह द्वीन्द्रियादीनां वाग्योगोऽपि लभ्यते, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोयोगोऽपि ततो यदा वाग्योगो भवति मनोयोगो वा तदान काययोगप्राधान्यमिति सादिसपर्यवसितत्वभावात् जघन्यतोऽन्तर्मुहूचे काययोगी लभ्यते, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः, वनस्पतिकायिकेषु हि काययोग एव केवलो न वाग्योगो मनोयोगो बा, ततः शेषयोगासम्भवात्तेष्वाकायस्थितेः सततं काययोग इति मतं, || अयोगी च सिद्धः, स च साचपर्यवसित इत्खयोगी साद्यपर्यवसित उक्तः । गतं योगद्वारमिदानी वेदद्वार प्रतिपि-1 पादयिषुराह सवेदए णं भंते ! सवेदएचि०१, गो! सवेदए तिविधे ५०,तं.–अणादीए वा अपजवसिते अणादीए वा सपजवसिए सादीए वा सपञ्जवसिए, तस्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जह• अंतो उको० अर्णतं कालं अणंताओ उस्स अनुक्रम [४७७] SAREauratonintamational अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (६)- “वेद" आरब्धम् ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना प्रत सूत्रांक १८कायस्थितिपद [२३७] यवृत्ती. ॥३८॥ दीप प्पिणिओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो अबढे पोग्गलपरियट्टू देसूर्ण, इथिवेदे ण मंते ! इत्थिवेदेत्ति काल० ?, गो०! एगेणं आदेसेणं जह० एक समयं उको दसुत्तरै पलिओवभसतं पुडकोडिपुहुत्तमन्भहियं १, एमेणं आदेसेणं जह० एग समयं उको० अट्ठारसपलितोवमाई पुवकोडिपुहुत्तमभहियाई २, एगेणं आदेसेणं ज० एग समयं उको चउद्दस पलिओवमाई पुबकोडिपुत्तमम्महियाई ३, एमेणं आदेसेणं ज० एग समयं उको० पलिओवमसतं पुचकोडिपूहुत्तमभहियं ४, एगेर्ण आदेसेणं जह० एग समयं उको० पलितोवमपुहुत्तं पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियं ५, पुरिसवेदे णं भंते !२१, गो०! जह अंतो० उको० सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेग, नपुंसगवेए णं भंते ! नपुंसगवेदेति, पुच्छा, गो० ज० एगं समयं उको० वणस्सइकालो, अबेदए णं भंते ! अवेदएति पुच्छा, गो०! अवेदे दुविधे पं०, तं०-सादीए वा अपजबसिए साइए वा सपअवसिते, तत्थ णं जे से साइए सपजवसिते से जहण्ोणं एग समयं उको अंतो०। दारं ६ (सूत्र २३७) 'सवेदए णं मंते' इत्यादि, सह वेदो यस्य येन वा स सवेदकः, 'शेषाद्वेति कप्रत्ययः, स च त्रिविधः, तद्यथाअनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः उपशमश्रेणि क्षपक श्रेणि वा जातु-कदाचिदपि न प्राप्स्यति सोऽनाथपर्यवसितः, कदाचिदपि तस्य वेदोदयव्यवच्छेदासम्भवात् , यस्तु प्राप्स्यति उपशमश्रेणि क्षपकश्रेणिं वा सोऽनादिसपर्यवसितः, उपशमश्रेणिप्रतिपत्ती क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तौ वा वेदोदयव्यवच्छेदस्य भाबित्वात्, यस्तूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तत्र चावेदको भूत्वा भूय उपशमश्रेणीतः प्रतिपतन् सवेदको भवति स सादिसपर्यवसितः, अनुक्रम [४७८] 959200229202020928 ॥३८३॥ ~370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] सच जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह यदा कोऽपि उपशमश्रेणि उपपथ त्रिविधमपि वेदमुपशम| प्यावेदको भूत्वा पुनरपि श्रेणीतः प्रतिपतन् सवेदकत्वं प्राप्य झटित्युपशमश्रेणि कामपन्धिकाभिप्रायेण क्षपक श्रेणि वा प्रतिपद्यते प्रतिपद्य च वेदत्रयमुपशमयति क्षपयति वा अन्तर्मुहूर्तेन तदा जघन्येनान्तर्मुहूर्त सवेदकः उत्कर्षतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त देशोनं, अपगतमई यस्य सोऽपार्द्धः देशोनः-किञ्चिदूनः, उपशमश्रेणितो हि प्रतिपतित एतावन्तं कालं संसारे पर्यटति, ततो यथोक्तमुत्कर्षतः सादिसपर्यवसितस्य सवेदकस कालमानमुपपद्यते । स्त्रीवेदविषये च पश्चादेशास्त्रान् क्रमेण निरूपयति-'एगेणं आदेसेण'मित्यादि, तत्र सर्वत्रापि जघन्यतः समयमात्रभावनेयं-का-IN [चित् युवतिरुपशमश्रेण्यां वेदत्रयोपशमेनावेदकत्वमनुभूय ततः श्रेणेः प्रतिपतन्ती स्त्रीवेदोदयमेकसमयमनुभूय द्वितीयसमये कालं कृत्वा देवेपूत्पद्यते, तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव न स्त्रीत्वं तत एवं जघन्यतः समयमात्रं खीवेदः, उत्कचिन्तायामियं प्रथमादेशभावना-कश्चिजन्तु रीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पञ्चषान् भवान् अनुभूय ईशाने कल्पे पञ्चपञ्चाशत्प्रमाणपल्योपमोत्कृष्टस्थितिष्वपरिगृहीतासु देवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नस्ततः खायु:क्षये च्युत्वा भूयोऽपि नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये स्त्रीत्वेनोत्पन्नस्त तो भूयोऽपि द्वितीयं वारं ईशाने देवलोके पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नस्ततः परमवश्यं वेदान्तरमेव गच्छति, एवं दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते, अत्र पर आह-जनु यदि देवकुरूत्तरकुयों Poo90202000-202000 दीप अनुक्रम [४७८] ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [४७८] प्रज्ञापना-दिषु पल्योपमत्रयस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये समुपपद्यते ततोऽधिकाऽपि स्त्रीवेदस्य स्थितिरवाप्यते, ततः किमित्येता-8|१८ कायया मल- वत्येवोपदिष्टा , तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात् , तथाहि-इह तावद्देवीभ्यश्युत्वा असङ्खयेयवर्षायुष्कासु स्त्रीषु मध्ये स्थितिपदं यवृत्ती. नोत्पद्यते, देवयोनेश्श्युतानां असङ्ख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये उत्पादप्रतिषेधात्, नाप्यसङ्ख्येयवर्षायुष्का सती योषित ॥३८॥ उत्कृष्टासु देवीपु जायते, यत उक्तं मूलटीकाकृता-"जत्तो असंखेजवासाउया उक्कोसटिई न पायेई" इति, ततो यथोक्तप्रमाणवोत्कृष्टा स्थितिः स्त्रीवेदस्यावाप्यते, द्वितीयादेशवादिनः पुनरेवमाहुः-नारीषु तिरश्चीषु पाM | पूर्वकोव्यायुष्कासु मध्ये पञ्चपान् भवान् अनुभूय पूर्वप्रकारेणेशानदेवलोकेषु वारद्वयमुत्कृष्टस्थितिकासु देवीषु मध्ये उत्पद्यमाना नियमतः परिगृहीताखेवोत्पद्यते नापरिगृहीतासु ततस्तन्मतेनोत्कृष्टमवस्थानं स्त्रीवेदस्याष्टादश पल्योप-15 मानि पूर्वकोटिपृथक्त्वं च, तृतीयादेशवादिनां तु सौधर्मदेवलोके परिगृहीतासु ससपल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कासु वारद्वयं समुत्पद्यते, ततस्तन्मतेन चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि श्रीवेदस्य स्थितिः, चतुर्थादेश-| वादिनां तु मतेन सौधर्मदेवलोके पञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीष्वपि पूर्वप्रकारेण वारद्वयं देवीत्वेनोत्पद्यते, ततस्तन्मतेन पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकमवाप्यते, पञ्चमादेशवादिनः पुनरिदमाहुः-नाना-R॥३८॥ भवभ्रमणद्वारेण यदि स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चिन्त्यते तर्हि पल्योपमपृथक्त्वमेव पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते न ततोऽधिकं, कथमेतदिति चेत् १, उच्यते, नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाष्टमभये Recenesecest/ ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Sote प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [४७८] देवकुर्वादिषु त्रिपल्योपमस्थितिषु स्त्रीमध्ये स्त्रीत्वेन समुत्पद्यते, ततो मृत्वा सौधर्मे देवलोके जघन्यस्थितिकासु | देवीषु मध्ये देवीवेनोपजायते, तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमभिगच्छति इति, अमीषां पञ्चानामादेशानामन्यतमादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसम्पन्नैर्वा कर्तुं शक्यते, ते च भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ नासीरन् , केवलं तत्कालापेक्षया ये पूर्वतमाः सूरयस्तत्कालभाविग्रन्थपौर्वापर्यपर्यालोचनया यथाखमति स्त्रीवेदस्य स्थिति प्ररूपितवन्तस्तेषां सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवानार्यश्याम उपदिष्टवान् , तेऽपि च प्रावचनिकसूरयः खमतेन सूत्रं पठन्तो गौतमप्रश्नभगवनिर्वचनरूपतया पठन्ति, ततस्तदवस्थान्येव सूत्राणि लिखता गोतमा! इत्युक्तं, अन्यथा भगवति गीतमाय निर्देष्टरि न संशयकथनमुपपद्यते, भगवतः सकलसंशयातीतत्वात्, पुरुषवेदसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमिति, यदा कश्चिदन्यवेदेभ्यो जीवेभ्य उद्धृत्य पुरुषवेदेषूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त सर्वायुर्जीवित्वा गत्यन्तरे अन्यवेदेषु मध्ये समुत्पद्यते सदा पुरुषवेदस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमवस्थानं लभ्यते, उत्कृष्टमानं कण्ठ्यं [ग्रन्था १००००], नपुंसकवेदसूत्रे जघन्यतः एकः समयः खीवेदस्खेव भावनीयः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः, एतच्च सांव्यवहारिकजीवानधिकृत्य यदा चिन्ता क्रियते यदा त्वसांव्यवहारिकजीवानधिकृत्य चिन्ता |क्रियते तदा द्विविधा नपुंसकवेदादा, कांश्चिदधिकृत्यानाथपर्यवसाना, ये न जातुचिदपि सांव्यवहारिकराशी निप-18 प्रतिष्यन्ति, कांश्चिदधिकृत्य पुनरनादिसपर्यवसाना, ये असांव्यवहारिकराशेरवृत्य सांव्यवहारिकराशावागमिष्यन्ति, Secemccecloceae ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [], ------------- दारं [६], -------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] दीप प्रज्ञापना- अथ किमसांच्यवहारिकराशेरपि विनिर्गत्य सांव्यवहारिकराशावागच्छन्ति येनैवं प्ररूपणा क्रियते ?, उच्यते, आग त, आग- १८ काययाः मल-18च्छन्ति, कथमेतदवसेयमिति चेत् ?, उच्यते, पूर्वाचार्योपदेशात् , तथा चाह दुष्षमान्धकारनिमनजिनप्रवचनप्र-8 स्थितिपदं य.वृत्ची. दीपो भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-"सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासीओ। एंति अणाइवण॥३८५॥ |स्सहरासीओ तत्तिया तंमि ॥१॥" [सिध्यन्ति यावन्तः किल इह सांव्यवहारिकजीवराशेः। आयान्ति अनादिवन-% स्पतिराशितस्तावन्तस्तस्मिन् ॥१॥ अवेदको द्विधा-साद्यपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः क्षपकश्रेणिं प्रतिपद्यावेदको भवति स साद्यपर्यवसितः, क्षपकणेः प्रतिपातासम्भवात, यस्तुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यावेदको जायते स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनैकं समयं, कथमेकं समयमिति चेत् ?, उच्यते, यदा एकसमयमवेदको भूत्वा द्वितीयसमये पञ्चत्यमुपागच्छति तदा तस्मिन्नेव पञ्चत्वसमये देवेषुत्पन्नः पुरुषवेदोदयेन सवेदको भवति, तत एवं जघन्यत एक समयमवेदकः, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, परतोऽवश्यं श्रेणीतः प्रतिपाते वेदोदयसद्भावात् इति । गतं वेदद्वारमिदानीं कषायद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् सकसाई णं भंते ! सकसादिति काल०१, गो! सकसाती तिविधे पं०, तं--अणादीए वा अपज्जवसिते अणादीए ॥३८५॥ वा सपञ्जवसिते सादीए वा सपञ्जवसिते जाव अवर्ल्ड पोग्गलपरियÉ देसूर्ण, कोहकसाई णं भंते ! पुच्छा, गो.! जह उक्को अंतोमुहुत्तं, एवं जाव माणमायकसाती, लोभकसाई णं भंते ! लोभ पुच्छा, गो० ! जह. एकं समयं उक्को. 2989999039season अनुक्रम [४७८] अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (७) "कषाय" आरब्धम् ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३८] दीप अनुक्रम [४७९] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१८], -------------- • उद्देशक: [-], ------------ • दारं [७], • मूलं [२३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः अंतोसु॰, अकसाई णं भंते ! अकसादिति काल० १, गो० ! अकसादी दुविहे पं० तं०-सादीए वा अपज्जवसिते सादीए वा सपज्जवसिते, तस्थ णं जे से सादीए सपजवलिते से जह० एवं समयं उको० अंतो० । दारं ७ | (सूत्रं २३८ ) 'सकसाई णं भंते !' इत्यादि, सह कपायो येषां यैव ते सकपाया - जीवपरिणामविशेषास्ते विद्यन्ते यस्य स सकपायी, इदं सकलमपि सूत्रं सवेदसूत्रवदविशेषेण भावनीयं समानभावेनोक्तत्वात्, 'कोहकसाई णं भंते!' इत्यादि, जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त इति उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमिति — क्रोधकपायोपयोगस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणत्वात् तथाजीव स्वाभाव्यात्, इदं च सूत्रचतुष्टयमपि विशिष्टोपयोगापेक्षमिति, लोभकषायी जघन्येनैकं समयमिति, यदा कश्चिदुपशमक उपशमश्रेणिपर्यवसाने उपशान्तवीतरागो भूत्वा श्रेणीतः प्रतिपतन् लोभाणुप्रथमसमयसंवेदनकाल एव कालं कृत्वा देवलोकेषूत्पद्यते, तत्र चोत्पन्नः सन् क्रोधकपायी मानकषायी मायाकपायी वा भवति तदा एकं समयं लोभकपायी लभ्यते, अथैवं क्रोधादिष्वप्येकसमयता कस्मान्न लभ्यते १, उच्यते, तथाखाभाव्यात्, तथाहि श्रेणीतः प्रतिपतन् मायाणुवेदनप्रथमसमये मानाणुवेदनप्रथमसमये क्रोधाणुवेदनप्रथमसमये वा यदि कालं करोति कालं च कृत्वा देवलोकेषूत्पद्यते तथापि तथास्वाभान्यात् येन कपायोदयेन कालं कृतवान् तमेव कषायोदयं तत्रापि गतः सनन्तर्मुहूर्त्तमनुवर्त्तयति, एतचावसीयते अधिकृतसूत्रप्रामाण्यात्, ततोऽनेकसमयता क्रोधा|दिष्विति । अकषायसूत्रं वेदसूत्रमिव भावनीयं । गतं कषायद्वारमधुना लेश्याद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् - Education Internationa अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (८) "कषाय" आरब्धम् For Parts Only ~ 375~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [८], -------------- मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलय.वृत्ती. [२३९] दीप सलेसे णं भंते ! सलेसेचि पुच्छा, गो! सलेसे दुविधे पं०, ०–अणादीए या अपज्जवसिते अणादीए वा सपज्जव- १८ कायसिते, कण्हलेसे गंभंते ! कण्हलेसेत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गो० ! जह• अंतो० उक्को० तेत्तीसं सागरोचमाई अंतो- स्थितिपदं मुहुत्तमब्भहियाई, नीललेसे णं भंते ! नीललेसेति पुच्छा, गो० ! जह• अंतो० उको० दस सागरोवमाई पलितोत्रमासंखिज्जइभागमभहियाई, काउलेसे गं पुच्छा, गो० ! जह• अंतो० उको तिण्णि सागरोवमाई पलितोवमासंखिजतिभागमभहियाई, तेउलेसे णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतोमुहुचं उक्को दो सागरोक्माई पलितोवमासंखिञ्जतिभागमभहियाई, पम्हलेसे णं पुच्छा, गो.जह अंतो उको दस सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई, सुकलेसे णं पुच्छा०, गो० ! जह• अंतो० उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, अलेसे गं पुच्छा, गो! सादीए अपज्जवसिते । दारं ८ (सूत्र २३९) 'सलेसे णं भंते' इत्यादि, सह लेश्या यस्य येन वा स सलेश्यः, स द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनादिरपर्यवसितो. यो न जातुचिदपि संसारव्यवच्छेदं कर्ता अनादिसपर्यवसितो यः संसारपारगामी, 'कपहलेसे णं भंते ! इत्यादि, इह तिरश्था मनुष्याणां च लेश्याद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्तिकानि, ततः परमवश्यं लेश्यान्तरपरिणाम भजन्ते, देवनेरयिकाणां ॥३८॥ तु पूर्वभवचरमान्तर्मुहूर्त्तादारभ्य परभवाद्यमन्तर्मुहूर्त यावत् अवस्थितानि ततः सर्वत्र जघन्यमन्तर्मुहूर्त तिर्यग्मनुष्याअपेक्षया द्रष्टव्यमुत्कृष्टं देवनैरयिकापेक्षया, तच्च विचित्रमिति भाव्यते, तत्र यदुक्तं-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मु अनुक्रम [४८०] 2993020302003003013 RELIGunintentiational अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (0) "लेश्या" आरब्धम् ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३९ ] दीप अनुक्रम [४८०] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१८], -------------- • उद्देशक: [-], ------------ • दारं [८], • मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः |हूर्त्ताभ्यधिकानीति तत्सप्तमनरक पृथिव्यपेक्षया द्रष्टव्यं तत्रत्या हि नैरयिकाः कृष्णलेश्याकाः, तेषां च स्थितिरुत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, यत्तु पूर्वोत्तरभवगते यथाक्रमं चरमाद्ये अन्तर्मुहूर्त्ते ते द्वे अप्येकं, अन्तर्मुहूर्त्तस्यासङ्ख्यात भेदभिन्नत्वात्, तथा चान्यत्राप्युक्तम् - "मुहुत्तद्धं तु जहन्ना तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायवा कण्हलेसा ॥ १॥ [ मुहूर्त्तार्थं तु जघन्या त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा । मुहर्त्ताधिका भवति स्थितिः कृष्णलेश्यायाः ॥ १ ॥ ] अत्र 'मुहुत्तहिया' इति चूर्णिकृता व्याख्यातमन्तर्मुहूर्त्ताधिकेति, नीललेश्यासूत्रे यानि दश सागरोपमाणि | पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिकान्युक्तानि तानि पञ्चमपृथिव्यपेक्षया वेदितव्यानि तत्र हि प्रथमप्रस्तटे नीललेश्या 'पंचमियाए मीसा' [पञ्चम्यां मिश्रा ] इति वचनात् तस्मिंश्च प्रथमप्रस्तटे स्थितिरुत्कर्षत एतावती, ये तु पूर्वोत्तरभवगते अन्तर्मुहूर्चे ते पल्योपमासङ्ख्येयभागे एवान्तर्गते इति न पृथग्विवक्षिते, एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यं कापोतलेश्यासूत्रे त्रीणि सागरोपमाणि पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिकानि तृतीयनरकपृथिव्यपेक्षयाऽवसातव्यानि तृतीयपृथिव्यामपि प्रथमप्रस्तटे कापोतलेश्याया भावात्, 'तईयाए मीसिया' [ तृतीयस्यां मिश्रा ] इति वचनात् तत्र चोत्कृष्टस्थितेरे तावत्याः सम्भवात्, तेजोलेश्या सूत्रे द्वे सागरोपमे पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिके ईशान देवलोक देवापेक्षया वेदितव्ये, ते हि तेजोलेश्याका उत्कर्षत एतावतुस्थितिकाः, पद्मलेश्यासूत्रे दश सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधि| कानि ब्रह्मलोकापेक्षया भावनीयानि, तत्र हि देवानां स्थितिरुत्कृष्टा दश सागरोपमाणि लेश्या च पद्मलेश्या, ये च For Penal Use On ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [४८०] पदं [१८], -------------- • उद्देशक: [-], ------------- • दारं [८], • मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥३८७॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पूर्वोत्तरभवगते अन्तर्मुहूर्त्त ते किलैकमन्तर्मुहूर्त्तमिति अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानीत्युक्तं, शुक्कलेश्यासूत्रे त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि अनुत्तरसुरापेक्षया, तेषामुत्कर्षतः स्थितेः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वात्, अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकत्व भावना च प्राग्वत्, अलेश्यः -- अयोगिकेवली सिद्धश्व, ततो न तस्यामप्यवस्थायामलेश्यत्वव्या घात इति साद्यपर्यवसितः । गतं लेश्याद्वारम् इदानीं सम्यक्त्वद्वारं तत्रेदमादिसूत्रम् - Education Internation सम्मदिट्ठी णं भंते ! सम्मदि० काल० १, गो० ! सम्मद्दिट्टी दुविहे पं० तं० – सादीए वा अपजवसिते सादीए वा सपअवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपअवसिते से जह० अंतो० उको० छावहिं सागरोबमाई साइरेगाई, मिच्छादिट्ठी णं भंते! पुच्छा०, गो० ! मिच्छादिट्टी तिविधे पं० तं० - अणाइए अपञ्जवसिए वा अणादीए वा सपजवसिए सादीए वा सपजबसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जह० अंतो० उको० अनंतं कालं अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अवङ्कं पोग्गलपरियहं देसूणं, सम्मामिच्छादिट्ठी णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० को ० तो ० । दारं ९ । (सूत्रं २४० ) 'सम्मद्दिट्ठी णं भंते!' इत्यादि, सम्यग् - अविपर्यस्ता दृष्टिः - जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः, स चान्तरकरणकालभाबिना औपशमिकसम्यक्त्वेन सासादनसम्यक्त्वेन विशुद्धदर्शन मोहपुओदयसम्भविक्षायोपश- मिकसम्यक्त्वेन सकलदर्शनमोहनीयक्षयसमुत्थक्षायिक सम्यक्त्वेन वा द्रष्टव्यो, निर्वचनं सम्यग्दृष्टिर्द्विविधः प्रज्ञतः, अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (९)- "सम्यक्त्व" आरब्धम् For Parts Only ~378~ १८ काय स्थितिपदं ॥३८७॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [], ------------- दारं [९], -------------- मूलं [२४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०] दीप । तद्यथा-'साधपर्ववसितः एष क्षायिक सम्यक्त्वे उत्पादिते सति वेदितव्यः, तस्य प्रतिपाताभावात् , 'सादिसपशायेवसितः' एष क्षायोपशमिकादिसम्यक्त्वापेक्षया, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितः सम्यग्रष्टिः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, I परतो मिथ्यात्वगमनात् , उत्कर्षतः षट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तत्र यदि वारद्वयं विजयादिषु चतुःप्र-IN तिपतितसम्यक्त्व उत्कृष्टस्थितिको देव उत्पद्यते बलात्रयं पाऽच्युतदेवलोके ततो देवभबैरेष षट्षष्टिः सागरोपमाणि परिपूर्णानि भवन्ति, ये तु मनुष्यभवाः सम्यक्त्वसहितास्तेऽधिका इति तैः सातिरेकाणीति, उक्तं च-"दो बारे विजयाइसु गयस्स तिन्निऽशुए अहव ताई। अइरेग नरभवियं" इति [द्वे वारे विजयादिपु गतस्य तिस्रो वारा अच्युतेISऽथवा तानि । अतिरेकं नरभविकं] 'मिच्छादिट्ठीणं भंते!' इत्यादि, मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः-जीवारदिवस्तुतत्त्वप्ररातिपत्तिर्यस्य भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तियत् स मिथ्यारष्टिः, ननु मिथ्याष्टिरपि कश्चिद् भक्ष्य भक्ष्यतया जानाति पेयं पेयतया मनुष्यं मनुष्यतया पशुं पशुतया ततः स कथं मिथ्याष्टिः १, उच्यते, भगवति सर्वज्ञे तस्य [प्रत्ययाभावात् , इह हि भगवदहेत्प्रणीतं सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गतमेकमप्यक्षरं न रोच-18 [यति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सबैज्ञे प्रत्ययनाशतः, उक्तं च-"सूत्रोक्तस्सैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यारष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" किं पुनः शेषो भगवदहेंदभिहितं यथावद् जीवाजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिविकलः, ननु सकलप्रवचनार्थाभिरोचनात् तद्गतकतिपयार्थानां चारोचना अनुक्रम [४८१] Seserseeeeeee ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [], ------------- दारं [९], -------------- मूलं [२४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०] प्रज्ञापना- याः मल- य. वृत्ती. ॥३८८॥ दीप देष न्यायतः सम्यग्मिध्यारष्टिरेव भवितुमर्हति कथं मिथ्याष्टिः ?, तदसत् , वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, इह यदा १८ कायसकलं वस्तु जिनप्रणीततया सम्यक् श्रद्धते तदानीमसौ सम्यग्दृष्टियंदा त्वेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा मतिदौर्व- स्थितिपर्द |ल्यादिना एकान्तेन सम्यकपरिज्ञानमिध्यापरिज्ञानाभावतो न सम्यकश्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः तदा सम्य-10 मिथ्यादृष्टिः, उक्तं च शतकबृहचूणों-"जहा नालिकेरीदीववासिस्स खुहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स पुरिसस्स ओयणाइए अणेगविहे ढोइए तस्स आहारस्स उवरिं न रुई न य निंदा, जेण तेण सो ओयणाइओ आहारो ण कयाइ दिवो नावि सुओ, एवं सम्मामिच्छद्दिहिस्सवि जीवाइपयत्थाणं उवरिं न य रुई नावि निंद"त्ति, यदा पुनरे-18 कस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा एकान्ततो विप्रतिपद्यते तदा मिथ्यादृष्टिरेवेत्यदोषः, स च त्रिविधः, तद्यथा-अनाचपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः कदाचनापि सम्यक्त्वं नावाप्स्यति सोऽनाथपर्यव-18|| सितः, यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु सम्यक्त्वमासाद्य भूयोऽपि मिथ्यात्वं याति स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहुर्त, तदनन्तरं कस्यापि भूयः सम्यक्त्वावाः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं द्विधा प्ररूपयति-कालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्यावत् , क्षेत्रतोऽपाद्धेपुद्गलपरापते । देशोनं, अत्र क्षेत्रत इति निर्देशात् क्षेत्रपुरलपरावतः परिग्राह्यो, नतु द्रव्यपुगलपरावदियः, एवं पूर्वोत्तरत्रापि च । भावनीयं, 'सम्मामिच्छादिट्ठी 'मित्यादि, सम्यग्मिथ्या दृष्टियस्यासी सम्यग्मिध्यादृष्टिः स जघन्यत उत्कर्षतो अनुक्रम [४८१] For P OW ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [९], -------------- मूलं [२४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०] दीप वा अन्तर्मुहूर्त, परतोऽवश्यं तत्परिणामविध्वंसात् , तथा जीवखाभाब्यात् । गतं सम्यक्त्वद्वारमिदानी ज्ञानद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् णाणी गं भंते ! णाणित्ति काल०, गो०! णाणी दुविधे पं०,०-सातीते वा अपञ्जवसिते साइए वा सपञ्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जहण्णेणं अंतो० उको छावढि सागरोवमाई साइरेगाई, आभिनिवोहियणाणी णं पुच्छा, गो०! एवं चेव, एवं सुयणाणीवि, ओहिनाणीवि एवं चेव, नवरं जहण्णेणं एग समयं, मणपजवणाणी णं भंते ! [पुच्छा] मणपज्जवणाणिचि कालतो०, गो०!जह एग समय उको० देसूणा पुषकोडी, केवलणाणी णं पुच्छा, गो! सातिए अपञ्जवसिते । अण्णाणी मतिअण्णाणी मुतअण्णाणी पुच्छा, गो०! अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी विविधे पं०, तं०-अणाइए वा अपजवसिए अणादीए वा सपञ्जवसिते सादीए वा सपञ्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जह० अंतो० उको० अणतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेतओ अवडपोग्गलपरियडू देसूर्ण, विमंगणाणी णं भंते ! पुच्छा, गो०! जहण्णेणं एग समयं उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाते पुचकोडीते अब्भहिताई । दारं १० ॥ (सूत्रं २४१) । 'नाणी णं भंते' इत्यादि, ज्ञानमस्यास्तीति 'अतोऽनेकखरा दितीन् , स द्विधा साद्यपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र केवलज्ञानापेक्षया सायपर्यवसितः, प्रतिपाताभावात् , शेषज्ञानापेक्षया सादिसर्पयवसितः, शेपज्ञानानां प्रतिनि अनुक्रम [४८१] Receclaces अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (१०) "ज्ञान" आरब्धम् ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [४८२] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [१८], ------ उद्देशकः [-], ---दारं [१०], ------------: मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः य० वृत्ती. 8 ॥ १८९॥ प्रज्ञापना- ४यतकालभाषित्वात्, स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, परतो मिध्यात्वगमनेन ज्ञानपरिणामापगमात्, उत्कर्षतः षट्षष्टिसागया मल रोमाणि सातिरेकाणि यावत्, तानि सम्यग्दृष्टेरिव भावनीयानि, सम्यग्दृष्टेरेव ज्ञानित्वात्, आभिनिवोधिकज्ञानि सूत्रे 'एवं चेव'त्ति यथा सामान्यतो ज्ञानी सादिसपर्यवसितो जघन्यत उत्कर्षतथोक्तस्तथाऽऽभिनिवोधिकज्ञान्यपि । वक्तव्यः, स चैवं- 'जह० अंतो० उको० छावडी सागरोवमाई सातिरेगाई' एवं श्रुतज्ञान्यपि, अवधिज्ञान्यप्येवं, नवरं स जघन्यत एकं समयं वक्तव्यः, कथमेकसमयताऽवधिज्ञानस्येति चेत् ?, उच्यते, इह तिर्यक्पञ्चेन्द्रियो मनुप्यो देवो वा विभङ्गज्ञानी सन् सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, तस्य च सम्यक्त्यप्रतिपत्तिसमये एव सम्यक्त्वभावतो विभङ्गज्ञानमवधिज्ञानं जातं, तच यदा देवस्थ व्यवनेन मरणेनान्यस्यान्यथा वाऽनन्तरसमये प्रतिपतति तदा भवत्यवधिज्ञानस्यैकसमयता, उत्कर्षतः सातिरेकाणि षट्षष्टिं सागरोपमाणि यावत्, तानि चाप्रतिपतितावधिज्ञानस्य वारद्वयं | विजयादिषु गमनेन वारत्रयमच्युतदेवलोकगमनेन वा वेदितव्यानि मनः पर्यवज्ञानिन एकसमयता संयतस्याश्रमताद्धायां वर्त्तमानस्य मनःपर्यायज्ञानमुत्पाद्यानन्तरसमये कालं कुर्वतो भावनीया, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, तत ऊर्द्ध संयमाभावेन मनः पर्यवज्ञानस्याप्यभावात्, केवलज्ञानी साद्यसपर्यवसितः, प्रतिपाताभावात् । अज्ञानी त्रिविधः, तद्यथा - अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च तत्र यस्य कदाचनापि ज्ञानलाभो न भावी सोऽनाद्यपर्यवसितो, यस्तु ज्ञानमासादयिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यः पुनर्ज्ञानमासाद्य भूयो मिथ्यात्वगमनेनाज्ञानि Educatin internationa For Penal Use Only ~382~ १८ काय स्थितिपदं ॥३८९॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [४८२] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - पदं [१८], ----------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [१०], --------- - मूलं [ २४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः त्वमधिगच्छति स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त, परतः सम्यक्त्वस्यासादनेनाज्ञानित्व परिणामापगमसम्भवात् उत्कर्षतोऽनन्तं कालमित्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्द्धमवश्यं सम्यक्त्वावामेरज्ञानित्वापगमात् एवं मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी च त्रिविधो भावनीयः, विभङ्गज्ञानी जघन्यत एकं समयं कथमिति चेत् ?, उच्यते, कश्चित्तिर्यक्पचेन्द्रियो मनुष्यो देवो वा सम्यग्दृष्टित्यादवधिज्ञानी सन् मिध्यात्वं गतस्तस्मिंश्च मिथ्यात्वप्रतिपत्तिसमये मिथ्यात्वप्रभावतोऽवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानीभूतं, “आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तमिति वचनात् ततोऽनन्तरसमये देवस्य ध्ययनेनान्यस्य मरणेनान्यथा वा तद्विभङ्गज्ञानं परिपतति, तत एवमेकसमयता विभङ्गज्ञानस्य, उत्कर्षतस्त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनपूर्वको व्यभ्यधिकानि, तथाहि —- यदि कश्चिन्मिथ्यादृष्टिस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा पूर्वको व्यायुः कतिपयवर्षातिक्रमे विभङ्गज्ञानी जायते, जातश्च सन्नप्रतिपतितविभङ्गज्ञान एवाविग्रहगत्या सप्तमनरकपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिको नैरयिको जायते तदा भवति यथोक्तमुत्कृष्टं मानं, तत ऊर्द्ध तु सम्यक्त्वप्रतिपत्त्याऽवधिज्ञानभावतः सर्वथाऽपगमाद्वा तद्विभङ्गज्ञानमपगच्छति । गतं ज्ञानद्वारम् इदानीं दर्शनहारं, तत्रेदमादिसूत्रम् - Education Internati चक्खुदंसणी णं भंते! पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं, अचक्खुदंसणी णं भंते ! अचखुदंसणित्ति काल०, गो० ! अचक्खुदंसणी दुविहे पं० तं० - अशादीए वा अपअवसिते अणादीए वा सपजबसिए, अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (११)- "दर्शन" आरब्धम् For Parts Only ~383~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [११], -------------- मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १८ काय प्रत सूत्रांक [२४२] प्रज्ञापनायामलयवृत्ती. ॥३९॥ दीप ओहिदसणी णं पुच्छा, गो.! जह० एगं समयं उको दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं साइरेगाओ, केवलदसणी गं पुच्छा, गो! सातीए अपञ्जवसिते ।। दारं ११। (२४२) स्थितिपद 'चक्खुर्दसणी णं भंते !' इत्यादि, इह यदा त्रीन्द्रिया दिश्चतुरिन्द्रियादिषूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि त्रीन्द्रियादिषु मध्ये उत्पद्यते तदा चक्षुर्दर्शनी अन्तर्मुहूर्त लभ्यते, उत्कर्पतः सातिरेक सागरोपमसहसं, तचतुरिन्द्रियतिर्यपश्चेन्द्रियनैरयिकादिभवभ्रमणेनावसातव्यम् , अचक्षुर्दर्शनी अनाद्यपर्यवसितो यो कदाचिदपि न सिद्धिभावमधिगमिष्यति, यस्त्वधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः, तथा तिर्यक्पञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा तथाविधाध्यवसायादवधि-IN दर्शनमुत्पाद्यानन्तरसमये यदि कालं करोति तदाऽवधिदर्शनं प्रतिपतति, तदाऽवधिदर्शनिन एकसमयता, उत्कर्षतो|ऽवधिदर्शनी द्विषट्पष्टी सागरोपमाणि सातिरेकाणि, कथमिति चेत् !, उच्यते, इह कश्चिद्विभङ्गज्ञानी तिर्यपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वाऽप्रतिपतितविभङ्गज्ञान एवाविग्रहगयाऽधःसप्तमनरकपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रयिको जातः, तत्र चोद्वर्तनाप्रत्यासत्तिकाले सम्यक्त्वमुत्पाद्य ततः परिभ्रष्टस्ततोऽप्रतिपतितेन विभङ्गज्ञानेन पूर्वकोट्यायुकेषु तिर्य-18 पञ्चेन्द्रियेषु समुत्पन्नस्तत्र च परिपूर्ण खायुः प्रतिपाल्य पुनरप्रतिपतितविभङ्ग एवाधःसप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरो- ३९०॥ पमस्थितिको नैरयिको जातस्तत्रापि चोवृत्तिप्रत्यासत्तौ सम्यक्त्वमासाद्य परित्यजति, ततो भूयोऽप्यप्रतिपतितविभङ्ग एव पूर्वकोव्यायुष्केषु तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु जातस्तदेवमेका षट्षष्टिः सागरोपमाणामभून् , सर्वत्र च तिर्यवत्पद्यमानो अनुक्रम [४८३] ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [११], -------------- मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] |ऽविग्रहेणोत्पद्यते, विग्रहे विभङ्गस्य तिर्यक्षु मनुष्येषु च निषेधात्, यद्वक्ष्यति-"विभंगनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा आहारगाणो अणाहारगा" इति, आह-किं सम्यक्त्वमेयोऽपान्तराले प्रतिपाद्यते, उच्यते, इह विभङ्गस्य स्थितिरुत्कर्षतोऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकानि, तथा चोक्तं प्राक्-"विभंगणाणी जह एग समयं उको तेत्तीस सागरोवमाई देसूणाए पुखकोडीए अमहियाई" इति, तत एतावन्तं कालमविच्छेदेन विभङ्गस्याप्राप्यमाणत्वात् अपान्तराले सम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते, ततोऽप्रतिपतितविभङ्ग एव मनुष्यत्वमवाप्प संयम पालयित्वा द्वौ वारी विजयादिपूत्पद्यमानस्य द्वितीया पट्रपष्टिः सागरोपमाणां सम्यग्रष्टेर्भवति, एवं द्वे पट्टषष्टी सागरोपमाणामवधिदर्शनस्वं, अथ विभावस्थायामवधिदर्शनं कर्मप्रकृत्यादिषु प्रतिषिद्धं ततः कथमिह विभङ्गे । तद्भाव्यते ?, नैष दोषः, सूत्रे विभङ्गेऽप्यवधिदर्शनस्य प्रतिपादितत्वात् , तथा खयं सूत्राभिप्रायः-विशेषषि पयं विभ ज्ञानं सामान्यविषयमवधिदर्शनं, यथा सम्यग्दृष्टेः विशेषविषयमवधिज्ञानं सामान्यविषयमवधिदर्शनमुच्यते केवलं विभङ्गज्ञानिनोप्यवधिदर्शनमनाकारमात्रत्वेनाविशिष्टत्वात् अवधिज्ञानिनोऽवधिदर्शनतुल्यमिति तदप्यवधिदर्शनमुच्यते, न विभङ्गदर्शन मिति, आह च मूलटीकाकारोऽप्येतद्भावनायाम्-"दसणं च विभंगोहीणं जतो तुलमेव, अतो चेव दो छावट्ठीओ साइरेगाओ' इति, ततोऽस्माभिरपि विमलेऽवधिदर्शनं भावितं, कार्मग्रन्थिकाः पुनराहु:यद्यपि साकारतरविशेषभावेन विभङ्गज्ञानमवधिदर्शनं च पृथगस्ति तथापि न सम्यग्निश्चयो विभङ्गज्ञानेन, मिथ्यात्व eesemesticelese दीप अनुक्रम [४८३] ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [११], -------------- मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] प्रज्ञापना-18|रूपत्वात् नाप्यवधिदर्शनेन तस्यानाकारमात्रत्वादतः किं तेन पृथग्विवक्षितेनापीति तदभिप्रायेण न विभङ्गावस्था- १८ काय यामवधिदर्शनं, न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, पूर्वसूरिभिरप्येवं मतविभागस्य व्यवस्थापितत्वात् , उक्तं च विशे-8 स्थितिपद य. वृत्ती. पणवत्यां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादैः–“सुत्ते विभंगस्सवि परूवियं ओहिदंसणं बहुसो । कीस पुणो पडि॥३९॥ सिद्धं कम्मष्पगडीपगरणंमि ॥१॥ विमंगेवि दरिसणं सामण्णविसेसविसयओ सुत्ते । तं चऽविसिट्ठमणागारमेत्तं तोऽवहिविभंगाणं ॥२॥ कम्मपगडीमयं पुण सागारेयरविसेसमावेवि । न विभंगनाणदंसणविसेसणमणिच्छयत्तणओ ॥३॥” इति, [ सूत्रे विभङ्गस्यापि प्ररूपितमवधिदर्शनं बहुशः । कथं पुनः प्रतिषिद्धं कर्मप्रकृतिप्रकरणे ॥१॥ विभङ्गेऽपि दर्शनं सामान्यविशेषविषयतः सूत्रे । तचाविशिष्टमनाकारमात्रं ततोऽवधिविभङ्गयोः ॥२॥ कर्मप्रकृतिमतं पुनः साकारतरविशेषभावेऽपि।न विभङ्गज्ञानदर्शनविशेषोऽनिश्चयत्वात् ॥३॥] अन्ये तु व्याचक्षते-किं सप्तमनरकपृथिवीनिवासिनारककल्पनया ?, सामान्येनैव नारकतिर्यग्नरामरभवेषु पर्यटतः खलवधिविभङ्गो एतावन्तं कालं भवतस्तत ऊर्द्धमपवर्ग इति । केवलदर्शनिनः सूत्रं केवलज्ञानिनः सूत्रबद्भावनीयं,। गतं दर्शनद्वारम् , इदानीं संयतद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् XI||३९१॥ संजए णं भंते ! संजतेत्ति पुच्छा, गो० ज० एग समयं उको देसूर्ण पुवकोडिं, असंजते ण भंते ! असंजएति, पुच्छा, गो! असंजते तिविधे पं०, तं०-अणातीए वा अपञ्जवसिते अणातीए वा सपजवसिते सातीए वा सपञ्जव हरिहर दीप अनुक्रम [४८३] aeyser02929592200000 2290008 अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारे (१२ एवं १३)- "संयत एवं उपयोग" आरब्धे ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१२,१३], -------------- मूलं [२४३-२४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३२४४] seeeeeeeeera दीप सिते, तत्थ णं जे से सावीए सपञ्जवसिते से जह. अं० उक्को. अणं० अर्णताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालओ खेत्ततो अवडं पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण , संजतासंजते णं पुच्छा, गो० जह० अंतो उको० देसूर्ण पुचकोडिं, नोसंजतेनोअसंजतेनोसंजतासंजते णं पुण्छा, गो! सादीए अपञ्जवसिते । दारं १२ (सूत्र २४३) सागारोवओगोवउने गं भंते ! पुच्छा , गो.! जह० उ० अं० । अणागारोवउत्तेवि, एवं चेव । दारं १३ (सूत्र २४४) 'संजए णं भते' इत्यादि, जघन्यत एकसमयता संयतस्य चारित्रपरिणामसमय एव कस्यापि कालकरणात् , | असंयतस्तु विधा-अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः संयमं कदाचनापि न प्राप्स्यति | | सोऽनावपर्यवसितो, यस्तु प्राप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितो, यस्तु संयमं प्राप्य ततः परिभ्रष्टः स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, ततः परं कस्यापि पुनरपि संयमप्रतिपत्तिभावात् , उत्कर्पतोऽनन्त कालमित्यादि प्राग्वत् |तत ऊर्द्धमवश्यं संयमप्राप्तिः, संयतासंयतो-देशविरतः, स च जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त देशविरतिप्रतिपत्त्युपयोगस्य, जघन्यतोऽप्यान्तमौहूर्तिकत्वात् , देशविरतिर्हि द्विविधत्रिविधादिभङ्गबहुला ततस्तत्प्रतिपत्तो जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त लगति, सर्वविरतिस्तु सर्व सावधमहं न करोमीत्येघरूपा ततस्तत्प्रतिपत्त्युपयोग एकसामयिकोऽपि भवतीति प्राक् संयतस्य एकसमयतोक्का, यस्तु न संयतो नाप्यसंयतो नापि संयतासंयतः स सिद्ध इति साद्यपर्यवसित इति । गत संयतद्वारम्, इदानीमुपयोगद्वारं, तत्रेदमादिसत्रम्-'सागारोवओगोवउत्ते णं भंते !' इत्यादि, इह संसारिणामुप अनुक्रम [४८४ -४८५] For P OW ~387~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [१४], -------------- मूलं [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - REP प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. १८ कायस्थितिपदं प्रत सूत्रांक [२४५] ॥३९॥ योगः साकारोऽनाकारो वा, जघन्यतोऽप्यान्तर्मुहूर्तिकः उत्कर्षतोऽपि, ततः सूत्रद्वयेऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्त- मुहूर्त्तमुक्तं, यस्तु केवलिनामुक्तः एकसामयिक उपयोगः स इह न विवक्षित इति । गतं उपयोगद्वारं, इदानीमा- हारद्वार, तत्रेदमादिसूत्रम् आहारए ण भंते ! पुरछा, गो! आहारए दुविधे०५०,०-छउमस्थआहारए य केवलिआहारए य, छउमत्थआहारए णं भंते । छउमत्थाहारएत्ति काल०१, गो० ज० खुट्टागभवग्गहणं दुसमयऊणं उको० असंखेनं कालं असंखेआओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो अंगुलस्स असंखेजतिभागं, केवलिआहारए णं भंते ! केवलिआहारपति कालतो०१, गो.! जह० अंतो० उ० देमूणं पुब० । अणाहारए णं भंते ! अणाहारएत्ति०१, गो ! अणाहारए दु. पं०, तं०-छउमत्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य, छउमत्थअणाहारए णं भंते ! पुच्छा, गो०जह एगं समयं उको दो समया, केवलिअणाहारए णं भंते । केवलि०, गो०! केवलिअणाहारए दुविधे पं०, तं०-सिद्धकेवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य, सिद्धकेवलिअणाहारए णं पुच्छा, गो.! सादीए अपञ्जवसिए, भवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते । पुच्छा, गो.! भवत्थकेवलिअणाहारए दुविधे पं०, तं०-सजोगिभवत्थकेयलिअणाहारए अजोगिभवत्थकेव लिअणाहारए य, सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते ! पुच्छा, गो! अजहण्णमणुकोसेणं तिणि समया, अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं पुच्छा, गो! जह० उको. अंतो० । दारं १४ । (सूत्र २४५) दीप अनुक्रम [४८६] ||३९२॥ For P OW अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वारम् (१४) "आहार" आरब्धम् ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [१४], -------------- मूलं [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक २४५] दीप ASI 'आहारगे गं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमऊण'मिति इह यद्यपि चतुःसाम-13 यिकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिर्भवति, आह च-"उजुया य एगवंका, दुहतोवंका गती विणिदिहा । जुज्जा तिचउर्वकावि नाम चउपंचसमयाओ ॥१॥" इति [ऋज्वी चैकवका द्विधावका गतिश्च विनिर्दिष्टा । युज्यते | त्रिचतुर्वक्रे अपि नाम चतुःपञ्चसमये ॥१॥] तथापि बाहुल्येन द्विसामयिकी त्रिसामयिकी वा प्रवर्त्तते न चतुः-18 सामयिकी पञ्चसामयिकी वा प्रवर्तते ततो न ते विवक्षिते, तत्रोत्कर्षतस्त्रिसामयिक्यां विग्रहगतौ द्वावाद्यौ सम-18 यावनाहारक इत्याहारकत्वचिन्तायां क्षुलकभवग्रहणं ताम्यां न्यूनमुक्तं, ऋजुगतिरकवक्रगतिश्च न विवक्षिता, सर्वजघन्यस्य परिचिन्त्यमानत्वात् , उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालमित्यादि सुगम, नवरं एतावतः कालादूर्द्धमवश्यं विन-14 हगतिर्भवति, तत्र चानाहारकत्वमित्यनन्तं कालमिति नोक्तं । केवलिसूत्रं सुगम, छद्मस्थानाहारकसूत्रे 'उकोसेणं 18 दो समया' इति त्रिसामयिकी विग्रहगतिमधिकृत्य, चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिने विवक्षितेत्य-18 |भिहितमनन्तरं, सयोगिभवस्थकेवलिअनाहारकसूत्रे त्रयः समया अष्टसामयिकस्य केवलिसमुद्घातस्य तृतीयचतुर्थ-18 |पञ्चमरूपाः, उक्तं च-"दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्धानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे । तु॥१॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ तथा षष्ठे । सप्तमकेतु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥२॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रीदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥३॥ कार्मणशरीरयोगी । अनुक्रम [४८६] Seaves ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [१४], -------------- मूलं [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: टाटce प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. १८ कायस्थितिपदं प्रत सूत्रांक [२४५] ॥३९॥ चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ ४॥” इति । गतमाहारद्वार, | अधुना भाषाद्वारमाह भासए णं पुच्छा, गो! जहनेणं एग समयं उको० अंतो, अभासए णं पुच्छा, गो! अभासए तिविधे पं०, तंअणाइए वा अपञ्जवसिए अणाइए वा सपअवसिए साइए वा सपञ्जवसिए, तत्थ णं जे से साइए वा सपञ्जवसिते से जहपणेणं अं० उ० वणप्फहकालो । दारं १५ (सूत्र २४६) परित्तएणं पुच्छा, गो०! परिचे दुविहे पं०, तं०-कायपरित्ते य संसारपरिते य, कायपरिने णं पुच्छा, गो०। जह• अंतो० उक्को असं० पुढविकालो असंखेज्जाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो, संसारपरिते णं पुच्छा, गो.ज. अंतो० उ० अणतं कालं जाव अवह पोग्गलपरियडू देसूर्ण । अपरिते णं पुच्छा, गो! अपरिचे दु. ५०,०-कायअपरित्ते य संसारअ०, कायअपरित्ते णं पुच्छा, गो.ज. अंतो० उ० वणस्सइकालो, संसारअपरित्ते णं पुच्छा, गो! संसारअपरिने दु. ५०, तं०-अणादीए वा सपअवसिते अणादीए वा अपञ्जवसिते, नोपरित्तेनोअपरिते णं पुच्छा, गो०! सादीए अपजवसिते, दारं १६ (सूत्र २४७) पञ्जत्तए णं. पुच्छा, गो० ज० अं० उ० सागरोवमसतहत्तं सातिरेग, अपज्जत्तए णं पुच्छा, गो० ज० उ० अंतो०, नोपजत्तएनोअपजत्तए णं पृच्छा, गो! सादीए अपञ्जवसिते । दारं १७ (सूत्र २४८) सुहुमे णं मते ! सुहुमित्ति पुच्छा, गो! ज. अंतो० उ० पुढविकालो, बादरे ण पुच्छा, गो.ज. अं० उ० असंखेनं कालं जाव खेचओ अंगुलस्स असंखेजति Reseaeeseces दीप अनुक्रम [४८६] celeel ॥३९॥ For P OW अत्र (१८) कायस्थिति-पदे द्वाराणि (१५-२२)- "आहार, भाषा, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संजी, भवसिद्धिक, अस्ति, चरिम आरब्धानि ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [१८], --------------उद्देशक: -1, ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] भाग, नोमुहुमनोवादरे णं पूच्छा, गो० सादीए अपजवसिते।दार १८ (सूत्र २४९) सण्णी णं भंते ! पुच्छा, गो० ज० अंतो० उ० सागरोचमसतपुहुत्तं सातिरेगं, असणी णं पुच्छा, गो० ज० अंतो० उको० वणस्सइकालो, नोसणीनोअसयी णं पुच्छा, गो० सादीए अपजवसिते । दारं १९ (सूत्रं २५०) भवसिद्धिए णं पुच्छा, गो० अणादीए सपञ्जवसिते, अभवसिद्धिए णं पुच्छा, गो०! अणादीए अपञ्जवसिते, नोभवसिद्धिएनोअभवसिद्धिए णं पुच्छा, मो०! सादीए अपअवसिते । दारं २० । (सूत्र २५१) धम्मस्थिकाए ण पुच्छा, मो०! सबद्धं, एवं जाव अद्धासमए । दारं २१ (सूत्र २५२) चरिमे णं पुच्छा, गो० ! अणादीए सपञ्जवसिते, अचरिमे गं पुच्छा, गो०, अचरिमे दुविधे पं०, तं०-अणादीए वा अपञ्जवसिते सादी वा अपज्जवसिते । दारं २२ । (सूत्र २५३ ) पण्णवणाए भगवईए अहारसमं कायट्टिइनामपर्य समत्तं ॥१८॥ 'भासए णं भंते !' इत्यादि, इह जघन्यत एकसमयता उत्कर्षत आन्तर्मुहर्तिकता च वाग्योगिन इवावसातव्या,181 अभाषकत्रिविधस्तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यो न जातुचिदपि भाषकत्वं प्राप्स्यति सोऽनाथपर्यवसितो यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु भाषको भूत्वा भूयोऽप्यभाषको भवति स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, भाषित्वा कश्चित्कालमवस्थाय पुनर्भाषकत्वोपलब्धेः, अथवा दीप अनुक्रम [४८७-४९४] Receesesesedeseete ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] प्रज्ञापना- या: मलय० वृत्ती. ॥३९४॥ दीप अनुक्रम [४८७-४९४] दीन्द्रियादिभाषक एकेन्द्रियादिग्वभाषकेपूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त जीवित्वा पुनरपि यदा द्वीन्द्रियादिरेवोत्पद्यते तदा १८ काय| जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमभाषकः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्त इति नोपदयते । गतं भाषकद्वारं, इदानी स्थितिपर्द परीतद्वारं, परीतो द्विविधः-कायपरीतः संसारपरीतच, तत्र यः प्रत्येकशरीरी स कायपरीतो, यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसारः स संसारपरीतः, कायपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, स च यदा कथिन्निगोदादुत्य प्रत्येक शरीरिषु समुत्पद्य च तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि निगोदेपूत्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कर्षतोऽसयेयं कालं, सब चासङ्ख्येयः कालः पृथिवीकालो, यावान् पृथिवीकायिककायस्थितिकालस्तावान् वेदितव्य इत्यर्थः, तमेव कालतो निरूपयति-असोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, संसारपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तत ऊर्द्धमन्तकृत्केवलित्वयोगेन मुक्तिभावात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेव निरूपयति-'अणंताओ' इत्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्द्धमवश्यं मुक्तिगमनात्, कायापरीतोऽनन्तकायिकः, संसारापरीतः सम्यक्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः, कायापरीतो जघन्येनान्तमुहूत्त,8 स च यदा कश्चित्प्रत्येकशरीरिभ्य उद्धृत्य निगोदेषु समुत्पद्यते तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि प्रत्येकशरीरिघूत्पद्यते तदाऽवसातव्यंः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालो वाच्यः, स च प्रागेवोपदर्शितः, तत ऊर्दू नियमात्तत उवृत्तेः, ३९४॥ संसारापरीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि संसारव्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, नोपरीतोनोअपरीतश्च सिद्धः, स च सायपर्यवसित एव । पर्यासद्वारे पर्याप्तो जघन्येनान्तमुह, तत ~392~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] दीप अनुक्रम [४८७-४९४] ऊईमपर्याप्सत्यप्रसक्तः, उत्कर्षतः सातिरेक सागरोपमशतपृथक्त्वं, एतावन्तं कालं पर्याप्सलब्ध्यवस्थानसम्भवात् , अपर्यासो जपन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त, तत ऊईमवश्यं पर्याप्सलब्ध्युत्पत्तेः, नोपर्याप्सोनोअपर्याप्तश्च सिद्धः, स च साद्यपर्यवसितः, सिद्धत्वस्याप्रच्युतेः । सूक्ष्मद्वारे सूक्ष्मसूत्रे उत्कर्षतः पृथिवीकाल इति, यावान् पृथिवीकायिककायस्थितिकालस्तावान् वक्तव्यः । वादरसूत्र सुगम, अनयोश्च भावना प्रागेव कृता, नोसक्ष्मोनोवादरश्च सिद्धस्ततः साद्यपर्यवसितः । संजिद्वारे संज्ञिसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति, यदा कश्चिजन्तुरसंज्ञिभ्य उदृत्त्य संज्ञिषु समुत्पद्यते । तत्र चान्तर्मुहर्त जीवित्वा भूयोऽपि असंज्ञित्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कृष्टं सुगम । असंज्ञी जघन्यतोऽन्तर्मुहूत्ते, स -कश्चित् संज्ञिभ्य उद्धृत्त्यासंज्ञित्पद्यते, तत्र चान्तर्मुहूर्त्त स्थित्वा भूयोऽपि संज्ञिषु मध्ये समागच्छति, उत्कपितो वनस्पतिकालो, वनस्पतिकायस्थाप्यसंज्ञिग्रहणेन ग्रहणात् नोसंझिनोअसंज्ञी च सिद्धः, स च साधपर्यवसितः। भवसिद्धिकद्वारे 'भवसिद्धिए ण'मित्यादि, भवे सिद्धिर्यस्थासौ भवसिद्धिको भव्य इत्यर्थः, स चानादिसपर्यवसितः, अन्यथा भव्यत्वायोगात्, अभवसिद्धिकोऽभव्यः, स चानाद्यपर्यवसितः, अन्यथाऽभव्यत्वायोगात्, नोभव्योनोअभव्यश्च सिद्धः, ततः साद्यपर्यवसितः । अस्तिकायाः पश्चापि सर्वकालभाविनः, अद्धासमयोऽपि प्रवाहापेक्षया, तत उक्तं एवं जाव अद्धासमए,' चरमो भयो भविष्यति यस्य सोऽभेदाचरमो-भव्यस्त द्विपरीतोऽचरमः स चाभव्यस्तस्य चरमभवाभावात् , सिद्धच, तस्यापि चरमत्वायोगात्, तत्र चरमोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा चरमत्वायोगात्, ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१८], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [१५-२२], -------------- मूलं [२४६-२५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १९सम्य प्रत सूत्रांक [२४६-२५३] प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती. क्त्वपदं अचरमो द्विविधोऽनाद्यपर्यवसितः साद्यपर्यवसितश्व, तत्रानादिअपर्यवसितोऽभव्यः, साद्यपर्यवसितः सिद्धः । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनावृत्तौ अष्टादशं पदं समाप्तम् ॥ एकोनविंशतितमं सम्यक्त्वपदं प्रारभ्यते ॥१९॥ दीप अनुक्रम [४८७-४९४] तदेवं व्याख्यातमष्टादशं पदं, साम्प्रतमेकोनविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-दहानन्तरपदे काय-18 स्थितिरुक्ता, अत्र तु कस्यां कायस्थितौ कतिविधाः सम्यग्दृष्ट्यादिभेदेन जीवा भवन्तीति चिन्त्यते, तत्रेदं सूत्रम् जीवा गं मते 1 किं सम्मदिही मिणदिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी, गोयमा! जीवा सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि । एवं नेरइयादि । असुरकुमारादि एवं चेव जाव चणियकुमारा | पुढवीकाइया णं पुच्छा, गोयमा ! पुढवीकाइया णो सम्मदिही मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिही, एवं जाच वणस्सइकाइया । बेईदियाणं पुच्छा, गोयमा । बेइंदिया सम्मदिही मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्टी, एवं जाव चरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि, सिद्धा गं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा सम्मदिडी, णो मिच्छादिट्ठीणो सम्मामिच्छादिही । (सूत्र २५४ ) पनवणाभगवईए सम्मत्चपदं समनं ॥१९॥ ॥१९॥ अत्र पद (१८) "कायस्थिति" परिसमाप्तम् अथ पद (१९) "सम्यक्त्व" आरब्धम् ~394 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१९], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं --------------- मूलं [२५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५४] 'जीवा णं भंते ! किं सम्मदिही' इत्यादि सुगमं आपदपरिसमासेः, नवरं सासादनसम्यक्त्वयुक्तोऽपि सूत्राभिप्रायेण पृथिव्यादिषु नोत्पद्यते, "उभयाभावो पुढवाइएसु" [उभयाभावः पृथ्व्यादिषु] इति वचनात्, द्वीन्द्रियादिषु सासादनसम्यक्त्वयुक्त उपपद्यते, ततः पृथिव्यादयः सम्यग्दृष्टयः प्रतिषिद्धाः, द्वीन्द्रियादयोऽभिहिताः, सम्यगमिथ्यारष्टिपरिणामः पुनः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां भवति, न शेषाणां, तथाखाभाव्यात् , अत उभयेऽपि सम्यगमिथ्या-N स्टयः प्रतिषिद्धाः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामेकोनविंशतितमं पदम् समासम् ॥ दीप अथ विंशतितममन्तक्रियापदं प्रारभ्यते ॥ अनुक्रम [४९५] व्याख्यातमेकोनविंशतितम पदं, अधुना विंशतितम आरभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तरपदे सम्यक्वपरिणाम उक्तः, अत्र तु परिणामसाम्याद् गतिपरिणामविशेषोऽन्तक्रियाऽभिधीयते, तत्रेयमादौ अधिकारद्वारगाथा नेरइय अंतकिरिया अणन्तरं एगसमय उच्चट्टा । तित्थगरचक्विवलदेववासुदेवमंडलियरयणा [य] ॥ १॥ दारगाहा । जीवे SAREauratonintamarnama अत्र पद (१९) "सम्यक्त्व परिसमाप्तम् अथ पद (२०) "अन्तक्रिया" आरब्धम् ~3954 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं - -------------- मूलं [२५५-२५६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५५-२५६] मज्ञापनाया मल २०अन्तक्रियापदम् य० वृत्ती. ॥३९॥ गाथा ण भंते ! अंतकिरियं करेआ ?, गोयमा! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगतिए णो करेजा । एवं नेरइए जाव वेमाणिए । नेरइए णं भंते ! नेरइएसु अंतकिरियं करेजा ?, गोयमा 1 नो इणढे समढे । नेरइया णं भंते ! असुरकुमारसु अंतकिरियं करेजा, गोयमा ! नो इणढे समढे । एवं जाव वेमाणिएसु । नवरं मणसेसु अंतकिरियं करेजत्ति पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए करेजा अत्थेगतिए. णो करेजा । एवं असुरकुमारा जाच वेमाणिए । एवमेव चउवीसं २ दंडगा भवन्ति । (सूत्र २५५) नेरइया णं भंते ! कि अणंतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतकिरियं करेंति, गोयमा ! अणंतरागयावि अंतकिरियं करेंति परंपरागयावि अंतकिरियं करेंति । एवं रयणप्पभापुढविनेरइयावि जाय पंकप्पभापुढवीनेरइया, धूमप्पभापुढपीनेरइयाण पुच्छा, गोयमा ! णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरेति, एवं जाव अहेसत्तमापुढवीनेरइया । असुरकुमारा जाच थणियकुमारा पुढवीआउवणस्सइकाइया य अणन्तरागयावि अंतकिरियं पकरेंति परंपरागयावि अंतकिरियं पकरेंति, तेउवाउबेईदियतेईदियचउरिदिया णो अणंतरागया अंतकिरिय पकरेंति परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति । सेसा अणंतरागयावि अंतकिरियं पकरेंति परंपरागयावि अंतकिरिय पकरेंति । (सूत्र २५६) 'नेरइय अंतकिरिया' इत्यादि, प्रथमतो नैरयिकोपलक्षितेषु चतुर्विंशतिस्थानेषु अन्तक्रिया चिन्तनीया । ततोऽनन्तरागताः किमन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता वा ? इत्येवमन्तरं चिन्तनीयं, ततो नैरयिकादिभ्योऽनन्तरमागताः दीप अनुक्रम [४९६-४९८] | ॥३९॥ wwrajastaramorg ~396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], --------------उद्देशक: 1, ------------- दारं -1, -------------- मूलं [२५५-२५६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५५-२५६] करerseceices गाथा कियन्त एकसमयेनान्तक्रियां कुर्वन्तीति चिन्त्यते, तत 'उचट्टा' इति उदृत्ताः सन्तः कस्यां योनावुत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं, तथा यत उदृत्तास्तीर्थकराश्चक्रवर्तिनो चलदेवा वासुदेवा माण्डलिकाचक्रवर्तिनो रत्नानि च सेनापतिप्रमुखाणि भवन्ति ततस्तानि क्रमेण वक्तव्यानि इति द्वारगाथासंक्षेपार्थः । विस्तरार्थे तु सूत्रकृदेव वक्ष्यति, तत्र प्रथमतोऽन्तक्रियामभिधित्सुराह-'जीवे णं भंते !' इत्यादि, जीवो 'ण'मिति वाक्यालङ्कृतौ भदन्त ! 'अन्तक्रिया मिति अन्तः-अवसानं, तच प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यं, अन्यत्रागमेऽन्तक्रियाशब्द (वाच्यतया त)स्य रूढत्वात् , तस्य 1क्रिया-करणमन्तक्रिया-कर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थः, "कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः" इति वचनात् , तां कुर्याद् ?, भगवानाह-गौतम ! अस्त्येकको यः कुर्यात्, अस्त्येकको यो न कुर्यात्, इयमत्र भावना-यस्तथाविधभव्यत्वपरिपाकवशतो मनुष्यत्वादिकामविकलो सामग्रीमवाप्य तत्सामर्थ्यसमुद्भूतातिप्रबलवीर्योल्लासवशतः क्षपकश्रेणिसमारोहणेन केवलज्ञानमासाद्याघातीन्यपि कर्माणि क्षपयेत् स कुर्यात्, अन्यस्तु न कुर्यात्, विपर्ययादिति । एवं नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् भावनीया यावद् वैमानिकाः, सूत्रपाठस्त्येवम्-'नेरइएणं भंते ! अंतकिरियं करेजा, गोयमा ! अत्थेगइए करेजा अत्थेगइए नो करेजा' इत्यादि । इदानी नैरयिकेषु मध्ये वर्तमानोऽन्तक्रियां करोति किं वा न करोति । इति पिपृच्छिपुरिदमाह-'नेरइए णं भंते' इत्यादि, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः । नायमों युक्त्युपपन्न इत्यर्थः । कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह कृत्स्नकर्मक्षयः प्रकर्षप्राप्तात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमु दीप अनुक्रम [४९६-४९८] ~397~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं --------------- मूलं [२५५-२५६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५५-२५६] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥३९७॥ गाथा दायाद् भवति, न च नैरयिकावस्थायां चारित्रपरिणामः, तथा भवखाभाब्यादिति । एवमसुरकुमारादिषु वैमानिक-४२० अन्तपर्यवसानेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः । मनुष्येषु तु मध्ये समागतः सन् कश्चिदन्तक्रियां कुर्यात्, यस्य परिपूर्णा चारि-क्रियापदम् त्रादिसामग्री स्यात् , कश्चिन्न कुर्यात् , यस्तद्विकल इति । एवमसुरकुमारादयोऽपि वैमानिकपर्यवसानाः प्रत्येकं नैर[यिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्याः, तत एवमेते चतुर्विंशतिदण्डकाश्चतुर्यिशतयो भवन्ति ॥ अथेते नैरयिकादयः खखनैरयिकादिभवेभ्योऽनन्तरं मनुष्यभये समागताः सन्तोऽन्तक्रियां कुर्वन्ति किंवा तिर्यगादिभवव्यवधानेन परंपरागता इति निरूपयितुकाम आह–'नेरइया णं भंते ! इत्यादिप्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! अनन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता अपि, तत्र रत्नशर्करावालुकापङ्कप्रभाभ्योऽनन्तरागता अपि परम्परागता अपि, धूमप्रभापृथिव्यादिभ्यः पुनः परम्परागता एव, तथाखाभाब्यात् , एनमेव विशेष प्रतिपिपादयिषुः सूत्रसप्तकमाह-एवं रयणप्पभापुढवीनेरइयावि' इत्यादि, सुगम । असुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसानाः पृथिव्यवनस्पतयश्चानन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता अप्यन्तक्रियां कुर्वन्ति, उभयथाऽप्यागतानां तेषामन्तक्रियाकरणाविरोधात् , तथा केवलचक्षुषोपलब्धेः। तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः परम्परागता एव, न त्वनन्तरागताः, तत्र तेजोवायूनामानन्तर्येण मनुष्यत्वस्यैवाप्राप्तेः, द्वीन्द्रियादीनां तु तथाभवस्खाभाब्यादिति । शेषास्तु तिर्यपञ्चेन्द्रियादयो वैमानिकपर्यवसाना अनन्तरागता अपि परम्परागता अपि । अथ नैरयिकादिभवेभ्योऽनन्तर दीप अनुक्रम [४९६-४९८] ॥३९७॥ ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं --------------- मूलं [२५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५७] दीप यहाटseseeeeeex मागताः कियन्त एकसमयेऽन्तक्रियां कुर्वन्ति इत्येवरूपं तृतीयं द्वारमभिधित्सुराह अणंतरागया नेरइया एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा ! जहनेणं एगो वादो या तिनि वा उकोसेणं दस, रयणप्पभापुढवीनेरइयावि एवं चेव, जाव वालुयप्पभापुढवी०, अणंत मंते! पंकपभापुढवीनेरइया एगसमयेणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति, गोयमा! जहनेणं एको वा दो वा तिनि वा उकोसेणं चत्वारि, अणन्तरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमये केवतिआ अंत. पकरेंति , गोयमा! जह• एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारीओ एगस० केव० अंत पकरति ?, गोयमा! जह• एको वा दो चा तिनि वा उकोसेणं पंच, एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव थणिअ० । अणंतरागया णं भंते ! पुढवि० एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा ! जहएको वा दो वा तिनि वा, उकोसेणं चत्तारि, एवं आउकाइयापि चत्वारि, वणस्सइकाइया छच्च, पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस, तिरिक्खजोणिणीओ दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओ वीस, वाणमंतरा दस, वाणमंतरीओ पंच, जोइसिआ दस, जोइसिणीओ वीसं, वेमाणिआ अहसयं, वेमाणिणीओ पीसं । (सूत्र २५७) 'अणंतरागया णं भंते !' इत्यादि, नैरयिकभवादनन्तरं-अव्यवधानेन मनुष्यभवमागता अनन्तरागताः, नैरयिका इति प्राग्भवपर्यायेण व्यपदेशः सुरादिप्राग्भवपर्यायप्रतिपत्तिव्युदासार्थः, एवमुत्तरत्रापि तत्तत्माग्भवपर्यायेण Tass9829806095 अनुक्रम [४९९] ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. सूत्रांक [२५७] ॥३९८॥ दीप Reactococraeroelacreatoeceae व्यपदेशे प्रयोजनं चिन्तनीयमिति । शेषं कण्ठ्यं । सम्प्रति तत उद्धृताः कस्यां योनाबुत्पद्यन्ते ? इति चतुर्थं द्वारम क्रियापदे भिश्चित्सुराह उद्धृत्ते धर्मनेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उच्चहित्ता नेरइएसु उववजेजा, गोयमा! नो इणढे समढे, नेरइए णं मंते ! नेरइ- । श्रवणादि एहितो अर्णतरं उदहित्ता असुरकुमारेसु उबवजेजा, गोयमा! नो इणढे समढे । एवं निरंतरं जाव चउरिदिएसु पुण, सू. २५८ गोयमा ! नो इणढे समढे । नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उबहिता पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उपवजेआ7, अत्थेगतिए उववजेजा अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा, जे णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उवव० से गं भंते ! केवलिपन्नत्तं धर्म लभेज्जा सवणयाए ?, गोयमा! अत्धेगतिए लभेजा अत्थेगतिए णो लभेजा, जेणं भंते ! केवलिपबत्तं धर्म लभेजा सवणयाए से णं केवलं बोहिं बुझेजा, गोयमा! अत्थेगतिए बुझेजा अत्धेगतिए णो बुज्झेजा । जेणं भंते ! केवलं बोहिं बुज्झेजा से णं सदहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा, गोयमा! सदहेज्जा पचिएज्जा रोएजा, जे ण मंते ! सदहेजा पत्तिएज्जा रोएजा से णं आभिणिबोहियनाणमुयणाणाई उप्पाडेजा, हंता गोयमा ! उप्पाडेजा, जेणं भंते ! आभिणियोहियनाणमुयनाणाई उप्पाडेजा से णं संचाएज्जा सील वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा IN३९८॥ पञ्चक्खाणं वा पोसहोववास वा पडिवज्जित्तए, गोयमा! अत्थेगतिए संचाएजा अत्थेगतिए णो संचाएजा, जेणं भंते ! संचाएजा सीलं वा जाब पोसहोयवासं वा पडिवञ्जत्तए से णं ओहिनाणं उप्पाडेजा, गोयमा ! अत्यंगतिए PROGarera20203 अनुक्रम [४९९] ~400~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८] 392906 दीप अनुक्रम [५००] eeseserdeceaeesesesectice उप्पाडेजा अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जेणं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चइत्तए, गोयमा ! नो इणटे समढे ॥ नेरइए णं भंते । नेरइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता मणुस्सेसु उक्बजेआ, गोयमा ! अत्थेगतिए उववजेजा अत्यंगतिए जो उचवजेना, जेणं भंते ! उवयजेजा से णं केवलिपन्न धम्म लभेजा सवणयाए , गोयमा ! जहा पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु जाव जे णं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चइत्तए, गोयमा! अत्थेगतिए संचाएजा अत्थेगतिए णो संचाएजा, जे पं भंते ! संचाएजा मुण्डे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइत्तए से ण मणपजवनाणं उप्पाडेजा, गोयमा ! अत्थेगतिए उप्पाडेजा अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जेणं भंते ! मणपजवनाणं उप्पाडेजा से णं केवलनाणं उप्पाडेआ, मोयमा! अत्थेगतिए उप्पाडेजा अस्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जेणं भंते ! केवलनाणं उप्पाडेजा से गं सिझेजा बुज्झेजा मुन्चेज्जा सबदुक्खाणं अंतं करेज्जा ?, गोयमा! सिझेजा जाब सत्बदुक्खाणमंतं करेजा। नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उन्नहित्ता वा भतरजोइसियवेमाणिएसु उववजेजा ?, गोयमा ! नो इणढे समढे । (सूत्र २५८) नेर भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'केवलिपन्नतं धम्मं लभेज़ा सवणयाए' इति केवलिना-सबैज्ञेन प्रज्ञसो-देशितः केवलिप्रज्ञप्तो धर्मः-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च तं लभेत श्रवणतया-श्रूयते इति श्रवणं भावे अनट्प्रत्ययः श्रवणस्य-श्रवणशब्दस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं श्रुतिरेव प्रवणता श्रवणमेवेत्यर्थः, "यावे त्वतलो" इत्यत्र हि 'तस्पेति ~ 401~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनायाः मल- यवृत्ती. उद्धृत्वे धर्म [२५८] ॥३९९॥ दीप अनुक्रम [५००] शब्दरूपस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्त' इत्यपि व्याख्यानमस्ति, तया श्रवणतया ?, भगवानाह--'अत्थेगतिए' इत्यादि, M२०अन्तपुनरपि प्रश्नयति-यस्तु भदन्त ! केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभेत श्रवणतया से णं केवलं बोहिं बुझेजा' इति, इह क्रियापदे बोधिः-धोवाप्तिरुच्यते, तस्या निमित्तभूतो यः शब्दसंदर्भः सोऽपि कारणे कार्योपचाराद् बोधिः, स च केवलिना साक्षात्परम्परया योपदिष्ट इति कैवलिकः, स केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रोता णमिति पूर्ववत् केवलिकी बोधि- श्रवणादि यथोक्तरूपां बुध्येत तदर्थ जानीयादित्यर्थः ?, भगवानाह-'अत्थेगतिए' इत्यादि । पुनरपि प्रश्नयति-यो भदन्त! सू.२५८ केवलिकी बोधिमर्थतोऽवगच्छति सोऽर्थतस्तां श्रद्दधीत-श्रद्धाविषयां कुर्यात् , तथा प्रत्ययेत्-प्रतीतिविषयां कुर्यात, रोचयेत्-चिकीर्षामि इत्येवमध्यवस्खेत् ?, भगवानाह-अत्धेगइए' इत्यादि, पुनः प्रश्नयति-यस्तु भदन्त ! श्रद्दधीत प्रत्ययेत् रोचयेत् स आभिनिवोधिकश्रुतज्ञाने उत्पादयेत् १, भगवानाह-'हन्ते'त्यादि, [अनुमती] हंता गौतम ! उत्पादयेत् , केवलिप्रज्ञप्तधर्मश्रवणश्रद्धानादवश्यं तयोर्भावात् , भूयः प्रश्चयति-यो भदन्त ! आभिनिचोधिकश्रुतज्ञाने उत्पादयति स 'संचाएजा' शक्नुयात् 'शीलं' ब्रह्मचर्य 'व्रतं' चित्रं द्रव्यादिविषयनियमरूपं गुणं-उत्तर-11 गुणं भावनादिरूपं विरमणं-विरतिरतीतस्थूलप्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं अनागतस्य स्थूलप्राणातिपातादेव, ॥३९९॥ पोष-धर्मपोषं दधाति-करोतीति पोषधं-अष्टम्यादिपर्व तस्मिन्नुपवासः पोषधोपवासः तं प्रतिपत्तुं शकुयात् । भगवानाह-'अत्थेगइए' इत्यादि, इह तिरश्चां मनुष्याणां च भवप्रत्ययतोऽवधिर्नोपजायते किन्तु गुणतः, गुणाश्च ~402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८] दीप अनुक्रम [५००] शीलनतादयोऽस्यापि विद्यन्ते ततः किमखावधिज्ञानमुत्पद्यते किंवा न ? इति प्रश्नयति, 'जे णं भंते !' इत्यादि, यस्य शीलवतादिविषयविप्रकृष्टपरिणामभावात् अवधिज्ञानावरणकर्मणः क्षयोपशम उपजायते स उत्पादयेत् , शेषस्तु नेत्यर्थः ॥ अवधिज्ञानानन्तरं च मनःपर्यवज्ञानं द्रष्टव्यं, मनःपर्यवज्ञानं चानगारस्य भवति "तं संजयस्स सबप्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमतो" [तत् संयतस्य सर्वप्रमादरहितस्य विविधर्द्धिमतः] इति वचनात् , ततोऽनगारतामेव प्रश्नयति-'जे णं भंते !' इत्यादि, मुण्डो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतः केशाद्यपनयनेन भावतः सर्वसङ्गपरित्यागेन, तत्रेह द्रव्यमुण्डत्वासंभवाद् भावमुण्डः परिगृह्यते, मुण्डो भूत्वा अगारात्-खाश्रयरूपाद् विनि-1 गैत्य न विद्यते अगारं-गृहं द्रव्यतो भावतश्च यस्यासी अनगारः तद्भावोऽनगारता तां प्रबजितुं शक्नुयात् ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, तिरश्चां भवखभावतः तथारूपपरिणामासंभवात् , अनगारताया अभावे मनःपर्यवज्ञा-18 नस्य चाभावः सिद्ध एव । यथा च तियेंपञ्चेन्द्रियविषयं सूत्रकदम्बकमुक्तं तथा मनुष्यविषयमपि वक्तव्यं, नवर। मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् मनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानसूत्रे अधिके प्रतिपादयति-जेणं भंते ! संचाएजा मुंडे भवित्ता इत्यादि सुगम, नवरं 'सिज्झेज्जा' इत्यादि, सिध्येत-समस्ताणिमैश्वर्यादिसिद्धिभाक् भवेत् बुध्येत-लोकालो-18 कखरूपमशेषमवगच्छेत् मुच्येत-भवोपग्राहिकर्मभिरपि, किमुक्तं भवति-सर्वदुःखानामन्तं कुर्यात् । वान-18 मन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः, नैरयिकस्य भवखाभाब्यान्नरयिकदेवभवयोग्यायुर्वन्धासंभवात् । For P LOW ~403~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८] २०अन्तक्रियापदेउद्धृत्ते धर्मश्रवणादि सू. २६० दीप प्रज्ञापना- तदेवं नैरयिका नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तिताः, साम्प्रतमसुरकुमारानरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डक- या: मल मेण चिन्तयतिय.वृत्ती. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारहितो अर्थतरं उघट्टित्ता नेरइएसु उवक्जेजा, गोयमा ! नो इणहे समहे । असुरकुमारे ॥४००॥ णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उबट्टित्ता असुरकुमारेसु उक्वजेजा, गोयमा! नो इणढे समढे, एवं जाव थणिय कुमारेसु । असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उबहित्ता पुढवीकाइएसु उववजेजा ?, हन्ता गोयमा ! अस्थेगइए उववजेजा अत्यंगतिए णो उववज्जे जा । जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलियं धम्मं लभेजा सवणयाए, गोयमा! नो इणडे समझे । एवं आउवणस्सइसुवि । असुरकुमाराणं मंते ! असुरकुमारहितो अणंतरं उबट्टित्ता तेउवाड़बेइंदियतेइंदियचउरिदिएम उववज्जेआ, गोयमा! नो इमढे समहे, अवसेसेसु पंचसु पंचिदियतिरिक्खजोणिइसु असुरकुमारेमु जहा नेरइओ, एवं जाव थणियकुमारा (सूत्र २५९) 'असुरकुमारा णं भंते ! इत्यादि प्राग्वत् , नवरमेते पृथिव्यवनस्पतिष्वप्युत्पद्यन्ते, ईशानान्तदेवानां तेषूत्पादा|विरोधात् , तेषु चोत्पना न केवलिप्रज्ञसं धर्म लभन्ते श्रवणतया, श्रवणेन्द्रियस्थाभावात्, शेषं सवें रयिकवत् , एवं 'जाव थणियकुमारा' इति एवमसुरकुमारोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमाराः। II पुढषीकाइए णं भंते ! पुढवीकाइएहितो अणंतरं उघट्टित्ता नेरइएसु उक्वजेजा, मोयमा ! नो इणढे समढे, पवं असुर Sel ४ अनुक्रम [५००] mesese ||४००॥ ~404~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-],------------- दारं --------------- मूलं [२६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६०] दीप अनुक्रम [५०२] कुमारेसुषि, जाव थणियकुमारेसुचि । पुढषीकाइएवं भैते ! पुढगीकाइएहितो अपंतरं उहिता पुटवीकाइएसु उववछजा, गोयमा ! अत्यंगतिए उववजेजा अत्थेगतिए गो उपवलेशा, जे णं भंते ! उवषजेजा से पं केवलिपनत्तं धम्म लभेा सवणयाए !, गोयमा ! नो इणढे समढे । एवं आउकाइआदिसु निरंतर भाणियई जाव चउरिदिएमुं । पंचिदियतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु जहा नेरइए । वाणमंतरजोडासयवमाणिएसु पडिसेहो । एवं जहा पुढवीकाइओ भणिओ तहेव आउकाइओबि, आव वणस्सइकाइओवि भाणियो । तेउफाइए गं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उघट्टित्ता नेरइएसु उववजेजा, गोयमा ! णो इणडे समहे, एवं असुरकुमारेसुवि, जाब थणियकुमारेसु, पुढवीकाइमाउचाउतेउवणवेईदियतेइंदियचडरिदिएसु अत्थेगतिए उववजेजा अत्थेगतिए णो उवबोज्जा, जे जे भंते ! उववजेजा से गं केवलिपत्र धम्म लभेजा सवणयाए, गोयमा ! नो इणढे समहे । तेउकाइए णं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उबहित्ता पंचिंदियतिरिक्खजोगिएसु उबरजेजा, गोयमा! अत्थेगइए उनवज्जेजा अत्थेगइए णो उववजेजा, से णं केवलिपनत्तं धम्म लभेजा सबणयाए, गोयमा! अत्थेगइए लभेजा अस्थेगइए णो लभेजा, जेणं भंते ! केवलिपन्न धम्म लभेजा सवणयाए से णे केवलिं बोहिं बुज्झेजा, गोयमा! णो इणट्टे समढे। मणुस्सवाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु पुच्छा, गोयमा ! णो इणहे समढे । एवं जहेव तेउकाइए निरंतरं एवं वाउकाइएवि (सूत्र २६०) पृथिवीकायिका नैरयिकेषु देवेषु च प्रतिषिध्यन्ते, तेषां विशिवमनोद्रव्यासंभवतस्तीत्रसंक्लेशपिशुद्धाभ्यवसायामा SAREarathimitional For P OW ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. सूत्रांक [२६०] ॥४०॥ दीप अनुक्रम [५०२] वात् , शेषेषु तु सर्वेष्वपि स्थानेषु उत्पद्यन्ते, तद्योग्याध्यवसायस्थानसंभवात् , तत्रापि च तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु २० अन्तच नैरयिकवद् वक्तव्यं, एवमष्कायिका वनस्पतिकायिकाथ वक्तव्याः। तेजस्कायिका वायुकायिकाश्च मनुष्येष्वपि क्रियापदे प्रतिषेधनीयाः, तेषामानन्तर्येण मनुष्येपूत्पादासंभवात् , असंभवश्च क्लिष्टपरिणामतया मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीमनु- उद्धृत्ते धर्मव्यायुबन्धासंभवात् , तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषूत्पन्नाः केवलिप्रज्ञसं धर्म श्रवणतया लभेरन् , श्रवणेन्द्रियस्य भावात्, पुनस्तां । केवलिकी बोधि नावबुध्येरन् , संक्लिष्टपरिणामत्वात् । सू. २६२ बेइंदिए ण भंते ! बेईदिएहितो अणंतरं उत्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेजा, गोयमा ! जहा पुढवीकाइआ । नवरं मणुस्सेसु जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा। एवं तेइंदिया चउरिदियावि जाव मणपज्जवनागं उप्पाडेजा । जे णं मणपजवनाणं उप्पाडेजा से णं केवलनाणं उप्पाडेजा, गोयमा ! नो इणढे समढे। (सूत्रं २६१) पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो [अणंतरं] उबहिता नेरइएसु अर्णतरं उववज्जेज्जा, गोयमा! अत्थेगइए उववजेजा अत्यंगइए णो उववज्जेजा, से णं केवलिपण्णतं धर्म लभेा सवणयाए ?, गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लमेजा, जे णं केवलिपन धर्म लभेज्जा सवणयाए से णं केवलिं बोहि बुझेजा, गोयमा! अत्थेगतिए पुज्झेजा ॥४०॥ अत्थेगतिए णो बुज्झेजा, जे णं भंते ! केवलिं चोहिं बुझेज्जा से गं सदहेजा पत्तिएजा रोएज्जा, हंता गोयमा ! जाव रोएजा, जे णं भंते ! सद्दहेजा० से णं आभिणिचोहियनाणसुयनाणओहिनाणाई उप्पाडेजा, हंता गोयमा जाच उप्पा ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२६१-२६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६१ -२६२] 909apa9299orner दीप अनुक्रम [५०३५०४] डेजा, जेणं भंते ! आभिणियोहियनाणसुयनाणओहिनाणाई उप्पाडेजा से णं संचाएजा सीलं वा जाव पडिवज्जित्तए, गोयमा ! जो इणढे समढे । एवं असुरकुमारेसुवि, जाव थणियकुमारेसु । एगिंदियविगलिदिएमु जहा पुढवीकाइआ । पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइए । वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु जहा नेरइएसु [उववज्जइ पुच्छा भणिया एवं मणुस्सेचि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु जहा असुरकुमारे । (सूत्र २६२) द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पृथिवीकायिकवत् देवनैरयिकवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषूत्पधन्ते, नवरं पृथिवीकायिका । मनुष्येष्वागता अन्तक्रियामपि कुयुः ते पुनरन्तक्रियां न कुर्वन्ति, तथाभवखभावात् , मनःपर्यवज्ञानं पुनरुत्पाद येयुः। तिर्यपञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्च सर्वेष्वपि स्थानेषुत्पद्यन्ते, तद्वक्तव्यता च पाठसिद्धा । वानमन्तरज्योतिष्कवैमानिका असुरकुमारवद् भावनीयाः । गतं चतुर्थ द्वारं । इदानीं पञ्चमं तीर्थकरत्ववक्तव्यतालक्षणं द्वारमभिधित्सुराह रयणप्पभापुढषीनेरइए णं भंते ! रयणप्पभापुढवीनेरइएहिंतो अणंतरं उबहिचा तित्थगरचं लभेजा, गोयमा ! अत्थेगइए लमेजा अत्थेगहए णो लभेज्जा, से केणटेणं भंते ! एवं बुधह-अत्यंगइए लभेज्जा अत्थेगइए णो लभेडा, गो०! जस्स णं रयणप्पभापुटवीनेरइअस्स तित्थगरनामगोयाई कम्माई बद्धाई पुढाई निधचाई कडाई पट्टवियाई निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमभागयाई उदिबाई णो उवसंताई हबंति से गं रयणप्पभापुढवीनेरइए रयणपभापुढवीनेरइएहितो अर्णतरं उबट्टित्ता तित्थगर लभेजा, जस्स णं रयणप्पभापुढवीनेरइयस्स तित्थगरनामगोपाई णो बद्धाई जाव णो उदिबाई ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत मज्ञापनाया: मलयवृत्ती. २०अन्तक्रियापदे | तीर्थकरत्वाप्तिः सूत्रांक [२६३] ॥४०॥ सू. २६३ दीप उपसंताई हति से प रयणप्पभापुढवीनेरइए रयणप्पभाघुटषीनेरइएहितो अजंतर उच्चटित्ता तित्थगरसं णो लभेजा, से तेणडेणं गोयमा। एवं बुधइ-अत्यंगतिए लमेशा अत्थेगतिए णो लभेजा । एवं सकरप्पभाजाववालुयष्पभापुढवीनेरइएहिंतो तिस्थगरसं लभेजा । पंकप्पभापुढवीनेरइए णं भंते ! पंकप्पभा०हितो अणंतरं उबविता तिस्थगरतं लभेजा, गोयमाणो इणढे समडे, अंतकिरियं पुण करेजा, धमप्पभापुढवी० पुच्छा, गोयमा! जो इण? समढे, सबविरई पुण लमे. जमा, तमप्पभापुढषीपुच्छा, विरयाविरई पुण लभेज्जा, अहेसत्तमढवीपुच्छा, गोयमा! णो इणढे समडे, सम्पत्तं पुण लभेजा । असुरकुमारस्स पुच्छा, णो इणढे समहे, अंतकिरियं पुण करेजा । एवं निरंतरं जाव आउकाइए । तेउकाइए गं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उत्पट्टित्ता उववज्जेजा (तित्थगरत्तै ल.), गोणो० ति०, केवलिपमत्तं धर्म लभेजा सवणयाते, एवं बाउकाइएवि, वणस्सइकाइए णं पुच्छा, गो०!णोति०, अंतकिरियं पुण करेजा, बेइंदियतेइंदियचरिदिए णं पुच्छा, गो! नो. ति०, मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणूसवाणमंतरजोइसिए णं पुच्छा, गो! णो ति०, अंतकिरियं पुण करमा, सोहम्मगदेवेणं भंते ! अणतरं चयं चइता तिस्थगरल लभेजा, गो० अत्थे ल० अत्थे नो ल०, एवं जहा रयणप्पभापुढविनेरइए एवं जाव सबद्दसिद्धगदेवे ।। (सूत्रं २६३) 'रयणप्पभापुढवीनेरइया णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'पद्धानि' सूचीकलाप इव सूत्रेण प्रथमतो बदमाप्राणि, तदनन्तरमग्निसंपर्कानन्तरं सकृत् धनकुट्टितसूचीकलापवत् स्पृष्टानि 'निधत्तानि' उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकर Leseeeeeeeee अनुक्रम [५०५] ४०२॥ ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [५०५] आणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीति भावार्थः 'कृतानि' निकाचितानि सकलकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः ।। 'प्रस्थापितानि' मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसवादरपर्याप्ससुभगादेययशःकीर्तिनामसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीति भावः 'निविष्टानि' तीब्रानुभावजनकतया स्थितानि 'अभिनिविष्टानि विशिष्टविशिष्टतराध्यवसायभावतोऽतिती-15 भानुभाषजनकतया व्यवस्थितानि 'अभिसमन्यागतानि' उदयाभिमुखीभूतानि 'उदीर्णानि' विपाकोदयमागतानि 'नोपशान्तानि' न सर्वथाऽभावमापन्नानि निकाचिताद्यवस्थोद्रेकरहितानि या न भवन्ति, शेषं समस्तमपि कण्ठ्यं, एवं शर्कराप्रभावालुकाप्रभाविषये अपि सूत्रे वक्तव्ये । पङ्कप्रभापृथिवीनरयिकस्ततोऽनन्तरमुद्धृत्तः तीर्थकरत्वं न लभते, अन्तक्रियां पुनः कुर्यात् , धूमप्रभापृथिवीनैरयिकोऽन्तक्रियामपि न करोति, सर्वविरतिं पुनर्लभते, तमःप्रभापृथिवीनरयिकः सर्वविरतिमपि न लभते, विरत्यविरति-देशविरतिं पुनर्लभते, अधःसप्तमपृथिवीनरयिकः पुन|स्तामपि देशविरतिं न लभते, यदि परं सम्यक्त्वमात्र लभते । असुरादयो यावर्नस्पतिकाया अनन्तरमुवृत्ताः तीर्थ करत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः कुर्युः । वसुदेवचरिते पुनर्नागकुमारेभ्योऽप्युवृत्तोऽनन्तरमैरावतक्षेत्रेऽस्यामेवावस18 पिण्यां चतुर्विशतितमस्तीर्थकर उपदर्शितः, तदत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्ति । तेजोवायवोऽनन्तरमुवृत्ताः अन्तक्रिNयामपि न कुर्वन्ति, मनुष्येषु तेषामानन्तर्येणोत्पादाभावाद्, अपि च ते तिर्यक्षुत्पन्नाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म श्रवणतया लभेरन्, न तु बोधत इत्युक्तं प्राक, वनस्पतिकायिका अनन्तरमुद्दृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अंतक्रियां पुनः कुर्युः ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं --------------- मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] मज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥४०३॥ दीप अनुक्रम [५०५] द्वित्रिचतुरिन्द्रिया अनन्तरमुवृत्तास्तामपि न कुर्वन्ति, मनःपर्यायज्ञानं पुनरुत्पादयेयुः, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्त- २०अन्तरज्योतिष्का अनन्तरमुवृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः कुयुः, सौधर्मादयः सर्वार्थसिद्धिपर्यवसाना नैर- क्रियापदे यिकवद्वक्तव्याः । गतं तीर्थकरद्वार, सम्प्रति चक्रवर्त्तित्वादीनि द्वाराण्युच्यन्ते चक्रवर्ति त्वाद्याप्तिः रयणप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! अणंतरं उपट्टित्ता चक्कवहिवं लभेज्जा, गो! अत्थे० लभेज्जा अत्थे• नो लभेजा, से सू. २६४ केणडेणं भंते ! एवं बुक, गो०! जहा रयणप्पभापुढविनेरइवस्स तित्थगरत्तं । सकरप्पभानेरइए अणंतर उवहिचा चकवहितं लभेजा, गो! नोति०, एवं जाव अधेसत्तमापुढविनेरइए, तिरियमणुएहिंतो पुच्छा, गोणोति०, भवणपतिवाणमंतरजोतिसियवेमाणिएहितो पुच्छा, गो! अत्थे० ल० अत्थे० नो लभेजा, एवं बलदेवपि, गवरं सक्करप्पभापुढविनेरइएवि लभेज्जा, एवं वासुदेवत्तं दोहितो पुढवीहिंतो वेमाणिएहितो य अणुत्तरोववाइयवहितो, सेसेसु नो ति०, मंडलियत्तं अधेसत्तमा तेउवाऊवओहितो, सेणावहरयण माहावइरयणत्तं वतिरयण पुरोहियरयण इत्थिरयण(ग) च एवं चेव, णवर अणुत्तरोववाइयवओहितो, आसरयण हस्थिरयणचं रयणप्पमाओ गिरंतरं जाव सहस्सारो, अत्ये० लभेज्जा अत्थे० नो लभेज्जा, चकरयण छत्तरयण चम्मरयण दंडरयण असिरयण मणिरयण कागिणिरय- R४.३॥ णतं एतेसिणं असुरकुमारेहितो आरद्ध निरंतरं जाव ईसाणाओ उववाओ, सेसेहितो नो तिणहे समढ़े (सूत्र २६४) तत्र चक्रवर्तित्वं रत्नप्रभानरयिकभवनपतिभ्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेभ्यो न शेषेभ्यो, बलदेववासुदेवत्वे शर्करातोऽपि, ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६४] दीप नवरं वासुदेवत्वं वैमानिकेभ्योऽनुत्तरोपपातवर्जेभ्यः, मण्डलिकत्वमधःसप्तमतेजोवायुवर्जेभ्यः शेषेभ्यः सर्वेभ्योऽपि स्थानेभ्यः, सेनापतिरनत्वं गाथापतिरलत्वं वार्द्धकिरनत्वं पुरोहितरनत्वं स्त्रीरलत्वं चायःसप्तमपृथिवीतेजोवायुअनु|त्तरोपपन्नदेववर्जेभ्यः शेषेभ्यः स्थानेभ्यः, अश्वरत्नत्वहस्तिरनत्वे रत्नप्रभात आरभ्य निरन्तरं यावदासहस्रारात्, चक्ररत्नत्वं छत्ररत्नत्वं चर्मरत्नत्वं दण्डरनत्वमसिरत्नत्वं मणिरत्नत्वं काकणिरत्नत्वं चासुरकुमारादारभ्य निरन्तरं यावदीशा-19 नात् , सर्वत्र विधिवाक्ये 'अत्थेगइए लभेजा अत्वेगइए नो लभेजा' इति वक्तव्यं, प्रतिषेधे 'णो इण? समडे' इति । तदेवमुक्तानि द्वाराणि, सम्प्रति उपपातगतं किश्चिद्वक्तव्यमस्तीति तदभिधित्सुराह अह भंते ! असंजयभवियदबदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाण अचिराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमासंजमाणं असणीण तायसाणं कंदप्पियाणं चरगपरिवायगाणं किविसियाणं तिरिच्छियाणं आजीवियाणं आभिओगियार्ण सलिंगीणं देसणवावण्णगाण देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्स कहि उववाओ पण्णतो, गो! असंजयभविषदबदेवाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उको० उवरिमगेवेजएम, अविराहियसंजमाणं जह० सोहम्मे कप्पे उको सबट्टसिद्धे, विराहियर्सजमार्ण जह० भवणवासीसु उको सोहम्मे कप्पे, अबिराहियसंजमासंजमाणं जह सोहम्मे कप्पे उको अचुए कप्पे, विराहितसंजमासंजमाणं ज. भवणवासीसु उको जोतिसिएसु, असमीणं जहन्नेणं भवणवासीसु उ० वाणमंतरेसु, तावसाणं ज० भवणवासीसु उको जोइसिएसु, कंदप्पियाणं ज० भवणवासीसु उ० सोहम्मे कप्पे, चरगपरिवायगाणं ज० अनुक्रम [५०६] ~411~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 2009 [२६५] संयतादेः सू. २६५ दीप प्रज्ञापना भवणवासीसु उ० बमलोए कप्पे, किच्चिसियाणे जह• सोहम्मे कप्पे उ० लतए कप्पे, तिरिच्छियाणं जह० भषणकासीसु २०अन्तया: मल- उ० सहस्सारे कप्पे, आजीवियाणं ज० भवणवासीसु उ० अञ्चुए कप्पे, एवं आमिओगाणवि, सलिंगीणं दसणवावणा- क्रियापदे यवृत्ती. गाणं ज० भवणवासीसु उ० उवरिमगेवेजएमु (सूत्र २६५) उपपातो||४०४॥ अह भंते !' इत्यादि, अथेति परप्रश्ने 'असंजयमवियदवदेवाण मिति असंयताः-चरणपरिणामशून्या भव्यादेवत्वयोग्याः अत एव द्रव्यदेवाः, समासश्चैव-असंयताच ते भव्यद्रव्यदेवाश्चासंयतभन्यद्रव्यदेवास्तेषां, तत्रैके प्रादु:एते किलासंयतसम्यग्दृष्टयो देवेषूत्पादात्, उक्तं च किलैवमागमे-"अणुचयमहबएहि य बालतयोकामनिजराए । देवा निबंधा सम्मट्टिी य जो जीवो ॥१॥" [अणुव्रतमहानतालतपोऽकामनिर्जरया च । देवायुष्का निवनाति सम्यग्दृष्टिश्च यो जीवः ॥१॥] तदयुक्तम् , यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरितनौवेयकेषूपपातो वक्ष्यते, सम्यग्दटीनां तु देशविरतानामपि न तत्रोपपातोऽस्ति, देशविरतश्रावकाणामप्यच्युतादुर्द्धमगमनात् , नाप्येते निवास्तेषामिहैव भेदेनाभिधानात् , तस्मान्मिभ्यादृष्टय एवाभव्या भव्या वा श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणोऽसंयतभव्यद्रव्यदेवाः प्रतिपत्तव्याः, तेऽपीहाखिलकेवलक्रियाप्रभावत उपरितनदेयकेषूत्पद्यन्त एवेति, ४०४ असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात् , 'अविराहियसंजमाण मिति प्रव्रज्याकालादारभ्याभमचारि-19 त्रिपरिणामानां संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकवशाद्वा खल्पमायादिदोषसम्भवेनापि अनाचरितसर्वथाच अनुक्रम [५०७] 522930: ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] दीप रणोपघातानामित्यर्थः, तथा 'विराहियसंजमाणं'ति विराधिता-सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्रायश्चिचप्रतिपत्ता भूयः सन्धितः संयमो यैस्ते विराधितसंयमास्तेषां 'अविराहियसंजमासंजमाणं'ति प्रतिपत्तिकालादारभ्याखण्डितदेशविरतिपरिणामानां श्रावकाणां 'विराहियसंजमासंजमाण मिति पिराधितः-सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्राय चित्तप्रतिपत्त्या पुनर्नवीकृतः संयमासंयमो यैस्ते विराषितसंयमासंयमास्तेषां, असंजिनां-मनोलन्धिरहितानामकामनिर्जरावतां तथा 'तावसाण'ति परिशटितपत्राद्युपभोगवतां बालतपखिना, तथा 'कंदप्पियाति कन्दप्पः-परिहासः स एषामस्ति तेन वा ये चरन्ति ते कान्दर्णिकाः, कान्दर्पिका व्यवहारतश्चरणवन्त एव कन्दर्पकौकुच्यादिकारकाः, उक्तं च-"कंदप्पे कुक्कुइए दवसीले यावि हासणकरे य । विम्हावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ॥१॥ कहकहकहस्स हसणं कंदप्पो अणिया य उल्लावा। कंदप्पकहाकहणं कंदप्पुवएस संसा य ॥२॥ मुमनयणवयण-18 दसणच्छदेहिं करपायकण्णमाईहिं । तं तं करेइ जह जह हसइ परो अत्तणा अहसं ॥३॥ वायाइ कुकुओ पुणतं जंपइ जेण हस्सए लोओ। णाणाविहजीवरुते कुबइ मुहतूरए चेव ॥४॥ भासइ दुयं २ गच्छए य दरिओ(य)गोव सो सरए । सचं दवं कुणइ [कारी] फुट्टइ वहि(भरि)ओ य दप्पेणं ॥५॥ वेसवयणेहिं हास जणयंतो अप्पणो परेसिं च । अह हासणोत्ति भण्णइ घयणोच छले नियच्छंतो ॥६॥ सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कुणइ तबिहजणस्स । तेसु न विम्हद य सयं आहडकहठएसुं च ॥७॥ जो संजओबि एयासु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ । सो| अनुक्रम [५०७] REaratundMond ~413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] दीप तविहेसु गच्छद सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥८॥"[कन्दर्प कौकुच्ये द्रवशीलवापि हास्यकरश्च । विस्मापयन् परंI प्रज्ञापना २०अन्तया: मल कान्दपी भावनां करोति ॥१॥ कहकहकहेतिहसनं कन्दर्पः अनिभृताश्चोल्लापाः। कन्दर्पकथाकथनं कन्दर्पोपदेशप्रशंसे किया यवृत्ती. च ॥२॥ भ्रूनयनवदनदशनच्छदैः करपादकर्णादिभिः । तत्तत्करोति यथा यथा हसति पर आत्मनाऽहसन् ॥३॥ उपपातो वाचा कुकुचः पुनस्तत् जल्पति येन हसति लोकः । नानाविधजीवरुतान् करोति मुखतूर्योण्येव ॥४॥ भाषन् । ॥४०५॥ द्रुतं २ गच्छति च दृसो गौरिव सरति सः । सर्वं द्रव्यं करोति स्फुटति च भृतो दर्पण ॥ ५॥ वेषवचनाभ्यां हास सू. २१५ जनयन् आत्मनः परेषां च । असौ हसन इति भण्यते धृतन इव छलानि गवेषयन् ॥ ६॥ इन्द्रजालादिभिस्तु विस्मयं करोति तथाविधजनानां । न विस्मयते खयं आहत्योत्कथनेन स्थगकश्च ॥७॥ यः संयतोऽप्येतावप्रशवास्तासु भावनां करोति । स तद्विधेपु गच्छति सुरेषु भक्तश्चरणहीनः ॥८॥ तेषां कान्दर्घिकाणां, 'चरगपरिवाय-13 ISयाण'ति चरकपरिबाजका-धाटिभैक्षोपजीविनखिदण्डिनः, अथवा चरकाः-कच्छोटकादयः परित्राजकाःIS कपिलमुनिसूनवः, चरकाश्च परित्राजकाच तेषां, तथा 'किषिसियाणं'ति किल्विषं-पापं तदस्ति येषां ते किल्वि पिकास्ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव ज्ञानाद्यवर्णवादिनः, उक्तं च-"नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स सबसाहूणं । माई अवण्णवाई किपिसियं भावणं कुणइ ॥१॥ काया क्या य ते चिय ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहि-1हा गारियाणं जोइसजोणीहि किं कर्ज? ॥२॥ एगंतरमुप्पाए अण्णोण्णावरणया दुवेण्हंपि । केवलदसणनाणाणमे अनुक्रम [५०७] ॥४०५॥ ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५] दीप |गकाले व एगत्तं ॥ ३ ॥ जच्चाईहि अयण्णं विहसइ वट्टइ नयावि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही पगासवाई अणणु कूलो॥४॥ अविसहणातुरियगई अणाणुवत्ती य अवि गुरूणंपि । खणमेत्तपीइरोसा गिहवच्छलगा य संजइया |॥५॥ गृहइ आयसहावं घायइ य गुणे परस्स संतेवि । चोरोच सबसंकी गूढायारो वितहभासी ॥६॥ [ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्यसर्वसाधूनां । माय्यवर्णवादी किल्बिषिकी भावनां करोति ॥१॥ काया व्रतानि च तान्येव तावेव प्रमादाप्रमादौ । मोक्षाधिकारिणां ज्योतियोनिभिः किं कार्य ॥२॥ एकान्तरोत्पादे अन्योऽन्यावरणता द्वयोरपि । केवलज्ञानदर्शनयोरेककालत्वे चैकत्वं ॥ ३ ॥ जात्यादिभिरवर्ण (वदति) वर्त्तते न चाप्युपपाते । अहितश्छिद्रप्रेक्षी प्रकाशवादी अननुकूलः ॥ ४ ॥ अविषहना मन्दगतयो अननुवृत्तयो गुरूणामपि । क्षणमात्रप्रीतिरोपा गृहवत्सलकाश्च संयतकाः ॥५॥ गृहत आत्मखभावं घातयति च गुणान परेषां सतोऽपि । चौर इव सर्वशङ्की गूढाचारो वितथभापी॥६॥] तेषां, "तिरिच्छियाणं ति तिरश्चा-गयादीनां देशविरतिभाजां 'आजीवियाणीति आजीविकाः-पाखण्डविशेषाः गोशालमतानुसारिणः अथवाऽज्जीवन्ति ये अविवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिश्चरणादीनि इत्याजीविकाः तेषां, तथा 'आभियोगियाणं'ति अभियोजन-विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि अभियोगः, स च द्विधा, यदाह-"दुविहो खलु अभिओगो दवे भावे य होइ नायचो । दमि होति जोगा [विज्जा मंता य भावम्मि ॥१॥" [द्विविधः खलभियोगो द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्ये भवन्ति योगा Recenesesesentatoes अनुक्रम [५०७] 889aer FarPranaswamincom ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६५] दीप अनुक्रम [५०७ ] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • मूलं [ २६५] पदं [२०], ------------ उद्देशकः [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल ॥४०६ ॥ विद्या मन्त्राश्च भावे ॥ १ ॥ ] सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति ये ते अभियोगिका आभियोगिका वा, ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव मन्त्रादिप्रयोक्तारः, उक्तं च- " कोउय भूईकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इद्धिरससायय० वृत्तौ. गरुओ अभिओगं भावणं कुणइ ॥ १ ॥” कौतुकं - सौभाग्याद्यर्थं सपनं भूतिकर्म- ज्वरितादिभूतिदानं प्रश्नाप्रश्नःॐ वनविद्यादि, 'सलिंगीण' मिति रजोहरणादिसाधुलिङ्गवतां, किंविधानामित्याह – 'दंसणवावण्णगाणं'ति दर्शनं— सम्यक्त्वं व्यापन्नं-भ्रष्टं येषां ते तथा तेषां निहवानामित्यर्थः, 'देवलोगेसु उववजमाणाणं ति अनेन देवत्वादहे न्यत्रापि यथाऽध्यवसायमुत्पादो भवतीति प्रतिपादितं, 'विराहियसंजमाणं जहणणेणं भवणवासीसु उकोसेणं ६ सोहम्मे' इति, अत्र कश्चिदाह-- विराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं तत्कथं घटते १, द्रौपद्याः 8 सुकुमालिकाभये विराधितसंयमाया अपि ईशानकल्पे उत्पादश्रवणात्, नैष दोषः, तस्या हि संयमविराधना उत्तरगुणविषया वकुशत्व मात्रकारिणी न मूलगुणविराधना, सौधर्मोत्पादश्च प्रभूततरसंयमविराधनायां भवति, यदि पुनविराधनामात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारणं स्यात् तदा वकुशादीनामुत्तरगुणादिप्रतिसेवावतां कथमच्युतादिषूत्पत्तिरुपपद्यते ?, कथञ्चिद्विराधकत्वात्तेषामिति । असंज्ञी देवेपूत्पद्यते इत्युक्तं स चायुषा इति तदायुर्निरूपयति Education intentiona ------ कतिविहे णं भंते ! असण्णियाउए पण्णत्ते ?, गो० ! चउविधे असण्णिआउए पं० तं० - नेरइयअसण्णियाउए जाव देवअसण्णियाउए । असण्णी णं भंते ! जीवे किं नेरड्याउयं पकरेति जान देवाउयं पकरेति ?, गो० ! नेरइयाउयं पकरेति For Parts Only ~416~ २० अन्त क्रियापदे उपपातो ऽसंयतादेः सू. २६५ ॥४०६ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६६] दीप जाव देवाउयं पकरेति, नेरइयाउं पकेरमाणे जह• दस वाससहस्साई उ० पलिओवमस्स असंखेजइभार्ग फरेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जह० अंतो० उक्को० पलितोवमस्स असंखेजइभागं करेति, एवं मणुस्साउयंपि, देवाउयं जहा नेरइयाउयं । एयस्स णं भंते ! नेरइयअसण्णिआउयस्स जाव देवअसण्णिआउयस्स कतरे२ हिंतो अप्पा वा ४ १, गो० ! सबत्थोवे देवअसण्णियाउए मणसअसण्णिाउए असंखेजगुणे तिरिक्खजोणियअसण्णिआउए असंखे० नेरइयअसण्णिआउए असंखे । (सूत्रं २६६) पण्णवणाए वीसहमं पदं समत्तं ॥२०॥ 'कइविहे 'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'असण्णिआउएत्ति असंज्ञी सन् यत्परभवयोग्यमायुर्वनाति तदसंघ्यायुः, |'नेरइयअसन्नियाउए'इति नैरयिकप्रायोग्यमसंख्यायुरयिकासंझ्यायुरेवमन्यान्यपि, इहासंघ्यायुरसंझ्यवस्थानुभूयमानम-15 प्युच्यते न चेदमत्र प्रकृतमतस्तत्कृतलक्षणसम्बन्धविशेषनिरूपणार्थमाह-'असण्णी' इत्यादि, व्यक्तं नवरं 'पकरेइ' इति बनाति, 'दस वाससहस्साई' इति रत्नप्रभाप्रथमप्रस्तटमधिकृत्य 'उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभार्ग इति एतत् रत्नप्रभाचतुर्थप्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमधिकृत्य, प्रथमप्रस्तटे हि जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टा नवतिः सहस्राणि, द्वितीये दश लक्षाणि जघन्या उत्कृष्टा नवतिर्लक्षाणि, एव तृतीये जघन्या उत्कृष्टा पूर्वकोटी, एषैव चतुर्थे जघन्या उत्कृष्टा सागरोपमस्य दशभागः, ततोऽत्र पल्योपमासयेयभागो मध्यमा थितिर्भति, तिर्यक् सूत्रे पल्योपमासङ्ख्येयभागो मिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्य, 'एवं मणुयाउयंपि' इति जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्क अनुक्रम [५०८] For P OW ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२०], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २१शरीर प्रज्ञापना-18 पतः पल्योपमासङ्ख्येयभागमित्यर्थः, अत्रापि पल्योपमासङ्ख्येयभागो मिथुनकनरानाश्रित्य प्रतिपत्तव्यः, 'देवाउयं जह या मल- नेरइयाउय'मिति देवासंघ्यायुस्तथा वक्तव्यं यथा नैरयिकासंघ्यायुर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपमाय.वृत्ती. समययभागप्रमाणं वक्तव्यमिति भावः, 'एयस्स ण भंते' इत्यादिना यदसंझ्यायुपोऽल्पबहुत्वं तदस्य इखदीर्घत्वे प्रतीस ॥ इति श्रीमलयगिर्याचार्यविरचितायां श्रीप्रज्ञापनावृत्ती विंशतितमं पदं समाप्तम् ॥२०॥ ॥४०७॥ प्रत सूत्रांक [२६६] पद अथ एकविंशतितमं शरीरपदं प्रारभ्यते ॥ २१ ॥ दीप अनुक्रम [५०८] र व्याख्यातं विंशतितम पदं, इदानीमेकविंशतितममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषोऽन्तक्रियारूपपरिणाम उक्तः, इहापि गतिपरिणामविशेष एव शरीरस्य संस्थानादिर्नरकादिगतिपूत्पन्नानां प्रतिपाद्यते, अत्र चेयमधिकारगाथाविहिसठाणपमाणे पोग्गलचिणणा सरीरसंजोगी। दचपएसऽप्पबहुं सरीरोगाहणऽप्पबई ॥१॥ कति णं भैते ! सरीरया पणचा? गो.! पंच सरीरया पं०, तं०-ओरालिए १ वेउबिए २ आहारए ३ तेयए ४ कम्मए ५, ओराछियसरीरेणं ॥४०७॥ Bederaeएस्ट अत्र पद (२०) "अन्तक्रिया" परिसमाप्तम् । अथ पद (२१) "अवगाहनासंस्थान (शरीर)" आरब्धम् ...अस्य अध्ययनस्य आगम-गाथा (मूल-८) दर्शित-नाम “अवगाहनासंस्थान" अस्ति, किंतु अत्र मूल-संपादकेन “शरीर” इति नाम लिखितम् ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं --------------- मूलं [२६७] + गाहा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] गाथा Recenecembeen भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! पंचविधे पं०, त-एगिदियओरालियसरीरे जाव पंचिंदियओरालियसरीरे, एगिदियओरालियसरीरे भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! पंचविहे पं०, तं-पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे जाव वण'फइकाइयएगिदियओरालियसरीरे, पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पं०१, गो०! दुविहे पं०, तं०-सुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे बादरपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे य, सुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे गं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दु.५०,०-पज्जत्तगसुद्मपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे य अपञ्जत्तगसुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे थ, बादरपुढविकाइयावि एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालियत्ति, बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दुविधे पं०, तं०-पञ्जतचेईदियओरालियसरीरे य अपजत्चगबेइंदियओरालियसरीरे य, एवं तेइंदिया चउरिदियादि । पंचिंदियओरालियसरीरे गं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दुविधे, पं० त०-तिरिक्खजोणियपंचिदियओरा०मणुस्सपंचिंदियओरा०,तिरिक्खजोणियपर्चिदियओरालियसरीरे णे भंते ! कतिविधे पं०१, गो! तिविधे पं०,०-जलयरतिरिक्खजोणियपंचिं० ओरालियों थलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियओरा० खयरति. पंचिं० ओरा०, जलयरतिरि०पं० ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०, गो! दुविधे, पं०, तं०-संमुच्छिमजल.५०तिरि० ओरालि० गब्भवकंतिजलयरपंचि० तिरि० ओरालियसरीरे य, समुच्छिमजल. तिरि० पंचिंदियओरालियसरीरेणं भंते ! कति विधे पं०१, गो! दुविहे पं०, तं०पजत्तगसंमुच्छिमपंचिं० तिरि०ओरा० अपजत्तगसमुच्छिम पं०ति ओरालि., एवं गम्भवतिएवि, थलयरपंचिं. दीप अनुक्रम [५०९-५१०] | अथ औदारिकशरीरस्य भेद-प्रभेदा: आरभ्यते ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं --------------- मूलं [२६७] + गाहा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २१शरीर प्रत सूत्रांक [२६७] प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. पदं कारseene રાજા गाथा तिरिक्ख ओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविधे, पं०१, गो०! दुविहे पं०,०-चउप्पयथलयर०तिरि० पंचिक ओरा० परिसप्पथल तिरि०५० ओ०, चउप्पयथल तिरि० पंचि. ओरालियसरीरे भंते ! कतिविधे पं०१, गो.! दुविहे 40, तं०-समु० थल०चउप्पयतिरि० पं०ओरा० गम्भवतिय चउपयथल ति०५०ओरा०, समुच्छिमचउ० ओरालियसरीरे काबिहे पं०१, गो०! दुविधे पं०,०-पजत्तसंमु० चउ० थल० तिरि० पंचिक ओरा० अपज्जतसमुच्छिमचंउ० थल तिरि० पंचिं० ओरा०, एवं गन्भवतिएवि, परिसप्पथलयरतिरि० पंचि० ओरा० भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दु०५०, तं०-उरपरिसप्पथल पं० तिरि० ओरा० भुवपरिसप्पथलपं० तिरि० ओरालियसरीरे य, उरपरिसप्पथल पंचिं० तिरि० ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०1, गो०! दु०प०,०-संमुग्छिमउर० थल पंचिक तिरि० ओरा० गम्भवकंतियउर० थल० तिरि० पंचिं० ओरा०, समुच्छिमे दुविहे पं०,०-अपजत्तसंमु० उर० थल तिरि० पंचिं० ओरालियसरीरे य पजत्तसमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरि०पंचिक ओरालि०, एवं गमवतियउरपरिसप्पे चउकतो भेओ, एवं भुयपरिसप्पावि समुच्छिमगम्भवतियपञ्जत्ता अपजत्ता य, खहयरा दुविधा, पं०,०-समुच्छिमा य गम्भवकंतिया य, समुच्छिमा दुविधा पं०१, पज्जना अपज्जचा य, गम्भवतियाषि पञ्जता अपजता य । मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०, गोरी बिहे पं०,०-समुच्छिममणूसर्पचिं. ओरा० य गन्भवतियमणूसपंचिं० ओरालि०, गम्भवतियम० पंचिं० ओरालियसरीरेण भंते ! कतिविधे पं०१, मो०! दु०५०, तं०-पअत्तगगम्भवकंतियमणूसपंचिंदियओरा० अपञ्जत्तगगम्भ० मणूसपंचिंदियोरा० (सूत्र २६७) दीप अनुक्रम [५०९-५१०] censesee es ४०८॥ ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं --------------- मूलं [२६७] + गाहा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] गाथा रहरeeseseemeरररर 'विहिसंठाणपमाणे' इत्यादि प्रथम विधयो-भेदाः शरीराणां वक्तव्याः, तदनन्तरं संस्थानानि, ततः प्रमाणानि, तदनन्तरं कतिभ्यो दिग्भ्यः शरीराणां पुद्गलोपचयो भवतीत्येवं पुद्गलचयनं वक्तव्यं, ततः कस्मिन् शरीरे सति किं शरीरमवश्यंभावीत्येवंरूपः परस्परसंयोगो वक्तव्यः, ततो द्रव्याणि च प्रदेशाश्च द्रव्यप्रदेशाः ते च द्रव्याणि च प्रदेशाश्च द्रव्यप्रदेशाः 'समानानामेकशेषः' इत्येकशेषस्तैरल्पबहुत्वं वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया || द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया च पञ्चानामपि शरीराणामल्पबहुत्वमभिधातव्यमिति, ततः पञ्चानामपि शरीराणामवगाहना-18 विषयमल्पबहुत्वं वाच्यमिति गाथासक्षेपार्थः । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमतो विधिद्वारमभिधित्सुरादौ शरी-13 रमूलभेदान् प्रतिपादयति,–'कद णं भंते ! इत्यादि, कति-किंपरिमाणानि णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त । शीर्यन्ते-प्रतिक्षणं विशरारुभावं विनतीति शरीराणि, शरीराण्येव शरीरकाणि, तथा स्वार्थे कप्रत्ययः, भगवानाहगौतम ! पश्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि मया अन्यैश्च शैपैस्तीर्थकृद्भिः, तान्येव नामत आह-ओरालिए' इत्यादि, उदारं| प्रधान, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीराण्यधिकृत्य, ततोऽन्यस्यानुत्तरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारं-1 सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं, बृहत्ता चास्य वैक्रियं प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथा उत्तरवैक्रिय योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेव औदारिकं विनयादिपाठादिकण् , तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भयं वैक्रियं, तथाहि-तदेकं भूत्वा अनेकं भवति अनेकं. भूत्वा एकं दीप अनुक्रम [५०९-५१०] SAREauratonintamational ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं --------------- मूलं [२६७] + गाहा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. पदं 1४०९॥ गाथा तथा अणु भूत्वा महद्भवति महच भूत्वा अणु तथा खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति भूमिचरं भूत्वा खचरं तथा दृश्यं २१शरीरभूत्वा अदृश्यं भवति अदृश्यं भूत्वा दृश्यमित्यादि, तच द्विविधं-औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च, तत्रौपपातिकमुपपा-18 |तजन्मनिर्मितं, तच देवनारकाणां, लब्धिप्रत्ययं तिर्यग्मनुष्याणां, तथा 'आहारए' इति आहारकं चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्ती सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाहियते-निवर्त्यते इत्याहारकं, 'कृद्धहुल'[मिति वचनात् कर्मणि वु, यथा पादहारक इत्यत्र, उक्तं च-"कजंमि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए। जं एत्थ आहरिजइ भणितं आहारगं तं तु ॥१॥"[कार्ये समुत्पन्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलब्ध्या । यदत्राहियते भणितमाहारकं तत् ॥१॥] कार्य चेदम्-"पाणिदयरिद्धिदंसणसुदुमपयत्वावगणहेउं वा। संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपायमूलंमि ॥२॥" [प्राणिदयर्द्धिदर्शनसूक्ष्मपदार्थावगाहनहेतोश्च । संशयव्यवच्छेदार्थ गमनं जिनपादमूले ॥१॥] तच वैक्रियशरीरापेक्षया अत्यन्तशुभं खच्छस्फटिकशिलेव शुभ्रपुद्गलसमूहघटनात्मकं, तेज इति-तेजसं तेजसः-तेजःपुद्गलानां विकारस्तैजसं 'विकार' इत्यण, तत् ऊष्मलिङ्गं भुक्ताहारपरिणमनकारणं, तशाच विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः, उक्तं च-"सच्चस्स उम्हसिद्धं रसाइआहारपाकजणगं च .॥ तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायचं ॥१॥" [ सर्वस्योष्मसिद्धं रसाद्याहारपाकजनकं च । तेजोलब्धिनिमिवंश च तेजसं भवति ज्ञातव्यम् ॥१॥] 'कम्मए' इति कर्मणो जातं कम्मंज, किमुक्तं भवति ?-कर्मपरमाणव एवा दीप अनुक्रम [५०९-५१०] ~422~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं --------------- मूलं [२६७] + गाहा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] 928999292028कन गाथा त्मप्रदेशैः सह ये क्षीरनीरवत् अन्योऽन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणतास्ते कर्मजं शरीरमिति, अत एवैतद-19 न्यत्र कार्मणमित्युक्तं, कर्मणो विकारः कार्मणमिति, तथा चोक्तम्-“कम्मविगारो कम्मणमट्ठविहविचित्तकम्म |निप्फन । सबेसि सरीराणं कारणभूतं मुगेयवं ॥१॥" [कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नं । सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं मुणितव्यं ॥१॥] अत्र 'सबेसिमिति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीजभूतं कार्मणशरीरं, न खल्वामूलसमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहवीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः, इदं च कर्मज शरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसङ्क्रान्तौ साधकतमं करणं, तथाहि-कर्मजेनैव वपुषा तैजससहितेन परिकरितो जन्तुमरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति, ननु यदि तैजससहितकार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं सामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् वा कस्मान दृष्टिपथमवतरति ?, उच्यते, कर्मपुद्गलानां चातिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् , तथा च परतीर्थिकैरप्युक्तम्-"अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन् वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥" इति । सम्प्रति औदारिकशरीरस्य जीवजातिभेदतोऽवस्थाभेदतश्च भेदानभिधित्सुराह-'ओरालिय| सरीरे णं भंते !' इत्यादि, औदारिकशरीरमेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदात् पञ्चधा, एकेन्द्रियौदारिकशरीरमपि पृथिव्यपूतेजोवायुषनस्पतिएकेन्द्रियभेदात् पञ्चविधं, पृथिवीकायिकैकेन्द्रियौदारिकशरीरमपि सूक्ष्मेतरभेदाद् द्विधा, पुनरेकैकं द्विधा पर्याप्तापर्याप्तभेदात्, एवमप्लेजोवायुवनस्पत्येकेन्द्रियौदारिकशरीराण्यपि प्रत्येकं चतुर्विधानीति सर्वसङ्घय दीप अनुक्रम [५०९-५१०] ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं --------------- मूलं [२६७] + गाहा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] य०वृत्ती. गाथा प्रज्ञापना ॥ येकेन्द्रियौदारिकशरीराणि विंशतिधा, द्वित्रिचतुरिन्द्रियौदारिकशरीराणि प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तभेदात् द्विभेदानि,२१शरीरया मल- पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं द्विविधं-तिर्यग्मनुष्यभेदात् , तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं त्रिधा, जलचरस्थलचरखचरभे-रापदं दात् , जलचरतिर्यपश्चेन्द्रियौदारिकशरीरं द्विविधं-सम्मूर्छिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् , एकैकमपि पुनर्द्विभेद पर्याप्तापर्याप्तभेदात्, स्थलचरतियक्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि द्विधा-चतुष्पदपरिसर्पभेदात् , चतुष्पदस्थलचरति-N ॥४१०॥ पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि द्विधा-सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात्, पुनरेकैकं द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदात् ,N परिसर्पस्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि उरःपरिसर्पभुजपरिसर्पभेदतो द्विभेद, पुनरेकैकं द्विधासम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् , तत्रापि पुनः प्रत्येकं द्वैविध्यं पर्याप्तापर्याप्तभेदात् , सर्वसङ्ख्ययाऽटभेदं परिसर्पस्थ लचरतिर्यपश्चेन्द्रियौदारिकशरीरं, खचरतिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं सम्मूच्छिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् द्विभेदं, 18| पुनरेकै द्विधा-पर्याप्सापर्याप्तभेदादिति, सर्वसङ्ख्यया तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं विंशतिभेदं, मनुष्यपञ्चेन्द्रियी-1 दारिकशरीरं सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् द्विभेदं, पुनरेकैकं द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् । एवमौदारिकस्य | भेदा उक्ताः, सम्प्रत्येतेषामेव यथाक्रमं संस्थानान्याह K ॥१०॥ ओरालियसरीरेणं भंते ! किंसंठिते पन्नने, गो०! णाणासंठाणसंठिते पं०, एगिदियओरा० किंसंठिते पं०१, | गो० ! णाणासंठाणसंठिते पं०, पुढविकाइयएगिदियओरा. किंसंठिते पं०१, गो०। मसूरचंदसंठाणसंठिते पं०, एवं दीप अनुक्रम [५०९-५१० | अथ औरादिकशरीरस्य संस्थानानि आरभ्यते ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६८] दीप roeiserseasoeeroeseasese सहमपटविकाइयाणवि बादराणवि, एवं चेव पजत्तापज्ज चाणवि, [एवं चेव] आउकाइयएगिदियओरा० भंते ! किंसंठिते पं०१, गो.! थियुकबिंदुसठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादरपञ्जत्तापज्जत्ताणवि, तेउकाइयएगि० उरा० भंते ! किंसंठिते पं०१,गो! सूईकलावसंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादपज्जत्तापज्जत्ताणवि, वाउकाइयाणवि पडागासंठाणसंठिते, एवं सुहुमवादरपजचापज्जत्ताणवि, वणफइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादरपजचापजत्ताणवि । बेइंदियओरा० भंते ! किंसं०५०१, गो०! हुंड संठाणसंठिते पं०, एवं पजत्तापजचाणवि, एवं तेइंदियचउरिंदियाणावि । पंचिंदियतिरिक्खजोणियपंचिक ओरा भंते ! किंसंठा०५०१, गो.! छबिहसंठाणसं० पं०, तं.---समचउससंठाणसं० जाव हुंडसंठाणसंठितेवि, एवं पञ्जत्तापजत्ताणवि ३, समुच्छिमतिरिक्खजी० पंचिक ओरा० भंते 1 किसं०५०१, गो०! हुंडसंठाणसंठिते पं०, एवं पजत्तापज्जताणवि, गब्भवकं तिरिक्ख. पंचिंदिय० ओरा० भंते ! किंसंठा०पं०१, गो० छबिहसंठाणसं०५०, तं०-समचउरंसे जार हुंडसंठा०, एवं पजत्तापजत्ताणवि ३, एवमेते तिरिक्खजोणियाणं ओहियाणं णव आलावगा, जलयरपं० तिरि० ओरा० भंते! किंसंठाणसंठिते पं०१, गो०1 छबिहसंठाणसं०५०, तं०-समचउरंसे जाव हुंडे, एवं पज्जत्तापजत्ताणवि, समुच्छिमजलयरा हुंडसंठाणसंठिता, एतेसिं चेव पज्जत्तावि अपज्जत्तगावि एवं चेव, गब्भवतियजलयरा छबिहसंठाणसंठिता, एवं पजत्तापजत्ताणवि, एवं थलयराणवि णव सुत्ताणि एवं चउपयथलयराणवि उरपरिसप्पथलयराणवि भुयपरिसप्पथलयराणवि, एवं खहयराणवि णव सुत्ताणि, नवरं सहत्य संमुच्छिमा हुंड संठाणसंठिता भाणितवा, इयरे छसुवि । मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते! किंसंठाणसं अनुक्रम [५११] ~425~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: IN पर्द प्रत सूत्रांक [२६८] दीप प्रज्ञापना-31 ठिते पं० १, गो! छविहसंठाणसंठिते पं०, त-समचउरंसे जाव हुंडे, पजत्तापज्जत्ताणवि एवं चेव, गम्भवतिया- २१शरीरया: मल- णवि एवं चेच, पजत्तापज्जत्ताणवि एवं चेव, समुच्छिमाणं पुच्छा, गो० ! हुंडसंठाणसंठिता पण्णता (सूत्र २६८) यावृत्ती. 'ओरालियसरीरे णं भंते !' इत्यादि, नानासंस्थानसंस्थितं जीवजातिभेदतः संस्थानभेदभावात् , एकेन्द्रियौदारि॥४१॥ कशरीरे नानासंस्थानसंस्थितता पृथिव्यादिषु प्रत्येकं संस्थानभेदात् , तत्र पृथिवीकायिकानां सूक्ष्माणां वादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि मसूरचन्द्रसंस्थानसंस्थितानि, मसूरो-धान्यविशेषः तस्य चन्द्र:-चन्द्राकारमर्द्धदलं तसेव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि, अष्कायिकानां सूक्ष्मादिभेदतः चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि |स्तिबुकबिन्दुसंस्थानसंस्थितानि, स्तिबुकाकारो यो बिन्दुन पुनरितस्ततो वातादिना विक्षिप्तः स्तिबुकबिन्दुस्तस्येव यत्सं स्थानं तेन संस्थितानि, तैजसकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि सूचीकलापसंस्थानसंस्थितानि, शवायुकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि पताकासंस्थानसंस्थितानि, वनस्पतिकायिकानां सूक्ष्मा-19 णां बादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां च प्रत्येकमौदारिकशरीराणि नानासंस्थानसंस्थितानि.देशकालजातिभेदतः तेवार संस्थानानामनेकभेदभिन्नत्वात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येक पर्याप्तानामपर्याप्तानामौदारिकशरीराणि हुंडसंस्थानसं ॥४१शा स्थितानि, तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं सामान्यतः पड्डिधसंस्थानसंस्थितं, तदेवोपदर्शयति-समचउरंससंठाणसंठिए' इत्यादि, यावत्करणात् 'नग्गोहपरिमंडलसंठाणसंठिए साइसं० वामणसं० खुजसंठाणसंठिए हुंडसंठाणसं अनुक्रम [५११] ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६८] दीप अनुक्रम [५११] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - - मूलं [२६८ ] पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ठिए' इति परिग्रहः, तत्र समाः - सामुद्रिकशास्त्रोक्त प्रमाणलक्षणा विसंवादिन्यश्वतस्रोऽस्रयः -- चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्रं, समासान्तो ऽत्प्रत्ययः, समचतुरस्रं च तत्संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थितं समचतुरस्र संस्थानसंस्थितं, तथा न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य तत् न्यग्रोधपरिमण्डलं यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णप्रमाणं अधस्तु न तथा तन् न्यग्रोधपरिमण्डलं, तथा | आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्त्तते इति सादि, यद्यपि सर्व शरीरमादिना सह वर्त्तते तथापि सादित्वंविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमालक्षणोपपन्न आदिरिह लभ्यते, तत उक्तं यथोक्तप्रमाणलक्षणेनेति, इदमुक्तं भवति - यत्संस्थानं नाभेरधः प्रमागोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादीति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र साचीं प्रवचनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचिसंस्थानं, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धः काण्डमतिपुष्टमुपरितना तदनुरूपा न महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधोभागः परिपूर्णो भवति उपरितनभागस्तु नेति, तथा यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उरउदरादि च मडभं तत्कुब्जसंस्थानं, यत्र पुनरुरउदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं हीनं तद्वामनसंस्थानं, यत्र तु सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तद् हुण्डसंस्थानं, समासः सर्वत्रापि पूर्ववत् एवं 'पज्जत्तापज्जत्ताणवि' इति, एवं - उक्तप्रकारेण सामान्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामिव पर्याप्तानां अपर्याप्तानां For Park Use Only ------ ~427~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं --------------- मूलं [२६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६८] दीप प्रज्ञापना- च प्रत्येकं सूत्रं वक्तव्यं, तदेवमेतानि त्रीणि सूत्राणि, एवमेव च सामान्यतः सम्मूछिमतिर्यपञ्चेन्द्रियाणामपि२१शरीरयाः मल- त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि, नवरं तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु हुण्डसंस्थानसंस्थितमिति वक्तव्यं, सम्मूछिमाणामविशेषेण पर्द य. वृत्तौ. सर्वेषामपि हुण्डसंस्थानभावात् , त्रीणि सामान्यतो गर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियाणामपि, नवरं तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु 'छबिह संठाणसंठिए पण्णत्ते' इत्यादि वक्तव्यं, गर्भजेपु समचतुरस्रादिसंस्थानानामपि सम्भवात् , तदेवमेते सामान्यतस्ति॥४१२॥ कार्यपञ्चेन्द्रियविषया नव आलापकाः, अनेनैव क्रमेणैव जलचरतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां सामान्यतः स्थलचराणां चतुष्प दस्थलचराणामुर परिसर्पस्थलचराणां भुजपरिसर्पस्थलचराणां खचरतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां च प्रत्येकं नव २ सूत्राणि वक्तव्यानि, सर्वसषया तिर्यक्रपश्चेन्द्रियाणां त्रिषष्टिः ६३ सूत्राणि मनुष्याणां नव सर्वत्र सम्मूर्षिकमेषु हुण्डसंस्थान च वक्तव्यमितरत्र पडपि संस्थानानि । तदेवमुक्तान्यौदारिकमेदानां संस्थानानि, साम्प्रतमवगाहनामानमाह ओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उको सातिरेगं जोयणसहस्स, एगिदियओरालियस्स वि एवं चेव जहा ओहियस्स, पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरस्स णं भैते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१ गो! ज० उ० अंगुलस्स असंखेजतिभागं, एवं अपज्जतयाणवि पजत्तयाणवि, ॥४१॥ एवं मुहुमाणं पजत्तापञ्जत्ताणं, बादराणं पजत्तापञ्जत्ताणवि, एवं एसो नवओ भेदो जहा पुढविकाइयाणं तहा आउकाइयाणवि तेउकाइयाणवि बाउकाइयाणवि, वणस्सइकाइयओरालियसरीरस्स प भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, अनुक्रम [५११] meseseselete SARERainintenatural अथ औरादिकशरीरस्य अवगाहनानि आरभ्यते ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६९] गाथा: दीप अनुक्रम [५१२ -५१५] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२१], ---------- उद्देशक: [ - ], ------------- दारं [-], - मूलं [२६९ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः गो० ज० अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उको० सातिरेगं जोअणसहस्सं, अपज त्तगाणं जह० उक्को० अंगुलस्स असंखेजतिभागं, पजत्तगाणं जह० अंगुलस्स असं० उको० सातिरेगं जोयणसहरसं, बादराणं जह० अंगुलस्स असं० उको ० जोअणसहस्सं सातिरेगं, पत्ताणवि एवं चेच, अपअत्ताणं जह० उको० अंगुलस्स असं०, सुहुमाणं पञ्चचाप अत्ताण य तिहवि जह० उको अंगुलस्स असं० । बेइंदियओरा० भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो० ! जह० अंगुलस्स असं० उको बारस जोअणाई, एवं सवत्थवि अपजत्तयाणं अंगुलरस असंखे० जहण्णेणवि उक्कोसेणवि, पञ्जत्तगाणं जहेब ओरालियस्स ओहियस्स, एवं तेइंदियाणं तिण्णि गाउयाई, चउरिंदियाणं चत्तारि गाउयाई, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं ३, एवं संमुच्छिमाणं ३, गब्भवतियाणवि ३ एवं चैव नवओ भेदो भाणियवो, एवं जलयराणवि जोयणसहस्सं, नवओ भेदो, थलयराणचि णत्र भेदा ९, उको० छ गाउयाई पज्जत्तगाणवि, एवं चैव संमुच्छिमार्ण पत्तगाण यउको गाउयहुतं ३, गम्भवतियाणं उको० छ गाउयाई पत्ताण य २ ओहियच उप्पयपज सगम्भवकंतियपजत्तयाणवि उको छ गाउयाई, संमुच्छिमाणं पत्ताण य गाउयपुहुतं उको, एवं उरपरिसप्पाणवि ओहियगन्भवर्कतियपजतगाणं जोयणसहस्सं, संमुच्छिमाणं पञ्जत्ताण य जोयणपुहुतं भूयपरिसप्पाणं ओहियगम्भवतियाणवि उक्को० गाउयपुहु, संमुच्छिमाणं धणुपुहुतं, खहयराणं ओहियगम्भवतियाणं संमुच्छिमाण य तिन्हवि उकोसेणं धणुपृहुत्तं, इमाओ संगहणिगाहाओ - 'जोयणसहस्स छम्गाउयाई तत्तो य जोअणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयए धणुहपुडुतं च पक्खीसु ॥ १ ॥ जोयणसहस्स गाउयपुहुत्त तत्तो य जोअणपुहुतं । दोहं तु धणुपुहुतं समुच्छिमे होति उच्चतं ॥ २ ॥ मणूसो - For Pernal Use On ~429~ Batatattetorola ra Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं ], -------------- मूलं [२६९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २१शरीर प्रत सूत्रांक [२६९] अज्ञामनाया: मलय.वृत्ती. पदं ॥४१॥ गाथा: रालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाइणा पं०१, गो ! जह• अंगु० उको तिष्णि गाउयाई, एवं अपञ्जताणं जह• उक्को० अंगुलस्स असं०, समुच्छिमाणं जह० उक्को अंगुलस्स असं०, गम्भवतियाणं पज्जत्ताण य जह अंगुलस्स असं० उक्को तिण्णि गाउयाई (सूत्रं २६९) 'ओरालियस्स णं भंते !' इत्यादि, औदारिकस्य जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासङ्ख्येयभागः, सा चोत्पत्तिप्रथमसमये पृथिवीकायिकादीनां चावसातव्या, उत्कर्षतः सातिरेक योजनसहस्रं, एषा लवणसमुद्रगोतीर्थादिषु पद्मनालायधिकृत्यावसातव्या, अन्यत्रैतावत औदारिकशरीरस्यासम्भवात् , एवमेकेन्द्रियसूत्रेऽपि, तथा चाह-एगिदियओरालियस्स एवं चेव जहा ओहियस्स' इति पृथिव्यप्तेजोवायूनां सूक्ष्माणां बादराणां प्रत्येक पर्याप्तानामपर्यासानां चौदारिकशरीरस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चावगाहना अनुलासमवेयभागः प्रत्येकं च नव सूत्राणि, तेषां औषिकसूत्रमौधिकापयाप्तसूत्रमौधिकपर्याप्तसूत्र तथा सूक्ष्मसूत्र सूक्ष्मपर्याससूत्रं सूक्ष्मापर्याप्तकसूत्रं एवं वादरेऽपि सूत्रत्रिकमिति, एवं वनस्पतिकायिकानामपि नव सूत्राणि, नवरमीधिकवनस्पतिसूत्रे औधिकवनस्पतिपर्याप्तकसूत्रे बादरसूत्रे वादरपयोंसकसूत्रे च जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्ययभाग उत्कर्षतः सातिरेकं योजनसहस्रं, तच्च पद्मनालाद्यधिकृत्य वेदितव्यं, शेषेषु तु पञ्चसूत्रेषु जघन्यत उत्कर्षतो वाऽङ्गुलासययभागः, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं त्रीणि २ सूत्राणि, तद्यथा-औषिकसूत्रमपर्याससूत्रं पर्याप्तसूत्रं च, तत्रौधिकसूत्रे पर्याप्तसूत्रे च द्वीन्द्रियाणामुत्कर्षतो द्वादश योजनानि, त्रीन्द्रियाणां दीप अनुक्रम [५१२-५१५] ॥४१॥ ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२६९ ] गाथा: दीप अनुक्रम [५१२ -५१५] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२१], ---------- उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], - मूलं [२६९ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीणि गव्यूतानि चतुरिन्द्रियाणां चत्वारि गव्यूतानि, अपर्याप्तसूत्रे तु जघन्यत उत्कर्षतचाङ्गुला सङ्ख्येय भागः, तथा | सामान्यत स्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां जलचराणां सामान्यतः स्थलचराणां चतुष्पदानामुरः परिसर्पाणां भुजपरिसर्पाणां खचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चां च प्रत्येकं नव २ सूत्राणि, तद्यथा - त्रीणि अधिकानि त्रीणि संमूच्छिम विषयाणि त्रीणि गर्भव्युत्क्रान्तिकविषयाणि तत्रापर्यासेषु स्थानेषु सर्वेष्वपि जघन्यत उत्कर्षतो वा अङ्गुलासङ्ख्येयभागः, शेषेषु तु स्थानेषु जघन्यतोऽङ्गुलायेयभाग उत्कर्षतः सामान्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु जलचरेषु चोत्कर्षतो योजनसहस्रं, सामान्यतः स्थलचरेषु चतुष्पदस्थलचरेषु चौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु च पट् गव्यूतानि, सम्मूच्छिमेषु गव्यूतपृथक्त्वं, उरः परिसर्पेष्वधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु च योजनसहस्रं सम्मूच्छिमेषु योजनपृथक्त्वं, भुजपरिसप्पेष्वधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तेषु च गव्यूतपृथक्त्वं, सम्मूछिमेषु धनुःपृथक्त्वं खचरेष्वोधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु सम्मूद्धिमेषु च सर्वेषु स्थानेषु धनुःपृथक्त्वं, अत्रेमे सङ्ग्रहगाथे— “जोअणसहस्स" मित्यादि, गर्भव्युत्क्रान्तिकानां जलचराणामुत्कर्षतः शरीरावगाहनाया मानं योजनसहस्रं, चतुष्पदस्थलचराणां पड् गब्यूतानि, उरः परिसर्पस्थलचराणां योजनसहस्रं, भुजपरिसस्थलचराणां गव्यूत पृथक्त्वं, पक्षिणां धनुःपृथक्त्वं, तथा सम्मूच्छिमानां जलचराणामुत्कर्षतः शरीरावगाहनायाः प्रमाणं योजनसहस्रं चतुष्पदस्थलचराणां गव्यूतपृथक्त्वं, उरः परिसर्पस्थलचराणां योजनपृथक्त्वं, भुजपरिसर्पस्थलचराणां पक्षिणां च धनुःपृथक्त्वमिति । उक्तं तिर्यक्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहनामानमिदानीं मनुष्यप Education listation For Parts Only ~431~ jonary.or Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: 1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२६९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत २१शरीरपदं सूत्रांक [२६९] गाथा: प्रज्ञापना-1ञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहनामानमाह-'मणुस्सोरालियसरीरस्स ण'मित्यादि, कण्ठ्यं, नवरं त्रीणि गव्यूतानि देव- याः मल-18|कुर्वाद्यपेक्षया, तदेवमौदारिकशरीरस्य विधयः संस्थानानि प्रमाणानि चोक्तानि, सम्प्रति तानि क्रमेण वैक्रियस्या- य० वृत्ती. भिधित्सुराह॥४१४ा उबियसरीरे णं भंते । कतिविधे पं० १, गो०। दुविधे पं०, ०–एगिदियवे उच्चियसरीरे य पंचिंदियवेउवियस०, जति एगिदियवेउब्वियसरीरे किं वाउक्काइयरगिदियवेउवियसरीरे अबाउक्काइयएगिदियवेउवियसरीरे ?, गो० ! वाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे नो अवाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे, जइ वाउकाइयवेउब्वियसरीरे किं सुहुमवाउकाइयवेउवियसरीरे बायरवाउकाइयवेउवियसरीरे?, गो०! नो सुहुमवाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे बादरखाउकाइयएगिदियवेउबियस०, जह बादरवाउकाइयएगिदियवेडबियसरीरे किं पञ्जत्ववादरखाउकाइयरगिदियबेउवियसरीरे अपजत्तबादरवाउकाइयएगिदियवेउबियसरीरे, मो01 पञ्जत्तवादरखाउकाइयएगिदियवेउबियसरीरे नो अपजत्तबादरवाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरे, जति पंचेंदियवेउवियसरीरे कि नेरइयपंचिंदियवेउवियसरीरे जाव किं देवपंचिदियवेउवियसरीरे ?, गो०! नेरदयपंथिंदियवेउबियसरीरेवि जाव देवपंचिंदियवेउधियसरीरेवि, जइ नेरइयपंचिंदियवेउबियसरीरे किं रयणप्पभापुढविपंचिंदियवेउविष० जाब किं अधेसत्तमापुढविनरइयर्प० चेउवियसरीरे, गो० रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिदियघेउवियसरीरेवि जाव अधेसचमापुढविनेरइयपंचिं० वेउवियसरीरेऽवि, जइ रयणप्पभापुढविनेरइयविउवियसरीरे कि पजत्तगरय० नेरइयवेउ०स० अपजत्तगरय दीप अनुक्रम [५१२-५१५] ॥४१४॥ | अथ वैक्रियशरीरस्य शरीर-संस्थान-अवगाहना सम्बन्धी वक्तव्यता ~432~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Here प्रत सूत्रांक [२७०] णप्पभाषु० नेरइ० ५०० सरीरे ?, गो०! पजत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं० अपजत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं०, एवं जाव अधेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणितयो, जइ तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउवियसरीरे किं समुच्छिमपं०तिरि बेउ०स० गम्भवकंतियपंचिंति वे०स०१, गो ! नो समुच्छिमपं० ति०० सरीरे गम्भवकंतियतिबेउविषसरीरे, जति गम्भवकं० पचितिबेउब्वियसरीरे किं संखेजवासाउयगन्भवतियपंचि० वे०सरी० असंखिजवासाउयग०प०तिवे०सरीरे?, गो! संखेजवासाउयगम्भ०५०तिवे० स० नो असं० गम्भ० पंचिं० तिरि० बेउ० स०, जड संखिज० गम्भ० पंचिंतिवेउ सरीरे किं पजत्तगसं० गम्भ०५०ति०० सरीरे अपजत्तगसं० ग०५०ति०० सरीरे, गो! पज० सं० ग. पं०ति०० सरीरे नो अप० सं० गभ०५० ति० वे० सरीरे, जइ संखेञ्जवासा० किं जलयरगम्भ०५०तिवे० सरीरे थलयरसं० ग०५०तिवे० सरीरे खहयरसं० ग०५०तिवे० सरीरे, मो०! जल. सं० ग.पं.ति०० सरीरेवि थलयरसंगपं० ति० ० सरीरेवि खहयरसं० गम्भ० पं०तिवे० सरीरेषि, जह जल सं०कि पजत्तगजल० सं०म० पं० ति वे० सरीरे अपजत्तगजल० सं० म०पं० ति० उ० सरीरे य:, गो! पज. जल संगम०पंतिरिवे० स० नो अपज० सं०जलग०५०ति०० स०, जति थलयरपंचिक जाव सरीरे किं चउप्पय जाव सरीरे किं परिसप्प जाव०१, गो! चउप्पयजावसं० परिसप्पजाव स०, एवं सबेसि या जाव खहयराणं पजताणं नो अपजसाणं, जति मणूसपंचि० वेउ० सरीरे किं समुच्छिममणूस० पं०० सरीरे गम्भ० म०पं० वेउबियसरीरे, गो०! णो संमु०म० पं० देउ० सरीरे गम्भ० म० पंचिं० दे० सरीरे, जइ गभ० दीप अनुक्रम [५१६] ~433~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७०] दीप अनुक्रम [५१६] पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------ मूलं [२७०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्ती. ॥४१५॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - Education Internation म० पं० ० स० किं कम्मभूमग० ग० म० पं० वे० स० अकम्मभूमग० ग० म० पं० वे० स० अंतरदीवग० ग० म० पं० वे० सरीरे १, गो० कम्मभूमगगन्म० म० पं० वे० स० णो अकम्भूमग० णो अंतरदीवग०, जड़ कम्मभूम 1 गगव्भ० मणूस० पंचि० वे० सरीरे किं संखेजवासाउयकम्म० ग० म० वे० स० असं० कम्म० ग० म० पं० वे० स०१, गो० संखे० कम्म० म० म० पं० ० स० नो असं० कम्म० ० ० ० ० सरीरे, जति संखे० कम्म० ग० म० पं० ० सरीरे किं पञ्जत्तयसंखे० क० म० पं० के० स० अपजतग० सं० क० ग० म० पं० वे० सरीरे १, गो० ! पज्ज० सं० क० ग० म० पं० ० सरीरे नो अपज० सं० क० ग० म० पं० वे० सरीरे । जइ देव पंचिदियवेउaियसरीरे किं भवणवासिदेव० पं० वे० सरीरे जाव बेमाणियदेव० वे० स० १, गो० ! भवणवासीदेव० पं० वे० सरीरेवि जाय वैमाणियदेव० पंचि० उ० सरीरेवि, जइ भवणवासिदेव० पं० वे० सरीरे किं असुरकुमारभव० देव० पं० ० स० जाव थपियकुमारभव० देव० पं० वे० सरीरे १, गो० ! असुरकु० जात्र धणियकुमार० उ० सरीरेवि, जह असुरकुमारदेव० पं० वे० स० किं पञ्जत्तगअसुर० भ० देव० पं० वे० सरीरे अपजतग० असुरकुमारभ० देव० पं० ० स० १, गो० ! पज्ज० असुर० भ० देव० पं० वे सरीरेवि अपजतगअमु० भ० देव० पं० दे० सरीरेवि, एवं जाव णिकुमाराणं दुगतो भेदो, एवं वाणमंतराणं अट्ठविहाणं जोतिसियाणं पंचविहाणं, वेमाणिया दुविहा- कप्पोबगा कप्पातीता य, कप्पोवगा बारसविहा, तेसिंपि एवं चैव दुहतो भेदो, कप्पातीता दुविहा गेवेजगा य अणुत्तरोववाइया य, गेवेज्जगा नवविहा अणुत्तरोबवाइया पंचविहा, एतेसिं पज्जतापजत्ताभिलावेणं दुगतो भेदो भाणि० (मूत्रं २७० ) For Penal Use Only ~434~ ४ २१ शरीर पदं ।।४१५।। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७०] मल्टटटटटटटयर 'वउवियसरीरेणं भंते ।' इत्यादि, पैक्रियशरीरं मूलतो विभेद-एकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात् , तत्रैकेन्द्रियस्य वात|कायस्य तत्रापि बादरस्य तत्रापि पर्याप्तस्य, शेषस्य वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् , उक्तं च-"तिण्हं ताव रासीणं येउबियलद्धी चेव नत्थि, वायरपजत्ताणंपि संखेजइभागमेवाणं' अत्र 'तिह"ति प्रयाणां पर्यासापर्याप्ससक्ष्मापर्याप्त-I बादररूपाणां । पञ्चेन्द्रियचिन्तायामपि जलचरचतुष्पदोरम्परिसर्पभुजपरिसप्पंखचरान् मनुष्यांश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकान् सङ्ख्येयवर्षायुषो मुक्त्वा शेषाणां प्रतिषेधो, भवखभावतया तेषां वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् । उक्ता भेदाः, संस्थानान्यभिधित्सुराहवेउवियसरीरेण मंते ! किंसंठिते ५०१, गो० णाणासंठाणसंठिते पं०, वाउकाइयएगिदियवेउ० सरीरे णं भंते ! किंसंठिते पं०१. गो.! पड़ागासंठाणसंठिते पं०, नेरइयपंचिदियवेउब्वियसरीरेण भंते ! किंसंठाणसंठिते पं०१, गोनेरदयर्पचिदियवेउवियसरीरे दुविधे पं०, तं०-भवधारणिजे य उत्तरखेउबिए य, तत्थ पंजे से भवधारणिजे से ण हुंडसंठाणसंठिते पं०, तत्थ णं जे से उत्तरवेउविते सेवि हुंडसंठाणसंठिते पं०, स्यणप्पभापुढविनेरइयपचि० वेउ० सरीरे ण भंते ! किंसंठाणसंठिते पं०१, गो! रयणप्पभापुढविनेरइयाणं दुविधे सरीरे पं०, तं०-भवधारणिजे य उत्तरखेउविए य, तत्थ णं जे से भवधारणिजे से णं हुं०, जे से उत्तरवेउचिते सेवि हुंडे, एवं जाव अधेसत्तमापुढविनरइयवेउबियसरीरे । तिरिक्खजोणियपं० वे सरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिते पं०१, गो० णाणासंठाणसंठिते पं०, एवं जलयस्थलयरख e werscotee दीप अनुक्रम [५१६] en ~435~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती IN प्रत सूत्रांक [२७१] ॥४१६॥ दीप अनुक्रम [५१७] हयराणवि, थलयराणवि चउप्पयपरिसप्पाणवि परिसप्पाणवि उरपरिसप्पभुयपरिसप्पाणपि । एवं मणूसपचिंदियवे० सरी २१शरीररेवि । असुरकुमारभवणवासी देव० पंचि०० सरीरे णं भंते ! किंसंठिते पं०, गो०! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे पदं सरीरे पं०, ०-भवधारणिजे य उत्तरखेउविते य, तत्थ णं जे से भवधारणिले से णं समचउरंससंठाणसं०५०, तत्थ णं जे से उत्तरवेउविए से णं णाणासंठाणसं०६०, एवं जाव थणियकुमारदेवपंचिंदियवेउबियसरीरे, एवं वाणमंतराणवि, णवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति, एवं जोतिसियाणवि ओहियाण, एवं सोहम्मे जाव अच्चुयदेवसरीरे, गेवेजगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिदियवेउबियसरीरेण भंते ! किंसंठिवे पं०१, गो०! गेवेञ्जगदेवाणं एगे भवधारणिजे सरीरे, से पं समचउरंससंठाणसंठिते पं०, एवं अणुत्तरोबवाइयाणवि (सूत्र २७१) 'येउपियसरीरेणं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं नैरयिकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थानमत्यन्तक्लिष्ट-11 कर्मोदयवशात् , तथाहि तेषां भवधारणीयं शरीरं भवखभावत एव निर्मूलविलुप्तपक्षोत्पाटितसकलग्रीवादिरोमपक्षिसंस्थानवदतीव बीभत्स हुण्डसंस्थानं, यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि वयं शुभं करिष्याम इत्यभिसन्धिना कर्जुमारब्धमपि तथाविधात्यन्ताशुभनामकर्मोदययशादतीवाशुभतरमुपजायते इति हुण्डसंस्थानं । तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च क्रियं नानासंस्थानसंस्थितमिच्छावशतः प्रवृत्तेः, दशविधभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्माद्यच्युतपर्यवसानवैमानि-10 कानां भवधारणीयं भवस्वभावतया तथाविधशुभनामकर्मोदयवशात् प्रत्येकं सर्वेषां समचतुरस्रसंस्थान, उत्तरक्रियं । ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७१] दीप अनुक्रम [५१७] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - - मूलं [२७१] पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Eaton International विच्छानुरोधतः प्रवृत्तेर्नानासंस्थानसंस्थितं, ग्रैवेयकानामनुत्तरोपपातिनां चोत्तरवैक्रियं न भवति, प्रयोजनाभावाद, उत्तरवेक्रियं यत्र गमनागमननिमित्तं परिधारणानिमित्तं वा क्रियते, न चैतेषामेतदस्ति, यत्तु भवधारणीयमेतेषां तत्समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितमिति । उक्तानि संस्थानानि, सम्प्रत्यवगाहनामानमाह - ------ विसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरावगाहणा पं० १, गो० जह० अंगुलस्स असं० उको० सातिरेगं जोयणसयसहस्सं । वाकाइयएगिंदियसरीरस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो० ! जह० अंगुलस्स असं० उकोसेणवि अंगुलस्स असं०, नेरइयपंचिदियवेउडियसरीरस्स णं भंते ! केमहा० पं० ?, गो० 1 दुबिहा पं० [सं० - भवधारणिजा य उत्तरवेउबिया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जह० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उको० पंचधणुसयाई, तत्थ णं जा सा उत्तरखेउनिया सा जह० अंगुलस्स संखेजतिभागं उक्को० धणुसहस्सं । रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भते ! केमहा० पं० १, गो० ! दुबिहा पं० तं० भवधारिणिजा य उत्तरवेडविता य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जह० अंगु० असं० उको० सत्त धणुई तिष्णि रयणीओ छच अंगुलाई, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउविता सा जह० अंगु० असं० उको पष्णरस धर्ति अड्डाइजाओ रयणीओ । सकरप्पभाए पुच्छा, गो० ! जाव तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जह० अंगु० असं० उको० पण्णरस घणूई अड्डाइज्जातो रयणीओ, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउविता सा जह० अंगु० संखे० उको० एकतीसं घणूई एका य रयणी । वालुयप्पभाए पुच्छा, भवधारणिज एकतीसं घण्डं एका रयणी उत्तरवे For Parts Only ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: N M२१शरीर प्रत सूत्रांक प्रज्ञापनाया: मलब०वृत्ती. ॥४१७॥ [२७२ दीप उबिया छाबढि घणति दो रयणीयो। पंकप्पभाए भवधारणिजा बावट्रि धाई दो रयपीओ. उत्तरखेउविया पणवीस धणुसयं । धूमप्पभाए भवधारणिज्जा पणवीसं धणुसयं, उत्तरखेउविया अड्डातिजाई धणुसयाई । तमाए भवधारणिज्जा अड्डाइजाई धणूसताई उत्तरवेउत्विया पंच धणुसताई । अधेसत्तमाए भवधारणिजा पंच धणुसयाई उत्तरवेउविता धणुसहस्सं, एवं उकोसेणं । जहनेणं भवधारणिज्जा अंगुलस्स असंखेजतिभागं उत्तरखेउविता अंगुलस्स संखिजतिभागं । तिरिक्खजोणियपचिदियवेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो। जह० अंगु० सं० उत्कोसेगं जोगणसतपुडुत्तं । मणुस्सपंचिंदियवेउवियसरीरस्स गं भंते ! केमहा०, गो०! जह० अंगुल० सं० उको सातिरेगं जोत्रणसतसहस्सं । असुरकुमारभवणवासिदेव पंचि० वेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहा०१, गो०! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहा सरीरोगाहणा पं०, तं०-भवधारणिज्जा य उच्चरखेउविया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा साज. अंगु० असं० उको सत्त रयणीओ, तत्थ पंजा सा उत्तरवेउविता सा जह• अंगु० संखे० उको जोअणसतसहस्सं, एवं जाब थणियकुमाराणं, एवं ओहियाणं वाणमंतराणं, एवं जोइसियाणवि सोहम्मीसाणदेवाणं, एवं चेव उत्तरवेउविता, जाव अबुओ कप्पो, नवरं सर्णकुमारे भवधारणिजा जह• अंगु० अ० उको छ रयणीओ, एवं माहिदेवि, बंभलोयलंतगेसु पंच रयणीओ महासुक्सहस्सारेसु चत्तारि रवणीओ, आणयपाणयआरणचुएमु तिणि रयणीओ गेविजगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियवेउ० स० केम० १, गो.! गेवेजगदेवाणं एमा भवधारणिजा सरीरोगाहणा पं० सा जह• अंगुल. असं० उको दो रयणी, एवं अणुचरोववाइयदेवाणवि, णवरं एका रयणी (सूत्र २७२) अनुक्रम [५१८] ॥४१७॥ ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] 'वेउवियसरीरस्स ण'मित्यादि, जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागं नैरयिकादीनां भवधारणीयस्यापर्याप्तावस्थायां वातकायस्य वा, उत्कर्षतः सातिरेकं योजनशतसहस्रं देवानामुत्तरवैक्रियस्य मनुष्याणां वा, 'एगिदियवेउधियसरीरस्स | 'मित्यादि, अत्र एकेन्द्रियो वातकायोऽन्यस्य वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् , तस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽवगाहनामानमनुलासङ्ख्ययभागप्रमाणं, एतावत्प्रमाणविकुर्वणायामेव तस्य शक्तिसम्भवात् , सामान्यनैरयिकसूत्रे 'भवधारणीया' भवो धार्यते यया सा भवधारणीया 'कृद्धहुल'मिति वचनात् करणे अनीयप्रत्ययः, उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, उत्तरक्रिया धनुःसहस्रं सप्तमनरकपृथिव्यपेक्षया, अन्यत्रैतावत्या भवधारणीयाया उत्तरवैक्रियाया वा शरीरावगाहनाया अप्राप्यमाणत्वात् , अधुना प्रतिपृथिव्यवगाहनामानमाह-'स्यणप्पभे'त्यादि, अङ्गुलाबजयेयभागप्रमाणता प्रथमोप|त्तिकाले वेदितव्या, उत्कर्षतः सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् चाङ्गुलानि पर्याप्तावस्थायां, इदं चोत्कर्षतः शरीरावगाह नामानं त्रयोदशे प्रस्तटे द्रष्टव्यं, शेषेषु त्वक्तिनेषु प्रस्तटेषु स्तोकं स्तोकतरं, तचैवम्-रत्नप्रभायाः प्रथमप्रस्तटे त्रयो हिस्ता उत्कर्षतः शरीरप्रमाणं, द्वितीये प्रस्तटे धनुरेकमेको हस्तः सार्द्धानि चाष्टावङ्गुलानि, तृतीये प्रस्तटे धनुरेक |त्रयो हस्ताः सप्तदशानुलानि, चतुर्थे वे धनुषी द्वौ हस्ती सार्द्धमेकमनुलं, पञ्चमे त्रीणि धनूंषि दशाङ्गुलानि, पष्ठे | त्रीणि धनूंषि द्वौ हस्तौ सार्वान्यष्टादशाङ्गुलानि, सप्तमे चत्वारि धषि एको हस्तः त्रीणि चामुलानि, अष्टमे चत्वारि धपि त्रयो हस्ताः सान्येिकादशाङ्गुलानि, नवमे पञ्च धनूंषि एको हस्तो विंशतिरङ्गुलानि, दशमे पद । दीप अनुक्रम [५१८] ~439 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना- प्रत सूत्रांक यवृत्ती. ॥४१॥ [२७२] दीप अनुक्रम [५१८] धनूंषि सार्दानि चत्वारि अङ्गुलानि, एकादशे षट् धषि द्वौ हस्तौ त्रयोदशामुलानि, द्वादशे सप्त धनूंषि साख्न्ये- २१शरीरकविंशतिरकलानि, प्रयोदशे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट्र परिपूर्णान्यङ्गलानि, अत्र चायं तात्पर्यार्थ:-प्रथमप्रस्तटे । यच्छरीरावगाहनापरिमाणं त्रयो हस्ता इति तस्योपरि प्रस्तटक्रमेण सार्दानि षट्रपञ्चाशदङ्गुलानि प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु शरीरावगाहनापरिमाणं भवति, उक्तं च-रयणाएँ पढमपयरे हत्थतिय देहउस्सओ भणिओ। छप्पन्नंगुल सहा पयरे २ हवइ बुही ॥१॥[रलायाः प्रथमे प्रतरे हस्तत्रयं देहोच्छ्यो भणितः । पट्पञ्चाशदा-1 लानि सार्धानि प्रतरे प्रतरे भवति वृद्धिः॥१॥] 'तत्थ णं जा सा उत्तरवेउचिया' इत्यादि, जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येयभार्ग, प्रथमसमयेऽपि तस्या अङ्गलसवेयभागप्रमाणाया एवं भावात्, न खसधेयभागप्रमाणायाः, आह च। सङ्घदणिमूलटीकाकारो हरिभद्रसूरि:-"उत्तरवैक्रिया तु तथाविधप्रयत्नभावादाद्यसमयेऽप्यङ्गुलसङ्खयेयभागमात्रैव, उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि अर्धतृतीया हस्ताः" इदं च उत्तरवैक्रियशरीरावगाहनापरिमाणं त्रयोदशे प्रस्तटेऽवसातव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु प्रागुक्तभवधारणीयमानापेक्षया द्विगुणं प्रत्येतव्यं शर्कराप्रभायां भवधारणीया उत्कतः पञ्चदशर धनूंषि अर्द्धतृतीया हस्ताः, इदं चोत्कर्षतो भवधारणीयावगाहनापरिमाणमेकादशे प्रस्तटेऽवसातव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटे ॥४१८॥ विदं शर्करायाः प्रथमे प्रस्तटे सप्त धषि त्रयो हस्ताः षट्र चाङ्गलानि, द्वितीये प्रस्तटे अष्टौ धनूंषि द्वौ हस्ती नव |चाङ्गुलानि, तृतीये नव धषि एको हस्खो द्वादश चाङ्गुलानि, चतुर्थे दश धनूंषि पञ्चदशाङ्गुलानि, पञ्चमे दश SHARERIEatin international ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] | धनूंषि त्रयो हस्ता अष्टादशाङ्गुलानि, षष्ठे एकादश धनूंषि द्वौ हस्तावेकविंशतिरङ्गुलानि, सप्तमे द्वादश घनषि द्वीप हस्तौ, अष्टमे त्रयोदश धनूंषि एको हस्तः त्रीणि अङ्गुलानि, नवमे चतुर्दश धनूंषि पद चाङ्गुलानि, दशमे चतुर्दश धनंषि त्रयो हस्ता नव चागलानि, एकादशे सूत्रोक्तमेव परिमाणं, अत्रापीदं तात्पर्य-प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटक्रमेण त्रयो हस्तास्त्रीणि चाङ्गुलानि प्रक्षेप्तव्यानि, ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु परीमाणं भवति, M“सो चेव य बीयाए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । हत्थतिय तिन्नि अंगुल पयरे पयरे य वुहीए ॥१॥ एकारसमे पयरे पण्णरस धणूणि दोण्णि रयणीओ । वारस य अंगुलाई देहपमाणं तु विनेयं ॥२॥" गाथाद्वयस्थापीयमक्षरगमनिका-य एव प्रथमपृथिव्यां त्रयोदशे प्रस्तटे उत्कर्षत उत्सेधो भणितः-सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पट्र चाङ्गु- लानि इति, स एव द्वितीयस्यां-शर्कराप्रभायां पृथिव्यां प्रथमे प्रस्तटे उत्सेधो भवति ज्ञातव्यः, ततः प्रतरे प्रतरे वृद्धिरवसेया त्रयो हस्तास्त्रीणि चाङ्गुलानि, तथा च सत्येकादशे प्रस्तटे उत्कर्षतो भवधारणीयशरीरपरिमाणमायाति पञ्चदश धपि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि इति, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणमाह-एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, इदं | च एकादशे प्रस्तटे वेदितव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमवसेयं २ । तथा तृतीयस्यां वालुकाप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, एतच नवमं प्रस्तटमधिकृत्योक्कमबसेयं, शेषेषु प्रस्तदेष्वेवं-तत्र प्रथमप्रस्तटे भवधारणीया पञ्चदश धनूंपि द्वौ हस्तौ द्वादशाङ्गुलानि, द्वितीये प्रस्तटे सप्तदश दीप अनुक्रम [५१८] wwwmarary.org ~441 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [५१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • मूलं [२७२] पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मट य० वृत्तौ. ॥४१९॥ धनूंषि द्वौ हस्तौ सार्द्धानि सप्ताङ्गुलानि तृतीये एकोनविंशतिर्धनूंषि द्वौ हस्तौ त्रीण्यङ्गुलानि, चतुर्थे एकविंशतिः धनूंषि एको हस्तः सार्द्धनि द्वाविंशतिरङ्गुलानि पञ्चमे त्रयोविंशतिर्धनूंषि एको हस्तोऽष्टादश चाङ्गुलानि षष्ठे पञ्चविंशतिर्धनूंषि एको हस्तः सार्द्धानि त्रयोदशाङ्गुलानि सप्तमे सप्तविंशतिर्धनूंषि एको हस्तो नव चाङ्गुलानि, अष्टमे | एकोनत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः सार्द्धनि चत्वार्यङ्गुलानि, नवमे यथोक्तरूपं परिमाणं भवति, अत्रापि चायं भावार्थ:प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे सप्त हस्ताः सार्द्धनि च एकोनविंशतिरङ्गुलानि क्रमेण प्रक्षेप्तव्यानि ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु परिमाणं भवति, उक्तं च- "सो चेव य तझ्याए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । सत्त रयणीउ अंगुल उणवीसं सहबुद्दी य ॥ १ ॥ पयरे पयरे य तहा नवमे पयरंमि होइ उस्सेहो । धणुयाणि एगतीसं एका रयणी य नायवा ॥ २ ॥ अस्यापि गाथाद्वयस्येयमक्षरगमनिकाय एवं द्वितीयस्याः शर्करप्रभाया एकादशे प्रस्तटे भवधारणीयाया उत्कर्षत उत्सेध उक्तः - पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि, स एव तृतीयस्याः वालुकाप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे प्रस्तटे उत्सेधो भवति, ततः प्रतरे २ वृद्धिरवसेया सप्त हस्ताः सार्द्धनि चैकोनविंशतिरङ्गुलानि, तथा च सति नवमे प्रस्तटे यथोक्तं स्वधारणीयावगाहनामानं भवति - एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्त इति, उत्तरवैक्रियोत्कृष्टपरिमाणमाह – द्वापष्टिर्धनूंषि द्वौ हस्ती, एतच नवमप्रस्तटापेक्षमवसेयं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु निजनिजभवधारणीयप्रमाणापेक्षया द्विगुणद्विगुणमिति ३ । चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया For Parts Only ------ ~ 442~ २१ शरीर पर्द ॥४१९॥ wor Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] द्वाषष्टिधनूंषि द्वौ हस्ती, इदं च ससमे प्रस्तटे प्रत्येयं, शेषेषु प्रस्तटेष्वेवं-पङ्कप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे एकत्रिंशद्धनूंषि |एको हस्तः, द्वितीये षट्त्रिंशद्धनूंषि एको हस्तो विंशतिरङ्गुलानि, तृतीये एकचत्वारिंशद्धपि द्वौ हस्तौ पोडश अङ्गुलानि, चतुर्थे पट्चत्वारिंशद्धनूंषि त्रयो हस्ता द्वादशाङ्गुलानि, पञ्चमे द्विपश्चाशद्धनूंषि अष्टावकुलानि, पष्ठे सप्तपश्चाशद्धनूंषि एको हस्तः चत्वार्यकुलानि, सप्तमे यधोक्तरूपं परिमाणं, अत्रापि चैष भावार्थ:-प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे क्रमेण पञ्च धषि विंशतिरङ्गुलानीत्येवंरूपा वृद्धिरवगन्तव्या, ततः प्रथमे प्रस्तटे | सूत्रोक्तं परिमाणं भवति, उक्तं च-"सो चेव चउत्थीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । पंच धणु बीस अंगुल पयरे | पयरे य वुड्डी य ॥१॥ जो सत्तमए पयरे नेरइयाणं तु होइ उस्सेहो। बासट्ठी धणुयाणं दोण्णि रयणी य बोद्धवा ॥२॥" अस्यापि गायादयस्वाक्षरगमनिका प्राग्वत् भावनीया, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पञ्चविंशं धनुःशतं, तब | सप्तमे प्रस्तटे, शेषेषु तु प्रस्तटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमिति ४ । पञ्चम्यां धूमप्रभायां पृथिव्यां भवधारणीयोत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, तच पञ्चमं प्रस्तटमधिकृत्योक्तमवसेयं, शेषेषु प्रस्तटेविद-प्रथमप्रस्तटे द्वापष्टिधषि द्वौ हस्ती, द्वितीयेऽटसप्ततिधषि एका वितस्तिः, तृतीये त्रिनवतिधषि त्रयो हस्ताश्चतुर्थे नवोत्तरं धनु शतं एको हस्तः एका च वितस्तिः, पञ्चमे सूत्रोक्तं परिमाणं, अत्रापि चायं तात्पर्यार्थः-यत्प्रथमे प्रस्तटे परिमाणमुक्तं तदुपरि प्रस्तटे २ क्रमेण पञ्चदश धनूंपि सार्द्धहस्तद्वयाधिकानि प्रक्षेप्तव्यानि, तथा च सति यथोक्तं पञ्चमे प्रस्तटे परिणाम दीप अनुक्रम [५१८] ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २१शरीर प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [५१८] प्रज्ञापना- भवति, उक्तं च-"सो चेव य पंचमीए पढमे पयरमि होइ उस्सेहो। पनरस धणूणि दो हत्व सह पयरेसु बुही या: मल- य॥१॥ तह पंचमए पयरे उस्सेहो धणुसयं तु पणवीसं ॥" अस्याः सार्द्धगाथाया अक्षरगमनिका प्राग्वत् कर्तयवृत्ती. ब्या, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं अर्द्धतृतीयानि धनु शतानि, एतानि च पञ्चमे प्रस्तटे बेदितव्यानि, शेषेषु प्रसटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमिति । षष्ठयां तमःप्रभायां पृधिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया अर्द्धतृतीयानि धनुःश॥४२०॥ कतानि, तानि च तृतीये प्रस्तटे प्रत्येतव्यानि, प्रथमे तु प्रस्तटे पञ्चविंशं धनुःशर्त, द्वितीये सा सप्ताशीत्यधिकं धनुःशृतं, तृतीये तु सूत्रोक्तमेव परिमाणं, अत्राप्ययं तात्पर्यार्थः-प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे सार्द्धानि द्वाषष्टिधनूंषि प्रक्षेसव्यानि, तथा च सति तृतीये प्रस्तटे यथोक्तं परिमाणं भवति, उक्तं च-"सो चेव य छट्ठीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । बावट्टि धणुय सहा पयरे पयरे य बुट्टीओ॥१॥छट्ठीऍ तइयपयरे दोसय पण्णासया होंति ॥” अस्थाप्युत्तरार्द्धपूर्षिकाया गाथाया अक्षरगमनिका प्राग्वत् कर्त्तव्या, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पश्च धनुःशतानि, तानि च तृतीयप्रस्तटे वेदितव्यानि, आद्ययोस्तु द्वयोः प्रस्तटयोः स्वस्वभवधारणीयापेक्षया द्विगुणं द्विगुराणमयमोद्धव्यं ६॥ अथ सप्तम्यां तु पृथिव्यां भवधारणीया उत्कर्षतः पञ्च धनु शतानि, उत्तरक्रिया धनुःसहस्रं, सर्वत्र भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा उत्तरवैक्रिया सङ्ख्येयभागप्रमाणेति । तिर्यपश्चेन्द्रियस्य वैक्रियशरीरावगाहना उत्कर्षतो योजनशतपृथक्त्वं, तत ऊर्दू करणशक्तेरभावात् , मनुष्याणां सातिरेक योजनशतसहस्रं, २०॥ ~444~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [५१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • मूलं [२७२] 4′ [28], -------------- JÈRM: [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education intonation विष्णुकुमारप्रभृतीनां तथाश्रवणात् जघन्या तूभयेषामप्यकुलसङ्ख्येयभागप्रमाणा, न त्वसङ्ख्येयभागमाना, तथारूपप्रयत्नासम्भवात् । असुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां सौधर्मेशान देवानां प्रत्येकं जघन्या भवधारणीया वैक्रियशरीरावगाहना अङ्गुलासङ्ख्ये वभागप्रमाणा सा चोत्पत्तिसमये द्रष्टव्या, उत्कृष्टा सप्त रत्नयः, उत्तरबैक्रिया जघन्या अङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रा, उत्कृष्टा योजनशतसहस्रं, 'उत्तरवेउडिया जाव अच्चुओ कप्पो' त्ति उत्तरवेक्रिया तावद् वक्तव्या यावदच्युतः कल्पः, परत उत्तरवैक्रियासम्भवात्, एतच प्रागेवोकं, सर्वत्र जघन्यतोमुलसङ्ख्येयभागमाना उत्कर्षतो योजनलक्षं, भवधारणीया तु विचित्रा ततस्तां पृथगाह - 'नवर 'मित्यादि, नवरमयं भवधारणीयां प्रति विशेषः- सनत्कुमारे कल्पे जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः षड् रनयः, 'एवं माहिंदेवि' इति एवं-उक्तेन प्रकारेण जघन्या उत्कृष्टा च भवधारणीया माहेन्द्रकल्पेऽपि वक्तव्या, एतच्च सप्तसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तमवसेयं, व्यादिसागरोपमस्थितिष्वेवं येषां सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोर्द्व सागरोपमे स्थितिस्तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया परिपूर्ण सप्तहस्तप्रमाणा, येषां त्रीणि सागरोपमाणि तेषां पड़ हस्ताः चत्वारथ हस्तस्यै कादशभागाः येषां चत्वारि सागरोपमाणि तेषां षड् हस्तास्त्रयो हस्तस्यैकादशभागाः येषां पञ्च सागरोपमाणि तेषां पढ़ हस्ताः द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी, येषां पट् सागरोपमाणि तेषां षडू हस्ताः एकश्च हस्तस्यैकादशभागः, येषां तु परिपूर्णानि सप्त सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा पड् हस्ता भवधारणीया, उक्तं च- "अयरतिगं ठिइ For Park Use Only ------ ~ 445~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] दीप प्रज्ञापना- जेसि सणं कुमारे तहेव माहिंदे । रयणीलकं तेसिं भागचउकाहियं देहो ॥१॥ तत्तो अयरे अयरे भागो एकेकओ18/२१शरीरयाः मल- पडइ जाव । सागरसत्तठिईणं रयणीछकं तणुपमाणं ॥२॥" इह जघन्या भवधारणीया सर्वत्राप्यनुलासङ्ख्ययभा- पदं य०वृत्ती. गप्रमाणा, सा च प्रतीतेति तामवधीर्योत्कृष्टां प्रतिपादयति-'बंभलोगलंतगेसु पंच रयणीओ' इति, इह यद्यपि ॥४२ahan ब्रह्मलोकस्योपरि लान्तको न समश्रेण्या तथापीह शरीरप्रमाणचिन्तायामिदं द्विकं विवक्ष्यते, द्विकपर्यन्त एव हस्तस्य त्रुटिततया लभ्यमानत्वात् , एवमुत्तरत्रापि द्विकचतुष्कादिपरिग्रहे कारणं वाच्यं, तत्र ब्रह्मलोकलान्तकयोरुत्कर्षतया भवधारणीया पश्च रत्नयः, एतब लान्तके चतुईशसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्य प्रतिपादितमवसेयं, शेष-1| सागरोपमस्थितिष्वेवं-येषां ब्रह्मलोके सप्त सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां पढ़ रत्नयः परिपूर्णा भवधारणीया, येपामष्टी। |सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताः पडू हस्तरकादशभागाः, येषां नव सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताः पञ्च हस्तस्यैकादशभागाः, येषां दश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताश्चत्वारश्चैकादशभागाः हस्तस्य, लान्तकेऽपि येषां दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया उत्कर्पतो, येषामेकादश सागरोपमाणि लान्तके स्थितिस्तेषां पञ्च हस्तास्त्रयो हस्तस्यैकादशभागाः, येषां द्वादश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता द्वौ च हस्तैकादशभागी, येषां त्रयो-NIR॥ दश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता एको हस्तस्यैकादशभागो, येषां चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा पश्चहस्ता भवधारणीया, 'महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ' महाशुक्रसहस्रारयोश्चतस्रो रत्नय उत्कर्षतो भवधार. अनुक्रम [५१८] sectioesraestroe ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [५१८] eachesed णीया, एतच्च सहस्रारगतान् अष्टादशसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तं वेदितव्यं, शेषसागरोपमस्थितिवेयेषां महाशुक्रे कल्पे चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया परिपूर्णाः पञ्च हस्ताः, येषां पञ्चदश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्तात्रयश्च हस्तस्यैकादशभागाः, येषां षोडश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्ताद्वीच हस्तस्सैकादशभागी, येषां ससदश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्ता एको हस्तस्यैकादशभागः, सहस्रारेऽपि येषां सप्तदश सागरोपमाणि तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनः सहस्रारे परिपूर्णान्यष्टादश सागरोपमाणि स्थितिस्तेपां परिपूर्णाश्चत्वारो हस्ताः भवधारणीया, 'आणयपाणयारणषुएसु तिन्नि रयणीओ' इति आनतप्राणतारणाच्युतेषु तिस्रो रलय उत्कृष्टा भवधारणीया, एतचाच्युते कल्पे द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तं द्रष्टव्यं, शेषसागरोपमस्थितिब्वे-येषामानतेऽपि कल्पे परिपूर्णानि किञ्चित्समधिकानि चाष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः का तेषां परिपूर्णाश्चत्वारो हस्ता उत्कृष्टा भवधारणीया, येषां पुनरेकोनविंशतिः सागरोपमाणि तेषां प्रयो हस्ताखयश्च । का हस्तस्यैकादशभागाः, प्राणतेऽपि कल्पे येषामेकोनविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनः प्राणते कल्पे पिंशतिः सागरोषमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी, येषामारणेऽपि 18 कल्पे विंशतिः सांगरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनरारणेऽपि कल्पे एकविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता एकस्य हस्तस्यैकादशभागो मवधारणीया, अच्युतेऽपि कल्पे येषामेकविंशतिः सागर ला R ~447~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] प्रज्ञापना-INIरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनरच्युते कल्पे द्वाविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामुक-२१शरीरयाः मल- र्षतो भवधारणीया परिपूर्णास्त्रयो हस्ताः, 'गवेजकप्पातीते'त्यादि भावितं, नवरं 'उकोसेणं दो रयणीओ'त्ति एतन्न- पद य०वृत्ती. वमवेयके एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् देवान् प्रति द्रष्टव्यं, शेषसागरोपमस्थितिष्वेवं-प्रथमे प्रेयेयके येषां द्वाविं॥२२॥ शतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता भवधारणीया, येषां पुनस्तत्रैव त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि स्थिति|स्तेषां वो हस्तावष्टी हस्तस्यैकादशभागाः, द्वितीयेऽपि वेयके येषां प्रयोविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ सप्त च हस्तस्यैकादशभागा। भवधारणीया, ततीयेऽपि वेयके येषां चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनः सापचविंशतिः सागरोपमाणि तत्र स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ पट् हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, चतुर्थेऽपि वेयके। येषां पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र पडूविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ पञ्च हस्तस्यैकादशभागाः, पञ्चमेऽपि अवेयके येषां पविशतिः सागरोपमाणि तेषामेतावती भयधारणीया, येषां तु तत्र सप्तविंशतिः सागरोपमाणि तेषां द्वौ हस्ती चत्वारो हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, २२|| षष्ठेऽपि प्रैवेयके येषां सप्तविंशतिः सागरोपमाणि तेषामेतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनस्तत्राष्टाविंशतिः सागरोप|माणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ त्रयो हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, सप्तमेऽपि अवेयके येषामष्टाविंशतिः सागरो-18 cerccesesentesters दीप अनुक्रम [५१८] SARERainintamanna ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] sapasaste दीप अनुक्रम [५१८] पमाणि (स्थितिः) तेषामेतावती, येषां पुनस्तत्र एकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि तेषां भवधारणीया द्वौ हस्तौ द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी, अष्टमेऽपि वेयके येषां स्थितिरेकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेतावत्प्रमाणा, येषां पुनस्तत्र त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ एकश्च हस्तस्यैकादशो भागो भवधारणीया, नवमे वेयके येषां स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषां भवधारणीया एतावत्प्रमाणा, येषां पुनरेकत्रिंशत्सागरोपमाणि तत्र स्थितिस्तेषां परिपूर्णों द्वौ हस्तौ । भवधारणीया, 'एवं अणुत्तरे' इत्यादि, एवं अधेयकोक्तेन प्रकारेण अनुत्तरोपपातिकदेवानामपि सूत्रं वक्तव्यं, नवर-11 मुत्कर्पतो भवधारणीया एका रनिः-हस्तो वक्तव्यः, एतच प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् प्रति ज्ञातव्यं, येषां पुनर्विजयादिषु चतुर्पु विमानप्वेकत्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूणों द्वौ हस्ती भवधारणीया, येषां पुनस्त-18 व मध्यमा द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेको हस्त एकश्च हस्तस्यैकादशभागो भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र सर्वार्थसिद्धमहाविमाने त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेको हस्तो भवधारणीया, जघन्या सर्वत्राङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रा ॥ तदेवमुक्तानि वैक्रियशरीरस्यापि विधिसंस्थानावगाहनाप्रमाणानि, सम्प्रत्याहारकस्य प्रतिपिपादयिषुराह आहरगसरीरे णं भंते ! कतिविधे पन्नते ?, गो! एगागारे पं०, जइ एगागारे किं मसआहारगसरीरे अमणूसाहारगसरीरे, गोमणूसाहारगसरीरे नो अमणूसआ०, जइ मण्सआहा०कि संमुच्छिममणूसाहा० गम्भवतियमसाहा.१, गो.1 नो समुच्छिममणूसआहा० गन्भवतियमणूसआहा०, जइ गम्भव०म० आ० किं कम्मभूमगग० अथ आहारकशरीर-संस्थान-अवगाहना सम्बन्धी वक्तव्यता ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती. सूत्रांक ॥४२३॥ [२७३]] दीप अनुक्रम [५१९] म. आ. अकम्मभूमगग० म० आ० अंतरहीवगग० म० आ०१, गो! कम्मभूमग नो अकम्मभूमगग नौ अंतरदीवग०, जइ कम्भभूमगग० म० आ० किं संखेजवासाउय० क.ग. मआ. असंखेजवासाउक० ग० म० आ०१, गो! संखिञ्जवा० क० गम्भ० म० आहारगसरीरे नो असं० ० ग० म० आ०, जति संखे० क० ग० म. आहा. सरीरे किं पञ्जतसं० वा. क० ग०म० आ० सरीरे अपज्जत्तसं० वा. क. ग०म० आ०१, गो०। पजतसं० बासा०क० म०म० आ० नो अपज्ज क० ग० म० आ०, जइ पजत्त० सं० क. ग० म० आ० किं सम्महिट्टीपज्जत्तगसं० क० ग०म० आ० मिच्छद्दट्टीप० सं० क. ग०म० आ० सम्मामिच्छद्दिहिपज.सै० क० ग०म० आ०१, गो० सम्म० पज० सं०क० ग.म.आoनो मिच्छद्दिहिनो सम्मामिच्छद्दिविप० सं० कम्म० म०म० आ०, जब सम्मदिद्विपजत्तसं० वा.क. ग०म० आ० किं संजयस० म०सं०० ग.म. आ० असंजतसम्म प०सं०क. ग.म. आ. संजयासंजयस०प०सं०क.ग.म. आ.,गो०। संजयसम्म पं० सं० क.ग. म. आoनो असंजतसम्म०प० आहा० नो संजतासंजतसम्म० आहा०, जब संजतसम्म पं० सं०क० गं० म० आ०कि पमत्तसंजतसम्म०म० आ० अपमत्तसंजतसम्म० सं०० गम. आ०१, गो! पमत्तसं० सम्महि डिप. सं० १० ग०म० आ० नो अपमत्तसं० स०प० सं० क. ग.म.आ०, जइ अपमनसं० स. प० सं०क०म० आ० किं इविपत्तप्पमतसं० स०क०सं०ग० म. आ. अणिपित्तसं०५०० सं० ग. आ०१, गो! इडिपत्ता स०प० सं० २० ग०म० आoनो अणिड्डिप० स०प० सं० क.ग. म. आहा० । आहारगसरीरे णे भंते ! R॥४२॥ HOU ~450~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७३] किंसंठिते पं०१, गो.! समचउरंससंठाणसंठिते पं०, आहारगसरीरस्स पं मंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०1, मो० ! जह० देसूणा रयणी उ० पडिपुण्णा स्यणी । (सूत्र २७३) 'आहारकसरीरे णं भंते ! कइविहे पं०' इत्यादि सुगमं, नवरं 'संजय'त्ति 'यमू उपरमें संयच्छन्ति स्म-सर्वसावघयोगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति स्मेति संयताः, 'गत्यर्थनित्याकर्मका'दिति कतरिक्तप्रत्ययः, सकलचारित्रिणः, असंयताअविरतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयता-देशविरतिमन्तः, तथा 'पमत्त'त्ति प्रमाद्यन्ति स्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः सज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्म प्रमत्ताः, पूर्ववत्कर्तरि क्तप्रत्ययः, ते च प्रायो गच्छवासिनतेषां क्वचिदनुपयोगसम्भवात् , तद्विपरीता अप्रमत्ताः, ते चप्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिकप्रतिमाप्रतिपन्नास्तेषां सततोपयोगसम्भवात् , इह जिनकल्पिकादयो लब्धि नोपजीवन्ति, तेषां तथाकल्पत्वात्, येऽपि च गच्छवासिन आहारकशरीरं कुर्वन्ति तेऽपि तदानीं लब्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादवन्तो, मोचनेऽपि |च प्रमादवन्त आत्मप्रदेशानामौदारिकशरीरे सर्वात्मनोपसंहरणेन व्याकुलीभावात् , आहारकशरीरे चान्तर्मुहर्तावस्थानं, ततो यद्यपि तन्मध्यभागे कियत्कालं मनाक विशुद्धिभावतः कार्मग्रन्थिकैरप्रमत्ततोपवयेते तथापि स लम्ध्युपजीवनेन प्रमत्त एवेत्यप्रमत्तस्य 'नो अपमत्तसंजए' इत्यादिना प्रतिषेधः कृतः, 'इहिपत्त'त्ति द्धी:-आमोषध्यादिलक्षणाः प्राप्त ऋद्धिप्राप्तस्तद्विपरीतोऽनृद्धिप्राप्तः, ऋद्धीश्च प्रामोति प्रथमतो विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापूर्वार्थप्रतिपादक दीप अनुक्रम [५१९] शार ~451~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७३] दीप अनुक्रम [५१९] • मूलं [२७३ ] पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनायाः मल य० वृत्तौ. ॥४२४॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - Education Internation श्रुतमवगाहमानः श्रुतसामर्थ्यतस्तीव्र तीव्रतर शुभ भावनामधिरोहन् अप्रमत्तः सन् उक्तं च- "अवगाहते च स श्रुतज - लधिं प्राप्नोति चावधिज्ञानम् । मानसपर्यायं वा ज्ञानं कोष्ठादिबुद्धीर्वा ॥ १ ॥ चारणवैक्रिय सर्वौषधिताद्या वाऽपि लब्धयस्तस्य । प्रादुर्भवन्ति गुणतो बलानि वा मानसादीनि ॥ २ ॥” अत्र 'स' इत्यप्रमत्तसंयतः, मानसपर्यायमिति-मानसाः - मनसः सम्बन्धिनः पर्याया - विषया यस्य तन्मानसपर्यायं मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः, कोष्ठादिबुद्धीर्वा | इत्यत्रादिशब्दात् पदानुसारिवीजपरिग्रहः, तिस्रो हि बुद्धयः परमातिशयरूपाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते, तद्यथा-कोष्ठबुद्धिः १ पदानुसारिबुद्धिः २ बीजबुद्धि ३ श्व, तत्र कोष्ठक इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गती तदव - स्थानी च सूत्रार्थी धारयति न किमपि तयोः कालान्तरे गलति सा कोष्ठबुद्धिः १, या पुनरेकमपि सूत्रपदमवधार्य | शेषमश्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी २, या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः ३, सा च सर्वोत्तमप्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशाङ्गात्मक प्रवचनमभिसूत्रयन्ति, तथा चारणाश्च वैक्रियं च सर्वौषध्यश्च तद्भावश्च चारणवैक्रिय सर्वोपधिता, तत्र चरणं गमनं तद्विद्यते येषां ते चारणाः 'ज्योत्स्नादिभ्योऽणि 'ति मत्वर्थीयोऽण् प्रत्ययः, तत्र गमनमन्येषामपि मुनीनां विद्यते ततो विशेषणान्यथानुपपत्त्या चरणमिह विशिष्टं गमनमभिगृयते, अंत एव चातिशायने मत्वर्थीयो, यथा रूपवती कन्या इत्यत्र, ततोऽयमर्थः - अतिशायि चरणसमर्थाश्चारणाः, आह च भाग्य For Parts Only ------ ~452~ २१ शरीर पदं ॥४२४|| war Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७३] दीप अनुक्रम [५१९ ] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • मूलं [२७३ ] पदं [२१], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः कृत् स्वकृतभाष्यटीकायां “अतिशयचरणाचारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः,” ते च [ ते ] द्विविधा - जङ्घाचारणाः विद्याचारणाश्च तत्र ये चारित्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयलब्धिविशेषास्ते जङ्घाचारणाः, ये पुनर्विद्यावशतः समुत्पन्नगमनलब्ध्यतिशयास्ते विद्याचारणाः, जहाचारणाथ रुचकवरद्वीपं यावत् गन्तुं समर्थाः विद्याचारणा नन्दीश्वरं तत्र जङ्घाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छवस्तत्र रविकरानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति, विद्याचारणास्त्वेवमेव, जद्दाचारणश्च रुचकबरद्वीपं गच्छन् एकेनैवोत्पातेन गच्छति, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनोत्पातेन नन्दीश्वरमायाति द्वितीयेन स्वस्थानं, यदि पुनर्मेरुशिखरं जिगमिषुस्तर्हि प्रथमेनैवोत्पातेन पण्डकवनमधिरोहति प्रतिनिवर्त्तमानस्तु प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छति द्वितीयेन स्वस्थानमिति, जङ्घाचारिणो हि चारित्रातिशयप्रभावतो भवन्ति, ततो लब्ध्युपजीवने औत्सुक्यभावतः प्रमादसम्भवाचारित्रातिशयनिबन्धना लब्धिः परिहीयते, ततः प्रतिनिवर्त्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभ्यां खभुवमायाति विद्याचारणः पुनः प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीश्वरं, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्येकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमा यातीति, तथा स एवो गच्छन् प्रथमोत्पातेन नन्दनवनं गच्छति द्वितीयेनोत्पातेन पण्डकवनं, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायातीति, विद्याचारणो विद्यावशतो भवति, विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते, अतः प्रतिनिवर्त्तमानस्य शक्त्यतिशयसम्भवादेकेनोत्पातेन स्वस्थानागमनमिति, उक्तं च - "अइसय चरणसमत्था जंघाविज़ाहि चारणा मुणओ। जंचाहि जाइ For Parts Only ------ ~ 453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती. ॥४२५॥ सूत्रांक [२७३]] दीप अनुक्रम [५१९] पढमो नीसं काउं रविकरेवि ॥१॥ एगुप्पाएण गओ रुयगवरंमि उ तओ पडिनियत्तो । विइएणं नंदिस्सरमिह शरीरतओ एइ तइएणं ॥२॥ पढमेणं पंडगवण विइउप्पाएण नंदणं एइ । तइउप्पारण तओ इह जंघाचारणो एक ॥३॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं तु विइएण । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहई॥४॥ पढमेणं नंदणवणे विअउप्पाएण पंडगवणंमि । एइ इहं तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥ ५॥" तथा सर्व-विमूत्रादिकमौषधं यस्य स सौंषधः, किमुक्तं भवति ?-यस्य मूत्रं विट् श्लेष्मा शरीरमलो वा रोगोपशमसमर्थों भवति स सर्वोषधः, आदिशब्दादामोषध्यादिलब्धिपरिग्रहः, एताश्च ऋद्धीरप्रमत्तः सन् प्राप्य पश्चात् प्रमत्तो भवति, तेनै-11 वह प्रयोजनं तत उक्तम्-'इडिपत्तपमत्तसंजयेत्यादि, आह-मनुष्यस्याहारकशरीरमित्युक्ते सामर्थ्यादमनुष्यस्य नाहारकशरीरमित्सवसीयते ततः कस्मादुच्यते-'नो अमणुस्साहारगसरीरे' इत्यादि ?, निरर्थकत्वात् , उच्यते, इह | त्रिविधा विनेयाः, तद्यथा-उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयः प्रपञ्चितज्ञाश्च, तत्र ये उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयो वा ते यथोक्तं सामर्थ्यमयबुध्यन्ते, ये पुनरद्याप्यव्युत्पन्नत्वात् न यथोक्तसामर्थ्यावगमकुशलास्ते प्रपश्चितमेवाचगन्तुमीशते । ॥४२५॥ नान्यथा, ततस्तेषामनुग्रहाय सामर्थलब्धस्थापि विपक्षनिषेधस्याभिधानं, महीयांसो हि परमकरुणापरीतत्वात् अविशेषेण सर्वेषामनुग्रहाय प्रवर्तन्ते, ततो न कश्चिदोषः, 'जहण्णेणं देसूणा रवणी' इति आहारकशरीरस्य जघन्यतो ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७३] विगाहना देशोना-किञ्चिदूना रनिः-हस्तः तथाविधप्रयत्नभावतः प्रारम्भसमयेऽपि तस्या एतावत्या एव भावात् ।। तदेवमुक्तान्याहारकशरीरस्य विधिसंस्थानावगाहनामानानि, सम्प्रति तैजसस्य तान्यभिधित्सुराहतेयगसरीरेण भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! पंचविहे पं०, तं०-एगिदियतेयगसरीरे जाव पंचिंदियतेयगसरीरे, एगिदियतेयगसरीरेणं भंते ! कइविधे पं०१, गोल! पंचविधे पं०, तं-पुढविकाइय० जाव वणस्सइकाइयएगिदि- 16 यसरीरे, एवं जहा ओरालियसरीरस्स भेदो भणितो तहा तेयगस्सवि जाव चउरिदियाणं । पंचिंदियतेयगसरीरेण भंते ! कतिविधे पं०१, गो० चउबिहे पं०,०-नेरइयतेयगसरीरे जाव देवतेयगसरीरे, नेरइयाणं दुगतो भेदो भाणितबो, जहा घेउवियसरीरे । पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं मसाण य जहा ओरालियसरीरे भेदो भाणितो तहा भाषियो । देवाणं जहा बेउवियसरीरभेदो भाणितो तहा भाणियबो, जाव सबसिद्धदेवत्ति । तेयगसरीरे णं भते ! किंसंठिए पं० १, गो! णाणासंठाणसंठिए पं०, एगिदियते यगसरीरेण भंते ! किंसंठिए पण्णते, गोणाणासंठाणसंठिए पं०, पुढ-. विकाइयएगिदियतयगसरीरेणं भंते । किंसंठिए पं०१, गो०! मसूरचंदसंठाणसंठिते पं०, एवं ओरालियसंठाणाणुसारेण माणितचं जाव चउरिदियाणवि, नेरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किंसंठिए पं०१, गो०! जह बेउबियसरीरे, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाणं जहा एतेसिं चेव ओरालियन्ति, देवाणं भंते ! किंसंठिते तेयगसरीरे ५०, गो.! जहा देउवियस्स जाब अणुत्तरोववाइयत्ति । (सूत्र २७४)। जीवस्स गं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहवस्स तेयासरीरस्स PREMEERecedesisesels दीप अनुक्रम [५१९] SARERaininternational HTRataram.org | अथ तैजस शरीर-संस्थान-अवगाहना सम्बन्धी वक्तव्यता ~455~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२७४-२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २१शरीर प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] प्रज्ञापना या: मल-IN यवृत्ती. ॥४२६॥ दीप अनुक्रम [५२०-५२१] केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो! सरीरपमाणमेचा विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जह• अंगुलस्स असं० उको लोगंताओ लोगते, एगिदियस्स गं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरो०१, गो! एवं चेक, जाव पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणप्फइकाइयस्स, बेइंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमु० समो० तेयासरीरस्स केमहा०, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह• अंगुलस्स असंखे० उक्कोतिरियलोगाओ लोगते, एवं जाव चउरिंदियस्स, नेरदयस्स णं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स केमहा०, गो०! सरीरप्पमाणमेचा विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० सातिरेक जोयणसहस्सं उक्को अधे जाव असत्तमा पुडवी तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे उहुंजाव पंडगवणे पुक्खरिणीतो, पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्सणं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स य केमहा.., मो०! जहा येइंदियसरीरस्स, मणुस्सस्स णं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स केमहा०१, गो० समयखेताओ लोगतो, असुरकुमारस्स णं भंते! मारणंतियसमुग्याएणं समोहयस्स तेया० केम०, गो०। सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह• अंगुलस्स असंखे उको० अधे जाव तचाए पुढवीए हिहिले चरमंते तिरियं जाव सयंभुरमणसमुहस्स बाहिरिले वेइयंते उर्दु जाव इसीपम्भारा पुढवी, एवं जाव थणियकुमारतेयगसरीरस्स, वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणगा य एवं चेव, सणकुमारदेवस्स गं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालि०१, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगु० असं० उक्को अधे जाव महापातालाणं दोचे तिभागे, तिरियं जाब सयंभुरमणे समुद्दे उहं जाव अचुओ कप्पो, एवं जाव सहस्सारदेवस्स अचुओ कप्पो, आण ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७४ -२७५] दीप अनुक्रम [५२० -५२१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२१], - मूलं [२७४-२७५] ------- उद्देशक: [-], - दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ------------- यदेवस्त णं भंते! मार० समु० समो० तेयास० केम० १, गो० ! सरीरप्यमाणमेत्ता विक्संभवाहणं आयामेणं जह० अंगु० असं० उको० जाव अधोलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेने उड्डुं जाव अच्चुओ कप्पो, एवं जाव आरणदेवस्स अच्चुअदेवस्स एवं चैव वरं उहुं जाव सथाई विमाणातिं गेविअगदेवस्स णं भंते! मारणंतियसमु० समो० तेयग० म० १, गो० ! सरीरयमाणमेत्ता चिक्खभबाहल्लेणं आयामेणं जह० विजाहरसेढीतो उको० जाव अहोलोइयगामा तिरियं जाव मणूसखेत्ते उड्डुं जाव सगार्ति विमाणातिं, अणुत्तरोववाइयस्सवि एवं चैव । कम्मगसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविधे पं० तं०- एगिंदियकम्मगसरीरे जाव पंचिंदिय० य, एवं जहेब तेयगसरीरस्स भेदो संठाणं ओगाहणा य भणिता तहेव निरवसेसं भाणित जाव अणुत्तरोववाहयत्ति (सूत्रं २७५ ) ------ 'तेयगसरीरे णं भंते!' इत्यादि, इह तैजसशरीरं सर्वेषामवश्यं भवति ततो यथा एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियगत औदारिकशरीरभेदो भणितस्तथा चतुरिन्द्रियान् यावत् तैजसशरीरभेदोऽपि वक्तव्यः, पञ्चेन्द्रियतैजसशरीर चिन्तायां चतुर्विधं पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरं, नैरयिकतिर्यग्मनुष्यदेव भेदात्, तत्र नैरयिकतैजसशरीरचिन्तायां यथा प्राक् वैक्रियशरीरे पर्याप्तापर्याप्तविषयतया द्विगतो भेद उक्तस्तथाऽत्रापि वक्तव्यः स चैवं- 'जह नेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे किं श्यणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे जाव किं असत्तमापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे ?, गो० ! रयणप्पभापुढ विनेरइयपं० तेयगसरीरेवि जाव असत्तमापुढविनेरइयपं० तेयगसरीरेवि, जइ रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिं For Parts Only ~ 457 ~ rary or Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२७४-२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप अनुक्रम [५२०-५२१] प्रज्ञापना-11दियतेयगसरीरे किं पजत्तगरयणप्पभे'त्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां च यथा प्रागौदारिकशरीरभेद ||२१शरीर. याः मल-18 उक्तस्तथा अत्रापि वक्तव्यः, स चैवम्-'तिरिक्खजोणियपंचिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कइविहे पण्णते? इत्यादि, पदं य० वृत्ती. देवानां यथा वैक्रियशरीरभेद उक्तस्तथा भणितव्यः, स चैवम्-'जइ देवपंचिंदियतेयगसरीरे किं भवणवासिदेवर्ष-181 ॥४२७|| चिंतेयगसरीरे' इत्यादि, यावत्सर्वार्थसिद्धदेवसूत्र । उक्तो भेदः, सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'तेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पं.?' इत्यादि, सुगमं, इह जीवप्रदेशानुरोधि तैजसं शरीरं ततो यदेव तस्यां २ योनाचौदा-18 रिकशरीरानुरोधेन वैक्रियशरीरानुरोधेन च जीवप्रदेशानां संस्थानं तदेव तैजसशरीरस्यापि इति प्रागुक्तमेकद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यगतमौदारिकसंस्थान नैरयिकदेवेषु वैक्रियसंस्थानमतिदिष्टमिति । गतं संस्थानमधुना अय-| गाहनामानमाह-'जीवस्स णं भंते !' इत्यादि, जीवस्य नैरयिकत्वादिविशेषणाविवक्षायां सामान्यतः संसारिणो णमिति वाक्यालङ्कारे मारणान्तिकसमुद्घातेन वक्ष्यमाणलक्षणेन समबहतस्य सतः 'केमहालिया' इति किंमहती। |किंप्रमाणमहत्वा शरीरावगाहना?, शरीरमौदारिकादिकमप्यस्ति तत आह-तैजसशरीरस्य, प्रजसा १, भगवानाहशरीरप्रमाणमात्रा विष्कम्भवाहल्येन, विष्कम्भश्च बाहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं समाहारो द्वन्द्वतेन, विष्कम्भेन बाह-IM२७॥ ल्येन चेत्यर्थः, तत्र विष्कम्भ उदरादिविस्तारः वाहल्यमुरःपृष्ठस्थूलता आयामो देय, तत्रायामेन जघन्यतोऽजुलस्थासङ्ख्येयभागः-अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा, इयं च एकेन्द्रियस्यैकेन्द्रियेष्यत्यासन्नमुत्पद्यमानस्य द्रष्टव्या, उत्कर्षतो ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२७४-२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] ESece8 दीप अनुक्रम [५२०-५२१] लोकान्तात् लोकान्तः, किमुक्तं भवति ?-अधोलोकान्तादारभ्य यावदूर्द्धलोकान्त ऊर्द्धलोकान्तादारभ्य यावदधोलोकान्तस्तावत्प्रमाण इति, इयं च सूक्ष्मस्य वादरस्य या एकेन्द्रियस्य वेदितव्या, न शेषस्थासम्भवात् , एकेन्द्रिया हि सूक्ष्मा बादराश्च यथायोगं समस्तेऽपि लोके वर्तन्ते न शेपास्ततो यदा सूक्ष्मो बादरो वा एकेन्द्रियोऽधोलोके वर्तमान ऊर्द्धलोकान्ते सूक्ष्मतया बादरतया चोत्पचुमिच्छति ऊर्द्ध लोकान्ते वा वर्तमानः सूक्ष्मो बादरो वा अधोलोकान्ते सूक्ष्मतया बादरतया वोत्पत्स्यते तदा तस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य यथोक्तप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना भवति, एतेन पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसूत्राण्यपि भाषितानि द्रष्टव्यानि, तथाहि-सूक्ष्मपृथिवीकायि| कोऽधोलोके ऊर्द्वलोके वा वर्तमानो यदा सूक्ष्मपृथिवीकायिकादितया बादरवायुकायिकतया चा ऊर्द्वलोके अधोलोके वा समुत्पनुमिच्छति तदा भवति तस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्योत्कर्षतो लौकान्तात् लोकान्तं यावत् तैजसशरीरावगाहना, एवमष्कायिकादिष्वपि भाव्य, द्वीन्द्रियसूत्रे आयामेन जघन्यतोऽनुलासययभागप्र|माणा यदा अपर्यासो द्वीन्द्रियोऽङ्गुलासययभागप्रमाणौदारिकशरीरः खप्रत्यासन्नप्रदेशे एकेन्द्रियादितयोत्पद्यते तदा अवसेया, अथवा यस्मिन् शरीरे स्थितः सन् मारणान्तिकसमुद्घातं करोति तस्मात् शरीरात् मारणान्तिकसमुद्घात-131 वशात् बहिर्विनिर्गततैजसशरीरस्यायामविष्कम्भविस्तारैरवगाहना चिन्यते न तत् शरीरसहितस्य, अन्यथा भवनपत्यादेयजघन्यतोऽङ्गलासङ्खधेयभागत्वं वक्ष्यते तद्विरुध्येत, भवनपत्यादिशरीराणां सप्तादिहस्तप्रमाणत्वात् , ततो महा SARERaunintenarana ~459~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७४ -२७५] दीप अनुक्रम [५२० -५२१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२१], - दारं [-], - मूलं [२७४-२७५] ------- उद्देशक: [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥४२८॥ ------------- कायोऽपि द्वीन्द्रियो यदा खप्रत्यासन्नदेशे एकेन्द्रियतयोत्पद्यते तदाप्यङ्गुलायेय भागप्रमाणा वेदितव्या, उत्कर्षतस्तिर्यग्लोकालोकान्तः, किमुक्तं भवति - तिर्यग्लोकादधोलोकान्तो ऊर्द्धलोकान्तो वा यावता भवति तावत्प्रमाणा इत्यर्थः, कथमेतावत्प्रमाणेति चेत्, उच्यते, इह द्वीन्द्रिया एकेन्द्रियेष्वप्युत्पद्यन्ते, एकेन्द्रियाश्च सकललोकव्यापिनः, ततो यदा तिर्यग्लोकस्थितो द्वीन्द्रिय ऊर्द्धलोकान्ते अधोलोकान्ते वा एकेन्द्रियतया समुत्पद्यते तदा भवति तस्य | मारणान्तिकसमुद्घातसमवहृतस्य यथोक्तप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, तिर्यग्लोकग्रहणं च प्रायस्तेषां तिर्यग्लोकः स्वस्थानमिति कृतमन्यथा अधोलोकैकदेशेऽप्यधोलौकिकग्रामादी ऊर्द्धलोकैकदेशेऽपि पण्डकबनादो द्वीन्द्रियः सम्भ वतीति तदपेक्षयाऽतिरिक्ताऽपि तैजसशरीरावगाहना द्रष्टव्या एवं त्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये । नैरयिकसूत्रे आयामेन जघन्यतो यत्सातिरेकं योजनसहस्रमुक्तं तदेवं परिभावनीयम् - इह वलयामुखादयश्चत्वारः पातालकलशाः लक्षयोजनावगाहा योजनसह सवा हल्य ठिकरिकाः तेषामधविभागो वायुपरिपूर्ण उपरितनस्त्रिभाग उदकपरिपूर्णो मध्यस्त्रिभागो वायूदकयोरुत्सरणापसरणधर्मा, तत्र यदा कश्चित्सीमन्तकादिषु नरकेन्द्रकेषु वर्त्तमानो नैरयिकः पातालकलशप्रत्यासन्नवर्त्ती च वायुःक्षयादुदृत्य पातालकलशकुख्यं योजनसहस्रबाहल्यं भित्त्वा पातालकलशमध्ये द्वितीये तृतीये वा त्रिभागे मत्स्य तयोत्पद्यते तदा भवति सातिरेकयोजनसहस्रमाना नैरयिकस्य मारणान्तिकसमु For Penal Use Only ------ ~ 460~ २१ शरीरपदं ॥४५८ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२७४-२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 298 प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] 9 दीप अनुक्रम [५२०-५२१] घातसमवहतस्य जघन्या तैजसशरीरावगाहना, उत्कर्षतो यावदधः सप्तमपृथिवी तिर्यक् यावत्खयम्भूरमणसमुद्र-12 | पर्यन्त ऊर्ध्वं यावत्पण्डकवने पुष्करिण्यस्तावद् द्रष्टव्या, किमुक्तं भवति ?-अधः सप्तमपृथिव्या आरभ्य तिर्यग् यावत् | खयम्भूरमणपर्यन्त ऊर्दू यायत् पण्डकवनपुष्करिण्यस्तावत्प्रमाणा, एतावती च तदा लभ्यते यदाऽधः सप्तमपृथिवीनारकः खयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्ते मत्स्यतयोत्पद्यते पण्डकवने पुष्करिणीषु चेति, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियस्योत्कर्षतस्तिर्यग्लोकालोकान्तोऽत्रापि भावना द्वीन्द्रियवत्कर्त्तव्या, तिर्यपञ्चेन्द्रियस्यैकेन्द्रियेपूत्पादसम्भवात् । मनुष्यस्योत्कर्षतः |समयक्षेत्रात् , समयप्रधानं क्षेत्रं समयक्षेत्रं मयूर यसकादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, यस्मिन् अर्द्धतृतीयद्वीपप्रमाणे | सूर्यादिक्रियाध्यायः समयो नाम कालद्रव्यमस्ति तत्समयक्षेत्रं मानुषक्षेत्रमिति भावस्तस्मात् , यावदध ऊर्द्व वा लोकान्तस्तावत्प्रमाणा, मनुष्यस्यायेकेन्द्रियेपूत्पादसम्भवात्, समयक्षेत्रग्रहणं समयक्षेत्रादन्यत्र मनुष्यजन्मनः संहर-IN णस्य चासम्भवेनातिरिक्ताया अवगाहनाया असम्भवात् । असुरकुमारादिस्तनितकुमारपर्यवसानभवनपतिव्यन्तरज्यो-14 |तिष्कसौधर्मशानदेवानां जघन्यतोऽङ्गुलासङ्घवेयभागः, कथमिति चेत्, उच्यते, एते होकेन्द्रियेपूत्पद्यन्ते ततो यदा ते । १.गेरझ्याणं आयामेणं जहन्नेणं सातिरेग जोयणसहस्सं, कहं ? नरकादुद्भत्स पातालकुड्यं भिदेत्ता मच्छेमु पातालाओ वा मच्छस्स नरगेसु उबवजमाणस्स, अन्ये तु व्याचक्षते नरकाणां योजनसहस्र, कथं !, सीमन्तको नाम नरकः सर्वोपरिवर्ती वनमयो योजनसहस्रबाहुल्यकुड्य इतो योजनसहरूमवगाह्य तत्र ये नारका मत्स्या भवितुकामास्ते तदासन्नं समुद्घातं गतास्तत्र सहस्रं लभते ॥ (श्रीहरि०वृत्तौ) 93EASO2030 ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२७४-२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २१ शरीपद प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप अनुक्रम [५२०-५२१] प्रज्ञापना-18| खाभरणेष्वङ्गदादिषु कुण्डलादिषु षा ये मणयः पद्मरागादयस्तेषु गृद्धा मूर्षिछतास्तदध्यवसायिनस्तेष्येव शरीरस्थेष्या- याः मल- भरणादिषु पृथिवीकायिकत्वेनोत्पद्यन्ते तदा भवति जघन्यतोऽगुलासययभागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, अन्ये यवृत्ती. त्वन्यथाऽत्र भावनिकां कुर्वन्ति, सा च नातिश्लिष्टेति न लिखिता न च दूषिता, 'कुमार्ग न हि तित्यक्षुः, पुनस्तमनु धावती'ति न्यायानुसरणात् , उत्कर्षतो यावदधस्तृतीयस्याः पृथिव्या अधस्तनश्वरमान्तः तिर्यक् यावत्खयम्भूरमण॥४२९॥ समुद्रस्य बाह्यो वेदिकान्त ऊ यावत् ईपत्यारभारा पृथिवी तावत् द्रष्टव्या, कथमिति चेत् , उच्यते, यदा भवनपत्यादिको देवस्तृतीयस्याः पृथिव्या अधस्तनं चरमान्तं यावत् कुतश्चित्प्रयोजनवशाद् गतो भवति, तत्र च गतः सन् कथमपि खायुःक्षयान्मृत्वा तिर्यक खयम्भूरमणसमुद्रबाह्यवेदिकान्ते यदिवा ईषत्प्रारभाराभिधपृथिवीपर्यन्ते पृथिवीकायिकतयोत्पद्यते तदा भवत्युत्कर्षतो यथोक्ता तथा तैजसशरीरावगाहना, सनत्कुमारदेवस्यापि जघन्यतोऽINझुलासयेयभागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, कथमिति चेत्, उच्यते, इह सनत्कुमारादय एकेन्द्रियेषु विकलेन्द्रियेषु वा नोत्पद्यन्ते, तथा भवस्वाभाव्यात् , किन्तु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु था, ततो यदा मन्दरादिपुष्करिण्यादिषु १ इह तु पूज्याः खल्वेवं भावार्थ अभिवर्णयति यथोपपातदेशागतजीवप्रदेशापेक्षया एतदुच्यते, कुतः!, मणेः तदुपपातक्षेत्रस्य वा तच्छ-N शरीरविष्कंभवाहल्यायोगात्, तच तत्र गतोऽपि तत्र संघातमधिकृत्य तदाहारकः तदा भवति तदाविष्कभबाहल्यं घोपसंहत्य सर्वात्मना तत्र प्रविष्ठो भवतीति, अयं च स्वाभरणादावुत्पद्यमान एव द्रष्टव्य इति ।। (श्रीहरिक वृत्ती) २९॥ ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२७४ -२७५] दीप अनुक्रम [५२० -५२१] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२१], - मूलं [२७४-२७५] ------- उद्देशक: [-], - दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः | जलावगाहं कुर्वतां स्वभवायुःक्षयात् तत्रैव स्वप्रत्यासन्ने देशे मत्स्यतयोत्पद्यन्ते तदा अङ्गुलायेय भागप्रमाणा द्रष्टव्या, अथवा पूर्वसम्बन्धिनीं मनुष्यस्त्रियं मनुष्येणोपभुक्तामुपलभ्य गाढानुरागादिहागत्य परिष्वजते परिष्वज्य च तदवाच्यप्रदेशे स्वावाच्यं प्रक्षिप्य कालं कृत्वा तस्या एव गर्ने पुरुषबीजे समुत्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कर्षतोऽधः पातालकलशानां लक्षयोजनप्रमाणावगाहानां द्वितीयत्रिभागं यावत् तिर्यग् यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्त ऊर्द्ध यावदच्युतकल्पस्तावदवगन्तव्या, कथमिति चेत्, उच्यते, इह सनत्कुमारादिदेवानामन्यदेवनिश्रया अच्युतकल्पं यावद् गमनं भवति, न च तत्र वाप्यादिषु मत्स्यादयः सन्ति तत इह तिर्यग्मनुष्येषूत्पत्तव्यं तत्र यदा सनत्कुमारदेवोऽन्यदेवनिश्रया अच्युतकल्पं गतो भवति तत्र च गतः सन् खायुःक्षयात्कालं कृत्वा तिर्यक् स्वयंभूरमणपर्यन्ते यदिवाऽधः | पातालकलशानां द्वितीयत्रिभागे वायूदकयोरुत्सरणापसरणभाविनि मत्स्यादितयोत्पद्यते तदा भवति तस्य तिर्यगधो वा यथोक्तक्रमेण तैजसशरीरावगाहनेति, 'एवं जाव सहस्सारदेवस्स त्ति एवं- सनत्कुमारदेवगतेन प्रकारेण जघन्यत उत्कर्षतश्च तैजसशरीरावगाहना तावद्वाच्या यावत्सहस्रारदेवेभ्यः, भावना [ऽपि ] सर्वत्रापि समाना, आनतदेवस्यापि जघन्यतोऽङ्गुलायेय भागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, नन्वानतादयो देवा मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते मनुष्याश्च मनुष्यक्षेत्र एवेति कथमङ्गला सङ्ख्येय भागप्रमाणा ?, उच्यते, इह पूर्वसम्बन्धिनीं मनुष्यस्त्रियमन्येन मनुष्येणोपभुक्ता|मानतदेवः कश्चनाप्यवधिज्ञानत उपलभ्यासन्नमृत्युतया विपरीतस्वभावत्वात् सत्त्वचरितवैचित्र्यात् कर्मगते रचिन्त्य For Parts Only ------ ~ 463~ jor Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२७४-२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापना- या मल- २. वृत्ती. २१शरीसद सूत्रांक [२७४-२७५] ॥४३॥ दीप अनुक्रम [५२०-५२१] त्यात् कामवृत्तमलिनत्वाच, उक्तं च-"सत्यानां चरितं चित्रं, विचित्रा कर्मणां गतिः । मलिनत्वं च कामानां, वृत्तिः पर्यन्तदारुणा ॥१॥” इति, गाढानुरागादिहागत्य नकुलोपगृहं तां परिष्वज्य तदवाच्यप्रदेशे खावाच्यं प्रक्षिप्यातीय मूच्छितः खायुःक्षयात् कालं कृत्वा यदा तस्या एव गर्ने मनुष्यबीजे मनुष्यत्वेनोत्पद्यते, मनुष्यबीजं च जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त्तमुत्कर्षतो द्वादश मुहूर्तान् यावदवतिष्ठति, उक्तं च-"मणुस्सबीए णं भंते ! कालतो केवचिरं! होइ?, गो01जह अंडोउकोसेणं बारस मुहुत्ता" इति, ततो द्वादशमुहूर्ताभ्यन्तर उपभुक्तां परिष्वज्य मृतस्य | तत्रयोत्पत्तिर्मनुष्यत्वेन द्रष्टव्या, उत्कर्षतोऽधो यावदधोलौकिका प्रामास्तिर्यग् यावन्मनुष्यक्षेत्रं ऊर्दू यावदच्युतः। कल्पस्तावदयसेया, कथमिति चेत् , उच्यते, इह यदाऽऽनतदेवः कस्याप्यन्यस्य देवस्य निश्रया अच्युतकल्पं गतो | भवति, स च तत्र गतः सन् कालं कृत्वाऽधोलौकिकग्रामेषु यदिवा मनुष्यक्षेत्रपर्यन्ते मनुष्यत्वेनोत्पद्यते तदा लभ्यते, एवं प्राणतारणाच्युतकल्पदेवानामपि भावनीयं, तथा चाह-'एवं जाव आरणदेवस्स, अधुयदेवस्स एवं | चेव, नवरं उर्दु जाव सयाई विमाणाई' इति, अच्युतदेवस्थापि जघन्यतः उत्कर्षतश्च तेजसशरीरावगाहना एवमेवएवंप्रमाणैव, परं सूत्रपाठे 'उहूं जाव सयाई विमाणाई' इति वक्तव्यं, नतु 'उहं जाव अचुओ कप्पो' इति, अच्यु-I तदेवो हि यदा चिन्त्यते तदा कथम्र्द्ध यावदच्युतः कल्प इति घटते, तस्य तत्र विद्यमानत्वात् , केवलमच्युतदे-15 वोऽपि कदाचिदूदै खविमानपर्यन्तं यावद् गच्छति तत्र च गतः सन् कालमपि करोति तत उक्तम्-'उड्डे जाय ॥४३०॥ ~464~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [२७४-२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: KI प्रत सूत्रांक [२७४-२७५] दीप अनुक्रम [५२०-५२१] |सयाई विमाणाई' इति, अवेयकानुत्तरसुरा भगवद्वन्दनादिकमपि तत्रस्था एवं कुर्वन्ति तत इहागमनासम्भवात् अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणता न लभ्यते, किन्तु यदा वैताब्यगतासु विद्याधरश्रेणिपूत्पद्यन्ते तदा खस्थानादारभ्याधो यावद्विद्याधरश्रेणयस्तावत्प्रमाणा जघन्या तैजसशरीरावगाहना, अतोऽपि मध्ये जघन्यतराया असम्भवात् , उत्कृष्टा यावदधोलौकिका ग्रामास्ततोऽप्यध उत्पादासम्भवात् , तिर्यग्यावन्मनुष्यक्षेत्रपर्यन्तस्त तः परं तिर्यगप्युत्पादाभावात् , यद्यपि हि विद्याधरा विद्याधर्यश्च नन्दीश्वरं यावद् गच्छन्ति अाक् सम्भोगमपि कुर्वन्ति तथापि मनुष्यक्षेत्रात् परतो | गर्भ मनुष्येषु नोत्पद्यन्ते ततस्तिर्यग्यावत् मनुष्यक्षेत्रमित्युक्तं । तदेवमुक्तानि तेजसशरीरस्य विधिसंस्थानावगाहना| मानानि, सम्प्रति कार्मणस्य वक्तव्यानि, कार्मणं च तैजससहाविनाभावि तैजसवच जीवप्रदेशानुरोधि संस्थानं ततो यथैव तैजसशरीरस्योक्तानि तथैव कार्मणस्यापि वक्तव्यानि, तथा चाह-एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणमोगाहणा य भणिता तहेव निरवसेसं भाणितचं जाव अणुत्तरोववाइय'ति । उक्तानि पञ्चानामपि शरीराणां विधिसंस्थानावगाहनामानानि, सम्प्रति पुदलचयनमाह ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिजंति ?, गो! निवाधाएणं छदिसि वाघायं पड्डुच सिय तिदिसिं सिय चउद्दिसिं सिय पंचदिसिं, बेउबियसरीरस्सणं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिजंति, गो०1णियमा छद्दिसिं, एवं आहारगसरीरस्सवि, तेयाकम्मगाणं जहा ओरालियसरीरस्स । ओरालियसरीरस्स पं भंते ! कतिदिसि पोग्गला उवचि NATURastaram.org औदारिक आदि शरीर द्वारा पुद्गलस्य चयनं ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २१शरी प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. प्रत सूत्रांक [२७६] रपद ॥४३॥ PAP दीप जंति ?, गो.! एवं चेव जाव कम्ममसरीरस्स, एवं उवचिअंति, अवचिजति । जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स वेउडियसरीरं जस्स वेउवियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं ?, गो० ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउवियसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स वेउवियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं?, गो० जस्स ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण आहारगसरीरं तरस ओरालियसरीरं णियमा अस्थि, जस्स णं भंते । ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं जस्स तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं?, गो! जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं नियमा अत्थि जस्स पुण तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, एवं कम्मगसरीरंपि, जस्स णं भंते ! वेउबियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स आहारगसरीरं तस्स वेवियसरीरं, गो.! जस्स बेउवियसरीरं तस्स आहारगसरीरं णस्थि, जस्सवि आहारगसरीरं तस्सपि वेउवियसरीरं णत्थि, तेयाकम्मातिं जहा ओरालिएण समं तहेव आहारगसरीरेणवि समं तेयाकभ्मगात चारेयवाणि, जस्स णं भंते ! तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयगसरीरं?, गो० जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं णियमा अस्थि, जस्सवि कम्मगसरीरं तस्सवि तेयगसरीरं णियमा अस्थि (मूत्र २७६ ) 'ओरालियसरीरस्स णं भंते !' इत्यादि, औदारिकशरीरस्य 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! 'कइदिर्सि' इति पञ्चम्यर्थे द्वितीया बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , ततोऽयमर्थः-कृतिभ्यो दिग्भ्यः समागत्य पुद्गलाश्चीयन्ते, कर्म अनुक्रम [५२२ ॥४३१॥ ~466~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७६] celesewerse दीप कर्तर्ययं प्रयोगः, खयं चयनमागच्छन्तीत्यर्थः, भगवानाह-निर्व्याघातेन-व्याघातस्याभायो निर्व्यापातमव्ययी-18 भावः 'तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पेनाम्बिधानानात्राम्भावः 'छद्दिसिं'ति षड्भ्यो दिग्भ्यः, किमुक्तं भवति ?यत्र त्रसनाड्या मध्ये बहिर्वा व्यवस्थितस्यौदारिकशरीरिणो नैकापि दिग् अलोकेन व्याहता वर्तते तत्र निर्व्याघाते व्यवस्थितस्य नियमात् षड्भ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, व्याघातं-अलोकेन प्रतिस्खलनं प्रतीस 'सिया। तिदिसिं'ति स्यात्-कदाचित्तिसभ्यो दिग्भ्यः स्याश्चतसृभ्यः स्यात् पञ्चभ्यः, कथमिति चेत् , उच्यते, सूक्ष्मजीवस्यौ-IM दारिकशरीरिणो यत्रो लोकाकाशं न विद्यते नापि तिर्यक पूर्वदिशि नापि दक्षिणदिशि तस्मिन् सर्वोर्ध्वप्रतरे आग्ने-N यकोणरूपे लोकान्ते व्यवस्थितस्याधः पश्चिमोत्तररूपाभ्यस्तिसृभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलोपचयः शेषदिकत्रयस्थालोकेन। व्याप्तत्वात् , पुनः स एव सूक्ष्मजीव औदारिकशरीरी पश्चिमां दिशमनुसृत्य तिष्ठति तदा पूर्वदिगस्याधिका जातेति | चतसृभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, यदा पुनरधो द्वितीयादिप्रतरे गतः पश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदा ऊर्द्धदिगप्यधिका लभ्यते केवला दक्षिणैव दिगलोकेन ब्याहतेति पञ्चभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, वैक्रियशरीरमाहारकशरीरं च त्रसनाच्या मध्य एव सम्भवति नान्यत्रेति तयोरपि पुगलचयो नियमात् षड्भ्यो दिग्भ्यः, तैजसकामणे सर्वसंसारिणां, ततो यथौदारिकस्य नियाघातेन षड्भ्यो दिग्भ्यो व्याघातं प्रतीत्य पुनः स्थात् त्रिदिग्भ्यः स्थाचतुदिग्भ्यः स्थात पञ्चदिग्भ्यः तथा तैजसकार्मणयोरपि द्रष्टव्यः, यथा चयस्तथा उपचयोऽपचयश्च वक्तव्यः, तत्र उप अनुक्रम [૨૨] Coese REnatured ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७६] प्रज्ञापना- या मल- य० वृत्ती. ॥३॥ दीप चयः-प्राभूत्येन चयः अपचयो-हासः शरीरेभ्यः पुद्गलानां विचटनमितियावत् । उक्तं पुद्गलचयनमिदानीं शरी-|२१ शरीरसंयोगमाह-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, यस्यौदारिक तस्य वैक्रियं स्यादति स्यान्नास्ति, य औदारिकशरीरी सन्र पदं वैनियलब्धिमान् वैक्रियमारभ्य तत्र वर्तते तस्यास्ति शेषस्य नास्तीति भावः, यस्य क्रियशरीरं तस्यौदारिकशरीरं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, देवनारकाणां वैक्रियशरीरवतामौदारिकशरीरं नास्ति तिर्यग्मनुष्याणां तु वैक्रियशरीरवतामस्तीति भावार्थः, आहारकशरीरेणापि सह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीरं तस्याहारकशरीरं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, शय औदारिकशरीरी चतुर्दशपूर्वधर आहारकलब्धिमान् आहारकशरीरमारभ्य वर्तते तस्यास्ति शेषस्य नास्तीत्यर्थः, यस्य पुनराहारकशरीरं तस्यौदारिकशरीरं नियमादस्ति, औदारिकशरीरविरहे आहारकलब्धेरप्यसम्भवात् , तैजसशरीरेण सह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीरं तस्य नियमात्तैजसशरीरं, तैजसशरीरविरहे औदारिकशरीरासम्भवात् , यस्य पुनतैजसशरीरं तस्यौदारिकं स्यादस्ति स्वान्नास्ति, देवनैरयिकाणां नास्ति तिर्यग्मनुष्याणामस्तीति भावः, एवं कार्मणशरीरेणापि सह चिन्ता कर्त्तव्या, तैजसकार्मणयोः सहचारित्वात् , सम्प्रति क्रियशरीरस्याहारकशरीरादिभिः सह संयोगचिन्तां कुर्वन्नाह-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, यस्य वैक्रियशरीरं न तस्याहारकशरीरं यस्याहारकशरीरं न ४३२॥ तस्य वैक्रियशरीरं, समकालमनयोरेकस्थासम्भवात्, तैजसकामणे यथौदारिकशरीरेण सह चिन्तिते तथा वैक्रियशरीरेणापि सह चिन्तयितव्ये, आहारक शरीरेणापि सह तथैव, तैजसकार्मणयोस्तु परस्परमविनामावित्वात् यस्य अनुक्रम [૨૨] ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७६] दीप तेजसं तस्य नियमात् कार्मणं यस्य कार्मणं तस्य नियमात् तैजसम् । गतं संयोगद्वारम् , इदानीं द्रव्यप्रदेशोभयैरल्पबहुत्वमभिधित्सुराहएतेसि णं भंते ! ओरालियचेउवियआहारगतेयगकम्मगसरीराणं दवट्टयाए पदेसट्टयाए दबट्ठपएसट्टयाते कयरे हितो अप्पा वा ४१, गो! सबत्थोवा आहारगसरीरा दवहयाते वेउवि यसरीरा दबट्टयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा दबहयाते असं० तेयाकम्मगसरीरा दोवि तुल्ला दबट्टयाते अर्णतगुणा, पदेसद्वयाए सबथोवा आहारगसरीरा पदे० बेउवियसरीरा पदे० असं० ओरालियसरीरा पदे० असं० तेयगसरीरा पदे० अणं कम्मगसरीरा पदे० अणं, दवट्ठपदेसट्टयाते सवत्थोवा आहारगसरीरा दवट्ठयाते वेउवियसरीरा दवट्ठयाए असं० ओरालियसरीरा दवद्वयाए असं० ओरालियसरीरेहितो दबट्टयाएहितो आहारगसरीरा पदेसट्टयाए अणं० वेउबियसरीरा पदे० असं० ओरालियसरीरा० पदे० असंखेजगुणा तेयाकम्मा दोषि तुल्ला दबट्टयाए अणं० तेयगसरीरा पदे० अर्णतगुणा कम्मगसरीरा पदे० अणं० (सूत्र २७७) एतेसिणं भंते ! ओरालियवेउवियाहारगतेयगकम्मगसरीराणं जहणियाए ओगाहणाए उकोसियाए ओगाहणाए जहण्णुकोसियाए ओगाहणाए कतरेशहितो अप्पा वा ४१, गो०! सबथोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा, तेयाकम्मगाणं दोहवि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसे वेउबियसरीर स्स जहणिया ओगाहणा असं० आहारगसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असं०, उकोसियाए ओगाहणाए सवत्थोवा आहारगसरीरस्स उकोसिया ओगाहणा ओरालियस 393eo202000908 अनुक्रम [૨૨] | औदारिक आदि पञ्चविध-शरीरस्य अल्पबहुत्वं ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], --------------उद्देशक: -,------------- दारं -], -------------- मूलं [२७७-२७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] प्रज्ञापना-1 याः मलयवृत्ती. रपद ॥४३३॥ celectroense दीप रीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखे० वेउवियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखि० तेयाकम्मगाणं दोवि तुल्ला उक्कोसिया २१ शरीओगाहणा असं०, जहण्णुकोसियाते ओगाहणाते सबत्योवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा तेयाकम्माणं दोहवि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसे वेउवियसरीरस्स जहणिया ओगा० असं• आहारगसरीरस्स जहणियाहिंतो ओगाहणाहितो तस्स चेव उकोसिया ओगाविसे ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगा० संखे० वेउवियसरीरस्स णं उक्कोसिया ओगाहणा संखि० तेयाकम्मगाणं दोण्हवि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखिजगुणा ।। (मूत्र २७८) पण्णवणाए भगवईए एगवीसइमं पयं समर्च ॥ २१ ॥ 'एएसि णं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि द्रव्यार्थतया, शरीरमात्रद्रव्यसङ्ख्यया इत्यर्थः, उत्कृष्टपदेऽपि तेषां सहस्रपृथक्त्वस्य प्राप्यमाणत्वात् , 'उक्कोसेण उ जुगवं पुडुत्तमेत्तं सहस्साण'मिति वचनात् [ उत्कृष्टेन तु युगपत् सहस्राणां पृथक्त्वमा ] तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि द्रव्यार्थतया असमवेयगुणानि, सर्वेषां नैरयिकाणां सर्वेषां च देवानां कतिपयतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यवादरवायुकायिकानां च क्रियशरीरसम्भवात् , तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि द्रव्यार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्याणामीदारिक-N४३॥ शरीरभावात् , पृथिव्यसेजोवायुवनस्पतिशरीराणां च प्रत्येकमसयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि तेजसकामणशरीराणि द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणानीति, सूक्ष्मवादरनिगोदजीवानामनन्तानन्तानां प्रत्येकं तैजसकामणशरीरमावान्, अनुक्रम [५२३-५२४] ~470~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], --------------उद्देशक: -,------------- दारं -], -------------- मूलं [२७७-२७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] అంది दीप sesecacheesereverseseseserator खस्थाने तु परस्परं तुल्यानि, परस्पराविनाभावित्वादेकस्याभावेऽन्यस्याप्यभावात् , प्रदेशार्थचिन्तायां सर्वस्तोकान्या हारकशरीराणि सहस्रपृथक्त्वमात्रशरीरप्रदेशानामल्पत्वात् , तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि प्रदेशाथतया असोयगुसणानि, इह यद्यपि वैक्रियशरीरयोग्यवर्गणाभ्य आहारकशरीरवर्गणाः परमाण्वपेक्षया अनन्तगुणास्तथापि स्तोकाभि वर्गणाभिराहारकशरीर निष्पद्यते हस्तमात्रत्वादतिप्रभूताभिक्रियशरीरवर्गणाभिक्रियं उत्कर्षतः सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणत्वात् अतिस्तोकानि चाहारकशरीराणि सहनपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् अतिप्रभूतानि वैक्रियशरीराणि असङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् तत उपपद्यन्ते आहारकशरीरेभ्यः प्रदेशार्थतया वैक्रियशरीराण्यसङ्खयेयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया तेषां लभ्यमानत्वेन तत्प्रदेशानामतिप्रभूतानां सम्भवात् , तेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, द्रव्याघेतयाऽपि तेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात्, तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, तैजसवर्गणाभ्यः कार्मणवर्गणानां परमाण्यपेक्षयाऽनन्तगुणत्वात् , द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तायां 'सबत्थोवा आहारगसरीरा दवट्टयाए । विउवियसरीरा दबट्टयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा दब० असं.' इत्यत्र भावना प्रागुक्ताऽनुसतव्या, तेभ्यो द्रव्यार्थतयौदारिकशरीरेभ्य आहारकशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, औदारिक शरीराणि सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, आहारकशरीरयोग्यवर्गणायां त्वेकैकस्यामप्यभव्येभ्योऽनन्तगुणाः परमाणय इति, तेभ्यो अनुक्रम [५२३-५२४] 08 ~471~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७७-२७८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] दीप अनुक्रम [५२३-५२४] प्रज्ञापना- Iऽपि वैक्रियशरीराणि प्रदेशार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असक्वेयगुणानि./२१ शरीयाः मल- अत्र भावना प्रागेव कृता, तेभ्योऽपि तैजसकार्मणानि द्रन्यार्थतया अनन्तगुणानि अतिप्रभूतानन्तसञ्जयोपेतत्वात् , |रपदं सू. यवृत्ती. वेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, अनन्तपरमाण्वात्मिकाभिरनन्ताभि(वर्गणाभि)रेकैकस्य तैज २७८ ॥४३॥ सशरीरस्य निष्पाद्यत्वात् , तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, अत्र कारणं प्रागेवोत । तदेवं पञ्चानामपि शरीराणां द्रव्यप्रदेशोभयरल्पबहुत्वमुक्तम् , इदानीं जघन्योत्कृष्टोभयावगाहनाविषयमल्पबहुत्वमाह'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका औदारिकशरीरस्य जघन्यावगाहना, अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रप्रमाणत्वात्, तैजसकामणयोर्जघन्यावगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या, औदारिकजघन्यावगाहनातो विशेषाधिका, कथमिति चेत्, उच्यते, इह मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य पूर्वशरीरात् यदहिर्विनिर्गतं तैजसशरीरं तस्यायामबाहल्यविस्तारैरवगाहना चिन्यते इत्युक्तं प्राक, तत्र यस्मिन् प्रदेशे उत्पत्स्यन्ते सोऽपि प्रदेश औदारिकशरीरावगाहनाप्रमितोऽहुलासयेयभागप्रमाणो व्यासो यदप्यपान्तरालमतिस्तोकं तदपि व्याप्तमित्यौदारिकजघन्यावगाहनातो विशेषाधिका, ततोऽपि वैक्रियशरीरस्य जघन्यावगाहना असोयगुणा, अङ्गुलासययभागस्थासङ्ख्ययभेदभिन्नत्वात्, ततोऽ ॥४३४॥ प्याहारकशरीरस्य जघन्यावगाहनाऽसङ्ख्ययगुणा, देशोनहस्तप्रमाणत्वात्, उत्कृष्टावगाहनाचिन्तायां सर्वेस्तोका आहारकशरीरस्योत्कृष्टाऽवगाहना, हस्तमात्रत्वात् , ततोऽप्यौदारिकशरीरस्य उत्कृष्टावगाहना सोयगुणा, सातिरे-11 Reseaeeseseeeeee Rese SARERatininemarana ~472~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२१], --------------उद्देशक: -,------------- दारं -], -------------- मूलं [२७७-२७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७७-२७८] कयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् , ततोऽपि वैक्रियशरीरस्वोत्कृष्टावगाहना सङ्ख्येयगुणा, सातिरेकयोजनलक्षमानत्वात् , तेज-1, सकार्मणयोरुत्कृष्टावगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या वैक्रियशरीरोत्कृष्टायगाहनातोऽसङ्ख्येयगुणा, चतुर्दशरज्वात्मकत्वात् , जघन्योत्कृष्टावगाहनचिन्तायां आहारकशरीरस्य 'जहणियाहिंतो ओगाहणाहिंतो तस्स चेव उक्कोसिया ओगाहणा बिसेसाहिया' इति, देशेन समधिकत्वात् , शेषं सुगम, अनन्तरमेव भावितत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामेकविंशतितममवगाहनासंस्थानपदं समर्थितम् ॥ २१ ॥ अथ द्वाविंशतितमं क्रियाख्यं पदं ॥ २२ ॥ eeees HD दीप अनुक्रम [५२३ तदेवं व्याख्यातमेकविंशतितमं पदं, अधुना द्वाविंशतितममारभ्यते, तस्स चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषरूपं शरीरावगाहनादि चिन्तितं, इह तु नारकादिगतिपरिणामेन परिणतानां जीवानां प्राणातिपातादिरूपाः क्रियाविशेषाश्चिन्त्यन्ते, तत्रेदमादिसूत्रम् कति भंते । किरियाओ पण्णचाओ, गोपिंच किरियाओ पण्णताओ, त.काइया १ अहिगरणिया २ पादोसिया ३ पारियावणिया ४ पाणाइवायकिरिया, काइया णं भंते । किरिया कातेविहा पं०१, मो०। दुविहा ५०, ० -५२४] SARERatininemarana rajastaram.org अत्र पद (२१) "अवगाहनासंस्थान/(शरीर)" परिसमाप्तम् अथ पद (२२) "क्रिया" आरब्धम् ~473~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , -------------- मूलं [२७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती. Sente प्रत सूत्रांक [२७९] 29202003 ॥४३५|| दीप अनुक्रम [५२५] अणुवस्यकाइया य दुप्पउत्तकाइया य, अहिगरणिया णं भंते । किरिया कइ विहा पं०१, गोविहा पं०,०- २२ क्रियासंजोयणाहिकरणिया य निवत्तणाधिगरणिया य, पादोसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पं०१, मो० ! तिविहा ५०, पदेतभेदाः तं. जेणं अपणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभ मणं संपधारेति, सेतं पादोसिया किरिया, पारियावणिया णं सू. २७९ भंते ! किरिया कतिविहा पं०१, मो०! तिवि० ५०, तं०-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अस्सायं वेदणं उदीरेति, सेनं पारियावणिया किरिया, पाणातिवायकिरिया णं भंते ! कति विहा पं०१, गो.1 ति०५०,०-जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियाओ ववरोवेइ, से तं पाणाइ वायकिरिया (सूत्रं २७९) 'कइ णं भंते ! किरियाओ पं०' इत्यादि, करणं क्रिया, कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा इत्यर्थः, सा पञ्चधा, तद्यथा'काइया' इत्यादि, चीयते इति कायः-शरीरं, काये भवा कायेन निवृत्ता वा कायिकी १, तथा अधिक्रियतेस्थाप्यते नरकादिष्यात्माऽनेनेति अधिकरणं-अनुष्ठानविशेषो बाचं वा वस्तु चक्रखगादि तत्र भवा तेन वा निर्मूत्ता आधिकरणिकी, 'पाउसिया' इति प्रद्वेषो-मत्सरः कर्मबन्धहेतुरकुशलो जीवपरिणामविशेष इत्यर्थः तत्र भवाN तेन वा निवृत्ता स एव चा प्राद्वेषिकी ३, 'पारियावणिया' इति परितापनं परितापः पीडाकरणमित्यर्थः तस्मिन् ॥३५॥ भवा तेन वा निवृत्ता परितापनमेव वा पारितापनिकी ४, 'पाणाइवायकिरिया' इति प्राणा-इन्द्रियादयस्तेषामतिपातो-विनाशस्तद्विषया प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणाति पातक्रिया, तत्र कायिकी द्विभेदा, तद्यथा-अनुप अथ क्रियाया: भेद-प्रभेदा: कथ्यन्ते ~474~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७९] रतकायिकी दुष्प्रयुक्तकायिकी च, उपरतो-देशतः सर्वतो वा सावद्ययोगाद्विरतः नोपरतोऽनुपरतः कुतश्चिदप्यनि-1 वृत्त इत्यर्थः तस्य कायिकी अनुपरतकायिकी क्रियेति वर्तते, इयं प्रतिप्राणिनि वर्तते, इयमविरतस्य वेदितम्या, नN देशविरतस्य सर्वविरतस्य वा, तथा दुष्ट प्रयुक्तं-प्रयोगः कायादीनां यस्य स दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायिकी दुष्प्रयुक्तका-IN यिकी, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, प्रमत्ते सति कायदुष्प्रयोगसम्भवात् । आधिकरणिक्यपि विभेदा, तद्यथा-N संयोजनाधिकरणिकी निवर्तनाधिकरणिकी च, तत्र संयोजन-पूर्वनिर्वर्तितानां हलगरविषकूटयन्त्राधङ्गानां मीलनं तदेव संसारहेतुत्वादाधिकरणिकी संयोजनाधिकरणिकी, इयं हलायङ्गानि पूर्वनिर्वर्जितानि संयोजयितुर्भवति, तथा |निर्वर्तनं-असिशक्तिकुन्ततोमरादीनां मूलतो निष्पादनं तदेवाधिकरणिकी निवर्तनाधिकरणिकी, पञ्चविधस्य वा शरीरस्य निष्पादनं निर्वनाधिकरणिकी, देहस्यापि दुष्प्रयुक्तस्य संसारवृद्धिहेतुत्वात् । प्रा।पिकी त्रिभेदा, तद्यथा'जेण अप्पणो'इत्यादि, येन प्रकारेण जीवा आत्मनो वा-खस्य वा अन्यस्य वा-आत्मव्यतिरिक्तस्य उभयस्य वा-| खपरलक्षणस्योपरि अशुभ-अकुशलं मन:-अन्तःकरणं प्रधारयति-प्रकर्षण धारयति करोतीत्यर्थः तेन कारणेन | विषयस्य त्रैविध्यात् त्रिविधा प्राद्वेषिकी क्रिया, तथाहि-कश्चित् कस्मिन् प्रयोजने खयमनुष्ठिते पर्यन्ते विपाकदाAणे संवृत्ते सति अविवेकादात्मन एवोपरि अकुशलं मनः सम्प्रधारयति, एवं कश्चित् परस्य, कश्चित् खपरयोरपीति। पारितापनिक्यपि त्रिविधा, तद्यथा-'जेणं अप्पणो' इत्यादि, येन प्रकारेण कश्चित् कुतश्चित् हेतोरविवेकत आत्मन Recemesesese दीप अनुक्रम [५२५] ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७९] प्रज्ञापना- एवासाता-दुःखरूपां वेदनामुत्पादयति, कश्चित्परस्य कश्चित्तदुभयस्य, ततः खपरतदुभयभेदात् भवति त्रिधा क्रियायाः मल- पारितापनिकी क्रिया, आह-एवं सति लोचाकरणतपोऽनुष्ठानाकरणप्रसङ्गः, यथायोगं खपरोभयासातवेदनाहेतुत्वात् ,पदेत दा। य. वृत्ती.तिदयुक्तं, विपाकहितत्वेन चिकित्साकरणवत् लोचकरणादरसातवेदनाहेतुत्वायोगात् अशक्यतपोऽनुष्ठानप्रतिषेधाश, सू. २७९ उक्तंच-"सो हु तवो कायबो जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा न हायति ॥१॥" ॥४३६॥ तदेव तपः कर्त्तव्यं येन मनोऽशोभनं न चिन्तयति । येन नेन्द्रियहानिर्येन च योगा न हीयन्ते ॥ १॥] तथा"कायो न केवलमयं परिपालनीयो, मृष्टै रसैर्वहुविधैर्न च लालनीयः । चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यथोत्पथेषु, वश्यानि येन च तथाऽऽचरितं जिनानाम् ॥१॥" इति, प्राणातिपातक्रियाऽपि त्रिविधा, तद्यथा-'जेण अप्पणो' इत्यादि, येन प्रकारेण कश्चिदविवेकी भैरवप्रपातादिनाऽऽत्मानं जीविताद् व्यपरोपयति कश्चित् प्रद्वेषादिना परं कश्चि-18 दुभयमपीत्यतः प्राणातिपातक्रियाऽपि त्रिविधा, अत एव कारणाद्भगवद्भिरकालमरणमपि प्रतिषिद्धं, प्राणातिपात-18 क्रियादोषसम्भवात् । तदेवमुक्ताः क्रियाः, सम्प्रत्येताः किमविशेषेण सर्वेषां जीवानां सन्ति किं वा नेति जिज्ञा-18 सुरिदमाह ॥४३६॥ जीवा णं भंते । किं सकिरिया अकिरिया, गो! जीवा सकिरियावि अकिरियावि, से केणडेणं भंते ! एवं बु०-जीवा सकिरियावि अकिरियावि, गो० ! जीवा दुविहा पं० त०-संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य, तत्थ णं दीप अनुक्रम [५२५] SAREILLEGunintentiaTASHREE ~476 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८०] दीप अनुक्रम [५२६] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - • मूलं [ २८० ] पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 99999 ১৩ ১৩১৩১ जे ते असंसारसमावण्णगा ते गं सिद्धा, सिद्धा णं अकिरिया, तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पं०, ०– सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिव०, तत्थ णं जे ते सेलेसिप० ते णं अकिरिया, तत्थ णं जे ते असेलेसिपडि० ते णं सकिरिया से तेणद्वेणं गो० एवं बु० - जीवा सकिरियावि अकिरियावि। अत्थि णं मंते ! जीवाणं पाणाहवाएणं किरिया कजति ?, हंता ! गो० ! अत्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणातिवारणं किरिया कजति १, गो० ! छसु जीवनिकास, अत्थि णं भंते! नेरइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति १, गो० ! एवं चैव, एवं जाव निरंतरं वेमाणियाणं, अस्थि णं मंते ! जीवाणं मुसावारणं किरिया कजति १, हंता ! अस्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं मुसादारणं किरिया कञ्जति ?, गो० ! सङ्घदवेसु, एवं निरंतरं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं, अत्थि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणं किरिया १, ताथ, हि णं भंते ! जीवाणं अदिनादाणेणं किरिया कजति १, गो० ! गहणधारणिजेसु दबेसु, एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव बेमाणियाणं, अत्थि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कअति ?, हंता अस्थि, कम्हि णं मंते ! जीवाणं मेहुणं किरिया कजति १, गो० 1 रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दबेसु, एवं नेर० निरं० जाव वैमाणियाणं, अत्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजति ?, हंता अस्थि, कम्हि णं भंते । परिग्गहणं किरि०१, गो० ! सहदवेसु, एवं नेर० जाव वैमाणियाणं, एवं कोहेणं माणेणं - मायाए लोगेणं पेजेणं दोसेणं कलहेणं अम्भक्खाणं पेसुन्नेणं परपरिवारणं अरतिरतीते मायामोसेणं मिच्छादंसणसल्लेणं, सधेसु जीवा नेरइयभेदेणं भाणितद्दा, निरंतरं जाव वैमाणियाणंति, एवं अट्ठारस एते दंडगा १८ (सूत्रं २८० ) For Parts Only ------ ~477~ arra Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया मलय.वृत्ती. प्रत सूत्रांक [२८०] ॥४३७] दीप अनुक्रम [५२६] పలలలలపపలలల 'जीवाणं भंते ! इत्यादि सुगम, नवरं 'संसारसमावण्णगा' इति संसार-चतुर्गतिभ्रमणरूपं सम्यग-एकीभा- २२ क्रियावेनापन्नाः संसारसमापन्नाः संसारसमापन्ना एवं संसारसमापन्नकाः, प्राकृतत्वात् खार्थे कप्रत्ययः, तद्विपरीता असं-18 पदे प्राणासारसमापन्नकाः, चशब्दो खगतानेकभेदसूचकौ, तत्र ये असंसारसमापनकास्ते सिद्धाः, सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभाव तिपाता तोऽक्रियाः, ये तु संसारसमापन्नकास्ते द्विविधाः-शैलेशीप्रतिपन्नका अशैलेशीप्रतिपन्नकाच, शैलेशी नामायोग्यवस्था दिना क्रितां प्रतिपन्नाः शैलेशीप्रतिपन्नाः, ततः पूर्ववत् खार्थिकः कप्रत्ययः, शैलेशीप्रतिपन्नकाः, तव्यतिरिक्ताः अशैलेशीप्र-8 याः सू. तिपन्नकाः, तत्र ये शैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सूक्ष्मवादरकायवाल्मनोयोगनिरोधादक्रियाः, ये त्वशैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सयोगित्वात् सक्रियाः, 'से एएणटेण'मित्याद्युपसंहारवाक्यं । तदेवं ये सक्रिया ये चाक्रियास्ते उक्ताः, सम्प्रति यथा प्राणातिपातक्रिया न भवति तथा दर्शयति-'अस्थि णं भंते ! इत्यादि, अस्त्येतत्, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ।। जीवानां प्राणातिपातेन-प्राणातिपाताध्यवसायेन क्रिया सामर्थात् प्राणातिपातक्रिया क्रियते ?, कर्मकर्ययं ॥ प्रयोगो, भवतीत्यर्थः, अनतीतनयाभिप्रायात्मकोऽयं प्रश्नः, कतमोऽत्र नयो यमध्यवसाय पृष्टमिति चेत् , उच्यते, ऋजुसूत्रस्तथाहि-ऋजुसूत्रस्य हिंसापरिणतिकाल एव प्राणातिपातक्रियोच्यते, पुण्यपापकर्मोपादानानुपादानयोरध्यवसा-IN | ॥४३७॥ यानुरोधित्वात्, न अन्यथा परिणताविति, भगवानपि तं ऋजुसूत्रनयमधिकृत्य प्रत्युत्तरमाह-'हंता ! अत्थि' हन्तेति प्रेपणप्रत्यवधारणविषादेषु, अत्र प्रत्यवधारणे, अस्त्येतत्प्राणातिपाताध्यवसायेन प्राणातिपातक्रिया भवति, ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८०] दीप अनुक्रम [५२६] 'परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाण' [पारिणामिकं प्रमाण निश्चयमवलम्बयता] मित्याद्यागमवचनस्य स्थितत्वाद्, अमुमेव वचनमधिकृत्याऽऽयश्यकेपीदं सूत्रं प्रावर्त्तिष्ट-'आया चेर अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एस' इति, तदेवं यथा प्राणातिपातक्रिया भवति तथोक्तम् , सम्प्रति कस्मिन् विषये सा प्राणातिपातक्रिया भवतीत्येतन्निरूपयति-'कम्हि णं भंते' इत्यादि सुगमम् , नवरं मारणाध्यवसायो जीवविषयो भवति नाजीवविषयो, योऽपि रज्वादी सप्पादिबुद्ध्या मारणाध्यवसायः सोऽपि सर्पोऽयमिति बुला प्रवर्त्तमानत्वात् जीवविषये एव, न खलु रज्वादी रजवादितया परिच्छिन्ने कश्चित्तद्विषयं मारणाध्यवसायं विदधाति, ततः प्राणातिपातक्रिया पदसु जीवनिIN कायेपूक्ता, एतामेव प्राणातिपातक्रियामुक्तप्रकारेण नैरयिकादिकं चतुर्विंशतिदण्डकमधिकृत्य चिन्तयति-'अस्थि । भंते' इत्यादि, नवरमेवं सूत्रपाठः अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइयाएणं किरिया कजह?, ता अस्थि. कम्हि णं भंते ! पाणाइवाएणं किरिया कजइ ?, गोयमा ! छसु जीवनिकाएसु', एवं तावद् वाच्यं यावद्वैमानिकविपयं सूत्रं । तदेवं यथा प्राणातिपातक्रिया भवति यद्विषया च तत्प्रतिपादितं, सम्प्रति एवमेव मृषावादादिविषयाग्यपि सूत्राण्याह-'अस्थि ण भंते । मुसावाएण'मित्यादि सुगम, नवरं 'किरिया कजई' इति यथायोग प्राणातिपातादिक्रिया भवतीत्यर्थः, तथा सतोऽपलापोऽसतश्च प्ररूपणं मृषावादः, स च लोकालोकगतसमस्तवस्तुविषयोपि घटते, तत उक्तं मृपावादसूत्रम्-'सबदवेसु' इति, द्रव्यग्रहणमुपलक्षणं तेन पर्योयेष्वपीत्यपि द्रष्टव्यं, तथा cccROED SAREauratonintenmarnama ~479~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८०] दीप अनुक्रम [५२६] प्रज्ञापना- यवस्तु ग्रहीतुं धारयितुं वा शक्यते तद्विषयमादानं भवति न शेषविषयमतोऽदत्तादानसूत्रे 'गहणधारणिज्जेस दवेस' २२ क्रियाया: मल- इत्युक्तम् , मैथुनाध्यवसायोऽपि चित्रलेपकाष्ठादिकर्मगतेषु रूपेषु रूपसहगतेषु वा-ख्यादिषु ततो मैथुनसूत्रे उक्त- पदे प्राणाय. वृत्तौ. म्-'रूवेसु वा स्वसहगएसु वा' इति, तथा परिग्रहः-खखामिभावेन मूर्छा, सा च प्राणिनामतिलोभात्सकलव- तपातासुविषयाऽपि प्रादुर्भवति ततः परिग्रहसूत्रे उक्तम्-'सबदवेसु' इति, अत एवान्यत्रापि प्रथमव्रतं सर्वजीवविषय दिना कि॥४३॥ याः सू. मुक्तं द्वितीयचरमे सर्ववस्तुविषये तृतीयचतुर्थे तदेकदेश विषये इति, उक्तं च-"पढमम्मि सघजीवा बीए चरिमे या सबदबाई । सेसा महत्वया खलु तदेकदेसम्मि नायबा ॥१॥" क्रोधादयः सुप्रतीता, नवरं कलहो-राटिः, अभ्या ख्यानं-असहोपारोपणं यथा-अचौरेऽपि चौरस्त्वमपारदारिकेऽपि पारदारिकस्स्वमित्यादि, इदं मृषावादेऽप्यन्त-IN Nगैतं परमुत्कृष्टोऽयं दोष इति पृथगुपातं, पैशून्यं-परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनं, परपरिवादः प्रभूतजन समक्षं परदोषविकत्थनं, अरतिरती प्रतीते, इदमेकं समुदितं पापस्थानं, 'मायामोसेण मिति माया च मृषा च समाहारो द्वन्द्वः, द्वन्द्वैकत्वे नपुंसकत्वमिति 'क्लीचे' इति इखत्वं तेन इह समुदायो विवक्षितो, महाकर्मबन्धहेतुश्चेति Nमृषावादमायाभ्यां पृथगुपातं, 'मिच्छादसणसल्लेणं ति मिध्यादर्शन-मिध्यात्वं तदेव शल्यं मिथ्यादर्शनशल्यं तेन, ४३८॥ अहारस एए दंडगा' इति एतेऽनन्तरोदितपदोल्लेखोपदर्शिताः सर्वसङ्ख्ययाऽष्टादश दण्डका भवन्ति । प्राणातिपातादीनां पापस्थानानामष्टादशत्वात्तदेवमष्टादशपापस्थानान्यधिकृत्य जीवानां क्रिया विषयश्चोपदर्शितः, साम्प्रतं तान्ये ~480~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८१ २८१] दीप अनुक्रम [५२७ -५२८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२२], ------ उद्देशकः [-], ------------- दारं [-], ------- - मूलं [ २८१-२८१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः वाधिकृत्य जीवानामेकपृथक्त्वाभ्यां कर्मबन्धत्वमुपदिदर्शयिषुराह— "जीवे गं भंते! पाणातिवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविधबंधए वा, एवं नेरइए जान निरंतरं वैमाणिते, जीवा णं भंते ! पाणातिवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति १, गो० ! सत्तविहबंधगावि अट्ठविहबंधगावि, नेरइया णं भंते! पाणातिवाएणं कह कम्मपगडीओ बंधति १, गो० । समेवि ताव होज्जा सतविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगाय अविबंध य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य, एवं असुरकुमारावि जाव धणियकुमारा पुढविआउतेउवाउवणफइकाइया य, एए सवेवि जहा ओहिया जीवा, अवसेसा जहा नेरइया, एवं ते जीवेगिंदियवज्जा तिष्णि तिण्णि गंगा सवत्थ भाणियवत्ति, जाय मिच्छादंसणसल्ले, एवं एगत्तपोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होति । (सूत्रं २८१) जीवे णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कति किरिए ?, गो० सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, एवं नेरइए जाव बेमाणिए, जीवा णं भंते ! णाणावरणिजं बंधमाणा कति किरिया० १, गो० ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकरियावि, एवं नेरइया निरंतरं जाव वैमाणिया, एवं दरिसणावरणीयं वेदणिजं मोहणिजं आउयं नामं गोतं अंतराइयं च अट्ठविहकम्मपगडीतो माणितदाओ, एगचपोहत्तिया सोलस दंडया भवन्ति, जीवे णं भंते ! जीवातो कति किरिए १, गो० सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकरिए सिय अकिरिए, जीवे णं मंते ! नेरइयाओ कति किरिए ?, गो० ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए, एवं जाव थणियकुमाराओ, पुढविकाइयातो आउकाइयातो तेउकाइयातो वाउकाइयवण फइकाइयोइंदियते इंदियचउरिंदियपं चिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सातो जहा For Parts Only मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र क्रमांक '२८१' द्वि- वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-२' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं *** जीवेण / जीवाभ्याम् वा विविध कारणात् कर्मप्रकृत्तिबन्धः ~ 481~ waryra Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८१-२८१R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना या मल प्रत सूत्रांक ब. वृत्ती. [२८१ ॥४३९॥ जीयातो, वाणमंतरजोइसियवेमाणियातो जहा नेरहयातो, जीवेणं भंते ! जीवेहितो कतिकिरिए ?, गो ! सिय तिकिरिए। करिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिते सिय अकिरिए, जीवे णं भंते ! नेरइएहितो कतिकिरिए, गो० सिय तिकिरिए सिय चउकिरिते सिय अकिरिए, एवं जहेब पढमो दंडतो तहा एसो वितिओ भाणितबो जाव माणियत्ति, जीवा णं भंते ! जीवातो कतिकिरिया , गो. ! सिय तिकिरियावि सिय चउकिरियाविसिय पंचकिरियावि सिय अकिरियावि, जीवा गं भंते ! नेरहयातो कति किरिया, गो! जहेब आदिल्लदंडतो तहेव भाणितबो, जार वेमाणियत्ति, जीवाणं भंते ! जीवहिंतो कतिकिरिया, गो. तिकिरियावि चउकिरियापि पंचकिरियावि अकिरियावि, जीवा गं भंते ! नेरइएहितो कतिकिरिया, गो! तिकिरिया चउकिरिया अकिरिया, असुरकुमारेहितोवि एवं चेव जाब वेमाणिहितो, ओरालियसरीरेहितो जहा जीवेहितो । नेरइए णंमते! जीवातो कतिकिरिए, गो०! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंच०, नेरइए णं मंते ! नेरइयातो कतिकिरिए, गो! सिय तिकिरिए सिय.च०, एवं जाव वेमाणिएहितो, नवरं नेरइयस्स नेरदपहिंतो देवेहिंतो य पंचमा किरिया नस्थि, नेरइया णं भंते ! जीवातो कतिकिरिया, गोसिय तिकि० सिय चउकि० सिय पंचकि०, एवं जाव चेमाणियातो, नवरं नेरइयाओ देवाओ य पंचमा किरिया नथि, नेरइया णं भंते ! जीवहिंतो कतिकिरिया, गो! तिकिरियावि चउकि० पंचकि०, नेरइया गं.भंते ! नेरइएहितो कतिकिरिया, गो। तिकि० चउकि०, एवं जाव बेमाणिएहितो, नवरं ओरालियसरीरोहिंतो जहा जीवेहि, असुरकुमारे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए ?, गो! जहेब नेरइए चत्तारि दंडगा तहेव असुरकुमारेवि चत्तारि दंडगा २८१R] २२क्रियापदे प्राणातिपातादिभ्यः कर्मबन्धः नारकादिभ्यः क्रियाश्च सू.२८१ ब्याट दीप अनुक्रम [५२७ ॥४३९॥ -५२८] मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~482 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८१-२८१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] estoecticeae भाणितबा, एवं च उवउञ्जिऊणं भावयत्वंति, जीवे मासे य अकिरिए बुच्चति सेसा अकिरिया न बुचंति, सहजीवा ओरालियसरीरोहितो पंचकिरिया नेरइय देवेहितो पंचकिरिया ण वुगंति, एवं एकेकजीवपदे चत्वारि २ दंडगा भाणितबा, एवं एतं दंडगसयं सवेवि य जीवादीया दंडगा (सूत्र २८१) 'जीवे णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं सप्तविधवन्धकत्वं आयुर्वन्धविरहकाले आयुर्वन्धकाले चाष्टविधवन्धकत्वं, पृथक्त्वचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे ससविधवन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपि सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते तत उभयत्रापि बहुवचनमिसेवंरूप एक एव भनाः, नैरयिकसूत्रे सप्तविधवन्धका अवस्थिता एव, हिंसापरिणामपरिणतानां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानानां सप्तविधवन्धकत्वस्यावश्यंभावित्वात् , ततो यदा एकोऽप्यष्टविधवन्धको न लभ्यते तदेष भङ्गः सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्तविधवन्धका इति, यदा पुनरेकोऽष्टविधवन्धकः शेषाः सर्वे सप्तविधवन्धकास्तदा द्वितीयो भगः सतविधवन्धकाच अष्टविधवन्धकश्च, यदा त्वष्टविधवन्धका अपि बहवो लभ्यन्ते तदा उभयगतबहुवचनरूपस्तृतीयो भङ्गः सप्तविधवन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाच, एवं भङ्गत्रयेणासुरकुमारादयोऽपि तावद्वक्तव्याः यावत् स्खनितकुमाराः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिका यथा सामान्यतो जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, | उभयत्रापि बहुवचनेनैक एव भङ्गो वक्तव्य इति भावः, पृथिच्यादीनां हिंसापरिणामपरिणतानां प्रत्येकं सप्तविधवन्धकानामष्टविधवन्धकानां च सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्, शेषा द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्य दीप अनुक्रम [५२७-५२८] अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकन-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-(सूत्र २८२) स्थाने (सूत्र २८१) द्वि-वारान् मुद्रितं ~483~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -1, -------------- मूलं [२८१-२८१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] sea मज्ञापना-न्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिका भङ्गत्रिकेणोक्तास्तथा वक्तव्याः, यथा च प्राणातिपातेनैकत्वधक्त्वाभ्यां । २२क्रियाया: मल- द्वौ दण्डकावुक्तावेवं सर्वपापस्थानैरपि प्रत्येकं द्वौ द्वौ दण्डको वक्तव्यौ, तथा चाह-“जाव मिच्छादसणसलेणं'ति पदे सूत्रं . य.वृत्ती. सर्वसङ्ख्यया कियन्तो दण्डका भवन्तीति चेत्, अत आह–'एवं एगत्तपोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होति' अष्टाद- २८१ ॥४४०॥ शानां द्वाभ्यां गुणने पत्रिंशद्भावात् । 'जीये णं भंते' इत्यादि, अथ कोऽस्य सूत्रस्थापि सम्बन्धः १, उच्यते, इह प्रागुक्तं जीवः प्राणातिपातेन ससविधमष्टविधं वा कर्म बधाति, स तु तमेव प्राणातिपातं ज्ञानावरणीयादि कर्म ५ बनन् कतिभिः क्रियाभिः समापयतीति प्रतिपाद्यते, अपिच-कार्येण ज्ञानावरणीयाख्येन कर्मणा कारणस्य प्राणा-II तिपाताख्यस्य निवृत्तिभेद उपदयते, तद्भेदाच बन्धविशेषोऽपीति, उक्तं च-"तिसृभिश्चतसृभिरथ पञ्चभिश्च MIT क्रियाभिः ]हिंसा समाप्यते क्रमशः । बन्धोऽस्य विशिष्टः स्थायोगप्रद्वेषसाम्यं चेत् ॥१॥"इति, तमेव प्राणातिपातस्य निवृत्तिभेदं दर्शयति-'सिय तिकिरिए' इत्यादि, स्यात्-कदाचित्रिक्रियः कदाचिचतुष्क्रियः कदाचित् IN पश्चक्रियः, तत्र त्रिक्रियता कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीभिः क्रियाभिः, कायिकी नाम हस्तपादादिव्यापारणं आधिकरणिकी खङ्गादिप्रगुणीकरणं प्रावेषिकी मारयाम्येनमित्यशुभमनःसम्प्रधारणमिति, चतुष्क्रियता कायिक्याधि-10 शाकरणिकीप्रादेषिकीपारितापनिकीभिः, पारितापनिकी नाम खशादिघातेन पीडाकरणं, पञ्चक्रियता यदा प्राणातिपातक्रियाऽपि पञ्चमी भवति, प्राणातिपातक्रिया जीविताद् व्यपरोपणं, एवं नैरयिकादारभ्य चतुर्विंशति दीप अनुक्रम [५२७-५२८] क Tharana मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~484~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८१ २८१] दीप अनुक्रम [५२७ -५२८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) पदं [२२], - मूलं [२८१-२८१-R] - उद्देशकः [-], -----------दारं [-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः दण्डकक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, सूत्रपाठस्त्वेवम्- 'नेरहए णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कइकिरिए पं०' इत्यादि, तदेवमेकत्वेन दण्डक उक्तः, सम्प्रति बहुत्वेनाह – 'जीवा णं भंते !' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! जीवास्त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि किमुक्तं भवति १- जीवा ज्ञानावरणीयं कर्म वन्तः सदैव बहव इति त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि लभ्यन्ते इत्येक एव भङ्गः, यथा च सामान्यतो जीवपदेऽभङ्गकं तथा नैरयिकादिषु चतुर्विंशतौ स्वस्थानेषु प्रत्येकमभङ्गकं द्रष्टव्यं, नैरयिकादीनामपि ज्ञानावरणीय कर्म बनतां सदैव त्रिक्रियाणामपि चतुष्क्रियाणामपि पञ्चत्रियाणामपि बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् यथा च ज्ञानावरणीयं कर्माधिकृत्य एकत्वपृथक्त्वाभ्यां द्वौ दण्डकायुक्तौ तथा दर्शनावरणीयादीन्यपि कर्माण्यधिकृत्य प्रत्येकं द्वौ द्वौ दण्डको वक्तव्यौ, तत एवं सति सर्वसङ्ख्यया पोडश दण्डका । 'जीवे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए पं०' इति, अथ कोऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धः १, उच्यते, इह न केवलं वर्त्तमानभववर्त्तिनो जीवस्य ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धभेदप्ररूपणे कायिक्यादिक्रियाविशेषणः प्राणातिपातभेदो भवति किन्त्वतीतभवका|यसम्बन्धः कायिक्यादिक्रियाविशेषणोऽपि तत एतस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम्, अस्य चेयं पूर्वाचार्योपदशिंता भावना - 'इह संसारअडवीए परिब्भमंतेर्हि सङ्घजीवेहिं तेसु तेसु ठाणेसु सरीरोबहाइणो विप्यमुक्का तेहि य सत्यभूएहिं जया कस्सर खतः परितापनादयो भवति तथा तस्सामिणो भवंतरगयस्सवि तत्रानिवृत्तत्वात् किरि For Parts Only -------------- मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र क्रमांक '२८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-२' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~485~ ra Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -------------- मूलं [२८१-२८१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. सूत्रांक [२८१२८१R] ॥४४॥ यासम्भव इति, व्युत्सृष्टेषु तु न भवति निवृत्तत्वात् , एत्थ उदाहरणं-बसंतपुरे णयरे अजियसेणस्स रण्णो पडि- २२ क्रिया|चारगा दुवे कुलपुत्तगा, तत्थेगो समणसहो इयरो मिच्छद्दिट्टी, अण्णया रयणीए रणो निस्सरणं संभमतुरंताणपदे सूत्रं तेर्सि घोडगारूढाणं खग्गा पन्भट्ठा, सहेण जणकोलाहलो मम्गिओ न लहइ, इयरेण हसियं-किमण्णं ण होहि ?, २८१ सड्डेण अहिगरणंतिकटु बोसिरियं, इयरे च खग्गग्गाहिणो बंदिग्गहसाहसिएहिं लद्धा, गहिओ अण्णेहिं रायवलहो पलायमाणो वावाइओ, तओ आरक्खिएहिं गहिऊण रायसमीवं नीया, कहिओ वुत्तंतो, कुविओ राया, पच्छियं चणेण-कस्स तुम्भे? तेहिं कहियं-अणाहा, कलं चिय, कप्पडिया, एए तम्ह खग्गा कर्हि लद्धत्ति.। पुच्छिएहिं कहियं पडिया इति, तओ सामरिसेण रण्णा भणियं-गवेसह तुरियं मम अणबद्धवेरिणं ईसरपुत्ताणं महापमत्ताणं केसि इमे खग्गेत्ति !, तओ तेहिं निउणं गवेसिऊण विण्णत्तं रणो-सामि ! गुणचंदवालचंदाणमिति, ततो रण्णा पिहं पिहं सद्दावेऊण भणिया-लेह नियखग्गे, एक्केण गहियं, पुच्छिओ रण्णा-कहं ते पणटुंति ?, तेण कहियं जहावित्तं, कीस न गबिट्ट, भणइ-सामि ! तुम्ह पसारण एहमेत्तमवि गवेसामि , सट्टो नेच्छद, रण्णा पुच्छिओ-कीस न गेण्हसि ?, तेण भणियं-सामि ! अम्हाणमेस ठिई चेव नत्थि जमेवं गेण्हिज्जइ अहिग-1 ४४२॥ रणतणओ, परं संभमेण मग्गंतेणवि न लद्धति बोसिरियं अतो न कप्पइ मे गिहिउं, तओ रण्णा पमायकारी अणुसासिओ, इयरो विमुक्को, एस दिलुतो इमो य से अत्थोषणओ-जहा सो पमायगम्भेण अघोसिरियदोसेण दीप अनुक्रम [५२७-५२८] यन्ट ब्र मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१' द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~486~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८१-२८१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: EMA प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] अवराह पत्तो एवं जीवोषि जम्मतरत्थं देहोवहाइ अबोसिरतो अणुमयभावतो पायेइ दोस', श्रूयते च जातिस्मरणादिना विज्ञाय पूर्वदेहमतिमोहात् (केचित् ) सुरनदी प्रत्यस्थिशकलानि नयन्तीति । इदानीं सूत्रव्याख्याजीवो भदन्त ! जीवमधिकृत्य कतिक्रियः प्रज्ञप्तो ?, भगवानाह-गौतम ! स्यात्-कचित् त्रिक्रियः कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीभावात् , तत्र वर्तमानभवमधिकृत्य भावना प्राग्वत् भावनीया, अतीतभवमधिकृत्यैवं-कायिकी। तत्सम्बन्धिनः कायस्य कायैकदेशस्य वा व्याप्रियमाणत्वात् , आधिकरणिकी तत्संयोजितानां हलगरकूटयत्रादीनां तन्निर्वर्त्तितानां वा असिकुन्ततोमरादीनां परोपघाताय व्याप्रियमाणत्वात् , यदिवा देहोऽप्यधिकरणमित्याधिकरIणिक्यपि, प्राद्वेषिकी तद्विषयाऽकुशलपरिणामप्रवृत्तेरप्रत्याख्यातत्वात्, स्थाचतुष्क्रियः पारितापनिक्यपि कायेन कायैकदेशेनाधिकरणेन वा तत्सम्बन्धिना क्रियमाणत्वात् , स्यात्पञ्चक्रियो यदा तेन जीवितादपि व्यपरोपणमाधी-1 यते, स्यादक्रियो यदा पूर्वजन्मभावि शरीरमधिकरणं वा त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृष्टं भवति, न चापि तजन्मभाविना शरीरेण काश्चिदपि क्रियां करोति, इदं चाक्रियत्वं मनुष्यापेक्षया द्रष्टव्यं, तस्यैव सर्वविरतिभावात्, सिद्धापेक्षया । वा, तस्य देहमनोवृत्यभावेनाक्रियत्वात् , अमुमेवार्थ चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-'जीवे णं भंते ! नेरइयाओ। || कइकिरिए' इत्यादि सुगम, नवरमयं भावार्थः-देवनारकान् प्रति चतुष्क्रिय एव, तेषां जीविताद् व्यपरोपणस्या-18 सम्भवादू 'अनपवायुषो नारकदेवा' इति वचनात् , शेषान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति पश्चक्रियोऽपि, तेपामपवायु-18 दीप अनुक्रम [५२७-५२८] RELIGunintentATHREE मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१ द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया (२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~487~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं -------------- मूलं [२८१-२८१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] प्रज्ञापना- कतया जीवितादू व्यपरोपणस्यापि सम्भवात् , तदेवमेकस्य जीवस्य एकं जीयं प्रति क्रियाचिन्तिताः, सम्प्रत्येकस्यैव २२ क्रिया जीवस्य बहून् जीवान् प्रति क्रियाश्चिन्तयति-'जीवे णं भंते ! जीवहिंतो कइकिरिए पण्णते' इत्यादि, एषोऽपिपदे सूत्र य० वृत्तौदण्डकः प्राग्वद्धायनीयः, अधुना बहूनां जीवानामेकं जीवमधिकृत्य क्रियाश्चिन्तयति-'जीवा णं भंते ! जीवातो २८१ कइकिरिया पं०' इत्यादि, एषोऽपि दण्डकः प्रथमदण्डकवदवसेयः, अधुना बहूनां जीवानां बहून् जीवानधिकृत्य ॥४४२॥ सूत्रमाह-'जीवा गं भंते ! जीवहितो कइकिरिया पं०१ इत्यादि, अत्र प्रश्नः पाठसिद्धो, निर्वचनमिदं-गौतम ! प्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि अक्रिया अपि, कस्यापि जीवस्य कमपि जीवं प्रति त्रिक्रियत्वात्। कस्यापि चतुष्क्रियत्वात् कस्यापि पञ्चक्रियत्वात् कस्यापि मनुष्यस्य सर्वोत्तमचारित्रिणः सिद्धस्य वा शेषखाक्रियत्वात् इति सर्वत्र बहुवचनरूप एक एव भङ्गः, एवं नैरयिकादिक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, नवरं | नरयिकान् देवांच प्रति त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि अक्रिया अपीति वक्तव्यं, शेषान् समयेयवायुषः प्रति पश्चक्रिया अपीति, तदेवं सामान्यतो जीवपदमधिकृत्य दण्डकचतुष्टयमुक्त, सम्प्रति नैरयिकपदमधिकृत्साह-'नेरइए णं भिंते ! जीवातो कतिकिरिए पं.' इत्यादि 'एवं जाय वेमाणिएहितो' इति, अत्र यावत्करणात् 'नैरयिको जीवान ४२॥ प्रति कतिक्रिय' इति इत्यादिरूपो द्वितीयोऽपि दण्डक उक्तो द्रष्टव्यः, सर्वत्र औदारिकशरीरान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुष्क्रियः स्यात् पञ्चक्रिय इति वक्तव्यं, नैरयिकस्य देवान् प्रति पञ्चमी जीविताद् दीप अनुक्रम [५२७-५२८] 2002028688092003 SARERatininemarana मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१ द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया (२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~488~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८१-२८१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] व्यपरोपणरूपा क्रिया नास्ति, तेषामनपयायुष्कत्वात् , ततस्तान् प्रति स्यात् त्रिक्रियः स्थाचतुष्क्रिय इति वक्तव्यं, | नरयिको देवान् प्रति कथं चतुष्क्रिय इति चेत्, उच्यते, इह भवनवासादयो देवास्तृतीयां पृथिवीं यावत् गता गमिष्यन्ति च, किमर्थं गता गमिष्यन्तीति चेत् ?, उच्यते, पूर्वसाङ्गतिकस्य वेदनामुपशमयितुं पूर्ववैरिणो वेदनामुदीरयितं (वा) तत्र गच्छन्ति, तदानीमनन्तकालादेतदपि भवति (यद्) तद्गताः सन्तो नारकैर्वध्यन्ते इति, आहा च मूलटीकाकारोऽपि-"तत्र मता नारकैर्वध्यन्ते इत्यप्यनन्तकाल एव कथञ्चित्सम्भवमात्र"मिति, अत्रापर आहननु नारकस्य द्वीन्द्रियादीनधिकृत्य कथं कायिफ्यादिक्रियासम्भवः, उच्यते, इह नारकैर्यस्मात् पूर्वभवशरीरं न व्युत्सृष्टं विवेकाभावात् , तदभावश्च भवप्रत्ययात् , ततो यावत् शरीरं तेन जीवेन निर्वर्तितं सत् तं शरीरप-| |रिणामं सर्वथा न परित्यजति तावद् देशतोऽपि तं परिणाम भजमानं पूर्वभावप्रज्ञापनया तस्येति व्यपदिश्यते घृतघटवत् , यथा हि धृतपूर्णो घटो घृते अपगतेऽपि घृतघट इति व्यपदिश्यते, तथा तदपि शरीरं तेन निर्वर्त्तितमिति तस्येति व्यपदेशमर्हति, ततस्तस्य शरीरस्य एकदेशेनास्थ्यादिना योऽन्यः प्राणातिपातं करोति, ततः पूर्वनिर्वर्तितशरीरजीवोऽपि कायिक्यादिक्रियाभियुज्यते, तेन तस्याव्युत्सृष्टत्वात् , तत्रेयं पञ्चानामपि क्रियाणां भावनातत्कायस्य व्याप्रियमाणत्वात् कायिकी कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक् तत आधिकरणिकी, प्राद्वेषिक्यादयस्त्वेवं-यदा तमेव शरीरैकदेशं अभिघातादिसमर्थमन्यः कश्चनापि प्राणातिपातोद्यतो दृष्ट्वा तस्मिन् घासे द्वीन्द्रियादी Resercedesemeलरालिटलटाएर दीप अनुक्रम [५२७-५२८] SARERatinintenarama मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१ द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया (२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ~489~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८१-२८१-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८१२८१R] प्रज्ञापना- समुत्पन्नक्रोधादिकारणोऽभिषातादिसमर्थमिदं शस्त्रमिति चिन्तयन् अतीवक्रोधादिपरिणाम भजते पीडां चोत्पा-२२ क्रियाया मल- दयति जीविताच व्यपरोपयति तदा तत्सम्बन्धिप्रादेषिक्यादिक्रियाकारणत्वान्नैगमनयाभिप्रायेण तस्यापि प्राद्वेषिकी पद क्रियाया वृत्ती. पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिया च यथायोगं, यथा च नैरयिकपदे चत्वारो दण्डका उक्ताः तथा असुरकुमारा-RI संवेधः सू. |दिष्वपि शेषेषु त्रयोविंशती स्थानेषु चत्वारः चत्वारो दण्डका वक्तव्याः, नवरं जीवपदे मनुष्यपदे चाक्रिया इत्यपि २८२ ॥४४॥ वक्तव्यं, विरतिप्रतिपत्ती व्युत्सृष्टत्वेन तन्निमित्तक्रियाया असम्भवात् , शेषा अक्रिया नोच्यन्ते, विरत्यभावतः खशशारीरस्य भवान्तरगतस्याव्युत्सृष्टत्वेनावश्यं क्रियासम्भवात् , तदेवं सामान्यतो जीवपदे एक शेषाणि तु नैरयिकादीनि स्थानानि चतुर्विंशतिरिति सर्वसङ्ख्यया पञ्चविंशतिरेकैकस्मिंश्च स्थाने चत्वारो दण्डका इति सर्वसङ्कलनया दण्डकशतं । अथ केषां जीवानां कति क्रिया इति निरूपणाथै प्रागुक्तमेव सूत्रं पठति कति गं भंते । किरियाओ पण्णताओ?, गोयमा! पंच किरियाओ पण्णचाओ. त-कातिया जाव पाणातिवातकिरिया, नेरइया णं भंते ! कति किरियातो पण्णचाओ, गो! पंच किरियातो पण्णताओ, तं-कातिया जाव पाणातिवायकि०, एवं जाच माणियाणं, जस्स ण भंते! जीवस्स कातिया किरिया काह तस्स अहिगरणिया किरिया ॥४४॥ कजति जस्स अहिगरणिया किरिया कजति तस्स कातिया कजति ?, गो०! जस्स णं जीवस्स कातिया किरिया कति | तस्स अहिगरणी किरिया नियमा क०, जस्स अहिगरणी किरिया क० तस्सवि काइया किरिया नियमा कजति, जस्स दीप अनुक्रम [५२७-५२८] eaccersersesesesecene मूल-सम्पादकस्य स्खलनत्वात् अत्र सूत्र-क्रमांक २८१ द्वि-वारान् मुद्रितं, तस्मात् मया '२८१-R' इति संज्ञा दत्वा सूत्र-क्रमांक लिखितं ..."केषां जीवानाम् कति क्रिया:?" इति प्रदर्श्यते ~490~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] eseserneseneleroticles णं भंते ! जीवस्स काइया कि० तस्स पादोसिया कि० जस्स पादोसिया कि० तस्स काइया किं. ०१, गो! एवं चेव, जस्स पं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स पारियावणिया किरिया काइ जस्स पारियावणिया किरिया कजइ तस्स कातिया किरिया कज्जा, गो०! जस्स णं जीवस्स काइया कि० क० तस्स पारितावणिया सिय कज्जइ सिय नो कज्जइ, जस्स पुण पारियावणिया कि०क० तस्स काइया नियमा कजति, एवं पाणाइवायकिरियावि, एवं आदिल्लाओ परोप्परं नियमा तिषिण कजंति, जस्स आइल्लाओ तिनि कति तस्स उवरिल्लाओ दोनि सिय कज्जति सिय नो कअंति, जस्स उवरिल्लाओ दोणि कति तस्स आइलाओ नियमा तिणि कज्जति, जस्स गं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति तस्स पाणातिवायकिरिया काति, जस्स पाणातिवायकिरिया कञ्जति तस्स पारियावणिया किरिया कजति', गो.! जस्स णं जीवस्स पारियावणिया कि० तस्स पाणातिवातकिरिया सिय कजति सिय नो काति, जस्स पुण पाणातिपात किरिया कजति तस्स पारियापणिया किरिया नियमा काति, जस्सणं भैते ! नेरहयस्स काइया किरिया कजति तस्स अधिगरणिया किरिया कजति', गो०! जहेब जीवस्स तहेव नेरइयस्सवि, एवं निरंतरं जाव चेमाणियस्स । जं समयं णं भंते ! जीवस्स काइया कि० क० तं समयं अधिगरणिया कि० जं समयं अधिगरणिया कि० का समयं काइया कि०, एवं जहेव आइल्लओ दंडओ तहेव भाणितबो, जाव वेमाणियस्स । जंदेसेर्ण भंते! जीवस्स काइया कि० तंदेसेणं अधिगरणिया कि तहेव जाच वेमाणियस्स । जंपएसेणं भंते ! जीवस्स काइया कि० तं पदेसं आधिगरणिया कि० एवं तहेव जाव वेमाणियस्त, एवं एते जस्स जंसमयं जंदेसं जंपएसेणं चत्वारि दंडगा होति । दीप अनुक्रम [५२९] ~491~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापनाया:मल प्रत यवृत्ती. सूत्रांक ૪૪૪ [२८२] कति गं भंते ! आतोजितातो किरियाओ पण्ण तातो?, गो! पंच आओजियाओ किरियाओ पण्णताओ, तं०-काइया २क्रियाजाव पाणातिवातकिरिया, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया आतोजिया किरिया अस्थि पदे क्रियातस्स अधिगरणिया किरिया आतोजिता अस्थि जरस अधिगरणिया आतोजिता किरिया अस्थि तस्स काइया आतो संवेधः सू. जिया किरिया अस्थि , एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणितबा, जरस समयं देसं जं जाव वेमा- २८२ णियाणं । जीवे णं भंते ! समयं काइयाए अधिगरणियाए पादोसियाते किरियाए पुढे तंसमयं पारियावणियाते पुढे पाणातिवातकिरियाते पुढे,गोअस्थगतिते जीवे एगतियाओ जीवाओ समयं काइयाए अधिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुढे तं समय पारियावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए पुढे १ अत्यंगतिते जीवे एगतियाओ जीवाओं समय काइयाए अधिगरणियाए पादोसियाते किरियाए पुढे तं समयं पारितावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए अपुढे २ अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जैसमयं काइयाए अहिंगरणियाए पाओसियाए पुढे समयं पारि० किरि० अपुढे पाणाइवायकि० अपुढे ३ (मत्र २८२) 'कइणं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि प्राग्वत्, एता एव क्रियाः चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया णं भंते !' इत्यादि पाठसिद्धं, सम्प्रत्यासामेव क्रियाणामेकजीवाश्रयेण परस्परमविनाभावित्वं चिन्त-शा यति-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, इह कायिकी क्रिया औदारिकादिक्रियाश्रिता प्राणातिपातनिवर्तनसमा प्रति-विशिष्ट परिगृह्यते न या काचन कार्मणकायाश्रिता वा, तत आद्यानां तिसृणां क्रियाणां परस्परं नियम्यनिया यसररररर दीप अनुक्रम [५२९] ॥४४४॥ ~492~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] दीप अनुक्रम [५२९] मकभावः, कथमिति चेत् , उच्यते, कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक, ततः कायस्याधिकरणत्वात् कायिक्यां। सत्सामवश्यमाधिकरणिकी आधिकरणिक्यामवश्यं कायिकी, सा च प्रतिविशिष्टा कायिकी क्रिया प्रद्वेषमन्तरेण न भवति ततः प्राद्वेषिक्याऽपि सह परस्परमविनाभावः, प्रद्वेषोऽपि च काये स्फुटलिङ्ग एव वक्ररूक्षत्वादेस्तदविना भाविनः प्रत्यक्षत एवोपलम्भात्, उक्तं च-"रूक्षयति रुष्यतो ननु चक्रं लियति च रज्यतः पुंसः । औदारिकोऽपि II देहो भाववशात् परिणमत्येवम् ॥१॥" परितापनस्य प्राणातिपातस्य चाद्यक्रियात्रयसम्भवेऽप्यनियमः, कथमिति चेत् , उच्यते, यद्यसौ घात्यो मृगादिर्घातकेन धनुषा क्षिसेन बाणादिना विध्यते ततस्तस्य परितापनं मरणं वा भवति, नान्यथा, ततो नियमाभावः, परितापनस्य प्राणातिपातस्य च भावे पूर्व क्रियाणामवश्यं भायस्तासामभावे तयोरभावात् , ततोऽमुमेयार्थ परिभान्य कायिकी शेषाभिश्चतसृभिः क्रियाभिः सह आधिकरणिकी तिसृभिः क्रियाभिः सह प्राद्वेषिकी द्वाभ्यां सूत्रतः सम्यक चिन्तनीया, पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिययोस्तु सूत्रं साक्षा-1 दाह-'जस्स णं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति' इत्यादि, पारितापनिक्याः सद्भावे प्राणातिपा-18 तक्रिया स्थाद् भवति स्यान्न भवति, यदा वाणाधभिघातेन जीवितात् च्याव्यते तदा भवति शेपकालं न भवती-18 त्यर्थः, यस्ख पुनः प्राणातिपातक्रिया तस्य नियमात् पारितापनिकी, परितापनमन्तरेण प्राणव्यपरोपणासम्भवात् । सम्प्रति नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण परस्परमविनाभावं चिन्तयति-'जस्स णं भंते ! नेरदयस्स काइया ~493~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] दीप अनुक्रम [५२९] प्रज्ञापना- किरिया कजति' इत्यादि प्रतीतं, भावितत्वात् । तदेवमेको दण्डक उक्तः, सम्प्रति कालमधिकृत्योक्तप्रकारेणैव द्विती-18२२ क्रियायाः मल कायदण्डकमाह-जं समयं णं भंते । जीवस्स काइया किरिया कजह तं समयं अहिंगरणिया कजह जं समयं अहि- पदे क्रियायवृत्ती. गरणिया कजई' इत्याद्यारभ्य सर्वं पूर्वोक्तं तदवस्थं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, तथा चाह-'एवं जहेब आइ-18 ॥४४५॥ ४लतो दंडओ तहेव भाणियबो जाय वेमाणियस्स' इति, समयग्रहणेन चेह सामान्यतः कालो गृह्यते, न पुनः पर|मनिरुद्धो यथोक्तखरूपो नैश्चयिकः समयः, परितापनस्य प्राणातिपातस्य वा बाणादिक्षेपजन्यतया कायिक्याः प्रथमसमये एवासम्भवात्, एप द्वितीयो दण्डकः, सम्प्रति द्वौ दण्डको क्षेत्रमधिकृत्याह-जंदेसेणं भंते ! जीवस्सा इत्यादि, अत्रापि सूत्रं पूर्वोक्तं तदवस्थं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्र, तथा चाह-'तहेब जाव बेमाणियस्स' एष तृतीयदण्डका, 'जंपएसेर्ण भंते । जीवस्स काइया किरिया कजई' इत्यादिकश्चतुर्थः, अत्रापि सूत्रं प्रागुक्तकमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, तथा चाह-एवं तहेब जाव वेमाणिए' इति, दण्डकसकलनामाह-'एवमेते' इत्यादि, एताश्च यथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धकारणं तथा संसारकारणमपि, ज्ञानावरणीयादिकमेवन्धस्य संसारकारणतया तद्धेतुत्वेन तासामपि संसारकारणत्योपचारात्, तथा चाह-'करणं भंते ! आजोजियाओ किरियाओ ॥४५॥ पण्णत्ताओ' इत्यादि, आयोजयन्ति जीवं संसारे इत्यायोजिका:-कायिक्यादिकाः शेषं सर्व सुगम, सूत्रपाठस्तु पूर्वो-| तप्रकारेण तावद् वक्तव्यो यावत् यस्खेति यं समयमिति यं देशमिति यं प्रदेशमिति परिपूर्णाश्चत्वारो दण्डकाः,S! SAREauratonintentiational ~494~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८२] यं समयमित्यादौ तु 'कालाध्वनोासा' वित्यधिकरणे द्वितीया, ततो यस्मिन् समये यस्मिन् देशे यस्मिन् प्रदेशे ISIइति व्याख्येयं, 'जीवे णं भंते । समयं काइयाए अहिगरणियाए' इत्यादि, अत्रापि समयग्रहणेन सामान्यतः कालो गृह्यते, प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रे भङ्गत्रयी-कञ्चिजीवमधिकृत्य कश्चिज्जीवो यस्मिन् समये-काले क्रियात्रयेण स्पृष्टतस्मिन् समये पारितापनिक्याऽपि स्पृष्टः प्राणातिपातक्रियया चेत्सेको भङ्गः, पारितापनिक्या स्पृष्टः प्राणातिपातेनास्पृष्ट इति द्वितीयः, पारितापनिक्या प्राणातिपतक्रियया चास्पृष्ट इति तृतीयः; एष च तृतीयो भको बाणादेर्लक्षात्परिभ्रंशेन पात्यस्य मृगादेः परितापनाद्यसम्भवे वेदितव्यः, यस्तु यस्मिन् समये यं जीवमधिकृत्याद्य| क्रियात्रयेणास्पृष्टः स तस्मिन् समये तमधिकृत्य नियमात् पारितापनिक्या प्राणातिपातक्रियया चास्पृष्टः, कायि-18 क्याघभावे परितापनादेरभावात् । तदेवमुक्ताः क्रियाः, साम्प्रतं प्रकारान्तरेण क्रिया निरूपयति कति किरियाओपण्णताओ?, गो! पंच किरियाओ पं०,०-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपनपखाणकिरिया मिच्छादसणवत्तिया, आरंभिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ?, गो०! अण्णयरस्सवि पमत्तसंजयस्स, परिग्गहिया ण भंते ! किरिया कस्स कन्जद, गो01 अण्णयरस्सवि संजयासंजयस्स, मायापत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति , गो० । अण्णयरस्सावि अपमत्तसंजयस्स, अपच्चक्खाणकिरिया पं भैते ! कस्स कजति ?, गो अण्णयरस्सवि अपचक्खाणिस्स, मिच्छादसणवत्तियाणं भंते! किरिया कस्स कजति !, गो० अण्णयरस्सावि मिच्छादसणिस्स। 330s09929899289 दीप अनुक्रम [५२९] ... अथ क्रियाया: भेदा: अन्य-प्रकारेण कथ्यते ~495 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [२८४] दीप अनुक्रम [५२९] • मूलं [ २८४] पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापना याः मल य० वृत्ती. ॥४४६ ॥ “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः ) - Education Internationa नेरयाणं भंते ! कति किरियातो पं० १, मो० ! पंच किरियातो पं० तं० आरंभिया जाब मिच्छादंसणवत्तिया, एवं जाव वैमाणियाणं । जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया क० तस्स परिग्गहिया किं कअति ? जस्स परिग्गहिया कि० तस्स आरंभिया कि० १, गो० ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० तस्स परिग्गहिया सिय कजति सिय नो कजति, जस्स पुण परिग्गहिया किरिया क० तस्स आरंभिया कि० णियमा क०, जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया कि० क० तस्स मायावतिया कि० क० पुच्छा, गो० ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० क० तस्स मायावत्तिया कि० नियमा क० जस्स पुण मायावत्ति० कि० क० तस्स आरंभिया कि० सिय कजति सिय नो क०, जस्स णं भंते ! जीवस्त्र आरंभिया कि० तस्स अपच्चक्खाण किरिया पुच्छा ?, गो० ! जस्स जीवस्स आरंभिया कि० तस्स अपचक्खाणकिरिया सिय कजति सिय नो० क० जस्स पुण अपचक्खाण किरिया क० तस्स आरंभिया किरिया णियमा क०, एवं मिच्छादंसणवत्तियाएव समं, एवं पारिग्गहियाचि तिहिं उबरिल्लाहिं समं संचारेतवा, जस्स मायाबत्तिया कि० तस्स उवरिल्लाओ दोवि सिय कति सिय नो कअंति, जस्स उवरिखाओ दो कर्जति तस्स मायावत्तिया णियमा कज्जति, जस्स अपचक्खाणकि० क० तस्स मिच्छादंसणबत्तिया किरिया सिय कज्जति सिय नो कजति, जस्स पुण मिच्छादंसणवत्तिया कि० तस्स अपच्चक्खाणकिरिया णियमा कञ्जति । नेरइयस्स आइडियातो चत्तारि परोप्परं नियमा कञ्जति, जस्स एताओ चत्तारि कांति तस्स मिच्छादंसणवतिया कि० भजति, जस्स पुण मिच्छादंसणवत्तिया किरिया कज्जति तस्स एतातो चत्तारि नियमा कति एवं जाव थणियकुमारस्स, पुढविकाइयस्स जाव चउरिंदियस्स पंचवि परोप्परं नियमा कञ्जंति, For Parts Only ------ अत्र मूल-संपादने सूत्र क्रमांकन स्थाने पुनः एका स्खलना दृश्यते— (सूत्रं २८३) स्थाने (सूत्रं २८४) द्वि-वारान् मुद्रितं ~ 496 ~ २२ क्रियापदे क्रि याणां सहभावः सू. ૨૮: ॥४४६ ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , -------------- मूलं [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८४] पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स आतिल्लियातो तिपिणवि परोप्परं नियमा कजंति, जस्स एयाओ कजंति तस्स उबरिल्लिया दोण्णि भइति, जस्स उवरिल्लातो दोणि कर्जति तस्स एतातो तिण्णिवि णियमा कजति, जस्स अपञ्चक्खाणकिरिया तस्स मिच्छादसणवचिया सिय कजति सिय नो क०, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया का तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया नियमा क०, मण्सस्स जहा जीवस्स, वाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स जहा नेरदयस्स, समयणं भंते ! जीवस्स आरंभिया कि०कतं समयं पारिग्गहिया कि००१, एवं एते जस्स जं समयं जं देसं जं पदेसेण य चत्वारि दंडगा णेयवा, जहा नेरइयाणं तहा सबदेवाणं नेतवं जाब वेमाणियाणं (सूत्र २८४) 'कइणं भंते।' इत्यादि, आरम्भः-पृथिव्याधुपमईः, उक्तं च-"संरंभो संकप्पो परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उहवतो सुद्धनयाणं तु सबेसि ॥१॥" [संरम्भः संकल्पः परितापनिया भवेत् समारम्भः । आरम्भ उपद्रवका शुद्धनयानां तु सर्वेषां (मतं)॥१॥] आरम्भः प्रयोजनं-कारणं यस्याः सा आरम्भिकी, 'परिग्गहिय'त्ति परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुखीकारः धर्मोपकरणमूर्छा च परिग्रह एव पारिग्रहिकी परिग्रहेण निर्वृत्ता वा पारिग्राहिकी, 'मायावत्तिया' इति माया-अनार्जवमुपलक्षणत्वात् क्रोधादेरपि परिग्रहः माया प्रत्ययः-कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया 'अपचक्खाणकिरिया' इति अप्रत्याख्यानं-मनागपि विरतिपरिणामाभावस्तदेव क्रिया अप्रत्या- ख्यानक्रिया, 'मिच्छादसणवत्तिया' इति मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो-हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, एतासां क्रियाणां दीप अनुक्रम 22929899180090amaerao207 [५२९] अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकन-स्थाने पुन: एका स्खलना दृश्यते-(सूत्रं २८३) स्थाने (सूत्रं २८४) द्वि-वारान् मुद्रितं ~497~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञापना- य०वृत्ती. प्रत सूत्रांक [२८४] ॥४४७॥ मध्ये यस्य या सम्भवति तस्य तां निरूपयति-'आरंभिया णं भंते ! इत्यादि, 'अन्नयरस्सवि पमत्तसंजयस्स' इति क्रियाअत्रापिशब्दो भिन्नक्रमः प्रमत्तसंयतस्थाप्यन्यतरस्य-एकतरस्य कस्यचित् प्रमादे सति कायदुष्प्रयोगभावतः पृथि- पदे किध्यादेरुपमईसम्भवात् , अपिशब्दोऽन्येपामधस्तनगुणस्थानवर्त्तिनां नियमप्रदर्शनार्थः, प्रमत्तसंयतस्याप्यारम्भिकी क्रिया याणां सहभवति किं पुनः शेषाणां देशविरतिप्रभृतीनामिति १, एवमुत्तरत्रापि यथायोगमपिशब्दभावना कर्तव्या, पारिन-INभावः सू. हिकी संयतासंयतस्यापि देशविरतस्थापीत्यर्थः, तस्यापि परिग्रहधारणात् , मायाप्रत्यया अप्रमत्तसंयतस्यापि, कथ-M मिति चेत् , उच्यते, प्रवचनोडाहप्रच्छादनार्थ वल्लीकरणसमुद्देशादिषु, अप्रत्याख्यानक्रिया अन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः, अन्यतरदपि-न किश्चिदपीत्यर्थः यो न प्रत्याख्याति तस्येति भावः, मिथ्यादर्शनक्रिया अन्यतरस्यापि सूत्रो-18 क्किमेकमप्यक्षरमरोचयमानस्वेत्यर्थः मिश्यादृष्टेभवति । एता एव क्रियाश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-'नेरहयाणं भंते' इत्यादि सुगम । सम्प्रत्यासां क्रियाणां परस्परमविनाभावं चिन्तयति-तद्यथा-यस्थारम्भिकी क्रिया तस्य पारिमहिकी स्याद्भवति स्थान भवति, प्रमत्तसंयतस्य न भवति शेषस्य भवतीत्यर्थः, तथा यस्यारम्भिकी क्रिया तस्य मायाप्रत्यया नियमाद्भवति, यस्य मायाप्रत्यया तस्यारम्भिकी क्रिया स्याद्भवति स्थान भवति, 'अप्रम ४४७॥ संयतस्य न भवति शेषस्य भवतीत्यर्थः, तथा यस्खारम्भिकी क्रिया तस्याप्रत्याख्यानक्रिया स्थाद्भवति स्थान भवति, प्रमत्तसंयतस्य देशविरतस्य च न भवति, शेषस्य अविरतसम्यग्दृष्ट्यादेर्भवतीति भावः, यस्य पुनरप्रत्याख्यान दीप अनुक्रम [५२९] eesececre sesecseeneces अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकन-स्थाने पुन: एका स्खलना दृश्यते- (सूत्रं २८३) स्थाने (सूत्रं २८४) द्वि-वारान् मुद्रितं ~498~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं , -------------- मूलं [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५] उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८४] क्रिया तस्यारम्भिकी नियमात् , अप्रत्याख्यानिनोऽवश्यमारम्भसम्भवात्, एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यययापि सहाविना-1 भावो भावनीयः, तथाहि-यस्थारम्भिकी क्रिया तस्य मिथ्यादर्शनप्रत्यया स्याद्भवति स्थान भवति, मिथ्यादृष्टे - वति शेषस्य न भवतीत्यर्थः, यस्य तु मिथ्यादर्शनक्रिया तस्य नियमादारम्भिकी, मिथ्यादृष्टेरविरतत्वेनावश्यमारम्भ-11 S| सम्भवात्, तदेवमारम्भिकी क्रिया पारिग्राहिक्यादिभिश्चतसृभिरुपरितनीभिः क्रियाभिः सह परस्परमविनाभावेन चिन्तिता, एवं पारिवाहिकी तिसृभिर्मायाप्रत्यया द्वाभ्यामप्रत्याख्यानक्रिया एकया मिथ्यादर्शनप्रत्ययया चिन्तनीया, तथा चाह-एवं पारिग्गहियावि तिहिं उपरिल्लाहिं समं संचारेयवा' इत्यादि सुगम, भावनायाः सुप्रतीतत्वात् । अमुमेवार्थ चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-'नेरझ्यस्स आइलातो चत्तारि' इत्यादि, नैरयिकाधुकर्पतोऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकं यावन्न परतः ततो नैरयिकाणामाद्याश्चतस्त्रः क्रियाः परस्परमविनाभाविन्यः, मिथ्यादर्शनक्रियां प्रति स्याद्वादः, तमेवाह-'जस्स एयाओ चत्तारि' इत्यादि, मिथ्यादृष्टेर्मिध्यादर्शनक्रिया भवति शेषस्य न भवतीति भावः, यस पुनर्मिथ्यादर्शनक्रिया तस्याद्याश्चतस्रो नियमात्, मिथ्यादर्शने सत्यारम्भिक्यादी-1 नामवश्यंभावात् , एवं तावद्वक्तव्यं यावत्स्वनितकुमारस्य । पृथिव्यादीनां चतुरिन्द्रियपर्यवसानानां पञ्च क्रियाः परस्परमविनाभाविन्यो वक्तव्याः, पृथिव्यादीनां मिथ्यादर्शनक्रियाया अप्यवश्यंभावात् , तिर्यपञ्चेन्द्रियस्यायास्तिस्रः परस्परमविनाभूता देशविरतिं यावदासामवश्यंभावात् , उत्तराभ्यां तु द्वाभ्यां स्थाद्वादः, तमेव दर्शयति-'जस्स दीप अनुक्रम [५२९] Releasestioerseoes ForParaaEEDROIN wjanwroran.ary ~499~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. प्रत सूत्रांक [२८४] ॥४४॥ २२ क्रियाएयाओ कजंति' इत्यादि, देशविरतस्य न भवतः शेषस्य भवत इति भावः, यस्य पुनः उपरितन्यौ । क्रिये तस्सा पदे हिंसायास्तिस्रो नियमाद्भवन्ति, उपरितन्यो हि क्रिये अप्रत्याख्यानक्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया च, तत्राप्रयाण्यानक्रिया अविरतसम्यग्दृष्टिं यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया मिथ्यादृष्टेः आद्याश्चतस्रो देशविरतिं यावत् अत उपरितन्योर्भावेऽ हेतुः बन्ध|वश्यमाद्यानां तिसृणां भावः, सम्प्रति अप्रत्याख्यानक्रियया मिथ्यादर्शनक्रियायास्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियस्य परस्परमविनाभावं चिन्तयति-'जस्स अपचक्खाणकिरिया' इत्यादि भावितं, मनुष्ये यथा जीवपदे तथा वक्तव्यं, व्यन्तर २८५-२८६ ज्योतिष्फवैमानिकानां यथा नैरयिकस्य, एवमेष एको दण्डकः, 'एवमेव जं समयं णं भंते ! जीवस्से'त्यादिको |द्वितीयः, 'ज देसण्ण'मित्यादिकः तृतीयः, 'जं पएसपण'मित्यादिकश्चतुर्थः । अथ पट कायाः प्राणातिपातक्रिया-18 हेतव एव भवन्ति किंवा तद्विरमणहेतवोऽपीति पृच्छति अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणातिवायवेरमणे कजति ?, हता! अस्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणातिपातवेरमणे क० १, गो! छसु जीवनिकाएसु, अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणातिवातवेरमणे क०, गो० नो इणढे समडे, एवं जाव ४४८॥ वेमाणियाणं, गवरं मणूसाणं जहा जीवाणं, एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं, जीवस्स य भणूसस्स य, सेसाणं नो तिणढे समझे, णवरं अदिनादाणे गहणधारणिज्जेसु दवेसु, मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दवेसु, सेसाणं सवेसु दोसु, अस्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कजति , हता! अस्थि, कम्हिण भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसवेरमणे दीप अनुक्रम [५२९] ~500~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं ], -------------- मूलं [२८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Dece प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] दीप अनुक्रम [५३१-५३३] eesesee कजति ?, गो! सवदत्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिदियविमलेदियाण नो तिणढे समहे (सू०२८५) पाणातिपातविरए णं भंते ! जीवे कइ कम्मपगडीतो बंधति !, मो०! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए चा अबंधए वा, एवं मणूसेवि भाणितो, पाणातिपातविरया ण भंते ! जीवा कति कम्मपगडीतो बंधति?, गो०! सवेवि तार होजा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबं० एगविहवं अहविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहवं. एगविहवं. अट्टविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविह० एगविहबं० छपिहधगे य ४, अहवा. सत्तविहव० एगवि० छबिहबंधगा य ५ अहवा सत्तविह० एगविहवं० अबंधए य ६ अहवा सचविहवं० एगविहर्ष० अबंधगा य७ अहवा सत्तवि० एगवि० अढविधर्वधगे य छबिहबंधए य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहवं अहविहबंधए य छविबंधगा य २ अहवा सत्तविहवं० एगवि० अद्वविहवंधगा य छविहबंधए य ३ अहवा सत्तविहधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छबिहबंधगा य ४ अहवा सत्तविहवंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधए य अबंधए य १ अहवा सत्तविहर्ष० एगविहर्ष० अट्ठविहबंधए य अबंधगा य २ अहवा सत्तविहवं० एगवि० अढविहबंधगा य अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य अबंधगा य ४, अहवा सत्तविहवंधगा य एगविहवंधगा य छविहवंधगे य अबंधए य १ अहवा सत्तविहर्ष० एगविहबंधगा य छबिहबंधए य अबंधगा य २, अहवा सत्तविहवंधगा य एगवि० छविहरू अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० छबिह. अबंधगा य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अङ्कविहबंधगे य छबिहबंधए य अबंधए य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अढविहबंधए य छबिहबंधए.य अब Secemese. ~501~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं ], -------------- मूलं [२८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. 3929 २२क्रियापदे हिंसादिविरमणे तुः बन्ध ॥४४९॥ २८५-२८६ धगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह. अहविहबंधए य छविबंधगा य अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह० अढविधबंधए य छबिहबंधगा य अबंधगा य ४, अहवा सचवि० एगवि० अट्ठवि. छबिहबंधगे य अबंधए य ५, अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अट्ठविह० छबिहबंधगे य अबंधगा य ६, अहवा सत्तवि० एगविह० अट्ठवि० छविहबंधगा य अबंधए य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य एग. अडवि० छविहवं. अबंधगा य ८ एवं एते अट्ठभंगा, सब्वेवि मिलिया सत्तावीसं भंगा भवंति, एवं मण्साणवि एते चेव सत्तावीसं भंगा भाणितबा, एवं मुसावायविरयस्स जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स य मणूसस्स य, मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीतो पंधति , गो! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगवि० अबंधए वा, मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! नेरइए कति कम्मपगडीतो बंधति', गो० सत्तविहवंधए वा अढवि० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिय०, मणसे जहा जीवे, वाणमंतरजोड़सितवेमाणिते जहा नेरइते, मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो० ते चेव सत्तावीसं भंगा भाणितवा, मिच्छादसणसल्लविरया भंते ! नेरड्या कति कम्मपगडीतो बंधति, गो! सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगे य अहवा सचविबंधगा य अढवि० एवं जाव वेमाणिया, णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं । (सूत्र २८६) पाणातिवायविरयस्स भंते ! जीवस्स किंआरंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजति ?, गो! पाणातिवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कजति सिय नो काति, पाणातिवायविरयस्स णं भंते! जीवस्स परिग्गहिया किरिया कजति', गोणो इण समहे, पाणातिवाय Emesesea दीप अनुक्रम [५३१-५३३] ४४९॥ ~502~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं ], -------------- मूलं [२८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] दीप अनुक्रम [५३१-५३३] विरयस्स णं भंते ! जीवस्स मायावचिया किरिया कज्जति !, गो०! सिय कन्जति सिय नो कज्जति, पाणातिपातविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अपचक्खाणवत्तिया किरिया कज्जति ?, गो०! णो इणढे समढे, मिच्छादसणवत्तियाए पुच्छा, गो! णो इणढे समहे, एवं पाणातिपातविरयस्स मणूसस्सवि, एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य, मिच्छादसणसहाविरयस्सणं भंते! जीवस्स किं आरंभिया किरिया क. जाब मिच्छादसणवतिया कि० क..,गो! मिच्छादसणसल्लविरतस्स जीवस्स आरंभिया कि० सिय क. सिय नोक०, एवं जाव अपञ्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया नक, मिच्छादसणसल्लविरयस्स ण भंते ! नेरझ्यस्स किं आरंभिया किरिया क० जाव मिच्छादसणवचिया कि० क०१, गो ! आरंभिया कि० क० जाव अपञ्चक्खाणकिरियावि क०, मिच्छादसणवत्तिया किरिया नो क०, एवं जाब थणियकुमारस्स, मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा, गो! आरंभिया कि० क. जाव मायावत्तिया कि० क०, अपचक्खाणकि० सिय कसिय नोक०, मिच्छादसणवत्तिया कि० नो कमणसस्स जहा जीवस्स । वाणमंतरजोइसियवेमा० जहा नेरहयस्स । एतासि णं मंते ! आरंभियाणं जाव मिच्छादसणवत्तियाण य कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गो० सवत्थोवाओ मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ, अपचक्खाणकिरियाओ विसे०, परिग्गहियातो विसे०, आरंभियातो किरियातो विसे, मायावत्तियातो विसेसाहियातो (सूत्र २८७)॥ पण्णवणाए बावीसतिम पर्य समत्तं ॥ २२ ॥ ~503~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८५ -२८७] दीप अनुक्रम [५३१ -433] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [२२], ------- उद्देशक: [ - ], - दारं [-], - मूलं [ २८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ॥४५०॥ 'अत्थि णं मंते !' इत्यादि, सर्वत्र क्रियते कर्मकर्त्तरिप्रयोगः ततो भवतीति द्रष्टव्यः प्राणातिपातादिविरमणविषयाश्च षट् कायादयः प्रागेव भाविता इति न भूयो भाव्यन्ते, विरतिश्च प्राणातिपातादीनां मायामृषापर्यन्तानां जीवपदे मनुष्यपदे वक्तव्या, शेषेषु स्थानेषु नायमर्थः समर्थ इति वक्तव्यं तेषां भवप्रत्ययतः सर्वविरत्यसम्भवात्, मिथ्यादर्शन विरमणविषयचिन्तायां सर्वद्रव्येष्यिति उपलक्षणमेतत् सर्वपर्यायेष्वपि, अन्यथा एकस्मिन् द्रव्ये पर्याये वा मिध्यात्वभावे मिथ्यादर्शनविरमणासम्भवात्, 'सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥ १ ॥” इति वचनात्, मिथ्यादर्शनशल्यविरमणं च एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जेषु स्थानेषु, शेषेषु एकेन्द्रियादिषु न भवति, कस्मादिति चेत्, उच्यते, पृथिव्यादिषु 'उभयाभावो पुढवाइपसु [ प्रतिपद्यमानप्रतिपन्नाभावः पृथिव्यादिषु ] इति वचनात्, द्वीन्द्रियादीनां तु यद्यपि करणापर्याप्तावस्थायां केषांचित् सासादनसम्यक्त्वं भवति तथापि तत् मिथ्यात्वाभिमुखानां तत्प्रतिकूलानामतस्तेषामपि मिथ्यादर्शनशल्यविरमणप्रतिषेधः, आह च- 'अत्थि गं भंते ! जीवाणं मिच्छादंसणसलयेरमणे कज्जह' इत्यादि, अथवा प्राणातिपातविरतस्य कर्मबन्धो भवति किं वा नेति चेत्, उच्यते, भवत्यपि न भवत्यपि तथा च एतदेव प्रश्नसूत्रपूर्वकमाह - 'पाणाइवायविरए णं मंते ! जीवे' इत्यादि सुगमं, बहुवचने प्रश्नसूत्रं सुगमं, निर्वचनसूत्रे सर्वेऽपि तावद्रवेयुः सप्तविधबन्धकाश्च एकविधबन्धकाश्च, इह प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्त वादर सम्परायाः सप्तविधबन्धकाः Eucation Internation For Parts Only ------ ~ 504~ २२ क्रियापदे विरतानां क्रियाभावः सू. २८७ ॥४५०॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं ], -------------- मूलं [२८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] aeesesecemesesearceaee प्रमत्ता अप्रमत्ताश्चायुर्वन्धकालेऽष्टविधवन्धकाः, आयुषोऽपि बन्धनात्, आयुर्वन्धश्च कादाचित्क इति कदाचित्सवथा न लभ्यतेऽपि, प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते, अपूर्वकरणा अनिवृत्तिबादराश्च कदाचिन्न भवन्त्य|पि, विरहस्यापि तेषामागमे प्रतिपादनात् , एकविधवन्धका उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनः, तत्र उपशा-IST न्तमोहाः क्षीणमोहाच कदाचिलभ्यन्ते कदाचिन्न लभ्यन्ते, तेषामन्तरस्यापि सम्भवात् , सयोगिकेवलिनस्तु सदा प्राप्यन्तेऽन्यान्यभावेन तेषामव्यवच्छेदात्, ततः सप्तविधवन्धका एकविधबन्धकाचावस्थिता इत्यष्टविधवन्धकाद्यभावे एको भङ्गः, अथवा सप्तविधवन्धका एकविधबन्धकाश्च बहव एकोऽष्टविधबन्धक इति द्वितीयः, अष्टविधवन्धकानां बहुत्वे तृतीयः, षविधबन्धका अपि कदाचिल्लभ्यन्ते कदाचिन्न, उत्कर्षतः षण्मासविरहभावात् , यदापि लभ्यन्ते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षपदेऽष्टोत्तरं शतं ततोऽष्टविधवन्धकपदाभावे पड्विधवन्धकपदेनापि द्वौ भनौ, अबन्धका अयोगिकेवलिनस्तेऽपि कदाचिदवाप्यन्ते कदाचिन्न, तेषामप्युत्कर्षतः षण्मासविरहभावात्, यदाऽप्यवाप्यन्ते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतं, ततोऽष्टविधवन्धकपदाभावेऽबन्धकपदे-1 नापि द्वौ भन्नो, तदेवमेक आयो भङ्ग एककसंयोगे च षडिति सप्त भङ्गाः, इदानीं विकसंयोगे भङ्गा दर्श्यन्ते, तत्र सप्तविधवन्धका एकविधवन्धकाश्चावस्थिताः, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , ततोऽष्टविधबन्धकपदे पविधवन्धकपदे च प्रत्येकमेकवचनमिति एको भङ्गः, अष्टविधवन्धकपदे एकवचनं पड्डिधबन्धकपदे बहुवचनं इति कररररररररन्टरटserse दीप अनुक्रम [५३१-५३३] For P OW wwreaturary.com ~505~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं ], -------------- मूलं [२८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: O प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती. ॥४५॥ दीप अनुक्रम [५३१-५३३] elesesekceemesepsee द्वितीयः, एतौ द्वौ भनावष्टविधवन्धकपदस्पैकवचनेन लब्धौ, एतावेव द्वौ भङ्गो बहुवचनेनेति चत्वारः, एवमेव २२ क्रियाचत्वारो भकाः अष्टविधवन्धकाबन्धकपदाभ्याम् , एवमेव चत्वारः पविधवन्धकाबन्धकपदाभ्यामिति, सर्वसञ्चयापदे विरद्विकसंयोगे द्वादश भनाः, त्रयाणामष्टविधवन्धकषविधवन्धकाबन्धकरूपाणां पदानां संयोगे प्रत्येकमेकवचनवदव- ताना किचनाभ्यामष्टी भङ्गाः, सर्वसङ्कलनया सप्तविंशतिर्भशाः, अत्रापर आह-ननु विरतस्य कथं बन्धो, न हि पिरतिष-18 धहेतुर्भवति, यदि पुनर्विरतिरपि बन्धहेतुः स्यात् ततो निर्मोक्षप्रसङ्गः, उपायाभावात् , उच्यते, न हि विरतिब-18 सू. २८७ न्धहेतुः, किन्तु विरतस्य ये कपाययोगास्ते बन्धकारणं, तथाहि-सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकेष्वपि । संयमेषु कपायाः संज्वलनरूपा उदयप्राप्ताः सन्ति योगाश्च, ततो विरतस्यापि देवायुष्कादीनां शुभप्रकृतीनां तत्प्रत्ययो वन्धः, यथा च प्राणातिपातविरतस्य सप्तविंशतिर्भका उक्ताः तथा मृषावादविरतस्य यावत् मायामृपाविरतस्य, मिथ्यादर्शनशल्यविरतमधिकृत्य सूत्रमाह-'मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते!' इत्यादि सुगम, नवरं सप्तविधबन्धकत्वमएविधवन्धकत्वं षविधबन्धकत्वमेकविधमन्धकत्वमवन्धकत्वं च, मिथ्यादर्शनशल्यविरतेरविरतसम्यग्दृष्टेरारभ्यायोगिकेवलिनं यावद्भावात् , नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकचिन्तायां मनुष्यवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु सप्तविधव-IN ॥४५॥ न्धकत्वं अष्टविधवन्धकत्वं वा, न पडूविधवन्धकत्यादि, श्रेणिप्रतिपत्त्यसम्भवात् , मनुष्यपदे च यथा जीवपदे तथा वक्तव्यं, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् , बहुवचनेनैतद्विषयं सूत्रमाह-'मिच्छादसणसलविरया णं भंते! जीवा' इत्यादि, ~506~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) “प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२२], -------------- उद्देशक: -,------------- दारं ], -------------- मूलं [२८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८५-२८७] दीप अनुक्रम [५३१-५३३] अत्रापि त एवं पूर्वोक्ताः सप्तविंशतिर्भङ्गाः, नैरयिकपदे भङ्गत्रिकं, तत्र सर्वेऽपि तावद्भवेयुः ससविधवन्धका इत्येको भक्तः, अयं च यदेकोऽप्यष्टविधवन्धको न लभ्यते तदा भवति, यदा पुनरेकोऽष्टविधवन्धको लभ्यते तदाऽयं द्विती-17 यो भङ्गः सप्तविधवन्धकाचाष्टविधवन्धकश्च, यदा पुनरष्टविधवन्धका अपि वहयो लभ्यन्ते तदा तृतीयः सप्तविध-11 बन्धकाश्चाष्टविधवन्धकाच, एवं भाविक तापद् वाच्यं यावद्वैमानिकसूत्र, नवरं मनुष्यपदे सप्तविंशतिर्भरका यथाहा जीवपदे इति । अथारम्भिक्यादीनां क्रियाणां मध्ये का क्रिया प्राणातिपातविरतस्येति चिन्तयति-पाणावायवि-18 रयस्स पं भंते ।' इत्यादि, आरम्भिकी क्रिया स्थाद्भवति स्थान्न भवति, प्रमत्तसंयतस्य भवति शेषस्य न भवतीति भावः, पारिप्रहिकी निषेध्या, सर्वथा परिग्रहान्निवृत्तत्वात् , अन्यथा सम्यक्प्राणातिपातविरत्यनुपपत्तेः, मायाप्रत्यया। स्थाद्भवति स्थान भवति, अप्रमत्तस्थापि हि कदाचित् प्रवचनमालिन्यरक्षणार्थ भवति, शेषकालं तु न भवति, अप्र-16 त्याख्यानक्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया च सर्वथा निषिध्यते, तद्भावे प्राणातिपातविरत्ययोगात्, प्राणातिपातविरतेश्वर वे पदे, तद्यथा-जीवो मनुष्यश्च, तत्र यथा सामान्यतो जीवमधिकृत्योकं तथा मनुष्यमधिकृत्य वक्तव्यं, तथा चाह-एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्सवि' इति, एवं तावद्वाच्यं यावन्मायामृषाविरतस्य जीवस्य मनुष्यस्य च. मिथ्यादर्शनशल्यविरतमधिकृत्य सूत्रं 'मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते 1 जीवस्स' इत्यादि, आरम्भिकी स्याद्भवति स्थान भवति, प्रमत्तसंयतान्तस्य भवति शेषस्य न भवतीति भावार्थः, पारिग्रहिकी देशविरतिं यावद्भवति, परतो For P OW ~507~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१५) प्रत सूत्रांक [ २८५ -२८७] दीप अनुक्रम [५३१ -433] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [२२], ------- उद्देशकः [-], - दारं [-], - मूलं [२८५-२८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रज्ञापनाया मल य० वृत्ती. ||४५२ ॥ न भवति, मायाप्रत्ययाऽप्यनिवृत्तबादरसम्परायं यावद्भाविनी परतो न भवति, अप्रत्याख्यानक्रियाऽपि अविरतसम्यग्दृष्टिं यावन्न परतः, तत एता अपि क्रिया अधिकृत्य 'सिय कज्जर सिय नो कञ्ज' इति वक्तव्यं, तथा चाह' एवं जाव अपचक्खाणकिरिया' इति, मिध्यादर्शनप्रत्यया पुनर्निषेध्या, मिथ्यादर्शनविरतस्य तस्या असम्भवात्, चतुर्विंशतिदण्डक चिन्तायां नैरयिकादीनां स्तनितकुमारपर्यन्तानां चतस्रः क्रिया वक्तव्याः, मिथ्यादर्शनप्रत्यया निषेध्या, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्याद्यास्तिस्रः क्रिया नियमतो वक्तव्याः, अप्रत्याख्यानक्रिया भाज्या, देशविरतस्य न भवति ------ Education Internationa ० शेषस्य भवतीत्यर्थः, मिथ्यादर्शनप्रत्यया निषेध्या, मनुष्यस्य यथा सामान्यतो जीवस्य, व्यन्तरादीनां यथा नैरवि- ४ * णामल्पचहुत्वं सू. २८७ कस्य । सम्प्रत्यासामेवारम्भिक्यादीनां क्रियाणां परस्परमल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णं भंते ।" इत्यादि, सर्वस्तोका मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया, मिथ्यादृष्टीनामेव भावात्, ततोऽप्रत्याख्यानक्रिया विशेषाधिका, अविरतसम्यग्दृष्टीनां मिथ्यादृष्टीनां च भावात् ताभ्योऽपि पारिग्राहिक्यो विशेषाधिकाः, देशविरतानां पूर्वेषां च भावात्, आरम्भिक्यो विशेषाधिकाः, प्रमत्तसंयतान्तं पूर्वेषां च भावात्, ताभ्योऽपि मायाप्रत्यया विशेषाधिकाः, अप्रमत्तसंयतानामपि भावात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां द्वाविंशतितमं क्रियापदं समाप्तम् ॥ २२ ॥ ~ 508~ २२ क्रिया पदं विर तानामार स्भिक्यादिः क्रिया अत्र पद (२२) "क्रिया” परिसमाप्तम् भाग [आगम-15/2] प्रज्ञापना - उवंगसूत्र [४/२] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ताः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब 19 किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ॥४५२|| Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१० ~509~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम १८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग - २ आगम १८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति वक्षस्कार- १ एवं २. मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग- ३ मूलं एवं वृत्ति वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंद्लवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, निर्युक्ति- १ से ५२१ निर्युक्ति- ५२२ से९५१ निर्युक्ति - ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण ] निर्युक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [ अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग - ३ | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ आगम ४१/१ ओघनिर्युक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनिर्युक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग -१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. आगम ४५ अनुयोगद्वार् मूलं एवं वृत्ति. कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ~ 510~ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ ३३० ४६६ ४४२ ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ ५२८ ५६० ३९४ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम MIDITA आलम आजम SPORITH आजम आगम आगम: आजम STOTA आजम आजम पवास Mens Innin आजम TOTHE आजम आजम राजम आजम सवारी आहारा आगम आयमि आजम आजभ HARISO आजम आजम आगम आगम आज आजम 3TERZIT आगम वाचना शताब्दी वर्ष आगम आजम आजार सजम आजम ~ 511~ Money Shone ment BUCHE आगर mene BACCHE आजम आगम SHIDIA RIGH Spraine आजम आगम आगस money-mche अलम आबास आगम 15 आजस Honey ahead & Sandy Sandy marhane MONG HONEY HONG Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामगजम आजम आवास नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि । मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरनसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275 ~512~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता OFTE OFF OF श्री आगम मंदिर पालिताणा OFFOLLO ~ 513 ~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म आजम मूल संशोधक आजम आगम मूल सशविराजमा आजम पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेबस आगम 15 “प्रज्ञापना" मुलं एवं वृत्ति: [2] आगम आज अभिनव-संकलनकर्ता आगार आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आजम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] / आगम आगम आगम आजम आगम आगम आगम ~514~