Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमुक्तिकमलजैनमोहनमाला पुष्प-८६ cocacolaresaccecacavacacaceaeaceaeaca // नमोऽर्हत्परमेश्वराय // दर्भावती [ डभोई ] मण्डन अर्धपद्मासनस्थश्रीमल्लोढणपार्श्वनाथाय नमोनमः / पूज्यपादशासनप्रभावकजैनाचार्यश्रीमद्विजयमोहन-प्रताप-धर्मसूरीश्वरेभ्यो नमः / / . . बारहवीं शताब्दिमें विद्यमानसिद्धान्तमहोदधि पूज्यपाद श्रीमद्-चन्द्रसूरीश्वर विरचितसंग्रहणीरत्न-प्रकरण प्रचलित नाम- बृहत्संग्रहणी सूत्रहिन्दी भाषांतर सहित। 卐 . गुजराती भाषान्तर लेखन वर्ष-१९८७. : हिन्दी भाषांतर वर्ष, 2041-42 : प्रेरक, पू. आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी concenericackacarcancercacakacarcareer.cenearera Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ] बृहत्संग्रणीरत्नसूत्र हिन्दी [ भाषांतर की पूर्वभूमिका . अनुवादक मुनिश्रीके विषयमें प्रकाशककी ज्ञातव्य- . ' –पूर्वभूमिकाजैन समाजमें संग्रहणी नामक अति विख्यात ग्रन्थकी रचना बारहवीं सदीके महान आचार्य भगवंत श्रीमद् चन्द्रसूरिजीने, जो साधु-साध्वियाँ और गृहस्थ, आगमशास्त्रोंका अध्ययन न कर सकें अथवा तीव्र बुद्धि न हों, और संक्षेपमें जैन तत्त्वज्ञान और विराट् विश्वका ज्ञान प्राप्त करना हो तो एक ही ग्रन्थसे कर सकें, अनेकानेक विषयोंकी जानकारी प्राप्त हो, इसी कारण उपकारक बुद्धिसे आगममेंसे उपयोगी विषयोंको चुनचुनकर, प्राकृतभाषाकी गाथाओं द्वारा संकलन करके इस ग्रन्थकी रचना की है। यह ग्रन्थ जैनसंघमें इतना प्रिय हो गया था कि उसका अध्ययन सैकड़ों वर्षोंसे हजारों व्यक्ति / करते आएं, इसी कारण सैकड़ों प्रतियाँ आज जैन शानभंडारोंमें मिलती हैं / और उसकी सचित्र प्रतियाँ चौदहवीं सदीसे लेकर 20 वीं सदी तकमें सैकड़ोंकी संख्यामें उपलब्ध हैं। विशिष्ट प्रकारकी चित्रकला द्वारा निर्मित चित्रोंवाला मूर्धन्य ग्रन्थ जैन समाजमें प्रथम कल्पसूत्र है, जिसकी सुवर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी बहुमूल्य कृतियाँ मिलती हैं और जैन भंडारोंमें सैकड़ोंकी संख्यामें प्राप्त हैं। ऐसी ही सचित्र प्रतियाँ जैन भंडारमें जो दूसरी गिनी जाती हो तो वह संग्रहणी की है। इस संग्रहणीकी मात्र संक्षिप्त शब्दार्थकी प्रतियाँ (टबा) थोडी कुछ उपलब्ध हैं, लेकिन विस्तृत भाषांतरवाली एक भी प्रति मुझे नहीं मिली और इस युगमें विस्तृत भाषांतरवाली तो एक भी मुद्रित पुस्तक न थी। मुनिजीको बड़ा आश्चर्यजनक दुःख हुआ और स्वपर शान के लिए एक महान ग्रन्थके अनुवादका भगीरथ कार्य करनेका निर्णय किया, गुरु आदेश लेकर अनुवाद किया। यह अनुवाद कब किया ? उस समय कितनी उम्र थी? छपा कब ? यह सब घटना रोमहर्षक, और प्रेरक है। इसलिए कई लोगके आग्रहसे यह घटना यहाँ प्रस्तुत करते हैं, जिससे मुनिजीके एक अकल्पनीय साहसकी अनुमोदना होगी / विद्यार्थियोंका ऐसा काम करनेके लिए उत्साह बढ़ेगा। ___ संग्रहणी ग्रन्थका गुजराती भाषांतर मुनिजीने दीक्षाके पहले ही वर्षमें अर्थात् संवत 1987 में, जब उम्र सिर्फ 15 वर्षकी थी तब महुवा (सौराष्ट्र )में शुरु किया, दो वर्ष बंद रहा, फिर शुरु किया और सं. 1991 के अंतमें पूर्ण किया / पूरा भाषांतर करनेमें करीब दो वर्ष लगे / 19 वर्षकी उम्रमें समाप्त किया / लेखकके विद्वान् गुरुदेव, तत्त्वज्ञ पूज्य मुनि श्री धर्मविजयजी महाराजने संशोधन कर दिया और पूज्य प्रवर उपाध्यायजी श्री प्रतापविजयजी महाराजने भी सिंहावलोकन कर लिया / अन्तमें तीनों गुरुदेवने Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमुनि यशोविजयका अनुवादका विराट्र साहस अनुमोदन-अनुमतिरूप आशीर्वाद देकर, बड़ी भारी प्रसन्नता व्यक्त की। बादमें सं. १९९३में भावनगरके नये सुप्रसिद्ध 'महोदय' प्रेसमें छापनेके लिए धर्मात्मा श्री गुलाबचन्दभाईको प्रेसकोपी दी / मुद्रणका कार्य तीव्र गतिसे चला और क्लिष्ट मुद्रण होते हुए भी प्रेसने बड़ी लगनेसे यह दलदार ग्रन्थ संवत् 1995 में पूरा छाप दिया और फिर तीर्थक्षेत्र पालीताणा चंपानिवास धर्मशालास्थित पूज्य गुरुदेव के नेतृत्वमें सानन्द प्रकाशित हुआ। ___जब ग्रन्थ प्रकाशित हुआ तब अनुवादक मुनिजीकी उम्र सिर्फ 22 वर्षकी छोटी थी / यह श्रीचन्द्रीयासंग्रहणीकी क्षेपक गाथाओं सह 349 मूलगाथाएँ, चौदह वर्षकी उम्रमें, अपने गुरुदेवके पास गृहस्थावस्थामें, सोलह दिनमें कण्ठस्थ की थी। इस भाषांतरमें भूगोल, खगोल और चौहदराजके स्थानवी, एक कलरसे लेकर चार कलरके 64 चित्र थे / ये चित्र भी ज्यादातर मुनिजीने खुद अपने हाथसे किये हुए हैं। इतनी छोटी उम्र में भूगोल, खगोल आदि विषयक चित्रकी कल्पना साकार करना, हाथसे बनाना कितना मुश्किल कार्य था, फिर भी पूर्ण किया // __12 वर्षकी उम्रसे ही बिना सीखे गतजन्मका कलाका थोडा संस्कार स्वाभाविक था और अपने कलारसिक विद्वान् गुरुदेव आदिका पूरा साथ सहकार था, इसी कारण अपनी सूझ-बूझके मुताबिक चित्र भी बनाये, जैन समाजके इतिहासमें पहली बार ऐसे चित्र बने / 15 से 19 वर्ष तककी छोटी उम्रमें 349 गाथाओंके महान, सुप्रसिद्ध ग्रन्थका भाषांतर, अभूतपूर्व 70 चित्र, अनेक यन्त्र और पंचपाठी मुद्रण तथा तत्त्वज्ञानके गणितानुयोगप्रधान विषयका अपरिपक्व उम्र में, बहुत कम समयमें भाषांतर करना, यह क्या कोई साधारण बात थी ? लेकिन गतजन्मकी ज्ञानसाधना, शासनदेव और गुरुकृपासे प्राप्त विचक्षण बुद्धिवैभवसे अतिपरिश्रमसाध्य, भव्य कार्य पूर्ण हुआ। अन्यथा अति दुर्बल शरीरवाले मुनिजी कैसे कर पाते ? मुनिजीको भाषांतर करनेके लिए 150 से ज्यादा अजैन-जैन ग्रन्थोंका अवलोकन करना पड़ा था। ग्रन्थका सुन्दर और आकर्षक मुद्रण, श्रेष्ठ कागज और सरल और संस्कारी गुजरातीभाषा, विविध पदार्थों-विषयोंका विस्तृत विवेचन तथा हजारों वर्ष में पहली ही बार बने हुए रंग-बिरंगी चित्र आदि देखकर जैन समाजके आचार्य, विद्वान् मुनिवर पू. साधु-साध्वियाँ और विद्वान् गृहस्थ इतनी छोटी उम्रवाले मुनिजीका आश्चर्यकारी साहस देखकर भारी मुग्ध हुए थे और मुनिजी पर अभिनंदनकी वर्षा हुई थी। भावनगरके सुप्रसिद्ध विद्वान् कुंवरजीभाई जो वर्षोंसे साधु-साध्वियोंको पढ़ाते थे उन्होंने लिखा था कि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ ग्रंथभूमिका 40 वर्षसे जिन शंकाओंका समाधान नहीं हुआ था, वह मुनिजीके भाषांतरसे हुआ। यह लिखकर अति धन्यवाद लिखा था / 8-10 दैनिक-साप्ताहिक पत्रोंने भी ग्रन्थका विस्तृत अभिप्राय छापकर बहुत भारी प्रशंसा की थी। ये अभिप्राय इसी पुस्तकमें अन्तमें देंगे। उसी गुजराती भाषांतर परसे यह हिन्ही भाषांतर किया है जो यहाँ छप रहा है। -प्रकाशक सूचना-यहाँसे सही ग्रन्थकी शुरूआत होती है। आगे आनेवाली प्रथम गाथाके अनुसन्धानमें यहां लम्बे __ अवतरणके बाद नमिऊं यह प्रथम गाथाका प्रारम्भ होगा / 1. ग्रन्थभूमिका..वीर संवतकी 11 वीं और विक्रम संवतकी छठी शताब्दिमें विद्यमान, पूज्य प्रवर भाष्यकार भगवान् श्रीमान् जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणजी महाराजने श्रीपन्नवणासूत्र तथा श्रीजीवाभिगमसूत्र आदि आगमग्रन्थोंमेंसे सार और उपयोगी विषयका संग्रह करके, भव्य जीवोंके कल्याण के लिए संग्रहणी अथवा प्रसिद्ध नाम 'श्री बृहत संग्रहणी' नामका एक अति उपयोगी द्रव्यानुयोग-गणितानुयोगप्रधान महान् ग्रन्थकी जो रचना की है, 1. यह मूलगाथाप्रमाण क्षेपक गाथाओंके कारण बढ़कर 349 गाथाका हो गया है / 2. यद्यपि वर्तमानमें जंबूद्वीप संग्रहणीको लघुसंग्रहणी मानी जाती है। परंतु वास्तविक रूपमें उस संग्रहणी में जंबूद्वीपका ही वर्णन आनेके कारण 'जंबूद्वीप संग्रहणी' नाम उस ग्रन्थके लिए उचित है। जब कि ‘दंडक प्रकरण 'को लघु संग्रहणी कहनेमें कुछ भी बाधा नहीं दिखती, क्योंकि बृहत्संग्रहणीमें जो विषय विशेषरूपसे वर्णित किया है उसी विषयको संक्षिप्तमें सरलताके लिए चौबीस दंडककी अपेक्षा रखकर इस ग्रन्थमें वर्णन किया गया है / और श्री दंडक प्रकरणके वृत्तिकार महर्षि श्री रूपचन्द्रमुनिके प्रारंभके प्रणम्य परया भक्त्या, जिनेन्द्रचरणाम्बुजं / लघुसंग्रहणीटीकां, करिष्येऽहं मुदा वराम् // 1 // और बृहत्संग्रहणीकी 'चन्द्रीया' टीकामें 'गाथाद्वयप्रमाणा संक्षिप्ततरा संग्रहणीः' इस उल्लेखसे भी दंडकको संग्रहणी कह सकते हैं / इसश्लोकसे 'दंडकका असल नाम 'लघुसंग्रहणी' था वह स्पष्ट हो जाता है / कतिपय आचार्य इस दंडक प्रकरणको ‘श्री विचारषट्त्रिंशिका 'के नामसे भी संबोधित करते हैं / . २-मंगल शब्दस्य कोऽर्थः-पूर्णतां मङ्गति गच्छति-चा (मङ्गेरलच-सूत्रात् पा० उ० पञ्चमपाद, चरमसूत्र ) मंगति दूरदृष्टमनेन-अस्माद् वेत्ति मंगलम् अथवा मां-धर्म लातीति मङ्गालम् धर्मोपादानहेतुः, अथवा मां गालयति पापादिति मङ्गलं / जिससे पापका नाश हो उसका नाम मंगल / Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] मंगलका प्रयोजन [5 उस बृहत्संग्रहणी ग्रन्थका कद कुछ बड़ा अर्थात् 353 गाथाओंसे अधिक होने के कारण, इस विषयकी और भी संक्षिप्त रचना हो तो बालीवोंको विशेष लाभदायी हो' इस अभिप्रायसे जीवोंके आयुष्य, अवगाहना आदि विषयों पर 273 गाथाओंसे, बारहवीं शताब्दिमें जन्मे हुए, मलधारगच्छोय आराध्यपाद श्रीमान् चंद्रसूरीश्वरजी महाराजने इस संग्रहणीरत्न अथवा अपर-प्रसिद्धनाम 'श्री बृहत्सग्रहणी' नामके ग्रन्थकी रचना की हो ऐसा स्पष्ट समझमें आता है / यद्यपि श्री दडकप्रकरण [लघु संग्रहणी ] आदि ग्रन्थोंकी तरह, इस ग्रन्थमें चौबीस दडकोंके नाम लेनेपूर्वक परिभाषा नहीं की है, परंतु देवादिक चार गति आश्रितकर आयुष्य, शरीर परिमाण इत्यादि प्रथम गाथामें निर्दिष्ट किये द्वारोंका, बहुत सरल और सुन्दर, व्यवस्थित और आकर्षक पद्धतिसे वर्णन किया है। 2. शिष्टाचार पालन __ मंगल करनेका प्रयोजन आदि / . इस 'संग्रहणी' अपरनाम बृहत्संग्रहणी अथवा त्रैलोक्य दीपिका-नामक प्रकरण ग्रन्थके कर्ता वारहवीं शताब्दिमें हुए परमकारुणिक श्रीमान् मलधारगच्छीय श्रीमान् चन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने सकलशास्त्रके निस्यन्द वा नवनीतरूप इस ग्रन्थकी रचना करते प्रारंभमें ही 'नमिउं अरिहंत' इस पदसे अरिहंतको और 'आई' शब्दसे सिद्ध आचार्थादि परम पुरुषोंको नमस्कार किया है। नमस्कार करनेका प्रयोजन क्या ? इस प्रश्नके समाधानमें यह समझनेका है कि आप्तपुरुष किसी भी ग्रंथके प्रारभमें भावमगल अवश्य करते हैं, और वह भावमंगल मुख्यतः इष्टदेवको नमस्कार रुप होता है। यह भारतीय प्राचीन परंपरानुसार पूर्वसे चला आया जो शिष्टाचार है उसका पालन भी होता है। - सर्वज्ञ, श्रीतीर्थकर परमात्मा जैसे पुरुष भी अमृतझरनी, वैराग्यवाहिनी, भव्यात्माओंको संसार सागरसे उत्तीर्ण करनेवाली, सर्वविरति-प्रधान देशनारुप अमोघ मेघधारा बरसाते प्रारंभमें ही 'नमोतित्थस्स'का पदोच्चारण करते हैं। ___ किसी भी प्रकारके विघ्नोंका जिसको संभव होता ही नहीं हैं, इतना ही नहीं लेकिन जो त्रिकालज्ञानी होने के साथ वे सर्वदर्शी पुरुष शुभाशुभ सर्वभावोंको देखते रहते हैं, ऐसे तद्भव मोक्षगामी परमात्मा भी उक्त नमस्कार करनेरुप भावमगल विधिका आचरण करते हैं, इसमें कारण कुछ भी हो-कोई हो तो वह शिष्टाचारके पालनके सिवा अन्य कुछ नहीं है। यह शिष्टाचार पालन अनादिसिद्ध है क्योंकि अतीत कालमें Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ मंगलका प्रयोजन हो गये अनंतज्ञानी और अनागतकालमें होनेवाले अनंत जिनेश्वरदेव, वे सब उक्त शिष्टाचारका पालन अवश्य करनेवाले हैं, तो फिर छद्मस्थ महर्षि आत्माएँ उसी जिनेश्वरके मुखारविंदसे प्रकट हुई सूत्रात्मक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप त्रिपदी और उस पर रचित सारी द्वादशांगके आधार पर भव्यात्माओंके कल्याणके हेतु शास्त्ररचना करें, और ऐसे शुभ कार्यमें इष्टदेवादिको नमस्कार कर नेरूप मंगल करें, इसमें सोचनेका अवकाश भी क्या है एवं हम देख सकेंगे कि प्रायः सकलसाधुशिरोमणि शिष्टपुरुषोंने सिद्धांतादि उन उन ग्रन्थोंके प्रारंभमें जगह-जगह पर मंगलाचरणरूप शिष्टाचारका जो पालन किया .. है वह इसीलिए है कि “शिष्टाचारका पालन यह शिष्टता प्राप्त करनेका हेतु है" ! कहा है कि 'शिष्टानां शिष्टत्वमायाति शिष्टमार्गानुपालनात्' और इसीलिए ही उनकी / शिष्टता भी चमक उठती है / 'महाजनो येन गतः स पन्थाः ' इस कथनके अनुसार महापुरुष जिस मार्गपर चलें वही मार्ग सही है यह समझकर उत्तमपुरुष शिष्टपुरुषोंके मार्गका आचरणं अवश्यमेव करते हैं। इस नियमानुसार इस ग्रंथकर्ताने भी उसका अनुकरण किया है, क्योंकि पुण्यात्माए इष्टदेवादिको किये गये नमस्काररूप नौकासे संसारसागरको ( साथ ही साथ किसी भी कार्यको ) आसानीसे पार कर सकती हैं। अरे ! हम निरतर आवश्यक क्रिया करते समय भक्तिभावपूर्वक उच्चार करते हैं कि इक्को वि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्सबद्धमाणस्स / संसारसागराओ तारेई नरं वा नारिं वा / / भावार्थ-जिनेश्वरोंमें वृषभ समान ऐसे वर्धमानस्वामीको किया गया एक ही नमस्कार अगर नर या नारीको, संसार समुद्रसे पार करता है, तो फिर ग्रन्थकारने सकल अरिहंतादि देवोंको किया नमस्कार क्या फल न दें ! इसीलिए ही नमस्कार करनेवाली आत्मा विघ्नोंकी परम्पराको पार करें यह तो सहज है, क्योंकि अरिहंतदेवको नमस्कार करनेरुप भावमंगल तो इष्टकार्यकी सिद्धि देनेवाला है, यह कथन सर्वमान्य और सुप्रसिद्ध है, और इसीलिए ही वह मंगल ग्रंथके आदिमें अवश्य किया जाता है / कहा है कि 'मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये / ' इसका अर्थ सरल है। इसी बातकी पुष्टि करते हुए भगवान जिनभद्रगणीक्षमाश्रमणमहाराज भी . लिखते हैं कि एकबार नहीं तीनबार मंगल करना जरूरी है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] मंगलका विचारणा [7 जे मंगलमादीए मज्झे पज्जतए य सत्त्थस्स / पढमं सत्थत्था विग्धंपारगमणाय निद्दिछ / "वह मंगल, सूत्रके आदिमें, मध्यमें और ग्रंथके अंतमें भी करना चाहिए / सूत्रार्थकी रचना निर्विघ्नतासे पूर्ण हो यह कारण प्रथम मगलका है "" .. 3. नमस्कारका प्रयोजन इस नमस्कार करनेरूप शिष्टाचारके पालनके बिना किया गया कार्य इष्टसिद्धि नहीं दे सकता, अतः अरिहंतादि, पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेरूप मंगलाचरण सर्वत्र करनेका शास्त्रोंमें बारबार बताया है, इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि किसी भी ग्रंथके प्रारंभसे लेकर परिसमाप्ति पर्यन्त आते विनोंको दूर करने अर्थात् ग्रंथकी निर्विघ्न समाप्ति रूप फलकी सिद्धि के लिए नमस्काररूप मंगल ऋषि-महर्षि-यावत् परमर्षि सभीको यथासंभव अवश्य करना पड़ता है, क्योंकि कल्याणकारी कार्योंमें विघ्न होते रहते हैं / कहा है कि 'श्रेयांसि बहुविध्नानि, भवन्ति महतामपि' / कल्याणकारी कार्योंमें महात्मा पुरुषोंको भी विघ्न आते हैं / साथ ही नमस्कारात्मक मंगल यह विघ्नोपशामक होनेके साथ शास्त्रमें श्रद्धा-आदर: कर्मनिर्जराकी उत्पत्ति और परंपरासे यावत् मोक्षप्राप्ति आदिमें कारणभूत है / इस तरह ग्रन्थकी रचना करना यह भी एक उत्तमोत्तम कल्याणकारी मंगल कार्य होनेसे श्रीमान् ग्रन्थकार महर्षिने प्रारम्भमें ही 'अरिहंताई' इस पदसे अरिहंतादि पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेरूप मंगलका आचरण किया है, ऐसा इस ग्रंथकार महर्षि द्वारा किया गया भावनमस्काररूप ‘भावमंगल' करनेका कारण बताया / * शंका :-आपने ऊपरकी सारी बातें कहकर तात्पर्य यह दिखाया कि विघ्नोंकी शान्तिके लिए ग्रंथके प्रारम्भमें अवश्य मंगल करना चाहिए, इस विधानका तो हमने स्वीकार किया, परन्तु अर्हत् , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओंको उद्देश्य करना चाहिए उसका क्या कारण ! और उनको नमस्कार करनेसे कौनसे फलकी प्राप्ति होती है ? 4. नमस्कार मंत्र क्यों मंगलरूप है ? समाधान :-अर्हत् , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु, ये पंचपरमेष्ठी३. कोई शंका करता है कि आप मंगल करते हैं तो रचना किये हुए वे ग्रन्थ क्या अमंगलरूप है ? तों-नहीं / ग्रन्थ स्वयं मंगलरूप है / Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ नवकारमंत्रकी महिमा उत्तम गिने जाते हैं / विश्वकी महापवित्र व्यक्तियाँ ये पाँच ही हैं। जिस तरह गुण गुणवान् बिना रह नहीं सकते, उसी तरह सारे जैन सिद्धांतका तत्त्व इन पाँचोंमें समाया हुआ है, इसीलिए यह महामंत्र रूप है / जव इष्टसिद्धि हेतु जो चाहे वैसे मंत्र भले ही गिने-बोले परन्तु इस नवकार मत्रसे अधिक कोई मंत्र नहीं है। यदि सापेक्ष भावसे कहें तो अन्य स्तोत्र, मन्त्र-तन्त्रादि तो इस मत्रके प्रकाररूप हैं। इस नवकार मत्रका माहात्म्य जैनशासनमें कूटकूटकर भरा है। यह मन्त्र सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ होनेसे ही श्री भगवतीसूत्र जैसे महान ग्रंथके प्रारम्भमें उसका आदर किया गया है / साथ ही यह परमेष्ठिमंत्र चौदहपूर्वके साररूप है / इसीलिए मंगल है / जिसके लिए कहा है कि 'जिणसासणस्स सारो चउदसपुबस्स जो समुद्धारो। जस्स मणे नवकारो, संसारो तस्स किं कुणई 1 // ' ___ अर्थ :-" चौदह पूर्वमेंसे उद्धृत [ अथवा 14 पूर्वके उद्धार स्वरूप ] जिनशासनका सार, ऐसा नवकार मंत्र जिसके हृदयमन्दिरमें गुंजन करता है, उसे ससार क्या कर सके ?" अर्थात् कुछ भी करने समर्थ नहीं है। फिर भी शिष्टाचार. पालन आदि अनेक कारणोंसे मंगल करनेकी आवश्यकता है। इस सम्बन्धी विशेष वर्णनके लिए 'विशेषावश्यकभाष्य' महाग्रंथ देखें / ___संसारसागरमें डूबती हुई आत्मा, इस नवकार मन्त्रकी ध्यानरूपी नौकासे उद्धार पाती है, इतना ही नहीं किन्तु चाहे कैसे भी दुःखी संगेगमेंसे बचनेके लिए इस नवकार मन्त्रका स्मरण कोई अद्भुत प्रकाश देनेवाला हो जाता है। चौदह पूर्वधर भी मरणान्तकालमें, चौदपूर्वके नवनीत समान नवकार मन्त्रका ही ध्यान करते हैं / इस मन्त्र के प्रभावसे कितनी ही आत्माएँ संसारसागरको पार कर गई और पार करेंगी / कितनी ही आत्माएँ तो संसारके दुःखदायी पाशको इस मन्त्रके स्मरणद्वारा छेदने के साथ आधि, व्याधि और उपाधिरूप ससारव्यथाको नष्ट करके सुखानन्दका अनुभव ले चुकी हैं / कितनी ही आत्माएँ इस मन्त्रके स्मरणरूप प्रबल साधनसे आत्मसिद्धियाँ भी पा रही हैं। यह मंत्र उभयलोकमें अर्थात् इस लोक और परलोकमें हितकारी है / कहा है कि_ 'हरइ दुहं कुणइ सुहं, जणइ जसं सोसए भवसमुदं / ___ इहलोए परलोए, सुहाणमूलं नमुक्कारो // 1 // ' अर्थ :-दुःखको हरता है, सुख देता है, यश उत्पन्न करता है, भवसमुद्रको शोषता है। ज्यादा क्या कहें ? इस लोक और परलोकमें सारे सुखोंका मूल नवकार मंत्र ही है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] नवकार मन्त्र माहात्म्य [9 5. नवकारमन्त्र माहात्म्य यह पंचपरमेष्ठी नवकारका स्मरण गौणरूपसे बाह्य कार्यसिद्धि भी करता है। परन्तु मुख्यतया संसाररूपी व्याधिको मिटाने के लिए मुख्य औषधरूप है। जिस तरह किसान अनाजकी फसल तैयार करने के लिए अनेक प्रकारके बीज बोकर, वृद्धि-विकासके लिए जल सींचता है, उससे उपे अन्नकी प्राप्ति तो होती है ही, लेकिन साथ साथ घास आदिकी प्राप्ति जिस तरह बिना प्रयत्न सहज ही होती है, उसे उत्पन्न करनेके लिए किसी अन्य प्रयत्न करनेकी जरूर नहीं होती। वैसे मोक्षसिद्धि के हेतु स्मरण किये जाते इस मन्त्रसे बाह्य उपद्रव सहज ही दूर हों उसमें सोचने-विचारनेकी कुछ जरूर नहीं / परन्तु शुद्धभावसे त्रिकरणयोगकी एकाग्रतासे आराधित यह महामंत्र मुक्ति सुखका तो अवश्य साधन बनता है / यह मन्त्र किसी भी कार्यके प्रारम्भमें भी गिना जाता है, यह मन्त्र सर्व कल्याणकारी होनेसे जरूरत पड़ने पर किसी भी काल या स्थान पर किसी भी स्थितिमें गिननेकी महापुरुषोंने आज्ञा दी है। जैसे कि भोयणसमये सयणे, विबोहणे पवेसणे भए वसणे / . . पंचनमुक्कारो खलु, समरिज्जा सव्वकालेऽपि // अर्थः-भोजनके समय, शयनके समय, जागते, प्रवेश करते, भयके समय, निवास करते वक्त, ऐसे सर्व समय पर इस पचनमस्काररूप मन्त्रको अवश्य याद करना चाहिए / जिससे इष्टकी सिद्धि प्राप्त हो / इस नवकार मन्त्रके महान प्रभावको सूचित करते हुए एक महर्षि लिखते हैं कि अपुव्वोकप्पतरु, चिंतामणी कामकुम्भकामगवी। जो ज्झायई सयलकालं सो पावइ सिवसुहं विउलं // 1 // नासेई चोरसावय-विसहरजलजलणबंधणभयाई / चिंतितो रुरकस्सरणरायभयाई भावेण // 2 // ___ अर्थः-यह मन्त्र अपूर्व कल्पवृक्ष, चिंतामणि, कामकुम्भ और कामधेनु समान है। जो मनुष्य सदाकाल उसका ध्यान करता है, वह विपुल शिवसुखको प्राप्त करता है। (1) साथ ही भावपूर्वक उसका स्मरण चोर, सिंह, सर्प, जल, अग्नि, बन्धनके भय आदि तथा सं. 2 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ मंगलके प्रकार राक्षस, रण, राज्यादि भयोंका नाश करता है / (2) ____नवकार मन्त्रके बारेमें बहुत लिखा जा सकता है। साथ ही नवकार मन्त्रके प्रभावसे सर्प भी फूलकी मालारूप बन जानेका और तदुपरांत दूसरे अनेक दृष्टांत भी प्रसिद्ध हैं, लेकिन यहां वह सब अप्रस्तुत है। तो ज्यादा अन्य ग्रन्थोंसे जान लेना / 6. सर्वविघ्नविदारक मन्त्र अतः इतना तो स्पष्ट ही है कि ' एसो मंगल निलयो' वचनसे यह मन्त्र सर्व मंगलोंका स्थान है और श्रेष्ठ है, यह सिद्ध होता है। ऐसे ऐसे अनेक कारणोंसे इस पंच-परमेष्ठी महामन्त्रका अनेक परमर्षि-पुरुषोने जिस तरह (प्रायः ) प्रत्येक ग्रन्थके प्रारम्भमें. स्मरण किया है वैसे इस ग्रन्थके रचयिता महर्षि श्री चन्द्रसूरि महाराजने भी उस विघ्नविदारक मन्त्रका प्रारम्भने ही मंगलरूपमें आदर किया है। 7. मंगलके प्रकार यह मंगल दो प्रकारसे हैं। द्रव्य और भाव, इसमें भाव-मंगल, यह अनेक मंगलों मेंसे एक सर्वप्रधान मंगल है। इसीलिए हरएक पूज्य ग्रन्थकारोंने उस भावमंगलका अवश्य 4. किसी एक नगरमें एक श्राविका है। उसका पति मिथ्यादृष्टि है / वर्तमान पत्नीको पुत्र न होनेसे वह अन्य स्त्रीको घरमें लाना चाहता है। किन्तु जबतक एक पत्नी विद्यमान है, तबतक अन्य स्त्रीकी प्राप्ति दुर्लभ होनेके कारण, अपनी पत्नीको मार डालनेका उपाय सोचता है कि किस तरह इसको मार डालूँ ? एक दिन किसी स्थानसे काले रंगके सर्पको पकड़ाकर एक घटमें उस सर्पको बन्द करके उस घटको घरके कोनेमें रख दिया / भोजन करनेके बाद अपनी पत्नीसे कहा कि-कोनेमें रखे घटमेंसे पुष्पमाला ला ? पतिका वचन सुनकर अन्धेरेमें टटोलती और भय दूर करने मनमें नवकार मन्त्रका स्मरण करती हुई वह स्त्री सोचती है कि “अन्धेरेमें किसी जहरीली जन्तुके काटनेसे अगर मेरी मृत्यु होगी तो भी नवकार मन्त्रके प्रभावसे मेरी वैमानिक देवगति होगी' स्त्रीसे स्मरित इस नवकार मन्त्रके प्रभावसे पासमें उपस्थित किसी देवताने घटमें रहे सर्पके स्थान पर पुष्पमाला स्थापित कर दी, उस स्त्रीने भी घटमेंसे उस पुष्पकी मालाको लेकर अपने पतिको दी। पतिको अत्यन्त आश्चर्य हुआ। जिस घटमें सर्प रखा था उसी घटसे पुष्पमाला लेनेके सम्बन्धमें और नवकार मन्त्रके स्मरणके विषयमें सारा वृत्तांत पत्नीसे जानकर पति पत्नीके चरणोंमें पड़ा और मनमें सोचे हुए अपने अशुभ विचारके लिए क्षमा मांगने लगा / फिर उन दो!का संसार सुखी हुआ। [ नवकार कथावली अपभ्रंश ] विशेष जानकारीके लिए नवकार मन्त्र विषयक 'नमस्कार स्वाध्याय' आदि मुद्रित, अमुद्रित अनेक कल्यो, मन्त्रो, यन्त्रो और स्तोत्रोके साहित्यका अवलोकन करना। .. 5. मंगलकी चउभंगी भी पड़ती है, वह गुरुगमसे जान लेना / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] __ सुभूम चक्रवर्ती [ 11 स्वीकार किया है। इष्टदेवको नमस्कार यह भी एक भावमंगलका प्रकार है। और द्रव्यमंगल तों प्रसिद्ध है। उसमें इष्टदेवको भावमंगलरूप किया नमस्कार अवश्य फलसिद्धिदायक है, जिसको हम पहले जान चुके हैं। परन्तु द्रव्यमंगलसे अर्थात् कि किसी भी गुड़-कंसार, दही आदि वस्तुसे किये लौकिक मंगलोंसे, इष्टसिद्धि के लिए की जाती। कार्यसिद्धिमें संशय है। प्रायः प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है कि इष्टसिद्धिके लिए प्रस्थान करनेवाली व्यक्ति दही, आदि अच्छे अच्छे मांगलिक रूपमें माने गये-कहे गये द्रव्योंकापदार्थों का भोजन करके प्रस्थान करने पर भी, अच्छे शकुन लेने पर भी अतिशय आहारादिके कारण मार्गमें ही अजीर्णादि व्याधि हो जानेसे इष्ट कार्यसिद्धि होती नहीं देखी जाती। 8. सुभूम चक्रवर्ती अरे ! एक सामान्य उदाहरण लीजिये। सोचे, वादी और प्रतिवादी दोनों विजय पानेकी आशासे अच्छे अच्छे द्रव्यमंगल करके न्यायालयमें जाने पर भी विजय तो वादी और प्रतिवादी दोमेंसे एककी ही होती है / यह बताता है कि द्रव्यमंगल कार्यसिद्धि करे या न भी करे। चक्रवर्ती छह खण्डोंकी साधना अवश्य करे और उससे सार्वभौमत्व प्राप्त भी हो, छह खण्डोंकी यह साधना उसी चक्रवर्तीकी सार्वभौमत्व सम्बन्धकी उत्कृष्ट मर्यादा ! फिर भी इस मर्यादाका उल्लंघन करके अठारहवें और उन्नीसवें तीर्थकरके बीचके कालमें हुए सुभूम नामके चक्रवर्ती लोभके कारण सातवाँ खण्ड जीतनेको तैयार हुए। सचमुच लोभ सर्व दुःखोंका मूल है / लोभके कारण परवश बने हुए सुभूमने 'जान बुझकर ओखलीमें सिर देने जैसा' धातकीखण्डके भरतखण्डको साधनेका कार्य करनेका प्रारम्भ किया और सोचा कि किसीने जब इस तरह हिंमत नहीं की और मैं करनेको तैयार हुआ हूँ तो सबसे अच्छे मंगल करने के लिए प्रस्थान करूँ और कायसिद्धि पाऊँ / ऐसी मनोगत विचारणा की स्फूरणासे अच्छेसे अच्छे ( सबसे अच्छे ) मांगलिक पदार्थोंका उसने आहार किया। उसके बाद भाट-चारण जयपताका सूचन करती बुलन्द आवाजसे बिरदावली-प्रशस्ति गाने लगे। अनेक मनोहर कार्यसिद्धिके बीजसूचक सौभाग्यवती सन्नारियोंने तिलकादि सब मंगलकार्य भी किये / तदनन्तर छह खण्डोंको साधकर धातकी खण्डके सप्तम भरतखण्डको साधने के लिए उत्सुक हुआ और देवाधिष्ठित चर्मरत्नसे लवणसमुद्र तैरनेके लिए रत्नके तल पर सारे सैन्यको बिठाकर, चर्मरत्नरूपी जहाज जब चलने लगा और थोडी दूर गये, तब यकायक उस रत्नको ढोनेवाले देवोंके मनमें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई कि 'इस रत्नको दूसरे बहुतसे देव उठाते हैं तब मैं क्षणभर विराम-विश्राम ले लूं' ऐसी बुद्धि समकालमें उस रत्नको उठानेवाले सभी देवोंकी होनेसे सर्व विराम लेने गये और उसी समय चक्रवर्तीके अन्य रत्नादिकके कारण उसकी सेवामें रहनेवाले दूसरे सोलह हजारको भी वैसी ही भावना प्रकट हुई, अतः वे भी चर्मरत्नको छोड़कर चले गये। जिससे निराधार बना हुआ चर्मरत्न समुद्र में डूब गया और उसके Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१ साथ ही उसके उपर बैठा चक्रवर्ती सुभूम और उसकी सेना भी डूब गई और मृत्यु शरण हुई। चक्री मरकर नरकमें गया। लोभके वश बने इस चक्रवर्तीने बिना सोचे गलत कदम उठाया और की हुई भूलकी सजा भोगनी पड़ी। सचमुच लोभका अन्त नहीं है। लोभके वश बनी कई आत्माएँ भूतकालमें दारुण-भयंकर दुःख-दुर्गतिमें फंस गई और कई आत्माएँ वर्तमानमें भी फंस रही हैं। जिससे शास्त्रों में कहा है कि 'आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः। कन्दो व्यसनवल्लीनां, लोभः सर्वार्थवाधकः // ' " लोभ सर्व दोषोंकी खान, सद्गुणोंको खा जानेवाला राक्षस, सप्त व्यसनरूप लताका मूल और सर्व सम्पत्तिका प्रतिबन्धक है।" लोभके परवश बने सुभूमकी कार्यसिद्धि तो न हुई किन्तु असंख्य मंगल करने पर भी वापस न आ सका और कालमहाराजकी प्रबल लपेटमें बह गया। अतः कहनेका तात्पर्य यह है कि-द्रव्यमंगलमें कायसिद्धिका संशय है, जब कि तथा प्रकारका भावमंगल अवश्य कार्यसिद्धि करनेवाला है / इसीलिए हमारे शिष्टपुरुष किसी भी कार्यके प्रारंभमें भावमंगल अवश्य करते हैं / अतः ग्रन्थकार भगवानने भी 'भावमंगलरूप' 'भाव नमस्कार' किया। __ वह नमस्कार भी द्रव्य-पदार्थसे और भावसे दो प्रकारके हैं / उस द्रव्यभावनमस्कारकी चउभंगी अन्य ग्रन्थोंसे जानने लायक है। इस प्रकार मंगल करनेका प्रयोजन बतानेके साथ द्रव्य और भाव ऐसे दो भेद जतानेपूर्वक भावमंगलकी महत्ताका दिग्दर्शन कराकर अब मूल गाथाका प्रारंभ किया जाता है नमिउं अरिहन्ताई, ठिइ भवणोगाहणा य पत्तेयम् / सुर-नारयाणं वुच्छं, नर-तिरियाणं विणा भवणं // 1 // उववाय-चवण-विरह, संखं इगसमइयं गमागमणे / / 1-2 / / भावार्थ-अरिहन्तादि पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करके देव एवं नारकीके सम्बन्धमें प्रत्येककी स्थिति, भवन और अवगाहना, साथ ही मनुष्य तथा तियचकी भवनके अतिरिक्त केवल स्थिति एवं अवगाहनाके बारेमें कहूंगा। साथ ही उपपातविरह तथा च्यवनविरह और एक समयमें कितने जीव च्यवित-मृत्यु होते हैं, तथा एक ही समय में कितने जीव उत्पन्न होते हैं ? यह कहते हुए गति एवं आगति द्वार भी कहूँगा। विशेषार्थ-आर्य महापुरुषोंकी प्राचीन पद्धति के अनुसार इस बृहत संग्रहणी-सूत्रके Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] गाथा-१ [13 कर्ता परमोपकारी प्रातःस्मरणीय श्रीमान् चन्द्रसूरीश्वरजी महाराज प्रस्तुत ग्रन्थके प्रारम्भमें 'नर्मिर्ड अरिहंताई' पदसे इष्टदेवको भावनमस्काररूप भावमंगल करते हुए 'श्री संग्रहणी रत्न सूत्र' का आरम्भ करते हैं। राग, द्वेष और मोह नामके दुर्धर शत्रुओंका जिन्होंने निर्मूल नाश किया है, अठारह दूषणोंसे जो रहित हैं, अशोकवृक्षादि. अष्ट-महाप्रातिहार्यकी शोभासे जो विभूपित हैं, चौंतीस अतिशय और वाणीके पैंतीस गुणोंको जो धारण करते हैं, केवलज्ञान [ त्रैकालिक ज्ञान ] के बलसे जिन्होंने लोक और अलोकके समस्त भावोंको हस्तामलकवत् यथार्थरूपमें देखा है ८'अरिहंत' परमात्माको तथा 'अ' शब्दसे ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मोंका सम्पूर्ण क्षय करके, अनन्त ज्ञानादि महान् “अष्टगुणोंको प्राप्त करके जिन्होंने शाश्वत, अव्याबाध, अनन्तसुखके स्थानरूप मोक्ष प्राप्त किया है, अब जिनको १°जन्मजरामरणका अभाव हो गया है। संसारमें पुनर्जन्म लेनेका रहा नहीं है। ऐसे सिद्ध परमात्माओंको, साथ ही ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपोचार और वीर्याचार इन पंच प्रकारके आचारोंको स्वयं पालनेवाले, इन पंचाचारका पालन करनेके लिए अन्य भव्य आत्माओंको उपदेश देनेवाले तीर्थकरादि अतिशयशाली पुरुषों के अभावमें शासनके नायकके समान. 6. भावमंगलका विशेष वर्णन आवश्यादिक बहुतसे ग्रंथोंमें दिया गया है इसीलिए वही देखें / 7. अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि दिव्य-ध्वनिश्चामरमासनं च / भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् // 1 // 8. अरिहन्त किसे कहा जाए ? अरिहन्ति वंदण-नमसणाणि, अरिहन्ति पूय-सक्कारं / सिद्धिगमणं ' च अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति // 1 // अविहं पि य कम्मं अरिभूअं होइ सयलजीवाणं / ते कम्ममरिहन्ता अरिहंता तेण वुच्चति // 2 // [श्री भगवती टीका ] 9. सिद्धके आठ गुण कौनसे ? अथाष्टसिद्धगुणाः :-नाणं च दंसणं चिय, अव्वाबाहं तहेब संमत्तं / अक्खयठिई-अरूवी अगुरुलहू-वीरियं हवई // 1 // 10. रोगमृत्युजराधर्ति हीना अपुनरुद्भवाः / अभावात्कर्महेतूनां दग्धे बीजे हि नाफुरः / / 1 // लो० प्र० दग्वे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे नारोहति भवाङ्कुरः // 1 // [त. भा० सम्बन्धकारिका] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] बृहत्संग्रणीरत्नसूत्र हिन्दी [ गाथा-१ . % 3D गच्छकी धुराको धारण करनेवाले आचार्यपदके 36.5 गुणोंसे विभूषित ऐसे पूज्यप्रवर १२आचार्यदेव, जो १३शासनप्रभावक होते है उन्हें / तथा (वर्तमानमें) ग्यारह अंग, बारह उपांग आदि आगमोंके ज्ञाता, भव्यजनोंको सूत्रार्थके उपदेशक, 1425 गुणोंसे युक्त पाठक प्रवर 11. आचार्यके 36 गुण पंचिंदिय संवरणो 5, तह नवविहबंभचेरगुत्तिधरो 9 / चउविहकसायमुक्को 4, इअ अठारस गुणेहि संजुत्तो 18 / / 1 / / पंचमहव्वयजुत्तो 5 पंचविहायार 5 पालणसमत्थो / पंचसमिओ 5 तिगुत्तो 3 छत्तीसगुणो गुरु मञ्झ // 2 // 18-36. 12. आचार्यके लक्षण इस प्रकार हैं ? सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेटिभूओ अ / गणतत्तिविष्यमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ // 1 // पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पयासंता / आचारं दंसंता, आयरिया तेण वुच्चंति // 2 // 13. आठ प्रभावक नीचे लिखे अनुसार हैं सम्मई सणजुत्तो सहसामत्थे पभावगो होइ / सो पुण इत्थ विसिट्ठो, निदिट्ठो अट्टहा सुत्ते // 1 // 1 पावयणी, 2 धम्मकही, 3 वाई 4 नेमित्तओ 5 तपस्वी य / विज्जा 6 सिद्ध य कई, अठेव पभावगा भणिया // 2 // 14. उपाध्याय शब्दकी व्युत्पत्तिउप-समीपमेत्य अधीयते छात्रा यस्मादिति उआध्यायः [ सम्य० सप्ततिका ] उपाध्यायके 25 गुणद्वादश अंगों तथा बारह उपांगोंका अध्ययन करें और अध्यायन करावें वे उपाध्याय कहलाते हैं / द्वादश अंग-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथांग, आसकदशांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपातिकदशांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत / दृष्टिवाद जो नाम पाक्षिक सूत्रमें भी कहे गये हैं | ___ 'आयारो, सुअगडो, ठाणं, समवाओ, विवाहपन्नत्ति, नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अन्तगडदसाओ, अणुत्तरोववाइअदसाओ, पहावागरणं, विवागसुअं / दृष्टिवाद नष्ट हो जानेसे आन 11 अंग विद्यमान है। और 27 गुणमें 11 अंगको लेते है / Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्संग्रणीरत्न हिन्दी] गाथा-१ [15 उपाध्याय-महाराजको साथ ही स्त्रपरकल्याण साधक, पंच महाव्रत और छठे रात्रिभोजन-व्रतके पालक, छह कायजीवोंके रक्षक, अष्ट प्रवचन मातापालक, बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थिरहित, इन्द्रियविषयोंके निग्रह करनेवाले, परिषह-उपसर्गोंको सहन करनेवाले, संयमयोगके साधक, जिनाज्ञाके अखण्डपालक, इत्यादि सत्ताईस गुणोंसे युक्त साधु महाराजोंके, इस तरह 10818 गुणोंसे युक्त पंचपरमेष्ठीको त्रिकरण शुद्धिपूर्वक नमस्कार करके श्री संग्रहणीरत्न अपरनाम बृहत्संग्रहणी, अथवा हैमकोशमां 11 अंग बताया है-आचारांगं सूत्रकृतं स्थानांगं समवाययुक / पञ्चमं भगवत्यंगं ज्ञाताधर्मकथाऽपि // 1 // उपासकान्तकृदनुत्तरोपयातिकाद् दशाः / प्रश्नध्याकरणं चैव विपाकश्रुतमेव च // 2 // बारह उपांग-औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति चंद्रप्रज्ञप्ति, निरियावलिका, (कल्पिका) कल्यावतंसिका, पुष्किका, पुष्कचूलिका और वृष्णिदशा / सिद्धान्तरूप शरीरके वर्तमानमें ग्यारह अंग और उसके हस्तपादरूप बारह उपांग-ऐसे सिद्धान्तरूप शरीर बना है। इस शरीरको अंगोपांगरूपी और भी ग्रंथ हैं / उसे पढे और पढायें / 11 अंग, 12 उपांग मिलकर 23 गुण हुए और 'चरण सित्तरी' 'करणसित्तरी' ऐसे 2 गुण पुनः जोडनेसे 25 गुण उपाध्याय भगवानके जानना / . 15. उपाध्यायके लक्षण निम्न लिखित हैं. बारसंगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहिओ बुहे / - तं उवइसति जम्हा, उवझाया तेण वुच्चंति // 1 / / 16. साधु महाराजके 27 गुणछन्वय 6 छकायरक्खा 6 पञ्चेदिय लोह 5 निग्गोह खन्ती, 1 भावविसुद्धो 1 पडिलेहणाइकरणे विसुद्धी अ॥ 1 // 1. संजम जोए जुत्तो 1 अकुसलमण- 1 वपण- 1 कायसंरोहो, .... 1 सीआइपीड सहणं च 1 मरणंतुवसग्गसहणं च // 2 // 17. साधु लक्षण.. निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहति साहुणो / . समा य सव्वभूएसु, तमहा ते भावसाहुणो // 1 // असहाए सहायत्तं, करेति मे संयमं करेंतस्स / एएण कारणेणं णमामि हं सव्वसाहूणं // 2 // 18. पंच परमेष्ठीके 108 गुणबारसगुण अरिहंता, सिद्धा अट्ठव सूरिछत्तीस, उवज्झाया-पणवीसं, साहु सगवीस अट्ठसयं // 1 // Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१ त्रैलोक्यदीपिका नामक ग्रन्थके इस ग्रन्थमें वर्णन करने योग्य द्वारोंका संक्षिप्तमें विवरण करूँगा। चौदह राजलोकवर्ती देहधारी सभी संसारी जीवोंका देव, नारकी, तिथंच और मनुष्य इन चार विभागोंमें समावेश हो जाता है। देवोंमें भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक आदि भेद हैं। धर्मा, वंशा, शेला, अंजना, रिष्टा, मघा और माघवती इस तरह सात नरक पृथ्वीमें, सर्व नारकीय जीवोंका समावेश है। जलचर, स्थलचर, खेचर, उरंःपरिसर्प, भुजपरिसर्प, एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यवपंचेन्द्रिय और संज्ञी तिर्यंचपंचेन्द्रिय ये सर्व भेद तिथंच गतिके हैं। मनुष्य भी कर्मभूमि, अकर्मभूमि, तथा अन्तरद्वीपके होते हैं और वे संमृर्छिम और गर्भज, ऐसे भिन्न भिन्न विभागों में विभक्त हैं। इस तरह इन जीवोंका समावेश देव, नारक, मनुष्य और तिथंच ऐसे चार विभागों में होनेके कारण ये चार विभाग [ और उनके उप विभाग ] -इनके आश्रय पर किस जीवकी कितनी आयु स्थिति है ? कितनी अवगाहना और शरीरप्रमाण आदि हैं ? इत्यादी मुख्य 9 और गौण 34 द्वारोंकी परिभाषा एवं 'च' शब्दसे दूसरी भी कुछ उपयोगी और प्रासंगिक जानने लायक परिभाषाएँ ग्रन्थकर्ता करनेवाले हैं जो इस प्रकार हैं -: मुख्य (नौ ) 9 द्वार और गौण 34 द्वार :1. स्थिति-उस, निश्चित भवमें प्रवर्तमान जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट आयुष्य प्रमाण / 2. भवन–देव तथा नरक गतिके जीवों के उत्पन्न होनेके स्थान / 3. अवगाहना-जीवोंका जघन्य [ कमसे कम ] और उत्कृष्ट शरीरप्रमाण / 4. उपपातविरह- एक जीव उत्पन्न होनेके बाद दूसरा जीव कब उत्पन्न हो ? उसके सम्बन्धमें जघन्य और उत्कृष्ट अवधि / 5. च्यवनविरह - एक जीवकी मृत्यु [च्यवन] होनेके बाद दूसरा झीव कब च्यवित हो (मृत्यु हो) उस सम्बन्धमें जघन्योत्कृष्ट अवधि। 6. उपपातसंख्या - देवादिक विवक्षित गतिमें एक समयमें एक साथ कितने जीव उत्पन्न होते हैं वह। 7. च्यवनसंख्या-देवादि गतियों मेंसे एक समय पर कितने जीव एक साथ च्यवित हो (मृत्यु हो) वह / 8. गति-किस किस गतिके जीव मृत्यु पाकर किस किस गति-स्थानकों में जाए वह / Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] गाथा-१ [ 17 9. आगति - देवादिक गतियों में किस किस गतिमेंसे जीव उत्पन्न होते है। इस तरह मुख्य नौ द्वार हुए। वे नौद्वार देव, नरक, तिथंच और मनुष्य इस तरह चारोंगति-आश्रयी वर्णन हेतु नौ गुना चार [ 94 4 = 36 ] छत्तीस द्वार होते हैं; परन्तु मनुष्यों और तियचोंके उत्पन्न होनेके जो स्थान हैं वे उपपातशय्या और नारकोंके नरकावासकी तरह शाश्वत न होनेसे मनुष्य और तिर्यंचके सम्बन्धमें 'भवन' द्वारका विवेचन नहीं किया जाएगा, इसलिए इन दो [ मनुष्यभवन और तिर्यंचभवन ] द्वार [36 मेंसे ] कम करने पर कुल चौंतीस द्वारोंकी व्याख्या इस संग्रहणी ग्रन्थमें की जाएगी / ___ इन चौंतीस द्वारों की सुलभताके लिये सरल कोष्ठक च्यवन संख्या | आगति विरह 1 देव / स्थिति | भवन | अव उपपात | च्यवन | उपपात गाहना | विरह | संख्या 2 नारकी 3 तिर्यंच | 1 / 0 4 मनुष्य भारतीय परम्पराके अनुसार प्रत्येक ग्रन्थके प्रारंभमें मंगल, विषय प्रयोजन और संबंध इसे अनुबन्धचतुष्टय कहनेका नियम है। यद्यपि इस ग्रन्थकारने इन्हें स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कहा, फिर भी हम दूसरी तरहसे सोच लें / ऊपर बताये 34 द्वारोंकी व्याख्या, यह इस ग्रन्थका विषय है। और इन चौंतीस द्वारोंका वर्णन और 'च' शब्दसे प्रासंगिक देवादिकके वर्ण, चिह्न इत्यादि प्रकीर्णक विषय यह अभिधेय है। प्रश्न :- इस ग्रन्थरचनाका प्रयोजन क्या है ? .... उत्तर :- प्रयोजन दो प्रकारका है। एक कर्त्ताके सम्बन्धमें और दूसरा श्रोताके सम्बन्धमें, वे प्रत्येक भी पुनः दो प्रकारके हैं। कर्त्ताका अनन्तरप्रयोजन और १४परम्परप्रयोजन / उसमें ग्रन्थकर्ताका अभिप्रेत अनन्तरप्रयोजन भव्यान्माओंका उपकार करना वह है / ( अर्थात् शुभ कर्मका आश्रव तथा अशुभ कर्मकी निर्जरारूप ) और परम्परप्रयोजनमें मोक्षकी प्राप्ति है। शास्त्रमें कहा है कि 'सर्वज्ञोक्तोपदेशेन यः सत्त्वानाममनुग्रहम् / करोति दुःखतप्तानां, स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् // '. . 19. अनन्तर तथा परम्पर ये दोनों प्रयोजन श्रोताके यथायोग्य घटा लेना / Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१ अर्थ:-संसारके त्रिविध तापसे तप्त, दुःखी बने प्राणियोंको सर्वज्ञभगवान् कथित उपदेश द्वारा जो उपकार करता है, वह शीघ्र मोक्षसुख पाता है। अब ग्रन्थका श्रवण करनेवाले श्रोताके लिये अनन्तरप्रयोजन देवादि जीवोंके आयुष्य आदिकी जानकारी और परम्परप्रयोजन मोक्षकी प्राप्ति है / जिसके लिए कहा है कि'सम्यग्भावपरिज्ञानाद् , विरक्ता भवन्ति जनाः / क्रियासक्ता अविध्नेन, गच्छन्ति परमां गतिम् // '. ___ अर्थ:-जो वस्तु जैसी हो उस वस्तुकी वैसी जानकारी होनेसे विरक्त आत्माएँ संवरक्रियाके योगसे विनरहित परमगति-मोक्षको पाती हैं / ___ इस तरह इस ग्रन्थके प्रणेता श्री चन्द्रसूरि महाराजने भी स्व-परप्रयोजन आश्रयी इस. ग्रन्थकी रचना की है। प्रश्न:- यह ग्रन्थरचना श्रीमान् चन्द्रसूरि महाराजने क्या स्वबुद्धि-कल्पनासे की है या भगवान्की द्वादशांगीके सम्बन्धसे की है ? उत्तर :-सम्बन्ध दो प्रकारका है। उपाय-उपेय ( उपायोपेय ) और गुरुपर्वक्रम, इसमें यह ग्रन्थ वह 'उपाय' और उसमें रहा सर्वप्रकारका तत्त्वज्ञान-रहस्य वह 'उपेय' है। दोनोंके सहयोगसे 'उपायोपेय' सम्बन्ध सूचित होता है / दूसरा गुरुपर्वक्रम, अनन्तज्ञानी परमात्मा महावीरदेवने देव, नारकी आदि जीवोंका आयुष्य, शरीरप्रमाण इत्यादि किस तरह कितना होता है ? यह देव, मनुष्यरूप बारह पर्षदाके समक्ष योजनगामिनी, सुधास्यन्दिनी धीर-गम्भीर वाणीके द्वारा अर्थरूपमें प्रकाशित किया, श्री सुधर्मास्वामी आदि २°गणधर भगवन्तोंने इस अर्थकी द्वादशांगीरूपमें (बारह शास्त्रों )में सूत्ररचना की / तदनन्तर उनकी परम्परामें हुए श्रीमान् आर्यश्याम आदि महर्षियोंने इस अर्थका प्रज्ञापनादि सूत्र-ग्रन्थों में उद्धार किया, और उनमेंसे साररूप बातें ग्रहण की। श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजीने श्री बृहत्-संग्रहणी २'ग्रन्थकी रचना की / यह रचना अधिक 500 गाथा प्रमाण विस्तारवाली होनेसे बालजीवों के बोध हेतु, उससे भी संक्षिप्त करके श्रीमान् चन्द्रसूरिजीने इस अनुवाद किये गये संग्रहणीसूत्रकी रचना होनेसे यह ग्रन्थ भी परम्परासे श्री भगवंतकी द्वादशांगीस्वरूप सूत्ररचनाके साथ सम्बन्ध बताता है। अर्थात् यह ग्रन्थ भगवन्तकी द्वादशांगीके आधार पर रचित है, परन्तु स्वमतिकल्पनासे रचित नहीं है, ऐसा स्पष्ट होता है। इसलिए गुरुपर्वक्रमगुरुकी परम्परारूप सम्बन्ध भी इस ग्रन्थकी रचना करनेमें बराबर रक्षित हुआ है। इस तरह मंगल, अभिधेय, प्रयोजन और सम्बन्ध ये अनुबन्धचतुष्टय जो कि ग्रन्थके प्रारंभमें अवश्य कहना चाहिए, उसका दिग्दर्शन कराया है / [1] ___ अवतरण-जैसा ' उद्देश हो वैसा ही निर्देश' हो सके इस न्यायके अनुसार देवोंके 20. सूतं गणहररइयं / 21. अब भी यह विद्यमान है / Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] गाथा-२ [ 19 स्थितिप्रमुख द्वारोंकी शुरूआत करते ग्रन्थकार भगवान प्रथम चार प्रकारके२२ देवोंमेंसे भवनपति देवोंकी जघन्य स्थितिका अर्धगाथासे वर्णन करते हैं दसवाससहस्साई भवणवईणं जहन्नठिई // 2 // गाथार्थ :-भवनपति देवोंकी जघन्य आयुष्यस्थिति दसहजार वर्ष प्रमाण होती है // 2 // विशेषार्थ-असुरकुमारादि दसों प्रकारके भवनपति देवोंकी तथा उनकी देवियोंकी जघन्य आयुष्यस्थिति दस हजार वर्षकी होती है। इससे न्यून आयुष्यस्थिति भवनपतिनिकायमें नहीं होती। प्रथम भवनपति ‘भवनवसनशीला इति भवनपतयः' अर्थात् भवनों में बसनेवाले 22. प्रश्न–देव अर्थात् क्या ? कारण कि सिद्धान्तमें देव पांच प्रकारके कहे गये हैं तो यहां आप किस देवके सम्बन्धमें वर्णन करना चाहते हैं ? उत्तर-यद्यपि सिद्धान्तमें द्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेव इस तरह पांच प्रकारसे देव कहे गये हैं। उनमें(१) द्रव्यदेव-अर्थात् शुभकर्मके द्वारा देवगतिके संबंधमें आयुष्य-बंध कर दिया हो, वह मनुष्य अथवा तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय जीव / (2) नरदेव-वह सार्वभौम चक्रवर्ती राजा, जिसको चौदहरत्न, नवनिधि तथा छह खण्डोंका स्वामित्व प्राप्त हुआ हो / अन्य मनुष्योंकी अपेक्षा जो पौद्गलिक ऋद्धिमें सर्वोत्तम होते है / (3) धर्मदेव-जो श्रीतारक जिनेश्वरदेवके पावन प्रवचनके अर्थका अनुसरण करनेवाले और उत्तम प्रकारके शास्त्रोक्त आचारको पालनेवाले हैं, वे आचार्य महाराजादि / (4) देवाधिदेव-तीर्थकरनामकर्मके उदयसे जो अपनी सुधासम वाणी द्वारा भव्यात्माओं पर असीम उपकार ... करते हैं वैसी परमपूज्य सर्वोत्तम आत्माए / .. (5) भावदेव-जो विविध प्रकारकी क्रीडा करने में लुब्ध हैं और देवगति नाम-कर्मका उदय और देवायुष्दको भोग रहे हैं वे / प्रथम जो चार देव हैं वे आपेक्षिक देव हैं। परंतु यहां तो उपर बताये अनुसार भावदेव ही अभिप्रेत हैं / अर्थात्'दीव्यन्तीति देवाः स्वच्छन्दचारित्वात् अनवरत क्रीडासक्तचेतसः क्षुत्पिपासादिभित्यिन्तमाघ्राता इति / द्योतन्ते वा भास्वरशरीरत्वादस्थिमांसासूक्पबन्धरहितत्वात् सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरत्याच्च देवाः // 'जो स्वच्छन्दरूपसे निरन्तर क्रीड़ामें आसक्त चित्तवाले हैं, जिनको क्षुधातृवा बहुत कम लगती है, देदीप्यमान और अस्थि मांस-रुधिरादि धातुओंसे रहित वैक्रिय शरीर होनेके साथ जो सर्वा गसुन्दर हैं, वे ही देव कहलाते हैं, और यहाँ वैसे ही देवोंकी व्याख्याका प्रकरण है / Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-३-४ वे भवनपति कहलाते हैं; यद्यपि असुरकुमार प्रथम निकायके देव २३बहुलतासे स्वकायमान प्रमाणवाले परमरमणीय चारों ओर भित्यादि आवरण रहित खुले महामण्डप होते हैं उनमें रहनेवाले हैं, भवनों में तो क्वचित् निवास करते हैं और शेष नागकुमारादि निकायके देव प्रायः भवनों में विशेषतः रहते हैं और कदाचित् आवासों में रहते हैं, तथापि सामान्यतः . विशेषतया भवनों में बसनेवाले होनेसे वे भवनपति देवोंके रूप में वर्णित हैं। [2] अवतरण:-निम्न दो गाथाओंसे भवनपति देव-देवियोंकी उत्कृष्ट आयु-स्थितिका वर्णन .. करते हैं चमर-बलि सारमहिअं, तद्देवीणं तु तिन्नि चत्तारि / पलियाई सड़ाई, सेसाणं नव-निकायाणं // 3 // दाहिण-दिव-पलियं, उत्तरओ हुँति दुन्नि देसूणा / तद्देवी-मद्धपलियं, देसूणं आउमुक्कोसं / / 4 / / गाथार्थ :-चमरेन्द्र और बलींन्द्रका अनुक्रमसे सागरोपम तथा सागरोपमसे कुछ अधिक उत्कृष्ट आयुष्य / उन दोनों इन्द्रोंकी देवियोंका व्रमसे सादेतीन पल्योपम तथा साढ़ेचार पल्योपम, शेष रहे नौ निकायोंके दक्षिण दिशामें रहे भवनपति देवोंका डेढ़ पल्योपम और उत्तरदिशाके भवनपति देवोंका कुछ न्यून दो पल्योपम और उनकी देवियोंका अनुक्रमसे आधा पल्योपम और कुछ न्यून एक पल्योपम-प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य है // 3-4 // विशेषार्थ:-भवनपति देव दस प्रकारके हैं, जो बात 19 वी गाथा-प्रसंग पर ग्रन्थकार कहनेवाले हैं / भवनपतिकी उन दसों निकायोंमें दक्षिण दिशाकी तरफका और उत्तरदिशाकी 23. प्रश्न: क्या स्वर्गवास प्राप्त कोई भी जीव मनुष्यअवतारमें शीघ्र ही अवतरित हो सकता है ? उत्तर:-स्वर्गलोक अर्थात् देवभूमिमें गये हुए जीव कमसे कम दस हजार वर्षकी जघन्यस्थिति भोगे बिना निश्चयरूप मरता नहीं / आजकल 'अमुक आत्मा देवलोक में गई' ऐसा लोग कहनेको तैयार होते हैं और उन्हीं स्वर्गमें गये हुओंका जन्म तुरंत ही अमुक स्थान पर अमुकके वहाँ हुआ इत्यादि भविष्याभिप्राय सम्बन्धमें चर्चाका उहापोह अखबारोंमें भी छपता है, परन्तु यह बिलकुल अज्ञानताका मिथ्या प्रलाप है। यदि उनका 'स्वर्गगमन', वह देवलोक स्थान समझकर कहा जाता हो तो उस देवलोकमें जानेवाले जीवको देवशय्यामें उत्पन्न होनेके बाद कमसे कम दस हजार वर्ष तो रहना ही पड़ता है। वैसी भवनपति या व्यंतरकी जातिमें उत्पन्न हआ हो तो, मनुष्यरूपमें तुरन्त कहाँसे जन्म ले सके ? हाँ, मनुष्यलोकमेंसे यदि उसने पूर्वमें मनुष्यगतिके योग्य आयुष्यादिका बन्ध पड़ा हो तो मनुष्यभवमें किसी भी स्थानपर वह जीव उत्पन्न हो सके यह बात संभवित मानना योग्य है, परन्तु मनुष्यभवमेंसे स्वर्गमें गई आत्मा मृत्यु पाकर तत्काल (दस हजार वर्ष * पहले) ही मनुष्यस्वरूप जन्म ले सके, इस बातको परमतारक श्री सर्वज्ञभगवन्तका सिद्धांत मान्य नहीं रखता / Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] गाथा 3-4 [21 तरफका, इस तरह हरएक निकायमें दो दो विभाग जोड़ (युग्म ) में रहे हैं। इस तरह दसों निकायोंके मिलकर बीस विभाग हैं। प्रत्येक विभागके मध्यमें इन्द्रका एक एक निवास है। इस प्रकार बीस विभागके मिलकर कुल बीस इन्द्र भवनपति-निकायके कहे हैं। उसमें पहले असुरकुमार निकायमें दक्षिण दिशाके विभागमें रहनेवाले असुरकुमार देवोंके अधिपति चमरेन्द्रका उत्कृष्ट आयुष्य एक सागरोपमका है। उसी असुरकुमार निकायकी उत्तरदिशाके इन्द्र-बलीन्द्रका उत्कृष्ट आयुष्य एक सागरोपमसे कुछ विशेष है। चमरेन्द्रकी इन्द्राणीका उत्कृष्ट आयुष्य साढेतीन २४पल्योपमका है और बलीन्द्रकी देवीका उत्कृष्ट आयुष्य साढेचार पल्योपमका है। इस तरह पहले निकायके दक्षिणेन्द्र तथा उत्तरेन्द्रकी आयुष्यस्थिति कही। शेष नौ निकायके दक्षिणेन्द्रों तथा उत्तरेन्द्रोंकी स्थिति कहते हैं / दक्षिणदिशाकी तरफके नवों निकायों के धरणेन्द्र-प्रमुख नवों इन्द्रोंका उत्कृष्ट आयुष्य डेढ़ पायोएमका जाने, अर्थात् उनमेंसे प्रत्येक इन्द्रकी आयु-स्थिति समान है। इस तरह उत्तरदिशाकी तरफके नवों निकायों के भूतानन्देन्द्रप्रमुख नवों इन्द्रोंकी उत्कृष्ट आयुष्य स्थिति देशे अर्थात् कुछ न्यून दो पल्योपमकी जाने। भवनपति निकायके देव-देवियोंके जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्यका यंत्र असुरकुमार निकाय दिशाके देव-देवी / जघन्य-आयुष्य / उत्कृष्ट-आयुष्य दक्षिण दिशाके देवका | दस हजार बर्ष 1 सागरोपम ,, दिशाकी देवीका 33 पल्योपम | उत्तर दिशाके देवका 1 सागरोपमसे कुछ अधिक दिशाकी देवीका | 43 पल्योपम दक्षिण दिशाके देवका दस हजार वर्ष / 13 पल्योपम ,, दिशाकी देवीका 3 पल्योपम उत्तर दिशाके देवका देशे न्यून दो पल्योपम ,, दिशाकी देवीका | ,, ,, एक पल्योपम नागकुमार आदि नव निकाय - 24. हरएक निकायका पर्यालोचन करेंगे तो देवोंसे देवियोंका आयुष्य बहुत कम मालूम होगा / इसका कारण सोचते लगता है कि देवलोक यह भोगलोक है, अतः उत्कृष्टायुषी देवोंके जीवनकाल दरम्यान अनेक नूतनतम देवियोंके संयोग और वैषयिक सुखोंके भोगके लिए वह आवश्यक होगा और उसके द्वारा देव पूर्वके पुण्यको भोग द्वारा समाप्त कर डालते हैं / Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 3-4 साथ ही दक्षिणदिशाके धरणेन्द्र प्रमुख नवों इन्द्रोंकी देवियोंका उत्कृष्ट आयुष्य आधे पल्योपमका है। उत्तरदिशाकी तरफके भूतानन्देन्द्र-प्रमुख नवों इन्द्रोंकी इन्द्राणियोंका आयुष्य देशे न्यून एक पल्योपमका जाने / इस तरह उस उस निकायमें रहनेवाले इन्द्र और इन्द्राणीके सिवा अन्य भवनपति देवों तथा उनकी देवियोंका जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुष्य उपलक्षणसे पूर्वोक्त कथनानुसार यथायोग्य समझ लें / [3-4] peacoasacacahacaracasacos है पल्योपम तथा सागरोपमका सविस्तर स्वरूप SaceaewwwREPROMOREPcence Percepoj सूचना-इस ग्रन्थमें भवनपति आदि देवोंके आयुष्यके प्रसंग पर तथा अन्य पदार्थोंके विवरणके प्रसंग पर पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, पुद्गल-परावर्त आदि शब्दोंका उल्लेख आता है, परन्तु उनको समझानेवाली मूल गाथाएँ इस चन्द्रिया संग्रहणीमें नहीं हैं। ___ यद्यपि सामान्यतः असंख्यातां वर्षका एक पल्योपम और दस कोडाकोडी पल्योपमका एक सागरोपम होता है / परन्तु असंख्य संख्या कितनी बड़ी है और पल्यकी उपमाके द्वारा और सागरकी उपमाके द्वारा वे काल प्रमाण कैसे लाया जाता है उसे समझना अत्यन्त जरूरी होनेसे ग्रन्थान्तरसे उसका विस्तृत स्वरूप यहाँ दिया जाता है / . सर्वसे अल्प [ जघन्यमें जघन्य ] काल एक समयका है जिसे सर्वज्ञ भगवन्त ही जान सकते हैं। और उसी अत्यन्त सूक्ष्मकालको 'समय' कहा जाता है। एक निमेष [ आँख बन्द करके खोलने जितना समय ] मात्रमें असंख्याता समय व्यतीत होता है, ऐसा सर्वदर्शी परमर्षि पुरुषोंने प्रकाशित किया है। महानुभावो ! सोचो, एक निमेषमात्र में असंख्याता समय चला जाए तो समयरूप काल कितना सूक्ष्म होगा ? यह बात सामान्य बुद्धिवालोंको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है, परन्तु वीतराग परमात्माओंका वचन अन्यथा होता ही नहीं है। " वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न ब्रुवतेक्वचित् / यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् // " अर्थ _" रागद्वेष रहित सर्वज्ञ परमात्मा कदापि, असत्य प्रतिपादन करनेके कारणोंसे रहित होनेसे असत्यका प्रतिपादन करते ही नहीं, इसलिए उनका वचन "यथार्थ-सच है।" 25. आजके वैज्ञानिक एक मिनटके करोड़वें भागका ज्ञान रखते हैं तो क्षणभर विचार करें कि सामान्य मानव जड़यंत्रकी मददसे मिनटका करोड़वाँ भाग समझ सकें, तो त्रिकालदर्शी पुरुष उससे अति सूक्ष्म समयको ज्ञानसे जानें और कहें तो उसमें शंकाको जरा भी स्थान नहीं है / Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी] गाथा 3-4 [23 .यह काल वह द्रव्य है तथापि प्रदेशों के समुदायरूप न होनेसे उसे धर्मास्तिकायकी तरह 2 अस्तिकाय कहा नहीं है / वास्तविकतासे सोचने पर यह काल, भेदों के अभाववाला है। अतः कालके भेद नहीं हैं, तो भी निश्चय और व्यवहार रूपमें दो भेद शास्त्रों में कहे हैं / गत्युपकारक धर्मास्तिकाय और स्थित्युपकारक अधर्मास्तिकायकी तरह यह काल द्रव्य भी उपकारी है। और इसी बातको श्री तत्त्वार्थसूत्रके पांचवें अध्यायमें 'वर्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ' इस सूत्र पर समर्थ टीकाकार श्री सिद्धसेनगणि महाराजने सविस्तर व्याख्यासे सिद्ध की है। जिसका स्वरूप प्रारंभके अभ्यासीके लिए अति कठिन होनेसे यहाँ नहीं दिया है। जिज्ञासुओंको उसमें देख लेना आवश्यक है। यहाँ तो व्यावहारिक काल दर्शानेका प्रयोजन होनेसे व्यावहारिक कालका स्वरूप ही संक्षेपमें दिया है। व्यावहारिक काल अर्थात् क्या ? कहा है कि 'योतिः शास्त्रे यस्य मानम् , उच्यते समयादिकम् / . स व्यावहारिककालः, कालवेदिभिरामतः // '' यह व्यावहारिक काल २"समयसे लेकर शीर्षप्रहेलिका (संख्य ), असंख्य और अनन्त तक अथवा शीर्थप्रहेलिकासे पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, कालचक्र, पुद्गलपरावर्तादि अनेक प्रकारसे है। 27. तस्मात् मानुषलोक-व्यापी इह कालोऽस्ति समय एक इह / एकत्वाच्च स कायो, न भवति कायो हि समुदायः // 1 // 'समयाद्याश्च कालस्य, विशेषाः सर्वसंमताः / जगत् प्रसिद्धाः संसिद्धाः, सिद्धान्तादिप्रमाणतः // 1 // ' 'लोगाणु भाव-जणिअं जोइस-चक्कं भणंति अरिहंता / सब्वे कालविसेसा, जस्स गइ विसेसनिष्पन्ना' [ज्योतिष्करंडक] ‘लोकानुभावतो ज्योतिष्चक्रं भ्रमति सर्वदा / नृक्षेत्रे तद्गतिभवः, कालो नानाविधः स्मृतः // ' 'सूर्यादिक्रियया व्यक्तोकृतो नृक्षेत्रगोचरः / गोदोहादिक्रियानिऱ्या पेक्षोऽद्धाकाल उच्यते // ' 'यावत्क्षेत्रं स्वकिरणैश्चरन्नुद्योतयेद्रविः / दिवसस्तावति क्षेत्रे परतो रजनी भवेत् // ' [लोकप्रकाश] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 3-4 यह व्यावहारिक काल मनुष्य क्षेत्रवर्ती तिर्छ 4580000 पैंतालीस लाख योजन प्रमाण और ऊर्ध्वाधः 1800 योजन-प्रमाण क्षेत्रमें होनेका शास्त्रों में प्रतिपादन किया है / व्यावहारिककालके सम्बन्धकी इस मर्यादाका कथन इसीलिए है कि जिस क्षेत्रमें सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिष्चक्र चर होनेके साथ अपनी देदीप्यमान किरणोंसे प्रकाश देते हैं, उस क्षेत्रमें व्यावहारिककी। गिनती करनी है और समय आदिक सर्वकालको करनेवाला चर सूर्य ही है, इसीलिए उसे आदित्य कहा जाता है। श्री भगवतीसूत्र में प्रश्न हुआ है कि-' से केण?गं भंते ! एवं बुच्चई (सूरे) आइच्चे सूरे ? गोयमा ! सूरादिया णं समयाइ वा आवलियाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ वा अवसप्पिणीइ या से तेण?णं जाव आइच्चे / ' (पंचमांग-श्री भगवतीजी श० 12, उ० 6 ) शंका-कालका क्षेत्र ऊपर अनुसार अगर मर्यादित है तो देवलोक आदि अन्य , स्थानों में देवों आदिके आयुष्यका प्रमाण किस अपेक्षासे गिने ? क्योंकि उन स्थानों में व्यावहारिक कालका तो अभाव होता है। उत्तर–देवलोक आदि स्थानोंमें वर्तित जीवोंके आयुष्य आदिकी गणना ऊपर बताये मर्यादित क्षेत्रमें वर्तित व्यावहारिक कालसे ही करनी है। वहाँ सूर्य-चन्द्रके परिभ्रमणके अभावमें समय, आवलि, मुहूर्त, दिवस, मास, वर्ष आदि कालकी उत्पत्ति नहीं है; परंतु यहाँ वर्तित व्यावहारिक कालसे ही वहाँके जीवोंका आयुष्य आदि गिननेका शारों में अनेक स्थलों पर प्रतिपादन किया है। देवलोकमें सूर्य-चन्द्रादिके अभावमें अन्धकार हो ऐसी शंका करनेकी भी जरूरत नहीं है, क्योंकि देवोंके दिव्य विमानोंमें रहे मणिरत्नोंकी अद्भुत कांति, साथमें देवोंका अपना भी पुण्यप्रकर्ष [ उद्योतनामकर्मका उदय होता है कि वहाँ सर्वदा उद्योत ही होता है / यहाँ साथमें इतना समझना आवश्यक है कि ऊपर बताये मर्यादित क्षेत्रमें जिस तरह व्यावहारिक काल होता है उसी तरह नैश्चयिक (वर्तनापरिणाम-स्वरूप ) काल उस मर्यादित क्षेत्रमें और अन्यत्र देवलोक आदि सर्वस्थानोंमें भी होता है। ___ यह व्यावहारिक काल २८अतीत, अनागत और वर्तमान भेदको लेकर तीन प्रकारका है। उसमें अतीत और अनागतकाल अनंतसमयात्मक है / 28. 'अवर्धकृत्य समयं, वर्तमानं विवक्षितम् / .. भूतः समयराशियः कालोऽतीतः स उच्यते // ' 'अवधीकृत्य समयं वर्तमानं विवक्षितम् / ___ भावी समयराशियः कालः स-स्यादनागतः // ' 'वर्तमानः पुनर्वर्तमानकसमयात्मकः / असौ नैश्चयिकः सर्वोऽप्यन्यस्तु व्यावहारिकः // ' [ काललोकप्रकाश, सर्ग 28] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयादिकालका स्वरूप गाथा 3-4 [25 वर्तमानकाल एक समयरूप ही है, क्योंकि कालकी वर्तना एक समयरूप व्यवहारवाली है। प्रत्येक द्रव्य-पर्यायों में रहनेवाली तथा एक समय जितने ही कालमें स्वसत्ताका अनुभव करनेवाली जो वर्तना वह उत्पन्न होते और विनाश पाते भावोंके प्रथम समय सम्बन्धविषयक संव्यवहाररूप है / और वह तंदुल (चावल)के विकारवत् अनुमानसे समझने योग्य है / तात्पर्य यह है कि उत्पन्न होते और व्यय पाते हुए पदार्थोंके प्रथम समयका व्यवहार अर्थात् जिस समय पर पदार्थकी उत्पत्ति हुई तथा जिस समय विनाशभाव हुआ उस प्रथम समय पर ही वर्तनाका संव्यवहार है। वह वर्तनाकाल, समय प्रमाण अतिसूक्ष्म होनेसे सर्वज्ञ पुरुषोंसे ही ग्राह्य है / जिसके कारण कहा है कि__'बिसस्य बाला इव दह्यमाना, न लक्ष्यते विकृतिरिहाग्निपाते / तां वेदयन्ते मित सर्वभावाः, सूक्ष्मो हि कालोऽनुमितेन गम्यः // 1 // अर्थ :-कमल नालके तंतु * अग्नि-संयोगसे दहमान होने पर भी हमें ज्ञात नहीं होता, साथ ही उसका विकाररूप जो भस्म है वह भी चर्मचक्षुसे दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, तथापि सर्व भावोंको जाननेवाले सर्वज्ञ-परमात्मा तो उन विकारादिको जानते हैं। उसी तरह सूक्ष्मकालको सर्वज्ञ तो जानते ही हैं, लेकिन हमारे लिए तो वह अनुमानसे ही जानने योग्य है। उस सूक्ष्मसे सूक्ष्म कालका ज्ञान कराने के लिए शास्त्रमें नीचे अनुसार दृष्टांत दिये हैं। निमेष (आँखकी पलक) मात्र होने में जितना समय लगता है, उस कालके असंख्यातभागको समय कहते हैं, अर्थात् आँखकी एक पलकमें असंख्यात समय होते हैं / - इसके लिए दृष्टान्त दिया है कि किसी २४तरुण पुरुषने किसी अतिजीर्ण वस्त्रको शीघ्रतासे फाड़ डाला, उस समय उस वस्त्रके एक तन्तुसे दूसरे तन्तुको फाड़नेमें असंख्य२९.. 'जीर्ण पटे भिद्यमाने, तरुणेन बलीयसा / कालेन यावता तन्तुस्त्रुटत्येको जरातुरः // ' 'असंख्येयतमो भागो, यः स्यात्कालाय तावतः / समये समयः सैष, कथितस्तत्त्वेवदिभिः // ' 'तस्मिँस्तन्तौ यदेकस्मिनपक्ष्माणि स्युरनेकशः / प्रतिपक्ष्म च साताः, क्षणच्छेद्या असङ्ख्यशः // ' 'तेषां क्रमात्छेदनेषु भवन्ति समयाः पृथक् / असंख्यैः समयैस्तत् स्यात्तन्तोरेकस्य भेदनम् // ' [लोकप्रकाश, सर्ग 28 ] ' एवं पत्रशतोद्वेधे चक्षुसन्मेष एव च / भाव्याश्चपुट्टिकायां चासंख्येयाः समया बुधैः // ' [ काललोक ] सं. 4 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी * [ गाथा 3-4 AAAAAAAAAM समय बीता होता है तो कल्पना करो कि उस जीर्णवस्त्र को पूरा फटने में कितना समय बीता होगा? अथवा दूसरी तरहसे सोचे तो सैकड़ों कमलके पत्रोंको कोई बलवान् पुरुष स्वसामर्थ्यसे तीक्ष्ण-भाला उठाकर उन सौ पत्रोंको एक साथ छेद डाले, उसमें वह भाला एक पत्तेको छेदकर दूसरे पर्णमें गया, उतनेमें असंख्यात समय चला जाता है। तब छेदनेवालेको स्थूला से ऐसा ही लगता है कि मैंने एक ही साथमें पत्र छेद किया, परन्तु सूक्ष्मदृष्टिवाले सर्वज्ञ उसमें असंख्यात समय व्यतीत हुआ है, ऐसा ज्ञानसे जान लेते हैं / ऐसा सूक्ष्मसे सूक्ष्म काल वह समय है। पूर्व कथित वर्णनवाले समय चौथे जघन्ययुक्त असंख्याताकी संख्या जितने होते हैं, तब एक आवलिका होती है। ऐसी 256 आवलिका जितना आयुष्य सूक्ष्म-निगोदादि जीवोंका होता है, इससे अल्प आयुष्य किसी भी जीवका होता ही नहीं है। इस कारण 256 आवलिका जितना काल एक क्षुल्लक-भवरूप आँका जाता है। एक मुहूर्तमें ऐसे 65536 क्षुल्लक भव होते हैं, क्योंकि एक मुहूर्तमें 301,67,77,216 आवलिकाएँ होती हैं। 4446 3451 आवलिका जितना काल एक प्राण या श्वासोच्छ्वास कहलाता है। यहाँ श्वासोच्छ्वास नीरोगी, सुखी तथा युवावस्थाको प्राप्त हो ऐसे पुरुषका लेना, परन्तु रोगी या दुःखी मनुष्यका श्वासोच्छ्वास नहीं लेना; क्योंकि उसके श्वासोच्छ्वास अनियमितरूपसे चलते होते हैं। ___उच्छ्वासको ऊर्ध्वगमनशील और नीचे रखने पर अधोगमनशील ३२निःश्वास समझना। यह उच्छ्वास और निःश्वास दोनों मिलकर प्राण [ श्वासोच्छ्वास ] होता है। [ इस एक श्वासोच्छ्वासमें अथवा एक प्राणमें 17 से अधिक 17 335. क्षुल्लक भव होते हैं।] ऐसे सात प्राण जितने कालको 1 स्तोक कहा जाता है, ऐसे 7 स्तोंकोंसे [49 प्राणोंसे ] 1 लव होता है। ऐसे 77 लव हों तब 1 मुहूर्त हुआ कहा जाता है। ये मुहूर्त 30. उक्तं च-एगा कोडी सतसट्ठी लक्खा सत्तहुत्तरी सहस्सा य / दोय सया सोलहिया आवलिया इग मुहुत्तम्मि // 31; 'हट्टस्स अणवगल्लम्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो / _एगे उसास नीसासे एस पाणुत्ति बुच्चई // 32. 'सोऽन्तर्मुख उच्छ्वास: ' 'बहिर्मुखस्तु निःश्वासः' / [ हैमकोष] 33. कालका विशेष वर्णन 'तंदुलवैचारिक, काललोक, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरंडक' इत्यादि ग्रन्थोंमें विस्तारसे दिया है / जिज्ञासु वहाँ देखे / Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयादिसे लेकर शीर्षप्रहेलिका तककी संख्या गाथा 3-4 [ 27 , ३४चन्द्रमुहूर्त और सूर्यमुहूर्त ऐसे दो प्रकारके हैं। इस मुहूर्तमें एक समय कम होने पर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहलाता है और लघुमें लघु (जघन्य ) अन्तर्मुहूर्त 9 समयका होता है। 10 समयसे लेकर उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त में एक समय न्यून पर्यन्त मध्यम अन्तर्मुहूर्त गिना जाता है। अतः यह 'अन्तर्मुहूर्त असंख्य प्रकारसे' है ऐसा सिद्धान्तोंमें कहा गया है, यह बराबर घटित होता है / 30 मुहूर्त [60 घडी ]का 1 सूर्यदिवस होता है, ऐसे 15 सूर्यदिवसका 1 सूर्यपक्ष होता है और 15 चान्द्र-दिवसका भी 1 चान्द्र-पक्ष कहा जा सकता है, जिसे व्यवहारमें पक्ष-'पखवाड़ा' कहते हैं। ऐसे दो पखवाड़ोंसे एक मास होता है, 12 मासोंसे १-सूर्य-संवत्सर होता है, पाँच सूर्यसंवत्सरोंका 1 युग होता है, 84 लाख सूर्यसंवत्सरोंसे 1 पूर्वाग, 84 लाख पूर्वांगोंसे 1 पूर्व तथा 84 लाख पूर्वोसे 1 त्रुटितांग होता है, [इतना आयुष्य श्री ऋषभदेव स्वामीका था।] 84 लाख त्रुटितांगोंसे 1 त्रुटित, 84 लाख त्रुटितोंसे 1 अडडांग, ऐसे चौरासी लाख चौरासी लाखसे गुना करते हुए शीर्षप्रहेलिका तक आये। जैसे कि-3'अडडांग, 3 अडड, अववांग, अवव, हुहुकांग, हुहुक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका / इस तरह शीप्रिहेलिका 3°तककी संख्या हुई। पश्चात् असंख्यात वर्षका एक पल्योपम होता है, जिसका स्वरूप इस प्रकार है। . 34. चन्द्रमुहूर्त के बाद रात्रिके मुहूतों के नाम अलग-अलग प्रकारवाले हैं, उनका तथा सूर्यायनदक्षिणायनादि प्रकारोंका विस्तृत स्वरूप 'काललोकप्रकाश में देखें / 35. “पुव्वतुडियाडडाववहुहूय, तह-उप्पले य-पउमेय / अट्ठावीसुं च ठाणा, चउणउ यं होइ ठाण-सयं // " .36. ज्योतिएकरण्डकादि अन्य ग्रन्थोंमें इस संख्याके नाम अलग प्रकारसे कहे हैं / . 37. आजके प्रचलित गणितकी तरह जैनशास्त्रमें 18 . अंक पर्यन्त ही संख्या या उनके नाम नहीं हैं, परन्तु 194 अथवा मतान्तरसे 250 अंक तककी संख्याएँ उनके नामोंके साथ हैं। उनमें एक मतके अनुसार शीर्षप्रहेलिकाका अंक 7582632532730102411579735699756964062189 66848080183296, इन 54 अंकों पर 140 शून्य लगाने जितना होता है, अर्थात् कुल 194 अंक-प्रमाण हैं / इस तरह माथुरीवाचना-प्रसंग पर अनुयोगद्वारमें कहा गया है। श्री भगवतीजी, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति और स्थानांगादि आगम ग्रन्थोंमें यही अभिप्राय व्यक्त हुआ है। . जब कि अन्य ज्योतिष्करण्डकादिग्रन्थोंमें उससे भी बृहत् संख्या गिनवाई है, अर्थात् 70 अंकोंको 180 शून्य लगानेसे 250 अंकप्रमाण संख्या प्राप्त होती है / जो यह रही-१८७९५५१७९५५०११२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 28] [ गाथा 3-4 उपल्योपमके छह प्रकार हैं-१. उद्धारपल्योपम, 2. अद्धापल्योपम तथा 3. क्षेत्रपल्योपम और प्रत्येकके सूक्ष्म और बादर ऐसे दो भेद हैं ऐसे कुल छह भेद हुए / उसी प्रकारसे 3“सागरोपमके भी छह प्रकार समझें, जिन्हें आगे बतलाया गया है। समयसे लेकर पुद्गल-परावर्तनकी कालसंख्याका कोष्ठक निर्विभाज्य काले प्रमाण ... ... .. ... 1 समय 9 समयका .... ..... ... ... 1 जघन्य अंतर्मुहूर्त ४°चौथा जल्यु० असंख्याताकी संख्या प्रमाण समयोंकी . 1 आवलिका 256 आवलिकाका ... ... ... 1 क्षुल्लक भव. .. 2223 3334 आवलिकाका ... ... ... 1 उच्छ्वास अथवा निःश्वास 4446 3456 आवलिकाका अथवा साधिक 17 / 1 प्राण (श्वासोच्छ्वास) क्षुल्लक-भवन अथवा उच्छ्वास निःश्वास मिलकर 7 प्राणोंका 1 स्तोक 7 स्तोकसे ___... 1 लव 383 लवोंसे (24 मिनटकी जो घड़ी होती है वह) . . 1 घड़ी 5954190096998134307707974654942619777476572573457186816 ( कुल 70 अंक संख्या) और ऊपर 180 शून्य रखें, जिससे 250 अंक संख्या आती है इस तरह 'वलभी' (वलभीपुर नगरमें हुई ) वाचनामें कहा गया है / / इसके अतिरिक्त दूसरोंने भी दूसरी बहुतसी अलग-अलग रीतियाँ बताई है, इसके लिए 'श्री महावीराचार्यकृत-गणित० संग्रह' आदि देखनेका अनुरोध है / 38. पल्य–अर्थात् बाँसकी सलाइयोंसे बना प्याला अथवा पल्य अर्थात् कुआं, अथवा गड्ढा भी कहा जाय, उस उपमासे दिया जाता प्रमाण ‘पल्योपम-प्रमाण' कहा जाता है। 39. सागरोपम–अर्थात् सागर (समुद्र)का पार जिस तरह नहीं पाया जाता, उसी तरह इस प्रमाणका भी पार नहीं पा सकते, जिससे सागरकी उपमावाला ऐसा काल वह सागरोपम काल कहा जाए / 40. चौथे जघन्ययुक्त असंख्याताकी जो संख्या है वह संख्या-प्रमाण समयोंसे मिलकर 1 आवलिका होती है, 256 आवलिकाका 1 क्षुल्लक-भव होता है, 4456 3459 आवलिका-कालसे 1 स्तोक होता है, 7 स्तोकोसे 1 लव होता है, 77 लवोंसे एक मुहूर्त होता है / साथ ही एक मुहूर्तमें 65536 क्षुल्लक भव भी होते हैं / मुहूर्तके भेद बहुत होनेसे 3773 भव भी कम पड़ते हैं / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशास्त्रका आश्चर्यजनक विशाल संख्यक गणित गाथा 3-4 [ 29 77 लबोंसे अथवा 2 घड़ियोंसे अथवा 65536 / 1 (चान्द्र) मुहूर्त होता है / क्षुल्लक भवोंसे अथवा 16777216 आवलिकाओंसे 1 (एक सामायिक-काल) अथवा 3773 प्राणोंसे समयोन 2 घड़ियोंका 1 उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। अन्य प्रकारसेनिर्विभाज्य असंख्य समयका 1 निमेष 18 निमेषोंसे 1 काष्ठा 2 काष्ठाओंसे 15 लवोंसे 1 कला 2 कलाओंसे 1 लेश 15 लेशोंसे / १क्षण 6 क्षणोंकी 1 घटिका [असंख्याता समयोंका एक निमेष प्रमाण भी होता है। अष्टादश निमेषसे एक काष्ठा, 2 काष्ठासे एक लव, 15 लवोंसे 1 कला, 2 कलासे 1 लेश, 15 लेशोंसे 1 क्षण, 6 क्षणो से 1 घटिका (नाडिका), 2 घटिकासे 1 मुहूर्त ] . 30 मुहूर्तासे एक अहोरात्र (दिवस), 15 अहोरात्रों से 1 शुक्लपक्ष, वैसे ..ही दूसरे 15 अहोरात्रों का 1 कृष्णपक्ष, 2 पक्ष मिलकर 1 मास होता है, 2 मास मिलकर 1 ऋतु होती है। [ बारह मासोंकी-२ मासकी एक ऋतुके हिसाबसे 6 ऋतुएँ होती हैं / 1. हेमंत, 2. शिशिर, 3. वसंत, 4. ग्रीष्म, 5. वर्षा, और 6. शरद ऋतु] / तीन ऋतुएँ मिलकर 1 अयन, 2 अयनों से 1 संवत्सर, 5 संवत्सरों से 1 युग, 20 युगों से एक शत (100) वर्ष, दशशत (100) वर्षोसे एक सहस्र (1000) वर्ष, शतसहस्र वर्षोंसे एक लक्ष वर्ष, 84 लाख वर्षोंसे एक पूर्वाग, 70 लाख करोड़ 56 हजार करोड़ वर्षोंसे 1 पूर्व होता है, 84 लाख पूर्वोसे 1 त्रुटितांग होता है तथा इस त्रुटितांगकी संख्याको 84 लाखसे 25 बार गुणान करनेसे शीर्ष-प्रहेलिकाका प्रमाण आ जाता है। ये सब और इनसे आगेका प्रमाण ऊपरसे' चालू विवरणमें देखें / 'अष्टादश निमेषाः स्युः काष्ठा काष्ठाद्वयं लवः / कलाः तैः पञ्चदशभिर्लेशस्तद्वितयेन च // क्षणस्तैः पञ्चदशभिः, क्षणैः षड्भिस्तु नाडिका / ... सा धारिका-घटिका च मुहूर्तस्तद्वयेन च // त्रिंशता तैरहोरात्रः,...पञ्चदशाहोरात्रः स्यात् पक्षः, स बहुलोऽसितश्च / .. - पक्षी मासः / द्वौ द्वौ मार्गादिकावृतः // . शिशिरावैस्त्रिभिः त्रिभिः अयनम् , अक्ने द्वै क्सरः / [ हैमकोष ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 3-4 2 घटिकाओंसे 1 मुहूर्त 30 मुहूर्तका 1 दिवस (अहोरात्र) 15 दिवसका 1 पक्ष (पखवारा) 2 पक्षोंका 3 दिवसोंका 1 मास 2 मासोंसे 1 ऋतु 3 ऋतुओंसे [183 दिवस, वा 6 मास] 1 अयन [6 मास] 2 अयनोंसे [12 मास ] अथवा ४१छह ऋतुओंसे- 1 वर्ष 5 (सौर) वर्षोंसे 1 युग 20 युगोंसे 1 शत वर्ष [100] दस शत वर्षोंसे 1 सहन वर्ष शत सहस्र वर्षांसे 1 लक्ष वर्ष 84 लक्ष वर्षोंसे 1 पूर्वाग 84 लाख पूर्वागसे [70 लाख क्रोड 56 हजार क्रोड़ सूर्य-वर्षोंसे] 1 पूर्व 84 लाख पूर्वसे 1 त्रुटितांग [प्रथम प्रभुका आयुष्य] 84 लाख त्रुटितांगोंसे 1 त्रुटित 84 लाख त्रुटितोंसे 1 अडडांग 84 लाख अडडांगोंसे 1 २अडड 84 लाख अडडोंसे 1 अववांग 84 लाख अववांगोंसे 1 ४अवव 84 लाख अववोंसे १.हूहकांग 84 लाख हूहूकांगोंसे 1 हूहूक 84 लाख हूहूकोंसे 1 उत्पलांग 84 लाख उत्पलांगोंसे 1 उत्पल 84 लाख उत्पलोंसे 1 पद्मांग 84 लाख पद्मांगोंसे 1 पद्म 84 लाख पद्मोंसे 1 नलिनांग 84 लाख नलिनांगोंसे 1 नलिन 84 लाख नलिनोंसे 1 'अर्थनिपूरांग 41. जिसके विषयोंमें कहा है कि-'पाउस वासारत्तो सरओ हेमंत वसंत गिम्हाय / एए खलु छप्पि उऊ, जिणवर-दिट्ठा मए सिट्ठा / / '' 1. अथवा-अटटांग / 2. अट / 3. अयवांग / 4. अयव / 5. अच्छनिकुरांग / Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्योपम, सागरोपमादिकालमानकी व्याख्या गाथा-३-४ [ 31 84 लाख अर्थ निपूरांगोंसे 1 अर्थनिपूर 84 लाख अर्थ निपूरोंसे 1 अयुतांग 84 लाख अयुतांगोंसे 1 अयुत 84 लाख अयुतोंसे 1 प्रयुतांग 84 लाख प्रयुतांगोंसे 1 प्रयुत 84 लाख प्रयुतोंसे 1 नयुतांग 84 लाख नयुतांगोंसे 1 नयुत 84 लाख नयुतोंसे 1 चूलिकांग 84 लाख चूलिकांगोंसे 1 चूलिका 84 लाख चूलिकाओंसे 1 शीर्ष प्रहेलिकांग 84 लाख शीर्ष-प्रहेलिकांगोंसे 1 *शीर्ष-प्रहेलिका (संख्यात वर्ष) __ असंख्याता वर्षका (पल्य प्ररूपणासे) 1 पल्योपम (छह भेदोंका) 10 कोडाकोडी पल्योपमका 1 सागरोपम (कुल छह प्रकारका) 1 उत्सर्पिणी अथवा इतने ही 10 कोडाकोडी अद्धा-सागरोपमकी कालकी 1 अवसर्पिणी छः छः आरा प्रमाण 20 कोडाकोडी अद्धा-सागरोपमकी 1 कालचक्र होता है अथवा 1 उत्सर्पिणी अथवा 1 पुद्गल-परावर्त होता है 1 अवसर्पिणी मिलकर अनन्ता कालचक्रका | और वह चार प्रकारका है। // बादर-उद्धार-पल्योपम 1 // ४२उत्सेधांगुलके प्रमाण द्वारा निष्पन्न 1 योजन [चार कोस ] गहरा घनवृत्त कुआँ [लंबाई, चौड़ाई और गहराई तीनोंका प्रमाण समान होनेसे घनवृत्त कहा जाता है ] जिसकी परिधि 1 योजन लाभग होती है, वह कुआँ सिद्धान्तोक्त अभिप्रायसे * जैन धर्ममें सबसे बड़ी और संख्याताकी गिनतीमें यह संख्या है। जिसमें 54 अंक 140 शून्य है। सब मिलकर 194 अंकात्मक संख्या सबसे बड़ी है / शीर्षप्रहेलिका अंशोमें इस प्रकार है। 7682 632630730112411577369975696406218166848080183296 इसके आगे 140 शून्यांक होते हैं। ज्योतिकरंडमें 250 अंक बताये है / इतर ग्रन्थोंमें दूसरे प्रकारसे संख्यामान बताया है। 42. यह हमारा चालू माप है / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-३-४ महाविदेहक्षेत्रवर्ती मेरुके समीप आये देवकुरु और ४३उत्तरकुरु-क्षेत्रके युगलिक मनुष्यों के मुंडन किये हुए ४४मस्तकों पर एकसे सात दिन तक उगे हुए "बालापोंसे भरना। प्रवचन सारोद्धार तथा संग्रहणीवृत्तिमें तो मस्तक मुंडानेके बाद एक, दो यावत् उत्कृष्टसे सात दिनके उगे हुए बालाग्र लेना केवल इतना ही कथन हुआ है। अर्थात् अमुक क्षेत्राश्रयी लेनेका सूचन नहीं है। क्षेत्रसमासस्वोपशवृत्तिके अभिप्रायसे देवकुरु-उत्तरकुरुमें उत्पन्न [इन क्षेत्रवर्ती युगलिकोंके बाल सूक्ष्म हैं इसलिए] सात दिवसके 4 मेढेके एक उत्सेधांगुल प्रमाण एक ही रोमके सात बार आठ-आठ खण्ड करें तब 1 उत्सेधांगुल मापके एक बालके सब मिलकर 20,97,152 रोम-खण्ड हों। ऐसे अति सूक्ष्म किये हुए रोम-खंडोंसे इस पल्यको भरना, इत्यादि सांप्रदायिक [ गुरु-परम्पराका ] अर्थ है। इस तरह एक उत्सेधांगुलप्रमाण बालके सात-सात बार आठ-आठ टुकड़े करके, उस पल्यको परिपूर्ण भरनेसे, एक उत्सेधांगुलप्रमाण मोटे पल्यके तलवेके क्षेत्रमें 20,97,152 रोमखंड समा सकते हैं। एक एक अंगुलके किये रोमखंडोंकी राशिको चौबीस अंगुलोंका एक हाथ होनेसे, 24. गुने करें तो एक हाथ जितनी जगहमें 5,03,31,648 [ 5 करोड़, 3 लाख, 31 हजार, 6 सौ और 48 ] रोम खंड समा जाते हैं, पुन: उसे ही चार हाथका धनुष्य होनेसे चारगुने करें तो 20,13,26,592 [ बीस करोड़, 13 लाख, 26 हजार, 5 सौ 92 ] रोमखंड 1 धनुष्य पल्यक्षेत्रमें समाते, हैं, पुनः उसे ही 2000 दंड [ अथवा धनुष्य ] का एक कोस होनेके कारण 2000 गुना करें तब 4,02,65,31, 84,000 [ 4 खर्व, 2 अरब 65 करोड़, 31 लाख 84 हजार ] रोम-राशि 1 कोस जितने पल्यके क्षेत्रमें समा जाती है। चार कोसका एक योजन होनेसे उक्त संख्याको चार गुना करें तब 1,6,10,61,27,36,000 [1 निखर्व, 6 खर्व, 10 अरब, 61 करोड़, 27 लाख, 43. यह अभिप्राय क्षेत्रसमास और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिकी वृत्तिका है। और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणका भी यही अभिप्राय है। 44. युगलिकोंको मुंडन नहीं होता है लेकिन दृष्टांतके लिये बताया है। 45. बालाग्र अर्थात् बालका अग्र भाग नहीं है किन्तु 'अमुक प्रमाण बाल ' लेना अर्थात् 1 से 7 दिन तकका बढ़ा हुआ बाल वह बालाग्र / 46. विवक्षित 1 रोमके प्रथम बार 8 खंड किये, उसके दूसरी बार हरएक 8 खंडके आठ आठ बार टुकडे किये तब 64, 64 खंडमें प्रत्येक खंडके तीसरी बार आठ-आठ खंड करें तब 512. चौथी बार 4016, पांचवीं बार 32768, छठी बार 262194 और सातवीं बार करें तब 2097152 खंड, 1 उत्सेधांगुल-प्रमाण एक बालके हों। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयादिकालका स्वरूप गाथा 3-4 [33 36 हजार ] रोमखंड केवल पल्यकी एक योजन लंबी श्रेणिमें समा जाएं जब कि दूसरी अनेक श्रेणियाँ भरें तब मात्र कुएँका तलभाग ही ढंका जाए। अतः उस समग्र तलवेको बालापोंसे संपूर्ण भरनेके लिए 1610612736000 की उक्त संख्याका वर्ग करें अर्थात् पुनः उतनी ही संख्यासे गुने तब 2594073385365405696 रोमखंडोंसे केवल तलया ही पूरित हों। इतनी बाल-सख्यासे एक ही प्ररतररचना हुई कही जाय / पूर्वोक्त संख्याप्रमाण दूसरे बालोंकी परतोंको भरें तो समग्र कुआँ भर जाए। यह गिनती 'घनवृत्त' करनेकी थी, परंतु यहां घनचौरस कुएँकी हुई / तो अब उस रोमखंडको उतने ही रोमखंडोंसे पुनः गुने तो 4178047632588158427784540256000000000 इतने रोमखंडोंसे 'घनचौरस' कुआँ भर जाए। 'घनवृत्त' कुआँ भरनेके लिए प्रस्तुत संख्याको 19 ४"गुनी करके 24 से भ.ग करे तो 33 करोड़, 7 लाख, 62 हजार, 104 कोडाकोडी कोडाकोडी; 24 लाख, 65 हजार, 625 कोडाकोडी कोडी, 42 लाख, 19 हजार, 960 कोडाकोडी, 97 लाख, 65 हजार, 600 करोड़ 48(330762104 कोडाकोडी कोडाकोडी 2465625, कोडाकोडी कोडी,, 4211960 कोडाकोडी, 9753600,0000000) इतने बालापोंकी राशियोंसे सम्पूर्ण कुआँ भर जाए / इन बालोंको खचाखच भरना और उन्हें ऐसा निबिड भरना की उन बालाओंको अग्नि जला न सके, पानी भिगो न सके और चक्रवर्ती जैसे कि महासेना उस बालाग्र पर स्पर्श करती हुई निकल जाए, तो भी वह बालाग्र झुकता नहीं (दबता नहीं) इस तरह बालात्रोंसे ठसाठस भरे हुए कुएँ मेंसे हरएक समय पर एकएक बालाग्र समुद्धृत करना अर्थात् निकालना, ऐसे समय समय पर बालान निकालते हुए जितने समयमें वह पल्य सर्वथा बालाग्रसे रहित हो जाए उतने समयको 'बादर उद्धारपल्योपम' कहा जाए / ____कुएँके बाहर उद्धार करनेकी मुख्यतासे यह नाम दिया गया है। इस पल्योपमका काल मान संख्यात समयमात्र है, क्योंकि एक एक समय पर बालाग्र निकालना है / बालापोंकी संख्या मर्यादित ही है और निमेष-मात्रमें असंख्यात समय हो जाता है। इस निमेष-कालसे 47. शतक कर्मग्रन्थ टीकामें चौरसका वृत्त करनेके लिए इस विषयमें 19 से गुना करके 22 से भाग देना बताया है। 48. जिसके लिए लोकप्रकाशमें कहा है कि त्रित्रिखाश्वरसाक्ष्याशावाईयक्ष्यब्धिरसेन्द्रियाः / विपञ्चचतुर्येकां-कांकषट्खांकवाजिनः // 1 // पञ्च त्रीणि च षट् किञ्च नवखानि ततः परम् / आदितः पल्यरोमांशराशिसंख्यांक संग्रहः // 2 // बृ. सं. 5 48. / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 2 भी इस पल्योपमका काल अतिअल्प है। यह काल-प्रमाण जगत्की किसी भी ४८वस्तुका काल बताने में उपयोगी नहीं है। केवल आगे कहा गया 'सूक्ष्म-उद्धार पल्योपम' सुखसे जाना जा सके इसीलिए बादर उद्धार पल्योपमका स्वरूप बतानेमें आया है। इति बादरउद्धार-पल्योपम-स्वरूपम् // 1. ऐसे दस कोडाकोडी बादर-उद्धार-पल्योपमसे एक 'बादरउद्धारसागरोपम' होता है। सूक्ष्मउद्धार पल्योपमम् // 2 // सूक्ष्म-उद्धारपल्योपम - पहले बादर उद्धार पल्योपमके निरूपणमें जिस तरह कुआँ भरा है उसी तरह यहाँ भरा हुआ समझें / अब उस कुएँमें पहले जो सूक्ष्म बालाग्र भरे थे, उनमेंसे प्रत्येक बालात्रों के बुद्धिमान् पुरुष बुद्धिकी कल्पनासे असंख्य असंख्यखंड कल्पित करें। द्रव्यप्रमाणसे वे रोमखंड कैसे हों ? तो विशुद्ध लोचनवाला छद्मस्थ जीव जैसे सूक्ष्म [ आपेक्षिक सूक्ष्म ] पुद्गल-स्कंधको देख सकता है, उसके असंख्यात भाग जितने सूक्ष्म ये बालाग्र होते हैं। क्षेत्रसे इस बालापका प्रमाण बताते हुए कहते हैं कि सूक्ष्म-साधारण वनस्पतिकाय (निगोद )के जीवका शरीर जितने क्षेत्रमें सिमटकर रहता है, उसकी अपेक्षा असंख्यगुण अधिकक्षेत्रमें ये रोमखंड सिमट सकते हैं / साथ ही अन्य बहुश्रुत भगवन्त कथन करते हैं कि-असंख्यातवें भागके प्रमाणानुरूप जो बालाग्र हैं वे पर्याप्त बादर पृथ्वीकायके शरीर-तुल्य होते हैं। ये सर्व रोमखंड परस्पर समान प्रमाणवाले और सर्व अनन्त-प्रदेशात्मक होते हैं। इस तरह पूर्वकी रीतिसे पूर्वप्रमाणवाले उस पल्यके अंदर रहे जो बालाग्र जिनके सूक्ष्म उद्धार पल्योपमका प्रमाण निकालने के लिए (प्रत्येक ) के असंख्य असंख्य खंड कल्पित किये हैं, उन कल्पित बालात्रों मेंसे प्रतिसमय, एक एक बालाग्रको पल्यमेंसे बाहर निकाले, ऐसा करते हुए जितने समय में-कालमें वह पल्य बालापोंसे निःशेष हो जाए, उस कालको 'सूक्ष्म-उद्धार-पल्योपम' कहा जाता है। यह पल्योपम संख्याता करोड़ वर्ष प्रमाणका है। ऐसे दस कोडाकोडी सूक्ष्म-उद्धार-पल्योपमसे एक 2. ' सूक्ष्म-उद्धार-सागरोपम' होता है। इस सूक्ष्म-उद्धार पल्योपम और सूक्ष्म-उद्धार-सागरोपमसे ति लोकवर्ती असंख्यात द्वीप-समुद्रोंकी संख्याकी तुलना हो सकती है, क्योंकि पचीस कोडाकोडी [ 2500000000000000] सूक्ष्म उद्धार पल्योपमके जितने समय हैं उतने ही द्वापसमुद्र हैं, इसीलिए 49. जिसके लिए अनुयोगद्वारमें कहा है कि-" एएहिं वावहारिय-उद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं कि पउ [ओ] यणं ? एएहिं वावहारिय-उद्धारपलि-ओवमसागरोवमेहिं णत्थि किंचिप्पओयणं, केवलं पन्नवणा, पन्नविज्जई / " [गा. 107] सूक्ष्म बालापोंसे उद्धार करते समय कालप्रमाण निकलनेसे यह नाम सान्वर्थक है / Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्योपम, सागरोपमादिकालमानकी व्याख्या गाथा 3-4 [ 35 तो 25 ५°कोडाकोडी कुओं में पूर्वरीतिसे किये असंख्य-असंख्य खण्डोंवाले रोमखण्डोंकी जितनी संख्या हो उतने द्वीप-समुद्र हैं अर्थात् सागरोपमसे ५१ढाई सूक्ष्मउद्धार सागरोपमके जितने समय है उतने ही द्वीपसमुद्र हैं। इति सूक्ष्म-उद्धार-पल्योपमस्वरूपम् // बादर-अद्धापल्योपमम् // 3 // पहले 'बादर उद्धार पल्योपम 'के समय जिस मापके पल्पमें जिस तरह बालाग्र भरे थे, उसी तरह यहाँ भी कल्पना करें / उस समय, उस पल्यमेंसे प्रथम प्रतिसमय-उद्धार क्रिया की थी, तब यहाँ बादर अद्धापल्योपम निकालनेके लिए, हर सौ वर्ष में एक एक बालाग्र मात्र निकालना, अर्थात् सौ वर्ष हों तब एक बार एक बालाग्र कम करना। दूसरे सौ वर्ष हों तब एक दूसरा बालाग्र बाहर निकालना. इस तरह क्रिया करते जब वह पल्य बालापोंसे रहित हो जाए तब बादर-अद्धा-पल्योपम होता है। यह पल्योपम संख्याता एक करोड़ वर्ष प्रमाण है और इसका निरूपण आगे कहे जानेवाले 'सूक्ष्मअद्धापल्योपम'को समझनेके लिये ही है। ऐसे दस कोडाकोडी सूक्ष्म अद्धापल्योपमसे एक 3. 'सूक्ष्मअद्धासागरोपम' होता है। यहाँ ' अद्धा' अर्थात् समयके साथ तुलना किया हुआ काल / सूक्ष्म-अद्धापल्योपमम् / / 4 / / पहले सूक्ष्म उद्धार पल्योपमके प्रसंग पर प्रत्येक बादर रोमखण्डोंका जिस तरह असंख्यात असंख्यात खण्ड कल्पित किये थे वैसे ही यहाँ पर कल्पित करें, (पल्यप्रमाण पूर्ववत् समझना) कल्पना करके प्रतिसमय नहीं निकालकर हर सौ वर्ष पर एक एक बालाग्र ____50. कोडाकोडी अर्थात् किसी भी मूल संख्याको एक करोड़से गुना करनेसे जो संख्या प्राप्त हो, वह समझना / जिस तरह 100000000 दस करोडको 10000000 एक करोड़से गुना करे तो 1000000000000000 (दस कोडाकोडी) संख्या होती है, परन्तु वर्गगणितकी तरह उतनी संख्याको उतनी संख्यासे गुना करना ऐसा नहीं / 51. 'एएहिं सुहुमउद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं दीप समुद्दाणं उद्धारो धेप्पई // ' सिद्धान्तेऽप्युक्तं• " केवइया णं भंते / दीव-समुद्दा उद्धारेणं पन्नता ? गोयमा / जावइआणं अड्ढाइजाणं उद्धार सागरोवमाणं उद्धार, समया, एवइयाणं दीवसमुद्दा उद्धारेणं पन्नत्त ! // ' अन्येऽप्याहुः. ." जावइओ उद्धारो, अड्ढाइज्जाण सागराण भवे / तावइया खलु लोए, हवंति दीवा-समुद्दा य // " [प्र. सारो. द्वा. 159] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-५-६ निकालना और निकालते निकालते जब वह कुआँ खाली हो जाए तब एक 'सूक्ष्मअद्धापल्योम' होता है। ऐसे दस कोडाकोडी सूक्ष्मअद्धापल्योपमसे एक 4. 'सूक्ष्मअद्धासागरोपम' होता है। इस सूक्ष्म-अद्धा-पल्योपम अथवा सागरोपम द्वारा नरक आदि चारों गतियों के जीवोंकी ५२आयुःस्थिति [ भवस्थिति ] तथा जीवोंकी स्वकाय-स्थितियाँ आदि मापी जाती हैं। बादर-क्षेत्र पल्योपमम् // 5 // जिस मापके बालापोंको सात बार, आठ-आठ खंड करनेसे कुआँ भरा है, उसी पल्यमें स्थित प्रत्येक रोमखण्डोंमें, असंख्य असंख्य आकाश प्रदेश अन्दर और बाहरसे भी स्पर्श करके रहे हैं और अस्पर्श रूपमें भी रहे हैं, उनमें स्पर्श करके रहे हुए. आकाशप्रदेशोंकी अपेक्षा अस्पृष्ट आकाशप्रदेश असंख्यात हैं। उन बालात्रोंसे स्पृष्टबद्ध आकाशप्रदेशोंको प्रत्येक समय एक-एककर बाहर निकालें और निकालते-निकालते स्पर्शित सर्व आकाशप्रदेश जब खाली हो जाएँ तब उतना समय बादर-क्षेत्र-पल्योपम कहा जाए। यह पल्योपम असंख्य कालचक्र प्रमाण है। ऐसे दस कोडाकोडी बादरक्षेत्र पल्योपमसे एक 5. 'बादरक्षेत्रसागरोपम' होता है। इस बादर पल्योपम-सागरोपमके कथनका प्रयोजन सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम समझनेके लिए ही है। : सूक्ष्म-क्षेत्र पल्योपमम् // 6 // सूक्ष्मबादरक्षेत्रपल्योपमके प्रसंग पर जिन प्रकारके बालात्रोंसे उक्त प्रमाण पल्य भरा था, उसी प्रकारसे भरे पल्यमें प्रत्येक रोमखण्डोंके अन्दर स्पर्श किये हुए और नहीं स्पर्श किये आकाश-प्रदेशका विवरण किया गया था। वर्तमान प्रसंगमें इतना विशेष समझना चाहिये कि बालाग्र इतने तो खचाखच भरे हुए हैं कि, वे प्रचण्डवायुसे भी उड़ नहीं सकते, अगाध ज्ञानदृष्टिवाले त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुषोंने यथार्थ देखा है और इसलिए यथार्थ प्रकाशित किया है। निबिड रीतिसे भरे और असंख्यबार खण्डित करके कल्पित उन बालानों में भी एक बालाग्रसे दूसरा बालाग्र, दूसरेसे तीसरा, ऐसे सभी के अन्तरालमें असंख्यात असंख्यात आकाशप्रदेश हैं। अतः सचमुच देखे तो स्पृष्टके बदले अस्पृष्ट आकाश प्रदेश बहुत ( असंख्यगुणा ) मिल जाएँगें। इस तरह स्पृष्टास्पृष्ट आकाश प्रदेश दो प्रकारके हुए, एक स्पर्शित और दूसरे अस्पर्शित। दोनों प्रकारके आकाशप्रदेशों में से प्रतिसमय स्पृष्ट और अस्पृष्ट आकाशप्रदेशको कम करते हुए जब वह पल्य ज्ञानीकी दृष्टिसे स्पृष्टास्पृष्ट दोनों प्रकारके आकाशप्रदेशोंसे निःशेष हो जाय तब ‘सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम' होता है / 52. जिसके लिये कहा है कि-" एएहिं सुहुमअद्धापलिओवमसागरोवमेहि नेरइयतिरिक्खजोणियमणुयदेवाणं आउयाई माविजंति" इति / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशास्त्रका आश्चर्यजनक विशाल संख्यक गणितगाथा 5-6 / 37 - यद्यपि यहाँ बालापोंका असंख्यबार खण्ड करनेका कुछ भी प्रयोजन नहीं है, क्योंकि सारे पल्यमें स्थित सर्व आकाशप्रदेशोंको तो निकालना है ही, तथापि बालापोंके असंख्यात खण्ड करनेके साथ भरनेका क्या कारण है ? इस शंकाके समाधानमें यह समझें कि दृष्टिवाद नामके बारहवें सूत्रांगमें कुछ द्रव्यप्रमाण स्पृष्ट आकाशप्रदेशोंसे, कुछ मात्र अस्पृष्ट आकाशप्रदेश-प्रमाणसे और कुछ स्पृष्टास्पृष्ट आकाशप्रदेशोंसे—इस तरह तीनों रीतियोंसे माप होनेसे तीनों रीतियोंसे-कालका मान समझनेके लिए उक्त 53 प्ररूपणा की है। प्रश्न-इस पल्यमें स्थित बालाग्र इस प्रकार निबिड भरे होते हैं कि चक्रवर्तीका सैन्य एक बार शायद चला जाए तो भी वे बालाग्र जरा भी दब नहीं सकते, तो ऐसे पल्यमें भी अस्पृष्ट आकाशप्रदेश क्या सम्भव है ? उत्तर-हाँ ! पल्यमें स्थित रोमखण्ड चाहे जैसे खचाखच भरे हों तब भी वह रोमखण्ड वस्तु ही औदारिक वर्गणाकी होनेसे ऐसे बादर परिणामवाली है कि जिसका स्कन्ध ऐसे प्रकारका घन-परिणामवाला नहीं हो सकता कि जो स्कन्ध स्व-स्थानवर्ती आकाश-प्रदेशों में व्यावृत्त (व्याप्त ) हो जाय, अतः हरएक बालाग्र अनेक छिद्रोंवाला है। वह छिद्रों में भी आकाशप्रदेशसे अस्पृष्ट होता है। किसी भी औदारिकादि शरीर स्कन्धके अवयव सर्वथा निश्छिद्रक नहीं होते, इसी कारण स्पृष्टकी अपेक्षा अस्पृष्ट आकाश-प्रदेश असंख्यगुण भी संभवित हो सकते हैं। साथ ही, रोमखण्ड बादरपरिणामवाले हैं तो आकाशप्रदेश तो अति सूक्ष्म-परिणामवाले और अरूपी हैं। इसलिए बादर परिणामवाली वस्तुमें अति सूक्ष्मपरिणामी अस्पृष्ट आकाशप्रदेश संभवित हो उसमें किसी भी प्रकारका विसंवाद है ही नहीं / एक बाह्य उदाहरण द्वारा इसे समझ सकेंगे कि ५४कुम्हडोंसे भरी कोठीमें परस्पर पोलापन होता है और उस पोलेपनमें बहुतसे बिजौरे के फल समा सकते हैं, उन बिजौरों में प्रवर्तमान पोलेपनमें हरे रह सकते हैं, हरे के पोले भागोंमें झरवेर रह सकते हैं, बेरोंके पोलेपनमें चने समा सकते हैं, चनेके अन्तरमें तिल, उसके आंतरमें सरसों आदि सूक्ष्मसूक्ष्मतर वस्तुएँ समा सकती हैं; तदनन्तर एक अति सूक्ष्मपरिणामी आकाश-प्रदेश बालापोंसे 53. उसके लिए देखें बृहत्संग्रहणी, अनुयोगद्वारसूत्र, पंचम-कर्मग्रन्थ वृत्ति आदि / 54. 'तत्थ णं चोअए पण्णवर्ग एवं वयासी-अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगास-पएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणाप्फुण्णा ? हंता अस्थि, जहाको दिट्ठतो ? से जहानामणाए कोठए सिया कोहंडाणं भरिए / तत्थ णं माउलिंगा. पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं बिल्ला पक्खित्ता तेवि माया, तत्थ णं आमलगा पक्खित्ता तेवि माया, तत्थ णं बयरा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं चणगा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं तिला ( मुग्गा ) य पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं गंगावालुआ पक्खित्ता सा वि माया, एवमेव एएणं दिट्ठतेणं अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणाप्फुण्णा' इति / [अनुयोगद्वार सूत्र 140 ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] बृहत्संग्रणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 भरे हुए प्याले में अस्पृष्टरूपसे रहे यह कैसे सम्भव नहीं हो सकता है ? दूसरा उदाहरण लें-स्थूलदृष्टि से अत्यन्त घन-ठोससे ठोस ऐसे स्तम्भमें भी सैकडों कीलियोंका समावेश खुशीसे हो सकता है, तदनन्तर इस पल्यमें अस्पृष्ट आकाश प्रदेशोंकी स्थिति किस प्रकार सम्भव नहीं हो सकती है ? अर्थात् सम्भवित है ही। ऐसे दस कोडाकोडी सूक्ष्म क्षेत्र-पल्योपमसे 6. 'सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम' होता है। ये सूक्ष्म-क्षेत्र पल्योपम तथा सागरोपम, बादर क्षेत्रपल्योपम-सागरोपमसे असंख्य गुण प्रमाणवाले हैं। ये सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम और सागरोपम सादि अर्थात् चलते-फिरते जीवोंका परिमाण दिखानेमें उपयोगी बताये हैं। -इति सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमस्वरूपम् // इस प्रकार पल्योपम-सागरोपमका विवरण समाप्त हुआ। इस तरह समयसे प्रारंभ करके पल्योपम तथा सागरोपम तकका स्वरूप बताया गया। अब सागरोपमसे अधिक महत्त्वपूर्ण जो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीरूप काल है उसे दिखाते हैं और साथ ही साथ उस में प्रवर्तमान भावोंका किंचित् स्वरूप भी कहा जाता है, // अवसर्पिणी स्वरूपम् // दस कोडाकोडी सागरोपमकी एक अवसर्पिणी और उतने ही काल प्रमाणकी एक उत्सर्पिणी होती है; ऐसा शास्त्रकारोंने कहा है। , यह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी अनादि-संसिद्ध ऐसे छः छः प्रकारके आरों (युग)के भेदसे परिपूर्ण होती हैं। अवसर्पिणीके छः आरे क्रमशः हीन-हीन भाववाले होते हैं / ऐसी अवसर्पिणियाँ और उत्सर्पिणियाँ भूतकालमें अनन्त बह गई और भविष्यमें भी अनन्त बीतेंगी। यह घटनाक्रम वैसे जगत् स्वभावसे चालू ही है। - उन अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंमेंसे प्रथम अवसर्पिणीके छः ५५आरोंका स्वरूप दिखाया जाता है। ... 1. सुषम-सुषम आरा-सुख सुख ! जिसमें केवल सुख ही बना रहता हो। यह आरा सूक्ष्मअद्धा 4 कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। इस आरेके प्रारम्भमें मनुष्यका आयुष्य 3 पल्योपम और शरीरकी ऊँचाई 3 कोसकी होती है। इस आरेके मनुष्य हर तीसरे दिन एक अरहरके दानेके जितना कल्पवृक्षके पत्र-पुष्पफलादिका आहार करते हैं और 55. सुसम-सुसमा य सुसमा, सुसम-दुसमा य दुसम-सुसमाय / दुसमा य दुसम-दुसमा वसप्पिणुसप्पिणुक्कमओ // 1 // [काल सप्ततिका ] * Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ आराओंकी व्यवस्था , गाथा 5-6 [ 39 उतने ही प्रमाणके आहारके तथाविध पसत्त्वसे उनको तीन दिन तक क्षुधा भी लगती नहीं है। इस आरेमें प्रवर्तमान मनुष्योंकी पसलियाँ 256 होती हैं / 2. सुषम आरा-जो आरा सुखमय है। अर्थात् प्रथम आरेकी अपेक्षा सुख अल्प होता है तो भी इस 'आरे में दुःखका अभाव है। यह आरा तीन कोडाकोडी (सू० अ०) सागरोपमका है। इस आरेके प्रारम्भमें मनुष्यका आयुष्य 2 पल्योपम, शरीरकी ऊचाई 2 कोस और पसलियोंकी संख्या 128 होती है। इस आरेमें उत्पन्न मनुष्योंको हर दो दिनों के बाद खानेकी इच्छा होती है; और इच्छाके साथ बेर जितने प्रमाणकी वस्तुओंका आहार करके तृप्ति पाते हैं। 3. सुषम-दुषम आरा-जिसमें सुख और दुःख दोनों हों वह अर्थात् सुख अधिक और दुःख कम हो ऐसा काल, उसे अवसर्पिणीका तीसरा आरा समझना। इस आरेका काल दो सागरोपमका है। इस आरेके प्रारम्भमें उत्पन्न मनुष्योंका आयुष्य 1 पल्योपम, देहकी ऊँचाई 1 कोसकी और पसलियोंकी संख्या 64 होती है। ये मनुष्य बेरसे विशेष प्रमाणवाला जो आँवला (आमलक ) होता है, उतने प्रमाणका आहार एक-एक दिनके अन्तरालमें ग्रहण करते हैं। इन तीनों 'आरों में अहिंसकवृत्तिवाले गर्भज पंचेन्द्रिय तिथंच (चतुष्पद और खेचर) तथा मनुष्य युगलधर्मी होते हैं। इसलिए तथाविध कालबलसे ही स्त्री-पुरुष [नर-मादा] दोनों जोड़ेमें ही उत्पन्न होते हैं और उन क्षेत्रयोग्य दिनोंके व्यतीत होने पर, वही युगल पति-पत्नीके रूपमें सर्व व्यवहार करते हैं। तथाविध कालप्रमाणसे युगलिक मनुष्यका यही धर्म होता है परन्तु कभी भी कोई दो पुरुष या दो स्त्रियाँ अथवा अकेला पुरुष या अकेली स्त्री उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार उत्पन्न हुए बालक-बालिकाका पति-पत्नीके रूपमें सम्बन्ध या प्रेम बिना विवाहके भी टिका रहता है, अतः वह 'युगलिकधर्मी' कहलाता है। ये युगलिक वऋषभनाराचसंघयणके धारक और समचतुरस्रसंस्थानवाले होते हैं। अनेक प्रकारके धान्यका सद्भाव होने पर भी उसका उपयोग नहीं करके दस प्रकारके कल्पवृक्षसे वे अपने सर्व व्यवहार चलानेवाले होते हैं / इस युगलिकक्षेत्रकी भूमि क्षुद्रजन्तुओंके उपद्रवसे तथा ग्रहणादि सर्व उल्कापातोंसे रहित है और वे शरीरसे बिलकुल नीरोगी होनेके साथ अलग अलग दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे सर्व प्रकारका निर्वाह करते हैं। ___ इन कल्पवृक्षोंके 1. मतांग, 2. भृतांग, 3. तुटितांग, 4. ज्योतिरंग, 5. दीपांग, 6. चित्रांग, 7. चित्ररसांग, 8. मण्यंग, 9. गृहाकार 10. अनियत-कल्पवृक्ष इत्यादि ५७ये 56. वर्तमान युद्ध में भी सैनिकोंको इस प्रकारके सत्त्ववाली गोलियां दी जाती हैं कि जिससे उनको एक सप्ताह तक क्षुधा नहीं लगती तो फिर प्राकृतिक शक्तिका पूछना ही क्या ? 57. ..................इन दस जातियोंमें प्रतिजातीय कल्पवृक्ष भी बहुत होते हैं / ये कल्पवृक्ष Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '40 ] बृहसंग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 दस नाम हैं, जिसका कुछ स्वरूप इस अनुसार है। 1. 'मत्तांग' ५८अर्थात् इस कल्पवृक्षके पास याचना करते ही उसके फल और पुष्प, यहाँके स्वादसे अनेकगुण विशेष स्वादवाली मदिराको तथा आरोग्य-तुष्टि-पुष्टि देनेवाले मधुर रसोंको पूर्ण करनेवाला / .. . 2. 'भृतांग' सप्तधातुके और लकडी आदिके इच्छित प्रकारके सभी तरहके भाजनोंपात्रोंकी पूर्ति करनेवाला कल्पवृक्ष / .. 3. 'तूर्याग' [त्रुटितांग ] इस कल्पवृक्षके फल वीणा, सारंगी आदि सर्व प्रकारके वाद्योंका काम करते हैं। 4. 'दीपशिखांग' जहां ज्योतिरंगका प्रकाश न पड़ता हो, उस स्थानमें दीपकका काम देनेवाले दीपांग कल्पवृक्ष प्रकाश दे रहे हैं / 5. 'ज्योतिषिकांग' प्रकाश देनेवाले ये कल्पवृक्ष सब प्रकारके देदीप्यमान तेजका स्वार्थको सिद्ध करनेवाले होते हैं, इनमें कुछ तो रात्रिके समय किसी महान तेजको देनेवाले होनेसे वहाँके निवासियोंका गमनागमनविहार आदि सुखसे हो सकता है। 6. 'चित्रांग' कल्पवृक्ष चित्र-विचित्र पुष्पोंकी मालाएँ देनेमें उपयोगी है। 7. 'चित्ररसांग' विचित्ररससे युक्त भोजन देनेवाले और साथ ही अनेक प्रकारकी मिठाईयाँ देनेवाले हैं। इस मिठाईका स्वाद चक्रवर्तीके लिए बनती गई मिठाई जैसा होता है / 8. 'मण्यंग' कल्पवृक्ष मणि आदि सर्व प्रकारके आभूषणोंको देनेवाले हैं / 9. 'गृहाकार' कल्पवृक्ष-विविध आकारके इच्छित मंजिलवाले गृहोंके लिए उपयोगी है। . 10. 'अनियत' कल्पवृक्ष-अभावग्रस्त किसी भी प्रकारकी वस्तु की पूर्ति करनेवाले और सर्व प्रकारके वस्त्रादि देनेवाले होते हैं / इस दसवें कल्पवृक्षका 'अनग्न' ऐसा भी नाम है और वह विविध प्रकारके वस्त्र आदि देनेके कारण सान्वर्थ है। और इसलिए युगलिकोंको नग्न रहना पड़ता नहीं है। देवाधिष्ठित नहीं किन्तु, तथा प्रकारके स्वाभाविक प्रभावयुक्त होते हैं / इसके सिवा दूसरी बहुत प्रकारकी उत्तम वनस्पतियाँ भी होती हैं / 58. 'तेसि मत्तंग-भिंगा, तुडिअंगा-जोइ-दीव-चित्तंगा / चित्तरसा-मणिअंगा, गेहागारा-अणिअयक्खा / / ' 'पाणं-भायण-पिच्छण, रवि-पह दीव-पह कुसुममाहारो / भूसण गिह वत्थासण, कप्पदुमा दसविहा दिति // ' [लघु क्षेत्रसमास गाथा 96-97] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर्पिणीकालका वर्णन गाथा 5-6 [41 ये युगलिक अपनी सन्तानोंका निर्वाह पहले आरेमें 49, दूसरे आरेमें 64 और तीसरे आरेमें 79 दिन पर्यंत करते हैं, उसके बाद उन्हें अपत्य-परिपालनकी आवश्यकता नहीं होती। तीसरे आरेके अन्तमें 84 लाख पूर्व और 89 पखवाड़े शेष रहने पर कुलकरोंकी उत्पत्ति होती है, उस नियमके अनुसार इस अवसर्पिणीमें श्री ऋषभदेवजी गर्भमें आये / ___ जब युगलिकोंमें कालक्रमसे ममत्वादि दोष विशेषतः बढ़ जाते हैं, तब कुलकी मर्यादा रखनेवाले जो विशिष्ट पुरुष उत्पन्न होते हैं उन्हें 'कुलकर' कहा जाता है / ये पुरुष 5 परिभाषणादि चार प्रकारकी दंडनीतिका प्रवर्तन करते हैं। तीसरे आरेके अन्तमें श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर स्वरूप उत्पन्न हुए। वे 84 लाख पूर्वका आयुष्य पूर्ण करके तद्भव मोक्षगामी हुए। तीर्थकर श्री ऋषभदेवस्वामीने 20 लाख पूर्व कुमार अवस्था में व्यतीत किये, 63 लाख पूर्व राज्य अवस्थामें और 1 लाख पूर्व श्रमण-साधु पर्यायका पालन कर, तीसरे आरेके 89 पखवाड़े शेष रहे तब सिद्धपदको प्राप्त किया। देशविरति 60 61 सर्व-विरतिकी उत्पत्ति क्षेत्रके कालदोषसे विच्छिन्न हुई वह चालू अवसर्पिणीमें श्री ऋषभदेव प्रभुसे प्रारम्भ हुई और अवधिज्ञान आदिकी भी उत्पत्ति हुई / 2 . पुरुषकी 72 ६३कलाओं तथा स्त्रीकी चौसठ कलाओंका भी उन प्रभुने ही प्रवर्तन 59. तथा चोक्तम्-'दुदु-तिग कुलगरनीई-ह-म-धिक्कारा तओ विभासाई / चउहा सामाईया बहुहा, लेहाइ ववहारो // 1 // हकार, मकार, धिक्कार और फिर शब्दताडन / 60-61 देशसे (अमुक अंशमें ) त्याग वह देशविरति और सर्वांश प्राणातिपात-मृषावाद-अदत्तादानमैथुन-परिग्रहके पापका विरमण-त्याग वह सर्वविरति, देशविरति, पंचमगुणस्थानसे और सर्वविरति छठवें प्रमत्तगुणस्थानसे होती है, देशविरतिवाले श्राद्ध-गृहस्थ होते हैं और सर्वविरतिवाले साधुपुरुष होते हैं / 62. 'अवधि' उस रूपका-पदार्थ विषयक मर्यादावाला ज्ञान / आदि शब्दसे मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञानको भी ग्रहण करना / 'मनःपर्यव' ज्ञान वह दाईद्वीपवर्ती संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवोंके मनोगतभावोंको दर्शानेवाला ज्ञान और केवलज्ञान वह लोकालोकवर्ती अतीत, अनागत और वर्तमानके अनन्त द्रव्यों और पर्यायोंको बतानेवाला ज्ञान / 63. पुरुषोंकी 72 कलाएँ-लिखितं गणितं गीतं नृत्यं वाद्यं च पठनशिक्षे च / ज्योति८.१०. 1 12 13 14 15 16 17 18 श्छन्दोऽलङ्कृति-व्याकरणनिरुक्ति काव्यानि // 1 // कात्यायनं निघण्टुर्गजतुरगारोहणं तयोः शिक्षा / शस्त्राऽभ्यासो Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-५-६ किया, अनेक प्रकारकी कला-कारीगरियाँ (शिल्प) उस कालमें प्रथम उन्हीं प्रभुने गृहस्थावस्थामें जगत्को दिखलाई। यह अवसर्पिणी आश्रयी सर्व प्रकारका प्रथम व्यवहार उन्होंने ही प्रकट किया और उन्होंने उत्तम नैतिक नियमों और आचरणोंका सारे जगत्के समक्ष प्रवर्तन किया। हजारों प्रकारके व्यवहार, सर्व प्रकारके गणित, कुम्भकारकी कलाएँ, मूल पांच प्रकारके ( उत्तर भेदसे सौ) शिल्प आदि वर्तमानमें जो जीवनोपयोगी वस्तुएँ हम देखते हैं वे सभी तथा सर्व प्रकारकी मूल भाषा पलिपियाँ भी उनसे (पुत्री-ब्राह्मी-सुन्दरीसे) प्रवर्त्तमान जान / अवसर्पिणीके तीसरे आरेके अन्तमें तीर्थंकरदेवकी उत्पत्तिका प्रारम्भ होता 48 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32.33 34 35 रसमन्त्रयन्त्रविषखन्टगन्धवादाश्च // 2 // प्राकृतसंस्कृतपैशाचिकाऽपभ्रंशाः स्मृतिः पुराणविधी / सिद्धान्ततर्कवैद्यक 36 37 38 38 40 41 42 43 44 45 46 47 वेदाऽऽगमसंहितेतिहासाश्च // 3 // सामुद्रिक विज्ञानाऽऽचार्यकविद्या रसायनं कपटम् / विद्यानुवादो दर्शन-संस्कारी 48 50 55 52 53 54 55 56 धूर्त्तशम्बलकम् // 4 // मणिकर्मतरुचिकित्सा, खेचर्यमरीकलेन्द्रजालं च / पातालसिद्धियन्त्रक-रसवत्यः सर्वकरणी च // 5 // 57 58 59 60 61 62 63 64 65 प्रासादलक्षणं पण-चित्रोपललेपचर्मकर्माणि / पत्रच्छेदनखच्छेद-पत्रपरीक्षा वशीकरणम् // 6 // काष्ठघटनदेशभाषा, 68 69 70 71 72 गारुडयोगाङ्गा धातुकर्माणि / केवलिविधिशकुन रुते..., इति पुरुषकला द्विसप्ततिज्ञेयाः // 7 // 64. स्त्रियोंकी चौसठ कलाएँ-ज्ञेया नृत्यौचित्ये, चित्रं वादित्रमन्त्रतन्त्राश्च / घनवृष्टिफलाकृष्टी, 8 10 11 12 13 14 15 16 17 18 18 . संस्कृतजल्पः क्रियाकल्यः / / 1 // ज्ञानविज्ञानदम्भाबुस्तम्भा गीततालयोर्मानम् / आकार-गोपनारामरोपणे काव्यशक्ति२१ 22 23 24 25 26 27 28 वक्रोक्ती // 2 // स्त्री-नरलक्षणे गजहयपरीक्षणे वास्तुसिद्धिपटुबुद्धी / शकुनविचारो धर्माचारोऽञ्जनचूर्णयोर्योगाः // 3 // 28 30 31 32 33 34 35 36 गृहिधर्मसुप्रसादनकर्म कनकसिद्धिवर्णिकावृद्धी। वाक्पाटवकरलाधवललितचरण-तैलसुरभिंताकरणम् // 4 // भृत्योपचार 38 8 40 45 42 43 44 45 46 47 गेहाचारी. व्याकरणपरनिराकरणे / वीणानाद वितण्डावादोऽङ्कस्थितिजनाचाराः // 5 // कुम्भभ्रमसारिश्रमरत्नमणिभेदलिपि૪૮ 49 50 51 52 53 54 55 56 परिच्छेदाः। वैद्यक्रिया च कामाविष्करणं रन्धनं चिकुरबन्धः // 6 // शालीखण्डन मुखमण्डने, कथाकथनकुसुमसुग्रथने / 57 58 59 60 2 53 वरवेषसर्वभाषा-विशेषवाणिज्यभोज्यानि // 7 // अभिधानपरिज्ञानाऽऽभरण यथास्थान-विविधपरिधाने / अन्त्याक्षरिका प्रश्नप्रहेलिका स्त्रीकलाश्चतुःषष्ठिः // 8 // 65. 'हंसलिवी भूयलिवी, जक्खा तह रक्खसी अ बोधव्वा / उड्डी जवणि तुरुक्की, कीरी दविडी या सिंधविय // 1 // मालविणी नडि नागरि, लाडलिवी पारसी य बोधव्वा / तह अ निमित्ती य लिंबी चाणक्की मूलदेवी य // 2 // Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर्पिणी कालका वर्णन गाथा 5-6 [43 है। इस तीसरे आरेके मनुष्य वन-ऋषभ-नाराच-संघयणवाले, समचतुरस्र-संस्थानवाले और इस आरेके प्रारम्भमें एक पल्योपमके आयुष्यवाले होते हैं। तीसरे आरेसे चौथे आरेमें, चौथे आरेसे पांचवेंमें, पांचवेंसे छठे में अनुक्रमसे सिंघयण, संस्थान, ऊँचाई वर्ण-रस-गन्धस्पर्श-हीन, हीनतर, हीनतम समझना। जब कि राग-द्वेष, कषायोंकी क्रमशः वृद्धि समझना / अतः अभी पंचमकालमें अपनेको अन्तिम 'सेवार्त'-छेवट्ठा संघयण (हड्डीकी संधिका बन्धन-विशेष ) वर्तमान है, जिससे शरीरके भागको स्वल्प उपद्रव होनेसे हड्डी तूट जाती है और अनेक प्रकारके तेल आदिके सेवनसे 'मूलस्थितिमें लानेके प्रयत्नका सेवन करना पड़ता है। साथ ही कषायोंका उदय भी सविशेष देखा जाता है। 4. दुःषमसुषम :-इस आरेके प्रारम्भमें दुःख विशेष और सुख अल्प होता है। यह आरा 42000 वर्षन्यून 1 कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। इस आरेमें उत्कृष्ट आयुष्य 1 पूर्वकरोड़का होता हैं। पूर्व (पहले) तीसरे आरेके अन्तमें ऋषभदेय स्वामी हुए, उन्हें केवल संपूर्ण ज्ञान होनेके बाद उनकी माताजी मरुदेवा, तीर्थस्थापित होनेके पहले ही. “अन्तकृत् केवली होकर मोक्षमें गई। तबसे मोक्षमार्ग शुरु हुआ / __ वर्तमान जगतमें सातसौसे अधिक संख्यामें महत्त्वकी भाषाएँ प्रवर्त्तमान हैं, वे साथ ही जो नवीन नवीन लिपियाँ भाषाएँ निकली हैं, उन मूललिपियोंका अमुक अंशमें अपभ्रंशरूप होनेके साथ उस उस देशमें नवीन प्रवर्त्तमान होती भी हैं / अतः अमुक कालमें ही उन लिपियोंका चलन होता है जब कि उपर्युक्त मूल सभी भाषाएँ तथा लिपियाँ न्यूनाधिकतासे यदा-तदा चल्ती होती हैं / 66. 'संघयणं संठाणं, उच्चत्तं आउभं च मणुआणं / अणुसमयं परिहायइ, ओसष्पिणी कालदोसेण // 1 // कोह-मय-माय-लोहा, ओसनं वड्ढए मणुआणं / कूडतूल-कुडमाणं तेणाणुमाणेण सर्वपि // 2 // [जंबूदीय-पन्नती] 67. 'जिसके लिये हैमकोषमें कहा है कि-तत्रैकान्तसुषमारश्चतस्रः कोटिकोटयः / सागराणां सुषमा तु तिस्रस्तत्फोटिकोटयः // 1 // सुषमदुःषमा ते द्वे दुःषमसुषमा पुनः / सैकासहवर्षाणां द्विचत्वारिंशतोनिता // 2 // अथ दुःषमैकविंशतिरब्दसहस्राणि तावति तु स्यात् / एकान्तदुःषमापि ह्येतत्-संख्याः परेऽपि विपरीताः // 3 // प्रथमेऽरत्रये मर्त्य स्त्रिद्वयेकपल्यजीविताः त्रिद्वयेकगव्यूतोच्छायास्त्रिद्वयेकदिनभोजनाः // 4 // कल्पद्रुफलसंतुष्टाश्चतुर्थे त्वरके नराः / पूर्वकोटयायुषः पञ्चधनुःशतसमुच्छ्रयाः // 5 // पञ्चमे तु वर्षशतायुषः सप्तकरोच्छ्रयाः / षष्ठे पुनः षोडशाब्दायुषो हस्त समुच्छ्रयाः // 6 // एकान्तदुःखप्रचिता उत्सर्पिण्यामपीदृशाः। पश्चानुपूर्ध्या विज्ञेया अरेषु किल षट्स्वपि // 7 // 68. 'पुवस्स उ परिमाणं सयरिं खलु वासकोडिलक्खाओ। छप्पन्नं च सहस्सा बोधव्वा वासकोडीणं / ' 69. मरुदेवा माताके सुपुत्र ऋषभदेव स्वामीजीने दीक्षा ग्रहण की, तब उनके वियोगमें एक हजार Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] वृहत्संग्रणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 यह मार्ग चौथे आरेमें चालू रहा। प्रथम तीर्थकरके सिवा ७°श्री अजितनाथ प्रमुख 23 तीर्थकर इस चौथे आरेमें ही मोक्षमें गये हुए हैं और उस उस अवसर्पिणीमें होनेवाले 24 तीर्थंकरोंमेंसे 23 तीर्थकरोंका तो इस कालमें ही सिद्धि गमन होता है। . . साथ ही प्रथम चक्रवर्ती श्री भरतमहाराज तीसरे आरेमें हुए हैं और शेष 11 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव, 9 बलदेव ये सर्व चतुर्थ आरेमें उत्पन्न हुए हैं। ये सब 63 शलाका पुरुष कहलाते हैं / इन शलाका पुरुषों के सिवा जो नव नारद, ग्यारह रुद्र आदि विशिष्ट पुरुष हुए हैं वे भी चतुर्थ आरेमें हुए हैं। इस अवसर्पिणीमें ही इस तरह हुआ है ऐसा नहीं, परंतु जिस तरह इस अवसर्पिणीके तीसरे और चौथे आरेमें जितने तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि महान् पुरुष होते हैं, उतने ही प्रत्येक अवसर्पिणीमें समझना। 5. "दुःषम-जिसमें केवल दुःख हो वह / यह दुःषम आरा 21000 वर्ष वर्ष तक रो-रोकर, माताकी आँखोंमें परदे आ गये / इतनेमें वे ही प्रभु चार घातिकर्म क्षीण कर केवलज्ञान प्राप्त करके जिस नगरमें माता रहती है उसी नगरके बाहर पधारे। देवोंने प्रवचनके लिये समवसरण-सिंहासनकी रचना की, उस समय पौत्र-प्रेरणा होनेसे मरुदेवा माता अपने पुत्रकी समवसरणकी ऋद्धि देखने वन्दनार्थे हाथीके पीठ पर बैठकर नगरके बाहर आई, वहाँ आते ही प्रभुके प्रबल अतिशय प्रभावसे और उसके हर्षानन्दसे आँखोंके परदे शीघ्र ही दूर हो गये, पुत्रकी साक्षात् ऋद्धिका निरीक्षण करते हुए अत्युत्तम भावनाके योगमें ही अंतकृत केवली हुए और वहीं मोक्षगमन हुआ / सचमुच भावनायोगकी महिमाका वर्णन करते हुए कलिकालसर्वज्ञ भगवान् श्री हेमचन्द्रसूरि योगशास्त्रमें ठीक ही कहते हैं कि पूर्वमप्राप्तधर्माऽपि परमानन्दनन्दिता / योगप्रभावतः प्राप मरुदेवा परं पदम् // 70. एतस्यामवसर्पिण्यामृषभोऽजितशंभवौ / अभिनन्दनः सुमतिस्तः पद्मप्रभाभिधः // सुपार्श्वश्चन्द्रप्रभश्च सुविधिश्चायशीतलः / श्रेयांसो वासुपूज्यश्च विमलानन्तधर्मतीर्थकृत् // धर्मः शान्तिः कुन्थुररो मल्लिश्च मुनिसुव्रतः / नमिनेमिः पार्थो वीरश्चतुर्विंशतिरहंताम् / / 3 // इसी तरह उत्सर्पिणीमें भी 24 तीर्थंकरादि होते हैं / इस तरह दोनों कालमें अनादि कालसे तीर्थ करादि शलाका पुरुषोंकी उत्पत्ति चली आई है और चलेगी, सिर्फ उस उस कालके शलाका-पुरुष अलग अलग नामवाले होते हैं। ____71. इस कालमें वीरनिर्माणसे अमुक वर्षके बाद कलंकी नामका राजा होनेवाला है। जो महाअधर्मी, महापापी, महाघातकी और समग्र पृथ्वीके नगर-ग्राम, सबको उखाड़कर फेंकता हुआ लोगोंको हेरान-परेशान करेगा। यहां तक कि साधुओंसे भी कर माँगेगा, इस त्राससे त्रस्त साधु तथा श्रावक जब इन्द्रमहाराजका आराधन करेंगे तब संतुष्ट बना हुआ इन्द्र इस पृथ्वी पर वृद्धब्राह्मणके रूपमें आकर कलंकीको मारकर उसके पुत्र दत्तको गद्दी देगा, तत्पश्चात् पुनः सर्वत्र शांति फैलेगी। कलंकी एक ही पैदा हाता है या अनेक ? कलंकी हुआ या अब होगा ? आदि बातोंमें इतिहासविद् भिन्न-भिन्न मत रखते हैं, इसलिए विशेष स्पष्टीकरण तद्विदोंसे जान लें। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर्पिणी कालका वर्णन गाथा 5-6 [45 प्रमाणका है। इस आरेके प्रारंभमें मनुष्यकी ऊँचाई उत्कृष्ट सात हाथकी है और उत्कृष्ट आयुष्य बहुलतासे 130 ७२वर्षका होता है। चौथे आरेके अन्तमें उत्पन्न हुए श्री महावीरपरमात्मा चौथे आरेके तीन वर्ष और साढे आठ महीने शेष रहे तब 72 वर्षका आयुष्य भोगकर सिद्धिपद प्राप्त किया। तदनंतर उनकी तीसरी पाटपर श्रीजंबूस्वामिजी हुए। उनके सिद्धिगमनके बाद इस पंचमकालमें मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, ७३मोक्षगमन इत्यादि 10 वस्तुओंका विच्छेद हुआ। अर्थात् तद्भव मोक्षगामीत्वका अभाव हुआ, यह विच्छेद भरत, ऐश्वत क्षेत्राश्रयी जानना। परंतु महाविदेहक्षेत्र जहाँ कि हमेशा चतुर्थ आरेके प्रारंभके भाव वर्तमान हैं, 72. इस पंचम आरेमें विशेषकर पाश्चात्य देशोंमें क्वचित् 200 वर्ष तकके आयुष्य भी जाहिर हुए सुने हैं / इसलिए भड़कनेकी कुछ भी जरूरत नहीं; क्योंकि उक्त 130 वर्षका वचन है यह प्रायः समझना, अतः वैसे मनुष्य अल्प हों और कदाचित् किसी जीव विशेषने पूर्वभवमें तथाप्रकारका उत्तमोत्तम जीवदया-रक्षादिका कार्य तन्मयरूपसे किया हो तो अधिक आयुष्य भी संभबित हो सकता है। जिसके लिए योगशास्त्रमें कहा है कि___“ दीर्घमायुः परं रूपमारोग्यं श्लाघनीयता / अहिंसायाः फलं सर्व किमन्यत्कामदैव सा // " साथ ही हम यदि श्रीवीरनिर्वाणसे पांचवीं शताब्दीके इतिहासकी ओर दृष्टिपात करेंगे तो जाननेको मिलेगा * कि जब इंद्र महाराज, पंचमीकी संवत्सरी चतुर्थीको करनेवाले श्रीमान् कालिकाचार्य महाराजकी परीक्षाके निमित्त मनुष्यलोकमें वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके आचार्य भगवंतके पास उपस्थित हुए थे, तब उनके ज्ञानकी परीक्षाके लिए अपना हस्त (हाथ) दिखाकर ' हे गुरुदेव !' मेरा आयुष्य कितना वर्तमान है यह मेरी रेखा देखकर कहिए ऐसा जब कहा तब विज्ञप्तिसे कलिकाचार्य महाराज आयुष्य रेखा देखते देखते 300 वर्षे तक पहुंचे, तबतक उन्होंने शंका भी नहीं की, कि यह मनुष्य है कि अन्य कोई ? लेकिन रेखामें जब ज्ञानदृष्टि से 300 से आगेका आयुष्य देखा तब उन्होंने श्रुतके उपयोगसे कहा कि, 'हे आत्मन् ! तू मनुष्य नहीं, परन्तु सौधर्मदेवलोक का स्वयं इन्द्र है।' - इससे हमें तो यह सार लेना है कि 300 वर्षका आयुष्य इस कालमें सुना जाए तब तक कुछ भी आश्चर्य करने जैसा नहीं है / वर्तमानमें विदेशमें एक मनुष्य 250 वर्ष जीवित रहा, ऐसा समाचार अखबार में प्रसिद्ध हुआ था, साथ ही गुजरात-काठियावाड (सौराष्ट्र )में 150 वर्षकी आयुके मनुष्य वर्तमानमें भी, जीवित हैं ऐसा सुना है / दीर्घ आयुष्यवाले मनुष्योंके उल्लेख अनेक बार सुननेको मिलते हैं, परन्तु 300 वर्षसे उपरकी आयुवाले मनुष्यकी बात अभी जाननेमें नहीं आई है। वे क्या क्या ? तो * 73. " मणपरमाहि पुलाए, परिहारविसुद्धी उक्समे कप्पे / ___संजम-तिग-केवल–सिज्झाणा य जंबुम्मिच्छिन्ना // " 234 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] बहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ... 'गाथा 5-6 वहाँ मोक्षमार्ग सदा चालू ही है। यद्यपि इस कालमें इस क्षेत्रमेंसे सीधा मोक्षगमन नहीं है तथापि यहाँ आत्मकल्याणके हेतु या पुण्योपार्जन हेतु किये गये सर्व आचरणोंका फल आगामी भवमें होनेवाली सिद्धिप्राप्तिमें प्रबल कारणरूप बनता है। इस कालके जीव अल्पायुषी, प्रमादी, शिथिलाचारी और शरीरबलमें निर्बल होते हैं। अनेक प्रकारकी अनीतियाँ-प्रपंचादि पापकर्मोंके करनेवाले और ममत्वादिभावोंमें आसक्त और धर्माधर्मका विवेक नहीं रखनेवाले होते हैं। ७४इस पंचम आरेके अंतमें क्षार, अग्नि, विषादिकी मुख्य पांच प्रकारकी कुवृष्टियाँ सात सात दिन ७५तक पड़ती हैं, इससे बिजलीके भयंकर त्रास उत्पन्न होते हैं और भयंकर व्याधियों को उत्पन्न करनेवाली जहरीली जलकी वृष्टि होती है। तथा पृथ्वी पर स्थित वस्तुओंको नष्ट कर देनेवाली भयंकरसे भयंकर हवा बहती है। और इससे लोग महान त्रास पाकर करुणस्वरसे आक्रंद करते हैं। पृथ्वी पर रहनेके लिए या पहननेके लिए गृह-वस्त्रादि कुछ भी वस्तुएँ, जमीनसे पैदा होते हुए धान्य-फल आदि भी नष्टप्राय हो जाते हैं। साथ ही सर्व नदियोंका जल भी सूख जाता है, केवल शाश्वती होनेके कारण गंगा और सिंधु नदीका प्रवाह बैलगाड़ीके पहियोंके बीच प्रमाण विस्तारमें और गहराई में पैरका तलवा डूबे इतना ही होता है। उस समय मनुष्य अपना रक्षण करनेके लिए गंगा और सिंधु नदीके तट प्रदेश पर वर्तमान टीलों में जहां गुफा जैसे बिलों के स्थान होते हैं, वहाँ जाकर रहते हैं, और वहाँ दुःखी अवस्था में, वस्त्राभावमें, स्त्री-पुरुषकी मर्यादा रहित नग्नअवस्थामें विचरण करते हैं। तथा गंगा नदीके प्रवाहमें अवशिष्ट मत्स्यों का भक्षण करके जीवन-निर्वाह करते हैं। उस समय चंद्र भी अत्यत शीतल किरणोंको और सूर्य अति उष्ण किरणोंको फेंकता है। ये सर्व भाव पंचम आरेके अन्तमें क्रमानुसार प्रारंभ होते हैं। साथ ही चतुर्विध संघ, गण, इतर दर्शनों के सर्व धर्म, राजनीति, बादर, अग्नि, पकाना आदिः पाक (रसोई) व्यवहार, चारित्रधर्म सभी क्रमसे विच्छेद पाते हैं। ___ तथा चरम तीर्थपति श्री महावीरप्रभुका शासन जो कि अविच्छिन्नरूपसे चला आया 74. इस कालमें कालप्रभावसे और अपनी उस प्रकारकी साधना-शक्तिके अभावमें देवदर्शन दुर्लभ होता है / क्वचित् संभवित भी हो, परन्तु वैसी सात्त्विकता और श्रद्धा कहाँ है कि जिससे देवोंका आकर्षण हो सके ? इस हुंडा अवसर्पिणी कालके विशेष भावोंके लिए 'चन्द्रगुप्त' नृपतिको आये 16 स्वप्न और उन पर रचित स्वप्नप्रबन्ध 'व्यवहार-चूलिका में तथा 'उपदेश-प्रासाद में जानने योग्य वर्णन हैं। 75. कलिकाल के कारण वर्तमानमें भी रुधिर, मत्स्य, पत्थर तथा चित्र-विचित्र पंचवर्णी मत्स्यादिकी वर्षा बहुत स्थानों पर होती है, ऐसा अनेकशः अखबारोंमें प्रगट हुआ है। किन्हीं-किन्हीं अनार्यदेशों में आकाशमेंसे अग्नि आदि चित्र-विचित्र पदार्थोंकी दृष्टि होनेकी घटनाएँ भी क्या नहीं सुनते ? . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर्पिणी कालका वर्णन गाथा 5-6 [ 47 है, जिसके अंतिम समय पर भी श्री दुप्पसहसूरि, फल्गुश्री साध्वी, नागिलनामा श्रावक और सत्यश्री नामकी श्राविकारूप चतुर्विध संघ जो विद्यमान रहेगा, उस शासन और चतुर्विधसंघका भी इस पंचम आरेके अंतिम दिवसका प्रथम प्रहर पूर्ण होने पर विच्छेद होगा। अर्थात् पूर्वाह्नकालमें श्रुतधर्म आचार्य, संघ और जैनधर्मका विच्छेद होगा; मध्याह्न समय पर विमलवाहन राजा, सुधर्म मंत्री और उसके राजधर्मका विच्छेद होगा और संध्याकालमें बादर अग्निका विच्छेद होगा। अभी पांचवें आरेका प्रारंभ है, जिसे लगभग 2500 वर्ष हुए हैं अभी लगभग 18500 वर्ष बाकी हैं, उनके पूर्ण होनेके कालमें उपर्युक्त घटनाएँ घटेंगीं / अभी तो क्रमशः प्रत्येक क्षेत्रमें हास होता रहेगा। 6. दुःषमदुःषम-जिसमें केवल दुःख ही दुःख हो, अर्थात् सुखका बिलकुल अभाव हो / यह आरा भी 21000 वर्ष प्रमाणका है। इस आरेके मनुष्योंका उत्कृष्ट शरीर प्रमाण दो हाथका, आयुष्य पुरुषका 20 वर्षका और स्त्रीका 16 वर्षका होता है। पंचम आरेके अंतमें कहे गये सर्व दारुण उपद्रव विशेष प्रमाणमें छठे आरेमें वर्तित हैं। इस आरेमें स्त्रियाँ अत्यन्त विषयासक्त और शीघ्र यौवनको पानेवाली होती हैं / छठे वर्ष में गर्भको धारण करनेवाली और छोटी उम्रमें ही अनेक बालक-बालिकाओंको दुःखपूर्वक जन्म देनेवाली होती हैं। ___ इस तरह ये बेचारे, निष्पुण्य जीव इस आरेका समय दुःखसे महान् कष्टसे पूर्ण करते हैं। .. -इति अवसर्पिणीषडारकस्वरूपम् // // उत्सर्पिणीका स्वरूप // .. पहले अवसर्पिणीके छह 'आरों का स्वरूप संक्षिप्तमें बताया, उससे विपरीत पश्चानुपूर्वीसे उत्सर्पिणीके छह 'आरोंका स्वरूप बताया जाता है। 1. दुःषम-दुषमआरा-जिसमें दुःख बहुत हो वह। यह आरा 21000 वर्ष प्रमाणका है। अवसर्पिणीके छठे आरेके प्रारंभसे पर्यंत तक सभी पदार्थों के भाव क्रमसे 76. 'तह सग्ग्चुओ सूरी दुप्पसहो, साहुणी अ फगुसिरि / - नाइलसड्ढो-सड्ढी सच्चसिरि अंतिमो संघो // ' . 'सुअ-सूरि-संघ-धम्मो-पुब्वहे छिज्जिही अगणि सायं / निवविमलवाहणो सुह-म्मति नयधम्ममज्झले // ' [कालसप्ततिका ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 2 हीन होते जाते हैं, जब कि उत्सर्पिणीके प्रथम आरेमें दिनप्रतिदिन वर्ग-गन्धादि-रस-स्पर्श, आयुष्य, संघयण, संस्थानादिमें क्रमसे शुभत्वकी वृद्धि होती जाती है। .. यह आरा सभी प्रकारके कालभेदोंके आद्य समय पर ही प्रारंभ होता है, अतः प्रथम उत्सर्पिणी, पश्चात् अवसर्पिणी ऐसा क्रम वर्तित है / / - 2. दुःषम आरा-इस आरेमें दुःख होता है परन्तु अतिशय दुःखका अभाव होता है। अवसर्पिणीका पांचवाँ आरा और उत्सर्पिणीका दूसरा आरा बहुत-सी बातों में समानता रखता है। इस आरेके प्रारम्भमें 'पुष्करावर्तमहामेघ' मूसलाधार सात दिन तक अखण्ड बरसता है, और उसकी शीतलतासे पृथ्वी पर सभी महात्माओंको अत्यन्त शान्ति पैदा होती है। उसके बाद 'क्षीरमहामेघ' सात दिन तक अखण्ड बरसकर जमीनमें शुभ वर्ण: . गन्ध-रस-स्पर्शादि उत्पन्न करता है। उसके बाद 'घृतमेघ' सात दिन बरसकर पृथ्वीमें स्निग्धता उत्पन्न करता है। तत्पश्चात् 'अमृतमेघ' भी उतने ही दिनों तक गरजके साथ बरसकर औषधियोंके और वृक्ष-लताओंके अंकुरोंको उत्पन्न करता है / तत्पश्चात् 'रसमेघ' सुन्दर रसवाले जलकी वृष्टि सात दिन तक करके वनस्पतियों में तिक्तादि पांच प्रकारके रसोंको उत्पन्न करता है। इस तरह सम्पूर्ण भरतक्षेत्रमें एकसाथ बरसते मेघसे अनेक प्रकारकी वनस्पतियाँ अनेक प्रकारसे सुन्दर-सुन्दर रीतिसे खिलती हैं और पृथ्वी रसकससे भरपूर बन जाती है। [अवस०के छठे आरेके अन्तमें यद्यपि सर्व वस्तुओंका विनाश कहा है किंतु बीजरूप अस्तित्व तो सर्वका रहता ही है। ] इस मेघके बरस चुकनेके बाद सभी बिलवासी जन बिलसे बाहर निकलकर अत्यन्त हर्षित होते हुए भाँतिभाँतिकी सुन्दर वनस्पति आदिकी लीलाओंका अनुभव पाकर परस्पर एकत्र होकर " अबसे हमें दारुण दुर्गतिके हेतुरूप मांसाहारको छोड़कर वनस्पत्यादिकका आहार करना चाहिये” इत्यादि विविध नियम बनाते हैं। यह आरा अवसर्पिणीके पाँचवें आरेके समान होनेसे इसमें आयुष्य बढ़कर 130 वर्षका होता है। संघयग, संस्थान, शरीरको ऊंचाई आदि सर्व क्रमानुसार वृद्धिमय होते हैं ऐसा समझें / 3. दुःषम-सुषम आरा-जिसमें दुःख अधिक, सुख कम हो वह / दूसरे आरेके 21000 वर्ष बीतनेके बाद तीसरा आरा प्रवर्त्तमान होता है। इस आरेमें आयुष्य बढ़ते बढ़ते तीसरे आरेके अन्तमें पूर्व करोड़ वर्ष प्रमाण और मनुष्योंकी ऊँचाई 500 धनुषोंकी होती है। इस आरेके मनुष्योंको अनुकूल सामग्री पाकर सिद्धिगमन-मोक्ष प्राप्त करना हो तो कर सकनेका सिद्धि-मार्ग खुला रहता है / यह आरा अवसर्पिणीके चौथे आरेके समान होनेसे सभी भाव उस प्रकारके समझें / इस आरेमें सर्व नीतिकी शिक्षा, शिल्पकलादि सर्व व्यवहारोंको जिनेश्वर प्रवर्तित नहीं करते, परन्तु लोग उस प्रकारकी व्युत्पन्नबुद्धिवाले 77. मूमलके जैसी विष्कम्भवाली धारा / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्पिणी कालका वर्णन . . गाथा 5-6 [49 होनेसे ही पूर्वके क्षयोपशमसे और साथ ही उस क्षेत्रके अधिष्ठाताके तथाविध प्रभावसे सर्व अनुकूल व्यवहार प्रवर्त्तमान होते हैं। इसीलिये ‘अवसर्पिणीवत् उत्सर्पिणीमें सर्वव्यवहार कुलकर प्रवर्तित नहीं करते' ऐसा जो शास्त्रीय कथन है वह योग्य ही है। यद्यपि कुलकर उस उत्सर्पिणीके चौथे आरेके प्रथम विभागमें उत्पन्न होते हैं, किन्तु व्यवहार प्रवर्तित करनेका उस कालमें कुलकरों को प्रयोजन नहीं रहता है, क्योंकि सर्व व्यवहार तीसरे आरेसे ही शुरू हो चुके होते हैं। यहाँ कुछ आचार्य उत्सर्पिणीके चौथे आरेमें 15 कुलकरोंकी उत्पत्ति मानते हैं और इसलिए उस समय 'धिक्कार' आदि तीन दंड नीतियाँ प्रवर्तित करते हैं ऐसा कहते हैं। यदि कुलकरकी उत्पत्ति न मानी जाए तो संपूर्ण उत्सर्पिणी कुलकर रहित हो जाए और कुलकरकी उत्पत्तिवाली मात्र अवसर्पिणी ही रहे ! अतः कुलकरोंकी उत्पत्ति मानना कथमपि अनुचित नहीं है। उत्सर्पिणीके तीसरे आरेमें प्रथम तीर्थकर पद्मनाभादि 23 7 तीर्थंकरोंकी उत्पत्ति कही गई है। अवसर्पिणीके जो अन्तिम तीर्थकर होते हैं, उनके समान उत्सर्पिणीके प्रथम तीर्थंकर होते हैं। इस प्रकार शास्त्रोंमें जिस तरह क्रम कहा है उसी तरह यथासंभव सोचें / इस उत्सर्पिणी कालमें भी 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव, 9 बलदेव, 9 नारद और 11 रुद्र उत्पन्न होते हैं। उनमें 11 रुद्र और 9 नारदके अतिरिक्त 63, 8 शलाका पुरुष गिने जाते हैं। उनमें 23 तीर्थकर इस आरेमें ही उत्पन्न होते हैं। 78. भाविन्यां तु पद्मनाभः शूरदेवः सुपार्श्वकः / स्वयंप्रभश्च सर्वानुभूतिर्देवश्रुतोदयौ / पेढाल: पोट्टिलश्चापि शतकीर्तिश्च सुव्रतः // 1 // अममो निष्कषायश्च निष्पुलाकोऽथ निर्ममः / चित्रगुप्तः समाधिश्च संवरश्च यशोधरः // 2 // विजयो मल्लदेवौ चानन्तवीर्यश्च भद्रकृत् / एवं सर्वावसर्पिण्युत्सर्पिणीषु जिनोत्तमाः // 3 // [है० को० सर्ग 1] 79. उक्तं च-'गुणनवइ ह वीरो निव्वुओ चउत्थारे / उस्सपिणीतइयारे, गए उ एवं पउमजम्मो // ' [ का० स० 30 ] 80. इस ग्रन्थमें तो प्रसंगके अनुरूप ही अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीका स्वरूप बताया है / सविस्तर स्वरूप ग्रन्थान्तरोंसे देख लें। 7. सं. 7 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 / 4. सुषमदुःषम आरा-सुख अधिक, दुःख कम वह / यह आरा अवसर्पिणीके तीसरे आरेके समान समझें। इस आरेमें तीन भागकी कल्पना करें। उनमें पहले विभागमें राजधर्म, चारित्र, अन्य दर्शनानुचार्या के सर्व धर्म तथा बादर अग्नि विच्छेद होंगे। इस आरेके प्रारंभके 89 पखवाड़े बीतने पर उत्सर्पिणीके २४वें तीर्थकर तथा अन्तिम चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। बादके दूसरे और तीसरे दोनों भागों में जैसा अवसर्पिणीमें कहा है वैसे युगलिक धर्मकी प्रवृत्ति पुनः शुरू होती है। 5. सुषम आरा-यह आरा अवसर्पिणीके दूसरे आरेके समान भावोंवाला समझें / / इस आरेमें केवल सुख ही होता है। 6. सुषमसुषम आरा-यह आरा जिसमें केवल बहुत सुख हो वह अवसर्पिणीके प्रथम आरेके समान सर्व प्रकारसे विचारें-समझें, जिसके स्वरूपके बारेमें अवसर्पिणीके वर्णन-प्रसंगमें कहा गया है। पांचवें-छठे दोनों आरेमें युगलिक मनुष्यों और तिर्यचोंका अस्तित्व विचार लें / इस तरह उत्सर्पिणीके 6 आरोंका स्वरूप बतलाया गया है। . ___ इस प्रकार दस कोडाकोडी सागरोपमकी अवसर्पिणी और दस कोडाकोडी सागरोपमकी उत्सर्पिणी मिलकर एक कालचक्र होता है। जिसके लिए कहा है कि___“कालो द्विविधोऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीविभेदतः / सागरकोटिकोटीनां, विंशत्या स समाप्यते // 1 // अवसर्पिण्यां षडश उत्सर्पिण्या त एव विपरीताः / ___एवं द्वादशभिररैर्विवर्तते कालचक्रमिदम् // 2 // " [हैम० को० का० 2] // पुद्गलपरावर्तका संक्षिप्त स्वरूप // अवतरण-पहले अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीका स्वरूप दिखाया है, अब उससे बढकर काल 'पुद्गलपरावर्त' नामका है। और वह चार अथवा सूक्ष्म-बादर भेदसे आठ प्रकारका है, उसका यत्किचित् स्वरूप दर्शित किया जाता है // बादर-' द्रव्य '-पुद्गल-परावर्त // 1 // पुद्गलपरावर्त अर्थात् पुद्गलानां परावतः यस्मिन् कालविशेषे सः पुद्गल-परावर्त्तः / 81. 'सुहुमद्धायरदसकोडाकोडी, छअराऽवसप्पिणुसप्पिणी / ता दुन्नि कालचक्कं; वीसायरकोडिकोडीओ // 1 // ' [ कालसप्ततिका ] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलपरावर्तका स्वरूप गाथा 5-6 [51 पुद्गलानां अर्थात् चौदहराज प्रमाण लोकवर्ती समस्त पुद्गलोंका परावर्तः–अर्थात् औदारिकादि शरीररूपसे ग्रहण करके वर्ण्यरूप परावर्तन, जिसमें वह पुद्गलपरावर्तः८२ कहलाता है। , उसके ८3द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव ऐसे चार प्रकार हैं। पुनः उस हरएकके सूक्ष्म और बादर ऐसे दो-दो भेद हैं। उनमें हरएक पुद्गलपरावर्त स्थूलदृष्टिसे अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी प्रमाण होता है। संसाररूपी भयंकर अटवीमें भ्रमण करती हुई कोई भी आत्मा जब चौदहराज लोकवर्ती जो सर्व पुद्गल वर्तमान हैं उन सर्व पुद्गलोंको अनन्त जन्म-मरण करनेसे स्वस्वयोग्य औदारकादि शरीररूपसे अनुक्रमपूर्वक, ग्रहण करके छोड़े, उसमें जितना समय-काल लगे उसे 'बादर-द्रव्य-पुद्गलपरावर्त' कहते हैं / [इस.पुद्गलपरावर्त में एक समय औदारिकरूपसे जो पुद्गल ग्रहण किये गये उन्हें औदारिककी गिनतीमें गिर्ने / वैक्रियरूपसे ग्रहण किये उन्हें वैक्रियमें, पुनः तैजसकार्मणके प्रतिसमय जो पुद्गल ग्रहण किये जायें उन्हें तैजसकार्मणमें गिन लें। इनमें नवीन-नवीन ग्रहण किये जाते ( अगृहीत ) औदारिकादिपुद्गलोंकी गिनती लेनेकी है। लेकिन गृहीतकीनहीं। ] . . . // सूक्ष्म-' द्रव्य '-पुद्गल-परावर्त // 2 // . ऊपरि कथित बादर पुद्गलपरावर्त में बिना क्रम सर्व पुद्गल ग्रहण था, और वह गिनतीमें लिया जाता था। परन्तु इस दूसरे भेदमें तो औदारिक, वैक्रिय, ८४तैजस, भाषा, 82. यह अर्थ यद्यपि केवल 'द्रव्यपुद्गलपरावर्त के लिए ही लागू होता है, तो भी क्षेत्रादि भेदबाले शेष तीनों अनन्तकाल प्रमाणोंमें भी 'पुद्गलपरावर्त' शब्दके रूढ होनेसे वास्तविक रूपमें क्षेत्रादि भेदमें तो क्षेत्रपरावर्त, कालपरावर्त, भावपरावर्त शब्दका प्रयोग होना चाहिए, परन्तु वैसा न करके क्षेत्रपुद्गलपरावर्त, कालपुद्गलपरावर्त और भावपुद्गलपरावर्त ऐसा व्यपदेश किया जाता है / 83. जिसके लिए शतककर्मग्रन्थमें कहा है कि- .. “दव्वे खित्ते काले भावे, चउह दुह बायरो सुहुमो / होइ अणंतुस्सप्पिणीपरिमाणो पुग्णालपरट्टो // 1 // " (गाथा-८६) 84. वैक्रियके बाद आहारकवर्गणा ग्रहण क्यों नहीं की ? तो इस प्रश्नके उत्तरमें समझना कि आहारक शरीर [एक जीवाश्रयी] समग्र भवचक्रमें सिर्फ चार ही बार प्राप्त होता है (अनन्तर वह जीव मोक्षमें जानेवाला होता है ), अतः इस वर्गणारूपसे सर्व पुद्गल ग्रहण ही नहीं हो सकते, इसलिए उसे ग्रहण नहीं किया है / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी * [ गाथा-५-६ श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण इन सात-५ वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणारूपसे, सर्व पुद्गलोंको ग्रहण करें और. छोड़े, तभी यह सूक्ष्म द्रव्यपुद्गलपरावर्त हो सकता है परन्तु अमुक समय पर विवक्षित वर्गणाके पुद्गलोंको स्पर्श करके दूसरी वैक्रियादि भिन्न-भिन्न वर्गणासे पुद्गल ग्रहण करने लगा, साथ ही पुनः प्रथमकी [जो विवक्षित हो वह ] वर्गणासे पुद्गल ग्रहण शुरू किया। इस तरह बीच-बीचमें दूसरी वर्गणाके पुद्गल ग्रहण करें तो गिनतीमें न लिये जाँय अर्थात् वह गिनती गलत सिद्ध हो / लेकिन लोकाकाशवर्ती सर्व पुद्गल परमाणुओंको विवक्षित किसी भी एक ही वर्गणारूपसे परिणीत करके छोडे तो उसे 86" सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त' कहते हैं / इस तरह वैक्रियवर्गणासे पुद्गलोंको ग्रहण करके छोड़े तब 'वैक्रिय-द्रव्य-पुद्गल' कहते हैं। ऐसे जिस जिस वर्गणासे लोकाकाशवर्ती पुद्गलोंको ग्रहण करनेपूर्वक छोडे तब उस उस प्रकारका 'पुद्गलपरावर्त' काल होता है। // बादर-क्षेत्र-पुद्गल-परावर्त // 3 // __ क्षेत्र से लोकाकाश लेनेका है और उसके प्रदेश श्रेणिबद्ध और असंख्य है। अर्थात् एक कोई जीवविशेष, चौदहराजलोकके सर्व आकाशप्रदेशोंको मृत्युकालमें मृत्युकालसे इस प्रकार स्पर्श करे कि वह एक आकाशप्रदेश गिनतीमें आये, लेकिन इतना विशेष है कि प्रथम जिन आकाशप्रदेशों पर मृत्यु हुई हो उन्हींसे किसी आकाश.प्रदेश पर पुनः मृत्यु हो तो वह आकाशप्रदेश गिनतीमें न आवे / ऐसे क्रमसे या उत्क्रमसे [किसी भी स्थान पर ] लोकका कोई भी आकाशप्रदेश मृत्युसे स्पर्श किये बिना न रहे तब ‘बादरक्षेत्रपुद्गलपरावर्त' होता है। प्रश्न-जीवकी अवगाहना असंख्य आकाशप्रदेशप्रमाण है, अतः जीव मृत्यु-काल पर असंख्य-आकाशप्रदेशोंको स्पर्श करता है तो फिर आप एक आकाश-प्रदेशकी स्पर्शनासे गिनती किस तरह गिनते हैं ? उत्तर-यद्यपि मरण-काल पर अवगाहनाश्रयी जीव असंख्यआकाशप्रदेशोंको स्पर्श करता है, परन्तु यहां तो उनमेंसे किसी भी एक ही आकाशप्रदेशकी गिनती करना, लेकिन सर्व स्पृष्टप्रदेश नहीं गिनना। और साथ ही मृत्युकाल पर स्पर्शित आकाशप्रदेशोंमेंसे जो पूर्वका विवक्षित स्पृष्टआकाशप्रदेश हो उसे यहाँ गिनतीमें न लेकर पूर्व अस्पृष्ट [ किसी भी मृत्यु 85. सातों वर्गणाओंका अल्पबहुत्व शतककर्मग्रन्थादि वृत्तिके द्वारा जाने / .. 86. अन्य आचार्य सात वर्गणासे पुद्गलपरावर्त्त नहीं गिनकर औदारिक, वैक्रिय, तैजस. और कार्मण इन चारोंको ही वर्गणाश्रयी ' सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त'का प्रमाण बताते हैं / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलपरावर्तका स्वरूप गाथा 5-6 [ 53 कालमें अस्पृष्ट ] ऐसा अपूर्व ही आकाशप्रदेश लें। यह पंचसंग्रहका मत है। 'शतककर्मग्रन्थवृत्ति के मत तो मृत्यु-कालकी अवगाहना प्रमाण सर्वप्रदेश गिनती में लेना ऐसा बताता है, इससे काल अल्प होता है और प्रथमके मतसे बहुत काल होता है ऐसा यथायोग्य स्वतः सोच लें / // सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल-परावर्त // 4 // पूर्व बादरक्षेत्रपुद्गलपरावत में तो, किसी भी स्थानवर्ती नवीन नवीन जिस आकाशप्रदेशमें जीवका मरण होता था, उस आकाशप्रदेशकी गिनती होती थी, परन्तु इसमें तो एक जीव प्रथम जिस आकाशप्रदेशमें मरण पाकर पुनः “किसी भी स्थानके आकाशप्रदेश पर मरण प्राप्त करे तो उसकी गणना न करके" जब प्रथम मृत्यु पाये हुए आकाशप्रदेशके साथके ही (दूसरे) आकाशप्रदेशमें मृत्यु पाये तब उस आकाशप्रदेशकी गणना की जाय, अर्थात अनेक 'मरणोंसे दूरदूरके स्पृष्टआकाशप्रदेशोंकी गणना न करके, आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिमें प्रवर्तमान आकाशप्रदेशों पर पहला, दूसरा, तीसरा ऐसे क्रमशः आकाशप्रदेशको मृत्युसे स्पर्श करे इस प्रकार अनुक्रमसे मरे, इस तरह आकाशप्रदेशोंको स्पर्श करते करते समग्र आकाशप्रदेश जब क्रमशः मृत्युसे स्पर्शित हो जाए तब 'सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गलपरावर्त ' हो। // बादर-'काल'-पुद्गल-परावर्त // 5 // कोई भी एक जीव उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणीके आरंभके प्रथम समयमें मरण पाकर, वही जीव दूसरी बार दूरके अर्थात् 100 वें, समय पर मरण पाकर, फिर पुनः उससे दूरके 500 वें, समय पर मरण पाया, इस तरह अनुत्क्रमसे अस्पृष्ट (स्पर्शित नहीं) अपूर्व समयोंमें मरण पाये, ऐसे एक कालचक्रके ( उत्सर्पिणी अवसर्पिणीके ) सर्व समय मरणसे (बिना क्रमके) स्पर्शित हो जाए तब बादर-'काल'-पुद्गल-परावर्त हो।। // सूक्ष्म-'काल'-पुद्गगल-परावत्ते // 6 // पूर्व अनुत्क्रमसे कालचक्रके समयोंकी स्पर्शनामें गणना की। इस भेदमें तो उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणीके प्रथम समय पर एक जीवका मरण हुआ, पुनः कुछ समयके बाद उसी उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणीके दूसरे समय फिर मरण हुआ, तीसरी बार कतिपय कालके बाद तीसरे समय पर मरण हुआ, इस तरह यहाँ तीन समयों की गणना की जाय। परंतु पहला, दूसरा, तीसरा आदि समय वर्ण्य करके कालचक्रके किन्हीं समयों में जितनी बार मरण पाया, उन सबकी गणना न करें / एक जीवाश्रयी कमसे कम एक समय गणनामें लेते एक कालचक्र तो अन्तमें होता ही है। ऐसा करते जब वह जीव कालचक्रके समग्र समयोंको अनुक्रमसे स्पर्श कर ले तब ‘सूक्ष्म-काल-पुद्गलपरावर्त हो / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 // बादर-'भाव'-पुद्गल-परावर्त // 7 // संयमके असंख्यात स्थानकोंसे तीव्र मंदादिभेदोंसे 'रसबंध के अध्यवसायस्थानक ( अध्यवसाय = उद्यम, उत्साह ) असंख्यातगुने [ असंख्य लोकादेशप्रदेशप्रमाण ] हैं, उनमें प्रत्येक अध्यवसाय-स्थानकमें मरता हुआ जब रस-बन्धके सर्व-अध्यवसायोंको बिना क्रमके मरणसे जीव स्पर्शित हो जाए तब ‘बादर-भाव-पुद्गल-परावर्त' होता है। ॥सूक्ष्म-'भाव'-पुद्गल-परावर्त / / 8 // पूर्व, क्रमके बिना मरण-स्पर्शन अध्यवसायोंकी गणना करते हुए काल वक्तव्यता बताई गई, परंतु सूक्ष्म-भाव-पुद्गल-परावर्तकालमें तो जिस समय जीवको प्रथम सर्वमन्द ( सर्वजघन्य ) अध्यवसाय-स्थानकमें मरण हुआ था, पुनः कालांतरमें वह उससे अधिक कषायांशवाले ( दूसरे अध्यवसाय ) स्थानकमें मरता है। ऐसे कुछ कालांतरमें उससे अधिक कषायांशवाले तीसरे अध्यवसायमें वह मरता है। ऐसे क्रमशः रसबन्धके अध्यवसायस्थानकोंको ,मरणसे स्पर्श करे उनकी गणना करें। (आगे-पीछे अध्यवसायमें मरे उनकी गणना न करें) ऐसा करते हुए सर्व-अध्यवसाय-क्रमश: स्पर्श कर लें तब ‘सूक्ष्म-भावपुद्गल-परावर्त हो। ये पुद्गलपरावर्त अनन्त ८७उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण समझें, परन्तु अनन्तमें अनन्त भेद होनेसे बादर पुद्गलपरावर्त से सूक्ष्मपुद्गलपरावत्त अनन्तगुणादिक समझे। ( अर्थात् बादर-द्रव्य-पुद्गल-परावर्त की अपेक्षा सूक्ष्म-द्रव्य-पुद्गल-परावर्तकी अनन्ती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी पूर्वसे अनन्तगुनी समजना।)। ऊपर क्या क्या वस्तुस्वरूप कह गये हैं ? उसके संग्रहरूप गाथा 'समयावलि य मुहुत्ता, दिवसमहोरत्त-पक्ख-मासा य / संवच्छर-जुग-पलिया-सागर-ओसप्पि-परियट्टा // 1 // ' इस तरह समयसे प्रारंभ करके पुद्गल-परावर्त तकके कालका संक्षिप्त विवेचन किया गया / ... // इति समयादिकं पुद्गल-परावर्तान्तं कालस्वरूपं समाप्तम् // अवतरण-अब व्यंतर देव-देवियों की जघन्य और उत्कृष्ट आयुःस्थिति कहकर ज्योतिषी देवदेवियोंका जघन्योत्कृष्ट आयुष्यका वर्णन करता है-... 87. 'उस्सप्पिणी अणंता ! पुपालपरियट्टओ मुणेयब्वो / तेऽणताती-अद्धा, अणागयद्धा अणंतगुणा // 1 // ' [ नवतत्त्व ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलपरावर्तका स्वरूप गाथा 5-7 [ 55 वंतरयाण जहन्नं, दस-वास-सहस्स-पलियमुक्कोसं / 1 . देवीणं पलिअद्धं, पलियं अहियं ससि-खीणं // 5 // लक्खेण सहस्सेण य, वासाण गहाण पलिय मेएसि / ठिइ अद्धं देवीणं, कमेण नक्खत्त-ताराणं // 6 // पलिअद्धं चउभागो, चउ-अडभागाहिंगाउ देवीणं / चउजुअले चउभागो, जहन्नमडभाग पंचमए // 7 // गाथा-व्यंतर देवों तथा देवियोंका जघन्य आयुष्य दस हजार वर्ष प्रमाण है और व्यंतरदेवोंका उत्कृष्ट आयुष्य पल्योपम प्रमाण है, व्यंतरदेवोंकी देवीका. उत्कृष्ट आयुष्य अर्ध-पल्योपम जितना है। चन्द्रका एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम और सूर्यका एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य है / ग्रहोंका उत्कृष्ट आयुष्यं प्रमाण एक पल्योपम है। साथ ही चन्द्र, सूर्य और ग्रहों की देवियोंका उनसे आधा है। नक्षत्र और तारेका अनुक्रमसे, आधा पल्योपम तथा पल्योपमका चौथा भाग प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य है और उन दोनोंकी देवियोंका अनुक्रमसे कुछ अधिक पल्योपमका चौथा भाग, कुछ अधिक पल्योपमका आठवाँ भाग उत्कृष्ट आयुष्य है। साथ ही चार युगलके विषयमें जघन्य आयुष्य पल्योपमका चौथा भाग है और पांचवें युगलमें जघन्य आयुष्यका प्रमाण पल्योपमका आठवाँ भाग है // 5-6-7 // विशेषार्थ-व्यंतर निकायके देवों तथा उनकी देवियोंका जघन्य आयुष्य भवनपतिनिकायके समान दस हजार वर्षका होता है, जब कि उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपमका होता है। और उन्हीं व्यंतरदेवों की देवियोंका उत्कृष्ट-आयुष्य “आधे पल्योपमका है। .. प्रश्न-व्यंतरदेवों तथा देवियोंकी जघन्य तथा उत्कृष्ट-आयुष्य स्थिति तो कही लेकिन मध्यम स्थिति कितनी समझें ? . * उत्तर-जघन्य स्थिति जो दस हजार वर्षकी कही गई है अतः एक समयाधिकसे प्रारंभ करके [ एक पल्योपमप्रमाण ] उत्कृष्ट-आयुष्य संपूर्ण न हो तब तक यथायोग्य जो बीचकी स्थिति हो उसे मध्यम स्थिति जाने / जहाँ जहाँ मध्यम स्थिति समझनी हों वहाँ यह स्पष्टीकरण समझ लें। 88. 'श्री ही धृति ' आदि देवियोंको कोई व्यन्तरनिकायकी मानते हैं, किन्तु वैसा मानना उचित नहीं, क्योंकि उन देवियोंका आयुष्य एक पल्योपमप्रमाण-होनेसे उन देवियोंको व्यन्तरनिकायकी न मानकर भवनपतिनिकायक मानें यही उचित है; क्योंकि व्यन्तरकी देवियोंका उत्कृष्ट आयुष्य भी आधे-पल्योपमका है / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी . ..... [ गाथा 5-7 -व्यन्तरनिकायके देवोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थितिका यन्त्र Gc निकायोंके नाम / दक्षिणेन्द्रोंका .:. उत्कृष्ट-आयुष्य | उत्तरेन्द्रोंका :. उत्कृष्ट-आयुष्य 1/ पिशाच नि० || कालेन्द्रका | पल्योपम 9 महाकालेन्द्रका 1 पल्योपम 2 भूत नि० 2 स्वरूपेन्द्रका 10 प्रतिरूपेन्द्रका 3/ यक्ष नि० 3/ पूर्णभद्रका 11 मणिभद्रेन्द्रका 4/ राक्षस नि० 4 भीमेन्द्रका 12 महाभीमेन्द्रका | किन्नर नि० किन्नरेन्द्रका |13 किंपुरुषेन्द्रका | किंपुरुष नि० 6/ सत्पुरुषेन्द्रका 14 महापुरुषेन्द्रका 7| महोरग नि० |7 अतिकायेन्द्रका |15| महाकायेन्द्रका 8 गन्धर्व नि० 8 गीतरतीन्द्रका | ,,. 16 गीतयशेन्द्रका इस यन्त्रमें यद्यपि व्यन्तरेन्द्रोंका आयुष्य कहा है, तो भी उस निकायके विमानवासी देवोंका भी उत्कृष्ट आयुष्य उपर्युक्त रीतिसे समझ लें / -ज्योतिषी निकायके देवोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थितिज्योतिषी शब्दका तात्पर्य क्या है ? द्योतनं ज्योतिः, तदेषामस्तीति ज्योतिष्काः / ज्योति अर्थात् प्रकाश, वह प्रकाश जिनका हो अर्थात् जो प्रकाश करनेवाले हों वे ज्योतिषी विमान और उनमें रहनेवाले वे ज्योतिष्कदेव कहलाते हैं। ___ ज्योतिषी देवता दो प्रकारके होते हैं, चर और स्थिर। उनमें ढाईद्वीपमें स्थित 1 उत्तरदिशावर्ती ध्रुवताराचक्रके अतिरिक्त ज्योतिषीके विमान मेरुकी प्रदक्षिणा करते रहनेसे "चर हैं अर्थात् जो घूमते ही रहनेके स्वभाववाले हैं वे चर और जो सदा एक ही स्थान पर रहें वे स्थिर / जो ढाईद्वीपके बाहरके हैं वे स्थिर ज्योतिषी कहलाते हैं अर्थात् सदाकालके लिए वे एक ही स्थान पर रहकर नियतक्षेत्रमें ही प्रकाश देनेवाले होते हैं, परंतु ढाईद्वीपमें रहे हुए चर चन्द्र-सूर्यादिके विमानोंकी तरह घूमते नहीं रहते हैं। अब वे सर्व (चर और स्थिर) ज्योतिषीमें विराजमान चन्द्रेन्द्र तथा चन्द्र-विमानवासी देवोंका उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपम और एक लाख वर्ष अधिक होता है, तथा सूर्येन्द्र और सूर्य-विमानवासी देवोंका उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपम और एक हजार वर्ष अधिक होता है। ग्रहोंके अधिपतिका तथा ग्रह-विमानवासी देवोंका उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपमका होता है। नक्षत्रके 89. चरन्तीति चराः-जो चरे-घूमा करे उनको चर कहते हैं। 90. तिष्ठन्ति तच्छीलानि स्थिराणि / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषीदेवका जघन्य उत्कृष्ट आयुष्य ] गाथा 5-7 [ 57 अधिपति तथा नक्षत्र-विमानवासी देवोंका उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपमके आधे भागका होता है और तारेके अधिपति और तारा-विमानवासी देवोंका उत्कृष्ट आयुष्य है पल्योपमका है। ___ ज्योतिषी निकायकी देवियोंकी क्रमशः उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति पूर्वकथित चन्द्रेन्द्र तथा सूर्येन्द्र तथा ग्रहाधिपति इन तीनों तथा इन सर्व विमानवासी देवोंकी देवियोंका आयुष्य अनुक्रमसे आधे भागका जाने अर्थात् चन्द्रेन्द्र तथा चन्द्र-विमानवासी देवोंकी देवियोंका उत्कृष्ट आयुष्य आधा पल्योपम और पचास हजार वर्ष ऊपर होता है। सूर्य-विमानके सूर्येन्द्र तथा सूर्य-विमानवासी देवोंकी देवियोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति आधा पल्योपम और ऊपर पांचसौ वर्षप्रमाण होती है / तथा ग्रहाधिपतिकी देवीका. तथा ग्रह-विमानवासी देवोंकी देवियोंका उत्कृष्ट आयुष्य आधे पल्योपमका होता है। . नक्षत्राधिपति तथा नक्षत्रके विमानवासी देवोंकी देवियोंका उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपमका चौथा भाग और उसके ऊपर कुछ अधिक होता है। और ताराके अधिपति और ताराके विमानवासी देवोंकी देवियोंका उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपमका आठवाँ भाग और ऊपर कुछ विशेष प्रमाण होता है / ____इस प्रकार ज्योतिषी निकायके देवोंके पांचों युगलोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति कही गई / अब . ज्योतिषी निकायके पांचों युगलोंकी जघन्यस्थिति ज्योतिषी देव पांच प्रकारके हैं, उनमें चन्द्र और सूर्य ये दो तो स्वयं इन्द्र हैं और उनके पास इन्द्रके समान सर्व रिद्धि-सिद्धि होती है। अपने नामके अनुसार ही उनके विमानोंकी पहचान है। शेष तीनों विमानोंमें अधिपति होते हैं। 'दो इन्द्र तथा तीन अधिपति' ऐसे इन पांचोंका जघन्य तथा मध्यम आयुष्य है ही नहीं। उनसे वर्जित उन पांच प्रति (1) प्रथम चन्द्रके विमानवासी देव और उन देवोंकी देवियोंका, (2) सूयके विमानवासी देव और उन देवोंकी देवियोंका, (3) ग्रहके विमानवासी देव और उन देवोंकी देवियोंका, (4) नक्षत्रके विमानवासी देव और उन देवोंकी देवियोंका, इस तरह उन चारों युगलोंका जघन्य आयुष्यप्रमाण एक पल्योपमका चौथा भाग होता है और पांचवें ताराके विमानवासी देव और उन देवोंकी देवियोंका जघन्य आयुष्य एक पल्योपमके आठवें भाग जितना होता है। कृ. सं. 8. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा. 5-7 इस तरह ज्योतिषी निकायके पांच युगलोंकी उत्कृष्ट और जघन्यस्थिति कही और मध्यमस्थितिके लिए तो पहले जो स्पष्टता की है, उसके अनुसार सुज्ञजन यहाँ भी समझ लें / सूर्य-चन्द्रकी आयुष्यस्थिति के अनुसार सामानिकादि देवोंकी आयुष्यस्थिति भी जाने / [5-6-7 ] // ज्योतिषी निकायगत देव-देवियोंके जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्यका यंत्र / / ज्योतिषी नाम | जघन्य आयुष्य | | उत्कृष्ट आयुष्य चन्द्र-इन्द्रका नहीं है। 1 पल्योपमके उपर 1 लाख वर्ष चन्द्रकी इन्द्राणीका / पल्योपम ( प०) | (उससे आधा) // पल्योपम ऊपर 50 हजार वर्ष चन्द्रकी प्रजा-देवोंका 1 पल्योपम ऊपर 1 लाख वर्ष चन्द्रकी प्रजा-देवीका (उससे आधा) o // पल्योपम ऊपर 50 हजार वर्ष सूर्य इन्द्रका नहीं है 1 पल्योपम उपरांत 1000 वर्ष सूर्यकी इन्द्राणीका / पल्योपम o| पल्योपम ऊपर 500 वर्ष सूर्यके प्रजा देवका 1 पल्योपम ऊपर 1000 वर्ष सूर्य प्रजा-देवीका 0 // पल्योपम ऊपर 500 वर्ष ग्रह अधिपतिका 1 पल्योपम ग्रहाधिपतिकी इन्द्राणीका 0 // पल्योपम ग्रहप्रजा-देवका 1 पल्योपम ग्रहप्रजा-देवीका o // पल्योपम नक्षत्र अधिपतिका 0 // पल्योपम नक्षत्राधिपतिकी देवीका 0 / पल्योपम-साधिक नक्षत्र देवका o // पल्योपम नक्षत्र देवीका / पल्योपम-साधिक तारा अधिपतिका . |पल्योपमका आठवाँ भाग| पल्योगम ताराधिपतिकी देवीका है, है पल्योपम-साधिक भाग तारा देवका 0 / पल्योपम तारा देवीका , पल्योपम अवतरण-पहले भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिषी इन तीनों निकायोंकी आयुष्यस्थितिका Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देवदेवीका जघन्य उत्कृष्ट आयुष्य ] गाथा 8 [ 59 वर्णन किया। अब डेढ़ गाथासे चौथी वैमानिक निकायके देवोंकी उत्कृष्ट आयुष्य स्थितिका वर्णन करते हैं, दोसाहि-सत्तसाहिय, दस-चउदस-सत्तर-अयर जा सुक्को / इक्किकमहियमित्तो, जा इगती सुवरि गेविज्जे // 8 // तितीसणुत्तरेसु, सोहम्माइसु इमा ठिई जिट्ठा / / 83 / / गाथार्थ-दो सागरोपम, साधिक दो सागरोपम, सात सागरोपम, साधिक सात सागरोपम, दस सागरोपम, चौदह सागरोपम और सत्रह सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति अनुक्रमसे सौधर्म-देवलोकसे आरम्भ करके शुक्र देवलोकपयत जानें / यहाँसे एक एक देवलोकमें एक एक सागरोपमप्रमाण आयुष्य स्थितिमें वृद्धिसे ऊपरकी नवम ग्रेवेयेकमें 31 सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति हो तब तक करें, पश्चात् अनुत्तर विमानमें तैतीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति समझें। इस तरह सौधर्मादि देवलोकमें उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण कहा है / / 8-83 // . विशेषार्थ-चौथे वैमानिक निकायके देव दो प्रकारके हैं / 1. कल्पोपपन्न और 2. कल्पातीत / ४'कल्पोपपन्न यह पद दो शब्दोंसे संकलित है। एक 'कल्प' और दूसरा 'उपपन्न', उनमें 'कल्प' अर्थात् आचार-स्थिति-जित-मर्यादा अथवा स्पष्ट अर्थमें व्यवस्था और 'उपपन्न' अर्थात् युक्त-प्राप्त अर्थात् व्यवस्थासे युक्त वह, अर्थात् इन्द्र, सामानिक और आत्मरक्षकादि दसों प्रकारकी व्यवस्थाएँ जिसके अन्दर रही हैं वह 'कल्पोपपन्न' कहलाता है / जैसे मनुष्यलोकमें राजा और प्रजा विषयक राजकीय और प्रजा सम्बन्धी सर्व प्रकारकी आचार-व्यवस्थाएँ होती हैं, लगभग वैसे ही व्यवस्थाएँ देवलोकमें भी विद्यमान हैं और वे दूसों प्रकारके देव अपने अपने कर्तव्यानुसार समग्र देवलोकका तंत्र चलाते हैं। ये दस प्रकारके देव कौन हैं ? यह 45 वी गाथामें कहा जाएगा। ये कल्पोपपन्न देव सौधर्मादि देवलोकसे लेकर बाहरवें अच्युत देवलोक तक होते हैं। इन बारहों देवलोकोंमें परस्पर स्वामित्व, सेवकत्व, छोटे बड़ेका सब प्रकारका व्यवहार इत्यादि सर्व जातिके स्वामिसेवक आदि भाव-व्यवहार (मनुष्यलोकमें राजा और प्रजाके बीच हो वैसा ) होता है। ४२कल्पातीत-यह शब्द भी 'कल्प' और 'अतीत' ऐसे दो शब्दोंसे संकलित है, उसमें 'कल्प' अर्थात् कल्पोपपन्न शब्दकी परिभाषामें कहे गये सर्व प्रकारके मर्यादा आदि 91. 'कल्पेन-आचारेण उपपन्ना उपेता इति कल्पोपपन्नाः // ' 92. 'कल्पमाचारमतीता उल्लङ्धिता इति कल्पातीताः // ' . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी * [ गाथा 8 आचारोंसे 'अतीत' अर्थात् रहित यह 83' कल्पातीत' कहा जाय / अर्थात् जहाँसे परस्पर स्वामि-सेवकभाव चला गया है, वहाँ परस्पर छोटे-बड़ेकी मर्यादा होती नहीं है, जिनको जिनेश्वरोंके कल्याणकादि प्रसंगों में आनेकी मर्यादा निभानी नहीं होती, वे 'कल्पातीत' कहलाते है / यह कल्पातीतत्त्व नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरमें है अर्थात् सभीका समानत्त्व [अहमिंद्रत्व ] है। देवलोकमें एक व्यवस्था-व्यवहारवाले देव और दूसरे व्यवस्था-हीन देव होते हैं। इससे यह निश्चित हुआ कि वैमानिक निकायमें दो प्रकारके देव हैं। जहाँ अशांति, क्लेश या परस्पर संघर्षण आदि होनेकी संभावना हो वहाँ सुलह-शांतिकी स्थापनाके लिए सर्वविध व्यवस्थाकी आवश्यकता उपस्थित होती है और वहाँ वैसी व्यवस्था होती ही है। __ अतः ( भवनपतिसे लेकर ) वैमानिक निकायमें बारहों देवलोकके देवोंको परस्पर मिलने जुलनेके साथ ही अन्यत्र गमनागमन करनेके प्रसंग बने रहते हैं। साथ ही देवांगनाओंके साथके स्नेहसंबंध भी रहते हैं और उनके आकर्षण भी रहते हैं। इस तरह जहाँ परस्पर समागम हों वहाँ रागद्वेष-विषयक संघर्षण उपस्थित होते हैं और संघर्षणमेंसे ही संक्लेशों की चकमक झरती है और युद्धोंके वरनगोड भी गड़गड़ा उठते हैं। ऐसा बनने न पाये, इसलिए सारी व्यवस्था होनी चाहिए, अतः मनुष्यलोकके राजतंत्रकी तरह वहाँ भी दस प्रकारको व्यवस्था होनेसे वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं। 'कल्प' अर्थात् 'आचार' और 'उपपन्न' अर्थात् ‘युक्त, आचारसहित' वह / बारह देवलोकोंसे आगे वैमानिकनिकायके ही दूसरे नव अवेयक और अनुत्तर देवलोकोंमें यह व्यवस्था नहीं है, क्योंकि उन देवोंको अपना समग्र जीवन अपने ही विमानोंमें बिताना होता है। विमानमें से कभी बाहर निकलना होता ही नहीं है। इतना ही नहीं, परलोकसे आकर जिस शय्यामें उत्पन्न हुए थे तब सोये हुए ही हों ऐसे आकारमें उत्पन्न हुए थे, तत्पश्चात् कभी उठना भी नहीं होता ऐसे ये महाभागी होते हैं और उन्हें वैसी जरूरत भी नहीं होती। वहाँ सर्व क्लेश और सर्वोपाधिके मूलरूप न तो देवांगनाएँ और न उनके साथ रहनेवाले स्नेहसम्बन्ध तथा उन्हें उठना ही नहीं होता, अतः नौकर, चाकर या सलाहकार जैसे देव भी नहीं होते। ___अतः सभी देव अपनी-अपनी शय्यामें ही जीवन व्यतीत करते हैं। अतः देवियाँ तो हैं ही नहीं और देवोंका परस्पर मिलन भी नहीं है इसलिए किसीका समागम भी नहीं है, अतः संघर्ष नहीं है और इसलिए व्यवस्थाकी जरूरत नहीं रहती है। 93. इसीलिए बारह देवलोकोंको कल्प [ सौधर्म ‘कल्प' आदि ] की तरह संबोधित. कर सकते हैं लेकिन ग्रेवेयक तथा अनुत्तरको कल्प विशेषण नहीं लगाते हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देवकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति ] गाथा 8 [61 परम कारुणिक सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवन्तोंके कल्याणकादि प्रसंगों में उन्हें आनेकी जरूरत नहीं। केवल जो सम्यग्दृष्टि देव हों वे शय्यामें सोते सोते ही सिर्फ दोनों हाथ ऊँचे करके नमस्कार करते हैं। अनुत्तर देवोंको तो हाथ भी ऊँचे करनेकी आवश्यकता नहीं। जन्मांतरमें की हुई चारित्रकी उत्तम कक्षाकी आराधनाके प्रतापसे ही ऐसी उत्तम कक्षाकी स्थिति प्राप्त किये हुए हैं, कि जहाँ अपने ऊपर किसीका स्वामित्व ही नहीं। वैसे स्वयं भी किसीके स्वामी नहीं हैं। साथ ही क्लेश, झगड़ा, अशांति भी नहीं हैं। तमाम देव समान, सर्व स्वतंत्र रूपमें होनेसे वहाँ व्यवस्थाकी जरूरत नहीं होती। ___ अनुत्तरवासी देव एक करवटसे शय्यामें लेटे हुए द्रव्य-गुण-पर्यायके चिंतनकी गंभीर विचारणामें समय व्यतीत करते हैं। उनमें (सर्वार्थसिद्धके ) 33 सागरोपमके आयुष्यवाले देव साढे सोलह सागरोपम तक एक ही करवटसे सोये रहते हैं / तत्पश्चात् एक बार करवट बदलकर शेष आधा आयुष्य पूर्ण करते हैं। ऐसी तो महान् पुण्यके प्रतापसे अति सुखरूप आयुष्यको भोगनेकी महत्ता प्राप्त की है, उसमें कारणरूप केवल उत्तम कक्षाके चारित्रकी आराधना है। ___ अब उन दोनों प्रकारके वैमानिक निकाय देवोंकी प्रथम उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति कहनी है। [यहाँ जो आयुष्य कहा जाता है वह हरएक देवलोकके अंतिम प्रतरमें निवास करनेवाले देवोंका जाने और शेष प्रतरोंमें बसनेवालों की स्थिति तथा उन प्रतरोंका स्वरूप आगे कहा जाएगा / ] वैमानिक निकायके देवोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति . प्रथम सौधर्म देवलोकमें सामान्यसे ( उत्कृष्टमें उत्कृष्ट ) सर्वोत्कृष्ट दो सागरोपमकी आयुष्य स्थिति है। यह जो स्थिति कही गई वह समुच्चयसे कही है और इन दो सागरोपमकी स्थिति उस सौधर्म देवलोकके अंतिम ( तेरहवें ) प्रतरकी जानें / दूसरे ईशान देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति समुच्चयसे दो सागरोपम और एक पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक जानें / यह स्थिति भी सौधर्म देवलोककी तरह ईशान देवलोकके अंतिम प्रतरमें होती है। इस तरह तीसरे सनत्कुमार देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति सात सागरोपम, चौथे माहेन्द्र देवलोकमें सात सागरोपम और एक पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक, पाँचवें ब्रह्म देवलोकके देवताका उत्कृष्ट आयुष्य दस सागरोपम, छठे लांतक देवलोकमें चौदह सागरोपम, सातवें शुक्र देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्य सत्रह सागरोपम, आठवें सहस्रार देवलोकमें अठारह सागरोपम, नौवें आनत देवलोकमें उन्नीस Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-८ सागरोपम, दसवें प्राणत देवलोकमें बीस सागरोपम, ग्यारहवें आरण देवलोकमें इक्कीस सागरोपम और बारहवें अच्युत देवलोकमें बाईस सागरोपमकी आयुष्य स्थिति होती है। 'प्रैवेयक'का तात्पर्य क्या है ? समग्र चौदह राजलोक 'वैशाख ' संस्थान में स्थित पुरुषके आकारमें है। जिस तरह पुरुषोंके गलेमें, वक्षःस्थलमें, कटि आदि स्थानोंमें आभूषण होते हैं, वैसे चौदह राजलोकरूपी पुरुषके आभूषण कौनसे हैं / तो जो विमानादि हैं वे ही उसके आभूषणरूप हैं, उनमें नव ग्रैवेयकके विमान चौदह राजलोकरूपी पुरुषके गलेके स्थानमें आभूषणरूपमें विद्यमान होनेसे उसे 'अवेयक कहा जाता है / वेयक ४४शब्दकी व्युत्पत्ति भी वही प्रकट करती है। ये नव (नौ) अवेयक खड़े किये गये दण्डकी तरह एकके ऊपर एक स्थित हैं / अन्य ग्रन्थकार इन नौ ग्रैवेयकोंका तीन विभागोंमें परिचय कराते हैं / इनमें पहले तीनको 'अधस्तन तीन', मध्यम तीनको 'मध्यम तीन' और उनके ऊपरके तीनको ‘उपरितन तीन' इस तरह परिचय कराते हैं। ___ उनमें पहली त्रिपुटीमेंसे पहले ( अधस्तन अधस्तन) सुदर्शन ग्रेवेयकमें तेईस सागरोपम, दूसरे (अधस्तन-मध्यम) सुप्रतिष्ठित अवेयकमें चौबीस सागरोपम, तीसरे [अधस्तन-ऊर्ध्व ] मनोरम अवेयकमें पचीस सागरोपम / . दूसरी त्रिपुटीमें-चौथे [ मध्यमाधस्तन ] सर्वभद्र अवेयकमें छब्बीस सागरोपम, पाँचवें [ मध्यममध्यम ] सुविशाल अवेयकमें सताईस सागरोपम और छठे [ मध्यमोर्ध्व ] सौमनस प्रैवेयकमें अठाईस सागरोपम / तीसरी त्रिपुटीके पहले अर्थात् क्रमसे सातवें सुमनस ग्रैवेयकमें उन्तीस सागरोपम, आठवें प्रियंकर अवेयकमें तीस सागरोपम और नौवें आदित्य ग्रैवेयकमें एकतीस सागरोपमकी उत्कृष्ट-आयुष्यस्थिति होती है / __इन नौ अवेयकोंसे ऊपर स्थित पांच अनुत्तर देवलोकोंमेंसे (1) विजय (2) वैजयंत (3) जयंत और (4) अपराजित इन चारों विमानोंमें और पांचवें सर्वार्थसिद्ध नामके विमानमें देवोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति तैतीस सागरोपमकी जाने / ____ 94. ग्रेवयकास्तु-लोकपुरुषस्य ग्रीवाभरणभूताः उपचारालोक एव पुरुषस्तस्य ग्रीवेव ग्रीवा तस्यां भवा ग्रेवा अवेया ग्रैवेयका वा // अथवा ग्रीवेव ग्रीवा, चतुर्दशरज्ज्वात्मलोकपुरुषस्य त्रयोदश्या रज्जो गस्तन्निविष्टतया अतिभ्राजिष्णुतया च तदाभरणभूता ग्रैवेयाः इस तरह भी व्युत्पत्ति होती है। ___95. अन्यत्र अन्य महर्षि इन अवेयकोंके नामोंकी पहचान मागधी-प्राकृत भाषाके शब्दोंमें देते हैं, जैसे कि १-हिट्रिटम, २-हिट्ठिम-मध्यम, ३-हिट्ठिमउवरिम, ४-मध्यमहिट्ठिम, ५-मध्यम-मध्यम, ६-मध्यमउवरिम, ७-उवरिमहिट्टिम, ८-उवरिममध्यम, ९-उवरिमउवरिम / ये केवल भाषाके कारण अलग दंगसे बोले जाते हैं, लेकिन मतांतर न समझें / ये नाम उन ग्रैवेयकोंके स्थान-सूचक हैं / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिकदेवकी जघन्य आयुष्यस्थिति ] गाथा 9-10 [63 इस प्रकार सौधर्म देवलोकसे लेकर पांचों अनुत्तर विमानों तकके देवोंकी अर्थात् वैमानिक निकायके देवों की ऊपर बताये अनुसार उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति कही गई। [8-83] अवतरण-पूर्व गाथामें वैमानिक देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति कही गई / अब दो गाथाओंसे उन्हीं वैमानिक देवोंकी जघन्य स्थिति कही जाती है सोहम्मे ईसाणे, जहन्न-ठिइ पलियमहिअं च // 9 // दो-साहिसत्तदस चउ-दस, सत्तर अयराई जा सहस्सारो / तत्परओ इकिकं, अहियं जाऽणुत्तरचउक्के // 10 // इगतीस सागराइं, सबढे पुण जहन्न-ठिइ नत्थि / / 103 // गाथार्थ-सौधर्म तथा ईशान देवलोकमें अनुक्रमसे पल्योपम और साधिक पल्योपमप्रमाण जघन्यस्थिति है / तत्पश्चात् सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र तथा सहस्रार देवलोकमें अनुक्रमसे दो सागरोपम, साधिक दो सागरोपम, सात सागरोपम, दस सागरोपम, चौदह सागरोपम तथा सत्रह सागरोपम-प्रमाण जघन्यस्थिति कही है। तत्पश्चात् आनतादि चार देवलोकोंमें, नौ ग्रैवेयकोंमें तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में अनुक्रमसे एक-एक सागरोपम अधिक जघन्यस्थिति है। इस प्रकार समग्र अनुत्तर देवलोकके चारों विमानोंमें इकतीस सागरोपमप्रमाण जघन्यस्थिति जानें। सर्वार्थसिद्धमें जघन्यस्थिति नहीं है // 9-10-103 विशेषार्थ वैमानिक निकायके पहले सौधर्म देवलोकके४७ देवताओंकी जघन्य आयुष्य स्थिति एक पल्योपमकी है, यह स्थिति सौधर्म देवलोकके तेरहों प्रतरों में निवास करनेवाले देवोंकी जानें। ईशान देवलोकके देवताओंकी जघन्य आयुष्य स्थिति एक पल्योपम और एक पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक होता है / यह जघन्य स्थिति सौधर्म देवलोककी . . . 96. सौधर्म-ईशानमें जघन्यस्थिति पल्योपम तथा अधिक पल्योपम मात्र कही है और सनत्कुमारमें तुरन्त ही दो सागरोपम जैसी बड़े प्रमाणवाली जघन्यस्थिति कही, उससे जरा आश्चर्य होगा, किन्तु ज्ञानीका कथन यथातथ्य होता है / 97. जघन्यस्थिति सर्वत्र समान है, लेकिन उत्कृष्टस्थितिमें अन्तर है। सौधर्म इन्द्रका निवास अंतिम (तेरहवें ) प्रतरमें ही होता है, इससे पूर्व समुच्चयरूपमें सौधर्मादि प्रत्येक देवलोकाश्रयी जो उत्कृष्टस्थिति कही है वह अंतिम प्रतरमें रहनेवाले इन्द्र तथा अन्य सामानिक आदि देवोंकी भी उतनी ही समझें / मात्र उनको आज्ञा-ऐश्वर्यादि भाव नहीं होता है। पूर्व कही गई सामुदायिक उत्कृष्टस्थिति हरएक देवलोकके अंतिम प्रतरकी समझे, उसी देवलोकके अन्यान्य प्रतरोंमें तो अन्तरवाली होती है / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 9-10 तरह ईशान देवलोकके "सर्व प्रतरमें समझ लें। तीसरे सनत्कुमार देवलोकमें जघन्य आयुष्य दो सागरोपमका, चौथे माहेन्द्र में सर्व प्रतरमें जघन्य आयुष्य दो सागरोपमसे कुछ अधिक, पांचवें ब्रह्म देवलोकमें जघन्यआयुष्य सात सागरोपमका, छठे लांतक देवलोकमें जघन्य आयुष्य दस सागरोपमका, सातवें शुक्र देवलोकमें जघन्य आयुष्य चौदह सागरोपम, आठवें सहस्रार देवलोकमें जघन्य आयुष्य सत्रह सागरोपम, नवें आनत देवलोकमें जघन्य आयुष्य अठारह सागरोपम, दसवें प्राणत देवलोकमें जघन्य आयष्य उन्नीस सागरोपम, ग्यारहवें आरण देवलोकमें जघन्य आयुष्य बीस सागरोपम, बारहवें अच्युत देवलोकमें जघन्य आयुष्य इक्कीस सागरोपम, तत्पश्चात् नौवें अवेयकमें एक-एक सागरोपमकी संख्या बढ़ाते जाना, अर्थात् पहले अवेयकमें बाइस सागरोपम और नौवें आदित्य वेयकमें तीस सागरोपमकी जघन्य स्थिति आ जाएगी। . ___ तत्पश्चात् पांच अनुत्तर विमानोंकी जघन्य स्थितिका प्रमाण कहते हैं उनमें अनुत्तरसे क्या तात्पर्य है ? तो जिसके उत्तरमें अब किसी भी प्रकारका विशिष्ट पौद्गलिक सुख नहीं है अर्थात् दस देवलोकके आगे किसी भी प्रकारका पौद्गलिक सुखका अधिक आस्वाद वर्तमान नहीं है / अतः वह देवलोक अनुत्तर देवलोकके नामसे पहचाना जाता है। उस ४४अनुत्तर देवलोकके विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित इन चारों विमानोंके विषयमें जघन्य आयुष्यस्थिति एकतीस सागरोपमकी है / परन्तु पाँचवें सर्वार्थसिद्ध नामके विमानके विषयमें १०°जघन्य आयुष्यस्थिति नहीं है। यह उस स्थानके लिये विशिष्ट प्रभावसूचक है। ___ 98. अन्य आचार्य हरएक प्रतरकी जघन्यस्थिति अन्य प्रकारसे भी बताते हैं जो १५-१६वीं गाथामें कही जायेगी / चालू गाथामें जो जघन्यस्थिति कही है वह उस देवलोकके समग्र प्रतराश्रयी समुच्चयने कही है। _____ 99. अथवा अनुत्तर तात्पर्य है-'अविद्यमानमुत्तरद् विमानादि येषां तेऽनुत्तराः' अर्थात् विद्यमान नहीं है अन्य विमानादि जिसके उत्तरमें वह अनुत्तर / अथवा बाह्यसुखकी अपेक्षामें जिससे श्रेष्ठ स्थान चौदह राजलोकमें अन्य नहीं है। चौदह राजलोकमें संसारी जीवकी अपेक्षासे सर्वोत्तम आयुष्यको धारण करनेवाला स्थान वही है और सबसे ऊँचा देवलोक भी वही है अतः उसे अनुत्तर कहा जाता है / 100. प्र०—तत्त्वार्थसूत्रके अ० 4. सू० 42 का भाष्य सर्वार्थसिद्धके देवोंकी जघन्यस्थिति 32 सागरोपमकी और उत्कृष्ट 33 सागरोपमकी है ऐसा दोनों प्रकारसे कहते हैं। किन्तु यह बात सिद्धान्तकारके अनुरूप नहीं है। अतः टीकाकार श्री सिद्धर्षिीने भी वहाँ प्रश्न उठाया है। किन्तु सत्य क्या है ? यह तो ज्ञानिगम्य है / परन्तु सिद्धान्तकार तो सर्वार्थसिद्धकी अजघन्योत्कृष्ट 33 सागरोपमकी एक ही स्थिति कहते हैं / प्र०—'सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते / केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ०--गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोस तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता // (पन्नवणा सूत्र० पद 4. सू० 102.) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देवदेवीका जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्यका यंत्र ] गाथा 9-10 [ 65 % 3D वैमानिकनिकायमें जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्यस्थितिका यंत्र // देवलोकके नाम / जघन्य आयुष्य उत्कृष्ट आयुष्य सौधर्म देवलोकमें 1 पल्योपम 2 सागरोपम ईशान , 1 पल्योपमसे अधिक 2 सागरोपम साधिक सनत्कुमार ,, 2 सागरोपम 7 सागरोपम माहेन्द्र , 2 सागरोपम साधिक 7 सागरोपम साधिक ब्रह्म 10 सागरोपम लांतक * ; शुक्र सहस्रार आनत प्राणत. .. * आरण अच्युत ,, सुदर्शन अवेयकमें सुप्रतिबद्ध ,, मनोरम , सर्वभद्र , सुविशाल ,, सुमनस ,, सौमनस , प्रियंकर ,, आदित्य , विजय विमानमें वैजयन्त ,, जयन्त , अपराजित ,, सर्वार्थसिद्ध ,, * -नहीं है, [मतांतरसे 32] | 33. बृ. सं. 9 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी * [ गाथा 11-12 सर्वार्थसिद्ध विमानके देवोंको सिद्धान्तकारोंने निश्चयपूर्वक एकावतारी बताये हैं / [9-10-103 ] अवतरण-अब वैमानिक देवियाँ कितने प्रकारकी हैं ? तथा उनकी जघन्य और उत्कृष्ट आयुष्य-स्थिति कितनी है यह कहा जाता है परिगहिआणियराण य, सोहम्मीसाण-देवीणं / / 11 / / पलियं अहियं च कमा, ठिई जहन्ना इओ य उक्कोसा / पलियाई सत्त-पन्नास, तह य नव पंचवन्ना य // 12 // - गाथार्थ-सौधर्म तथा ईशान देवलोककी परिगृहीता तथा अपरिगृहीता देवियोंका जघन्य आयुष्य अनुक्रमसे पल्योपम तथा साधिक (कुछ अधिक) पल्योषम प्रमाण जाने / उनका उत्कृष्ट आयुष्य सौधर्म देवलोककी परिगृहीता देवीका सात पल्योपम और अपरिगृहीता देवीका पचास पल्योपम प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य जानें / ईशान देवलोककी परिगृहीता देवीका नव पल्योपम और अपरिगृहीताओंका पचपन पल्योपम प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य समझें // 12 // विशेषार्थ-देवगतिमें देवियोंकी उत्पत्ति भवनपति निकायसे लेकर ईशान देवलोक तक अर्थात् भवनपति निकाय, व्यन्तर निकाय, ज्योतिषी निकाय और वैमानिक निकायमें सौधर्म तथा ईशान इन दो 101 देवलोकों तक ही होती है। सनत्कुमारसे आगेके देवलोकों में देवियों की उत्पत्ति होती नहीं है, क्योंकि ऊपरके निकायके देव अल्पविषयी हैं, अतः वहाँ देवियोंकी उत्पत्ति नहीं होती। वैमानिक निकायके प्रथम दो देवलोकोंमें देवियाँ दो प्रकारकी होती हैं। एक 'परिगृहीता' और दूसरी 'अपरिगृहीता'। परिगृहीताको १०२कुलांगना अर्थात् कुलीन 101. एक इन्द्रके भवमें इन्द्रकी अपनी कितनी देवियों उत्पन्न होकर मृत्यु पाती हैं ? इस सम्बन्धमें कहा गया है कि 'दो कोडाकोडीओ, पंचासी कोडी लक्खइगसयरी / कोडीसहस्स चउकोडी, सयाण अडवीस कोडीणं // 1 // सत्तावन्नं लक्खा चउदस, सहस्सा य दुसय, पंचासी / इय संखा देवीओ चयंति इंदस्स जम्मंमि // 2 // अर्थ-एक इन्द्रके भवमें दो करोड़ाकरोड़, पचासी लाख करोड़, इकहत्तर हजार करोड़, चारसौ करोड़, अठाईस करोड़, सत्तावन लाख, चौदह हजार, दो सौ पचासी-(२८,५७१४२८,५७,१४,२८५ ) इतनी देवियोंकी संख्या उत्पन्न होकर च्यवन-मृत्युको प्राप्त करती हैं। 102. कुलांगना समान, अर्थात् कुलकी भूषणरूप / जिस तरह मनुष्यलोकमें जो स्त्रियाँ स्वकीय जीवनको Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिकदेवीओंकी जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति ] गाथा 11-12 [ 67 परिणत स्त्रीके सदृश मर्यादाशील समझें तथा अपरिगृहीताको गणिका (वेश्या )के समान स्वेच्छाचारिणी जानें / उन देवियोंकी जघन्य आयुष्यस्थिति कही जाती है सौधर्म देवलोकमें परिगृहीता और अपरिगृहीता देवियोंकी जघन्य आयुष्यस्थिति एक पल्योपमकी है और ईशान देवलोकमें परिगृहीता और अपरिगृहीता देवियोंकी आयुष्यस्थिति एक पल्योपमसे कुछ अधिक समझें / अब उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति कही जाती है सौधर्म देवलोकमें परिगृहीता देवियोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति सात पल्योपमकी और अपरिगृहीता देवियोंकी पचास पल्योपमकी होती है। तथा दूसरे ईशान देवलोकमें परिगृहीता देवियोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति नौ पल्योपमकी और अपरिगृहीता देवियोंकी पचपन पल्योपमकी होती है। इससे ऊपरके देवलोकों में देवियोंकी 10 उत्पत्ति नहीं है। विशेषमें भवनपतिसे लेकर व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म-ईशान निकायोंमें देवोंकी अपेक्षा देवियाँ बत्तीसगुनी, बत्तीस अधिक कही गई हैं / (12) सौधर्म-ईशान देवलोकस्थित परिगृहीता-अपरिगृहीता देवियोंका जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति यन्त्र देवलोक नाम | देवीकी जाति | जघन्य आयुष्य | उत्कृष्ट आयुष्य |1 सौधर्म देवलोकमें परिगृहीता | 1 पल्योपम 7 पल्योपम अपरिगृहीता . . |2. ईशान देवलोकमें | * परिगृहीता 1 पल्योपम साधिक 9 अपरिगृहीता | , , 55 पल्योपम मध्यमस्थिति-जघन्योत्कृष्टकी बिचकी यथासंभव सोचें ... " अवतरण-देवियोंके अधिकारमें प्रासंगिक असुरकुमारादि इन्द्रोंकी अग्रमहिषियोंकी संख्या बताते हैं पवित्र रखकर स्व-पतिमें सन्तोष मानकर, कुलाचारकी मर्यादाके अनुसार वर्तन करनेवाली सुशील हो, उसे कुलांगना कहते हैं, उसी तरह देवलोकमें भी वैसे ही रहन-सहनवाली जो देवियाँ होती हैं वे कुलांगना कहलाती हैं / . 103. तीसरे सनत्कुमार देवलोकसे लेकर अच्युत देवलोक तक अपरिगृहीता देवियोंका सम्भोगादिके Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 13 १०४पण-छ-च्चउ-चउ-अट्ठ य, कमेण पत्तेयमग्गमहिसीओ / असुर-नागाइवंतर-जोइसकप्पदुगिंदाणं // 13 / / विशेषार्थ-जिस तरह मनुष्यलोकमें जिन राजाओंके अनेक रानियाँ होती हैं, उनमें अमुक रानियाँ मुख्य होती हैं, और उसी प्रधानताके कारण ही उन्हें 'पटरानी' कहीं जाती हैं, उसी तरह देवलोकमें भी मुख्य पटरानीको ‘अग्रमहिषी' [मुख्य देवी ] शब्दसे संबोधित किया जाता हैं। __ उनमें भवनपतिनिकायोंमें पहले असुरकुमार निकायके दक्षिणेन्द्र-चमरेन्द्रके तथा उत्तरेन्द्र-बलीन्द्रके प्रत्येकके पांच-पांच अग्रमहिषियाँ होती हैं। शेष नागकुमारादि नवों निकायोंके धरणेन्द्र तथा भूतानंदेन्द्र प्रमुख अठारह इन्द्र हैं, उन हरएक इन्द्रके छः छ: अग्रमहिषियाँ होती हैं। आठ प्रकारके व्यन्तर, आठ प्रकारके वाण व्यन्तर-इस तरह व्यन्तरके सोलह निकायों के उत्तरेन्द्र तथा दक्षिणेन्द्र कुल मिलाकर बत्तीस इन्द्र हैं, उन प्रत्येकके चार अग्रमहिषियाँ होती हैं। तीसरे ज्योतिषी देवलोकके चन्द्र और सूर्य इन दो इन्द्रके भी चार चार अप्रमहिपियाँ होती हैं / और चौथे वैमानिक देवलोकमें सौधर्म देवलोकके सौधर्मेन्द्रकी और दूसरे ईशान देवलोकके ईशानेन्द्रकी आठ-आठ अग्रमहि षियाँ होती हैं। ऊपरके सनत्कुमारादि देवलोकों में देवियोंकी उत्पत्ति होती ही नहीं है, अतः वहाँ परिगृहीता देवी नहीं है परन्तु उस-उस देवलोकके इन्द्रोंको अथवा देवोंको जब विषयसुखकी इच्छा अद्भूत होती है तब उनके उपभोगके लिए सौधर्म और ईशान देवलोक की ही अपरिगृहीता देवियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें उपयोगी होती हैं। पहलेके दो देवलोकोंसे ऊपरके देवलोकमें देवियोंकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे अग्रमहिषियोंका होना संभव नहीं है / [ 13 ] अवतरण वैमानिक देवों और देवियोंकी प्रति देवलोकमें यथासम्भव आयुष्यस्थिति कही / अब प्रतिदेवलोकके प्रत्येक प्रतरमें जघन्योत्कृष्ट आयुष्यस्थिति बतानेके लिए प्रथम किस देवलोकमें कितने प्रतर होते हैं ? उसका वर्णन करते हैंकारण जाना-आना होता है, कितने आयुष्यवाली किस-किस देवलोकमें जाकर देवोंके साथ किस तरह, विषयादि सुखका व्यवहार करती हैं ? यह आगे 168 वी गाथाके प्रसंग पर कहा जाएगा / 104. आयुष्यस्थिति द्वारके प्रकरणमें यह गाथा थोड़ी अप्रस्तुत लगती है, किन्तु मूल ग्रन्थोंमें इसी तरह प्रस्तुत हुई है इसलिए हमें भी स्वीकार करनी चाहिए / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देवकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति] गाथा 14 [69 दुसु तेरस दुसु बारस, छ प्पण चउ चउ दुगे दुगे य चउ गेविज्ज-णुत्तरे दस, बिसट्ठि पयरा उवरि लोए // 14 // गाथार्थ-सौधर्म तथा ईशान देवलोकमें तेरह प्रतर हैं। तत्पश्चात्के तीसरे और चौथे-इन दो देवलोकों में बारह प्रतर हैं। पाँचवें देवलोकमें छह प्रतर, छठे में पांच प्रतर, सातवेंमें चार प्रतर, आठवेंमें चार प्रतर, नवम तथा दशम देवलोकमें चार और ग्यारह तथा बारहवें देवलोकमें भी चार प्रतर हैं / तत्पश्चात् नौ प्रैवेयकके नौ और अनुत्तर विमानका एक मिलकर कुल दस प्रतर हैं / इस तरह ऊर्ध्वलोकके देवलोकमें बयासठ प्रतर हैं // 14 // विशेषार्थ-प्रतर अर्थात् क्या ? तो मनुष्यलोकमें प्रवर्तमान घरोंमें १०५सौ-सौसे अधिक मंजिलें होती हैं। इन मंजिलों की गिनती करानेवाली अथवा विभाग करनेवाली जो तलप्रदेश-वस्तु है वह देवलोकाश्रयी शास्त्रीय परिभाषामें 'प्रतर' शब्दसे संबोधित होती है। परन्तु विशेष यह है कि-मनुष्यलोककी मंजिलै-लकडी आदिकी सामग्रीके आलम्बनसे स्थित हैं, जब कि देवलोकमें स्थित प्रतर-स्तर स्वाभाविक रूपसे बिना आलम्बनके ही स्थित हैं। ___परन्तु इतना विशेष ज्ञातव्य है कि-देवलोकके प्रतर अलग और विमान भी अलग ( अर्थात् पीढे पर विमान अलग) इस तरह दो अलग-अलग वस्तुएँ नहीं हैं किन्तु समग्र कल्पना विमानके नीचेसे समान सतह पर होनेसे उस विमानके अधःस्तन तलभागसे ही (विमानके कारण ही) विभाग पड़नेसे पाथडे ( पीढे ) समझना / ऐसे पाट-पीढे या स्तर कुछ कुछ दूरी (आंतर-आंतर )से तेरहकी संख्यामें स्थित हैं। उनमें प्रथम सौधर्म तथा ईशान देवलोकके मिलाकर तेरह प्रतर ( तलप्रदेश ) वलयाकारमें हैं, इसलिए दोनों देवलोक एक समान सतहमें बिना व्याघातके जुड़े हुए हैं और इसलिए वे संपूर्ण वलयाकार बनते हैं। यह देवलोक पूर्णेन्दुके. आकारका होनेसे कहे गये तेरह प्रतर वलयाकार हैं और यह भी तभी लिये जा सकते हैं कि जब दोनों देवलोकके प्रतर साथमें गिने जाएँ, इसलिए यह देवलोक महाविदेहक्षेत्रकी ऊर्ध्वदिशामें सीधी सतहमें होनेसे उस क्षेत्रकी अपेक्षासे पूर्व महाविदेहकी तरफका और पश्चिम महाविदेहकी तरफका और मध्यभागसे आधा-आधा विभाग करें तो एक मेरुसे दक्षिण दिशाका और एक मेरुसे उत्तरदिशाका इस तरह दो विभाग होते हैं, उनमें दक्षिण 105. भारतवर्षमें बम्बई आदि बड़े शहरोंमें सात, आठ और उनसे अधिक मंजिलोंके मकान हैं / विदेशमें बड़े बड़े देशोंकी राजधानियों-लंडन, पेरिस, मोस्को, बर्लिन, वॉशिंगटन आदि में तो 50, 75, 80, 100, 125, मंजिलोंकी गगनस्पर्शी इमारतें हैं / न्यूयार्क शहरमें न्यू एम्पायर स्टेट नामका बिल्डिंग 125 मंजिलकी आज विद्यमान है / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 14 विभागके अर्ध वलयाकार खण्डके तेरह प्रतर सौधर्मके और उत्तर-विभागके अर्धवलयाकार खण्डके तेरह प्रतर ईशानेन्द्रके जानें / इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोकके लिए समझें अर्थात् यहाँ भी दोनों देवलोकके मिलकर बारह प्रतर वलयाकार लेने हैं, इनमें दक्षिण विभागके बारह प्रतरोंके स्वामी सनत्कुमारेन्द्र और उत्तर दिशाके बारह प्रतर माहेन्द्रके समझें / पाँचवें ब्रह्म देवलोकमें खण्ड-विभाग नहीं है अतः वहाँ छह प्रतर वलयाकारमें जानें। इसी तरह लांतकमें पांच, शुक्र देवलोकमें चार प्रतर और सहस्रारमें चार प्रतर वलयाकारमें समझना / आनत और प्राणत देवलोकमें सौधर्म देवलोकवत् दोनोंके मिलकर चार प्रतर वलयाकारमें समझना / ____ आरण और अच्युत इन दोनोंके मिलकर आनत प्राणतवत् चार प्रतर वलयाकारमें जानना / इस तरह बारह देवलोक तकके बावन प्रतर हुए। आगे चलते प्रत्येक प्रैवेयकका एक एक प्रतर गिनने पर नौ ग्रैवेयकके नौ प्रतर होते हैं और पांच अनुत्तर देवलोकका एक ही प्रतर, अतः कुल मिलाकर दस प्रतर पूर्वके बावन प्रतरों में मिलानेसे बासठ प्रतर वैमानिक देवलोकमें जानें / प्रत्येक देवलोकके प्रतरोंका परस्पर अन्तर प्रायः हरएक कल्पमें समान है [ कि सौधर्मसे ईशान कल्पके विमान ऊर्ध्वभागमें किंचित् ऊँचे रहते हैं, इस कारण यहाँ प्रायः कहा है ] परन्तु ऊपर-ऊपरके देवलोकोंमें प्रतरोंकी संख्या कम और विमानोंकी ऊँचाई अधिक होनेसे नीचेके देवलोकके प्रतर सम्बन्धी अन्तरकी अपेक्षा ऊपरके देवलोकके प्रतरका अन्तर अधिक होता है / [14] वैमानिक निकायके प्रतरोंकी संख्याका यंत्रवैमानिक निकायनाम प्रत वैमानिक निकायनाम प्र. सं. 1. सौधर्म 2. ईशान देवलोकमें 3. सनत्कुमार 4. माहेन्द्र 8. सहस्रार देवलोक 9. आनत 10. प्राणत 11. आरण 12. अच्युत 5. ब्रह्म 6. लांतक 7. महाशुक्र 9. ग्रैवेयक , 5. अनुत्तर , Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषीदेवका जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्य ] गाथा 15 [ 71 अवतरण-सौधर्म तथा ईशानदेवलोकके प्रतरोंमें जघन्य और उत्कृष्ट आयुष्य जाननेके लिये 'करण' ( उपाय ) प्रदर्शित करते हैं सोहम्मुक्कोसठिई, नियपयरविहत्त इच्छसंगुणिआ / पयरूकोसठिइओ, सव्वत्थ जहन्नओ पलियं // 15 // गाथार्थ-सौधर्म देवलोकवासी देवोंकी उत्कृष्ट स्थितिको सौधर्म देवलोकके प्रतरकी संख्यासे बांटकर जिस प्रतरका आयुष्य निश्चित करना हो उस प्रतरसे पूर्वोक्त संख्याको गुना करनेसे इष्ट प्रतरकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। जघन्य स्थिति तो सब प्रतरोंमें पल्योपम प्रमाण है // 15 // विशेषार्थ-अब आयुष्य-स्थितिका तेरहों प्रतरों में बँटवारा करना होनेसे, वैमानिक निकायके प्रथम सौधर्म देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति (तेरहवें प्रतरमें ) दो सागरोपमकी है, उसे तेरह प्रतरोंके बीच बाँट देनी चाहिये / अतः एक सागरोपमके तेरह भाग करें, तो दो सागरोपमके छब्बीस भाग होंगे। इन छब्बीस भागोंको सौधर्मकल्पके तेरह प्रतरों के साथ बाँटनेसे सौधर्मके पहले प्रतरमें एक सागरोपमके तेरहवें-दो भागका आयुष्य आता है, ( अर्थात् दो सागरोपमके किये छब्बीस भागों मेंसे दो भागका आयुष्य कम होनेसे शेष चौबीस भागोंका रहा।) वैसे ही दूसरे प्रतरका आयुष्य निकालना हो तब उसे उतनेसे गुननेसे तेरहवें चार भागका आयुष्य आता है। (प्रथमके अवशिष्ट 24 भागोंमेंसे दो भाग आयुष्य कम होनेसे 22 भागका रहा।) इस तरह हरएक प्रतरमें निकालना / जिससे तीसरे प्रतरमें तेरहवें-(छह) 6 भाग आयें। (पूर्वके 22 भागों में से 2 कम होनेसे 20 रहे / ) चौथे तेरहवें-आठ भाग, (२०मेंसे 2 कम होनेसे 18 भाग रहे।) पाँचवें प्रतरमें गुना करनेसे तेरहवाँ-दस भागायुष्य आये, (१८मेंसे 2 कम करनेसे 16 रहे ) छठे प्रतरमें तेरहवें-बारह भाग, (१६मेंसे 2 कम होनेसे 14 भाग रहे / ) सातवें में तेरहवें-चौदह भागका आयुष्य होता है। अपनी रीतिके अनुसार 1 सागरोपमके तेरह भाग हों तो पूर्ण सागरोपम गिन लें, अतः सातवें प्रतरमें 1 सागरोपम और तेरहवाँ-१ भागका आयुष्य कहा जाये, (पूर्वके १४मेंसे 2 भाग कम होनेसे 12 रहे / ) आठवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवाँ-तीन भागका, (१२मेंसे 2 कम होनेसे 10 भाग रहे / ) नौवेंमें एक सागरोपम और तेरहवाँ-पांच भागायुष्य आये, (१०मेंसे 2 भाग कम हुए 8 भाग बाँटनेको रहे।) दसवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवें-सात भाग आये, (८मेंसे 2 गये छ रहे।) ग्यारहवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवें-९ भागका (६)से 2 कम हुए 4 रहे / ) बारहवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवाँ 11 भागका, (४मेंसे 2 भाग गये तथा 2 भाग ही बाँटनेको बाकी रहे।) तेरहवें प्रतरमें 1 सागरोपम 13 भाग, तेरहवें भागमें एक सागरोपम होनेसे 2 सागरोपम Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 16 उत्कृष्ट स्थिति अन्तिम प्रतरमें आई। (और अवशिष्ट बाँटनेको रखे गये 2 भाग भी बँट गये।) इस तरह सौधर्मकल्पके तेरहों प्रतरों में उत्कृष्ट स्थिति दिखाई / सौधर्म देवलोकके सर्व प्रतरों में जघन्य स्थिति 1 पल्योपमकी समझे। इस तरह ईशान देवलोककी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण निकालें। केवल अन्तर इतना समझे कि ईशानके पहले प्रतरमें, सौधर्मके पहले प्रतरमें जो स्थिति वर्णित की हो उससे कुछ अधिकांश समझे। ऐसे सौधर्मके जिस प्रतरमें जो स्थिति हो उससे 'अधिक' शब्द उस-उस प्रतर प्रसंगमें लगायें। इससे क्या होगा कि ईशान देवलोकके अन्तिम प्रतरमें दो सागरोपमसे अधिक आयुष्यस्थिति उत्कृष्ट आयुष्य धारण करनेवाले इन्द्र . आदि देवोंकी प्राप्त होगी / [15] ___अवतरण-अब सनत्कुमारादि देवलोकके प्रतरोंमें जघन्य उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति जाननेके लिए भी 'करण' उपाय कहते हैं: सुरकप्पठिई विसेसो, सगपयरविहत्तइच्छसंगुणिओ। .. हिडिल्लठिईसहिओ, इच्छियपयरम्मि उक्कोसा // 16 // गाथार्थ-सनत्कुमार आदि कल्पोपपन्न देवोंकी उत्कृष्ट स्थितिको अपने-अपने देवलोक सम्बन्धी प्रतरकी संख्यासे भाग दें। जो संख्या आये उसे इष्टप्रतरकी संख्यासे गुणित करे, जो उत्तर आये वह और नीचेके प्रतरकी स्थिति दोनोंके मिलानेसे इष्टप्रतरमें उत्कृष्ट-स्थिति प्राप्त होगी // 16 // विशेषार्थ-पूर्व गाथामें सौधर्मके तेरहों प्रतरों में उत्कृष्ट स्थिति बताकर अब सनत्कुमार देवलोकके प्रतरोंमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति जाननेका कारण बताते हैं सौधर्म देवलोकके तेरहवें प्रतरमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति दो सागरोपमकी आई है। अब सनत्कुमार देवलोकके पहले प्रतरकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति निकालनी है-सनत्कुमारमें उत्कृष्ट स्थिति 7 सागरोपम है और सौधर्म देवलोकके 13 वें प्रतरमें 2 सागरोपम की है उसका विश्लेष-[कम ] करना अर्थात् सात सागरोपममें से दो सागरोपम कम करना / अतः पांच सागरोपम आये, उसे 12 प्रतरोंमें भाग करनेके लिये 1 सागरोपमके 12 भाग करनेसे 5 सागरोपमके 60 भाग हुए, उन 60 भागोंको प्रत्येक प्रतरमें समान भागमें बाँटनेसे प्रत्येक प्रतरमें बारहवें पांच भाग (5) आता है। अब सौधर्मके तेरहवें प्रतरमें 2 सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति आई है, उसमें उक्त रीतिसे सनत्कुमारके पहले प्रतरमें बारहवेंपांच भाग जोड़ना इससे 2 सागरोपम और बारहवें-पांच भाग आये, (60 भागमेंसे पांच भाग कम होनेसे 55 भाग आयुष्य शेष रहा,) दूसरे प्रतरमें 2 सागरोपम और बारहवें 10 भाग आये, (55 मेंसे 5 (पांच) भाग कम होनेसे 50 रहे / ) तीसरे Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिकदेवाओंकी जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति ] गाथा 16 [ 73 प्रतरमें 2 सागरोपम और बारहवें 15 भाग आये, यहाँ 12 भागसे 1 सागरोपम बनता होनेसे तीसरे प्रतरमें 3 सागरोपम और 3 भाग कहे जा सकते (50 मेंसे पांच भाग कम होनेसे 45 भाग रहे,) चौथे प्रतरमें 3 सागरोपम और ई भागका उत्कृष्ट आयुष्य जानं / ( 45 मेंसे 5 जानेसे 40 रहे,) पांचवें प्रतरमें 3 सागरोपम 13 भाग अथवा 4 सागरोपम और 13 भाग प्रमाण आयुष्य जानें, (40 मेंसे 5 गये 35 भाग रहे,) छठे प्रतरमें 4 सागरोपम भागका उत्कृष्ट आयष्य जाने / (35 मेंसे 5 जानेसे 30 रहे.) सातवें प्रतरमें 4 सागरोपम और 13 भागका जानें। (30 मेंसे पांच गये 25 रहे ) आठवें प्रतरमें 8 सागरोपम और ई भागका अर्थात् पुनः पूर्वके नियम अनुसार 5 सागरोपम और 13 भाग प्रमाण आयुष्य जानें / ( 25 मेंसे 5 गये और 20 भाग बाँटनेको रहे) नौवें प्रतरमें 5 सागरोपम और 16 भागका उत्कृष्ट आयुष्य आता है। (20 मेंसे 5 कम होनेसे 15 भाग रहे) दसवें प्रतरमें 5 सागरोपम 14 भागका अथवा 6 सागरोपम और ॥सौधर्म-ईशानकल्पके प्रत्येक प्रतरमें जघन्योत्कृष्ट आयुष्यका यन्त्र / / उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति सौधर्ममें - ईशानमें | सौधर्ममें - ईशानमें सागरो० - तेरहवाँ भाग 0 - 2 - वही साधिक | 1 पल्योपम वही साधिक 0 0 0. 0 " ww ve..... 0 . / / / / / / / / / / / / . .ar or or aar ..: 0 बृ.सं. 10 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 16 2. भागका उत्कृष्ट आयुष्य जानें। (15 मेंसे 5 गये 10 भाग रहे, ) ग्यारहवें प्रतरमें 6 सागरोपम और कई भागका आयुष्य जानें। (10 मेंसे 5 भाग आयुष्य कम करनेसे 5 भाग रहे,) बारहवें प्रतरमें 6 सागरोपम और 13 भाग अथवा संपूर्ण 7 सागरोपमकी स्थिति सनत्कुमारके अन्तिम प्रतरमें आई। . इसी तरह अगले देवलोकके लिए ऊपरके अनुसार विश्लेष करके प्रतरके साथ भाग देने पर इच्छित प्रतरमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति प्राप्त होती है। [16] सनत्कुमार तथा माहेन्द्र कल्पके प्रत्येक प्रतरमें_ उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति प्रतर सनत्कुमारमें - माहेन्द्र में | सनत्कुमारमें - माहेन्द्रमें सागरो० बारहवाँ भाग - 2 सागरो० - वही साधिक - 5 - वही साधिक .. . . &&&wand . . / / / / / / / / / / / / / / / / / / / / / / / 0 . GM 0 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देवदेवीओंका आयुष्यस्थितिका यन्त्रो ] गाथा 16 [ 75 // ब्रह्म देवलोकमें // // लांतक देवलोकमें // प्र० | उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति सा० छठवाँ भाग सा० पाँचवाँभाग 7 सागरो० 1. | 10 - 4 | | 10 सागरो० م م م // महाशुक्र देवलोकमें // | उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति सा.चारहवाँभाग 1. | 14 - 3 | 14 सागरो० // सहस्रार देवलोकमें // | उत्कृष्ट स्थिति | | जघन्य स्थिति सा.चतुर्था शभाग | 1. | 17 - 1 | 17 सागरो 2. | 17 - 2 | | | 17 - 0 // आनत देवलोकमें // उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति सा.चतुर्था शभाग 1. | 18 - 1 | 18 सागरो. 2. | 18 - 2 | " प्राणत देवलोकमें | प्र. | उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति सा.चतुर्था शभाग 1. | 19 - 1 | 19 सागरो० 2. | 19 - 2 / 3. | 19 - 3 / | | E // आरण देवलोकमें // उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति सा.चतुर्था शभाग -1 |20 सागरो० | 20 - 2 20 -3 // अच्युत देवलोकमें // उत्कृष्ट स्थिति | जघन्य स्थिति सा.चतुर्था शभाग 21 - 1 | 21 सागरो० | 21 - 2 21 - 3 | 20 | Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा 17 76 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी // नव अवेयकमें // प्र. उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति 1. 23 सागरो० 22 सागरो० 2. 24 , 3. 25 , 24 , . // अनुत्तर देवलोकमें // . उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति ज. 32 सागरो० 31 सागरो० वि. 32 , 31 " ज. 32 , 31 . , 6. 7. 8. 27 28 29 30 , , , , 26 27 28 29 , ,, , , [ यह गाथा चन्द्रिया संग्रहणीमें नहीं है अत: ‘प्रक्षेपक गाथा' समझें ] अवतरण-बारह देवलोकके इन्द्रोंके रहने के स्थल बताऐ हैं कप्पस्स अन्तपयरे, नियकप्पवडिंसयाविमाणाओ। इन्द निवासा तेसिं, चउदिसि लोगपालाणं / / 1-7|| [प्रक्षे. गा. सं. 1] गाथार्थ-प्रत्येक देवलोकके अंतिम प्रतरमें अपने-अपने नामवाले कल्पावतंसक विमान होते हैं, उनमें इन्द्रके निवासस्थान होते हैं, और उनके चारों ओर लोकपाल देवोंके निवासस्थान होते हैं // 17 // विशेषार्थ-देवलोकमें प्रतर सम्बन्धी जो व्यवस्था है वह वैमानिक निकायमें ही है, 10 परंतु अन्य निकायोंमें नहीं है। वैमानिक निकायके प्रत्येक देवलोकमें कितने-कितने प्रतर होते हैं यह पहले बताया गया है। इस कल्पोपपन्न देवलोकक अंतिम प्रतरके अर्थात् जिस देवलोकके जिस प्रतरमें इन्द्रनिवास है, उस उस विभागके प्रतरके दक्षिण-विभागके मध्यभागमें अपने अपने कल्पके 106. अन्य निकायोंमें प्रतर न हों यह आसानीसे समझा जा सकता है, क्योंकि भवनपति और व्यन्तरोंको रहनेके लिए तो भवन और नगर हैं / और वे सर्व विप्रकीर्ण (बिखरे हुए) अर्थात् अलग अलग हैं। और ज्योतिषीके विमान भी पृथक् पृथक् हैं / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकपालोंके आयुष्यस्थिति ] गाथा 18 [77 * नामसे अंकित ऐसे अवतंसक ( विमानों में श्रेष्ठ) नामके विमान रहे हैं। वे पंक्तिगत नहीं अपितु पुष्पावकीर्णकी तरह है और वे मध्यके इन्द्रक विमानसे असंख्य योजन दूर और पंक्तिगत विमानोंके प्रारम्भसे पूर्व में स्थित हैं। जैसे कि-सौधर्म देवलोकके तेरह प्रतर, उस तेरहवें प्रतरके दक्षिण विभागमें सौधर्मावतंसक नामका विमान है और उस विमानमें रहनेवाला इन्द्र-सौधर्म है। वैसे ईशान देवलोकके अन्तिम प्रतरके उत्तर विभागमें ईशानावतंसक नामका विमान है, उसमें रहनेवाला इन्द्र ईशानेन्द्र कहलाता है / इसके अनुसार सर्वत्र आगे आगे समझना, तथापि नौवें तथा दसवें देवलोक-(आनत, प्राणत )का इन्द्र एक है / यह इन्द्र प्राणत देवलोकके चौथे प्रतरमें प्राणतावतंसक नामका विमान है उसमें रहता है। वैसे ही आरण और अच्युतके लिये जाने / इस तरह वे सर्व अवतंसक विमानों में इन्द्रोंके निवास हैं। और उन अवतंसक विमानों की चारों दिशाओं में सोम आदि लोकपालोंके विमान स्थित हैं, ऐसा सर्वत्र समझ लें / [17] (प्र० गा० सं० 1) [प्रक्षिप्त गाथा संख्या 2] अवतरण-इन्द्र और लोकपालके निवासोंका स्थान बताकर अब सौधर्मेन्द्रके चार लोकपालोंका उत्कृष्टायुष्य कहते हैं सोम-जमाणं सतिभाग, पलिय वरुणस्स दुन्निदेस्णा / / वेसमणे दो पलिया, एस ठिई लोग पालाणं // 18 // [प्रक्षे० गा० सं० 2] गाथार्थ-सोम तथा यम नामके लोकपालकी आयुष्य-स्थिति तीसरे भाग सहिन एक पल्योपम (1) प्रमाण है। वरुण लोकपालकी स्थिति कुछ न्यून दो पल्योपम और वैश्रमण लोकपालकी दो पल्योपमकी है। इस प्रकार लोकपाल देवोंकी स्थिति जानें // 18 // _ विशेषार्थ-स्वस्व देवलोकके इन्द्र अपने अपने देवलोकके अन्तिम प्रतरमें देवलोकने नामसे अंकित अवतंसक विमानों में रहते हैं और उन विमानोंकी चारों दिशाओं में इन्द्रोंके रक्षणार्थ लोकपाल होते हैं। उनमें पहले सौधर्म-देवलोकके अन्तिम प्रतरमें रहे, सौधर्मावतंसक नामके विमानकी पूर्व दिशाका लोकपाल सोम है और दक्षिण दिशाका लोकपाल यम है, उन दोनोंका उत्कृष्टआयुष्य एक पल्योपम और एक पल्योपमके तीसरे भाग सहित अर्थात् 1 पल्योपमका होता है। पश्चिम दिशाका लोकपाल वरुण है, उसका उत्कृष्ट-आयुष्य देशे-उना दो पल्योपमका Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी .... [ गाथा 19 है, और उत्तरदिशाके वैश्रमण नामके लोकपालका उत्कृष्ट-आयुष्य दो पल्योपमका है। इस तरह सौधर्म देवलोकके लोकपालोंकी स्थितिका वर्णन किया / 07 ___ अन्य निकायों में भी लोकपाल होते हैं, उनकी स्थिति, उनके नाम, उन लोकपालोंकी पर्षदा, उनका ऐश्वर्य, उनका नित्य-कर्त्तव्य आदि स्वरूप अन्य ग्रन्थोंसे जानने योग्य .. है। [18] (प्र० गा० सं० 2) इस तरह देवोंका प्रथम ‘स्थितिद्वार' समाप्त हुआ / इति देवानां प्रथमं स्थितिद्वारं समाप्तम् // - -- द्वितीय भवनहार अवतरण-अब देवगतिके विषयमें दूसरा 'भवनद्वार' वर्णित होता है, उसमें प्रथम भवनपति-निकायमें कितने प्रकारके देव होते हैं ? उसके वर्णनके साथ उसमें इन्द्र कितने होते हैं ? उसका भी निरूपण करते हैं-- 108 1 2 3 4 5 असुरा नाग-सुवन्ना, विज्जू अग्गी य दीव उदही अ / दिसि-पवण-थणिय दसविह, भवणवई तेसु दु दु इंदा / / 19 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 19 // विशेषार्थ-ग्रन्थकार महर्षिने प्रथम स्थिति-द्वारका उद्देश किया था उसके अनुसार उन देवोंकी स्थितिके संबन्धमें निर्देश हो चुका। अब दूसरा जो ‘भवनद्वार' आरम्भ किया जाता है उसमें भवनपति-निकायके देवोंके भवनके बारेमें कहने के लिये, प्रथम उस भवनके दसों निकायके देवोंके नाम उनके सामान्य वर्णनके साथ बताते हैं- . 107. जिस जिस देवलोकमें लोकपाल हैं वहाँ वहाँ आयुष्यस्थिति तथा उनके नाम भिन्न भिन्न होते हैं / हरएक लोकपालके तीन प्रकारकी पर्षदा होती है, उसकी जानकारीके लिए देखिये श्री जीवाभिगम तथा श्री लोकप्रकाशादि / . .. 108. तुलना कीजिये 'असुरा नागास्तडिताः, सुपर्णका बह्वयोऽनिलाः स्तनिताः / उदधि-द्वीप-दिशोदश, भवनाधीशाः कुमारान्ताः // 1 // [ हैमकोष ] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंका द्वितीय भवनद्वार ] गाथा-१९ [ 79 1. 'असुरकुमार' ये देव सर्वागोपांगोंसे परम लावण्यवाले, सुन्दर, देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाले, बड़ी कायावाले और श्याम-कान्तिवाले होते हैं। 2. 'नागकुमार' मस्तक तथा मुख पर अधिक शोभा युक्त, मृदु और ललित गतिवाले श्वेतवर्णी होते हैं। 3. 'सुवर्णकुमार' गरदन तथा उदरसे शोभायमान, कनक गौरवर्णमय होते हैं / 4. 'विद्युतकुमार' स्निग्ध-अवयवोंसे सुशोभित, जित-स्वभावी, ज्योति-स्वभावी, तपे हुए सुवर्णवर्णमय होते हैं। 5. 'अग्निकुमार' सर्वा गोपांगसे मनोमान प्रमाणवाले, विविध प्रकारके आभूषणोंको धारण करनेवाले, तप्त सुवर्णके समान वर्णयुक्त होते हैं / 6. : द्वीपकुमार' स्कन्ध और वक्षःस्थल, बाहु और अग्र हस्तमें विशेष करके शोभा सहित, उत्तम हेमप्रभाके समान वर्णवाले होते हैं। 7. 'उदधिकुमार' उरु और कटिभाग-में अधिक शोभावाले, श्वेतवर्णी होते हैं। 8. : दिक्कुमार' जंघा और पैरों में अत्यन्त शोभावाले, जातिशाली स्वर्णसमान गौरवर्णवाले होते हैं। ___ 9. 'वायुकुमार' स्थिर-पुष्ट-सुन्दर और गोल गात्रोंवाले, गम्भीर और नत उदरयुक्त, निर्मल ऐसे प्रियंगु वृक्षके जैसी श्यामकान्तिवाले होते हैं। 10. 'स्तनितकुमार' स्निग्धावयवी, अति गम्भीर नादवाले, जातिवान् सुवर्णके समान कान्तिवाले गौर होते हैं। . ये भवनवासी देव सदैव विविध प्रकारके आभूषण तथा शास्त्रोंसे अत्यन्त शोभायमान होते हैं। .. प्रश्न-भवनपतिके दसों प्रकारके देवोंको 'कुमार' शब्दसे क्यों संबोधित किये गये ? उत्तर-लोकमें मौज-शौकमें, अढखेलीमें, छेड़छाडमें और क्रीडा करनेमें जो आनन्द माने उसे कुमार या बालक कहते हैं / ___ ऐसे बालक रास्ते चलते जानवरोंको बिना दोषके पत्थर मारें, लकड़ी मारें, कुत्तके कान पकड़े, बकरीके सींग और ढोरके पूछोंके साथ चेष्टाएँ भी करें / ऐसे कुतूहलसे जैसे वे अनेक प्रकारसे रमत-गमत खेल-कूद करके खुश होते हैं / उसी तरह ये देव भी बाल किशोरवयके योग्य चेष्टा अर्थात् खेलना, कूदना, अच्छे अच्छे वस्त्रादि पहनना, साथ ही Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 20-21-22 १०"नारकीके जीवोंको मारना-पीटना, छेदन-भेदन करना आदिमें आनन्द मानते हैं / ___ क्योंकि ये जन्मान्तरके संस्कार देवगतिमें साथ ही लेकर आये हैं। अरे ! उसके प्रभावसे ही तो यह स्थान पाया है। [ 19 ] अवतरण-पूर्वोक्त दसों निकायके दक्षिण-उत्तर विभागके इन्द्रों के नाम कहते हैं चमरे बली अ धरणे, भूयाणंदे य वेणुदेवे य / तत्तो य वेणुदाली, हरिकंते हरिस्सहे चेव // 20 // अग्गिसिह अग्गिमाणव, पुन्न विसिढे तहेव जलकंते / जलपह तह अमियगई, मियवाहण दाहिणुत्तरओ / / 21 // वेलंबे य पभंजण, घोस महाघोस एसिमन्नयरो। ११°जंबुद्दीवं छत्तं, मेरे दंडं पहू काउं // 22 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 20-21-22 / / विशेषार्थ-भवनपतिके प्रत्येक निकाय दक्षिण तथा उत्तरविभागमें बाँटे हुए हैं, अतः दस दक्षिणविभाग तथा दस उत्तरविभाग कुल मिलाकर (20) बीस विभाग हैं। प्रत्येक विभागमें एक एक इन्द्र स्थित है अतः कुल बीस इन्द्र हुए / , ___ उन इन्द्रोंके नाम हैं-प्रथम असुरकुमार निकायके दक्षिणदिशाके विभागमें चमरेन्द्र और उत्तरदिशामें बलीन्द्र, दूसरे नागकुमार निकायकी दक्षिणदिशाका धरणेन्द्र और उत्तरदिशाका भूतानन्देन्द्र और तीसरे सुवर्णकुमार निकायकी दक्षिणदिशाका वेणुदेवेन्द्र और उत्तरदिशाका 109. किसीको शंका हो कि यह तो देवता जैसी अत्यन्त समझदारीकी अवस्था है फिर भी ऐसी बाल-चेष्टा क्यों करते होंगे तो राजाका कुत्ता हल्का भोजन न करे, किन्तु कुत्तेकी जाति है इसलिए जूता तो काटेगा ही इसी तरह देवत्व मिल जाने पर भी नरकके निराधार, निर्बल, पराधीन और दुःखी जीवों पर सत्ता और बलका क्रूर उपयोग करके क्रीडा-कुतूहल द्वारा मनमें आनन्द मनाते हैं / 110. तुलना करें- जम्बूद्दीवं काऊण छत्तयं मंदरं च से दंडं / पभू अन्नयरो इंदो, एसो तेसिं बलविसेसो // पभू अन्नयरो इंदो जम्बुद्दीवं तु वामहत्थेण / छत्तं जहा धरिज्जा, अन्नयओ मंदरं धित्तु // 1 // ' . .. भवनपतिके प्रत्येक इन्द्रकी शक्तियाँ कैसी हैं, उनकी सामान्य जानकारी पानेके लिये ऊपरकी गाथा संग्रहणी-सूत्रकी टीका तथा देवेन्द्रस्तव देखिये / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपतिके इन्द्रोंके नाम, शक्तिपरिचय ] गाथा-२२ [ 81 वेणुदालीन्द्र, चौथे विद्युत्कुमार निकायकी दक्षिणदिशाका हरिकान्तेन्द्र और उत्तरदिशाका हरिस्सहेन्द्र, पांचवें अग्निकुमार निकायके दक्षिणदिशाका अग्निशिखेन्द्र और उत्तरदिशाका अग्निमानवेन्द्र, छठे द्वीपकुमार निकायके दक्षिण विभागका पूर्णेन्द्र और उत्तर विभागका विशिष्टेन्द्र और सातवें उदधिकुमार निकायके दक्षिण विभागका जलकान्तेन्द्र और उत्तरविभागका जलप्रभेन्द्र, आठवें दिशिकुमार निकायके दक्षिणविभागका अमितगतीन्द्र और उत्तरविभागमें अमितवाहनेन्द्र, नौवें पवनकुमार निकायके दक्षिणविभागका वेलम्बेन्द्र और उत्तरविभागका प्रभञ्जनेन्द्र, दसवें स्तनितकुमार निकायके दक्षिण विभागमें घोपेन्द्र और उत्तर विभागमें महाघोषेन्द्र इस प्रकार कुल बीस इन्द्र कहे गये हैं। ग्रीष्मऋतुमें अथवा चातुर्मासमें जिस तरह कोई मनुष्य हाथमें दण्ड पकड़कर अपने मस्तकको छत्रसे ढंकता है उसी तरह इन इन्द्रोंमेंसे किसी भी इन्द्रकी एक साधारण शक्तिमें एक लाख योजन लम्बा और चौड़ा गोलाकारमें स्थित--ऐसे जम्बूद्वीपको छत्राकार करना हो और एक लाख योजन ऊँचा और दस हजार योजनके घेरेवाला महान मेरुपर्वतका दण्ड करके छातेकी तरह मस्तक पर धारण करना हो तो, इतनी शक्ति-सामर्थ्य उनमें हैं। ऐसा महान प्रयत्न करने पर भी उसे तनिक भी थकान नहीं लगती। यद्यपि ऐसा कार्य करते नहीं और करेंगे भी नहीं। लेकिन ऐसी शक्तियाँ उनमें रही हैं। यह तो उनकी साधारणशक्तिमें भी कितनी सामर्थ्य है, यह बताया गया / - अरे ! एक महर्द्धिक देवकी शक्तिका वर्णन करते हुए सिद्धान्तकार बताते हैं कि-एक महर्द्धिकदेव, एक लाख योजनका जम्बूद्वीप जिसकी परिधि (घेरा) 111316227 योजन, 3 कोस, 128 धनुष, 133 अंगुल, 5 यव, 1 यूका जितना है, ऐसे विशाल जम्बूद्वीपकी भी एक मनुष्य तीन चुटकी बजाये उतने समयमें तो इक्कीस बार प्रदक्षिणा-[परिक्रमा ] कर ले / इतना ही नहीं, लेकिन ये इन्द्रादिक देव अगर समग्र जम्बूद्वीपको वैक्रियशक्तिके * द्वारा बालकों और बालिकाओंसे भर देना चाहें तो वैसी भी शक्ति सामर्थ्य रखते हैं। परन्तु वे यह शक्ति ११२प्रकट नहीं करते। . 111. " परिही तिलक्ख सोल्ससहस्स दो य सय सत्तवीसहिया / कोसतिगट्ठावीसे धणुसय तेरंगुलद्धहियं // 1 // " [लघु संग्रहणी] 112. १९वीं सदीमें वैज्ञानिकोंने तेजकी गती मापी, तो एक सेकन्डमें 1,86,000 मील थी / ... हमारी पृथ्वीका व्यास 25000 मीलका है, अतः तेजकी एक ही किरण अपनी दृश्य शक्तिसे पृथ्वीके आसपास घूमे तो एक सेकन्डमें सात बार प्रदक्षिणा करे इससे भी अधिक गतिवाली घटनाएँ सिद्ध हुई हैं और वे भी जड़ पदार्थमें, तब फिर चैतन्यशक्तिकी गतिके लिए तो पूछना ही क्या ? बृ. सं. 11 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 22-23 ___ इसके अतिरिक्त श्री भगवती सूत्रमें [श-१४, उ, ८]-'अत्थिणं भंते' इत्यादि सूत्रके विवरणमें भी बताया है कि-एक देव एक पुरुषकी बरौनी पर दिव्य और अति उत्तम बत्तीसबद्ध ऐसा नाटक रच सकते हैं। कितनी दिव्य शक्ति ? यह सोचें ! फिर भी उस पुरुषको तनिक भी बाधा नहीं होती, ऐसी-ऐसी शक्तिवाले वे देव हैं। इस कथनकी पुष्टि करता हुआ प्रसंग दशार्णभद्रराजा आदिके दृष्टान्तोंमेंसे भी जान सकते हैं। __ प्रत्येक इन्द्रकी क्या-क्या और कैसी-कैसी शक्तियाँ हैं ? यह सिद्धान्तोंसे जान लें। . ग्रन्थविस्तार हो जानेके कारण यहाँ नहीं दिया / [22] ___ भवनपति निकायके बीस इन्द्रोंके नामका यंत्र / . ___निकायके नाम दक्षिणेन्द्र ____ उत्तरेन्द्र 1. असुरकुमार निकाय | 1. चमरेन्द्र 2. बलीन्द्र 2. नाग , , 3. धरणेन्द्र 4. भूतानंदेन्द्र 3. सुवर्ण , , 5. वेणुदेवेन्द्र 6. वेणुदालीन्द्र | 7. हरिकान्तेन्द्र 8. हरिस्सहेन्द्र 9. अग्निशिखेन्द्र 10. अग्निमानवेन्द्र 11. पूर्णेन्द्र 12. विशिष्टेन्द्र 7. उदधि , , 13. जलकांतेन्द्र 14. जलप्रमेन्द्र 8. दिशि , , 15. अमितगतीन्द्र 16. अमितवाहनेन्द्र 9. पवन ,, ,, 17. वेलंबेन्द्र 18. प्रभंजनेन्द्र | 10. स्तनित ,, ,, 19. घोषेन्द्र 20. महाघोषेन्द्र अवतरण-असुरकुमारादि भवनपतिदेवोंके दक्षिणदिशामें प्रवर्त्तमान भवनोंकी संख्या कहते हैं। चउतीसा-चउचत्ता, अद्रुतीसा य चत्त-पंचण्हं / पन्ना-चत्ता कमसो, लक्खा भवणाण दाहिणओ / / 23 / / गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 23 // विशेषार्थ-पूर्व कहे गये दसों निकायोंमें दक्षिण तथा उत्तर विभागमें देवोंके रहने के भवन हैं। जिस तरह एक राजा किसी एक नगरका स्वामी होता है, उसी तरह हरएक 6. द्वीप , " Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण उत्तरके भवनोंकी संख्या ] गाथा-२४ [ 83 निकायके भवनोंके स्वामी भी होते हैं। उनमें दक्षिण भागके असुरकुमारके तांबेके भवनोंकी संख्या चौंतीस लाख हैं। नागकुमार निकायमें चुवालीस लाख, तीसरे सुवर्णकुमार निकायमें अड़तीस लाख, चौथे विद्युत्कृमार निकाय, पांचवें अग्निकुमार निकाय, छठे द्वीपकुमार निकाय, सातवें उदधिकुमार निकाय और आठवें दिशिकुमार निकाय इन पांचों निकायोंमें प्रत्येकके चालीस-चालीस लाख भवन होते हैं / नौवें पवनकुमार निकायमें पचास लाख भवन और दसवें स्तनितकुमार निकायमें चालीस लाख भवन होते हैं। इस तरह क्रमशः दक्षिण दिशाके निकायोंके लाखों भवनोंकी संख्या कही गई। [23] अवतरण-अब उत्तरदिशाके भवनोंकी संख्याका वर्णन करते हैं चउ-चउलक्ख-विहूणा, तावइया चेव उत्तर दिसाए / सब्वेवि सत्तकोडी, बावचरी हुंति लक्खा य / / 24 / / गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 24 / / विशेषार्थ-पहले दक्षिण दिशाके निकायोंके भवनोंकी जो संख्या बतलाई है उन प्रत्येकमेंसे चार-चार लाख कम करनेसे जिस-जिस निकायके जितने-जितने भवन अवशिष्ट रहें वह संख्या उसके उत्तरदिशाके निकायके भवनोंकी निश्चयपूर्वक जानें / वे इस तरह; उत्तर विभागके असुरकुमार निकायमें तीस लाख, नागकुमारमें चालीस लाख, सुवर्णकुमारमें चौंतीस लाख, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार और दिशिकुमार निकाय इन पांचों निकायोंमें प्रत्येकके छत्तीस-छत्तीस लाख भवन होते हैं। नौवें पवनकुमार निकायमें छियालीस लाख और अन्तिम स्तनितकुमार निकायमें छत्तीस लाख उत्तर विभागमें समाविष्ट हैं। इस तरह पूर्व गाथामें कहे गये दक्षिण निकायके और चालू गाथामें कथित उत्तर निकायके, इन दोनों श्रेणियोंने सब मिलाकर सात करोड़ और अधिक बहत्तर लाख भवन होते हैं। __ श्री सकलतीर्थ में हम बोलते हैं कि, "सात करोड़ और बहत्तर लाख भवनपतिमें देवल (देवालय ) भाख / " [24] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२५ भवनपतिके प्रत्येक निकायकी भवनसंख्याका यंत्र / 36 लाख : . क्रम निकायके नाम , | दक्षिणश्रेणी संख्या | उत्तरश्रेणी संख्यां / 1 असुरकुमार निकाय 34 लाख 30 लाख , 2. नाग , , 44 लाख 40 लाख 3. सुवर्ण ,, , 38 लाख 34 लाख 4. विद्युत् ,, , 40 लाख 5. अग्नि ,, , 40 लाख 36 लाख 6. द्वीप , 40 लाख 36 लाख 7. उदधि ,, ,, 40 लाख 36 लाख 40 लाख 36 लाख 9. वायु , , 50 लाख 46 लाख 10. स्तनित ,, 40 लाख 36 लाख 406 लाख 366 लाख . अवतरण-दक्षिण-उत्तरदिशाके दसों निकायोंके भवनोंकी कुल संख्या कहते हैं; चत्तारि य कोडीओ, लक्खा छच्चेव दाहिणे भवणा / तिण्णेव य कोडीओ, लक्खा छावहि उत्तरओ // 25 // . [प्र. गा. सं. 3] गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 25 // ... विशेषार्थ-पूर्व गाथामें दक्षिण-उत्तर भवनोंकी कुल संख्या बतलाई परन्तु दक्षिण विभागकी कुल संख्या कितनी ? और उत्तर विभागकी कितनी ? यह अलग-अलग नहीं बताया, इसके लिए कहते हैं कि-दक्षिण विभागके दसों निकायोंके मिलकर कुल चार करोड़ और छः लाख भवन होते हैं / और उत्तर-विभागके दसों निकायोंके भवनोंकी कुल जोड करें तो तीन करोड़ और छियासठ लाखका होता है / चार करोड़ और छः लाख तथा तीन करोड़ और छियासठ लाख इन दोनोंका जोड करनेसे सात करोड़ और बहत्तर लाखकी भवन संख्या बराबर हो जाती है / [4,06,00000+3,66,00000 = 7,72,00000 ] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपतिके भवन कहां है ? ] गाथा-२६ [85 शंका-भवनपति निकायमें हर समय प्रथम दक्षिण-विभाग और फिर उत्तर-विभाग ऐसा क्रम क्यों रक्खा ? उत्तर-उत्तरदिशामें रहे देवोंकी आयुष्यादि स्थितियोंकी विशेषता है इसलिए अथवा तो ग्रन्थकारकी विवक्षा यही प्रमाण है // 25 // [प्र० गा० सं० 3] अवतरण-ये पूर्वोक्त भवन कहाँ रहे हैं ? उस स्थानका निरूपण करते हैं; रयणाए हिवरिं, जोयण सहसं विमुत्तु ते भवणा / जंबुद्दीवसमा तह, संखमसंखिज्ज वित्थारा // 26 // गाथार्थ–रत्नप्रभा नारकीके पिंडमेंसे, ऊपर और नीचेके हजार-हजार योजन छोड़कर बाकी बचे हुए बीचके अंतरमें, भवनपतिके भवन हैं, वें भवन जघन्यसे जम्बूद्वीप जितने, मध्यम प्रमाणसे संख्ययोजन विस्तारवाले और उत्कृष्ट प्रमाणसे असंख्ययोजन विस्तारवाले होते हैं // 26 // विशेषार्थ-अधोलोकमें रत्नप्रभादि सात पृथ्वियाँ हैं / उनमें भवनपति, व्यन्तर, परमाधामी देव तथा नरकावासाओंमें उत्पन्न होते नारक आदि वस्तुओंका समावेश होता है। उनमें प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी है और रत्नप्रभा पृथ्वीके पिंडमें ही भवनपति और व्यन्तरादि देवोंके निवासस्थान हैं / इस रत्नप्रभापृथ्वीका पिंड मोटाईमें (स्थूलता) एक लाख और अस्सीहजार योजन होता है। इस प्रमाणमेंसे ऊपर और नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर अवशिष्ट रहे ११३एक लाख और अठत्तर हजार [1,78,000 ] योजनमें उन भवनपतिदेवोंके भवन आये हैं / अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वीके एक लाख और अस्सीहजार योजनमें तेरह प्रतर हैं। ये प्रतर अर्थात् पाथडे तीन तीन हजार योजन ऊँचे, (मध्यमें पोले ) हैं / इन पाथडोंके पोले भागकी दीवारों में नरकावास हैं। जिनमें नारक जीव उत्पन्न होते हैं। उनमेंसे महाकष्टसे बाहर निकलकर पोले भागमें पड़ते हैं / वहाँ परमाधामी देव आदिके द्वारा कष्ट भोगते हैं / उन तेरह पाथडोंके बारह अन्तर और उन बारह आन्तरोंमेंसे ऊपर नीचेका एक एक आंतरा छोड़कर बाकीके 10 आंतरोंमें भवनपति देव होते हैं, उनमें एक पाटडेसे दूसरे पाटडे तकके विभागमें उन भवनपतिदेवोंके भवन स्थित हैं। उनमें सबसे छोटे भवन एक लाख योजन प्रमाणवाले 113. कुछ आचार्य रत्नप्रभापृथ्वीके पिंडप्रमाणमें, रुचकसे नीचे नब्बेहजार योजन जाने पर भवनपति देवोंके निवास स्थान हैं ऐसा कहते हैं / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२७ ( अर्थात् जम्बूद्वीप जितने बड़े) हैं, मध्यम भवन संख्याता कोटि योजन प्रमाणवाले और सबसे उत्कृष्ट प्रमाणवाले भवन असंख्याता कोटानुकोटि योजनके होते हैं / [26] अवतरण-असुरकुमार-नागकुमारादि देवोंको पहचाननेके लिए, उनके मुकुट आदि आभूषणों में आये हुए चिह्नोंका निरूपण करते हैं चूडामणि-फणि-गरुडे, वज्जे तह कलस-सीह-अस्से य। गय-मयर-वद्धमाणे, असुराईणं मुणसु चिंधे // 27 / / गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 27 // विशेषार्थ-जिस प्रकार बहुत जनसंख्यावाले एक बड़े शहरमें बसनेवाले मनुष्योंको अपने-अपने देशके शिरोवेष्टन अर्थात् पगड़ीसे हम जल्दी पहचान सकते हैं कि यह गुजराती, यह सूरती, यह मारवाडी, यह काठियावाड़ी है; उसी प्रकार राजकीय क्षेत्रमें देख तो अमुक विभागके पुलिसोंकी टोपी पर अमुक प्रकारके बिल्लोंके चिह्न, अमुक विभागवालोंके लिए अमुक निशानियाँ होती हैं उसके अनुसार देवलोकमें भी देव असंख्याता हैं; उनमें किस निकायका कौन है ? यह आसानीसे पहचाननेके लिए प्रत्येक निकायके देवोंके मुकुटादिमें चिह्न होते हैं। प्रथम असुरकुमारके मुकुट में चूडामणि अर्थात् मुकुटमें रत्नमणिका चिह्न होता है। दूसरे नागकुमारके आभूषणमें फणि-धर-सर्पका चिह्न होता है। तीसरे सुवर्णकुमारके आभूषणमें गरुडका चिह्न होता है, चौथे विद्युत्कुमारके मुकुटमें वस्त्र ( शक्रायुध )का चिह्न होता है, उसी तरह पांचवें अग्निकुमारके आभूषणमें पूर्ण कलशका चिह्न होता है, छठे द्वीपकुमारके आभूषणमें सिंहका चिह्न होता है, सातवें उदधिकुमारके मुकुटमें अश्वका चिह्न होता है, आठवें दिशिकुमारके मुकुटमें हाथीका चिह्न होता है, नवें पवनकुमारके आभूषणमें मगरमच्छका चिह्न होता है और दसवें स्तनितकुमार निकायके देवोंके मुकुटमें ११४शराव-सम्पुट अर्थात् ऊपर-नीचे सम्पुट अर्थात् दो जोडे हुए दीप दानपात्रके आकारका चिह्न होता है। इस तरह दसों निकाय अलग-अलग रूपमें पहचाने जाँए इसलिए मुकुटादिमें चिह्न बताये हैं। कुछ ग्रन्थकार मुकुटमें नहीं लेकिन दसों निकायोंके देवोंके आभूषणों में चिह्न बताते हैं। [27] अवतरण-अब भवनपति देवोंके शरीरका वर्ण कहते हैं 114. शरावका अर्थ मिट्टीका दीप दानपात्र तथा रामपात्र होता है, उसका सम्पुट अर्थात् दोनोंको जोड़ना, उससे जो आकार बनता है, उसका दूसरा नाम 'वर्धमान ' है / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपति देवोंके शरीर और वस्त्रोंका वर्णन ] गाथा-२८ [ 87 असुरा काला नागु-दहि पंडुरा तह सुवन्न-दिसि-थणिया / कणगाभ विज्जु-सिहि-दीव, अरुण वाऊ पियंगुनिभा // 28 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 28 // विशेषार्थ कई बार देहके रंगके आधार पर भी अमुक मनुष्य किस जातिकाकिस देशका है यह हम कह सकते हैं। जैसे अति गौरवर्णसे बहुतायत युरोपियन-गोरे लोग, गेहूँ जैसे वर्णसे भारतीय जन, पीले वर्णसे चाइनीज, जापानीस, अति काले वर्णसे निग्रो (आँफ्रिकन ) लोग इत्यादि पहचाने जाते हैं, उसी तरह देवलोकमें भी देह-वर्णसे निकाय बतानेसे जाति पहचानी जाती है। जो इस प्रकार है असुरकुमार निकायके देवोंके शरीर श्याम वर्णवाले होते हैं, नागकुमार-उदधिकुमार इन दोनोंके शरीर अति श्वेत वर्णके हैं। ___ तथा तीसरे सुवर्णकुमार, आठवें दिशिकुमार, दसवें स्तनितकुमार इन तीनोंके शरीर सुवर्णकी कांतिके समान गौर-तेजस्वी होते हैं, चौथे विद्युत् कुमारों, पाँचवें अग्निकुमारों और छठे द्वीपकुमारोंके शरीर उदित होते बालसूर्य जैसे, अथवा उबलते सुवर्णकी कान्ति जैसा कुछ रक्त वर्णका होता है। और नौवें वायुकुमारके शरीरकी कान्ति ११५प्रियंगु वृक्षके वर्ण समान श्याम है अथवा 11 मयूरकी विद्यमान रंग जैसा भी कह सकते हैं, क्योंकि वह भी श्याम कहलाता है। ___ यह वर्ण स्वाभाविक भवधारणीय शरीरके लिए समझें। उत्तरवैक्रिय शरीरकी रचनामें शरीरका चाहे जैसा वर्ण कर सकनेमें वे समर्थ होते हैं। [28] अवतरण-अब असुर-कुमारादि भवनपति देवोंके वस्त्रोंका वर्ण कहते हैं असुराण वत्थ रत्ता, नागुदही-विज्जु-दीव-सिहिनीला। दिसि-थणिय-सुवन्नाणं, धवला वाऊण संझरुई // 29 // . 115. 'प्रियङ्गु 'से श्याम, हरा और भूरा इन तीनों रंगोंको समझनेका आधार कोषग्रन्थों, स्तोत्रों, यन्त्रपटों आदिके आधार पर प्राप्त होता है। यह चर्चा विस्तृत होनेसे यहाँ तो इतना समझें कि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने संग्रहणी गाथा 46 में 'सामा तु प्रियगुवन्ना' और चन्द्रिया टीकाकार श्री देवभद्रसूरिजीकी गाथा 25 की टीकामें 'वायवः प्रियङ्गुवत् श्यामा 'के किये गये उल्लेखसे यहाँ श्याम अर्थ लेना घटित है। 116. 'मेचकः शिखिकण्ठाभः' (दुर्गकोष) मेचक अर्थात् श्यामवर्ण, वह किसके जैसा है तो मयूरके कण्ठके वर्ण जैसा / इस कथनसे मयूरकण्ठको श्याम कहा है, जब कि कोषादि अनेक ग्रन्थोंमें भूरा (नीला) वर्ण कहा है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२९ गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 29 // विशेषार्थ-मनुष्य लोकमें उनके पहनावेसे भी लोग पहचाने जाते हैं। जैसे श्वेत वस्त्रवाले हों वे अमुक सम्प्रदायके साधु, रक्त वस्त्रवाले अमुक सम्प्रदायके, काली अचकन ( कंचुक ) वाले हों तो वे फकीर आदि / इसी प्रकारसे देवोंको भी उनके वस्त्रों द्वारा पहचाननेका एक प्रकार है। उनमें पहले असुरकुमारके वस्त्र रक्तवर्णके होते हैं। दूसरे नागकुमारों, सातवें उदधिकुमारों, चौथे विद्युत् कुमारों, छठे द्वीपकुमारों और पांचवें अग्निकुमारों इन पांचोंके वस्त्रोंका वर्ण श्याम होता है। आठवें दिशिकुमार निकाय, दसवें स्तनितकुमार निकाय और तीसरे सुवर्णकुमार 'इन तीनों निकायोंके देवोंके वस्त्र उज्ज्वल वर्णवाले होते हैं, और नौवें वायुकुमार निकायके देवोंके वस्त्रोंका वर्ण सूर्यास्त होनेके बाद खिली हुई विविधरंगकी संध्याका जैसा रंग होता है वैसा है। अर्थात् वैसे वर्णके वस्त्रोंका परिधान करते हैं। . .. इस तरह बहुलतासे देवोंके चिह्न, शरीर, वस्त्र, वर्ण आदिका वर्णन किया। यहाँ भी यह वर्ण व्याख्या भवधारणीय शरीरके लिए पहने जाते वस्त्रोंके लिए समझें और वह सामान्यतया समझें, हेतुपूर्वक अथवा उत्तरवैक्रियमें उनसे अन्य वर्णके वस्त्र भी होते हैं // 29 // भवनपति देवोंके चिह्न तथा देह-वस्त्रके वर्णका यन्त्र / नाम देह-वर्ण श्याम-वर्ण वस्त्र-वर्ण लाल मुकुटमें चिह्न चूडामणिका सर्पका गरुडका नीला उज्ज्वल वज्रका नीला 1. असुरकुमार 2. नाग , 3. सुवर्ण , 4. विद्युत्कुमार 5. अग्नि , 6. द्वीप , 7. उदधि , 8. दिशि ,, 9. (पवन) वायुकुमार 10. स्तनितकुमार कलशका सिंहका अश्वका हाथीका मगरका शरावसम्पुटका | नील , सुवर्ण , उज्ज्वल संध्यावर्ण उज्ज्वल Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपति इन्द्रोंके सामानिक तथा आत्मरक्षक देवांकी संख्या ] गाथा-३० [ 89 अवतरण-अब इस भवनपति निकायके इन्द्रोंके सामानिक देवों तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या कहते हैं; चउसट्ठि सहि असुरे, छच्च सहस्साई धरणमाईणं / सामाणिया इमेसिं, चउग्गुणा आयरक्खा य // 30 // गाथार्थ-असुरकुमार निकायके, चमरेन्द्र तथा बलीन्द्र इन दो इन्द्रोंके क्रमशः 64 हजार तथा 60 हजार सामानिक देव हैं। अवशिष्ट धरणेन्द्र आदि इन्द्रोंके छ:-छः हजार सामानिक देव हैं। और सामानिक देवोंकी जो संख्या कही है उससे चारगुनी संख्या आत्मरक्षक देवोंकी है // 30 // विशेषार्थ-प्रथम सामानिक अर्थात् क्या ? 'इन्द्रेण सह समाने तुल्ये शुतिविभवादी भवाः सामानिकाः' अर्थात् इन्द्रके समान कान्ति-वैभवादि-ऋद्धिसिद्धिवाले सामानिक देव कहलाते हैं / इन देवोंमें मात्र इन्द्रत्व अर्थात् उस देवलोकका आधिपत्य नहीं होता, शेष सर्व ऋद्धि इन्द्रके समान होती है / ___ साथ ही 'इन्द्राणाममात्यपितृगुरुपाध्यायमहत्तरवत् पूजनीयाः स्वयं' राजा होने पर भी राजाको जिस तरह मन्त्रीश्वर, पिता, गुरुवर्ग-उपाध्याय (पाठक) और गुरुजन पूजनीय होते हैं, उसी तरह इन्द्रको ये सामानिक देव पूजनीय (आदर देने योग्य ) होते हैं / चाहे इन्द्र महाराजा ऐसा आदर रक्खें फिर भी वे देव तो इन्द्रको स्वामीरूप मानकर उनकी आज्ञाका पालन करते हैं। सारांश यह है कि इन्द्रोंको ये देव आदर देने योग्य हैं ऐसा व्यक्त करनेके लिये उनकी महत्ता दिखाते हैं, फिर भी ये देव उन्हें स्वामी स्वरूप ही मानते हैं ऐसा व्यक्त करके परस्पर स्वामी-सेवकभाव भी बताया है। - आत्मरक्षक अर्थात् क्या ? इन्द्राणामात्मानं रक्षन्तीत्यात्मरक्षकाः इन्द्रकी आत्माकी रक्षा करे वह / यहाँ आत्म शब्दसे इन्द्रका अंग-शरीर समझें / - आत्मरक्षक देव धनुष आदि सर्वशस्त्र ग्रहण करके इन्द्र-महाराजोंकी रक्षाके लिए सर्वदा . सज्ज रहते हैं। जिस तरह राजा-महाराजाओंके यहाँ अंगरक्षक (बॉडीगार्ड-Body Guard) शस्त्रसज्ज बनकर अपने मालिककी दत्तचित्त होकर सतत रक्षा किया करते हैं वैसे ही इन्द्रकी-आत्माकी रक्षाके लिये वे आत्मरक्षक देव भी, इन्द्रमहाराज सभामें बैठे हो, विचरण करते हों अथवा चाहे किसी भी स्थानमें हों, तब भी वे अनेक प्रकारके शस्त्रादिसे युक्त होकर अपने स्वामी इन्द्रकी रक्षामें सतत परायण रहते हैं। वे आयुध कवचसे सज्ज होकर बृ. 12 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी - [गाथा-३० इन्द्र महाराजकी सतत (एक समान) रक्षामें ही तत्पर रहते हैं। शत्रुदेव उन सुदृढ़ आत्मरक्षकोंके देखते ही क्षुब्ध-त्रस्त हो जाते हैं और वे देव अपने कर्तव्यमें मग्न रहनेसे इन्द्रके प्रेमका भाजन भी होते हैं / ऊपर लिखे विवरणको पढ़ते ही शंका उत्पन्न होती है कि इन्द्र जैसे समर्थ और देवोंमें सर्वोत्तम पुरुषको भी क्या आत्मरक्षकोंकी आवश्यकता होती है ? उसका समाधान यह है कि-महाशक्ति, समर्थ इन्द्रको रक्षणकी कोई अपेक्षा ही नहीं है, क्योंकि शत्रुओंकी ओरसे उपद्रवोंकी तो कोई विशेष सम्भावना नहीं है, परन्तु 'इन्द्र उस देवलोकका सर्व सत्ताधीश स्वामी है, साथ ही यह हमारा महान् स्वामी है।' स्वामित्वकी यह मर्यादा, उसका परिपालन और स्वामीकी प्रीतिका सम्पादन करनेके लिये वे सदा शस्त्रसज्ज बनकर उपस्थित रहते हैं। साथ ही सेवकका धर्म-पालन करना यह भी उनका कर्त्तव्य है। __जैसे वर्तमानकालमें राजा-महाराजा या सत्ताधीश जो प्रबल शक्तिसम्पन्न होने पर भी उनकी श्रेष्ठता या महत्ता प्रदर्शित करने, अपना गौरव बढ़ाने और स्वामित्वका सूचन करनेकी दृष्टिसे जिस तरह बड़े बड़े शूरवीर अंगरक्षक उनके साथ ही रहते हैं वैसे ही यहाँ भी समझें / सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या भवनपति निकायों में प्रथम असुरकुमार निकायकी दक्षिणदिशाके चमरेन्द्र के चौसठहजार और उत्तरदिशानिवासी बलीन्द्रके साठ हजार सामानिकदेवोंका परिवार है। अवशिष्ट सभी नौ निकायोंके धरणेन्द्रादि प्रमुख अठारहों इन्द्रों में प्रत्येक 'इन्द्रको छः-छः हजार सामानिक देवोंका परिवार वर्तित है / ऊपर जिस-जिस इन्द्रके सामानिक देवकी जो संख्या कही गई है उस संख्याको चार गुनी करनेसे जो संख्या आये, वह संख्या उस-उस इन्द्रके आत्मरक्षक देवोंकी समझनी चाहिये। जैसे कि चमरेन्द्र के सामानिकदेव 64000 हैं उसे चार गुना करें तो 2,56,000 आत्मरक्षकोंकी संख्या होती है। इस तरह सर्वत्र जाने / इस तरह चार निकायों मेंसे पहले भवनपति निकायके देवोंकी आयुष्यस्थिति, निकायों के नाम, इन्द्रोंके नाम, भवनसंख्या, उनके चिह्न, देह-वर्ण, वस्त्रवर्ण, सामानिक और आत्मरक्षककी संख्या कही गई है। अब ग्रन्थकार भवनपति निकायकी तरह क्रमप्राप्त दूसरे व्यन्तर निकायका वर्णन आरम्भ करते हैं / (30) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपतिके इन्द्रोंके सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्याका यन्त्र सामा० सं. आत्प० सं. नाम दक्षिणेन्द्र सामा० | आत्म० नाम सं. सं. | उत्तरन्द्र नाम / 1. असुरकुमार निकाय | चमरेन्द्रके | 64 हजार 2 लाख | बलीन्द्रके 60 हजार 2 लाख 40 ह. 2. नागकुमार निकाय धरणेन्द्रके | 6 हजार 24 हजार भूतानेन्द्रके। 6 हजार|२४ हजार 3. सुवर्णकुमार निकाय वेणुदेवेन्द्रके ", | वेणुदालीन्द्रके " " 4. विद्युत्कुमार निकाय | हरिकान्तेन्द्रके ", | हरिस्सहेन्द्रके 5. अग्निकुमार निकाय अग्निशिखेन्द्रके ,, अग्निमानवेन्द्रके " " 6. दीपकुमार निकाय | पूर्णेन्द्रके | विशिष्टेन्द्रके 7. उदधिकुमार निकाय जलकान्तेन्द्रके जलप्रमेन्द्रके / " " 8. दिशिकुमार निकाय | अमीतगतीन्द्रके अमितवाहनेन्द्रके, ,, , 9. पवनकुमार निकाय | वेणुदेवेन्द्रके . | प्रभंजनेन्द्रके , " 10. स्तनितकुमार निकाय | | घोषेन्द्रके " , महाघोषेन्द्रके / कुल संख्या 1,18000/4,72000 कुल संख्या 1,14000 4,56000 उपसंहार१२.३ व्येन्द्रसंख्या-भवनगणनवासो इति भवनपतीनामायुराख्येन्द्रसंख्या-भवनगणनवासो देहवर्णाङ्कवर्णः / अपि च समविभूतीनां तथा ह्यात्मरक्षा-प्रवणसुरवराणां वर्णनं चाभिरामम् / / 1 / / [ अनुवादक कृत संग्रहश्लोक ] भवनपतिके इन्द्रोंके सामानिक तथा आत्मरक्षकदेवोंकी संख्याका यन्त्र ] गाथा-३० [91 " " " " 810 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-३१ अथ प्रस्तुत द्वितीय भवनद्वार प्रसंग पर व्यन्तरोंके भवन आदिका वर्णन, अवतरण-अब व्यन्तरदेवोंके सम्बन्धमें वक्तव्य प्रारम्भ करते हुए प्रथम व्यन्तरदेवके भवनों (नगरों )का स्थान बताते हैं; रयणाए पढ़मजोयण,-सहस्से हिटुवरिसय-सय विहणे / वन्तरयाणं रम्मा, भोमा नगरा असंखेज्जा // 31 // गाथार्थ-रत्नप्रभानारकीमें प्रथम अर्थात् ऊपरके हजार योजनमें नीचे तथा ऊपर .. सौ सौ योजन छोड़कर, अवशिष्ट 'आठसौ योजनमें व्यन्तरदेवोंके भूमिके अन्दर वर्तित असंख्याता सुन्दर नगर हैं // 31 // विशेषार्थ-" व्यन्तर" इस शब्दका अर्थ क्या ? " विविधमन्तरं वनान्तरादिकमाश्रयतया येषां ते व्यन्तराः" अर्थात् अलग अलग प्रकारके वन आदिके जो अन्तर हैं वे ही अन्तर जिनके आश्रयरूप हैं अर्थात् वैसे वन आदिके अन्तरोंमें विशेष करके जो रहते हैं, वे व्यन्तर कहलाते हैं। व्यन्तर वनके अन्दर और पर्वत तथा गुफा आदि स्थानोंमें रहते हैं, यह बात लोकमें भी प्रसिद्ध है। ___अथवा यदि दूसरा अर्थ लें तो 'नरेभ्यो विगतमन्तरं ते व्यन्तराः' अर्थात् 'मनुष्यरूपमें वर्तित चक्रवर्ती आदिकी सेवामें, देव होने पर भी जिन्हें रहना पड़ता है, मनुष्य और देवके बीचका जो अन्तर चला गया है जिनका' इससे भी वे व्यन्तर कहलाते हैं। क्योंकि देव होने पर भी मनुष्योंके साथ वे हिलते-मिलते-जुलते रहनेवाले हैं। ____चौदह राजलोसमें ऊर्ध्वलोक, तिर्छालोक और अधोलोक ऐसे तीनलोक हैं। ऊर्ध्वलोकमें देव-निवास विशेष है। तिर्छालोकमें मनुष्य तिर्यचका निवास विशेष है और अधोलोकमें नारक जीव जिनमें हैं-वे रत्नप्रभादि नरक-पृथ्वियाँ हैं। उनमें पहली रत्नप्रभानारकीके एक लाख अस्सी हजार (1,80,000) योजन मोटे पिण्ड-प्रमाणमेंसे ऊपर और नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर अवशिष्ट एक लाख अठत्तर हजार पृथ्वीपिण्डमें भवनपतिदेवोंके भवन हैं। ___ अब ऊपर छोड़ दिये गये उन एक हजार योजनोंमेंसे ही पूर्वकी तरह उभयस्थानोंसे (नीचे-उपरसे) सौ सौ योजन छोड़ दें, क्योंकि अवशिष्ट आठसौ योजनों में व्यन्तरदेवोंके रत्नप्रभापृथ्वीके अन्दर रमणीय-सुन्दर ऐसे असंख्यात नगर हैं। साथ ही मनुष्यक्षेत्रके बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें इन्हीं व्यन्तरोंकी असंख्यात नगरियाँ आई हैं, जिसका स्वरूप श्री जीवाभिगमादि शास्त्रोंसे जान लें / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्तरोंके भवनका वर्णन ] गाथा 31-33 [ 93 * बालक बड़ा होने पर भटकता फिरता है और जहाँ अच्छा लगे या अच्छा दिखाई दे वहाँ दौडता है अथवा बैठ जाता है। वैसे देवताकी जातिमें भी व्यन्तर ऐसे देव हैं कि जहाँ-तहाँ भटकते हैं और अच्छा लगे वहाँ घुस जाते हैं अथवा अड्डा जमा देते हैं। वृक्षों, बगीचों, खाली मुकामों, पहाडों-पर्वतों-गुफाओं पर अपना स्थान जमा देते हैं / इतना ही नहीं लेकिन मनुष्यकी बस्तीमें या जंगलमें जहाँ अच्छी जगह मिली कि बैठ जाते हैं और अधिकांशरूपसे अन्योंके लिये (दुःखदायक) कष्टप्रद भी बन जाते हैं / (31) अवतरण-इन व्यन्तरोंके नगरवर्ती भवनोंका और भवनपतिके भवनोंका बाह्य और भीतरी आकार कैसा होता है ? यह बताते हैं चाहिं वट्टा अंतो, चउरंस अहो अ कण्णियायारी / . भवण वईण तह वन्तराण, इन्द भवणा उ नायव्वा // 32 // [प्र० गा० सं० 4] गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 32 // विशेषार्थ-उन व्यन्तरदेवों के भवन बाहरके हिस्से में गोलाकारवाले होते हैं और अन्दरके हिस्से में चौ-कोन होते हैं, तथा अधोभागमें कमलपुष्पकी कर्णिकाके आकारमें रहते हैं। . उपर्युक्त आकृतिवाले भवन उस भवनपतिके इन्द्रोंके और व्यन्तरेन्द्रोंके जानें / इन भवनोंके चारों ओर किले और खाने होती हैं / उन नगरोंके भव्य दरवाजे होते हैं / किंकरदेव उनकी सतत रक्षा करते हैं। [32] (प्र० गा० सं० 4) अवतरण-उन भवनोंमें व्यन्तरदेव कैसे आनन्दसे अपना काल व्यतीत करते हैं ? यह बताते हैं: तहिं देवा वन्तरिया, वरतरूणी-गीय-वाइय-रवेणं / निचं सुहिय-पमुइया, गयंपि कालं न याणंति // 33 // [प्र० गा० सं०५] गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 33 // विशेषार्थ-उन भवनोंमें व्यन्तरदेष-सतत गतिघाले अत्यन्त सुन्दर, तरुण देवांगनाओंके अति मधुर, कर्णप्रिय और आह्लादक गीत गानोंसे तथा भेरी, मृदंग, वीणा भादि अनेक प्रकारके, मनोरंजन द्वारा उत्तेजित करनेवाले दिव्य वाद्योंके मधुर नादसे, प्रेमरसको पुष्ट करनेवाले, दिलको बहलानेघाले, विविध प्रकारके उत्तम और दिव्य नाटकोंके कारण निरन्तर सुखमें तल्लीन और आमोद-प्रमोदकी सामग्रीयोंसे आनन्दमें इतने निमग्न रहते हैं कि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 33-35 अपना कितना काल बीत गया इसकी भी उन्हें प्रतीति नहीं होती है / जगतमें भी अत्यन्त सुखी लोगोंकी यही स्थिति होती है / [33] (प्र० गा० सं० 5) 10.0 ते जम्बुदीव-भारह-विदेहसम गुरु-जहन्न-मज्झिमगा / / 33 // . - गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 333 / / .. विशेषार्थ-जिस प्रकार मनुष्यलोकमें कतिपय शहर 100 मील अर्थात् 4 कोसका 1 योजन इस हिसाबसे 25 योजन प्रमाणके हैं। न्यूयोर्क, मोस्को, लंडन आदि शहर अस्सी-अस्सी, नब्बे-नब्बे, मीलसे अधिक विस्तारवाले सुनाई देते हैं, (माने जाते हैं) उसी प्रकार यहाँ देवलोकमें भी देवोंके नगरोंका प्रमाण दिखाया गया है। उनमें व्यन्तरदेवोंके सबसे बड़े नगरोंका प्रमाण उत्कृष्टसे जम्बूद्वीप जितना अर्थात् एक लाख योजन जितने-महातिमहाप्रमाणवाले हैं। जब कि छोटे-छोटे. नगर भरतक्षेत्र जितने अर्थात् 5266 योजन प्रमाणके और मध्यम नगर महाविदेहक्षेत्र समान अर्थात् 3368438 योजन प्रमाणके हैं / [333] टिप्पणी-यहाँ एक योजन अर्थात् 4 कोसका माप नहीं, लेकिन 10 कोसका अथवा अन्य मतसे 400 कोसका एक योजन, ऐसा शास्त्रीय माप समझना चाहिये / 2. हम रहते हैं उस पृथ्वीके नीचे एक अद्भुत सृष्टि विद्यमान है। वह असंख्य कोटानुकोटि योजन प्रमाण है / इसलिये ऐसे महान असंख्य नगर हों तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है। अवतरण-अब व्यन्तरोंके भेद बताते हैं और उनके इन्द्रोंकी संख्या कहते हैं / वन्तर पुण अट्ठविहा, पिसाय-भूया तहा जक्खा / / 34 / / रक्खस-किन्नर-किंपुरिसा, महोरगा अट्ठमा य गंधब्बा / दाहिण-उत्तरभेया, सोलस तेसिं [ सुं] इमे इंदा // 35 / / गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 34-35 // विशेषार्थ-वे व्यन्तरदेव आठ प्रकारके हैं। उनके 1. पिशाच, 2. भूत, 3. यक्ष, 4. राक्षस, 5. किन्नर, 6. किंपुरुष, 7. महोरग और 8. गन्धर्व ये नाम हैं। 117 भरतस्येदं भारतम् / ऐसी व्युत्पत्ति संग्रहणी-टीकाकारने की है / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ प्रकारके व्यन्तरोंके प्रतिभेद ] - गाथा 34-35 [ 95 ___ इन आठों प्रकारके निकायोंके उत्तर-दक्षिण भेदसे सोलह इन्द्र हैं। जिनके नाम अग्रिमं गाथामें कहे जाएँगे। इन आठों प्रकारके व्यन्तरों के प्रतिभेद कितने-कितने हैं / यह उनके वर्णनके साथ संग्रहणी टीकाके आधार पर बताया जाता है / 1. पिशाच निकायके देव पन्द्रह प्रकारके हैं। 1. कुष्माण्ड, 2. पटक, 3. जोष, 4. आह्निक, 5. काल, 6. महाकाल, 7. चोक्ष, 8. अचोक्ष, 9. तालपिशाच, 10. मुखरपिशाच, 11. अधस्तारक, 12. देह, 13. महादेह, 14. तूश्रीकड और 15. वनपिशाच / ये देव स्वाभाविक रूपमें ही अत्यन्त रूपवान, सौम्यदर्शनवाले, देखनेवालेको आनन्द उपजानेवाले, हस्त-कण्ठादि स्थानों में रत्नमय आभूषणोंको धारण करनेवाले होते हैं / / 2. भूत निकायके देव नौ प्रकारके हैं। 1. स्वरूप, 2. प्रतिरूप, 3. अतिरूप, 4. भूतोत्तम, 5. स्कंदिक, 6. महास्कंदिक, 7. महावेग, 8. प्रतिछन्न और 9. आकाशग / ये देव सुन्दर, उत्तम, रूपवान, सौम्य, सुन्दर मुखवाले और विविध प्रकारकी रचना तथा विलेपन करनेवाले हैं। 3. यक्ष निकायके देव तेरह प्रकारके हैं। 1. पूर्णभद्र, 2. माणिभद्र, 3. श्वेतभद्र, 4. द्र, 5. सुमनोभद्र, 6. व्यतिपाकभद्र, 7. सुभद्र, 8. सर्वतोभद्र, 9. मनुध्ययक्ष, 10. धनाधिपति, 11. धनाहार, 12. रूपयक्ष और 13. यक्षोत्तम / .. ये देव स्वभावसे गम्भीर, प्रियदर्शनवाले, शरीरसे ११'मानोन्मान प्रमाणवाले तथा इनके हस्तपादोंके तलवे, नाखून, तालु, जीभ, ओंठ लाल हैं / ये मरतक पर देदीप्यमान मुकुट तथा चित्र-विचित्र रत्नोंके आभूषणोंको धारण करनेवाले हैं। 4. राक्षस निकायके देव सात प्रकारके हैं / 1. भीम, 2. महाभीम, 3. विघ्न, 4. विनायक, 5. जलराक्षस, 6. यक्षराक्षस और 7. ब्रह्मराक्षस / . . . ये व्यन्तर देव भयंकर हैं। भयंकर रूपको धारण करनेवाले होनेसे देखनेवालेको भयंकर, लंबे और विकराल लगे ऐसे, रक्तवर्णके ओठ धारण करनेवाले, तेजस्वी आभूषणोंको पहननेवाले और शरीरको अलग-अलग प्रकारके रंगों और विलेपनोंसे सजाते हैं। . 5. किन्नर निकायके देव दस प्रकारके हैं। 1. किन्नर, 2. किंपुरुष, 3. किंपुरुषोत्तम, 4. हृदयंगम, 5. रूपशाली, 6. अनिदित, 7. किन्नरोत्तम, 8. मनोरम, 9. रतिप्रिय और 10. रति श्रेष्ठ / . 118. जलसे भरे कुंडमें प्रवेश करते समय जितना जल बाहर निकले और उस . जलको मापनेसे 'द्रोण' प्रमाण हो तो वह देव मान प्रमाणका माना जाए और तराजूसे तौलनेसे 'अर्धभार' हो तो उन्मान प्राप्त माना जाए। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 34-37 ये देव शान्त आकृतिवाले, अधिक सुन्दर मुखाकृतिवाले और मस्तक पर जगमगाते मुकुटोंको धारण करनेवाले हैं / 6. किंपुरुष निकायके देव-१. पुरुष, 2. सत्पुरुष, 3. महापुरुष, 4. पुरुषवृषभ, 5, पुरुषोत्तम, 6. अतिपुरुष, 7. महादेव, 8. मरुत् , 9. मेरुप्रभ और 10. यशस्वन्त इस तरह दस प्रकारके हैं। / ये देव भी अधिक सुन्दर और मनोहर मुखाकृतिवाले हैं, इनकी जंघाएँ और भुजाएँ अत्यन्त शोभायमान हैं एवं ये विविध प्रकारके आभूषणों और विचित्र प्रकारकी मालाओं और लेपको धारण करनेवाले होते हैं। 7. महोरग निकायके देव भी 1. भुजंग, 2. भोगशाली, 3. महाकाय, 4. अतिकाय, 5. स्कंधशाली, 6. मनोरम, 7. महावेग, 8, महेष्वक्ष, 9. मेरकांत और. . 1.0. भास्वंत इस तरह दस प्रकारके हैं। ये देव महान् वेगवाले, महान् शरीरवाले, सौम्यदर्शन, महाकाय, विस्तृत और मजबूत गरदन-स्कंधवाले और चित्र-विचित्र आभूषणोंसे विभूषित हैं। 8. गंधर्व निकायके देव-१. हाहा, 2. हूहू, 3. तुंबरु 4. नारद, 5. ऋषिवादक, 6. भूतवादक, 7. कादम्ब, 8. महाकादम्ब, 9. रैवत, 10. विश्वावसु, 11. गीतरति और 12. गीतयश ऐसे बारह प्रकारके हैं। ये देव भी प्रियदर्शनवाले, सुन्दर रूपवाले, उत्तम लक्षणोंवाले,, सुन्दर मुखवाले, मस्तक पर मुकुट पहननेवाले और गले में हार धारण करनेवाले होते हैं। [34-35] . चौबीस तीर्थकरके यक्ष-यक्षिणियाँ यक्ष-निकायके होनेसे व्यंतर जातिके होते हैं। साथ ही छप्पन ११४दिक्कुमारिकाए और सरस्वती ( श्रुतदेवी ) ये भी व्यन्तर निकायकी कही जाती हैं। अवतरण-आठों प्रकारके व्यन्तर निकायके इन्द्रोंके नाम. कहते हैं / काले य महाकाले, सुरूव पडिरूव पुण्णभद्दे य / तह चेव माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे // 36 // किन्नर किंपुरिसे सप्पुरिसा, महापुरिस तह य अइकाए / महाकाय गीयरई, गीयजसे दुन्नि १२°दुन्नि कमा // 37 / / गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 36-37 / / 119. आवश्यकचूर्णिमें 'बहूहिँ वाणमंतरेहिं ' के पाठसे ज्ञात होता है। [ स. प्र. 437] 120. दोन्नि दोन्नि इत्यपि पाठः / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्तर निकायके 16 इन्द्रोंके नामका यंत्र ] गाथा 36-37 [ 97 विशेषार्थ—पहले भवनपतिके दसों निकायोंके दक्षिण-उत्तरभेदसे जिस तरह बीस इन्द्र कहे गये हैं उसी तरह व्यन्तरोंके आठों निकायोंके दक्षिणोत्तरभेदसे सोलह इन्द्र कौन-कौनसे हैं, यह बताते हैं। __पहले पिशाचनिकायकी दक्षिणदिशाके इन्द्रका नाम काल और उत्तरदिशामें महाकाल, दूसरे भूतनिकायकी दक्षिणदिशामें सुरुप और उत्तरदिशामें प्रतिरूप, तीसरे यक्षनिकायकी दक्षिणदिशामें पूर्णभद्र और उत्तरदिशामें माणिभद्र, चौथे राक्षसनिकायकी दक्षिणदिशामें भीम और उत्तरदिशामें महाभीम, पाँचवें किन्नरनिकायकी दक्षिणदिशामें किन्नर और उत्तरदिशामें किंपुरुष, छठे किंपुरुषनिकायकी दक्षिणदिशामें सत्पुरुष और उत्तरदिशामें महापुरुष, सातवें महोरगनिकायकी दक्षिणदिशामें अतिकाय और उत्तरदिशामें महाकाय और आठवें गान्धर्वनिकायकी दक्षिणदिशामें १२'गीतरति और उत्तरदिशामें गीतयश है / इस तरह आठों निकायोंके दक्षिणोत्तरभेदसे सोलह इन्द्र बताये। ये सोलहों इन्द्र महापराक्रमी, संपूर्ण सुखी, अतिऋद्धिशाली, संपूर्णोत्साही और अपूर्व सामर्थ्यादिसे युक्त हैं। [36-37] * व्यन्तर निकायके 16 इन्द्रोंके नामका यन्त्र। निकाय 1. पिशाचनिकाय 2. भूतनिकाय 3. यक्षनिकाय 4. राक्षसनिकाय 5. किन्नरनिकाय 6. किंपुरुषनिकाय 7. महोरगनिकाय 8. गान्धर्वनिकाय दक्षिणेन्द्र 1. कालेन्द्र 3. स्वरूपेन्द्र 5. पूर्णभद्रेन्द्र 7. भीमेन्द्र 9. किन्नरेन्द्र 11. सत्पुरुषेन्द्र | 13. अतिकायेन्द्र / 15. गीतरतीन्द्र उत्तरेन्द्र 2. महाकालेन्द्र 4. प्रतिरूपेन्द्र 6. माणिभद्रेन्द्र 8. महाभीमेन्द्र 10. किंपुरुषेन्द्र 12. महापुरुषेन्द्र | 14. महाकायेन्द्र 16. गीतयशेन्द्र अवतरण-इन आठों निकायोंके देवोंकी ध्वजाके चिह्न कहते हैं; . 121. सरस्वतीदेवी इस इन्द्रकी अग्रमहिषी है ऐसा क्षेत्रसमास तथा भगवतीजीकी टीकामें कहा है / - [से० प्र० 236 ] बृ. सं. 13 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 38-39 चिंधं कलंब-सुलसे, वड-खटुंगे असोग-चंपयए / नागे तुंबरु अ ज्झए, खटुंग विवज्जिया रुक्खा // 38 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् सुगम है / // 38 // विशेषार्थ पहले सत्रहवीं गाथामें भवनपतिनिकायके देवोंको पहचाननेके लिए जिस तरह मुकुटादिमें चिह्न बताये थे, उसी तरह व्यन्तरनिकायको पहचाननेके लिए स्वस्वविमानोंकी ध्वजामें रहनेवाले चिह्नोंका वर्णन करते हैं / 1. प्रथम पिशाचनिकायके देवोंकी ध्वजामें कदम्ब नामक वृक्ष जैसा आकार होता है और वैसे ही आकारका आलेख होता है। 2. भूतनिकायके देवोंकी ध्वजामें सुलंसं नामके वृक्षविशेषका चिह्न होता है। 3. यक्ष निकायके देवोंकी ध्वजामें वटवृक्षका, चौथे राक्षसनिकायके देवोंकी ध्वजामें तपस्वी तापसका उपकरण विशेष खट्वांगका चिह्न, पाँचवें किन्नरनिकायके देवोंकी ध्वजामें अशोकवृक्षका, छठे किंपुरुषनिकायके देवोंकी ध्वजामें चंपक वृक्षका, सातवें महोरगनिकायके देवोंकी ध्वजामें नागनामक वृक्षका और आठवें गान्धर्वनिकायके देवोंकी ध्वजामें तुंबरु नामके वृक्षका चिह्न होता है। ऊपर कहे गए चिह्नों में केवल एक चौथे राक्षसनिकायके चिह्न खट्वांग-भिक्षापात्र विशेषके आकारके अतिरिक्त शेष निकायोंके चिह्न विविध प्रकारके वृक्षोंके हैं / [38] अवतरण-प्रस्तुत व्यन्तरदेवोंके शरीरोंका वर्ण बताते हैं जक्ख-पिसाय-महोरग-गन्धव्वा साम किंनरा नीला / रक्खस-किंपुरुसा वि य, धवला भूया पुणो काला // 39 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 39 // विशेषार्थ-पहले भवनपतिदेवोंके वर्णन-प्रसंगमें, जिस तरह उन देवोंके शरीरका वर्ण वर्णित किया था उसी तरह व्यन्तरनिकायके देवोंके शरीरका वर्ण कैसा होता है, यह बताते हैं प्रथम पिशाचनिकायके देवोंका, तीसरे यक्षनिकायके देवोंका, सातवें महोरंग और आठवें गान्धर्व इन चारों निकायोंके देवोंका देहवर्ण श्याम अर्थात् कृष्णवर्ण समझना / पांचवें किन्नरोंके शरीरका वर्ण श्याम, तथापि किंचित् नीलवर्णके आभाससहित जानना / चौथे राक्षसनिकाय और छठे किंपुरुषनिकायके देवोंका देहवर्ण उज्ज्वल होता है और दूसरे भूतनिकायके देवोंका देहवर्ण भी कृष्ण (श्याम) होता है / [39] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्तरनिकायके चिह्न तथा देहवर्णका यन्त्र ] गाथा 40-41 [ 99 व्यन्तरनिकायके चिह्न तथा देहवर्णका यन्त्र देहवर्ण / निकाय नाम / 1. पिशाचनिकाय | 2. भूत , श्याम 3. यक्ष " 4. राक्षस , ध्वजा चिह्न कदंब वृक्ष सुलस वृक्ष वट वृक्ष तापस पात्र अशोक वृक्ष चंपक वृक्ष नाग वृक्ष तुंबर वृक्ष 5. किंनर " कृष्ण श्याम उज्ज्वल श्याम (नील) उज्ज्वल श्याम श्याम 6. किंपुरुष ,, 7. महोरग ,, 8. गान्धर्व ,, // व्यन्तरनिकायान्तर्वर्ति ‘वाण-व्यन्तर' निकायका स्वरूप // अवतरण-अब वाणव्यन्तरके आठ भेद बताते हैं और वे जहां हैं उस स्थानका निरूपण करते हैं-- .. अणपन्नी पणपन्नी, इसिवाई भूयवाइए चेव / कंदी य महाकंदी, कोहंडे चेव पयए य // 40 // इयपढम-जोयणसए, रयणाए अट्ठ वन्तरा अवरे / तेसु इह सोलसिंदा, 'रुयग' अहो दाहिणुत्तरओ / / 41 // गाथार्थ-अणपन्नी, पणपन्नी, ऋषिवादी, भूतवादी, कंदित, महाकंदित, कोहंड और पतंग ये आठ वाणव्यन्तरके भेद हैं / ये आठों वाणव्यन्तरनिकाय रुचकप्रदेशके नीचे, रत्नप्रभा पृथ्वीके पहले १२२सौ योजनमें आये हैं और उनमें दक्षिण-उत्तरभेदके कुल मिलाकर सोलह इन्द्र हैं। // 40-41 // . 122. योगशास्त्रकार महाराज श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्रमें तथा श्रीमान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण महाराज संग्रहणी ग्रन्थमें वाणव्यन्तरोंका स्थान ऊपर छोड़े हुए सौ-सौ योजनमेंसे पुनः उसमें ही ऊपर-नीचे दसदस योजन छोड़कर अवशिष्ट अस्सी योजनोंमें बताते हैं / इस ‘चन्द्रीया संग्रहणी 'का भी यही अभिप्राय है / जब कि प्रज्ञापनाउपाङ्गमें श्री गौतमस्वामी महाराजे किये प्रश्नके उत्तरमें त्रिकालज्ञानी परमात्मा महावीरदेवने ऐसा बताया है कि, प्रथम छोड़े गये ऊपरके हजार योजनमेंसे ही ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर अवशिष्ट आठसौ योजनोंमें वाणव्यन्तर हैं / यहाँ पर गीतार्थ पुरुष ऐसा भी समन्वय करते हैं कि व्यन्तरोंको भी सिद्धान्तोंमें वाणव्यन्तर शन्दसे किसी-किसी स्थानमें वर्णित किया है / इस समन्वयसे शास्त्रीय विरोधका परिहार होता है / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 40-41 विशेषार्थ-पहले आठ प्रकारके व्यन्तरनिकायोंका अल्प वर्णन किया। उसी व्यन्तरजातिमें एक अवान्तर ( दूसरे प्रकारके ) व्यन्तर भी हैं अतः वे वाणव्यन्तरके रूपमें जाने जाते हैं। व्यन्तरोंके स्थानसे इन वाणव्यन्तर देवोंका स्थान अलग है, अतः प्रत्येक निकायके नाम तथा स्थान आदिका वर्णन करते हैं / ‘वाणव्यन्तर' अर्थात् क्या ? वनानामन्तरेषु विशेषेण भवाः वनवन्तराः-वनों (जंगलों) के मध्यभागों में विशेष रूप में होनेवाले (बसनेवाले) वे वाणव्यन्तर कहलाते हैं। वे आठ प्रकारके हैं-१. अणपन्नी निकाय, 2. पणपन्नी निकाय, 3. ऋषिवादी निकाय, 4. भूतवादी निकाय, 5. कंदित निकाय, 6. महाकंदित निकाय, 7. कोहंड निकाय, 8. पतंग निकाय / पहले व्यन्तरोंका स्थान बताते जो सौ सौ योजन छोड़े गये थे उनमें मात्र ऊपरकी सौ योजन पृथ्वीमें ही दस-दस योजन ऊपर और नीचे छोड़नेके बाद मध्यकी असी योजन पृथ्वीमें ही वाणव्यन्तरदेव बसते हैं, जिनके निकायोंके नाम ऊपर बताये हैं। ___ इन आठों निकायोंके दक्षिण-उत्तरभेदसे 16 इन्द्र हैं। ये निकाय समभूतलाके रुचक स्थानसे दक्षिण-उत्तर दिशामें जानें / 1. प्रश्न–'समभूतला' अर्थात् क्या ? उत्तर-जिस तरह लौकिक व्यवहारमें विज्ञानियोंने प्रायः बहुत-सी [पृथ्वी-नदीपर्वतादि ] वस्तुओं की ऊँचाई-नीचाईके मापके लिए समुद्रकी सतह निश्चित की है। अर्थात् उसका 'समभूतलस्थान' काल्पनिक दृष्टिसे दरियाई सतह रक्खा है, वैसे जैन सिद्धान्तों में ऊर्ध्वलोकमें, अधोलोकमें और तिजलोकमें विद्यमान (प्रायः) शाश्वती जिस-जिस वस्तुका जितनी-जितनी ऊँचाई-नीचाईका प्रमाण दिखाया है वह सब सर्वज्ञोक्त वचनानुसार इस समभूतलाकी अपेक्षासे रक्खा गया है / 2. प्रश्न-यह समभूतला पृथ्वी कहाँ आई है ? रुचकप्रदेश कहाँ आये हैं ? समभूतला और रुचकप्रदेश वे दोनों एक ही स्थान-स्थित हैं अथवा अन्य-अन्य स्थान-स्थित हैं ? उत्तर-एक लाख योजनकी लम्बाई-चौड़ाईवाले जम्बूद्वीपके मध्यभागमें आये महाविदेहक्षेत्रमें मन्दर-मेरु नामका पर्वत आया है। जिसे इतर दर्शनकार भी मानते हैं / वह ऊँचाईमें मूलभागके साथ 1 लाख योजनका है और कन्दसे लेकर 99000 योजन बाहर है। जिससे अवशिष्ट एक हज़ार योजन मूलमें (रत्नप्रभा पृथ्वीमें ) पहूँचा हुआ है। यह मेरु कन्दभागमें अर्थात् रत्नप्रभ.का पिण्ड पूरा हो वहाँ दस हजार योजनकी परिधिवाला है, फिर आगे क्रमशः घटता है। [जिसका करणादि सविस्तर स्वरूप श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसे जानने योग्य है।] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभूतल और रुचकस्थान ] गाथा 40-41 [101 पहले समझ लिया कि रत्नप्रभा पृथ्वीका पिण्ड 1 लाख 80 हजार योजनका है। उसमें ऊर्ध्व-अधः एक हजार योजन छोड़कर, अवशिष्ट मध्यभागमें भवनपति देव और नारक जीव रहते हैं। पुनः छोड़े गये केवल ऊपरके ही हजार योजनमेंसे ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर अवशिष्ट 800 योजनमें व्यन्तर रहते हैं। और उन छोड़े हुए ऊपरके सौ योजनमेंसे पुनः ऊपर-नीचेसे दस दस योजन छोड़कर अवशिष्ट 80 योजन पृथ्वीमें प्रस्तुत वाणव्यन्तर देव बसते हैं। अत: 'संग्रहणी 'में जो ‘रुअगअहो दाहिणुत्तरओ' पद दिखाया वह उचित है; क्योंकि छोड़े हुए वे 10 योजन, मेरुके कन्दसे वाणव्यन्तर स्थान तकके हैं और इन दस योजन ऊपरके ऊर्ध्वभागके मध्यमें रुचक स्थान आया है / तत्पश्चात् 80 योजनमें वाणव्यन्तर रहते हैं। यह मेरुपर्वत रत्नप्रभा पृथ्वीके पिण्डमें 1000 योजन गहरा आया है अतः ठेठ ऊपरसे ( कन्दभागसे ) नीचे आने पर व्यन्तर स्थान पूर्ण होने के बाद, सौ योजनके अन्तमें मेरु पूर्ण होता है और ज्यों-ज्यों नीचे जाता है त्यों-त्यों उसकी परिधि भी वृद्धि पाती जाती है यह भी स्पष्ट समझमें आता है। _____ अब दूसरे प्रश्नके समाधानके पूर्व यह भी निर्णय कर लेना आवश्यक है कि समभूतला स्थान वही रुचक स्थान है या अन्य ? तो समझना कि समभूतल और रुचक स्थान एक ही वस्तु है, लेकिन अन्यान्य स्थानवाली वस्तुएँ नहीं हैं। - यह जो बात स्पष्टतासे-श्री भगवतीजी, स्थानाङ्ग, नन्दीवृत्ति, नन्दीचूर्णि, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, तत्त्वार्थवृत्ति, आवश्यक, विशेषावश्यक, लोकप्रकाश, क्षेत्रसमास, संग्रहणी, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति, मंडलप्रकरणादि-अनेक सूत्र १२३ग्रन्थोंमें समझाई गई है। 'समभूतला-रुचक' स्थान कहाँ आया है ? समभूतल-रुचकस्थान, यह मेरुके दस हजार योजनके परिघिवाले कन्दभागके नीचे 'धर्मा-रत्नप्रभा पृथ्वी में आये हुए दो क्षुल्लक प्रतर हैं उनका मध्यभाग है। टिप्पणी-समभूतला वही रुचकस्थान' है वह, और वह धर्माके क्षुल्लक प्रतरमें ही है, उन दोनों बातोंका कथन करनेवाले सिद्धान्तोंकी मुख्य मुख्य साक्षियाँ यहाँ दी गई हैं / 123. 'श्री भगवतीजी' सूत्रमें श्री गौतमस्वामीर्जाने पूछे चन्द्र-सूर्य सम्बन्धके उत्तर-प्रसंगमें चरमतीर्थपति श्री महावीरदेवने बताया है कि 1. 'गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्सदाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओं उद चन्दिमसूरियगहाण-नक्खत्त–ताराख्वाणं'-इत्यादि [ श्री भगवतीसूत्र ] 2. 'कहिन्नं भंते तिरिप्लोगस्स आयाममज्जे पणत्ते ? ' गोयमा ! जंबुईवे दीवे मन्दरस्स पब्वयस्स Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 40-41 / ये प्रतर चारों ओरसे लोकान्तको स्पर्शकर रहे हैं। ये प्रतर चौदह राजलोकवर्ती सर्व प्रतरों में लम्बाई-चौडाइमें क्षुल्लक अर्थात् छोटे होनेसे क्षुल्लक प्रतरोंके रूपमें परिचित हैं। इसीलिये रुचकप्रस्तार ही प्रतरप्रस्तार है ऐसा भी कहा जाता है। ये दोनों प्रतर आमनेसामने (ऊपर-नीचे) स्थिर हैं। उनमें अधःस्थानसे ऊपर आते हुए जो क्षुल्लक प्रतर आये, उसके ऊपरके भागमें चार रुचक प्रदेश हैं और उसके सम्मुख (ऊर्ध्व )के दूसरे क्षुल्लक प्रतरमें (नीचेके भागसे सम्बद्ध) चार रुचकप्रदेश हैं। ये रुचक आमने-सामने . देखते हुए मानो परस्पर स्पर्धा करते हुए न हों ऐसे दिखते हैं। इस स्थान धर्मापृथ्वीमें . गये हुए मेरुके कन्दके मध्यमें समझना / बहुमजदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डुगपयरेसु एत्थणं तिरियलोगस्स मज्झे अठ्ठपए सिए रुयए पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ हवंति [श्री भगवतीसूत्र] . 3. " केवइयाणं भंते ! जोइसिया वासा पन्नता ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तणउई सए उड्डे उप्पइत्ता"...इत्यादि [ श्री समवायांगसूत्र ] 4." कहिणं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तणउई जोयणसए उड्ड उप्पइत्ता"...[ श्री पन्नवणासूत्र ] 5. 'अस्या रत्नप्रभापृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्ध्व सप्तयोजनशतानि उत्प्लत्य गत्वा अत्रान्तरे अधस्तनं ताराविमानं चारं चरतीत्यादि / ' [ श्री सूर्यप्रज्ञप्ति ] 6. तत्र तिर्यग्लोकस्योर्ध्वाधोऽपेक्षयाऽष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे द्वौ लघुक्षुल्लकप्रतरौ, तयोर्मध्यभागे जम्बुद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वारउपरितनाः प्रदेशाश्वत्वाराधस्तनाः एष एव रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां वा प्रवर्तकः, एतदेव च. सकलतिर्यग्लोकमध्यम् [श्री नन्दीसूत्र-टीका ] 7. इसी तरह 'श्री नन्दीचूणि 'में भी कथन है / 8. " स्थानाङ्गजी"के दूसरे भागमें भी इसी तरह समर्थन है / 9. विशेषावश्यकभाष्य पर बनी 'शिष्यहिता'. टीकामें श्रीमान् मलधारि श्री हेमचन्द्रसूरिजीने भी ऊपर बताये अनुसार ही उल्लेख किया है / [ जिसके लिए देखिए गाथा 2700 उपरकी टीका ] " रत्नप्रभाया उपरि क्षुल्लकप्रतरद्र्यौ / मेर्वन्तः कन्दोर्श्वभागे रुचकोष्टप्रदेशकः // 1 // तस्मिंश्च लोकपुरुषकटीतटपटीयसि / मध्यभागे समभूमिज्ञापको रुचकोऽस्ति यः // 2 // [ श्री लोकप्रकाश क्षे० लोक स० 12] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुचकस्थान और समभूतलस्थान ] गाथा 40-41 [ 103 इन अष्टरुचक प्रदेशोंकों ज्ञानी पुरुष चोरसरुचक' 24 इस नामसे संबोधित करते हैं / ये प्रदेश गोस्तनाकारमें हैं। इस स्थानको रुचकस्थान कहो या समभूतल कहो, यह एक ही है। ___ एक बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि, किसी भी ग्रन्थमें किसी भी वस्तुके निर्देशमें ‘समभृभागात् ' शब्द मात्र कहा हो, तो उसमें रुचकस्थान अन्तर्गत होता है और जहाँ 'रुचकात् ' केवल इतना ही कहा हो तो इससे समभूतला स्थान भी कहा जा सकता है, क्योंकि समभूतल और रुचक ये एक ही स्थानवाची शब्द हैं / ___ इस तरह सारे १२५सिद्धान्त “धर्मापृथ्वीमें (रत्नप्रभाग ) ही क्षुल्लक प्रतर और अष्टरुचक प्रदेश मानना" ऐसा सूचन करते हैं और साथ-साथ वही समभूतल स्थान है, वही दिशा और विदिशाका प्रभवस्थान है तथा वही तिर्यग्लोकका मध्य है। अर्थात् रुचकस्थान, समभूतलस्थान और दिशाभवस्थान इन तीनोंका स्थान एक ही है ऐसा स्पष्टरूपसे कहते हैं। यह समभूतल-रुचकस्थान उसी तिर्छालोकका मध्य है। इतना ही नहीं लेकिन मेरुपर्वतके वनखण्डादिकी ऊँचाई आदि तथा ‘अधोग्राम की शुरूआत भी इस रुचकसे ही प्रारंभ हुई है और वहाँसे ही एक हजार योजन गहराई लेनेको है। ‘मंडलप्रकरण में स्पष्ट बताया है कि-" समभूतलापेक्षया योजनसहरूमधोग्रामाः "-और श्री लघुक्षेत्रसमास मूल में भी इसी बातका समर्थन किया गया है। जोयणसयदसगंते, समधरणीओ अहो. अहोगामा / बायालीससहस्सेहिं, गंतु, मेरुस्स पच्छिमओ // [अर्थ सुगम है ] 11. ' मेरुमध्यस्थिताष्टप्रदेशात्मकरुचकसमानाद्भूतलादष्टाभ्यो दशोनयोजनशतेभ्य आरभ्योपरि दशोत्तरयोजनशते ज्योतिष्कास्तिष्ठन्तीति / ' [ मण्डलप्रकरण ] ऐसे ही उल्लेख श्री जीवाभिगम, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, तत्त्वार्थसूत्र, भाष्य-टीका, संग्रहणी-टीका, क्षेत्रसमास-टीका, लोकनालिका, ज्योतिष्करण्डक, देवेन्द्रस्तव, आवश्यककी टीकाएँ आदि अनेक ग्रन्थोंमें बताये हैं। 124. यदाहुः-' रुचकेऽत्र प्रदेशानां यच्चतुष्कद्वयं स्थितम् / तत्समश्रेणिकं तच्च विज्ञेयं प्रतरद्वयम् // ' 125. तत्त्वार्थसूत्र अ० 3, सू० 6 की सिद्धसेनीय टीकामें 'समतलाद् भूभागाद्...' इस पंक्तिमें रत्नप्रभावर्ती क्षुल्लक प्रतरोंकी बात की है। लेकिन लगता है कि वह 'उपरितन अधस्तन' नामसे सूचित प्रतरोंकी बात है; नहि कि सबसे लघुक्षुल्लक प्रतरोंकी बात / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 42-43 यह 12 अष्टरुचक स्थान वही 'समभूतला-रुचकपृथ्वी' इन रुचकप्रदेशोंसे ऊर्ध्व-अधो दिशा तथा विदिशाओंकी उत्पत्ति है, जिसके लिए आवश्यकनियुक्तिमें कहा है कि 'अट्ठपएसो रूअगो, तिरियलोगस्स मज्झयारंमि / . एस पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं // 1 // [ 4.-41] . अवतरण-वाणव्यन्तर देवोंके सोलह इन्द्रोंके नाम कहते हैं। संनिहिए सामाणे, द्धाइ विहाए इसी य इसिवाले / ईसर-महेसरे विय, हवइ सुवत्थे विसाले य // 42 // हासे हासरई वि य, सेए य भवे तहा महासेए / पयगे पयगवई वि य, सोलस इंदाण नामाई // 43 // - (प्र० गा० सं०६) गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 42-43 // विशेषार्थ-वाणव्यन्तरके आठों निकायोंके उत्तर भेदसे सोलह इन्द्र हैं। उनमें पहले अणपन्नी निकायके दक्षिण इन्द्रका नाम संनिहित इन्द्र है और उत्तरेन्द्रका नाम सामान इन्द्र है, दूसरे पणपन्नी निकायके दक्षिणेन्द्रका नाम धाता और उत्तरेन्द्रका विधाता, तीसरे ऋषिवादी निकायके दक्षिणेन्द्रका ऋषिइन्द्र और उत्तरेन्द्रका ऋषिपाल इन्द्र / चौथे भूतवादी निकायका दक्षिणेन्द्रका ईश्वरइन्द्र और उत्तरदिशाका महेश्वर इन्द्र / पाँचवें कंदित निकायका दक्षिणेन्द्र सुवत्स इन्द्र और उत्तरदिशाका विशाल इन्द्र, छठे महाकंदित निकायका दक्षिणेन्द्र हास्य और उत्तरेन्द्र हास्यरति, सातवें कोहंड निकायका दक्षिणेन्द्र श्वेत और उत्तरदिशाका महाश्वेत इन्द्र और आठवें पतंग निकायके दक्षिणेन्द्रका नाम पतंग और उत्तरदिशाका पतंगपति इन्द्र, इस तरह सोलह इन्द्र जानें / [ 42-43 ] (प्र० गा० सं०६) इस तरह भवनपतिके दसों निकायोंके मिलकर बीस इन्द्र तथा व्यन्तर और वाणव्यन्तरके आठ आठ निकायोंके मिलकर सोलह निकायोंके बत्तीस इन्द्र, ज्योतिषी निकायके दो इन्द्र और वैमानिक निकायके दस इन्द्र अर्थात् चारों निकायोंके कुल चौसठ इन्द्र हुए। ये इन्द्र अवश्य समकितवंत होते हैं और परमकारुणिक जगत्जन्तुका कल्याण चाहनेवाले परमतारक तीर्थंकर परमात्माओंके जन्मकल्याणकादि अवसरों पर की जाती उस उस प्रकारकी उचित भक्तिसेवामें सदा तत्पर होते हैं। . -यहां वाणन्यन्तरनिकायका अधिकार समाप्त हुआ / 126. रुचकोंकी स्थापना किस प्रकार है ? रत्नप्रभा पृथ्वीके दोनों लघुक्षुल्लक प्रत में ऊर्ध्व और अधःस्थानवर्ती गोस्तनाकारमें विद्यमान अष्टरुचक-प्रदेशोंका स्वतंत्र संस्थान या परस्पर संस्थान किस तरह समझना ? क्या नीचे :: ऐसे चार रुचक स्थापित करके उसके ऊपर ही दूसरे ऊर्ध्ववर्ती चार रुचक स्थापित करें या दूसरी तरहसे ? यह विचारणीय है, अतः यहाँ स्पष्ट निर्णय लिखा नहीं जा सकता / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य-चन्द्रका सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या ] गाथा 44 [ 105 अवतरण-अब व्यन्तरेन्द्रोंके तथा (समान वक्तव्य होनेसे) चन्द्र-सूर्यके सामानिक देवों तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्याका निरूपण करते हैं सामाणियाण चउरो, सहस्स सोलस य आयरक्खाणं / पत्तेयं सव्वेसि, वंतरवइ-ससिरवीणं च // 44 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 44 // विशेषार्थ—पहले भवनपति देवोंके सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या कही है उसी तरह व्यन्तरके इस निकायके बत्तीस इन्द्र तथा ज्योतिषी निकायके सूर्य और चन्द्र (ये दो ही इन्द्ररूप होनेसे ) इस प्रकार चौंतीस इन्द्र हुए। उसमें प्रत्येक इन्द्रके चार चार हजार सामानिक देव होते हैं और सामानिक देवोंसे चारगुने अर्थात् सोलह सोलह हजार आत्मरक्षक देव प्रत्येक इन्द्रके होते हैं और पूर्वोक्त कथनानुसार उनकी सेवामें वे देव निमग्न होते हैं / [44] // प्रत्येक व्यन्तरेन्द्राश्रयी१२७ सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्याका यन्त्र // निकाय नाम | उत्तरेन्द्र | सामानिक | आत्मरक्षक | दक्षिणेन्द्र | सामानिक | आत्मरक्षक 1. पिशाचनि० काल 16000 महाकाल 4000 | 16000 2. भूतनि० स्वरूप प्रतिरूप 3. यक्षनि० पूर्णभद्र मणिभद्र 4. राक्षसनि० भीम महाभीम 5. किन्नरनि० : किन्नर किंपुरुष 6. किंपुरुषनि० सत्पुरुष महापुरुष 7. महोरगनि० | अतिकाय महाकाय 8. गांधर्वनि० गीतरति चार हजार सोलह ह. | गीतयश | चार हजार सोलह ह. . // ज्योतिषी निकायके इन्द्राश्रयी सामानिक-आत्मरक्षक देवोंकी संख्याका यन्त्र // 4000 ज्यो. नाम सामानिक संख्या | आत्मरक्षक संख्या 1. सूर्येन्द्रको चार हजार सोलह हजार 2. चन्द्रेन्द्रको चार हजार सोलह हजार // इति प्रस्तुत भवनद्वारे व्यन्तराधिकारः समाप्तः / / . 127. वाणव्यन्तरोंकी सामानिकादि संख्या व्यन्तरे द्रोंके अनुसार समझें / . बृ. 14 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 45 // प्रासङ्गिक प्रकीर्णक-अधिकार // [ कल्पोपपन्न-देवोंके दस प्रकार और उनके स्वरूप ] अवतरण-ग्रन्थकार भवनपति तथा व्यन्तरनिकायाश्रयीं देवोंके प्रकार, उनकी अवस्थाएँ तथा कल्पसम्बन्धित व्यवस्थाएँ जतानेकी इच्छासे, प्रस्तुत अधिकार चारों निकायोंमें होनेके कारण चारों निकायाश्रयी प्रकीर्णाधिकारका प्रारम्भ करते हुए प्रथम कल्पोपपन्न देवोंके कुल प्रकार कितने हैं ? ये बताते हैं इंद सम तायतीसा, परिस-तिया-रक्ख लोगपाला य / . अणिय पइण्णा अभिओगा, किञ्चिसं दस भवण वेमाणी // 45 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 45 // विशेषार्थ-जैसे मनुष्यलोकमें राजा, जागीरदार, महामात्य, नगरसेठ, पुरोहित-राज्यगुरु, फौजदार, सभासद और चांडाल आदि अलग अलग प्रकारकी व्यवस्था और कर्तव्यों पूर्ण करनेवाले व्यक्ति होते हैं और उनके द्वारा राजा और प्रजाकी सारी व्यवस्था, संरक्षण और सर्व व्यवहार सुचारुरूपसे चलाया जाता है। उसी प्रकार देवलोकमें भी इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंशक, तीन पर्षदामें बैठने योग्य अधिकारी देव, आत्मरक्षक देव, लोकपाल देव, सेनाके देव, प्रकीर्ण, आभियोगिक और किल्बिषिक इस तरह दस प्रकारके देवोंसे भवनपति, वैमानिकादि चारों निकायोंके देवलोकका तन्त्र सुव्यवस्थित रूपसे चल रहा है। इनमें सभी ‘देव नीचे बताये गये अपने अपने अधिकृत कर्तव्योंमें सदा परायण रहते हैं / उन दसों प्रकारके देवोंकी संक्षिप्त व्याख्या और उनका कर्तव्य इस प्रकार हैं 1. इन्द्र-जिस देवलोकका स्वामित्व स्वयं प्राप्त किया होता है और वहां के वर्तमान 'सर्व देव जिसे अपने स्वामीके रूपमें स्वीकार करते हैं वह 'इन्द्र' कहलाता है। 2. सामानिक-कान्ति-वैभव आदिमें इन्द्रके 'समान ऋद्धि जिन्हें प्राप्त हुई हो और जिनसे इन्द्र भी सलाह लेते हों वे 'सामानिक' कहलाते हैं। ये देव इन्द्रके समान रिद्धिवाले होते हैं, फिर भी ये इन्द्रोंको अपना स्वामी मानते हैं। ये देव भी अपने विमानों में रहते हैं। 3. त्रायस्त्रिंशक-(एक इन्द्रकी अपेक्षाके रूपमें ) जिनकी तैतीसकी ही संख्या हो और जो इन्द्रके स्वामित्वके विमान, देव आदि सबकी चिंता करनेवाले होनेसे मन्त्रीके साथ शान्तिक-पौष्टिक कर्म और पुरोहित-राज्यगुरुका काम भी करनेवाले होते हैं। उनकी संख्या Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पोपपन्न देवोंका दश प्रकार ] गाथा 45 [ 107 तैंतीस ही होनेसे वे 'त्रायस्त्रिंशक' कहलाते हैं। इन देवोंके भी स्वतन्त्र विमान होते हैं। 4. पार्षद्या–पर्षदामें बिठाने योग्य इन्द्रके मित्रसमान देव ‘पार्षद्य' कहलाते हैं / यह पर्षदा अर्थात् सभा तीन प्रकारकी होती है। जघन्य, मध्यम और उत्तम, अथवा बाह्य, मध्यम और आभ्यन्तर / उनमें बैठनेवाले देव पार्षद्य कहलाते हैं। जिस तरह राजशासनमें भी वर्तमानमें लोकसभा, राजसभा और पार्लामेन्टकी व्यवस्था है उसी तरह / 5. आत्मरक्षक-जो इन्द्रोंका रक्षण करनेवाले हों अर्थात् इन्द्र स्वयं शक्तिसंपन्न होनेसे प्रायः निर्भय होते हैं, फिर भी ये आत्मरक्षक देव अपने आचारका पालन करनेके लिये हमेशा शस्त्र, बख्तर आदिसे सज्ज रहनेके साथ इन्द्रके पास हमेशा खड़े रहते हैं। जिन्हें देखते ही शत्रु त्रस्त होते हैं, उन्हें 'आत्मरक्षक' देव कहते हैं। 6. लोकपाल-इन्द्रमहाराजकी आज्ञाके अनुसार निश्चित् विभागका रक्षण करनेवाले और चोरी, जारी आदि अपराध करनेवालोंको यथायोग्य दण्ड देनेवाले 'लोकपाल' कहलाते हैं। [जिसे मनुष्यलोकके 'सूबा'की उपमा दी जा सकती है ] ___. अनीक—यह सैन्य, हाथी [गजानीक ], घोड़ा [ हयानीक ], रथ [ रथानीक ], महिष-भैंसा [महिषानीक ], * पैदल [पदात्यनीक ],. गन्धर्व [गन्धर्वानीक ], नाट्य [नाट्यानीक ] इस तरह सात प्रकारकी सैन्यदल आवश्यकता होने पर बैंक्रिय शक्तिद्वारा रूपोंको रचकर सैन्यका काम करनेवाले वे ‘सैन्यके देव' कहलाते हैं। यहाँ वैमानिकमें अर्थात् सौधर्मसे अच्युत देवलोकमें 'महिष 'के स्थान पर 'वृषभ' समझना। इस हरएक सैन्यके अलग अलग अधिपति होनेसे सात अधिपति होते हैं। प्रथमके पांच सैन्य संग्राममें उपयोगी हैं और गन्धर्व तथा नाट्य ये दोनों उपभोगके साधन हैं। 8. प्रकीर्ण-मनुष्यलोकमें नागरिक लोगोंके समान, प्रजाके समान देव-'प्रकीर्ण' * कहलाते हैं। 9. आभियोगिक--जो नौकर-चाकर आदिके योग्य काममें लगाये जाते हैं वे दासके समान 'आभियोगिक' देव हैं। 10. किल्बिषिक–मनुष्यलोकके चाण्डालोंकी तरह अशुभ-निन्द्यकर्म करनेवाले 'किल्बिषिक ' देव कहलाते हैं। भवनपति और वैमानिकमें ये दस प्रकारके देव हैं, जब कि व्यन्तर तथा ज्योतिषीमें त्रायस्त्रिंशक और लोकपाल देवोंके अतिरिक्त आठ प्रकारके देव हैं, अर्थात् पहले बताये गये दस प्रकारमें समाविष्ट त्रायस्त्रिंशक और लोकपाल देव व्यन्तर और ज्योतिषीमें नहीं हैं। वहाँ वैसी व्यवस्थाकी अपेक्षा नहीं है। [45] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // भवनपति [तथा प्रासङ्गिक चारों] निकायों में इन्द्र आदि दश प्रकारके देवोंका यन्त्र // 1. इन्द्र 2. सामानिक ३-त्रायस्त्रिशक 4. पार्षद्य 5. आत्मरक्षक ६.लोकपाल 7. अनीक ८.प्रकीर्ण 9. आभियोगिक 10. किल्बिषिक 108 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ___ असुरकुमारादि 10 निकाय | प्रत्येक इन्द्रके 33 असंख्याता, असख्याता, असंख्याता, सोम, यम, वरुण, कुबेर दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र बाह्य मध्यम अभ्यन्तर (प्रत्येकमें असंख्य ) गंधर्व, / / महिष (अथवा वृषभ) असुर० नागकुमारादि नवे नि०में असुरकुमार शेष-नव निकायोंमें नाटय, सुभट, प्रत्येक इन्द्रको 24000 अश्व, | रथ, गज, चमरेन्द्र के बलीन्द्र के चमरेन्द्र के बलीन्द्रके 64,000 60,000 2,56000 24,000 सूचना:-व्यंतर और ज्योतिषी देवोंमें बायस्त्रिशक और लोकपाल देवोंका विभाग नहीं है, ज्योतिषी देवोंको महिष (अथवा वृषभ)के अतिरिक्त छः प्रकारका सैन्य है, वैमानिक देवोंके (अनीक) विभागमें सातवाँ विभाग वृषभका है। [ गाथा 45 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैन्य संबंधी सात प्रकारके देवोंका नाम ] गाथा 46-47 [109 अवतरण-सैन्यसम्बन्धी सात प्रकारके देवोंके नाम कहते हैं / गन्धव-नट्ट-हय-गय, रह-भड-अणियाणि सव्वइंदाणं / वेमाणियाण वसहा, महिसा य अहोनिवासीणं // 46 // (प्र. गा० सं० 9) गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 46 // विशेषार्थ-देवलोकके चारों निकायोंमेंसे तीन निकायों में सात प्रकारका कटक-सैन्य है और ज्योतिषीको छः प्रकारका कटक है, उनमें पहला प्रकार गन्धर्वका है। दूसरे प्रकारमें नृत्य करनेवाले देवोंका सैन्य, तीसरे प्रकारमें अश्वरूप सैन्य, चौथे प्रकारमें गजों ( हाथियों )का सैन्य, पांचवाँ रथ सैन्य और छठा पैदल सैन्य; यह छः प्रकारका सैन्य तो मानो सामान्यतः सर्व इन्द्रोंके पास होता ही है। उनमें भी वैमानिकनिकायवर्ती इन्द्रोंके पास सात प्रकारका सैन्य होनेसे सातवाँ वृषभका सैन्य अधिक होता है और अधोलोकवासी भवनपति तथा व्यन्तरेन्द्रोंका सातवाँ प्रकार महिष (भैंसों )के सैन्यका है। केवल ज्योतिषीके इन्द्रोंके पास छः प्रकारका सैन्य होता है। शंका-इन्द्र महाराजको सैन्यकी आवश्यकता ही क्या है ? समाधान-जिस तरह राजाके समर्थ होने पर भी शत्रुके पराभवमें सैन्यकी सहायता आवश्यक है, उसी तरह इन्द्रमहाराजा भले ही समर्थ हों तथापि देवलोकमें देवांगना आदिके अपहरणके विषयमें होते हुए भयंकर युद्धोंके प्रसंग पर इस सैन्यकी आवश्यकता पड़ती है। शंका–देव किसी भी प्रकारका चाहे जैसा रूप लेनेमें समर्थ-शक्तिमान होते हैं / फिर अमुक प्रकार रखनेका प्रयोजन क्या है ? समाधान-एक राजाके राज्यमें गन्धर्व, नट, गज (हाथी), अश्वादि सभी होते हैं, परन्तु लड़ाईके प्रसंग पर तो राजाके जो अश्व, गजादि होते हैं वे ही उपयोगमें आते हैं। सेठ-साहूकारोंके या अन्योंके घोड़े लड़ाई में उपयोगी नहीं होते हैं, इसलिए सैन्यके लिए स्वतन्त्र देवोंकी अपेक्षा अवश्य होती है और वह इसलिए कि शीघ्र उपयोगी भी हो सकें / [46 ] (प्र० गा० सं० 9) अवतरण-प्रत्येक इन्द्रके वायस्त्रिंशक आदि देवोंकी कितनी संख्या होती है ? इसकी प्ररूपणा करते हैं.. तित्तीस तायतीसा, परिसतिआ लोगपाल चत्तारि / अणियाणि सत्त सत्त य, अणियाहिव सव्वइंदाणं / / 47 // [प्र० गा० सं० 10] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 48 नवरं वंतर-जोइस,-इंदाण न हुंति लोगपालाओ / तायत्तीसभिहाणा, तियसा वि य तेसिं न हु हुंति // 48 // [प्र० गा० सं० 11] गाथार्थ तैतीस त्रायस्त्रिंशक देव, तीन-तीन पर्षदाएँ, चार-चार लोकपाल देव, सात प्रकारका सैन्य, सात सैन्योंके अधिपति-इतना परिवार सभी इन्द्रोंका होता है, परन्तु व्यन्तर तथा ज्योतिषीके इन्द्रों के पास लोकपाल देव और त्रायस्त्रिंशक नामके देव नहीं होते हैं / / / 47-48 // विशेषार्थ-पहले देवोंके प्रकारोंका वर्णन किया गया था, परंतु संख्याकी वक्तव्यता नहीं कही थी, इसलिए अब संख्या बताते हैं / १२८त्रायस्त्रिंशक नामके देव तैंतीस होते हैं, इन्द्रमहाराज प्रसंग-प्रसंग पर इन देवोंकी सलाह लेते हैं। हरएक देवलोकमें बाह्य, मध्यम और अभ्यन्तर इस तरह तीन-तीन पर्षदाएँ अर्थात् सभाएँ होती हैं। इन पर्षदाओंके नाम प्रत्येक निकायमें अलग-अलग होते हैं। जिस-जिस देवस्थानमें पर्षदा है, उस उस पर्षदामें प्रत्येक पर्षदाके देवों तथा देवियों का आयुष्य अलग अलग होता है। प्रत्येक इन्द्रके आवासके चारों ओर चार लोकपाल होते हैं, इन लोकपालोंकी भी पर्षदाएँ होती हैं, उस प्रत्येक लोकपालके विमानोंके नीचे ही तिजलोकमें अपने अपने नामकी उनकी नगरियाँ भी हैं। उनके विमानोंका प्रमाण पंक्तिबद्ध विमानोंसे आधा होता है / साथ ही सामानिक आदि देवोंका भी परिवार है। इन लोकपालों के नाम अन्य निकायवर्ती अलग-अलग होते हैं। आयुष्य भी भिन्न भिन्न होते हैं वैसे ही पहले कहा था वैसा सात प्रकारका सैन्य हरएक इन्द्रके पास होता है। और प्रत्येक निकायके कटकके सात-सात सेनापति भी होते हैं, उनके निकायके अनुसार अलग-अलग नाम होते हैं / इस तरह ऊपर बताया गया परिवार सभी इन्द्रोंके पास सामान्यतः होता है / परंतु इतना विशेष समझे कि 12 व्यन्तरेन्द्रों तथा ज्योतिषीके इन्द्रोंके पास लोकपाल 128. इन देवोंके स्वस्व स्थानाश्रयी वर्तित नाम तीनों कालोंमें शाश्वत (एक समान ) होते हैं / पर्षदाका विस्तृतवर्णन श्रीजीवाभिगमादिसे जानें / 129. तुलना करें-तत्त्वार्थचतुर्थाध्याये 'त्रायस्त्रिंशलोकपालवर्जा व्यन्तरज्योतिष्काः'। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपति और व्यन्तरनिकाय संबंधी परिशिष्टो ] गाथा 48 [111 तथा त्रायस्त्रिंशक देव होते नहीं हैं। // 47-48 // (प्र० गा० सं०१०-११) ..... उपसंहार-.. .. इति व्यन्तराणां सुराणा-सुरायु-नगर्यो वपुर्वस्त्रवर्णादिव्याख्या / . अपि व्यन्तरेन्द्रात्मसंरक्षकाणां तथा सप्तसैन्याधिपानां च संख्या // 1 // - [इति संग्रहश्लोकः ] . . // इति प्रस्तुत-भवनद्वारे प्रकीर्णकाधिकारः समाप्तः // . // श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / / भवनपति तथा व्यन्तरनिकायाश्रयी लघुपरिशिष्ट प्रथम भवनपतिनिकायाश्रयी, परिशिष्ट नं. 1 1. भवनपतिके प्रत्येक इन्द्रकी किस-किस प्रकारकी शक्ति है ? तथा कौनसे निकायके देवोंका किस-किस द्वीप समुद्राश्रयी कहाँ कहाँ निवास है ? इसके लिए देखें-संग्रहणीकी 'जम्बुद्वीवं छत्त'-गाथाकी लघुटीका, बृहत्टीका तथा देवेन्द्रस्तव, लोकप्रकाश, जीवाभिगमादि ग्रन्थ' / 2. भवनपति देवोंके भवन (आवास) पंक्तिबद्ध न समझे लेकिन विप्रकीर्ण अर्थात् अलग अलग . समझे। . .. 3. भवनपतिदेवोंके चिह्नादिकका जो वर्णन किया है, उसके बारे में कतिपय मतान्तर प्रवर्त्तमान हैं। देखिए, औपपातिक तथा प्रज्ञापनादि प्रन्थ / / 4. नरकके जीवोंको तथाविध पीडा देनेवाले, पन्द्रह प्रकारके परमाधामी देवोंको भवनपति निकायान्तर्गत ही जानें / 5. चमरेन्द्रादि इन्द्रोंकी बाह्य, मध्यम और अभ्यन्तर इस तरह तीन प्रकारकी पर्षदाएँ होती हैं, इनमें यदि किसी देवको अभ्यन्तर सभामें सन्देश पहुँचाना हो तो पहले वह बाह्यसभामें भेजा जाता है, वे उसे मध्यसभा पहुँचाते हैं और मध्यसभावाले अभ्यन्तर पर्षदामें भेजें और वे उसकी योग्य व्यवस्था करें, साथ ही अभ्यन्तर सभामें पास किया हुआ कार्य मध्यसभाको कार्यान्वित करनेके लिये सौंपा जाय, मध्यसभावाले बाह्यसभावालेको (बाह्य सभासदोंको ) सौंर दें और उस बाह्यसभाके देव आज्ञानुसार कार्यान्वित करें। इस तरह Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 48 हरएक देवलोकमें बताई गई पर्षदाका व्यवहार समझ लें / उनमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आयुष्यवाले तथा तीनों प्रकारकी संख्यावाले देव होते हैं। और इस चमरेन्द्रादिकी राजधानीका वर्णन 'भगवती' आदि सूत्रमें तथा क्षेत्रलोकप्रकाश 'मेंसे देख लें। यह चमरेन्द्र देवदेवियों के परिवारसे समग्र जम्बूद्वीप तथा तिर्छा असंख्याता द्वीप समुद्रोंको भी भरनेकों समर्थ है / अरे! यह सामर्थ्य तो उसके सामानिक तथा त्रायस्त्रिंशक देवों में भी रहता है। जाव य जम्बूदीवो जाव य चमरस्स चमरचंचाओ ! असुरेहिं असुरकन्नाहिं अस्थि विसओ भरेओसे // 1 // [ देवेन्द्र० स्तव ] कामक्रीडा विधिमें चतुर ऐसे ये इन्द्र लावण्य और सौन्दर्ययुक्त देवांगनाओंके साथ भोगसुखोंको भोगते हुए आनन्दमें विहरते हैं। द्वितीय व्यन्तरनिकायाश्रयी, परिशिष्ट नं. 2 1. इन व्यन्तरोंकी भी असंख्याती विशाल नगरियाँ अढ़ाई द्वीपके बाहर. विद्यमान हैं। जिनका विस्तृत वर्णन जीवाभिगमादि आगमग्रन्थोंसे जान लें / 2. व्यन्तरोंके नगरोंकी चारों ओर वल्याकारमें रक्षणके लिए गहरी खाई और सुन्दर प्राकार-परकोटा शोभायमान है, उसके कोठे पर तोपें आदि स्थापित हैं; मजबूत किला शत्रुओंसे दुष्प्रवेश्य होता है / ये नगर जगमगाते, देदीप्यमान और महान रत्नमय तोरणोंसे शोभायमान दरवाजोंसे युक्त हैं और दण्डधारी देवकिंकर नगरका रक्षण करनेमें दिन-रात सज्ज रहते हैं। साथ ही इन नगरोंमें पंचरंगी पुष्पोंकी महासुगन्धसे और अगरु तथा किंदरुदशांगादि श्रेष्ठ धूपादिकी सुवासोंसे सुगन्ध ही सुगन्ध व्याप्त रहती है। ये देव अतिस्वरूपशाली स्वभावसे तथा दिखावेसे सौम्य, अंगोपांग आदि रत्नमय अलंकारोंसे विभूपित, गांधर्वोके गीतोंमें प्रीतिवाले और कुतूहल देखनेकी प्रबल इच्छावाले होते हैं। इन देवोंको क्रीडा, हास्य, नृत्यादि पर अत्यन्त आसक्ति होनेसे ये अनवस्थितरूपसे जहाँ-तहाँ भटकते रहते हैं और कुतूहलके लिये शरीरप्रवेश आदि कार्यो द्वारा अन्य व्यक्तियोंको पीड़ा भी पहुंचाते हैं। ... मनुष्यलोकमें भूत, पिशाच, राक्षसादि जो कहे जाते हैं, वे इन व्यन्तरनिकायके उस-उस निकायगत व्यन्तर ही होते हैं। ये देव विशेषतया जीर्णस्थानों (गृहमन्दिरादि )में निर्जन स्थान हो जानेसे निवास करके रहते हैं। अतः वे उस स्थानवी निवास करनेवाले लोगोंको या अन्य लोगोंको पूर्वीय रागसे या द्वेषसे कई बार महाव्यथा उत्पन्न करते हैं / साथ ही इन लोकोंमें प्रायः क्रीड़ा और विनोदके लिये आते उन देवोंका विशेष समय क्रीडा, हास्यादिमें निर्गमन हो जानेसे वे अपने मूलस्थानोंको भी भूल जाते हैं, जिससे वे जहाँ-तहाँ जिस-किसी स्थानमें प्रवेश करके रहते हैं। ये देव विशेषतया स्वेच्छाचारी होते हैं। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषीनिकाय-वर्णन प्रारंभ ] गाथा-४९ [113 4. प्रत्येक इन्द्रकी तीन प्रकारकी पर्षदाएँ होती हैं। तीनोंमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आयुष्य संख्यावाली देव-देवियाँ होती हैं / यह पर्षदा-अग्रमहिषी लोकपालादि देवोंमें भी अपने-अपने प्रमाणाश्रयी यथायोग्य होती है / 5. अपनी इस पृथ्वीके नीचे एक अद्भुत जीवसृष्टि विद्यमान है। इस सृष्टिमें नरकगतिवर्ती नारकजीव तथा चार प्रकारके देवों में भवनपति और व्यन्तर इन दो प्रकारके देव और भवनपतिके उप-प्रकारके रूपमें परमाधामी भी नीचे ही रहते हैं। आज जगतमें मन्त्रों और यन्त्रोंकी आराधना और उपासनाएँ चल रही हैं और उनमें सहायक स्वरूप जो जो देव-देवियाँ होती हैं, वे प्रायः इन दोनों निकायोंके होते हैं / यक्ष-यक्षिणियाँ, घंटाकर्ण, माणिभद्र, क्षेत्रपाल, भैरव, सरस्वती, लक्ष्मी, चक्रेश्वरी, विद्यादेवियाँ आदि व्यन्तर निकायके ही हैं, सिर्फ पद्मावतीजी भवनपतिकी है / तृतीय ज्योतिषी-निकायवर्णनम् / अवतरण-पहले भवनपति तथा व्यन्तरनिकायका यथायोग्य दिग्दर्शन कराया / अब तीसरे ज्योतिषीनिकायके स्वरूपका वर्णन किया जाता है। इन ज्योतिषी देवोंका स्थान ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् इस प्रकार तीनों लोकके विभागसे विभाजित त्रासनाडीके तिर्यक्लोकमें है। यह तिर्यक्लोक ऊँचाइमें 1800 योजन प्रमाण गिना जाता है और उसकी गिनती समभूतलासे अधःस्थानमें 900 योजन और उसी समभूतल भागसे ऊर्ध्वस्थानमें 900 योजन इस तरह की जाती है। इसलिये ज्योतिषी देव तिर्छालोकवासी कहलाते हैं अब ये ज्योतिषी देव कहाँ और यहाँसे कितने योजन दूर हैं ? यह दिखानेके लिए प्रन्थकार महर्षि ' समभूतलाउ' इस गाथाकी रचना करते हैं / समभूतलाउ अहिं, दसूणजोयणसएहिं आरम्भ / उवरि दसुत्तरजोयण-सयंमि चिटुंति जोइसिया // 49 // . गाथार्थ-समभूतला पृथ्वीसे दस कम ऐसे आठसौ योजन ( सातसौ नब्बे योजन )से आरंभ करके, ऊपर ऊर्ध्व आकाशमें एकसौ दस योजन तक ज्योतिषी देव रहते हैं। // 49 / / विशेषार्थ-ज्योतिषी अर्थात् 'अत्यन्तप्रकाशित्वाज्ज्योतिः शब्दाभिधेयानि विमानानि तेषु भवा ये देवास्ते ज्योतिष्काः // ' Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 50-51 अत्यन्त प्रकाश करनेवाले होनेसे 'ज्योतिः' शब्दसे कहने योग्य विमान वह 'ज्योतिः' कहलाते हैं और उनमें बसनेवाले (देव) वे 'ज्योतिष्काः ' कहलाते हैं / ये देव अत्यन्त प्रज्वलित तेजवाले, देदीप्यमान कान्तिवाले तथा दिग्मंडलको स्वप्रभासे उज्ज्वल तेजपूर्ण करनेवाले होते हैं। प्रथम उनका वर्णन किया गया है। वे मेरुके गोलाकार मध्यभागवर्ती, रत्नप्रभा पृथ्वीमें आई हुई समभूतला पृथ्वीसे लेकर सातसौ नब्बे योजन (790) तक उनका अस्तित्व नहीं है, उन सातसौ नब्बे योजनोंके छोड़नेके बाद तुरंत ही ज्योतिषी देवोंका स्थान आरम्भ होता है, इस आरंभसे लेकर ऊपरके एकसौ दस (110) योजनों में ( अर्थात् तिर्यक्लोकके अन्तभाग तक ) पांच प्रकारके ज्योतिषी देव 'बसते हैं। ७९०में 110 जोड़नेसे 900 योजनप्रमाण तिर्यक्लोकका ऊर्ध्वभाग संपूर्ण आ जाता है। [49] अवतरण-ऊपरकी गाथामें ज्योतिषीदेवोंका वास 110 योजन क्षेत्रमें बताया / अब ५०वीं गाथासे सामान्यतः सूर्य-चन्द्रका स्थान बताकर जिन नक्षत्रोंकी गतिकी विशेषताएँ हैं उन्हें कहते हैं। और पश्चात् ५१वीं गाथामें पांचों ज्योतिषीयोंका स्थान, उनका क्रम और परस्पर अन्तर कहते हैं। तत्थ १३°रवी दसजोयण, असीइ तदुवरि ससी य रिक्खेसु / अह भरणि-साइ उवरि, बहि मूलोऽभिंतरे अभिई / / 50 // तार-रवि-चन्द-रिक्खा, बुह-सुक्का जीव-मंगल-सणिया / सगसयनउय दस-असिइ, चउ चउ कमसो तिया चउसु // 51 // . [प्र० गा० सं० 12] गाथार्थ-समभूतला पृथ्वीसे (790 ) सातसौ नब्बे योजन दूर जानेके बाद दस योजनके अन्तर पर सूर्य है। वहाँसे अस्सी योजन दूर चन्द्र है और उसके बाद नक्षत्र हैं। उनमें सबसे नीचे भरणी और सबसे ऊपर स्वातिनक्षत्र है / सर्व बाह्य भागमें मूल और सर्व अभ्यन्तर भागमें अभिजित् नक्षत्र है / समभूतला पृथ्वीसे 790 ( सातसौ नब्बे ) योजन पर तारे, उनके बाद दस योजनके अन्तर पर सूर्य, फिर अस्सी योजन जाने पर चन्द्र, वहांसे चार योजन पर नक्षत्र मण्डल, __ 130. पचासवीं तथा इक्कावनवीं इन दोनों गाथाओंमें सूर्यादिका स्थान ग्रन्थकारने दो बार बताया है। दो बार बताया है इसलिए गाथाके कर्ता एक ही होंगे या दोमसे एक प्रक्षेप गाथा होगी ? Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभूतलापृथ्वीसे ( यहांसे ) सूर्यादिग्रह कितने दूर है ? गाथा 50-51 [ 115 वहाँसे चार योजन पर बुध, उसके बाद तीन योजन पार करने पर गुरु, फिर तीन योजन पर मंगल और तदनन्तर तीन योजन पर शनिश्चर है / // 50-51 // विशेषार्थ इक्कावनवीं प्रक्षिप्त गाथा द्वारा अन्य आचार्य ऐसा कहते हैं कि रत्नप्रभागत समभूतला पृथ्वीसे सातसौ नब्बे योजन पूर्ण होने पर तुरंत ही कोटानुकोटी ताराओंका मण्डल-प्रस्तर आता है, वहाँसे दस योजन दूर ऊँचा जाने पर (आठसौ योजन पूर्ण होने पर ) वहाँ १३१सूर्येन्द्र आता है। वहाँसे आगे अस्सी योजन दूर जाने पर (880 योजन पूर्ण होने पर ) वहाँ चन्द्र आता है, साथ ही वहाँसे चार योजनकी ऊँचाई पर अट्ठावीस प्रकारका नक्षत्रगण आता है / _इन नक्षत्रोंका जो परिभ्रमण क्रम है, उनमें भरणीनक्षत्र सर्व नक्षत्रोंसे अधःस्थानमें विचरता है, जब कि स्वातिनक्षत्र सर्व नक्षत्रोंसे ऊर्ध्वस्थानमें (ऊपर ) चलता है। मूलनक्षत्र अन्य 11 नक्षत्रों की अपेक्षा सर्व नक्षत्रोंके दक्षिणमें बाह्य मण्डलमें चलता है और अभिजित् नामका नक्षत्र सर्व नक्षत्रोंसे अन्दरके भागमें उत्तरमें बाह्य मण्डलमें चलता है / इन नक्षत्रोंके स्थानसे चार योजन दूर ऊँचा जाने पर ग्रहोंकी संख्यामें मुख्य मुख्य माने जाते ग्रहों में से प्रथम बुधग्रहमंडल आता है, वहाँसे तीन योजन दूर ऊँचा शुक्रग्रहमण्डल है, वहाँसे तीनं योजन दूर बृहस्पति-गुरुग्रहमण्डल है और वहाँसे पुनः तीन योजन ऊँचा १३२मंगलग्रहमण्डल है और वहाँसे तीन योजन ऊँचा १३३शनैश्चरग्रहमंडल आया है। - 131. इतर दर्शनकार प्रथम चन्द्र समझते हैं और फिर सूर्य मानते हैं, इतना ही नहीं लेकिन 'सूर्यनारायण के रुपमें प्रायः बहुतसे अनुष्ठानोंमें उन्हें पूजनीय स्वरूपमें विशेषतः मान्य करते हैं। प्रथम चन्द्र और फिर सूर्य, इस मान्यताके बारेमें आगे-'ज्योतिषी परिशिष्ट में सोचेंगे / ___132. समभूतलापेक्षया मंगलग्रह-प्रमाणांगुलसे युक्त ऐसे 887 योजन अर्थात् चार कोसके योजनके मापसे 35480 योजन ऊँची है, फिर भी उसके अनभ्यासी आजके पाश्चात्य वैज्ञानिक, उस मंगलस्थान पर पहुँचनेके बारेमें बातें करते हैं, इतना ही नहीं, लेकिन मंगलग्रह किस आकारका है ? कैसे रंगका हे ? उस पर क्या क्या वस्तुएँ हैं ? अन्दर क्या क्या थर्या है यह सब हमने देखा ऐसा कहते हैं, साथ ही रोकेट नामके हवाई यान्त्रिक साधनद्वारा मनुष्योंको भेजनेके प्रयास वर्तमानकालमें हो रहे हैं, परंतु हजारों मील दूर पहुँचनेकी कोई संभावना-शक्यता तनिक भी दिखती नहीं है / ... 133. व्यवहारमें बुध, शनैश्चरादि ग्रह होने पर भी जो शनैश्चरका तारा, इत्यादि 'तारा' शब्दसे संबोधित होता है इसका कारण ऐसा प्रतीत होता है कि-ताराबहुल विमानोंमें आए हुए ग्रहविमानका आकार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-५२ इस सम्बन्धमें श्री हरिभद्रसूरिजी सबसे नीचे भरणी आदि नक्षत्र, तत्पश्चात् सबसे ऊँचे स्वाति आदि नक्षत्र जणाते हैं। श्री गंधहस्तीजी महाराज प्रथम मंगलग्रह सूर्यके नीचे होनेका बताते हैं / (50-51) (प्र० गा० सं० 12) ज्योतिषी निकायका स्थान, तथा ज्योतिश्चक्रकी ऊँचाई प्रमाणका यन्त्र / समभूतला पृथ्वीसे | 790 योजन ऊँचा-तारामंडल से 10 योजन ऊँचा सूर्य 800 योजन ॐवे-सूर्य से 80 ,, ,, चन्द्र 880 योजन ऊँचे-चन्द्र से 4 योजन ऊँचा नक्षत्रपरिमंडल ,, ,, नक्षत्रमंडल से 4 ,, ,, बुधग्रहादि ,, ,, बुधादिग्रहों से 3,, ,, शुक्रग्रहादि ,, ,,-शुक्रादिग्रहों से 3 ,, ,, बृहस्पत्यादि ,, ,, बृहस्पत्यादिग्रहोंसे 3 योजन ऊँचा . मंगलग्रहादि 897 ,, ,, मंगलादिग्रहोंसे 3 ,, ,, शनैश्चर 900 , ,,-शनैश्चरादिग्रह - , आए हैं। कुल 110 योजन पूर्ण हुए / अवतरण-चरज्योतिषीके विमान, मनुष्यक्षेत्रमें जम्बूद्वीपके मेरुपर्वतसे कितने दूर रहे ? तथा स्थिर ज्योतिश्चक्र मनुष्यलोकके बाहर अलोकाकाशकी कितनी अबाधा पर स्थिर है ? इसका वर्णन करते हैं एक्कारसजोयणसय, इगवीसिकारसाहिया कमसो / मेरु अलोगा बाहं, जोइसचक्कं चरइ ठाइ / / 52 // गाथार्थ-ग्यारहसौ इक्कीस योजन तथा ग्यारहसौ ग्यारह योजन अनुक्रमसे मेरु तथा अलोककी अबाधा पर ज्योतिश्चक्र घूमता है और स्थिर रहता है। // 52 // विशेषार्थ-पहले कह गये हैं कि अढाईद्वीपमें चरज्योतिषी हैं और तत्पश्चात् तारा विमानाकार जैसा होनेसे और उस विमानकी तेजस्वी प्रभासे, दूरसे देखनेवालेको तारावत् आभास होता होनेसे वैसा कहनेकी प्रथा हो गयी हो तो वह सहज है / अधिक कहें तो सोम, मंगल आदि ग्रहोंके नामके आधारसे कहे जाते सोमवार, मंगलवार इत्यादि वार भी प्रसिद्ध हुए हैं / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषीदेवोंके विमानोंकी आकृति, रचना संख्या आदि ] गाथा 52-54 [ 117 अढाईद्वीपके बाहर सर्वत्र स्थिरज्योतिषी हैं। उनमें अढाईद्वीपवर्ती चरज्योतिषी मेरुसे कितनी अबाधा वर्जन करके चलता है ? ( अर्थात् अबाधा कितनी ?) इस प्रश्नके समाधानमें समझाते हैं कि-मेरुकी चारों ओर ग्यारहसौ इक्कीस (1121) योजन क्षेत्रको छोड़कर ( इतनी दूर) चरज्योतिषमण्डल मेरुपर्वतको प्रदक्षिणा करता हुआ घूमता है। अब अलोकसे अन्दर तिर्छालोकमें कितनी अबाधा पर सदाकाल स्थिर ऐसे ज्योतिष्कविमान होते हैं ? तो लोकका छोर अथवा तो अलोकका प्रारम्भ अर्थात् लोकान्तसे अथवा तो अलोकके आरम्भसे अन्दरकी कोरसे चारों बाजू पर भ्रमण करते ग्यारहसौ ग्यारह योजन दूर (1111) स्थिर ज्योतिषी वर्तित हैं [52] अवतरण-ज्योतिषीदेवोंके विमानोंकी आकृति कैसी होती है ? ये विमान किससे बने होते हैं ? और कितनी संख्यामें होते हैं ? यह बताते हैं अद्धकविट्ठागारा, फलिहमया रम्मजोइसविमाणा / वंतरनगरेहितो, संखिज्जगुणा इमे हंति // 53 // ताई विमाणाई पुण, सव्वाई हुंति फालिहमयाई / दगफालिहमया पुण, लवणे जे जोइसविमाणा / / 54 / / [प्र. गा० सं० 13 ] गाथार्थ-ज्योतिषीदेवोंके विमान अर्ध कोठेके आकारवाले, स्फटिकरत्नमय और बहुत सुन्दर होते हैं, साथ ही व्यन्तरदेवोंके नगरोंकी अपेक्षा इन ज्योतिषीदेवोंके विमान संख्याता गुने हैं, और इन ज्योतिषी देवोंके सारे विमान स्फटिकरत्नमय होते हैं। - उनमें भी जो विमान लवण समुद्र पर विद्यमान हैं वे उदकस्फटिकमय अर्थात् पानीको भी फोड़कर-छेदकर प्रकाश दे सकें ऐसे-उदकस्फटिक रत्नके हैं। // 53-54 // . * विशेषार्थ ज्योतिषीदेष अर्द्धकपिरथाकारवाले विमानों में बसते हैं / शंका ज्योतिषीदेवोंके विमान जब अर्ध कोठेके आकारवाले होते हैं, तो जब मस्तक पर (मध्याह्न) वे वर्तित हों तब उस कोठेके ऊपरका अर्ध भाग दिखाई न देनेसे नीचेका गोल भाग वर्तुलाकार दिखता है, इस बातको तो मान लें लेकिन जब उदयास्तकालमें अथवा चन्द्र सूर्यका तिर्यक् परिभ्रमण हो तब वर्तुलाकार न दिखता अर्धकपित्थाकार अवश्य उपलब्ध होना ही चाहिए, परंतु वैसा तो नहीं होता है तो उसका समाधान क्या है ? समाधान-सचमुच ऊपरकी आशंका उचित है, परंतु ज्योतिषीयोंके प्रासाद जिस पीठ पर स्थित हैं, उस पीठका आकार अर्ध कोठेके समान है। लेकिन समग्र प्रासादका आकार अर्ध कोठे जैसा नहीं है और अतः उस पीठके लगभग सभी प्रासाद इस प्रकार Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 53-54 चढाई-उतराईमें स्थित हैं कि उस शिखरके भाग भी लगभग गोलाकार १३४बन जाते हैं अर्थात् (चित्र देखिए) और इसलिए दूर होनेके कारण उदयास्तसमय पर गोलाकार ही दिखता है। . ये स्फटिकरत्नमय विमान अत्यन्त तेजस्वी, जगमगाते प्रकाशवाले, रमणीय, चक्षुओं तथा मनको अत्यन्त आह्लाद देनेवाले और पूर्व वर्णित व्यन्तरनगरोंकी संख्यासे संख्यागुने अधिक हैं। उन ज्योतिषीयोंके सर्व विमान स्फटिकरत्नमय होते हैं / और लवणसमुद्र में विद्यमान ज्योतिषीयोंके विमान उदकस्फटिकमय कहलाते हैं। ... प्रश्न-लवणसमुद्रमें कहनेका अथवा उदकस्फटिकमय कहनेका तात्पर्य क्या है ? .. उत्तर-जम्बूद्वीपके चारों ओर लवणसमुद्र है और उसकी चारों ओर धातकी खण्ड होनेसे लवणसमुद्रका जल इस भाग पर जम्बूद्वीपकी जगतीको और सामनेवाले भाग धातकीखण्डकी जगतीको अर्थात् दो द्वीपोंकी दोनों जगतीका स्पर्श करता है, उनमें जम्बूद्वीप द्वारा स्पर्शित जलवाला जो किनारा है वह अभ्यन्तर और धातकीखण्ड द्वारा स्पर्शित जो किनारा है वह बाह्य गिना जाता है। वहाँ जम्बूद्वीपकी जगतीसे स्पर्शित इस अभ्यन्तर किनारेसे 95000 योजन समुद्रमें दूर जाने पर उस स्थानमें जगतीसे समुद्रकी भूमि अनुक्रमसे नीची नीची उतरती हुई 1000 योजन गहरी हो जाती है। वैसे ही धातकीखण्डकी जगतीके ओरसे जम्बूद्वीपकी जगतीकी दिशाकी तरफ 95000 योजन समुद्र में आ जाने पर उस स्थानमें भी पूर्वकी तरह 1000 योजन गहराई हो जाती है; यद्यपि जम्बूद्वीपकी तथा धातकीखण्डकी जगतीके पास स्पर्शित जल तो योजनके असंख्याता भागप्रमाण गहरा होता है, परंतु आगे बढ़ने पर गहराई बढ़ती जाती होनेसे मध्यके दस हजार योजनमें 1000 योजन गहराई होती है। अतः लवणसमुद्र के दो लाख योजनके विस्तारमेंसे दोनों बाजूके 95000 योजन कम करें तब अति मध्यभागमें 10000 योजन विस्तार शेष रहता है और उतने विस्तीर्णभागमें 1000 योजनकी गहराई चारों बाजु पर समान रूपमें होती है / [चित्र देखिए ] ___ अब दोनों बाजु पर जिस तरह 95000 योजन भूमि उतार कहा है उसी तरह 134. इस विषयमें श्रीमान् जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण महाराजा विशेषणवर्ती शंका करके समाधान देते हैं कि;- . प्र०. 'अद्धकविट्ठागारा उदयत्थमणमि किह न दीसंति ? / ससिसूराण विमाणा तिरियक्खित्ते ठियाइं च // 1 // उ० उत्ताणकद्धविट्ठागारं पीढं तदुवरि च पासाओ / वट्टालेखेण तओ, समवढं दूरभावाओ // 2 // ' Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणसमुद्र चन्द्र-सूर्य ज्योतिषीयोंके विमानोंका वर्णन ] गाथा 53-54 [ 119 दोनों बाजुकी जगतीसे ( अभ्यन्तर तथा बाह्य किनारेसे ) 95000 योजन तक जलकी अनुक्रमसे समभूमिकी सतहसे चढ़ता हुआ जल 700 योजन ऊँचा हो जाता है जिससे उस स्थान पर 1000 योजन गहराई और 700 योजन ऊपरकी जलवृद्धि होनेसे कुल 1700 योजन प्रमाण ऊँचा १३५जल समुद्रके तलवेकी अपेक्षासे होता है। लवणसमुद्र में मध्यके दस हजार योजनके विस्तारमें एक हजार योजनकी जो गहराई बताई उसी दस हजार योजनके विस्तारमें सामान्यतः जलकी सतह (सपाटी से सोलह हजार ( 16000) योजन ऊँची जलशिखा खड़ी चुनी हुई दीवाल अथवा गढ़के आकारके समान बढ़ती है। इस तरह समुद्रके तलभागसे लेकर 17800 योजन ऊँचा जल हुआ / ऊपरसे लेकर 16000 योजन शिखा हुई, वह शिखा उक्त प्रकारसे नीचे और ऊपर दोनों स्थानों पर 10000 योजन चौड़ी होती है, इस शिखाका जल प्रतिदिन दो बार दो कोस ऊचा चढ़ता है और भाटा (पानीका उतार )की तरह पुनः उतरता जाता है। ऐसा होनेका कारण लवणसमुद्रमें स्थित पातालकलशोंका वायु है / पूर्व वर्णित ज्योतिषीदेवोंके विमान इस जलशिखामें विचरण करते हैं / यहाँ शंका होगी कि विमान जब शिखामें विचरते हैं तो लवणसमुद्रकी शिखा समभूतलासे . 16000 योजन ऊँची होती है और ज्योतिषी समभूतलासे 790 योजनसे 900 योजन तकमें होते हैं तो लवणसमुद्रगत शिखा में रहे हुए विमान शिखामें विचरणशील होनेसे उनका पानीमें किस तरह गमन होता होगा ? इस शंकाके समाधानमें समझना चाहिए कि-लवणसमुद्र की शिखामें विचरते विमान एक तो उदकस्फटिक रत्नोंके बने हैं, इस स्फटिकरत्नका स्वभाव पानीको काटनेका है जिससे वे उदकस्फटिकमय विमान शिखाके जलको काटते काटते, किसी भी व्याघातके बिना अस्खलित गतिसे जिस तरह अन्य स्फटिकरत्नमय विमान गमन करते हैं, उसी तरह निर्विघ्नरूपसे शिखामें गति करते हैं। - तो क्या पानीके सदाकालिक स्पर्शसे स्फटिकरत्नको कुछ बाधा होती होगी सही ? और उसमें पानी किसी समय भर जानेसे वह नुकसान भी करता होगा या नहीं ? उसके स्पष्टीकरणमें उस रत्नके तेजको पानीसे किसी भी प्रकारकी हानि नहीं होती है साथ ही किसी भी समय उसमें 13 पानी भी नहीं भराता है / ये उदकस्फटिकमय विमान लवण 135. जलका सहज स्वभाव तो सम-सतह (सपाटी )में रहनेका होता है, फिर भी जिसे जलका चढ़ाव कहते हैं वह कैसे उतर जाए ? उस शंकाके समाधानमें समझना कि-प्राकृतिक रूपसे ही जल तथाप्रकारके क्षेत्रस्वभावसे ही लवणसमुद्रमें क्रमशः चढ़ता रहता है। 136. इसमें दैवीशक्ति, तथाविध जगत्स्वभाव तथा स्फटिकरत्नादिककी विशिष्टिताके योगमें कुछ भी सोचना शेष रहता नहीं है। वर्तमान युगका उदाहरण सोचें तो-पहले तथा दूसरे विश्वयुद्ध में Submarine Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 55 समुद्रमें ही हैं और वे ऊर्ध्वलेश्या (= प्रकाश ) विशेषवाले हैं / [53-54] (प्र० गा० सं० 13) अवतरण-चन्द्र-सूर्य आदि ज्योतिषीयोंके विमानोंका प्रमाण कहते हैं जोयणिगसट्ठिभागा, छप्पन्नऽडयाल गाउ-दु-इगद्धं / चन्दाइविमाणाया-मवित्थडा अद्धमुच्चत्तं // 55 // गाथार्थ-एक योजनके छप्पन बटे इकसठवाँ भाग (4), एक योजनके अडतालीस बटे इकसठवाँ भाग (46), दो कोस, एक कोस और आधा कोस प्रमाण अनुक्रमसे चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारोंके विमानोंकी लम्बाई, चौड़ाई जाने और ऊँचाई उससे अर्धप्रमाण जानें / यह योजन प्रमाणांगुलका समझे। // 55 // विशेषार्थ अब उन ज्योतिषीयोंके विमानोंका आयाम-विष्कंभ और ऊँचाईके प्रमाणों की विशेषऋद्धिवन्ताके क्रमानुसार व्याख्या करनेसे एक योजनके इकसठ विभाग करें, उन इकसठ (61) विभागोंमेंसे छप्पन (56) भाग प्रमाण लम्बा चन्द्रका विमान है। वैसे ही एक योजनके अड़तालीस बटे इकसठवाँ भाग प्रमाण लम्बा सूर्यका विमान है। ग्रहोंके विमान दो कोस लम्बे होते हैं। नक्षत्रोंके विमान एक कोस प्रमाण और पाँचवाँ तारोंके विमान अर्धकोस प्रमाण लम्बे होते हैं। चौड़ाई भी जितनी लम्बाई कही गई है, उतनी ही समझे, इससे ये विमान चारों ओरसे समान प्रमाणवाले होते हैं। उन विमानोंको ऊँचाईमें अपने-अपने आयाम तथा विष्कंभसे अर्ध प्रमाणवाले जानें। . अर्थात् चन्द्र के विमान ऊँचाईमें एक योजनके 28 बटे 61 (36), सूर्यके विमान ऊँचाईमें एक योजनके 24 बटे 61 (34), ग्रहोंके विमान ऊँचाईमें एक कोस ऊँचे, नक्षत्रोंके विमान आधे कोस और तारोंके विमान 1 बटे 4 (3) कोस अर्थात् 0 / (पाव) कोस ऊँचे होते हैं। यह तीनों प्रकारका प्रमाण मनुष्यक्षेत्रमें वर्तित चरज्योतिषीयोंका जाने / इतना विशेष समझे कि-अढ़ाईद्वीपके बाहरके नक्षत्र भिन्न भिन्न आकारके तथा तपनीय (सुवर्ण) वर्णके हैं / [55] / अवतरण-मनुष्य क्षेत्रका प्रमाण कहने के साथ मनुष्यक्षेत्रमें ज्योतिषीयोंके विमान चर होते हैं यह बतानेके लिए मनुष्यक्षेत्रसे बाहर ज्योतिषीयोंके विमान स्थिर हैं वे तथा उनका प्रमाण कितना है ? इसका वर्णन करते हैं;(सबमरीन) नामसे परिचित युद्धस्टीमर समुद्रके अथाह जल्में डुबकी लगा-लगाकर तेजीसे सैकड़ों मील तय कर लेते थे। जलमें रहने पर भी उन स्टीमरोंके द्वारोंमें जलप्रवेश नहीं हो पाता। उनमें हवा, प्रकाश आदि सभी प्रकारकी अनुकूलता रहती है तो फिर इन शाश्वत विमानोंके लिये तो सोचना ही क्या ? जैसे वाटरप्रुफ वस्त्रों पर बरसातकी असर नहीं होती। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रका वर्णन ] गाथा-५६ [121 पणयाललक्ख जोयण, नरखेत्तं तत्थिमे सया भमिरा / नरखित्ताउ बहिं पुण, अद्धपमाणा ठिया निच्चं // 56 // गाथार्थ-पैंतालीस लाख (4500000) योजन प्रमाण मनुष्यक्षेत्र है, उसमें इन ज्योतिषीयोंके विमान सदाकाल परिभ्रमण करनेवाले हैं और मनुष्यक्षेत्रके बाहर ज्योतिषीयोंके जो विमान हैं वे पूर्वोक्त लम्बाई, चौड़ाई और उचाईकी अपेक्षासे अर्ध प्रमाणवाले तथा सदाकाल स्थिर हैं / / 56 / / विशेषार्थ-गाथार्थमें पैंतालीस लाख योजनका मनुष्यक्षेत्र कहा गया, वह किस हिसाबसे है ? वह यहाँ बताया गया है। मालपुआके आकारमें विद्यमान एक लाख योजन प्रमाण जम्बूद्वीपके बाद दो लाख योजन विस्तारवाला लवण समुद्र है, तदनन्तर उससे दुगुना अर्थात् चार लाख योजन विस्तारवाला धातकीखण्ड आया है और तदनन्तर उससे दुगुना अर्थात् आठ (8) लाख योजन विस्तारवाला कालोदधिसमुद्र है; तदनन्तर उससे दुगुना अर्थात् सोलह (16) लाख योजन विस्तारवाला पुष्करवरद्वीप आया है। हमें तो मनुष्यक्षेत्रका प्रमाण कहनेका होनेसेमनुष्यक्षेत्र अर्ध पुष्करवरद्वीप तक है, जिससे आठ (8) लाख योजन प्रमाण अर्धपुष्करवरद्वीप पर्यन्त मनुष्यक्षेत्र कहा जाता है-अर्थात् जम्बूद्वीपसे एक तरफ कुल 22 लाख योजन अर्धपुष्करवरद्वीप तकके हुए, वैसे ही जम्बूद्वीपसे दूसरी बाजूके भी अर्धपुष्करवरद्वीप तक 22 लाख योजन हुए, दोनों बाजुका कुल मिलकर 44 लाख योजन क्षेत्र हुआ, और एक लाख योजनप्रमाण क्षेत्र जम्बूद्वीपका, इस तरह सर्व मिलकर कुल 45 लाख योजनका मनुष्यक्षेत्र है। इस मनुष्यक्षेत्रके चारों ओर अथवा पुष्करार्ध पूरा होते ही तुरन्त उसके चारों ओर मानुषोत्तर नामका पर्वत अर्ध यवाकारवाला अथवा सिंहनिषादी आकारवाला मानो मनुष्यक्षेत्रके रक्षणके लिए किलेके समान हो वैसा शोभायमान है। प्रसंगानुसार मानुषोत्तरपर्वतका यत्किंचित् स्वरूप यहाँ कहा जाता है। प्रश्न-मानुषोत्तर अर्थात् क्या ? उत्तर-मानुषोत्तर अर्थात् जिसकी उत्तरमें मनुष्य हैं. इसीलिए वह मानुषोत्तर कहलाता है, अथवा जिस क्षेत्रके बाहर मनुष्योंका जन्म तथा मरण न हो उस क्षेत्रकी मर्यादा बाँधनेवाला जो पर्वत है, वह मानुषोत्तर कहलाता है। इस पर्वतकी चौड़ाई पूर्ण होनेके बाद अर्थात् उस पर्वतकी अन्तिम सीमासे लेकर प्रतिपक्षी दिशामें (परोक्ष दिशामें ) तिच्छोलोकके अन्तभाग तक मध्यके किसी भी स्थानमें मनुष्योंकी बस्ती नहीं है, अगर है Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-५६ तो मात्र मानुषोत्तर पर्वतके अन्दरके क्षेत्रमें ही। जब बस्ती ही नहीं है तो फिर मनुष्यका जन्म-मरण तो कहांसे संभव हो ? अस्तु / शंका-भले ही बस्तीके अभावमें जन्म-मरण न हो, परन्तु यहाँसे कोई एक मनुष्य अढ़ाईद्वीपके बाहर किसी भी कारणवश गया हो और वहीं उसके आयुष्यकी समाप्तिका अवसर होनेका हो तो उतने अल्प समयमें मृत्यु होनेका प्रसंग क्या उपस्थित न होगा ? समाधान-सामान्य मनुष्य तो यहाँसे वहाँ जानेका सामर्थ्य स्वयं रख नहीं सकता, परन्तु संभवतः यदि कोई देव, दानव तथाविध वैर-विरोधादिके कारण अपना वैर लेनेके लिए, उस मनुष्यको अपने स्थानसे उठाकर मनुष्यक्षेत्रके बाहर रख दे, क्योंकि वैसा करनेसे 'वह मनुष्य किसी भी प्रकारके सुखाश्रयोंके बिना सूर्यके प्रचण्ड तापसे अथवा विशेष ठण्डसे खड़े-खड़े ही शोषित होकर मृत्यु पाये अथवा अन्यविध प्राणघातक उपद्रव हों' इस प्रकारकी बुद्धिसे १३°मनुष्यक्षेत्रके बाहर वे ले जाए तथापि लोकानुभावसे और तथाविध क्षेत्रके प्रभावसे बाहर ले जानेवाले उस देवको अथवा अन्य किसी गमनागमन करते देव, दानव अथवा विद्याधरादिके दुःखसे पीड़ित इस मनुष्यको देखकर सद्बुद्धि जागे और आत्मामें दयाका प्रादुर्भाव होनेसे उसे पुनः मनुष्यक्षेत्रमें रख देता है। पुनः शंका-आपका कहना ठीक है, परन्तु नन्दीश्वरादि द्वीपमें गए विद्याधर आदि नरक्षेत्रके बाहर अपनी पत्नियों के साथ संभोग करते हैं तो क्या वहाँ मनुष्यका गर्भरूप जन्म नहीं होता ? साथ ही मनुष्यलोककी कोई भी स्त्री, कि जिसे तुरन्त प्रसूति होनेवाली उपस्थित हो तो वहाँ क्या मनुष्यजन्म सम्भव नहीं हो सकता ? समाधान-भले ही विद्याधर स्वभार्याओं के साथ संभोग व्यवहार करें, परन्तु गर्भधारणका संयोग तो क्षेत्रप्रभावसे प्राप्त ही नहीं होता। ( अर्थात् गर्भ धारण ही नहीं होता) अब स्त्रीकी प्रसूतिका प्रसंग प्रायः आये नहीं, तो भी कदाचित् जन्म होनेका अवसर समीप आ जाए तो, उसे लानेवाले देवका मन ही तथाविध क्षेत्रप्रभावसे विपर्यासभावको प्राप्त किए बिना रह सकता ही नहीं। कदाचित् वह निष्ठुर-हृदयवाला देव उस स्त्रीको नरक्षेत्रमें लाकर न रखे तो अन्य कोई भी देव या विद्याधर अचानक आ ही जाएँ और . 137. अढ़ाईद्वीपमें मनुष्यक्षेत्र अमुक अमुक हैं उनमें भी अमुक समुद्र तथा वर्षधरादि पर्वत आदि स्थानोंमें जन्मका अभाव है। किसी विद्याधरादिके अपहरणसे अथवा स्वयं गया हुआ हो और वापस आ सकनेमें असमर्थ हो तो अढाईद्वीपवर्ती उन उन क्षेत्रोंमें उनकी मृत्यु और जन्म पदाचित् संभवित हो सकते हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढाई दीपके बाहर मनुष्यका जन्ममरणकाअभाव ] गाथा-५६ [123 उस गर्भवती स्त्रीको वहाँसे उठाकर मनुष्यक्षेत्रमें रख देता है। परन्तु मनुष्यक्षेत्रके बाहर किसीका ‘जन्म तो कभी हुआ नहीं है, होता नहीं है और होगा भी नहीं। शंका--तो क्या मरण किसी तरह संभवित है ? अर्थात् अन्तर्मुहूर्तमें ही जिसका आयुष्य समाप्त होनेवाला है ऐसे किसी मनुष्यका कोई लब्धिधारी देव अपहरण करके उसे नरक्षेत्रके बाहर रखे तो क्या मरण संभवित है या नहीं ? समाधान-मरण किसी भी समय नहीं हो सकेगा। पूर्वके अनुसार अपहरण करनेवाले देवका चित्त अवश्य चलित हो जाता है और इसलिए उसका अथवा अन्य किसी देवादिकका सहयोग पाकर मनुष्यक्षेत्रमें तुरन्त ही आये और वहीं मृत्यु पाये, परन्तु इस अढाईद्वीपके बाहर किसी समय किसी भी मनुष्यका १३“जन्म या मरण 38 हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं, ऐसा सर्वज्ञपरमात्माका त्रिकालाबाधित शासन कथन करता है।' यद्यपि विद्याधर, जंघाचरण तथा विद्याचारण मुनिवर और अन्य कोई लब्धिधारी उत्कृष्ट प्रकारके तपोनुष्ठानसे प्राप्त की हुई यथायोग्य लब्धिद्वारा नन्दीश्वरादि द्वीपमें परम पवित्र शाश्वती जिनप्रतिमाओंके दर्शनके लिए भक्तिसेवा करने जाते हैं। परन्तु उनके भी जन्म-मरण तो इस क्षेत्रमें ही होते हैं। ऐसे ऐसे अनेक कारणोंसे और उसकी उत्तरदिशामें ही मनुष्य बसनेसे उस पर्वतको मानुषोत्तर कहा जाता है। जिस तरह मनुष्यक्षेत्रके बाहर मनुष्योंके जन्म-मरण नहीं हैं उसी तरह मनुष्यक्षेत्रके बाहर आगे कहे जानेवाले पदार्थ-भाव भी होते नहीं हैं। जिस तरह अढाईद्वीपमें गंगा, सिंधु आदि महा नदियाँ शाश्वती १४०वर्तित हैं, वैसी 138-139. केवल महर्षिपुरुषोंके कथनानुसार एक ही अपेक्षासे-अर्थात् उपपात और समुद्घातके प्रसंग पर- मनुष्यक्षेत्रके बाहर भी जन्म या मरण सिद्ध होता है अर्थात् कोई आत्मा मरणसमय पर मारणान्तिकसमुद्घात करनेके लिए अपने बहुत आत्मप्रदेशोंको क्षेत्रके बाहर उत्पन्न होनेके स्थान पर फेंके, उस समय बहुत आत्मप्रदेश बाहर प्रक्षेपित हों तब वह समुद्घात अवस्थामें मनुष्य-आयुष्य तथा मनुष्यगति भोगता है और इलिकागतिसे आत्मप्रदेशको वहाँ फेंकनेसे मनुष्यका मरण मनुष्य क्षेत्रके बाहर हुआ है ऐसा कहा जा सकता है। वैसे मनुष्यक्षेत्रके बाहर वर्तित कोई एक जीवकी अगर मृत्यु हुई और अब वक्रागतिसे उसे मनुष्यक्षेत्रमें मनुष्यरूपमें समुत्पन्न होना है, परन्तु वक्रागति एक समयसे अधिक समयवाली होनेसे मनुष्य क्षेत्रके बाहर दूसरे समय रहकर, फिर उसे जिस क्षेत्रमें उत्पन्न होना है वहाँ हो, ऐसा प्रसंग बने तब वक्रागतिमें परभवका आयुष्य ( उत्पन्न होनेकी जो मनुष्यगति है उसका ही) गिनतीमें प्रयोजित होनेसे मनुष्यगतिका उद्भव अढाईद्वीपके बाहर स्वीकृत किया है। . 140. अशाश्वती नदियाँ होनेका निषेध संभवित नहीं, और अशाश्वता सरोवर आदि जलाशय Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-५६ शाश्वती नदियाँ, पद्मद्रह आदि शाश्वतद्रह, सरोवर, पुष्करावर्त्तादि 141 स्वाभाविक मेघ, मेघके अभावमें मेघकी स्वाभाविक गर्जनाएँ, बिजलियाँ, १४२बादरअग्नि, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि उत्तमपुरुष तथा किसी भी मनुष्यका जन्म अथवा किसी भी मनुष्यका मरण और १४३समय-आवलिका-मुहूर्त-दिवस-मास-अयन-वर्ष-युग-पत्योपम-सागरोपमअवसर्पिणी-उत्सर्पिणी आदि सर्व प्रकारका काल आदि पदार्थ अढाईद्वीपमें ही हैं, परन्तु अढाईद्वीपके बाहर होते नहीं हैं। तदुपरान्त अढाईद्वीपके बाहर भरतादि समान क्षेत्र, वर्षधर सदृश पर्वत, घर, गाँव, नगर, चतुर्विध संघ, खाँइयाँ, निधियाँ, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी विमानोंका भ्रमण, ग्रहण नहीं हैं। जिससे चन्द्रसूर्यके परिवेष (मण्डल) भी नहीं हैं, इन्द्रधनुष, गांधर्व नगरादि [आकाशमें होते उत्पातसूचक चिह्न ] नहीं हैं, परंतु समुद्रमें द्वीप हैं और किसी-किसी द्वीप-समुद्रमें शाश्वता पर्वत भी हैं, परंतु अल्प होनेसे यहाँ विवक्षा की नहीं है, और ( अढाईद्वीपके बाहर ) द्वीप बहुत होनेसे गाथामें द्वीपोंका अभाव कहा नहीं है। जिसके लिए लघुक्षेत्रसमासमें कहा है कि "णइ-दह-घण-थणि-यागणि-जिणाइ, णरजम्म-मरणकालाई / पणयाललक्खजोयण-णरखित्तं मुत्तु णो पु(प)रओ // 256 // " इस तरह ऊपर कहे गए भावोंवाले 45 लाख योजनके मनुष्यक्षेत्रमें विद्यमान चर सर्वथा न हों ऐसा भी नहीं; परन्तु शास्त्रमें जो नदी, सरोवर आदिका निषेध है, वे अढाईद्वीपमें जो व्यवस्थापूर्वक शाश्वत नदियाँ, सरोवर आदि कहे हैं वैसे ( वनवेदिका इत्यादि सहित .) व्यवस्थापूर्वकके शाश्वत नदी, सरोवर न हों और अगर सर्वथा नदी, सरोवरादिका अभाव मानें तो द्वीपका स्वरूप. ही अव्यवहृत होता है, इतना ही नहीं, परन्तु वहाँके निवासी पशु-पक्षी पानी कहां पीएँ ? और सर्वथा जलाशयोंके अभावमें द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रियों और सम्मूछिम पंचेन्द्रियोंका भी अभाव होता है, इसलिए अंशाश्वत सरोवर, पानीके झरने और छोटी छोटी नदियों भी हों। तथा असंख्यातवें द्वीपमें उत्तरदिशामें असंख्य योजनका 'मानसरोवर' शाश्वत है, परन्तु वह अल्प ( केवल एक ही) होनेसे अविवक्षित है। 141. यहाँ -- स्वाभाविक ' कहनेका कारण यह है कि अढ़ाईद्वीपके बाहर असुरादि देवोंसे रचित ( विकुर्वित ) मेघगर्जना और बिजलियाँ तथा बरसात ये सब हो सकते हैं / 142. 'बादर' कहनेका कारण यह है कि सूक्ष्म अग्नि तो चौदह राजलोकमें सर्वत्र व्याप्त होनेसे अढाईद्वीपके बाहर भी होती है। 143. समय, आवलि आदि व्यावहारिक काल चन्द्र-सूर्य के भ्रमणसे है और वहाँ चन्द्र-सूर्यादि सत्र ज्योतिश्चक्र स्थिर हैं इसलिए व्यावहारिक काल नहीं है परन्तु वर्त्तनालक्षण वाला निश्चयकाल तो है ही / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर स्थिर ज्योतिषीके विमानोंका प्रमाण] गाथा 57-58 [ 125 ज्योतिथी देवोंके विमान निरंतर जम्बूद्वीपके मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुए परिभ्रमण करते रहते हैं। पहले अढाईद्वीपवर्ती चरज्योतिषीयोंके विमानोंका जो प्रमाण कहा है उससे सब प्रकारसे अर्ध अर्ध प्रमाणवाले स्थिरज्योतिषीका विमान समझें। वे इस तरह // मनुष्यक्षेत्रके बाहर स्थिरज्योतिषीके विमानोंका प्रमाण // [ लम्बाई-चौड़ाई ] [ ऊँचाई ] 1. चन्द्रविमान-एक योजनके अट्ठाइस बटे इकसठवें भागका 14 भाग 2. सूर्यविमान-एक योजनके चौबीस बटे इकसठवें भागका 13 भाग 3. ग्रहविमान-एक कोसका 0 // कोस 4. नक्षत्रविमान-आधे कोसका / कोस 5. ताराविमान-1 (500 धनुष) कोस लम्बा - कोस (250 धनुष) अवतरण-इस मनुष्यक्षेत्रमें स्थित चरज्योतिषी विमानोंकी गतिके सम्बन्धमें तरतमता और उन विमानोंको वहन करनेवाले देवोंकी संख्या तथा वहन करनेवाले देव कौनसा रूप धारण करते हैं उसका वर्णन करते हैं: ससि-रवि-गह-नक्खत्ता, ताराओ हंति जहुत्तरं सिग्घा / विवरीया उ महड्ढिआ, विमाणवहगा कमेणेसिं / / 57 / / सोलस-सोलस-अड-चउ, दो सुर सहस्सा पुरो य दाहिणओ / पच्छिम-उत्तर-सीहा, हत्थी-वसहा-हया कमसो // 58 // गाथार्थ-चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारे अनुक्रमसे एकके बाद एक शीघ्र गतिवाले होते हैं और ऋद्धिकी अपेक्षासे (अर्थात् महर्द्धिकपनेसे ) विपरीत होते हैं अर्थात् एकके बाद एक अनुक्रमसे अल्प ऋद्धियुक्त होते हैं, उन पांचों ज्योतिषीदेवोंके विमानोंको वहन करनेवाले देवोंकी संख्या अनुक्रमसे सोलह हजार, सोलह हजार, आठ हजार, चार हजार और दो हजार देवोंकी होती है। और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तरदिशामें अनुक्रमसे सिंह, हाथी, वृषभ और अश्व (घोड़ा )के रूपको धारण करनेवाले देव होते हैं / // 57-58 // विशेषार्थ- सर्व ज्योतिषीयों में चन्द्र अति मन्द गतिवाला है, चन्द्रसे सूर्य त्वरित गतिवाला है, सूर्यसे ग्रह तेज गतिवाले हैं, ( इस ग्रहमंडलमें परस्पर भी बुध नामका ग्रह शीघ्र गतिवाला, शुक्र उससे भी अधिक गतिवाला, इस तरह मंगल, बृहस्पति-गुरु, शनैश्चरादि ग्रह क्रमशः शीघ्र गतिवाले हैं ) ग्रहसे नक्षत्र विशेष शीघ्र गतिवाले हैं, नक्षत्रसे तारें विशेष गति करनेवाले हैं : Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 57-58 . अब महर्द्धिकपनका क्रम गतिसे विपरीत प्रकारका जाने अर्थात् जिसकी गति ज्यों ज्यों मन्द होती है त्यों त्यों उसमें महर्द्धिकपना विशेष होता है। गतिका क्रम चन्द्रसे लेकर आगे आगे बताया, वैसे ही यहाँ महर्द्धिकपनका क्रम पश्चानुपूर्वीसे लेनेका होनेसे तारेका गतिक्रम अति शीघ्र होनेसे तारे अल्पऋद्धिवाले हैं, उससे नक्षत्र अधिक ऋद्धिवान्, उससे ग्रह विशेष ऋद्धिवाले, उससे सूर्य अधिक ऋद्धिशाली है और उससे भी चन्द्र महाऋद्धिवान है। व्यवहारमें भी महान् पुरुष और राजामहाराजा और महालक्ष्मीवान् मन्द मन्द गमन करनेवाले, शुभविहायोगतिवाले प्रायः होते हैं, जब कि मध्यम और अल्पऋद्धिवाले प्रायः दौड़धूप करके चलनेवाले होते हैं / विमानको वहन करनेवाले देव किस प्रकार होते हैं उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषीदेवोंके विमान तथाविध जगत्स्वभावसे ही स्वयमेव निरालम्बरूपसे विचरते हैं, तथापि केवल आभियोगिक ( दास ) देव तथाविध नामकर्मके उदयसे स्वसमानजातिमें अथवा तो अपनेसे हीनजातिके देवोंमें अपनी कीर्तिकला प्रकट करनेके लिए अत्यन्त प्रमोदरूपसे चन्द्रादिके विमानके नीचे सिंहादि रूपको धारण करके विमानोंका सतत वहन करते हैं। ऐसा कार्य करने पर भी उन्हें तनिक भी दुःख नहीं होता है क्योंकि वे मनमें गौरव धारण करते हैं कि हम दासत्व करते हैं लेकिन किसका ? सकल लोकप्रसिद्ध ऐसे चन्द्रसूर्य जैसे इन्द्रोंका, हम कुछ ऐसे-वैसेके सेवक नहीं हैं, इस तरह स्वजाति अथवा दूसरोंको स्वसमृद्धि दर्शनार्थे समस्त स्वोचितकार्य प्रमुदितरूपसे करते हैं। जिस तरह इस लोकमें भी कोई स्वोपार्जित कर्मोदयसे दासत्व अनुभव करता हो लेकिन यदि वह किसी समृद्धिवान्के यहाँ हो तो अपने दासत्वका शोक न करके उसके विपरीत खुशीसे गर्विष्ठ होकर सभी कार्य करता है, उसका कारण एक ही है कि मैं सेवक भले होऊं लेकिन किसका ? तो विख्यात नायकका हूँ, जिससे अन्य दासजनोंकी अपेक्षासे तो मैं विशेष सत्ताशाली हूँ। व्यवहारमें भी हम प्रसंगोपात बोलते हैं कि-'भाई, नौकर भले ही सही लेकिन राजाके हैं।' अब वहन करनेवाले वे देव किस रूपको धारण करनेवाले, कितने और किस दिशामें होते हैं ? उनका वर्णन करते हैं। चन्द्र के विमानको वहन करनेवाले सोलह हजार (16000) देव हैं। वे देव चतुर्दिशामें विभक्त होते हैं, अर्थात् हमारी कल्पनासे पूर्वदिशाके छोर पर 4000 देव Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषीदेवोंके अतिसमृद्धिवान् परिवारका वर्णन ] गाथा 57-59 [ 127 सिंहके रूपको धारण करते हैं। दक्षिण दिशामें बड़े शरीरवाले हाथियोंके रूपको धारण करनेवाले 4000 देव होते हैं। पश्चिमदिशामें वृषभका रूप धारण करनेवाले 4000 देव और उत्तरदिशामें अश्वका रूप धारण करनेवाले भी 4000 देव हैं / ___ इस तरह सूर्य तथा ग्रहविमानोंके लिए भी समझें / केवल ग्रहके विमानोंके लिए चार हजार देवोंकी अपेक्षा दो दो हजार देव वहन करनेवाले होते हैं। नक्षत्रोंके विमानमें एक हजार देव और तारों के विमानमें पांचसौ-पांचसौ (500) देव प्रत्येक दिशामें, उपर्युक्त क्रमसे सिंहादिरूपको धारण करके विमानको वहन करने पर भी मत्तकामिनीकी तरह अर्थात् मदोन्मत्त बनी हुई स्त्री जिस तरह बहुत आभूषणोंको शरीर पर धारण करे तो भी भारको भाररूप नहीं मानकर लेकिन अधिक प्रमुदित होती है, उसी तरह ये देव विमानके भारको भाररूप न समझकर आनन्दसे वहन करते हैं / [ 57-58 ] अवतरण-इन सर्व ज्योतिषी देवोंमें अतिसमृद्धिवान् चन्द्रमा है, अतः हम उसके परिवारका वर्णन करते हैं गह अट्ठासी नक्खत्त, अडवीसं तारकोडिकोडीणं / छासद्विसहस्सनवसय,-पणसत्तरि एगससिसिन्नं // 59 // गाथार्थ-अट्ठासी (88) ग्रह, अट्ठाइस (28) नक्षत्र और छियासठ हजार नौसौ पचहत्तर (66,9,75) कोडाकोडी तारे इतना एक चन्द्रमाका परिवार होता है। // 59 // विशेषार्थ-मंगल, बुध इत्यादि १४४ग्रह अठासी प्रकारके हैं। अभिजित् आदि नक्षत्र १४५अठाईस हैं। और ताराओंकी संख्या छियासठ हजार नौसौ और पचहत्तर ( इतने ) . 144. ग्रहोंके नाम-अंगारक-विकालक-लोहित्यक-शनैश्चर-आधुनिक-प्राधुनिक-कण-कणक-कणकर्णककणवितानक-कणसंतानक-सोम-सहित-अश्वसेन-कार्योपग-कर्बुरक-अजकरक-दुदुम्भक-शंख-शंखनाभ-शंखवर्णाभकंस-कंसनांभ-कसवर्णाभ-नील-नीलावभास-रूपी-रूप्यावभास-भस्म-भस्मराशि-तिल-तिलपुष्यवर्ण-दक-दकवर्ण-काय -वंध्य-इन्द्राग्नि-धूमकेतु-हरि-पिंगलक-बुध-शुक्र-बृहस्पति-राहु-अगस्ति-माणवक-कामस्पर्श-धुर-प्रमुख -विकटविसंधिकल्प-प्रकल्प-जटाल-अरुण-अग्नि-काल-महाकाल-स्वस्तिक-सौवस्तिक-वर्धमान-प्रलंब-नित्यालोक-नित्ये द्योत - स्वयंप्रभ-अवभास-श्रेयस्कर-क्षेमंकर-आभंकर-प्रभंकर-अरज-विरज-अशोक-वीतशोक-विमल-क्तित-विवस्त्र-विशाल -शाल-सुव्रत-अनिवृत्ति-एकजटी-द्विजटी-करकरिक-राजा-अर्गल-पुष्पकेतु तथा भावकेतु, इस प्रकार अठासी - 145. अभिजित्-श्रवण-घनिष्ठा-शतभिषक्-पूर्वाभाद्रपदा-रेवती-उत्तराभाद्रपदा-अश्विनी-भरणी-कृत्तिका -रोहिणी-मृगर्षि-आर्द्रा-पुनर्वसु-पुष्य-आश्लेषा-मघा-पूर्वाफाल्गुनी-उत्तराफाल्गुनी-हस्त-चित्रा-स्वाति-विशाखाअनुराधा-ज्येष्ठा-मूल-पूर्वाषाढा और उत्तराषाढ़ा / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-५९ कोडाकोडी अर्थात् छियासठ हजार कोडाकोडी, नौसौ पचहत्तर कोडाकोडी है। यह सर्व परिवार एक चन्द्रमाका है। चन्द्रमा अधिक ऋद्धिवान् होनेसे उसका यह परिवार वर्णित किया गया है। सूर्यका परिवार चन्द्रकी तरह अलग नहीं बताया गया अतः चन्द्रका जो परिवार है वही सूर्यका भी माना जाएगा। इस तरह चन्द्र सर्व प्रकारसे महर्द्धिक और विशेष ऋद्धिवान् है, आकाशवर्ती नक्षत्रादि भी चन्द्र के परिवाररूप माने जाते हैं। सूर्य यह भी इन्द्र है अतः इन्द्र होने के कारण, उसका दूसरा स्वतन्त्र परिवार होगा ऐसा न समझे, क्योंकि 'यह परिवार चन्द्रका ही है। ऐसे कथनका तात्पर्य यह है कि--नक्षत्रादि ज्योतिषियों पर स्वामित्वकी आज्ञा चन्द्रकी होती है। अन्यथा इन्द्र तो दोनों१४६ हैं। मात्र परिवारका स्वामित्व और महर्द्धिकत्वमें अन्तर है / शंका-इतर ग्रन्थों में साथ ही ज्योतिषीगण प्रथम अश्विनीसे लेकर फिर भरणी इत्यादि क्रम मानते हैं और जैनागमों में अभिजित्से प्रारंभ करके नक्षत्रक्रम बताया जाता . है, इसका कारण क्या है ? समाधान-कारण एक ही है कि अवसर्पिणी युग आदि महान् कालभेदोंका परिवर्तन जब होता है तब उसके प्रारंभ समय पर अभिजित् नक्षत्रके योगमें ही चन्द्रका आगमन होता है। ___पुनः शंका-जब अभिजित्से लेकर क्रम दिखाते हैं तो वह नक्षत्र व्यवहार में प्रवर्तित क्यों नहीं है ? समाधान-चन्द्रमाके साथ इस अभिजित् नक्षत्रका योग स्वल्पकाल रहकर चन्द्रमा तत्काल अन्य नक्षत्रमें प्रवेश करता है अतः स्वल्पकालीन होनेसे अव्यवहार्य १४७माना है। ग्रहोंके नामों परसे अपने सात वारों के नाम रखे गये हैं। जैसे कि सूर्यके रवि ग्रह परसे रविवार, चन्द्रके सोम ग्रह परसे सोम, मंगलग्रहसे मंगल, बुधग्रहसे बुधवार, गुरुसे गुरु, शुक्रसे शुक्र, शनि परसे शनिवार / 146. जैसे एक क्षेत्रके दो राजा हों, दोनोंको राज्यसुखका भुगतान हो, इससे राजा तो दोनों कहें जाएँ, परंतु प्रजा पर आन तो उसीकी होती है जो बड़ा और ऋद्धिवान्-पुण्यशाली हो, वैसे / 147. इसके लिए 'श्री समवायांग-सूत्र' मुद्रित पत्र सत्ताइसवां देखें / [ सूरत संस्करण ] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8000 अधिका 2000 मनुष्यक्षेत्रमें ताराओंका समावेश। ] गाथा-६० [129 // मनुष्यक्षेत्रवर्ती चरज्योतिषीयोंकी संख्या तथा विमानोंके प्रमाण आदिका यन्त्र // ज्यो०के नाम | आया० विष्कम्भ | ऊँचाई प्रमाण | वि० वा- गतिक्रम ऋद्धिक्रम जंबूद्वीप प्रमाण हक सं० संख्या 1. चन्द्र विमान | 1 यो के 56 | 1 यो०के 28 | 16000 / मंद | अधिक | बटे 61 वा भाग बटे 61 वाँ भाग उससे 2. सूर्य विमान | 1 यो के 48 | 1 यो०के 24 , अल्प | बटे 61 वाँ भाग | बटे 61 वा भाग उससे 3. ग्रह विमान | 2 कोस / 1 कोस अल्प 176 4. नक्षत्र ,, / 1 कोस / 0 // कोस 4000 5. तारा ,, | 0 // कोस / कोस | 133950 कोडाकोडी अवतरण-पहलेकी गाथामें कहे गए चन्द्रके परिवारके विषयमें सुनकर शिष्य प्रश्न करता है कि मनुष्यक्षेत्र तो पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है और ताराओंकी संख्या तो आप बहुत बताते हैं, उतने क्षेत्रमें उन ताराओंका समावेश किस प्रकार होगा ? शिष्यकी शंकाका समाधान करनेके लिए शास्त्रकार महाराजा गाथा कहते हैं: कोडाकोडी सन्नं-तरंति मन्नंति खित्तथोवतया / केइ अन्ने उस्से-हंगुलमाणेण ताराणं // 6 // गाथार्थ-कोई आचार्य कोडाकोडीको संज्ञांतर-नामांतर कहते हैं, क्योंकि मनुष्यक्षेत्र कम है और कोई आचार्य ताराओंके विमानोंको उत्सेधांगुलसे मापनेको कहते हैं // 60 // विशेषार्थ—पूर्वकृत शंकाका समाधान करनेके लिए ग्रन्थकार आचार्योके अभिप्राय * दिखाकर समन्वय करनेके लिए समाधान करते हैं 1. कतिपय आचार्य भगवन्त ऐसा कहते हैं कि वर्तमानमें तो एक करोडको (10000000) करोड़से गुनने पर कोडाकोडी होता है, परन्तु करोड़की वर्तमान प्रसिद्ध . संख्याको ग्रहण न करें, लेकिन जैसे व्यवहारमें बीसकी संख्याको भी कोड़ी कहा जाता है, वैसे यहाँ भी उसके जैसी अल्पसंख्याको कोड़ी गिने और उस प्रमाणसे ताराओंका कोडाकोडी संख्यापन ग्रहण करें, तो इस जम्बूद्वीपमें उतने तारे सुखसे समा सकते हैं / 148 . 148. कोई आचार्य (जिनभद्र गणि क्ष० ) ताराओंकी संख्याको कोडाकोडी न मानते हुए कोड़ी ही मानते हैं और संशय दूर करते हैं / ' तत्त्वं केवलीगम्यम् / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 60-61 2. साथ ही अन्य एक आचार्य ऐसा बताते हैं कि-कोडाकोडीकी प्रसिद्धि 14 शून्य(Zero ) वाली जो संख्या है वही लेना और ताराओंके विमानोंका प्रमाण ‘नगपुढवीविमाणाइमिणसु पमाणंगुलेणं तु' इत्यादि पाठके अनुसार प्रमाणांगुलसे जो लिया जाता है, उस (प्रमाणांगुल )से न लेते हुए उत्सेधांगुलसे ग्रहण करें, जिससे जम्बूद्वीपका 7905694150 योजन क्षेत्रफल है वह प्रमाणांगुलके हिसाबसे है और उत्सेधांगुलसे प्रमाणांगुल १४४चारसौ गुना ( अथवा हजार गुना ) होनेसे जम्बूद्वीपका उपर्युक्त क्षेत्रफल (ताराओंके उत्सेधांगुल विमानोंसे) 400 गुना अथवा हजारगुना करें तो उतने बड़े आकाशक्षेत्रमें प्रसिद्ध ऐसी कोडाकोडीकी संख्यावाले (66975 कोडाकोडी) ताराओंके विमान सुखसे समा जाएँ, उसमें कोई कठिनाई नहीं प्रतीत होती / [60]. ___अवतरण-चन्द्रके परिवारके वक्तव्यप्रसंग पर परिवारमें विद्यमान राहुग्रहके सम्बन्धमें . अब वर्णन करते हैं किण्हं राहुविमाणं, निच्चं चंदेण होइ अविरहियं / . चउरंगुलमप्पत्तं, हिट्ठा चंदस्स तं चरइ // 61 / / गाथार्थ-कृष्णवर्णके राहुका विमान निरंतर चन्द्र के साथ ही होता है इसलिए उससे दूर नहीं होता अर्थात् चार अंगुल अलग रहकर हमेशा चन्द्र के नीचे चलता है // 61 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम है, फिर भी प्रासंगिक कुछ कहा जाता है। चन्द्रमाके साथ राहुका संयोग होनेसे कैसी कैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं यह बताया जाता है / समग्र जम्बूद्वीपमें, दिवस और रात्रि ऐसा विभाग उत्पन्न करनेवाला, दो सूर्योका प्रकाश है। और तिथियोंकी व्यवस्थाको उत्पन्न करनेवाला दो चन्द्रोंका प्रकाश है। उसमें सूर्यके बिंबकी हानि-वृद्धि हमेशा नहीं होती है, जिसका हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, क्योंकि उसे राहु जैसी सदा होनेवाली कोई बाधा नहीं है। यद्यपि लम्बे समयके बाद वह आयें यह अलग बात है, परन्तु चन्द्र के बिबकी होती हुई हानि-वृद्धि तो हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं, जैसे कि (बीज) दूजके दिन सिर्फ धनुषकी डोरीके आकारवाला चन्द्रका बिंब होता है और उसके बाद क्रमसे बढ़ता हुआ सुदि पूर्णिमाको संपूर्ण चन्द्रबिंब दृष्टिगोचर होता देखते हैं। यद्यपि मूलस्वरूपमें तो चन्द्रमा हमेशा अवस्थित स्वभाववाला ही है, उसमें कुछ भी घट-बढ़ होती ही नहीं, परन्तु अमुक आवरणके संयोगोंको पाकर ही उसमें हमेशा वास्तविक हानि-वृद्धि उत्पन्न होती ही रहती है। यह हानि-वृद्धि किस तरह और किससे होती है ? तथा कौन करता है ? और उससे किस तरहकी दिनमानादिकी 149. उत्सेधांगुलसे प्रमाणांगुल 2 // गुना, 400 गुना और 1000 गुना बड़ा है / इसलिए खास ध्यान रखना चाहिये कि- जिस ठिकाने पर जैसे प्रमाणके लिए जितना योग्य हो उतने गुना वहाँ वहाँ घटाना चाहिए / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यराहु और पर्वराहु, चन्द्रकी हानिवृद्धि। ] गाथा-६१ [131 घटनाएँ उपस्थित होती है आदि प्रसंग पाकर ग्रन्थान्तरसे किंचित् उपलब्ध होता है / चन्द्रके बिंबकी शुक्लपक्षमें क्रमशः वृद्धि होना और कृष्णपक्षमें क्रमशः हानि होना उसका कारण राहुके विमानका आवरण और अनावरण मात्र ही है / ये राहु दो प्रकारके हैं-१. नित्यराहु और 2. पर्वराहु / / पर्वराहु-यह राहु किसी-किसी समय पर सहसा अपने विमानसे चन्द्र या सूर्यके विमानको ढंक देता है, अतः उस समय ‘ग्रहण हुआ' ऐसा लोग कहते हैं। यह पर्वराहु जघन्यसे छ मास पर चन्द्रको तथा सूर्यको ग्रहण करता है। अर्थात् स्वविमानकी छायासे चन्द्र-सूर्यके विमानोंको आच्छादित कर देता है, और उत्कृष्टसे वही पर्वराहु चन्द्रको १५०बयालीस मास पर और सूर्यको अडतालीस वर्ष पर आच्छादित करता है। नित्यराहु-इस राहुका विमान कृष्णवर्णका है। वह विमान तथाप्रकारसे स्वाभाविकरूपमें ही चन्द्रमाके साथ ही अविरहित होता है। चन्द्रके विमानके नीचे निरन्तर चार अंगुल दूर रहकर चलते चन्द्रमाके बिंब (विमान )को अमुक अमुक प्रमाणमें धीरे धीरे क्रमशः प्रतिदिन ढंक देता है इससे कृष्णपक्षकी उत्पत्ति होती है और पुनः पहले जिस तरह चन्द्रमाके बिंबको प्रतिदिन जितने जितने प्रमाणमें ढंका उसी तरह उतने उतने ही भाग प्रमाण बिंबके आवरणवाले भागको क्रमशः छोड़ता जाता है, जिससे १५'शुक्लपक्षकी उत्पत्ति मानी जाती है। उक्त गतिसे सदाकाल चन्द्रविमानका और राहुविमानका परिभ्रमण इन अढाईद्वीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ करता है, और इसी कारणसे चन्द्रमाके विमान सम्बन्धित तेज द्वारा हानि-वृद्धित्वका वास्तविक आभास होता है। चान्द्रमास आदिका प्रभव भी इसीसे हुआ है / हानिवृद्धिकारण-चन्द्रमाके विमानके बासठ भागकी कल्पना करें और उन बासठ भागोंको पन्द्रह तिथियों के साथ विभाजित करनेसे प्रत्येक तिथिको चार चार भाग मिलेंगे ( वाकी जो दो भाग बचे, वे राहुसे आच्छादित होते ही नहीं है, जिससे उन्हें पन्द्रह तिथियोंके भागोंकी गिनतीसे बाहर ही समझें) ये चार चार भागप्रमाण चन्द्रमाका विमान हमेशा नित्यराहुके विमानसे आच्छादित होता जाता है अतः 15 दिन पर (154 4 = 60) 150. ससिसूराणं गहणं सड्ढतिवरिसाडयालवरिसेहिं / ___ उक्कोसओ कमेणं, जहन्नओ मासछक्केणं // 9 // [ मंडल प्रकरण ] 151. उक्तं च-राहुविअ पइदिअहं, ससिणो इक्विक भाग मुज्झई / आइअ चन्दो बीआइ, दिणेसु पयडो हवइ तम्हा // 1 // बावटि बावट्ठि, दिवसे उ सुक्वपक्खस्स / जं परिड्ढइ चन्दो खवेइ तं चेव कालेण // 2 // ' Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-६१. 60 भाग आच्छादित होते हैं और शेष रहे दो भाग जितने चन्द्रविमानको राहुका विमान कभी आच्छादित ही नहीं कर सकता और इसीलिए वह भाग चन्द्रमाकी सोलहवीं कलाके नामसे प्रसिद्ध है। अतः कहा है कि-"षोडशोंऽशः कला चिह्नम् " अथवा दूसरी रीतिसे राहुके विमानके पन्द्रह भागकी कल्पना करें अर्थात् राहु अपने एक एक १५२भागसे निरंतर चन्द्रविमानको आच्छादित करे तो पन्द्रह दिवसमें, विमानके पन्द्रह भागसे जो पन्द्रह तिथियाँ आच्छादित होती है वह इस तरह हैं कृष्णपक्षव्यवस्था-चन्द्रमाके विमानके पूर्वकल्पित (अनावरणीय ) ऐसे दो भागोंको छोड़कर साठ भागोंमेंसे चार चार भागोंको ( अथवा तो प भागोंको ) राहुके विमान अपने पूर्वकल्पित 15 भागोंके एक एक भागसे ( भागसे) कृष्णपक्षकी प्रतिपदाको राहु आच्छादित करते हैं। दूजके दिन वही राहु अपने दो भागोंसे (1) चन्द्र विमानके . आठ भागको ( भागको ) आच्छादित करता है। इस तरह प्रत्येक दिन क्रमशः चन्द्रमाके विमानके चार चार भागोंको राहु अपने विमानके एक एक भागसे ढंकता जाता है. ऐसा करते करते अमावसके दिन चन्द्रमाके समग्र बिंबको (विमानके 60 भागोंको) राहु अपने पन्द्रह भागोंसे आच्छादित करता है तब जगतमें सर्वत्र अन्धकार छा जाता है। अमावसके दिन चन्द्रमाका (60 भागका ) सकल बिंब राहुने अपने विमानके पन्द्रह भागों द्वारा ढंक दिया, जिससे जगतमें अन्धकार फैल गया; शेष बचे दो भाग तो अनावृत्त ही होनेसे इन भागोंको तिथियोंकी गिनतीमें गिनना नहीं है। इस तरह कृष्णपक्ष पूर्ण हुआ / शुक्लपक्षव्यवस्था-अब इन ढंके हुए 60 भागोंमेंसे शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके दिन राहुका विमान (चर स्वभावसे ) पीछे खिसकता ( हटता) जाए तो वह कितना खिसके ( हटे) ? तो पूर्ववत् एक दिनमें चार भाग जितना खिसककर चन्द्रमाके च भागको राहु अपने भागसे प्रकट करे-इस तरह सुदि दूजके दिन दूसरे चार भागको प्रकट करे ( अर्थात् 62 भाग आश्रयीमेंसे तो दूजके दिन 10 भाग जितना बिंब प्रकट हो) जिसे हम भाषा-व्यवहारमें * ( दूज उगी-) दूज निकली' कहते हैं, और जिसके आधार पर मास, वर्ष आदिके शुभाशुभफलादिकी गिनती होती है। और दूजका चन्द्र क्रमशः वृद्धि पाता होनेसे, उसका दर्शन सर्व प्रकारसे वृद्धिकारक माना जाता है। इस तरह कृष्णपक्षमें प्रतिदिन चन्द्रमाके चार चार भागको राहु जिस तरह जितने-जितने भागोंको आवृत्त करता गया था, शुक्लपक्षमें वैसे ही, उतने भागोंको प्रतिदिन प्रकट करता जाता है। जिससे 152. एकम (प्रतिपदा), दूज, तीज इत्यादि तिथियोंका लोकव्यवहार चलता है, वह भी एक भागसे ढंक जाएँ तब प्रतिपदा, दो भागसे ढंक जाएँ तब दूज, इस तरह राहुके चौदह भागोंसे चन्द्र ढंक जाएँ तब चतुर्दशी इस आशयसे ही है / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रह तिथियाँ कैसे होती है ] गाथा-६१ [ 133 प्रतिदिन चन्द्रमाका बिम्ब विशेष रूपमें खुला होता जाता है और तेजमें भी क्रमशः वृद्धि होती है। इस तरह राहुका आवरण खिसकता खिसकता सुदि १५३पूर्णिमाको चन्द्रमाके सकल बिम्बसे दूर हो जानेके कारण उसके 62 भागरूप संपूर्ण बिम्बको प्रत्यक्ष देखकर हम आनन्दकी किसी अनुपम ऊर्मियोंका अनुभव करते हैं / (चन्द्रमाका यह चार भाग प्रमाणअंश राहु जितने कालके लिए आवरित (आच्छादित) करे और वह जितना समय लोकमें प्रकट रूपमें रखे उतने समयको एक तिथि कहते हैं, राहु जिन चार चार भागोंको आवरित (आच्छादित) करता जाए वे सब तिथियाँ अनुक्रमसे कृष्णपक्षकी समझें और वही राहु पुनः आच्छादित भागोंमेंसे चार चार भागोंको नित्य प्रकट करता जाए तब वे प्रतिपदा आदि तिथियाँ शुक्लपक्षकी समझें।) अथवा चन्द्रविमानके १५४सोलह भाग करें और उनमें प्रतिदिवस राहु एक एक भागको आच्छादित करता जाए. तब एक एक भागको आच्छादित करे वह एक तिथि, इस तरह पन्द्रह भाग आच्छादित हो जाएँ तब अमावसका दिन आ जाए / सोलहवाँ भाग तो जगत् स्वभावसे आच्छादित होता ही नहीं है। अब वैसे शुक्लपक्षमें फिरसे एक एक भाग छूटता जाए ऐसा भी कहा है, अथवा तो जितने कालमें चन्द्रमाका सोलहवाँ भाग कम हो अथवा जितने कालमें उसकी वृद्धि हो, उस काल प्रमाणको एक तिथिप्रमाण कहा जाए। ऐसी तीस तिथियोंका एक चान्द्रमास होता है। इति तिथिप्रभवः / / - शंका-अमावसके दिन राहु चन्द्रविमानको आच्छादित करता है इसलिए पृथ्वीके ऊपर सर्वत्र अन्धकार छा जाता है ऐसा पहले कहा गया, परन्तु राहुसे चन्द्रका विमान लगभग दुगुना होनेसे अवशिष्ट विमानभागका तेज तो किसी भी विभागमें अवश्य प्रकट होना ही चाहिए ? . 153. 'सयलो वि ससी दिसइ राहुविमुक्को अ पुण्णिमादिअहे / .... सूरत्थमणे उदओ, पुग्वे पुग्विल्लजुत्तीए' // 1 // [ मंडल प्रकरण ] कोई शंका करे कि चार चार भाग खुला करनेके हिसाबसे आठ भाग प्रकट हों तब तो सुदि दूज कहलाएं यह सच है, परन्तु अनेक बार जब प्रतिपदाके दिन ही दूजका उदय होता है तो इसके बारेमें क्या ? साथ ही दूसरी तिथियोंकी होती घट-बढ़ तथा तिथिमान अमुक घड़ी तकके होते हैं, तो फिर चार चार भाग प्रमाणका नित्यावरण क्रम आदि कथन किस प्रकार संगत हो ? तो इसके समाधानके लिए जिज्ञासुओंको 'काललोकप्रकाश' आदि ग्रन्थ देखने चाहिए / यहाँ तो इतना विषय भी प्रासंगिक अभ्यासकोंके लिये उपयोगी होनेके कारण ही वर्णित किया गया है / 154. देखिए–'सोलसभागे काऊण, उडुवई हायएत्थ पन्नरसं / / तत्तियमित्ते भागे, पुणोवि परिवड्ढए जोहा // 1 // ' Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-६१ समाधान-राहुका विमान आधा योजन प्रमाण है और चन्द्रविमान 56 योजन प्रमाण ( लगभग दुगुना ) है / अब राहुका विमान चन्द्रमाके नीचे जितने भागमें रहा हो उतने भागके नीचे अन्धकार छा जाता है इसके बारे में किसीका भी विरोध नहीं हो सकता, परंतु अवशिष्ट रहे चन्द्रविमानका प्रकाश क्यों किसी भी दूसरे क्षेत्रमें अनुभूत नहीं होता ? इस प्रश्नके उत्तरमें यह समझना चाहिए कि, राहुका विमान चन्द्रविमानको संपूर्णतया आच्छादित तो नहीं कर सकता परन्तु जैसे दावानलसे उठे हुए धुएँके समूहसे महान विस्तारवाला ऐसा आकाशमण्डल भी जिस तरह अन्धकारसे व्याप्त हो जाता है उसी तरह राहुविमान श्याम होनेसे अत्यन्त श्यामवर्णके १५५विस्तृत कान्तिसमूहसे महत् प्रमाणयुक्त ऐसा शशिमण्डल भी समग्र रूपमें आच्छादित हो जाता है, जिससे यहाँ सर्वत्र श्यामकान्ति दिखती है / ' ऐसा कतिपय प्राज्ञ पुरुष समाधान देते हैं / दूसरे विबुधजन (विद्वान् , चतुर ) ऐसा समाधान करते हैं कि ग्रहके विमानका गव्यूत (आधा योजन) प्रमाण वह प्रायिक है। और प्रायः शब्द किसी निश्चित अर्थका . दर्शक नहीं है जिससे गव्यूत प्रमाणसे भी राहुग्रहका विशेष प्रमाण लें अर्थात् 1 योजन .. लम्बा-चौड़ा और बत्तीस भाग जितना मोटा लें तो किसी भी प्रकारकी प्रायः शब्दकी अपेक्षासे कठिनाई उपस्थित नहीं होती है। उक्त प्रमाण राहुके विमानका लेनेसे शशिमण्डलसे भी उसका प्रमाण बढ़ जानेसे शशिमण्डलको, स्वविमानसे सुखपूर्वक आच्छादित करे, उसमें किसी भी प्रकारका विरोध संभवित नहीं है। जिनभद्रगणी महाराज संग्रहणीकी गाथामें राहुके विमानका प्रमाण देते हुए एक योजन आयाम-विष्कम्भ और उससे त्रिगुण परिधि और 250 धनुषकी मोटाई बताते हैं / // ग्रहणसम्बन्धी किंचित् स्वरूप / / ग्रहणकी उत्पत्ति पर्वराहुके ही संयोग पर आधार रखती है / चन्द्रग्रहण-पर्वराहु अपनी गतिमें चलता चलता चन्द्रमाकी कांतिको आच्छादित करता यथोक्तकालमें चन्द्रके नीचे जब संपूर्ण आ जाए तब चन्द्रको वह यथायोग्य ढंकता है; तब लोकमें ग्रहण हुआ ऐसा कहा जाता है / सूर्यग्रहण-पूर्वोक्त रीतिसे पर्वराहु जब सूर्यकी लेश्याको यथोक्तकालमें आच्छादित करता है तब सूर्यका उपराग होनेसे सूर्यग्रहण होता है। यह सूर्यग्रहण जघन्यसे छः मास पर और उत्कृष्टसे अड़तालीस वर्ष पर होता है, ऐसा जैनशास्त्र कहता है / . 155. श्री भगवतीसूत्रके टीकाकार ग्रहके विमानका गव्यूत प्रमाण भी प्रायिक बतलाते हैं। और बारहवें शतकके पांचवें उद्देशामें राहुका विमान चन्द्रविमानसे लघु है ऐसा सूचित करते हैं, इस सूचनसे विमानसे नहीं लेकिन उस विमानकी विस्तृत श्यामप्रभासे ही आच्छादन जणाते हैं / सत्य सर्वज्ञगम्य / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण और एक तारेसे दूसरे तारेका अन्तर ] गाथा-६१-६२ [ 135 चन्द्रग्रहण पूर्णिमाके दिन होता है इससे और सूर्यग्रहणको अमावसको होनेसे पर्वराहुसे होते आच्छादनमें किसी भी प्रकारका विरोध दिखता नहीं है / जब कि ग्रहणसंयोग अमुक प्रमाणमें अमुक रीतिसे होता है तब उसे 'खग्रास' [ खण्ड-ग्रह ] आदि नाम दिये जाते हैं। शंका-जम्बूद्वीपमें जब ग्रहण होता है तब एक साथ दोनों सूर्योका होता है या नहीं ? अगर होता हो तो समग्र क्षेत्रोंके चन्द्रादिका ग्रहण भी एक साथ हो सके या नहीं ? . समाधान-जब हमारे यहाँ ग्रहण होता है तब जम्बूद्वीपमें तो क्या लेकिन समग्र मनुष्यक्षेत्रों में स्थित 132 चन्द्रोंका और 132 सूर्यांका भी ग्रहण एक साथ ही होता है क्योंकि 15 मनुष्यक्षेत्रमें अमुक नक्षत्रका योग आता है तब ग्रहण होता है / अतः सकल चलित चन्द्र-सूर्यका एक ही नक्षत्रके साथका योग सर्व स्थानों में समश्रेणीमें व्यवस्थित होनेसे चरज्योतिषियोंका चर क्रम व्यवस्थित रीतिसे ही आता है, अतः सबका ग्रहण भी एक साथ ही होता है। यह ग्रहण किसी भी क्षेत्रमें हो सकता है। इस ग्रहणकी शुभाशुभ स्थिति पर लोकों में भी सुखासुख आदि कैसा होगा ? इस सम्बन्धमें भविष्यका बहुत आधार रहता है। शंका-युगलिकक्षेत्रमें ग्रहण होता हो और वहाँ अशुभ ग्रहण हो तब शुभभाववाले क्षेत्रोंमें भी क्या अशुभपन प्राप्त होता है ? समाधान---यद्यपि उन क्षेत्रोंमें चन्द्रादिकी गति होनेसे ग्रहण होना संभव तो है, परन्तु उनके महान् पुण्यसे तथाप्रकारके क्षेत्रप्रभावसे अथवा कभी कभी ग्रहणदर्शनके अमावसे उन्हें किसी भी उपद्रवका कारण नहीं होता है। इस तरह श्री जीवाभिगमसूत्र में स्पष्ट किया है। [61] अवतरण-जम्बूद्वीपमें एक तारेसे दूसरे तारेका अन्तर कितना होता है ? .. तारस्स य तारस्स य, जम्ब्रद्दीवम्मि अंतरं गुरुयं / बारस जोयणसहसा, दुन्नि सया चेव बायाला / / 62 / / गाथार्थ-जम्बूद्वीपमें एक ताराविमानसे दूसरे ताराविमानके बीचका अन्तर बारह हजार दो सौ बयालीस योजनका है। / / 62 / / विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके मेरुपर्वतका समभूतला पृथ्वीके स्थानमें व्यास (घेरा-मोटाई) दस हजार योजनका है, वहाँसे 790 योजन ऊँचा तारामण्डल फैला हुआ है। उस स्थानमें 156. चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, ताराके सम्बन्धमें होता विपर्यास क्रम, तिथिकी घट-बढ़, अधिकमास आदिका कारण आदि ‘काललोकादि' ग्रन्थोंसे अथवा उस विषयके ज्ञाताओंसे जान लें / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 62-63 भी मेरुके व्यासमें (मोटाई में ) १५७खास परिवर्तन नहीं होता है। अतः वहाँ मेरुपर्वतकी एक दिशाके सम्मुख 1121 योजन दूर तारामण्डलका परिभ्रमण है वैसे ही उसके प्रतिपक्षी (विरुद्ध) दिशामें भी मेरुसे 1121 योजन दूर तारामण्डल परिभ्रमण करता है। दोनों बाजूका 1121 योजन अंतर और बीचके मेरुकी 10000 योजनकी चौड़ाई इन तीनोंका जोड़ करें अर्थात् पूर्वदिशाके तारोंके स्थानसे पश्चिमदिशाके सम्मुख 1121 योजन दूर जाने पर मेरु आता है, मेरुके पुनः 10000 योजन पार करें, तदनन्तर 1121 योजन दूसरे भाग पर (पश्चिमदिशाकी तरफ) जाएँ तब तारोंके विमान आते हैं। इस तरह मेरुका और मेरुकी दोनों ओरके अंतर प्रमाणका जोड़ करनेसे 12242 योजन प्रमाण अंतर मेरुकी अपेक्षासे ( व्याघातभावी) एक तारेसे दूसरे तारेके बीचका जाने / 158 [ 62] अवतरण-निषध और नीलवंत पर्वत व्याघाताश्रयी अंतरको कहते हैं / निसढो य नीलवंतो, चत्तारि सय उच्च पंचसय कूडा / अद्धं उवरिं रिक्खा, चरंति उभयऽट्ठबाहाए // 63 // [प्र० गा० सं० 14]. गाथार्थ-निषध और नीलवन्त पर्वत भूमिसे चारसौ योजन ऊँचे हैं और उनके ऊपर पांचसौ योजन ऊँचे (नौ) नव-नव शिखर-कूट हैं / ये कूट ऊपरके भागमें ढाईसौ (250) योजन चौडे हैं और उन कूटोंसे आठ-आठ योजनकी अबाधा पर नक्षत्र, तारे आदि परिभ्रमण करते हैं। / / 63 // निषध-नीलवन्त आश्रयी व्याघात निर्व्याघात अंतर विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके मध्यमें रहे महाविदेहक्षेत्रकी एक भाग पर निषध पर्वत आया है। और उसी क्षेत्रकी दूसरे भाग पर महाविदेहको स्पर्श करनेवाला तथा उसे सीमित करनेवाला नीलवंत पर्वत आया है। ये दोनों पर्वत भूमिसे 400 योजन ऊचे हैं। इन 400 योजन ऊँचे दोनों पर्वत पर पुन: 500 योजनकी ऊँचाईवाले नौ-नौ कूट (शिखर) दूर दूर आए हैं। . 157. फिर भी जितना फर्क पड़ता है उसे जाननेके लिए जम्बू० प्रज्ञ० क्षेत्रस० लोक प्र० आदि ग्रन्थ देखें / 158. एक तारेसे दूसरे ताराविमानके बिचमें इतना अन्तर होने पर भी यहाँसे आकाशमें देखें तो एक दूसरे बिलकुल पास-पास दिखते हैं, यह कैसे ? यह हमारा दृष्टिदोष है / दूर स्थित वस्तुएँ स्वतः बड़े अंतरवाली होने पर भी दूरसे पास पास ही दिखती है। जैसे किसी एक गाँवके वृक्ष या स्थान परस्पर दूर होने पर भी दूरसे तो मानो एक-दूसरेको स्पर्श करके ही स्थित न हों वैसे ही लगते हैं, तो फिर 790 योजन दूर रही वस्तु पास-पास दिखें उसमें क्या आश्चर्य! Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याघात और निर्व्याघातका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर ] गाथा 63-64 [ 137 कूट अर्थात् पर्वतके ऊपरके भागमें ऊँचा गया हुआ और अलग दिखाई देनेवाला भाग / परम पवित्र शQजय पर्वतके ऊपर, ऊपरके तल भागके पास पहुँचनेके बाद नौ-टूककी जो टेकरी दिखती है, वह नीचेसे चौड़ी और उपर जाने पर संकरी बनी दिखती है वैसे ही, लेकिन ये टेकरियाँ प्रमाणमें अधिक बड़ी और नीचेसे ऊपर जाने पर दीपशिखा जैसे आकारवाली बनी होनेसे इन टेकरियोंको कूट कहते हैं। इन कूटोंके सहित पर्वतकी ऊँचाई 900 योजन होनेसे तारोंके स्थानसे भी ऊँचाईमें यह पर्वत अधिक बना है। ये कूट ऊपरकेशिखर भागमें 250 योजन चौड़े हैं। इन कूटोंके दोनों ओर आठ आठ योजन दूर नक्षत्रके विमान हैं। [63] (प्र० गा० सं० 14) अवतरण-व्याघातसे जघन्य अन्तर कितना ? और निर्व्याघातसे जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर कितना? छावट्ठा दुन्निसया, जहन्नमेयं तु होइ वाघाए / निवाघाए गुरु लहु, दो गाउय धणुसया पंच // 64 // गाथार्थ-व्याघातसे जघन्य अन्तर (250 + 8 + 8 = 266) दो सौ छियासठ योजन प्रमाण हुआ, निर्व्याघातमें उत्कृष्ट अन्तर दो कोसका और जघन्य अन्तर पांचसौ धनुषका होता है। // 64 / / विशेषार्थ-एक नक्षत्र विमानसे आठ योजनकी दूरी पर कूट और उस कूटकी चौड़ाई 250 योजन, उसके बाद (पार होने पर ) दूसरे (परोक्ष ) भागके आठ योजन दूर जाने पर नक्षत्रका विमान आता है। अतः तीनोंका जोड़ करे तो 266 योजनका एक नक्षत्रसे दूसरे नक्षत्रका निषध और नीलवन्त पर्वतकी अपेक्षासे (व्याघातसे ) जघन्य अन्तर समझें। वैसे ही तारा-विमानका अन्तर भी 266 योजनका समझ लें / पर्वतादिकके व्याघातके बिना एक तारेसे अन्य तारेका तथा एक नक्षत्रसे अन्य नक्षत्रका उत्कृष्ट अन्तर दो कोसका और जघन्य अन्तर लें तो पांचसौ धनुष होता है। नक्षत्र ताराओंके समुदायसे ही बने होते हैं [ 64] // मेरु तथा निषधादिपर्वत व्याघातसे तथा व्याघातके बिना तारा-नक्षत्रों का अन्तर-यन्त्र / / नाम मेरु व्याघातसे | निषधादि व्या० | व्याघातके बिना | व्या० बिना ज० अं० तारे-तारेका | 12242 यो० | 266 यो० / 2 कोस / 500 धनुष नक्षत्र-नक्षत्रका | कोस बृ. 18 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 65 . अवतरण-इस तरह तारे तथा नक्षत्रके बीचका व्याघातिक- निर्व्याघातिक जघन्योत्कृष्ट अन्तर कहकर, अब मनुष्यक्षेत्रके बाहर मानो लटकाए घण्टेकी तरह स्थिर लटकते हुए चन्द्रसूर्योंका परस्पर अन्तर कहते हैं। माणुसनगाउ बाहि, चन्दा सूरस्स सूर चन्दस्स / जोयणसहस्सपन्ना-सऽणूणगा अन्तरं दिलै // 65 // गाथार्थ-मानुषोत्तरपर्वतसे बाहर विवक्षित चन्द्रसे सूर्यका तथा सूर्यसे चन्द्रका अन्तर संपूर्ण पचास हजार योजनका सर्वज्ञोंने देखा है। // 65 // विशेषार्थ मनुष्यक्षेत्रकी मर्यादाको बनानेवाले, मानुषोत्तरपर्वतके बाहर विद्यमान चन्द्र, . . सूर्य और तारे आदि सर्व ज्योतिषीयोंके विमान तथाविध जगत् स्वभावसे अचल (स्थिर ) रहकर सदा प्रकाश देते हैं। इन सूर्य और चन्द्रादिके विमानोंका चराचरपन न होनेसे परस्पर राहु आदिका संयोग उन्हें नहीं है। अतः ग्रहणकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे किसी दिन उसके तेजमें और वर्णमें विकृति-परिवर्तन नहीं होता है। अतः सदैव उन विमानोंमेंसे सूर्यविमानोंका प्रकाश अग्निके वर्ण सदृश दिखता है, जब कि चन्द्रका प्रकाश बहुत ही उज्ज्वल होता है। और चर तथा स्थिर तारे आदिके विमान पांचों प्रकारके वर्णवाले होते हैं। इस तरह मनुष्यक्षेत्रके बाहर स्थित स्थिर चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषीका परस्पर अन्तर पचास हजार (50000 ) योजनका है, ऐसा श्री जिनेश्वर देवोंने कहा है। चर और स्थिर दोनों प्रकारके विमानों में से सुन्दर कमलगर्भ समान, गौरवर्णके, विशिष्ट प्रकारके वस्त्राभरणभूषणोंको धारण करनेवाले चन्द्रमाके मुकुटके अग्रभागमें प्रभामण्डल स्थानीय चन्द्रमण्डलाकारका चिह्न होता है, सूर्यको सूर्यमण्डलाकारका चिह्न, ग्रहको ग्रहमण्डलाकारका, नक्षत्रको नक्षत्रमण्डलाकारका और ताराको तारामण्डलाकारका चिह्न होता है। __ये सब विमान ही होते हैं। परन्तु कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले सूर्यादि पांचों स्वतः देवस्वरूप ही हैं, ' तो यह समझ अज्ञान रूप है। साथ ही चन्द्र के विमानके नीचे विद्यमान चित्ररूप मृगचिह्नका भी लोग अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ करके अनेक रूपमें परिचय देते हैं। परन्तु प्रत्यक्ष रूपमें दिखते जिन ज्योतिषीयोंको आकाशमें हम देखते हैं वे सब तो विमान ही हैं। उनके तथाविधके कर्मोदयसे तेजस्वी होनेके कारण हम उन्हें दूरसे देख सकते हैं। सूर्य-चन्द्रादि देव और उनका अन्य देव-देवीपरिवार तो उन विमानों में स्थित है। सर्वज्ञ भगवन्तका शासन तो यही प्रतिपादन करता है कि चन्द्रमाके विमानकी पीठिकाके नीचे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्रसे चन्द्रका और सूर्यसे सूर्यका अन्तर ] गाथा 66 [139 स्फटिकमय 15 मृगका ही चिह्न बना हुआ है, अतः हम भी उस मृगाकारको देखते हैं / / 65 / / // मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्रसे सूर्यका परस्पर तथा बीच-बीचका अन्तर प्रमाण // नाम नाम अन्तरप्रमाण अन्तरप्रमाण चन्द्रसे सूर्यका 50000 यो० चन्द्रसे चन्द्रका | 1 लाख यो०४६ सूर्यसे चन्द्रका / सूर्यसे सूर्यका 1 लाख यो०५६ अवतरण-मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्रसे सूर्यका और सूर्यसे चन्द्रका अन्तर बताया, अब चन्द्रसे चन्द्रका अन्तर तथा सूर्यसे सूर्यका अन्तर प्रदर्शित करते हैं। ससि ससि रवि रवि साहिय-जोयणलक्खेण अंतरं होइ / रवि अन्तरिया ससिणो, ससिअन्तरिया रवी दित्ता / / 66 / गाथार्थ-एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रका और एक सूर्यसे दूसरे सूर्यका अन्तर साधिक लक्षयोजन प्रमाण है, चन्द्र सूर्योसे अन्तरित हैं और सूर्य चन्द्रोंसे अन्तरित हैं। // 66 // विशेषार्थ-मनुष्यक्षेत्रके बाहर एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रका परस्पर अन्तर एक लाख योजनसे एक योजनके अडतालीस बटे इकसठवें भाग जितना अधिक है; क्योंकि वहाँ स्थिर ज्योतिषी होनेसे पचास हजार योजन पूर्ण होने पर सूर्यविमान अवश्य होता है, इसलिए उस विमानकी 16 भागकी चौड़ाई अधिक गिननेकी होती है / उसी तरह एक सूर्यसे दूसरे सूर्यका भी परस्पर अन्तर प्रमाण साधिक लक्ष योजन है अर्थात् एक सूर्यसे दूसरे सूर्य तक पहुँचते बीचमें (50000 यो० पूर्ण होने पर पूर्वगाथानुसार ) चन्द्र विमान आता है, तदनन्तर सूर्यविमान आता है, अतः एक सूर्यसे दूसरे चन्द्रके पास ही पहुँचनेमें प्रथम 50000 योजन अन्तर होता है। उस चन्द्रके , भागकी चौड़ाई पार करनेके बाद पुन: 50000 योजन पूर्ण हों तब सूर्यकी उपस्थिति होनेसे एक लाख योजन अधिक 51 योजनका सजातीय अन्तर जानें / // 66 // अवतरण-मनुष्यक्षेत्रके बाहरके चन्द्र तथा सूर्यके स्वरूपका वर्णन करते हैं। 159. यहां एक बात सूचित करना अनुचित नहीं है कि-पूर्णिमाके दिन शामको चन्द्रका उदय होता है तब मृगचिह्न सीधा दिखता है। परन्तु रातके बढ़ते जानेसे मध्य रात्रिको वह चिह्न उलटा होनेसे पिछली सुबहमें पूर्ण उलटा अर्थात् पैर ऊचे और पीठ नीचे दिखता है / इसका क्या कारण ? अतः चन्द्रकी गति कैसे निश्चित करें ? यह बात विचारणीय है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 67-69 मामा . बहियाउ माणुसुत्तर, चन्दा सूरा अवढि-उज्जोया / चन्दा अभीइ-जुत्ता, सूरा पुण हुँति पुस्सेहिं / / 67 // [प्र. गा० सं० 15] गाथार्थ–मानुषोत्तरपर्वतसे बाहर अवस्थित चन्द्र तथा सूर्य स्थिर प्रकाशवाले होते हैं अर्थात् एक स्थलमें स्थिर रहकर प्रकाश देते हैं और चन्द्र अभिजित् नक्षत्रसे युक्त होते हैं और सूर्य पुष्य नक्षत्रसे युक्त होते हैं। // 6 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम है। केवल 'नक्षत्रयुक्त' ऐसा कहनेका आशय यह है कि, मनुष्यक्षेत्रमें तो चरभाव होनेसे अट्ठाईस नक्षत्रोंमेंसे प्रत्येकका यथावासरे (दिनके अनुसार) चन्द्रादिकके साथ संयोग होता रहता है, परन्तु मनुष्यक्षेत्रके बाहर तो ज्योतिषी स्थिर होनेसे वे अनादिसिद्ध ऐसे जिस नक्षत्रके योगमें पड़े हों उसी नक्षत्रका ही उसे सहयोग सदाके लिए कहा जाता है। (ये दोनों नक्षत्र ज्योतिषशास्त्र भी श्रेष्ठ माने जाते हैं।) (प्र० गा० सं० 15) [67 ] इति ज्योतिषीनिकायाधिकारान्तर्वर्तीज्योतिषीणां विमानादि-विषयव्याख्या समाप्ता // अथप्रासङ्गिकद्वीप-समुद्राधिकारः // अवतरण-इस तरह मनुष्यक्षेत्रके बहिर्वर्ती चन्द्र-सूर्यादिका किंचित् स्वरूप बतानेके बाद, आगे प्रतिद्वीपमें कितने सूर्य होते हैं ? यह और उसे जाननेका कारण तथा उन चन्द्र-सूर्य-ग्रहादिकी पंक्ति आदिका वर्णन करते हैं, उसके पहले यदि द्वीप समुद्रके स्थान और संख्यादिका वर्णन समझा जाए तो आनेवाला विषय सरल हो सके। इसलिए ग्रन्थकारमहर्षि प्रथम द्वीप-समुद्रका संख्या प्रमाण और विस्तारप्रमाण कितना है ? यह युक्तिसे नीचे दी हुई गाथाओं द्वारा समझाते हैं। प्रथम द्वीप-समुद्र कितने और कितने बड़े हैं ? इसका निरूपण करते हैं / उद्धारसागर दुगे, सड्ढे समएहि तुल्ल दीवुदही / दुगुणादुगुणपवित्थर, वलयागारा पढमवज्जं / / 68 // पढमो जोयणलक्खं, वट्टो तं वेढिउं ठिया सेसा / पढमो जम्बुद्दीवो, सयंभुरमणोदही चरमो // 69 // Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप-समुद्रोंका प्रमाण-आकार ] गाथा 68-69 [141 गाथार्थ-अढ़ाई उद्धारसागरोपमके समयोंकी जितनी संख्या हो उतनी संख्यावाले द्वीप-समुद्र- हैं और पूर्व-पूर्वसे पीछे-पीछेके द्वीप-समुद्र दुगुने-दुगुने विस्तारवाले हैं तथा प्रथम द्वीपको छोड़कर शेष समग्र द्वीप-समुद्र वलयाकारवाले हैं / प्रथम ( जम्बूद्वीप) लाख योजन प्रमाणवाला. है, तथा वह वृत्त-गोलाकारमें है और दूसरे सब द्वीप-समुद्र उसे घेरकर वलयाकारमें स्थित हैं। उनमें पहला जम्बूद्वीप और अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र है। / / 68-69 / / विशेषार्थ—पहले सूक्ष्म-बादर भेदोंसे छः प्रकारके पल्योपम और छः प्रकारके सागरोपमका सविस्तर स्वरूप दिखाया गया है / वैसे अढाई उद्धारसागरोपम जितने कालमें जितने समय हों उतने द्वीप समुद्रोंकी संख्या जिनेश्वरोंने कही है। ___ अथवा एक सूक्ष्मउद्धार १६°सागरोपमके 10 कोडाकोडी सूक्ष्मोद्धार पल्योपम होते हैं, अतः अढाई सूक्ष्म उद्धारसागरोपमके 25 कोडाकोडी सूक्ष्म उद्धारपल्योपम होते हैं। इन 25 कोडाकोडी पल्योपमोंमें पूर्व कथित कथनानुसार जितने वालाग्र समाएँ उतने द्वीपसमुद्र (दोनों मिलकर) हैं। द्वीप-समुद्रोंका प्रमाण-- - तेलपुल (मालपुआ )के आकारमें अथवा पूर्णिमाके चन्द्राकारमें सर्वद्वीप-समुद्राभ्यन्तरवर्ती स्थित पहले जम्बूद्वीपको वर्जित करके वलयाकारमें रहे शेष (सर्व) द्वीप-समुद्र पूर्व पूर्वसे द्विगुण विस्तारवाले हैं। जैसे कि-जम्बूद्वीप एक लाख योजनका, तदनन्तर आया हुआ लवणसमुद्र उससे द्विगुण दो लाख योजनका, उससे द्विगुण धातकीखण्ड 4 लाख योजनका ऐसे उत्तरोत्तर द्विगुण द्विगुण (दुगुने) विस्तारवाले सर्व द्वीप-समुद्र जानें / सकल द्वीप-समुद्र का आकार उत्सेधांगुल (अपना जो चालू अंगुलप्रमाण वह )से प्रमाणांगुल चारसौ गुना अथवा हजार गुना बड़ा है अर्थात् चारसौ उत्सेधांगुलका एक प्रमाणांगुल हो उस प्रमाणांगुलसे निष्पन्न एक लाख योजन प्रमाणवाला पहला जम्बूद्वीप आया है। यह जम्बूद्वीप जैनशास्त्रके मतानुसार वृत्त विष्कम्भवाला है अर्थात् थाली अथवा मालपुएके समान गोलाकार है, परन्तु 160. पल्योपम-सागरोपमका वर्णन पृष्ठ 22 से 38 तकमें कथित है। 161: द्वीप अर्थात् क्या ? जिसके चारों ओर पानी हो और बीचमें बसने योग्य भूमि हो उसे द्वीप कहते हैं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 68-70. पाश्चात्य वैज्ञानिकों के मतानुसार गेंद जैसा या नारंगी जैसा नहीं है। इस आकारको 'प्रतरवृत्त' कहा जाता है। प्रतरवृत्त वस्तुकी लम्बाई और चौड़ाई प्रमाणमें एक समान होती है। इसी लिए वृत्ति विष्कम्भ ( प्रतरवृत्त )वाली वस्तुको मध्यबिन्दुसे किसी भी दिशा अथवा विदिशामें (आमने-सामने) माऐं तो भी उसका एक समान प्रमाण आएगा / 'समप्रतरवृत्त' (समगोल) वस्तुका व्यास (विस्तार ) समान होता है। अतः जम्बूद्वीप भी 'विषमप्रतरवृत्तादि' (लम्बगोल वा अर्धगोल) नहीं है लेकिन ‘समप्रतरवृत्त' है। इस ‘समप्रतरवृत्त' जैसे जम्बूद्वीपके चारों ओर परिवृत्त परिमण्डलाकारमें (चूड़ीके समान आकारमें ) 'लवणसमुद्र' आया है। अर्थात् चूडीमें चारों भागों पर किनारे और बीचमें पोला भाग हो वैसे जम्बूके परिवृत्त चूड़ीके समान वलयाकारमें लवणसमुद्र आया है। बीचमें पोलापन हो ऐसे गोलाकारको ‘परिमण्डल' अथवा 'वलय' कहा जाता है / यह लवणसमुद्र भी वैसे ही आकारमें है और उसका 'चक्रवालविष्कम्भ' अर्थात् वलयाकार वस्तुकी किसी एक दिशा( बाजू )की ओरकी चौड़ाई अर्थात् जम्बूद्वीपकी एक ओरकी जगतीसे लेकर ठेठ लवणसमुद्रकी जगती तक अथवा तो धातकीखण्डसे प्रारम्भके क्षेत्र तकका दो लाख योजन 'विष्कम्भ' प्रमाण होता है। तदनन्तर लवणसमुद्रसे परिवृत्त धातकीखण्ड वलयाकारमें आता है। यह खण्ड चार लाख योजन विष्कम्भवाला है। उससे परिवेष्टित मण्डलाकारमें आठ लाख योजन प्रमाण वलय विष्कम्भवाला कालोदधि रहा है, और उस कालोदधिके चारों ओर परिवेष्टित होकर सोलह लाख योजन चक्रवालविष्कम्भवाला पुष्करद्वीप आया है। इस तरह जम्बूद्वीपको परिवेष्टित कर परिमण्डलाकारमें पूर्व पूर्वसे दुगुने विस्तार (विष्कम्भ )वाले द्वीप-समुद्र हैं, उनमें जिसमें हम रहते हैं वह सबसे प्रथम जम्बूद्वीप है। और सबसे अन्तिम तिर्छालोकके अन्तमें स्वयंभूरमण नामका समुद्र आया है। इस समुद्रकी जगती पूर्ण हुई कि ( इसी समुद्रकी पूर्वदिशाकी वेदिकासे लेकर पश्चिम वेदिका पर्यन्त एक राज प्रमाणका ) ति लोक समाप्त हुआ, तदनन्तर दोनों बाजू पर अलोकाकाश आया है। [68-69] अवतरण-अब कतिपय द्वीपों के नाम कहते हैं-( साथ साथ ग्रन्थान्तरसे उन उन द्वीपोंका किंचित् स्वरूप भी कहा जाता है) जम्बू-धायइ-पुक्खर-वारुणि-खीर-घय-खोय-नन्दिसरा / अरुण-रुणवाय-कुण्डल-संख-रुयग-भुयग-कुस-कुंचा // 70 // 162 162. यहाँ 'अरुणरुणवाय' शब्दकी व्युत्पत्ति चन्द्रिया टीकाकारने—'अरुणशब्दस्य उप-सामीप्येन प्राक्पातः-पतनं नाम्नि यस्येति' इस तरह की है। इस हिसाबसे तो 'अरुणोपपात' ऐसा स्वतंत्र द्वीपनाम नहीं है; जब कि ठाणांगजीमें यह नाम ‘स्वतन्त्र द्वीप 'से वर्णित है / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप तथा उसका संक्षिप्त स्वरूप ] गाथा-७० [143 गाथार्थ-यहाँ मूलगाथामें द्वीपोंके विशेषनाम मात्रका ही उल्लेख किया है, परन्तु अर्थके लिए यथायोग्य उस नामके साथ क्रमश: 'द्वीप' 'खण्ड' तथा 'वर' शब्द प्रयुक्त करें। / / 70 // - विशेषार्थ-सर्वके बिच-मध्यमें और सर्वसे प्रथम जम्बूद्वीप है। उसका नाम जम्बू कैसे पड़ा ? इस सम्बन्धमें जतानेका कि-सर्वद्वीपसमुद्राभ्यन्तरवर्ती जम्बूद्वीपके मध्यभागमें आए उत्तरकुरुक्षेत्रके पूर्वार्धभागमें जांबूनदसुवर्णकी जम्बूपीठ आई है। उस पीठके ऊपर दो योजनके मूलयुक्त और साधिक अष्ट योजन ऊँचा गया हुआ त्रिकाल शाश्वत् ऐसा 'सुदर्शन' नामका 'जम्बूवृक्ष' है। इस वृक्षके मूल-कन्द-तने-शाखाएँ आदि सर्व अवयव विविध रत्नों के और उनसे भिन्न-भिन्न प्रकारके रंगबिरंगी वर्णमय हैं। इस जम्बूवृक्षके बिचकी जो विडिमाशाखा है उसके ऊपर एक जिनचैत्य आया हुआ है। इसके सिवा अवशिष्ट जो चार शाखाएँ हैं वे वृक्षमें विस्तीर्ण हैं। उनमें पूर्वदिशाकी शाखाके ऊपर 'अनादृत 'देवका भवन होता है, जब कि शेष तीनों दिशाओंकी प्रत्येक शाखाके ऊपर प्रासाद होता है। उनमें इस जम्बूवृक्षकी पूर्वशाखाके मध्यभागमें इस द्वीपके अधिपतिका निवास होनेसे इस द्वीपका 'जम्बू' ऐसा शाश्वत् नाम कथित है। उस अधिपतिके योग्य 500 धनुष विस्तारवाली और 250 धनुष ऊंची मणिपीठिकाके ऊपर व्यन्तरनिकायके १६अनादृतदेवकी शय्या वर्तमान है। इस शय्यामें वर्तित (विद्यमान ) अनेक सामानिकआत्मरक्षक तथा देव-देवियोंके परिवार में विचरता हुआ, पूर्वके पुण्योंसे प्राप्त हुए सुखोंको पुण्यात्मा अनाहत देव भोगते हैं। इस जम्बूवृक्ष जम्बूद्वीपकी वेदिका प्रमाण ऐसी बारह वेदिकाओंसे वेष्टित है। इस वेदिकाके बाद उस वृक्षकी चारों ओर अन्य जम्बू नामके वृक्षोंके तीन ( अथवा किसी मतसे दो) वलय आए हैं। इस तरह जम्बूद्वीपके अधिपतिका स्थान जम्बूवृक्ष६४ के ऊपर होनेसे इस द्वीपका 'जम्बू' नाम सचमुच गुणवाचक है।' कहनेका आशय यह है कि इस प्रकारके देवकुरुक्षेत्रमें 'शाल्मली' नामका वृक्ष भी आया है और उसके ऊपर भी अधिष्ठायक देवका निवास तो है परन्तु वह जम्बूद्वीपका अधिपति देव नहीं है। 2. धातकी खण्ड-धावडीकी जातिके सुन्दर पुष्पसे सदा विकसित बने हुए वृक्षोंके बहुत वनखण्ड होनेसे तथा पूर्व और पश्चिमदिशाके खण्डमें सुदर्शन तथा प्रियदर्शन देवका निवास धातकी नामके वृक्षके ऊपर होनेसे इस द्वीपका ‘धातकीखण्ड' ऐसा नाम सान्वर्थ है। 3. पुष्करद्वीप-इस द्वीपमें तथाप्रकारके अतिविशाल 'पद्म' (पद्म-कमल )के 163. वर्तमानका 'अनादृत 'देव उसे जम्बूस्वामी के काकाका जीव समझें / 164. इसका विशेष स्वरूप 'लोकप्रकाश' सर्ग 17 तथा 'क्षेत्रसमासादि से जानें / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-७० वनखण्ड होनेसे तथा महापद्म देवके निवाससे यह नाम भी गुणवाचक है / 4. वारुणिवरद्वीप-(वारुणि = मदिरा, वर = श्रेष्ठ ) इस द्वीपवर्ती बावलियों आदिका . जल उत्तम 'मदिरा' जैसा होनेसे यह नाम पड़ा है। 5. क्षीरवरद्वीप-इस नामके द्वीपकी बावलियों आदिका जल भी विशेषतः 'क्षीर-दूध' जैसा होनेसे सफल लेखा जाता है / 6. घृतवरद्वीप-इस द्वीपकी बावलियां भी विशेषतः ‘घृत' समान स्वादवाले जलसे युक्त होनेसे उक्त नाम कहा गया है / - 7. इक्षुवरद्वीप-इस द्वीपकी बावलियाँ ‘इक्षु-इख' रसके स्वादवाली विशेषतः होनेसे द्वीपका यह नाम रक्खा गया है / 8. नन्दीश्वरद्वीप-नन्दी नाम 'वृद्धि-समृद्ध ' इससे श्रेष्ठ होनेसे यह नाम योग्य है। ॥श्री नन्दीश्वरद्वीप विषयक किंचित् वर्णन // नन्दी अर्थात् (सर्व प्रकारसे ) वृद्धि उसमें 'ईश्वरः'— श्रेष्ठ, उसे नन्दीश्वर कहा जाता है। प्रथम 1. जम्बूद्वीप, 2. लवणसमुद्र, 3. धातकीखण्ड, 4. कालोदधि, 5. पुष्करद्वीप, 6. पुष्करसमुद्र, 7. वारुणीवरद्वीप, 8. वारुणीवरसमुद्र, 9. क्षीरवरद्वीप, 10. क्षीरवरसमुद्र, 11. घृतवरद्वीप, 12. घृतवरसमुद्र, 13. इक्षुवरद्वीप, 14. इक्षुवरसमुद्र, इस तरह सात द्वीप और सात समुद्र उल्लंघन करनेके बाद आठवाँ ‘नन्दीश्वरद्वीप' आता है। इस द्वीपमें चारों दिशाओंके मिलकर वावन (52) जिनालय [और आगे आते हुए कुण्डल तथा रुचक द्वीपके चार चार मिलकर कुल 60 १६५जिनालय मनुष्यक्षेत्रके बाहर ] आए हैं / यह द्वीप 1638400000 योजन चौडा है। इस द्वीपके मध्यभागकी अपेक्षासे चारों दिशाओं में श्यामवर्णके 'चार अञ्जनगिरि' आए हैं, वे 84000 योजन ऊँचे हैं और चारोंके उपर एक-एक जिनभवन है। 'इति अञ्जनगिरिचैत्यानि // इस अजनगिरिके चारों दिशाओंकी तरफ एक एक लाख योजनके अन्तर पर एक-एक लाख योजन लम्बी चौड़ी इसीसे विराट् स्वरूपका दिग्दर्शन कराती बावलियां हैं। एक अञ्जनगिरिकी अपेक्षामें चार बावलियाँ होनेसे चार अञ्जनगिरिकी अपेक्षामें 16 बावलियां 165. 'बावन्ना नन्दीसरम्मि चउ चउर कुण्डले रुयगे'। [शाश्वत चैत्यस्तव] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजनगिरिका वर्णन ] गाथा-७० [ 145 होती हैं। इन बावलियोंकी चारों दिशाओं में 500 योजन दूर जाने पर एक लाख योजन लम्बा एक वन आता है, अर्थात् एक बावलिके चारों बाजू पर चार वन होनेसे एक अजनगिरिकी चारों दिशाओं में रहीं चार बावलियोंके 16 वन होते हैं, और चार चार अजनगिरिकी सोलह बावलियोंके 64 वन होते हैं। इस बावलिके मध्यकूपके ऊपर स्फटिक रत्नमय उज्ज्वल वर्णके 64000 योजन ऊँचे, 1000 योजन गहरे और धान्यके प्यालेकी तरह वर्तुलाकारमें रहे 'दधिमुखगिरि' आए हैं। कुल सोलह बावलियाँ होनेसे 'दधिमुख' पर्वत भी सोलह होते हैं और प्रत्येकके ऊपर एक-एक शाश्वत् 'जिनचैत्य' होता है / इति 16 दधिमुखचैत्यानि / ___ इस अजनगिरिकी चारों दिशाओं में जो बावलियां कहीं उनमें एक बावलिसे दूसरी बावलि तक पहुँचते बिचके भागमें दो दो "रतिकर' पर्वत आए हैं। 16 बावलियोंके आंतरेके 32 ‘रतिकर' होते हैं। प्रत्येकके ऊपर एकएक शाश्वत् 'जिनचैत्य' है। 'इति 32 रतिकरशाश्वजिनचैत्यानि / ' इस तरह 4 अञ्जनगिरि, 16 दधिमुख, 32 रतिकरचैत्यानि / इस प्रकार (बावन ) शाश्वत् जिनालय शाश्वती जिनप्रतिमाओंसे सुशोभित आए हैं, जिसका वर्णन सिद्धान्तमें सुन्दर रीतिसे दिया गया है। . प्रति संवत्सर पर आती शाश्वती अट्ठाइयोंके महामांगलिक प्रसंग पर अथवा कल्याणकका महोत्सव मनानेका हो उस अवसर पर सौधर्मदेवलोकका स्वामी सौधर्मेन्द्र सुघोषा घण्टेके द्वारा सर्व देवोंको उत्सव प्रसंगका समाचार जणाकर इकट्ठा करता है। पश्चात् एक लाख योजनका ‘पालक' नामका विमान रचकर आत्मकल्याणकी आकांक्षा रखनेवाले अनेक देवदेवियों सह परिवृत्त इन्द्रमहाराज नन्दीश्वरद्वीपमें आते हैं। वहाँ शाश्वतचैत्यों में विराजमान परमतारक श्रीजिनेश्वरदेवोंकी अनुपम प्रतिमाओंको तन-मन-धनके अत्यानन्दसे, हृदयोल्लास• पूर्वक अनेक प्रकारकी भक्ति-सेवा करके स्वयं तथा अन्य परिवार भावना करते हैं कि अविरतिवन्त-अत्यागी ऐसे हमें ऐसे अवसर सचमुच किसी पूर्व पुण्यके प्रतापसे ही प्राप्त होते हैं और अब भी प्राप्त हों। इत्यादि भावनाएँ करके वे आत्माएँ कृतकृत्य होती हैं / व्रत पच्चख्खाणादिकी विरति (नियम )को तथाविध भवमें ही नहीं पानेवाले ऐसे देव जब भक्तिभावनाके ऐसे सुरम्य और दुर्लभ अवसरको पाकर उस जगद्वन्द्य परमात्माओंकी भक्तिमें कोई कमी नहीं रखते, तो फिर हम अपने पूर्वके पुण्य प्रतापसे चौदह गुणस्थानकोंके अधिकारवाले हुए हैं, अतः हमेशा शक्य न हो तो भी मुख्य मुख्य अवसरोंके प्रसंगों में अनेक प्रकारका धर्मानुष्ठान करने में पुण्यात्माओंको जरा भी कमी न रखना, यह सचमुच महापुण्यके प्रतापसे प्राप्त हुई सर्वानुकूल सामग्रीको, बिना * सदुपयोग किये ही निष्फल बृ. सं. 19 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-७०-७१ बनाने के साथ साथ चिंतामणिरत्न तुल्य ऐसे इस मानवजीवनको अजस्तनवत् निरर्थक-बरबाद करने समान है। . . . ___9. अरुणदीप-इस द्वीपमें सूर्यके प्रकाश जैसे रक्तकमल विपुल प्रमाणमें हैं इसलिए, और सर्व वनरत्नमय पर्वतादिकी प्रभासे रक्त होनेसे यह नाम गुणवाचक है। तदनन्तर दसवाँ 'अरुणवर' अरुणोपपातद्वीप और ग्यारहवाँ 'अरुणावरावभास' नामका द्वीप है। . इसी तरह बारहवें कुण्डल द्वीपसे लेकर रुचक, भूजग, कुश, क्रौंच आदि द्वीप . त्रिप्रत्यवतार समझने हैं। जैसे कि बारहवाँ कुण्डलद्वीप, तेरहवाँ कुण्डलवर, चौदहवाँ कुण्डलवरावभास, 15 रुचक, 16 रुचकवर, 17 रुचकवरावभास और 18 भूजग, 19 भूजगवर, 20 भूजगवरावभास, इस तरह कुश और क्रौंचको त्रिप्रत्यवतार समझ लेना / इसमें इतना विशेष समझना कि 12 वें कुण्डलद्वीपके मध्यभागमें मानुषोत्तरकी तरह वलयाकारमें स्थित 'कुण्डलगिरि ' है अतः इस द्वीपका 'कुण्डल' नाम योग्य है। इस गिरिके मध्यभागमें चारों दिशावर्ती 4-4 (चार-चार) शाश्वत् जिनालय हैं, जिनमें परमतारक परमात्माकी शाश्वती प्रतिमाएँ शोभित हैं। इसी तरह मानुषोत्तरकी तरह 13 वें 'रुचकद्वीप 'के अतिमध्यभागमें 84 हजार : योजन ऊँचा रुचकगिरि आया है, जिससे इस द्वीपका नाम भी सफल माना जाता है / उसके ऊपर मध्यभागमें चारों दिशाओं में चार शाश्वत् जिनचैत्य हैं। इस तरह समग्र तिर्छालोकमें 'मानुषोत्तर-कुण्डल-रुचक'-ये तीन पर्वत ही वलयाकारमें हैं; शेष पर्वत अलग अलग संस्थानवाले हैं। ___ इस तरह नन्दीश्वर द्वीपका वर्णन करनेके साथ मनुष्यक्षेत्रके बाहरके जिनचैत्योंकी संक्षिप्त व्यवस्था दिखाई / / ऊपर बताये हुए गुणों से उन उन द्वीपोंके नाम सान्वर्थ हैं, अथवा तो हरएक द्वीप-समुद्रके नाम उन उन द्वीप-समुद्रोंमें रहनेवाले-निवास करनेवाले देवोंके नाम परसे रक्खे होनेसे उस प्रकार भी अन्वर्थक हैं / रुचकद्वीपसे आगेके भुजग, कुश और क्रौंचवर इत्यादि सर्व द्वीप-समुद्र उस विशिष्ट देवनिवासके नामसे ही प्रायः गुणवाचक है, ऐसा सर्वत्र सोचें / [40] अवतरण-कौनसा समुद्र किस द्वीपको घेरकर रहा है ? यह बताते हैं पढमे लवणो जलहि, बीए कालो य पुक्खराईसु / दीवेतु हुंति जलही, दीवसमाणेहिं नामेहिं // 71 // . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौनसा समुद्र किस द्वीपको घेरकर रहा है ? ] गाथा 71-74 [147 गाथार्थ-पहले जम्बूद्वीपको घेरकर-लपेटकर लवणसमुद्र रहा है। दूसरे धातकीखण्डको लपेटकर कालोदधि आया है। तत्पश्चात् पुष्करवर आदि द्वीपोंको लपेटकर उन उन द्वीपोंके नाम समान ही नामवाले समुद्र आए हैं [ 71 ] विशेषार्थ-जम्बूद्वीपवेष्टित प्रथम लवणसमुद्र आया है, तत्पश्चात् धातकीखण्डको लपेटकर रहा हुआ कालोदधि समुद्र है, तत्पश्चात् आए समुद्र जिन जिन द्वीपोंको लपेटे हुए हैं वे सब उस उस द्वीपके समान नामवाले ही जानें। सिर्फ अढाई द्वीपमें आए दो समुद्रोंका क्रम वैसा नहीं है अर्थात् फर्कयुक्त है, अन्यथा पुष्करद्वीपके चारों ओरका पुष्करसमुद्र, वारुणिवरद्वीपके चारों ओरका वारुणिवरसमुद्र इस तरह असंख्याता समुद्र द्वीपके समान नामवाले हैं। यावत् अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीपको लपेटकर अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र आया है। लवणसमुद्र-इस समुद्रका पानी क्षारसे युक्त और अतः गलेमें असर करनेवाला तीक्ष्ण, कटुक, ज्वार-भाटा आदिसे टकराती लहरोंसे कलुषित, कीचड़युक्त बना हुआ और उसमें बसनेवाले प्राणियोंके सिवा अन्योंको पीनेलायक नहीं है, क्योंकि इस समुद्रका जल 'लवण-खारा' है इससे 'लवणसमुद्र' यह नाम भी सार्थक है / कालोदधि-इस समुद्रका जल काले उरदके रंग जैसा श्याम होनेसे और उसकी पूर्वपश्चिम दिशामें काल-महाकाल नामके देवोंका निवास होनेसे इस समुद्रका ‘कालोदधि' नाम भी सार्थक है। तत्पश्चात् आए समुद्र उनके साथ आए हुए द्वीपोंके समान ही नामों परसे परिचित होनेसे समुद्रोंके नामोंकी सफलता भी लगभग द्वीपके समान ही समझ लें / [71] ' अवतरण-द्वीप-समुद्रोंके अमुक नाम बताए, अब अवशिष्ट द्वीप-समुद्रोंके नाम कैसे हैं उनका निरूपण करते हैं आभरण-वत्थ-गंधे, उप्पल-तिलए य पउम-निहि-रयणे / वासहर-दह-नईओ, विजया वक्खार-कप्पिदा // 72 // कुरु-मंदर-आवासा, कूडा नक्खत्त-चन्द-सूरा य / अन्नेवि एवमाई, पसत्थवत्थूण जे नामा // 73 / / तन्नामा दीवुदही, तिपडोयाराय हुंति अरुणाई / जम्बूलवणाईया, पत्तेयं ते असंखिज्जा // 74 // Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ..... [ गाथा 72-75 ताणंतिम सूरवरा-वभासजलही परं तु इक्किका / देवे नागे जक्खे, भूये य सयंभूरमणे य // 75 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 72-73-74-75 // विशेषार्थ-जगत्में जिन जिन प्रशस्त वस्तुओंके नाम तथा जो जो उत्तम शाश्वत् पदार्थ आदि हैं उन सर्व नामवाले द्वीप-समुद्र हैं ऐसा श्री जिनेश्वरदेवका सिद्धान्त बोलता है-कहता है। __ सप्तधातुके नाम, रत्नोंके नाम तथा उनसे बने हुए सर्व आभरणों-आभूषणों के नाम, जैसे कि रत्नावली, कनकावली, अंगूठियाँ इत्यादि, वस्त्र-अर्थात् रेशम, सूत-सर्व प्रकारके वस्त्रोंकी जातिके नाम तथा उनसे बनती सर्व वस्तुओंके नाम और गंध-सर्व प्रकारके धूप आदि गन्ध-द्रव्योंके नाम, उप्पल-सर्व प्रकारके कुमुदादि विविध कमलोंके नाम, तिलए-तिलक नामके वृक्षका नाम, पउम-पद्म अर्थात् शतपत्र-पुण्डरीकादि कमल विशेषके नाम, निहि-ये नौ प्रकारके वन-नीलादिरत्ननिधि तथा चक्रीके नौनिधानके नाम, रयणे-चक्रवर्ती सम्बन्धी चौदह प्रकारके रत्नोंके नाम, वासहर-हिमवन्तादि सर्ववर्षधर पर्वतोंके नाम, दह-पद्मद्रहादि, सर्वद्रह तथा पद्मसरोवरादि शाश्वत् सरोवरोंके नाम, नईओ-गंगा-सिंधु प्रमुख सर्व नदियों के नाम, विजया-कच्छादि 34 विजयोंके नाम, वक्खार-चित्रादि 16 वक्षस्कार . पर्वतोंके नाम, कप्प-सौधर्मादि 12 कल्पोंके नाम, इन्दा-शक्रादि सर्व इन्द्रोंके नाम, कुरु-देवकुरु तथा उत्तरकुरु आदि क्षेत्रके नाम, मन्दर-मेरुपर्वतके पर्यायवाचक 11 नाम, आवास-तिर्यगृलोकमें भवनपति आदि पातालवासी देवोंके आवासोंके नाम, कूडा-हिमवन्तादि पर्वतोंके कूटों तथा ऋषभकूटोंके नाम, नक्खत्त-अश्विनी-कृतिका आदि 28 नक्षत्रों के नाम, ( उपलक्षणसे ग्रहोंके नाम ) चन्दा-सूरा-चन्द्र तथा सूर्यके नाम, इनसे पूर्व कहे गए सर्व नामोंवाले तथा इनके सिवा जगत्में जो जो प्रशस्त नामवाले पदार्थ हैं, वे सर्व नामवाले द्वीप-समुद्र हैं। त्रिप्रत्यवतार द्वीप-समुद्र विचार अमुक द्वीप-समुद्रको वर्जित करके बाकीके सर्व द्वीप-समुद्र त्रिप्रत्यवतार है अर्थात् 'चर' नामवाला 'चरद्वीप' तत्पश्चात् वही नाम 'वर' पदसे युक्त वह दूसरा 'चरवर' द्वीप, तत्पश्चात् 'वरावभास' पदसे युक्त तीसरा '5' चरवरावभास' द्वीप इस तरह हरएक द्वीप-समुद्र है, जैसे- शंखद्वीप' मूलनाम, 'शंखवरद्वीप' दूसरा नाम और 'शंखवरावभासद्वीप' यह तीसरा नाम, इस तरह त्रिप्रत्यवतार अर्थात् मूलनामको कायम रखकर अन्य विशेषण लगाकर तीन बार उस नामको लिखना यह / इस तरह समुद्रोंके लिये भी समझना चाहिए। ऐसे 166. 'चरावभास' ऐसा भी नाम है / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप-समुद्रोंकी व्यवस्थामें विशेषता ] गाथा 72-75 [149 त्रिप्रत्यवतार द्वीप-समुद्र दसवें अरुण-द्वीपसे लेकर अन्तिम देवादि पांच द्वीपोंसे अर्वाक् आए सुरवरावभासद्वीप तक जानें / ____ तात्पर्य यह है कि-ऊपरकी 72-73 गाथाओं में कहे गए मतानुसार प्रशस्त सर्व वस्तुओंके नामवाले सर्वद्वीप ऊपर बताए पदानुसार त्रिप्रत्यवतार जानें, परन्तु यह नियम दसवें अरुण-द्वीपसे शुरू करके सुरवरावभास समुद्र तक समझें। जैसे जम्बूद्वीप तथा लवणसमुद्र, ये असंख्यात हैं अर्थात् जो पहला जम्बूद्वीप है उसी नामवाला त्रिप्रत्यवतार युक्त जम्बूद्वीप असंख्यात द्वीप-समुद्र व्यतीत होनेके बाद ही आता है, इस तरह दूसरा तीसरा आदि असंख्यात जम्बू , असंख्यात धातकी, असंख्यात पुष्करवर, असंख्यात घृतवर आदि सर्व द्वीपोंके लिए जाने / परन्तु इतना विशेष समझे कि असंख्यात अन्य नामवाले असंख्य द्वीप-समुद्र जब व्यतीत हों तब दूसरा जम्बू, दूसरा धातकी और दूसरा लवण आता है अर्थात् ये समान नामवाले द्वीप अथवा समुद्र साथ-साथ ही होते नहीं हैं, परन्तु असंख्यात असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके अन्तर पर होते हैं। इस तरह सर्व १६"द्वीपादि के लिये सोचें / द्वीपसमुद्रोंकी व्यवस्थामें विशेषताश्री ‘जीवसमास' वृत्तिमें तो ऐसा बताया है कि-रुचकद्वीप तकके द्वीप-समुद्र तो ऊपर जो क्रम कहा उसी क्रमके अनुसार ही है। परन्तु तत्पश्चात् असंख्य द्वीप-समुद्र व्यतीत होने पर भुजगद्वीप आता है, उसके बाद असंख्य द्वीप-समुद्र व्यतीत होनेके बाद कुशद्वीप आता है, तत्पश्चात् असंख्यात द्वीप-समुद्रोंका उल्लंघन करने पर क्रौंचद्वीप आता है, उसके बाद असंख्य द्वीपोंका उल्लंघन करने पर अनेक प्रकारके जो आभरण-आभूषण हैं उनमेंसे किसी भी एक आभूषणके नामवाला द्वीप आता है, तत्पश्चात् असंख्य द्वीप-समुद्रोंका उल्लंघन होनेपर अनेक प्रकारके वस्त्रों से किसी एक वस्त्रके नामवाला द्वीप आता है। इस तरह असंख्य-असंख्य द्वीप-समुद्रोंका उल्लंघन होनेपर 'आभरणवस्थगन्धे' इस गाथामें जो जो नाम दिये हैं, उन उन नामोंवाले अनेक प्रकारोमेंसे अनुक्रमसे कोई भी एक द्वीप आता है। यहाँ यह शंका होगी कि-जब असंख्य-असंख्य द्वीप-समुद्रोंके अन्तर पर आभरण-वस्त्रगन्ध आदि नामवाले द्वीप-समुद्र हैं तो बिचमें जो असंख्य असंख्य द्वीप-समुद्र हैं वे किस नामके हैं ? उस शंकाके समाधानमें समझना चाहिए कि-बिचमें वर्तित वे असंख्य द्वीपसमुद्र शंख-ध्वज-स्वस्तिक इत्यादि शुभ नामवाले ही हैं। यहाँ तात्पर्य इतना ही है कि बिचमें असंख्य द्वीप-समुद्र चाहे किसी भी नामका हो ( उसका यहाँ प्रयोजन नहीं है) परन्तु असंख्य असंख्य द्वीप-समुद्रोंके अन्तर पर 'आभरण-वत्थ-गन्ध' इत्यादि गाथामें कथित नामवाले द्वीप अनुक्रमसे आने चाहिए / साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थके हिसाबसे 'रुचकद्वीप' तेरहवाँ आता है। जब कि श्री अनुयोगद्वार सूत्रके हिसाबसे 'रुचकद्वीप' ग्यारहवाँ है / .. 167. जम्बूद्वीपलवगादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः [ तत्त्वार्थ-अः 3] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BEReKIRROR RSHASTRASHISHA 150 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी SHASTRIKA ISRAERISPENS // तिर्छालोकवर्ति क्रमशः द्वीप-समुद्र स्थापना // 1. जम्बूद्वीप. 2. लवणसमुद्र. 3. धातकीखंड. 4. कालोदधिसमुद्र, 5. पुष्करयरद्वीप. मनुष्यक्षेत्रके बाहर६. पुष्करवरसमुद्र. 7. वारुणीवरद्वीप. 8. वारुणीवरसमुद्र. 9. क्षीरवरद्वीप. 10. क्षीरवरसमुद्र. 11. घृतवरद्वीप. 12. घृतवरसमुद्र. 13. इझुवरद्वीप. 14. इनुदरसमुद्र. 15. नन्दीश्वरद्वीप. 16. नन्दीश्वरसमुद्र............अब यहाँसे त्रिप्रत्यवतार द्वीप-समुद्र शुरु होते हैं। 17. अरुणद्वीप. 18. अरुणसमुद्र. 19. अरुणवरद्वीप. 20. अरुणवरसमुद्र. 21. अरुणवरावभासद्वीप 22. अरुणवरावभाससमुद्र. 23. कुंडलद्वीप 24. कुंडलसमुद्र. 25. कुंडलवरद्वीप. 26. कुंडलवरसमुद्र. 27. कुंडलवराव भास द्वीप. 28. कुंडलवरावभाससमुद्र. 29. अरुणोपपातद्वीप. 30. अरुणोपपातसमुद्र. 31. अरुणोपपातवरद्वीप. 32. अरुणोपपातवरसमुद्र. 33. अरुणोपपातवरावभासद्वीप. 34. अरुणोपपातवरावभाससमुद्र. . 35. शंखद्वीप. 36. शंखसमुद्र. 37. शंखवरद्वीप. 38. शंखवरसमुद्र. 39. शंखवरावभासद्वीप. 40. शंखवरावभाससमुद्र 41. रूचकद्वीप. 42. रूचकसमुद्र. 43. रूचकवरद्वीप. 44. रूचकवरसमुद्र. 45. रूचकवरावभासद्वीप. 46. रूचकवरावभासमुद्र. 47. भुजगद्वीप. 48. भुजगसमुद्र. 49. भुजगवरद्वीप. 50. भुजगवरसमुद्र. 51. भुजगवरावभासद्वीप. 52. भुजगवरावभाससमुद्र. 53. कुशद्वीप. 54. कुशसमुद्र. 55. कुशवरद्वीप. 56. कुशवरसमुद्र. 57. कुशवरावभासद्वीप. 58. कुशवरावभाससमुद्रः 59. क्रौंचद्वीप. 60. क्रौंचसमुद्र. 61. क्रौंचवरद्वीप. 62. क्रौंचवरसमुद्र. 63. क्रौंचवरावभासद्वीप. 64. क्रौंचवरावभाससमुद्र. 13. [ गाथा 72-75 / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा " . तिर्छालोकवर्ति क्रमशः द्वीप-समुद्र स्थापना ] जम्बू , जम्बू" जम्बू . पुनः –यहाँसे प्रत्येक शुभ वस्तुके नामवाले सर्व त्रिप्रत्यवतारी असंख्याता द्वीप-समुद्र, तथा प्रत्येक नामवाले द्वीप-समुद्र अन्तर-अन्तरसे असंख्यात आए हैं; जैसे किमूलद्वीप. मूलसमुद्र. मूलवरद्रीप. मूलवरसमुद्र. मूलवरावभासद्वीप. मूलवरावभाससमुद्र. __हार" हार , हार, हार, ' हार , . हार गंगा ,, गंगा, गंगा ,, गंगा , . गंगा ,, मेरु, जम्बू - - - - - - - - - - - - - - - - -अ-सं-ख्य-द्री-प-स-मु-द्रो- - - - इस तरह यहाँ असंख्यात द्वीप-समुद्र आए हैं। उनमें सबसे अन्तिम त्रिप्रत्यवतार सूर्य नामका द्वीप-समुद्र आया है / यथाअसंख्यातवाँ–सूर्यद्वीप. सूर्यसमुद्र. सूर्यवरद्वीप. सूर्यवरसमुद्र. सूर्यवरावभासद्वीप. सूर्यवरावभाससमुद्र. इति त्रिप्रत्पवताराः द्वीपसमुद्राः समाप्ताः // - अब यहाँ अन्तिम प्रत्येक नामवाले पांच द्वीप-समुद्र, वे ये 1. देवद्वीप-देवसमुद्र. 2. नागद्वीप-नागसमुद्र. 3. यक्षद्वीप-यक्षसमुद्र. 4. भूतद्वीप-भूतसमुद्र, अन्तिम 5. स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमणसमुद्र. " HSSEEKER समुद्र स्थापना यन्त्रं // सेसर Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 72-77 _इस तरह कथित त्रिप्रत्यवतार द्वीप-समुद्रोंको सूर्यवरावभास समुद्र तक जानें, तत्पश्चात् 1. देवद्वीप, 2. नागद्वीप; 3. यक्षद्वीप, 4. भूतद्वीप, 5. स्वयंभूरमणद्वीप ( अन्तरालमें उन्हीं नामवाले समुद्र समझ लें) इस प्रकार १६पांच द्वीप-समुद्र हैं। ये द्वीप-समुद्र त्रिप्रत्यवतार नहीं हैं तथा इन नामवाले द्वीप-समुद्र असंख्यात भी नहीं हैं, इतना ही नहीं लेकिन असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें इन नामके दूसरे द्वीप या समुद्र भी नहीं हैं। इसकी यह विशेषता है। अन्तिम स्वयंभूरमणद्वीपके पश्चात् उस नामधारी स्वयंभूरमणसमुद्र आया है। इस समुद्रकी जगती के बाद जिसका अन्त नहीं है ऐसा अलोक आया है। इस तरह सर्व द्वीप-समुद्रोंका स्वरूप बताया। विशेष -- श्री दीवसागरपन्नति' आदिसे जान लें। [72-73-74-75 ] अवतरण-अब सकल द्वीप-समुद्राधिकारकी प्रशस्ति तक पहुंचे हुए ग्रन्थकार महर्षि प्रत्येक समुद्रवर्ती जल कैसे स्वादवाला है ? तथा उसमें रहे मत्स्यादिकका प्रमाण कितना है ? . यह बताते हैं वारूणिवर खीरवरो-घयवर लवणो य हुंति मिन्नरसा / कालो य पुक्खरोदहि, सयंभूरमणो य उदगरसा / / 76 // इक्खुरस सेसजलहि, लवणे कालोए चरिमि बहुमच्छा। पण-सग-दसजोयणसय-तणु कमा थोव सेसेसु / / 77 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 76-77 / / विशेषार्थ-पहला लवणसमुद्र, चौथा वारूणीवर समुद्र, पाँचवाँ खीरवर समुद्र और . छठा घृतवर, इतने समुद्रोका पानी अपने अपने नामोंके अनुसार गुणवाले-अर्थात् भिन्न भिन्न रसवाले हैं अर्थात् लवण-खारा अतः खारापानीवाला वह लवण समुद्र। वारुणीवर मदिरा श्रेष्ठ अर्थात् श्रेष्ठ मदिरा १६०(शराब) समान जल है, जिसमें वह खीरवर 17deg श्रेष्ठ 168. ' देवे नागे जक्खे, भूए य सयंभूरमणे य / इक्किके चेव माणियव्वे, तिपडो आरया नस्थि // 1 // ' [देवेन्द्र० नर० प्र० ] 169. चन्द्रहासादि उत्तम मदिरावाला परन्तु यहाँकी तरह बदबू फैलाते बदबूदार शराब जैसा नहीं। 170. यह जल दूध तुल्य है लेकिन दूधके समान नही है, दूध जैसा. श्वेत वर्णवाला है / चार सेर दूधमेंसे तीन सेर जलाकर, सेर दूध शेष रखकर उसमें शर्करा डालकर पीनेसे जैसी मिठास लभ्य हो वैसी मिठासवाला यह पानी है / तथा चक्रवर्ती जैसेकी गायके दूधसे भी अधिक मिठासवाला, यह पानी पीनेवालेको लगता है / तथापि इस दूधसे दूधपाक आदि नहीं होता / इस समुद्रके उत्तम जलको इन्द्रादिक देव परम तारक -देवाधिदेवोंके जन्मकल्याणक प्रसंग पर अभिषेकमें उपयोग लेते हैं / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध समुद्रजलका विविध प्रकार ] गाथा 76-77 [ 153 दूध जैसे स्वादवाला पानी जिसमें है वह और धृतवर-उत्तम १७१घीके समान स्वादवाला जल जिसमें होता है वह / दूसरा कालोदधि, तीसरा पुष्करवर और चरिम अर्थात् अंतिम स्वयंभूरमण ये तीनों समुद्र प्राकृतिक १७२जल जैसे स्वादवाले हैं और शेष समग्र (असंख्यात) समुद्रस्वाभाविक १७३इक्षु = ईखके रसके समान आस्वादवाले हैं। ___ इन सर्व समुद्रोंमेंसे लवणसमुद्रमें उत्सेधांगुलके मापसे 500 योजनके, दूसरे कालोदधि समुद्रमें 700 योजनके और अंतिम स्वयंभूरमणसमुद्रमें 1000 योजनके उत्कृष्ट प्रमाणवाले व्हेल-मत्स्य (मगरमच्छ ) आदि होते हैं। उसके अतिरिक्त शेष समुद्रोंमें उक्त प्रमाणसे क्रमशः न्यून और भिन्न भिन्न प्रमाणवाले मत्स्यादि होते हैं। ऊपर कथित तीनों समुद्रोंमें विशेषतः बहुत मत्स्य होते हैं, जबकि अन्य समुद्रोंमें अल्प होते हैं। विशेषमें लवणसमुद्रमें सात लाख कुलकोटि मत्स्य, कालोदधिमें नौ लाख कुलकोटि और स्वयंभूरमणसमुंद्रमें साढे बारह लाख कुलकोटि मत्स्य होते हैं / सर्वसमुद्राश्रयी जलस्वाद तथा मत्स्य प्रमाणका यंत्र / नाम जलस्वाद मत्स्य प्रमाण लवण संमुद्रका लवण (खारा) पानी है 500 योजन उत्कृष्ट कालोदधि , मेघ जलवत् 700 यो. " पुष्करवर , छोटे छोटे प्रमाणवाले वारुणिवर ,, मदिराके समान क्षीरवर , दूधके समान घृतवर . " गायके घृतके समान असंख्यात, सर्व इक्षु रसके समान अलग अलग , स्वयंभूरमण , बरसातके वारिवत् | 1000 यो. उत्कृष्ट ,, . 171. यह पानी पीके तुल्य अर्थात् घी नहीं परंतु उसके जैसे स्वादवाला होता है, क्योंकि घी जैसा होता तो उससे पूरी आदि तली जा सकती है, परंतु वैसा बनता नहीं / __ 172. अतिशय निर्मल, सुंदर और हल्का (आहार शीघ्र पचावे वैसा) और अमृत जैसी मिठासवाला पानी समझें / 173. यह पानी ईखके रस जैसा स्वादवाला, परंतु ईखका रस न समझें / यह पानी चतुर्जातक (तज, इलायची, केसर और कालीमिर्च) वस्तुको, चार सेर ईखके रसमें डालकर उबालते उबालते तीन सेर जल जाने पर एक सेर शेष रहने पर उसे पीनेसे, उसमें जिस प्रकारकी मिठासका अनुभव प्राप्त हो, उससे अधिक मिठास इन सर्व समुद्रोंके जलकी जानें / बृ. सं. 20 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 76-77 __ प्रत्येक द्वीप-समुद्र वज्रमय जगतीसे लपेटे हुए हैं, जिस तरह नगरके रक्षणार्थ किला होता है, उसी तरह यह जगती मूलमें बारह योजन, मध्यभागमें आठ योजन और शिखर पर चार योजन चौड़ी होती है तथा कुल वनरत्नसे शोभित यह जगती आठ योजन ऊँची होती है। इस जगती पर अनेक प्रकारके विविध वर्णमय रत्नोंसे सुशोभित पद्मवर नामकी वेदिका है / यह वेदिका दो कोस ऊँची और 500 धनुष विस्तारवाली है / इस वेदिकाकी दोनों बाजू पर उत्तम प्रकारके भिन्न भिन्न प्रकारके वृक्षोंवाले, अनेक प्रकारसे सुशोभित श्रेष्ठ वन आए हैं / इन वनखंडोंमें व्यन्तर देव-देवियाँ अनेक प्रकारकी क्रीडाएँ करते हैं। - इस जगतीके मध्यभागमें चारों ओर घूमता हुआ उक्त वेदिकाके प्रमाणवाला गवाक्षकटक (झरोखा) आया है। इस कटकमें व्यन्तर देव-देवियाँ समुद्रकी लीला-सुन्दर लहरोंको अनुभूत करके, विविध प्रकारकी हास्यादि क्रीडाएँ करते हैं और अनेक प्रकारके सुखोंका अनुभव करते हैं / [76-77] // दूसरे भवनद्वारमें द्वीप समुद्राधिकार पूर्ण हुआ // Pancarcancercencancercaxcercareerrang // द्वोप-समुद्राधिकारे तृतीयं लघु परिशिष्टम् नं-३ // Searanewwermewo जैनदृष्टिसे ज्वार-भाटाका कारण तिर्छालोकवर्ती असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमेंसे सिर्फ एक लवणसमुद्र में ही ज्वार-भाटाका प्रसंग मिलता है / हम एक लाख योजनके बने जंबूद्वीपमें आए हुए छोटेसे भरतक्षेत्रमें रहते हैं / इस भरतक्षेत्रकी ( उत्तर दिशाके सिवा ) तीनों दिशाओं में लवणसमुद्र होनेसे इस भरतक्षेत्रवर्ती मानवोंको लवणसमुद्र में होते ज्वार-भाटाके प्रसंग विशेष रूपमें देखने में आते हैं / लवणसमुद्र जंबूद्वीपकी चारों बाजुओंसे परिवेष्टित वलयाकारमें आया है और उसका चक्रवाल-एक बाजूका (चौड़ाई) विष्कंभ दो लाख योजन प्रमाण है / इस समुद्र में एक हजार योजनके विस्तारवाली और समभूतलाकी समसतहसे सोलह हजार योजन और समुद्रतलसे सत्रह हजार योजन ऊँची जलवृद्धि होती है / इस जलवृद्धिके नीचे चारों दिशाओं में एक एक बडे पातालकलश आये हैं / ये कलश बडे घटके आकार के समान और वज्ररत्नके हैं / इसके ठीकरेकी मोटाई एक हजार योजनकी, नीचेसे दस हजार योजन चौडे और उतने ही चौडे ऊर्ध्वस्थानमें भी अर्थात् दस हजार योजन चौडे मुखवाले, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरती-ओटका कारण क्या है ? ] गाथा 76-77 [ 155 मध्यभागमें चौडाईमें एक लाख योजन भूमिमें गए हुए हैं, जिससे समभूमिकी समसतहसे एक लाख योजन उपरांत एक हजार योजन प्रमाण पूर्ण होने पर नीचेके कलशका तलवा आता है / और ऊपरसे चारों कलश समसतहमें रहते हैं। __पूर्व दिशाके कलशका नाम 'वडवामुख' दक्षिण दिशाका ‘केयूप' पश्चिम दिशाका 'यूप' और उत्तर दिशाका 'ईश्वर' इस तरह महाकलश आए हैं / एक कलशसे दूसरे कलशका अंतर 219265 योजन है / और उस हरएक अंतरकी चौड़ाई दस हजार योजन विस्तारवाली है / इस विस्तारमें लघुपातालकलशोंकी नौ पंक्तियाँ समा जाती है। (चित्र देखनेसे विशेष खयाल आएगा) इन नवों पंक्तियों के मिलकर एक कलशके आंतरेके 1971 लघुपातालकलश हैं, इस तरह चारों कलशके आंतरेकी नवों पंक्तियोंके कुल 7884 लघुपातालकलश आए हैं / प्रत्येक कलश पर आधे पल्योपमके आयुष्यवाले अधिपति देव होते हैं / ये लघुपातालकलश बडे चार कलशोंकी अपेक्षासे प्रमाणमें उनसे सौवें भागके जानें / ये कलश सचित्त पृथ्वीके वनरत्नमय हैं। इन चारों महापातालकलशों पर अनुक्रमसे एक पल्योपमके आयुष्यवाले काल-महाकालवेलंब-प्रभंजन-ये चारों देव अधिपतिके रूपमें हैं। इन चारों महाकलशोंकी एक लाख योजनकी गहराईको तीन भागों में बाँटनेसे 333333 योजन प्रत्येक भागमें प्राप्त होता है। उनमें प्रथम भागके 333333 भागमें केवल वायु भरा है, मध्यके 333333 भागमें वायु और जल दोनों होते हैं; और ऊपरके 333333 भागमें केवल जल होता है / (लघु कलशोंमें भी यही क्रम समझे, परन्तु प्रमाण कम समझें / ) _ अब नीचेके दोनों भागमें वायु होनेके कारण वायुके स्वभावके अनुसार-कुदरती तौर पर ही उनमें तेज हवा चलती है और वह वायु अत्यन्त क्षुब्ध होता है / क्षुब्ध होनेके कारण अगल-बगल निकलनेका मार्ग भी चाहिए और मार्ग तो है नहीं, अतः वायु ऊँचा उछलता है / (जैसे मनुष्योंके उदर में रहा श्वासोच्छ्वास-प्राणवायु स्वाभाविक ऊर्ध्व होकर उच्छ्वासरूपमें बाहर निकलता है वैसे।) बाहर निकलने चाहता ऐसा वायु नीचेसे उछलता हुआ तीसरे भागमें रहे जलको और परंपरासे कलशके ऊपरके जलको उछालता है, जिससे समुद्रगत 16000 योजनकी शिखारूपमें रहा ऊँचा जल वह भी शिखाके अंतसे ऊपर दो कोस तक वृद्धि पाता है / यह जलवृद्धि कुदरती तौर पर और वेलंधरनागकुमार देवोंके 174 तीनों दिशावर्ती प्रयत्नसे तीनों बाजू पर और समुद्र के बाहरकी प्रचंड हवासे आगे बढ़नेसे रुक जाती है क्योंकि वे देव बडे कलछे ( करछुल )से आगे बढ़ते जलको रोकते जाते हैं / ऐसा नहीं होता तो उस समुद्रवेलकी वृद्धि अनेक नगरोंको एक ही थपेडे में 174. इस जल्वृद्धिको रोकनेवाले नागकुमार निकायके 174000 देव होते हैं / श्री संघके प्रबल पुन्योदयसे ही और तथाविध जगत् स्वभावसे ही जलवृद्धि वृद्धि पानेसे रुक जाती है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 76-77 जलमय बना देती / परंतु समुद्र मर्यादाका उल्लंघन करता ही नहीं है, जिससे नगरादि स्थल वगैरह जलमय नहीं हो सकते, यह उसका अनादिसिद्ध स्वभाव है / इस कलशका वायु जब शान्त होता है तब जलवृद्धि और दूरवर्ती गया छिछला (उछला) जल, क्रमशः घटता हुआ स्वस्थान पर आ जाता है / यह जलवृद्धि हररोज दिनमें दो बार होती है, उसमें भी अनुक्रमसे अष्टमी-चतुर्दशी और पूर्णिमा आदि दिनों में तो वह वायु स्वाभाविकरूपसे अत्यन्त-विशेष क्षुब्ध होता है, अतः जलवृद्धि उन दिनोंमें बहुत प्रबल होती है / इस तरह पातालकलशमें रहे वायुके क्षोभसे सोलह हजार योजन ऊँची लवणसमुद्रकी जलशिखाके ऊपर दो कोस ऊँची जलकी वेलका बढ़ना और उसके परिणामस्वरूप लवणसमुद्रके हरएक विभागमें तरंगों-लहरोंके साथ पानीका जंबूधातकीकी जगतीकी ओर बढ़ना 'ज्वार' कहा जाता है और उसके शांत होने पर 'भाटा' १७५कहा जाता है। .. प्रश्न-लवणसमुद्र में होते ज्वार-भाटाके साथ यहाँ के समुद्रका क्या सम्बन्ध है ? उत्तर-यहाँ जो समुद्र हम देखते हैं उसे हम अपनी स्थूल दृष्टिसे एक अथाह समुद्र जरुर कह सकते हैं लेकिन लवणसमुद्रकी अपेक्षासे बड़ा दिखाई देनेवाला यह समुद्र तो एक खाडी मात्र है / क्योंकि यह समुद्र उसी लवणसमुद्रकी ही नहर रूपमें आया है, ऐसा नीचेकी हकीकत साबित करती है / असंख्य वर्ष पहले हो गए सगर नामके चक्रवर्तीने सौराष्ट्र (काठियावार )में वर्तित श्री शQजयपर्वत पर रहे मणिरत्नमय जिनबिबोंका-कलिकालके जीवोंकी बढ़ती हुई लोभवृत्तिके कारण-रक्षण करनेके लिए इस शाश्वत और महापवित्र पहाड़की चारों ओर मैं समुद्र रक्खू / जिससे इन रत्नमयबिंबोंका भविष्यमें लोभासक्त होनेवाले पंचमकालके जीवोंसे रक्षण मिल सके, इसी भावनासे लवणसमुद्रके अधिष्ठायक सुस्थित देवका आराधन करके, लवणसमुद्रके जलको श→जयपर्वतकी चारों ओर रखनेके लिए उस देवसे फरमान किया, आज्ञावश हुए देवने जंबूद्वीपके पश्चिमद्वारसे लवणसमुद्रका जल घुमाया, और ठेठ हालमें शत्रुजय-पालीतानाके पास आए तालध्वज पर्वत (गाँव-तलाजा) तक लाए, इतने में इन्द्रमहाराजने भरतमें वर्तित भावोंका निरीक्षण करनेका उपयोग रक्खा, इसे रखते ही इस अनिच्छनीय घटनाको देखकर तुरन्त ही स्वर्गमेंसे पृथ्वी पर आकर उस चक्रवर्तीको उद्देश्य कहा, कि हे सगर ! कलिकालमें होनेवाले जीवोंके लिए श्रीसिद्धाचलतीर्थ इस संसारसमुद्रमेंसे __175. यदि केवल चन्द्रकलाकी हानि-वृद्धि के लिए ही ज्वार-भाटा होता हो तो चन्द्रकलासे बिलकुल रहित अमावसकी रात्रिको ज्वारका प्रभाण क्यों अधिक होता है ? और अक्षयतृतीया आदि ज्वारके दिनोंमें चन्द्रकलाकी वृद्धिका कारण कहाँ रहा ? और दिनमें भी ज्वार-भाटा होता है तो उस समय चन्द्रकला तो दीखती ही नहीं है तो उसका क्या कारण ? आदि विचारणीय है / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातद्वीपका मंतव्य और उसका निरसन ] गाथा 76-77 [157 छूटनेका अनमोल कारण है / यदि कलिकालके जीव इस तीर्थके दर्शन नहीं कर पाएँगे तो उन्हें मोक्ष पानेका दूसरा प्रबल साधन क्या? यह शत्रुजय पर्वत तो अनंता सिद्धजीवोंका स्थान होनेसे इसकी रजे रज भी पवित्र है / हम भी बोलते हैं कि 'कंकड कंकड अनंता सिद्धया।' इस पर्वतको स्पर्श करनेवाले किसी भी जीवमात्रको अवश्य 'भव्य 'कहा है / (मोक्ष प्राप्त करनेकी योग्यता वाले) सर्व पर्वतों में यह पहाड पवित्र है। इसके विमलाचल, शत्रुजय, सिद्धक्षेत्र इत्यादि अनेक नाम हैं, इसलिए यदि इस तीर्थकी चारों ओर समुद्र रक्खा जाएगा तो ऐसे प्रबल आलंबनके बिना कलिकालके भव्यात्माओंकी क्या दशा होगी? ___ इस तरह उनके समक्ष सर्व माहात्म्यका वर्णन करते ही तुरंत उस समुद्रको शत्रुजयकी चारों ओर रखनेसे रुक जाते हैं, और अतः अब भी देख सकते हैं कि वह समुद्र तलाजा तक आया है और मानो वहाँसे लौट गया हो ऐसा लगता है / वहाँ सामने किनारा भी दीखता है। [विशेष जानकारीके लिए देखिए : शत्रुजयमाहात्म्य-सर्ग 8 ] यह आया हुआ समुद्र जिसे हम देखते हैं उसके विभागोंका परिचय हो सके इसलिए उन उन स्थानोंकी अपेक्षासे जनताने अनेक नाम भी रक्खे हैं / इस तरह इस दृश्यमान समुद्रका संबंध लवणसमुद्रके साथ होनेसे ऐसी महान जलवृद्धिका जल सर्वत्र असर करता हो उसमें सोचने जैसा रहता नहीं है / ये पातालकलश अन्य किसी समुद्रमें नहीं हैं / जिससे लवणसमुद्रके सिवा अन्य समुद्रोंमें ज्वार-भाटा भी नहीं है / ___ति लोकवी असंख्यात द्वीप-समुद्र आए हैं / अन्य दर्शनकार सात द्वीप (और सात) समुद्र मानते हैं, ऐसा माननेका क्या कारण हुआ यह आगे बताया है, परंतु यहाँ इतना बताना जरूरी है कि-सर्वज्ञ भगवंत कदापि अन्यथा बोलते ही नहीं हैं / जिन्होंने रागद्वेषका निर्मूल क्षय करनेके बाद ही, जो वचनोच्चार किया हो वह सर्वथा सत्य ही होता है, क्योंकि असत्य बोलनेके कारणों का उन्होंने सर्वथा क्षय किया है, उन सर्वज्ञ प्रभुके वचनमें संशयको तो स्थान ही नहीं होता / जिन्होंने अल्पबुद्धि या अल्पज्ञानसे जिस जिस वस्तुको जितने रूपमें देखी उतनी कही, अतः वह वस्तु उतनी ही है ऐसा कैसे कहा जाए ? सात द्वीपका मन्तव्य ___ इन सात द्वीप-समुद्रोंकी प्ररूपणा भगवान महावीर महाराजके समकालीन शिवनामा राजर्षिसे चली आती दीखती है / उस राजर्षिको उग्र तपस्या तपते तपते अल्पप्रमाणका विभंगज्ञान हुआ / उस ज्ञानसे यावत् सात द्वीप-समुद्र तो वे देख सके / परंतु आगे देखनेकी शक्ति जितना ज्ञान नहीं होनेसे न देख सके, अतः उस राजर्षि ने 'सात द्वीपसमुद्र ही मात्र लोकमें हैं,' ऐसी प्ररूपणा सर्वत्र फैलाई / लोग तो भेड़ियाधसान जैसे हैं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 76-77. अतः यह हकीकत व्यापक हो गई / यह बात भगवान महावीर महाराजने जानी और सर्वज्ञ भगवन्तने उस वस्तुका घटस्फोट किया। यह बात कर्णोपकर्ण शिवराजर्षि ने भी जानी। उन्होंने भी भगवानके समीप आकर कुछ १७प्रश्न किये / अंतमें उनको समाधान हुआ और अपनेको हुई इस शंकाके निवारण करनेवाले उन परमकारुणिक परमात्मा १७"महावीरदेवके प्रति परमभक्ति भी जागृत हुई / भावना भावते उन्होंने भी उस वस्तुको देख सकनेको समर्थ ऐसा केवलज्ञान प्राप्त किया जिससे स्वशंका भी दूर हुई। परंतु पूर्व प्रसरी हुई बात प्रबल स्वरूपमें फैली थी अतः वह प्रवाह अब तक चला आया है / इस बातको मान्य रखनेवाले क्षणभर सोचे कि जब तक उस राजर्षिको ज्ञान नहीं हुआ था और द्वीप-समुद्रकी प्ररूपणा नहीं की थी तब द्वीप-समुद्र के बारेमें वे क्या मानते होंगे? अरे ! वर्तमान उदाहरण सोचे कि, जब कोलंबसने अमेरिका खण्ड नहीं ढूँढा था, तब तक पृथ्वीके बारे में क्या . . मानते थे ? ज्यों ज्यों संशोधनकार्यका विकास होता गया त्यों त्यों वे आगे बढ़ते गए और कुछ साल पहले पाश्चात्योंने अमेरिकासे भी १७८आगेकी भूमिका संशोधन किया है और अब भी संशोधन कर रहे हैं। वैसे यहाँ भी जितने जितने पैमाने में ज्ञानशक्तिके विकासकी वृद्धि होती है उतने उतने पैमानेमें अतीन्द्रिय वस्तुएँ भी अवश्य आत्मसाक्षात् होती जाती है, अतः वस्तुका अभाव तो नहीं ही कह सकते / अतीन्द्रिय वस्तुको अगर. श्रद्धागम्य न मानी जाए और उसके लिए यद्वातद्वा दलीलें पेश की जाएँ तो कैसे चलेगा? दृष्टिसे न दिखाई देती ऐसी बहुत-सी बातें जैसे दूसरोंके कहनेपर मान ही लेते हैं / वैसे हमें आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान न होनेसे हरएक वस्तु हमें आत्मप्रत्यक्ष नहीं होती, उस वक्त जिन्हें आत्मप्रत्यक्ष हुई हो तो उनके कहनेसे हमें उसे मान्य रखनी ही पड़ती है / अतीन्द्रिय ऐसी वस्तुएँ भी श्रद्धासे और युक्तिसे मान्य न रखें तो परभवके बारेमें भी शंका उत्पन्न होगी और नास्तिक वादियोंके मतको मानना पडेगा / जैन सिद्धान्तकारोंने बालजीवोंके हितार्थे आश्चर्यरूप ऐसे पदार्थ भी युक्ति-श्रद्धागम्य हो सके इसलिए अनेकानेक युक्तियां दी हैं, परंतु जो पदार्थ युक्तिसे भी समझाये न जा सके ऐसे हों वहाँ 'श्रद्धा' ही प्रमाण है / अतः ही क्षेत्रसमासके कर्ता कहते हैं कि 'सेसाण दीवाण तहोदहीणं, विआरवित्थारमणोरपारम् / सया सुयाओ परिभावयंतु, सर्वपि सम्वन्नुमइक्कचित्ता // 1 // ' अर्थ-'शेष द्वीप-समुद्रोंकी बुद्धिसे गम्य न हो ऐसी अपार विचारणाके सर्व स्वरूपको 176. देखिए भगवतीसूत्र श. 11. उ. 9 177. शिवराजऋषि विपर्यय देखतो रे, द्वीप सागर सात सात रे, वीरपसाये दोष विभंग गयो रे, प्रकट हुओ अवधिगुण विल्यात रे! 178. न्युझीलैन्ड देश / [ज्ञान पं०. देववंदा ! Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य-चन्द्र सम्बन्धमें समज ] गाथा 76-77 [ 159 सर्वज्ञके मतसे एकचित्त होकर श्रुतके अनुसार सोचें'। इस कथनमें गंभीर उद्देश्य समाविष्ट है / महर्षि ने हमें संक्षिप्तमें समझा दिया कि-अगर आगमप्रमाण या सर्वज्ञप्रमाण वस्तुओं पर श्रद्धा नहीं रखेंगे, तो समग्र चौदह राजलोकका स्वरूप ऐसा आश्चर्यकारक है कि जो स्वरूप अन्य किसी भी दर्शनमें किसी भी स्थान पर नहीं है, मात्र जैन दर्शनमें ही है; (क्योंकि यह सर्वज्ञ भगवंतका कथन है।) फिर तो उन पर श्रद्धा ही नहीं रहेगी, क्योंकि जहाँ युक्तियाँ काम नहीं आतीं ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थोको युक्तिसे कैसे समझाए जाएँ ? और अपनी बुद्धिकी मर्यादा कितनी ? कूप-मंडूक जितनी, और ज्ञानीके ज्ञानकी अगाधता कितनी ? गाँवोंके ग्रामीण लंदन, पेरीस, न्यूयोर्क जैसे शहरोंकी महानता और सुरम्यताको ग्राम्य दृष्टिसे समझ भी क्या सके ? अतीन्द्रिय पदार्थोंकी श्रद्धाके लिए 'नंदीवृत्ति में श्रीमान् मलयगिरिजी महाराजने भी कहा है कि अंतीन्द्रिये च संसारे, प्रमाणं न प्रवर्तते' ___ इस बचनका अनुसरण करके हे भव्य आत्माएँ ! आप भी सर्वज्ञभाषित वचनमें श्रद्धालु हों; जिस श्रद्धाको पाकर, परंपर कर्मक्षय करते करते केवलज्ञान प्राप्त करके, स्वतः सर्वज्ञता प्राप्त करके, सर्व वस्तुओंको आत्मसाक्षात् करनेवाले हो सकों / विशेषतः इन असंख्यात द्वीप-समुद्रोंकी रत्नमय जगतीओंका प्रमाण एक समान होनेसे देवोंको अर्थवा वैसे विशिष्टज्ञानियोंको वह कितना आश्चर्यजनक लगता होगा ! इस प्रकार तीसरा परिशिष्ट पूर्ण हुआ // DOR preocacracacavacaco.cacare सर्वद्वीपसमुद्रायाश्रयी चन्द्र-सूर्यसंख्याकरण है तथा अन्तरविचार / Scemencemen e miercenrama . अवतरण-पहले असंख्यात द्वीप-समुद्रका वर्णन करनेके बाद पुनः ज्योतिषी निकायका विषय ग्रहण करते हुए प्रथम मनुष्यक्षेत्रमें कितने चन्द्र-सूर्य होते हैं ? यह बतानेसे पहले असंख्य द्वीप-समुद्रोंमेंसे, कौनसे द्वीप-समुद्र में कितने-कितने चन्द्र-सूर्य होते हैं ? इसके लिए दो गाथाओं द्वारा 'करण' उपाय बताते हैं / ... इस विषयमें तीन मत प्रवर्तित हैं। उनमें ग्रन्थकार महर्षि प्रथम अपना मत बताते हैं कि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 78-79 १७दो ससि दो रवि पढमे, दुगुणा लवणम्मि धायईसंडे / बारस ससि बारस रवि, तप्पभिइ निदिट्ठ ससि-रविणो / / 78 / / तिगुणा पुबिल्लजुया, अणंतराणंतरंमि खित्तम्मि / कालोए बायाला, विसत्तरि पुक्खरद्धम्मि // 79 // गाथार्थ-पहले जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र और दो सूर्य होते हैं, दूसरे लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य, धातकी खण्डमें बारह चन्द्र और बारह सूर्य होते हैं। इस धातकीखण्डके चन्द्र-सूर्यकी संख्याको तीन गुनी करनेसे जो संख्या आवे उस संख्या में पहलेके द्वीप-समुद्रोंके चन्द्र-सूर्योंकी संख्याको (अर्थात् जम्बू और लवणके कुल मिलाकर छः छ: चन्द्र-सूर्यकी संख्याको) जोड़नेसे बयालीस चन्द्र-सूर्य कालोदधि-समुद्र में हैं / इस. उद्भुत संख्याको त्रिगुनी करके पूर्वके द्वीप-समुद्रगत सूर्य-चन्द्रोंकी संख्याको जोड़नेसे जो संख्या प्राप्त हो उसका आधा करनेसे अर्ध पुष्करवर द्वीपमें ७२-७२की चन्द्र-सूर्योंकी संख्या होती है / / / 78-79 // विशेषार्थ-पहले जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र और दो सूर्य हैं, उनमें दिवस रात्रिको उत्पन्न करनेवाले दो सूर्य हैं और तिथियोंको उत्पन्न करनेवाले दो चन्द्र हैं / इस जंबूद्वीपमें ज्योतिषीके विमान चन्द्र और सूर्य संबंधी ही हैं ऐसा नहीं है परंतु प्रत्येक चन्द्रके परिवार रूप 88 ग्रहोंके, 28 नक्षत्रोंके और 66975 कोडाकोडी तारों के विमान भी हैं और वे रत्नप्रभागत समभूतला पृथ्वीसे 790 योजन जानेके बाद शुरू होते हैं और 110 योजनमें समाप्त होते हैं / अढाईद्वीपवर्ती मनुष्यक्षेत्रमें कृत्रिम नहीं परंतु स्वभावसिद्ध ये ज्योतिषी विमान, अनादिकालसे अचल ऐसे मेरूपर्वतकी चारों ओर परिमंडलाकार गतिसे (वलयाकारमें ) परिभ्रमण करते, स्वप्रकाशित क्षेत्रोंमें दिन और रात्रियोंके विभाग करते हैं, इतना ही नहीं किन्तु अढाईद्वीपरूप इस मनुष्यक्षेत्रमें अनन्तसमयात्मक जो कालद्रव्य है / वह इस सूर्यचन्द्रकी परिभ्रमणरूप क्रियासे ही व्यक्त होता है और वर्तनादि अन्य द्रव्योंके परिणामकी अपेक्षासे रहित जो अद्धाकाल है वह भी इस मनुष्यक्षेत्रमें ही वर्तित है / 80 179. तुलना करें-'धायइसंडप्पभिइ, उद्दिट्ठा तिगुणिया भवे चंदा / आइल्लचंद सहिया, ते टुति अणंतरं परतो // 1 // आईच्चाणंपि भवे, एसेव विही अणेण कायवो / दीवेसु समुद्देसु य, एमेव परंपरं जाण // 2 // ' 18.. देखिए- सूरकिरियाविसिट्ठो, गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो / अद्धाकालो भन्नइ, समयखेत्तम्मि समयाइ // 1 // ' [ विशेषावश्यक भाष्य ] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य-चन्द्र सम्बन्धमें समज ] गाथा 78-79 [ 161 साथ ही समग्र मनुष्यक्षेत्रमें समय-आवलिका-मुहूर्त-दिवस-मास-संवत्सरादि सर्व कालको करनेवाला मुख्यरूपसे चरसूर्य ( की गतिक्रिया) ही है, और उस चर सूर्यकी गतिसे उत्पन्न होते कालकी अपेक्षा रखकर ज्ञानी महर्षियोंने मनुष्यक्षेत्रका समयक्षेत्र ऐसा दूसरा नाम भी दिया है / विशेषतः यह समय-आवलिकादि सर्व व्यावहारिक काल इस मनुष्यक्षेत्रमें ही है। अढाईद्वीप बाहरके द्वीपसमुद्रोंमें यह व्यावहारिक काल वर्तित नहीं है, परंतु वह अढाईद्वीपके बाहरके क्षेत्रों में किसी भी स्थान पर पंचास्तिकायके पर्यायरूप पारिणामिक काल (कालाणुद्रव्य) तो है ही। __ऊपरके लेखनसे कदाचित् किसीको शंका होनेका संभव है कि जब व्यावहारिक काल अढाईद्वीप बाहरका नहीं है तो उस अढाईद्वीपके बाहर रहनेवाले तिर्यंचोंका और देवनारकोंका आयुष्य आदि स्थितिकालका प्रमाण जिन सिद्धान्तोंमें आता है वह प्रमाण किस कालकी अपेक्षासे समझे ? इस शंकाके समाधानमें समझना कि 'चक्रकीलिका' न्यायसे समयक्षेत्रमें रहे हुए व्यावहारिक काल द्रव्यसे उस उस वस्तुका पारिणामिक काल माना जा सकता है। उस समयादि कालके करनेवाले सूर्योमेंसे एक सूर्य मेरुकी दक्षिणदिशामें हो तब दूसरा सूर्य उत्तरदिशामें होता है / एक चन्द्र मेरुकी पूर्वदिशामें हो तब दूसरा पश्चिमदिशामें होता है / इस तरह उनकी परस्पर प्रतिपक्षी दिशामें चार क्रियाएँ होती हैं। ये दो चन्द्र और दो. सूर्य जंबूद्वीपमें रहे हुए क्षेत्रोंको प्रकाशित करते हैं / एक चन्द्र-सूर्य कितने क्षेत्रको प्रकाशित करे ? यह तो आगे प्रसंग उपस्थित होने पर कहा जाएगा / लवणसमुद्र जम्बूसे द्विगुण (2 लाख ) प्रमाणवाला होनेसे उसमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या भी जम्बूके चन्द्र-सूर्यकी संख्यासे द्विगुण अर्थात् चार चन्द्र और चार सूर्यकी हैं / तत्पश्चात् धातकीखण्डका क्षेत्र उससे भी द्विगुण (चार लाख योजन ) है / इस धातकीखण्डमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या बारह-बारहकी हैं / . अब कालोदधि समुद्रसे अन्तिम स्वयंभूरमण तकके द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाननेका 'करण' बताते हैं। ___ जिन द्वीप-समुद्रोंके चन्द्र-सूर्य आदिकी संख्याका प्रमाण निकालना हो तब उसके पूर्वका जो द्वीप अथवा समुद्र हो, उसमें वर्तित चन्द्रों या सूर्योकी संख्याको तीन गुनी करें, और जिस द्वीपके चन्द्र और सूर्यकी संख्याको तीनगुनी की है उसमें उसके पूर्वके (जम्बूद्वीपसे ____ 181. देखिए–'समयावलिकापक्ष-मासयनसज्ञकः / ___ नृलोक एव कालस्य, वृत्तिर्नान्यत्र कुत्रचित् // 1 // ' . सं. 21 . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 78-79 ~ ~ लेकर ) सारे द्वीप-समुद्रोंके चन्द्र-सूर्योकी संख्याको जोड़े / अब ऐसा करनेसे जो संख्या प्राप्त होती है उस संख्याको इष्टद्वीप या इष्टसमुद्रके चन्द्र-सूर्योकी जाने / उदाहरण स्वरूप कालोदधि समुद्रके चन्द्र-सूर्योकी संख्या अगर जाननी हो तो, धातकीखण्डके बारह चन्द्र-बारह सूर्यकी संख्याको तीन गुनी करनेसे (12 4 3 = 36 ) छत्तीस आते हैं, उनमें जम्बू और लवणके मिलकर छः चन्द्र और छः सूर्यकी संख्याको जोड़नेसे (36 + 6 = 42) बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य आठ लाख योजनके विस्तारवाले कालोदधि समुद्रमें आते हैं। उसी तरह अर्ध पुष्करवर द्वीपके लिए भी समझे / वह इस तरह-कालोदधि समुद्रके-४२ चन्द्र और 42 सूर्यके १८२तीन गुना करके पूर्वके द्वीप-समुद्रोंमेंसे 18 चन्द्र और 18 सूर्य जोड़नेसे सोलह लाख योजनके विस्तारवाले पुष्करवरद्वीपमें 144 चन्द्रों और उतने ही सूर्योकी संख्या प्राप्त होती हैं / हमें तो अब अर्धपुष्करद्वीपके चन्द्र-सूर्यकी संख्या इष्ट होनेसे १४४का आधा करनेसे 72 चन्द्र और 72 सूर्यकी संख्या 18 पुष्करार्धमें प्राप्त होती हैं / इस ‘करण 'से असंख्य द्वीप-समुद्रमेंसे किसी भी इष्ट द्वीप-समुद्रकी चन्द्र-सूर्यकी संख्या आसानीसे प्राप्त हो सकती है / मनुष्यक्षेत्रके बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें वर्तित चन्द्रों-सूर्योका परस्पर, अंतर संग्रहणीकी गाथा ६५-६६वीं के अनुसार पचास हजार योजनका होनेसे और क्षेत्रविस्तार विशेष प्रमाणका होनेसे, चन्द्र-सूर्योकी समश्रेणि अथवा परिरयश्रेणि सम्बन्धी व्यवस्थाके लिए किसी भी प्रकारका निर्णय करना सुदुष्कर ( बहुत ही कठिन ) लगनेसे प्रति द्वीप-समुद्रमें चन्द्रसूर्योकी संख्या बतानेवाला यह 'त्रिगुणीकरण' मनुष्यक्षेत्रमें ही समझे या प्रत्येक द्वीपसमुद्र के लिए समझे ? इस प्रकारका तर्क अगर किसी विचारशील व्यक्तिको हो तो वह अनुचित नहीं है, तो भी टीकाकारके रूपमें ख्यातनामा श्री मलयगिरिमहर्षि ने तथा चन्द्रीया टीकाकारने श्रीसंग्रहणीवृत्तिमें बताए निम्न पाठसे 'त्रिगुणीकरण 'के विषयके लिए पूर्वोक्त तर्क-विचार करना वास्तविक नहीं लगता / वह पाठ इस तरह है 'मूलसंग्रहण्यां क्षेत्रसमासे च सकलश्रुतजलधिना क्षमाश्रमणश्रीजिनभद्रगणिना सर्वद्वीपोदधिगतचन्द्रार्काभिधायकमिदमेव करणमभिहितं, यदि पुनर्मनुष्यक्षेत्राबहिश्चन्द्रादित्यसङ्ख्या१८२. 'ससिरविणो दो चउरो, बार दु चत्ता विसत्तरिअ कमा / जम्बूलवगाइसु पंचसु, गणेसु नायव्वा // 1 // ' [ मंडलप्रकरण ] 183. 'चउ चउ बारस बारस, लवणे तह धायइम्मि ससि सूरा / परओ दहिदीवेसु, तिगुणा पुब्बिल्लसंजुत्ता // 1 // ' [ क्षेत्रसमास | Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य-चन्द्र सम्बन्धमें समज ] गाथा 78-79 [ 163 ऽन्यथा स्यान् तत आचार्यान्तरैरिव तत्प्रतिपत्तये करणान्तरमप्यभिहितं स्यात् , न चाभिहितं, ततो निश्चीयते सर्वद्वीपोदधिष्विदमेव करणमनुसतव्यमिति, केवलं मनुष्यक्षेत्राबहिश्चन्द्रार्काः कथं व्यवस्थिता इति चन्द्रप्रज्ञप्त्यादौ नोक्तम् ? ' इत्यादि / ___ अर्थ-" मूल संग्रहणी तथा क्षेत्रसमासमें समनश्रुतमहोदधि श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणजीने सर्व द्वीप-समुद्र में चन्द्र-सूर्यकी संख्या बतानेवाला यह 'त्रिगुणकरण' ही कहा है। यदि मनुष्यक्षेत्रसे बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या दूसरी तरह होती तो जैसे दूसरे आचार्योने कहा है वैसे उस संख्याको बतानेवाला (त्रिगुणकरणके सिवा ) दूसरा कोई करण भी बताया होता और कहा तो नहीं है; अतः निश्चय होता है कि सर्व द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाननेके लिए यह त्रिगुणकरण ही समझना है। सिर्फ मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्योकी व्यवस्था किस प्रकार है ? यह चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों में नहीं कहा है।" ___ साथ ही श्रीमान् मलयगिरिमहाराजने और चन्द्रीया टीकाकार महर्षि ने श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जीवाभिगम प्रमुख सूत्रों के आधार पर पूर्वोक्त उल्लेख किया हो ऐसा स्पष्ट समझमें आता है; क्योंकि श्री गौतममहाराजने भगवान महावीरदेवसे पूछे प्रभोंके उनसे मिले उत्तरों में पुष्करवरद्वीपमें 144-144 चन्द्र-सूर्यकी संख्या बताई है / यह विषय श्रीजीवाभिगमसूत्रमें सुविस्तृत रूपसे बताई है। पूर्वोक्त 144-144 चन्द्र-सूर्यकी संख्या 'त्रिगुणकरण 'से गिनती की जाए तो ही प्राप्त होती है / श्री चन्द्रप्रज्ञप्तिमें बताया है कि 'चोआलं चन्दसयं चोआलं चेव सूरिआण सयं / पुक्खरवरंमि दीवे चरंति ए ए पभासेंता // 1 // ' अर्थात् पुष्करद्वीपमें 144-144 चन्द्र-सूर्य होते हैं / श्री ज्योतिषकरंडकमें भी कहा है कि-'धायइसंडप्पभिई उहिट्ठा तिगुणिआ भवे चन्दा / आइल्लचन्दसहिआ तइ हुंति अणंतरं परतो // 1 // आइच्चाणं पि भवे एसेव विहि अणुणगो सव्वो / दीवेसु समुद्देसु य एमेव परंपरं जाण // 1 // ' अर्थात् उन्हें भी सर्व द्वीप-समुद्रोंमें यह 'त्रिगुणकरण' ही मान्य हैं / विशेषमें श्रीसंग्रहणी ग्रन्थके प्राचीन टीकाकार श्री हरिभद्रसूरिजी भी ‘एवं अणंतराणंतरे खित्ते पुक्खरदीवे चोआलं चंदसयं हवइ' इस पंक्तिकी साक्षीसे पुष्करवरद्वीपमें 144-144 चन्द्र-सूर्यका ग्रहण जणाते हैं / ऐसे सिद्धांतोके स्पष्ट पाठोंसे और उसके ही आधार पर किये उक्त उल्लेखोंसे सिद्ध होता है कि "मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्यकी व्यवस्था किस प्रकारकी हो ? उस विषयको ज्ञानी गम्य जणाकर यह 'त्रिगुणकरण' सर्व द्वीप-समुद्रोंको लागू हो सकता है।" साथ ही जिस जिस विषयके लिए जो जो करण दिए जाते हैं प्रायः उस उस विषयके लिए वे एकदेशीय नहीं होते, किंतु सर्वदेशीय-सर्वव्यापक होते हैं। अब इस मनुष्यक्षेत्रमें वर्तित सूर्य-चन्द्रादि चर ज्योतिषी विमानोंकी व्यवस्थाके संबंध Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 78-79 विचार करनेका किंचित् उचित लगनेसे उस संबंधमें यत्किंचित् वक्तव्य यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। इस अढाईद्वीप रूपी मनुष्यक्षेत्रमें चर ज्योतिषी विमानोंका व्यवस्थाक्रम विचारणा करनेपर समश्रेणिमें लेना विशेष उचित समझा जाता है, क्योंकि सिद्धान्तों में स्थल स्थलपर समश्रेणि क्रम बताया है / यद्यपि कालोदधि-पुष्करार्ध आदि द्वीपों में कही गई चन्द्र-सूर्यकी संख्याको उस उस समुद्रके वलयविष्कंभ (चौड़ाई )की अपेक्षासे किस प्रकार संगत करें ? यह विचारणीय है, क्योंकि सिद्धान्तमें प्रायः किसी भी स्थान पर मनुष्यक्षेत्रवर्ती चन्द्र-सूर्यका परस्पर १८४अन्तर कितना योजन प्रमाण है ? यह स्पष्टरूपसे नहीं बताया है / अतः इस विषयके लिए शास्त्रीय प्रमाणके सिवा विशेष उल्लेख करना अनुचित है, तो भी दूसरी तरह सूक्ष्मदृष्टिसे सोचनेसे ज्योतिषी विमानोंका व्यवस्था क्रम समश्रेणि में गिनना विशेष योग्य लगता है, फिर भी इस विषयके लिए बहुश्रुत महर्षि जो कहे वह प्रमाण है। ग्रन्थकार महर्षिने इष्ट द्वीप-समुद्रके सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या जाननेका जो 'करण' बताया उस करणके द्वारा हम पहले स्पष्ट समझ सके हैं कि मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्कराधमें 72 चन्द्र और 72 सूर्य हैं / ये 72 चन्द्र और 72 सूर्य मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धमें किस तरह रहे हैं उस सम्बन्धमें यहाँ विचार किया गया है। इस पुष्करार्धका वलयविष्कंभ आठ लाख योजनका है, उसमें मानुषोत्तर पर्वतसे पचास हजार योजन दूर जानेपर प्रथम चन्द्र और प्रथम सूर्यकी पंक्तियों की शुरुआत होती है। अर्थात् मानुषोत्तर पर्वतसे चारों बाजू पर पचास हजार योजन दूर जानेके बाद अमुक अमुक अन्तर पर चन्द्र-सूर्य रहे हैं / मनुष्यक्षेत्रके बाहरके इस पुष्करार्धमें प्रवर्त्तमान 72 चन्द्र और 72 सूर्य किस व्यवस्थासे रहे हैं उस सम्बन्धी कोई भी निश्चित निर्णय ज्ञात नहीं हुआ है / 'मण्डलप्रकरण, लोकप्रकाश, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और इस चालू बृहत्संग्रहणी' आदि ग्रन्थों में भी इन सूर्य-चन्द्रोंकी व्यवस्थाके सम्बन्धमें स्वयं कोई मत बताया नहीं गया है। यद्यपि दिगम्बरीय मत और अन्य मत दिखाया है / जो आगे ८३वीं गाथामें आनेवाला है परन्तु उस मतके अनुसार सूर्य-चन्द्रकी संख्या आठ पंक्तियों में गिननेके साथ प्रथम पंक्तिमें ही ( 145 मतांतरसे 144 आदि बहुत अलग प्रकारकी आती है।) इन 72 चन्द्रों और 72 सूर्योको मनुष्यक्षेत्रकी पंक्तियोंके अनुसार रचें तो पचास हजार योजनके अन्तर पर सूर्यसे चन्द्र दूर होने चाहिए, लेकिन यह तो किसी भी तरह व्यवस्थितरूपमें रह नहीं सकते / और परिरयाकारमें पंक्तियोंको रक्खें तो भी उन उन स्थानोंके परिधि आदि विशेष विशेष प्रमागवाले होते होनेसे पचास 184. अढ़ाईद्वीपमें उस उस क्षेत्रा माप लेकर उस मापको उस उस द्वीपगत चन्द्र-सूर्यकी संख्यासे भाग दे तो अन्तर प्रमाण प्राप्त हो या नहीं? यह बाबत परिशिष्टमें सोची जाएगी। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रमें चन्द्र-सूर्य पंक्तिका स्वरूप] गाथा 78-80 [ 165 - हजार योजनका और सूर्यसे सूर्यका अथवा चन्द्रसे चन्द्रका एक लाख योजनका अन्तर जो निर्णीत किया है उसकी व्यवस्था नहीं हो पाती / यह देखते (ध्यानमें लेते ) ग्रन्थकारके मतानुसार यह व्यवस्था किस प्रकारकी होगी? यह बहुश्रुतगम्य है / [78-79 ] इस संग्रहणी ग्रन्थकारके मतानुसार कतिपय द्वीप-समुद्रवर्ती चन्द्र-सूर्य-संख्यायन्त्रकम् // नाम / संख्या नाम / संख्या जंबूद्वीप |2 चन्द्र | 2 सूर्य | कालोदधि |42 चन्द्र | 42 सूर्य लवण समुद्र |4 , 4, | पुष्करवरद्वीप | 144 ,, | 144 ,, धातकीखंड | 12 ,, | 12 , पुष्करवरसमुद्र | 492 ,, | 492 ,, सूचना-आगेके असंख्यातद्वीप-समुद्रोंके लिए संग्रहणी ग्रन्थमें दिया करण-उपाय देख लेना। . मनुष्यक्षेत्रमें चन्द्र-सूर्य पंक्तिका स्वरूप अवतरण-सर्व द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्रादित्य संख्या जाननेका करण आगेकी गाथामें बताकर अब ये चन्द्र-सूर्य मनुष्यक्षेत्रमें किस तरह रहे हैं यह बताते हैं _दो दो ससि-रविपंति, एगंतरिया छसहि संखाया। मेरु पयाहिणता, माणुसखित्ते परिभमंति // 8 // गाथार्थ-छियासठ छियासठ चन्द्रकी संख्यावाली और छियासठ छियासठ सूर्यकी संख्यावाली दोनों पंक्तियाँ मनुष्यक्षेत्रमें मेरुको प्रदक्षिणा देती हुई सदाकाल परिभ्रमण करती है। // 8 // विशेषार्थ-इस मनुष्यक्षेत्रमें समश्रेणिगत 132 चन्द्र और 132 सूर्योकी संख्या प्रथम बताई है / अब वह किस तरह व्यवस्थित है ? यह बताया जाता है / जम्बूद्वीपके मध्यभागमें रहे मेरुकी दक्षिणोत्तर दिशामें रही हुई दोनों समश्रेणिके सूर्य 132 गिननेके है और. उसी मेरुपर्वतके पूर्व-पश्चिम समश्रेणिके होकर 132 चन्द्र लेनेके हैं / उनमें मेरुकी दक्षिणदिशामें एक सूर्यपंक्ति और उत्तरदिशाकी एक सूर्यपंक्ति कुल दो सूर्यपंक्तियाँ और मेरुकी पश्चिममें एक चन्द्रपंक्ति और एक पूर्वकी चन्द्रपंक्ति, इस तरह दो चन्द्र पंक्तियाँ होती हैं / इन चन्द्र-सूर्यकी प्रत्येक पंक्तिके दोनों बाजू पर विभाग होनेका कारण बिचमें आया मेरु पर्वत है / १८५प्रत्येक पंक्ति में छियासठ चन्द्र और छियासठ सूर्य होते हैं / वे इस तरह जब जम्बूद्वीपका एक सूर्य मेरुके दक्षिण भागमें हो तब इसी सूर्यकी समश्रेणि पर दक्षिण१८५ तुलना करें- 'चत्तारि य पंतीओ चन्दाइच्चाण मणुयलोमम्मि / छावट्ठी छावट्ठी, होइ इक्किक्किआ पंती // 1 // Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-८० दिशामें लवणसमुद्रके दो, धातकीखण्डके छः, कालोदधिके 21 और पुष्करार्धके 36 इस तरह कुल 66 सूर्य ( दक्षिणदिशामें ) होते हैं। जब जम्बूद्वीपकी दक्षिणदिशामें एक सूर्य हो तब एक सूर्य उत्तरदिशामें होता है और प्रथम कथनानुसार लवणसमुद्रके 2, धातकीखण्डके 6, कालोदधिके 21 और पुष्करार्धके 36 सूर्य, इस प्रकार कुल मिलाकर 66 सूर्य उत्तरदिशामें समश्रेणिसे यहाँ भी समझना चाहिए / इस तरह उत्तर और दक्षिण दिशाके मिलकर 132 सूर्य होते हैं / और इसी तरह मेरुकी पूर्व-पश्चिम दिशामें 66-66 चन्द्र पंक्तिकी व्यवस्था भी पूर्वोक्त रीतिसे बराबर समझ लें / यहाँ इतना खयाल रखना कि-सूर्य पंक्ति दक्षिणोत्तर दिशामें और चन्द्रपंक्ति पूर्व-पश्चिम दिशामें कही है वह हमेशाके लिए वहीं रहकर प्रकाश करे वैसा न समझे; परन्तु अढाई द्वीपके चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी विमान चर होनेसे जब पंक्तिगत सूर्य दक्षिणोत्तर दिशामें हों तब पंक्तिगत चन्द्र पूर्व-पश्चिम दिशामें होते हैं और सूर्य घूमते घूमते जब पूर्व दिशामें आते हैं, तब चन्द्र घूमते घूमते दक्षिण दिशामें चले जाते हैं / इस तरह कुल 132 १८चन्द्र और 132 सूर्य रात्रि दिवसके विभाग करनेपूर्वक मनुष्यक्षेत्रमें हमेशा परिभ्रमण करते हैं / इस पंक्तिमें रहे चन्द्र-सूर्य कभी भी क्षणमात्रके लिए भी स्थिर नहीं रहते, सतत परिभ्रमण करते अहोरात्रि रचते हैं; और स्वपंक्तिमेंसे कोई एक भी चन्द्र-सूर्य आगे-पीछे खसकता नहीं है। 66-66 चन्द्र-सूर्योकी दो दो पंक्तियाँ ही इस मनुष्यक्षेत्रमें मेरुकी प्रदक्षिणा करती हैं, तदुपरांत एक चन्द्रका जो 28 नक्षत्र, 88 ग्रह' 87 और 66975 कोडाकोडी तारों जितना परिवार कहा है उसके अनुसार एकसौ बत्तीसों चन्द्रोंका अपना अपना उक्त परिवार भी परिभ्रमण करता है, अर्थात् 3696 नक्षत्र विमान, 11616 18 ग्रह परिवार और 88407000000000000000 कोडाकोडी (ध्रुव तारेके सिवा) 18 तारोंका परिवार 186. बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चेव सूरियाण सयं / सयले माणुसलोए चरन्ति एए पभासेंता // [ सू. प्र.. 187. अट्ठासीतिं च गहा अट्ठावीसं च हुंति नक्खत्ता / एग ससी परिवारो एत्तो ताराण वुच्छामि // 1 // छावट्ठीं सहस्साई णव चेव सयाइ पंच सतराई / एग ससीपरिवारो तारागण कोडिकोडीणं // 2 // [ सू. प्र.] 188. एक्कारस य सहस्सा छप्पिय सोला महग्गहाणं तु / छच्चसया छण्णउया णक्खत्ता तिण्णि य सहस्सा // 1 // 189. अट्ठासीई चत्ताई सयसहस्साई मणुयलोगम्मि / सत्त य सया अणूणा तारागण कोडिकोडीणं // [सू. प्र.] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रमें नक्षत्र पंक्तिका स्वरूप ] गाथा 80-81 [ 167 मनुष्यक्षेत्रमें सदाकाल मेरुको प्रदक्षिणावर्त मण्डल द्वारा परिभ्रमण करता है तथा स्वप्रकाश्यक्षेत्रमें प्रकाश करता है / यहाँ इतना विशेष समझना कि, चन्द्र-सूर्य और ग्रह पृथक् पृथक् मण्डलमें परिभ्रमण करनेवाले होनेसे अनवस्थित योगसे परिभ्रमण करते हैं। जबकि नक्षत्र और तारे स्व-स्वमण्डलमें ही परिभ्रमण करनेवाले होनेसे उनका परिभ्रमण अवस्थित योगसे है / [80] // मनुष्यक्षेत्रमें नक्षत्रपंक्तिका स्वरूप // - अवतरण-प्रथमकी गाथामें मनुष्यक्षेत्रवर्ती चन्द्र-सूर्यकी पंक्तियाँ और पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी संख्या और उन चन्द्र सूर्यकी समश्रेणिमें रहने सम्बन्धी व्यवस्था भी बताई। अब नक्षत्रपंक्तियाँ किस तरह व्यवस्थित होती हैं यह बताया जाता है छप्पन्नं पंतीओ, नक्खताणं तु मणुयलोगम्मि / . छावट्ठी छावट्ठी, होइ इक्किकिआ पंती // 81 // [प्र. गा. सं. 16 ] गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 81 // विशेषार्थ मनुष्यक्षेत्रमें नक्षत्रकी छप्पन पंक्तियाँ हैं, और वे प्रत्येक पंक्तियाँ मेरुसे लेकर ज्वारों दिशाओं में मानुषोत्तरपर्वत तक सूर्य किरणोंकी तरह अथवा कदम्बपुष्पकी विकसित पंखुरियोंकी तरह गई हैं। उन प्रत्येक पंक्तिमें 66-66 नक्षत्र होते हैं / ऊर्ध्वलोकमेंसे देखने पर जम्बूद्वीपके लगभग अन्तभागसे शुरू होती हुई ये पंक्तियाँ जम्बूद्वीपके मध्यभागमें रहे मेरुपर्वतरूपी सूर्यने मानों अपनी ऋद्धि प्रकट करनेके लिए ही मानुषोत्तरपर्वत तक अपनी किरणें फेंकी हो, वैसी रमणीय लगती हैं / प्रारम्भमें ये पंक्तियाँ परस्पर अल्प अन्तरवाली-पास पासमें हैं, लेकिन आगे-आगे एक पंक्तिसे दूसरी पंक्तिका अन्तर बढ़ता जाता है। इस अढाईद्वीपवर्ती जो 132 चन्द्र और 132 सूर्य हैं उनमें दो चन्द्रका अथवा दो सूर्यका एक 'पिटक' कहलाता है / यहाँ नक्षत्रादि परिवारका स्वामिपन चन्द्रका होनेसे विशेष व्यवहार चन्द्रपिटक के साथ करना है। मनुष्यक्षेत्रमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या १३२-१३२की होनेसे और दो चन्द्र-दो सूर्यका एक एक * पिटक' होनेसे १३२की संख्याको दो से बाँटनेसे 66 चन्द्रपिटक और 66 सूर्यपिटक होते हैं / साथ ही एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रके बिच दोनों दिशाओंके मिलकर 56 नक्षत्र होते हैं, उन 56 नक्षत्रोंका भी एक 'नक्षत्र पिटक' कहलाता है / दो चन्द्रकी अपेक्षासे एक नक्षत्रपिटक बनता होनेसे 132 चन्द्रकी अपेक्षासे 66 नक्षत्रपिटक होते हैं / जैसेकि लवणसमुद्र में चार चन्द्र होनेसे दो चन्द्रपिटककी अपेक्षासे दो नक्षत्रपिटक हुए, कुल नक्षत्र संख्या ११२की हुई, धातकीखण्डमें 12 चन्द्र होनेसे छः चन्द्रपिटककी अपेक्षासे छः नक्षत्रपिटक हुए, कुल नक्षत्र संख्या 336, कालोदधि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-८१ समुद्रमें 42 चन्द्र होनेसे इक्कीस चन्द्रपिटककी अपेक्षासे 21 नक्षत्रपिटक हुए, कुल नक्षत्र संख्या 1176 और अर्ध पुष्करवरद्वीपमें 72 चन्द्र होनेसे छत्तीस चन्द्रपिटक की अपेक्षासे 36 नक्षत्रपिटक हुए, कुल नक्षत्र संख्या 2016 हुई, इस तरह सर्व मिलकर मनुष्यक्षेत्रमें 66 नक्षत्रपिटक होते हैं और सब मिलकर तीन हजार छ: सौ और छियानवे (3696) नक्षत्र हैं / इन 56 नक्षत्रोंमेंसे एक चन्द्रके परिवाररूपमें 28 नक्षत्र जम्बूद्वीपके दक्षिणार्ध वलयमें होते हैं और उत्तरार्धमें भी उसी नामवाले दूसरे 28 नक्षत्र होते हैं / और इन नक्षत्रोंकी 56 पंक्तियोंमें दक्षिण दिशामें जहाँ अभिजित् नक्षत्र होता है उसकी समश्रेणिमें 2 लवणसमुद्र में, 6 धातकीखण्डमें, 21 कालोदधिमें और 36 पुष्करार्धमें होते हैं। इस तरह उत्तरदिशामें रहे हुए अमिजित्की समश्रेणिमें लवणादिके अभिजित् नक्षत्र भी स्वयं समझ लें / तात्पम यह है कि, अभिजित् नक्षत्रके प्रारम्भवाली पंक्तिमें समश्रेणिमें ठेठ मानुषोत्तर तक 66 नक्षत्र अभिजित् ही होते हैं / अश्विनीके प्रारम्भवाली पंक्तिमें समश्रेणिमें 66 अश्विनी नक्षत्र ही होते हैं / एक ही नामके नक्षत्रों की एक दिशामें कुल संख्या छियासठ होती है, और उसी तरह प्रतिपक्षी दिशामें भी एक ही नामवाले 66 नक्षत्रोंकी पंक्ति होती है। ये सर्व नक्षत्र पंक्तियाँ भी जम्बूद्वीपके ही मेरुपर्वतको प्रदक्षिणा दे रही हैं। चन्द्र-सूर्यके मण्डलोंकी तरह इन नक्षत्रोंके भी मण्डल हैं, उस विषयक किंचित् वर्णन बाजूके परिशिष्टमें दिया गया है / वहाँसे जानलें / [प्र. गा. सं. 16] [81] // इति नक्षत्रपंक्तिस्वरूपम् // श्री स्थम्भनपार्श्वनाथाय नमोनमः (Keractacancancer cancancercaacaag 1 नक्षत्र विचारे-चतुर्थ लघुपरिशिष्टम् Swacemewww wwwwwere [अत्र अन्य ग्रन्थान्तरसे 'नक्षत्रमण्डल' विषयक उपयोगी विवेचन संक्षेपमें दिया जाता है।] नक्षत्रमण्डलोंकी संख्या ____नक्षत्रों के नाम परसे महीनोंके नाम पडे हैं / कृत्तिका परसे कार्तिक, मृगशीर्ष परसे मागसर अथवा मार्गशीर्ष, पुष्यसे पूस, मघासे माघ, उत्तराफाल्गुनीसे फाल्गुन, चित्रासे चैत, विशाखासे बैसाख, ज्येष्ठासे ज्येष्ठ, पूर्वाषाढासे आषाढ, श्रवणसे सावन, पूर्वाभाद्रपदासे Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्रमण्डलोंकी संख्या ] गाथा 80-81 [169 भादों-भाद्रपद और अश्विनीसे आश्विन या आसोज मास पड़ा है / हरएक महीनेका नक्षत्र उस महीनेमें शामको उगता है और सुबह अस्त होता है / जैन सिद्धान्तानुसार नक्षत्रोंकी कुल संख्या अट्ठाईस है, वे इस तरह 1. अभिजित् , 2. श्रवण, 3. धनिष्ठा, 4. शततारा, 5. पूर्वाभाद्रपदा, 6. उत्तराभाद्रपदा, 7. रेवती, 8. अश्विनी, 9. भरणी, 10. कृत्तिका, 11. रोहिणी, 12. मृगशीर्ष, 13. आर्द्रा, 14 पुनर्वसु, 15. पुष्य, 16. आश्लेषा, 17. मघा, 18. पूर्वाफाल्गुनी, 19. उत्तराफाल्गुनी, 20. हस्त, 21. चित्रा, 22. स्वाति, 23. विशाखा, 24. अनुराधा, 25 ज्येष्ठा, 26 मूल, 27. पूर्वाषाढा, 28. उत्तराषाढा / यद्यपि लौकिक क्रम तो प्रथम अश्विनी फिर भरणी-कृत्तिका-रोहिणी ऐसा है, फिर भी यहाँ दिया गया उपरोक्त क्रम जिस सिद्धान्तमें रक्खा गया है उसका कारण यह है कि युग वगैरह के आदिमें चन्द्रके साथ प्रथम नक्षत्रका योग ‘अभिजित् 'का ही होता है और तत्पश्चात् अनुक्रमसे अन्य नक्षत्रका योग होनेके कारण अभिजित्से लेकर उक्त क्रम रक्खा गया है। विशेषमें कृत्तिकादि नक्षत्रका क्रम तो लोकमें केवल शलाकाचक्रादिक स्थानकोंमें ही उपयोगी है। शंका-जब अभिजित् नक्षत्रसे ही नक्षत्रक्रमका आरम्भ करते हो तो अन्य नक्षत्रोंकी तरह अभिजित् नक्षत्र व्यवहारमें क्यों प्रवर्तित नहीं है ? समाधान-चन्द्रमाके साथ अभिजित् नक्षत्रका योग स्वल्पकालीन है, फिर चन्द्रमा उस नक्षत्रको छोडकर सद्यः अन्य नक्षत्रमें प्रवेश कर लेता है, अतः वह नक्षत्र अव्यवहृत है। यहाँ इतना विशेष समझना कि-जम्बूद्वीपमें तो अभिजित्के सिवा 27 नक्षत्र व्यवहारमें वर्तित हैं, (परन्तु धातकीखण्डादिमें वैसा नहीं है ) क्योंकि अभिजित् नक्षत्रका उत्तराषाढाके चौथे पादमें समावेश होता है, और लोकमें उससे भी कम अर्थात् वेधसत्ता आदि देखने में उत्तराषाढाके साथ अभिजित् नक्षत्रका सहयोग अन्तिमपादकी चार घड़ी जितना ही कहलाता है। ऊपर कहे अट्ठाईस नक्षत्रों के मण्डल तो सिर्फ आठ ही हैं / और इन आठों मण्डलों की अपने अपने नियतमण्डलमें ही गति है / इति संख्याप्ररूपणा // मण्डलक्षेत्र और मेरुके प्रति अबाधा . सूर्यकी तरह नक्षत्रों के मण्डलोंको अयनका अभाव होनेसे और अतः वे नक्षत्रमण्डल बृ. सं. 22 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 80-81 अपने-अपने मण्डलस्थानों में ही गमन करते होनेसे ये नक्षत्रमण्डल अवस्थित कहे जाते हैं और इसलिए हरएक प्रतिनक्षत्राश्रयी मण्डलक्षेत्र सम्भवित नहीं है / यदि हरएक नक्षत्रको स्वस्वमण्डल स्थान छोड़कर अन्य मण्डलस्थानों में गमन करनेका हो तो उस मण्डलक्षेत्रकी बात सम्भवित हो सके, लेकिन ऐसा तो नहीं ही है, अतः उसका क्षेत्र भी सम्भवित नहीं है। अट्ठाईस नक्षत्रों के सामुदायिक आठ मण्डल हैं / उनमें दो मण्डल जम्बूद्वीपमें हैं और वे चन्द्र-सूर्य मण्डलवत् 180 योजन मध्यमें हैं / जब कि अवशिष्ट छः नक्षत्रों के मण्डल लवणसमुद्रके ऊपर हैं और वे भी चन्द्र-सूर्य मण्डलवत् 330 योजन क्षेत्र मध्यमें हैं / प्रत्येक नक्षत्रमण्डलका चक्रवालविष्कम्भ एक कोसका और मोटाई आधे कोसकी होती है / इस आयाम और विष्कम्भ विषयक हकीकत पहले (जोयणिग...गाथाके प्रसंगमें ) आ गई है। नक्षत्रोंके कुल आठ मण्डल बताये हैं और वे मण्डल अवस्थिति योगसे जम्बूद्वीपके मेरुको दक्षिणावर्त प्रदक्षिणा करते घूमते हैं; ये नक्षत्रमण्डल चन्द्रमण्डलके स्थानमें पड़ते हैं, अर्थात् जिस स्थान पर चन्द्रमण्डल होता है उसी स्थान पर ही पड़ता है अर्थात् नक्षत्रोंका स्थान चन्द्रसे चार योजन ऊँचा होनेसे उतने उच्च स्थान पर ही (चन्द्रमाके मण्डलकी ऊर्ध्व समश्रेणिमें ) पड़ता है। वह इस तरह-नक्षत्रका प्रथम मण्डल चन्द्रमाके प्रथम सर्वाभ्यन्तर मण्डल स्थानमें ऊपरी भागमें होता है, जिससे सबसे प्रथम नक्षत्रमण्डल मेरुसे चन्द्रमण्डलबत् 44820 योजन दूर होता है यह सहज है / दूसरा नक्षत्रमण्डल (दूसरे चन्द्र मण्डलको छोड़कर ) तीसरे चन्द्रमण्डलके स्थानके ऊपर पड़ता है / तीसरा नक्षत्रमण्डल ( तीसरे, चौथे, पाँचवें चन्द्रमण्डलको छोड़कर) लवणसमुद्रगत आए हुए छठे चन्द्रमण्डलके स्थान पर पड़ता है। चौथा नक्षत्रमण्डल सातवें चन्द्रमण्डलके स्थान पर, पांचवाँ नक्षत्रमण्डल आठवें चन्द्रमण्डलके स्थान पर, छठा नक्षत्रमण्डल (नवम चन्द्रमण्डलको छोड़कर ) दसवें चन्द्रमण्डलके स्थान पर, सातवाँ नक्षत्रमण्डल ग्यारहवें चन्द्रमण्डलके स्थान पर और अन्तिम आठवाँ नक्षत्रमण्डल ( 12-13-14 चन्द्रमण्डलको छोड़कर ) पन्द्रहवें चन्द्रमण्डल स्थान पर पड़ता है / इससे क्या हुआ ? कि 3-4-5-9-12-13-14 ये सात चन्द्रमण्डलस्थान नक्षत्रमण्डलसे शून्य होते हैं और अवशिष्ट आठ चन्द्रमण्डलस्थान नक्षत्रमण्डलसे युक्त होते हैं। साथ ही अन्तिम नक्षत्रमण्डल लवणसमुद्रगत चन्द्र के अंतिममण्डल स्थानमें कथित होनेसे चन्द्रमण्डलवत् यह अन्तिम सर्वबाह्यनक्षत्रमण्डल मेरुसे अबाधामें 45330 योजन दूर है, यह सिद्ध होता है / अतः 45330 योजनमेंसे 44820 योजन कम करनेसे Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र मण्डलोंके आयाम-विष्कंभ और परस्पर अंतर ] गाथा 80-81 [ 171 नक्षत्रमण्डलोंका कुल क्षेत्र जो 510 योजन प्रमाण कहा है वह भी बराबर आ जाता है / इति क्षेत्रप्ररुपणा // नक्षत्रमण्डलोंके आयाम-विष्कम्भादि-अब हरएक नक्षत्रमण्डलका आयाम-विष्कम्भ और परिधि कितनी होती है तो सूर्य अथवा चन्द्रका सर्वाभ्यन्तरमण्डल जिस स्थानमें होता है उसी स्थान पर प्रथम नक्षत्रमण्डल होता है; अतः चन्द्र-सूर्यके सर्वाभ्यन्तरमण्डलका मेरुपर्वतके व्याघातमें जितना विस्तार प्रथम कहा है उसके अनुसार मेरुपर्वतको व्याघातमें नक्षत्रोंके सर्वाभ्यन्तरमण्डलका विस्तार, और सूर्यके सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी परिधिकी तरह नक्षत्रों के सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी परिधि आदि सोचें, उसी तरह अर्थात् सूर्यके सर्वबाह्यमण्डलकी जो परिधिप्रमाण प्रथम बतायी है उसी तरह नक्षत्रों के सर्वबाह्यमण्डलकी परिधिका प्रमाण समझें, विशेषमें इतना खयाल रखना कि सूर्यके मण्डलका आयाम-विष्कम्भ 46 यो. आदि है तदनुसार यहाँ नक्षत्रमण्डलका आयाम-विष्कम्भ आदि नक्षत्रोंके विमानका जो योजन प्रमाण ( एक कोसका ) कहा है वैसा समझें / / प्रथम नक्षत्रमण्डलमें अभिजित् , श्रवण, धनिष्ठा, शततारा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी और स्वाति ये बारह नक्षत्र आए हैं। ये बारह नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डलमें एक बाजू पर अर्धमण्डल भागमें गमन करते हैं, जब कि दूसरे अर्धमण्डल भागमें उनके सामने उन्हीं नामोंके नक्षत्र अनुक्रमसे गमन करते हैं। सर्वाभ्यन्तरमण्डल पश्चात् दूसरे नक्षत्रमण्डलमें हमेशा पुनर्वसु और मघाका चार (गति) है। तीसरेमें कृत्तिका, चौथेमें चित्रा और रोहिणी, पाँचवेंमें विशाखा, छठेमें अनुराधा, सातवेंमें ज्येष्ठा और आठवेंमें अर्थात् सर्व बाह्य-अन्तिममण्डलमें आर्द्रा, मृगशीर्ष, पुष्य, आश्लेषा, मूल, हस्त, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढ़ा इन आठ नक्षत्रोंका गमन होता है / . इसमें इतना विशेष जानें कि सर्वाभ्यन्तरमण्डलके 12 नक्षत्रों में से अभिजित् नक्षत्र सबसे अन्दर चलता है, (अतः स्वमण्डलकी सीमाको छोड़कर जम्बूद्वीपकी तरफ रहता अन्दरके भागमें चलता है) मूल नक्षत्र सर्वनक्षत्रोंसे बाहर चलता है। ( अर्थात् स्वमण्डल स्थानसे अभिजित्वत् सीमाको छोड़कर लवणसमुद्रकी तरफ रहता हुआ चलता है, वह ) स्वाति नक्षत्र सर्व नक्षत्रोंकी जो सतह है उससे थोड़ा ऊँचा रहकर चलता है, और भरणी नक्षत्र स्वमण्डल स्थानमें अन्य नक्षत्रोंकी अपेक्षासे नीचे चलता है। इति आयामविष्कम्भादि प्ररूपणा // ___ नक्षत्रोंका परस्पर अन्तर-मण्डलवर्ती नक्षत्रों के विमानका परस्पर अन्तर दो योजनका कहा है, इसी अभिप्रायको अभिप्रेत कथन श्री शान्तिचन्द्रजी उपाध्यायकृत जम्बू, प्रज्ञप्तिकी वृत्तिमें है तथा श्री धर्मसागरगणिजी कृत टीकामें भी यही अभिप्राय सूचित है, परन्तु प्रथम नक्षत्रमण्डलके महान् घेरेकी योग्य पूर्ति करनेके लिए नक्षत्रोंकी कथित प्रथम मण्डल Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 80-81 संख्याके हिसाबसे ऐसे दो योजनका विमान अन्तर लेनेसे नक्षत्र विमानसे रहित मण्डलक्षेत्र बहुत खाली रह जाता है। अरे! आगे आगेके मण्डलमें जहाँ दो-दो या एक-एक नक्षत्र आते हैं वहाँ क्या करें ? यह भी विचारणीय है / इति नक्षत्रयोः परस्परमन्तरम् / / नक्षत्रमण्डलोंकी मुहूर्तगति-सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें नक्षत्रकी मुहूर्तगति 5265 3636 योजनकी होती है / और सर्वबाह्यमण्डलमें नक्षत्रोंकी गति 5319 35 योजनकी होती है, यह परिधिकी वृद्धिके हिसाबसे सहज समझा जा सकता है। शेष 6 (छः ) मण्डलोंकी गति उस स्थानके चन्द्रमण्डलके घेरे परसे सूर्य-चन्द्रमण्डलकी रीतिके अनुसार पाठकोंको जरूरत लगे तब निकाल लें / इति नक्षत्राणां मुहूर्तगतिः // . नक्षत्रों की कुलादिकप्ररूपणा—अट्ठाईसों नक्षत्रोंके आकार प्रायः अलग-अलग और प्रत्येककी विमानपरिवार संख्या भी भिन्नभिन्न है। . ये अठाइसों नक्षत्र 'कुलसंज्ञक ', ' उपकुलसंज्ञक' और 'कुलोपकुलसंज्ञक ' इस तरह तीन प्रकारके हैं / इनमें 1. अश्विनी, 2. पुष्य, 3. मघा, 4. मूल, 5. उत्तराभाद्रपदा, 6. उत्तराफाल्गुनी, 7. उत्तराषाढा, 8. विशाखा, 9. मृगशीर्ष, 10. चित्रा, 11. कृत्तिका और 12. धनिष्ठा ये बारह नक्षत्र कुलसंज्ञक हैं और इन नक्षत्रोंके योगसे जन्मा हुआ जीव दातार और संग्रामादिमें जय पानेवाला होता है / ...शेषमेंसे 1. भरणी, 2. रोहिणी, 3. पूर्वाभाद्रपदा, 4. पूर्वाफाल्गुनी, 5. पूर्वाषाढा, 6. हस्त, 7. ज्येष्ठा, 8. पुनर्वसु, 9. आश्लेषा, 10. स्वाति, 11. रेवती, 12. श्रवण ये बारह नक्षत्र उपकुलसंज्ञक हैं, शेष 1. आर्द्रा, 2. अभिजित् , 3. अनुराधा, 4. शततारा ये चार कुलोपकुलसंज्ञक हैं / इन दोनों प्रकारके नक्षत्रोंमें जीव जन्म पाया हुआ हो तो उस जीवको पराधीनता आदिमें पीड़ना पड़ता है और संग्रामादि कार्योमें उनकी जय अनिश्चित होती है / इति नक्षत्राणां कुलादिप्ररूपणा // नक्षत्र विमानके अश्वस्कन्ध आदि रुपों द्वारा जो आकार कहे हैं वे अनेक तारों के मिलनसे बने हुए आकार हैं। प्रत्येक तारेके व्यक्तिगत आकार तो अलग अलग होते हैं, परन्तु उन सर्व तारोंका अधिपति देव एक नक्षत्र देव ही होनेसे एक नक्षत्र कहलाता है। जैसे कि शततारक नक्षत्र 100 तारों रूप विमानोंका बना है, तदपि उन सौ विमानोंका अविपति शततारक नामकर्मोदयी एक ही नक्षत्रदेव है; अतः समुदाय तारकोंको एक ही 'शततारक' नक्षत्र गिना जाता है। तद्वत् अश्विनी आदिमें समझ लें / तारोंके समूहको नक्षत्र कहा जाता है / इति नक्षत्रव्याख्या / विशेषमें यहाँ यह भी समझे कि जम्बूद्वीपमें जिस दिन अश्विन्यादि कोई भी नक्षत्र दक्षिणार्धभागमें एक चन्द्र के परिभोगके लिए होता है, उसी दिन उस नक्षत्रकी समश्रेगिमें उत्तरार्धभागमें दूसरे चन्द्रको उन्हीं नामोंके नक्षत्र परिभोगके लिए होते हैं / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र चतुर्थ लघु परिशिष्टम् ] माथा 80-81 [ 173 प्रश्न-नक्षत्रबल कब अच्छा होता है ? * उत्तर-दिवसके पूर्वार्धभागमें तिथि तथा नक्षत्र सम्पूर्ण बलवान, तथा बादमें दुर्बल गिना जाता है, रात्रिके समय केवल नक्षत्र बलवान गिना जाए और दिवसके अपराध भागमें केवल तिथि ही बलवान गिनी जाती है; अतः व्यवहारसारमें कहा है कि 'तिथिर्धिष्ण्यं च पूर्वार्द्ध, बलबदुर्बलं ततः / नक्षत्रं बलवद्रात्रौ, दिने बलवती तिथिः // 1 // ' विशेषमें इन नक्षत्रों का प्रयोजन 'पौरुषी' प्रतीति-प्रहरका ज्ञान होनेके लिए है। इसके सिवा नक्षत्रकी सविशेष मुहूर्तगति, नक्षत्रके मण्डलोंका चन्द्रमाके मण्डलोंके साथ आवेश, उन मण्डलोंका दिशाओंके साथ चन्द्रयोग, उनके अधिष्ठायक देवता, उनके तारा विमानोंकी संख्या, ( उनकी आकृति ) उन मण्डलोंका चन्द्र-सूर्यके साथ संयोगकालका मान, उनके कुलादिकके नामोंकी विचारणा, उनका अमावस और पूर्णिमाके साथ योग, प्रतिमास अहोरात्रि सम्पूर्ण करनेवाले नक्षत्र कौन-कौन हैं यह प्रहर विचारणा, किस-किस मासमें कौन-कौन-सा नक्षत्र कितने कितने समय पर होता है ? इत्यादि सर्व व्याख्या, सविस्तररूपसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूयप्रज्ञप्ति तथा लोकप्रकाश और मण्डलप्रकरणादि ग्रन्थोंसे जान लें / , चतुर्थ परिशिष्टं समाप्त हुआ / / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 28 नक्षत्रोंकी आकृति आदि विषय सम्बन्धी यन्त्र // आरम्भसिद्वि टीकाके 'रत्नमाला'के आधार नक्षत्रके आधार | नक्षत्र | नक्षत्रके नाम आधार पर नक्षत्रोंकी पर नक्षत्रोंकी आकृति पर जन्माक्षर आकृति के नाम 'अभिजित् / जु जे जो खा | 3 | शृङ्गाटकवत् / गोशीर्षावली |संख्या 174 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी 1. श्रवण | खी खू खे खो | 3 | त्रयपादयत् कासार . | धनिष्ठा | गा गी गू गे 4. | शतभिषक गोसा 5. | पूर्वाभाद्रपद से सो दा दी वाप्य उत्तराभाद्रपद दू ज झ था | मृदङ्गाकारवत् | पक्षिपञ्जर 1. व्यवहारमें अभिजित्के सिवा 27 नक्षत्रानुसार सर्व| वर्तुलाकारवत् पुष्पोपचार व्यवहार प्रवर्तित है, क्योंकि अभिजित् नक्षत्रका चन्द्रमाके 2 | द्वियुगलवत् साथ सहयोग स्वल्पकालीन होनेसे उसकी विवक्षा नहीं है, पर्यवत् अर्धवापी तो भी नक्षत्र तो 28 ही हैं और अठाइसके आधार पर मुरजवत् नौकासंस्थान ली गई गिनती श्री आरम्भ सिद्धि-श्री नारचन्द्रादि जैन अश्वमुखवत् | अश्वस्कंध ज्योतिष ग्रन्थोंमें प्रसिद्ध है। 2. उक्तं च-तिग तिग भगाकार(योनि)वत् भग(योनिसंस्थान) | | पंचगसयं, दुग दुग बत्तीसग | रेवती दे दो चा 8.| अश्विनी चु चे चो ला [ गाथा 80-81 . 9. भरणी ली लू ले लो Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.कृत्तिका आ ई ऊ ए 6 | शुर(अस्त्र)वत् 11.| रोहिणी | ओ वा वी वू | 5 | शकटाकारवत् | चुर (अस्त्र)धारा | तिगं तह तिगं च / छप्पंचग तिग एकग, पंचगतिग छबगं चेव // 1 // सत्तग दुग दुग | शकटोद्धिसंस्थान पंचग एकेका पंच चउतिगं चेव। एक्कारसग चकं चटक्ककं चेव तारग्गं // 2 // [ज्यो. क.] रुधिरबिन्दु नक्षत्र संबंधी यंत्र / 12.| मृगशीर्ष | वे वो का की मृगमस्तकवत् मृगशिर 13., आर्द्रा मण्याकारवत् 14.| पुनर्वसु के को हा ही | 5 | गृहाकारवत् तुला पुष्य हू हे हो डा शराकारवत् वधेमानक 8810 3. उक्तं च-हयवदन-भग-क्षुर 11 12 13 14 15 -शकट-मृगशिरो-मणि-गृहेषु૧૬ 17 18 चक्राणाम् / प्राकार-शयन 18 20 21 22 . पर्यङ्क-हस्त-मुक्ता-प्रवालानाम् 23 24 25 // 1 // तोरण-मणि-कुण्डल 26 27 28 सिंहविक्रम-स्वपन-गजविलासा 16.| आश्लेषा | डी डू डे डो / 6 | चक्रवत् पताका 17. मघा / मा मी मू मे प्राकारकारवत् शालवृक्ष नाम् / शृङ्गाटक-त्रिविक्रम पूर्वाफाल्गुनी | मो टा टी टू शय्याकारवत् पल्यंकाई मृदङ्गा-वृत्त-द्वियमलानाम्॥२॥ गाथा 80-81 [ 175 19.| उत्तराफाल्गुनी | टे टो पा पी | 2 | पल्यंकाकारवत् | अर्घपल्यंक पर्यङ्क मुरजसदृशानि भानि कथितानि चाश्चिनादीनि // Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. [ हस्त [ पूषा णा ठा 5 / हस्ताकारवत् / हस्त 21. चित्रा पे पो रा रि | 1 | मौक्तिकाकारवत् | मुखमंडन | 4. गोसीसावलीकाहार सउणि पुप्फोवधार वावी य / नावा आसव खंवे भा छुरधारा य सगडुद्धी // 1 // मिगसीसावलि रुहिरबिंदु तुल वद्धमाणग पडागा पागारे पलियंके हत्त्ये मुहपुष्फए चेव // 2 // कीलग दामणि एगावली य गयदंत विच्छुअअले य / गयविक्कमे य तत्तो सीहनिसाई य संठाणा // 3 // 176 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी 22. स्वाति | रु रे रो ता प्रवालाकारवत् | कीलक 23. विशाखा | ती तू ते तो कारवत् पशुदमनाकार अनुराधा | ना नी नू ने 4 मण्याकारवत् एकावली [ज्योतिषकर. पृ. 73 j 25. ज्येष्ठा | नो या यी यु | 3 | कुंडलाकारवत् | गजदेताकार 26.| मूल ये यो भा भी | 11 | सिंह पंजाकारवत् | वृश्चिकपुच्छाकार | पूर्वाषाढा भू धा फ ढा / शय्याकारवत् गजविक्रमाकार / इति चतुर्थ नक्षत्र विचारे लघु परिशिष्टम्॥ झूलतेगजाकारवत् | सिंहनिषदनाकार | [ गाथा 80-81 28.| उत्तराषाढा | भे भो जा जी / 4 / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहकी पंक्तिओंका स्वरूप ] गाथा-८२ [ 177 अथ ग्रहपङ्क्ति स्वरूपम् - अवतरण-पहले नक्षत्रपंक्तिकी व्यवस्था बतानेके बाद अब अनुक्रमसे प्राप्त ग्रहपंक्तिकी व्यवस्था बतानेवाली गाथा ग्रन्थकार महर्षि जणाते हैं / २८°एवं गहाइणोवि हु, नवरं धुवपासवत्तिणो तारा / तं चिय पयाहिणंता, तत्थेव सया परिभमंति // 82 // गाथार्थ-नक्षत्रोंकी पंक्ति विषयक जिस तरह व्यवस्था की उसी तरह ग्रह आदिकी पंक्ति व्यवस्था समझें / इतना विशेष है कि, दो चन्द्रोंका परिवार 176 ग्रहोंका होनेसे ग्रहोंकी पंक्तियाँ भी 176 होती हैं और प्रत्येक पंक्तिमें 66 ग्रहोंकी संख्या होती है / यहाँ यह भी विशेष समझे कि अचल ऐसे ध्रुवतारोंकी समीपमें वर्तित अन्य तारोंके विमान उसी ध्रुवतारेको ही प्रदक्षिणा देते घूमते हैं / // 82 // विशेषार्थ—प्रथमकी गाथाके अनुसार सुगम है, तो भी प्रासंगिक कुछ कहा जाता है। मनुष्यक्षेत्रमें ग्रहोंकी पंक्तियाँ 176 हैं, और प्रत्येक पंक्तियाँ जम्बूद्वीपके प्रान्तभागसे प्रारम्भ होकर मानुषोत्तर पर्वत तक पहुँची हुई है, तथा उस प्रत्येक पंक्तिमें ग्रहसंख्या तो ६६की ही है। ये पंक्तियाँ भी नक्षत्रपंक्तियोंकी तरह सूर्यकी किरणों जैसी दीखती हों वैसा भास होता है / एक चन्द्रके परिवारमें 88 ग्रह होनेसे जम्बूद्वीपके दो चन्द्रोंकी अपेक्षासे 176 ग्रह होते हैं / 88 ग्रहपंक्तियाँ दक्षिणदिशामें होती हैं और 88 ग्रहपंक्तियाँ उत्तरदिशामें होती हैं / तथा नक्षत्रपंक्तिके विवरण प्रसंग पर जैसे नक्षत्रपिटककी व्यवस्था प्रदर्शित की थी वैसे यहाँ भी ग्रहपिटक समझ लें / साथ ही जिस पंक्तिके प्रारम्भमें जो ग्रह होता है, उसी नामवाले ग्रहोंकी 66 जितनी संख्या मानुषोत्तर पर्वत तक पहुँची होती है / जम्बूद्वीपमें दो चन्द्रोंके एक चन्द्रपिटककी अपेक्षासे एक ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 176 ), लवणसमुद्रमें दो चन्द्रपिटककी अपेक्षासे दो ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 352), धातकीखण्डमें छः चन्द्रपिटककी अपेक्षासे छः ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 1056), कालोदधिमें 42 चन्द्रके 21 चन्द्रपिटककी अपेक्षासे 21 ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 3696) और अर्धपुष्करके 72 चन्द्राश्रयी 36 चन्द्रपिटककी अपेक्षासे 36 ग्रहपिटक ( कुल ग्रहसंख्या 6336) हैं। इस तरह सर्व मिलकर 66 प्रहपिटक तथा 8856276 कुल ग्रह संख्या मनुष्यक्षेत्रमें होती है। और वे सारे ग्रह मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा देते हुए सदाकाल परिभ्रमण करते हैं / 190 तुलना करें-'छावत्तरगहाणं पंतिसयं होइ मणुयलोगम्मि / छावट्ठीअ छावठीअ होइ इक्किक्किआ पंती // 1 // ' [ सूर्यप्रज्ञप्ति ] 6. सं. 23 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी _ [गाथा-८२ चन्द्र-सूर्य-ग्रह और नक्षत्रोंके विमानोंकी पंक्तियाँ जम्बूद्वीपके मेरुको प्रदक्षिणा करती ४'अनवस्थित योगसे अर्थात् एक दूसरेसे अलग-अलग रीतिसे परिभ्रमण करती हैं। जो वस्तुस्थिति हम ऊपर समझ चुके हैं / तारोंके विमानोंके लिए भी वैसा ही है, तो भी उसमें इतना विशेष है कि जो 'ध्रुव 'के तारे हैं वे जगत्के तथाविध स्वभावसे ही सदा स्थिर हैं। तदुपरांत उसके समीप वर्तित तारोंका मण्डल मेरुकी प्रदक्षिणा न करता स्थिर ऐसे 'ध्रुव के तारे की ही प्रदक्षिणा करता वहीं ही घूमता है। यह ध्रुवका तारा अपने भरतक्षेत्रकी अपेक्षासे उत्तरदिशामें है / ऐसे ध्रुवके तारे कुल चार हैं और ये चारों ध्रुवके तारे उस उस क्षेत्रकी अपेक्षासे उत्तरदिशामें ही रहे हुए हैं / अर्थात् भरतक्षेत्रको अपेक्षासे जैसे ध्रुव उत्तरदिशामें है वैसे शेष तीन ध्रुवतारे ऐरवत, पूर्वमहाविदेह और पश्चिम महाविदेहकी अपेक्षासे क्रमानुसार उत्तर दिशामें ही हैं। __ 'सर्वेषामेव वर्षाणां मेरुरुत्तरतः स्थितः' इस वाक्यसे जैसे प्रत्येक क्षेत्रकी अपेक्षासे मेरुपर्वत उत्तरदिशामें ही है वैसे इन ध्रुवतारोंके लिए भी समझे। इन ध्रुवतारों पर जनसमुदाय अनेक प्रकारका आधार रखता है / समुद्रमें चलते जहाज, स्टीमर, हवाईजहाज़ आदिको दिशाकी जानकारीमें यह ध्रुवका तारा 'दिशायंत्र' आदिके द्वारा बहुत ही उपयोगी है, जहाज़ आदि किसी भी दिशामें जाए तो भी उसमें विद्यमान दिशायंत्रकी सूई सदाकाल उत्तर ध्रुवकी ओर ही होती है, जिससे रात्रिमें भी जहाज़ किस दिशामें जाता है उसका बराबर खयाल आ सकता है। ... पहले गाथा 57 में चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देवोंका जो गतिक्रम बताया गया है उसे सामान्यतः जाने। यहाँ विशेषता इतनी समझें कि चन्द्रसे शीघ्र गतिवाले सूर्य हैं, सूर्योंसे शीघ्र गतिवाले (५७वीं गाथामें कहे अनुसार ग्रह नहीं परन्तु ) नक्षत्र हैं, और नक्षत्रोंसे शीघ्र गतिवाले अनवस्थित योगसे परिभ्रमण करते ग्रहोंको समझे / तथा ये ग्रह वक्रातिचार-मन्दगतिवाले होनेसे उनकी नियमित गति नहीं है और इसलिए उनका मुहूर्तगतिमान-परिभ्रमणकालप्रमाण-मण्डलविष्कम्भादि मान आदि प्ररूपणा विद्यमान शास्त्रों में उपलभ्य हों ऐसा नहीं लगता / / नक्षत्रोंकी तरह तारोंके भी मण्डल हैं, और ये मण्डल अपने अपने नियतमण्डलमें ही चर (गति) करनेवाले होनेसे सदा अवस्थित होते हैं / यहाँ ऐसी शंका करनेकी आवश्यकता नहीं है कि तारामण्डलोंकी गति ही नहीं है, क्योंकि तारे भी जम्बूद्वीपवर्ती मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा करनेपूर्वक परिभ्रमण करते हैं, मात्र सूर्य-चन्द्रके बहुत मण्डल होनेके 191. मण्डल प्रकरणमें कहा है कि 'ते मेरु परिअडंता, पयाहिणावत्तमण्डला सव्वे / अणवट्ठिअजोगेहि, चंदा सूरा गहगणा य // 1 // ' Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र और सूर्यकी पंक्तिका स्वरूप और मतान्तर ] गाथा-८२ [ 179 कारण उनका उत्तरायन-दक्षिणायन जिस तरह होता है वैसे इन तारामण्डलोंका नहीं होता। जो तारामण्डल दक्षिणदिशामें रहकर मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं वे सदाकाल वैसे ही करते हैं, किसी भी समय ये तारे उत्तरदिशामें नहीं आते / और जो तारे उत्तरमें रहकर मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं वे हमेशा उत्तरमें ही रहते हैं; किसी समय दक्षिणदिशामें जाते ही नहीं हैं। __इन तारामण्डलों की संख्या कितनी है यह तथा उन मण्डलोंका विष्कम्भादिप्रमाण वर्तमानमें उपलब्ध ग्रन्थों में देखने में नहीं आता / [ 82] // इति ग्रहपंक्तिस्वरूपम् // // मनुष्यक्षेत्रवर्तीचन्द्रादि पंक्तियोंका यन्त्र // नाम / जाति | पंक्तिसंख्या प्रत्येक पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यादि संख्या सर्वसंख्या मनुष्यक्षेत्रमें 132 132 चन्द्रकी सूर्यकी ग्रहकी नक्षत्रकी तारोंकी पंक्तियाँ नहीं हैं | परंतु विप्रकीर्ण |संख्या 8840700 कोडाकोडी 3696 8840700 कोडाकोडी सूचना-मनुष्यक्षेत्रके बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यादिकी संख्या जाननेके लिए गाथा ७८-८०के विशेषार्थमें दिया हुआ करण देखें। 4 // मतांतरसे मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्य पंक्तिका स्वरूप // [ अन्तर्गत पंक्तिव्यवस्था तथा मतान्तर निरूपणं ] ___ अवतरण-ग्रहकी पंक्तियों विषयक व्यवस्था तथा ग्रहोंके सम्बन्धमें अन्य विचार, पूर्व गाथाके विशेषार्थमें यथायोग्य बताया है / ७८-७९वीं गाथामें द्वीपसमुद्राश्रयी चन्द्रसूर्य संख्या जाननेका जो करण बताया है, वह संग्रहणी ग्रन्थकारने जणाया था। उस गाथाके विशेषार्थमें उस सूर्य-चन्द्रकी संख्या बाबतमें और पंक्ति विषयमें अन्य प्रसिद्ध मत आगे बताएँगे ऐसा कहा था उसी मतका निरूपण क्षेपक गाथाओंसे कहा जाता है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 83-85 १४२चउयालसयं पढमिल्लयाए, पंतीए चन्द-सूराणं / तेण परं पंतीओ, चउरुत्तरियाए वुढीए // 83 // [प्र.गा०] 1४३बावत्तरि चन्दाणं, बावत्तरि सूरियाण पंतीए / पढमाए अंतरं पुण, चन्दाचन्दस्स लक्खदुगं // 84 // [प्र०गा०] जो जावइ लक्खाई, वित्थरओ सागरो य दीवो वा / . तावइयाओ य तर्हि, चन्दामूराण पंतीओ // 85 // [प्र०गा०] . [प्र. गा. सं. 17-18-19]. गाथार्थ-मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धकी प्रथम पंक्तिमें 144 चन्द्र-सूर्य संख्या होती है और उस पंक्तिसे आगेकी प्रत्येक पंक्तिमें 4 चन्द्र और 4 सूर्यकी वृद्धि करें / प्रथम पंक्तिमें 72 चन्द्र और 72 सूर्य होते हैं, उस प्रथम पंक्तिमें चन्द्रसे चन्द्रका दो लाख योजनका अन्तर होता है / जो द्वीप अथवा जो समुद्र जितने लाख योजन विस्तारवाला हो वहाँ उतनी संख्याप्रमाण चन्द्र-सूर्यकी पंक्तियाँ जानें // 83 / / 84 // 85 // विशेषार्थ-अगाऊ 78-79 इन दोनों गाथाओंसे ग्रन्थकार महर्षि ने मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्य व्यवस्था और उस अपेक्षासे ग्रहादि संख्या जाननेका 'करण' आदि हकीकत दर्शाई है। ____ अब इन तीन चालू गाथाओंसे दूसरे एक मतका विवरण करनेके पहले यहाँ उपयोगी ऐसा इस चन्द्रिया संग्रहणी ग्रन्थकी टीका में बताया हुआ एक दिगम्बर मत देख लें // [द्वितीय] दिगम्बरीयमतनिरूपण // 192. 'बत्तीस सयं चन्दा, बत्तीस सयं च सूरिया सययं / समसेणीए सव्वे, माणुसखित्ते परिभमंति // 1 // [मं० प्र० ] 193. गाथा 83-84-85 दिगम्बर सम्प्रदायकी हो ऐसा भी श्रुतवृद्धोका कथन है / 194. दिगम्बर सम्प्रदायके मतकी प्रक्षिप्त 'कर्मप्रकृतिप्राभृत 'की जो मूलगाथाएँ वे ये रहींचंदाओ सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होइ / पन्नाससहस्साई, तु जोअणाई समहिआई // 1 // पणयालसयं पढमि-ल्लुयाई पंतीए चंदसूराणं / तेण परं पंतीओ, छगसत्तगवुड्ढिओ नेया // 2 // चंदाण सम्वसंखा, सत्तत्तीसाइं तेरससयाई, पुक्खरवरदीविअरद्धे, सूराण वि तत्तिआ जाण // 3 // 194 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्धमें मतान्तर ] गाथा 83-85 [ 185 मनुष्यक्षेत्रके बाहर किस द्वीप-समुद्रमें कितनी-कितनी चन्द्र-सूर्यकी पंक्तियाँ हों ? वे पंक्तियाँ किस तरह व्यवस्थित हों ? तथा प्रत्येक पंक्तिमें कितने-कितने चन्द्र तथा सूर्य हों और उन चन्द्र-सूर्य विमानोंका परस्पर अन्तर कितना हो? यह दिगम्बराचार्यके मतानुसार बताया जाता है। मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्यकी व्यवस्थाके सम्बन्धमें तीन मत प्रवर्तित हैं। उनमें एक मत चालू ग्रन्थकारका, जो अगाऊ 78-79 गाथा द्वारा कहा गया है। अब कथित दूसरा और तीसरा दिगम्बरीय मत 83-84-85 इन तीन गाथाओंके विवेचनसे कहा जाएगा। मनुष्यक्षेत्रके बाहरका अर्धपुष्करवर क्षेत्र आठ लाख योजन प्रमाण वलयविष्कम्भवाला है / उसमें इस दूसरे (दिगम्बरीय) मतके अनुसार आठ पंक्तियां होती हैं / यहाँ इतना खास ध्यानमें रखे कि अब तक चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रादिकी जो पंक्तियाँ समश्रेणिमें ली जाती थीं उन्हें वैसे न लेकर परिरयाकारमें (वतुलाकारमें ) लेनी हैं / और गोल या मालाकारमें रही हुई वे प्रत्येक पंक्तियाँ एक-एक लाख योजनके अन्तर पर होती हैं। मनुष्यक्षेत्रके बाहर पुष्कराध द्वीपमें वर्तित इन आठ पंक्तियोंमेंसे प्रथम पंक्तिमें 145 चन्द्र और 145 सूर्य आए हैं / इस मालाकारमें रही पंक्तिमें चन्द्रसे सूर्यका अन्तर साधिक 50000 (पचास हजार ) योजन है और चन्द्रसे चन्द्रका अथवा तो सूर्यसे सूर्यका अन्तर साधिक 1,00,000 (एक लाख ) योजन है। . ऊपर जणाये अनुसार जबकि इस प्रथम पंक्तिमें 145 चन्द्र और 145 सूर्य हैं अर्थात् दोनोंकी कुल संख्या २९०की है और एक चन्द्रसे सूर्यका अन्तर साधिक पचास हजार योजनका है, तो 145 चन्द्रों और 145 सूर्योको मालाकारमें रहनेके लिए कितना क्षेत्र चाहिए ? अथवा चन्द्रसे चन्द्रका और सूर्यसे सूर्यका अन्तर साधिक एक लाख योजन है तो 145 चन्द्रोंको अथवा 145 सूर्योको परिरयाकार रचनेमें कितना क्षेत्र चाहिए ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि उसके लिए 1,45,46,477 (एक करोड़, पतालीस लाख, छियालीस हजार, चारसौ सतत्तर) योजन प्रमाण क्षेत्र चाहिए / अर्थात् मनुष्यक्षेत्रके बाहर पुष्करार्धमें वर्तित चन्द्र-सूर्यकी मालाकारमें रही प्रथम पंक्तिकी परिधि 14546477 योजन प्रमाण होती है। .. अब दूसरी तरह प्रश्न हो सकता है कि-एक चन्द्रसे एक सूर्यका अन्तर. 50000 (पचास हजार ) योजन है तो 14546477 योजन प्रमाण क्षेत्रमें कितने चन्द्र अथवा सूर्यका समावेश हो सके ? अथवा एक सूर्यसे दूसरे सूर्यका या एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रका अन्तर साधिक एक लाख योजन है तो 14546477 योजन प्रमाण परिधि क्षेत्रमें कितने चन्द्र अथवा सूर्यका समावेश हो सके ? इन दोनों प्रकारके प्रश्नोंके उत्तरमें '145 चन्द्र अथवा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 83-85 . 145 सूर्यका समावेश हो सके। ऐसा उत्तर आएगा / इस तरह प्रथम पंक्तिमें 145 सूर्य और 145 चन्द्र होते हैं। .: . अब अवशिष्ट सात पंक्तियों में सूर्य-चन्द्रकी संख्याका विचार करें / दूसरी पंक्ति प्रथम पंक्तिसे एक लाख योजन दूर जाने पर वहाँ परिरयाकारमें (गोलाकारमें ) मिलती है / उस स्थानकी परिधि गणितकी दृष्टिसे प्रथम पंक्तिकी परिधिकी अपेक्षासे-क्षेत्रके विष्कम्भमें वृद्धि होनेसे-प्रथम पंक्तिकी परिधिकी अपेक्षासे बड़ी होती है। ऐसा सामान्य नियम है कि 'जिस क्षेत्रका जितना विष्कम्भ हो उससे लगभग त्रिगुण ऊपरांत परिधि होती है। इस नियमानुसार दूसरी पंक्तिकी परिधि 15178932 योजन प्रमाण आती है। और चन्द्रसे चन्द्रका तथा चन्द्रसे सूर्यका और सूर्यसे सूर्यका तथा सूर्यसे चन्द्रका अन्तर तो प्रथम पंक्तिमें बताया (एक दूसरेको 50 हजार, परस्पर साधिक लाख योजन) उतना ही है / अतः (इस दूसरी पंक्तिका परिधि विशेष होनेसे ) इस पंक्तिमें प्रथम पंक्तिकी अपेक्षासे छः चन्द्र तथा छः सूर्य अधिक होते हैं / यहाँ विचार करनेसे यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि-प्रथम पंक्तिकी परिधिसे दूसरी पंक्तिकी परिधि साधिक छः लाख योजन अधिक है / अतः दोनों बाजू पर लाख-लाख योजन प्रमाण क्षेत्रविष्कम्भ बढ़नेसे 2 लाख योजन क्षेत्र बढे तब 'त्रिगुण' नियमानुसार उस स्थानका परिधि 632455 योजन, 2 कोस, 54 धनुष, 27 अंगुल होता है। एक चन्द्रसे सूर्यका अन्तर पचास हजार योजन है, अतः उतने अधिक क्षेत्रमें छः चन्द्र और छः सूर्यकी संख्या वृद्धि हुई। और वह भी वास्तविक है / अर्थात् प्रथम पंक्तिमें ज्यों 145 चन्द्र और 145 सूर्य हैं त्यों दूसरी पंक्तिमें 151 चन्द्र और 151 सूर्य हैं / तीसरी पंक्ति दूसरी पंक्तिसे 1 लाख योजन दूर है / उसकी परिधि साधिक 15811387 योजन प्रमाण होती है, जिससे दूसरी पंक्तिसे सात चन्द्र और सात सूर्यकी संख्याका बढ़ावा होता है, अतः तीसरी पंक्तिमें 158 चन्द्र और 158 सूर्य होते हैं / इस तरह आगेकी पंक्तियोंके लिए भी सोच लें / अर्थात् दो पंक्तियों में छः छः चन्द्र-सूर्यकी संख्या बढावे और तदनन्तर एक पंक्तिमें सूर्य-चन्द्रकी सात संख्या बढावे / इस तरह करनेसे चौथी पंक्तिमें (तीसरी पंक्तिके 158+6= ) 164 चन्द्र और 164 सूर्य होंगे। पांचवीं पंक्तिमें (चौथी पंक्तिके 164+6=) 170 चन्द्र और 170 सूर्य प्राप्त होंगे। छठी पंक्तिमें (पाँचवीं पंक्तिके 170+7= ) 177 चन्द्र और 177 सूर्य प्राप्त होंगे / सातवीं पंक्तिमें (छठी पंक्तिके 177+6= ) - 183 चन्द्रों और 183 सूर्योकी संख्या होगी, और आठवीं पंक्तिमें (सातवीं पंक्तिके 183+6=) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्ध मतान्तर ] गाथा 83-85 [ 183 189 चन्द्र और 189 सूर्यकी संख्या प्राप्त होगी / इस तरह आठों पंक्तियोंके मिलकर कुल 13.37 चन्द्र और 1337 सूर्य (= कुल संख्या 2674) मनुष्यक्षेत्रके बाहरके अर्धपुष्करवर द्वीपमें रहे हैं / इस तरह उक्त दिगम्बरीय मतानुसार मनुष्यक्षेत्रके बाहर बाह्यपुष्करार्धवर्ती चन्द्र-सूर्यकी पंक्ति व्यवस्था दर्शाई है। - अब आगे आगेके द्वीप-समुद्रोंमें यावत् लोकान्त तक सूर्य-चन्द्रकी संख्या कितनी है ? यह बताया जाता है। // मनुष्यक्षेत्रके बाहर समग्र द्वीप-समुद्र विषयक चन्द्रादित्य संख्या विचार / / " ऊपर कहे अनुसार मनुष्यक्षेत्रके बाहरके अर्धपुष्करद्वीपमें आठवीं पंक्ति पूर्ण होने के बाद, पचास हजार योजन जानेके बाद पुष्करवरद्वीप समाप्त होता है। तदनन्तर पुष्कर समुद्रमें पचास हजार योजन जाने पर प्रथमकी तरह परिरयाकार (वलयाकार) चन्द्र-सूर्यकी पंक्तिका प्रारम्भ होता है / दूसरी चन्द्र-सूर्यकी वलयाकार स्थित पंक्तिका अन्तर एक लाख योजन प्रमाण ऊपर कहा है / वह इस तरह बराबर आता है / अब उस पुष्कर समुद्रमें स्थित प्रथम पंक्तिमें कितने चन्द्र-सूर्य हों ? इस विषयमें विचार करने पर ऐसा जणाया है कि-'प्रथम द्वीप अथवा समुद्रकी प्रथम पंक्तिमें जितने सूर्य और चन्द्रकी संख्या होती है उससे दुगुनी संख्या आगेके द्वीप अथवा समुद्रकी प्रथम पंक्तिमें होती है। समयक्षेत्रके बाहर अर्धपुष्करद्वीपकी प्रथम पंक्तिमें 145 चन्द्रों और 145 सूर्योकी संख्या होनेसे पुष्करसमुद्रकी प्रथम पंक्तिमें 290 चन्द्र १४५और 290 सूर्य होते हैं। ऐसा प्रत्येक . 195. द्वितीय दिगम्बर मतमें बताया कि इष्ट द्वीप अथवा समुद्रकी अन्तिम पंक्तिगत चन्द्रसे सूर्यकी संख्या आनेके बाद उस इष्ट द्वीप अथवा समुद्रसे आगेके द्वीप अथवा समुद्रमें स्थित प्रथम पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाननेके लिए प्रथमके द्वीप अथवा समुद्रकी प्रथम पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी संख्याको द्विगुण करें, और बैसा करनेसे (मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्कराधकी प्रथम पंक्तिमें 145 चन्द्र और 145 सूर्य होनेसे ) पुष्करोद'समुद्रकी प्रथम पंक्तिमें 290 चन्द्र और 290 सूर्य संख्या आई / यहाँ खास विचारणा उपस्थित होती है, क्योंकि दिगम्बर मतानुसार यह प्रथम बार ही कहा गया है कि यदि पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाननी हो तो उसकी परिधि जाननेके बाद उसमें एक-एक लाख योजनके अन्तर पर चन्द्र और एक-एक लाख योजनके अन्तर पर सूर्य रह सके, अर्थात् चन्द्रसे सूर्यका अन्तर पचास हजार योजन, और चन्द्रसे चन्द्रका अथवा सूर्यसे सूर्यका अन्तर एक लाख योजन रहे वैसी व्यवस्था करते जितनी संख्या आवे उतनी विवक्षित पंक्तिमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाने / अब हम सोचेंगे तो इस मतके अनुसार आगे आगेकी पंक्तियोंमें क्रमशः छः छः और सात चन्द्र-सूर्यकी वृद्धि करते मनुष्यक्षेत्रके बाहर पुष्करार्धमें आठवीं पंक्तिमें 189 चन्द्र और 189 सूर्य हैं / जब कि ऊपर कथित द्विगुण करनेकी पद्धतिसे पुष्करोदसमुद्रकी प्रथम पंक्ति (14542 =) 29. चन्द्र और 290 सूर्यकी संख्या कही जाती है। दो लाख योजनका विष्कम्भ अधिक होनेसे परिधिमें Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 83-85 द्वीप-समुद्रकी प्रथम पंक्तिके लिए समझें / अब यह पुष्करसमुद्र बत्तीस लाख योजन चौड़ा होनेसे लाख-लाख योजनके अन्तर पर रहीं शेष 31 पंक्तियों में कितने कितने चन्द्र और सूर्य हों ? यह यहाँ कहा जाता है / इसके आगे मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धमें सूर्यचन्द्रकी संख्याके लिए जो व्यवस्था बताई गयी थी वह व्यवस्था यहाँ भी समझनी है, अर्थात् एक एक लाख योजनके अन्तर पर स्थित पंक्तियोंकी जितनी परिधि हो और उस परिधिमें सूर्यसे चन्द्रका पचास हजार योजन अन्तर और सूर्यसे सूर्यका अथवा चन्द्रसे चन्द्रका एक लाख योजनप्रमाण अन्तर रहे वैसी व्यवस्था करते जितने सूर्यो अथवा चन्द्रोंका समावेश हो सके उतने सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या जानें / इस तरह करनेसे प्रथम पंक्तिगत सूर्य-चन्द्रोंकी अपेक्षासे दूसरी पंक्तिमें छः चन्द्रों और छः सूर्योंकी संख्या-वृद्धि होती है, अर्थात् प्रथम पंक्तिमें 290 चन्द्र-सूर्य हैं जब कि दूसरी पंक्तिमें 296 चन्द्र और 296 सूर्य हैं। तीसरी पंक्तिमें सात चन्द्र और सात सूर्योकी वृद्धि होनेसे 303 चन्द्र और 303 सूर्य हैं / चौथी पंक्तिमें छः छः चन्द्र-सूर्योंकी वृद्धि होनेसे (303 + 6 = ) 309 चन्द्र और 309 सूर्य होते हैं, पांचवीं पंक्तिमें पुनः छः छः चन्द्रों-सूर्योंकी वृद्धि होनेसे (309+6 = ) 315 चन्द्र, 315 सूर्य होते हैं / पुनः छठी पंक्तिमें सात सात चन्द्रसूर्यकी वृद्धि होनेसे (315 + 7 = ) 322 चन्द्र और 322 सूर्य होते हैं। उसके बादकी पंक्तियोंमें भी प्रथमकी तरह दो बार छः छ: चन्द्र-सूर्योकी और एक बार सात चन्द्रों और सात सूर्योकी वृद्धि करते जाएँ। ऐसा करनेसे जब इष्टद्वीप अथवा समुद्रकी अन्तिम पंक्ति आनेके बाद आगेके द्वीप अथवा समुद्रमें वर्तित प्रथम पंक्तिगत चन्द्रों -सूर्यों की संख्या जाननेके लिए पूर्वके द्वीप अथवा समुद्रकी प्रथम पंक्तिगत चन्द्र-सूर्योकी संख्या को द्विगुण करनेसे जो संख्या आवे वह संख्या उस द्वीप अथवा समुद्रकी प्रथम पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी जानें / तत्पश्चात् एक बार छः की वृद्धि होती है, और उस हिसाबसे छः छः और सात चन्द्र-सूर्यकी क्रमशः पूर्वसंख्यामें वृद्धि हो वह बराबर है। परन्तु मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धकी अन्तिम पंक्तिमें 189 चन्द्र-सूर्य हैं, और द्विगुण करनेकी ऊपर बताई पद्धतिसे पुष्करोदसमुद्रकी प्रथम पंक्तिमें 290 चन्द्रे और 290 सूर्य आते हैं तो एक साथ 101 चन्द्र-सूर्यकी वृद्धि किस तरह हुई 1 अथवा वृद्धि हुई तो चन्द्रसे सूर्यका पचास हजार योजन और चन्द्रसे चन्द्रका अथवा सूर्यसे सूर्यका एक लाख योजन प्रमाण अन्तर किस तरह आ सके ? क्योंकि उतने अन्तरकी उस व्यवस्थाके अनुसार उस पुष्करोदसमुद्रकी प्रथम पंक्तिकी परिधि 63 लाख योजन प्रमाण विष्कम्भकी अपेक्षासे लगभग 20000000 (दो करोड़) जितनी हो जाती है / इतनी योजनप्रमाण परिधिमें 290 चन्द्र और 290 सूर्य पचास पचास हजार योजनके अन्तर पर किस तरह रह सके ? उस विषयमें खास विचार करनेकी जरूरत है / चन्द्र-सूर्यकी संख्या न्यून हो, तो ही उतनी परिधिमें पचास हजार योजनका अन्तर व्यवस्थित रहे, अथवा चन्द्र-सूर्यकी संख्या 290 ली जाए तो प्रत्येक द्वीप-समुद्रमें अन्तरके निश्चितताका नियम नहीं रह सकेगा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्धमें मतान्तर ] गाथा 83-85 [ 185 वृद्धि, फिर एक बार सातकी वृद्धि, उसके बाद दो पंक्तियों में छः छः की वृद्धि और एक बार सातकी वृद्धि इस तरह यावत् इष्ट द्वीप अथवा समुद्रकी अन्तिम पंक्ति तक सोचें / इस तरह प्रत्येक द्वीप-समुद्रमें वर्तित चन्द्र-सूर्य संख्या स्वयं सोच ले। // इति दिगम्बरमतेन मनुष्यक्षेत्रबहिर्वर्तिचन्द्र-सूर्यपंक्तिव्यवस्था संख्याकरणं च // [ इस तरह प्रासंगिक दिगम्बर मतका निरूपण किया। अब इन ग्रन्थकार महर्षिने 83-84-85 गाथाओं में जो किसी एक प्रसिद्ध आचार्यका मतांतर बताया है उस तृतीयमतका अब यहाँ निरूपण किया जाता है / ] ____ तृतीयमतनिरूपण // मनुष्यक्षेत्रके बाहर आठ लाख योजनप्रमाण वलयविष्कम्भवाले अर्ध पुष्करद्वीपमें, वलयाकारमें एक एक लाख योजनके अन्तर पर आठ पंक्तियाँ रही हैं / प्रथम पंक्ति मानुषोत्तरपर्वतसे . 50000 (पचास हजार) योजन दूर आयी है। १८७मनुष्यक्षेत्र (पैंतालीस लक्ष योजनप्रमाण विष्कम्भवाला होनेसे )की परिधि 14230249 योजनप्रमाण है / दोनों बाजू पर पचास पचास हजार योजनप्रमाण क्षेत्रकी वृद्धि होनेसे; परिधिमें वृद्धि होनेसे प्रथम पंक्तिकी परिधि 14546476 योजन जितनी होती है / इस पंक्तिमें 72 चन्द्र और 72 सूर्य रहे हैं। चन्द्र-सूर्य दोनोंका जोड़ करनेसे ( 72 + 72 = )144 होते हैं, इस १४४की संख्यासे 14546476 योजनप्रमाण परिधिको बाँटनेसे चन्द्रसे सूर्यका अन्तर एक लाख और एक हजार सत्रह योजन पर अधिक 29 भाग प्रमाण-(१०१०१७ 44) आएगा, और एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रका अथवा एक सूर्यसे दूसरे सूर्यका 202034 25 योजन प्रमाण अंतर आएगा। 'जो जावइ लक्खाइ'...........इस गाथाके अनुसार जो द्वीप अथवा समुद्र जितने लाख योजन प्रमाण विष्कम्भवाला हो उस द्वीप-समुद्रमें उतनी चन्द्र-सूर्योकी पंक्तियाँ परिरयाकारमें-वर्तुलाकारमें सोचे / इस मनुष्यक्षेत्रके बाहरका पुष्करार्धक्षेत्र आठ लाख योजनप्रमाण . विष्कम्भवाला होनेसे (प्रत्येक द्वीप-समुद्रमें आदि और अन्तका 50 हजार योजनक्षेत्र अलग रखकर ) उसमें वलयाकारमें आठ पंक्तियाँ एक एक लाख योजनके अन्तर पर रही हैं, जो सहज समझमें आये ऐसी स्पष्ट बात है। आगे-आगेके प्रत्येक द्वीपसमुद्रमें, उस उस पंक्तिमें स्थित चन्द्र-सूर्योंकी संख्या तो सरलतासे जान सकते हैं, परन्तु समग्र द्वीप अथवा समुद्र में वर्तित सर्व चन्द्रों तथा सूर्योकी ___ 196. इस मतसे 'त्रिलोकसार 'ग्रन्थके कर्त्ता [दिगम्बराचार्य ] सम्मत हैं / 197. 'एगा जोयणकोडी, लक्खा बायाल तीसइ सहस्सा / / समयक्खित्तपरिरओ दो चेव सया अउणपन्ना // 1 // ' वृ. सं.. 24 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 83-85 संख्या किस तरह जाने ? इसके लिए बालजीवोंको अतिशय उपयोगी ऐसा 'करण'. बताया जाता है, वह इस तरह __ जिस जिस द्वीप-समुद्रमें जितनी पंक्तियाँ हों उस उस पंक्तिकी सर्व संख्याको ‘गच्छ' ऐसी सांकेतिक संज्ञा दी जाती है, और आगे आगेकी पंक्तियोंमें जिन चार-चार चन्द्रों-सूर्योंकी वृद्धि करनेकी है, उस चारकी संख्याको 'उत्तर' ऐसी संज्ञा दी जाती है / अब ‘गच्छ 'का . 'उत्तर 'के साथ गुना करें, उसके बाद प्राप्त हुई संख्यामेंसे 'उत्तर' अर्थात् चारकी संख्या कम करें, अनन्तर जिस द्वीप अथवा समुद्रके चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाननी हो उस द्वीपसमुद्रकी प्रथम पंक्तिमें चन्द्र-सूर्यकी जो संख्या हो उस संख्याका प्रथम आयी हुई संख्यामें प्रक्षेप करें। ऐसा करनेसे जो संख्या आये उसी संख्याको उस द्वीप अथवा समुद्रकी अन्तिम पंक्तिमें समझे / अब द्वीप-समुद्रकी सर्व पंक्तियोंके चन्द्रों-सूर्योंकी संख्या लानेके लिए अन्तिम पंक्तिमें जो संख्या आई है उसे प्रथम पंक्तिकी संख्यासे जोड़ें / इस तरह करनेसे जो संख्या आये उसका जिस द्वीप अथवा समुद्रमें जितनी पंक्तियोंका गुच्छ हो उससे अर्धगुच्छ अर्थात् जितनी पंक्तियाँ हों उसकी अर्ध संख्यासे गुना करनेसे इष्ट द्वीप अथवा समुद्रकी सर्व पंक्तियों में वर्तित सर्व चन्द्र-सूर्यकी संख्या मिलेगी / उस सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार उदाहरण-जैसे कि पुष्करसमुद्रमें आठ पंक्तियाँ हैं, उस आठको ‘गच्छ' कहा जाता है / उस गच्छका 'उत्तर' अर्थात् चारसे गुना करनेसे (844 = ) 32 आये, उसमेंसे चार कम करनेसे (32 - 4 = ) 28 आये, इस अठाइसमें प्रथम पंक्ति विषयक 144 चन्द्र-सूर्यकी संख्याका प्रक्षेप करनेसे आठवीं पंक्तिमें 172 चन्द्र-सूर्यकी संख्या प्राप्त हुई / पुनः १७२में 144 प्रथम पंक्तिकी संख्या जोड़नेसे (172 + 144 = ) 316 होते हैं, उसे 'गुच्छ' अर्थात् जो आठ है उसके आधे जो चार है उससे गुननेसे (316 x 4 = ) 1264 संख्या समग्र पुष्करार्धमें वर्तित सूर्य-चन्द्रोंकी प्राप्त होती है / उनमें 632 चन्द्र और 632 सूर्य जाने / इन आठों पंक्तियों मेंसे प्रथम पंक्तिमें 144 चन्द्र-सूर्य (चन्द्र 724 72 सूर्य ) हैं, दूसरी पंक्तिमें दो चन्द्रों तथा दो सूर्योकी वृद्धि होनेसे 148 चन्द्र-सूर्य होते हैं / तीसरीमें 152, चौथीमें 156, पाँचवींमें 160, छठीमें 164, सातवीं पंक्तिमें 168 और आठवीं पंक्तिमें 172 चन्द्र-सूर्योंकी संख्या होती है / इस तरह प्रत्येक इष्ट द्वीप अथवा समुद्रमें वर्तित सर्व चन्द्र-सूर्योकी संख्या ज्ञात हो सकती है। -इति तृतीयमतनिरूपणम् // इस तरह मनुष्यक्षेत्रके बाहर परिरयपंक्तिसे सूर्य-चन्द्रकी व्यवस्था विषयक कथन करनेवाला एक दिगम्बरीय मत, और दूसरा प्रसिद्ध आचार्यका मत प्रदर्शित किया गया / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्धमें मतान्तर ] गाथा 83-85 [ 187 परिरय पंक्तिकी मान्यतावाले इन दोनों मतकारोंके बिच उस उस द्वीप-समुद्र में वर्तित परिरय पंक्तिकी संख्याके सिवा सूर्य-चन्द्रादि संख्या, सूर्य-चन्द्रका अन्तर इत्यादि सर्व बाबतमें प्रायः 1४४भिन्नता रहती है तदुपरांत कतिपय १४४विचारणीय स्थल भी उपस्थित होते हैं / 198. आशाम्बरीय (दिग०) और प्रसिद्ध मतकारके बिच होती भिन्नताएँ 1. मनुष्यक्षेत्रके बाहर ‘जो द्वीप-समुद्र जितने लाख थोजनका हो वहाँ चन्द्र-सूर्यकी पंक्तियाँ होती हैं ' यह कथन दोनोंको मान्य है / ___2. दिगम्बरमतके अनुसार बाह्य पुष्कराधकी प्रथम पंक्तिमें 145-145 चन्द्र-सूर्य कहे हैं; जब कि प्रसिद्ध मतके अनुसार उसी प्रथम पंक्तिमें 72 चन्द्र और 72 सूर्य कहे हैं; और इसीलिए दिगम्बरमतकारने स्वोक्त संख्याको संगत करनेके लिए चन्द्र-चन्द्रका परस्पर अन्तर साधिक लाख योजनप्रमाण बताया है, तदनुसार प्रसिद्ध मतकारने स्वोक्त 72-72 चन्द्र-सूर्यकी संख्याको संगत करनेको साधिक दो लाख योजनका अन्तर कहा है / आगेकी अन्य पंक्तियोंके लिए यथायोग्य स्वयं सोच लें / .. 3. उसी पुष्करार्धकी दूसरी पंक्तिसे लेकर प्रत्येक पंक्तिमें पूर्वपंक्तिगत चन्द्र-सूर्योंकी कुल जो संख्या हो उससे अधिक छः छः अथवा सातसातकी वृद्धि करनेको कहा और तदनुसार आठवीं पंक्तिमें 189-189 चन्द्र-सूर्यकी संख्या प्राप्त हुई / जब कि इस प्रसिद्ध मतकारने आगे आगेकी प्रत्येक पंक्तिमें प्रथमकी पंक्तिकी अपेक्षासे (दो सूर्य और दो चन्द्र ) चारकी संख्याकी वृद्धि करनेको कहा जिससे अन्तिम आठवीं पंक्तिमें (86-86 चन्द्र-सूर्य = ) १७२-चन्द्र-सूर्यकी संख्या आती है / . 4. इस तरह होनेसे दिगम्बर मतानुसार बाह्यपुष्कराधकी आठों पंक्तियोंके चन्द्र-सूर्योकी क्रमशः संख्या कुल 1337-1337 की बनती है / जब कि प्रसिद्ध मतकारके अभिप्राय-अनुसार बाह्यपुष्कराधमें कुल 632 चन्द्र और 632 सूर्योकी संख्या प्राप्त होती है। 5. तथा दिगम्बर मतकारने पुष्करवर समुद्रोंकी प्रथम पंक्तिमें सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या प्राप्त करनेके लिए ऐसा जणाया कि पुष्करवरद्वीपकी प्रथम पंक्तिमें चन्द्र-सूर्योकी जो संख्या हो उसे द्विगुण करें, वैसा करनेसे पुष्करवर समुद्रमें प्रथम पंक्तिगत चन्द्र-सूर्योकी संख्या प्राप्त होती है / तदनन्तर पंक्तियोंमें छः छः अथवा सात सातकी वृद्धि करें, और इस तरह प्रत्येक द्वीप-समुद्रके लिए समझे / अर्थात् प्रथम पंक्तिके लिए अगले द्वीप-समुद्रकी प्रथम पंक्तिसे द्विगुनत्व और अनन्तर छ:-छः, सात-सातकी वृद्धि समझे / जबकि प्रसिद्ध मतकारने प्रत्येक द्वीप-समुद्रमें प्रथम पंक्तिके लिए तथा आगेकी पंक्तियोंके लिए चार-चारकी वृद्धि करनेका बताया है। सूचना-'त्रिगुणकरण'का सैद्धान्तिक मत स्वतन्त्र होनेके कारण उक्त दोनों मतकारोंके साथ उसकी तुलना करना जरूरी नहीं है क्योंकि “त्रिगुणकरण के अनुसार मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्यकी किसी भी प्रकारकी निश्चित व्यवस्था बताई नहीं गई / 199. आशाम्बरीय और प्रसिद्ध मतकार विषयक चन्द्र-सूर्यकी अल्प विचारणा // प्रसिद्ध मतकारकी अपेक्षासे यह सोचनेका है कि जब गाथा ६५वींमें मनुष्यक्षेत्रके बाहर निश्चयसे किसी भी पंक्ति स्थानमें चन्द्र-सूर्यका पचास हजार योजनप्रमाण अन्तर बताया गया है तब इन ८३-८४वीं Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 83-85 OM जिसका सविशेष खयाल नीचेकी 198-199 नम्बरकी टिप्पणी पढ़नेसे आ सकेगा / दिगम्बरीयमत 'कर्मप्राभृत' ग्रन्थमेंसे. उद्धरित है, जब कि 83-84-85 गाथाओंसे कथित प्रसिद्ध आचार्यका मत किस ग्रन्थ परसे कहा गया है उसकी माहिती नहीं मिलनेके कारण ज्ञानीगम्य है, तो भी ये दोनों मतकार मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी व्यवस्था परिरयाकाररूप बताते हैं यह बात तो निश्चित है / __ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या तथा व्यवस्था बाबतमें जो दोनों मत ऊपर बताये उस अपेक्षासे सूर्य-चन्द्रकी संख्याके विषयमें बहुश्रुत पुरुष 'तिगुणापुव्विल्लजुया' इस गाथासे प्राप्त होता जो त्रिगुणकरण उसे ही सर्वमान्य जणाते हैं, जो बाबत प्रथम कही गई है / इस त्रिगुणकरणके अनुसार पुष्करवरद्वीपमें प्राप्त होती 144-144 चन्द्र-सूर्योकी संख्याको किस तरह व्यवस्थित करें इस बाबत पर विचार करनेकी आवश्यकता है / 144-144 चन्द्र-सूर्योंकी संख्यामेंसे मनुष्यक्षेत्रमें आए हुए अभ्यन्तरपुष्करार्धके 72-72 गाथाओंमें चन्द्र-सूर्यका पचास हजार योजन अन्तर न कहकर (मतान्तरसे ) 101017 योजन 3 भाग : (अथवा 244 भाग) प्रमाण अन्तर प्राप्त हो इसी तरह सूर्य-चन्दकी व्यवस्था बताई है। तथा गाथा ६६वींमें चन्द्रसे चन्द्रका और सूर्यसे सूर्यका साधिक एक लाख योजनप्रमाण अन्तर कहा है जब कि इन 83-84 गाथाओंके मतानुसार 202034 26 योजन प्रमाण अन्तर प्राप्त होता है और वह भी प्रथमकी पंक्तियों के लिए ही / अतः आगे आगेकी अन्य पंक्तियोंमें सूर्य-चन्द्रका अन्तर जाननेके लिए तो ऐसी व्यवस्था बताई है कि-उस परिरय पंक्ति स्थानमें जितनी परिधि आवे उस परिधिको उस पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी संख्यासे बाँटनेसे उत्तरमें जितनी राशि आये, उतना अन्तर चन्द्र-सूर्यका समझना चाहिए / ___ इस तरह दिगम्बरमतकारने तो गाथा ६५-६६में कहे अनुसार पचास हजार योजन तथा साधिक लाख योजन अन्तर बताया है / अर्थात् वह अन्तर इस मतकारको मान्य है, परन्तु यह मान्यता उनकी प्रथम पंक्तिके लिए ही है या सर्व पंक्तियोंके लिए हैं ? बाह्य पुष्करार्धद्वीपके लिए ही है या किसी भी द्वीप-समुद्रके लिए है ? यह तो बहुश्रुत पुरुषोंके पाससे (शोचनीय) विचारणीय है क्योंकि यदि प्रथम पंक्तिके लिए है तो अन्य पंक्तियोंके लिए क्या समझे ? तथा पुष्करार्धद्वीपके पश्चात् पुष्करसमुद्र आदि द्वीप-समुद्रोंमें उनके मतानुसार प्रथम पंक्तिमें पूर्वद्वीप अथवा समुद्रकी प्रथम पंक्तिकी अपेक्षासे द्विगुण (जैसे पुष्करसमुद्रमें 290) संख्या आनेसे और उस प्रथम पंक्तिस्थानमें परिधिका अमुक प्रमाण होनेसे पचास हजार तथा लाख योजनका अन्तर किस तरह संगत हो सके ? इत्यादि सर्व विचारणा गीतार्थ बहुश्रुतोंके आधीन है / ( इसके लिए १२९वीं टिप्पणी पढ़नेसे विशेष ख्याल आएगा / ) सूचना-'त्रिगुणकरण 'के मतानुसार तो 50 हजार योजनका अन्तर और लाख योजनका अन्तर जो कहा है वह निश्चित है / पंक्ति व्यवस्था विषयक यद्यपि अनिश्चितता है तो भी ‘सूर्यप्रज्ञप्ति' आदि ग्रन्थोंके पाठके अनुसार मनुष्यक्षेत्रके बाहर उसी उक्त अन्तरको समझनेका है / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्धमें मतान्तर ] गाथा 83-85 [ 189 चन्द्र-सूर्योकी व्यवस्था प्रथम जणाई होनेसे मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धमें बाकी बचे 72-72 चन्द्र-सूर्योको हम पूर्वोक्त दोनों मतकारोंके मन्तव्यके अनुसार परिरयाकारूप समझे या सूचीश्रेणिरूप समझे ? यह प्रश्न उपस्थित होता है / यद्यपि पंक्तिकी व्यवस्था तो परिरयाकारमें और समश्रेणिमें इस तरह दोनों प्रकारसे हो सकती है, तो भी 72-72 चन्द्र-सूर्योकी परिरयाकारमें व्यवस्था करनेसे सूर्य-चन्द्रका और सूर्य-सूर्यका तथा चन्द्र-चन्द्रका पचास हजार योजन और एक लाख योजनप्रमाणका जो अन्तर निश्चित किया है, उस निश्चयमें भंग होनेका प्रसंग उपस्थित होनेसे परिरय पंक्तिकी व्यवस्था उचित नहीं लाती, जब कि सूचीश्रेणीकी व्यवस्थाके लिए श्री सूर्यप्रज्ञप्तिके प्रमुख ग्रन्थों में स्पष्ट पाठ होनेसे (सामान्य दोष प्राप्त होने पर भी ) सूचीश्रेणीकी व्यवस्था ही मान्य रखनी उचित लगती है। इस 20 सूचीश्रेणि-समश्रेणिकी व्यवस्था भी दो-तीन प्रकारसे हो सकती है, उनमेंसे अमुक प्रकारकी व्यवस्थाके बारेमें ही इष्ट हो इस तरह आजूबाजूके उन साक्षीभूत पाठ होनेसे जरूर कबूल करना पड़ता है, जो 200 नम्बरकी टिप्पणी पढ़नेसे विशेष ख्यालमें आ सकेगा। २००-त्रिगुणकरणके अनुसार मनुष्यक्षेत्र बाहर चन्द्र-सूर्यकी व्यवस्था विषयक अल्पविचार // प्रथम मुख्य सैद्धान्तिक मत 'तिगुणा पुब्विलजुया'का जो है, उसी मतानुसार बाह्यपुष्करार्धमें 72 चन्द्र और 72 सूर्यकी कुल संख्या कही अर्थात् आठ लाख योजनप्रमाण बाह्य पुष्करार्धमें 72. चन्द्र और 72 सूर्य बताये हैं / . दिगम्बरीय मतानुसार और प्रसिद्ध मतानुसार उसी बाह्यपुष्करार्धक्षेत्र (के आठ लाख योजनप्रमाण विष्कम्भमें से प्रारम्भके और अन्तके पचास-पचास हजार योजन कम करनेसे शेष बचे सात लाख योजनप्रमाणक्षेत्र )में लाख-लाख योजनके अन्तर पर परिरयाकारमें चन्द्र-सूर्यकी आठ पंक्तियाँ बताई गई हैं, और उस प्रत्येक पंक्तिमें वर्तित उस उस चन्द्र-सूर्यकी संख्याको उक्त अन्तरानुसार संगत कर दिखाई गई है, वैसी इस सिद्धान्तकारके 'त्रिगुणकरण 'के मतानुसार प्राप्त होती चन्द्र-सूर्योकी संख्याको परिरय-वलयाकारमें संगत करना यह सोचने पर भी उचित नहीं लगती; क्योंकि परिरयाकारमें अगर ली जाए तो लाख लाख योजनके अन्तर पर आठ पंक्तियाँ माननी पड़े / और इस तरह माननेसे चन्द्र-सूर्यकी कुल संख्या जो १४४की है उसका बाह्यपुष्करार्धमें समावेश जरूरी होनेसे प्रत्येक परिरय पंक्तिमें कुल चन्द्र-सूर्यकी संख्या 18 जितनी अल्प प्राप्त होती है / इन 18 चन्द्र-सूर्योकी संख्याको प्रथम कहे गए 14546476 योजन प्रमाण परिधिमें पचास पचास हजार योजनके हिसाबसे सोचे तो पूर्वोक्त कही गई परिधिमें बहुत-सा क्षेत्र खाली रह जाए / साथ ही आगे-आगेकी परिरय पंक्तिकी परिधि विशेष प्रमाणवाली होनेसे उस परिधिका तो बहुतसा क्षेत्र चन्द्र-सूर्य हीन रहता है / इसलिए परिरयाकारमें पंक्तियोंको मानना, यह वैचारिक दृष्टिसे उचित नहीं लगता। . अब सूचीश्रेणीकी व्यवस्थाके लिए सोचेंमनुष्यक्षेत्रमें वर्तित सूचीश्रेणीके अनुसार रही हुई चन्द्र-सूर्यकी पंक्तिकी तरह, इस बाह्य पुष्करार्धमें Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 83-85 / यहाँ शंका होती है कि मनुष्यक्षेत्रके बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें इतने सारे चन्द्र-सूर्य हैं, तो वहाँ वर्तित जन्तु आदि, चन्द्र-सूर्यकी शीतलता और उष्णता किस तरह सहन कर संकते होंगे? इसके समाधानमें बताया है कि-मनुष्यक्षेत्रके बाहरके चन्द्र-सूर्य स्वभावसे ही 36-36 सूर्योकी दो और 36-36 चन्द्रोंकी दो पंक्तियाँ भी घट नहीं सकतीं; क्योंकि वैसा करनेसे आठ लाख योजन प्रमाणक्षेत्रमें-३६ सूर्यो अथवा 36 चन्द्रोंको सूचीश्रेणीमें लगानेसे चन्द्रसे चन्द्रका, सूर्यसे सूर्यका तथा चन्द्रसे सूर्यका शास्त्रमें बताया गया इष्ट अन्तर प्राप्त नहीं होता तथा सूर्यान्तरित चन्द्र और चद्रान्तरित सूर्य होने चाहिए लेकिन वे भी नहीं मिल सकते / अब दूसरे प्रकारसे सूचीश्रेणीकी व्यवस्था सम्बन्धमें सोचें यद्यपि इस तरह व्यवस्था करनेसे अमुक विरोध तो खड़ा रहेगा ही; फिर भी प्रारम्भके दोनों पक्षोंमें जितने विरोध देखे जाते हैं, उनकी अपेक्षा तो इस व्यवस्थापक्षमें एकाध विरोधका ही हल अवशिष्ट रहता होनेसे, यह पक्ष किंचित् ठीक समझा जा सकता है, तो भी जब तक सिद्धान्तमेंसे कोई वैसा यथार्थं निर्णय हस्तगत न हो तब तक ऐसे विवादास्पद स्थलोंमें भवभीरु छद्मस्थ कोई भी निर्णय कैसे दे सकते हैं ? आठ लाख योजन प्रमाण बाह्य पुष्करार्धमें प्रारम्भके और अन्तके पचास पचास हजार योजन वर्जित करके अवशिष्ट सात लाख योजन प्रमाण क्षेत्रमें सूर्यकी किरणोंकी तरह चारों दिशावर्ती सात लाख योजन लम्बी चन्द्र-सूर्यकी नव-नव श्रेणियोंकी कल्पना करें, प्रत्येक श्रेणिमें आठ चन्द्रों अथवा आठ सूर्योको लाख लाख योजनके अन्तर पर स्थापित करें, ऐसा करनेसे 72 चन्द्रों और 72 सूर्योकी संख्या प्राप्त होगी, चन्द्रसे चन्द्रका तथा सूर्यसे सूर्यका एक लाख योजन प्रमाण अन्तर कम होगा और एक अपेक्षासे 'सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्द्रांतरित सूर्य होते हैं ' यह वचन भी सफल होगा / सिर्फ 'चन्दाओ सूरस्स य सूरा चन्दस्स अन्तरं होइ / पन्नाससहस्साई जोयणाई अणूणा // 1 // ' इस गाथाके अर्थानुसार चन्द्रसे सूर्यका अथवा सूर्यसे चन्द्रका जो पचास हजार योजन प्रमाण अन्तर जणाया है उस अन्तरको संगत कैसे करे ? यही एक प्रश्न उपस्थित होगा, (क्योंकि प्रत्येक पंक्ति चन्द्र-सूर्यसे समुदित होनेसे ) और यह प्रश्न जब तक हो तब तक इस सूचीश्रेणीकी व्यवस्थाको भी आदर नहीं दिया जा सकता / __ अथवा प्रारम्भके और अन्तके पचास पचास हजार योजन कम करके अवशिष्ट सात लाख योजन प्रमाण क्षेत्रमें चन्द्रकी और सूर्यकी ऊपरके चित्रकी तरह अलग अलग पंक्तियाँ न रचकर चन्द्र-सूर्यकी समुदित पंक्ति रक्खें, अर्थात् बाह्य पुष्कराधमें कुल नव पंक्तियोंकी कल्पना करें, उन नव पंक्तियों से प्रत्येक पंक्तिमें एक चन्द्र एक सूर्य, एक चन्द्र एक सूर्य ऐसे पचास-पचास हजार योजनके अन्तर पर कम करते सात लाख योजन तक जानेमें आठ चन्द्र और सात सूर्यका सात लाख योजन लम्बी एक पंक्तिमें समावेश होता है / प्रथम चन्द्र रक्खा गया है अगर उसके बदलेमें प्रथम सूर्य रक्खा जाए तो आठ सूर्य और सात चन्द्रका एक पंक्तिमें समावेश होता है / इस तरह करनेसे नवों पंक्तियोंमें प्रथम चन्द्रकी स्थापनापेक्षया चन्द्रकी 72 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्धमें मतान्तर ] गाथा 83-85 [15 अति शीत और अति उष्ण प्रकाश देनेवाले नहीं हैं, अर्थात् मनुष्यक्षेत्रके चन्द्र-सूर्योकी तरह विशेष प्रमाणमें शीत और उष्ण लेश्यावाले होते हैं वैसी विशिष्ट शीत उष्ण लेश्या: वाले मनुष्यक्षेत्रके बाहरसे चन्द्र-सूर्य होते नहीं हैं। जिसके लिए श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिमें बताया है कि 'सुरंतरिया चन्दा, चन्दन्तरिया य दिणयरा दित्ता / चित्तन्तरलेसागा सुहलेसा मन्दलेसा य // 1 // ' संख्याका समावेश होता है, परन्तु सूर्यकी संख्या जो ७२की कही है उनमें से ६३का समावेश होता है जब कि नव सूर्य शेष रह जाते हैं / पंक्तिमें प्रथम सूर्य रक्खा जाए तो 72 सूर्योका समावेश हो, परन्तु नव चन्द्रकी संख्या अवशिष्ट रहती है, अर्थात् मलयगिरि महाराज और चन्द्रीया टीकाकार महर्षिके अभिप्रायानुसार सूचीश्रेणिकी व्यवस्था जो कि घट सकती है, चन्द्रसे चन्द्रका, सूर्यसे सूर्यका, और चन्द्रसे सूर्यका इष्ट अंतर भी इस व्यवस्थामें प्राप्त होता है, फिर भी पंक्तिमें प्रथम चंद्रको लें या सूर्यको ? इस शंकाका समाधान शेष रह जाता है, ऊपरांत ऊपर जणाये अनुसार नव चन्द्रों अथवा नव सूर्योंका पंक्तिमें इष्ट अंतर रखने पर समावेश होता नहीं है, यह विरोध उपस्थित रहता है, फिर भी * " चंदाओ सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ / पन्नाससहस्साई तु जोयणाई अणूणाई // 1 // सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य अंतरं होइ / बहियाउ माणुसनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं // 2 // सूरतरिआ चंदा चंदंतरिआ य दिणयराऽऽदित्ता / चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य // 3 // ' ___इस सिद्धांतकी तीन गाथाओंके अनुसार जणाए'ततः सम्भाव्यते सूचीश्रेण्या न परिरयश्रेण्या अन्यथा वा बहुश्रुतैर्यथागमं परिभावनीयम्' उभय टीकाकार महर्षिओंके ऐसे वचनोंसे अंतिम दोनों पक्षोंमें सूचीश्रेणिकी व्यवस्था तो घट सकती है, परंतु कोई न कोई एकाद विरोध उपस्थित हो जानेसे-जब एक बाजूसे किसी भी प्रकारका निश्चित निर्णय नहीं दिया जा सकता, तब दूसरी ओरसे श्री सूर्यप्रज्ञप्ति-टीकाके नीचे जणाए दोनों पाठोंसे श्री टीकाकार भगवंतको यह अंतिम पक्ष ही यथार्थ मान्य है / यह माने बिना भी चलनेवाला नहीं है / ये पाठ इस तरह है " सूरस्स य सूरस्स य” इत्यादि, मानुषनगस्य-मानुषोत्तरपर्यतस्य बहिः सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं चंद्रस्य चंद्रस्य च परस्परमंतरं भवति योजनानां ' शतसहस्रं' लक्षम् तथाहि-चंद्रांतरिताः सूर्याः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः व्यवस्थिताः चंद्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि (50.00), तत चन्द्रस्य सूर्यस्य च Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 83-85 भावार्थ सुगम है। तत्त्वार्थसूत्रकी टीकामें भी ऊपरका ही अभिप्राय परस्परमन्तरं योजनानां लक्षं भवतीति / सम्प्रति बहिश्चन्द्रसूर्याणां पङ्क्ताववस्थानमाह- सूरतरिया' इत्यादि, नृलोकादहिः पत्या स्थिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राश्चन्द्रान्तरिता दिनकरा दीप्ताः xxxxx / कथंभूतास्ते चन्द्रसूर्याः इत्याह- .. 'चित्रान्तरलेश्याकाः' चित्रमन्तरं लेश्या च-प्रकाशरूपा येषां ते तथा, तत्र चित्रमन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरित्वात् सूर्याणां च चन्द्रान्तरित्वात् , चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरश्मित्वात् सूर्याणामुष्णरश्मित्वात् // " [ मुद्रित पत्र 28] " चन्द्रमसां सूर्याणां च प्रत्येकं लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराश्चन्द्रसूर्याणां च सूचीपङ्क्त्या व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशद्योजनसहस्राणि, ततश्चन्द्रप्रभासम्मिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्राश्चन्द्रप्रभाः” [पत्र 282] भावार्थ :-“मानुषोत्तरपर्वतसे बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें सूर्यसे सूर्यका तथा चन्द्रसे चन्द्रका परस्पर अन्तर (साधिक) एक लाख योजन प्रमाण है, वे इस तरह-सूर्य चन्द्रान्तरित अर्थात् चन्द्रके आंतरेवाले हैं, अर्थात् दो सूर्यके बिच एक चन्द्र है और चन्द्र सूर्यान्तरित हैं / चन्द्रसे सूर्यका अंतर पचास हजार योजन प्रमाण है, अतः सूर्य-सूर्यका चन्द्र-चन्द्रका परस्पर अंतर एक लाख योजन प्रमाण कहा वह बराबर है / अब मानुषोत्तर पर्वतके बाहर चन्द्र-सूर्यकी पंक्ति व्यवस्था जणाते हैं -मनुष्यक्षेत्रके बाहर पंक्तिमें स्थित सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्द्रान्तरित तेजस्वी सूर्य विचित्र अन्तरवाले तथा विचित्र प्रकाशवाले हैं, उनमें विचित्र अन्तरवाले अर्थात् दो चन्द्रोंके बिच एक सूर्यका अंतर है और दो सूर्योंके बिच एक चन्द्रका अंतर है ऐसे चन्द्र सूर्य होते हैं, साथ ही विचित्र प्रकाशवाले अर्थात् चन्द्र शीतकिरणवाले और सूर्य उष्णकिरणवाले हैं / " "चन्द्र-सूर्य प्रत्येकका प्रकाश एक लाख योजन विस्तारवाला. है, सूचीश्रेणी द्वारा व्यवस्थित चन्द्रसूर्योंका अंतर पचास हजार योजन है, अतः चन्द्रप्रभासे मिश्रित सूर्यप्रभा है और सूर्यप्रभासे मिश्रित चन्द्रप्रभा है।" विशेषमें मनुष्यक्षेत्रके बाहरके विमानोपपन्न ज्योतिषी देवोंके विमान, पक्की इंटके समान लम्बचतुष्कोण आकारके होते हैं, और उन विमानोंका आतपक्षेत्र-प्रकाश्यक्षेत्र-विस्तारसे (चौड़ामें) एक लाख योजन प्रमाण है, और आयाम-लम्बाईसे अनेक लाख योजन प्रमाण है। विशेषमें यह भी सोचनेका है कि बाह्यपुष्कराधके लिए 72 चन्द्र, 72 सूर्यकी संख्याको संगत करनेके लिए अन्यमताश्रयी एक बार आदि और अन्तके 50 हजार योजन वर्जित किये जाते हैं। वे इस मतसे वर्जित न करें तो 72 चन्द्र तथा 72 सूर्यकी संख्या यथार्थ समाविष्ट हो जाती है, परन्तु आगे प्रतिद्वीप समुद्रके संघिस्थानोंमें चन्द्र-सूर्यका सहयोग हो जाएगा और इससे उक्त अंतरादि व्यवस्थाका भङ्ग Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य तथा चन्द्रका मण्डल ] गाथा 83-85 [ 193 दर्शाया है। प्र० गा० सं० (17-18-19) [83-84-85] // इति प्रस्तुत द्वितीय भवनद्वारे तृतीयज्योतिषीनिकायाधिकारः, प्रासङ्गिक द्वीपसमुद्राधिकारः तेषु चन्द्र, सूर्य ग्रह-नक्षत्रपंक्तिसंख्याधिकारश्च समाप्तः // para conococavaca 3 // चन्द्र-सूर्यमण्डलाधिकार // अवतरण-पहले ( अलग अलग आचार्योके मतानुसार) क्षेपक तीन गाथाओंसे प्रसिद्ध आचार्यका मतांतर, (तारे पंक्तिबद्ध न होकर उन्हें वर्जित करके ) चन्द्र-सूर्य-ग्रह तथा नक्षत्रपंक्ति विषयक सर्व विचारणा, और चन्द्रादि पाँचों ज्योतिषीकी सर्व प्रकारकी संख्या लानेके सम्बन्धमें 'करणादि' उपाय बतलाकर अधिकार समाप्त किया है। ___अब उन चन्द्र-सूर्योंके मण्डल (परिभ्रमण) विषयक वर्णन आरम्भ किया जाता है ___ उनमें पाँचों ज्योतिषीमेंसे चन्द्र-सूर्य और ग्रहके चार मण्डल हैं। और वे चन्द्रसूर्यादि, अनवस्थित मण्डलसे परिभ्रमण करते हुए मेरुकी प्रदक्षिणा कर रहे हैं / नक्षत्रों तथा तारोंके मण्डल हैं, किन्तु वे चर होने पर भी स्वस्व मण्डलों में स्थानमें ही गति करते होनेसे अवस्थित मण्डलवाले हैं। इन पाँचों प्रकारके ज्योतिषीयोंके मण्डलोंमेंसे नक्षत्र होगा, अगर उस भङ्गको बाजूमें रखकर प्रति-द्वीप-समुद्रके आदि और अन्तक्षेत्र तकमें रहे हुए चन्द्र-सूर्यकी अंतर प्रमाणादि व्यवस्था उस विशेष क्षेत्राश्रयी ही सोचें तो अंतरादि प्रमाणकी नियमितता रहनेमें प्रायः दोष उत्पन्न न हो; परन्तु प्रथम तो त्रिगुणमतसे आगे आगे आती बृहत् संख्याका समावेश किस तरह करे यही सोचनेका है / विशेषमें प्रसिद्ध मतकारकी वलयपंक्ति जितनी बुद्धि-युक्तिगम्य और नियमित रहती है वैसा इसमें नहीं रहता है। विशेष तत्त्वज्ञानी ही जाने / चालू विषयके बारेमें शक्ति अनुसार अलग अलग तरहसे सोचना आवश्यक लगनेसे सिर्फ इस विषयके बारेमें भिन्न भिन्न प्रफारसे विचार मात्र दर्शाये हैं / उनमें अन्तिम पक्ष शास्त्रीय होनेसे योग्य लगता है / प्रथमके तीन पक्ष तो विचार करनेके लिए ही दिये गए हैं, फिर भी उन विचारोंमें भी शास्त्रीय विरोधविरुद्धत्व दिखायी दे तो त्रिविध त्रिविध रूपमें मिथ्यादुष्कृत् देकर इस विषयको यहाँ ही पूर्ण करते हैं / इस सारी विचारणाको बाह्य पुष्करार्धके लिए तो स्थान मिल गया, लेकिन आगे आगेके द्वीप समुद्रोंमें किस तरह संगत करना वह ज्ञानीगम्य है। वृ. सं. 25 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी " [गाथा 86-90 . मण्डलोंका किंचित् वर्णन नक्षत्र परिशिष्टमें दिया है / और तारों तथा ग्रहोंके मण्डलोंका वर्णन अप्राप्य होनेसे उन विषयक उल्लेख न करके अब चन्द्र-सूर्य मण्डल विषयक अधिकार शुरू किया जाता है / यह अधिकार संक्षिप्तमें और विस्तारपूर्वक कहा जाएगा / पन्नरस चुलसीइ सयं, इह ससि-रविमण्डलाई तक्खित्तं / .. जोयण पणसय दसहिअ, भागा अडयाल इगसट्टा // 86 // ससि-रविणो लवणम्मि य, जोयण सय तिणि तीसअहियाई / असियं तु जोयणसयं, जम्बूद्दीवम्मि पविसति // 87 // तीसिगसट्ठा चउरो, एगिगसहस्स सत्तभइयस्स / पणतीसं च दुजोयण, ससि-रविणो मण्डलंतरयं / / 88 // [प्र. गा. सं. 20] . पणसट्ठी निसढम्मि य, तत्तियबाहा दुजोयणंतरिया / एगुणवीसं च सयं, सूरस्स य मण्डला लवणे // 89 // [प्र. गा. सं. 21] मण्डलदसगं लवणे, पणगं निसढम्मि होइ चंदस्स / मण्डल अन्तरमाणं, जाणपमाणं पुरा कहियं // 90|| [प्र. गा. सं. 22] गाथार्थ-इस जम्बूद्वीपवर्ती चन्द्रके 15 मण्डल हैं और सूर्यके 184 मण्डल हैं / और उन दोनोंके मण्डलोंका चारक्षेत्र (जम्बूलवणका होकर) 510 योजन और एक योजनके अडतालीस बटे इकसठ भाग जितना अधिक है / // 86 // इससे सूर्यका और चन्द्रका 510 यो०१६ भागका कुल जो चारक्षेत्र है उसमेंसे 330 योजन लवणसमुद्रमें है और लौटते वक्त ये दोनों ज्योतिषीविमान जम्बूद्वीपमें एकसौ अस्सी योजन तक प्रवेश करके रुक जाते हैं / यह उसका चारक्षेत्र बताया / / 87 // 35 योजन और एक योजनके इकसठ भागोंमेंसे तीस भाग और इकसठवें एक भागके सात भाग करके उनमेंसे चार भागका ( 35 यो० - भाग) परस्पर चन्द्र मण्डलका अन्तर होता है / और सूर्यके मण्डलोंका परस्पर अन्तर दो योजनका है।॥८८॥ [प्र. गा. सं. 20] ____तथा सूर्यके 184 मण्डलोंमेंसे 65 मण्डल जम्बूद्वीपमें हैं, उनमें 62 निषधपर्वतके ऊपर पड़ते हैं, जबकि तीन मण्डल उसी पर्वतकी बाहामें पड़ते हैं, और 119 मण्डल लवणसमुद्रमें पड़ते हैं / इन मण्डलोंका परस्पर अन्तर दो योजनका है / / 89 // प्र. गा. सं. 25] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढाईद्वीपाधिकार ] गाथा 86-90 [ 195 चन्द्रके 15 मण्डलोंमेंसे 10 मण्डल लवणसमुद्रमें और पाँच मण्डल जम्बूद्वीपमें निषध पर्वत पर हैं, इन मण्डलोंका परस्पर अन्तर प्रमाण पहले कहा गया है / // 9 // [प्र. गा. सं. 22] विशेषार्थ यहाँसे मण्डल-प्रकरणका अधिकार शुरू होता है / उसमें प्रथम निषध और नीलवंत पर्वतसे मण्डलों का प्रारम्भ माना गया है, तथा पुष्करादि द्वीप विषयक भी किंचित् अधिकार आनेवाला है / अत: उन पर्वतों तथा द्वीपके स्थानोंकी माहिती देना उचित समझकर प्रासंगिक अढाईद्वीपका किंचित् स्वरूप यहाँ जणाया जाता है प्रथम अढाईहीपाधिकार जम्बूद्वीपका वर्णन हम जिस क्षेत्रमें रहते हैं उस जम्बूद्वीपके सात महाक्षेत्रों से 'भरतक्षेत्र 'नामका एक महाक्षेत्र है। यह जम्बूद्वीप २०१प्रमाणांगुलसे 1 लाख योजनका और २०२थालीके समान गोलाकार जैसा अथवा २०३मालपुओके आकार जैसा है और उसका 204 परिधि अथवा उसकी जगतीका प्रमाण 31622 यो०, 3 कोस, 128 धनुष, 133 अंगुल है। गणितकी रीतिसे किसी भी वृत्तक्षेत्रके परिधिका प्रमाण अपने विष्कम्भकी अपेक्षासे त्रिगुणाधिक होता है; और उस २०५वृत्त पदार्थके २०व्यासका २०७वर्ग करके १०से गुना करके 20 वर्गमूल निकालनेसे उस क्षेत्र विषयक परिधिका प्रमाण आता है, जैसे कि जम्बूद्वीपका व्यास 201. हमारा जो अंगुल है उसे उत्सेधांगुल कहा जाता है और वैसे 400 (अथवा 100) उत्सेधांगुलसे ... एक प्रमाणांगुल होता है / 202. इणमो उ समुट्ठिो जम्बूद्दीवो रहंग संठाणो / विक्खभसय सहस्सं जोयणाणं भवे एक्कं / / (ज्यो० करं० ) * 203. तले जाते मालपुएको देखकर बिचके मालपुए जैसी जम्बूद्वीपकी कल्पना करें और चारों बाजूके घी की लवण समुद्रके रूपमें कल्पना करें / 204. किसी भी वृत्त (गोल) पदार्थका घेरा परिधि कहा जाता है / 205. जिस पदार्थको किसी भी दिशासे या छोरसे आमने-सामने नापने पर सर्व जगह पर एक समान नाप आवे तो वह वृत्त कहा जाता है / 206. वृत्त वस्तुकी समान लम्बाई-चौड़ाईके प्रमाणको विष्कम्भ अथवा व्यास कहा जाता है / 207. दो समान संख्याका परस्पर गुना—'वर्ग' कहलाता है / 208. कोई भी दो संख्याएँ किन दो समान संख्याके गुना जितनी हैं ? उसकी मूल संख्या खोज निकालनेकी जो रीति है वह वर्गमूल (करणि ) कहा जाता है / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 1000001 है। व्यासका वर्ग पानेके लिए दोनों समान संख्याका गुना किया / x 100000 (जिससे वर्गसंख्या प्राप्त हुई / ) 10000000000 ___ जम्बूद्वीपके व्यासका वर्ग " दस अरब" प्रमाण हुआ / उसे / दससे गुननेसे वर्गमूल योग्य २०४भाज्य रकम सौ अरबकी आई। - अब वर्गमूल पानेके लिए अंकोंको सम-विषय करें, वह इस x10 100000000000 तरह 1 ला भाजक = 3) 100000000000 (3 योजन 2 रा भाजक = 6,1 01,00 (1 योजन आए हुए उत्तरका अंक + 1 61 ठीक रूपमें रखनेसे 3 रा भाजक = 62,6 39,00 ( 6 योजन 316227 . योजन +6 3756 जितना आया। 4 था भाजक = 632,2 014400 ( 2 योजन +2 12644 5 वा भाजक = 6324,2 01756,00 (2 योजन +2 126484 ६ठा भाजक = 63244, 704911600 (7 योजन . +7 4427129 7 वाँ भाजक = 632454 0484471 शेष-अवशिष्ट -ध्रुव भाजक 484471 शेष-अवशिष्ट | इति परिधि / हैं उसे चार कोसका एक योजन होनेके कारण ४से गुना-४४ ध्रुव भाजक 632454) 1937884 ( 3 कोस आए 1897362 0040522 दो हजार धनुषका (दण्डका) 1 कोस होनेसे x 2000 209. जिसको भाग देना हो वह रकम भाज्य और जिस रकमसे भाज्यको भाग देना हो वह रकम भाजक और जो उत्तर आवे वह 'भागाकार' कहलाता है / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपका परिधि किस तरह निकालना ? ] गाथा 86-90 [ 197 . ध्रुव भाजक = 632454) 81044000 (128 धनुष 632454 1779860 1264908 05149520 5059632 0089888 धनुषकी शेष संख्या रही चार हाथका 1 धनुष होनेसे 44 ध्रुव भाजक = 632454) 359552 ( 0 हाथ (भाग न चलनेसे) 000000 359552 हाथकी शेष संख्या रही 24 अंगुलका 1 हाथ होनेसे २४से गुने 424 1438208 71910404 ध्रुव भाजक = 632454) 8629248 (13 // अंगुल आए 632454 2304708 1897362 0407346 0316227 0091119 अंगुल संख्याके शेष रहे / यहां इतना गणित उपयोगी होनेसे दिया है / इससे अधिक सूक्ष्मप्रमाण यव, जूं-लीखादि निकालना हो तो स्वयं निकाल लें। ऊपरके अनुसार गणितके द्वारा जम्बूद्वीपका 21 परिधि 316227 यो०, 3 को०, 128 ध०, 13 / / अंगुल प्रमाण आया / / 210. 'जम्बूद्दीव परिरओ, तिन्नि य सोलाणि सयसहस्साणि / दोयसया पडिपुण्णा सत्तावीसा समहिया य // 1 // तिष्णि य कोसा य तहा, अट्ठावीसं च धणुसयं एकं / तेरसय अंगुलाइ, अद्धंगुलयं च सविसेसं // 2 // ' (ज्योतिष-करंडक) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ..... ....... [गाथा 86-90 . ___ यह त्रिगुणाधिक परिधिवाला एक लाख योजनका जम्बूद्वीप, पूर्वसमुद्रसे पश्चिम समुद्र तककी लम्बाईवाले सात वर्षधर (कुलगिरि) पर्वत और उसके आन्तरेमें रहे हुए सात महाक्षेत्र तथा उन क्षेत्रों में रहीं महानदियाँ आदिसे सम्पूर्ण है। हम जिसमें रहते हैं वह भरतक्षेत्र, अर्धचन्द्राकार समान मेरुसे दक्षिण दिशामें आया हुआ, तीनों दिशाओं में लवणसमुद्रको स्पर्शित, 526 यो० 6 कला विस्तारवाला और 14471 54 यो पूर्व समुद्रसे पश्चिम समुद्र तककी दीर्घ ज्यावाला (लम्बा ), और उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी के छः छः आरोंके भावोंसे वासित है / हरएक क्षेत्र तथा पर्वतको पूर्वसमुद्रसे पश्चिमसमुद्र तक फैला हुआ समझे / मात्र जम्बूद्वीपके विस्ताराश्रयी लम्बाई प्रमाणमें फर्क पडेगा / इस भरतक्षेत्रकी सीमा पर रहे हुए लघुहिमवन्त पर्वत के मध्य भागमें 10 योजन गहरा, 1000 योजन लम्बा, 500 योजन चौडा वेदिका और वनसे परिवृत्त / और जिसके मध्यस्थानमें अलग अलग वैडूर्यादि रत्नके विभागमें विभाजित श्रीदेवीके प्रथम रत्नकमलसे युक्त, तथा उस मूल कमलको परिवृत्त दूसरे छः वलयोंसे सुशोभित ऐसा 'श्री' देवीके निवासवाला 'पद्म' नामका द्रह आया हुआ है / उसमेंसे निकलती गंगा. और सिन्धु स्वस्वदिशाकी ओर, पर्वतके पर बहकर, गंगानदी उत्तर भरतार्धकी ओर 14000 नदियोंके साथ मैत्री करती हुई दक्षिणसमुद्र में मिल जाती है। उसी तरह 14000 नदियोंसे परिवृत्त दूसरी सिन्धु नदी पश्चिम दिशामें दीर्घवैताढय पर्वतके नीचे होकर, दक्षिणभरतार्धकी तरफ बहकर दक्षिणसमुद्रमें मिल जाती है / शाश्वती गंगा और सिन्धु इन दोनों नदियोंने तथा भरतक्षेत्रके मध्यमें रहे दीर्घवैताढय पर्वतने अर्थात् दो नदियों तथा पर्वतने मिलकर इस भरतक्षेत्रके छः विभाग किये हैं। हम दक्षिण भरतार्द्धके मध्यखण्डमें रहते हैं और एसिया, योरप, अफ्रिका, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि वर्तमान दुनियाका दक्षिणभरतार्धमें समावेश होता है / इस जम्बद्रीप भरतखण्डके प्रमाणके 190 21 खण्ड प्रमाण होनेसे यह भरतक्षेत्र 1 खण्ड प्रमाण है / इस क्षेत्रके मध्यमें अयोध्या नगरी आई हुई है। तथा 63 २१२शलाका पुरुष भी इस क्षेत्रमें उत्पन्न होते हैं / इस भरतखण्डकी उत्तर दिशामें वैताढयको लांघ करके बादका भरतक्षेत्र पसार करनेके बाद भरतसे द्विगुण विस्तारवाला (1052 यो० 12 कला प्रमाण ), वेदिका और वनसे सुशोभित, पीत सुवर्णमय, लम्बचतुष्कोण-आकारमें जिनभवनादिसे सुवासित 11 कूटवाला, साविक 24932 योजन लम्बी जीवावाला, 2 खण्ड प्रमाण, 211. णउयसयं खंडाणं, भरहपमाणेण भाइए लक्खे / अहवा नउय सयं, गुण भरहपमाणं हवइ लक्खं // [जम्बू. संग्रहणी] 212. शलाका पुरुषोंकी उत्पत्ति ऐरवत और महाविदेहमें भी होती है और वहाँ वे. यथायोग्य विजयोंको भी साधते हैं / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतक्षेत्रका संक्षिप्त स्वरूप ] गाथा 86-90 [ 199 'लघुहिमवन्त' पर्वत आया है / इस पर्वत पर आए हुए 'पद्म' द्रहमें 'श्री 'देवीका निवास है / इस पर्वतके ऊपर चढ़कर उतना ही दूसरी बाजू पर उतरने पर तुरन्त ही, पूर्वके पर्वतसे द्विगुण (2105 यो० 5 कला) विस्तारयुक्त और 38674 14 यो० दीर्घ ज्यावाला चार खण्ड प्रमाण अवसर्पिणीके तीसरे आरेके प्रारम्भके भाववाला 'हिमवन्तक्षेत्र' आया है। इस क्षेत्रमें पूर्व में 'रोहिता' और पश्चिममें 'रोहितांशा' नदी बहती है / इस क्षेत्रके मध्यमें अथवा इन दो नदियोंका जहां नजदीक संयोग हो उस स्थानमें शब्दापाती' नामका वृत्तवैताढय आया है। यह क्षेत्र सम्पूर्ण होनेके बाद तुरन्त ही पूर्वक्षेत्रसे द्विगुण (4210 यो० 10 कला ) विस्तारवाला, साधिक 53931 यो० दीर्घ जीवावाला, 8 खण्ड प्रमाण, 200 यो० ऊँचा, पीतसुवर्णका, 8 कूट-शिखरवाला, लम्ब चतुष्कोण (पूर्वसे पश्चिम तक गया हुआ ) २१वेदिका और वनसे सुशोभित, 'महाहिमवन्त' नामका पर्वत आया है। इस पर्वतके ऊपर दो हजार . यो० लम्बा, एक हजार यो० चौड़ा, 10 यो० गहर। 'ही' देवीके निवासवाला ‘महापद्म' नामका द्रह आया है / इस पर्वत पर चढ़कर उतना ही नीचे उतरने पर तुरन्त ही महाहिमवन्तकी उत्तरमें पूर्वसे द्विगुण (8421 योजन 1 कला) विस्तारवाला, 73901 43 यो० पूर्व-पश्चिम दीर्घ ज्यावाला, 16 खण्ड प्रमाण, पूर्वदिशामें बहती 'हरिसलिला' और पश्चिममें बहती 'हरिकान्ता' नदीसे युक्त, क्षेत्रके मध्यमें रहे हुए 'गन्धापाती' नामके वृत्तवैतादयवाला, अवसर्पिणीके दूसरे आरेके प्रारम्भके भाव सद्दश 'हरिवर्ष 'नामका 214 युगलिक क्षेत्र आया है। ... इस क्षेत्रके सम्पूर्ण होने के बाद तुरन्त ही मेरुसे दक्षिणमें (हरिवर्षोत्तरे) पूर्वसे : द्विगुण 16842 यो० 2 कला विस्तारवाला, साधिक 94156 यो० दीर्घ जीवावाला, 400 यो० - 213. हरएक वर्षधर, वेदिका, वन सहित समझना / . .. 214. इन छहों क्षेत्रोंमें रहनेवाले युगलिक मनुष्य स्वभावसे सरल, भोले और सर्व तरहसे सुखी और दिव्य स्वरुपवाले होते हैं और इन छहों युगलिक महाक्षेत्रोंमें असि ( शस्त्र व्यवहारादि), मसि (लेखन कलादि), कृषि (किसान व्यापारादि) इन तीनोंका व्यापार न होनेसे उन्हें कर्मबन्धन अल्प होता है / ये युगलिक मरनेके बाद अवश्य देव होते हैं / इन क्षेत्रोंको अकर्मभूमिके समझे / कुल अढाई द्वीपमें 5 हैमवन्त, 5 हरिवर्ष, 5 देवकुरु, 5 उत्तरकुरु, 5 रम्यक् और 5 हैरण्यवत् होकर तीस अकर्मभूमियाँ समझना / इसलिए कहा है कि" हेमवयं हरिवासं देवकुरु तह य उत्तरकुरुवि / रम्मय एरण्णवयं इय छ ब्भूमिओ पंचगुणा // 1 // एया अकम्मभूमीओ तीस सया जुयलधम्मजयठाणं / दसविहकप्प महद्दमसमुत्थभोगा पसिद्धाओ // 2 // " [प्रक्चनसारोद्धार Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 ऊँचा, 32 खण्ड प्रमाण, 9 कूटवाला, तपनीय रक्तसुवर्णका और सूर्य-चन्द्रके मण्डलोंके आधारवाला (और इसीलिए इस ग्रन्थमें इस अढाईद्वीपका वर्णन करनेमें सहायक बना हुआ) 'निषध' नामका पर्वत आया है। इस पर्वतके ऊपर व्यन्तरनिकायकी ‘घी' नामकी देवीके निवासवाला, 4000 योजन लम्बा, 2000 यो० चौडा, 10 यो० गहरा 'तिगिछिद्रह' आया है। इस पर्वतके ऊपर इस बाजूसे चढ़कर उस बाजू पर उतरनेसे तुरन्त ही निषध पर्वतसे द्विगुण 33684 यो० 4 कला विस्तीर्ण और मध्यमें 1 लाख यो० दीर्घ, 64 खण्ड प्रमाण निषध और नीलवन्तके बिचके भागमें रहा हुआ 'महाविदेहक्षेत्र' आया है। इस क्षेत्रके मध्यमें एक लाख योजन ऊँचा, पीत सुवर्णमय, शाश्वत ऐसा मेरुपर्वत आया है। यह पर्वत निन्यानबे हजार (99000 ) योजन जमीनके बाहर है, जिससे ज्योतिषी निकायके मध्यभागको भी पसार करके आगे ऊँचा चला जाता है, उसका 1000 योजन जितना मूल जमीनमें गया हुआ है, इससे वह रत्नप्रभा पृथ्वीके पहले कांडके अन्त तक पहुंचा हुआ है, अतः उस पर्वतका हजार योजन प्रमाण जहाँ पूर्ण (समभूतल स्थानमें ) होता हैं उस सारे भागको ‘कन्द' कहते हैं / इस कन्दस्थानमें उसका विस्तार 10000 योजनका है / और ऊपर जाते घटता घटता शिखरभागमें 1000 योजन चौड़ा रहता है, अतः यह पर्वत ऊँचा किया हुआ 'गोपुच्छ' जैसा दीखता है / यह पर्वत तीन विभागों में विभाजित है, अर्थात्-जमीनमें गए हुए हजार योजनसे हीन जो कांड (भाग ) प्रथमकाण्ड कहलाता है / यह कांड-कंकड, पत्थर और रत्नादिसे बना है / हीन ऐसे 1 हजार योजनसे लेकर (रत्नप्रभागत समभूतला रूचकसे ). 63 हजार योजन प्रमाण स्फटिकरत्न-अंकरत्न तथा चांदी-सुवर्णमिश्रित द्वितीयकाण्ड' है / उसमें समभूतलासे 500 यो० के बाद 'नन्दनवन' आया है, नीचेके कन्द भागमें ‘भद्रशाल' वन है और 63 हजार योजन पूर्ण होने पर वहाँ ‘सोमनस' वन है। इस सोमनस वनसे शिखर तकका 36 हजार यो०का भाग 'तीसराकांड' कहलाता है और वह जाम्बूनद [ रक्त ] सुवर्णका बना है / इस तीसरे काण्ड-पर 'पांडुकवन' आया है / इस वनके मध्यमें एक चूलिका आई है / वह 40 यो० ऊँची, मूलमें 12 यो० चौडी, शिखर पर 4 यो० चौडी, वैडूर्य रत्नकी, श्रीदेवीके भवनके समान वृत्ताकार और ऊपर एक बडे शाश्वत चैत्य गृहवाली है। इस चूलिकासे 500 यो० दूर पांडुकवनमें चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं। इन चारों भवनोंके बाहर भरतादि क्षेत्रोंकी दिशाकी तरफ 250 योजन चौडी, 500 यो० दीर्घ, 4 यो० ऊँची, अष्टमीके चन्द्राकारके सद्दश श्वेतवर्णीय अर्जुनसुवर्णकी चार अभिषेक शिलाएँ वर्तित हैं। प्रत्येक शिला वेदिकासहित वनवाली है। उसमें पूर्व दिशामें 'पाण्डुकम्बला,' पश्चिम दिशामें 'रक्तकम्बला,' उत्तरमें 'अतिरक्तकम्बला' और दक्षिण Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुपर्वत और अभिषेक शिलाओंका वर्णन ] गाथा 86-90 [201 दिशामें ‘अतिपाण्डुकम्बला' नामकी शिलाएँ हैं / उसमें पूर्व-पश्चिमकी दो शिलाओंके ऊपर 500 धनुष दीर्घ, 250 धनुष विस्तीर्ण और 4 धनुष ऊँचा ऐसे दो दो सिंहासन हैं, और उत्तर तथा दक्षिणवर्ती शिलाओंके ऊपर उक्त प्रमाणवाला एक-एक सिंहासन है। इसमें पूर्व दिशाकी शिलाके दो सिंहासनके ऊपर पूर्व महाविदेहकी 16 विजयों में उत्पन्न होते जिनेश्वरदेवोंको, अनादिकालके तथाविध आचारवाले सौधर्म इन्द्र प्रभुको अपना अहोभाग्य सोचकर पंचरूप करके, पंचाभिगम सहेज कर मेरुपर्वतके ऊपर ले जाता है / जहाँ महान कलशादि सामग्रीसे अनेक प्रकारके ठाटबाटसे युक्त, अनेक देवदेवियोंसे परिवृत्त महाभाग्यशाली सौधर्मेन्द्र प्रभुको अपने ही अंकमें (गोद) लेता है, उस वक्त महान अभिषेक आदि क्रियाएँ होती हैं, और उनके द्वारा भक्तिवंत इन्द्र, देवदेवियाँ " हमें ऐसा सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ, धन्य है हमारी आत्माको कि आज ऐसे परमपवित्र त्रिलोकनाथ परमात्माकी भक्तिका महद् सुयोग प्राप्त हुआ।" इत्यादि अनुमोदनाएँ करते हुए अनर्गल पुण्योपार्जन कस्के कृतकृत्य बनते हैं। इसी तरह पश्चिम महाविदेहकी 16 विजयोंमें उत्पन्न होते जिनेश्वरोंका 'पश्चिम' दिशावर्ती शिलाके ऊपर और 'दक्षिण' दिशाको शिलाके ऊपरके सिंहासन पर भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए प्रभुओंका और 'उत्तर' दिशाकी शिलाके ऊपर ऐवत क्षेत्रवर्ती परमात्माओंका जन्माभिषेक होता है, जहाँ ऐसे महानुभाव परमात्माओंके जन्माभिषेक जैसे कल्याणक कार्य हो रहे हैं, ऐसा यह २१५मन्दर-मेरुपर्वत सदा अचल और जयकारी वर्तित है। इस मेरुके दक्षिणकी तरफ के निषधपर्वतमेंसे निकलते निषधपर्वतके ही सम्बन्धवाले _दो गजदन्तगिरि' और उत्तरकी तरफके नीलवन्त पर्वतमेंसे निकले हुए दो गजदन्तगिरि इस तरह कुल चार गजदन्तगिरि हैं / वे गजके दन्तुशूलाकारमें अथवा रणसिंघाकारवत् होकर मेरुके पास पहुंचे हुए हैं, और इसीलिए मेरुकी उत्तरके और दक्षिणदिशाके दो दो गजदन्तगिरियोंके छोर परस्पर इकट्ठा मिलनेसे अर्धचन्द्राकारके सद्दश आकार होता है / इन ____ 215. इस पर्वतका स्वामी ‘मन्दर' नामका देव होनेसे 'मन्दर' ऐसा नाम पड़ा है-यह नाम / शाश्वत समझना / मेरु पर्वतके 16 प्रकारके नाम हैं, जो नीचे अनुसार हैं किंचार्य मन्दरो मेरुः सुदर्शनः स्वयंप्रभः / मनोरमी गिरिराजो रत्नोच्चयशिलोच्चयौ // 1 // लोकमध्यो लोकनाभिः सूर्यावर्तोऽस्तसंज्ञितः / 13 14 15 16 दिगादिसूर्यावरणावतंसकनगोत्तमाः // 2 // ये सारे नाम सान्वर्थ हैं। ब. सं. 26 12 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 दोनों पर्वतोंके बिचमें मेरुकी दक्षिण दिशामें 'देवकुरु' नामका युगलिक क्षेत्र आया है, इस तरह उत्तरवर्ती दो गजदन्तोंके बिच 'उत्तरकुरु' नामका क्षेत्र है / दोनों क्षेत्रों में सदाकाल प्रारम्भके भावोंसे युक्त प्रथम आरा वर्तित है, तथा 200 कंचनगिरि तथा अन्य पर्वत, दस दस द्रह और नद्यादिकसे युक्त है / उनमें उत्तरकुरुक्षेत्रमें जम्बूद्वीपके अधिपति अनाद्दत देवके निवासवाला, जिसके कारण यह जम्बूद्वीप ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ है, वह शाश्वत 'जम्बूवृक्ष' आया है और देवकुरुमें भी जम्बूवृक्षके सद्दश ' शाल्मली' वृक्ष आया है। इस मध्यमेरुसे पूर्व दिशामें और पश्चिमदिशामें विस्तृत होनेके कारण ही 'पूर्वमहाविदेह' और 'पश्चिममहाविदेह' ऐसी प्रसिद्ध संज्ञावाला 216 'महाविदेहक्षेत्र' आया है। इस क्षेत्रकी दोनों दिशाओं में मध्यभागमें 'सीता' तथा 'सीतोदा' नदियाँ बहती हैं। जिससे पूर्व-पश्चिम विदेह दो दो भागवाले होनेसे महाविदेहके कुल चार विभाग पडे हैं, उनमें पूर्व पश्चिम दिशावर्ती एक-एक भाग ऐश्वतक्षेत्रकी तरफका और एक-एक भरतक्षेत्रकी तरफकी दिशाका तथा एक-एक विभागमें कच्छादि आठ आठ विजय होनेसे चार विभागमें 32 विजय होती हैं / इन विजयोंकी चौडाई 22124 योजन है, और लम्बाई 1659228 योजन है। विजयोंकी परस्पर मर्यादाको बतलानेवाले 500 योजन चौडे, विजय तुल्य लम्बे, दो दो विजयोंको गोपकर अश्वस्कंधाकारमें रहे. हुए चित्रकुटादि 16 वक्षस्कार आए हैं, अतः प्रत्येक विभागमें चार चार हुए / इस तरह इस क्षेत्रमें दो दो विजयोंके बिचमें दो वक्षस्कारके अन्तर विस्तारोंकी मध्यमें 125 योजन चौडी ग्राहवत्यादि 12 नदियाँ आई हैं, अर्थात् एक-एक विभागमें तीन तीन होकर 12 नदियाँ होती हैं। ये नदियाँ दूसरी नदियोंकी तरह कम-ज्यादा प्रमाणवाली न होकर ठेठ तक एक समान प्रमाणवाली और सर्वत्र समान गहराईवाली रहती है / इस क्षेत्रकी दोनों दिशाओं में बड़े वनमुख रहे हैं / चक्रवर्तीके विजय करने योग्य जो विजयक्षेत्र हैं उनमें भरतक्षेत्रवत् उत्सर्पिणी अवसर्पिणीके छः छः आराविषयक भावोंका अभाव होनेसे वहाँ ‘नोत्सर्पिणी', 'नोअवसर्पिणी' (चौथा आरा) जैसा काल है / उसका स्वरूप पहले कहा हुआ है, वह चौथे आरेके कालके प्रारम्भिक भाववाला सुखमय है, इसीसे उस क्षेत्रमें सिद्धिगमन कायमके लिए खुला ही है / क्योंकि उस क्षेत्रमें सिद्धिगमन योग्य कार्यवाहीकी सारी सानुकूलता सदा 216. महाविदेहक्षेत्र, भरतक्षेत्र, ऐवत्क्षेत्र, ये तीनों क्षेत्र कर्मभूमिके कहलाते हैं; क्योंकि वहाँ ' असि' 'मसि', 'कृषि 'के व्यापार चालू हैं और इसलिए अज्ञानात्माओंको सर्वप्रकारकी संसारवृद्धिके कारणभूत बनते हैं, जबकि पुण्यात्माओंके लिए यही भूमि परम्परामें अनन्तसुखके स्थानरूप बनती है / अतः यह भूमि सर्व प्रकारके अनुष्ठानोंके लिए योग्य तथा शलाका पुरुषोंकी उत्पत्ति करनेवाली है / कुल कर्मभूमि 15 हैं-५ भरत, 5 ऐरवत, 5 महाविदेह जिसके लिए कहा है-भरहाई विदेहाई एरव्वया च पंच पत्तेयं / / भन्नति कम्मभूमिओ धम्मजोगाउ पन्नरस // 1 // Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविदेहक्षेत्र और उसकी विजयोंका नाम ] गाथा 86-90 [ 203 वर्तित है / जबकि हमारे यहाँ तो उस उस सामग्रीका कालाश्रयी विशेष परावर्तन हुआ करता है; अतः हमारे यहाँ मोक्षमार्ग सदा ही खुला नहीं रहता / यह क्षेत्र चौथे आरेके समान होनेसे वहाँ 500 धनुष प्रमाण ऊँचे और पूर्व करोड वर्षके आयुष्यवाले जीव होते हैं / इत्यादि स्वरूप चौथे आरेके अनुसार सोचें / इस महाविदेह क्षेत्रकी 32 विजयोंके नाम इस तरह हैं बत्तीस विजयोंके नाम उत्तरदिशावर्ती | दक्षिणदिशावर्ती / दक्षिणदिशावर्ती उत्तरदिशावर्ती 1. कच्छ . वत्स | 17. पद्म 25. वप्र 2. सुकच्छ / 10. सुवत्स 18. सुपद्म 26. सुवप्र 3. महाकच्छ 11. महावत्स 19. महापद्म 27. महावन 4. कच्छावती .. 12. वत्सावती 20. पद्मावती 28. वप्रावती 5. आवर्त 13. रम्य 21. शंख 29. वल्गु 6. मंगलावर्त 14. रम्यक् / 22. कुमुद 30. सुवल्गु 7. पुष्कलावर्त 15. रमणिक 23. नलिन 31. गंधिल 8. पुष्कलावती | 16. मंगलावती | 24. नलिनावती 32. गंधिलावती - इनमें 'पुष्कलावती' विजयमें ‘सीमन्धरस्वामीजी,' 'वत्सा में 'श्री युगमन्धरस्वामीजी,' 'नलिनावती 'में 'श्री बाहुस्वाभीजी' और चौथी ‘वप्रावती में श्री सुबाहु स्वामीजी इस तरह चार तीर्थकर वर्तमानमें अपने उपदेशके द्वारा अनेक जीवोंको कर्मसत्तासे निर्मुक्त कराके मोक्षमहलमें भेजते हुए, महाविदेह क्षेत्रमें विचरते हैं / ये तीर्थंकर विहरमानजिन रूपमें परिचित हैं और उनकी महिमा प्रसिद्ध है / अब तो भरतक्षेत्रमें प्रभुके कल्याणकारी दर्शनका. साक्षात् अभाव है, जिससे विहरमानजिनोंको भावपूर्वक नमस्कार करके आत्माका साफल्य माना जाता है। इस तरह महाविदेहक्षेत्र विषयक संक्षिप्त स्वरूप कहा। इस क्षेत्रके सम्पूर्ण होने पर तुरन्त ही सर्व प्रकारसे निषधपर्वतके सदृश, सिर्फ वर्णसे नीले-वैडूर्यरत्नका 'नीलवन्तपर्वत' आया हुआ है / इस पर्वतोपरि 4000 योजन लम्बा, 2000 योजन विस्तीर्ण और 'कीर्ति' देवीके निवासवाला 'केसरी'नामका. द्रह आया है। यह पर्वत मण्डलप्रकरणके वर्णन प्रसंग पर खास उपयोगी होनेवाला है। (जो पाठक प्रसंग पाकर स्वयं समझ सकेंगे / ) .. इस पर्वतसे आगे बढ़े कि तुरन्त ही हरिवर्ष क्षेत्रके समान व्यवस्थावाला 'रम्यक् Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 क्षेत्र' आया है / इस क्षेत्रमध्यमें दोनों दिशाओंमें 'नरकान्ता' और 'नारीकान्ता' नदियाँ बहती हैं / तथा इस क्षेत्रके मध्यभागमें ही 'माल्यवन्त 'नामका वृत्तवैताढय आया है। इस क्षेत्रके पूर्ण होने पर तुरन्त ही महाहिमवन्त पर्वतके समान व्यवस्थावाला श्वेत चांदीका 'रुक्मि' पर्वत आया है / इस पर्वतके ऊपर 'बुद्धि' देवीके निवासवाला 'महापुंडरीकद्रह' आया है, उसका प्रमाण महापद्म द्रहके समान समझना / पर्वत पसार करनेके बाद ‘हरिवर्ष' क्षेत्रके समान व्यवस्थायुक्त 'हिरण्यवन्त क्षेत्र आया है / उसमें पूर्व में ‘सुवर्णकूला' और पश्चिममें 'रूप्यकूला' नदी है और इस क्षेत्रके मध्यमें 'विकटापाती' नामका वृत्तवैताढय आया है / इस क्षेत्रके पूर्ण होने के बाद तुरन्त ही हिमवन्तके जैसी व्यवस्थावाला 'शिखरी' पर्वत आया है / इस पर्वतके ऊपर 'लक्ष्मी' देवीके निवासस्थानवाला 'पुंडरीकद्रह ' पद्मद्रहवत् आया है / इस पर्वतसे आगे बढ़ने पर भरतक्षेत्र जैसी सर्व व्यवस्था तथा सर्व भावोंवाला ऐरवतक्षेत्र रहा है / उस उस कालमें वर्तित भावोंमें दोनों क्षेत्र परस्पर समान स्थिति धारण करनेवाले होते हैं / इस क्षेत्रके मध्यभागमें अयोध्या नगरी है, यह क्षेत्र भी रौप्यमय-दीर्घ वैताढयसे तथा गंगासिन्धु जैसी 'रक्ता' और 'रक्तवती' नदीसे 6 विभागवाला है। यह क्षेत्र समाप्त होने पर तुरन्त ही इस क्षेत्रकी तीनों दिशाओंसे स्पर्श करता हुआ पश्चिम लवणसमुद्र आता है / इस तरह पूर्व समुद्रके मध्यकिनारेसे निकलकर पश्चिम समुद्रके किनारे पर आते तक सर्व क्षेत्रके विस्तारको इकट्ठा करनेसे एक लाख योजन पूर्ण होता है, जिससे वहाँ जम्बूद्वीप क्षेत्र भी समाप्त होता है। महाविदेहक्षेत्रकी दोनों बाजू पर रहे 6 क्षेत्रों और 6 वर्षधर पर्वतोंमेंसे तीन तीन पर्वत तथा तीन तीन क्षेत्र समान प्रमाणवाले और व्यवस्थावाले हैं। यहाँ इतना समझना कि दक्षिणोत्तरके समान व्यवस्थावाले 'हैरण्यवन्त' और 'हैमवन्त' ये दो क्षेत्र युगलिक मनुष्य तिर्यंचोंके हैं / और उसमें रहनेवाले युगलिक मनुष्योंका शरीरप्रमाण 1 कोस, आयुष्य 1 पल्योपम२१७ अर्थात् तीसरे आरेके समान होता है / उन्हें एकतरा आँबले जितने आहारकी इच्छा होती है। वहाँ संतानकी परिपालना 79 दिनकी होती है / इस तरह अपत्यपालना करनेके बाद वे युगलिक स्वतन्त्र विहारी और भोगके लिए समर्थ होते हैं / पश्चात् उनका पालन करनेवाले माता-पिता अल्प ममत्व भाववाले होनेसे वे अपत्य कहाँ रहते हैं ? किस तरह बरतते हैं ? उस विषयक चिंता नहीं करते / इस तरह ‘रम्यक् ' और 'हरिवर्ष' इन दो क्षेत्रोंमें युगलिकोंका शरीरमान 2 कोस, आयुष्य 2 पल्यो०, दो दिनके आंतरे पर बोर जितने आहारकी इच्छा होती है और 64 दिवस सन्तानकी परिपालना होती है / देवकुरु और उत्तरकुरु इन दोनों युगलिक क्षेत्रोंमें युगलिकोंका शरीरप्रमाण 3 कोस, आयुष्य 217. जिन क्षेत्रोंमें जो जो आरा वर्तित हो, उस आराके युगलिकोंका स्वरूप अगाउ पल्योपम, सागरोपमके वर्णनप्रसंग पर कहा है वहाँ वैसे देख लेना / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः महापर्वत तथा द्रहप्रमाणका यन्त्र ] गाथा 86-90 [ 205 गहराई 0 0 0 1000 0. 0 0 0 0 0 0 0 3 पल्योपम, आरा पहला, हर तीन दिन पर अरहरके दाने जितने आहारकी इच्छा और 49 दिवस सन्तान पालना समझना / छ: महापर्वत तथा द्रहप्रमाण यन्त्र पर्वतका। द्रहकी द्रहका पर्वतोंके नाम | ऊँचाई द्रहका नाम दसगुनी विस्तार / प्रमाण दीर्घता कितना? लघु हिमवन्त | 100 यो. पद्म द्रह 1000 योजन 500 योजन शिखरी पर्वत 100 ,, पुंडरीकद्रह 1000 महाहिमवंत पर्वत 200, महापद्मद्रह | 2000 , रुकमी पर्वत | 200 ,, | महापुंडरीकद्रह | 2000 ,, 1000 निषध पर्वत / 400,, तिगिछिद्रह / 4000 | 2000 | नीलवंत पर्वत / 400 ,, केसरीद्रह | 4000 अब पर्वतके विषयमें इतना विशेष समझना कि भरतके उत्तरवर्ती जो ‘हिमवन्त' और 'ऐश्वत 'के उत्तरवर्ती जो ‘शिखरी'-ये दोनों पर्वत पूर्वसमुद्रसे पश्चिमसमुद्र तक लम्बे हैं, इन पर्वतोंके अन्तिम भागमें एक-एक दिशाके मुखकी तरफ पर्वतकी दो दो दाढाएँ हैं और वे रणसिंधाकारमें लवणसमुद्रमें गई हैं / वैसे दूसरी दिशामें भी दो दाढाएँ . स्वदिशामें लवणसमुद्रमें गई हैं। इस तरह दो पर्वतोंकी दोनों दिशाओंकी होकर आठ दाढाएँ हैं / एक-एक दाढाके ऊपर सात सात अन्त:प हैं, अतः आठ दाढाओंके मिलकर 56 अन्तद्वीप२१८ होते हैं। इस अन्तीपमें युगलिक ही रहते हैं, उनके शरीरकी ऊँचाई 800 धनुष और आयुष्य पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग होता है / एकतरा आहारकी इच्छा तथा 79 दिवस 'अपत्यपालना होती है। - इन अन्तीपोंको गर्भज मनुष्योंके जो 101 क्षेत्र गिने जाते हैं उनकी गिनतीमें लेने हैं। यह जम्बूद्वीप कि जिसका वर्णन ऊपर किया था वह द्वीप 12 योजन ऊँची रत्नमय जगतीसे परिवृत्त है। इस जगतीके पूर्वमें 214. विजय', पश्चिममें ‘जयन्त,' उत्तरमें 'अपराजित' और दक्षिणमें 'वैजयन्त' इस तरह चार द्वार हैं, प्रत्येक द्वार चार योजन चौड़ा और दोनों बाजू पर पाव (1) कोस चौडी चौखटोंवाला है; अतः हरएक 218. विशेष वर्णन क्षेत्रसमास तथा चार बृहद्वृत्तिसे देखना / / 219. विजयादि नामके अधिपतिदेवके निवास परसे ये नाम पड़े हैं / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकेपर गहराई 206 ] गाथा 86-90 // (6) कुलगिरि यन्त्र // छः कुलगिरि- किस स्थान- | कितने | | खण्ड वर्ण | लम्बाई | चौडाई | A | कौनसी नदियाँ R के नाम | के पर? | | कौनसा प्रमाण? सरोवर ? . निकलती हैं ? | लघुहिमवन्त | मेरुकी दक्षिणमें 2 | सुवर्णका | पूर्वसमुद्रसे | १०५२यो० 100 11] पद्मद्रह पूर्वमें गंगा नदी और (पीतवर्ण) | पश्चिमसमुद्र | 12 कला पश्चिममें सिंधु नदी | यो भरतकी उत्तरमें 24932 यो उत्तरमें रोहितांशा नदी शिखरी मेरुकी उत्तरमें 11] पुंडरीकद्रह | पूर्वमें रक्ता नदी ऐखतकी दक्षिणमें पश्चिममें रक्तवती नदी दक्षिणमें सुवर्णकूला नदी महाहिमवन्त मेरुकी दक्षिणमें 8 | " 539314210 यो०/२०० 8 महापद्मद्रह | दक्षिणमें रोहिता नदी हिमवंतके अंतमें यो० | 10 कला | यो० उत्तरमें हरिकांता नदी रूकमी श्वेतवर्णीय चांदीका ,, , | 8 | महापुंडरीकद्रह | उत्तरमें रूप्यकूला नदी दक्षिणमें नरकांता नदी मेरुकी उत्तरमें हिरण्यवंतके अन्तमें मेकी दक्षिण में हरिवर्षके अंतमें निषध 32 तपनीय तिगिछिद्रह / 94156 १६८४२यो०४००/ 9| 'यो० | 2 कला | यो० दक्षिणमें हरिसलिला नदी उत्तरमें सीतोदा नदी रक्तमय सुवर्णका [ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी . नीलवन्त 9| केसरीद्रह मेरुकी उत्तरमें रम्यक्के अंतमें / 32 / वैडूर्य रत्नका (नीलवर्ण) उत्तरमें नारीकांता नदी 10 दक्षिणमें सीता नदी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात महाक्षेत्रोंका यन्त्र] - नाम नाम // सात (7) महाक्षेत्रोंका यन्त्र // सात महाक्षेत्रों कितने | लम्बाई | चौडाई मध्यगिरिके कौनसा खण्ड |किस स्थान पर? महानदियोंके नाम प्रमाण? काल? भरतक्षेत्र | पूर्व समुद्रसे यो. कला मेस्की दक्षिणमें | दीर्घ वैताढ्य / पूर्वमें गंगा नदी अवस० उत्सपश्चिम समुद्र तक समुद्र स्पर्शी पश्चिममें सिंधु नदी पिगीके 6-6 | १४४७१४पयो० 526-6 आरा हों ऐवतक्षेत्र मेरुकी उत्तरमें पूर्वमें रक्ता नदी समुद्र स्पर्शी पश्चिममें रक्तवती नदी हिमवन्तक्षेत्र |37674 15 यो.| यो. कला हिमवन्त पर्वतकी पूर्वमें रोहिता नदी अवसर्पिणीके | पू०स०से प० समुद्र | 2105-5 उत्तरमें वैतादय पश्चिममें रोहितांशा नदी | तीसरे आराके समान हिरण्यवंतक्षेत्र " | 4 | शिखरी पर्वतकी | विकटापाती | पूर्वमें सुवर्णकूला नदी दक्षिणमें वृत्त वैताढ्य | पश्चिममें रुप्यकूला नदी हरिवर्षक्षेत्र | 7390114 यो. | यो. कला / 16 / महाहिमवंत पर्वतकी | गंधापाती वृत्त | पूर्वमें हरिसलिला नदी अवस० के | 8421-1 उत्तरमें वैतादय पश्चिममें हरिकान्ता नदी | दूसरे आराके समान रम्यक्क्षेत्र रुकमी पर्वतकी माल्यवंत वृत्त पूर्वमें नरकान्ता नदी दक्षिण में वैतादय | पश्चिममें नारीकान्ता नदी महाविदेहक्षेत्र / (100000) | यो. कला | 64 | निषध तथा / मेरु पर्वत पूर्वमें सीता नदी अवस० चौथे 1 लाख योजन 33684-4 नीलवंतके बिचमें पश्चिममें सीतोदा नदी ! आराके समान गाथा 86-90 [207 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90. द्वार 43 योजन विस्तारवाला होनेसे चार द्वारोंकी चौडाई 18 योजनकी होती है। यह चौडाई जम्बूद्वीपके परिधिमेंसे कम करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसे प्रत्येक द्वारका अन्तर पानेके लिए चारसे भागने पर 79052 यो० 1 को०-१५७२ धनुष, 31 अंगुल एक द्वारसे दूसरे द्वारोंका परस्पर अन्तर आता है। किन्हीं भी जगतियोंके द्वारोंकी चौडाई सर्व स्थान पर समान होती है लेकिन आगे आगेके द्वीप-समुद्रोंके कारण परिधि बढता जाए, त्यों त्यों द्वारों के अन्तरमानमें वृद्धि होती जाए अर्थात् द्वारान्तरों में तफावत पड़ता है। ये द्वार मणिमय देहरी (देहली) और रम्यद्वार कपाट आदिसे सुशोभित है / जैसे इस सृष्टि पर गृहद्वारोंके देहली-अरगल होते हैं, वैसे इन द्वारोंके भी देहली, दो दो किवाड तथा किवाडौंको मजबूत बन्द करनेवाले अरगल भी होते हैं। जगतीका कुछ वर्णन तो पहले किया गया है / इति जम्बूद्वीपस्य अतिसंक्षिप्तवर्णनम् // द्वितीय लवणसमुद्रवर्णन-इस जम्बूद्वीपके परिवर्तित दो लाख योजनका वलय. विष्कंभवाला लवणसमुद्र है। उसका 22 परिधि 15081139 योजनमें कुछ न्यून है। इस लवणसमुद्रमें चार चार चन्द्र और सूर्य तथा गौतमद्वीप आदि द्वीप आए हैं। इस लवणसमुद्रमें भरतक्षेत्रके पूर्व भागमें बहनेवाली गंगा नदी जिस स्थानमें मिलती है वहाँ नदी और समुद्रके संगमस्थानसे 12 योजनकी दूरी पर मागध नामके देवकी राजधानीके रूपमें प्रसिद्ध बने हुए मागध नामका द्वीप जिसे 'मागधतीर्थ ' 22, कहा जाता है, वह आया है। इसी तरह भरतकी पश्चिमदिशामें दूसरी सिंधुनीके संगमस्थान पर 12 यो० दूर प्रभासदेवकी राजधानीवाला द्वीप जो ‘प्रभासतीर्थ' कहलाता है वह आया है। इन दोनों तीर्थोके मध्यभागमें उन दो तीर्थोंकी ही सतहमें (नदी-समुद्रके संगमसे 12 यो० दूर समुद्रमें ही ) वरदाम नामके देवसे प्रसिद्ध 'वरदाम' तीर्थ आया है। इसी तरह ऐरवत क्षेत्रमें रक्तवतीके संगमस्थानमें 12 योजन दूर समुद्रमें 'मागधतीर्थ' तथा रक्ताके संगमस्थानसे 12 योजन दूर 'प्रभासतीर्थ' है, उन दोनोंके बिच पूर्ववत् समुद्रमें 'वरदामतीर्थ' आया है। 32 विजयोंमें उत्पन्न होनेवाला चक्रवर्ती जब 6 खण्डोंका दिग्विजय करने निकलता है तब प्रथम मागधतीर्थके समीप समुद्र या नदीके किनारे पर अपने सारे सैन्यको स्थापित करके अट्ठम तप करके अकेला स्वयं ही चार अश्वोंवाले रथमें आरूढ होकर रथका मध्यभाग डूबे वहाँ तक समुद्रमें उतरकर रथके ऊपर खड़ा होकर, स्वनामांकित जो बाण मागधदेवकी राजधानीमें फेंके, वह बाण चक्रवर्तीकी शक्तिसे 12 योजन दूर जाकर मागध२२०. 'पण्णरस सतसहस्सा, एक्कासीतं सयं चउतालं / किंचिविसेसेणूगो, लवणोदहिणो परिक्खेवो // 1 // ' 221. जलाशयमें उतरने योग्य ढालवाला क्रमशः नीचे गया हुआ जो भूमिभाग होता है उसे तीर्थ कहा जाता है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातकी खण्ड और कालोदधि वर्णन ] गाथा 86-90 [ 209 देवकी राजसभामें पड़े, पड़ते ही क्रोधसे कुपित बना हुआ, किंतु बाण उठाते ही उसके ऊपर चक्रवर्ती उत्पन्न हुए का नाम पढ़कर तुरन्त ही शांत बना हुआ मागधदेव अनेक प्रकारकी भेंटोंके साथ बाण लेकर चक्रवर्तीके समीप आकर, उसे नमस्कार करके, अपनी भक्ति प्रदर्शित की " आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है" इत्यादि वचन कहकर, चक्रवर्तीको वह बाण वापस दे और सत्कारमें भेंट दे, चक्रवर्ती भी उसका आनन्दसे स्वीकार करके, उस देवका यथायोग्य सत्कार करके, स्वस्थान प्रति जानेके लिए सम्मति दे। इसी तरह पुनः वरदाम तथा प्रभास तीर्थको साधता है। इस प्रकार ये तीर्थ लवणसमुद्रमें आए हैं। इसके सिवा चार बड़े पातालकलश, लघुपातालकलश, वेलंधरपर्वत, लवणसमुद्रकी जलशिखा . आदि वर्णन किंचित् आगे कहा गया है। विशेष तो अन्य ग्रन्थोंसे देख ले। तृतीय धातकीखण्ड वर्णन-इस लवणसमुद्रके बाद चार लाख योजन चौडा और पर्यन्तमें 4110961 योजन २२२परिधिवाला, इषुकार पर्वतोंसे पूर्व पश्चिमसे दो विभागोंमें विभाजित, अतः पूर्व-पश्चिम छः छः (कुल-१२) वर्षधर पर्वतों तथा सात सात (7 + 7 कुल - 14) महाक्षेत्रोंसे विस्तृत ऐसा धातकीखण्ड आया है / इस खण्डमें पूर्वपश्चिममें दो मेरु आए हैं, ये मेरु जम्बूद्वीपके मेरुसे न्यून प्रमाणवाले हैं, शेष सर्व व्यवस्था जम्बूद्वीपके मेरु तुल्य समझें, इतना ही नहीं लेकिन द्रह-कुंडकी गहराई, मेरुके सिवा सर्व पर्वतोंकी ऊँचाई आदि सब जम्बूद्वीप तुल्य समझना। नदी-द्वीप-द्रह-कुंड वनमुखादि विस्तारनद्यादिकी गहराई-द्रहोंकी लम्बाई जम्बूद्वीपसे द्विगुण जानें / जैसे जम्बूद्वीपमें, भरत, महाविदेहादि जो क्षेत्र-पर्वतादिके नाम हैं, वैसे ही नामोंवाले क्षेत्रादि यहाँ सोच लेना। इति धातकीखण्डवर्णन // . चतुर्थ कालोदधि वर्णन-यह समुद्र 8 लाख योजन चौडा और 9170605 योजन पर्यन्त परिधिवाला है२२३ / जैसे लवणसमुद्रमें चन्द्र सूर्यादि द्वीप हैं वैसे यहाँ भी समझना / लवणसमुद्रकी तरह पातालकलशोंका अभाव समझना, अतः ज्वार-भाटा भी होते नहीं, उसका जल भी उछलता नहीं है, लेकिन ध्यानस्थ योगीकी तरह शांत होता है / साथ ही जल चढ़-उतर स्वभावसे रहित है / इति कालोदधिवर्णन // - 222. धायईखण्ड परिरओ ईतालदसुत्तरा सतसहस्सा / ___णवयसया एगट्ठा किंचि विसेसेण परिहीणा // 1 // 223. 'एक्का गउई सतराई सहस्सा परिरओ तस्स / अहियाई छच्च पचुत्तराई कालोदधिवरस्स // 1 // .कोडी बातालीस सहस्स दुसया य अउणपण्णासा / माणुस खेत्त परिओ एमेव य पुक्खरद्धस्स // 2 // ' ब. सं. 27 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90. पञ्चम पुष्करार्धद्वीपवर्णन-तत्पश्चात् 16 लाख योजन चौडा और त्रिगुणाधिक परिधिवाला पुष्करद्वीप आया है / अब हम सिर्फ अढाईद्वीप (समयक्षेत्र )का वर्णन करते होनेसे मानुषोत्तरके अंदरका ही क्षेत्र लेनेके हेतुसे 8 लाख प्रमाण विष्कम्भवाला और 14230249 योजन परिधिवाला अभ्यन्तरभागका अर्ध पुष्करद्वीप लेनेका है / इस पुष्करार्धमें भी दो मेरु हैं, धातकीखण्डके पर्वतक्षेत्रों की तरह यहाँ भी 12 वर्षधर और 14 महाक्षेत्र चक्राकारमें समझना / यहाँ पर्वत-क्षेत्रादिके नाम जम्बूद्वीपके पर्वतादिके नामके समान होते हैं / जैसे जम्बूवत् धातकीका स्वरूप संक्षिप्तमें समझाया गया वैसे यहाँ भी धातकीखण्डवत् इस द्वीपका स्वरूप समझाया गया / इतना विशेष समझें कि धातकीखण्डके सर्व पदार्थोंसे इस द्वीपकी वस्तुएँ प्रायः द्विगुण-द्विगुण प्रमाणवाली सोचें / इति पुष्करार्धद्वीपवर्णन // मानुषोत्तर पर्वत वर्णन-इस पुष्करद्वीपके मध्यभागमें वलयाकार अर्थात् कालोदधिः / समुद्रकी जगतीसे सम्पूर्ण 8 लाख योजन पर्यन्त यह मानुषोत्तर पर्वत आया है / अतः इस मानुषोत्तरका विस्तार अवशिष्ट 8 लाख योजन प्रमाण पुष्करार्घमें समझना योग्य है, और यह (मानुषोत्तर) विस्तार 1022 योजन होनेसे 16 लाख प्रमाण पुष्करद्वीपके ( बाह्यार्ध ) अर्धभागके 8 लाख योजनके क्षेत्र विस्तारमेंसे 1022 योजन क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वतने रोका है। . इस तरह अभ्यन्तर पुष्करार्धसे परिवृत्त मानुषोत्तर मानो अभ्यन्तर पुष्करार्धद्वीपका अथवा मनुष्यक्षेत्रका रक्षण करने में जगतीके सरीखा हो वैसा दीखता है / 224. सिंह निषादी' आकारवाले इस पर्वतका प्रमाण लवणसमुद्रमें आए वेलंधरपर्वतके समान है। अर्थात् 1721 यो० ऊँचा, मूलमें 1022 यो० चौडा और एक बाजू पर घटता हुआ शिखरतलमें 424 यो० चौडा है। यह पर्वत भी जांबूनद तपनीय सुवर्णके समान रक्तवर्णका है, मानुषोत्तर पर्वतके ऊपर चारों दिशाओं में सिद्धायतन कूट आए हैं / इति मानुषोत्तरपर्वतवर्णन // इस तरह जम्बूद्वीपका 1 मेरु, २-धातकीखण्डके और 2 अर्ध पुष्करके होकर 5 मेरु, इसी तरह ५-भरत, ५-ऐरवत, ५-महाविदेह, (15 कर्मभूमि क्षेत्र) ५-हैमवन्त, ५-हरिवर्ष, ५-देवकुरु, ५-उत्तरकुरु, ५-रम्यक्, ५-हैरण्यवत् होकर 30 युगलिक क्षेत्र, (अकर्मभूमि क्षेत्र ) कर्मभूमि-अकर्मभूमि होकर 45 क्षेत्र और 56 अन्तर्वीप कुल 101 मनुष्यक्षेत्र२२५ कहलाते हैं। इस तरह मनुष्योंके जन्ममरण अढाईद्वीपमें होते होनेसे ही 224. 'सिंहनिषादी' अर्थात् जिस तरह सिंह अगले दो पैर खड़े रखकर पिछले दो पैर नीचेकी तरफ मोड़कर नितम्बके तले दबाकर सकुच कर बैठता है तब पश्चात् भागमें नीचा ( ढलता ) और क्रमशः ऊपर जाते मुखस्थानमें अति ऊँचा बना दीखे, वैसे आकारका जो पर्वत है वह / 225. अढाईद्वीपमें भी 101 मनुष्यक्षेत्रोंमें जन्म तथा मरण अवश्य दोनों होते हैं परन्तु वर्षधरपर्वतों तथा समुद्रोंमें प्रायः मनुष्योंका जन्म सम्भवित नहीं है, मरण शायद संहरण मात्रसे सम्भवित हो / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य-चन्द्रमण्डल सम्बन्धमें अधिकार ] गाथा 86-90 [ 211 'मनुष्यक्षेत्र के नामसे प्रसिद्ध हुए अढाईद्वीप (45 लाख योजन प्रमाण )का किंचित् स्वरूप कहा / इति मनुष्यक्षेत्रस्य२२६ संक्षिप्तवर्णन // इस तरह अढाईद्वीपका किंचित् स्वरूप जणानेके बाद इस अढाईद्वीपमें सूर्य तथा चन्द्रके मण्डल किस तरह होते हैं इस विषयक वर्णन किया जाता है / Occcccccccccccccca 3 // सूर्य-चन्द्रमण्डल विषयनिरूपण // [ मण्डलाधिकारकी अवतरणिका-मण्डलाधिकारमें प्रसंग प्राप्त होनेसे अढाईद्वीपका संक्षिप्त वर्णन किया। अब चन्द्र-सूर्यके मण्डल सम्बन्धी अधिकार शुरु किया जाता है। इस विषयका सूर्य प्रज्ञप्ति-चन्द्र प्रज्ञप्ति-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि सिद्धान्तोंमें सविस्तृतरूपसे आप्तमहापुरुषोंने वर्णन किया है। साथ ही बाल जीवोंके बोधके लिए पूर्वके प्राज्ञ महर्षियोंने इन सिद्धान्त ग्रन्थोंमेंसे इस विषयका उद्धार करके क्षेत्रसमास-बृहत्संग्रहणी-मण्डल प्रकरण. लोकप्रकाश प्रमुख ग्रन्थों में संस्कृत-प्राकृतमें विशेष स्पष्ट किया है, तो भी मन्दबुद्धिवाले जीव इस विषयको रुचिपूर्वक अधिक समझ सके इसलिए श्री सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों के आधार पर भाषामें इस मण्डल विषयक विषयको कुछ स्फुट करके कहा जाता है। / यद्यपि यह लिखावट पाठकोंको कुछ विशेषतः लगेगा, परन्तु गुर्जर भाषामें अब तक इस विषयके बारेमें आवश्यक स्पष्टता प्रायः किसी अनुवादग्रन्थमें किंवा स्वतन्त्र ग्रन्थमें ' नहीं देखी जाती अतः मण्डल विषयक इस विषयको सरल करना जिससे अभ्यासियोंकी ज्ञानसमृद्धि बढ़े और तद्विषयक रस-पिपासा तृप्त हो, इस इच्छासे इस विवेचनका विस्तार स्व-पर लाभार्थ कुछ ज्यादा किया है और अतः प्रायः मेरा निश्चित मन्तव्य है कि 226. अढाईद्वीपके बाहर नहीं होनेवाले पदार्थ जम्बूद्वीपमें गंगादि नदियोंकी तरह शाश्वत नदियाँ, पइ द्रहादि शाश्वत द्रह, सरोवर, पुष्करवर्त्तादि कुदरती मेघ, मेघकी स्वाभाविक गर्जनाए, बादर अग्नि, (सूक्ष्म तो सर्वव्यापक हैं) तीर्थकर चक्रवर्त्यादि 63 शलाका पुरुष, मनुष्यका जन्म तथा मरण, समय-आवलिका-मुहूर्त-मास-संवत्सरसे लेकर उत्सर्पिण्यादि काल तथा जम्बूद्वीपकी तरह वर्षधरादि जैसे पर्वत ( कतिपय स्थानों में शाश्वता पर्वत हैं परन्तु अल्प होनेसे विवक्षित नहीं लगते ) ग्रामनगर-चतुर्विध संघ तथा खान-निधि-चन्द्र-सूर्यादिका परिभ्रमण तथा क्षेत्रप्रभावसे ही-प्रयोजनाभावसे इन्द्रधनुषादि आकाशोत्पात सूचक चिह्न ये सर्व वस्तुएँ अढाईद्वीपके बाहर नहीं हैं / णईदहघणथणियागणि-जिणाइ गरजम्ममरणकालाई / , पणयाललक्खजोयण-णरखित्त मुत्तु णो पु (प) रओ // 9 // [ल. क्षे. स.] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 स्व-पर बुद्धिके विकासके लिए यह विषय पाठकोंको विशेष उपयोगी होगा। 'अनुवादक'] 'मण्डल' अर्थात् क्या? चन्द्र और सूर्य मेरुपर्वतसे कमसे कम 44820 योजनकी अबाधा पर रहनेपूर्वक मेरुको प्रदक्षिणाके क्रमसे सम्पूर्ण कर ले उस प्रदक्षिणाकी पंक्तिको एक 'मण्डल' कहा जाता है / चन्द्र-सूर्यके ये मण्डल वहीं ही रहनेवाले कायमी मण्डल जैसे (स्वतन्त्र ) मण्डल नहीं हैं परन्तु चन्द्र-सूर्यका जो स्थान बताया गया है उतनी (समभूतलसे सू० 800, चं० 880 योजन ) ऊँचाई पर रहकर चरस्वभावसे मेरुकी चारों बाजू पर प्रदक्षिणा करते अपने विमानकी चौडाई-प्रमाण जितना क्षेत्र रोकते जाने पर जो कल्पित वलय हो उस वलयको 'मण्डल' कहा जाता है, अर्थात् चन्द्र-सूर्यका मेरुके प्रदक्षिणा करने पूर्वक चार करनेका चक्राकारमें जो नियत मार्ग हो उसे 'मण्डल' कहा जाए / चन्द्रके 15 मण्डल हैं और सूर्यके 184 मण्डल हैं / दक्षिणायन-उत्तरायणके .. विभाग, दिवस और रात्रिके समयमें न्यूनाधिकत्व, सौरमास-चान्द्रमासादि व्यवस्था आदि घटनाएँ सूर्य-चन्द्रके इन मण्डलोंके आधार पर ही उत्पन्न होती हैं। ___ यहाँ आगे जणाता है इसके आधार पर, दो सूर्योके परिभ्रमणसे, एक सम्पूर्ण मण्डल होता है / तथा कर्कसंक्रान्तिके प्रथम दिन पर वादी-प्रतिवादीकी तरह आमनेसामने समश्रेणिमें निषध और नीलवन्त पर्वतके ऊपर, उदित हुए दोनों सूर्य मेरुसे 44820 यो० प्रमाण कमसेकम अबाधा पर रहे हैं / वहाँसे प्रथम क्षण-समयसे ही क्रमशः अन्य मण्डलकी कर्णकला तरफ दृष्टि रखते हुए 'किसी एक प्रकारकी गति विशेष 'से कला-कलामात्र खसकते खसकते ( अर्थात् अबाधा को क्रमशः ज्यादा ज्यादा करते हुए ) जाते होनेसे सूर्य-चन्द्रके ये मण्डल२२७ निश्चयपूर्वक सम्पूर्ण गोलाकार जैसे मण्डल नहीं हैं, परन्तु मण्डल जैसे होनेसे 227. 'रविदुगभमणवसाओ, निष्फज्जइ मण्डलं इह एगं / तं पुण मण्डलसरिसं, ति मण्डलं वुच्चइ तहाहि // 1 // गिरि निसढनीलवन्तेसुं, उग्गयाणं रवीण कक्कमि / / पढमाउ चेव समया, ओसरणेणं जओ भमणं // 2 // तो नो निच्छयस्वं निष्फज्जइ मण्डलं दिणयराणं / चंदाण वि एवं चिअ, निच्छयओ मण्डलाभावो // 3 // रविबिंबे उ जियंगं तावजुयं, आयवाउ न उ जलणे / जमुसिणफासस्स तहिं लोहियवण्णस्स उदओत्ति // 4 // ' Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमण्डल और सूर्यमण्डलमें तफावत ] गाथा 86-90 [213 मण्डल जैसे दीखते हैं और इसलिए व्यवहारमें वह मण्डल कहा जाता है / ___साथ ही भरतादिक्षेत्रोंमें जो उष्ण प्रकाश पड़ता है वह सूर्यके विमानका है, क्योंकि सूर्यका विमान पृथ्वीकायमय है और उन पृथ्वीकायिक जीवोंके पुद्गलविपाकी आतपनामकर्मका उदय होता है, अतः स्वप्रकाश्यक्षेत्रमें सूर्यके उस पृथ्वीकायिक विमानका उष्ण प्रकाश पड़ता है। कुछ अनभिज्ञजन 'यह प्रकाश (विमानमें बसते) खुद सूर्यदेवका है। ऐसा मानते हैं। परन्तु उनका यह मन्तव्य वास्तविक नहीं है / यद्यपि सूर्यदेव है यह बात यथार्थ है, किंतु वह तो अपने विमानमें स्वयोग्य दिव्यऋद्धिको भोगता हुआ आनन्दमें काल व्यतीत करता है। इन चर ज्योतिषी विमानोंका स्वस्थानापेक्षया ऊर्ध्वगमन तथा अधोगमन तथाविध जगत् स्वभावसे होता ही नहीं है, सिर्फ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमेंसे सर्वबाह्यमण्डलमें तथा सर्वबाह्यमण्डलमेंसे सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें आने-जानेके लिए वर्तुलाकारमें गमन होता, और पहले जणाये अनुसार यह ज्योतिषीदेवोंके विमानोंका ही होता है, और उन विमानों में देव सहजभावसे आनन्दसे विचरते हों यह अलग बात है / परन्तु विमानोंके परिभ्रमणके साथ देवोंका भी परिभ्रमण हो ही अथवा देवो विमानोंका जो 510 योजन प्रमाण चारक्षेत्र हो उससे विशेष क्षेत्रमें देव जा ही न सके वैसा नियम नहीं होता है / स्वैरविहारी होनेसे अपनी मर्यादाके अनुसार नंदीश्वरादि द्वीप आदि स्थानों में यथेच्छ जा सकते हैं / ___ इन ज्योतिषी निकायके देवोंका कैसा दिव्य सुख होता है ? यह बाबत पंचमांग श्री भगवतीसूत्रमेंसे अथवा तो संक्षिप्त ख्याल इसी ग्रन्थमें आगे दिए जानेवाले ज्योतिष निकाय-परिशिष्टमेंसे जान लें। . चन्द्रमण्डल और सूर्यमण्डलमें तफावत चन्द्रके 15 मण्डल हैं जबकि सूर्यके 184 मण्डल हैं / चन्द्रके 15 मण्डलोंमें से 'पांच मण्डल जम्बूद्वीपमें और दस मण्डल लवणसमुद्र में पड़ते हैं। जबकि सूर्यके 184 मण्डलोंमेंसे 65 मण्डल जम्बूद्वीपमें हैं और 119 मण्डल लवणसमुद्र में पड़ते हैं / चन्द्र विमानकी अपेक्षा सूर्य विमानकी गति शीघ्र है अतः चन्द्रमण्डलोंसे सूर्यमण्डल पास-पास पड़ते हैं / चन्द्र और सूर्यका कुल मण्डलक्षेत्र-चारक्षेत्र 510 योजन है। भाग प्रमाणका है, उसमें 180 योजन प्रमाण चारक्षेत्र जम्बूद्वीपमें है और 330 है। यो० क्षेत्र लवणसमुद्रमें होता है। सूर्यमण्डलोंमें दक्षिणायन और उत्तरायणके खास मुख्य विभाग हैं, चन्द्रमण्डलमें वैसे दो विभाग हैं, परन्तु सूर्यवत् नहीं; हैं, और व्यवहारमें भी नहीं आते / चन्द्र मण्डल 15 होनेसे (पांच अंगुलियोंके जिस तरह आंतरे चार उसी तरह) उनके आंतरेबिच 14 हैं, और सूर्यमण्डलों की संख्या 184 होनेसे उनके आंतरे 183 हैं। चन्द्रमण्डलके एक अंतरका प्रमाण 35 3 / योजन है, जब कि सूर्यमण्डलके एक अंतरका प्रमाण दो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी - [गाथा 86-90 योजन है। चन्द्रका मण्डल 56 योजन प्रमाण विष्कम्भवाला है, जबकि सूर्यमण्डल 46 योजन प्रमाण विष्कम्भसम्पन्न है / इत्यादि तफावत स्वयं सोच लेना उचित है। // प्रथम सूर्य मण्डलोंका अधिकार // [ यद्यपि ऋद्धि आदिकी अपेक्षा देखनेसे चन्द्र विशेष महर्द्धिक है अतः सामान्य क्रमानुसार तो चन्द्र मण्डलोंका वक्तव्य प्रथम कहना चाहिए, तथापि समय-आवलिका-मुहूर्तदिवस-पक्ष-मास-अयन-संवत्सर इत्यादि कालका मान सूर्यकी गति पर अवलम्बित होनेके कारण तथा सूर्यमण्डलोंका अधिकार सविस्तर कहनेके लिए प्रथम सूर्यमण्डलोंका सुविस्तृत वर्णन किया जाता है / ] .. उसमें प्रथम उसकी गति विषयक वर्णन पांच द्वारोंसे किया जाता है / (1) चारक्षेत्र-. प्रमाणप्ररूपणा (2) अन्तरक्षेत्रप्रमाणप्ररूपणा (3) संख्याप्ररूपणा (4) अबाधाप्ररूपणा-तीन प्रकारसे (5) चारगतिप्ररूपणा-सात द्वारोंसे क्रमशः कही जाएगी। उनमेंसे चारक्षेत्र, अन्तर और संख्या ये तीन प्ररूपणाएँ तो इस ग्रन्थमें समाविष्ट हैं ही। ___1. सूर्यके मण्डलोंका चार क्षेत्र प्रमाण___ चन्द्र-सूर्यके मण्डलोंकी संख्यामें यद्यपि बहुत तफावत है, तो भी दोनोंका चारक्षेत्र तो 510 यो० 8 भागप्रमाण समान ही है / सूर्यका यह चारक्षेत्र किस तरह प्राप्त होता है यह कहा जाता है / उसमें प्रथम कुल अन्तरक्षेत्र कितना हो? यह बताया जाता है। ___ सूर्यके मण्डल 184 और उसके आंतरे 183 हैं / प्रत्येक सूर्यमण्डलका अन्तरप्रमाण दो योजनका होनेसे सम्पूर्ण अन्तरक्षेत्र [ 183 4 2 = ] 366 यो०का आया। सूर्यके मण्डल 184 होनेसे और प्रत्येक मण्डलका विस्तार एक योजनका 6 भाग प्रमाण होता होनेसे सर्व मण्डलका कुल विस्तार लानेको१८४ मण्डल. . . x48 8832 इकसठवें भाग आए। उनके योजन करनेके लिए६१) 8832 (144 ___पहले आए हुए सूर्यमण्डलके अन्तरक्षेत्रके 273 366. योजनमें आए मण्डल क्षेत्र के ... यो० 144-48 भाग जोडनेसे 0292 ... 510 यो० 48 भाग सूर्यका 244 चारक्षेत्र प्रमाण / . 244 0048 भाग Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यमण्डलोंका चारक्षेत्र प्रमाण और अन्तरप्रमाण ] गाथा 86-90 [ 215 सूर्यमण्डलका चारक्षेत्रप्रमाण लानेका दूसरा उपायसूर्य विमानका विष्कम्भ 6 भागका होनेसे और सूर्यके मण्डल 184 होनेसे उस 184 मण्डल संख्याका इकसठवाँ भाग निकालना, एक मण्डलका विस्तार इकसठवाँ 48 भाग प्रमाण होनेसे उस भागको 184 मण्डलोंसे गुना करें, जो संख्या आवे उसे एक बाजू पर रक्खें / अब 184 मण्डलोंके 183 आंतरोंका इकसठवाँ भाग निकालें, इसके लिए प्रत्येक अन्तरका प्रमाण जो दो योजनका है उसे आंतरेके साथ गुना करे, ऐसा करने पर इस अन्तरक्षेत्रके इकसठवें भागोंकी जो संख्या आवे उस संख्यामें प्रथमके 184 मण्डल विषयक विष्कम्भके इकसठवें भागोंकी जो संख्या उसे प्रक्षिप्त करके दोनोंका जोड करें, इससे जो संख्या प्राप्त हो उस भागसंख्याके योजन करनेके लिए उसे ६१से बटा करे, जिससे 510 यो० / सूर्यका चारक्षेत्र प्राप्त होगा / वह इस तरह१८४४ 48 = 8832 भाग विमान विस्तारके, 183 4 2 = 366 योजन अन्तरक्षेत्र विस्तारके 461 22326 इकसठवें भाग आए / 8832 भागों में 61) 31158 ( 510 यो० +22326 305 31158 इकसठवें भाग 0065 61 = 510 यो० 46 भाग चार क्षेत्र प्रमाण / इति चार क्षेत्र प्ररूपणा // 1 // - 048 048 2: सूर्यमण्डलका दो योजनका अन्तरप्रमाण लानेकी रीति प्रथम तो सूर्यमण्डलोंका 510 यो० 6 भागप्रमाणका जो चारक्षेत्र है उसके इकसठवें भाग कर डालें, पश्चात् सूर्यके मण्डलोंकी १८४की संख्याके साथ प्रति मण्डलके विस्तारका अर्थात् इकसठवें 48 भागके साथ गुना करें, गुना करनेसे जो संख्या आवे उसे, 510 यो० / चारक्षेत्रके आए इकसठवें भागोंकी संख्यामेंसे कम करें, जिससे शेष क्षेत्रांश प्रमाण . [183 अन्तरक्षेत्र प्रमाण ] रहेगा / इस क्षेत्रांशके आए भागोंके साथ प्रत्येक मण्डलका [2 योजनका ! अन्तर प्रमाण लानेको १८३से बटा करें, बटा करनेसे इकसठवें भागोंकी जो संख्या प्राप्त हो, उसके पुनः योजन करनेके लिए इकसठसे बटा करें / जिससे दो योजन (परस्पर) सूर्यमण्डलका अन्तरप्रमाण प्राप्त होगा जैसे कि Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90. 510 x 61 = 31110 ऊपरांत 48 अंश जोडनेसे 31158 इकसठवाँ भाग प्रमाण चारक्षेत्र आया / 184 मण्डल विस्तारके भाग पानेके लिए 184 x 48 = 8832 आए, इसे चारक्षेत्रकी जो भागसंख्या 31158 आई है उसमेंसे कम करने पर 22326 क्षेत्रांश भाग शेष रहे, आंतरे 183 होनेसे और प्रत्येकका अन्तर पानेके लिए २२३२६को १८३से बटा करनेसे 122 इकसठवें भाग आए, उनके योजन बनानेके लिए ६१से बटा करनेसे दो योजन प्रमाण सूर्यमण्डलका अन्तरक्षेत्र प्राप्त होता है। . सूर्यमण्डलोंका अन्तरनिःसारण लाने की अन्य रीतिसूर्यके मण्डल 184, अन्तर 183 है तथा सूर्यका विमान 46 यो० प्रमाण हैअब मण्डल 184 होनेसे 448 1472 प्रत्येक मण्डल विस्तारके साथ गुना करनेसे . 4736 कुल 8832 इकसठवें भाग 184 मण्डलके आए। उनके योजन करनेके लिए ६१से बटा करनेसे६१ ) 8832 ( 144 यो० 61 यो० इकसठवें . 273 सूर्यमण्डलका चारक्षेत्र 510-48 भाग 244 उनमेंसे सर्व मण्डलोंका 144-48 भाग . प्रमाण विष्कम्भक्षेत्र आया 244 इकसठवें भाग उसे कम * करनेसे 366-0 यो० आए। 048 शेष रहे। अब 184 मण्डलके अन्तर 183 हैं, 183 अन्तरका क्षेत्र 366 यो०, तो एक अन्तरका क्षेत्र कितना? इस तरह त्रिराशी करते = 2 योजन प्रमाण अन्तरक्षेत्र होता है, ऐसा उत्तर मिलेगा / इति अन्तरक्षेत्रप्रमाणप्ररूपणा // 2 // ३-सूर्यमण्डल संख्या और उसकी व्यवस्थासूर्यके कुल 184 मण्डल हैं, उनमेंसे 65 मण्डल जम्बूद्वीपमें हैं और ये जम्बूद्वीपमें 180 यो० अवगाह कर रहे हैं परन्तु इन 65 मण्डलोंका सामान्यतः चारक्षेत्र एकसौ अस्सी योजनका है। - यहाँ शंका होगी कि 65 मण्डलोंका 64 आंतरेका प्रमाण और 65 मण्डलोंका विमान विष्कम्भ इकट्ठा करें तो कुल क्षेत्र 179 यो० भाग प्राप्त होता है और आपने 0292 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यमण्डलकी संख्या और उसकी व्यवस्था ] गाथा 86-90 [ 217 तो जम्बूद्वीपमें 180 योजन क्षेत्र कहा, तो यह किस तरह बने ? इसके लिए यहाँ पर प्रथम तो यह समझना उचित है कि ६५वा मण्डल पूर्ण किस स्थानमें होता है ? तो जम्बूद्वीपकी चार योजन चौडी ऐसी जो पर्यन्त जगती, वह जब 11 भाग जितनी शेष रहे तब पूर्ण हो और तब तक तो 179 यो० र भाग क्षेत्र होता है / अब ६५वाँ मण्डल पूर्ण होने पर ६६वें मण्डलमें जम्बूद्वीपकी जगतीके ऊपर प्रारम्भ किया और उस जगती पर 53 भाग जितना चारक्षेत्र घूमकर ( यहाँ जम्बूद्वीपकी जगती पूर्ण होकर) जम्बूद्वीपकी जगतीसे 1 यो० 6 भाग जितनी दूर लवणसमुद्र में जाए तब वहाँ 66 मण्डल पूर्ण हुए कहलाते / (६६वें मण्डलका जम्बूद्वीपके जगतीगत 52 भागका क्षेत्र और लवणसमुद्रगत 1 यो० / भागका क्षेत्र मिलाने पर ६५वें मण्डलसे लेकर 663 मण्डलके बिचका 2 योजन अन्तरप्रमाण भी मिल जाएगा / ) अब पहले 65 मण्डलोंका जम्बूद्वीपगत होता जो 179 यो० हा भाग प्रमाण चारक्षेत्र उसमें ६६वें मण्डलसे रुकता जम्बूद्वीप (जगती) गत जो 53 २२/भागका मण्डलक्षेत्र जोडनेसे 180 योजन पूर्ण होते हैं। इस तरह शेष 119 सूर्यमण्डल लवणसमुद्रगत 330 योजन और 48 भाग अंश प्रमाण क्षेत्र रोककर रहे हैं / जम्बूद्वीपगत और लवणसमुद्रवर्ती मण्डलोंकी संख्याका और उन दोनोंवर्ती क्षेत्रका जोड करनेसे 184 मण्डलोंका 510 यो० 48 भाग प्रमाण क्षेत्र बराबर आ जाता है। इस चालू ग्रन्थकारके अभिप्रायसे जम्बूद्वीपवर्ती २२४भारत सूर्यके जो 65 मण्डल उनमेंसे 62 २३°मण्डल तो मेरुकी एक करवट-बाजू पर निषधपर्वतके ऊपर पड़ता है और ____228. हरएक द्वीप-समुद्रवर्ती आए जगती-किलोका क्षेत्रप्रमाण उस-उस द्वीप-समुद्रका जो जो विस्तार-प्रमाण हो उसके अन्तर्गत लेनेका होनेसे यहाँ भी 180 योजनमें क्षेत्रप्रमाण जंबूजगतीक्षेत्रके साथ समझकर कहा है / अतः ही जम्बूद्वीपमें चार योजनका जो जगती प्रमाण है उसे हरिवर्ष तथा रम्यक्क्षेत्रकी लम्बाईमें साथमें गिना है। ___ [ देखिए क्षत्रस० गा० 13 ] 229. जो सूर्य सर्वाभ्यन्तर-द्वितीयमंडलमें दक्षिणार्धभागमें रहा हुआ भरतक्षेत्रमें उदित होकर नूतन सूर्यसंवत्सरका प्रारंभ करे वह 'भारतसूर्य' और उसी समय जो सूर्य सर्वाभ्यन्तरके द्वितीयमंडलके उत्तरार्द्ध भागमें रहकर, ऐरवतादि क्षेत्रोंमें उदित होकर (प्रकाश करता हुआ ) वहाँ वर्षारम्भ करनेवाला जो सूर्य वह 'ऐरवतसूर्य' ऐसा समझना / यह कथन औपचारिक समझना / 230. यहाँ यह समझनेका है कि दोनों संग्रहणी की मूल गाथाओंमें तीन अथवा दो मंडलोंके लिए 'बाहा' ऐसा शब्द प्रयोग किया है, जब कि उस ग्रंथकी टीकामें उस बाहा शब्दके स्पष्टार्थके रूपमें 'द्वे द्वे ब. सं. 28. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 शेष तीन मण्डल अग्निकोनेमें हरिवर्षक्षेत्रकी बाहाके ऊपर ( अथवा जीवाकोटी पर ) पडता हरिवर्षजीवाकोटयादौ ' इस तरह जीवाकोटी स्थानका निर्देश किया है, इससे विचारशील व्यक्तिको भ्रम होता है कि मूल गाथाओंमें रहे ‘बाहा' शब्दका अर्थ 'बाहा स्थाने' ऐसा फलितार्थ न करके ‘जीवाकोटी' ऐसा क्यों किया ? इसके लिए ऐसा समझना कि 'बाहा' शब्द स्पष्ट स्थानवाचक नहीं है, साथ ही जीवाकोटी यह औपचारिक बाहाकी चौडाईका ही एक देशभाग है (जो जीवा-बाहाकी परिभाषासे तथा चित्र देखनेसे स्पष्ट मालूम होगा) अर्थात् प्रसिद्ध ऐसी बाहाकी लंबाई और जगतीकी चौडाई (विष्कम्भ नहीं) उसका देशभाग उसे जीवाकोटी कहा जाता है। क्योंकि बाहा, एक प्रदेश मोटी और उस उस क्षेत्रादि जितनी दीर्घ गिन सकते, और उसकी...त्रिकोण काटकोन जैसी चौडाई उस बाहाकी औपचारिक चौडाई गिनी जाए कि जिसमें जगती और हरिवर्ष क्षेत्र भी है। और इसीलिए सिद्धान्तमें इस वस्तुके निर्देश प्रसंग पर मुख्यतया ‘जीवाकोटी' शब्द ही ग्रहण किया है / इस कारणसे जहाँ 'बाहा' शब्द आवे वहाँ जीवाकोटी स्थानको ग्रहण करनेमें अन्य अनौचित्य नहीं दीखता और " जीवाकोटी” ऐसा शब्द जहां आवे वहाँ तो वह स्पष्ट ही है / यहाँ इसमें ऐसा न समझना कि बाहा और जीवाकोटी एक ही है। परंतु उक्त लेखनसे तो यह निश्चित हुआ कि . बाहासे जीवाकोटी शब्दग्रहण अनुचित नहीं है / अब प्रथम ‘जीवाकोटी' तथा 'बाहा' शब्दका अर्थ समझ लें / ___'जीवा'-धनुषाकारमें रहा जो क्षेत्र उसकी अंतिम चापरूप जो सीमा-हद उसकी लंबाईरूप जो डोरी वह / जैसे कि--धनुषाकारमें रहा भरतक्षेत्र जहाँ ( मेरुकी तरफ) पूर्ण हुआ वहाँ पूर्व-पश्चिम लम्बाईरूप मर्यादा करनेवाली डोरी ‘जीवा' कहलाती, और उस जीवाके पूर्व-पश्चिमगत जो कोने होते हैं वे 'कोटी' कहलाते / अर्थात् जीवाकी कोटी-'जीवाकोटी' कहलाता है। 'बाहा' = लघुहिमवंत पर्वतकी पूर्व-पश्चिमकी जीवासे महाहिमवंत पर्वतकी दोनों दिशाओंमें रहा जो जीवास्थान है वहाँ तक क्रमशः वृद्धि पाता हुआ जो क्षेत्रप्रदेश और उससे होता बाहारूप आकार 'बाहा' कहलाता है। अब उस स्थानके बारेमें तीन मतांतर हैं, उनमें प्रथम दो मत निर्देश किये जाते हैं। (1) मलधारी श्रीमद् हेमचंद्रसूरिकृत इस चालू संग्रहणीमें तथा श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरिकृत मंडलप्रकरणमें 62 मंडल निषध-नीलवंतमें और 63-64-65 ये अंतिम तीन मंडल बाहास्थानमें जणाते हैं। (2) श्रीमद् जिनभद्रगणिक्षमा० कृत संग्रहणीमें 64-65 दो मंडल बाहास्थानमें सूचित करते हैं / उक्त दोनों मतोंका समाधान-बाहास्थानमें प्रथम मतसे तीन मंडल और दूसरे मतसे दो मंडल उल्लिखित होनेसे वक्तव्यमें संख्याका भिन्नत्व दीखता है, फिर भी वह आपेक्षिक कथन होनेसे दोषरूप नहीं है, तथापि बाहास्थानमें दो अथवा तीन मंडल वास्तविक है तदपि वह स्थाननिर्णय स्पष्ट तो है ही नहीं। जबकि 'जीवाकोटी' शब्द दोनों कथनके लिए अत्यन्त स्पष्ट और स्थानसूचक होता है। विशेषतः बाहास्थानके तीन मंडलोंका वक्तव्य विशेष स्पष्ट युक्त है इतना ही नहीं लेकिन तीन मंडलोंके लिए तो बाहा-जीवाकोटी या. जगती तीनों शब्द उपयोगी हो सकते हैं। जो नीचेकी आकृति देखनेपर स्पष्ट मालूम होगा / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यमण्डलकी संख्या और उसकी व्यवस्था ] गाथा 86-90 [ 219 है, अर्थात् हम उस क्षेत्रकी बाहाके ऊपर पसार होते उन दो मण्डलोंको देख सकते हैं। 64-6 માં મંડળો હરિ ની જીવાકોટિ ઉપર opan. निध....पर. हरिवनी . हरिचर्ष.....क्षेत्र 0000000 1 ... अ . के माहा के जाहा 0 र at: आकृति परिचय—इसमें ६३वा मण्डल निषध पर्यन्त है, जहाँ ६४-६५वा मण्डल है, उस स्थानका ताम हरिवर्षकी जीवाकोटी अर्थात् जीवा और बाहा इन दोनोंके बिचका कोना, और बाहा ब-क जितनी लम्बी है, और वह एक आकाशप्रदेश मोटी है कि ब-क जितनी दीर्घ गिन सकते, अ-ब जितनी बाहाकी औपचारिक चौडाई है कि जिसमें जगती और हरिवर्ष क्षेत्र भी है / विशेषतः चित्रमें मेरुसे पूर्व-पश्चिममें सर्वाभ्यन्तरमण्डल - की जो अबाधा है उससे कुछ अधिक उत्तर-दक्षिणमें समझना / 3. साथ ही श्री समवायांगसूत्रमें 63 मंडल निषध नीलवंतके ऊपर सही, लेकिन दो मंडल 'जगती' ' के ऊपर है ऐसा शब्द प्रयोग किया है। . इस मतसे 64-65 मडल ऊपर जताए हैं। इन दो मंडलोंका जगतीस्थान वास्तविक दृष्टिसे तो स्पष्ट जगती स्थान नहीं है। यदि जगतीस्थान दर्शाना हो तो 63-64-65 इन तीन मंडलोंके लिए वास्तविक है / गणितकी दृष्टिसे उचित मत इन तीन मंडलोंके लिए आ सकता है, विशेषतः इससे भी -- जगती' शब्दकी सार्थकता तो 62-63-64-65 इन चार मंडलोंके कथनमें है जो नीचेके उल्लेखसे स्पष्ट होगा। - संपूर्ण जगती तो बारह योजनकी गिनी जाए। इसमें दृष्ट जगती बिवके चार क्षत्रके 173-174175-176, इन चार योजनकी गिनी जाए क्योंकि मूल भागसे लेकर दोनों बाजू पर जानेसे दोनों बाजूने जगती मेरुकी तरह घटती घटती गोपुच्छाकारकी तरह होती हुई ऊपरितन भागमें चार योजन चौडी रहती है और हमें तो इस मध्यभागकी चार योजन जगती दृष्टिपथमें आती होनेसे 'दृष्टजगती' कहलाती / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 वैसे ही (क्षेत्र-अपेक्षासे) मेरुकी दूसरी बाजू पर देखें तो ऐवत सूर्यके बयासठ सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे लेकर जम्बूजगती पर्यन्त 180 योजनका चारक्षेत्र द्वीपमें गिननेका स्पष्ट है अतः सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे लेकर १७३वें यो०से दृष्टजगती शुरु होती है, ( उसमें मध्य [ बिचकी ) दृष्ट जगती पहले मूल जगतीके चार योजनमें ) वह १७३से दृष्टजगती तकके चार योजनमें गणितके हिसाबसे ६३वा मण्डल पूर्ण उदयवाला और ६४वा मण्डल 26 अंश जितना उदय पाता है, इस दृष्ट जगतीके प्रारम्भसे वह (कुल) जगतीके ही पर्यन्त भाग (173 से 180 यो०) तक सोचे तो भी 63-64-65 ये तीन मण्डल जगतीके ऊपर आ सकते हैं। अब संपूर्ण जगती आश्रयी विचार करने पर प्रथम संपूर्ण जगती 169 से 180 यो० अर्थात् बारह योजनकी है, [और किसी भी द्वीप-समुद्रका जगती क्षेत्रप्रमाण लघु क्षेत्रसमास मूलमें कहे ‘णिअणिअ दीवोदहि मझगणिय मूलाहिं ' इस जगतीके विशेषण पदसे उस विशेष द्वीपसमुद्रके कथित प्रमाणमें अन्तर्गत गिननेका होनेसे ] सर्वा० मं० से लेकर 168 यो० पूर्ण होनेपर 61 मंडल संपूर्णतः पूर्ण होते हैं; ये 168 योजन पूर्ण होनेपर वास्तविक जगतीका प्रारंभ (मूल विस्तारसे) होता है, उस मूल जगतीके प्रारंभसे 169-172 तकके चार योजनके जगतीक्षेत्रमें ६२वा मण्डल पूर्ण उदय पावे और ६३वां मण्डल 1 यो० 13 भाग जितना उदय पाकर १७३वें यो० से आरंभ होती 176 यो० तककी दृष्ट जगतीके ऊपर 1 यो० 35 भाग दूर 63 वा मंडल पूर्ण होता है। अवशिष्ट रहे दृष्ट जगती क्षेत्रमें 64 वा मंडल 2 यो० 26 भाग जितना उदय पाकर शेष रहे हुए अंतिम चार योजन प्रमाण-१७७ से 180 यो० तकके जगतक्षेत्र पर एक योजनके 22 भाग बीतने पर 64 वा मंडल हो, तत्पश्चात उसी जगतीके पर ६५वा मण्डल सम्पूर्ण (2 यो० 48 भाग) उदयवाला होता है, ये 65 मण्डल पूर्ण होने पर जम्बूद्वीपके 65 मण्डलोंका कथित 179 यो० 9 अंश जो चारक्षेत्र वह यथार्थ आ जाए, और शेष बावन अंश प्रमाण जगतीके ऊपर लवणसमुद्रमें आते 66 वें मण्डलका बावन अंश जितना उदयक्षेत्र समझना / ____ इससे क्या हुआ ? कि, 169 से 180 यो० वी 12 यो० प्रमाणके जगती क्षेत्रके पर 62-63-64-65 ये चार मण्डल सम्पूर्ण उदयवाले हो / (66 वाँ बावन अंश उदयवाला हो) अब यहाँ विचारणीय यह है कि-शास्त्रकारने जगती शब्दसे 177 से 180 इन अंतिम चार योजनका जगतीक्षेत्र गिना हो वैसा लगता है, क्योंकि अंतिम जगतीके स्थानमें ऊर्ध्व भागमें 64 वां मंडल 22 अंश जितना उदय पाकर संपूर्ण भ्रमण करके 65 वें मं०का संपूर्ण उदय होकर बावन अंश जितना 66 वें का भ्रमण वहाँ हो, इस हिसाबसे 63 मंडल निषध नीलवंतके ऊपर और 64-65 ये दो मण्डल 'ही अंतिम जगतीके स्थानमें हों, यह कथन वास्तविक है; तो भी उपरोक्त कथनके अनुसार वास्तविक रूपसे तो. 63-64 मण्डल दृष्ट जगतीके ऊपर है, और जहाँ 64-65 वो है वहाँ तो वास्तविक जगतीका ढाल है। यद्यपि इससे अगती माननी हो तो माने, परन्तु 63-64 मण्डलके योग्य ऐसी दृष्ट जगती स्थानको छोड़कर जगतीका दाल क्यों माने ? यदि जगतीके दालको भी गिनना हो तो तो फिर 169 से 180 यो० Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यमण्डल कितने और क्या दृश्यमान होता है ? वह ] गाथा 86-90 [ 221 231 मण्डल नीलवंत पर्वत पर पडे दीखते और 3 मण्डल रम्यक्षेत्रकी बाहा-जीवाकोटी पर पडे दीखते / (इस चालू ग्रन्थकारके मतानुसार जाने) ये मण्डल अपने भरतक्षेत्रकी तथा ऐरवतक्षेत्रकी अपेक्षा मेरुसे अग्नि तथा पायव्यकोने में दीखते हैं, परन्तु पूर्वमहाविदेहकी २३२अपेक्षा उन्हें नीलवन्त पर्वतके ऊपरके वे ही 63 मण्डल मेरुसे ईशान कोनेमें दीखते हैं, और पश्चिम महाविदेहकी अपेक्षा निषध पर्वतके ऊपरके 63 मण्डल मेरुसे नैऋत्य कोनेमें दीखते हैं / जम्बूद्दीवे णं भंते / दीवे सूरिआ उदिणपाईणमुगच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति, पूर्वविदेहापेक्षयेदम् // 1 // पाईणदाहिणमुग्गच्छदाहिणपडीणमागच्छंति, भरतक्षेत्रापेक्षयेदम् // 2 // दाहिणपडीणमुग्गच्छपडीणउदीणमागच्छंति, पश्चिमविदेहापेक्षयेदम् // 3 // पडीणउदीणमुग्गच्छउदीणपाईणमागच्छंति, ऐरवतापेक्षयेदम् // 4 // [सूर्य० प्र० प्रा० ८-जम्बू० प्रज्ञ०] इतना विवेचन चालू गाथाके अर्थको उद्देशित करके किया / तक 12 यो० जगती गिनकर 62-63-64-65 ये चार मण्डल जगतीके ऊपर कहें तो 'जगती' शब्द सम्पूर्ण सार्थक होता है, और जगतीके तीनों विभागके कथनमें दोष ही नहीं आएगा; अतः 64-65 वा मण्डल ढालकी अपेक्षा जगतीके पर होने पर भी '64-65 वा जगतीके ऊपर' ऐसा कहना यह सम्पूर्ण सार्थक नहीं दीखता / परन्तु 64-65 वा -- जीवाकोटी वा बाहास्थानमें' कहना, यह स्थान स्पष्टताके लिए : विशेष उचित है और इसीलिए वह स्थान हरिवर्ष अथवा रम्यक् क्षेत्रकी जीवाकोटीमें गण्य हो जानेसे उस 'जीवाकोटी' स्थानका ग्रन्थकार महर्षि निर्देश करें उसमें अनौचित्य नहीं है। ..तीनों मतोंके विषयमें व्यवस्थित विवेचन करके ग्रन्थकारके कथनको स्पष्ट किया है। तथापि तीनों मतोंमें अन्तमें जणाये अनुसार उन मण्डलोंके लिए स्थानदर्शक या स्थानसूचक अतिस्पष्ट शब्द तो 'जीवाकोटी' ग्रहण करना विशेष उचित है / इन तीनों मतोंके लिए वृद्धवाद है; ग्रन्थगौरवके कारणसे इस बाबतमें विशेष . उल्लेख न करते हुए विरमते हैं / मेरी छोटी बुद्धिसे चर्चा की हैं / विशेष स्पष्टता ज्ञानीगम्य / . 231. मेरुकी एक बाजूके कुल 65 मण्डल और दूसरी बाजूके कुल 65 मण्डल इस तरह दो व्याख्याएँ कीं, इससे ऐसा नहीं समझना कि 130 मण्डल समझने हैं / मण्डल सारे-सम्पूर्ण तो पैंसठ ही हैं / लेकिन प्रतिदिशावर्ती व्यक्तिको एक बाजूसे स्वदृष्टदिशागत अर्ध अर्ध मण्डल दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि देखनेवाले व्यक्तिको सम्पूर्ण वलयाकार मण्डल दीखता नहीं है, अतः वे स्वस्वक्षेत्रसे दोनों बाजूके मण्डल दोनों विभागोंमें देख सकते हैं अतः यहाँ इस प्रकार व्याख्या की है। . 232. विशेषमें यहाँ इतना समझना कि पूर्वविदेहके लोगोंकी जो पश्चिम दिशा वही भारतीय लोगोंकी पूर्व दिशा, भरतकी जो पश्चिम दिशा वही पश्चिम विदेहकी पूर्व दिशा, पश्चिम विदेहकी पश्चिम दिशा वही ऐवतकी पूर्व दिशा, ऐरवतकी जो पश्चिम दिशा वही पूर्व विदेहकी पूर्व दिशा समझना / इस तरह उन उन वर्षधरादि युगलिक क्षेत्रोंमें भी सोचना / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 . [अब यहाँसे अन्य ग्रन्थोंमें मण्डलोंके सम्बन्धमें ज्ञानसमृद्धि अति पुष्ट बने, जिज्ञासावृत्तिको तृप्त करे ऐसा अधिकार आता है / वह अधिकार स्पष्टतासे यहाँ दिया गया है / ] उन उन क्षेत्रोंमें उदयास्तविपर्यासका हेतु-- भरतक्षेत्रको छोड़कर अन्य अन्य सर्व क्षेत्रों में दिवस और रात्रिके प्रमाणके तफावतके लिए, और इससे उत्पन्न होते दूसरे अनेक विपर्यासोंके कारणोंके लिए, प्रत्येक क्षेत्राश्रयीनियमित रूपसे उदयास्तादि काल आदिका वर्णन करना तो अशक्य है / साथ ही सर्व स्थल पर सूर्यका उदय एक ही समय पर और अस्त भी एक ही समय पर होता हो वैसा भी नहीं है, परन्तु सूर्यकी गति ज्यों ज्यों कला-कला मात्र आगे बढ़ती जाए, त्यों त्यों आगे आगेके उन उन क्षेत्रों में प्रकाश होता जाए / तदवसरे उदयत्व कहा जाए और पश्चात् पश्चात्क्रमशः उन उन क्षेत्रोंमें सूर्य दूर दूर होता जाए तब 'अस्तपन' कहलाए / सूर्य वास्तविक रूपमें चौबीसों घण्टे प्रकाशमान ही होता है, उसे उदयास्तपन होता नहीं है, लेकिन दूर जाने पर वह और उसका प्रकाश नहीं दीखता तब, 'अस्त' शब्दका मात्र व्यवहार किया जाता है और जब दूसरा सूर्य देखते हैं तब 'उदय'का व्यवहार किया जाता है। शंका-जब ऐसी अनियमित व्यवस्था बताई तो क्या हरएक क्षेत्राश्रयी सूर्यका : उदय और अस्त अनियमित ही होता है ? समाधान-हाँ, अनियमितत्व ही है, ज्यों ज्यों समभूतलासे 800 योजन ऊँचा ऐसा सूर्य समय समय पर जिन जिन क्षेत्रोंसे आगे आगे बढ़ता जाए उन उन क्षेत्रों के पीछेके दूर दूरके क्षेत्रोंमें सूर्यका प्रकाश अगले क्षेत्रमें बढ़नेसे वहाँ प्रकाशका अभाव बढ़ता जाए और अनुक्रमसे उन उन क्षेत्रोंमें रात्रिका आरंभ होता जाए, इससे सूर्यके सर्व सामुदायिक क्षेत्राश्रयी उदय और अस्तका अनियमितत्व ही है, लेकिन यदि स्वस्व क्षेत्राश्रयी सोचें तो तो उदय तथा अस्त लगभग नियमित है, क्योंकि हम भी अगर भरतक्षेत्रके मध्यभागमें खड़े रहकर देखेंगे तो भरतक्षेत्रमें आज जिस समय सूर्यका उदय हुआ और जिस समय अस्त हुआ, उसी सूर्यको अब हम कल देखेंगे तो भी गत दिनके उदयास्तका जो समय था लगभग वही समय आजके सूर्यके उदयास्त समयका हो, लेकिन ऐसा तब बनता है कि जब सूर्य अमुक मण्डलोंमें हो तब अमुक दिनोंमें इस तरह लगभग एक ही अवसर पर उदय तथा एक ही अवसर पर लगभग अस्त हो, परन्तु तदनन्तर वह सूर्य जब अन्य अन्य मण्डलोंमें जैसे जैसे प्रवेश करता जाए तब क्रमशः सूर्यके उदय-अस्त कालमें हमेशा घट-बढ़ होती रहती है, अर्थात् जब जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें हो तब दिवसका उदय जलदी होने पावे और अस्त भी देरीसे होनेके कारण रात्रि छोटी हो (माघमास हेमन्तऋतु) तथा जब सूर्य सर्वबाह्यमण्डलमें हो तब उदय देरीसे और Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलोंकी अबाधा निरूपण ] गाथा 86-90 [223 अस्त जलदीसे हो तथा रात्रि बड़ी हो, ( सावन मास-प्रावृट्ऋतु) उक्त कारणसे रात्रिदिवसके उदयास्तका अनियमितपन, तथा इसीसे ही ये रातें और दिन लंबे-नाटे और कम ज्यादा मुहूर्त प्रमाणवाले होते हैं; अन्यथा उदय और अस्त स्वस्व क्षेत्राश्रयी तो लगभग नियमित होते हैं। उपरोक्त कारणसे यह तो निश्चित होता है कि सूर्य ज्यों ज्यों आगे-आगे बढ़ता जाए और इससे जिन जिन क्षेत्रों में प्रकाश होता जाए उन उन क्षेत्रोंके लोग क्रमशः, अपने यहाँ सूर्योदय हुआ ऐसा उच्चारण करें, और जब क्रमशः आगे बढ़ता जाए तब उसी क्षेत्रवर्ती लोग प्रकाशके अभावमें क्रमशः पुनः अस्त हुआ ऐसा उच्चारण करें, जिसके लिए पूर्वमहर्षियोंने कहा है कि- . जह जह समये, समये पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे / तह तह इओऽवि नियमा जायइ रयणी य भावत्थो // 1 // एवं च सइ नराणं उदय-स्थमणाई होतिऽनिययाई / सयदेस [ काल ] भेए कस्सइ किंची ववदिस्सइ नियमा // 2 // सइ चेव य निदिट्ठो भहमुहूत्तो कमेण सव्वेसि / केसिंचीदाणि पि य विसयपमाणे रवी जेसिं // 3 // [इति भगवती श. प, उ 1 वृत्तौ] - अतः कुल मिलाकर जिस बाजू पर सूर्योदय दृश्यमान हो उन उन क्षेत्रोंकी अथवा * देखनेवालोंकी वह पूर्वदिशा और उन क्षेत्रोंमें जिस बाजू पर सूर्यास्त दृश्यमान हो वह उनकी पश्चिमदिशा हो-अर्थात् कोई भी मनुष्य उदय पाये हुए सूर्यके सामने खड़ा रहे तब उसके सम्मुख जो दिशा होती है वह पूर्व, और पीठके पीछे सीधी दिशा वह पश्चिम, उसी मनुष्यकी बाई बाजूकी दिशा वह उत्तर, और दाहिनी ओरकी दिशा दक्षिण होती है। इस तरह मूल चार दिशाएँ हैं और उन चार दिशाओं में से दो दो दिशाओंके बिच जो कोने पड़ते हैं उन्हें विदिशा अथवा कोणके नामसे पहचानते हैं; अतः पूर्व और उत्तरके बिचकी ईशानदिशा, पश्चिम और उत्तरके बिचकी वायव्यदिशा, दक्षिण और पूर्वके बिचकी अग्निदिशा, दक्षिण और पश्चिमके बिचकी नैऋत्यदिशा और उपलक्षणसे ऊर्ध्व तथा अधोदिशा ऐसे कुल दश दिशाएँ कहलाती हैं / -इति सूर्यमण्डलसंख्या-तव्यवस्था प्ररूपणा च // मेरुकी अपेक्षासे मण्डल-अबाधा निरूपण [यहाँ मण्डलोंकी तीन प्रकारकी अबाधाएँ कहनेकी हैं, इनमें प्रथम मेरुकी अपेक्षासे ( सूर्यमण्डलोंकी) ओघसे अबाधा-१, मेरुकी अपेक्षासे प्रत्येक मण्डलकी अबाधा-२, दोनों सूर्य के परस्परके मण्डलकी अबाधा-३, इनमें प्रथम 'ओघसे ' अबाधा कहलाती है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 मेरुके आश्रयी ओघसे अबाधा-१ इस जम्बूद्वीपवर्ती मेरुसे सर्वाभ्यन्तर मण्डल ( अथवा प्रथम मण्डल अथवा तो सूर्यमण्डल क्षेत्र ) ' ओघसे 44820 योजन दूर होता है। वह किस तरह हो ? तो सर्वाभ्यन्तर मण्डल, जम्बूद्वीपमें-जम्बूद्वीपकी जगतीसे अन्दर खसकता, जम्बूके मेरुकी तरफ 180 योजनक्षेत्र अवगाह करके रहा है। इस 180 योजनकी सम्पूर्ण क्षेत्रप्राप्ति सर्वाभ्यन्तर मण्डलमें उत्पत्तिक्षणमें प्रथम क्षणमें प्राप्त हो उस वक्तकी समझना / चारों बाजू पर यथार्थ न समझना। अतः उस द्वीपके एक लाख योजनप्रमाण विस्तारमेंसे दोनों बाजूके होकर मण्डलक्षेत्रके 180 + 180 = 360 योजन कम करने पर 99640 योजन शेष रहेंगे। उनमेंसे भी २33मेरुका दस हजार योजन प्रमाणका व्यास कम करनेसे 89640 योजन अवशिष्ट रहेंगे, तत्पश्चात् इसी (89640) राशिके अर्थ करनेसे मेरु पर्वतकी अपेक्षा सर्वाभ्यन्तर मण्डल अथवा मण्डलक्षेत्रका ओघसे अन्तर 44820 योजनप्रमाण जो जताया वह इस तरह करनेसे प्राप्त होता है। अतः अर्वाक् तो मण्डल है ही नहीं। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि जब सर्वाभ्यन्तर मण्डलका ( उत्तरायणको समाप्त करके दक्षिणायनके प्रथम मण्डलको आरम्भ करता ) भारत सूर्य मेरुसे अग्नि कोने में निषध पर्वत पर 44820 योजन दूर रहा हो, तब उसकी ही प्रतिपक्षी दिशा (वायव्य)में तिी समश्रेणीमें-नीलवन्त पर्वत पर ऐरवत क्षेत्रमें वर्षारंभ करता हुआ ऐरवत सूर्य भी मेरुसे 44820 योजन दूर होता है। -इति मेरुं प्रतीत्य मण्डलक्षेत्रस्य ओघतः अबाधा // मेरुके आश्रयीके (आश्रित) प्रत्येक मण्डल विषयक अबाधा-२. पहले मेरु और सर्वाभ्यन्तर मण्डलके बिचकी अबाधा कही / अब मेरुसे प्रत्येक अथवा किसी भी मण्डलकी अबाधा कितनी हो? यह समझनेके लिए सर्वाभ्यन्तरप्रथम मण्डलसे दूसरे मण्डलके अन्तभाग तकका अन्तराल ( अन्तर) प्रमाण 2 यो० और है। भाग 234 प्रमाण है, अतः इस अबाधाको-सर्वाभ्यन्तर मण्डल और मेरुके बिच पहले 233. इस स्थानमें मेरुका इतना व्यास होना यथार्थ नहीं है तो भी पृथ्वीतल-समभूतलाके पास दस हजार योजनका जो व्यास है, वह व्यास यहाँ व्यवहारनयसे सामान्यतः लिया जाता है, अन्यथा '11 योजन पर एक योजन दोनों बाजू पर घटता है और नन्दनवन स्थानमें तो दोनों बाजू पर एक साथ हजार योजन घटते हैं।' इस हिसाब तो दस हजार योजनमेंसे 726 घटाना योग्य है। 234 इस दो योजन और 48 भाग अधिक कहनेका आशय यह है कि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलके अंतिम भागसे लेकर दूसरा मण्डल 2 योजन दूर है और दूसरे मण्डलके एक योजनके 48 भागका विस्तार उस अवधामें साथमें लेनेका है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरएक मण्डलमें दोनों सूर्योंकी अबाधा और व्यवस्था ] गाथा 86-90 [ 225 जो 44820 यो० अबाधा आई है उसमें प्रक्षेपित करनेसे मेरुसे दूसरा मण्डल 44822 यो० और है। भागकी अबाधामें रहा है ऐसा उत्तर आएगा / इस तरह तृतीय मण्डलकी अबाधा जाननेके लिए भी दूसरे मण्डलसे तीसरे मण्डलके बिचके 2 यो० 46 भाग प्रमाणको पुनः दूसरे मण्डलकी आई हुई 44822 यो० / भाग अबाधामें प्रक्षेपित करनेसे मेरुसे तीसरे मण्डलकी 44825 यो० 35 भाग प्रमाण अबाधा आएगी / इस तरह सर्वाभ्यन्तर मण्डलसे लेकर प्रत्येक मण्डलकी उक्त (2 यो०१८ ) अन्तर प्रमाण अबाधा पहले निकाले मेरु और सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बिचकी (44820) अबाधाके प्रमाणमें बढ़ोतरी करने पर (और साथ साथ इच्छित मण्डलकी भी अबाधा निकालते निकालते ) जब सर्वबाह्यअंतिम मण्डल तक पहुँचे तब वहाँ पर १८४वाँ अंतिम मण्डल-मेरुसे सर्वबाह्यमण्डल, प्रथम क्षणमें 45330 योजन प्रमाण अबाधामें रहा होता है / ___ उस समय भारतसूर्य मेरुपर्वतसे (45330 यो० दूर ) अग्निकोने में समुद्र में रहा होता है और उसीकी ही वक्र (कोनेसे कोना) समश्रेणीमें मेरुसे वायव्यकोनमें दूसरा ऐरवतसूर्य ( मेरुसे 45330 यो० दूर ) रहा होता है। [यहां पर आई 45330 योजन अबाधा प्रमाणमेंसे मेरुसे सर्वाभ्यन्तरमण्डल अबाधाके अनुसार जो 44820 योजन कम करने पर 510 योजनका चारक्षेत्र प्राप्त हो और उसमें अन्तिम मण्डलका है। भाग विमान विष्कम्भ मिलानेसे 51016 भाग प्रमाण सूर्यमण्डलोंका चारक्षेत्र भी आ सकता है / ] // इति मेरुं प्रतीत्य प्रतिमण्डलमबाधा // अब दोनों सूर्योकी प्रतिमण्डलमें परस्पर अबाधा और व्यवस्था जब जम्बूद्वीपके दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर (प्रथम ) मण्डलमें हो अर्थात् मेरुसे पूर्व और २३५पश्चिममें प्रत्येक सूर्य विरुद्ध दिशामें प्रथम मण्डल स्थानवर्ती चरते हो तब (समश्रेणीमें ) उनका परस्पर अन्तर 99640 योजन प्रमाण होता है-यह प्रमाण जम्बूद्वीपके एक लाख योजन प्रमाण विस्तारमेंसे दोनों बाजूके जम्बूद्वीप विषयक मण्डल क्षेत्रके 235. जब सूर्य विमान उत्तर दक्षिणमें वर्तित हो तब कुछ अधिक अन्तरवाले होते हैं, क्योंकि वे पूर्व-पश्चिमवर्ती स्वस्वमण्डल स्थानसे प्रथम क्षणमें गति करे तब उनको ‘कर्णकीलिका' प्रकारकी गतिसे दूर दूर खसकते हुए गमन करना होता है कि जिससे दूसरे दिन उन्हें अनन्तर मण्डलकी कोटीके ऊपर 2 योजन दूर पहुँच जाना होता है / अतः वे उत्तर-दक्षिण दिशामें आवे तब मेरुसे अंतर कुछ अधिक रहता है / यदि उस प्रकारकी गति करता न हो तो फिर जहाँसे—जिस स्थानसे निकला वहीं पुनः गोलाकारमें घूमकर खड़ा रहे, लेकिन वैसा बनता ही नहीं है / 8. सं. 29 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 180 + 180 = 360 योजन कम करनेसे (पूर्वोक्त संख्याप्रमाण ) यथार्थ आ जाता है / वह इस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें रहे दोनों सूर्य जब दूसरे मण्डलमें प्रवेश करते हैं तब उनका परस्पर अन्तर 99645 योजन 35 भाग प्रमाण होता है क्योंकि जब पूर्व दिशाका एक सूर्य प्रथम मण्डलसे दूसरे मण्डलमें गया तब प्रथम मण्डलकी अपेक्षा विमान-विष्कम्भ सह 2 योजन 6 अंश प्रमाण क्षेत्रसे दूर बढ़ा, तब उस प्रकार पश्चिम दिशावर्ती दूसरी बाजूका जो सूर्य वह भी सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे स्वदिशामें दूसरे मण्डलमें गया तब प्रथम मण्डलकी अपेक्षासे यह भी 2 योजन 48 भाग क्षेत्र जितनी दूर गया, इस तरह दोनों बाजूके इन सूर्योने प्रथम मण्डलमेंसे दूसरे मण्डलमें प्रवेश किया, इससे हरएक मण्डलमें दोनों बाजूका अन्तर-(२ योजन ? + 2 योजन 16) इकट्ठा करनेसे (प्रतिमण्डल विस्तार सह अन्तरक्षेत्र प्रमाण) 5 योजन 35 भाग प्रमाण अबाधाकी वृद्धि (पहले कथित 99640 योजनकी अबाधामें) होती जाए / ___इस तरह दूसरे मण्डलसे लेकर प्रत्येक मण्डलमें 5 योजन और 35 भाग प्रमाण अबाधाकी वृद्धि (99640 योजनके प्रमाणमें ) करते करते और इस तरह सूर्यके परस्पर अबाधा-प्रमाणको निकालते निकालते, जब ( १८४वें) सर्वबाह्यमण्डलमें दोनों सूर्य घूमते घूमते विरुद्ध दिशामें आए हों तब एक सूर्यसे दूसरे सूर्यके बिचका परस्पर अन्तरक्षेत्र प्रमाण 1 लाख 660 योजन (100660 ) प्राप्त होता है / यह प्रमाण मण्डलक्षेत्रकी आदिसे लेकर १८४वाँ मण्डल 510 योजन दूरवर्ती होता है तब समझना / वैसे ही दूसरी बाजू पर भी मण्डलक्षेत्रके आदिसे अन्तिम मण्डल 510 योजन दूर होता है तब समझना, क्योंकि अन्तिम मण्डलक्षेत्र प्रमाण जो 48 अंश है उसे गिनतीमें नहीं लेनेका होनेसे 183 मण्डल१८३ अन्तरसे दोनों बाजूका होकर 1020 योजन क्षेत्र पूरित हो, उसमें मेरुकी अपेक्षा व्याघातिक सर्वाभ्यन्तरमण्डल अन्तर जो 99640 योजन है उसे प्रक्षेपित करनेसे यथार्थ 100660 योजन प्रमाण आ जाता है / " इस समय भारतसूर्य मेरुसे अग्निकोनेमें 45330 योजन दूर समुद्रमें सर्वबाह्यमण्डलमें होता है, जबकि दूसरा ऐरवतसूर्य समश्रेणीमें मेरुसे वायव्यकोनेमें मेरुसे 45330 योजन दूर होता है। ___ इस तरह उसी मण्डलस्थानमें यदि चन्द्र वर्तित हो तो चन्द्र चन्द्रका भी परस्पर अन्तरप्रमाण 100660 योजन बराबर आ जाए।" इस प्रकार सर्वबाह्यमण्डलमें दोनों बाजू पर रहे हुए लवणसमुद्रगत सूर्य जब वापिस आने पर अर्वाक् ( उपान्त्य-१८३वें ) मण्डलमें प्रवेश करें तब प्रतिमण्डलमें पांच Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलोंकी अबाधा, मण्डलचार और अर्धमण्डल संस्थिति ] गाथा 86-90 [ 227 योजन और 35 भाग जितनी अबाधाकी हानि होती है, अतः 1833 मण्डलमें सूर्य-सूर्यका परस्पर अबाधा-अन्तर (मेरुव्याघात सह-१००६६० उसमेंसे कम 5 योजन 35 भाग) 100654 योजन और 26 भाग जितना हो, इस तरह ज्यों ज्यों सूर्य अन्दरके मण्डलों में प्रवेश करते जाए त्यों त्यों प्रतिमण्डल '5 योजन 35 भाग' अबाधा कम करते जाने पर और स्वस्वमण्डल योग्य इच्छित मण्डल प्रमाणको प्राप्त करते हुए जब दोनों सूर्य पुनः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें प्रवेश करके विरुद्ध दिशागत आवे तब दोनों सूर्योंकी पूर्वोक्त-९९६४० योजन प्रमाण जो अबाधा दर्शाई थी वह पुनः बराबर आ जाती है / // इति मण्डले-मण्डले सूर्ययोः परस्परमबाधानिरूपणम् // तस्मिन् समाप्ते च मण्डलाबाधा प्ररूपणाऽऽख्यं चतुर्थ द्वारं समाप्तम् // [एक दूसरे मण्डलके बिचकी अन्तरप्ररूपणा–सूर्यके मण्डलोंका परस्पर अन्तर प्रमाण दो योजन है / उसे युक्तिपूर्वक लाना हो तो सूर्यके विमान प्रमाण लाता सूर्यमण्डलका 16 भाग प्रमाण जो विस्तार उसे सर्वमण्डलोंका कुल विस्तार प्रमाण लानेके लिए 184 से गुना करे तब 144. योजन 6 भाग केवल सूर्यमण्डलोंका कुल विस्तार आवे, इस विस्तारको सूर्यमण्डलके 510 योजन 16 भाग प्रमाण चारक्षेत्रमेंसे कम करने पर 366 योजन अवशिष्ट रहे, यह केवल अन्तर क्षेत्रप्रमाण सूर्यके 183 मण्डलोंका आया प्रत्येक मण्डलका अन्तर प्रमाण लाने के लिए १८३से बटा करे तो 2 योजन प्रमाण अन्तर प्रत्येक मण्डलका जो कहा. वह आ जाएगा / ] - [सूचना-पूर्व बताए अनुसार पांच द्वारों मेंसे चार द्वारोंका वर्णन किया / अब पांचवाँ चर अथवा गति-द्वारप्ररूपणा कही जाती है / यह प्ररूपणा प्राज्ञपुरुषोंके कथनानुसार सात द्वारोंसे की जाती है / इनमें प्रथम सुगमताके लिए सूर्योदय विधिके साथ अर्धमण्डल संस्थिति, २–प्रतिवर्ष सूर्यमण्डलोंकी गतिकी संख्या प्ररूपणा, ३-संवत्सरके प्रत्येक दिवस तथा रात्रिके प्रमाणकी प्ररूपणा, ४–प्रतिमण्डलमें क्षेत्र विभागानुसार रात्रि-दिवस प्ररूपणा, ५-प्रतिमण्डलोंका परिक्षेप-परिधि, ६–प्रतिमण्डलमें सूर्यका प्रतिमुहूर्त गतिमान और ७-प्रतिमण्डलमें दृष्टिपथप्राप्तिप्ररूपणा कही जाएगी।] १-मण्डलचार-अर्धमण्डलसंस्थितिसर्वाभ्यन्तरमण्डलमें रहे सूर्योंमेंसे एक सूर्य (भारतसूर्य) जब दक्षिण दिशामें होता है तब दूसरा (ऐरवतसूर्य) सूर्य उत्तर दिशामें होता है। ये दोनों सूर्य विवक्षित मण्डलमें प्रवेश करके उस उस मण्डलको विचरते विचरते, पूर्वापर दोनों सूर्य अर्द्ध अर्द्ध मण्डलचारको करते, जिस जिस दिशाके सूर्यको जिस मण्डलकी जिस दिशाकी अर्द्ध अर्द्ध मण्डलोंकी कोटि पर पहुँचना होता है उस उस दिशागत मण्डलकी कोटिको Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 अनुलक्ष्य प्रत्येक सूर्य व्यवहारपूर्वक संचरते हुए विशिष्ट प्रकारकी विशिष्ट २3गतिसे, अपने अपने योग्य अर्द्ध अर्द्ध मण्डलमें संक्रमण करके प्रत्येक अहोरात्रि पर्यन्तमें 2 यो० है। भाग क्षेत्रको बिताते हुए और दिनमानमें प्रत्येक मण्डलका संक्रमण करते, 31 मुहूर्त भागको खपाते हुए, अन्य अन्य मण्डलों में प्रथम क्षणमें संक्रमण करते हैं / वे सूर्य दक्षिणायनमें छ: मासके अन्तमें सर्वबाह्यमण्डलमें पहुंचते हैं। और जिस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे सर्वबाह्यस्थानमें पहुंचे थे वैसे ही पुनः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें उत्तरायणमें छः मासमें लौटते हैं / इस तरह वे दोनों सूर्य एक संवत्सरका काल पूर्ण करते हैं / वह इस तरह उसमें सर्वबाह्यमण्डलसे आया हुआ और सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें दक्षिण पूर्वदिशामें वर्तित सूर्य, प्रथम क्षणमें प्रवेश करता हुआ उस प्रथम क्षणसे ऊर्ध्व-आगे आगे धीरे धीरे सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें विचरता विचरता वह सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे अनन्तर द्वितीय मण्डलाभिमुख गमन करता हुआ जहाँ पहुँचना है उस मण्डलकी कोटिको अनुलक्ष्य किसी ऐसे प्रकारकी (कर्णकीलिका) गति विशेष करके इस तरह मण्डल परिभ्रमण करता है कि जिससे एक अहोरात्रि चार पर्यन्तमें सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे निकला वह सूर्य जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलके प्रथम क्षणस्थानसे 2 यो० 46 भाग दूर क्षेत्रमें पहुंचे तब दक्षिणार्द्धके सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे संक्रमण करके मेरुसे वायव्यमें आए हुए उत्तर दिशावर्ती आए द्वितीय अर्द्धमण्डलकी सीमामें आदि प्रदेशमें आवे, अर्थात् दूसरे मण्डलकी कोटीके ऊपर प्रथम क्षणमें आ जाए / तत्पश्चात् वह सूर्य उस प्रकारकी गति विशेष करके प्रथम क्षणसे आगे आगे धीरे धीरे गमन करता करता, दीपककी तरह मेरुके उत्तर भागको प्रकाशित करता हुआ नूतन वर्षके 236. यहाँ भेदधातसे होता संक्रमण अर्थात् विवक्षित मण्डलसे अनन्तर मण्डलमें संक्रमण करना चाहते सूर्यने जिस स्थानसे प्रारम्भ किया उसी स्थान पर आकर उस मण्डलके अनन्तर मण्डलके बिच रहा हुआ दो योजनका जो अन्तरक्षेत्र उस क्षेत्रमें पुनः सीधा चलकर फिर दूसरा मण्डल शुरू करता है ऐसा न समझना, यह मान्यता तो परतीर्थिककी है, और इसीलिए ऐसा समझनेसे बड़ा दोष उपस्थित हो जाता है कि एक मण्डलसे दूसरे मण्डलमें भेदधातसे अर्थात् सीधा क्षेत्रगमन करनेमें जो काल बीते उतना काल आगेके मण्डलमें विचरनेके लिए कम हो और इससे दूसरे मण्डलका एक अहोरात्रि काल भी पूर्ण न हो और दूसरा मण्डल पूर्ण विचर न सकनेसे सकल जगत् विदित नियमित रात्रि-दिवस मानमें व्याघात होनेसे अहोरात्रियोंको अनियत होनेके दोषका प्रसंग आ जाएगा अतः यह मत अयुक्त है और उपर्युक्तमत युक्त है क्योंकि इससे विवक्षित स्थानसे सूर्यगमन ही ऐसे प्रकारका करते करते मण्डल चरता है कि एक अहोरात्रि पर्यन्तमें वह अपान्तराल क्षेत्रके साथ अनन्तर मण्डलकी कोटीको एक अहोरात्रि पर्यन्त पहुँच जाता है / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिणायन-उत्तरायण प्रसंग पर सूर्यकी मण्डलोंमें गति ] गाथा 86-90 [ 220 अहोरात्रि अवसाने 2 यो० 6 भाग २३°क्षेत्र व्यतिक्रमसे और दिनमानमें भाग मु०की हानि करता हुआ, वह सूर्य दक्षिणाद्ध मण्डलको पसार करके पुनः दक्षिण दिशागत आए हुए तीसरे अर्धमण्डलकी सीमा-कोटीके ऊपर प्रथम क्षणमें आवे / इस तरह निश्चयसे उक्त उपायसे उस उस मण्डलके आदि प्रदेशमें प्रविष्ट होकर प्रथम क्षणसे आगे आगे धीरे धीरे हरएक (दक्षिण पूर्वगत मण्डलों मेंसे उत्तर पश्चिमगत मण्डलोंमें, उत्तरपश्चिमगत मण्डलोंमेंसे दक्षिणपूर्वगत मण्डलोंमें ) अर्ध अर्ध मण्डलों में किसी एक ऐसे प्रकारकी विशिष्ट गतिके गमनसे संक्रमण-परिभ्रमण करता हुआ, उत्तरसे-दक्षिणमें और दक्षिणसे उत्तर में गमनागमन करता, प्रति अहोरात्रिमें 2 यो० 48 भाग क्षेत्र बिताता, प्रतिमण्डलमें उस उस उत्कृष्ट दिनमानमेंसे / भागकी हानि करता हुआ, जब जघन्य-रात्रिमानमें उतनी ही वृद्धिमें निमित्तरूप होता, ऐसा वह सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षासे उत्तरदिशागत आए हुए १८२वें मण्डलमें बहिर्भूत सर्वबाह्यमण्डलमें उत्तरार्द्धमण्डल तक पहुँचता है / इसी तरह सर्वबाह्यमण्डलसे आया हुआ उत्तर पश्चिम दिशावर्ती सूर्य भी जब सर्वाभ्यन्तरके उत्तरार्द्ध मण्डलमें प्रथम क्षणमें आकर, प्रथम क्षणसे ऊर्ध्व धीरे धीरे किसी ऐसे प्रकारकी गतिविशेषसे वह सर्वाभ्यन्तरके उत्तरार्द्ध मण्डलमेंसे संक्रमण करके पूर्ववत् सर्व व्यवस्था करता हुआ द्वितीय दक्षिणार्ध मण्डलकी कोटीके ऊपर (नूतन संवत्सरके आरम्भ समय पर) आता है। इस तरह वह सूर्य वहाँसे-उत्तर पश्चिमगत मण्डलोंमेंसे दक्षिण पूर्वगत मण्डलों में, दक्षिणपूर्वगत मण्डलोंमेंसे उत्तर पश्चिमगत मण्डलोंमें एक एक अहोरात्रि पर्यन्त 32 भाग दिनमानकी हानिमें कारणभूत होता हुआ, प्रत्येक मण्डलमें 2 यो०१६ भाग क्षेत्र व्यतिक्रान्त करता हुआ आगे आगेके अर्द्ध अर्द्ध मण्डलोंकों सीमामें प्रथम क्षणमें प्रवेश करता करता, धीरे धीरे उन मण्डलोंको स्वचारसे चरता हुआ सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षासे 182 अहोरात्रि द्वारा दक्षिण तरफके १८२वें सर्वबाह्यमण्डलमें आता है / इस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे संक्रमण करके आए हुए दोनों सूर्य जब सर्ववाह्यमण्डलमें * उत्तर-दक्षिण दिशामें वर्तित होते हैं तब दिनमान जघन्य 12 मुहूर्त्तका और रात्रिमान उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त्तका होता है। ___. इसी तरह सर्वबाह्यमण्डलमें प्रथम क्षणमें आए हुए दक्षिण तथा उत्तरदिशा स्थानवर्ती सूर्य प्रथम क्षणसे आगे आगे तथाविध गतिसे धीरे धीरे गति करते हैं उनमें से उत्तर दिशागत सूर्य एक अहोरात्रि पर्यन्त 2 यो० 48 भाग जितना चरक्षेत्र व्यतिक्रम हो तब ___237. इस सम्बन्धमें अन्यमतकारों की विपरीत 11 प्रतिपत्ति हैं वैसे ही दिन-रात्रिमानमें 18. मु० गतिमें 3, तापक्षेत्र विषयमें 12, उसकें संस्थान विषयमें 16, लेश्यामें 20, मण्डलपरिधिमें 3, मण्डल संस्थानमें 8 जम्बू-अवगाहनामें 5, इस तरह अलग अलग विषय पर अलग अलग विपरीत मान्यताएँ हैं. वे यहाँ न देते हुए श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिमेंसे देख लेनेकी सलाह देते हैं / . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90.. बाह्यमण्डल, संक्रमण करके सर्वबाह्यसे अक्मिण्डलके दक्षिणार्द्ध (दक्षिणदिशागत ) मण्डलमें प्रथम क्षणमें प्रवेश करता है, उसी समय जब दूसरा दक्षिणदिशागत सूर्य एक अहोरात्रि पर्यन्त 2 यो० 48 भाग जितना क्षेत्र व्यतिक्रम होनेके बाद वह अर्वाक् मण्डलके उत्तरार्द्ध मण्डलमें उत्तरायणके प्रथम क्षणमें विवक्षित कोटी स्थानमें आता है / इस तरह हरएक मण्डलोंमें जाते और आते प्रत्येक मण्डलस्थानमें दोनों सूर्य प्रथम क्षणमें एक साथ प्रवेश करते हैं और युगपत् संक्रमण करते हैं / इस अर्वाक् मण्डलमें सूर्य आनेसे सर्वबाह्यमण्डलमें प्राप्त होते 12 मुहूर्त दिनमानमें उत्तरायण होनेसे दिवस वृद्धिंगत होनेका है इसलिए 32 मुहूर्त भाग दिनमानमें वृद्धि, जबकि उतनी ही-३३ भाग रात्रिमानमेंसे हानि हुई होती है / सर्वबाह्यसे अक्मिण्डल में प्रथम क्षणमें आए वे सूर्य सर्वस्व दिशागत अर्ध अर्ध मण्डलोंको अपनी अनादि सिद्ध एक प्रकारकी विशिष्ट गतिसे पूर्ण करते, पूर्वकी तरह लेकिन विपरीत. . क्रमसे उत्तरार्द्धमण्डलमें रहा हुआ सूर्य दक्षिणार्द्ध में आदि क्षणसे प्रवेश करके और दक्षिणार्द्धमण्डलमें रहा हुआ सूर्य उत्तरार्द्धमण्डलोंके आदि क्षणमें प्रवेश करता हुआ प्रत्येक अहोरात्रि पर्यन्त 2 यो० 48 भाग क्षेत्र बिताता हुआ और दिनमानमें इ. भागकी वृद्धि और रात्रिमानमें 3 भागकी हानिमें निमित्तरूप होता हुआ, इस तरह अनुक्रमसे प्रत्येक सूर्य अनन्तर अनन्तर मण्डलाभिमुख चरता हुआ और उन उन मण्डलोंमें, वे दोनों आदि क्षणमें एक साथ आमने सामने प्रवेश करते हुए और उन उन मण्डलोंको चरकर संक्रमण करते वे सूर्य सर्वाभ्यन्तर अर्वाकमण्डलमें उत्तर-दक्षिण दिशामें आते / अब उस उत्तरार्द्धमण्डलमें रहा सूर्य उस उत्तरदिशागत मण्डलको विशिष्ट गतिसे चरकर-संक्रमण करके मेरुसे दक्षिणपूर्वमें आए हुए सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें-दक्षिणार्द्धमण्डलमें प्रथम क्षणमें आता है / उस समय यह सूर्य निषधपर्वतके स्थानसे आरम्भ होते सर्वाभ्यन्तरमण्डलके प्रथम क्षणमें नीलवन्त पर्वतके ऊपर आता है, उस समय दोनों सूर्योंने प्रथम क्षणमें जिस क्षेत्रको स्पर्श किया उसके कारण वह सर्वाभ्यन्तरम डल ऐसा कहा जाता है / इस तरह छः छः मासके दक्षिणायन-उत्तरायणपूर्वक एक सूर्यसंवत्सर पूर्ण होता है / सर्वबाह्यमण्डलसे आए हुए ये दोनों सूर्य जब अभ्यन्तरमण्डलमें प्रथम क्षणमें एक दक्षिणमें और एक उत्तर में आए होते हैं तब दिनमान उत्कृष्ट 18 मुहूर्त्तका और रात्रिमान जघन्य 12 मुहूर्त्तका होता है / ___ यहाँ इतना समझना कि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें जो सूर्य दक्षिणार्द्धमण्डलमें विचरण करता हुआ मेरुके दक्षिणभागमें प्रकाशित था वही भारतसूर्य सर्वबाह्यमण्डलसे अक्मिण्डलमें दक्षिणार्द्धमण्डलको संक्रमण करके जब अंतिम सर्वबाह्यमण्डलमें आदि क्षणमें उत्तरार्द्धमण्डल पर आता है तब ( उत्तरदिशामें ) प्रकाशित होता है। और जो सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें उत्तरदिशागत रहकर मेरुके उत्तर भागको प्रकाशित Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत, ऐरवत और महाविदेहमें सूर्योदय ] गाथा 86-90 [231 करता था वही ऐरवतसूर्य सर्वबाह्यमण्डलमें दक्षिणार्द्धमण्डल-दक्षिणदिशागत प्रकाशमान होता है। . इस तरह वे दोनों सूर्य प्रथम क्षणसे क्रमशः विचरते विचरते सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें अपने अपने प्रारम्भस्थानमें आ जाते हैं / इस प्रकार उनका 'मण्डलगतिचार' अथवा 'अर्धमण्डल' संस्थितिचार है। सूर्योदय विधि जम्बूद्वीपमें दिवस और रात्रिको विभाजित करनेवाला दोनों सूर्यका प्रकाश है / ये दोनों सूर्य जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें होते हैं तब भरतादि क्षेत्र स्थानों में उदय पाता 'भारतसूर्य' उस दक्षिणपूर्वदिशामें-शुद्ध पूर्वसे अर्वाक् दक्षिणकी तरफ जम्बूकी जगतीसे 180 योजनके अन्दर निषध पर्वत पर उदय पाता है; तब उसी सूर्यस्थानसे तिच्छी समश्रेणीसे उत्तर पश्चिममें वैसे ही नीलवन्त पर्वतके ऊपर प्रथम क्षणमें ऐश्वतादि क्षेत्रोंको स्वउदयसे प्रकाशित करता जम्बूद्वीपका ‘ऐश्वतसूर्य प्रकाशता है।' उसमें दक्षिण-पूर्वमें निषध पर्वत पर रहा हुआ भारतसूर्य जब प्रथम क्षणसे आरम्भ होकर आगे आगे कर्णकीलिका-ढबकी एक विशिष्ट गतिसे भरतकी तरफ बढ़ता बढ़ता मेरुकी दक्षिण दिशामें आए हुए भरतादि क्षेत्रोंको स्त्रमण्डल परिभ्रमणसे प्रकाशता है तब ( भारतसूर्यने जिस समय निषधस्थानमें प्रथम क्षणसे आगे बढ़ना शुरू किया) उसी समय इस बाजू पर तिी समश्रेणी पर उत्तरपूर्वमें नीलवन्तके ऊपर रहा हुआ 'ऐरवतसूर्य' भी प्रथम क्षणसे ऊर्ध्व-आ० मं०से आगे विशिष्ट प्रकारकी स्वमण्डलगतिसे मेरुकी उत्तरमें आए हुए उन ऐश्वतादि क्षेत्रोंको प्रकाशमान करता जाता है। ... अब जब भरतकी तरफ आगे बढ़ता हुआ वह भारतसूर्य भरतक्षेत्रमें आकर वहाँसे आगे बढ़ता हुआ दक्षिण-पश्चिमदिशामें आता हुआ (दक्षिण-पश्चिमके मध्यभागके समीप) पश्चिमदिशाके मध्यवर्ती आए हुए पश्चिम महाविदेहक्षेत्रमें उदयरूप होता है और वहाँसे आगे आगे अनन्तर मण्डलकी कोटीको अनुलक्ष्य आगे बढ़ने लगे तब वह सम्पूर्ण पश्चिम महाविदेहक्षेत्रको प्रकाशित कर देता है / इसी तरह जब नीलवन्तपर्वतके स्थानसे गमन करता हुआ ऐरवतसूर्य ऐश्वतक्षेत्रमें आकर आगे बढ़ता हुआ उत्तर-पूर्व दिशामें आकर ( उत्तर-पूर्व मध्यके समीपमें) पूर्वविदेहमें उदयरूप होता है और क्रमशः अपरमण्डलाभिमुख आगे आगे गमन करता हुआ सम्पूर्ण महाविदेहक्षेत्रको प्रकाशित कर देता है तब सर्वाभ्यन्तर मण्डलके दोनों सूर्योंमेंसे एक सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डलके दक्षिणार्द्धको चर कर अनन्तर मण्डलमें उत्तरार्ध मण्डलकी कोटीके प्रथम क्षणमें पहुँचे होते हैं, इसी तरह उसी वक्त दूसरा सूर्य सर्वाभ्यन्तरके उत्तरार्ध मण्डलको चर कर अनन्तर मण्डलमें दक्षिणार्ध मण्डलकी कोटीके ऊपर प्रथम क्षणमें पहुँचा होता है। . इस तरह वे प्रथम मण्डलमें विचरते हों तब सम्पूर्ण प्रमाणका (18 मुहूर्तका) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 दिवस और जघन्य प्रमाण (12 मुहूर्तकी) रात्रि होती है। तत्पश्चात्के मण्डलमें उक्तवत् सूर्योदय विधि तथा दिनमान प्रतिमण्डल 2 भाग कम करके सोचना / इति सर्वाभ्यन्तरमण्डले सूर्योदयविधिः // इति प्रथमद्वारप्ररुपणा समाप्ता // २-प्रतिवर्ष सूर्यमण्डलोंकी गति तथा संख्याप्ररुपणासर्वाभ्यन्तरमण्डलमें रहे हुए सूर्योमेंसे एक सूर्य जब निषध पर अर्थात् भरतकी अपेक्षा वह दक्षिण-पूर्वमें (मेरुकी अपेक्षा उत्तर-पूर्वमें ) हो तब वह सूर्य मेरुके दक्षिणदिशावर्ती भरतादि क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है, और दूसरा सूर्य उसके सामने. तिछी दिशामें नीलवन्त पर्वतके ऊपर होता है तथा वह उत्तर पश्चिम दिशामें गमन करता हुआ मेरुके उत्तरदिशावर्ती ऐरवतादि क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है। इस तरह महाविदेहके लिए. सोच लेना। ये दोनों सूर्य अपने अपने मण्डलोंकी दिशाकी तरफ स्वस्थानसे मण्डलका प्रारंभ करें, और प्रत्येक सूर्य सर्वाभ्यन्तर-मण्डलको एक अहोरात्रिमें आधा आधा घूमकर पूर्ण करे / इससे प्रत्येक सूर्यको समग्र सर्वाभ्यन्तरमण्डल घूम लेनेके लिए दो अहोरात्रिका समय लगता है, परंतु प्रत्येक मण्डलको दोनों दोनों सूर्योंको पूर्ण करनेका होता है अतः प्रत्येक सूर्यको अर्ध अर्ध मण्डल चारके लिए प्राप्त होता है। (अतः जिस जिस दिशामें सूर्य हो उसे दिशागत क्षेत्रमें एक एक अहोरात्रि काल अर्ध अर्ध मण्डल सूर्य चरता जाए वैसे वैसे : प्राप्त होता जाए।) ___इस सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी प्रथम अहोरात्रि उत्तरायणकी अन्तिम अहोरात्रि कहलाती है। इस तरह दोनों सूर्य दो अहोरात्रि कालसे सर्वाभ्यन्तरमण्डलको पूर्ण करके जब दोनों सूर्य दूसरे मण्डलमें प्रथम क्षणमें प्रवेश करे तब वह मण्डल भी पूर्ववत् (प्रथम मण्डलकी तरह) प्रत्येक सूर्यको अर्ध अर्ध चारके लिए प्राप्त होता है और दोनों सूर्य उस मण्डलको दो अहोरात्रि काल होने पर पूर्ण करते हैं, इस तरह इस दूसरे मण्डलकी जो अहोरात्रि वह २३“शास्त्रीय नूतन-संवत्सरका पहला (शास्त्रीय सावन वदि प्रथमा, अपनी गुजराती आषाढ वदि प्रथमासे ) अहोरात्रि कहलाती है। 238. हाल व्यवहारमें नूतन वर्षका प्रारंभ किसी जगह पर कार्तिक तथा किसी जगह पर चैत्र मासके शुक्ल पक्षकी प्रतिपदासे गिना जाता है। कार्तिक माससे वर्षका प्रारंभ गिननेकी यह प्रवृत्ति विक्रमराजाके समयसे शुरू हुई है / जो राजा प्रजाको अनृणी ( ऋण रहित ) करे उसी राजाका संवत्सर प्रजाजन खुश होकर प्रवर्तित करें ऐसी प्रथा है / विक्रमने वैसा किया था। ____ इस कार्तिक माससे शुरू होते वर्षारम्भके दिन पर सूर्य युगमर्यादाके अनुसार पहले वर्षमें 104 या 105 वें मण्डलमें, दूसरे वर्षमें 93 वें, तीसरे वर्षमें 81 वें, चौथे वर्षमें 89 वें और पांचवें वर्ष 87 वें मण्डलमें होता है, यह स्थूल गणित होनेसे कदाचित् 0 // या 1 मण्डलसे अधिक तफावतका सम्भव हो सकता है / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिणायन-उत्तरायणका स्वरूप ] गाथा 86-90 [ 233 इसीलिए जब सूर्य सर्वबाह्यमण्डलमें आकर सर्वबाह्यमण्डलके दूसरे ( 1833) मण्डलमें प्रथम क्षणमें प्रवेश करके जिस अहोरात्रिसे इस मण्डलको पूर्ण करे वह अहोगात्र 'उत्तरायण 'के प्रारम्भकालकी प्रथम अहोरात्रि कहलाती है। जिस तरह दक्षिणायनका प्रारम्भ सर्वाभ्यन्तर प्रथम मण्डल वर्ण्य गिना जाता है इस तरह उत्तरायणका प्रारम्भ भी सर्वबाह्यमण्डल वर्म-द्वितीय मण्डलसे गिना जाता है, और वह योग्य ही है, क्योंकि सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डलके द्वितीय मण्डलसे लेकर जब अंतिम सर्वबाह्यमण्डल (प्रथमको वर्जित करके 183 मण्डल )को घूम ले तब दक्षिणायनका (सूर्य दक्षिण दिशाकी तरफ रहे सर्व बाह्यमण्डलकी तरफ जाता होनेसे ) जो छः मासका काल वह यथार्थ प्राप्त होता है। इसी तरह सूर्य जब सर्वबाह्यमण्डलके द्वितीय मण्डलसे प्रारम्भ होकर जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें प्रथम क्षणमें आकर उस मण्डलको घूम ले तब उत्तरायणका जो छः मासका काल वह यथार्थ पूर्ण होता है। यहाँ इतना विशेषमें समझें कि-प्रतिवर्ष दोनों सूर्योका सर्वाभ्यन्तरका प्रथम मण्डल और सर्वबाह्य-वह अंतिम मण्डल, इन दो मण्डलोंको वर्ण्य शेष 182 मण्डलोंमें (दक्षिणायन प्रसंग पर) जाते और ( उत्तरायण प्रसंग पर ) आते, इस तरह दो बार जाना-आना होता है / जब कि, सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्यमण्डलमें सूर्योका सम्पूर्ण संवत्सरमें एक ही बार आवागमन होता है। [ क्योंकि कल्पनाके रूपमें सोचते सर्वबाह्यमण्डलसे आगे घूमनेके लिए अन्य मण्डल है ही नहीं कि जिससे सूर्योको आगेका मण्डल घूमकर सर्वबााह्यमण्डलमें पुनःदूसरी बार आनेका बने, वैसे ही सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे अर्वाक्-अन्दर भी मण्डलक्षेत्र नहीं है जिससे सर्वाभ्यन्तर मण्डलमें भी दो बार घूमनेका अवसर प्राप्त हो, यह वस्तु ही नहीं है तो फिर दो बारके आवागमनकी विचारणा ही अयोग्य है / ] इस तरह उन दोनों सूर्योंका सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्यमण्डलका होकर दो अहोरात्रि . * काल और बिचके 182 मण्डलों में सूर्यका संवत्सरमें दो बार आगमन होनेके कारण प्रत्येक मण्डलाश्रयी दो अहोरात्रि काल होता होनेसे 182 मण्डलाश्रयी 364 दिवस काल-उसमें पूर्वोक्त. दो मण्डलोंका दो अहोरात्रिकाल प्रक्षिप्त करनेसे 366 दिवस काल एक संवत्सरका प्राप्त होता है। उपरोक्त कथनानुसार सूर्य दक्षिणाभिमुख गमन करते सर्वाभ्यन्तर मण्डलके द्वितीय मण्डलसे लेकर सर्वबाह्यमण्डलके अन्तिम १८४वें मण्डलमें पहुँचते हैं / यहाँ सर्वबाह्यमण्डल दक्षिणमें होनेसे सूर्यकी दक्षिणाभिमुख गतिके कारण होता छः मासका काल सर्व दक्षिणायनका कहलाता है। इस दक्षिणायनका प्रारम्भ हो तबसे सूर्य सर्वबाह्यमण्डलकी तरफ होनेसे क्रमशः उस सूर्यका प्रकाश उन उन क्षेत्रोंमें घंटता जाता है, हम उसके तेज की भी मन्दता बृ. सं. 30 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 . देखते हैं, अर्थात् इससे दिनमान 23 संकीर्ण होता जाता है और रात्रि 24deg लम्बी होती जाती है। ये सूर्य जब सर्वबाह्यमण्डलमेंसे पुनः लौटते द्वितीय मण्डलसे लेकर उत्तराभिमुख गमन करते हुए जम्बूद्वीपमें प्रविष्ट होकर सर्वबाहृमण्डलकी अपेक्षा उत्तर दिशामें रहे सर्वाभ्यन्तर-प्रथममण्डलमें आवे तब दूसरे मण्डलसे सर्वाभ्यन्तरमण्डल तकके 183 मण्डलोंका परिभ्रमणका 6 मास प्रमाणकाल -- उत्तरायण'का काल कहलाता है, दक्षिणायन पूर्ण होने पर अंतिम मण्डल वर्ण्य द्वितीय मण्डलमें -- उत्तरायण 'का प्रारम्भ हो, वहाँसे सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी ओर बढ़ता होनेसे पहले उस सूर्यके प्रकाशमें दक्षिणायन प्रसंग पर हानि होती थी उसके बदले अब क्रमशः उसके तेजमें वृद्धि होती जाए और प्रकाश-क्षेत्रं बढ़ाता जाए जिससे उन उन क्षेत्रों में क्रमशः दिनमान बढ़ता जाए और रात्रिमान घटता जाए / विशेषतः यहाँ यह भी समझना कि सौरमास-सूर्यसंवत्सर-दक्षिणायन-अवसर्पिणीउत्सर्पिणी-युग-पल्योपम-सागरोपम इत्यादि सर्व कालभेदोंको समाप्त होनेका प्रसंग किसी. भी मण्डलमें अगर आता हो तो सर्वाभ्यन्तरमण्डल पूर्ण होते ही अर्थात् केवल दक्षिणायन अथवा कर्कसंक्रातिके प्रथम दिन आषाढी पूर्णिमाको आता है / और साथ ही सर्व प्रकारके कालभेदोंका प्रारम्भ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें द्वितीय मण्डले अर्थात् दक्षिणायनके छमाही कालके प्रथम दिवसके प्रारम्भके साथ ही सावन वदि 1 को (गुजराती ) आषाढ़ वदि 1 को, अभिजित् नक्षत्रयोगमें प्रावृद् ऋतुके आरम्भमें भरत ऐश्वत में दिवसके आदिमें और विदेहक्षेत्र में रात्रिके प्रारम्भमें युगका आरम्भ होता है / ___ इस तरह सर्वबाह्यमण्डलमेंसे आभ्यन्तरमण्डलमें आते प्रत्येक सूर्यको प्रत्येक मण्डलमें एक एक अहोरात्रिकाल (स्वस्व अर्ध-अर्धमण्डल चरते ) होता जाता है / इस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे सर्वबाह्यमण्डलमें जानेवाले सूर्यको भी प्रतिमण्डल एक एक अहोरात्रिकाल होता है। उत्तरायण-दक्षिणायनका सारा (183 + 183 ) काल इकट्ठा करने पर 366 दिवस प्रमाण होता है / जो दिवस एक संवत्सरप्रमाण है / / इति द्वितीय द्वार प्ररूपणा // ___३–संवत्सरके प्रत्येक रात्रि-दिवसोंकी प्रमाण प्ररूपणा जब दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें दक्षिणके तथा उत्तरके अर्धमण्डलों में हों तब दिनमान उत्कृष्टमें उत्कृष्ट अठारह मुहूर्तप्रमाण होता है, क्योंकि उत्तरायणकाल पूस माससे शुरू होकर आषाढमासमें छः मास काल पूर्ण होनेको हो तब वह काल अंतिम सीमा पर 239-240. इस समय दक्षिणायन होनेसे पूर्व दिशामें भी हररोज दक्षिणकी तरफ खसकता खसकता सूर्य दक्षिण दिशाकी तरफ उदय पाता हुआ दीखता है और उत्तरायगमें पूर्व दिशामें भी उतरकी तरफ खसकता खसकता सूर्य उत्तरकी तरफ उदित होता हो वैसा दीखता है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सरके प्रत्येक रात्रि-दिवसोंकी प्रमाण प्ररूपणा ] गाथा 86-90 [235 पहुँचा होता है और सर्वबाह्यमण्डलके द्वितीय मण्डलसे आरम्भ होते उत्तरायण कालमें (सूर्य ज्यों ज्यों सर्वबाह्यमण्डलोंमेंसे सर्वाभ्यन्तरमण्डलों में प्रवेश करता जाए त्यो त्यों) दिवस क्रमशः वृद्धिंगत होता जाता है / और यह सूर्य जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें प्रथम क्षण पर आवे तब उत्तरायणकी समाप्तिके अंतिम मण्डलमें आ पहुँचा ऐसा कहा जाता है, अतः उस अंतिम मण्डलमें दिनमान उत्कृष्टमें उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त प्रमाण हो यह सहज है / तत्पश्चात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें आ चूके सूर्य दक्षिणायनका आरम्भ करते हुए सर्वबाह्यमण्डलके स्थानकी तरफ जानेकी इच्छासे ज्यों ज्यों अन्य अन्य मण्डलमें गति करते जाते त्यो त्यों निरन्तर क्रमशः दिन घटता जाता, अतः जब वे दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डलको घूमकर नूतनसंवत्सर करनेवाले द्वितीय मण्डलमें प्रथम क्षणमें प्रवेश करे तब एक ही मण्डलके आश्रयी, सूर्यकी गति वृद्धि में एक मुहूर्त्तके इ. भाग मुहूर्त्तका दिनमान कम हो जाता है, जब कि दूसरी बाजू पर सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें जो रात्रिका प्रमाण था उसमें उतनी ही 2 भाग मुहूर्तकी प्रथम क्षणमें वृद्धि होती जाए [ क्योंकि अहोरात्रिका सिद्ध 24 घण्टे 30 मुहूर्त्तका जो प्रमाण है वह तो यथार्थ रहना ही चाहिए ], उसी तरह वह सूर्य जब नूतन सूर्यसंवत्सरके दूसरे अहोरात्रमें अथवा तो सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षा तीसरे मण्डलमें प्रथम क्षणमें प्रवेश कर ले तब से भाग दिनमान दूसरे मण्डलके दिनमान प्रमाणमेंसे प्रथम क्षणमें घटता है, [ सर्वाभ्यन्तर भाग मुहूर्त दिनमान घटता है ] जब कि रात्रिप्रमाणमें उतनी ही वृद्धि होती जाती है / इस तरह प्रत्येक मण्डलमें सर्वाभ्यन्तरमण्डलके 18 मुहूर्त प्रमाण दिनमानमेंसे अथवा पूर्वपूर्व मण्डलके दिनमानमेंसे एक मुहूर्त्तके इकसठवें दो भाग = दो भागकी प्रथम क्षणमें हानि होती होती और उस तरह पूर्वपूर्वके रात्रि प्रमाणमें प्रथम क्षणमें उतनी ही (2 भाग मु०की ) वृद्धि होती होती, दोनों सूर्य जब जब तथाप्रकारकी एक गति विशेषसे अनन्तर अनन्तर मण्डलोंमें धीरे धीरे आदि प्रदेशमें होकर, प्रवेश करते हुए सूर्यसंवत्सरमण्डलकी अपेक्षा १८३वें मण्डलमें (सूर्यसंवत्सरमण्डलका प्रारम्भ दूसरे मण्डलसे शुरू होता है अतः सूर्यसंवत्सरमण्डलकी अपेक्षासे १८४वाँ मण्डल १८३वाँ गिना जाता है) अर्थात् सर्वबाह्यमण्डलमें सर्वाभ्यन्तरमण्डलका दक्षिणवर्ती सूर्य उत्तरमें और उत्तरवर्ती सूर्य दक्षिणमें आवे तब पूर्व सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें जो 18 मुहूर्त्तका दिनमान था उसमेंसे कुल 3 भाग मुहर्तप्रमाण दिनमान घटता है। उन भागोंका मुहूर्त निकालनेके लिए 366 भागको इकसठसे बटा करनेसे (भागनेसे) कुल• 6 मुहूर्त प्रमाण दिनमान सर्वाभ्यन्तरमण्डलके 18 मुहूर्त प्रमाणमेंसे घट जानेसे 12 मुहूर्त प्रमाण दिनमान सर्वबाह्यमण्डलमें सूर्य हो तब होता है / इस तरह पूर्वोक्त नियमानुसार सर्वाभ्यन्तरमण्डलके 12 मुहूर्त रात्रि प्रमाणमें वृद्धि करनी होनेसे सय Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी .[गाथा 86-90 बाह्यमण्डलमें पहुँचे तब उतनी ही 6 मुहूर्त प्रमाण वृद्धि सर्वाभ्तन्यरमण्डलके 12 मुहूर्त रात्रिमानमें करनेसे 18 मुहूर्त प्रमाण लम्बी रात्रि सूर्य सर्वबाह्यमण्डलमें हो तब होती है। इस तरह दिनमानमें न्यूनता और रात्रिमानमें वृद्धि दक्षिणायन' प्रसंगमें हुई / इस तरह सर्वबाह्यमण्डलमें पहुँचे सूर्य जब उस अंतिम मण्डलसे संक्रमण करके उसके पूर्वके-( सर्वाभ्य०मण्डलकी अपेक्षा) १८३वें मण्डलमें दक्षिणवर्ती उत्तरार्द्धमण्डलमेंउत्तरवर्ती दक्षिणार्द्धमण्डलमें प्रवेश करें तब उत्तरायण शुरू होता होनेसे तथा दिवस वृद्धिंगत होनेवाला होनेसे (न्यून हुए) दिनमानमें दो मुहूर्ता शकी वृद्धि सर्वबाह्यमण्डल गत जो दिनमान था उसमें करते जाना और उतने ही प्रमाण हे मुहूर्ता शकी सर्वबाह्यमण्डलके रात्रिमानमें प्रतिमण्डल क्रमशः कम करते जाना, इस तरह दिनमान बढ़ता जाए और रात्रि घटती जाए, ऐसा करते करते जब वे दोनों सूर्य दक्षिणसे उत्तर तथा उत्तरसे दक्षिणार्द्धके मण्डलोंमें प्रथम क्षणसे प्रवेश करते करते, उत्तरमें रहे सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें प्रथमक्षणमें आवे, तब पूर्व 18 मुहूर्त प्रमाणका जो दिनमान और 12 मुहूर्त प्रमाणका रात्रिमान कहा था वह यथार्थ आ जाए / इस तरह 183 अहोरात्रिसे प्रथम दक्षिणायन समाप्त होनेके बाद .. उतने ही (183) अहोरात्रसे उत्तरायण समाप्त हो, इन दोनों अयनोंका .(6+6 मास कालसे) एक सूर्य संवत्सर भी समाप्त हो / यहाँ इतना विशेष समझना कि-जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें हो तब बड़ेसे बड़ा 18 241 मुहूर्त्तप्रमाण दिन होता है (शास्त्रीय गणितसे प्रथम वर्ष आषाढ़ी पूर्णिमाके दिन) और सर्वबाह्यमण्डलमें सूर्य हो तब छोटेसे छोटा 12 मुहूर्तप्रमाण दिन होता है / (शास्त्रीय गणितसे प्रथम वर्षमें माघ मासका छठा दिवस / ) इस तरह जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें हो तब रात्रि कमसे कम 12 २४२मुहूर्तप्रमाण हो (पहले वर्ष हमारी शास्त्रीय आषाढ़ी पूर्णिमाको ). और जब सर्वबाहमण्डलमें हो तब रात्रिमान अधिकांश 18 मुहूर्त्तका हो (पहले वर्ष शास्त्रीय माघ वदि 6 को ) इससे 241. सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें सूर्यकी गति पूर्णिमा-मासके अनुसार और जैन पंचांगके अनुसार दूसरे आषाढ सुदि पूर्णिमाको, सावन वदि द्वादशीको, सावन सुदि ९वींको, सा० वदि छठको और सा० सुदि तीजको ( उन्हीं नियत मास-तिथिओंमें) हो और उसी समय 18 मुहूर्त्तप्रमाण दि० और 12 मुहूर्त्तप्रमाण रात्रिमान हो और उन दिनोंमें प्रावृट्ऋतुका प्रथम दिवस और ३१वा दिवस अथवा ३१वीं तिथि ही होती है / और वह दिवस या तिथि प्रायः पूर्ण हुई होती है / 242. तब हेमन्तऋतु माघमास पूर्णिमा-मास तथा जैन पंचांगके अनुसार मृग. वदि 6, माघ सुदि 3, पौष सुदि 15, माघ वदि 12, माघ सुदि 9 इन्हीं नियत दिनोंमें 12 मुहूर्त दिनमान होता है और हेमन्तऋतुका ३१वा दिवस अथवा ३१वीं तिथि युग प्रारम्भकी अपेक्षासे जानें / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेहादि क्षेत्रमें तीन मुहूर्त विषयक विचारणा ] गाथा 86-90 [ 237 यह सिद्ध हुआ कि-समग्र संवत्सरमें बड़ेसे बड़ा (सबसे बड़ा) एक ही दिवस और छोटेसे छोटा (सबसे छोटा ) भी एक ही दिवस हो, शेष किसी भी मण्डलमें रात्रिमान तथा दिनमान घट-बढ़ प्रमाणवाला हो। विदेहादि क्षेत्रमें तीन मुहूर्त विषयक विचारणाजब मेरु पर्वतके दक्षिणार्द्ध भागमें (निषधसे शुरू हुआ सूर्य स्वचारित अर्द्धमण्डलके मध्यभागमें आवे तब) और उत्तर भागमें-उत्तरार्द्ध अर्थात् नीलवन्त पर्वतसे शुरू होता सूर्य जब स्वचारित उत्तरकी तरफ चरनेके मण्डलके मध्यभागमें आवे तब-इस तरह दोनों विभागों में ऐरवत और भरतक्षेत्रमें दोनों सूर्य परस्पर समश्रेणी में आए हुए हो तब सूर्यके अस्तित्त्वके कारण दिवस वर्तित हो उस वक्त मानो दिवसके तेजस्वी-देदीप्यमान-उग्र स्वरूपसे रात्रि भयभीत बनकर. अन्यक्षेत्रमें गई न हो ? इस तरह सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें होनेसे जघन्य 12 मुहूर्त मानवाली रात्रि पूर्व (पूर्वविदेहमें ) और पश्चिम (पश्चिमविदेहमें ) दिशामें गई होती है। अब जब मेरुपर्वतकी पूर्व और पश्चिम दिशामें (दोनों विदेहोंमें ) सूर्य वर्तित हो और इससे वहाँ दिवसका अस्तित्व हो तब पूर्ववत् दक्षिण और उत्तर दिशागत जो (भरतऐश्वत ) क्षेत्र हैं उनमें पूर्वविदेहमें जिस तरह रात्रि बताई थी उस तरह यहाँ भी उतने ही मानवाली ( 12 मुहूर्तकी ) जघन्यरात्रि वर्तित होती है / इससे यह तो स्पष्ट ही समझना कि-जिन जिन क्षेत्रोंमें जिस जिस कालमें(जिस जिस मण्डलमें ) रात्रिमान 12 मुहूर्त्तका हो, वहाँ उन्हीं क्षेत्रों में उस उस कालमें दिनमान अवश्य उत्कृष्ट प्रमाणवाला (18 मुहूर्त) हो; क्योंकि सबसे जघन्यमें जघन्य रात्रिमान-१२ मुहूर्त तकका होता है, और सबसे उत्कृष्टमें उत्कृष्ट दिनमान 18 मुहूर्त तकका हो सकता है। ... इस कारणसे जहाँ रात्रि सबसे लघुतम-जघन्य हो तब उस उस क्षेत्रगत दिवस सर्वोत्कृष्ट प्रमाणवाला हो ही ! और जिस जिस मण्डलमें-जिस जिस कालमें रात्रि अथवा दिवसका प्रमाण (पूर्वोक्त दिवस या रात्रिके जघन्य 12 मुहूर्त और उत्कृष्ट 18 मुहूर्त्तके यथार्थ प्रमाणमेंसे) जिन जिन क्षेत्रोंमें जितने जितने अंशसे घट-बढ़वाला हो, तब उन्हीं क्षेत्रों में उस काल रात्रि और दिवसका दिनमान भी घट-बढ़वाला होता है। ... यहाँ इतना अवश्य समझ ले कि किसी भी क्षेत्रमें-किसी भी मण्डलमें-किसी भी कालमें अहोरात्र प्रमाण तो तीस मुहूर्त्तका ही होता है / ( यद्यपि इतरों में ब्रह्माकी अपेक्षा अलग है।) किसी भी क्षेत्रमें, किसी भी कालमें उस अहोरात्रकालमें कदापि फेर-फार हुआ नहीं और होगा भी नहीं, रात्रि अथवा दिवसका प्रमाण भले ही घट-बढ़वाला हुआ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 . करे लेकिन दोनोंके मानका जोड़ करने पर उक्त तीस मुहूर्त्तका प्रमाण आए बिना नहीं रहेगा। . शंका-उपर्युक्त लेखन पढ़ने पर किसी पाठकको शंका होगी कि-जब आपने भरत-ऐरवत क्षेत्रमें सूर्यका प्रकाश 18 मुहूर्त तक रहा हो तब दोनों पूर्व-पश्चिम विदेहमें केवल 12 मुहूर्त प्रमाणवाली (सूर्यके प्रकाशाभावमें ) रात्रि वर्तित हो, वह रात्रि पूर्ण होने पर वहाँ कौनसा काल होता है ? क्योंकि ये दोनों विदेहगत रात्रिमान पूर्ण होने पर, वहाँ नहीं होता सूर्यका प्रकाश या नहीं होता रात्रिकाल, क्योंकि वहाँ रात्रि भले ही बीत गई हो लेकिन अब भी भरत, ऐरवत क्षेत्रमें दिनमान अठारह मुहूर्त्तका होनेसे, पूर्वापर दोनों विदेहगत रात्रिमानकी अपेक्षा छः मुहूर्त्तकाल तक सूर्यको भरतक्षेत्रमें (अथवा ऐरवत क्षेत्रमें ) प्रकाश देनेका है अर्थात् भरत-ऐरवतक्षेत्रमें 6 मुहूर्त प्रमाण दिवस शेष है, तो फिर पूर्व-पश्चिम . विदेहमें रात्रिकाल बीतने पर कौनसा काल हो ? समाधान -इस प्रश्नके अनुसंधानमें समझना कि भरतक्षेत्रमें प्रकाश देता हुआ 'भारतसूर्य' क्रमशः पश्चिमविदेहकी अन्तिम हद-कोटिकी तरफ दृष्टि रखता हुआ जब भरतक्षेत्रमें पन्द्रह मुहूर्त प्रमाण दिनमान पूर्ण करे अर्थात् भरतक्षेत्रमें 3 मुहूर्त तक प्रकाश देना शेष रहे तब पूर्व बाजूसे खसकता और पश्चिमगत दूर दूर क्षेत्र में आगे आगे तेजका प्रसार करते भारतसूर्यके प्रकाशने अभी विदेहक्षेत्रमें नहीं विदेहक्षेत्रके नजदीकके स्थान तक स्पर्शना की होती है / जब कि इस बाजू पर उस वक्त विदेहमें भी रात्रि पूर्ण नहीं हुई होती लेकिन पूर्ण होनेकी कोटिमें आ चुकी होती है / इस समय वह भरतसूर्य भरतक्षेत्रगत संपूर्ण पन्द्रह मुहूर्त पूर्ण करता हुआ आगे बढे कि तुरन्त ही उसका प्रकाश भी उतना ही दूर दूर आगे आगे फेंकाता जाए (और पीछे पीछेसे खसकता जाए) क्योंकि सूर्यके प्रकाशकी पूर्व-पश्चिम लम्बाई रूप चौडाई जो कि हर समय परावर्त्तन स्वभाववाली है, परन्तु दो बाजू पर तो सर्वदा समान प्रमाणवाली ही रहती है / अतः सूर्य ज्यों ज्यों ग्वसकता जाए त्यों त्यों जहाँ जहाँ तेज पहुँच सके ऐसे आगे आगेके जो क्षेत्र आवे वहाँ प्रकाश करता जाए / इस नियमानुसार अब तक पन्द्रह मुहूर्त काल पूर्ण होने आया था तब सूर्य जिस छोर पर प्रकाश दे रहा था उसके बदले पन्द्रह मुहूर्त पूर्ण होनेपर अब उसी सूर्यके प्रकाशने विदेहमें प्रवेश किया; अर्थात् भरतक्षेत्रमें तीन मुहूर्त्तका दिनमान शेष रहा तब वहाँ सूर्योदय हो चुका था / इससे भरतमें अठारह मुहूर्त दिनमानमेंसे अन्तिम तीन मुहूर्त तक दिवस हो तब वहाँके सूर्योदय कालके प्रारंभके (प्रभातके ) तीन मुहूर्त होते हैं। ___इससे क्या हुआ कि भरत, ऐरवतक्षेत्रके अस्तसमयके पूर्वका तीन मुहूर्त जो काल वह दोनों दिशागत विदेहके सूर्योदयमें कारणरूप होनेसे वही काल वहाँ उदयरूप समझना / Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि और दिवसका काल सम्बन्धमें समाधान ] गाथा 86-90 [ 239 इस महाविदेहमें जहाँ प्रकाशका होना हो वह स्थान उस महाविदेहके मध्यभागकी अपेक्षासे समझना, विदेहकी चौडाईकी जो मध्यभागकी सीमा उसके मध्यभागमें अर्थात् विदेहकी चौडाईका जो २४३मध्यपन उसे ही ग्रहण करनेका है लेकिन लम्बाईकी अपेक्षाका नहीं, जैसे भरतक्षेत्रमें भी दिनमान-रात्रिमान तथा सूर्यका उदय-अस्त, अन्तर, स्थान, प्रमाण आदि सर्वप्रमाणका गिने अर्थात उस उस सूर्यके उदयास्त स्थानको देखने की अपेक्षा भरतक्षेत्रके मध्यभागसे (अयोध्यासे) गिननेकी होती है उसी प्रकारसे विदेहमें भी समझना है। शंका -आपको उपर्युक्त समाधान करनेकी आवश्यकता हुई, उसके बदले हम पूछते हैं कि जब महाविदेहक्षेत्रमें रात्रि हो तब चन्द्रका अस्तित्व क्यों स्वीकार नहीं किया ? क्या सूर्यके प्रकाशाभावसे ही रात्रिकाल होता है और चन्द्रके अस्तित्वके कारण नहीं होता ? समाधान दिवस अथवा रात्रि करने में चन्द्रको किसी भी प्रकारका सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् सूर्यमण्डलोंसे होती रात्रि-दिवसकी सिद्धि में चन्द्रमण्डलोंका साहचर्य अथवा प्रयोजन कुछ भी होता नहीं है; क्योंकि चन्द्रमण्डलोंकी अल्प संख्या, मण्डलोंका सविशेष अन्तर, चन्द्रकी मन्दगति, मुहूर्तगति आदिमें सर्वप्रकारसे विपर्यास विचित्र प्रकारसे-विपरीत रीतिसे होता होने के कारण सूर्यमण्डलकी गति के साथ साहचर्य कहाँसे हो ? कि जिससे वह चन्द्र रात्रि या दिवस करने में निमित्तरूप हो ? अतः चन्द्रके उदय और अस्त पर रात्रिके उदय और अस्तका आधार है ऐसा तो है ही नहीं / तथा रात्रिके उदय-अस्त पर चन्द्रके उदय-अस्तका आधार है ऐसा भी नहीं है। . .. यदि चन्द्रके उदय-अस्ताश्रयी रात्रिकालका संभवप नस्वीकृत होता तो भरत आदि क्षेत्रों में शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्षमें भी हमेशाके लिए सूर्यास्त होनेके बाद चन्द्रमाका दर्शन अवश्य होता ही, जबकि ऐसा तो बनता ही नहीं, विशेषतः प्रत्येक तिथि पर चन्द्रका दृष्टिगोचर होना सूर्यास्तके बाद अनुक्रमसे विलम्बसे होता जाता है, साथ ही तथ्य रूप सोचे तो हमेशा सारी रात्रि पूर्ण होने तक चन्द्रमाका अस्तित्त्व होना ही चाहिए, तदपि वैसा न होकर यहाँ तो शुक्लपक्षमें अमुक अमुक प्रमाण रात्रिकाल रहनेवाला सूर्योदयके बाद कम-ज्यादा काल भी दृष्टिगोचर होनेवाला और उस उस तिथि पर अमुक अमुक काल रहनेवाला यह चन्द्र होता है, अतः शुक्लपक्षमें चन्द्र आश्रयी रात्रिकाल क्यों न हो ? आदि शंका दूर होती है। __243. अर्थात् महाविदेहगत खड़ी (स्थित) सीता अथवा सीतोदा नदीकी चौडाईका मध्यबिन्दु गिनतीमें ले या विजयोंकी राजधानीका मध्यभाग गिनतीमें ले ? उस स्थानकी स्पष्टता ज्ञात नहीं हुई अतः यथासंभव मध्यभाग विचारें / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 कृष्णपक्षमें तो प्रत्येक तिथि पर दो दो घडी देर-देरसे चन्द्रदर्शन होनेसे चन्द्रोदयके साथ रात्रिका सम्बन्ध न हो यह स्पष्ट समझा जाता है। . . ___ अतः सूर्यास्त होनेके बाद ( यथायोग्य अवसर पर उन उन दिवसोंमें) चन्द्रके उदय होते हैं ऐसा नहीं है, यदि सूर्यास्तके बाद चन्द्रके उदय होते ही और स्वीकृत रहते तो सूर्यके प्रकाशित होने पर दिवसमें भी चन्द्रमाके बिंबकी जो झाँकी देख सकते हैं वह भी नहीं देख पाते / / ऐसे ऐसे अनेक कारणोंसे रात्रिकालको बनानेमें चन्द्रोदय कारणरूप नहीं है, इसीलिए चन्द्रमाके अस्तित्ववाला काल वही रात्रिकाल ऐसा नहीं, किन्तु सूर्यके प्रकाशका अभाववाला काल रात्रिकाल कहलाता है / सूर्यके साथ चन्द्रमाका किसी प्रकारका (खास करके) सम्बन्ध न रखनेमें कारणभूत चन्द्रमाका अपना ही, सूर्यसे अलग ही प्रकारसे मण्डलचारपन है / इस चारके कारण तो सूर्य और चन्द्र दोनोंका जब राशि-नक्षत्रका सहयोग समान होता है तब वे दोनों २४४एक ही मण्डलमें-अमावसके दिवस आए होते हैं / और वह जिस दिवस पर आता है वह दिवस 2455 अमावास्या 'के नामसे प्रसिद्ध है। और दूसरे दिन वह चन्द्र पुनः मन्दगत्यादिके कारण हमेशा एक एक मुहूर्त सूर्यसे दूर पीछे पूर्णिमा यावत् रहता जाता है इतना प्रास्ताविक वक्तव्य जणाया / अस्तु, अब चालू विषय पर आवे / [पहले दोनों विरोधाश्रयी शंका उपस्थित हुई थी उसी तरह जिज्ञासु भरतऐरवत क्षेत्राश्रयी शंका उपस्थित करता है।] शंका -अथ भरत, ऐरवत क्षेत्रमें जब रात्रि जघन्य 12 मुहूर्त प्रमाणवाली हो तब महाविदेहमें दिवस उत्कृष्ट 18 मुहूर्त प्रमाणवाला हो, तो उस वक्त भरत-ऐश्वतक्षेत्र में 12 मुहूर्त प्रमाणका रात्रिकाल बीतनेपर कौनसा काल होता है ? समाधान -इस सम्बन्धमें पहले कहा गया खुलासा यहाँ भी समझ लेनेका है, परन्तु उस खुलासेसे यहाँ विपरीत तरह विचारनेका है / अर्थात् पूर्व-पश्चिम विदेहमें सूर्यास्तके तीन मुहूर्त शेष रहे हों तब भरत-ऐश्वत क्षेत्रमें सूर्योदय हो जाए, (और भरत-ऐश्वत क्षेत्रमें सूर्यास्तकालके तीन मुहूर्त शेष रहे हों तब पूर्व-पश्चिम विदेहमें सूर्योदय हो जाए) इस तरह दोनों प्रकारसे दोनों क्षेत्रोंके सम्बन्धमें समाधान समझ लें। 244. देखिए-सूरेण समं उदओ, चंदस्स अमावसी दिणे होइ / - तेसि मंडलमिक्किक-रासिविखं तहिक्कं च // 1 // 245. इसीसे ही अमावसका दूसरा नाम 'सूर्येन्दुसंगमः' पड़ा है, उसकी अमा सह वसतोऽस्यां चन्द्राकों इत्यमावस्या यह उत्पत्ति भी उसी अर्थको प्रकट करती है / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि और दिवसका काल सम्बन्धमें समाधान ] गाथा 86-90 [ 241 . इस तरह दोनों विदेहगत उदयकालके (रात्रिके आरम्भके पहलेके ) जो तीन मुहूर्त वे ही भरत-ऐवत क्षेत्रके अस्तकालके तीन मुहूर्त / भरत-ऐश्वत क्षेत्रके अस्तकालके जो तीन मुहूर्त वे ही पूर्व–पश्चिम विदेह क्षेत्रके उदयकालके कारणरूप होते हैं / इस तरह जब दक्षिण और उत्तर दिशागत (भरत-ऐश्वत ) क्षेत्रों में सूर्य प्रभात कर रहे हों तब प्रभातकालका तीन मुहूर्तकाल बीतने पर भी, पूर्व और पश्चिम दिशागत जो विदेह क्षेत्र, वहाँ जघन्यरात्रिका प्रारम्भ होता है, इस तरह जब भरत-ऐश्वत क्षेत्रमें सूर्यास्त होनेके (दोपहरके पश्चात् ), 3 मुहूर्त शेष रहे हों तब, दोनों विदेहगत क्षेत्रों में प्रभात हुआ हो / इन तीन मुहूर्तोंके बीतनेके बाद तो उक्त दिशाओंमें सूर्य स्वगतिके अनुसार क्रमशः दिवसकी पूर्णाहुति करते रहते हैं / साथ साथ यह भी जतानेकी जरूरत है कि-जब 24 पन्द्रह मुहूर्त दिनमान और . पन्द्रह मुहूर्त रात्रिमान हों अर्थात् दोनों मान समान प्रमाणवाले हों तब तो विदेह क्षेत्रके तीन मुहूर्तोंके सम्बन्धमें कुछ भी विचारणा करनेकी आवश्यकता नहीं रहती / परन्तु ऐसे दिवस वर्ष में दो ही वार आते हैं, जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलके दूसरे मण्डलसे दक्षिणायनका प्रारम्भ करे (पहले वर्ष गुजराती आषाढ वदि प्रथमाको) तब 2 भाग मुहूर्त न्यून ऐसा 18 मुहूर्तका दिनमान हो और 123 मुहूर्त रात्रिमान हो। अब उस द्वितीय मण्डलसे बढ़कर सूय आगे आगेके मण्डलमें जाता जाए त्यों त्यों दिनमान घटता और रात्रिमान बढ़ता है / इस तरह सूर्य मण्डलकी गतिके अनुसार घट-बढ़ होनेसे जब सूर्य . 91 // वें मण्डलमें आवे, तब वह 184 मण्डलोंके मध्यभागमें आनेसे तीन मुहूर्त दिनमान सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षा कम हुआ, जब कि रात्रिमें उतनी वृद्धि हुई ( हमारा उस समय प्रथम वर्ष पर सामान्यतः का० वदि दुज या तीजका दिवस होता है ) तब ऐसा दिवस (अंग्रजीमें जिसे Dolstice) आता है, कि जिस दिनका दिनमान 15 मुहूर्त्तका यथार्थ हो और रात्रिमान भी यथार्थ 15. मुहूर्त्तका ही हो अर्थात् 12 घण्टेका हो। जो दिवस ईसाई सनके अनुसार ता. २१वीं मार्चका गिना जाता है। सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे सूर्य ज्यों ज्यों सर्वबाह्यमण्डलों में 246. व्यवहारादि कार्योंमें 60 घडी उपयोगमें ली जाती हैं, वस्तुतः वह भी एक ही है / क्योंकि जब दो घडीका एक मुहूर्त हो, तब 30 मुहूर्त्त प्रमाण अहोरात्रकी 60 घडी यथार्थ आ जाए / इससे '30 घडी दिनमान और 30 घडी रात्रिमान' हो तब-ऐसा भी शब्दप्रयोग होता है वह एक ही है / - घण्टेके हिसाबसे -- 12 घण्टे रात्रिमान हो' तब-ऐसा शब्दप्रयोग भी उपयोग कर सकते हैं / क्योंकि 2 // घडीका घण्टा होनेसे 30 घडी दिनमानसे ठीक 12 घण्टे दिनमानके और 12 घण्टे रात्रिमानके मिलकर 24 घण्टोंका एक अहोरात्र होता है, उसके मुहूर्त 30 होते हैं / वृ. सं. 31 . . Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 प्रवेश करता जाए त्यों त्यों भरतादि क्षेत्रों में दिनमान (o भाग) घटता जाता है और रात्रिमानमें उतनी ही वृद्धि होती जाती है, इस पूर्वोक्त नियमानुसार सूर्य पुनः 91 // वें मण्डलमें आवे तब समान दिनमान और समान रात्रिमान करनेवाले होते हैं, ये सूर्य बहुत दूर गए होनेसे भरतमें 15 मुहूर्त दिनमान प्रमाण दिवस पूर्ण हो तब महाविदेहमें रात्रिमान भी समान प्रमाणवाला होनेसे वहाँ रात्रिका प्रारम्भ हो, जब कि महाविदेहमें रात्रिका आरंभ हो तब भरत-ऐरवत क्षेत्रमें सूर्योदयका प्रारम्भ होता है, इस तरह समान प्रमाणके दिनमानरात्रिमान होने पर भी, मुहूर्तकी घट-बढ़ न होनेसे किसी भी प्रकारकी हरकत नहीं होती। ___ ये ही सूर्य जब 91 // मण्डलसे आगे बढ़ते बढ़ते सर्वबाहमण्डलके आदि . प्रदेशमें- प्रथम क्षणमें पहुंचे तब, तदाश्रयी पूर्वोक्त प्रमाणवाली 18 मुहूर्त प्रमाणकी रात्रि और 12 मुहूर्त्तके मानवाला दिनमान आ जाता है। इस तरह जब सूर्य सर्वबाह्यमण्डलसे पुनः संक्रमण करके ( उत्तराभिमुख गमन करता हुआ) अन्दरके मण्डलोंमें प्रवेश करके ( भागकी ) दिनमानमें वृद्धि करता हुआ और रात्रिमानमें उतनी ही हानि करता करता, प्रतिमण्डलोंको चरता हुआ जब 91 / / वें मण्डलमें पुनः लौटे तब पुनः उस उत्तरायणमें 15 मुहूर्त्तका दिनमान और 15 मुहूर्त रात्रिमान यथार्थ होता ( तब हमारे प्रथम वर्षकी चैत वदि 9 होती ) ऐसा करते करते सूर्य जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें प्रथम क्षणमें आवे तब पूर्वोक्त 18 मुहूर्तप्रमाणका दिनमान और 12 मुहूर्तप्रमाणका २४७रात्रिमान यथार्थ होता। इस तरह एक संवत्सर काल पूर्ण होता है। ___ इस तरह एक अहोरात्र 91 // वें मण्डलमें दक्षिणायनका और पुनः लौटते 91 // वें मण्डलमें एक अहोरात्र उत्तरायणका इस तरह एक संवत्सरमें दो अहोरात्र और 10 अहोरात्र अलग अलग मास-तिथिवाले एक युगमें समान प्रमाणवाले होते हैं / इन दो दिवसोंको (-अहोरात्रको ) छोड़कर सारे संवत्सरमें ऐसा एक भी अहोरात्र नहीं होता कि जो अहोरात्र दिनमान और रात्रिमानके समान प्रमाणवाला हो अर्थात् किंचित किंचित् घट-बढ़ प्रमाणवाला तो होता ही है / शेष सर्व मण्डलोंमें २४८रात्रिमान तथा दिनमान यथायोग्य सोचेंविचारें / ___ अथ जब भरतमें 13 मुहूर्त्तका दिनमान हो और महाविदेहमें 12 घण्टेकी रात्रि हो तब क्या समझना ? तो भरतमें (सूर्यास्तके पूर्व ) एक मुहूर्त्तसे किंचित न्यून सूर्याश्रया 247. सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे बाह्यमण्डलमें जाने पर दक्षिणायनमें 15 मुहूर्त्तका दिवस और 15 मुहूर्त की रात्रि प्रथम वर्षके कार्तिक वदि दुज या तीजको होता है / 248. प्रत्येक मण्डलका रात्रिमान-दिनमान अत्र देने पर विस्तार बहुत बढ़ जानेके कारण पाठक स्वयं निकाल ले, और इतना विषय समझ लेने पर वे जरूर (प्रमाण ) निकाल भी सकेंगे / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतक्षेत्रमें सूर्योदयकी गति ] - गाथा 86-90 243 दिवस हो तब विदेहमें सूर्योदय हो ? ऐसी चर्चा पहले भरतके 18 मुहूर्त दिनमान और विदेहके 12 मुहूर्त के रात्रिमान प्रसंग पर की है तद्नुसार यहाँ विचार लें / जब जब दिनमान और रात्रिमानके अल्पाधिक्यके कारण एक दूसरा क्षेत्राश्रयी संशय लगे तब पूर्वोक्त चर्चा ध्यानमें लेकर जितना जितना जहाँ जहाँ दिन-रात्रिमानका विपर्यय होता हो उसके हिसाबसे गिनती करके समन्वय यथायोग्य कर लें / अत्र हम इस चर्चाका विशेष स्फोट नहीं करते / दूसरा यहाँ भरतक्षेत्रमें जो 18 मुहूर्तप्रमाण दिवस कहा है वह भरतके किसी भी विभागमें वर्तित प्रकाशकी अपेक्षासे नहीं कहा, भरतक्षेत्रके किसी भी विभागमें वर्तित प्रकाशकी अपेक्षासे तो आगे जताए अनुसार आठ प्रहर (=30 मुहूर्त) तक भी भरतमें सूर्यका प्रकाश हो सकता है / हमें यहाँ 18 मुहूर्त लेने हैं उन्हें भरतक्षेत्रके किसी भी विभागमें सूर्योदयसे सूर्यास्त समय तकके कालकी अपेक्षासे लेनेके हैं / आगे कहा जाता 15 मुहूर्न अथवा 12 मुहूर्त्तका काल भी इसी तरह समझना है। - निषध पर्वत पर जब सूर्य आवे तब भरतक्षेत्रके मध्यभागमें रही अयोध्या नगरीके और उसके आस-पासकी अमुक अमुक प्रमाण हदमें रहनेवालोंको उस सूर्यका अठारह मुहूर्त तक दर्शन हो, पश्चात् मेरुको स्वभावसिद्ध गोलाकारमें प्रदक्षिणा देता हुआ सूर्य जब निषधसे भरतकी तरफ वलयाकारमें खसका अर्थात् आगे बढ़ा अतः प्रथम जिस अयोध्याकी हदमें ही प्रकाश पड़ता था अब वह आगेके क्षेत्रमें (मूलस्थानसे जितना क्षेत्र सूर्य वलयाकारमें इस बाजू पर खसका उतना ही प्रकाश इस बाजू पर बढ़ा) प्रकाश पडने लगा। . उस सूर्यने आगे कौनसा क्षेत्र प्रकाशित किया ? . भरतक्षेत्रकी अपेक्षासे भारत सूर्य निषधमें उदित हुआ हो तब सूर्यके तेजकी लम्बाई अयोध्या तक होनेसे अयोध्याके प्रदेशमें रहनेवाले वतनीको वह सूर्य उदित रूपमें दीखता है, जब कि अयोध्याकी अन्तिम तक अर्थात् जहाँ तक सूर्यके प्रकाशवाला क्षेत्र होता है, उस क्षेत्रको छोडकर वहाँसे आगेके इस बाजूके समग्र भागमें (भारत सूर्यास्त स्थान . तकके पाश्चात्य क्षेत्रों में ) सर्वत्र अन्धकार होता है। ___ यहाँ प्रश्नपूर्वक समाधानकी पद्धति इसलिए स्वीकारी कि हमारे यहाँ सूर्योदय होता है तब कतिपय पाश्चात्य देशोंमें अन्धकार होता है तथा अमुक अलग अलग क्षेत्रों में रात्रि अथवा दिवसके अमुक अमुक बजे होते हैं; इस तरह हमारी अपेक्षाके सूर्योदय और सूर्यास्त, वहाँके कालकी अपेक्षासे बहुत अन्तरवाले होते हैं / उनके कारण ख्यालमें लानेके लिए हैं। . ये पाश्चात्य देश मध्यभरतसे (अयोध्याकी) पश्चिमकी दिशाकी तरफ-पश्चिम समुद्रकी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 ओर रहे हुए हैं / वर्तमान पाश्चात्य विभाग उन अदृश्य देशोंकी अपेक्षा बहुत थोड़ा कह सकते / अस्तु / ___तब क्या हुआ ? पूर्व निषधके पर रहा भारत सूर्य भरतक्षेत्रमें (अयोध्यामें ) जब उदित हो तब सर्व पाश्चात्य देश-अर्थात् वर्तमान दृष्टिगोचर तथा अदृष्टिगोचर सर्व स्थानों में अन्धकार होता है क्योंकि भारतसूर्य अभी भरतमें (अयोध्यामें) उदित हुआ है अतः ( अयोध्यासे ) आगे तो उस सूर्यके तेजकी लम्बाई समाप्त होनेसे आगे प्रकाश नहीं दे सकता, ऐश्वत सूर्य वो ऐश्वत क्षेत्रकी तरफ उदय पाया हुआ है; अतः इस बाजू पर पश्चिमके अनार्य देशोंकी तरफ कोई प्रकाश देनेकी उदारता कर सके ऐसा नहीं है अत: भरतसे पश्चिम दिशाकी तरफके समग्र क्षेत्रों में और ऐवत क्षेत्राश्रयी पश्चिम दिशाकी तरफके क्षेत्रों में इस तरह दोनों दिशागत क्षेत्रों में दोनों सूर्यो के तेजके अभावमें रात्रिकाल वर्तमान होता है। इससे स्पष्ट मालूम होगा कि भरतमें ( अयोध्यामें ) सूर्योदय हो उस समय उन देशों में सर्वत्र अन्धकार होनेसे पाश्चात्य देशों में सूर्योदय-सूर्यास्तका अन्तर जो है वह स्वाभाविक है। अब भरतमें (अयोध्यामें ) उदय पाता सूर्य, जब उस विकसित मण्डलस्थानके प्रथम क्षणसे आगे निषधस्थानसे खसकने लगा अतः अन्धकार क्षेत्रोंके आदिके प्रथम-क्षेत्रों में (अयोध्याकी हद छोड़कर पासके क्षेत्रों में अर्थात् सूर्य ज्यों ज्यों निषधसे जितना जितना खसकने लगे त्यों त्यों उतने प्रमाण क्षेत्रों में स्वप्रकाशकी स्पर्शना करता जाए ) प्रकाश देना शुरू हो जाए (पुनः अब तो उससे आगेके पश्चिमगत सर्व क्षेत्रोंमें अन्धकार पड़ा ही है) इस तरह भारत सूर्य, उससे भी आगे भरतक्षेत्रकी तरफ आता जाए, सब जितना आगे बढ़े उतने प्रमाणमें अन्धकारवाले क्षेत्रोंको प्रकाशित करता जाए। इस तरह सूर्य ज्यों ज्यों भरतकी तरफ आता जाए त्यों त्यों पाश्चात्य विभागों में उस उस क्षेत्रको, क्रमशः प्रकाशित करता जाए। इस तरह भरतके सूर्योदयके समय अमुक विभागमें सम्पूर्ण अन्धकार होता है, अथवा भरतके सूर्योदयके समय उन उन क्षेत्रों में दिवसके अथवा रात्रिके अमुक अमुक बजे होते हैं उसका कारण अत्र संक्षिप्तमें प्रदर्शित किया गया। इस परसे सविशेष सर्व विचार विद्वान स्वयं कर लेंगे। . भरतक्षेत्रके अलग अलग देशोंमें सूर्योदयादि समयके विपर्यास हेतु.. अधिक समझके लिए भरतके मध्यवर्ती अयोध्यामें जिस काल सूर्योदय हुआ उसी समय किसी भी व्यक्तिकी तरफसे अयोध्याकी अमुक हद छोड़कर पश्चिम दिशागत प्रथमके क्षेत्रों में तार-टेलिफोनादि किसी भी साधन द्वारा पूछा जाए कि आपके यहाँ सूर्योदय हुआ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतक्षेत्रके अलग देशोमें सूर्योदयादि समयके विपर्यास हेतु ] गाथा 86-90 [ 245 है या नहीं ? उसके प्रत्युत्तरमें जवाब यही मिलेगा कि नहीं, अब तो थोड़ी देर है, प्रभात शुरू हो चुका है। यह प्रश्न तो अयोध्याकी हदके समीपवर्ती देशके लिए ही होनेसे उपरोक्त जवाब मिलेगा; क्योंकि अयोध्यामें जब सूर्योदय हुआ तब यह देश उसके नजदीक होनेसे वहाँ सूर्यके तेजको पहुँचने में देर भी कितनी हो ? अर्थात् थोड़ी ही। अगर अयोध्यामें उदय होने के बाद अमुक समय होने पर ( सूर्य निषधसे खसकने लगे तब ) उन्हीं क्षेत्रों में पुनः प्रश्न करें कि अब आपके यहाँ उदय हुआ या नहीं ? तब जवाब मिलेगा कि अब उदय हुआ, ( आपके यहाँ उस वक्त अमुक समय दिवस चढ़ा हो ) उससे भी अगर दूर दूरके क्षेत्रोंके बारे में पूछताछ करें तो ऐसी खबर मिलेगी कि अब हमारे यहाँ अमुक बजे होनेसे अन्धकार है, इस तरह क्रमशः आगे आगेके पश्चिमकी तरफके देशोंकी पूछताछ करें तो भरतकी अपेक्षा होता अमुक अमुक समयका बढ़ता जाता फेरफार एकत्र करने पर विलायत-इनलैंड पहुँचने पर उभय देशके स्टांडर्ड समयकी अपेक्षा लगभग 5 // से 6 घण्टेका अन्तर हो जाए। अतः जब दिल्हीमें सुबहके 6 बजे हो तब पश्चिमके देशों में (6-5 // ) साढे पांच घण्टे कम करने पर रातके डेढ बजे हो; क्योंकि पश्चिमकी तरफ स्थानिक काल पीछे पीछे होता जाता है अतः कम करनेका होता है। उदाहरण .स्वरूप बम्बईसे एक व्यक्ति पश्चिम अर्थात् अफ्रिका-योरपकी तरफ मुसाफिरी करनेको स्टीमरमें शामको सात बजे जाता है तब स्टीमर बम्बई बन्दरगाह छोड़कर : १५.रेखांश भूमि पार कर जाए तब घडीमें एक घण्टा पीछे करवाते; अर्थात् स्टीमरके चलते वक्त सात बजे थे तो अब 15 रेखांशकी जगह पर पहुँचने पर छः रखवाते; क्योंकि एक रेखांश जितनी भूमि पसार हो तब चार मिनटका तफावत पड़ता है, इस * तरह हर पंद्रह रेखांश पर एक एक घण्टा घडी पीछे करवाते हैं। अतः जो जहाज बिना रुके सतत गतिसे चलता रहे तो विलायत पहुँचने पर दोपहरके (लगभग ) डेढ बजे हों और अमरिका-न्यूयार्क पहुँचने पर सुबहके साढे सात बजे हो अर्थात् 11 // घण्टेका लगभग अन्तर होता है। अब यदि स्टीमर भारतके पूर्व किनारेसे पूर्वकी तरफ आगे आगे बढे तो उस तरफ हर पंद्रह रेखांश पर घड़ीको एक एक घण्टा आगे रखवाते हैं, क्योंकि पूर्वके देशोंकी तरफ सूर्यका अगाउ उदय हुआ होनेसे वहाँ दिवस बहुत आगे बढ़ा होता है। वहाँ भी एक रेखांश पर घडीको चार मिनट आगे रखनी पड़ती है। ... अर्थात् पूर्वकी तरफ संध्या या रात्रि जैसा हो तब पश्चिमकी तरफ कही दिवसका प्रारंभ तो कहीं मध्याह्न आदि होता है। उसी तरह जब विलायतसे रवाना हुई स्टीमर वम्बईकी ओर आने लगी, तब Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 घटीयन्त्रके क्रममें (विपरीत) जिस ठिकाने पर जाते जितना समय कम किया था, पुनः लौटने पर उस उस स्थान पर उतना बढाते जाना जिससे पुन: बम्बई आने पर बम्बई स्टान्डर्ड टाइम मिल जाएगा। यह नोट (Note) शास्त्रीय कथनका सम्पूर्ण समर्थन करता है, यह निःशंक बात है। इस परसे 18 मुहूर्त्तका दिनमान विवक्षित उन क्षेत्रोमें सूर्योदयसे सूर्यास्त तक अस्तित्व रखनेवाले प्रकाशाश्रयी लेनेका है। शंका-यहाँ जिज्ञासुको शायद शंका हो कि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें गति करता सूर्य जब निषधपर्वत पर आवे तब भरतक्षेत्रमें होता उदय कितनी दूरसे दीखे ? . . समाधान -इसके समाधानमें समझना कि-निषध पर सूर्य आवे तब किरणोंका प्रसार बेटरीके प्रकाशवत् सूर्यकी सम्मुख दिशामें ही हो ऐसा नहीं होता, परन्तु प्रकाश तो चारों दिशाओंमें होता है, उसमें मेरुकी तरफ 44820 यो०, लवणसमुद्रकी दिशाकी तरफ 33333 3 यो० ( द्वीपमें 180 यो ) जब कि उत्तर तरफ-सिद्धशिला, अर्धचन्द्र कि तीरकमठाकारमें भरतके मानवीको वह सूर्य 47263 % यो० दूरसे दीखता है और उस : सूर्यस्थानकी पिछली दिशामें ऐरवतकी तरफ भी मण्डलाकारमें उतने ही प्रमाणमें किरणोंका प्रसार हो। वर्तमान पाश्चात्य देशोंका समावेश कहाँ करें ? प्रश्न-वर्तमान एशिया-योरप-अफ्रिका-आस्ट्रेलिया आदिका समावेश जैनदृष्टिसे माने जाते जम्बूद्वीपके ( अथवा जम्बूद्वीपके सात क्षेत्रोंमेंसे ) एक भरतक्षेत्रवर्ती छः खण्डों मेंसे किन खण्डोंमें होता है ? उत्तर-वैताढय पर्वत तथा वैताढय पर्वतको भेदकर लवणसमुद्र में मिलनेवाली गंगा तथा सिन्धुसे भरतक्षेत्रके छ: विभाग हुए हैं। उन छः विभागोंमेंसे नीचेके तीन विभागोंमें (दक्षिणार्ध भरतमें ) पांचों देशोंका समावेश मानना यह उचित लगता है। और इस तरह मानने में कोई विरोध आता हो ऐसा नहीं लगता, क्योंकि भरतक्षेत्रकी चौडाई 526 यो० 6 कला है और नीचेके अर्ध विभागमें रहे तीन खण्डोंकी चौडाई समग्र प्रमाणकी अपेक्षा अर्ध प्रमाणसे न्यून प्रमाण है, तो भी पाश्चात्य विद्वान दक्षिण ध्रुवसे उत्तर ध्रुवका जितने मील प्रमाणका अन्तर मानते हैं उससे जरूर दक्षिणार्ध भरतके तीन विभागोंका प्रमाण विशेषाधिक है, क्योंकि पूर्व समुद्रसे-पश्चिम समुद्र पर्यंत भरतक्षेत्रकी लम्बाई 14471 14 योजन प्रमाण है। जैन गणितके अनुसार 400 कोसका एक योजन होनेसे उसके मीलोंकी संख्या 5788400 है / जब कि समग्र पृथ्वीके एक छोरसे दूसरे Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरिकादि पाश्चात्य क्षेत्रको महाविदेह क्या माना जाए ? ] गाथा 86-50 / 247 छोर पर्यंतकी (परिधिकी ) लम्बाई लगभग 25000 मील प्रमाण मानी जाती है। पूर्वपश्चिम व्यास 5926 मील और उत्तर-दक्षिण व्यास 7900 मील प्रमाण है। इस अपेक्षासे वत्तमानमें अन्वेषित देशोंका भरतके नीचेके तीन खंडोंमें समावेश करना उसमें किसी भी प्रकारका बाधित हेतु नहीं दीखता। अमरिकादि पाश्चात्य क्षेत्रको महाविदेह क्षेत्र क्या माना जाए? प्रश्न-आपने जणाया कि पाश्चात्य देशोंका समावेश दक्षिणार्ध भरतमें गिने तो हम लोग भी दक्षिणार्ध भरतमें हैं फिर भी जब जोधपुर-अहमदाबादकी अपेक्षासे इस देशमें सूर्योदय होता है, उस अवसर पर अमरिका आदि दूर देशोंमें लगभग शामका समय हुआ होता है; ऐसा वहाँसे आते वायरलेस, टेलिग्राफ आदिसे जणाया जाता है अर्थात् अमरिकादि देशों में होते सूर्योदय तथा सूर्यास्तका अंतर इस देशकी अपेक्षा 10 घण्टेका पडता है। (और यह क्यों पड़ता है यह पहले बताया गया है ) इतना ही नहीं लेकिन उसके अनुसार इंग्लैंड, जर्मनी, तथा खुद हिन्दुस्तानमें भी चार-तीन-एक घण्टेका अंतर अमुक अमुक देशाश्रयी पडता है, यह बात जैन शास्त्रों में भी सूचित की गई है। जब भरतक्षेत्र में दिन हो तब महाविदेहक्षेत्रमें रात्रि होती है और जब महाविदेह क्षेत्रमें रात्रि हो तब भरतक्षेत्रमें दिवस होता है। ऐसे एकदेशीय सिद्धान्तका श्रवण करके किसी अर्धदग्धको ऐसा भी कहनेका मन होता कि अमरिकामें इस देशकी अपेक्षासे लगभग उदय-अस्तका विपरीत क्रम हो उस अमरिकाको महाविदेह क्यों न कहा जाए ? तथा शास्त्रके रहस्यको समझनेगले तो महाविदेह में सदाकाल चतुर्थ आरा, खुद तीर्थकरका सद्भाव, मोक्षगमनका अविरह, तथा यहाँके मनुष्यमें वहाँ जाने की शक्तिका अभाव आदि कारणोंसे अमरिकाको महाविदेह कभी नहीं कहेंगे। तब अथ उक्त अंतर पड़ता है उसका कारण क्या ? 1उत्तर-प्रथम जता गए उसके अनुसार भरतक्षेत्रकी पूर्वसमुद्रसे-पश्चिमसमुद्र पर्यंत लंबाई 14471 64 यो० प्रमाण है, वर्तमानमें जाहिर रूपमें प्रकट हुए (एशियासे अमरिका तकके पांचों खंड ) पाश्चात्य देशोंका समावेश भी भरतके दक्षिणार्ध विभागमें होनेका युक्तिपूर्वक हम जता गए हैं। उच्चस्थान पर यंत्रपूर्वक रचा गया घूमता दीपक प्रारम्भमें अपने पासवाले प्रकाशयोग्य क्षेत्रमें प्रकाश देता है, वही दीपक यंत्रके बलसे ज्यों ज्यों आगे खसकता जाता है, त्यों त्यों प्रथम प्रकाशित क्षेत्रके अमुक विभागमें अन्धकार होनेके साथ आगे आगेके क्षेत्रमें प्रकाश देता है। उसी तरह निषधपर्वतके ऊपर उदय पाता सूर्य प्रारम्भमें अपना जितना प्रकाश्यक्षेत्र है उस क्षेत्र में आते नजदीकके भागको प्रकाश देता है अर्थात् उस स्थानमें रहे मनुष्योंको सूर्यका प्रकाश मिलनेसे सूर्योदय होनेका भान होता है। मेरुकी प्रदक्षिणाके क्रमसे घूमता सूर्य ज्यों ज्यों आगे आता है त्यों त्यों पीछेके क्षेत्रों में अन्धकार होनेके साथ क्षेत्र संबन्धी आगे आगेके विभागों में प्रकाश होता होनेसे उस समय Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 सूर्योदय हुआ ऐसा ख्याल आता है। (जो बात पहले कही गई है) और उसी कथनके अनुसार भरतक्षेत्रके अर्ध विभागमें रहे हुए पांचों देशों में सूर्योदय तथा सूर्यास्त 12-10 या 8 घण्टे, किंवा क्रमशः घण्टे घण्टेका अन्तर रहे उसमें किसी प्रकारका विरोध आता हो ऐसा नहीं दीखता। इसी वस्तुका विशेष विचार करेंगे तो निश्चित मालूम होगा कि अहमदाबाद, बम्बई या पालितानादि किसी भी विवक्षित एकस्थानाश्रयी दिवसका प्रमाण बारह घण्टे, तेरह घण्टे, चौदह घण्टे या उसमें भी न्यूनाधिक भले रहे लेकिन दक्षिणार्ध भरतके पूर्व छोर पर जबसे सूर्यका प्रकाश पड़ा तबसे ठेठ पश्चिम तकके सूर्यास्तके समयकालको इकट्ठा करेंगे तो आठ प्रहर (अर्थात् 24 घण्टे ) तक समग्र भरतक्षेत्रके किसी भी विभागकी अपेक्षा क्रमशः सूर्यके प्रकाशका अस्तित्त्व हो उसमें किसी भी प्रकारका बाधक हेतु नहीं दीखता। पूर्व निपधके पासकी जगहसे सूर्यका उदय-देखाव होता होनेसे और पश्चिम निषधके पास जाए तब अदृश्य होता होनेसे उसका परिधिक्षेत्र लगभग सवा लाख योजन प्रमाण होता है और घण्टेके पांच हजार योजनके हिसाबसे सूर्यगति गिननेसे चौबीसों घण्टे सूर्य समग्र भरतमें दीखे उसमें हरकत नहीं है / श्री मण्डल प्रकरण २४४आदि ग्रन्थों में भी इसी कथनके निश्चयके लिए भरतक्षेत्रमें आठ प्रहर तक सूर्यका प्रकाश होनेका जताया जाता है, यह भी ऊपरकी बातको अधिक पुष्टि देता है। अतः अमरिकामें अमुक स्थल पर इस क्षेत्रकी अपेक्षा सूर्योदय लगभग 11 से 12 घण्टे विलंबित होता है, क्योंकि सूर्यको अपना प्रकाश वहाँ पहुँचाने में हमारी अपेक्षा विलंब होता है, सूर्य अपना प्रकाश ज्यादासे ज्यादा तिी श्रेणी में भरतकी तरफ 472633. यो० देता है। जबकि ये पाश्चात्य देश उससे दूर-दूर आए हैं। अर्थात् यहाँ दिन हो तब वहाँ रात्रि होती है और वहाँ रात्रि हो तब यहाँ दिन होता है। इस कारणसे अमरिकाको महाविदेह कल्पित करनेकी मूर्खता करना विचार शून्यता है। इस विचारणाको अधिक विस्तृत न करते यहाँ ही समाप्त करते हैं। इति तृतीय द्वार प्ररूपणा // 249. पढमपहराइकाला, जम्बूदीवम्मि दोसु पासेसु, लभंति एग समयं, तहेव सव्वत्थ नरलोए // 35 // टीका-पढ० / प्रथमप्रहरादिका उदयकालादारभ्य रात्रेश्चतुर्थयामान्त्यकालं यावन्मेरोः समन्तादहोरात्रस्य सर्वे कालाः समकालं जम्बूद्वीपे पृथक् पृथक् क्षेत्रे लभ्यन्ते / भावना यथा भरते यदा यतः स्थानात् सूर्य उद्वेति तत्पाश्चात्यानां दूरतराणां लोकानामस्तकालः / उदयस्थानाधोवासिनां जनानां मध्याह्नः एवं केषाञ्चित् प्रथम प्रहरः, केषाञ्चिद् द्वितीयप्रहरः, केषाञ्चित्तृतीयः प्रहरः, क्वचिन्मध्यरात्रः, क्वचित्सन्ध्या, एवं विचारणयाऽष्टप्रहरसम्बन्धीकालः समकं प्राप्यते / तथैव नरलोके सर्वत्र जम्बूद्वीपगतमेरोः समन्तात् सूर्यप्रमाणेनाष्टप्रहरकालसंभावनं चिन्त्यम् / / भावार्थ सुगम है / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सरका प्रत्येक रात्रि दिवसका प्रमाण ] गाथा 86-90 [249 4. चार प्ररूपणा [ प्रतिमण्डलमें क्षेत्रविभागानुसाररात्रि-दिवस प्ररूपणा] सर्वा० मं० प्ररूपणा-चौथा 'चार प्ररूपणा'का द्वार कहलाता है, उसमें प्रथम सर्वाभ्यन्तरमण्डलके 315089 योजन घेरेके दस विभाग कल्पित करें जिससे प्रत्येक विभाग 31508 // योजन परिधि प्रमाणका हो। इन दस भागोंमेंसे तीन भागको उत्कृष्ट दिवस पर एक सूर्य प्रकाशित करता है, जबकि दूसरा सूर्य उसके सम्मुखके उतने ही प्रमाणके तीन विभागोंको प्रकाशित करता है, अतः आमने-सामने छः विभागोंमें दिवस हो, शेष बीचमें दो दो विभाग रहे उनमें (कुल चार विभागों में ) रात्रि होती है। इस तरह उत्कृष्ट दिवस पर दस विभागकी व्यवस्था सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें हुई। ___ अब सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें जघन्य दिवस हो तब दोनों सूर्य आमने-सामनेकी दिशाके दो दो विभागोंको प्रकाशित करते हैं, अतः चार विभागोंमें दिवस और शेष छः विभागोंमें रात्रि होती है.। यह प्ररूपणा 18 मुहूर्त दिनमान हो तब समझना। उसके बादके प्रतिमण्डलमें प्रकाशक्षेत्र 3 क्षेत्रसे कम होता है और जब इस तरह 3 से रात्रि क्षेत्र बढ़ता जाता है, ऐसा करनेसे सूर्य जब सर्वबाह्यमण्डलमें आवे तब दोनों सूर्य सर्वबाह्यमण्डल परिधिके / भागको दिप्त लेश्यासे प्रकाशित करता है और शेष भागको अंधकारसे व्याप्त करता है, इस तरह सूर्य सर्वबाह्यमण्डलसे लौटकर सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें आने पर प्रकाशक्षेत्रमें क्रमशः 2. भागसे वृद्धि करते हैं जबकि अंधकारक्षेत्रमें 2 भागकी न्यूनता करते हैं। जिससे उक्त कथनके अनुसार सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें , भाग दिप्त लेश्या-तेजसे प्रकाशित हो। इस तरह सूर्योंके प्रकाशक्षेत्रके दशांशकी कल्पना पुष्करार्धद्वीप तक विचारना / प्रकाश्यक्षेत्रकी आकृतिके सम्बन्धी विचार सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें रहे दोनों सूर्योंके इस आतप-प्रकाशक्षेत्रकी आकृति लटू जैसी, बैटरीमेंसे निकलकर. बाहर फैलते तेज जैसी, अथवा बैल-गाडीकी डीले जैसी, तथा ऊर्ध्वमुखी नलिकावाले पुष्पके जैसी है। अतः वह मेरुकी तरफ अर्धवलयाकार जैसी रहती है जब कि समुद्रकी तरफ बैलगाडीके जुएँके मूल भागके आकार जैसी बनती है, इस कारणसे मेरुकी तरफ संकुचित और समुद्रकी तरफ विस्तृत हुई है। .. आतपक्षेत्रकी लम्बाई तथा विस्तार–साथ ही दोनों (प्रत्येक ) आकृति मेरुसे उत्तर और २५°दक्षिण दिशामें लम्बी होकर रही है। प्रत्येक आकृतिका आरंभ मेरुके अन्तभागसे . 250. अर्थात् प्रत्येक आकृतिमें सूर्याश्रयी दिशा सोचनी जरूरी है। अर्थात् उस उस आकृतिमें सूर्यको मध्यबिन्दु मानकर उत्तर-दक्षिण लम्बाई और पूर्व-पश्चिमगत सर्वत्र (अव्यवस्थितपनसे ) चौडाई विचारनी है, जो चित्र देखनेसे स्पष्ट मालूम होगी। बृ. सं. 32 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 शुरु होकर लवणसमुद्रके बिच पूर्णता पाई होनेसे उसकी ( मेरुसे लेकर लवणसमुद्र पर्यंतकी) लम्बाई 78333 योजन है। इसमेंसे केवल जम्बू-जगति तकका क्षेत्र प्रमाण गिने तो 45000 योजन हो और शेष 33333 योजन प्रमाण लवणसमुद्रमें प्रत्येक आकृतिका एक बाजू पर होता है। ____ इस तरह जिनके मतसे सूर्यका प्रकाश मेरुसे प्रतिघात पाता है उनके मतसे यह समझना। परन्तु सूर्यका प्रकाश प्रतिघात नहीं पाता, लेकिन मेरुकी महान गुफाओंमें भी फैलता है उनके मतसे तो मेरु-पर्वतसे अर्ध विस्तारवाली मेरुकी महान गुफाओंके पांच हजार योजन सहित 45 हजार योजन मिलाकर 833333 योजन तापक्षेत्र प्रमाण कहना / यह तापक्षेत्र पूर्व-पश्चिम दिशामें हो तब उसी तरह लम्बाई (चौडाई ) की व्यवस्था यथायोग्य विचारें। सारे मण्डलोंका विचार करने पर तापक्षेत्रकी लम्बाई हमेशा अवस्थित२५१ रहती है क्योंकि विपर्यास तो चौडाईमें ही परिधिकी वृद्धिके अनुसार अन्दर-बाहर मण्डलमें आते जाते सूर्यके प्रकाश-अन्धकारके क्षेत्रमें हो सकता है / . आतपक्षेत्रका चौडाई-विस्तार-इस तापक्षेत्रकी आकृति मेरुके पास अर्धवलयाकार जैसी होती होनेसे मेरुके पास उसकी चौडाई मेरुके परिधिके तीन दशांश (3) अर्थात् 486 % जितनी होती है, वहाँसे लेकर क्रमश: चौडाईमें विस्तारवाली होती हुई समुद्रकी तरफकी चौडाई अन्तर्मण्डलके (सर्वाभ्यन्तर) परिधिके तीन दशांश जितनी (94536 योजन ॐ भागकी ) होती है। इस तापक्षेत्रकी दोनों प्रकारकी चौडाई (मेरु तथा लवणसमुद्रकी तरफकी ) अनवस्थितअनिश्चित है क्योंकि दक्षिणायनमें प्रकाशक्षेत्रमें क्रमशः हमेशा 32 भाग क्षेत्रके जितनी हानि होती है जबकि दक्षिणायनकी समाप्ति उत्तरायणका आरम्भ होनेसे पुनः कम हुए उसी तापक्षेत्रके विस्तारमें पुनः क्रमशः दो भाग वृद्धि होने लगती है और इससे मूलप्रमाण आ जाता है / अतः सूर्य जब सर्वबाह्यमण्डलमें पहुंचता है तब जितना क्षेत्र कम करता है और पुनः लौटकर सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें आवे तब पुनः + बढ़ाता है। यह क्षेत्र गमनकी हानि-वृद्धि 6 मुहूर्त में गमन कर सके उतनी ही होती है क्योंकि साढेतीस मण्डलमें एक सूर्य 1 मुहूर्तमें गमन कर सके उतना क्षेत्र बढ़ाता ( कम भी करता) है / इति आतपक्षेत्राकृतिविचारः // 251. परन्तु इतना विशेष समझना कि सूर्य ज्यों ज्यों बहिर्मण्डलमें जाता जाए त्यों त्यों तापक्षेत्र प्रथम मण्डलकी अपेक्षा प्रतिमण्डल क्रमशः दूर दूर खसकता और लवण की तरफ बढ़ता जाए, परन्तु तापक्षेत्रकी लम्बाईका प्रमाण तो अवस्थित ही रहता है / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतप-अंधकार क्षेत्र और सर्वबाह्यमंडल प्ररूपणा ] गाथा 86-90 [ 251 अन्धकार क्षेत्राकृति विचार-अब दोनों सूर्य जब सबसे अन्दरके (सर्वाभ्यन्तर ) मण्डलमें हो तब अन्ध पुरुषकी तरह प्रकाशके पीछे लगे अन्धकारक्षेत्रकी आकृति भी पहले कहा उस तरह ऊर्ध्वमुखवाले पुष्पके जैसी है, उसका मेरुसे लेकर लवणसमुद्र पर्यन्तका लम्बाई प्रमाण आतपवत् समान होता है क्योंकि दिनपति-सूर्य अस्त पाता है तब (प्रकाशवत् ) मेरुकी गुफा आदिमें भी अन्धकार छा जानेसे इस अन्धकार क्षेत्रकी आकृति प्रकाशक्षेत्रवत् समझना / इस अन्धकार क्षेत्रकी सर्वाभ्यन्तर चौडाई मेरुके आगे मेरुके परिधिके 3. जितनी अर्थात् 6324 जितनी है, और लवणसमुद्रकी तरफ अन्तर्मण्डलके परिधिके 2 जितनी अर्थात् 3317 योजनकी होती है, क्योंकि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें उत्कृष्ट-दिनको अन्धकारक्षेत्र न्यून होता है / ___ इस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें उत्कृष्ट-दिनको कर्कसंक्रांतिमें सूर्यके आतप तथा अन्धकारक्षेत्रका स्वरूप कहा / अब सर्वबाह्यमण्डलके बारेमें कहते हैं। सर्वबाह्यमण्डलप्ररूपणा-अब जब दोनों सूर्य सर्वसे बाहरके मण्डलमें आते हैं तब तापक्षेत्र और अन्धकारक्षेत्रके आकार आदिका स्वरूप तो पूर्ववत् (तापक्षेत्र प्रसंग पर कहा वैसे ही.) समझना / केवल समुद्रकी तरफ चौडाईके प्रमाण में फरक पड़ने पर सूर्य सर्वबाह्यमण्डलमें दूर गया, इससे समुद्रकी तरफ आतपक्षेत्रकी चौडाई सर्वबाह्यमण्डल परिधिके के जितनी (63663 योजन) और वहीं अन्धकार क्षेत्रकी चौडाई (अन्धकार व्यास) सर्वबाह्यमण्डल परिधिके के जितनी (95494 3 योजन) होती है अर्थात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षा तापक्षेत्र - न्यून, जबकि अन्धकारक्षेत्रमें 1 की वृद्धि हुई / इति अन्धकाराकृतिविचारः / - बाहरके और अन्दरके मण्डलों में रहे सूर्योंके तापक्षेत्रके अनुसार आतप और अन्धकार क्षेत्रकी वृद्धि-हानि होती है, इससे जब सूर्य सबसे अन्दरके मण्डलमें आवे तब नजदीक और इसीसे तीव्र तेज-तापवाला होता होनेके कारण दिवसके प्रमाणकी वृद्धि (ग्रीष्मऋतुके अन्तमें 18 मुहूर्त) होती है / इस कारणसे अत्र तीव्र ताप लगता है और उसी काल अन्धकार क्षेत्रका अल्पत्व होनेसे रात्रिमान भी अल्प होता है। ___साथ ही दोनों सूर्य जब सर्व बाह्यमण्डलमें हो तब वे बहुत दूर होनेसे मन्द तेजवाले दिखते हैं, और अत्र दिनमान संक्षिप्त-छोटा होता है। जब अन्धकार क्षेत्रकी वृद्धि और इससे रात्रिमान बहुत वृद्धिवाला होता है, जब तापक्षेत्र स्वल्प होता है उस वक्त [हेमन्तऋतुमें ] जगतमें हिम (ठण्ड) भी पड़ता है। ___ साथ ही जिस मण्डलमें तापक्षेत्रका जितना व्यास हो उससे अर्धप्रमाण पूर्व और Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 पश्चिममें सूर्यकी किरणों का प्रसार-फैलावा हो और उतनी ही दूरसे सूर्य उस मण्डलमें देख सके, जैसे कि सर्वाभ्यन्तर मण्डलमें सूर्य हों तब एक सूर्याश्रयी पूर्व-पश्चिम किरण विस्तार 47263 30 योजन होते हैं, उत्तर-दक्षिणमें-मेरुकी तरफ 44820 योजन, समुद्रकी तरफ 33333 3 योजन और द्वीपमें 180 योजन होते हैं। इस तरह सर्वबाह्यमण्डलमें दोनों सूर्य विचरते हैं तब पूर्व पश्चिम किरण विस्तार 31831 3 योजन मेरुकी तरफ समुद्रमें 330 योजन, द्वीपके अन्दर 45 हजार योजन है और लवणसमुद्रमें शिखाकी तरफ 33803 ई योजन है / इति तिर्यकिरणविस्तारः / और ऊर्ध्व किरण विस्तार 100 योजन और अधः-नीचे विस्तार 1800 योजन है, क्योंकि समभूतलसे दोनों सूर्य प्रमाणांगुलसे (400, मतांतरसे 1600 कोसके योजनके अनुसार) 800 योजन ऊँचे हैं और समभूतलसे भी एक हजार योजन नीचे अधो ग्राम आए हैं और वहाँ तक उन दोनों सूर्योकी ताप किरणे प्रसरती हैं अतः 800 योजन ऊपर और 1000 योजन नीचेके होकर 1800 योजनका अधो विस्तार हुआ। इति उर्ध्व-अधो किरणविस्तारः / इस तरह क्षेत्रविभाग द्वारा दिवस और रात्रिकी प्ररूपणा चौथे द्वारसे करनेके साथ प्रासंगिक आतप-अन्धकारके आकारादिका भी स्वरूप कहा। इति चतुर्थद्वारप्ररूपणा / / ५-प्रतिमण्डलमें परिक्षेप-परिधि प्ररूपणा किसी भी मण्डलमें एक मुहूर्तमें सूर्य कितने योजनकी गति करता है यह जाननेके लिए प्रथम हर एक मण्डलका परिधि पानेकी रीत जाननी चाहिए। इसके लिए प्रथम दोनों बाजूका संयुक्त जम्बूद्वीपगत 360 योजन जो चरक्षेत्र है उसे जम्बूद्वीपके 1 लाख योजनमेंसे कम करने पर 99640 योजन आते हैं / इस संख्याका त्रिगुणकरण पद्धतिसे परिधि निकालने पर 315089 योजनका परिधि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें आता है। अवशिष्ट दूसरे मण्डलसे लेकर 183 मण्डलोंमें इष्टपरिधि जाननेके पूर्व जिस मण्डलका परिधि जानना हो उसके पूर्वके मण्डल परिधि प्रमाणमें व्यवहारनयसे 18 योजनकी वृद्धि करें। अठारहकी वृद्धि करनेका सान्वर्थपन इस लिए है कि किन्हीं भी विवक्षित मण्डलोंसे किन्हीं अनन्तर मण्डलोंका दोनों बाजूका मिलकर 5 योजन, 35 अंश क्षेत्र बढ़नेवाला होनेसे केवल उस वर्धित क्षेत्रका परिधि निकालें तब त्रिगुणरीतिके अनुसार 17 योजन 38 अंश आते हैं परन्तु स्थूल-व्यवहार२५२ नयसे सुगमताके लिए परिपूर्ण 18 योजन विवक्षा रखकर अभी कार्य करना है। 252. सत्तरस जोयणाई, अट्ठतीसं च एगसट्ठिभागा / एयंति निच्छएणसंवहारेण, पुण अट्ठारस जोयगा // Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमंडलमें मुहूत्ते गतिमान प्ररूपणा ] गाथा 86-90 [ 253 इस नियमके अनुसार सर्वाभ्यन्तर परिधिमें 18 योजनका क्षेपण करने पर (किंचिद्-न्यून ) 315107 योजनका परिधि द्वितीय मण्डलका आता है। तीसरे मण्डलमें भी उसी तरह 18 योजनका क्षेपण करनेसे कुछ न्यून 315125 योजन आते हैं / ___ इस तरह 18 योजनका क्षेपण करनेसे इच्छितमण्डलमें परिधिका विचार करते हुए, सर्वबाह्यमण्डलमें पहुँचना तब उस मण्डलमें 318385 योजन परिधि 18 योजनकी वृद्धिसे आया; वरना वास्तविक रूपमें तो 17 योजन 38 अंश बढानेके होते हैं और इस हिसाबसे यथार्थ परिधि 318314 योजन 38 अंश आते हैं तथापि सुगमताके लिए 318315 योजनकी विवक्षा गणितज्ञ विचारें / इति परिधिनामक पञ्चमद्वारप्ररूपणा // ६-प्रतिमण्डलमें मुहूर्त गतिमान प्ररूपणा एक सूर्य किसी भी एक मण्डलको दो अहोरात्र में समाप्त करता है (क्योंकि किसी भी स्थानमें केवल परिधिके बढ़नेसे एक अहोरात्रके 30 मुहूर्त सम्बन्धी मानमें विपर्यास नहीं होता परन्तु क्रमशः परिधिके बढ़नेसे 60 मुहूर्तमें मण्डलको पूर्ण करनेको सूर्यकी मुहूर्त गति पूर्व पूर्वसे विशेष वृद्धिवाली होती जाती है ) और दो अहोरात्रके मुहूर्त 60 हैं अतः उस उस मण्डलके परिधिप्रमाणको साठसे बटा करें (भाग दे) तब एक मुहूर्तकी गति स्वतः निकल आती है / इस नियमानुसार सर्वाभ्यन्तरमण्डलके 315089 योजनके परिधिको 60 मुहूर्तसे भागनेसे (बटा करनेसे ) 5251 34 योजनकी गति प्राप्त होती है / दूसरे मण्डलके 315107 योजन परिधिको 60 मुहूर्तसे भागनेसे (बटा करनेसे ) 5251 44 आते हैं, इस तरह प्रतिमण्डलमें वृद्धिंगत होते परिधिके साथ 60 से बटा करके, मुहूर्त गतिमान प्राप्त करते हुए सर्वबाह्यमण्डलमें जाने पर उस सर्वबाह्यमण्डलके (वास्तविक 318314 योजन, 38 अंश किन्तु व्यवहारसे) 318315 योजनके परिधिप्रमाणको 60 से बटा करनेसे (भागनेसे ) 5305 37 योजनकी मुहूर्त गति आती है और उस समय दक्षिणायनकी समाप्ति होती है। - तत्पश्चात् सर्वबाह्यमण्डलसे लौटते परिधिकी हानि होती होनेसे और इसीलिए मुहूर्त गतिकी भी न्यूनता होती होनेसे अर्वाक् मण्डलमें 5304 54 मुहूर्त गतिमान होता है / तत्पश्चात् क्रमशः उत्तरायणमें पुनः आनेसे पूर्ववत् मुहूर्त गतिमान विचार लेना, अथवा दूसरे मण्डलकी लेकर दूसरी रीतसे मुहूर्त गतिमान लाना हो तो पूर्वपूर्वके प्रत्येक मण्डलके परिधिमें 18 योजन वृद्धि होती होनेसे केवल 18 योजनकी मुहूर्तगति पानेको 60 से बटा करे, 18 से बटा (भाग) न होनेसे 18460 = 1080 अंश आए उसे 60 मुहूर्त बटा करनेसे 34 प्रमाण मुहूर्त गति प्रतिमण्डलमें (पूर्व पूर्वके मण्डलकी मुहूर्तगतिमें ) वृद्धिवाली होती है / इति प्रतिमुहूर्तगतिनामक षष्ठद्वार प्ररूपणा // Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 232 . . ७–प्रतिमण्डलमें दृष्टिपथप्राप्तिप्ररूपणा- .. - किसी भी मण्डलमें दृष्टिपथका अन्तर निकालनेके लिए प्रथम दिवसमें सूर्य कितने क्षेत्रको प्रकाशित करता है यह जानना चाहिए, इसके लिए विवक्षित जिस मण्डलमें दृष्टिपथ निकालना हो उस मण्डलमें सूर्यका जो मुहूर्त गतिमान हो उसे एक बाजू पर रक्खो, तथा उसी इच्छितमण्डलमें जो दिनमान वर्तित हो उस रकमका मुहूर्तगतिमानके साथ गुना करो, जो माप आवे उतने योजनका क्षेत्र एक दिवसमें प्रकाशित करे / अब यहाँ एक नियम है कि विवक्षित जिस मण्डलमें सूर्य जितने क्षेत्रको प्रकाशित करे उससे बराबर अर्धक्षेत्र प्रमाण दूर रहे हुए मनुष्योंको (जैसे कि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें सूर्यकी मुहूर्त गति 5251 24 योजन है और दिनमान 18 मुहूर्त वर्तित है | 5251 29 भाग . दोनों रकमको गुना करनेसे)९४५२६१३ | .94518 यो० योजनका तापक्षेत्र अथवा उदय-अस्त . 29x बिचका (मण्डलश्रेणी में ) अन्तर कर्क 94526 यो० 43 अंतर 605228 यो०१२ भाग संक्रांतिके दिनों में प्राप्त होता है। अब उसका अर्ध करने पर | सर्वाभ्यन्तर मुहूर्त गति सूर्य दृष्टिगोचर हो अतः किसी भी मण्डलमें सूर्य अर्ध दिवसके द्वारा (9 मु.) जितने क्षेत्रको प्रकाशित करता है, उतने क्षेत्रके लोगोंको सूर्य उतनी दूरसे दृष्टिगोचर होता है और साथ ही उतनी ही दूरसे अस्तपनेमें दीखता है। [94 5251 34 = 47263 337 47263 33 यो० का दृष्टिपथ अन्तर सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें होता है। सर्वाभ्यन्तरसे दूसरे मण्डलमें दृष्टिपथ अन्तर 47179 यो० 1 और 24 अर्थात् लगभग 47179 10 यो० रहता है / अतः सर्वाभ्यन्तरमण्डलके दृष्टिपथमानमेंसे लगभग 84 33 - 13 योजनकी हानि हुई / इस ‘शोध्यराशि की हानि प्रायः प्रतिमण्डलमें करनेकी है। ( परन्तु प्रायः शब्दसे विशेष यह समझना कि आगेके मण्डलोंमें क्रमसे क्वचित् 8485 यो०, अन्तिममण्डलों में कहीं कहीं 85; उससे भी किंचित् अधिक हानि करना ) इस तरह तीसरे मण्डलमें उस शोध्यराशिकी हानि होनेसे 47086 33 -17 यह तीसरे मण्डलका दृष्टिपथ अन्तर समझना। इस तरह उक्त आम्नायके अनुसार प्रतिमण्डलमें दृष्टिपथ निकालते सर्वान्त्यमण्डलमें 31831 3 योजनका दृष्टिपथप्रमाण प्राप्त होगा। सर्वबाह्यसे लौटते हुए गणितके हिसाबसे पूर्व दक्षिणायनमें शोध्यराशिकी जो हानि करते थे उसके बदले अब उत्तरायणमें उस राशिकी प्रतिमण्डल वृद्धि करते जाए (यहाँ भी विपरीत क्रमसे साधिक 85-84-83 24 यो० की तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलके पर्यन्त स्वयं Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों सूर्योकी उदयास्त, मध्याह्नको स्थिति क्या है ? ] गाथा 86-90 [ 255 सोच लेना / ) इस नियमके अनुसार सर्वबाह्यसे ' अर्वाक मण्डलमें 31916 / योजन दूरसे सूर्य दीखता है; उस द्वितीय मण्डलके मानमें 85 4-24 यो जोडनेसे 32001 18-20 योजन आएँगे, इस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डल तक सोचें। ये दोनों सूर्य उदयास्त समय पर हजारों योजन दूर होने पर भी उनके बिम्बोंके तेजका प्रतिघात होता होनेसे सुखसे देखे जा सकते हैं अतः मानो पासमें ही हो ऐसे लगते हैं, तथा मध्याह्न पर मात्र 800 योजन दूर होने पर भी उनकी फैलती तीव्र किरणों के कारण मुश्किलसे दिखाई देते होनेसे पास होने पर भी बहुत दूर हो ऐसा लगता है और साथ ही दूर होनेसे ही दोनों उदयास्तकालमें पृथ्वीसे छूकर रहे हों और मध्याह्नसमयमें आकाशके अग्रभागमें रहे हों वैसे दीखते हैं। ___ यहाँ किसीको शंका हो कि-दोनों सूर्य उदयास्त समय पर हजारों योजन (47263 2. यो०) दूर होने पर भी मानो हमारे पासमें ही उदित होते हों ऐसा क्यों दीखता है ? और साथ ही मध्याह्नमें ऊपर आने पर मात्र 880 योजन जितने ही ऊँचे होने पर बहुत दूरस्थ जैसे क्यों दीखते हैं ? . इस प्रश्नके खुलासेमें जतानेका कि-उदय और अस्तकालके समय सूर्य बहुत (देखनेवालेके स्थामकी अपेक्षा 47263 3. यो०) दूर गये होते हैं, इस दूरत्वके कारण ही उनके बिम्बोंके तेजका प्रतिघात होता है; अतः मानो वे पासमें हों ऐसा भास होता है और इसीलिए सुखसे (आसानीसे) देखा जा सकता है। - और साथ ही मध्याह्नमें (देखनेवालेको होती प्रतीतिकी अपेक्षासे ) नजदीक होनेसे उनकी विस्तृत किरणों के सामीप्यके कारण मुश्किलसे देखे जानेके कारण (नजदीक होने पर भी) दूर रहे हों ऐसा दीखता है। ... जैसे कोई एक देदीप्यमान दीपक अपनी दृष्टिके पास हो फिर भी वह मुश्किलसे देखा जा सके। लेकिन दूर हो तो वही दीपक आसानीसे देख सकते हैं। वैसा यहाँ समझ लेना। और दूर होनेसे ही वे दोनों उदय-अस्तकालके समय२५३ पृथ्वीसे स्पर्श करके रहे __ 253. इतर -- मत्स्यपुराणादि' ग्रन्थोंमें-सूर्य पश्चिम समुद्रकी तरफ अस्ताचलमें अस्त होता है उसी स्थान पर अधःस्थानमें उतरकर, पातालमें प्रवेश करके, पातालमें ही पुनः पूर्वदिशाकी तरफ गमन करके पूर्वसमुद्रमें उदय पाता है, यह मनौती जैनदृष्टि से असंगत है। क्योंकि दृष्टिके स्वभावसे अथवा दृष्टि-दोषसे हम अपने चक्षुओंसे 47263 यो० 30 भाग प्रमाणसे विशेषतः दूर गए हुए सूर्यको अथवा उसके प्रकाशको देखनेके लिए असमर्थ हैं और इस शक्तिके अभावके Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 हो ऐसा लगता है, और मध्याह्नमें नजदीक आनेसे ही आकाशके अग्रभागमें रहें न हो ? ऐसा अपनी दृष्टिमें दीखता है। - इस तरह यथामति सूर्यमण्डलके सम्बन्धी अधिकार कहा। // इति सूर्यमण्डलाधिकारः // कारण सूर्यको न देखनेसे सूर्यास्त हुआ है ऐसा कहते हैं, वस्तुतः वह सूर्यास्त नहीं है परन्तु अपनी दृष्टिके तेजका अस्तभाव है क्योंकि सूर्य अपनेको जिस स्थान पर अस्त-स्वरूपमें दिखाई पड़ा वहाँसे दूर दूरके क्षेत्रोंमें उसी सूर्यका प्रकाश तो पड़ता है, वह कहीं छिप नहीं जाता। अगर हम किसी भी शक्तिके द्वारा किसी भी व्यक्तिको सूर्यास्त स्थान पर भेजे तो सूर्य भरतकी अपेक्षाके अस्तस्थानसे दूर गया हुआ और उतना ही ऊँचा होगा, अथवा रेडियो अथवा टेलिफोनके द्वारा जिस वक्त यहाँ सूर्यास्त होता है उस अवसर पर अमरिका या योरपमें पूछताछ करा ले तो ' हमारे यहाँ अभी अमुक घण्टे ही दिवस बिता है' ऐसा स्पष्ट समाचार मिलेगा / कोई भी वस्तु दूरवर्ती होने पर देखनेवालेको बहुत दूर और अधःस्थान पर-भूभागमें स्पर्श किया हो ऐसी दीखती है, दृष्टिदोषके कारणसे होते *विभ्रमसे उस बातको सत्यांशरूपमें प्रकृतिके नियमसे भी विरुद्ध (सूर्य जमीनमें उतर गया, समुद्रमें पैठ गया-अस्त हुआ) घटाना यह तो प्राज्ञों और विचारशीलोंके लिए अनुचित है। यदि दूर दीखती वस्तुमें उक्त कल्पना करेंगे तो समुद्रमें प्रयाण करता स्टीमर जब-बहुत दूरवर्ती होता है तब हम देख नहीं सकते तो इससे क्या स्टीमर समुद्रमें पैठ गया ? डूब गया ? ऐसी धारणा रखेंगे क्या ? हरगिज़ नहीं। साथ ही दूर दीखते बादल दूरत्वके कारण अपनी दृष्टि-स्वभावसे भूस्पर्श करते देखते हैं तो क्या बहुत ऊँचे, ऐसे बादल भू के साथ स्पर्शित होंगे क्या ? अर्थात् नहीं ही, तो फिर ऐसे बहुत दूर अन्तर पर रहे सूर्यके लिए ऐसा दीखे और इसलिए वैसी कल्पना करना बिलकुल अयोग्य है, सत्यांशसे बहुत ही दूरवर्ती है, और युक्तिसे भी असंगत है। * जैसे किसी एक गाँवके ताड़ जैसे ऊँचे वृक्षोंको (अथवा किसी मनुष्यको) मात्र दो चार कोस दूर देखते हैं फिर भी उन वृक्षोंका केवल ऊपरी भाग सहजतासे दीखता है और मानो वे जमीनसे स्पर्शित हों वैसा भास होता है, परन्तु वहाँ तो जिस स्थितिमें होते हैं उसी स्थितिमें ही होते हैं। वैसा यहाँ भी सोचना जरूरी है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रके मण्डलोंका चारक्षेत्र प्रमाण ] गाथा 86-90 [ 257 . // अथ श्रीचन्द्रमण्डलाधिकारः प्रारभ्यते / / ___ पूर्व सूर्यमण्डलाधिकारमें सूर्यमण्डलोंका सर्व आम्नाय कहा गया। अब चन्द्रमाके मण्डल विषयक जो अवस्थित आम्नाय है उसका ही अधिकार कहा जाता है। // सूर्यमण्डलसे चन्द्रमण्डलका भिन्नत्व // चन्द्र तथा सूर्यके मण्डलों में बड़ा तफावत रहा है, क्योंकि सूर्यके 184 मण्डल हैं और उनमेंसे 119 मण्डल लवणसमुद्रमें पड़ते हैं और 65 जम्बूद्वीपमें पड़ते हैं। जबकि चन्द्रके केवल 15 मण्डल हैं और उनमेंसे 10 मण्डल लवणसमुद्रवर्ती और 5 मण्डल जम्बूद्वीपवर्ती हैं। अतः उनके मण्डलोंका परस्पर अन्तर-परस्पर अबाधादि सर्व विशेषतः तफावतवाला है। चन्द्रकी गति मन्द होनेसे चन्द्र अपने मण्डलोंको दूर दूरवर्ती अन्तर पर करता जाता है। जब कि सूर्य शीघ्रगतिवाला होनेसे अपने मण्डलोंको समीपवर्ती करता जाता है इससे उसकी संख्या भी अधिक हो जाती है। उक्त स्वरूप आदि विषयका ख्याल सूर्यमण्डलाधिकार पढनेसे स्वयं समझा जा सकता है। 1. चन्द्रके मण्डलोंका चारक्षेत्र प्रमाण चन्द्रका चारक्षेत्र सूर्यके जितना ही अर्थात् 510 यो०४६ भाग प्रमाणका है / केवल प्रमाण निकालनेकी पद्धति, मण्डल संख्या और अन्तर प्रमाणके तफावतके बारेमें केवल अंकों में भिन्नता होगी। - अब किस तरह चारक्षेत्रमान निकाले यह जणाते हैं। चन्द्रके एक मण्डलसे दूसरे मण्डलका अन्तर 35 योजन और एक योजनके इकसठवें 30 भाग और इकसठवें एक भागके 7 भाग करें उनमेंसे 4 भाग (35 यो०३:-) जितना है। अब चन्द्रके मण्डल 15 हैं, परन्तु हमें प्रथम उनके आंतरेका प्रमाण निकालना होनेसे पांच अंगुलियोंके अथवा सीधी चुनी पांच दीवारोंके आंतरे जिस तरह चार ही होते हैं उसी. तरह इन 15 मण्डलोंके आंतरे चौदह होते हैं / आंतरोंका माप निकालनेको चौदहकी संख्याके साथ मण्डलांतर प्रमाणसे गुना करें। 14 अन्तर ___x 35 यो० 490 यो० आये। . इकसठवें 30 भाग ऊपर हैं अतः उसके योजन करनेको 14 उसे गुना x 30 इकसठवें भाग 420 इकसठवें भाग आये। बृ. सं. 33 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 एक योजनके इकसठवें 7 भागके 4 भाग उसके योजन लानेको प्रथम x 14 56 सातवें भाग आये / . इस 56 भागका 61 वाँ भाग प्रमाण लानेको 7)56 (8 एक यो० के 56 61 वें भाग निकले / पूर्व आए 61 वें 420 भागमें + 8 जोडनेसे 428 भाग इकसठवें आए, उनके योजन निकालनेके लिए 61) 428 (7 427 = 7 यो० ही यो० भाग आए। ००१-अंश शेष पूर्व आए 490 योजनमें + 7 भाग जोडनेसे 497 / यो० इतना 14 आंतरेका चन्द्रमण्डल स्पर्शना रहित भूमिक्षेत्र प्रमाण आया। अब चन्द्रमण्डल उक्त क्षेत्र प्रमाणमें पन्द्रह बार पड़ते हैं, इससे 15 बार विमान विस्तार जितनी जगह कुल रोकी जाती है तब उस विमानकी अवगाहनाके विषयक मण्डलोंका प्रमाण निकालें। . चन्द्रका विमान एक योजनके इकसठवें 56 भागका होनेसे 56 x 15 % 840 इतने इकसठवें भाग आए, उनके योजन निकालनेके लिए 61 से 840 को बांटे। 61) 840 (13 योजन 230 183 047 भाग शेष रहे। पूर्व आए चौदह आंतरोंका प्रमाण 497 योजन और इकसठवाँ एक अंश उसमें विमान विष्कभके 13 यो० और इकसठवें 47 भाग शेष रहे उस भागका चन्द्रका चारक्षेत्र आया। 510 यो० और - / / इति चन्द्रचारक्षेत्रम् // 15 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारक्षेत्रका दूसरा उपाय ] गाथा 86-90 [ 259 चारक्षेत्रका दूसरा उपाय गणितकी अनेक रीतियाँ होनेसे एक ही प्रमाण अलग अलग रीतिसे ला सकते हैं। प्रथम इकसठवें तथा सातवें भागोंके योजन निकालकर चारक्षेत्रका प्रमाण जणाया। अब योजनके सातवें भाग निकालकर चारक्षेत्रका प्रमाण जाननेकी दूसरी रीत बताई जाती है। चन्द्रमण्डलोंका अन्तर 35 यो० 3,4 भाग होनेसे प्रथम उस एक ही अन्तर प्रमाणके सातवें भाग करना, 30 इकसठवें भागोंको सातसे गुना करके चार भाग ऊपरके जोड़नेसे 214 सातवें भाग आए। 35 योजनके इकसठवें भाग बनानेके लिए 35461= 2135 अंश इकसठवें आए, उन अंशोंके 61 वें सातवें (सात) भाग करनेके लिए पुनः सातसे गुना करनेसे 14945 भाग आए, उनमें पूर्वके 214 सातवें भाग जोड़नेसे कुल 15159 इतने सातवें चूर्णिभाग-प्रतिभाग आए / ये एक ही मण्डलांतरके आए। चौदह मण्डलोंके आंतरे निकालनेके लिए२५४ उन 15159 चूर्णिभागोंको चौदहसे गुननेसे कुल 212226 प्रतिभाग आए। 254. उतरती भांजणी (भाग) के अनुसार इस तरह करना___ यो० भाग प्रति० __35 - 30 - 4 एक मण्डल अन्तर 210x 2135 भाग 2135 * + 30 2165 भाग _X 15155 सातवें भाग ____ + 4 ऊपरके जोड़नेसे कुल 15159 सातवें भाग आए। 15159 एक आंतरेके चूर्णि विभाग उसके साथ x 14 मण्डलकी अन्तर संख्यासे गुननेसे 212226 प्रतिभाग एक योजनके 1 + 5880 जोडे 56 भागके मण्डल प्रमाणको 218106 कुल प्रतिभाग आए x 7 भाग 392 उसे x 15 मण्डलसे गुने 5880 प्रतिभाग Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 अब मण्डल पंद्रह होनेसे 15 मण्डल विषयक विमान विस्तारके प्रतिभाग करनेके लिए विमान अथवा मण्डलकी इकसठवें 56 भागको चौड़ाईको सातसे गुननेसे 392 भाग आते हैं। ये पंद्रह बार करनेसे 392415=5880 प्रतिभाग विमान विस्तारके आए। पूर्वके चौदह आंतरेके 212226 जो चूर्णिभाग हैं उनमें इन पंद्रह मण्डल विस्तारके आए कुल 5880 प्रतिभाग जोडनेसे 218106 सर्व क्षेत्रके सातवें भाग आए उनके इकसठवें भाग करनेके लिए सातसे भागा करनेसे 31158 आए, उनके योजन बनानेके लिए इकसठसे भागनेसे (बटा करनेसे ) कुल चन्द्रका जो 510 यो० 48 भागका चारक्षेत्र कहा है वह बराबर आ जाएगा / इति चारक्षेत्र प्ररूपणा // 2. चन्द्रमण्डलोंकी अन्तर-निस्सारण रीति प्रथम 510 यो०४६ भागका जो चारक्षेत्र उसके इकसठवें भाग करके जो संख्या प्राप्त हो उसमेंसे, चन्द्र के मण्डल 15 होनेसे पन्द्रह बार विमान विस्तारके इकसठवें भाग करके, पूर्वोक्त चारक्षेत्र प्रमाणमेंसे कम करनेसे जो संख्या शेष रहे वह केवल अन्तरक्षेत्रकी (क्षेत्रांश गिनती) आई समझना। उस अन्तरक्षेत्र-क्षेत्रांश संख्याको प्रत्येक मण्डलका अन्तर निकालने के लिए 14 से बटा करके प्राप्त होती संख्याके योजन करें, जिससे प्रत्येक मण्डलका अन्तर प्रमाण प्राप्त होगा। वह इस तरह-५१० यो० x 61=31110 + 48 अंश जोडनेसे 31158 इकसठवें भाग आए / अब 15 मण्डल विस्तारके कुल भाग करनेके लिए 56 x 15 = 840 इसे 31158 मेंसे -840 कम करनेसे 30318 क्षेत्रांश अन्तरक्षेत्र आया / 218106 ये भाग सातवें होनेसे 7) 218106 (31158 इकसठवें भाग हुए / उनके योजन करनेको 61) 31158 (510 305 0065 048 कुल 510 यो०१६ भाग चारक्षेत्र आया। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमण्डलकी अन्तर निकालनेकी रीत ] गाथा 86-90 [ 261 प्रत्येक मण्डलका अन्तर प्रमाण लानेके लिए१४) 30318 (2165 भाग = 21654 भाग आये, 28 023 84 078 08 प्रतिभाग 04 प्रतिभाग योजन निकालनेके लिए६१) 2165 (35 योजन 183 35 योजन 32 भाग प्रमाण 0335 ___305 यो० भाग जवाब आया 30 35-3, 4 भाग ( 35 यो० 304) अन्तर प्रमाण प्राप्ति-अन्य रीतिसे प्रथम 15 मण्डलका कुल विस्तार निकालनेके लिए-एक मण्डलका इकसठवें 56 भागका विस्तार तो 15 मण्डलका कितना? त्रिराशि करनेसे जवाब (योजन निकालने पूर्वक) 13 यो०४४ भाग आवे, उसे पूर्व कहे गए 510 यो०४८ योजन समस्त मण्डलक्षेत्रके विस्तारमेंसे कम करनेसे 4973 यो० चौदह आंतरोंका (मण्डलरहित केवल) कुल विस्तार आता है। अब प्रत्येक मण्डलका विस्तार लानेके लिए 4971 योजनकी संख्याको 14 अन्तरसे बटा करनेसे पूर्ण 35 योजन और 304 इकसठांश भाग आए, वह इस तरहएक मण्डल विस्तारप्रमाण इकसठवें 56 भाग उसे x 15 योजन बनानेको 61) 840 (13 यो० 4 पंद्रह मण्डलक्षेत्र विस्तार 183 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 योजन भाग उन 510-48 मेंसे - 13-47 कम करनेसे 497-01 = 4976, भाग चौदह अन्तरका कुल विस्तार, प्रत्येक अन्तरप्रमाण लाने के लिए१४) 497 (35 यो० 42 077 07 यो० शेष। उसके इकसठवें भाग करनेके लिए 461 427 भाग आए / उनमें पूर्वका 1 इकसठवाँ भाग आया है उसे जोड़नेसे 428 कुल अंश आए; उन्हें प्रत्येक अन्तरमें बाँट लेने के लिए१४)४२८ (30 भाग इकसठवें 42 008 शेष यो० भाग प्रतिभाग अर्थात् कुल 35 -3 - भाग एक अन्तरक्षेत्र प्रमाण * आया / // इति अन्तरक्षेत्रमानद्वितीय प्ररुपणा // पहले चन्द्रमण्डलोंका कुल चारक्षेत्र तथा प्रत्येक चन्द्र मण्डलका अन्तरक्षेत्र निकालनेकी रीति बताई गई / अब 'अबाधा' (विषय) कहा जाता है। सूर्य मण्डलवत् चन्द्रमण्डलोंकी भी 'अबाधा' तीन प्रकारकी है / उनमें प्रथम मेरुकी अपेक्षासे 'ओघतः अबाधा', दूसरी मेरुकी अपेक्षासे प्रत्येक मण्डल अबाधा', तीसरी प्रतिमण्डलमें 'चन्द्रचन्द्रकी परस्पर अबाधा' इस तरह तीन प्रकारकी है / उनमें प्रथम ‘ओघसे अबाधा' कहलाती है। 3. मेरुके आश्रित ओघसे चन्द्रमण्डल अबाधाका निरूपण-१ सूर्य मण्डलवत् चन्द्र मण्डलोंका अन्तर मेरु पर्वतसे चारों बाजू पर ओघसे 44820 योजन दूर होता है / यह सारी व्याख्या सूर्यमण्डलके ओघतः अबाधा प्रसंग पर कही है उस प्रकार यहाँ विचार लें / इति ओघतोऽबाधा / / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुकी अपेक्षासे चन्द्रमण्डल अबाधा ] गाथा 86-90 [263 मेरुके आश्रित प्रतिमण्डलकी अबाधा-२ - ऊपर जो अबाधा कही गई वह मेरु और सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बिचकी कही, क्योंकि उस मण्डलसे अवाक् ( मेरुकी तरफ ) अब एक भी मण्डल नहीं होता | सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बादके (अर्थात् दूसरे) मण्डल तक जाने पर 36 यो० और 254 भाग प्रमाण अन्तरक्षेत्र बढ़ता है, क्योंकि केवल अन्तरक्षेत्र 35 यो० 30 भाग 4 भागका उसमें प्रथम मण्डलविमान विस्तार अन्तर्गत लेनेका होनेसे 56 भाग उक्त अन्तरप्रमाणमें मिलनेसे 36 योजन इकसठवें 25 भाग और 4 सातवें प्रतिभागप्रमाण आ जाएँगे / अत: मेरुसे दूसरा मण्डल 44856 यो० और 254 भाग प्रमाण दूर हो / इस तरह प्रथममण्डलकी अपेक्षा आगेके अनन्तररूपमें रहे दूसरे मण्डलोंमें 36 यो० और 254 भागकी वृद्धि करते जाइए। इस तरह प्रतिमण्डल. अबाधा निकालने पर जब सर्वबाह्यमण्डलमें जावें तब सर्वबाहमण्डल और मेरुके बिच 45329 5, इकसठांश जितना ( मेरुके दोनों बाजू पर) अन्तर पड़ता है / यह सर्व विचारणा सूर्यमण्डलोंके अबाधा प्रसंग पर कही है। उस प्रकार यहाँ विचार लेना / इति मेरुप्रतीत्यप्रतिमण्डलमबाधा प्ररूपणा || चन्द्र-चन्द्र के बिच प्रतिमण्डलकी परस्पर अबाधा और व्यवस्था जब जम्बूद्वीपवर्ती दोनों चन्द्र (आमने सामने ) सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें हों तब उन दोनोंके बिचका अन्तरक्षेत्र प्रमाण सूर्योकी तरह 99640 योजनका होता है / यह प्रमाण द्वीपके एक लाख योजनके विस्तारमेंसे दोनों बाजूका जम्बूद्वीपगत मण्डलक्षेत्र ( 180 + 180 = 360 योजन ) कम करनेसे प्राप्त होता है, जो हकीकत पहले सूर्यमण्डल . प्रसंग पर कही गई है। सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बाद जब दोनों चन्द्र दूसरे मण्डलमें प्रवेश करें तब उनका परस्पर अन्तर 99712 यो०से अधिक 51, इकसठांश भाग प्रमाण होता है, जो इस तरह. एक चन्द्र-एक बाजू पर दूसरे मण्डलमें गया तब सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षासे (अन्तरप्रमाण और विमान विष्कंभ सह) 33 यो० और 254 इकसठवाँ भाग प्रमाण दूर गया / इस बाजू पर भी दूसरा चन्द्र दूसरे मण्डलमें उतनी ही दूर गया होता है। अतः हरएक मण्डलमें दोनों बाजू पर अनन्तर अनन्तर मण्डलोंमें प्रवेश करते चन्द्रोंकी (मण्डल दूर दूर होते होनेसे ) दोनों बाजूकी होकर 25572 यो० और 51 3 भाग प्रमाण जितनी अबाधाकी वृद्धि होती जाती है / इस तरह प्रत्येक मण्डलमें 72 यो० 51 भागकी वृद्धि करते जानेसे और प्रतिमण्डलमें परस्परकी अबाधा सोचते जाते जब सर्वबाह्यमण्डलमें 255 की टिप्पनी 264 वाँ पृष्ठ पर देखियें / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-00 (पन्द्रहवाँ) जिस अवसर पर दोनों चन्द्र आमने सामने दिशावर्ती घूमते हो उस समय एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रका 100659 15 योजनका अन्तर प्रमाण होता है / शंका :- सूर्यमण्डल प्रसंग पर सर्वबाह्यमण्डलमें वर्तित सूर्योंकी परस्पर व्याघातिक अबाधा पूर्ण 100660 योजन होती है; और दोनोंका चारक्षेत्र समान है तो फिर 16 अंश जितना तफावत होनेका कारण क्या ? समाधान :-चन्द्रमण्डलका चारक्षेत्र 510 यो० 48 भाग है। इस क्षेत्रका प्रारम्भ सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी शुरूआतसे होता है, इस तरह इस उक्त अबाधा प्रमाण प्राप्त करनेके लिए चन्द्रका 56 भाग विस्तारका प्रथम मण्डलक्षेत्र उस क्षेत्रमण्डलके आदि (जम्बूद्वीपकी तरफ) से लेकर (अर्थात् प्रथम मण्डल सहित ) अन्तिम सर्वबाह्यमण्डल 509 यो०.५३ भाग दूरवर्ती हो, जब सूर्यमण्डल पूर्ण 510 यो० दूरवर्ती हो-इन दोनोंके बिच कुल 16 अंश तफावत पड़ा उसका कारण यह है कि-सूर्यमण्डल इकसठवें 48 भाग विस्तारवाला होनेसे दोनों बाजूका 510 यो० 48 भाग जो चारक्षेत्र उसमेंसे ऊपरके अडतालीस-अडतालीस अंशका दोनों बाजूका अन्तिम मण्डलका विस्तार कम हो (क्योंकि मण्डलकी प्राथमिकहद लेनेकी है परन्तु अन्तिम मण्डलका समग्र विस्तार साथमें गिननेका नहीं है) ऐसा करनेसे दोनों बाजू पर 510 योजनका क्षेत्र रहता है, जब कि यहाँ चन्द्रमण्डल इकसठवें 56 भागका होनेसे दोनों बाजू पर सूर्यमण्डल विस्तारकी अपेक्षासे 255. यो० भा. प्रतिभाग 35-30-4 एक बाजूका अन्तर 2. अन्य रीतसे मण्डल अन्तर प्राप्ति-- यो० भा० प्र० भा. 35-30-4 ___ + 56 35-86-4 35-30-4 अन्तर प्र० जोड करनेसे 70-60-8 +912 दोनों बाजू पर चन्द्रमण्डल 70-172-8 [विस्तारके + 1 सात प्रः भागका 1 भाग 70-173-8 [जोडनेसे +2-122 +1-61 36-25-4 424242 72-50-8 ७२-५१-परस्पर अन्तरप्रमाण +1 72-51-1 जवाब आया यो० इकसठवें भाग-प्रतिभाग / 72- . 51- 1 जवाब / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमण्डलकी परस्पर अबाधा और परिधि प्ररुपणा ] गाथा 86-90 [ 265 चन्द्रमण्डलके आठ आठ अंश बचते, ये अंश भी 510 यो०के सूर्यमण्डल क्षेत्रमेंसे कम होनेसे, सर्वबाह्यमण्डलमें प्रति बाजू पर, सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षा 509 यो०५३ भाग प्रमाण क्षेत्र हो उन दोनों बाजू वर्ती क्षेत्रका जोड करनेसे [509 53 + 509 53 = ] 1019 35 भाग होता है / [ इतना क्षेत्र चौदह मण्डल क्षेत्र और चौदह आंतर क्षेत्र द्वारा पूरित होता है / इस क्षेत्रमें सर्वाभ्यन्तरमण्डलका परस्पर मेरु व्याघातिक मध्य क्षेत्र प्रमाण 99640 योजन प्रक्षेप करने पर (1019 यो० 45 भाग + 99640 यो० =) 100659 यो० 45 भागका सर्वबाह्यमण्डलमें चन्द्र-चन्द्रका जो अन्तर कहा वह यथार्थ आ जाता है / इस तरह चन्द्रमण्डलकी अधिकताके कारण ही 16 अंशका जो तफावत पड़ता है वह बताया / [ दूसरी तरह सोचे तो चन्द्रके प्रत्येक मण्डलमें होता अन्तरवृद्धि प्रमाण मण्डल तथा अन्तर विस्तार सहित 72. यो० 51 भाग और 1 प्रतिभाग है और चन्द्रमण्डलका अन्तर 14 है अतः उस अन्तरवृद्धि प्रमाणके साथ चौदहसे गुना करनेसे 1019 यो० 45 भाग प्रमाणक्षेत्र प्राप्त होगा, इत्यादिक गणितशास्त्रकी अनेक रीतियाँ होनेसे गणितज्ञ पुरुष अन्तरवृद्धिसे मण्डलक्षेत्र, मण्डलवृद्धिसे अन्तरक्षेत्र इत्यादिक कोई भी प्रमाण, उन उन रीतियों द्वारा स्वतः प्राप्त कर सकते हैं ] इति मण्डले मण्डले चन्द्रयोः परस्परमबाधा-प्ररूपणा तत्समाप्तौ च अबाधा प्ररूपणाऽऽख्यं द्वारं समाप्तम् // सूचना -अब चन्द्र मण्डलकी गति विषयक चार अनुयोग द्वार कहे हैं वे नीचे अनुसार हैं - 1. चन्द्रमण्डलोंकी परिधि प्ररूपणा चन्द्रका प्रथम मण्डलका परिधि सूर्यमण्डलवत् जाने / क्योंकि जिस स्थानमें चन्द्रमण्डल पड़ता है उसी स्थानमें, ऊर्ध्व भाग पर (80 यो• ऊँचा ) चन्द्रमण्डल रहा है। अन्य मण्डलोंके परिधिके लिए पूर्व मण्डलसे पश्चिम मण्डलकी चौडाईमें पहले जो 72 यो की वृद्धि कही है उसका अलग ही परिधि निकालने पर किंचिद् अधिक 23 यो० आएगा / यह परिधि प्रमाण पूर्व पूर्वके मण्डलोंमें जोड़नेसे अनन्तर आगे-आगेके मण्डलका परिधि प्रमाण आएगा / अतः सर्वाभ्यन्तर मण्डलके परिधिमें 23 यो० जोडनेसे दूसरे मण्डलका 315319 यो०, तीसरेका 256315549 यो० इस तरह करनेसे यावत् अन्तिम मण्डलका परिधि 318315 योजन प्राप्त होगा। 256. चौदह बार 230 x 14 = 3220 यो० जोडनेसे 318309 यो० आनेसे 6 यो० कम होते हैं, उस 230 योजनका देशोन 0|| यो० न बढ़ानेसे तूटता है इसलिए पर्यन्तमें या मध्यमें-पूर्ण अंकस्थानमें देशोन 0 // योजनसे उत्पन्न अंक बढ़ानेसे यथार्थ परिधि प्राप्त होगा / बृ. सं. 34 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-20 2. चन्द्रकी मुहूर्त्तगति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें संक्रमण करते दोनों चन्द्रोंकी मुहूर्तगति सूर्यमण्डलवत् परिधिके हिसाबसे 5073 19745 यो की होती है, क्योंकि एक चन्द्रमा एक अर्धमण्डलको 1 अहोरात्र - 1 मु० और ऊपर 11 // भाग मुहूर्त्तके दरमियान पूरा करता है। चन्द्र दूसरा 221 भी स्वचारित अर्धमण्डल उतने ही कालमें पूर्ण करता होनेसे उस एक मण्डलको पूर्ण करते 2 अहोरात्र और 2 ३३मु० होता है / चन्द्र विमानकी मन्दगतिके कारण उस मण्डलको 62 मुहूर्तसे अधिक समयमें पूर्ण करता है / सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे अनन्तर मण्डलोंके लिए पूर्व पूर्वके मुहूर्त गतिमानमें प्रतिमण्डल होती सा० 230 योजनकी परिधिकी वृद्धि हिसाबसे 3 यो० 3758 भा० अर्थात् किंचित न्यून 3 // यो० जितनी मुहूर्त गतिकी वृद्धि करते हुए इच्छितमण्डलमें मुहूर्तगति निकालते हुए अन्तिममण्डलमें जाने पर वहाँ 5125 श्चि यो० मुहूर्त गति आती है। . ' 3. चन्द्रकी दृष्टिपथ प्राप्ति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें दोनों चन्द्र 47263 ॐ यो०से दृष्टिगोचर होता है और. वह अन्तिममण्डलमें 31831 यो० ( दूर )से लोगोंको दीखता है, शेष मण्डलोंके लिए स्वयं उल्लेख देखनेमें आता नहीं; परन्तु सूर्यमण्डलवत् उपाय योजनेसे आ सकेगा। 4. चन्द्रके साधारणासाधारणमण्डल 1-3-6-7-8-10-11-15 इन आठ मण्डलों में चन्द्रको कभी भी नक्षत्रका विरह नहीं होता क्योंकि वहाँ नक्षत्रका चार हमेशा होता है / जो ‘नक्षत्र परिशिष्ट ' प्रसंग पर कहा गया है। 2-4-5-9-12-13-14 मण्डलोंमें नक्षत्रका विरह ही होता है / 1-3-11--15 ये चार मण्डल सूर्य-चन्द्र तथा नक्षत्र सभीको सामान्य है। इन चन्द्रमण्डलोंमें जरा भी गमन नहीं है। इति संक्षेपेण जम्बूद्वीपगत चन्द्र-सूर्य मण्डलाधिकारः समाप्तः // जम्बूद्वीपवर्ती समग्रसमय (ढाईद्वीप) क्षेत्रमें सूर्य-चन्द्रमण्डलाधिकारः // लवणसमुद्र-धातकीखण्ड-कालोदधिसमुद्र और पुष्करार्धगत सूर्योंकी व्यवस्था जम्बूद्वीपगत् सूर्यवत् सोचें, क्योंकि मनुष्यक्षेत्रमें रही मेरुके दोनों बाजूवर्ती पंक्तिमें रहे 132 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य क्षेत्रवर्ती सूर्य-चन्द्रमण्डलाधिकार ] गाथा-९१ [267 २५७सूर्यों में से कोई भी सूर्य आगे पीछे नहीं होता, इसीलिए जितने नरलोकमें सूर्य उतने ही दिवस और उतनी ही रात्रियाँ हो / क्योंकि सर्व सूर्योका गमन एक साथ सर्वत्र होता है और इसीलिए प्रत्येक सूर्यको स्वस्वमण्डलपूर्ति 60 मुहूर्तमें अवश्य करनेकी ही होती है / इस कारणसे यहाँ इतना विशेष समझना कि 25 लवणसमुद्रादिवर्ती आगे आगेके सूर्य पूर्व पूर्व सूर्यगतिसे शीघ्र शीघ्रतर गति करनेवाले होते हैं। क्योंकि आगे आगे वह सूर्यमण्डलस्थानोंका परिधि वृद्धिगत होता है और उस उस स्थान पर किसी भी सूर्यको मण्डलपूर्ति एकसाथ करनेकी होती है / अतः जम्बूद्वीपके मण्डलवर्णन प्रसंग पर कहे गए 184 मण्डलसंख्या तथा चार क्षेत्रादिसे लेकर दृष्टिपथ तककी सर्व व्यवस्था जम्बूद्वीपकी रीतिके अनुसार लेकिन उस उस क्षेत्रस्थानके परिधि आदिके विस्तारानुसार सोच लें। (फक्त गणितके अंक बड़े होंगे) ___इस तरह सूर्य तथा चन्द्रमण्डलका विवेचन किया गया। इसके सिवा पौरुषीछाया आदि सर्व प्रकारका सविस्तर वर्णन जाननेकी जिज्ञासावाले महानुभावोंको सूर्यप्रज्ञप्तिलोकप्रकाशादि ग्रन्थान्तरसे जाननेका प्रयत्न करें / इति समाप्तोऽयंसार्धद्वीपवर्ती सूर्य-चन्द्र मण्डलाधिकारः // / / प्रत्येक द्वीप-समुद्राश्रयी ग्रह-नक्षत्रादि प्रमाण-करण / / ... अवतरण-मण्डल विषयक सविस्तर वर्णन किया / पहले प्रतिद्वीप-समुद्राश्रयी चन्द्र-सूर्य संख्या निकालनेका कारण बताया था / अब शेष रहे ग्रह-नक्षत्र-ताराका किसी भी द्वीप-समुद्राश्रयी संख्याका प्रमाण निकालनेके लिए 'करण' बताते हैं। गह-रिक्ख-तारसंख, जत्थेच्छसि नाउमुदहि-दीवे वा / तस्ससिहिएगससिणो, गुण संखं होई. सव्वग्गं // 91 / / 257. यहाँ इतना विशेष समझना कि जो जो सूर्य जिस जिस स्थानमें घूमता है उसके नीचे वर्तित क्षेत्रके मनुष्य उसी सूर्यको देखते हैं / 258. इस तरह ढाई द्वीपमें चन्द्र-सूर्योका अन्तर बताया नहीं गया, परन्तु अभ्य०-पुष्करार्धके 8 लाखके 36 भाग करनेसे जितना क्षेत्र आवे उतने अन्तर पर सूर्य स्थापित करें, उसमें मानुषोत्तरकी तरफका उतना अन्तर खाली रक्खें / जम्बूकी तरफ पुष्कराधके प्रारम्भसे सूर्य स्थापित करें, मानुषो० के पास छूता सूर्य न हो / कालोद० के लिए 8 लाखके २२वें भाग जितने अन्तर पर सूर्य स्थापित करें, परन्तु प्रारम्भ-पर्यन्त नहीं / 21 सूर्य बिचमें ही स्थापित करें इस तरह धातकी-लवणादिके लिए भी उक्त रीतसे सोच लेना योग्य लगता है / तत्त्व ज्ञानीगम्य / Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-९१. 336 नक्षत्र और 803700 कोडाकोडी [ 803700000000000000000 ] तारोंका परिवार आता है। तथा २६२कालोदधिमें 42 चन्द्र होनेसे 3696 ग्रह, 1176 नक्षत्र और 2812950 कोडाकोडी [ 2812950000000000000000 ] तारोंका परिवार है / और पुष्करार्धवर २Fउद्वीपमें 72 चन्द्र होनेसे उसका 6336 ग्रह परिवार, 2016 259. दो चंदा दो सूरा णक्खत्ता खलु हवंति छप्पन्ना / बावत्तरं गइसतं जम्बूद्दीवे विचारीणं // 1 // एगं च सय सहस्सं तित्तिसं खलु भवे सहस्साई / णव य सता पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं // 2 // 260. चत्तारि चेव चंदा चत्तारि य सूरिया लवणतोये / बारस णक्खत्तसयं गहाण तिणणेव बावण्णा // 1 // दोच्चेव सतसहस्सा सत्तटुिं खलु भवे सहस्साई / णव य सता लवण जले तारागगकोडिकोडीणं // 2 // 261. चउवीस ससि रविणो णक्खत्तसता य तिणि छत्तीसा / एगं च गहसहस्सं छप्पणं धायईसंडे // 1 // अटठेव सतसहस्सा तिण्णिसहस्साई सत्तय सत्ताई। धायसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं // 2 // 262. बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणकरा दित्ता / कालोदधिमि एते चरंति संबद्ध लेसागा // 1 // णक्खत्ताणं सहस्सं एगमेव छावत्तरं च सतमण्णं / छच्च सया छण्णवइ महगहा तिणि य सहस्सा // 2 // अट्ठावीसं कालोदधिमि बारस य सहस्साई / णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं // 3 // 263. बावत्तरिं च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरा दित्ता / पुक्खरवरदीवड्ढे चरंति एते पभासंता // 1 // तिष्णिय सत्ता छत्तीसा छच्च सहस्सा महगहाणं तु / णखत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई // 2 // अडयाल सय सहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई / दो य सतपुक्खरद्धे तारागणकोडिकोडीणं // 3 // [सू० प्र० 19 प्राभृत सूठ 100 ] 261. चउवीस ससि रविणो णक्खत्तसता य तिष्णि छत्तीसा / एगं च गहसहस्सं छप्पणं धायईसंडे // 1 // अठेव सतसहस्सा तिष्णिसहस्साई सत्तय सत्ताई / धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं // 2 // 262. ___ बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणकरा दित्ता / कालोदधिमि एते चरंति संबद्ध लेसागा // 1 // णवत्ताणं सहस्सं एगमेव छावत्तरं च सतमण्णं / छच्च सया छण्णवइ महग्गहा तिणि य सहस्सा // 2 // अट्ठावीसं कालोदधिमि बारस य सहस्साई / णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं // 3 // 263. बावत्तरिं च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरा दित्ता / पुक्खरवरदीवड्ढे चरंति एते पभासंता // 1 // तिष्णिय सत्ता छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु / णक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई // 2 // अडयाल सय सहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई / दो य सतपुक्खरद्धे तारागणकोडिकोडीणं // 3 // [ सू० प्र० 19 प्राभृत सूठ 100 ] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रह, नक्षत्र और ताराओंका संख्यायन्त्र ] . गाथा-९१ / 269 नक्षत्र तथा 4822200 कोडाकोडी [4822200000000000000000000] उतना तारोंका परिवार है। इस तरह सर्वद्वीप-समुद्रवर्ती ज्योतिषीकी संख्या लानेके लिए करण बताये / इस प्रकार मनुष्यक्षेत्रमें कुल २६४सूर्यकी संख्या १३२की, चन्द्रकी संख्या १३२की, ग्रहकी 11616, नक्षत्रकी 3696 और 88407000,0000000000000 इतनी तारोंकी कुल संख्या है और ये २६५तारे कलम्बपुष्पवत् अधः स्थानमें संकीर्ण और ऊर्ध्वस्थानमें विस्तीर्ण होते हैं / तथा तारोंकी चर और स्थिर ज्योतिषी संख्या मिलकर भी संख्या 26 असंख्याता ही है, क्योंकि ज्योतिषी देव असंख्याता हैं / // मनुष्यक्षेत्रमें ग्रह-नक्षत्र-तारा संख्या यन्त्रक // | ग्रह / नक्षत्र द्वीप-समुद्र नाम चन्द्र संख्या परिवार | परिवार तारा परिवार जम्बूदीपके | 2 चन्द्रका परिवार 176 लवण समुद्रके / 4 चन्द्रका परिवार 352 112 धातकी खण्डके 336 कालोदधि समुद्रके | 42 , , , 3696 | 1176 पुष्कराध द्वीपके |72 ,, ,, / 6336 | 2016 13395 कोडाकोडी 267900 |803700 2812950 . 4822200 , यहाँ जो ग्रह-नक्षत्र बताये उनके नाम कहते हैं / 26 नक्षत्रों के नाम-अभिजित् , श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक्, पूर्वभाद्रपदा, उत्तराभाद्र 264.. बत्तीसं चंदसतं बत्तीसं चेव सूरियाण सतं / सयलं माणुसलोए चरंति एते पभासंता // एक्कारसयसहस्सा छस्सिय सोला महग्गहाणं तु / छच्चसता छण्णउया णक्खत्ता तिण्णिय सहस्सा // अट्ठासीइं चत्ताई सतसहस्साई मणुयलोगंमि / सत्त य सता अणूणा तारागणकोडिकोडीणं // 265. एवतियं तारगं जं भणियं माणुसंमि लोगम्मि / चारं कलंबुयापुप्फसंठित्तं जोतिसं चरति // 266. एसो तारापिंडो सव्वसमासेण मणुयलोयम्मि / बहिता पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेड़जाओ // [ सू० प्रज्ञ० प्राभृत ] 267. अभिई सवण धणिठा सयभिसया दोय हुंति भद्दवया / रेवई अस्सिणि भरणि य कत्तिया रोहीणि चेव // मिगसर अद्दाय पुणव्वसू य पुसो य तहऽसिलेसाय / मघ पुव्वफग्गुणी उत्तराहत्थो य चित्ताय // . साई बिसाहा अणुराह चेव जेठा तहेव मूलो य / पुवुत्तरा असाढा य जाण न खत्तनामाणि // . Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-९१ पदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा / इसी तरह ग्रहोंके 2. नाम-अंगारक, विकालक, २“लोहित्यक, शनैश्वर, आधुनिक, प्राधुनिक, कण, कणक, कणकणक, कणवितानक, कणसंतानक, सोम, सहित, आश्वासेन, कार्योपग, कर्बुटक, अजकरक, दुंदुभक, शंख, शंखनाभ, शंखवर्णाभ, कंस, कंसनाभ, कंसवर्णाभ, नील, नीलावभास, रूप्पी, रूप्यवभास, भस्म, भस्मकराशि, तिल, तिलपुष्पवर्ण, दक, दकवर्ण, काय, वंध्य, इन्द्राग्नि, धूमकेतु, हरि, पिंगल, बुध, शुक्र, बृहस्पति, राहु, अगस्ति, माणवक, कामस्पर्श, धुर, प्रमुख, विकट, विसंधिकल्प, प्रकल्प, जटाल, अरुण, अग्नि, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवत्सिक, वर्धमानक, प्रलंबक, नित्यालोक, नित्योद्योत, स्वयंप्रभ, अवभास, श्रेयस्कर, खेमंकर, आभंकर, प्रभंकर, अरजा, विरजा, अशोक, वीतशोक, विमल, विवर्त, विवत्स, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवृत्ति, अकजटी, द्विजटी, करिक, कर, राजार्गल, पुष्पकेतु और भावकेतु इस तरह अठासी ग्रह हैं। [91 ) // इति प्रस्तुतभवनद्वारे तृतीय ज्योतिषीनिकायवर्णनम् // 268. इंगालए बियालये लोहियके सणिच्छरे चेव / आहुणिए पाहुणिए कणगसनामावि पं.चे व // 1 // सोमे सहिए अस्सामणे य कज्जोवयणे य कव्वरण / अयकरदुंदुभए वि य संखंसनामावि तिन्नेब // 2 // तिन्नेव कंसनामा नीले रूप्पी य हुंति चत्तारि / भासा तिल पुष्फवण्णे दगवण्णे कालबंधे य // 3 // 'दग्गी धूमकेउ हरि पिंगलए बुधे य सुक्के य / वहसइ राहु अगत्थी माणवए कामफासे य // 4 // धुरए पमुहे वियडे विसंधिकप्पे तहा पइल्ले य / जडिया लएण अरुणे अग्गिलकाले महाकालेया // 5 / / सोत्थि य सोवत्थियए वद्धमाणग तहा पलंबे य / णिच्चालोए णिच्चुज्जोए सयंपभे चेव ओभासे // 6 // सेयंकर खेमंकर आभंकर पभंकरे य बोद्धव्वे / अरए विरए य तहा असोग तह वीअसोगे य॥७॥ विमले विततविवत्थे विसाल तह साल सुव्वए चेव / अणियट्टी एगजडी य होइ बियही य बोद्धव्वे // 8 // कर करिएरायग्गल बोद्धव्वे पुफ्फभावकेऊ य / अठासीइ गहा खलु नायव्वा आणुपुत्वीए // 9 // ‘विमले' यह नाम सूर्यप्रज्ञप्तिकी मूल टीकामें नहीं है अतः पाठांतर सम्भवित है / 260.. लोहिताक्ष-लोहितांक / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषी निकायाश्रयी परिशिष्ट ] गाथा-९१ [ 271 सम्प्रति प्रगटप्रभावकश्रीअजाहरापार्श्वनाथाय नमः // ज्योतिषी निकायाश्रयी पाँचवां लघु परिशिष्ट-(५) / 1. जब ज्योतिष्क इन्द्रको देवांगनाओंके साथ दिव्य विषयादि सुखोंको भोगनेकी इच्छा हो तब अपनी सभाके बिच वृत्ताकारमें एक बृहद् स्थान विकुर्वते (बनाते ) हैं / वैसे चक्राकारवाले स्थानके ऊपर सुन्दर-रमणीय-मनोज्ञ और दिव्य भाग रहा होता है / जिसके ऊपर ये देव एक बड़ा सुन्दर प्रासाद बनाते हैं / जो 500 यो० ऊँचा, 250 यो० विस्तृत, दिव्य प्रभाके पुंजसे व्याप्त होता है / उस प्रासादका ऊपरका भाग चित्रविचित्र पद्म-लता-चित्रकारीसे अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय होता है, मणिरत्नोंके स्पर्शवाला है / इस प्रासाद पर आठ योजन ऊँची एक मणिपीठिका होती है / उस मणिपीठिका पर एक बड़ी देवशय्या विषयसुखार्थ विकुर्वती (बनाई ) है / जो शय्या अत्यन्त सुकोमलदिव्य-उत्तमोत्तम होती है / जिस शय्यामें इन्द्र अपने अपने परिवारयुक्त स्वपटरानियोंके साथ गांधर्व और नाट्यानीक इन दो प्रकारके अनीकयुक्त आनन्द करता हुआ, नाटय, गीत, वाद्यादिक शब्दोंके मधुर नादोंसे प्रफुल्लित होता, अग्रमहिषी तथा उसने प्रेम-भक्तिसे, इन्द्र के सुखार्थ विकुर्वित दूसरे हजारों प्रतिरूपोंके साथ, इन्द्र भी स्व-वेदोपशमन करने उतने ही रूपोंको विकुर्षित करके, उस दिव्य-सुमनोहर मनको अनुकूल ऐसी अत्यन्त सुकोमल देवांगनाओंके साथ मनुष्यकी तरह सर्वाङ्ग युक्त हुआ, अन्तमें देवांगनाओंके शरीरोंको बल देनेवाले, कान्ति करनेवाले वैक्रिय जातिके वीर्य-पुद्गलोंको प्रक्षेपित करता हुआ विषयोपभोगसे निवृत्त होता है। इसी तरह यथायोग्य अन्य निकायोंमें विषयभोग प्रासादिककी व्यवस्था सोचें / 2. पृष्ठ १९२में चालू टिप्पणीमें पीछेसे " विशेषतः यह भी" यह परिच्छेद लिखा गया है / उसमें अन्य द्वीप-समुद्रोंमें आदि और अन्तके 50 हजार यो० वर्जित करनेका जो नियम है उस नियमको बाजूमें रखकर विचारणा चलाई है परन्तु वैसा - न विचारें किन्तु आदि और अन्तके 50 हजार योजन वर्जित करके अवशिष्ट क्षेत्रमें लाख लाख योजनके अन्तर पर उस उस पंक्ति संख्याको यथायोग्य संगत रखना युक्त है, यदि वैसा न सोचे तो उसी परिच्छेदके अनुसार तो स्वयंभूरमण समुद्रके अन्तिम भागमें (50 हजार यो० वर्जित करनेका बाजू पर रक्खा होनेसे ) एक पंक्ति माननी ही पड़े और अगर वैसा माने तो उसका प्रकाश कहाँ जाए ? क्योंकि समुद्रान्त पर अलोक शुरू होता है, इसलिए यह विचारणा योग्य नहीं लगती। . . 3. इस ज्योतिश्चक्रके आधार पर प्राणियोंको शुभाशुभ प्रवृत्तिमें सुख-दुःखका Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 92-93 --- --- अनुभव होता है / वे अनुकूल राशिमें आए हों तो सुख और प्रतिकूल हुए हों तो दुःख-पीडाएँ देते हैं अतः निःस्पृह, निर्ग्रन्थोंको भी प्रव्रज्यादि शुभकार्य सूर्य-चन्द्र-ग्रहनक्षत्रादि बल देखकर करनेका ज्ञानी महर्षियोंने शास्त्रोंमें कहा है। 4. टिप्पणी 241 (पृ० 236 ) सूर्य-चन्द्रमें पहला कौन हो सकता है ? इसका इस परिशिष्टमें खुलासा देनेका था. परन्तु यह विषय अधिक चर्चित होनेसे दूसरे भी कतिपय विषय समझाने पड़ते और ग्रन्थ-विस्तार बढ़ता जाए इसलिए अत्र खुलासा नहीं दिया है। // समाप्तं पंचमं परिशिष्टम् // practicaco.cocacoracay 1 चौथी वैमानिक निकायका वर्णन // , carcenercarcancernancancer अवतरण - पहले सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषीनिकाय विषयक सविस्तर वर्णन करके अब दूसरे ‘भवन' द्वारमें ही अवशिष्ट चौथे वैमानिकनिकाय विषयक वर्णन शुरू करते हुए : ग्रन्थकार महाराज प्रथम दो गाथाओंसे प्रतिकल्पको विमान संख्याका प्रमाण दर्शाते हैं। बत्तीसऽदावीसा बारस अड चउ विमाणलक्खाई / पन्नास चत्त छ सहस्स. कमेण सोहम्ममाईसु / / 92 // दुसु सयचउ दुसु सयतिग-मिगारसहियं सयं तिगे हिट्ठा / मज्झे सत्तुत्तरसय-मुवरितिगे सयमुवरि पंच / / 93 // गाथार्थ -विशेषार्थवत् / / / 92, 93 // विशेषार्थ - प्रथम 'वैमानिक' अर्थात् 'विशिष्टपुण्यैर्जन्तुभिर्मान्यन्ते-उपभुज्यन्त इति विमानानि, तेषु भवा वैमानिकाः' || विशिष्ट पुण्यशाली जीवोंसे जो भोगने योग्य हैं वे विमान कहलाते और उनमें उत्पन्न हुए वे वैमानिक कहलाते हैं। इस वैमानिकदेवनिकायमें से प्रथम सौधर्म कल्पमें [वनमय बो] 32 लाख विमान हैं, इशानकल्पमें 28 लाख, सनत्कुमारकल्पमें 12 लाख, माहेन्द्रमें 8 लाख, ब्रह्मकल्पमें 4 लाख, लांतककल्पमें 50 हजार, महाशुक्रमें 40 हजार, सहस्रारमें 6 हजार, आनतप्राणत दोनोंके होकर 400, आरण-अच्युत दोनों कल्पके कुल 300, नवप्रैवेयकाश्रयी पहली तीनों गोयकोंके 111, मध्यम प्रै त्रिकके 107 और उपरितन प्रै० त्रिकमें 100 और उसके ऊपर अनुत्तरकल्पमें पांच विमान संख्या है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिकोंकी विमानसंख्या ] गाथा 92-94 [ 273 विशेष इतना समझना कि-ऊपर कही संख्या वह पुष्पावकीर्ण और आवलिकागत दोनोंकी संयुक्त समझना / उन उन कल्पगत विमानोंके ऊपर उस उस निकायके इन्द्रका आधिपत्य होता है / प्रत्येक त्रायस्त्रिंशक और सामानिकका एक एक विमान होता है। त्रायस्त्रिंशक विमान कांचनप्रभरत्न तथा कंचनमय और सामानिक विमान शतकान्तरत्नमय और शतज्वलरत्नमय होते हैं / [92-93] // वैमानिक निकायमें प्रतिकल्पमें विमानसंख्या यन्त्र // नाम * वि. सं. | नाम * वि. सं. | नाम * वि. सं. सौधर्मकल्पमें 32 लाख | सहस्रारमें 6 हजार | सर्वभद्रमें / इशान, 28 ,, आनत सुविशालमें 107 सनत्कु. , 12 ,, प्राणत सुमनसमें माहेन्द्र , 8, वारण सौमनसमें ब्रह्म .. 4 अच्युत प्रियंकरमें लांतक ., 50 हजार सुदर्शन ग्रे० | आदित्यमें | शुक्र , . 40 हजार सुप्तभद्र , 1991 अनुत्तरमें मनोरम , कल्पमें 500 300 EEE ____ अवतरण- पहले वैमानिक निकायमें प्रत्येक कल्पमें कुल विमानसंख्या बताई, अब उस समग्र संख्याका कुल जोड़ वैमानिक निकायमें कितना प्राप्त होता है वह तथा इन्द्रक विमान संख्या बताते हैं चुलसीइ लक्ख सत्ता-णवइ सहस्सा विमाण तेवीसं / सव्वग्गमुइढलोगम्मि, इंदया बिसहि पयरेसु / / 94 / / गाथार्थ-वैमानिकमें [आवलीगत और पुष्पावकीर्ण दोनों विमानोंकी समग्र संख्याको एकत्र करें तब ] ८४९७०२३की विमानसंख्या ऊर्ध्वलोकमें प्राप्त होती है / प्रत्येक प्रतरमें इन्द्रक विमान होनेसे सर्व प्रतरोंके 62 इन्द्रक विमान होते हैं / // 94 // विशेषार्थ- सुगम है / सिर्फ इस निकायमें विमानसंख्या मर्यादित है / और इन्द्रक विमान समग्र प्रतरके मध्य भागमें हैं। [ 94 ] . बृ. सं. 35 . Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी / [गाथा-९५ ___ अवतरण-पहले समग्र निकायाश्रयी विमानसंख्या बताई / अब प्रत्येक कल्पमें वे विमान किस तरह रहे हैं और प्रतिकल्प विमानसंख्या कितनी हो ? यह जाननेको युक्ति बताते हैं। चउदिसि चउपतीओ, बासद्विविमाणिया पढमपयरे / उवरि इक्किक्कहीणा, अणुत्तरे जाव इक्किक्कं / / 95 // गाथार्थ- प्रत्येक कल्पमें चारों दिशाओं में चार पंक्तियाँ होती हैं / उनमें प्रथम प्रतरमें बासठ-बासठ विमानोंकी चार पंक्तियाँ हैं / पश्चात् ऊपर जाने पर प्रथम प्रतरसे एक-एक विमान (चारों पंक्तिमेंसे) हीन हीन करते जाना यह अनुत्तरसे यावत् एक-एक रहे तब तक। // 95 // विशेषार्थ-पहले गाथा चौदहमें वैमानिक निकायमें कुल बासठ प्रतर हैं ऐसा बताया है / उस प्रत्येक प्रतरमें चारों दिशावर्ती चार पंक्तियाँ आई हैं और उस उस कल्पमें चारों पंक्तिके प्रारम्भके संगमस्थानमें अर्थात् प्रतरके मध्य भागमें इन्द्रक विमान आए हैं। साथ ही उस उस कल्पगत प्रत्येक पंक्तिके आंतरेमें पुष्पावकीर्ण विमान आए हैं, वैसे आवलिकागत विमानोंके परस्पर अन्तरमें भी [ पुष्पा०] विमान आए हैं / ___ इनमें 'पंक्तिगत' विमान श्रेणीबद्ध होनेसे 'आवलिकागत' विमानोंके नामसे प्रचलित हैं। और पंक्तियोंके आंतरों में तथा विमानोंके आंतरोंमें रहे विमान आवलिकागत (पंक्तिबद्ध ) नहीं किन्तु इधर-उधर यथेच्छस्थानमें 'बिखरे पुष्पोंकी' तरह अलग अलग वर्तित होनेसे 'पुष्पावकीर्ण' कहते हैं / आवलिकागत विमानोंका आकार अमुक क्रममें नियत है, जब कि पुष्पावकीर्णोके आकार विविध प्रकारके हैं / (जो बात ग्रन्थकार आगे कहनेवाले हैं।) अब उनमें सौधर्मकल्पमें प्रथम प्रतरमें चारों दिशाओं में चार पंक्तियाँ आई हैं / प्रत्येक पंक्तिमें बासठ बासठ विमान हैं, दूसरे प्रतरमें उक्त कथन अनुसार पंक्तिके अन्तिम छोरसे एक एक विमान हीन करनेसे प्रत्येक पंक्तिमें इकसठ विमान रहते / तीसरे प्रतरमें इस तरह करनेसे (चार पंक्तियोंमें अन्तिम भागसे एक एक हीन करनेसे ) साठ साठ विमान रहते, इस तरह प्रत्येक प्रतरमें करते करते अन्तिम प्रैवेयकमें दो दो विमानोंकी श्रेणी और अन्तिम-सर्वार्थसिद्धि प्रतरमै अर्थात् अनुत्तर कल्पमें चारों बाजू पर. सिर्फ एक एक विमान अवशिष्ट रहता है / यह दिशागत श्रेणी सद्भावकी बात कही / / 95 ] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानोंका आकार और क्रम] गाथा-९६ / 275 अवतरण-पहले प्रति प्रतर आवलिकागत विमान संख्या प्राप्त करनेका क्रम दिखाकर, अब वे विमान किस आकारमें, किस क्रममें रहे हैं आदि बताते हैं / इंदयवट्टा पंतीसु, तो कमसो तंस चउरंसा वट्टा / विविहा पुप्फवकिपणा, तयंतरे मुत्तु पुवदिसि / / 96 / / गाथार्थ-पंक्तियों में इन्द्रक विमान गोल हैं, पश्चात् पंक्तिमें प्रथम त्रिकोण, फिर चौकोन, और फिर गोल विमान ऐसा क्रम होता है। और पुष्पावकीर्ण विमान विविधाकास्वाले हैं और ये पुष्पावकीर्ण विमान पूर्वदिशाकी पंक्तिको वर्जित करके शेष तीनों पंक्तियोंके आंतरेमें समझना / / / 96 / / विशेषार्थ - प्रत्येक कल्पमें पंक्तियोंके मध्यभागमें रहे इन्द्रक विमान गोल होते हैं और उन विमानोंसे चारों बाजू-प्रत्येक दिशावर्ती चारों पंक्तियाँ शुरू होती हैं, उनमें प्रत्येक पंक्तिका पहला विमान तिकोनाकार-शृङ्गाटक ] सिंघाडेके आकारका होता है / पश्चात् चारों पंक्तियों में चौकोनाकारवाले विमान कसरत करनेके 'अखाडाकार के समान होते हैं क्योंकि अखाडेका संस्थान अक्षपाटक जैसे होनेसे वह समचतुष्कोण आकारमें होता है / ततः गोलाकारवाले 0 (चारों पंक्तियोंमें ) विमान होते हैं। पुनः चारों पंक्तियों में त्रिकोण विमान, फिर चौकोन और फिर गोल / पुनः त्रिकोणसे लेकर प्रस्तुत आकारक्रम ६२वें विमान तक ले जाना, जिससे चारों दिशावर्तीकी पंक्तियों में बासठवीं संख्याके विमान त्रिकोणाकारवाले ही रहें / इनके सिवाय पुष्पावकीर्ण विमान तो स्वस्तिक-नन्द्यावर्त, श्रीवत्स, खड्ग, कमल, चक्रादि विचित्र आकारवाले प्रत्येक प्रतरमें होते हैं। वे पुष्पावकीर्ण विमान चारों पंक्तियोंमें जो चार आंतरे उन चार आंतरों में से पूर्वदिशाके अन्तरको वर्जित करके शेष तीनों आंतरों में रहे होते हैं। मुख्य इन्द्रक विमानकी चारों दिशाओंमें जो बासठ बासठ (अथवा ऊपरके प्रतरोंमें न्यून न्यून) त्रिकोण, चौकोन और गोल इस तरह अनुक्रमसे जो पंक्तिगत विमान हैं और उन पंक्तिगत विमानोंका जो असंख्य असंख्य योजनका अन्तर है उसमें पुष्पावकीर्ण विमान होते हैं। साथ ही अवतंसक विमान भी इन्द्रकविमान और पंक्तिके प्रारम्भके बिचमें होते हैं, तो पूर्वदिशाके अन्तरको वर्जित करके शेष तीनों पंक्तिगत विमानोंके आंतरेमें पुष्पावकीर्ण विमान अवश्य होते हैं / / 96 ] ___अवतरण-पूर्व गाथामें जो कम कहा, वह क्रम हर एक प्रतरमें समान है या विपर्यासवाला है ? उसके समाधानरूप यह गाथा बताती है कि Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 97-98 वर्ल्ड वट्टस्सुपरिं, तसं तंसस्स 'उवरिमं होइ / चउरंसे चउरंसं, उड्ढं तु विमाणसेढीओ / / 97 / / [प्र. गा. सं. 24] गाथार्थ-प्रथम प्रतरमें जिस स्थान पर वर्तुल विमान है उसके ऊपरके प्रतरमें समश्रेणिमें वर्तुल ही होता है, त्रिकोण पर त्रिकोण ही होता है और चौकोन पर चौकोन विमान होते हैं, इस तरह ऊर्ध्व विमानकी श्रेणियाँ आई हैं / // 97 // विशेषार्थ-कोई एक मनुष्य अथवा देव सौधर्मके प्रथम प्रतरमें रहे जो पंक्तिगत विमान हैं उनमेंसे त्रिकोण, चौकोन अथवा गोल इन तीनोंमेंसे किसी भी विमानके मध्यस्थानसे ऊर्ध्व उड़ने लगे तो सीधे समश्रेणिमें जाते उस देवने यदि त्रिकोणमें उडनेका शुरू किया हो तो, आगेके प्रतरगत त्रिकोण विमानमें ही आकर खड़ा रहे, क्योंकि प्रथम प्रतरगत पंक्तिविमान जिस स्थानमें जिस आकारवाले हों उसी स्थान पर ऊर्ध्वभागमें उत्तरोत्तर प्रतरमें उसी आकारवाले विमान होते हैं। फक्त इतना विशेष कि, आवलिकागत विमानोंकी संख्यामें प्रत्येक प्रतरमें एक एककी न्यूनता समझना / [97] (प्र. गा. सं. 24) अवतरण-अब वे विमान कितने द्वारवाले होते हैं ? यह कहते हैं / सब्वे वट्टविमाणा, एगदुबारा हवंति * नायब्वा / तिणि य तंसविमाणे, चत्तारि य हुंति चउरंसे // 98 // [प्र. गा. सं. 25] गाथार्थ-सर्व गोलाकार विमानोंके एक ही द्वार होता है, त्रिकोण विमानोंके तीन द्वार होते हैं और चौकोन विमानोंके चार द्वार हैं / // 98 // विशेषार्थ-सुगम है / मात्र गोल विमानके एक द्वारकी दिशा पूर्व समझना उचित है। गोल विमानके एक ही द्वार होता है यह बात आवलिका प्रविष्ट वृत्तविमानकी सम्भव है। शेषके लिए अधिक द्वार भी होनेका सम्भव सही है / [ 98 ] [प्र. गा. सं. 25 ] अवतरण-अब आवलिकागत और पुष्पावकीर्ण विमानोंका परस्परं अन्तर प्रमाण दर्शाते हैं। 1. उप्परिं // * विण्णेया पाठां० / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप-समुद्र पर विमानोंकी संख्या ] [गाथा 19-101 / 277 आवलियविमाणाणं, तु अन्तरं नियमसो असंखिज्जं / संखिज्जमसखिज्ज, भणियं पुप्फावकिण्णाणं / / 99 / / _ [प्र. गा. सं. 26] गाथार्थ-आवलिकागत विमानोंका परस्पर अन्तर असंख्याता योजनका होता है / जब कि पुष्पावकीर्ण विमानोंका परस्पर अन्तर प्रमाण संख्याता योजनका सथा असंख्याता योजनका भी होता है / // 99 // विशेषार्थ–सुगम है। [99] [प्र. गा. सं. 26 ] अवतरण-"अब उक्त अन्तरवाले उन विमानों मेंसे किस किस द्वीप-समुद्र पर पहले प्रतरकी विमानपंक्तिके क्या क्या विमान ऊर्ध्वभागमें आते हैं वह कहते हैं। एगं देवे दीवे, दुवे य नागोदहीसु बोद्धठवे / चत्तारि जक्खदीवे, भूयसमुद्देसु अट्ठव // 10 // [प्र. गा. सं. 27 ] सोलससयंभूरमणे. दीवेसु पइठिया य सुरभवणा / .. इगतीसं च विमाणा, सयंभूरमणे समुढे य // 101 // [प्र. गा. सं. 28 ] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 100-101 / / विशेषार्थ-पहले बता गये कि सौधर्मके प्रथम प्रतरमें मध्यभागमें वर्तुलाकारमें इन्द्रक विमान आया है और उसकी चारों दिशावर्ती बासठ बासठ विमानोंसे युक्त चारों पंक्तियोंकी चारों दिशाओं में शुरूआत होती है / अब उनमें बिचका जो इन्द्रविमान है वह गोल और 45 लाख योजनका होनेसे अढाईद्वीप पर रहा है अतः वह द्वीपके ढक्कन समान है / साथ ही पंक्तिगत विमानोंमेंसे प्रत्येक पंक्तिके पहले त्रिकोणाकार विमान स्वस्वदिशावर्ती असंख्याता द्वीपसमुद्र बीतनेके बाद आते देवद्वीप पर चारों बाजू पर आए हैं / [अर्थात् प्रत्येक पंक्तिका आरम्भ इन्द्रकविमानसे असंख्य योजन दूरसे होता है ] उसके बाद आए चारों बाजूवर्ती वेष्टित नागसमुद्र पर प्रत्येक दिशावर्ती प्रत्येक पंक्तिके दो-दो (गोल और समचतुर्भुज ) विमान आए हैं, वैसे ही यक्षद्वीप पर समश्रेणीमें चारों दिशावर्ती पंक्तिके चार-चार विमान आए हैं, भूतसमुद्र पर आठ-आठ विमान, स्वयंभूरमणद्वीप पर सोलह सोलह विमान और स्वयंभूरमणसमुद्रमें ऊर्ध्व भागमें चारों दिशावर्ती प्रत्येक पंक्तिगत अवशिष्ट एकतीस-एकतीस विमान जगत्स्वभावसे ऊर्ध्वभागमें प्रतिष्ठित हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 100-102. यदि यहाँ कोई शंका करे कि अढाईद्वीपके बाद ठेठ देवद्वीपमें पंक्तिविमानारम्भ कहा है तो बिचके असंख्य द्वीप-समुद्र पर क्या कुछ भी नहीं होता ? तो वह बिचका प्रदेश आवलिकागत विमान रहित ही होता है। तत्पश्चात् 2-4-8-16-31 विमान, उन उन द्वीपों में जो असंख्य-असंख्य योजनवाले होनेसे तथा असंख्यमें भी असंख्य भेद होनेसे पूर्वपूर्वसे बृहत्-असंख्य योजन मानवाले होनेसे खुशीसे समा सकते हैं। . द्वितीय प्रतरमें स्वयंभूरमण समुद्रवर्ती एक एक विमान चारों बाजू पर हीन सोचना इस तरह पश्चात् क्रमसे एक एककी हीनता अनुत्तर यावत् सोचें / [100-101] (प्र. गा. सं. 27-28) ___ // उस उस द्वीप-समुद्र में प्रतिष्ठितविमानसंख्यावबोधक यन्त्र // चार-चार राशदीपों प्रथमके चारों दिशावर्ती चारविमानों से प्रत्येक विमान देवद्वीपमें चारों बाजूपर हैं। बादके , दो-दो , नागसमुद्रमें " , चार-चार ,, यक्षद्वीपमें , , आठ-आठ ,, | भूतसमुद्रमें / . , सोलह-सोलह ,, | स्वयंभूरमणद्वीपमें .. , 31-31 , | स्वयंभूरमणसमुद्रमें अवतरण-विमानके गंध-स्पर्शादिक कैसे हों ? यह बताते हैं / अच्चंतसुरहिगंधा, फासे नवणीयमउअसुहफासा / निच्चुज्जोआ रम्मा, सयपहा ते विरायंति // 102 // [प्र. गा. सं. 29] गाथार्थ-ये विमान अत्यन्त सुरभिगंधवाले और स्पर्श करनेसे माखनकी तरह मृदु-सुकोमल, तथा सुखकारी स्पर्शवाले, निरन्तर उद्योत करनेवाले, रमणीय और तथाविध जगत्स्वभावसे स्वयंप्रभा-तेजवाले ( गगनमण्डलमें ) शोभित हैं। // 102 // विशेषार्थ-सुगम है। शेष विमानका अधिक वर्णन ग्रन्थान्तरसे देखे / [102] [प्र. गा. सं. 29J . अवतरण-अब जो देवलोक सौधर्म-ईशानकी तरह युग्म रुपमें रहे हैं वहाँ किन विमानोंमें, किस दिशामें, किसका किस तरह हक रहा है ? इस हकीकतको जणाते हुए प्रथम उत्तर-दक्षिणवर्ती आवलिकागत विमानोंके स्वामित्त्वको जणानेवाली गाथा कहते हैं। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानोंका स्वामी कौन है ? वह ] गाथा 103-105 [ 279 . जे दक्खिणेण इंदा, दाहिणओ आवली मुणेयवा / जे पुण उत्तर इंदा, *उत्तरओ आवली तेसि // 103 / / (प्र. गा. सं. 30) गाथार्थ--दक्षिण दिशामें रहे आवलिकागत विमान उन दक्षिणेन्द्रोंके जाने और उत्तरदिशामें रहे आवलिकागत विमान उन उत्तरेन्द्रोंके जाने / // 103 // विशेषार्थ-सुगम है। इतना विशेष समझे कि-प्रत्येक प्रतरमें विमानोंकी चार पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण इस तरह चारों दिशाओंमें विभाजित है। उनमें जो पंक्ति दक्षिणदिशामें गई हो वह दक्षिणेन्द्रों (सौधर्म-सनत्कु० ) की ही जानें। इसी तरह उत्तरदिशामें गई सीधी पंक्ति वह दक्षिणदिशागत-समश्रेणिमें रहे ईशानादि ( ईशान-माहेन्द्र दो ही) उत्तरेन्द्रोंकी जाने / [103] (प्र. गा. सं. 30) अवतरण-अब शेष पूर्व-पश्चिम दिशाके आवलिकागत विमानोंका स्वामित्व .जणाते हैं। पुग्वेण पच्छिमेण य, सामण्णा आवली मुणेयव्या / जे पुण बट्टविमाणा, मज्झिल्ला दाहिणिल्लाणं / / 104 / / (प्र. गा. सं. 31) गाथार्थ-पूर्व तथा पश्चिम दिशाकी पंक्ति सामान्यतः जानें / उसमें प्रतरमध्यमें वर्तित गोल इन्द्रक विमानोंको उन दक्षिणेन्द्रोंके ही जानें / // 104 // विशेषार्थ-पूर्व और पश्चिमदिशामें गई विमानकी पंक्तियाँ सामान्यतः जानें, अर्थात् आधे विमान सौधर्मेन्द्रकी मालिकीके और आधे ईशानेन्द्रकी मालिकीके जानें / उसमें भी इतना विशेष समझना कि-प्रतरमध्यवर्ती गोलाकारमें वर्तित तमाम इन्द्रक विमान २७°दक्षिणेन्द्रोंके ही स्वामित्ववाले और बिचके गोल इन्द्रकविमान भी उनकी ही मालिकीके हैं। इसीलिए दक्षिणेन्द्रोंका वैशिष्टय है। [104] (प्र. गा. सं. 31) / अवतरण-- अब पूर्व और पश्चिम पंक्तिकी मालिकीमें थोड़ी विशेषता है उसे जणाकर पूर्वगाथाकी बातको स्पष्ट करते हैं / पुश्वेण पच्छिमेण य, जे वट्टा ते वि दाहिणिल्लस्स / तंस चउरंसगा पुण, सामण्णा हुंति दुण्हंपि / / 105 / / .. (प्र. गा. सं. 32) * पाठां. उत्तरावली मुणिय तेसि / 270. इन आवलिक और पुष्पावकीर्णविमान विषयक साक्षीरूप गाथाएँ यहाँ हम नहीं देते, क्योंकि देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरणकी ये गाथाएँ चालू संग्रहणीकी टीकामें हैं ही / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 105-106 गाथार्थ-पूर्व और पश्चिम दिशागत पंक्तियों में रहे जो गोल विमान हैं वे दक्षिण दिशामें वर्तित इन्द्रोंके होते हैं / और शेष त्रिकोण और चौकोन विमान सामान्यतः दोनोंके भी होते हैं / // 105 // विशेषार्थ-पूर्व और पश्चिमदिशाकी पंक्तिमें रहे गोल विमानों में वे कल्पयुगलवर्ती दक्षिणेन्द्र ही अधिकारी हैं, उसमें २७'उत्तरेन्द्रोंका कुछ अधिकार नहीं होता / साथ ही उन्हीं दोनों दिशाओंकी पंक्तिमें रहे त्रिकोण-चौकोन विमानोंकी जो संख्या है उसमें विमानोंकी आधी संख्या दक्षिणेन्द्रके ताबेकी और आधी उत्तरेन्द्रके ताबेकी है। यह व्यवस्था प्रथमके दो कल्पयुगलों में ही (सौ. ई. सनत्कु. माहेन्द्र ) भावनाकी है, क्योंकि दोनों युगलोंमेंसे प्रत्येक युगलमें उस उस दिशामें दोनों इन्द्रोंका स्वामित्व संकलित है। उसमें भी पुनः अमुक पंक्तिगत अमुक प्रकारके विमानों पर स्वामित्व अमुकका ही होता है। _और आनत-प्राणत, तथा आरण-अच्युत ये कल्पयुगल ही हैं, परन्तु तत्रवर्ती सर्व प्रतरोंमें स्वामित्व तो एक ही इन्द्रका होता है जिससे वहाँ किसी विचारको अवकाश नहीं है। [105] (प्र. गा. सं. 32) अवतरण-अब उक्त विमानोंके रक्षणार्थ क्या है ? यह बताते हैं। पागारपरिक्खित्ता, वट्टविमाणा हवंति सम्वे वि। चउरंसविमाणाणं, चउद्दिसिं वेइया . होइ / / 106 // . (प्र. गा. सं. 33 ) गाथार्थ-आवलिका प्रविष्ट सर्व वर्तुल विमान चारों बाजू पर गढसे आवृत्त होते हैं / चौकोन विमानोंकी चारों बाजू पर वेदिका होती है / // 106 // विशेषार्थ सुगम है / इतना विशेष कि-गोलविमानके जो गढ बताया वह शीर्षभागमें (छोर पर) 272 कंगुरेवाला-सुशोभित दिखावेवाला होता है। और चौकोन विमानके जो वेदिका बताई वह बिना कंगुरेकी सादी २७३भित्तीरूप समझना / अतः उस गढको वेदिका कही जाती है / [ 106 ] (प्र. गा. सं. 33) 271. जिस तरह किसी राजाकी हदमें दूसरे किसी राजाके ताबेके भी ग्राम-नगरादि होते हैं, साथ ही कुछ ऐसे ग्राम-नगर भी आते हैं कि उस गाँवके अमुक भागके मालिक अमुक हो और अमुक विभागकी सत्ता अन्यकी हो, वैसा यहाँ सोचें / 272. बहुतसे जीर्णनगरके किले विविध प्रकारके कंगुरोंके महित होते हैं, यह जगप्रसिद्ध है। 273. काठीआवाड ( सौराष्ट्र )में मुकामोंके रक्षणार्थ ही जो की जाती है उसे 'वंडी' कहते हैं जबकि गुजरातमें 'ढोरो' भी कहते हैं / इस तरह अलग अलग देश आश्रयी विविध तरहसे पहचाने जाते हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलिकागत विमानोंकी संख्या प्राप्त करनेको करण ] गाथा 107-108 [ 281 ACAanceARAARA * अवतरण-अब इस तरह त्रिकोण विमानका रक्षण कैसा है ? यह बताते हैं / . जत्तो वट्टविमाणा, तत्तो सस्स वेइया होइ / पागारो बोद्धव्यो, अवसेसेसुं तु पासेसुं // 107 // (प्र. गा. सं. 34) गाथार्थ-जिस दिशामें वर्तुल विमान हैं, उसके सम्मुख त्रिकोण विमानोंके वेदिका होती है / (कंगुरेसे रहित गढ) और शेष दिशाओं में कंगुरेके साथ गढ होते हैं / // 107 / / विशेषार्थ-सुगम है / (107) (प्र. गा. सं. 34) अवतरण-अब किसी भी कल्पमें आवलिकागत विमानोंकी (तथा पुष्पावकीर्ण) संख्या प्राप्त करनेको 'करण' दर्शाते हैं। पढमंतिमपयरावलि-विमाणमुहभूमि तस्समासद्धं / पयर गुणमिट्ठकप्पे, सम्बग्गं पुप्फकिन्नियरे // 108 // गाथार्थ-पहली प्रतर श्रेणीकी विमानसंख्या 'मुख' कहलाती और अन्तिम प्रतरोंकी विमान संख्या उसकी 'भूमि' कहलाती है। इन दोनों संख्याका जोड करके उसका आधा कर देना, फिर उसका इच्छित कल्पना प्रतरोंकी संख्याके साथ गुना करना जिससे सर्व आवलिकागत विमानसंख्या प्राप्त होगी और शेष संख्या वहाँके पुष्पावकीर्ण विमानोंकी जानें / // 108 // विशेषार्थ-यह गाथा जो करण बताती है वह इष्ट कल्पाश्रयी घटती है वैसे उपलक्षणसे समग्र निकायाश्रयी तथा प्रतिप्रतराश्रयी भी विमानसंख्या लानेको घट सकती है। क्योंकि मुख' और 'भूमि' संज्ञा संख्या २७४प्रतिकल्प तथा समुच्चयमें (बासठ प्रतराश्रयी) भी घटती है क्योंकि किसी भी प्रकारका विमानसंख्यत्व निकायस्थान, प्रतिकल्पस्थान और प्रतिप्रतरस्थान तीनों आश्रयी घट सकते हैं अतः यहाँ प्रथम उक्त करण उदाहरण द्वारा इष्टकल्पाश्रयी घटाते हैं / इष्टकल्पमें विमानसंख्याप्राप्तिका-उदाहरण-जिस तरह सौधर्म-ईशानकल्पगत प्रथम प्रतरमें 249 विमानसंख्या, उस देवलोकका 'मुख' कहलाए और सौधर्म-ईशान देवलोकके 274. कल्प अर्थात् क्या ? सामर्थ्य वर्णनायां च, कल्पने छेदने तथा / औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः // ' अधिवास' अर्थमें कल्पशब्दका प्रयोग किया गया है / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी . [ गाथा-१०८ अन्तिमप्रतरकी 201 विमानसंख्या 'भूमि' संज्ञक कहलाता है / (249 + 201 = ) दोनोंका जोड करनेसे 450 की संख्या हुई। उक्त कथनानुसार उसका आधा करनेसे २२५की संख्या अवशिष्ट रही, उसे सौधर्म-ईशानके (13) तेरह प्रतरोंसे गुना करनेसे (225 x 13 = ) २९२५की आवलिकागत विमानोंकी संख्या सौधर्म -ईशानके तेरहों प्रतरोंकी बनी / इस संख्याको पूर्वोक्त सौधर्म-ईशानगत जो 60 लाखकी विमानसंख्या उसमेंसे कम करनेसे (6000000 - 2925 = ) 5997075 विमानसंख्या पुष्पावकीर्णोकी प्रथम कल्पयुगलकी जानें / __ इस तरह आगे सनत्कुमारादि कल्पमें भी उक्त करण द्वारा इष्ट संख्या प्राप्त होती है, वह ग्रन्थविस्तारके भयसे यहाँ नहीं जणाते हुए ‘यन्त्र' देखनेकी ही सलाह देते हैं। .. .. // इति इष्टकल्पे विमानसंख्याकरणम् // // वैमानिकनिकायाश्रयी आवलिकागत तथा पुष्पादकीर्णविमान संख्या यन्त्र // + मुख | भूमि | समास | अर्ध |गुण्य प्र० आव० गत | पुष्पा० / कुल विमान संख्या | संख्या संख्या |संख्या / संख्या / संख्या | संख्या | संख्या 249 + 201 = 450 - 225 x 13 = 2925, 5997075 = 60 लाख * 197 + 153 = 350 - 175 x 12 = 2100, 1997900 = 20 लाख 149 + 129 = 278 - 139 x 6 = 834, 399166 = 400000 125 109 = 234 x 5 = 585, 49415 = 50000 105 + 93 = 198 - 99 x 4 = 396. 39604 = 40000 89 + 77 = 166 - 83 x 4 = 332, 5668 = 6000 73 + 61 = 134 - 67 x 4 = 268. 132 = 400 57 + 45 = 102 - 51 x 4 = 204, 96 = 300 41 + 33 = 74 -- 37 x 3 = 111, . = 111 29 + 21 = 50 - 25 x 3 = 75, 32 = 107 17 + 9 = 26 - 13 x 3 = 39, 61 = 100 5 + 0 = 0 - 0 x 1(0)= 5, नहीं है * = 5 7--00mm * दोनोंकी साथमें विमान नहीं हैं। x दोनों कल्पकी तिरपन-चोपन-पचपन तीनों प्रतरोंमें -पुष्पावकीर्ण Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन निकायकी विमान संख्या ] गाथा-१०८ [ 283 समय निका०नि०श्रयी | नि० | नि०आश्रयी नि० | नि०आश्रयी | नि०माश्रयी| समग्र वे० 249 . 5 254 12762 7884 8489149 8497023 मुख भूमि समास अर्ध प्रतर आव०गत पुष्पा० निकायकुल संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या जिस देवलोकमें 'मुख' संख्या | इस तरह जिस देवलोकमें 'भूमि' निकालनी हो, उस देवलोकके नीचेके समग्र | संख्या निकालनी हो वह एक ही देवलोकमें देवलोकवी जितनी प्रतर संख्या प्राप्त होती | जो प्रतरसंख्या हो उसमेंसे एक कम करनेसे हो उस सारी संख्याको चारसे २७५गुना | गाको चासे २७५गना | जो संख्या रहे उसे चारसे गुना करें, ऐसा करनेसे जो संख्या प्राप्त हो उसे प्रथम | करनेसे जो संख्या आवे वह संख्या उस प्रतरकी-२४९ मुखसंख्यामेंसे कम करनेसे जो | देवलोककी 'मुख' संख्यामेंसे कम कर दें संख्या अवशिष्ट रहे, वह संख्या उस उस | जिससे उस कल्पकी 'भूमि' संख्या प्राप्त देवलोककी 'मुख' संख्या कही जाए। | होगी / * वैमानिकनिकायमें 27 मुखसंख्या * | * वैमानिकनिकायमें 27 भूमिसंख्या * - सौधर्म-ईशान युगलके प्रथम प्रतरमें प्र० सं० मुख संख्या 249 है / | सौधर्म ईशानमें-१३-१=१२४४-४८-२४९ मु. प्र० सं० 48 सनत्कु० माहेन्द्रयु०-१३ x 4 = 52 - 249 52 सनत्कु०माहेन्द्रमें-१२-१=११४४४४-१९७ 197 मु.सं. 44 ब्रह्मकल्पमें पहुँचते-२५४४ =100 - 249 153 भू. 100 | ब्रह्मदेवलोकमें-६-१ = 54 4 = 20--149 149 मु. 201 भू. 20 129 भू. 275. उ-सगपयरा रुबुगा, चउगुणिया सोहयां समुहाओ / जं तत्थसुद्धसेसं, इच्छियकप्पस्स सा. भूमि // 1 // 276. दोणिसय अउणपण्णा, सत्ताणउयं सयं च बोद्धव्वं / अउणापण्णं च सयं सयमेगं पण्णुवीसं च // 1 // पंचुत्तरसयमेगं, अउगागडईयअहोई बोधव्वा / तेवत्तरि सगवण्णा, ईयालीसा य हेट्ठिमए // 2 / / अउणतीसा य भवे, सत्तरस य पंच चेव आदीओ / कप्पेसु पत्थडाण-॥ 277. एगहिया दोण्णिसया, तेवण्णसयं सयं च उगतीसं / तत्तो नवाहियसयं, तिणवइ सत्तत्तरी चेव // 1 // एगट्टी पणयाला, तेत्तीसा एकवीस नव चेव / कप्पेसु पत्थडाणं, भूमीओ होति णायचा // 2 // -[ देवे० नर० प्रक० गा० 156-57-58; 160-61 ] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-१०८ 109 भू. 12 प्र० सं० प्र०सं० लांतककल्पमें पहुँचते-३१४४=१२४-२४९ लांतककल्पमें -5-1%D444%3D16-125 . 124 125 मु० शुक्रकल्पमें " -36x4=144-249 / | शुक्रकल्पमें -4-1=344=12-105 144 105 मु. सहस्त्रारकल्पमें" -40x4=160-249 सहस्रारकल्पमें " -4-1=345=12-89 160 . 12 089, आनत-प्राणते " -4444=176-249 | आ० प्राणते " -4-1=344=12-73 176 073, आरण-अच्युते " -4844=192-249 | आ० अच्युते " -4-1=3x4=12-57 .. 192 057" अधस्तन प्रै० त्रिके" -5244208-249 अ० प्रै त्रिके " -3-1-2448-41 208 041" 33. मध्यम 30 त्रिके" -5544220-249 मा त्रिके " -3-1=244-8-29 220 12 029" 9. उपरितन 30 त्रिके" -5844232-249 | उ० 30 त्रिके " -3-1=244-8-17 232 017" अनुत्तरकल्पमें " -6144-244-249 | अनुत्तरकल्पमें प्रतर संख्या एक ही होनेसे 244 भूमि सम्भवित नहीं है। 005, 2. समग्र निकायाश्रयी विमानसंख्याप्राप्ति रीति अब समग्र निकाय स्थानाश्रयी समुच्चयमें दोनों प्रकारके विमानोंकी संख्या प्राप्त करनेको दो रीतें बताई हैं, उनमें प्रथम अगाऊकी गाथानुसार बताई जाती है / . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समग्र निकायकी विमान संख्या और प्रमाण ] गाथा-१०८ [ 285 सकल वैमानिकायाश्रयी ( अथवा 62 प्रतरकी अपेक्षासे) प्रथम प्रतर संख्याको 'मुख' संज्ञक समझना, वह मुखसंख्या प्रथम प्रथम प्रतरमें २४९की है, और समग्र निकायाश्रयी 'भूमि' संख्या (अन्तिम प्रतरकी ) पांच है, क्योंकि मुखमें आदि प्रतर संख्याका और भूमिमें अन्तिम प्रतर संख्याका ग्रहण होता है। अतः मुख और अन्तिम प्रतरवर्ती भूमिसंख्याका समास करते (249 + 5 = ) २५४की संख्या आवे, उसका आधा करने पर १२७की संख्या आई / बासठ प्रतरोंकी कुल संख्या लानेकी होनेसे 127 x 62 = ७८७४की संख्या आवलिकागत विमानकी वैमानिक निकायमें आवे / दूसरे प्रकारसे अनुत्तरकल्पके (623) प्रतरमें चारों बाजू एक एक विमान है उस प्रतरसे लेकर चारों दिशावर्ती एक एककी वृद्धिसे एक एक प्रति प्रतर बढ़ाते सौधर्म कल्पके अन्तिम (62) प्रतर तक पहुँचना (अथवा 62 प्रतरमें एक ही दिशावर्ती विमान सख्याका जोड निकालना ) अर्थात् 1-2-3-4-5-6-7-8-9-10-11-12-13-14-15 16-17-18-19-20-21-22-23-24-25-26-27-28-29-30-31-32-33-3435-36-37-38-39-40-41-42-43-44-45-46-47-48-49-50-51-52-5354-55-56-57-58-59-60-61-62 इन सारी संख्याओंकी संकलनाका कुल जोड 1953 आएगा / चारों दिशागत पंक्तियाँ रही हैं और इसलिए चारों बाजू पर संकलना करनी होनेसे 1953 4 4 = ७८१२की कुल पंक्तिगत विमानसंख्या आई / उसमें बासठ प्रतरके मध्यवर्ती 62 'इन्द्रक' विमान मिलानेसे ७८७४की आवलिकाप्रविष्ट विमानसंख्या आवे, अवशिष्ट 8489149 संख्या पुष्पावकीर्णकी आवे / दोनों संख्याओंको एकत्र करने पर ८४९७०२३की कुल विमानसंख्या आवे / इति समग्रनिकायविमानसंख्याप्रमाणम् / / 3. प्रतिप्रतर विमानसंख्याका प्रमाण अब तीसरी रीतसे प्रतिप्रतरस्थानाश्रयी विमानसंख्या जाननी हो तो इष्टप्रतरकी एक ही दिशावर्ती विमानसंख्याको चारसे गुना करके जो संख्या प्राप्त हो उसमें स्वस्थानवर्ती इन्द्र विमान प्रक्षेपित करना जिससे इष्टप्रतरमें आवलिकागत विमानसंख्या प्राप्त होगी। __ प्रतिप्रतराश्रयी पुष्पावकीर्ण विमान जाननेका 'करण' या उसकी संख्या वर्तमानमें उपलब्ध नहीं देखी गई / [108 ] - अवतरण-पहले आवलिकागत संख्या तीन प्रकारसे और पुष्पावकीर्णकी प्राप्त होती दो दो स्थानकी संख्या बताई / अब इसी तरह इष्ट प्रतरमें इष्ट कल्पमें त्रिकोण, चौकोन और वृत्तसंख्या जाननेका करण ग्रन्थकार कहते हैं, वह समग्र निकायाश्रयी त्रिकोणादि संख्याका उपाय है या नहीं यह ऊपरसे कहा जाएगा / Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 109-110 इगदिसिपंतिविमाणा, तिविभत्ता तंस चउरंसा वट्टा / तंसेसु सेसमेगं, खिव सेस दुगस्स इक्किक्कं / / 109 / / तंसेसु चउरंसेसु य, तो रासि तिगपि चउगुणं काउ / वसु इंदयं खिव, पयर धणं मीलियं कप्पे / / 110 / / .: गाथार्थ-किसी भी एक दिशागत पंक्ति विमानोंको त्रिभागमें समान रूपमें बांट देना, बाँटने पर यदि एक संख्या शेष रहे तो उसे बाँटते आई समान त्रिकोण संख्यामें जोडे, लेकिन यदि दो की संख्या शेष रहे तो एक त्रिकोणमें और एक चौकोनमें जोड देना / फिर न्स प्रत्येक राशिको चारसे गुन लें, वृत्त राशि जो आवे उसमें इन्द्रकका क्षेपण करना क्योंकि वह वृत्त है / इस तरह करनेसे इष्ट प्रतरकी तीनों जातिके विमानोंकी संख्या आएगी, और उस उस कल्पके यथायोग्य प्रतरकी भिन्न भिन्न संख्याको एकत्र करनेसे इष्टकल्पमें त्रिकोणादि विमान संख्या आएगी / // 109-110 // विशेषार्थ-पूर्व गाथामें जिस तरह तीन रीतोंसे आवलिकाकी संख्याका उपाय दर्शाया था उसी तरह यहाँ भी तीन प्रकारसे अर्थात् इष्ट प्रतरका-इष्टकल्पका और समग्र निकायाश्रयी उपाय बतानेका है / उनमें इष्टकल्प और इष्टप्रतरका उपाय गाथार्थ द्वारा कहा जाएगा और उपलक्षणसे समग्र निकायाश्रयीका खुलासा आगे कहा जाएगा / यहाँ प्रथम इष्ट प्रतराश्रयी त्रिकोण, चौकोन और वृत्तसंख्या जाननेका उपाय कहा जाता है / 1. प्रत्येक प्रतरमें त्रिकोणादिविमानसंख्याप्रमाण जाननेका उपाय सौधर्म ईशान कल्पके प्रथम प्रतरमें 62 विमानकी आवलिका है, उसके तीन विभाग करनेसे 20 त्रिकोण, 20 चौकोन और 20 वृत्त आते हैं, ऐसा करने पर दो संख्या शेष रही उसमेंसे एक संख्या त्रिकोणमें जोड़ी और एक चौकोनमें जोड़ी जिससे 21 त्रि०, 21 चौ०, 20 वृत्त, चारों बाजूकी संख्या लानी होनेसे प्रत्येक संख्याको चारसे गुननेसे (214 4 =) 84 त्रि०, (2144 = ) 84 चौकोन और (20x4 = ) 80 वृत्तकी संख्या आवे / फिर वृत्तकी 80 संख्यामें गाथाके नियम अनुसार एक संख्या इन्द्रक विमानकी जोड देना जिससे 81 वृत्त संख्या आएगी / __ प्रतरघन प्राप्त करनेको तीनों संख्याओंको एकत्र करनेसे (84 + 84 + 81 ) २४९की आवलिकागत विमानसंख्या (प्रतरघन ) सौधर्म-ईशान युगलके प्रथम प्रतरकी भी आ सकेगी। इस तरह प्रत्येक प्रतरमें आवलिकागत संख्या भी सहज ही प्राप्त होगी। इस तरह सर्व प्रतरमें त्रिकोणादि संख्या पाठक स्वयं निकाल लें / अत्र सुगमताके लिए यन्त्र देते हैं। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिकोणादि विमान संख्या दर्शक यन्त्र ] ... गाथा 109-110 - [ 287 . इस यन्त्र द्वारा पाठक इष्ट-प्रत्येक प्रतरवर्ती तथा प्रत्येक कल्पवर्ती त्रिकोण, चौकोन और वृत्तकी भिन्न भिन्न संख्या जान सकेंगे। [साथ ही प्रसंगोपात् बताई गई प्रतिप्रतरगत और प्रति कल्पगत आवलिक विमानसंख्या भी देख सकेंगे।] अब शेष बची समग्र निकायाश्रयी त्रिकोण, चौकोन और वृत्तकी पृथक पृथक संख्या तथा समग्र निकायाश्रयी आवलिक विमानसंख्या, वह यहाँ पर दिए गए यन्त्रको देखनेसे जान सकेंगे। // प्रत्येक प्रतरमें आवलिकागत-त्रिकोणादि विमानसंख्या दर्शक यन्त्र // प्रतर |त्रि.सं. चौ.सं. वृत्तसं. सवस. प्रतरसं. प्रतर वृत्तसं. प्रतर सं. - م. م س युगले-२ युगले-४ / - ه م माहेन्द्र 6m - c م - ईशान م - م م 5 1. सौधर्म 3. सनत्कुमार م ه ه ما as: 23856 |2 2 49 |153 कुल 522*712-696-692-2100 / |13|50 / 68 / 68 / 65/201 | 13 कुल सं. 728 *988-972-965-2925 . एक ही दिशावर्ती तेरह प्रतरोंकी तेरह पंक्तियोंकी ७२८की कुल संख्याको चारों पंक्तियों की संख्या लाने के लिए चारसे गुननेसे २९१२की आवलिक विमान संख्या प्रथम युगलमें आवे, उसमें तेरह प्रतरोंके 13 इन्द्रक जोडनेसे 2925 होते हैं। __ बारह प्रतरोंकी एक ही दिशावर्ती ५२२की कुल संख्याको चारसे गुननेसे 2088 होते हैं, उसमें 12 इन्द्रक मिलानेसे २१००की आव० प्रविष्ट संख्या आएगी। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 109-110 م م س 5. ब्रह्मकल्पमें .. 6. लांतक कल्पमें 4|34|4844|45 137/29 م 33/44|44 6 / 32444|41 م कुल-२०७४२८४-२७६-२७४-८३४ कुल 207 को चारसे गुना करके 6 इन्द्रक मिलानेसे 834 कुल हों। कुल 145*200-192-193-585. 145 की संख्याको चारसे गुना करके 2 मिलानेसे 585 हों। 1 22 32 28 29 89 | 41 ___7. महाशुक्र कल्पमें 8. सहस्रार कल्पमें |com 3.2028 28/25 81 | 43 |4|19/28/24/25 7744 कुल 827116-108-148-332 23323220 कुल-९८*१३६-१३२-१२८-३९६ / ९८की कुल संख्याको चारसे गुना करके 4 इन्द्रक जोडनेसे 396 ८२की संख्याको चारसे गुना करके 4. जोडनेसे 332 संख्या 9-10. आनत प्राणत कल्पमें | 11-12. आरण-अच्युतक० . com |12|16 16 1520202161 4 / 11/16 16 कुल 66 * 92-88-88-268 - | कुल 50 * 72-68-64-204 ६६को चारसे गुना करके 4 इन्द्रक जोडनेसे * 268 आवे / ५०को चारसे गुना करके 4 इन्द्रक जोडनेसे 204 आवे / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इष्ट प्रतरमें त्रिकोणादि संख्याके उपाय ] गाथा 109-110 [ 289 . om . . ९-नौ ग्रैधेयक कल्पमें। c & am 6 m s c Naw cxc - अनुत्तर कल्पमें | 1 | 1 | 4 | 0 | 13 | 5 | 62 | कुल 5 * 4-0-1-5 एक ही दिशाके एकको चारसे गुना करके 1 इन्द्रक मिलानेसे पांच होते हैं / ___ इति इष्टप्रतरसंख्या / ता. क. प्रत्येक प्रतरमें पुष्पावकीर्ण विमानसंख्या जाननेका करण ग्रन्थकारने नहीं | कुल 54 * 84-72-69-225 / बताया है, क्योंकि वर्तमानमें उपलब्ध - देखनेमें नहीं आता / 54 की कुल संख्याको चारसे गुना करके द 9 इन्द्रक जोडनेसे 225 आवे / 2. इष्ट प्रतरमें त्रिकोणादि संख्याके उपाय अब यहाँ गाथानुसार प्रत्येक कल्पस्थानाश्रयी त्रिकोणादि विमानसंख्या जाननेका उपाय कहते हैं। सौधर्म-ईशान युगलके तेरहों प्रतरमध्यमें प्रत्येक प्रतरमें एक ही दिशावर्ती रही उस उस विमानसंख्याको त्रिभागमें बाँट देना, जिससे त्रिकोण चौ० / प्रथम प्रतरमें 62 विमान हैं जिससे दूसरे प्रतरमें तीसरे , " " चौथे " 777 पाँचवें छठे सातवें आठवें नवें दसवें , ग्यारहवें , बारहवें , तेरहवें , 50 बृ. सं. 37 16 2 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 109-111 अत्र 2 शेष रहे ऐसी संख्या पाँच बार 238 - 238 - 238 + 9-+ 5 - + 0 है जिससे कुल 10 संख्या हुई हैं, उनमेंसे उक्त कथन अनुसार 5 त्रिकोणमें और 5 चौकोनमें गई, 247 -243 - 238 x 4 - x 4 -44 एक शेष चार बार है वह त्रिकोणमें ही जाए अतः (5 + 4 ) 9 त्रिकोणमें और पाँच चौकोनमें और 988 - 972 - 952 त्रि० चौ० + 13 इन्द्रक इन्द्रक सं. वृत्तमें जोडी / 965 वृत्त इस तरह अन्य प्रत्येक कल्पमें करनेसे इष्ट 27 संख्या प्राप्त होगी / जो संख्या .. यन्त्रमें दी गई है। 3. समग्र निकायमें त्रिकोणादि विमानसंख्या समग्र निकायाश्रयी त्रिकोणादि संख्या लानेका प्रबल करण ध्यानमें न आनेसे जणाया भी नहीं है / सामान्यसे प्रत्येक कल्पकी संख्याओंका जोड़ करनेसे समग्र निकायकी त्रिकोणादि संख्या आ सकती है, जो यन्त्रमें दी है / यन्त्र 291 पृष्ठमें है / [ 109-10] . अवतरण-अब उस प्रत्येक कल्पगत विमानमें रहनेवाले देवोंको पहचाननेके लिए चिह्न दर्शाते हैं। कप्पेसु य मिय महिसो, वराह-सीहा य छगल-सालूरा / हय-गय-भुयंग-खग्गी-वसहा-विडिमाइं चिंधाई // 11 // [प्र. गा० सं. 35] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 151 / / विशेषार्थ-पहले भवनपत्यादि निकायोंकी जानकारीके लिए जिस तरह चिह्न दिखाये हैं, उसी तरह वैमानिक निकायमें पहले सौधर्मकल्पके देवोंको पहचाननेके लिए उनके मुकुटमें मृग (हिरन )का चिह्न है, दूसरे ईशान कल्पके देवोंको पहचानने के लिए भैंसेका चिह्न, तीसरे कल्पगत देवोंके लिए सूअर (भुंड )का, चौथे कल्पमें सिंहका, पाँचवें कल्पमें बकरेका, छठे कल्पमें मेंढकका, सातवें कल्पमें घोडेका, आठवेंमें गज ( हाथी) का, 278. यहाँ कल्ययुगलोंके विषयमें दूसरी तरहसे वृत्तकी तीन आवलिका और त्रिकोण चौकोनकी दो दो आवलिका गिनकर एक ही दिशावर्ती वृत्तकी कुल संख्याको तीन आवलिकासे गुना करके उस कल्यवर्ती इन्द्रक संख्याको मिलानेसे कुल वृत्तसंख्या दक्षिणेन्द्रकी आती है, तथा एक ही दिशावर्ती त्रिकोण-चौकोन विमान संख्याको दो दो आवलिक पंक्तियोंसे गुना करनेसे इष्ट संख्या प्राप्त होगी / Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिकल्पमें त्रिकोणादि विमान संख्या ] गाथा 111 [291 0 0 0 0 0 356 | 348 874 20/ 0 0 0 0 2 0 0 0 0 0 0 332 0 0 0 0 0 / प्रतिकल्पमें त्रिकोणादिविमान संख्या यन्त्र // | त्रिकोण | चौकोन कुल कल्प नाम | सं. | सं. | वृत्त सं. आ. सं. | पुष्पा. सं. सर्व संख्या 1. सौधर्मकल्पमें | 494 486 | 727 | 1707 3198293 |3200000 2. ईशान कल्पमें 494 486 / 238 | 1218 2798782 2800000 दोनोंके मिलकर | 988 / 972 965 2925 5997075 |6000000 3. सनत्कुमार० 356 | 348 | 522 1226 1198774| 4. माहेन्द्र० | 799126, 800000 दोनोंके मिलकर 696 692 2100 1997900 5. ब्रह्मलोक० 274 834 | 399166 6. लांतक० 193 585 49415 50000 7. महाशुक्र० 128 396 39604 40000 8. सहस्त्रार० 108 5668 6000 9-10. आनतःप्राणतमें 268 132 400 ११-१२.आरण-अच्युतमे 204 अधस्तन प्रैवेयकमें | 111 मध्यम ग्रेवेयकमें | 28 107 उपरितन अवेयकमें अनुत्तर कल्पमें 4 बासठ प्रतरमें कुल | 2688 | 204 2582] 7874 8489149/8497023 संख्या | नवें. कल्पमें सर्पका, दसवें कल्पमें २७४गेंडेका, ग्यारहवें कल्पमें वृषभका और बारहवें कल्पमें एक जातिविशेष मृगका चिह्न होता है / - ये सर्व चिह्न रत्नमय मुकुटमें होनेसे उनके पर मुकुटवर्ती रत्नोंकी कांति पडनेसे अत्यन्त शोभते हैं। शंका-बारह देवलोकके चिह्न कहे इस तरह नव अवेयक तथा अनुत्तर कल्पके क्यों न कहे ? ___279. गेंडा यह जानवर अफ्रिका देशमें विशेषतः होता है और उसके मुख पर एक तीक्ष्ण नोकदार सींग होता है, उसके द्वारा वह अपना संपूर्ण रक्षण कर सकता है। यह जानवर बहुत ही बलवान होता है। 111 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 111-112 . समाधान-उन देवलोकवर्ती देवोंको स्वस्थानसे बाहर जाना नहीं होता है, शक्ति है लेकिन प्रयोजनाभावसे तथा कल्पातीत होनेसे गमनागमन नहीं है, अतः किसी भी प्रकारके व्यवहारमें वर्तित नहीं होनेसे उन्हें पहचाननेका प्रसंग होता ही नहीं है / अतः चिह्नोंकी आवश्यकता भी नहीं है / [111] (प्र. गा. सं. 35) अवतरण-चिह्न दिखाकर प्रत्येक कल्पगत इन्द्रोंकी सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या कहते हैं। चुलसि असिइ बावत्तरि, सत्तरि सही य पन्न चत्ताला / तुल्लसुर तीस वीसा, दस सहस्सा आयरक्ख चउगुणिया // 112 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 112 // विशेषार्थ-पहले (अगाऊ ) तीनों निकायोंमें जैसे सामानिक तथा आत्मरक्षक बताए हैं, उसी तरह वैमानिक निकायमें पहले सौधर्मकल्पमें 1. सौधर्मेन्द्र के चौरासी हजार सामानिक देव (84000), 2. ईशानेन्द्रके अस्सी हजार देव ( 80,000 ), 3. सनत्कुमारेन्द्रके बहत्तर हजार (72,000), 4. माहेन्द्रके सत्तर हजार (70,000), 5. ब्रह्मेन्द्रके साठ हजार (60,000), 6. लांतकेन्द्रके पचास हजार (50,000), 7. महाशुक्रेन्द्रके चालीस हजार (40,000), 8. सहस्रारेन्द्रके तीस हजार (30,000), 9. आनत-प्राणतमेंप्राणतेन्द्रके बीस हजार (20,000), 10. आरण-अच्युतमें-अच्युतेन्द्रके दस हजार (10,000) / इस तरह दसों इन्द्रोंके सामानिक (इन्द्र समान ऋद्धिवाले) देवोंकी संख्या कहीं। जब प्रत्येक इन्द्रके इनसे चारगुने आत्मरक्षक माने / अर्थात् सौधर्मेन्द्रकी 84 हजारकी सामानिक संख्याको चार गुनी करनेसे उसके 3 लाख, 36 हजार (3,36,000) आत्मरक्षक, ईशानेन्द्रके 3 लाख, 20 हजार (3, 20,000), सनत्कुमारेन्द्रके 2 लाख, 88 हजार (2,88,000), माहेन्द्रके 2 लाख, 80 हजार (2,80,000), ब्रह्मेन्द्रके 2 लाख, 40 हजार (2.40,000), लांतकेन्द्रके 2 लाख (2,00,000), महाशुक्रेन्द्रके 1 लाख, 60 हजार ( 160,000), सहस्रारेन्द्रके 1 लाख, 20 हजार (1,20,000), आनत-प्राणतेन्द्रके 80 हजार (80,000), आरण-अच्युतेन्द्र के 40 हजार (40,000) आत्मरक्षक देव होते हैं। नव ग्रैवेयकमें तथा अनुत्तरकल्पमें सर्व अहमिन्द्र देव हैं अतः वहाँ कल्पव्यवहारादि निभानेके कार्याभावमें वहाँ सामानिक तथा आत्मरक्षकादि देव नहीं हैं। [112] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवलोकका आधार किन किनके पर हैं वह ] गाथा-११३ [293 // वैमानिक निकायमें बारह देवलोकके चिह्न-सामानिक-आत्मरक्षक देव संख्या यन्त्र // स० सर्पका | कल्प नाम | चिढ़ सामानिक आत्मरक्षक | | सं० | सं० | कल्पनाम | चिह्न सामानिक | आत्मा संख्या 1. सौधर्म क० मृगका |840003,36,0007. महाशुक्रमें, घोडेका 40,000 1,60,000 2. ईशानमें | भैसेका 800003,20,000 8. सहस्रारमें गजका (30,000 1,20,000 3. सनत्कुमारमें सूअरका 72000 2,88,000 9. आनतमें | 4. माहेन्द्र में | सिंहका 70000 2,80,000 10. प्राणतमें गेंडेका 5. ब्रह्मकल्पमें बकरेका 60000 2,40,000 11. आरणमें वृषभका | 6. लांतकमें | मेंढकका 50000 2,00,000 १२.अच्युतमें मृगविशेषका!'' 10,000 40,000 अवतरण-अब वे कल्प किन किनके आधार पर रहे हैं ? यह कहते हैं / दुसु तिसु तिसु कप्पेसु, घणुदहि घणवाय तदुभयं च कमा / सुर भवण पइट्ठाणं, आगासपइट्ठिया उवरि / / 113 // गाथार्थ-प्रथमके दो कल्पोंमें घनोदधिका आधार, तत्पश्चात् तीसरे, चौथे और पांचवें इन तीनों कल्पोंमें घनवातका आधार, छठे-सातवें और आठवें इन तीनों कल्पोंमें घनोदधि और घनवातका आधार, तत्पश्चात् ऊपरके सर्व कल्प शुद्ध आकाशाधारपर प्रतिष्ठित हैं। // 113 // विशेषार्थ-घनोदधि-घन = कठिन - ठोस, उदधि = पानी। कठिन मजबूतमें मजबूत जमे हुए घी जैसा जगत् स्वभावसे जमकर रहा जो पानी वह अप्कायके भेदरूप होनेसे सजीव होता है। घनवात-ट्स ढूंस कर भरा जैसा मजबूतमें मजबूत घट्ट वायु वह वायुकायके भेदरूप होनेसे सजीव है। आगास-अवकाश देनेके स्वभाववाला एक अरूपी द्रव्य / / सौधर्म और ईशान यह कल्पयुगल सिर्फ घनोदधिके आधार पर ही रहे हैं, सनत्कुमार-माहेन्द्र और ब्रह्म ये तीनों २८°कल्प घनवातके आधार पर हैं, लांतक-शुक्र और - 280. घनवातके साथ तनवातका कथन जहाँ इन आता हो वहाँ उन दोनोंको सोचें, क्योंकि यह वस्तु तो आकाशाधार पर है। और आकाश तो स्वयं प्रतिष्ठित ही है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 114-116 सहस्रार ये तीनों कल्प प्रथम घनोदधि और फिर 281 घनवात इन दोनोंके आधार पर हैं, और बादके आनतादिसे लेकर अनुत्तर तकके समग्र कल्प केवल एक 'आकाशाधार' पर प्रतिष्टित है। वहाँ नहीं है घनोदधि या घनवात (या तनवात) / [113.] ___ अवतरण-अब प्रत्येक देवलोकमें विमानोंका मोटापन तथा उनकी ऊँचाईका प्रमाण बताते हैं। सत्तावीस सयाई, पुढवीपिंडो विमाणउच्चत्तं / पंचसया कप्पदुगे, पढमे तत्तो य इक्विकं // 114 / / हायइ पुढवीसु सयं, वड्ढइ भवणेसु दु-दु-दुकप्पेसु / चउगे नवगे पणगे, तहेव आऽणुत्तरेसु भवे / / 115 / / .. इगवीससया पुढवी, विमाणमिक्कारसेव य सयाई / . बत्तीस जोयण सया, मिलिया सध्वत्थ नायब्वा / / 116 / / गाथार्थ—पहले दो देवलोकमें विमानके मूलप्रासादके शिखर तकका पिंडप्रमाण सताइस सौ योजनका होता है। और विमानकी ऊँचाई पांचसौ योजन होती है। बादके दो कल्पमें-पुनः दो कल्पमें-पुनः दो कल्पमें-फिर चार देवलोकमें-नववेयक और पांच अनुत्तरमें जाने पर तीसरे देवलोकसे ही लेकर पूर्व पूर्व कल्पके पृथ्वीपिंडमेंसे सौ सौ 281. घनोदधिके आधार पर घनवात अथवा घनवातके आधार पर घनोदधि किस तरह रह सकता है, इसके लिए एक दृष्टांत देते हैं, उसे सोचकर-ध्यानमें लेकर मनको निःशंक बनाएँ / ___ कोई एक आदमी चमडेके मसकको पवन भरकर फुलावे, फिर तुरन्त ही डोरीकी मजबूत गांठसे मसकका मुख ऊपरसे बांध दे, उस गेंद जैसे फूले हुए मसकके मध्यभागको पुनः डोरीकी अंटी मारकर मजबूत गांठसे बांध दे, इस तरह होनेसे अब मसकमें रहा वायु दो विभागमें बँट गया, इससे उसका आकार डमरु जैसा बन गया / इस तरह करनेके बाद प्रथम मसकका जो मुख बांधा था, उसे छोड दे जिससे बिचकी गांठके ऊपरके भागका सारा पवन निकल जाए। अब उस पवनके निकल जानेसे खाली पड़े मसकके अर्ध भागको पानीसे पुनः भर ले, भरनेके बाद उसका मुख पुनः बांध ले। अब ऊपरका भाग पानी युक्त और नीचेका भाग वायु युक्त रहा / अब मसकके बीच जो गांठ बांधी है उसे भी अब छोड डाले, इससे नीचे वायु और उसके आधार पर पानी रहेगा। नीचेके वायुमें जल बिलकुल प्रवेश नहीं करेगा। पुनः औंधा करने पर जलाधार पर वायु सोच सकते। अथवा कोई एक पुरुष चमडेके मसकको पवन भरकर फुलावे / फिर अपनी कटिसे बांधकर अथाह जलमें प्रवेश करे तो भी वह पानीके ऊपरके भागमें ही रह सकता है। तो फिर ऐसी शाश्वती वस्तुएँ तथाविध जगत्स्वभावसे रहे उसमें सोचना क्या हो ? Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानोंकी पीठिका और ऊँचाई ] गाथा 114-117 [295 योजन कम करते और पूर्व पूर्व कल्पकी विमान ऊँचाइमें सौ सौ योजन बढ़ाते प्रत्येक कल्पमें उस उस प्रमाणको दिखाते जाना / जिससे अनुत्तरमें 2100 योजन पृथ्वीपिंड प्रमाण और 1100 यो० ऊँचाई आ जाएगी। प्रत्येक कल्पगत विमानका पृथ्वीपिंडप्रमाण और विमान ऊँचाई मिलानेसे 3200 योजन आवे / // 114-115-116 // विशेषार्थ-पृथ्वीपिंड अर्थात् विमानकी भूमिका मोटापन / जैसे कि लोकमें बहुत गृहों-महलों आदिको अमुक प्रमाणकी ऊँची पीठिका (प्लीन्थ) होती है और पीठिका प्रमाण पूर्ण होनेके बाद मंजिलें गिनी जाती हैं, परन्तु महलकी भूमिपीठके साथ मंजिलका प्रमाण गिननेका नियम नहीं होता, वैसे यहाँ भी पृथ्वीपिंड और विमानकी ऊँचाई अलग ही गिनी जाएगी। ___ सौधर्म और २८२ईशान इन दो देवलोकके विमानकी पृथ्वीका ऊँचाई प्रमाण 2700 योजन और विमानकी ऊँचाई 500 योजन होती है। (पृथ्वीपिंड सहित विमानकी ध्वजा तकका कुल. विमान प्रमाण 3200 यो०) सनत्कुमार माहेन्द्र दो देवलोकमें 2600 यो० विमानकी ऊँचाई 600 यो०, ब्रह्म और लांतकमें 2500 यो० पृथ्वीपिंड, 700 यो० विमान ऊँचाई, शुक्र सहस्रारमें 2400 यो० पृथ्वीपिंड, 800 यो० विमान ऊँचाई, आनत-प्राणतमें, आरण अच्युतमें 2300 यो० पृथ्वीपिंड, 900 यो० विमान ऊँचाई, नवग्रैवेयकमें 2200 यो० पृथ्वीपिंड और 1000 यो० विमान ऊँचाई और पांच अनुत्तरमें 2100 यो० पृथ्वीपिंड प्रमाण और विमान ऊँचाई 1100 योजनकी होती है। - प्रत्येक देवलोकमें विमानके पृथ्वीपिंडका और विमानकी ऊँचाई इन दोनोंका प्रमाण एकत्र करने पर 3200 यो० आएँगे। अतः कुल विमानोंका प्रमाण तो सर्व कल्पों में समान ही आता है। यह योजना प्रमाण आगे आनेवाली " नगपुढवी विमाणाईमिणसु पमाणंगुलेण तु" इस गाथाके वचनसे प्रमाणांगुलके प्रमाणद्वारा समझना। हर एक पृथ्वीपिंड विचित्र प्रकारके भिन्न भिन्न रत्नमय होते हैं। [114-115-116] अवतरण-पहले पृथ्वीपिंडप्रमाण और विमानकी ऊँचाई दर्शाई। अब उस वैमानिकके प्रत्येक देवलोकगत विमान कैसे वर्णवाले हों यह कहते हैं। पण-चउ-ति-दुवण्ण विमाण, सधय दुसुदुसु य जा सहस्सारो / उवरि सिय भवणवंतर-जोइसियाणं विविहवण्णा // 117 // 282. सौधर्मकल्पके विमानोंसे ईशानकल्पके विमान माप और गुणसे कुछ अधिक समझना / इस तरह अन्य कल्ययुगलमें भी समझना / Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-११७ गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 117 // विशेषार्थ-सौधर्म और ईशान देवलोकके विमान २८३श्याम, नीला, रक्त, पीत, श्वेत इन पंच वर्णके होते हैं / सनत्कुमार, माहेन्द्र, देवलोकके नील, रक्त, पीत, श्वेत इन चार वर्णवाले होते हैं / ब्रह्म और लांतकमें रक्त (लाल), पीत (पीला ), श्वेत (सफेद) वर्णके होते हैं, शुक्र और सहस्त्रारमें पीत और श्वेत दो ही वर्णवाले होते हैं। बादके आनतसे लेकर अनुत्तर तकके सर्व विमान केवल एक 'श्वेत' वर्णवाले ही होते हैं। इनमें भी आनतादिचतुष्कसे नवग्रैवेयक और अनुत्तरके विमान परम शुक्ल वर्णके हैं। // वैमानिक निकायमें विमान-पृथ्वीपिंड तथा ऊँचाई प्रमाणके साथ विमानाधार-वर्णादिक यन्त्र // | वि. पृथ्वी | वि. ऊँचाई की विचाई | कुल |विमानाधार विमान वर्ण कल्प नाम | पिंड | प्रमाण / ऊँचाई पदार्थ 1. सौधर्मकल्पमें 2700 यो० | 500 यो. | 3200 यो० घनोदधि श्याम-नीला, रक्त, 2. ईशानकल्पमें " " पीत, श्वेत 3. सनत्कुमारक० 2600 यो० 600 यो घनवात श्याम,रक्त,पीत,श्वेत 4. माहेन्द्रकल्पमें , . 5. ब्रह्मकल्पमें | 2500 यो औरघनवात रक्त, पीत, श्वेत 6. लांतककल्पमें | 7. महाशुक्रकल्पमें 2400 यो० . 800 यो. पीत, श्वेत 8. सहस्त्रारकल्पमें , 9. आनतकल्पमें 2300 यो आकांशाधार श्वेत 10. प्राणतकल्पमें , 11. आरणकल्पमें 2300 यो 12. अच्युतकल्पमें , | 9. अवेयकमें | 2200 यो 1000 यो० 5. पांच अनुत्तरमें 2100 यो० 1100 यो यहाँ उपलक्षणसे भवनपतिके भवन, व्यन्तरोंके नगर और ज्योतिषियोंके विमान 283. पढमेसु पंचवण्णा, एक्काहाणीउ जा सहस्सारो / दो दो कप्पा तुल्ला, तेण परं पोंडरीयाई / / [ दे० प्र-वृ० सं०] Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्कसंक्रान्तिके प्रथम दिन पर सूर्योदय-सूर्यास्तका अन्तर ] गाथा-११८-१२० [ 207 - - विविध वर्णवाले और ऊपर जो पंचवर्ण कहे उन वर्णोंवाले तथा अन्य वर्णोंवाले भी समझना। [ 117] ___ अवतरण-पहले चारों निकायोंके विमानोंका वर्ण कहकर अब वैमानिक निकायके प्रत्येक देवलोकके विमानोंकी लम्बाई, चौडाई तथा अभ्यन्तर और बाह्य परिधिको किस गतिसे चलनेसे माप सकते ? इसे दिखानेको निमित्तभूत प्रथम कर्क संक्रान्तिके दिन पर वर्तित उदयास्तका अंतर बताया जाता है। रविणो उदयत्थंतर, चउणवइसहस्स पणसय छवीसा / वायाल सट्ठिभागा, कक्कडसंकंति दियहम्मि // 118 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 118 // विशेषार्थ-कर्क संक्रान्तिके दिन ( अर्थात् सर्वाभ्यन्तर मण्डलमें सूर्य हो तब) सूर्यके उदयस्थान और अस्तस्थानके बिचका अन्तर 94526 यो० और एक योजनके साठवें भागमेंसे 42 भाग प्रमाण होता है / (94526 42 योजन) हम जिस सूर्यको देखते हैं वह तो 47263 यो० 2 भाग प्रमाण दूरसे देखते हैं। कहा है कि . सीआलीस सहस्सा दो य सया जोअणाण तेवट्ठा / ___ इगवीस सट्ठिभागा कक्कड माइंमि पिच्छ नरा // उसमें कारण यह है कि-उदय और अस्तके मध्यभागमें अपना क्षेत्र आया है। [118 ] अवतरण-अब उस उक्त प्रमाणको तीन-पांच-सात-नौ गुना करनेसे कितना हो यह बतानेके लिए प्रथम त्रिगुण तथा पंचगुण प्रमाण दिखाती दो गाथाएँ कहते हैं / एयम्मि पुणो गुणिए, ति-पंच-सग-नवहिं होइ कममाणं / .. तिगुणम्मी दो लक्खा, तेसीई सहस्स पंचसया // 119 // असिइ छ सट्ठिभागा, जोयण चउलक्ख विसत्तरिसहस्सा / छच्चसया तेत्तीसा, तीसकला . पंचगुणियम्मि / / 120 / / गाथार्थ-पहले उदयास्तका 94526 यो० 43 भाग प्रमाण जो कहा उसे तीन गुना, पंचगुना, सातगुना और नवगुना करनेसे वह, वह प्रमाण आता है। उसमें उदयास्त प्रमाणको तीन गुना करनेसे 2,83,580 यो० % भाग प्रमाण आता है और पंचगुना . करें तो 472633 यो० 30 भाग प्रमाण आता है / // 119-120 // विशेषार्थ-वह इस तरहबृ. में, 38 . Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29.8 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 119-123 त्रिगुण प्रमाण 'चंडा' गतिका९४५२६ - 13 42 पंचगुण प्रमाण 'चपला' गतिका 94526 - 13 . 42 120 283578 6 0) 126 (2 472630 6 0)210 (3 + 2 180 283580 ई. भागप्रमाण 06 472633 3: भागप्रमाण 030 [ 119-120] अवतरण-अब सप्तगुण तथा नवगुणप्रमाण बताते हैं और चारों गतियों के नामपूर्वक यथासंख्यत्व जणाते हैं / सत्तगुणे छलक्खा, इगसहि, सहस्स छसय छासीया / चउपन्न कला तह नव-गुणम्मि अडलक्ख सड्ढाउ / / 121 // सत्तसया चत्ताला, अट्ठार कला य इय कमा चउरो / चंडा-चवला-जयणा, वेगा य तहा गइ चउरो // 122 / / गाथार्थ-उस उदयास्त अन्तरको सात गुना करनेसे 661686 यो० 54 भाग प्रमाण आवे / और उसी तरह नौगुना करनेसे 850740 यो० भाग प्रमाण आवे / उन चारों प्रमाणोंको अनुक्रमसे चंडा-चवला-जयणा और वेगाके साथ (यथासंख्य) योजें / // 121-122 // विशेषार्थ-इस तरह नवगुणप्रमाण 'वेगा' गतिका सप्तगुणप्रमाण 'जयणा' गतिका 94526-12 42 94526-12 42 x 7 850734 6 0) 378 (6 661682 60)294 (4 + 4 54 2 44 85074010 भागप्रमाण 018 661686 यो 14 भागप्रमाण [121-122 अवतरण-अन्य आचार्य वेगा' गतिको अन्य जिस नामसे परिचित कराते हैं उस नामको दिखाकर ग्रन्थकार महर्षि उक्त गतिसे चलते उन उन विमानोंका पार पा सकते या नहीं ? यही बताते हैं / इत्थ य गई चउत्थिं, जयणयरिं नाम केइ मन्नंति / एहिं कमेहिमिमाहिं, गईहिं चउरो सुरा कमसो // 123 // 360 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानोंका विस्तार जाणनेका उपाय ] गाथा 123-126 [299 विक्खंभं आयामं, परिहिं अभितरं च बाहिरियं / जुगवं मिणति छमास, जाव न तहाबि ते पारं / / 124 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 123-124 / / विशेषार्थ-उक्त चार गतिके नाममें चौथी 'वेगा' गतिको अन्य कोई आचार्य 'यवनान्तरी' नामसे संबोधित करते हैं। यहाँ इतना ध्यानमें रखनेका कि-जो चार गतियाँ कहने में आई, और 223580 ई आदि संख्या कहने में आई, उन्हें अनुक्रमसे प्रयुक्त करें अर्थात् एक कदममें 28350 ई योजन भूमि चलने में आवे तो वह वेग चंडा गतिका चलानेका कहा जाए, इस तरह शेष तीनों गतिके लिए समझना / अब पूर्व गाथामें कही गई चंडा गतिके 283580 यो ई भाग प्रमाणका कदम भरनेसे किसी एक देव विमानके 284 विस्तारको मापना शुरु करे, दूसरा देव चपला गति के 472633 यो० 30 प्रमाणके कदम द्वारा क्मिानके आयामका पार पानेको प्रयाण शुरु करे, तीसरा देव जयणा गतिके 661686 यो० 54 योजन प्रमाणके कदम द्वारा विमानके अभ्यन्तर परिधिको मापना शुरु करे, और चौथा देव वेगा गतिके 850740 यो०१० योजन प्रमाण कदम द्वारा विमानके बाह्य परिधिको पार पाने का प्रयाण शुरु करे। ये चारों देव चारों गतिसे चारों प्रकारके विमानोंके प्रमाणोंको एक ही दिवसको एक ही समय पर एक साथ मापने निकल पडे, निकलकर उक्त चारों गति के प्रमाण द्वारा चलते चलते 6 मास व्यतीत हो जाए, लेकिन उस विमानके चारों प्रकारके आयाम विष्कंभ आदि एक भी प्रकारके विमानप्रमाणान्तको भी कोई भी देव पा नहीं सकते / [123-124 ] अवतरण-किस तरह करनेसे, किस गतिको कितनी गुनी करनेसे विमानके विष्कंभ आदिका पार पावे ? पावंति विमाणाणं, केसिपि हु अहव तिगुणियाए * / कम चउगे पत्तेयं, चंडाई गईउ जोइज्जा // 125 / / तिगुणेण कप्प चउगे, पंचगुणेणं तु अट्ठसु मिणिज्जा / गेविज्जे सत्तगुणेण, नवगुणेऽणुत्तर चउक्के / / 126 / / गाथार्थ--प्रथमके चार देवलोकगत कुछ विमानोंका पार पानेके लिए चंडा-चवलाजयणा और वेगा, इस प्रत्येक गतिका पहले कहे गए प्रमाणसे प्रत्येक गतिको त्रिगुनी वेगवती करके चलने लगे तो पार पा सकती हैं / तत्पश्चात् पाँचवेंसे लेकर अच्युत देवलोक 284. चंडाए विक्खंभो चवलाए तइ य होई आयामो / अभितर जयणाए बाहिपरिहीय वेगाए // 1 // * तिगुणिआईए / Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 125-126 तकके विमानोंका पार पानेके लिए प्रत्येक गतिको पंचगुनी करके उतने योजनप्रमाण गतिसे चलने लगे तो पार पाता है / नौ अवेयकके विमान सातगुनी गतिसे चलने लगे तो पार पावे, और अनुत्तरके चार विमानोंका पार पानेको नौगुनी गति करे तब पार पाते हैं। - // 125-126 // विशेषार्थ-पूर्व गाथामें बताया कि देव उक्त चारों गतिके प्रमाणसे चलने पर भी विमानोंका पार नहीं पा सकते / तब अब क्या करें तो पार पावे ? इसके लिए निम्न अनुसार समझना / 1. 'चंडा' गतिके एक कदममें होते 283580 यो० यो० प्रमाणको त्रिगुना करने पर 850740 यो० भाग प्रमाण प्राप्त होता है। उतने प्रमाणवाला कदम भरता हुआ कोई एक देव पहले चार देवलोकके विमानविस्तारको मापने लगे तो 6 मासमें कुछ विमानोंका पार पा सकता है। 2. 'चवला' गतिके एक कदममें होते 472633 यो० 30 यो० प्रमाणको त्रिगुना करनेसे 141790 यो० 3: भाग प्रमाण होता है / यदि कोई एक देव ऐसे महत्प्रमाणवाला एक ही कदम दूर दूर रखता हुआ पहले चार देवलोकगत विमानोंकी. लम्बाई मापनी शुरू करे तो कुछ विमानोंका पार 6 मासमें पाता है / 3. 'जयणा' गतिके 661686 यो० 54 योजनप्रमाणको त्रिगुना करनेसे 1985060 यो०४२ भाग होता है। इतने प्रमाणका कदम भरता हुआ कोई एक देव पहले चार देवलोकगत विमानोंके आभ्यन्तर परिधि (घेरा)को मापे तो 6 मासमें कतिपय विमानोंको पूर्ण करे / 4. 'वेगा' गतिके आए हुए 850740 यो० योजन प्रमाणको त्रिगुना करनेसे 2552220 यो 14 भाग प्रमाण प्राप्त होता है। इतनेसे कदम भरता हुआ देव चार देवलोकगत कतिपय विमानोंके बाह्य परिधिको 6 मासमें पूर्ण करता है। तत्पश्चात् पाँचवें कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके कल्पगत विमानोंका पार पानेको चंडा-चवलादि प्रत्येक गतिको पंचगुनी करके विमानका विष्कंभ, आयाम, आभ्यन्तर परिधि तथा बाह्य परिधिको यथासंख्य पूर्ववत् 6 मास तक आए प्रमाण द्वारा मापने लगे तो कतिपय विमानोंका पार पाते हैं। साथ ही नवनवेयकके विमानोंका पार पानेके लिए पूर्वोक्त गतिमानको सातगुना करके चलने लगे तो पार पाते हैं। विजय-विजयवन्त-जयन्त-अपराजित इन चार अनुत्तर विमानोंका पार पानेके Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिके बारेमें शंका ] गाथा 125-126 [ 301 लिए उक्त चंडादि चारों गतिके प्रमाणको नौगुना करके चारों प्रकारके परिधिको यथासंख्यगतिसे पूर्वोक्त रीतिसे 6 मास तक मापे तो कतिपय विमानोंका पार पाते हैं। यहाँ सर्वार्थसिद्ध विमानका माप नहीं कहा गया क्योंकि वह विमान तो मर्यादित एक लाख योजनका ही है, जिससे उसे मापनेका होता ही नहीं। ऐसा सर्व इन्द्रक विमानों के लिए समझना। ___ इस मतमें कुछ आचार्य असंमत हैं। वे बताते हैं कि-पूर्वोक्त रीतसे (चंडादि त्रिगुणादिक ) करने पर भी छः मास व्यतीत हो तो भी पार नहीं पा सकते / जिसके लिए कहा है कि चत्तारिवि सकमेहि, चंडाइ गईहिं जाति छम्मास / तहवि नवि जंति पारं, केसिंचि सुरा विमाणाणं // शंका-जब ऐसे महत् महत् प्रमाण द्वारा छः छः मास तक चलने पर भी उस विमानके प्रमाणका पार नहीं पा सकते, तो सिद्धान्तोंके कथनानुसार-परम पुनित सर्व जीवोंको अभयदान देनेवाले जिनेश्वरदेव आदिके च्यवन-जन्म-दीक्षा-केवलज्ञान और मोक्ष इन पंच कल्याणक प्रसंगमें संख्याबन्ध देव पृथ्वीतल पर आकर कल्याणककी महान् क्रियाओंको पूर्ण करके पुनः एक दो प्रहरमें ही लौट जाते हैं। (रात्रिको आकर सुबह होते ही स्वस्थान पर हाजिर हो जाते हैं।) ऐसा जो उल्लेख है वह कैसे चरितार्थ हो सकेगा ? क्योंकि उन उन विमानोंसे मनुष्यक्षेत्रमें आनेमें कई गुना अन्तर प्रमाण रहा है। समाधान-ऊपर जिस गतिका वर्णन किया गया उसका प्रयोजन सिर्फ असंख्याता योजनके प्रमाणोंवाले विमान कैसे महत्प्रमाण सूचक हैं, उसका असत्कल्पना द्वारा दृष्टान्त देकर समझाना मात्र है। नहीं तो वे देव कभी मापने नहीं गये या जानेवाले नहीं, सिर्फ जिस तरह पल्योपमकी स्थितिके वर्णन प्रसंग पर कल्पना द्वारा कालकी सिद्धि की जाती है उसी तरह यहाँ भी एक प्रकारकी असत् कल्पना ही की है कि इस तरह भी चलने लगे तो वे विमानके अन्तका कब पार पावे ? तो बताया कि-छः मासमें। तब हमें सहज विचार आता है कि ये विमान कितने बड़े होंगे ? बाकी तो देव अपने विमानमें ही कई बार घूमते होंगे। अगर वे चाहे तो देखते देखते उन विमानोंके अन्तको पा सकते हैं, क्योंकि उनकी शक्ति अचिन्त्य है, अत्यन्त शीघ्रतर गतिवाले और सामर्थ्ययुक्त है / [125-126] इति वैमानिकेविमानाधिकारः // अवतरण-अब तद्वत् प्रासंगिक गतिकी असत् कल्पनाद्वारा एक राजका प्रमाण दर्शाते हैं / परन्तु यह दृष्टांत घटनीय नहीं है / गतिका वेग और समयकी मर्यादा देखते संख्यात योजन ही मापा जा सकता है / फिर असंख्यात राजप्रमाण किस तरह निकल Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 127-128 सकेगा ? अतः इस गाथाको ओघसे राजमाप महत्तासूचक समझना / प्रथमावृत्तिमें दी है इसलिए रद नहीं की है। जोयणलक्खपमाणं, निमेसमित्तेण जाइ जे देवा / छम्मासेण य गमणं, एगं रज्जु जिणा विति // 127 / / [प्र. गा. सं. 36] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 127 // विशेषार्थ-यदि कोई एक देव पलकमात्रमें एक लाख योजनका प्रयाण करे तो वे छः मासमें एक राजका मार्ग-प्रमाणको पार कर सकते हैं, ऐसा श्री सर्वदर्शी जिनेश्वरदेवोंने कहा है। रत्नसंचयादि ग्रन्थों में एक राज प्रमाणका चित्रण देते हुए यह बताया गया है कि कोई एक महर्द्धिकदेव अतिशय तपित (गर्म) ऐसे एक हजार मन वजनवाले लोहेके ठोस गोलेको मनुष्यलोकमें पहुँचानेकी इच्छासे ऊपरसे एकाएक प्रबल जोरसे फेंके, तब वह गोला चंडागतिके प्रमाणसे नीचेकी ओर आगे घुसता-घुसता छः मास-छः दिन-छः पल जितने काल-समयमें एक राजप्रमाण आकाश पार कर सकता है / इस दृष्टांतसे 'राजप्रमाण 'की : महत्ताकी कल्पना कर ले / जैसे एक बालक पूछे कि 'सागर कितना बड़ा होता है ? तब हम, जिस तरह अपने दोनों हाथोंको चौड़ा करके बताते हैं कि 'इतना बडा....' / इस तरह सागरके असीम मापको (नापको) हम जिस प्रकार दो हाथों में समाकर बालक-बुद्धिको सन्तोष देते है, उसी प्रकार यहाँ व्यवहारके लिए उपरोक्त दृष्टांत दिया है, अतः उसे वास्तविक न समझें, क्योंकि उसी तरह तो संख्यात योजन ही होता है परन्तु असंख्यात होता ही नहीं है / / 127] (प्र. गा. सं. 36) अवतरण-अब आदि और अन्तिम प्रतरवर्ती इन्द्रकविमानका प्रमाण कहते हैं / पढमपयरम्मि पढमे, कप्पे उडुनाम इंदयविमाणं / पणयाललक्ख जोयण, लक्खं सव्वुवरिसव्वटुं / / 128 / / गाथार्थ-वैमानिक निकायके प्रथम सौधर्मकल्पके प्रथम प्रतरमें 'उडु' नामक इन्द्रकविमान पैंतालीस लाख योजनका वृत्त अर्थात् गोलाकारयुक्त है और सबसे ऊपर बासठवें प्रतरमें अनुत्तरकल्पमें एक लाख योजन प्रमाणका गोलाकार 'सर्वार्थसिद्ध' नामक विमान आया है / / 128 // __विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धविमानके देवोंको 'लवसत्तमीया' कहकर पहचाने जाते हैं, क्योंकि अबद्धायुष्क उपशम श्रेणीमें चढे हुए उन देवोंको पूर्वभवमें किए गये तपमें Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासठ इन्द्रक विमानोंके नाम] गाथा 128-133 / 303 अथवा ध्यानमें यदि छंदठका तप और २८५सप्तलव प्रमाण ध्यान अधिक हुआ होता तो वे तद्भवसे सीधे मोक्षमें ही चले गए होते, परन्तु उसी प्रकार न होनेसे उपशम श्रेणीमें ही कालधर्म पाकर शिवनगर-मोक्ष पहुँचने में विश्रामरूप अनुत्तरदेवलोकमें एकावतारी रूपमें उत्पन्न होते हैं / थोड़ा-सा कम ध्यान-तप करनेके परिणामस्वरूप वहाँसे च्यवित होकर उनको पुनः गर्भावासका महान् दुःख फिरसे एक ही बार सहन करना पड़ता है, क्योंकि वहाँसे-देवगतिसे च्यवकर ( अवसान होने पर, स्थानभ्रष्ट होकर ), उत्तम कुलमें जन्म लेकर, वहाँ संयम स्वीकार कर उसी ही भवमें मोक्षमें चले जाते है। ये देव निश्चयसे सम्यक् दृष्टिवाले होते हैं। और वहाँ उनके उपपात शय्या पर जो चँदवा (चंदोवा) आदि होते हैं उनके ऊपर अनेक भाँतके बत्तीस बत्तीस मन तक वननवाले बड़े-बड़े मोती जो लटकते है, वे सब पवनके योगसे. जब आपसमें टकराते हैं तब उनमेंसे मधुरध्वनियाँ-नाद नीकलते हैं। वे ध्वनि उनको अनन्तगुण आनन्द देती हैं / [ 128 ] अवतरण-अब सात गाथाओंसे बासठ इन्द्रक विमानोंके नाम बताते हैं। उडु-चंद-रयय-बग्गू-वीरिय-वरुणे-तहेव आणंदे / बंभे कंचण-रूइले [रे ], वं (च) चे अरुणे दिसे चेव // 129 / / 'वेरुलिय रुयग-रुइरे, अंके फलिहे तहेव तवणिज्जे / मेहे अग्ध-हलिद्दे, नलिणे तह लोहियक्खे य // 130 / / वहरे अंजण-वरमाल- * अरिढे तह य देव-सोमे अ / X मंगल-बलभद्दे अ, चक्क-गया-सोस्थि गंदियावत्ते // 131 / / आभंकरे य गिद्धि, केऊ-गरुले य होइ बोद्धव्वे / / बंभे बंभहिए पुण, बंभोत्तर-लंतए चेव / / 132 // महसुक्क-सहसारे, आणय तह पाणए य बोद्धव्वे / +पुप्फेऽलंकारे अ, आरणे (य) तहा अच्चुए चेव / / 133 // २८५.-जिसकी गवाही उप-रत्ना०की " लवसत्तहत्तरीए" 'सत्तलवाजइआउं तथा सव्वट्ठसिद्धनाम' गाथाएँ तथा भगवतीके 'तणुकेवइयं' इत्यादि सूत्र देते हैं, साथ ही पं. वीरविजयकृत चौसठ प्रकारी पूजामेंसे तीसरी वेदनीयकर्मकी पांचवीं पूजाके भाषा-काव्यमें यह बात सरस रूपसे वर्णित की है / * रिठे देवे य सोममंगलणा बलभद्दे चक्कगया सोवत्थिय नंदयावत्ते / पाठां० _x ‘णंगल'-लाङ्गलः इति पाठां० / .....+ पुष्फमलंकारे आभरणे, तह अच्चुए चेव / / Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 129-135 सुदंसण-सुप्पडिबद्धे, मणोरमे चेव होइ : पढमतिगे / तत्तो य सवओभद्दे, विसाले य सुमणे चेव // 134 // सोमणसे पीइकरे, आइच्चे चेव होइ तइयतिगे / सव्वट्ठसिद्धिनामे, सुरिंदया एव* बासहि // 135 / / [प्र. गा. सं. 37-43 ] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 129-135 // विशेषार्थ-६२ प्रतरके कुल 62 इन्द्रक हैं। उन प्रत्येक इन्द्रकों के नाम यहाँ बताए जाते हैं। सौधर्मके प्रथम प्रतरमें स्थित इन्द्रक विमानका नाम १-'उडु' है / द्वितीयादिक प्रतरमें अनुक्रमसे २-चन्द्र, ३-रजत, ४-वल्गु, ५-वीर्य, ६-वरुणं, ७-आनन्द, ८-ब्रह्मा, ९-कांचन, १०-रुचिर, ११-वंच (चंच), १२-अरुण, १३-दिश, १४-वैडूर्य, १५-रुचक, १६-रुचिर, १७-अंक, १८-स्फटिक, १९-तपनीय, २०-मेघविमान, २१-अघ, २२-हारिद्र, २३-नलिन, २४-लोहिताक्ष, २५-वज्र, २६-अंजन, २७-वरमाल, २८-अरिष्ट, २९-देव, ३०-सौम, ३१-मंगल,२८६ ३२-बलभद्र, ३३-चक्र, ३४-गदा, ३५-स्वस्तिक, ३६-नंदावर्त, ३७-आभंकर, ३८-गृद्धि, ३९-केतु, ४०-गरुड, ४१-ब्रह्म, ४२-ब्रह्महित, ४३-ब्रह्मोत्तर, ४४--लांतक / [टिप्पणी :-इनमें १ली गाथामें कथित् 13 विमान सौधर्मईशान देवलोकके तेरह प्रतरमें योजनेका हैं / तथा १४से 25 तकके बारह विमान तीसरे-चौथे देवलोकके प्रतरवर्ती समझे / 26 से 31 तक पाँचवे देवलोकमें, 32 से 36 तकके छठे देवलोकमें, 37 से 40 तकके सातवें देवलोकमें और 41 से 44 तकके विमान आठवें देवलोकमें जाने।) ४५-महाशुक्र, ४६-सहस्रार, ४७-आनत, ४८-प्राणत, ४९-पुष्प, ५०-अलंकार, ५१-आरण, ५२-अच्युत, ५३-सुदर्शन, ५४-सुप्रबुद्ध, ५५-मनोरम, ५६-सर्वतोभद्र, ५७विशाल, ५८-सुमन, ५९-सौमनस, ६०-प्रीतिकर, ६१-आदित्य, ६२-सर्वार्थसिद्ध, इस तरह 62 इन्द्रकविमान वैमानिक निकायमें हैं। [टिप्पणी :-45 से 48 तकके विमान नवें-दसवें देवलोकके, 49 से 52 तकके आरण-अच्युतके, 53 से 61 तकके नवग्रैवेयक और ६२वाँ अनुत्तर देवलोकका प्रयोजे / इस तरह इन्द्रकविमानोंके नाम बताए गये हैं।] - बोद्धव्वे // $ विसालए सोमणे इय // * एते // 286. इस विषयमें नाममें कई मतांतर है, अतः वे संग्रहणी टीकाएँ तथा देवेन्द्र-नरकेन्द्र. प्रकरणमेंसे देख ले। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासठ इन्द्रक विमानोंके नाम ] गाथा 129-135 [ 305 अब चारों ओर पंक्तिगत रहे हुए विमानके नाम जणाते हैं, उनमें 'करण'की परिभाषा करके उदाहरणके साथ बताते हैं / जिस देवलोकमें इन्द्रक विमानका जो नाम है, उस नामके साथ 'प्रभ' शब्द जोड़कर उसे देवलोकमें पूर्व दिशासे शुरु होती पंक्तिके प्रथम विमानका नाम समझ ले / दूसरे विमानसे लेकर तो आगे कहे जानेवाले मात्र 61 नाम अन्तिम भाग तक कहने है। पश्चिम दिशागत 62 पंक्तिके प्रथम विमानके नाम जाननेके लिए उन देवलोकके इन्द्रक विमानोंके नामोंके साथ 'शिष्ट' शब्द जोडे, जिससे उस उस देवलोकके प्रारम्भके विमानोंका नाम समझ सके; अर्थात् इस पंक्तिके दूसरे (द्वितीय) विमानसे आगे कहे गये 61 नामोंके साथ क्रमशः ‘शिष्ट' शब्द लगाकर 62 वे विमान तक पहुंचे। ___दक्षिण दिशाकी पंक्तियों के प्रथम त्रिकोण (त्रिमुख ) विमानोंके नाम जाननेके लिए उस उस देवलोकके इन्द्रक विमानोंके नामोंके साथ 'मध्य' शब्द जोड़े। दूसरे विमानसे लेकर 62 तक नीचे कहे गये नामोंके साथ 'मध्य' शब्दका प्रयोग करे। उत्तर दिशाकी पंक्तियों के पहले त्रिकोण विमानोंके नाम जाननेके लिए उस उस देवलोकके विमानोंके साथ 'आवर्त' शब्द प्रयोजे / दूसरे (द्वितीय ) से लेकर अन्तिम पंक्तिके अन्त तक नीचे कहे जानेवाले (बताए गए) 61 नामोंके साथ अनुक्रमसे 'आवर्त' शब्द लगाएँ। .. दूसरेसे लेकर ६२वें तक बताए गए विमानोंके नाम इस प्रकार हैं / २-स्वस्तिक, ३-श्रीवत्सक, ४-वर्द्धमानक, ५-अंकुश, ६-झष, ७-यव, ८-छत्र, ९-विमल, 10- कलश, ११-वृषभ, १२-सिंह, १३-सम, १४-सुरभि, ५५-यशोधर, १६-सर्वतोभद्र, १७-विमल, १८-सौवत्सिक, १९-सुभद्र, २०-अरज, २५-विरज, २२-सुप्रभ, २३.-इन्द्र. २४-महेन्द्र, २५-उपेन्द्र, २६-कमल, २७-कुमुद, २८-नलिन, २९-उत्पल, ३०-पद्म, ३१-पुण्डरीक, ३२-सौगन्धिक, ३३-तिगिच्छ, ३४-केशर, ३५-चम्पक, ३६-अशोक, ३७-सोम, ३८-शूर, ३९-शुक्र, ४०-नक्षत्र, ४१-चन्दन, ४२-शशी, ४३-मलय, ४४-नन्दन, ४५-सौमनस, ४६-सार, ४७-समुद्र, ४८-शिव, ४९-धर्म, ५०-वैश्रमण, ५१-अंबर, ५२-कनक, ५३-लोहिताक्ष, ५४-नन्दीश्वर, ५५-अमोघ, ५६-जलकान्त, ५७-सूर्यकान्त, ५८-अव्याबाध, ५९-दोगुन्दक, ६०-सिद्धार्थ, ६१-कुण्डल, 62 -सोम / इस प्रकार प्रथम सौधर्म देवलोकका चरितार्थपन कर दिखाया / . प्रथम इन्द्रक विमानका नाम (सौधर्मके प्रथम प्रतरमें ) 'उडु' है। उस विमानकी पूर्व दिशाकी पंक्तिके प्रथम विमानका नाम 'उडुप्रभ,' दूसरेका स्वस्तिक, तीसरेका श्रीवत्सक बृ. सं. 39 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी . [ गाथा 129-137 इस प्रकार 61 नाम पूर्वदिशाकी पंक्तिके कह दे। शेष रही तीन पंक्ति, उनमें उपरोक्त कथनानुसार पश्चिम दिशाकी पंक्तिके प्रथम त्रिकोणविमानका नाम उडुशिष्ट, दूसरा विमान स्वस्तिकशिष्ट, तीसरेका श्रीवत्सशिष्ट, इस तरह 61 नामोंको ‘शिष्ट' शब्द लगाकर पंक्ति समाप्त करे। इस प्रतरके दक्षिण दिशाकी पंक्तिके प्रथम विमानका नाम उडुमध्य, दूसरेका स्वस्तिकमध्य, तीसरेका श्रीवत्समध्य, इस तरह 61 नाम 'मध्य' शब्दसे सम्बोध कर समाप्त करे / अब रही अन्तिम चौथी पंक्ति। उस पंक्तिके प्रथम विमानका नाम 'उडुआवर्त', दूसरेका नाम स्वस्तिकआवर्त, तीसरेका श्रीवत्सआवर्त, इस तरह 61 नाम 'आवर्त' शब्द लगाकर पूर्ण करे। इस तरह अन्यत्र भी समझ ले। पुष्पावकीर्ण विमान कैसे नामवाले होते है ? तो इष्ट वस्तुओंके जितने नाम होते . हैं, उन नामवाले, सौभाग्यवाली वस्तुओंके नामवाले जो परिणाम विशेषादि वस्तुओंके और अन्तमें तीनों जगतमें द्रव्योंके जितने भी नाम हैं उन सभी नामवाले पुष्पावकीर्ण विमान होते हैं / (129-135 ) (प्र. गा. सं. 37 से 43 ) अवतरण-पूर्व 129 से 135 गाथामें इन्द्रक पंक्तिगत तथा पुष्पावकीर्ण विमानोंके नाम बताये थे / अब लोकमें 45 लाख योजन और लाख योजन प्रमाणवाली कौन कौनसी चीजें शाश्वत होती हैं ? वे बताते हैं पणयालीसं लक्खा, सीमंतय माणुसं उडु सिवं च / .. अपइट्ठाणो सम्वट्ठ, जम्बूदीवो इमं लक्खं // 136 / / (प्र. गा. सं. 44) गाथार्थ-इस चौदह राजलोकमें पहले नरकके प्रथम प्रतरमें आये हुए सीमन्त नामक इन्द्रक नरकावास, मनुष्यक्षेत्र, उडु नामक विमान और सिद्धशिला इन चारों वस्तुएँ पैंतालीस लाख योजन प्रमाणयुक्त है और सातवें नरकके अन्तिम प्रतरमें अप्रतिष्ठित नरकावास तथा अनुत्तर कल्पमें स्थित सर्वार्थसिद्ध नामक विमान और जम्बूद्वीप इन तीनों वृत-वस्तुएँ एक लाख योजन प्रमाणयुक्त है। // 136 // विशेषार्थ-सुगम है। [136] (प्र. गा. सं. 44) इत्यावलिकागतानां-पुष्पावकीर्णानां च विमानानां स्वरूपम् / / अवतरण--अब चौदह राजकी गिनती किस तरह है ? और हरेकका मर्यादास्थान कहाँ है ? वह कहते है तथा ग्रन्यांतरसे कुछ अधिक स्वरूप भी कहेंगे / अह भागा सगपुढवीसु, रज्जु इक्विक तह य सोहम्मे / माहिंद लंत सहसारऽच्चुय, गेविज्ज लोगते // 137 // Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह राजलोककी गिनती, मर्यादास्थान तथा स्वरूप ], गाथा-१३७ [ 307 गाथार्थ-अधोभागमें सातों नरक पृथ्वी एक एक राज प्रमाण समझें, जिससे सात नरक पूरे होते सात राज होते हैं। इसे स्थूल परिभाषा समझना। और वहाँसे लेकर सौधर्म युगलमें आठवाँ राज, माहेन्द्रमें नौवाँ राज, लान्तके दस, सहस्रारे ग्यारह, आरण-अच्युतान्ते बारह, नवग्रैवेयकान्ते तेरह और वहाँसे लोकान्ते चौदहवाँ राज पूर्ण होता है / ‘रज्जुइक्विक्क' यह पद देहलीदीपक न्यायकी भाँति दोनों तरफ घटानेका है। // 137 // विशेषार्थ यह लोक चौदह राज प्रमाण है। उसमें प्रथम सातवें नरकके अन्तिम तलवेसे ( अधो लोकान्तसे ) लेकर, उसी सातवें नरकके ऊपरके तलवे तक पहुँचते एक रज्जु प्रमाण बराबर होता है। वहाँसे लेकर छठी नारकीके उर्ध्व छोर पर पहुँचते दो रज्जु, पाँचवींके अन्तमें तीन रज्जु, चौथीके अन्तमें चार रज्जु, तीसरी नारकीके अन्तमें पाँच, दूसरीके अन्तमें छः और पहली नारकीके उपरितन तलवे पर पहुँचते सात रज्जु होते हैं, ( इसे स्थूल परिभाषा समझे ) वहाँसे आगे चलकर तिर्यक्लोक पार करके सौधर्म ईशान कल्पमें ऊपरितन प्रतर पर जाते आठ, सनत्कुमार--माहेन्द्र युगलमें अन्तिम प्रतर पर जाते नौ, ब्रह्म कल्पको पार करके लांतक कल्पान्त पर दस, महाशुक्र कल्प पार करके सहस्रार देवलोकके अन्तमें ग्यारह, आरण-अच्युतान्त पर बारह, ग्रैवेयकान्तमें २८७तेरह, अनुत्तरको पार करके सिद्धस्थानान्त पर पहुँचते चौदह रज्जु सम्पूर्ण होते हैं। वे पूर्ण होते ही लोक पूर्ण हुआ और उसके बाद आलोककी शुरूआत होती है। इस प्रकार धर्मानारकीके ऊपरके भाग पर सात और निम्न भाग पर सात यों कुल मिलकर चौदह राज बराबर होता है। अधो, तिर्यक् और उर्ध्व-इन तीनों स्थलोंको ‘लोक' शब्द लगाकर बोला जाता है / अधो भागमें अधिक सात राज पृथ्वी है और उर्ध्व भागमें कुछ न्यून सात राज * पृथ्वी है। दोनों मिलकर चौदह राजलोक सम्पूर्ण होता है। यह लोक 'वैशाख' संस्थानमें अर्थात् दोनों हाथोंको कमर पर रखकर, दोनों पैर चौड़ा . 287. यह अभिप्राय आ. नियुक्ति-चूर्णि तथा जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणजी कृत संग्रहणीका है, परन्तु श्री योगशास्त्रके अभिप्रायसे तो समभूतल रुचकसे सौधर्मान्तमें देढ रज्जु, माहेन्द्रान्ते ढाई, ब्रह्मान्ते तीन, सहस्रारमें चार, अच्युतान्तमें पांच, ग्रैवेयकान्तमें छः और लोकान्तमें सात ऐसा ही अभिप्राय लोकनालिकाका समझाता है / साथ ही श्री भगवतीजी आदिमें तो धर्मा रत्नप्रभा पृथ्वीके नीचे असंख्य योजन पर लोकमध्य है ऐसा कहा है। उसके आधार पर तो वहाँ सात राज पूर्ण होते ही वहाँसे उर्धकी गिनती शुरू होती है। इस लोकके विषयमें तीनों लोकका मध्य भागका निर्णय करनेमें कुछ परामर्श (चर्चा-विचारणा ) करना - जरूरी है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-१३७ करके जो टगर-टगर खड़ा हो उस पुरुष जैसा है, अथवा लम्बे काल तक उर्ध्व दम लेनेसे, वृद्धावस्थाके कारण मानों बहुत ही थककर विश्रान्तिके लिए निःश्वास उतारकर सहसा शान्तिको इच्छता पुरुष जिस तरह कटि भागमें हाथ देकर, अपने पैरोंको चौड़ा रखकर खड़ा हो, ऐसी लोकाकृति है। तीसरे प्रकारसे २८८त्रिशराव संपुटाकार, चौथी रीतसे (दधि, दहीका ) मंथन करती उस युवान स्त्री जिस आकारकी दिखती हो उस . आकार सा दिखायी देता है। ___यह लोक किसीने बनाया नहीं है, ( यह ) स्वयंसिद्ध, निराधार और सदाशाश्वत है, इसलिए इतरदर्शनोंकी लोकोत्पादक, पालक और संहारककी जो प्ररूपणा है वह असत्य स्वरूप है। यह लोक पंचास्तिकाय अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जिवास्तिकाय, और पुद्गलास्तिकायमय है और उस उस द्रव्य स्कंध-देश-प्रदेश-परमाणुसे क्रमशः व्याप्त है / वे सभी द्रव्य, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण आदि भावोंसे युक्त है। . इस चौदह राजलोकमें सजीवोंके प्राधान्यवाली, चौदह राज प्रमाण (56 खंडुक) लम्बी, और एक राज प्रमाण चौड़ी सनाडी आयी है। जिनमें एकेन्द्रियसे लेकर . पंचेन्द्रिय तकके जीव तथा तीनों लोकसे समाविष्टयुक्त है / इसके बाहरके लोकक्षेत्रमें मात्र एकेन्द्रिय ही जीव है। समग्र चौदह राजलोक क्षेत्रका मध्य (केन्द्र, सेन्टर) धर्मापृथ्वीको लपेटकर आये हुए असंख्य योजन आकाश क्षेत्र पार करनेके बाद आता है / अधोभागका मध्य चौथे नारकके असंख्य योजन आकाश बीतानेसे प्राप्त होता है / तिर्यक् (मध्य) लोकका मध्य अष्टरुचकप्रदेश है / और उर्ध्वलोकका मध्य बह्मकल्पके तीसरे रिष्टप्रतर पर कहा हैं / उर्ध्वलोक सात रज्जुसे न्यून मृदंगाकारमें, तिर्यक् लोक 1800 यो० डमरुक आकारमें और अधोलोक सात रज्जुसे अधिक अधोमुखी कुम्भी आकारमें है। ___अधोलोकमें नारक, परमाधामी और भवनपति देव-देवियाँ इत्यादिके स्थान हैं। ति लोकमें व्यन्तर, मनुष्य असंख्य द्वीप-समुद्र और ज्योतिषीदेव आये हैं। इसी तिर्छालोकमें मुक्तिप्राप्तिके साधनका योग सुलभ कहा है / ऊर्ध्वलोकमें सदानन्दनिमग्न उत्तमकोटीके वैमानिक देव तथा उनके विमान आये हैं / और उनके बाद सिद्ध परमात्मासे युक्त सिद्धशिलागत सिद्ध परमात्मा आये हैं। 288. एक शराव ( तश्तरी, थाल ) उल्टा, उसके ऊपर एक सीधा और उसके ऊपर फिरसे एक उल्टा शराव रखनेसे सम्पूर्ण लोकका आकार हो सकता है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंका भवधारणीय वैक्रिय शरीरका प्रमाण ] गाथा-१३८ / 302 इस प्रकार यहाँ संक्षेपमें लोक स्वरूप बताया / तदुपरांत सविस्तर स्वरूप तथा खण्डुक विचारणा सूचि-प्रतर-घन-रज्जु आदिका स्वरूप 28 ग्रन्थांतरसे (चित्रमेंसे भी ) देखे / [137] Sciencamisacancarcancer: 3 // तृतीय अवगाहना द्वार // अवतरण-चारों प्रकारके देवोंका दूसरा भवन द्वार तथा तदाश्रयी अन्य वर्णन बताकर उन्हीं ही देवोंका तृतीय 'अवगाहना' द्वार शुरू करते हैं, तथा उसमें प्रासंगिक अन्य वर्णन भी करेंगे / इस गाथामें तो उनके भवधारणीय वैक्रियशरीरका प्रमाण कहाँ कितना होता है ? यह भी बताते है / भवण-वण-जोइ-सोहम्मीसाणे सत्तहत्थ तणुमाणं / दु दु दु चउक्के गेवि-ज्जऽणुत्तरे हाणि इविक्के // 138 / / गाथार्थ-भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा वैमानिक निकायमें प्रथम-सौधर्म-ईशान इन दोनों देवलोकके देवोंका देहमान सात हाथका, उसके बाद तीनबार दो-दो देवलोकके जोड़में, तदनन्तर कल्पचतुष्कमें, बादमें गैवेयकमें और अनुत्तरमें अनुक्रमसे एक-एक हाथकी हानि करे / // 138 // विशेषार्थ-विशेषमें सनत्कुमार-माहेन्द्र देवलोकमें छः हाथका, ब्रह्म-लांतक दोनों कल्पमें पाँच हस्तका, शुक्र-सहस्त्रारमें चार हस्तका, आनत-प्राणत-आरण-अच्युत इन चारों कल्पमें तीन हाथका, नौ ग्रैवेयकमें दो हाथ और अनुत्तरमें एक २८°हाथका मात्र शरीर होता है / ज्यों ज्यों ऊपर बढ़ते है त्यों त्यों देहमान, नूतन कर्मबन्धन, कषाय भावकी परिणति इत्यादि घटता जाता है / जबकि आयुष्यमान, निर्मलता, पौद्गलिक सुख इत्यादि क्रमशः बढ़ता जाता है। [138] 289. प्रथमावृत्तिमें तैयार होने पर भी जिसे देना रोक दिया था उस चौदह राजलोक, नवलोकांतिक, तमस्काय इत्यादिका स्वरूप परिशिष्टके रूपमें भी इस आवृत्तिमें देनेका विचार है / 20.0. यह मान उत्कृष्ट आयुष्यवाले ( 33 सागरोपम ) सर्वार्थसिद्ध देवोंके लिए है / परन्तु जिनकी विजया दिन पर जघन्य 31 सागरोपमकी स्थिति है उनके लिए दो हाथोंका और 32 सागरोपमकी मध्यम स्थिति है उनका शरीर एक हाथ और हाथके ग्यारहवां भाग जितना होता है / इस तरह. हरेक कल्प तथा ग्रैवेयकमें समझना है / सुगमताके लिए गाथा १४२का यन्त्र देखिए / Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 139-141 अवतरण-पहले देवोंकी सामान्यतः स्थिति बतायी / अब सागरोपमकी वृद्धिसे विश्लेषकरणमें उपयोगी ऐसी प्रत्येक प्रतरमें देवोंकी स्थिति बताने इस गाथाकी रचना ग्रन्थकारने की है / अतः पुनरुक्ति दोष असम्भवित है। कप्पदुग-दु-दु-दु-चउगे, नवगे पणगे य जिट्ठठिइ अयरा / दो सत्त चउदऽठारस, बावीसिगतीसतित्तीसा // 139 // गाथार्थ-वैमानिकनिकायके प्रथम दो कल्पमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति दो सागरोपमकी है। उसके बाद सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलकी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमकी, ब्रह्म और लांतक कल्पमें चौदह सागरोपमकी, शुक्र सहस्रार युगलकी अठारह सागरोपमकी, आनत-प्राणत और आरण अच्युत इन चारों कल्पमें बाईस सागरोपमकी, नौ ग्रेवेयकमें इकतीस सागरोपमकी और . २४'पाँच अनुत्तरमें तीस सागरोपमकी आयुष्य स्थिति है / // 139 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम हैं / [ 139] अवतरण-१३८वीं गाथामें प्रत्येक कल्पगत देवोंका सामान्यतः शरीरप्रमाण बताया गया है / ज्यों सनत्कुमार युगलमें 6 हाथका शरीरप्रमाण उस प्रथम प्रतरवर्ती सात सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका मुख्यतः कहा जा सकता है, परन्तु उसी कल्पके अन्य प्रतरवर्ती देव कि जिनकी 3-4-5-6 सागरोपमकी स्थिति है उनका बताया नहीं है; त्यों समग्र कल्पमें कल्पाश्रयी उत्कृष्ट स्थिति बतायी है परन्तु प्रतिसागरोपमकी वृद्धिसे प्रत्येक प्रतरवर्ती देवोंका शरीरप्रमाण कितना न्यून होता है वह बताया नहीं है। इसलिए अब करणके माध्यमसे यथोक्त सागरोपम आयुष्यकी वृद्धिके क्रमसे आगे आगे हीन-हीनतर होते शरीर अवगाहनाके यथोक्त प्रमाणको प्रतिपादन करनेवाली दो गाथाएँ कही जाती हैं। . विवरे ताणिक्कूणे, इक्कारसगाउ पाडिए सेसा / हत्थिक्कारसभागा, अयरे अयरे समहियम्मि / / 140 // चय पुवसरीराओ, कमेण एगुत्तराइ वुड्ढीए / . एवं ठिइविसेसा, सणंकुमाराईतणुमाणं / / 141 / / - गाथार्थ- उत्तरकल्पगत अधिक स्थितिमेंसे पूर्वकल्पगतकी जो कम स्थिति है उसको 291. अन्य स्थान पर विजयादि चार अनुत्तरमें उत्कृष्ट स्थिति 32 सागरोपमकी तथा सर्वार्थसिद्धमें 33 सागरोपमकी स्थिति कही है जिसकी गवाही तत्त्वार्थ 4-2, प्रज्ञापना, समवायांग आदि ग्रन्थ देते हैं / लेकिन उस 32 सागरोपमकी स्थिति सामान्यतः एक एक सागरोपमकी वृद्धिके 'करण' क्रममें आती है इसी लिए वैसी विवक्षा की होगी; वरना 33 सागरोपम योग्य है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलकल्पमें करण योजना ] गाथा 140-141 [ 311 कम (विश्लेष) करके, आयी हुई संख्यामेंसे एककी संख्या कम करे, और अब जो संख्या आये उसे एक हाथके ग्यारह भाग कल्पित करके. उनमेंसे कमी करनेके बाद जो संख्या शेष रहे उसको पुनः (फिरसे ) पूर्वपूर्वकल्पगत अन्तिम प्रतरवर्ती यथोक्त शरीरप्रमाणमेंसे कमी करनेसे जितनी हस्त संख्या और ग्यारहविए भागोंकी संख्या आये वह; यथोत्तरकल्पमें प्रारम्भके प्रतर पर जितने सागरोपमकी स्थितिवाले देव होते हैं उनका शरीरप्रमाण आये / पुनः उसी प्रतरने आयुष्यमें एक एक सागरोपमकी वृद्धि करते चले और साथ साथ ( उत्तरोत्तर देहमान घटता होनेसे ) शेष रहते ग्यारहविए भागोंमेंसे एक एक भाग अनुक्रममें आगे आगे हीन (कमी) करते जाना / इस तरह करते करते हरेक कल्पगत यथोक्त सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका सम्पूर्ण शरीरप्रमाण आता है / // 140-141 / / / विशेषार्थ-विशेषार्थमें गाथार्थको विशेष रूपमें स्फुट न करते हुए उस गाथार्थको दृष्टांत (घटना )के साथ घटा देते हैं, साथ-साथ सौधर्म-इशान कल्पयुगलमें यह विश्लेषकरण ( उसके पूर्व कल्पारम्भ न होनेसे ) अनावश्यक है, जो सहज ही समझ सकते है, इसीलिए सनत्कुमार माहेन्द्रादि युगलमें बताया जाता है। सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलकल्पमें करण योजना उत्तरकल्पगत स्थिति अर्थात् सनत्कुमार-माहेन्द्रयुगलवर्ती सात सागरोपमकी जो अधिक स्थिति है, उसमेंसे पूर्वकल्पगत [ सौधर्म-ईशानवर्ती दो सागरोपमकी ] जो न्यून स्थिति है, इसी अधिक और न्यूनस्थितिके बीच विश्लेष (कमी ) करनेसे 7-2 = 5 सागरोपमकी संख्या आयी; उनमेंसे एककी संख्या कमी करनेकी होनेसे पाँचमेंसे एक जानेसे चार सागरोपम शेष रहे। . . [सौधर्म और सनत्कुमार युगलके बीच सिर्फ एक हाथका भेद रहता है अर्थात् उतनी कमी रहती है / उसी एक हाथ प्रमाणको उत्तरकल्पगत बाँट देना है। इसीलिए उस एक हाथके अमुक भागोंकी कल्पना करके पूर्वकल्पगत जो आयुष्यस्थिति है उसके साथ विश्लेष (कम) करने के बाद आयी हुयी भाग-संख्याको पूर्वकल्पगतके (सौधर्म युगलके) शरीरप्रमाणमेंसे कमी करके, उत्तर (सनत्कुमार) कल्पगत अनुक्रमसे प्रतिसागरोपमकी वृद्धिमें तथा अनुक्रमसे उन भागोंकी कमी करते चले तो उस उस सागरोपमकी स्थितिके देवोंका इच्छित प्रमाण मिलता है। उपरोक्त मतानुसार बाँटने योग्य एक हाथ प्रमाणकी कुछ ऐसी अमुक संख्या सोचे कि जिससे सनत्कुमार युगलके प्रारम्भकी तीन सागरोपमकी स्थितिसे लेकर सात सागरोपम तक (विश्लेषकरण करनेके बाद ) बाँटा जा सके और ऐसा करनेसे अन्तमें सात सागरोपमकी / स्थिति तक पहुँचते हमें देवोंका छः हाथका यथोक्त देहप्रमाण भी मिल सके / Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 140-142 __ अब इसके लिए ग्रन्थकार महाराज स्वयं ही एक हाथके ग्यारह भाग कल्पते है, उन कल्पित ग्यारह भागोंमेंसे पूर्वमें विश्लेष करते शेष आयी हुयी चार सागरोपमकी संख्याको कमी करनेसे अर्थात् (सागरोपमकी स्थिति और हिस्सोके बीच विश्लेष करनेसे ) सात भाग संख्या आये, इस 1 ( सात बँटा ग्यारह भाग समझना) ग्यारहविए सात भागको सौधर्म ईशान युगलके पूर्वगाथामें कहे गए सात हाथ प्रमाणमेंसे कम करे, जिससे 6 हाथ और / (6 ) भाग शरीरप्रमाण सनत्कुमारमाहेन्द्र युगलके (पूर्वकल्पमें प्रवर्तमान यथायोग्य सागरोपमकी आयुष्यस्थितिमें एक एक सागरोपमकी वृद्धि और एक एक भागकी कमी करते जानेसे ) तीन सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका देहमान आता है / इस तरह प्रति सागरोपमकी वृद्धि करनेसे और प्रतिभाग संख्या कम करनेके नियमसे चार सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका देहमान 6 हाथ और में भाग आता है / पाँच सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका 6 हाथ की भागका, 'छः सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका 6 हाथ की भागका और सात सागरोपमकी स्थितिवाले सनत्कुमारेन्द्रमाहेन्द्र देवोंका देहमान एक कम करनेसे 6 हाथका यथार्थ आता है। ब्रह्म लांतकमें देहमान विचार ब्रह्म-लांतककल्पकी उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपमकी है और उसके नीचे सनत्कुमारमाहेन्द्र युगलकी स्थिति सात सागरोपमकी है, नियमानुसार उसका विश्लेष करनेसे सातकी संख्या शेष रहती है, उसमेंसे फिरसे एक कम करनेसे 6 संख्या आयी, अब एक हाथके ग्यारह भाग करके उनमेंसे 6 संख्या कम करनेसे 5 भाग आये, उन पाँच भागोंको पूर्वकल्पके अन्तिम प्रतरवर्ती देवके छः हाथके देहमानमेंसे कम करनेसे 5 हाथ और न भागका देहमान ब्रह्मकल्पमें आठ सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका, 5 हाथ / भागका देहमान नौ सागरोपमकी स्थितिवालोंका, 5 का हाथ दस सागरोपमवालोंका, 5 ग्यारह सागरोपमवालोंका, 5 को बारह सागरोपमवालोंका, 5 का मान तेरह सागरोपमवालोंका और पाँच हाथोंका मान चौदह सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका जाने / [140-141] अवतरण-पूर्व वैमानिक निकायवर्ती देवोंका भवधारणीय शरीरप्रमाण कहा, अब उन देवोंका उत्कृष्ट शरीरमान उत्तरवैक्रियकी अपेक्षासे कितना है ? यह बताते हैं भवधारणिज्ज एसा, उक्कोस विउब्धि जोयणा लक्खं / गेविज्ज-ऽणुत्तरेसुं, उत्तरवेउव्विया नत्थी // 142 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 142 // विशेषार्थ-उस तरह देवोंका भवधारणीय वैक्रिय शरीरका उत्कृष्टमान कहकर अब देहलीदीपक न्यायसे उक्कोस शब्दसे उन देवोंका उत्कृष्ट उत्तरक्रिय देहमान कितना होता है ? वह बताते हैं। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंका भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीर ] गाथा-१४२ [313 ग्रन्थकारने गाथामें लिखा है कि-हमने उक्त स्थिति भवधारणीय शरीरकी बतायी है, तो अब भवधारणीय क्या है ? उसे हम समझ ले। भवधारणीय शरीर - 'सुरैर्देवायुः समाप्ति यावत् सततं धार्यते असौ भवपर्यन्तं धारणीयं वेति भवधारणीयम्' / अपने आयुष्यकी समाप्ति तक देव जिसे सतत धारण करते हैं अथवा सारे जीवन तक जो रहनेवाला है उसे भवधारणीय कहा जाता है / देवोंके भवप्रत्ययिक (भवधारणीय) शरीर और उत्तरवैक्रिय शरीरके बीच अन्तर रहा है / जब कि पूर्वभवमें बँधे वैक्रिय शरीरनामकर्मके उदयसे उनको यह प्राप्त होता है इसलिए उसे 'भवधारणीय वैक्रियशरीर' सम्बोधन किया जा सकता है / परन्तु उत्तरवैक्रियके लिए वैसा नहीं है, वह शरीर तो भवपरत्वसे प्राप्त हुआ होता है / साथ ही भवधारणीय विशेषण देकर यह समझाते हैं कि यह शरीर जन्मकालके हेतुरूप है, और वह देवोंके पास यथायोग्य आयुष्यकाल तक रहनेवाला है / साथ साथ देव रचित वैक्रियवर्गणाका पुद्गलोंसे बने उत्तरवैक्रिय शरीरका मर्यादितकाल पूर्ण होते तुरन्त ही उसे पुनः मूल शरीरमें दाखिल होना ही पड़ता है और देवोंके च्यवनकाल तक भी वह ही शरीर होता है / इस तरह भवाश्रयी मुख्य रूपमें जो शरीर है, उसे भवधारणीय कहते हैं / इस शरीरकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्व कह दी गयी है / अतः अब उत्तरवैक्रियकी परिभाषा समझाते हैं / / उत्तरवैक्रिय शरीर 'वैक्रियमिति-विशेषा-विविधा क्रिया सहजशरीर-ग्रहणोत्तरकालमाश्रित्य क्रियते इति उत्तरवैक्रियम्'। स्वाभाविक-भवधारणीय शरीर ग्रहण रहित समयमें विविध प्रकारकी क्रिया-आकृति करनेवाले शरीरको उत्तरवैक्रिय शरीर कहा जाता है। . - देवोंका यह उत्तरवैक्रियशरीर लब्धिप्रत्ययिक, तद्भवाश्रयी प्राप्त शक्तिवाला होता है / पूर्व की गयी व्युत्पत्तिके अनुसार इस उत्तरवैक्रियशरीरकी रचना अनेक प्रकारसे इच्छानुकूल हो सकती है / एक होता हुआ अनेक हो सकता है-अनेक होते हुए एक हो सकता हैं, भूचर होते हुए भी खेचर हो सकता है, खेचर (गगन चर, गगनगामा ) होकर भूचर (भूमि चर) भी तुरन्त हो सकता है / छोटेमेंसे बड़ा, बड़ेमेंसे छोटा, भारीसे हलका और हलकेसे भारी होता है, द्रश्यसे अद्रश्य और अद्रश्यसे द्रश्य होता है, इस तरह हरेक प्रकारकी अद्भुत, भाँतिभाँतिकी विविध और विचित्र क्रियारूप आकृतियाँ बनानेवाला यह शरीर है / और यह वैक्रियवर्गणाके पुद्गलसे ही हो सकता है। उपरोक्त दोनों 7. सं. 40 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१४२ शरीर स्व-स्व काल पूर्ण होते ही विस्रसा पुद्गलवत् मुक्ति (विलीन, मृत्यु) पानेके स्वभाववाले होते हैं। इस उत्तरवैक्रिय शरीरकी रचना उत्कृष्टसे एक लाख योजन प्रमाणकी हो सकती है और इस उ. वै. शरीरकी रचनाका ( उसका काल) उत्कृष्टमें उत्कृष्ट काल " देवेसु अद्धमासो उक्कोसविउव्वणाकालो" इस वचनसे आधे मासका है / उस काल पूर्ण होते हुए ही पुनः वह उत्तरवैक्रिय शरीररचना पुनः विस्रसा पुद्गलवत् स्वतः लुप्त ( विलीन ) हो जाती है और तुरन्त ही भवधारणीय वैक्रियशरीर धारण कर लेना पड़ता है। यदि उस काल पूर्व रचित उत्तरवैक्रिय शरीरकी अनावश्यकता दिखायी दे और उसे विलीन करना हो तो उपयोग (बुद्धि) पूर्वक विलीन (लुप्त ) भी कर सकते हैं / इस उत्तरवैक्रिय शरीरको रचना (धारण करना ) यह नवप्रैवेयक तथा सर्वोत्तम ऐसे अनुत्तर विमानवासी देवोंमें होता नहीं है / साथ ही ज्यों अन्य देव जिनेश्वर भगवन्तके कल्याणकादि प्रसंग पर अथवा अन्य गमनागमनादि प्रसंग पर उत्तरवैक्रिय करके मनुष्यलोकमें आते है, वैसे इस देवोंको तथाप्रकारका कल्प ही ऐसा है कि उनको यहाँ आनेका प्रयोजन होता ही नहीं है, परन्तु वहाँ भी शय्या पोढ्या थका नमस्कारादि करनेरूप शुभ भावना करते है, अतः अचिंतनीय शक्ति होने पर भी २४२प्रयोजनाभावसे ' उत्तरवैक्रियशरीर रचना नहीं है। ऐसा शब्द प्रयोग किया है / साथ ही वे वस्त्रालंकाररहित है। जन्मसे ही वे अति सुन्दर, दर्शनीय और दसों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले है / साथ ही वहाँ प्रवर्तमान चैत्य प्रतिमाओंको शय्यामें रह-रहकर साधुकी तरह भक्तिभावसे ही पूजते है। वहाँ गाननाटकादि कुछ होता ही नहीं है / [142] 292. इससे ही ग्रैवेयक तथा अनुत्तरवासी देव स्वविमानकी शय्यामें रहते हुए द्रव्यानुयोगादि सम्बन्धमें विचारणा-मनन करते किसी न किसी विषयमें जब शंकाग्रस्त बनते है तब वे देव वहाँ रहकर ही मनसे केवली भगवंतसे प्रश्न करते है कि हे भगवन् ! मेरी इस शंकाका समाधान क्या ? इस समय त्रिकालज्ञानी भगवंत कि जो तीनों कालोंके सर्व भावोंको एक ही साथ एक ही समयमें आत्मप्रत्यक्ष देख-जान सकते हैं वे भगवंत घातीकर्मक्षयसे उत्पन्न हुए केवलज्ञानके परिबलसे देवोंकी उन शंकाओंको युगपत् जाननेके बाद उनका समाधान करनेके लिए द्रव्यमनसे मनोवर्गणा योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करते है / तत्काल निर्मल अवविज्ञानसे उपयोगवन्त बने हुए वे देव, उन भगवन्त द्वारा ग्रहित मनोवर्गगाके पुद्गलद्रव्यको देखकर स्वशंकाके समाधान हेतु सोचे कि केवली भगवन्तने इसी प्रकारके मनोद्रव्यों को ग्रहण करके परिणत किए है, अतः हमारी शंकाओंका समाधान यही होना चाहिए ऐसा वे समझ जाते है / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीरका जघन्य प्रमाण ] गाथा-१४३ [ 315 . // उर्ध्वदेवलोकमें आयुष्यानुसार देहप्रमाणका यन्त्र // सागरो. हाथ-अगिया. भाग सागरो. हाथ-अगिया. भाग | सागरो. हाथ-अगिया. भाग | د | 7 مہ و سه ر w com . - ww c 0 0 / ہ و سه mro 0 0 0 د 4 | 21 | ہ 11 / 5.... अवतरण- अब उस भवधारणीय तथा उत्तरवैक्रिय शरीरका जघन्य प्रमाण कहते है। साहाविय वेउब्विय, तणू जहन्ना कमेण पारंभे / अंगुलअसंखभागो, अंगुलसंखिज्जभागो य / / 143 / / गाथार्थ-स्वाभाविक तथा ( उत्तर ) वैक्रिय शरीर प्रारम्भकालमें जघन्यसे अनुक्रमसे अंगुलके संख्यातवे भागका तथा अंगुलके असंख्यातवे भागका होता है। // 143 // विशेषार्थ- स्वाभाविक ' कहते भवधारणीय शरीर भवनपत्यादिक देवोंको सहज प्राप्त होता है और वह स्वदेवभवायुष्य तक रहनेवाला है। वे जीव पूर्वभवके चाहे वैसे ( इच्छित ) प्रमाणवाले देहको छोड़कर जब तथाविध कर्म द्वारा, परभवमें यथायोग्य स्थान पर जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ उत्पन्न होनेके साथ ही अपर्याप्तावस्थामें ( उत्पत्तिके प्रथम समय पर ) उसके भवधारणीय शरीरकी अवगाहना अंगुलके असंख्यातवे भागकी होती है, क्योंकि वहाँ वे जीव उत्पत्तिस्थानमें आते ही अपनी आत्माको अत्यन्त सिकुडकर ( अंगुलके असंख्यातवे भागका कर ) कोयलेमें ज्यों अग्निका कण गिरे त्यों यहाँ उत्पत्ति स्थान रूप कोयले में अग्निके कणस्थानिक जीव उत्पन्न होते है और उत्पन्न होते. तुरन्त ही कोयलेमें गिरे अग्निका कणरूप वह जीव प्रारम्भिक Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 143 . समयसे लेकर अनुक्रमसे वृद्धि पाता जाता है। तथा साथ साथ वे जीव उत्पत्तिके प्रारम्भिक समय से ही स्व स्व योग्य (आहारग्रहण, शरीररचना, इन्द्रियरचना, श्वासोच्छ्वास नियमन, भाषा-वाचानियमन तथा मनोरचनारूप ) पर्याप्तिओं-शक्तियोंका प्रारम्भ समकालमें करने लगते हैं और एक अन्तर्मुहूर्तमें समाप्त करते है। यह नियम हरेक जीवोंके लिए समझना है। अतः जीव तथाविध कर्मसामग्री द्वारा देवायुष्य तथा देवगत्यादिका बन्ध रखकर जब परभवमें देवगतिमें देवरूप उत्पन्न होता है, तब उत्पत्तिप्रायोग्य देवशय्यामें उत्पन्न होते उस जीवकी उत्पत्तिके प्रथम समय पर, 24 भवधारणीय शरीरकी अवगाहना अंगुलके असंख्यातवे भागकी होती है, कोयलेमें गिरे हुए उस अग्निकणके समान उत्पन्न होकर प्राथमिक संकोच छोडकर अल्प समयमें विकसित-वृद्धिंगत हो जाते है और उत्पत्तिके प्रथम समयसे स्वयोग्य पर्याप्तियोंका भी आरम्भ करते हैं। वैक्रियशरीरावगाहना-[ यहाँ वैक्रिय शरीरसे देव नारकोंका 244 भवप्रत्ययिक उत्तरवैक्रिय और २४५मनुष्य-तियंचादिका मुख्यत्वे तथाविध लब्धिप्रत्ययिक वैक्रिय गिनना है, अतः भवधारणीय वैक्रियका ग्रहण न समझे / ] देव जब किसी भी प्रकारके स्वरूपमें उत्तरदेहकी रचना करनेकी शुरूआत करे, तब उस उत्तरवैक्रिय शरीरकी अवगाहना प्रथम समय पर ही अंगुलके संख्यातवे भागकी होती है और उसके बाद क्रमशः वृद्धि पाते हैं / देव तथा नारक जिस जिस स्थानाश्रयमें जिस जिस प्रमाणरूपमें उत्पन्न होनेवाले है, वहाँ उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्तमें स्वस्थानयोग्य प्रमाणवाले बन जाते हैं / ___अपवाद-परन्तु वैक्रियलब्धिरहित औदारिक शरीरी ऐसे गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंचादिको यह नियम बन्धनरूप बनता नहीं है / वे जीव तो यथायोग्य समय पर क्रम क्रममें स्वयोग्य प्रमाणवाले बनते हैं। 293. देवोंका भवधारणीय शरीर वह वैक्रिय है फिर भी भवधारणीय विशेषणसे युक्त होनेसे सभी भवधारणीयकी व्याख्या-चर्चा-विचारणामें उसका समाविष्ट यथायोग्य करे। 294. देवकी तरह नरकके दोनों शरीरकी व्याख्या सोच ले / 295. उसी प्रकार वैक्रियलब्धिवंत गर्भज मनुष्य तथा गर्भज तिर्यंच भी लब्धि प्रगट करके 'विष्णुकुमारादिवत् ' वैक्रिय शरीरकी रचना करते है तब उसे भी देववत् अंगुलके संख्यातवे भागकी अवगाहना होती है। वैक्रियलब्धिवन्त वायुकाय जीवोंका उत्तरवैक्रिय शरीर प्रारम्भमें या बादमें अंगुलके असंख्यातवे भागका होता है, क्योंकि वायुकाय जीवोंकी जघन्योत्कृष्ट शरीर अवगाहना अंगुलके असंख्यातवे भागकी ही है / Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंका शरीरप्रमाण यन्त्र और उपपातविरह ] गाथा-१४४ [317 मान भाग जिन जीवोंने उत्तरवैक्रिय देहकी रचना जितने प्रमाणयुक्त करनी शुरू की है, वे जीव अन्तर्मुहूर्तमें ही उसी इष्ट प्रमाणवाले हो जाते है / [ 143 ] // चारों निकायके देवोंका शरीरप्रमाणका यन्त्र // देवजाति नाम भव. उत्कृ. भव० जघ० उत्तरवैक्रिय उत्तर वैक्रिय मान | उ. मान ज. मान भवनपतिका 7 हाथ अंगुलका असंख्यातव 1 लाख यो० अंगुलके संख्यातवें भागकी व्यन्तरका ज्योतिषीका सौधर्म-ईशानमें सनत्कुमार-माहेन्द्रमें ब्रह्म-लांतकमें शुक्र-सहस्रारमें आनत-प्राणतमें आग्ण-अच्युतमें प्रयोजन रूप नवौवेयकमें नहीं पाँच अनुत्तरमें ..... -इति विबुधानां तृतीयमवगाहना द्वारं समाप्तम् // Peacoccacciocavacacocacoe 9 // देवोंका चौथा 'उपपात-विरह' कालद्वार // अवतरण-तीसरे द्वारको समाप्त करके अब ‘उववायचवणविरहं ' उस पदवाला चतुर्थ द्वार शुरू करते है, जिसे चार गाथाओंसे सम्पूर्ण करेंगे। सामन्नेणं चउविह-सुरेसु बारस मुहुत्त उक्कोसो / उववायविरहकालो, अह भवणाईसु पत्तेयं / / 144 // गाथार्थ-विशेषार्थवत्। // 144 // विशेषार्थ-अब चौथा द्वार ' उपपात विरह ' अर्थात् क्या ? उपपातविरह-उत्पन्न होनेका वियोगकाल वह, अर्थात् देवगतिकी कोई भी निकायमें एक अथवा अनेक देव उत्पन्न होनेके बाद उस निकायमें अन्य कोई देव उत्पन्न न हो तो कहाँ तक उत्पन्न न हो ? उस कालका अंतरप्रमाण कहना उसे उपपातविरह कहते है / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 144-147. ___भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक इन चारों निकायके देवोंका सामान्यतः (समुच्चय ) उपपातविरह उत्कृष्टसे बारह मुहूर्त्तका होता है, ये बारह मुहूर्त व्यतीत होते अन्य कोई जीव देवगतिमें अवश्य उत्पन्न होता ही है। [144] ___ अवतरण-पूर्व समुच्चयमें सामान्य रूपसे उपपात विरह काल कहा / अब तीन गाथाओंसे प्रत्येक निकायाश्रयी स्पष्ट रीतिसे बताते है। भवणवणजोइसोह-म्मीसाणेसु मुहुत्त चउवीसं / तो नव दिण वीस मुहू, बारस दिण दस मुहुत्ता य / / 145 // बावीस सड्ढ दियहा, पणयाल असीइ दिणसयं तत्तो। संखिज्जा दुसु मासा, दुसु वासा तिसु तिगेसु कमा / / 146 / / . वासाण सया सहस्सा, लक्खा तह चउसु विजयमाईसु / पलियाऽसंखभागो, सबढे संखभागो य // 147 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 145-147 // विशेषार्थ- भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक निकायके सौधर्म तथा ईशान इन दोनों कल्पमें उपपातविरहकाल उत्कृष्टतासे चौबीस मुहूर्त्तका होता है, उसके बाद उक्त निकाय स्थानमें एक अथवा अनेक देव अवश्य उत्पन्न होते है। उनके बाद सनत्कुमार कल्पमें नौ दिन और ऊपर बीस मुहूर्त्तका विरहकाल, माहेन्द्र कल्पमें बारह दिन ऊपर दस मुहूर्त, ब्रह्म कल्पमें साढ़े बाईस दिन, लांतक कल्पमें पैंतालीस दिन, शुक्र कल्पमें अस्सी दिन, सहस्रार कल्पमें सौ दिन, 24 आनत-प्राणतमें संख्याता मासका, 28 आरण-अच्युतमें संख्याता वर्षका विरहकाल होता है। ___ नवौवेयककी पहलीत्रिकमें उत्कृष्ट विरहकाल संख्याता वर्षशत होता है, [ परन्तु उसे सहस्र वर्षके भीतरका ही समझें, वरना हम सहस्र वर्ष ऐसा ही विधान करते। ] मध्यमत्रिकमें संख्याता सहस्र वर्ष ( लक्ष (लाख)से अर्वाक् ) और ऊपरितन ग्रैवेयकमें संख्याता लक्ष वर्षका ( कोटीसे (करोड़)से अर्वाक् ) विरह जानें / अनुत्तरकल्पमें-विजय, विजयवंत, जयंत और अपराजित इन चारों विमानोंके लिए (अद्धा) पल्योपमका असंख्यातवे भाग जितना विरहकाल पड़ता है और मध्यवर्ती सर्वोत्कृष्ट पाँचवे सर्वार्थसिद्ध विमानके लिए उत्कृष्ट विरहकाल पल्योपमके संख्यातवे भागका जाने / इस तरह -- उत्कृष्टसे उपपात विरहकाल'. दर्शाया। [ 145-147 ] // इति सुराणां चतुर्थमुपपातविरहकालद्वारं समाप्तम् // 296-297. परन्तु इतना विशेष समझे कि आनतसे प्राणतमें संख्याता मास कुछ अधिक रूपसे जानें / उसी तरह आरणसे अच्युतमें संख्याता वर्ष अधिक काल जानें / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंका उपपात तथा च्यवनकी संख्या संबंधी समज ] गाथा-१४८ [319 cacacocacaracacacocaccia // देवोंका पाँचवाँ 'च्यवन विरह' और छठा-सातवाँ 'उपपात-च्यवन संख्या' द्वार // अवतरण-अब ग्रन्थकार उस उपपात-विरहकालको जघन्यसे दर्शाते पुनः जघन्य तथा उत्कृष्ट च्यवनविरहकालको अतिदेशसे कहनेके लिए पाँचवाँ द्वार समाप्त करते है / ____और पूर्वार्धवत् पश्वार्ध गाथामें संखं ' इगसमइयं' पदवाला छठा द्वार (एक समयमें एक साथ कितने जीव च्यवते हैं ? अथवा कितने उत्पन्न होते हैं ? वह ) जघन्योत्कृष्टरूपसे शुरू करके समाप्त करेंगे। सव्वेसिपि जहन्नो, समओ एमेव चवणविरहोऽवि / इगदुतिसंखमसंखा, इगसमए हुंति य चवन्ति // 148 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 148 // विशेषार्थ-सर्वका अर्थात् भवनपतिसे लेकर सर्वार्थसिद्ध तकके चारों निकायके देवोंका 'जघन्यसे उपपातविरह ' एक समयका होता है / ... पञ्चमच्यवनविरह काल द्वार-अब उपपातविरहवत् च्यवनविरहकाल कहते हैं / च्यवनविरह-अर्थात् देवगतिकी चारों निकायमेंसे कोई एक या अनेक देव न च्यवे तो कितने काल तक च्यवते नहीं है ? उस कालका नियमन, उसे च्यवनविरहकाल कहते हैं / . इस च्यवनविरहकालको उपपातविरहकाल द्वारमें जिस जिस निकायमें यथासंख्य जितना : : जितना और जहाँ जहाँ कहा है, उसे उसी तरह यथासम्भव विचारे / - अर्थात् प्रथमकी (भ. व्य. ज्यो.) तीनों निकायमें और सौधर्म-ईशान कल्पमें चौबीस मुहूर्त उत्कृष्ट च्यघनविरह / सनत्कुमारमें नौ दिन और 20 मुहूर्त, माहेन्द्रमें बारह * दिन और 10 मुहूर्त, ब्रह्मकल्पमें साढ़े बाईस दिन, लांतकमें 45 दिन, शुक्रमें 80 दिन, सहस्रारमें 100 दिन / आनत और प्राणतमें संख्याता मास / आरण-अच्युतमें संख्याता वर्ष / पहली अवेयकत्रिकमें संख्याता शत वर्ष, मध्यमत्रिकमें संख्याता सहस्र वर्ष, उपरितनत्रिकमें संख्याता लक्ष वर्ष, विजयादि चार विमानके लिए पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और सर्वार्थसिद्धमें पल्योपमका संख्यातवाँ भाग च्यवनविरहकाल होता है / इति उत्कृष्टच्यवनविरहकालः। जघन्य च्यवनविरहकाल एक समयका जाने। इति जघन्यविरहकालः। / // छठा-सातवाँ उपपात-च्यवन संख्याद्वार / / इस तरह उपपात तथा च्यवनविरहकाल कहा / अब एक समयमें जघन्य और उत्कृष्टसे कितने देव देवगतिमेंसे एक साथ ही च्यवन कर सके, वह च्यवनसंख्याद्वार और उस Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 148 एक ही समयमें अन्यगतिसे कितने जीव देवगतिमें जघन्योत्कृष्ट संख्यामें उत्पन्न होते हैं वह उपपात संख्याद्वार। चारों निकायसे कोई भी निकायमें अथवा चारों निकायमें सामान्यतः समुच्चयमें जघन्यसे एक, दो, तीन इस तरह उत्कृष्टसे यावत् संख्याता-असंख्याता भी उत्पन्न होते हैं, तथा एक, दो यावत् असंख्याता एक ही समयमें च्यवते भी है। यहाँ इतना विशेष समझे कि-भवनपतिसे लेकर सहस्रार तकके देवोंको तो उपरोक्त नियम योग्य है। क्योंकि सहस्रार तक तो तिथंचोंकी भी गति है और तिर्यच असंख्याता है। अतः यावत् असंख्याती उपपात संख्या योग्य ही है तथा उतनी संख्या पर च्यवते मी है, क्योंकि उनकी धरती (पृथ्वी)-अप्-वनस्पति-मनुष्य-तिर्यच इन पाँचों, दंडकोंमें गति होती हैं। विशेषमें सौधर्म-ईशान तक पाँचों दंडकोंमें और तीसरेसे आठवें कल्प तकके देवोंकी गति मनुष्य-तिर्यच यह दो दंडकमें ही होती है। अब नौवें सहस्रारकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्ध तकके देवोंकी उपपात तथा च्यवन संख्या जघन्यसे 1-2-3 है और उत्कृष्टसे संख्याती ही होती है; क्योंकि सहस्रारसे सर्वार्थसिद्ध तक तथाविध शुभ अध्यवसायवाले गर्भज मनुष्य ही उत्पन्न हो सकते हैं और उनकी संख्या संख्याती ही है और च्यवन संख्या भी संख्याती ही होती है, क्योंकि वे कल्पगत देव मरकर गर्भज मनुष्यमें ही उत्पन्न होते हैं और उन गर्भज मनुष्योंकी संख्याती संख्या हैं। [ 148] इति देवानां चतुर्थ पञ्चमं च षष्ठं-सप्तमं च द्वारं समाप्तम् // // देवलोकमें प्रत्येक कल्पमें उत्कृष्ट ' उपपात व्यवनविरह' काल संबंधी यंत्र // निकाय-कल्पनाम उ. विरहमान| कल्प नाम | उ. विरहमान | जघ. भवनपति व्यन्तरमें | 24 मुहूर्त सहस्रार कल्पमें | 3 मास १०दि. ज्योतिषी निकायमें | , | आनत-प्राणतमें संख्याता मास. सौधर्म-ईशानमें | , आरण-अच्युतमें। संख्याता वर्ष सनत्कुमार कल्पमें ९दि.२० मु०/ 10 प्रथमत्रिकमें संख्या. वर्षशत माहेन्द्र कल्पमें १२दि.१० . द्वितीयत्रिकमें सं. हजार वर्ष ब्रह्म कल्पमें | 22 // दिन ]. तृतीयत्रिकमें सं. लाख वर्ष अद्धा. पल्यो. लांतक कल्पमें 45 दिन | अनुत्तर चार विमानमें | असंख्या. भाग शुक्र कल्पमें 80 दिन | सर्वार्थसिद्ध पर / संख्या. भाग सर्वत्र जघन्य विरहकाल एक समयका च्यवन विरह पर-विरहवत् यथासंभव समझे। जानें। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवलोकमें किन गतियोंमेंसे मरे हुए जीव उत्पन्न होते है ?] गाथा-१४९ [ 321 // चारों गत्याश्रयी सामान्य-उत्कृष्ट च्यवनविरहकालका यंत्र // नाम ज. वि. उ. वि. गर्भज नर तिर्यचका 1 समय देवता, नारकीका.... संमूछिम मनुष्यका... 24 मुहूर्त विकलेन्द्रियका.... अंतर्मुहूर्त संमूछिमतियंचादिकका. उस प्रकारसे सामान्य च्यवन विरह // देवलोकमें जघन्योत्कृष्ट उपपात-च्यवन संख्या यन्त्र // नाम भवन. सहस्रार यावत् सह. से अनुत्तर यावत् | ज. उप. च्य. संख्या | उ. उप. च्य. संख्या / / एक, दो, तीन तक संख्य, असंख्य यावत् संख्याता उपजते-च्यवते acancercentarvancancernancer. 3 // देवोंका आठवाँ 'गति' द्वार // अवतरण-सातवाँ द्वार समाप्त करके अब देवलोकमें किन गतियोंमेंसे मरे हुए जीव उत्पन्न होते है ? वह 'गमं' पदवाला आठवाँ गतिद्वार कहते हैं / नरपंचिंदियतिरिया-णुप्पत्ती सुरभवे पज्जत्ताणं / अज्झवसायविसेसा, तेसिं गइतारतम्मं तु / / 149 // गाथार्थ पर्याप्ता पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यंचोंकी देवलोकमें अध्यवसायकी विशेषतासे उत्पत्ति होती है और पुनः अध्यवसायकी विशेषतासे उस निकायमें तारतम्य भी होता है / // 149 // विशेषार्थ-देवलोकमें कौन-कौनसे जीव उत्पन्न होते हैं ? किन-किन कारणोंसे होते हैं ? यह बात उपरोक्त गाथामें कही गयी है / और साथ साथ उस देवलोकमें भी स्थान, वैभव, आयुष्यादिककी न्यूनाधिकता भी अध्यवसायोंकी विचित्रताके ही आभारी है यह बात भी बता दी है। बृ. सं. 41 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१४९ ___ यहाँ एक बात स्पष्ट हो जाती है कि देवलोकके भीतर मात्र पर्याप्ता गर्भज मनुष्य और तिर्यंच यह दो ही जातिके देव उत्पन्न हो सकते हैं, परन्तु उनके सिवा बाकीके नारक-एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय या अपर्याप्ता पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्य उत्पन्न होते नहीं, क्योंकि देवभव प्राप्ति प्रायोग्य निर्मल परिणाम उन्हें मिलता नहीं है / इस परसे एक दूसरा रहस्य भी स्पष्ट हो जाता है कि देवलोकमें उत्पन्न होनेके स्थान असंख्य है लेकिन उसमें उत्पन्न होनेवाले उमेदवार मात्र दो ही जातिके जीव हैं / उत्पन्न होनेके स्थान असंख्य है और उत्पन्न होनेवालोंकी संख्या कम हैं। इससे यह निश्चित होता है कि जीवके लिए देवलोककी प्राप्ति दुर्लभ नहीं, लेकिन सुलभ है। जबकि मानवभवकी प्राप्ति सुलभ नहीं लेकिन दुर्लभ है क्योंकि मानवजातकी संख्या मर्यादित अर्थात् संख्याती (29 अंक संख्या जितनी, जैसे कि 2 x 2 = 4 442=8 8x2=16 -इस तरह 96 बार गुना करते जो संख्या आये उतनी) है जब उत्पन्न होनेवाले उमेदवार तमाम गति-जातिके है / जिसके स्थान कम है और उमेदवार भी असाधारण है तब उस स्थानको पाना कितना कठिन होता है यह समझ सके ऐसा है / इसलिए ही आगममें 'दुल्लहे खलु माणुसे भवे' इत्यादि वचन जो उच्चारे गये हैं उनकी यथार्थता सिद्ध होती है / यह बात तो प्रासंगिक कही गयी है / अब मुख्य बात पर आते हैं / देवगतिकी प्राप्तिमें हेतु क्या ? तो गाथामें बताये गये मतानुसार 'अध्यवसाय' विशेष / 'अध्यवसाय' अर्थात् क्या ? तो मानसिक परिणाम-व्यापार विशेष वह / अर्थात् मानसिक विचार उसका नाम ही अध्यवसाय / यह अध्यवसाय तीन प्रकारका है 1. अशुद्ध, 2. शुद्ध और 3. अत्यन्त शुद्ध / ___ आत्मा अशुद्धमेंसे शुद्ध विचारवान् तथा शुद्धमेंसे अतिशुद्ध विचारवान बनता है, इसलिए इस प्रकार क्रम दर्शाया है / अशुद्ध परिणाम नरकादि दुर्गतिका कारणरूप, शुद्ध परिणाम देवादिक सुगतिका कारणरूप और अत्यन्त शुद्ध परिणाम वह मुक्तिसुख-मोक्षका कारणरूप है। मानसिक विचारोंकी दो प्रकारकी स्थितियाँ सामान्य रीतसे मानसिक विचारोंकी जो विभिन्नताएँ प्रतिक्षण उत्पन्न होती है, उन्हें दो वर्गोमें बाँट दी गयी हैं / एक राग और दूसरा द्वेष / ___ अतः प्रथमके दो भेदमेंसे चार भेद बनेंगे। अर्थात् कि शुद्धराग और शुद्धद्वेष, अशुद्धराग और अशुद्ध द्वेष। जिनको प्रचलित परिभाषामें बोला जाये तो प्रशस्त राग-द्वेष और अप्रशस्त राग-द्वेष / मनकी इस विभिन्न विचारधाराओंको उत्पन्न होने में इष्ट-अनिष्ट वस्तुओंका संयोग Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवका इष्ट और अनिष्ट संयोगके परिणाम ] गाथा-१४९ [323 वियोग इसमें मुख्य हिस्सा लेता है, जिनमेंसे शुभाशुभ काषायिक परिणाम उद्भवते हैं। ___ इष्ट वस्तुके संयोगके लिये 1. अर्थात् जब जीवको जड या चैतन्यादि इष्ट वस्तुका संयोग उत्पन्न होता है तब पहले तो वह बहुत प्रसन्न होता है / और इस प्रसन्नताका अतिरेक उस उस पदार्थमें तन्मय होता हुआ तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतम कोटितक पहुँच जाता है / बादमें इष्टकी विशेष प्राप्ति, रक्षण और उपभोगमें मनको तदाकार बनाता है / इस इष्ट साधन रागकी आसक्ति दो प्रकारके साधनोंके प्रति होती है / एक संसारके साधनोंके प्रति और दूसरी मुक्तिके साधनोंके प्रति / संसार साधनोंके प्रति जब होती है तब अप्रशस्त कोटिकी और मुक्ति या आत्माके साधनोंके प्रति जब होती है तब इसे प्रशस्त कोटिकी कही जाती है। जैसे कि कुदेव, कुगुरु और कुधर्म प्रति किया गया राग उसे अप्रशस्त कहा जाता है और सुदेव, सुगुरु, और सुधर्मके प्रति किया गया राग उसे प्रशस्त कहा जाता है। ___प्रशस्त राग वह *शुद्ध-शुभ है। और यदि उसके मूल अर्थमें बराबर हो तो उसके द्वारा जीव शुभ-पुण्य प्रकृतिओंका बन्ध करके देवादिक शुभ गति आदिकी श्रेष्ठताको प्राप्त कर सकता है। जब कि अप्रशस्त राग अशुद्ध-अशुभ है। उसके मूल अर्थमें जब वह घटमान होता है तब जीव उसके अशुभ पाप प्रकृतिओंका बन्ध करके उदयकालमें नरकादि अशुभ गतिको पाता है। .. उपर जिस प्रकारसे इष्ट संयोगके लिए कहा है, वैसा अनिष्ट संयोगके लिए भी समझना है। अनिष्ट वस्तुके संयोगके लिए 2. अर्थात् कि जब जीवको अनिष्ट वस्तु के संयोग मिलते हैं तब चित्तमें अप्रसन्नता उत्पन्न होती है, उसमेंसे खेद ( दुःख, रंज ) जन्म लेता है, उसमेंसे रोष, क्रोध-कलह सभी मलिन तत्त्व जन्म पाते हैं। हृदय द्वेषबुद्धिका आकार लेता है। मानस विरोधी बनता है / मैत्री भावना और क्षमाके आदर्श विलीन होते हैं / मन द्वेषबुद्धि में फँसता फँसता अति दुःखी बनता है और आत्माको संताप और आक्रन्दकी कोटि तक धकेल देता है। परिणामस्वरूप कितनी ही बार न घटनेकी घटनाओंका दुष्ट और भयंकर सिलसिला शुरु होता है। ____ यह द्वेष भावना सत् और असत् या, संसार या मुक्तिके साधनोंके प्रति होती है / जिन्हें ऊपर कहे गये वैसे अप्रशस्त और प्रशस्त इन दो नामसे पहचानेंगे / * यहाँ शुद्ध और शुभ उसे एक ही अर्थवाचकमें समझना है, वरना अपनी तात्त्विक व्याख्यामें ये दोनों भिन्नार्थक वाचक है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 149-150 ____ शुद्ध देव, गुरु और धर्म तत्त्वोंकी रक्षा-प्रचारके लिए अनिवार्य कारणसे द्वेष करना पडे तो यह प्रशस्त कोटिका और कुदेव, कुगुरु या कुधर्म तत्त्वोंके लिए करना पड़ता द्वेष अप्रशस्त कोटिका माना जाता है। प्रशस्त कोटिका द्वेष अल्प कर्मबन्धके कारणरूप होते हुए विशेष प्रकारसे पुण्यबन्धको कराता होनेसे इससे शुभ फलकी प्राप्ति और अप्रशस्त द्वेष उससे विपरीत फल देकर विपरीत फलकी प्राप्ति कराता है। इस प्रकार इष्टानिष्ट वस्तुके संयोग-वियोगसे शुभाशुभ राग-द्वेष अध्यवसाय और उसके मन्द, तीव्र, तीव्रतर-तमादिक अनेक प्रकारोंसे जीवके सुख, दुःख, सद्गति या दुर्गतिका आधार रहा है / अध्यवसायकी जनेता मन है अतः संसारमें उन सबके लिए यदि कोई बन्धारणीय, चक्र है तो मन ही है, इसलिए ही आप्त पुरुषोंने कहा है कि 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः'। देवगति प्रायोग्य अध्यवसाय जो आगे बढ़कर अति विशुद्धतर-तम दशा पर पहुँच जाते हैं, तो केवलज्ञान, केवलदर्शन (सम्पूर्णज्ञान) प्राप्त करके, संसारका परिभ्रमण दूर करके, मुक्ति सुखको पाकर, सर्व दुःखोंका अन्त कर सकते हैं / [149] ____अवतरण-चालू द्वारमें अब कौन-कौनसे और कौन-कौनसी स्थितिवाले जीव किस देवलोकमें जाते है ? उसे बताते है / नरतिरि असंखजीवी, सम्वे नियमेण जंति देवेसु / नियआउअसमहीणा-उएसु ईसाणअंतेसु // 150 / / / गाथार्थ-असंख्य वर्षके आयुष्यवाले मनुष्य तथा तिर्यंच सभी नियमा-निश्चे देवलोकमें उत्पन्न होते हैं और वे भी निजायुष्य समान अथवा तो हीन स्थितिके रूपमें ईशानान्त कल्प तक ही उत्पन्न होते हैं / // 150 / / विशेषार्थ-असंख्यात वर्षके दीर्घायुष्यवाले मनुष्य और तिर्यच वे युगलिक ही होते हैं और वे देवगतिमें ही उत्पन्न होते हैं, लेकिन शेष नरकादि तीन गतियोंमें या मोक्षमें उत्पन्न होते नहीं है। साथ ही देवगतिमें भी वे अपनी युगलिक अवस्थामें जितनी आयुष्य स्थिति होती है उतनी स्थिति-आयुष्यवाले अथवा तो हीनायुष्यवाले देवरूप (वैसे स्थानपर) उत्पन्न होते है और इससे उनकी सबसे अधिक गति ईशान देवलोक तक ही होती है, क्योंकि निजायुष्य प्रमाणको अनुकूल स्थिति ज्यादासे ज्यादा ईशान कल्प तक होती है और आगेके कल्पमें जघन्यसे भी दो सागरोपमकी स्थितिसे ही शुरूआत होती है, जब कि युगलिक तो उत्कृष्टसे भी तीन पल्योपमकी स्थितिवाले होते हैं। और इसलिए पल्योपमके असंख्यातवें भागसे असंख्य वर्षके आयुष्यवाले खेचर Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन-कौनसी स्थितिवाले जीच किस देवलोक में आते है ? ] गाथा 150-152 325 तिर्यक पंचेन्द्रिय और अंतर्दीपवर्ती | दाढाओं पर बसते ] युगलिक तिर्यंच तथा मनुष्य तो भवनपति और व्यन्तर इन दोनों निकायमें ही उत्पन्न होते हैं, परन्तु ज्योतिषी या सौधर्म ईशानमें नहीं, क्योंकि ज्योतिषीमें तो जघन्यसे भी जघन्य स्थिति पल्योपमके आठवें भागकी और वैमानिकमें सौधर्ममें पल्योपमकी कही है, जब उक्त युगलिक जीवोंकी स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागकी है इससे उसको तुल्य वा हीन कक्षा वहाँ मिल सकती नहीं है। अब शेष एक पल्योपमके आयुष्यवाले युगलिक ( हैमवन्त या हिरण्यवन्त क्षेत्रके ) दो पल्योपम आयुष्यवाले ( वे हरिवर्ष-रम्यक् क्षेत्रके ) तीन पल्योपम आयुष्यवाले (वे देवकुरु-उत्तर कुरुक्षेत्रके तथा सुषम सुषमादि आरामें यथायोग्य असंख्यात सालके आयुष्यवाले भरत, ऐवत क्षेत्रवर्ती युगलिक मनुष्य और तिर्यच ) भवनपतिसे लेकर यथासंभव ईशान यावत् उत्पन्न हो सकते है, क्योंकि निजायुष्यतुल्य स्थिति स्थान वहाँ तक है। अतः ऊपरके कल्पमें सर्वथा निषेध समझ लेना। [ 150 ] अवतरण-प्रस्तुत बात आगे चलाते है। जंति समुच्छिमतिरिया, भवणवणेसु न जोइमाईसुं / जं तेसिं उववाओ, पलिआऽसंखसआऊसु / / 151 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 151 // विशेषार्थ-संमूछिमतिर्यच भवनपति तथा व्यन्तरनिकायमें उत्पन्न होते हैं, परन्तु ज्योतिष्कादि (सौधर्म -ईशान ) निकायमें उत्पन्न होते नहीं हैं, क्योंकि उनका जन्म पल्योपमके असंख्यातवें भाग आयुष्यवाले देवोंमें होता है / संमूछिम तिर्यचकी इससे आगे गति ही नहीं है / [ 151 ) // अष्टमगतिद्वारे प्रकीर्णकाधिकारः // ' अवतरण-पूर्व गति-स्थितिके आधार पर उन जीवोंकी स्थिति पहले बता दी / अब .' अध्यवसायाश्रयी बनती गति जणाते हैं। बालतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया / वेरेण य पडिबद्धा, मरिठ असुरेसु जायंति // 152 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 152 / / विशेषार्थ-बालतवे = बाल (अज्ञानरूप) जो तप अर्थात् बाल विशेषण, देकर क्या समझाते है कि बालककी बाल्यावस्था शून्य है, उसी तरह यह तप भी अज्ञानताके साथ करता होनेसे शून्य समझा जाता है / यह बालतप जिनेश्वर भगवन्तके मार्गसे विपरीत, तत्त्वातत्त्व, पेयापेय, भक्ष्याभक्ष्यकी बेहोशीमें (समानता रहित) किया जाता है, अतः इसे Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी .. . [ गाथा-१५२. मिथ्या तप कहा जाता है / क्योंकि वह तप सम्यक्त्व (सच्चा श्रद्धान ) रहित होता है। उस तपसे आत्मा शायद सामान्य लाभ भले ही पा जायँ, लेकिन अन्तमें आत्माको हानिकारक होनेसे निष्फलरूप है / जिस तपमें नहीं होता इन्द्रियदमन, नहीं होता वर्ण-गन्ध-रसस्पर्शादि विषयोंका त्याग, नहीं होता अध्यात्म, नहीं होती सकाम निर्जरा, उल्टा पुष्टिकारी अन्न लेना, इन्द्रियको स्वेच्छासे पोपना, विषयवासनाओंका ज्यादा सेवन, हिंसामय प्रवृत्तिवाले ऐसे २४८पंचाग्नि आदि तप यह बालतप है; तत्त्वसे जीवहिंसाके हेतुरूप है तथापि उसके धर्मशास्त्रानुसार बाह्य दृष्टिसे किंचित् आत्मदमनको करनेवाले तपरूप अनुष्ठान होनेसे सामान्य लाभ मिलनेसे वे द्वीपायन ऋषिकी तरह असुरकुमारादि भवनपति निकायमें उत्पन्न होता है। इसलिए सारे ही आलममें सुप्रसिद्ध ऐसे जैनधर्मके तपविज्ञानको समझकर कल्याणा- ' भिलाषी आत्माओंने उनका आदर करना चाहिए। प्राप्त होती है। ___ कोई एक आत्मा भले साथ साथ स्वशास्त्रानुसार भी तप-धर्मानुष्ठान करता हो, जो अहिंसक, असत्यका त्यागी, स्त्रीसंगरहित, निष्परिग्रही और सद् गुणी हो, कषायहीन हो, मायालु, शांत स्वभाववाला हो, तो जीव शुभ पुण्योत्पन्न उत्तम अध्यवसायोंसे वैमानिकदेवके आयुष्यका बंध करता है, इतना ही नहीं, लेकिन इससे भी अधिक विशुद्धतर-तम दशामें दाखिल होकर मोक्षलक्ष्मीका मालिक हो सकता है। परन्तु तथाविध अज्ञानसे धर्मानुष्ठान करते समय क्रोधादिक कषायोंकी परिणति ऐसी प्रवर्तमान होती है कि निमित्त मिले या न मिले, लेकिन जहाँ-तहाँ क्रोध-गुस्सा-आवेश करता हो, धर्मस्थानोंमें भी धर्म-फसाद करता हो, न करनेके कार्य करता हो, ऐसे मलिन प्रसंग पर यदि आयुष्यका बंध पड जाये, तो भी अमुक सद्गुण-धर्मके सेवनसे असुरकुमारादि भवनपतिमें जनमता है। जो रोषवृत्तिरहित धर्मानुष्ठानका आचरण करें तो प्राणी इससे अधिक सद्गति पा सकते हैं / इसलिए रोषवृत्तिको दूर करना जरूरी है। २४४क्लेशयुक्त मन उसका नाम ही संसार, क्लेशरहित मन उसका नाम है मोक्ष। 298. सच्चा पंचाग्नि तप किसे कहे ? चतुर्णा ज्वलतां मध्ये यो नरः सूर्यपञ्चमः / तपस्तपसिकौन्तेय ! न सत्पञ्चतपः स्मृतम् // 1 // पञ्चानाभिन्द्रियाग्नीनां, विषयेन्धन चारिणाम् / तेषां तिष्ठति यो मध्ये, तद् वै पञ्चतपः स्मृतम् // 2 // [म. भा.] 299. क्लेशे वासित मन संसार, क्लेश रहित मन ते भवपार / [ उपा. यशोविजयजी ] Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारका कारण कषाय और तपकी महत्ता] . गाथा-१५२ [327 30 अनेक प्रकारके सुख और दुःखके फलोंको योग्य ऐसे कर्म-क्षेत्रको जो खोद निकालता है अथवा आत्माके स्वरूपको जो कलुषित करता है उसे कषाय कहा जाता है। संसारका मुख्य कारण कषाय ही हैं, अतः क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायोंसे मुक्त होनेके लिए अनुक्रममें उसके प्रतिपक्षीके रूपमें क्षमा, नम्रता, सरलता और सन्तोष आदि वृत्तियोंको हृदयमें बहुत कसना / तवेण गारविया-तपसे गौरवयुक्त (गौरन्वित ) अर्थात् अहंकार करनेवाले / कोई भी प्राणी तीव्र पापवृत्तिसे बन्धनयुक्त निबिड-चीकने कर्मोंको भी (तपसा निर्जरा च ) तपोनुष्ठानसे, अवश्य नष्ट कर सकता है / यह तप जो अहंकाररहित हो तो वह उत्तम गतिको पा सकता है। परन्तु उस अनशनादिक तप करनेसे यदि अहंकार आ जाये कि हम तपसी हैं, मुझ जैसा तप करनेवाला. सहनेवाला है कोई ? इत्यादि अहंकारका मद मिलकर इकट्ठा हो गया हो और परभवायुष्यका बन्ध पडे तो भवनपतिका पड़ता है अर्थात् उदय आते ही वहाँ उत्पन्न होता है। वहाँ भी ऊँच-नीचताका आधार भावनाकी विशुद्धि पर होता है। इसलिए प्राणियोंको उत्तम गति पानेके लिए 30 अक्रोधरूपसे क्षमाभावपूर्वक मद रहित तप करना चाहिए, वरना जिस प्रकार जैनेतरके उपवास ‘फरालिया' हुए, वैसे हमारे उपवास 'वरालिया' बन जायेंगे / वेरेण य पडिबद्धा-वैरसे प्रतिबद्ध-आसक्त बने हुए / कोई जीव यदि उत्तम तप धर्मका सेवन करता हो, महान ऋषि-त्यागी हो, परन्तु जो वैर भावसे आसक्त हो कि कब दुश्मनकी खबर लूँ ? ऐसे जीव ३०२परभवायुष्यका बंध करे तो मलिन भावनाके 300. सुह-दुक्ख बहु सहियं, कम्मखेत्तं कसंति जं जम्हा / ___ कलुसंति जं च जीवं, तेण कमाइ त्ति बुच्चंति // [ पन्नवणा सूत्र पद 13] . .. 301. तप गुण ओपे रे रोपे धर्मने, नवि गोपे जिन आण, आश्रव लोपे रे नवि कोपे कदा, पंचम तपसी ते जाण // [ उपा श्री यशोविजयजी ] 302. इतना विशेष समझना कि किसी भी जीवका आगामी गतिस्थानका निर्माण परभवायुष्य बन्धकालमें उत्पन्न होती शुभाशुभ भावना-अध्यवसाय पर आधार रखता है / अब स्वभव आयुष्य प्रमाणमें जीवको आयुर्बन्धके मुख्य चार समय (प्रसंग) आते हैं / प्रथम सोपक्रमी जीवका जितना आयुष्य हो उसके तीसरे भाग पर, दूसरा प्रसंग नववें भाग पर, तीसरा सत्ताईश भाग पर और अन्तिम चौथा निजायुष्य पूर्ण होनेमें शेष अन्तर्मुहूत्त बाकी रहे तब, अर्थात् तीसरे भाग पर परभवायुष्य बन्ध जीवने अगर न किया हो तो उसे नौ पर करे, अगर वहाँ भी न किया हो तो सत्ताईस पर, वरना अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहने पर परभवायुष्य बन्ध जरूर करे ही / उस आयुष्य बन्धके कालप्रसंग पर जीवके जिस प्रकारके शुभाशुभ अध्यवसाय हो, तदनुसार वह Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 152-153 / योगसे भवनपति निकायमें उत्पन्न होते हैं। क्योंकि वैरका बदला लेना यह बुरी चीज है। इससे मन हमेशा मलिन रहता है, बदला ले सके या न ले सके तो भी वह अशुभ भावनाके योगसे उपरोक्त गतिको पाता ही है। वे जहाँ जाते हैं वहाँ भी जन्मान्तरके विरोधी संस्कारसे वैरीके प्रति वैर लेनेकी वृत्ति पुनः जागती है। इस तरह वैर परंपराका विषचक्र फिरता (चालु) ही रहता है और अनेक कदर्थनाको पाता है बारबार कर्मबन्धके द्वारा बारबार संसारमें परिभ्रमण करते ही रहते है, अतः प्राणीको कभी भी वैरासक्त न बनकर समभाववृत्ति जगानी चाहिए / वैरका सिलसिला बहुत ही लम्बा चलता है। समरादित्य आदिके प्रसंग उसकी गवाहीरूप है। इसलिए वैरोपशमन तुरन्त ही करके मनको शांत कर देना यही जैनधर्म पानेका फल है। इस तरह उक्त अनिष्ट भावनाके योगसे प्राणी अपनी उत्तम आराधनाको भी दूषितः / बनाकर, उत्पन्न होते जघन्य कोटिके सुअध्यवसायसे असुरोंके रूपमें उत्पन्न हो सकते हैं / / 152] अवतरण-अब व्यन्तर रूपमें किस कारणसे जीव उत्पन्न होता है ? इसे कहते हैं। .. रज्जुग्गह-विसभक्षण-जल-जलणपवेस-तण्ह-छहदुहो। गिरिसिरपडणाउ मया, सुहभावा हुंति वंतरिया // 153 // शुभाशुभ गतिका बन्ध करता है। शुभ अध्यवसाय, शुभ गति और अशुभ अध्यवसाय, अशुभ गति देता है। उस गतिमें भी ऊँच-नीच संपत्तिकी प्राप्ति यह अध्यवसायकी जितनी जितनी विशुद्धियाँ हैं, उन उन पर आधार रखती हैं / चाहे भले ही जीवोंने दारुण पापाचारका सेवन किया हो; परन्तु आरबन्धकाल पर पूर्व पुण्यसे तथाविध शुभालम्बनसे पूर्वकृत पापका प्रायश्चित्त आलोचना ग्रहण इत्यादि किया हो और शुभ अध्यवसाय चलता हो तो जीव चिलातीपुत्र, दृढ़प्रहारी, तामली तापसादिकी तरह शुभ अध्यवसायको पाकर सम्यग्दृष्टिपन प्राप्त करके शुभ गतिमें उत्पन्न हो सकता है। ___ दूसरा यह भी याद रखना चाहिए कि यदि जीवने आयुष्यके चार भागोंमेंसे किसी भी भागसे शुभ गति और शुभ आयुष्यका बन्ध किया हो, उस बन्धके पूर्व या अनन्तरमें किसी अशुभ आचरण किए हो परन्तु उसने शुभ गतिके आयुष्यका बन्ध किया होनेसे उसे शुभ स्थानमें जाना होनेसे पूर्वके संस्कारोंसे शुभ भावना -- जैसी गति वैसी मति' इस न्यायसे आ ही जाती है परन्तु जो आयुर्बन्ध 'जैसी मति वैसी गति 'के न्यायसे अशुभ गतिका किया हो और वन्ध कालपूर्व-अनन्तर शुभ कार्य किये हो तो भी अशुभ स्थानमें जाना होनेसे अशुभ अध्यवसाय प्रायः प्राप्त हो जाता है / संक्षिप्तमें जीवकी जैसी आराधना वैसी उसकी मानसिक स्थिति होती है। आराधना शुभ हो तो सुंदर संस्कार-भावनासे वासित होती है और अशुभ आराधना अशुभ हो तो असुन्दर संस्कार भावनासे-वासित बनती है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्तर गति कब प्राप्त होती है ? ] गाथा 153-154 [329 . गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 153 // विशेषार्थ-इस गाथामें बतायी गयी आचरणा स्वयं पापरूप होनेसे उसका सञ्चा फल नरकादि कुगति हो सकता है। परन्तु आयुष्यबन्धके पहले, गाथामें बताये गये आचरणके बजाय स्वभाग्यसे, शुभ निमित्त द्वारा नरकादि गति योग्य संक्लिष्ट-आर्त, रौद्र परिणाम छोड़कर तथाप्रकारकी कुछ शुभ भावना यदि आ जाये तो जीव अनिष्ट कार्य करता हुआ भी शुभ भावनाके योगसे शूलपाणी यक्ष आदिकी तरह व्यन्तरकी शुभ गति प्राप्त करता है। रज्जुग्गह-रस्सीसे जीवका घात करना (जीवको मारना) या किसी भी प्रकारके आंतरिक या बाह्य दुःखसे ऊबकर फंदा डालकर मरना वह / इस प्रकारकी घटनाएँ वर्तमानके विषम समयमें दुःख-क्लेशसे ऊबनेवाले मानवोंमें अधिक दिखायी देती हैं। विसमक्खण-किसी भी आफत-दुःखके कारण विषपान किया हो, परन्तु शुभ भावनाके योगसे व्यन्तरमें जाता है। ऐसे प्रसंग आम तौर पर श्रेष्ठ और सुखी वर्गमें बनते हैं। जल-जलणपवेस-जानकर या अनजानमें जलमें या अग्निमें प्रवेशकर मरनेवाला जीव शुभ भावना पाकर कुमारनन्दीवत् व्यन्तरमें उत्पन्न होता है। ऐसे प्रसंग मध्यम वर्गमें अधिक मिलते हैं। .. तह-छुहदुहओ-तृपा अथवा क्षुधाके दुःखसे पीड़ित जो अपने प्राणत्यागके समय पर शुभ भावनाके योगसे मरता है वह। ऐसा दीन वर्गमें अधिक बनता है। गिरिसिरपडणाउ-किसी महान् दुःखसे पीड़ित साहसिक जीव दुःखसे ऊबकर पर्वतके शिखर परसे नीचे कूद पडे वह। और उक्त कार्य करनेवाले, भैरवजव जैसे पर्वतीय स्थानों परसे खाई (खंदक )में गिरनेवाले मया सुहभावा-मरकर शुभ भावनाके योगसे ही शूलपाणीयक्षवत् (नरकादि गति रूप अति आर्त रौद्र ध्यानका अभाव हो तो) हुंति वंतरिया व्यन्तर होते हैं। शुभ भावनाके अभावसे तो अपने-अपने अध्यवसायानुसार उस-उस कुगतिमें जनमते हैं। [153] अवतरण-अब ज्योतिषी तथा वैमानिक निकायमें उत्पन्न होने योग्य कौन होता है ? . . तावस जा जोइसिया, चरग-परिवाय बंभलोगो जा / जा सहसारो पंचिंदि-तिरिअ जा अच्चुओ सड्ढा / / 154 / / बृ. सं. 42 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१५४. गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 154 // विशेषार्थ-तावस जा जोइसिया–वनमें रहकर अनन्तकाय स्वरूप कन्दमूलादि, भूमिके अन्दर उपजते बटाटा-बेंगन-शकरकन्द-अदरक-लहसुन-प्याज-गाजर आदिका भक्ष करनेवाले अज्ञानी तापस मरकर भवनपतिसे लेकर यावत् ज्योतिषी तकमें उत्पन्न हो सकते हैं। यहाँ उत्पन्न होनेका हेतु उपरोक्त गाथामें बताया है उसे ही जाने / कन्दमूल भक्षक जीवोंकी गतिमें हीनता जरूर आती है, ऐसा यह गाथा पुष्टि भी करती है। किसीको यह शंका उत्पन्न होगी कि इसका क्या कारण ? तो वस्तु ऐसी है कि-कन्दमूल भक्षणमें अनन्तानन्त एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा होती है। हमारे शरीरमें एक ही जीव है, अतः यह जीव स्वतन्त्र रूपसे शरीरके माध्यमसे क्रिया कर सकता है, जब कि कन्दमूलके किसी भी जातके अति सूक्ष्म भागमें भी अनन्ता जीव होते हैं। तथा उनके बीच एक ही शरीर होता है। शरीर एक और उस एकके ही मालिक अनन्ता, ऐसी विचित्रता और पराधीनता वहाँ है। एक सूईके अग्रभाग जितने बटाटाके अंशमें अगर अनन्त जीव होते हैं तो पूरा बटाटामें कितने होंगे? इसका ख्याल करना। ज्ञानी तों वीतराग-सर्वज्ञ थे। अतः उन्होंने तो पदार्थोंको ज्ञानसे तटस्थभावसे प्रत्यक्ष देखने के बाद जगतके कल्याणके लिए कमसे कम पाप मार्गका भी प्रकाशन करके जगतको सन्मार्ग पर चढ़ानेका सत् प्रयत्न किया है। दूसरी बात यह है कि एक सूईके अग्रभाग पर बहुत-से लाख जन्तु रह सकते हैं ऐसा आजका जड़-विज्ञान कहता है तो चैतन्य वैज्ञानिक भगवान ज्ञानदृष्टिसे आत्मप्रत्यक्ष (बिना प्रयोग ) सूईके अग्रभाग पर अनन्ता जीवोंका अस्तित्व देख सकता है इसमें शंकाका जरा-सा भी स्थान नहीं है / अतः कन्दमूलादिके भक्षणसे अनन्त जीवोंकी हिंसा होती है, इस लिए उसकी गतिमें रुकावट आती है। यद्यपि यह तापस और आगे कहे जानेवाले जीव तपस्यादिक धर्मका पाप कर्म रहित सेवन करे तो वे उससे भी आगे उपज सकते हैं, परन्तु उनमें वास्तविक भेदज्ञानका अभाव होनेसे तप-धर्म करते करते भी पापसेवन तो करते ही है / परन्तु एक तपश्चर्याके समान कायक्लेश आदि अनेक बाह्य कष्ट सहन करनेसे उसके फलस्वरूप ज्योतिषी निकायमें उपज (जनम ) सकते हैं, ऐसा सर्वत्र समझना / ___ चरग-परिवायबम्भलोगो जा–चरक अर्थात् स्वधर्म नियमानुसार चार-पाँच लोग मिलकर भिक्षाटन करे-चरे वह / और परिवाय-परिव्राजक ये कपिलमतके जो सन्त हैं वे / ये चरक-परिव्राजक दोनों यावत ब्रह्मलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं। जा सहसारो पंचिंदितिरिअ-पर्याप्ता गर्भज तियंच पंचेन्द्रिय हाथी आदि सहस्रार तक उत्पन्न हो सकते हैं / यह कथन सम्बल-कम्बलकी तरह जो तिर्यंच किसी निमित्तसे या जातिस्मरणसे सम्यक्त्व (सच्चे तत्त्वकी श्रद्धा) और देशविरतिको पा गये हैं उनके लिए Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरक-परिव्राजक-श्रावकादिकी उत्कृष्ट गति ] गाथा 154-155 / [331 समझना, ये तिर्यंच होते हुए भी उपरोक्त जीवोंके बदले ज्यादा लाभ उठाते हैं इसका प्रमुख कारण सम्यक्त्व और (या) देशविरतिकी प्राप्ति यह एक ही है / जब उक्त जीव त्याग-तपरूप धर्म अमुक प्रकारसे करते हैं, परन्तु वह अज्ञानरूपसे और जिनेश्वरके मार्गसे विपरीतरूपसे होनेके कारण एक बार थोड़ा-ज्यादा फल देकर अन्तमें निष्फल होते हैं / जा अच्चुओ सड्ढा-श्रावक उत्कृष्टसे मरकर यावत् अच्युत देवलोकमें उत्पन्न होता है, परन्तु वह देशविरतिवन्त-संयमी शुभभावनाके योगसे शुभ आयुष्य बन्ध करके जो मरनेवाला हो वह ही / ___ यहाँ इतना विशेष समझें कि तिर्यंचकी देशविरतिसे श्रावककी देशविरति मनुष्यभवके लिए अधिक निर्मल, उत्तम प्रकारकी प्राप्त करता होनेसे उस गतिके लाभको अधिक पा सकता है / [154] अवतरण-प्रस्तुत प्रकरणको आगे चलाते मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं, यह बताते है / जइलिंग मिच्छदिट्ठी, गेवेज्जा जाव जति उक्कोसं / पयमवि असद्दहतो, सुत्ततं मिच्छदिट्ठी उ // 155 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 155 / / विशेषार्थ-लिंग साधुका हो अर्थात् रजोहरणादि साधुवेष आदि धारण किया हो लेकिन मिथ्यादृष्टि हो वह उत्कृष्टसे नव प्रैवेयक तक उत्पन्न होता है / - कोई जीव जिनेश्वर भगवन्तकी अथवा कोई प्रभाविकलब्धिधारी यतिकी रिद्धि सिद्धि, देव-दानव और मानवोंसे होते पूजा-सत्कारादि देखकर वह अपने मनमें विचार करें कि मैं भी यदि ऐसा यतिपन लूँ तो मेरा भी पूजा-सत्कार होगा, ऐसा केवल ऐहिक सुखकी इच्छासे (नहीं कि मुक्तिकी) कंचन-कामिनीके त्यागी ऐसे उस यतिकी तरह ही यतिपन धारण करें, और साधु होने के बाद ऐसे अर्थात् इस प्रकारके उत्कृष्ट कोटिका संयम रखें कि मक्खीकी पंखको भी किलामन होने न दे ऐसी सूक्ष्म रीतसे जीवरक्षादि क्रिया करें, यद्यपि यह सब वह श्रद्धा रहित अर्थात् प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्यके गुणोंसे भी विकल होने पर भी बाह्य दशविध चक्रवाल समाचारीकी क्रियाका उत्कृष्ट रूपसे यथार्थ आराधन करता होनेसे मात्र उसी क्रियाके बल पर [ अंगारमर्दकाचार्यवत् ] उत्कृष्ट से नव ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है। मिथ्या क्रिया भी कितनी उच्च गति प्राप्त करा सकती है। यह क्रिया मार्गकी जो लोग अवगणना करते हैं वे इसका गहरा विचार करें, और अगर मिथ्या क्रिया भी ऐसा फल दे सकती है तो सम्यक् क्रिया कैसा फल दे सके यह भी सोचे / मिच्छदिट्ठि-मिथ्यादृष्टि भी नौ ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकती है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 155-156. मिथ्यादृष्टि अर्थात् क्या ? तो मिथ्यात्व मोहनीय नामकी एक प्रकारकी सत्-सच्ची दृष्टिको आच्छादित करनेवाले कर्म विशेषके उदयसे जीवकी दृष्टि-विचारणा-श्रद्धा मिथ्या अर्थात् विपरीत हो जाती है तब उसे 'मिथ्यादृष्टि' कहते है। जिस तरह धतूराका बीज खानेवाला मनुष्य सफेद चीजको भी ज्यों पीली देखता है, उसी तरह मोहनीय कर्मसे आच्छादित दृष्टिवाला मनुष्य जिसमें देवके यथार्थ लक्षण न हो, उसमें देवत्वबुद्धि करता है। जिसमें गुरुके सच्चे लक्षण न हो, उसे गुरुके रूपमें स्वीकारता है। जिसमें धर्मका वास्तविक लक्षण मिलता न हो ऐसे धर्मको धर्मके रूप में स्वीकारता है / यह व्यवहारसे मिथ्यादृष्टिकी स्थूल व्याख्या है। ___ इसका सामान्य फलितार्थ यह हुआ कि-श्री सर्वज्ञ-वीतराग देव कथित जीव-अजीवपुण्य-पापादि तत्त्वोंको यथातथ्य रूपसे या संपूर्ण रूपसे न स्वीकारे, अर्थात् कि जो न्यूनाधिक रूपसे स्वीकारे वह मिथ्यादृष्टि है। वीतरागके हरेक तत्त्वका स्वीकार करे, परन्तु प्रस्तुत गाथामें बताये गये सूत्रोक्त एकाद पद या विषयका भी जो अस्वीकार करे तो वह भी मिथ्यादृष्टि है। विशेष नोंध-ज्यादातर बहुत-सी आत्माएँ अपनी अल्पज्ञताका विचार करती नहीं हैं और सर्वज्ञके वचन कोई वार न समझ सके, अथवा उसकी गहरी विचारणा अथवा उसके तत्त्वज्ञानके गुढ़ रहस्य स्वबुद्धिसे समझ न सके तो वे कईबार उसके यथातथ्य-सत्य वचनों में शंकित बन जाती हैं और आगे बढ़कर यह वस्तु जो सर्वज्ञने कही है वह भी सत् नहीं है ऐसी श्रद्धा कर बैठती हैं। परिणामस्वरूप यह आत्मा सर्वज्ञके ज्ञानकी प्रत्यनीक बन जाती है / एक सर्वज्ञके ज्ञानमें शंका अर्थात् अनन्ता सर्वज्ञोंकी आशातना, क्योंकि सर्वज्ञोंकी अर्थप्ररूपणा समान होती हैं। आजकी बुद्धि अनन्तांश भी नहीं है अतः कोई वस्तु स्वल्पबुद्धिके कारण न समझ सके तो महानुभाव उसे समझनेकी कोशिश करे-प्रयत्नशील रहे। सम्यग्दृष्टि खीलानेका प्रयास करे, परन्तु 'असत् है' ऐसा कभी भी मान न ले / [155) ___ अवतरण-पूर्व गाथामें सूत्रवचनकी असद्हणा (अनादर) नहीं करना चाहिए ऐसा कहा है तो सूत्र अर्थात् क्या ? उन्हें किसके द्वारा रचित हो तो प्रमाणभूत मान जायँ ? यह बताते है। सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च / सुयकेवलिणा रहयं, अभिन्नदसपुग्विणा रइयं // 156 / / गाथार्थ-जो शास्त्र-ग्रन्थ गणधर भगवन्त रचित, प्रत्येकबुद्ध रचित, श्रुतकेवली रचित और सम्पूर्ण दशपूर्वी रचित है, उसे सूत्र कहा जाता है / // 156 / / विशेषार्थ-गणहर अर्थात् गणधर / गणधर किसे कहते है और यह कौन हो Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थात् क्या ? कौन कौनसी रचना सूत्ररूपमें माना जायँ ? ] गाथा-१५६ [ 333 सकता है ? उसके लिए थोड़ा कुछ समझ लेते है। ___हरेक युगमें अपने-अपने कालमें तीर्थंकर होनेवाली 24 व्यक्तियाँ जन्म लेती हैं। हरेक तीर्थकरकी आत्मा परभवमेंसे मनुष्यलोकमें जब अवतार धारण करती हैं तब तीन ज्ञान सहित होती हैं / अर्थात् कि हमसे एक ज्ञान अधिक होता है। जन्मके बाद स्वयंसम्बुद्ध होनेसे यथायोग्य समय पर संसारका भोग कर्मका क्षय होते ही गृहस्थाश्रममें संयम-चारित्रपालन अशक्य होनेसे इस अवस्थाका त्याग करके, सर्व पापके त्यागरूप पंचमहाव्रतादिके नियमस्वरूप चारित्रका अंगीकार करते है। विश्वकल्याणके लिए ग्रहित चारित्रको उनकोटिकी अहिंसा-तप-संयमकी आराधनासे निर्मल बनाते जाते है। इस आराधनामें उपस्थित होते अनेक विघ्न और उपद्रवको वे समभावसे सहते हैं / अन्तर्मुख बनकर स्वभावरमणताके क्लिष्ट कर्मोंका क्षय करते हैं। परिणामस्वरूप वे सम्पूर्ण ज्ञानी और सम्पूर्ण चारित्रवान् बनते हैं। उस समय ही उनके प्रभावसे देवलोकमें देवविरचित समवसरण (प्रवचन योग्य सभास्थान ) गृहमें बिराजमान होकर देव, मनुष्य तथा पशुपक्षियोंके समक्ष अपना प्रथम प्रवचन देते हैं। यह प्रथम प्रवचन पूर्ण होते ही भगवन्तका. प्रधान नवदीक्षित शिष्यगण जो समर्थ बुद्धिनिधान होता है, उसको गणधरनामकर्मका उदय होते ही गणधर पद स्थापनेका समय आते गणधर बननेवाली व्यक्ति प्रथम गुरुस्थानीय तीर्थंकर परमात्माकी विनयपूर्वक प्रदक्षिणा करके, प्रभुके सामने हाथ जोडकर खड़ी रहती है। इन्द्र महाराज सुगन्धी वासचूर्णका थाल लेकर खड़े रहते है। भगवन्त खड़े होकर गणधर भगवन्तों पर वासक्षेप डालकर उनको गणधरपद पर स्थापित करते हैं। यह पद प्राप्त होते ही उनमें अपूर्व शक्तियोंका प्रवाह बहने लगता है। विश्वकल्याणके लिए शास्त्रकी रचना जरूरी होनेसे गणधर शास्र रचनाकी तैयारियाँ करते हैं और उसी समय पर ही भगवन्तसे सविनय प्रदक्षिणा करके प्रश्न करते हैं कि-करुणावत्सल भगवन् ! आप सम्पूर्ण ज्ञानी बने हैं। अखिल (समग्र) विश्वके सम्पूर्ण चराचर भावोंको हस्तामलकवत् देख रहे हैं, विश्वके सम्पूर्ण पदार्थ और उनके भावोंको आप साक्षात् देख सके हैं तो भगवन्त मैं प्रश्न करता हूँ कि इस विश्वमें किं तत्त्वं? तब भगवन्त इसका प्रत्युत्तर देते, हैं कि ' उपन्नेइ वा' अर्थात् ‘पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इतना ही बोलते हैं। फिरसे पूर्ववत् विधि करके सामने खड़े रहकर प्रश्न करते हैं कि-भगवन् किं तत्त्वं ? तब भगवंत उत्तर देते हैं कि विगमेह वा' अर्थात् ‘पदार्थ विलीन होते हैं। उसी प्रकार तीसरी बार प्रश्न करते हैं कि-भगवन् किं तत्त्वं ? इसका उत्तर मिलता है कि 'धुवेइ वा ' अर्थात् ‘पदार्थ ध्रौव्य एवं स्थिर हैं। बादमें भगवन्त यह त्रिपदी गणधरोंको अर्पण करते हैं। सब पदार्थके बीज रूप प्रत्युत्तर ज्ञानको पाकर गणधर उस पर गम्भीर और गहन चर्या (विचारणा) तुरन्त ही करते हैं और अगाध ज्ञानका प्रादुर्भाव (प्रगट होना) होते ही Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 156 बीजबुद्धिके स्वामी वे उसी समय ही अन्तर्मुहूर्त=४८ मिनट में ही बारह 30 अंग सूत्रोंकी रचना करते हैं। हरेक गणधर उसी तरह ही विधि करके, त्रिपदी पाकर, स्वतन्त्ररूपसे द्वादशांगी रचते है। अतः हरेककी द्वादशांगी स्वतन्त्र होती है, फिर भी उसे शब्दरूपसे ही भिन्न समझे, क्योंकि अर्थसे तो सबकी रचना समान ही होती है, जिससे एकवाक्यता टिक सकता है। ये द्वादशांगी ही उन्हीं गणधरगुम्फित सूत्र हैं। उसे आगम शास्त्रोंसे भी पहचाना जाता है। आगमशास्त्रोंके भी दो भेद किए गये हैं। एक अर्थागम और दूसरा सूत्रागम (या शब्दागम ) / तीर्थंकर आगमका उपदेश करते हैं, अतः वे स्वयं अर्थागमके कर्ता बनते हैं और इस अर्थसे ही तीर्थंकरोंको 304 आगम आत्मागम है। और यह अर्थागम गणधरोंको तीर्थकर द्वारा साक्षात् मिलनेसे. गणधरकी अपेक्षा रूप वह अनन्तरागम ( दूसरी व्यक्ति द्वारा प्राप्त ) है / लेकिन अर्थागमके आधार पर ही गणधर सूत्र रचना करते होनेसे सूत्रागम अथवा शब्दागमके कर्ता गणधर ही माने जाते है और इससे गणधरगुम्फित आगम ही सूत्र कहलाते हैं। .. आगमके अर्थका उपदेश तीर्थंकरोंने दिया है परन्तु उसे सूत्ररूप या ग्रन्थबद्ध करनेका सम्मान तो गणधरोंके पक्षमें ही जाता है। अतः सामान्य भाषामें आगम तीर्थंकर रचित कहा जाता है, परन्तु उसके बदले तीर्थंकरभाषित कहे और गणधर विरचित माने यह ही बराबर है / आगमोंका अर्थमूल भले तीर्थंकरोंके उपदेशमें रहा हो परन्तु इससे वे ग्रन्थके रचयिता बन जाते नहीं है / यहाँ इतनी प्रासंगिक उपयोगी हकीकत बतायी है। . प्रत्येकबुद्ध-संसारकी प्रत्येक किसी भी चीजसे प्रतिबुद्ध हुए हो वह / अर्थात् तीर्थकर परमात्मा या सद्गुरु आदिके उपदेशरूप बिना कोई निमित्त (कारण) संध्या समयके बादलोंके रंग ज्यों बदलते रहते हैं, उसी तरह संसारकी पौद्गलिंक हरेक चीज भी प्रतिक्षण परावर्तनशील है / आज जो वस्तु प्रिय और अच्छी लगती है वही चीज कुछ ही क्षणों के बाद अप्रिय और असार भी बन जाती है, अतः कहाँ कहाँ राग-द्वेष करे ? ऐसा कोई वैराग्यजनक कारण पाकर जो लोग चारित्रवान् बने हो वे / ऐसी लघुकर्मी आत्माओं द्वारा रचित ग्रन्थोंको भी सूत्र कहा जाता है / जिस तरह नमिराजर्षि आदि द्वारा रचित नमि अध्ययन आदि अध्ययन जो हैं। ___श्रुतकेवली-बारहवें अंगका चौथा विभागगत माना गया चौदहपूर्वरूप श्रुत-शास्त्र ज्ञानका जो सम्पूर्ण ज्ञाता हो वह / जो केवली सर्वज्ञ न होकर भी प्रत्यक्ष ज्ञानका भले ही 303. बिना द्वादशांगका आगमश्रुत जिसे अंग बाह्य कहा जाता है, उसके कर्ता स्थविर है या गणधर इसके लिए चूर्णि-भाष्य टीकाकारोंमें काफी मतभेद प्रवर्तते हैं। 304. अत्थं भासइ अरिहा, सूत्रं गंथति गणहरा निउणं / सासणसहियट्ठाए, तओ सुत्त पवत्तई // 1 // Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पूर्ण दशपूर्वी, छद्मस्थयति तथा श्रावकका जघन्योत्कृष्ट उपपात] गाथा 156-158 [335 अभाव है, लेकिन चौदहपूर्वका ज्ञान ऐसा विशाल है कि उस ज्ञानसे केवली जैसी अर्थव्याख्या करनेमें समर्थ होनेसे श्रुतकेवली कहलाता है। चौदहपूर्वियों द्वारा रचित ये ३०५शास्त्र भी सूत्र ही कहलाता है। भगवान महावीरके शासनमें शय्यंभवसूरि, भद्रबाहुस्वामी, स्थूलभद्रस्वामी आदि चौदह पूर्वधर हुए हैं। उनके रचित दशवैकालिक प्रमुख ग्रन्थ तथा नियुक्ति आदि शास्त्रको सूत्ररूप माना जाता है / सम्पूर्ण दशपूर्वी आर्य वनस्वामी, आर्य महागिरि प्रमुख इत्यादि द्वारा रचित ग्रन्थ सूत्र कहलाते हैं / क्योंकि वे सम्पूर्ण दशपूर्वी नियमा सम्यग्दृष्टिवान् होते हैं, अतः थोड़ासा न्यून भी दशपूर्वी हो तो उसके ग्रन्थ सूत्र रूप मानते-मनाते नहीं है, क्योंकि उसमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीव होते हैं, जिससे उसके लिए नियम न हो सके, क्योंकि मिथ्यादृष्टि पदार्थकी गलत व्याख्या-परिभाषा भी कर लेते हैं / अतः उनका कथन सच्चे रूपमें कल्याणकारक कहा नहीं जा सकता / इससे क्या हुआ कि उनका ही सूत्र-वचन मान्य करें कि जिनके रचयिता अगाध बुद्धिके मालिक और सम्पूर्ण विकसित दृष्टिवाले हैं / इस लिए ही तो उनके वचन गम्भीर और रहस्यपूर्ण (अर्थपूर्ण ) होते हैं और वे ही विश्वोपकारक बन सकते हैं / [ 156 ] अवतरण-अब छद्मस्थ यतिका तथा श्रावकका उत्कृष्ट तथा जघन्य उपपात कहते हैं / छ उमत्थसंजयाणं, उववाओ उक्कोसओ सबढे / तेसिं सड्ढाणंपि य, जहन्नओ होइ सोहम्मे // 157 / / लंतम्मि चउदपुब्बिस्स, ताबसाईण वंतरेसु तहा / एसो उववायविही, नियनियकिरियठियाण सव्वोऽवि // 158 / / - 305. चौदहपूर्व अर्थात् क्या ? श्री तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा अर्थगांभीर्य युक्त और बीजबुद्धिनिधान लब्धिसम्पन्न श्री गणधरमहाराजोंके सूत्ररूप रची गयी जो श्री द्वादशांगी है उन पैकी बारहवें द्रष्टिवाद नामक अंगका जो परिकर्म, सूत्र, पूर्वानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इत्यादि ऐसे पांच विभाग हैं। उनमें 'पूर्वगत' नामका जो चतुर्थ विभाग है, उसमें चौदहपूर्वका समावेश होता है। इनमें प्रथम पूर्व एक गजराज जितने मसीके ढ़गसे लिख सके उतना बड़ा होता हैं / दूसरा पूर्व दो गजराजोंके प्रमाणरूप, तीसरा पूर्व चार हाथियों के प्रमाण, चौथा पूर्व आठ हाथियोंके प्रमाण जितना इस तरह आगे-आगे द्विगुण द्विगुण हाथी प्रमाण मसीके ढंगसे लिखा जा सके इतना बड़ा हरेक पूर्व होता है ऐसा पूर्वाचार्योंने निर्दिष्ट किया हैं / ऐसे चौदहपूर्वरूप श्रुतको सूत्र और अर्थके द्वारा जो महर्षि जान सकते हैं, उनको 'चौदहपूर्वी ' किंवा 'श्रुतकेवली' कहा जाता है / अतीत-अनागत असंख्य भवका स्वरूप बतलानेकी असाधारण शक्ति भी उनमें होती हैं / वे सभी श्रुतकेवली भगवन्त सूत्रकी अपेक्षासे समान किन्तु अर्थकी अपेक्षासे षट्रस्थानपतित हैं / Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 157-158 गाथार्थ छद्मस्थ यतिका उपपात उत्कृष्टसे सर्वार्थसिद्धमें होता है। यतिका तथा श्रावकका भी जघन्य उपपात सौधर्ममें होता है। // 157-158 // .. विशेषार्थ-यति कहते साधु / वे दो प्रकारके हो सकते हैं। एक तो सम्पूर्ण ज्ञानयुक्त केवली यति और दूसरे अपूर्ण ज्ञानवाले जो मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यवको यथासंभव धारण करते हैं, वे छद्मस्थ यति। इनमें केवली यति तद्भव मोक्षगामी ही होते हैं अतः उनके उपपातकी विचारणा (चर्चा) ही अस्थान पर हैं। क्योंकि मोक्षमें जानेके बाद उनका पुनरागमन कभी भी होता ही नहीं है। दूसरा उन केवली जो न्यून ज्ञानवाले छद्मस्थ संयमी हैं, गाथामें तो छद्मस्थ शब्द है तो छद्म किसे कहे ? छादयति आत्मनो यथावस्थितं रूपमिति छद्म अर्थात् जो आत्माके सच्चे स्वरूपको ढंके यह है छद्म / तो यह छद्म ढंकनेवाला कौन ? तो शानावरणादि घातिकर्मचतुष्टयं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घातीकर्म हैं। इनमें आवृत्त बने वे छद्मस्थ। जो चौदहपूर्वधर तथा अन्य मुनिगण हैं वे ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें रहकर शुभ भावसे जब कालधर्म ( अवसान ) पाते हैं तो उत्कृष्टसे त्रिलोकतिलक समान ऐसे उत्तम सर्वार्थसिद्ध विमानमें उत्पन्न होते (जनमते ) हैं। अब जिन्होंने उत्कृष्टरूपसे चारित्रकी आराधना न करते हुए जघन्यरूपसे ही की है ऐसे यति जघन्यसे सौधर्मकल्पमें, या अन्तमें दो से नौ पल्योपमकी स्थितिवाले देवरूपमें जरूर उत्पन्न होते हैं। इस तरह जघन्य श्रावकपन पालनेवाला श्रावक भी अन्तमें सौधर्मकल्पमें पल्योपमकी स्थितिवाले देवरूपमें उत्पन्न होते हैं। इस गतिकी व्यवस्था साधु श्रावक जो स्वआचारमें अनुरक्त है उसे उद्देशकर ही समझनी हैं। लेकिन अपने आचारसे जो साफ-साफ भ्रष्ट है। जो मात्र पूजानेंकी खातिर ही वेश पहनता है और शासनका उड्डाह (मजाक) करनेवाला है, उन लोगोंकी गति तो उनके कर्मानुसार ही समझ लेना। भले ही बाहरी दिखावेमें वे चाहे जो वैसे हो / [157) दूसरी गाथामें जघन्य उपपातका कथन करते हुए प्रथम गाथामें छद्मस्थयतिमें चौदहपूर्वधर भी गिनाए तथा उनका उत्कृष्ट उपपात सर्वार्थसिद्ध पर बताया, अब छद्मस्थ यति पैकी मात्र चौदहपूर्वधरका जघन्य उपपात लांतक तक होता है परंतु उससे नीचा होता ही नहीं हैं और तापसादि (आदि शब्दसे चरक परिव्राजकादि ) जिसका पहले उत्कृष्ट उपपात आ गया है उसका जघन्य उपपात व्यंतरमें (मतांतरसे भवनपतिमें) होता है। उक्त गाथामें कही गयी सर्व उपपातविधि भी अपनी-अपनी क्रियामें स्थित हो उसके Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः संघयणका वर्णन ] गाथा 158-160 [337 लिए ही समझे। परन्तु जो लोग अपने-अपने धर्मके आचारसे भी हीन-क्रिया धर्मको सेवते हैं उनके लिए तो अपने-अपने कार्यानुसार ही समझे, जो बात ऊपर कही ही है। [ 558] // देवगतिमें कौन-कौनसे जीव आकर उपजते हैं ? उसका यन्त्र // जातिनाम रस्सीका फन्दा प. ग. मनुष्य तिर्यचका खानेवाला, विषभक्षी, शुभभावसे चारों निकायमें, जल-अग्निमें मरकर व्यन्तर असं. मनुष्य तिर्यंचका प्रवेशकर, भूख-तृषा | में जाते हैं भ. से ईशान तक से दुःखी, गिरिपात संमूर्छिम तिर्यचका करनेवाले म. से व्यन्तर तक चरक-परिव्राजक-भ. से ब्रह्मबालतपस्वी, . | भवनपतिके ____ कल्प यावत् जघ.से व्यन्तरमें उत्कृष्ट रोषी, तपसे | असुरोंमें ग. प. पंचेन्द्रिय तिर्यच सहस्रार अहंकारी, वैरासक्त | शुभभावसे कल्प यावत् ... | उपजते हैं श्रावक-उत्कृष्ट अच्युतान्त तापस-भव. से ज्यो. तक यावत् जघ० सौधर्ममें, जघन्यसे व्यन्तरमें यतिलिंगी मिथ्यादृष्टि-नौ ग्रै० छद्मस्थयति - सर्वार्थसिद्धमें चौदहपूर्वी - जघ० लांतकमें व्यन्तरमें अवतरण-इस प्रकार अध्यवसाय तथा आचाराश्रयी उपपात विधि कहकर संघयण द्वारा उपपात कहनेका होनेसे प्रथम छः संघयणका वर्णन करते हैं। वज्जरिसहनारायं, पढमं बीअं च रिसहनारायं / नारायमद्धनारायं, कीलिया तह य छेवटुं / / 159 / / एए छ संघयणा, रिसहो पट्टो य कीलियावज्जं / उभओ मक्कडबंधो नाराओ होइ विन्नेओ / / 160 / / गाथार्थ-पहला वज्रऋषभनाराच, दूसरा ऋषभनाराच, तीसरा नाराच, चौथा अर्धनाराच, पाँचवाँ कीलिका, छठा छेदस्पृष्ट-छेवढं इस प्रकार छः संघयण है / उनमें वनऋषभनाराचका अर्थ [ गाथामें ही ] करते हुए जणाते हैं कि वन्न-कीलिका (अर्थात् कीलि, मनुष्यके शरीरमें बृ. सं. 43 यावत् जघ० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 159-160 एक अस्थि ), ऋषभ अर्थात् पट्टा और नाराच अर्थात् उभय दोनों ओर मर्कटबन्ध हो उसे प्रथम संघयण जानें / // 159-160 / / विशेषार्थ-संघयण अथवा संहनन ये दोनों शब्द एकार्थकवाची है / संहनन अर्थात् संहन्यन्ते संहतिविशेषं प्राप्यन्ते शरीरास्थ्यवयवा यैस्तानि संहननानि अर्थात् जिससे शरीरके अवयव तथा हड्डियाँ विशेष रूपसे मजबूत हो सके उस प्रकारके बंधारणको संहनन-संघयण कहते हैं। (संघयण प्राकृत शब्द है ) - अथवा संघयणमद्विनिचओ इस पदसे * अस्थिका समूह-गठन विशेष ' उसे संघयण कहते हैं। दूसरे मतसे संहनन माने 'शक्तिविशेष' ऐसा भी अर्थ करते हैं। अथवा उत्तरोत्तर दृढ-दृढतर जो शरीरका गठन (रचना) है वह / . ये संघयण छः प्रकारके हैं / 1. वज्रऋषभनाराच-वज्र अर्थात् कीलि, ऋषभ अर्थात् पट्टा और नाराच कहते मर्कटबन्ध-ये तीन बन्धारण (रचना) जिसमें हो वह / यह संघयण महान पुरुषों में होता है और वह शरीरके संधिस्थानों में होता है। वहाँ प्रथम मर्कटबन्ध अर्थात् आमने सामने हड्डीके भाग एक 30 दूसरे पर आँटी लगाकर जुटे हुए हो 307( वानरके बच्चेके समान ) और उस अस्थिके मर्कटबन्ध पर मध्य भागमें नीचेसे ऊपर तक चारों ओरसे हड्डियोंका एक पट्टा वृत्ताकारसे घिरा हुआ होता है, और पुनः उसी पट्टेके ऊपर मध्यभागमें हड्डीसे बनी हुई एक मजबूत कीलिका पूरे पट्टेको भेदकर, ऊपरके मर्कटबन्धको भेदकर, अथवा नीचेके पट्टेको तथा मर्कटबन्धको भेदती हुी बाहर निकलती है अर्थात् आरपार निकली हुी होती है। इसे पहला वज्रऋषभनाराच संघयण कहा जाता है। यह संघयण 'इतना तो मजबूत होता है कि ऐसी हड्डीकी संधि पर चाहे जितना भी उपद्रव-प्रहार करें या चोट लगायें, फिर भी इसका अस्थिभंग होता ही नहीं है और न तो 306. मल्लकुस्ती लड़नेवाले दावपेच खेलते हुए जिस प्रकार आमने-सामने बांहें (बाहु) पकड़ते हैं, वैसे पकड़ना। 307. मर्कट अर्थात् वानर, अर्थात् वानरका बच्चा अपनी माताके पेटपर ज्यों चिपक जाता है और उसके बाद वानर चाहे जितनी भी उछल-कूद करें फिर भी वह बच्चा अलग होता नहीं है, इसी प्रकारके बन्धको मर्कटबन्ध कहते हैं। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः संघयणका वर्णन] गाथा 159-160 [330 वहू भाग 30 “संधिसे अलग होता है / अर्थात् यह अत्यंत ही मजबूतसे मजबूत हड्डियोंकी गठन-रचना है। 2. ऋषभनाराच-इस संघयणमें सिर्फ वज्र शब्द नहीं है, अतः मर्कटबन्ध तथा उसके ऊपर पट्टा-ये दोनों हों लेकिन एक ३०“कीलि न हो वह / 3. नाराच-इसमें सिर्फ मर्कटबन्ध अकेला ही रहता है / [अनुक्रमसे एक-एक गठन घटता जाता है और इससे संघयणमें उत्तरोत्तर बलहानि होती समझे। ____4. अर्धनाराच-इसमें मर्कटबन्ध होता है लेकिन अर्ध विशेषणसे आधा मर्कटबन्ध अर्थात् एक हड्डीका छोर सीधा और कुन्द होता है। उस पर दूसरा सामनेकी हड्डीका छोर, इसी सीधी हड्डी पर चक्कर काटता हुआ वृत्ताकारमें लगाया हुआ रहता है, इसी चक्कर काटती हुई हड्डीके दूसरे भाग पर हड्डीकी कीलिका आरपार निकली हुी होती है / 5. कीलिका-दोनों अस्थि-हड्डियाँ बिना चक्कर३१° लगाए (बिना वृत्ताकार ) आपसमें सीधे रूपमें जुड़े हुए होते हैं और दोनों हड्डियोंको बींधकर आरपार हड्डीकी कीलिका निकली हो वह। 6. छेवढं-यह संघयण अंतिम कोटिका है / इसके हड्डीकी संधिके स्थान पर आमनेसामने जो छोर हैं उनमेंसे एक हड्डीके गड्ढे में दूसरी हड्डीका कुंठित छोर थोड़ा सा अंदर स्पर्श करके रहा हुआ होता है। इसे भाषामें छेदस्पृष्ट ( उसी हाड़के अन्तिम भागसे स्पर्शित ) कहा जाता है। उसी तरह इसे 311 सेवार्त्तसे भी पहचाना जाता है। अर्थात् 308. जिस तरह एक सुतार दो लकड़ेको एक दूसरे पर रखकर जोड़े तो भी वे हिल पाते हैं / परन्तु उसे देढ करके फाँस लगाकर बिठाए, बादमें लोहेकी पट्टीसे चारो ओरसे जकड़कर, बादमें पट्टी और फाँसको भेद सके वैसा मजबूत चार इंच बड़ा देसी कीला किसी भी प्रकार अलग न हो उसी प्रकार लगाए, उससे भी अधिक मजबूत इस रचना-गठनको समझे / 309. कोई इसे 'वज्रनाराच' भी कहता है। अर्थात् कीलिका सही लेकिन पट्टा नहीं। इसे दूसरा संघयण कहते हैं। ____310. बिना आँटी लगाए अर्थात् दो लकड़े एक दूसरेपर रखकर भले ही उसमें कीलिका लगायी हो, फिर भी किसी भी वक्तपर वे लकड़े शायद हिल जानेका या शिथिल हो जानेका प्रसंग हो सकता है। ___311. अथवा बुढ़ापेमें तैरकी सेवा ( मालिस या मर्दन ) बार-बार मागते रहते हैं, घड़ीमें घुटने जकड जाते हैं, तो घड़ीमें कलाई दुःखने लगती हैं, तो घड़ीमें दूसरे जोड परन्तु तैल-मालिस करते ही तुरन्त वे फिरसे काम देने लगते हैं / दिगम्बरीय ग्रन्थोंमें इस संघयणका नामभेद है / Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 161-162 सेवा से आर्त = पीड़ित / किसी सामान्य कारण मात्रसे ही इस हाड़का गठन (रचना) टूट पड़ता है जिसे हड्डी टूटना या उतर जाना कहते हैं और तैलादिक मर्दन आदिके सेवनसे फिरसे हड्डी मूल स्थानमें बैठ (गड्ढे में ) जाती है / अतः दर्दसे पीड़ित होते हुए भी सेवा मिलनेसे स्वस्थानको जो अस्थिरचना प्राप्त होती है वह / वर्तमानके जीवोंमें हमें यह अन्तिम संघयण मिलता है। | 159-160] अवतरण-उन छः संघयणोंमेंसे किस जीवके कितने संघयण हों ? उसे बताते हैं / छ गम्भतिरिनराण, समुच्छिमपणिदिविगल छेवट्ठ / . सुरनेरइया एगि-दिया य सम्वे असंघयणा / / 161 / / गाथार्थ--विशेणर्थवत् / // 161 // विशेषार्थ -गर्भधारण द्वारा उत्पन्न होते (जनमते ) गर्भजतिथंच तथा मनुष्य आदिमें भिन्न भिन्न जीवोंकी अपेक्षासे छः संघयण मिल सकते हैं / संमूर्छिम पंचेन्द्रिय ३१२मनुष्य तथा तिर्यंच और विकलेन्द्रिय ये जो कि दोइन्द्रिय, त्रीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय होते हैं, इन्हें एक ही अन्तिम छेवटुं-सेवात संघयण होते हैं / देव-नारक और एकेन्द्रिय ये सभी संघयणरहित होते हैं अर्थात् उनमें अस्थिरचनात्मकपन होती नहीं है। लेकिन देवोंकी चक्रवादिसे भी अधिक महाशक्तिशाली होनेके कारण उन्हें औपचारिक वऋषभनाराच संघयणवाले समझे जाते हैं, क्योंकि वे उत्कृष्ट शक्तिविषयक समानता जरूर रखते हैं। इस तरह एकेन्द्रियको अपनी अल्पशक्तिके कारण औपचारिक सेवा संघयणवाले मी माना गया है, क्योंकि अल्पशक्तिका विषय अल्पबलवाले सेवात संघयणके साथ घटा सकते हैं / [ 161] // किस जीवके कितने संघयण हों ? उसका यन्त्र // गर्भज मनुष्य गर्भज तिर्यच विकलेन्द्रिय देवताको सेवात संघयण नहीं है स. पं. तिथंच स. पं. मनुष्य सेवात | नारकीको एकेन्द्रियको अवतरण-अब संघयणाश्रयी ऊर्ध्वगतिका नियमन बताते हैं। छेवटेण उ गम्मइ, चउरो जा कप्प कीलिआईस / घउसु दुदुकप्पवुड्ढी, पढमेणं जाव सिद्धीवि / / 162 // .. 312. मतांतरसे कोई छः भी घटाता है / Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघयणाश्रयी गतिका नियमन और छ. संस्थानका वर्णन ] गाथा 162-164 [ 341 गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 162 / / विशेषार्थ-अन्तिम छेवठ्ठा संघयणवाले जीव अधिकसे अधिक भवनपतिसे लेकर सौधर्मादि प्रथमके 3१३चार कल्प तकमेंसे ही उत्पन्न हो सकते हैं। कीलिका संघयणवाले जीव ब्रह्म यावत् तथा लांतक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं। अर्धनाराच संघयणवाले शुक्र तथा सहस्रार देवलोकमें, नाराच संघयणवाले आनत-प्राणतमें, ऋषभनाराचवाले आरण अच्युत यावत् और वनऋषभनाराच संघयणवाले जो चाहे उसी गतिमें यावत् सिद्धिस्थान पर भी उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि ये संघयणवाले तो तद्भव पर योग्यताको पाकर उसके लायक भी बन सकते हैं। [162) // संघयणाश्रयी गतियन्त्र // // संघयण-संस्थान नाम यन्त्र // छेवट्ठा सं. | म. से चौथे / 1 वज्रऋषभ- | समचतुरस्र वाला | कल्प यावत् / नाराच कीलिका सं. | भ. से / 2 ऋषभनाराच | न्यग्रोध वाला लांतकान्त अर्धनाराच | भ. से 3 नाराच सहस्रारान्त नाराच भ. से 4 अर्धनाराच वामन प्राणतान्त ऋषभनाराच | भ. से | 5 कीलिका अच्युतान्त वज्र ऋ. भ. से 6 छेवटुं / हुण्डक नाराच ___ सिद्धशिलांत अवतरण-संघयण भी कुछ संस्थानसे अनुलक्षित है, इससे -- संस्थान 'का वर्णन करते हैं। समचउरंसे निग्गोह, साइ वामणय खुज्ज हुंडे य / जीवाण छ संठाणा, सव्वत्थ सलक्खणं पढमं / / 163 // नाहीइ उवरि बीअं, तइअमहो पिठि-उअरउरवज्जं / सिर-गीव-पाणि-पाए, सुलक्खणं तं चउत्थं तु // 164 // ___313. इस लिए ही वर्तमानकालमें हुण्डक संस्थान होनेके कारण जीव अधिकसे अधिक चार देवलोक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं / कुब्ज Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 163-165 विवरीअं पंचमगं, सव्वत्थ अलक्षणं भवे छटुं / गब्भयनरतिरिअ छहा, सुरासमा-हुंडया सेसा / / 165 / / गाथार्थ-समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज और हुंडक ये जीवोंके संस्थान छः हैं। इन सबमें सबसे अधिक सुलक्षणयुक्त पहला, नाभिसे ऊपर लक्षणयुक्त दूसरा, नाभिसे नीचेका ही लक्षणयुक्त तीसरा, पीठ-उदर-उर आदिको छोड़कर शिर-ग्रीवा-हाथ-पग इत्यादि लक्षणयुक्त हो वह चौथा. उससे विपरीत पाँचवाँ और इन सबसे लक्षणरहित जो है वह है छठा / गर्भज नर-तिर्यचोंको छः संस्थानवाले, देवोंको समचतुरस्र और शेष जीवोंको हुंडक संस्थानवाले समझे। // 163-165 // विशेषार्थ-संतिष्ठन्ते प्राणिनोऽनेन आकार विशेषेणेति संस्थान अर्थात् जिस आकार विशेषसे प्राणी अच्छी तरह रह सकते हैं उसे संस्थान कहते हैं। उन संस्थानोंके छः प्रकार हैं, समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज और हुंडक / 1. समचतुरस्र-जिनके अंग सुलक्षणोपेत हों उन्हें समचतुरस्र संस्थानी कहते हैं अर्थात् पद्मासन पर (तथा पर्यकासनपर) बैठे हुए पुरुषके चारों कोण विभाग समान मानवाले हों यह, अर्थात् दाहिने (दक्षिण) घुटनसे बाँये काँध (कन्धा) तक, बाँये : घुटनसे दाहिने काँध तक, दो पैरोंके बीच (कलाईसे लेकर )से नासिका तक और बाँये घुटनसे दाहिने घुटन तक (ये चारों भाग हरेक ओरसे समान मानवाले-नापवाले होने चाहिए)। ____2. न्यग्रोध-यह वटवृक्षका नाम है, अर्थात् जो शरीर नाभिसे ऊपर सभी ओरसे सुलक्षणयुक्त सुशोभित हो और नीचे वटवृक्षकी तरह लक्षणरहित हो वह न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान है। 3. सादि-न्यग्रोधसे विपरीत अर्थात् नाभिके साथ-साथ नीचे अंग अच्छे लक्षणयुक्त और नाभिसे उपरके अंग कुलक्षणयुक्त-कुरूप हो ( शाल्मली वृक्षवत् ) वह / 4. वामन-पीछेकी पीठ-पृष्ट, उदर तथा छाती इन तीनोंको छोड़कर शेष शिर, कण्ठ, हाथ, पैर इत्यादि अंग यथार्थ लक्षणयुक्त हों वह / 5. कुब्ज-वामनसे उल्टा अर्थात् शिर, कण्ठ, हाथ, पग ये सभी लक्षणहीन हों और शेष अवयव लक्षणयुक्त हों वह / 6. हुण्डक-जिसके सभी अंग-अवयव लक्षणरहित हों वह, ये छः ही संस्थान गर्भजमनुष्य तथा तियचोंमें (विभिन्न जीवोंकी अपेक्षासे ) हो सकते हैं / Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस जीवका कौनसा संस्थान हो ? और आगति द्वार ] गाथा 166-167 [ 343 देव हमेशा 314 भवधारणीय अपेक्षासे समचतुरस्र संस्थानवाले (चारों ओरसे समान विस्तारवाले सुलक्षणित ) होते हैं, शेष रहे हुए नारक3१५ एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, संमूर्छिम पंचेन्द्रिय, मनुष्य, 31 तिर्यच इन सभीको हुण्डक संस्थानवाले जानेंसमझें / 163-165 ] // किस जीवका कौन-सा संस्थान हों ? उसका यन्त्र // जातिनाम सं. सं. नाम | सं. सं. | गर्भज मनुष्य विकलेन्द्रियका हुण्डक गर्भज तिर्यच नारकीका देवोंको प्रथम एकेन्द्रियका // इति देवानामष्टमं गतिद्वारम् // vacances screenscecusaca * // देवोंका नवाँ 'आगति' द्वार // . अवतरण हम इसके पूर्व देवोंका गतिद्वार बता चुके हैं। अब दो गाथाओंसे देवोंके .. नौवें आगतिद्वार-वे देव स्वस्थान (अपने स्थानसे) च्यवकर कहाँ आते हैं ? (अथवा कहाँ जाते हैं ?) उसे बताते हैं। जंति सुरा संखाउय-गम्भयपज्जत्तमणुअतिरिएसुं / पज्जत्तेसु य बादर-भूदगपत्तेयगवणेसु // 166 // तत्थवि सणंकुमार-प्पभिई एगिदिएसुं नो जंति / आणयपमुहा चविउं, मणुएK चेव गच्छंति // 167 / / गाथार्थ—सामान्य लोगोंसे बढ़कर देवगण संख्याता वर्ष उम्रवाला होता है जो पर्याप्ता 314. लेकिन उत्तरवैक्रियकी अपेक्षासे ये छः संस्थान हो सकते हैं। 315. एकेन्द्रिय जीवोंमें धरती (पृथ्वी ), अप् , तेउ, वायुके मसुरचन्द, बुलबुला, सूई, पताकादि आकारोंको हुंडकके भेद समान हम मान सकते हैं। 316. कर्मग्रन्थकार छः संस्थान कहते हैं / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 166-168 ऐसे मनुष्य-तिथंच तथा पर्याप्ता बादर ऐसे पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकायमें जाता है // 166 // ____उनमें भी सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार देवलोक तकके देव एकेन्द्रियमें जाते नहीं हैं और आनत प्रमुख उपरितन (ऊपर ऊपरके ) कल्पका देव च्यवकर निश्चित रूपमें मनुष्यलोकमें ही जाते हैं // 167 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम है। देव मृत्यु पाकर कहाँ कहाँ जाते हैं ? उसका जो नियमन स्थान है उसे आगतिद्वार कहते हैं। अधिकमें देव सूक्ष्म पृथ्वी, पानी, सूक्ष्म बादर साधारण वनस्पति, अपर्याप्त बादर पृथ्वी, अपूकाय, प्रत्येक वनस्पतिमें, अग्नि, वायु, विकलेन्द्रिय, असंख्य आयुष्यवाले और संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यच-मनुष्यमें तथा देव और नरकमें उपजते (जनमते) नहीं हैं। सनत्कुमारसे उपरि-उपरि देवोंका पुण्य बढ़ता होनेसे क्रमशः वे देव च्यवकर निम्न गतिमें जाते नहीं है। | 166-167 ] // आगति द्वार पर चारों निकायके देवोंका यन्त्र // भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिषी सौधर्म | पर्याप्त ग. मनुष्य-तिर्यच, पर्याप्त ईशानवर्ती देव बादर पृथ्वी-अप्-प्रत्येक वनस्पतिमें / जाते हैं। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार तकके देव | संख्याता आयुष्यवान् पर्याप्ता गर्भज मनुष्य-तिर्यचमें ही जाता है। आनतादिसे लेकर अनुत्तर तकके देव | निश्चय संख्याता आयुष्यवाले गर्भज | मनुष्यमें ही जाते हैं। // इति नवमागति द्वारम् // // वैमानिकनिकायके लिए प्रकीर्णकाधिकार // अवतरण-प्रस्तुत आगतिद्वारमें प्रकीर्णकाधिकार कहा जायेगा। इसमें प्रथम देवोंके विभिन्न प्रकारके मैथुन सम्बन्धी विषयसुखकी चर्चा-व्याख्या करते हुए जिन देवोंका देवियोंके साथ जिस प्रकारसे उपभोग है उसे बतायेंगे। दो कप्प कायसेवी, दो दो दो फरिसरूवसद्देहिं / --चउरो मणेणुपरिमा, अप्पवियारा अणंतसुहा // 168 / / गाथार्थ-प्रारम्भके दो देवलोक मनुष्यवत् शरीर धारण करके सेवा करनेवाले, उनके बादके दो-दो कल्पगत देव क्रमशः स्पर्श-रूप-शब्दसे, उनके बाद चार कल्पगत देव Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंके प्रविचार संबंधी विचारणा ] गाथा-१६८ [ 345 मनसे विषयसुखका अनुभव करते हैं और उनके बादके उपरि सर्व कल्पदेव अप्रविचारी (अविषयी) हैं // 168 // विशेषार्थ-विषयसेवन पाँच प्रकारसे होता है। संपूर्ण काय (तन ) सेवी, स्पर्श सेवी, रूप सेवी, शब्द सेवी और कुछ लोग मनःसेवी भी होते हैं / सभी देव विषयका सेवन करते हैं या विषयासक्त होते हैं ऐसा नहीं है। कितनेक देव अविषयी भी हैं। इनमें भी ऊपर बताये गए एक या एकसे अधिक प्रकारके सेवन करनेवाले भी होते हैं। मोहदशाका संक्लेष ज्यों ज्यों कम, त्यों त्यों तद्विषयक इच्छामें कमी भी होती है। मोहदशामें जितनी प्रबल उपशान्त स्थिति होती है उतनी ही चित्तमें स्वस्थता और शांति भी होती है। अतः वहाँ भोगेच्छाका अत्यन्त अभाव होता है, यह बात उपरोक्त गाथामें बतायी गई है। उसका विशेष अर्थ निम्नानुसार है। __ यहाँ 'दो कप्प' यह शब्द मर्यादा सूचक होनेसे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ईशान कल्प तकके सभी देव कायप्रविचारक हैं। प्रविचारक अर्थात् विषय सेवना अथवा कि संक्लिष्ट पुरुषवेद उदयकर्मके प्रभावसे मनुष्योंकी तरह इन्द्रादिक देव मैथुन सुखमें प्रकर्ष ( उत्तमता, अधिक ) रूपसे लीन होकर सर्व अंगसे-कायाके स्पर्शसे उत्पन्न होनेवाली सुख-प्रीतिको पाते हैं। ज्यों कोई पुरुष स्त्रीके साथ सर्वागसे विषयसुख भोगता है, उसी प्रकार प्रस्तुत देव भी कायसेवी होनेसे उत्तमोत्तम शृंगार चेष्टाओंको धारण करनेवाली देवियों के साथ भोग सुखमें लीन बनते हैं। ये देव अपने मनमें जब भी जिन जिन देवियोंके साथ उपभोगकी इच्छा करते हैं कि तुरन्त ही वे देवियाँ उनकी इच्छाको सुनकर या ज्ञानके द्वारा या तथाविध ( उस प्रकारका ) प्रेम पुद्गलके परस्पर संक्रमणके माध्यमसे जानकर, उन्हीं देवोंके विषयसुखको तृप्त करनेके लिए दिव्य तथा उदार शृंगारयुक्त ऐसे मनोज्ञ प्रतिक्षण प्रेमोद्भव करनेवाले, अनेक उत्तरवैक्रिय आदि रूपोंको विकुर्वणकर (इच्छानुसार रूप धारण करके) देवोंके समीप आती हैं। उसी समय देव भी इच्छानुसार रूपोंको धारण करके तुरन्त ही अप्सराओंके साथ सर्वालंकारविभूषित उत्तम सभागृहमें दिव्य शय्या पर संक्लिष्ट पुरुषवेदके उदयसे मनुष्यकी तरह सर्वांगयुक्त कायक्लेश-दमनपूर्वक प्रत्यंगसे आलिंगन करके मैथुनसेवन करते हैं। उसी समय देवीके शरीरके पुद्गल देव शरीरका स्पर्श करते हैं तथा देवके शरीरके पुद्गल देवीका स्पर्श करते हैं। इस तरह परस्पर संक्रमण करते करते वे मनुष्यके विषय सुखसे अधिक अनन्तगुण सुखानन्दको प्राप्त करते हैं जिससे वे तृप्त होते हैं अर्थात् कामाभिलाषसे निवृत्त बनते हैं क्योंकि मनुष्यकी तरह देवका भी वैक्रियशरीरी देवीकी योनिमें वैक्रियस्वरूप शुक्र (वीर्य) पुद्गलोंका संचार होता है, अतः उनकी तत्काल वेदोपशांति भी हो जाती हैं। बृ. सं. 44 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 168 लेकिन ये शुक्र पुद्गल वैक्रिय होनेसे वैक्रिय योनिमें जाते ही गर्भाधानका 17 कारणरूप बनते नहीं हैं, परन्तु इससे देवीके रूप-लावण्य-सौंदर्य-सौभाग्यादि गुणोंकी वृद्धि होती है। ___ सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके देव स्पर्शप्रविचारक अर्थात् उन्हें तथाविध कर्मके उदयसे / कायसेवन करनेकी इच्छा होती ही नहीं है, परन्तु उनकी विषय-वासना जागृत होते ही वे विषयासक्त बनते हैं, तब नीचेके दो कल्पोंकी देवियाँ उनकी इच्छाको तथा इसे अपने प्रतिका आदरभाव समझकर उनके पास पहुँच जाती हैं और तुरन्त ही वे इन देवियोंके हस्त, भुजा, वक्षःस्थल, जंघा, बाहु, कपोल, वदन, चुम्बन इत्यादि गात्रके संस्पर्श मात्रसे ही विषयसुखका आनन्द पाते हैं। यहाँ शंका होती है कि-कायप्रविचारमें तो परस्पर शुक्र पुद्गल-संक्रमण तो परस्पर आलिंगनपूर्वक सेवन करनेसे बनता है; परन्तु स्पर्श-रूप-शब्द-मनःप्रविचारमें शुक्र पुद्गल -संक्रमण होता है या नहीं ? इस शंकाके समाधानमें यह बतानेका है कि वह क्रिया अवश्य होती है, स्पर्शादि विषयमें वैक्रिय शुक्र पुद्गलोंका संक्रमण दिव्य प्रभावसे जरूर होता है। दूसरी यह शंका भी होती है कि-सौधर्म और ईशान देवोंकी अपने इख्तियारकी देवांगनाएँ क्या उनसे उपरि कल्पमें स्थित देवोंसे स्पर्शादि द्वारा मैथुनाभि लाषको तृप्त करने के लिए जा सकती हैं क्या ? तो इस शंकाके सम्बन्धमें यह कहना है किअपने-अपने इख्तियारकी देवांगनाएँ वहाँ जाती नहीं हैं। क्योंकि उन्हें परिगृहीता मानी जाती है। लेकिन मनुष्यलोककी गणिका समान देवियाँ प्रारम्भके दो देवलोकमें भी होती ही हैं। इन्हें अपरिगृहीता कहा जाता है और ये देवियाँ मैथुनाभिलाषी देवोंकी विषयवासनाको ज्ञानसे जानकर अपनी ओर आकर्षित बने हुए देवोंकी ओर दौड़ जाती हैं। इसकी विशेष व्याख्या 172 से 175 तककी गाथाओंमें की जायेगी। ब्रह्म-लांतक कल्पके देव रुपप्रविचारक हैं, अर्थात् उन्हें विषयकी इच्छा होते ही देवियाँ अपने शृंगारयुक्त रूपको उत्तर वैक्रिय शरीर रूपमें परिवर्तित करके उन अभिलाषी देवोंके पास आती हैं तब ये देव उन देवियोंके साथ परस्पर क्रीडायुक्त उनके बदन तथा उनके उदरादि अंगोपांगका अनिमेष रसपान (निरीक्षण) करते, परस्पर प्रेम दिखाते हैं, साथ 317. देवोंका शरीर वैक्रिय होनेसे देव-देवीके सम्बन्धमें गर्भका प्रसंग आता ही नहीं है। किसी जन्मान्तरीय रागादिके कारण किसी मानुषीके साथ देवका सम्बन्ध हो तो उसी संबन्ध मात्रसे गर्भाधान रहनेका संभव नहीं है क्योंकि वैक्रिय शरीरमें शुक्रपुद्गलोंका अभाव होता है। किसी दिव्य शक्ति-विशेषसे औदारिक जातिके शुक्रपुद्गलोंका प्रवेश हो और गर्भ रहे यह अन्य बात है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंके प्रविचार-विषयसुख संबंधी विचारणा] गाथा 168[347 ही अनेक प्रकारसे चेष्टायुक्त उस देवीका सुन्दर, मनोवेधक, कामोद्वीपक मोहकरूप देखकर देवीके शरीरमें शुक्र संचय तथा कामलालसाकी तृप्तिका अनुभव करते हुए अत्यधिक सुखको प्राप्त करके वेदोपशान्तिको पाते हैं। महाशुक्र-सहस्रार कल्पके देव शब्दप्रविचारक होते हैं अर्थात् उन देवोंको विषयकी इच्छा होते ही पूर्वोक्त रीति अनुसार सुन्दर वैक्रिय रूप धारण करके इच्छित देवियों के पास आकर सबके मनको आनन्द देनेवाले अत्यन्त मोहक और कामोत्तेजक मधुर गीत एवं हास्य-विकारयुक्त वचन बोलते हैं। नूपुरकी कर्णप्रिय ध्वनि समान वाणी विलासके शब्दोंसे ये देव विषयसुखकी वासना तृप्ति अनुभवते हैं। इसी समय पर देवीके शरीरमें दिव्य प्रभावके कारण शुक्र संक्रमण 18 हो जाता है। आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्पके देव मनःप्रविचारी अर्थात् मनसे चिंतन मात्रसे विषयसुखकी इच्छाको तृप्त करनेवाले हैं। सौधर्म-ईशान 3१४कल्पवर्ती अद्भुत शृङ्गारयुक्त वे देवियाँ स्व-स्वस्थानमें रहकर, अपने सुन्दर स्तनादि अवयवोंको ऊपर-नीचे हिलाती, अंगभंग करती. चेष्टाएँ दर्शाती. परम सन्तोषदायी अभिनयकला इत्यादि करती हैं तब उन देवियोंको अपने मनःचक्षुसे देखकर आनतादि प्रमुख देव तृप्त होकर परम वेदोपशान्ति पाते हैं / प्रश्न—जिस प्रकार देवोंको काम तृप्तिसे सन्तोष मिलता है, उस समय उन देवियोंको भी वैसा अनुभव मिलता है क्या ? ... उत्तर-जब देव अपनी कायासे सर्वाश रूपमें या अंश रूपमें रूपदर्शन या शब्दादि श्रवणसे विषयोंको भोगते हैं, तब देवियोंको भी वैसी ही तृप्ति मिलती है। कायासे तो स्पष्ट समझमें आता है परन्तु रूप-दर्शनादि सर्व प्रसंगपर देवियाँ देवोंके इन्हीं दिव्यरूप, कान्ति और प्रेम-स्नेहोत्कर्षसे कामातुर बनती है और उसी समय दिव्य प्रभावसे देवीकी योनिमें शुक्र पुद्गलका संक्रमण जरूर हो जाता है और इससे वे समकालपर अवश्य तृप्त बनती हैं। ये पुद्गल वैक्रिय होनेसे और वे वैक्रिय शरीरमें ही प्रवेश करते होनेसे गर्भाधानके हेतुरूप बनते नहीं हैं, परन्तु उस देवीके लिए तो ये पञ्चेन्द्रियका पोषकरूप होनेसे कान्तिवर्धक, मनोज्ञ, सुलभ और अभीष्ट बनते हैं। उसके बाद नौ ग्रैवेयक, अनुत्तरवासी देव अप्रविचारी अर्थात् अत्यंत मन्द पुरुष वेदके उदयवाले होनेसे तथा प्रशमसुखमें तल्लीन होनेसे उन्हें कायासे, स्पर्शनादिसे किसी भी रीतिसे यावत् मनसे भी स्त्री सुख 318. यह हकीकत एक महत्त्वका सूचन कर जाती है कि बिना स्पर्श करे दूरसे भी शुक्र पुद्गलोंका संक्रमण स्त्रीके शरीरमें हो सकता है। आयुर्वेद तथा आजका विज्ञान इस बातका अनुमोदन देता है। 319. क्योंकि क्षीणकामी अच्युतान्त देव देवियोंसे स्पर्श करते नहीं हैं, यह नियम देवी-सम्बन्धी ही समझे , परन्तु वे किसी पूर्वभवके स्नेहवाली मनुष्य स्त्रीके साथ कदाचित् कर्म-वैचित्र्यसे लिपट जा सकते हैं / Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 168-169 / भोगनेकी इच्छा होती नहीं है, फिर भी वे विषयी देवोंसे अधिक संतुष्ट, अधिक शान्त तथा अधिक आनन्दमें रहते हैं। क्योंकि ज्यों ज्यों कामेच्छा प्रबल त्यों त्यों चित्तकी अस्वस्थता एवं अशांति अधिक। जितनी इच्छा कम उतना चित्त क्लेश भी कम और विषयेच्छाके सदन्तर अभावका आनन्द तो कोई अद्भुत होता है। और इससे वहाँ विषय तृप्तिके साधन भी बहुत कम हैं / अतः नीचेके देवोंसे ऊपरि-ऊपरि देवोंका सुख अधिक माना गया है। यहाँ पर दूसरी शंका यह भी उद्भवेगी कि-जो देव तद्दन अप्रविचारी हैं उन्हें ब्रह्मचारी माने क्या ? तो इसका उत्तर यह है कि नहीं, क्योंकि जहाँ तक किसी एक चीजका हृदयसे-इच्छापूर्वक त्याग न किया हो तब उस चीजका उपयोग होता हो या न होता हो तो भी वे ब्रह्मचारी नहीं हैं और उसका फल भी उन्हें मिलता नहीं है। जब कि देवोंको तो अपने देवभवके कारण ही विरति-त्यागपरिणाम नीकलंता ही नहीं. . है, इससे उन्हें ब्रह्मचारी कहाँसे कहे जाएँ ? ना ही कहे जाएँ। इसलिए हरेक जीवोंको ज्यादा नहीं तो बिनजरूरी पापवृत्तियोंका त्याग-नियम करके अनावश्यक अविरतिजन्य पापोंसे बचनेको प्रयत्नशील रहना चाहिए। [168 ] // किस किस देवका, किस तरह देवियोंके साथ उपभोग है ? उसका यन्त्र // निकाय नाम | भोग विषय | कल्पनाम भोगविषय प्रकार | भवनपति मनुष्यवत् | शुक्र-सहस्रारके | गीतादिक. व्यन्तर | कायभोगी शब्दसेवी ज्योतिषी देव आनत-प्राणतके | मनसे देवी विषयसेवी सौधर्म-ईशानके | , आरण अच्युतके , . सनत्कुमार | स्तनादिक- नौ ग्रेवेयकके | अविषयी, ____ माहेन्द्रके | स्पर्शसेवी | अनन्तसुखी ब्रह्म-लांतकके | शृङ्गाररूप सेवी | पाँच अनुत्तरके अवतरण-समग्र लोकके तथा गतगाथामें कथित देवोंके विषयसुख और वीतरागी आत्माओंके सुखके बीचका तारतम्य (सम्बन्ध ) अब जणाते हैं। जं च कामसुहं लोए, जं च दिव्वं महासुहं / वीयरायसुहस्सेअ-गंतभागपि नग्बई / / 169 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 169 // विशेषार्थ-समग्र लोकके जो काम-सुख हैं, और जो दिव्य ( देवलोकादि सम्बन्धी ) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागका सुख अनन्त किस रूपसे होता है ] गाथा 169-170 [349 महासुख है वे सभी सुख महालोभरूप राग जिनका सर्वथा नष्ट हो गया हो वैसे वीतरागी आत्माके प्रशमसुखके अनन्तवें भाग पर भी मिलते नहीं है, अर्थात् पौद्गलिक सुखोंसे वीतरागत्वजन्य सुख अनन्तगुना होता है। उन्हें माया-लोभरूप कहनेका कारण इतना ही है कि ये रागके घरके हैं अतः वह द्वेषीभूत क्रोध, मानका प्रथम क्षय होनेके बाद क्षय पाता है। और इससे ही 'वीतराग' कहने-बोलने पर वीतद्वेषपन इसके अंतर्गत समा ही जाता है। पश्चात्के क्षयमें पूर्वका क्षय निश्चित होता ही है। प्रश्न-वीतराग शब्दकी विशेष व्याख्या समझाइए। उत्तर-आध्यात्मिक विकास-उन्नति हेतु आत्माकी चौदह भूमिकाएँ जैनदर्शनमें बतायी हुई हैं। उन भूमिकाओंको ‘गुणस्थानक' शब्दसे पहचानवायी जाती है। इनमें पहली भूमिका अत्यन्त निकृष्ट है, जबकि चौदहवीं अति उत्तम है। वर्तमान समयमें विकासशील आत्मा अधिकतर छः भूमिका तक ही पहुँच सकती है। ज्यादासे ज्यादा कदाचित् सातवीं भूमिकाका क्वचित् किंचित् लाभ पा सकती है। लेकिन इसके आगेके सोपान पर नहीं पहुँच सकती है। क्योंकि वर्तमान समयमें आत्मा वैसी योग्यता पा ही नहीं सकती है। अब भूतकालमें या भविष्यमें जो आत्मा वीतराग स्थितिको प्राप्त करनेवाली होती है। वह स्वपुरुषार्थसे उत्कृष्ट संयम-तपके बलपर सातवीं गुणभूमिकासे आगे बढ़ता हुआ नौवीं भूमिकामें चार कषायोंमेंसे प्रथम क्रोध-मानरूप द्वेष काषायिक फलोंका सर्वथा नाश करके, जब दसवीं भूमिका पर पहुँचती है तब उसी भूमिकाके अन्तमें माया, लोभ स्वरूप राग काषायिक परिणामोंका (क्षपकश्रेणी द्वारा ) सर्वथा नाश करती है। बारहवें गुणस्थानक पर सम्पूर्ण वीतराग अवस्था प्राप्त होते ही शीघ्र ही वह आत्मा सर्वज्ञत्वको अथवा केवलज्ञान -दर्शनको तेरहवीं गुणस्थानक-भूमिका पर पहुँचनेके साथ ही प्राप्त करती है और चौदहवीं भूमिका पर पहुंचते ही निर्वाण-मोक्षकी स्थितिको पाती है। . प्रत्येक आत्मा प्रबल पुरुषार्थ द्वारा मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति आदि दोषोंका क्षय करके, तेरहवीं उच्चतर भूमिका पर पहुंचकर, केवलज्ञान प्राप्त करके, विश्वका कल्याण करनेके हेतु चौदहवों उच्चतम भूमिका पर आरूढ होकर निर्वाणपद पाओ! सर्वके जीवनका और हमारी संस्कृतिका यह ही अन्तिम ध्येय है। [ 169] अवतरण-अब विषय सुखके उपभोगार्थरूप गमन करनेवाली देवियोंकी गमनागमनकी मर्यादा यहाँ पर बताते हैं। अतः उनका उत्पत्तिस्थान भी आ जाता है। उववाओ देवीणं, कप्पदुगं जा परो सहस्तारा / गमणाऽऽगमणं नस्थि, अच्चुअपरओ सुराणपि // 170 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 170 / / Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 170-171 विशेषार्थ-अब देवियोंकी उपज ( उत्पत्ति ) भवनपतिसे लेकर सौधर्म-ईशान ये दोनों देवलोक तक ही है। इसलिए उन सभी देवोंको भी देवियों के साथ सप्रविचारी ( सविषयी ) कहे जाते हैं। दो देवलोकसे उपरि देवलोकमें उनकी उत्पत्ति नहीं होती है, अतः वे सभी देव अपनी स्वदेवियोंसे रहित माने जाते हैं। लेकिन आठवें सहस्रार कल्प तक तो देवियोंका आना-जाना रहता होनेसे ( और अच्युतान्त तक प्रविचारपन रहता होनेसे ). वे सभी देवोंको समविचारी-सविषयी जानें। सहस्रारसे उपरि हिस्सोंमें देवियोंका गमनागमन नहीं है। सिर्फ अच्युतान्त तक ही देवोंका गमनागमन होता है। और अच्युतान्तसे ऊपर तो देवोंका भी गमनागमन नहीं रहता है। क्योंकि नीचे रहनेवालों में अधिक ऊपर जानेकी शक्ति नहीं है और उपरि लोगों में शक्तिसामर्थ्य होते हुए भी नीचे आनेका प्रयोजन नहीं है। नौ अवेयक तथा अनुत्तरवासी देव' अप्रविचारी है। वहाँ रहते हुए वे जिनेश्वरके कल्याणक आदि प्रसंग पर नमस्कार करते हैं, परन्तु ( कल्पातीत ) आचार रहित होनेसे कल्याणक आदिके किसी भी प्रसंग पर यहाँ आते नहीं हैं। सिर्फ अल्पकषायी उत्तम कोटिके उन देवोंको तात्त्विकादि विचारणामें जब शंका उत्पन्न होती है, तब उसका समाधान अवधिज्ञान द्वारा ग्रहण किए हुए भगवानसे इन्हीं ( उत्तर रूप) मनोद्रव्योंको साक्षात् देखकर ‘ऐसे द्रव्योंका आकार यह ही उत्तर स्वरूप है। ऐसा समझकर समाधान कर लेते हैं। अतः उन्हें यहाँ आनेका कोई प्रयोजन नहीं है और इसलिए हमारी अपेक्षा वे अधिक (अनन्त ) सुखी हैं। [ 170 अवतरण-अब देवलोकवर्ती किल्बिषिक तथा आभियोगिक देवोंका आयुष्य तथा स्थानक बताते हैं। तिपलिअ तिसार तेरस,-सारा कप्पदुग-तइअ-लंत अहो / किब्बिसिअ न हुंतुवरिं, अच्चुअपरओऽभिओगाई / / 171 / / गाथार्थ-प्रारम्भके दो देवलोकके अधः स्थान पर तीन पल्योपमकी, तीसरे सनत्कुमार कल्पके नीचे तीन सागरोपमकी तथा छट्ठवें लांतक कल्पके अधो भाग पर तेरह सागरोपमकी आयुष्यवाले किल्बिषिया देव बसते हैं। लांतकसे ऊपरके कल्पोंमें किल्बिषिया देव नहीं हैं और अच्युतसे ऊपर तो आभियोगिकादिक देव भी नहीं है।।। 171 // विशेषार्थ-किल्बिषिक देव अशुभ कर्म करनेवाले होनेसे करीब चण्डाल ३२°जैसे हैं। 320. देवोंमें भी अधम जातिके देव हैं जो अस्पृश्य माने जाते हैं / वहाँ भी अनादिकालसे स्पश्र्यास्पीकी व्यवस्था है तो फिर मनुष्यलोकमें हो उसमें कौन-सा अचरज ? ऐसी सिद्ध व्यवस्थाका सर्वाश रूपमें नाश करनेके भगीरथ प्रयत्न हो रहे हैं, फिर भी वैसे प्रयत्नोंमें कायमके लिए सफलता प्राप्त नहीं होगी / क्योंकि कर्मका सिद्धांत अचल होता है / और एक बात यह भी याद रहे कि अस्पृश्य देवोंका निवास Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किल्बिषिक देवोंका प्रकार और उनका निवासस्थान ] . गाथा 171 [ 351 - चण्डाल जैसा कार्य करनेवाली यह देव जाति अपने कुकर्मके उदयसे दैवीरूप पाकर भी कुकर्म करने की अवस्थाको प्राप्त होते हैं तथा उत्तम देवोंके स्थानसे भी कई दूर रहनेके अधिकारी बने हैं। इनके तीन प्रकार हैं, जिनमें सौधर्म और ईशानके अधोभाग पर ( अर्थात् ज्योतिषी और वैमानिक निकायके बीच ) तीन पल्योपमकी आयुष्यवाले ये किल्विषिक बसते हैं। तीसरे सनत्कुमारके अधोभाग पर तीन सागरोपमकी आयुष्यवाले और लांतक कल्पके अधोभाग पर तेरह सागरोपमकी आयुष्यवाले किल्बिषिक बसते हैं। ये तीन ही उनके उत्पत्ति स्थान हैं। अर्हन् भगवन्तकी आशातनासे (विराधना-अवज्ञासे ) जमाली ( एक साधु )की तरह पूर्वभवमें देव-गुरु-धर्मकी निंदा करनेसे, धर्मके कार्योंको देखकर जलन करनेसे उत्पन्न अशुभ कर्मके उदयसे ये अधर्म कार्यकर्ता किल्बिषियादेवके रूपमें उत्पन्न होते हैं। यहाँ उन सभी कल्पके अधोस्थान पर किल्बिषिया हैं। अब यह अघः शब्द प्रथम प्रस्तरवाची नहीं है, क्योंकि उस-उस कल्पकी प्रथम प्रस्तरकी स्थितिके साथ इन देवोंकी उक्तं स्थितिका मेलजोल (सम्बन्ध ) ठीक नहीं बैठता। इसके अलावा अन्य विमान पर तो उनकी अधम स्थितिके कारण अस्तित्व सम्भवित भी नहीं है। यहाँ अधः शब्द तत्स्थानकवाची जानें, अर्थात् उस प्रत्येक देवलोकमें साथ-साथ नहीं लेकिन नीचे-दूर निवास हैं। ये किल्बिषिकोंका जनम तो लांतकसे ऊपर तो होता ही नहीं हैं। सिर्फ अच्युतान्त तक दूसरे आभियोगिक आदि (आभियोगिक अर्थात् दास-सेवक योग्य कार्य बजानेवाले तथा ' आदि ' शब्दसे सामानिकादि प्रकीर्णक ) देवोंका जनम होता है। इससे आगे उनकी उत्पत्ति नहीं है, क्योंकि ग्रैवेयक-अनुत्तर देवोंमें अहमिंद्रपन होनेसे उनमें उनकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। अतः वहाँ छोटे-बडे भेदोंका अस्तित्त्व ही नहीं है सभी एक-सी समानता भुगतते हैं / [ 171 ] // वैमानिकमें किल्बिषिकोंका उत्पत्तिस्थान तथा आयुष्य यन्त्र // सौधर्म-ईशानके तल पर | तीन पल्योपमायुषी / | किल्बिषिया देव हैं सनत्कुमारके तल पर | तीन सागरोपमायुषी लांतक कल्पके तल पर | तेरह सागरोपमायुषी अवतरण-अब सौधर्म-ईशान कल्पमें अपरिग्रहीता देवियोंकी विमान संख्याको जणाते हुए जिस-जिस आयुष्यकी देवियाँ जिस-जिस देवोंके उपभोगके लिए होती हैं, उस प्रसंगको बताते हैं। (आवास) देवलोकमें भी सबके साथ नहीं है, लेकिन स्वस्थानसे अलग है साथ ही देवलोकसे दूर और अधो भाग पर है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 172-175 अपरिग्गहदेवीणं, विमाण लक्खा छ हुंति सोहम्मे / पलियाई समयाहिय, ठिइ जासिं जाव दस पलिआ / / 172 // ताओ सणंकुमारा-णेवं बड्ढति पलियदसगेहिं / जा बंभ-सुक्क-आणय-आरण देवाण पन्नासा // 173 // ईसाणे चउलक्खा, साहिय पलियाइ समयअहिय ठिई / जा पनर पलिय जासिं, ताओ माहिंददेवाणं // 174 // एएण कमेण भवे, समयाहियपलियदसगवुडढीए / लंत-सहसार-पाणय-अच्चुयदेवाण पणपन्ना // 175 / / गाथार्थ-सौधर्मदेवलोकमें अपरिग्रहीता देवियोंके छः लाख विमान हैं। साथ ही एक पल्योपमकी आदिसे समय समय अधिक करते करते यावत् जिनकी स्थिति दस पल्योपम (वहाँ तककी भिन्न-भिन्न आयुष्यवाली) होती हैं वे देवियाँ सनत्कुमार देवलोकमें उपभोगार्थ के लिए जाती हैं / लेकिन आगेके कल्पोंके लिए वे जाती नहीं है / साथ ही उसी प्रकार दस पल्योपमसे आरम्भ करके समयादिककी वृद्धिसे दस-दस पल्योपम प्रक्षेप करके सोचनेसे अर्थात् यावत् कुल 20 पल्योपम आयुष्य तककी देवियाँ ब्रह्म देवलोक भोग्य जानें / उसी प्रकार यावत् 30 पल्योपमायुषी देवियाँ शुक्र देवलोक भोग्य, 40 पल्योपमायुषी देवियाँ आनत देवोंके भोग्य और 50 पल्योपमायुषी देवियाँ आरण देव भोग्य जाने / अब ईशानकल्पमें अपरिग्रहीता देवियोंके चार लाख विमान हैं। इनमें जिन देवियोंकी साधिक पल्योपमायुष्यकी स्थिति है वे तो ईशानदेवके भोगरूप है। और इनके आगे समयादिककी वृद्धिसे यावत् 15 पल्योपमायुषी देवियाँ माहेन्द्रदेव भोग्य, 25 पल्योपमवाली लांतकके, 35 पल्योपमवाली सहस्रारके, 45 पल्योपमवाली प्राणतके तथा 55 पल्योपमायुषी अच्युतकल्पके देवोंके भोग्य ही होती हैं / [ 172-175] विशेषार्थ-अपरिग्रहीता अर्थात् पत्नीके रूपमें जिसका ग्रहण होता नहीं है वैसी / इन देवियोंकी उत्पत्ति सौधर्म और ईशान दोनों कल्पमें ही है / इनमें सौधर्म देवलोकमें अपरिग्रहीतादेवीके उत्पत्तिस्थानभूत छ: लाख विमान हैं। उन विमानोंके लिए जिन देवियोंकी परिपूर्ण एक पल्योपमकी स्थिति है उन्हें सौधर्म देवोंके भोग्य ही जानें / जिनकी पल्योपमसे लेकर एक, दो, तीन संख्याता असंख्याता समयसे अधिक करते हुए पूर्ण दस पल्योपम स्थिति तककी है वे सब देवियाँ सनत्कुमार देवोंके भोग्य जानें / अतः वे उनसे आगेके आयुष्यवाले देवोंको चाहती नहीं हैं / इस प्रकार दस पल्योपममें एक, दो संख्य-असंख्य समयकी वृद्धि करते यावत् बीस पल्योपमकी स्थिति तककी देवियाँ ब्रह्मकल्पके देवोंके भोग Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रहीता देवियों के विमान और आयुष्य ] गाथा 172-176 [353 योग्य जानें / इस प्रकार समयादिककी वृद्धिसे यावत् (२०से लेकर ) तीस पल्योपम तककी आयुषी देवियाँ शुक्र देवोंके भोग्य जानें / इस प्रकार तीससे लेकर चालीस पल्योपमकी स्थितिवाली देवियाँ ( स्वस्थानमें रहकर ) आनत देवलोकके देवोंके भोग्य हैं। इस प्रकार (40 पल्योपमसे ) समयादिककी वृद्धिसे पचास पल्योपम तककी देवियाँ ( स्वस्थानमें रहकर ) आरण कल्पके देवोंके भोग्य जानें / इस प्रकार छः कल्पका सम्बन्ध बताया गया है। अब ईशान कल्पमें अपरिग्रहीता देवियोंके चार लाख विमान होते हैं। उन विमानों में जिन देवियोंकी किंचित् अधिक पल्योपमकी स्थिति है वह ईशान कल्पके देवोंका ही भोगरूप होती हैं। पूर्वोक्त क्रमपर समयादिककी वृद्धिसे यावत् पन्द्रह पल्योपमकी स्थिति तककी सर्व देवियाँ माहेन्द्र देवोंके भोग्य, समयादिककी वृद्धिसे दस-दस पल्योपमकी वृद्धि करते हुए अर्थात् पूर्वकी स्थितिमें दसकी वृद्धि करते हुए पच्चीस पल्योपमकी स्थितिवाली देवियाँ लांतक देव भोग्य, पैंतीस पल्योपम तककी देवियाँ सहस्रार देव भोग्य, पैंतालीस पल्योपम स्थिति तककी (स्वस्थानमें रहकर ) प्राणत देवोंके भोग्य, पचपन पल्योपम स्थिति तककी अच्युत देवोंके भोग्य जानें। ये देवियाँ गणिका समान होनेसे तथा वे अपनोंसे ऊपरि देवोंके भोगके लिए आती जाती होनेसे इन्हीं अपरिग्रहीता देवियोंकी वक्तव्यताका ही सम्भव होता है परन्तु परिग्रहीता ( कुलांगना)को होता नहीं है। [ 172-175 | . // देवी आयुष्यमानपर देवभोग्य यन्त्र // आयुष्यमानानुसार | यथायोग्यदेवभोग्य | आयुष्यमानानुसार | यथायोग्यभोग्यत्वं 1 पल्योपमायुषी सौधर्मदेवोंके भोग्य | साधिक पल्योपमायुषी | ईशानदेवोंके सेव्य 10 , सनत्कुमारदेवोंके भोग्य | 15 पल्योपमायुषी | माहेन्द्रदेवोंके सेव्य ब्रह्मकल्पदेवोंके भोग्य | 25 , लांतकदेवोंके सेव्य शुक्रदेवोंके भोग्य - 35 , सहस्रारदेवोंके सेव्य ,,, आनतदेवोंके भोग्य 45 , प्राणतदेवोंके सेव्य 50 ,, ,, आरणदेवोंके भोग्य | 55 , | अच्युतदेवोंके सेव्य // देवगतिके उपसंहारमें चतुनिकायाश्रयी प्रकीर्णक-अधिकार // अवतरण-अब षट्लेश्याके नाम बताकर चार देवलोकमेंसे कौनसे देवलोकमें कौन कौनसी लेश्या हों उन्हें यहाँ पर देढ़ गाथाओंमें बताते हैं। किण्हा-नीला-काऊ-तेउ-पम्हा य सुक्कलेसा य / भवणवण पढम चउले--स जोइस कप्पदुगे तेऊ / / 176 / / व. सं. 45 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१७६ कप्पतिय पम्हलेसा, लंताइसु सुक्कलेस हुँति सुरा / / 1763 / / गाथार्थ-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो. पद्म और शुक्ल ये छः लेश्याएँ हैं। इनमें भवनपति तथा व्यन्तर देवताओंकी पहली चार लेश्याएँ होती हैं। तीसरे ज्योतिषी निकायमें और चौथे वैमानिक निकायके प्रारम्भिक दो कल्पोंमें एक तेजोलेश्या होती है। उसके बादके तीन कल्पोंमें पद्मलेश्या और लांतकादि ऊपरके सर्वकल्पोंके देव एक शुक्ल लेश्यावाले ही होते हैं। // 176-1763 / / विशेषार्थ लेश्या अर्थात् क्या? लिश्यते-श्लिष्यते जीवः कर्मणा सहाभिरिति लेश्याः। जिसके द्वारा जीव कर्मसे जुड़ जाता है उसे लेश्या कहते हैं। उसमें भी जिन कृष्णादि द्रव्योंके साहचर्यसे आत्मामें परिणाम उत्पन्न हो, उन द्रव्योंकों द्रव्यलेश्या कहा जाता है और इससे उत्पन्न होते परिणामको भावलेश्या कहा जाता है / कर्मके स्थितिबन्धमें जिस तरह कषाय मुख्य कारणरूप बनते हैं, उसी प्रकार कर्मके रसबन्धमें लेश्याएँ मुख्य कारणरूप हैं। गाथार्थमें भवनपति तथा व्यन्तर निकायमें चारों लेश्याएँ बतायी हैं, परन्तु उनमें बसते परमाधामी देव तो सिर्फ एक कृष्णलेश्यावाले ही होते हैं। ज्योतिषी देवोंमें जो तेजोलेश्या होती हैं, उससे अतिरिक्त सौधर्ममें आये हुए देव अधिक विशुद्ध होते हैं। इससे भी अधिक ईशानकी विशुद्धि समझे और इसके अलावा सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म कल्पके देव सिर्फ पद्म लेश्यावाले ( परन्तु उत्तरोत्तर विशुद्ध ) और उससे ऊपरि लांतकादि अवेयक तथा अनुत्तर आदि देव एक परमशुक्ल लेश्यावाले (उत्तरोत्तर विशुद्धिकी वृद्धिसे) जाने-समझे। इन्हीं कारणोंसे ही उन देवोंको अधिक निर्मल एवं उत्तम माने गये हैं। ___यह तो द्रव्यलेश्याकी अपेक्षासे-बहुलतासे सामान्य कथन है, अन्यथा हरेक निकायमें भावके परावर्तनको लेकर छः भावलेश्याएँ तो होती ही हैं। इन लेश्याके भाव 32 षट्पुरुषयुक्त जम्बूवृक्षके दृष्टांत ( मिसाल )से जानने योग्य 321. किसी एक समय कोई छः मनुष्य एक अरण्य ( वन )में जा पहुँचे / वहाँ वे क्षुधातुर हुए। इतनेमें सामने जामुनका एक पेड़ दिखायी पड़ा / उसे देखकर छःमेंसे एक कहने लगा कि इसी पूरे पेड़को मूल (जड़ )से ही काट दें तो सुखसे हम बिना परिश्रम उठाये जामुन खा सकते हैं / यह सुनकर दूसरेने कहा कि ऐसा नहीं, पेड़को काटनेके बजाय हमें जामुनसे काम है तो क्यों न हम उसकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ (डालियाँ ) काटें ? तीसरा बोला, बड़ी-बड़ी शाखाएँ किस लिए ? छोटी-छोटी डालियोंसे हमारा - काम चल सकता है तो छोटी डालियाँ ही काटें / इसके प्रत्युत्तरमें चौथा पुरुष कहता है कि सभी शाखाओंका नाश Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौनसे देवलोकमें कौनसी लेश्या और देवोंके देहका वर्ण ] गाथा-१७६-१७७ [ 355 है। प्रत्येक लेश्या अलग-अलग वर्ण तथा रसोंकी उपमायुक्त है। इनमें प्रारम्भकी तीन लेश्याएँ अप्रशस्त, मलिन एवं दुर्गंधयुक्त हैं। स्पर्शसे ये स्निग्धोष्ण शीत-ऋक्ष हैं अतः वह क्लेश-कषाय कराकर दुर्गति प्रदानरूप बनती है। जबकि अंतिम तीन लेश्याएँ उत्तरोत्तर अत्यन्त सुवासित, प्रशस्त, निर्मल, शुभ स्पर्शी, शान्ति तथा सद्गति करनेवाली हैं। इसके अलावा कईवार लेश्याएँ वैडूर्यरत्न या रक्तवस्त्रकी तरह तद्रूप हो जाती है / देव तथा नारकोंकी लेश्याएँ भवान्त तक अवस्थित है। ( तदुपरांत उत्पन्न होनेसे पूर्वका तथा च्यवन होने के बादका ये दो अन्तर्मुहूर्त अधिक समझे।) जो कि अन्य द्रव्यके संसर्गसे अन्य रूप परिवर्तित होता जरूर है, परन्तु जिस प्रकार स्फटिक रत्न अथवा दर्पण धागेसे बँधा हुआ होने पर भी तथा जासुद पुष्पादिकका संसर्ग होने पर भी अपने स्वभावके अथवा मूल रंगको छोड़ता नहीं है, उसी प्रकार देवों तथा नारकोंकी मूल लेश्या कभी भी परिवर्तित होती नहीं है, जब कि तिर्यच मनुष्यकी लेश्या अन्तर्मुहूर्त पर (भी) परिवर्तित होती है। प्रत्येक लेश्याकी जघन्योत्कृष्ट स्थिति देव-नारकोंके जघन्योत्कृष्ट आयुष्यानुसार होनेसे उसी अनुसार स्वयं सोच लेना। [176-1763 ] अवतरण-यहाँ पर पहले चारों निकायाश्रयी लेश्या संख्या बता दी थी। और अब शेष रहे वैमानिक निकायके देवोंके देहका वर्ण आधी गाथासे बताते हैं। कणगाभपउमकेसर-वण्णा दुसु तिसु उपरि धवला // 177 // . गाथार्थ-प्रारम्भके दो देवलोकमें३२२ रक्त-सुवर्णकी कान्ति-छायावाले देव रहते हैं। क्यों करे ? इसके बजाय जिस पर जामुन है उसी डालको ही क्यों न तोड़े ? तब पाँचवाँ कहता है कि हमें सिर्फ फलोंकी ही इच्छा. है तो अच्छे-अच्छे फल ही ले लें / यह सुनकर छठेने बड़ी विनम्रतासे कहा कि भाईयों ! ऐसे पापके कुविचार करके नष्ट करनेके बदले यहाँ नीचे ही अच्छे फल गिरे हुए हैं, चलो इन्हें ही खा लें। - इस दृष्टांतमें पहलेका विचार कृष्ण लेश्याके, दूसरे अनुक्रमसे नील, तेजो आदि लेश्याके भाव जाने / पूर्वके पुरुषोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर पुरुषोंके विचार शुभ-शुभतर और शुभतम दिखायी पड़ते हैं। अतः उनमें संक्लेषकी न्यूनता तथा सुकोमलताकी अधिकता देखने मिलती है। लेश्याओंका विशेष स्वरूप प्रज्ञापना, आवश्यक आदि सूत्र, लोकप्रकाशादिक ग्रन्थ, दिगम्बरीय ग्रन्थ, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, बौद्धग्रन्थ दीघनिकायादिमें है / महाभारत, पातंजल योगदर्शनादिमें भी इनकी अमुक कल्पना मिलती है। 322. जीवाभिगमसूत्रकी व्याख्यासे इस कथनको सोचनसे यह कथन उसके विरुद्ध जाता दिखायी पड़ता नहीं है, क्योंकि श्री मल्यगिरि महाराजने संग्रहणी टीकामें एक दूसरे वर्णके साथ सुमेल करके दोष टाल दिया है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी - [गाथा-१७८ बादके तीन कल्पमें देवोंका शरीर कमलकेसरके वर्णयुक्त और ऊपरके अन्य सभी देव उज्ज्वल वर्णयुक्त होते हैं। // 177 // विशेषार्थ-विशेष इतना ही कि कमलकेसर अर्थात् कमलके बीचके केसरका वर्ण जैसा होता है वैसा गौरवर्णीय / लांतकादिसे ऊपर उज्ज्वल वर्णवाले जो बताये गये हैं उसमें इतना विशेष समझे कि उत्तरोत्तर अधिकसे अधिक ( शुक्ल, शुक्लतर एवं शुक्लतम ) उज्ज्वल वर्णयुक्त जानें / [177] ॥चारों निकायमें लेश्या तथा वैमानिकमें देहवर्ण स्थापनाका यन्त्र॥ निकाय नाम | लेश्या नाम | कल्प नाम | लेश्या / वै. देहवर्ण भवनपतिकी | कृष्ण, नील, | सौधर्म- तेजो / रक्त सुवर्ण / | कापोत, तेजो | | ईशानकी परमाधामीकी एक मात्र सनत्कुमार पद्म - पद्म केसर कृष्ण लेश्या ही माहेन्द्र, ब्रह्मकी व्यंतरकी कृष्ण, नील, | लांतकसे शुक्ल उज्ज्वल वर्ण कापोत, तेजो | अच्युत तक ज्योतिषीकी तेजो लेश्या ग्रेवेयक शुक्ल उज्ज्वल वर्ण | अनुत्तरकी . // उपसंहारप्रसंगपर देवगतिमें चार निकायाश्रयी आहारोच्छ्वासमान व्याख्या / / अवतरण-अब देवोंका आहार तथा उच्छ्वासकालमान कहते हैं। यहाँ प्रथम दस हजार वर्षायुषी देवोंके विषयमें कहते हैं। दसवाससहस्साई, जहन्नमाउं धरति जे देवा / तेसिं चउत्थाहारो, सत्तहिं थोवेहिं ऊसासो // 178* // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 178 / / विशेषार्थ-ग्रन्थकार अब चारों निकायके देवोंका आहार तथा उच्छ्वास सम्बन्धी अंतर मर्यादाको कहते हैं। शंका-यहाँ पर एक शंका होती है कि श्वासोच्छ्वास मानके बदले यहाँ सिर्फ उच्छ्वासमान शब्दका प्रयोग क्यों किया गया है ? * जिनभद्रीया संग्रहणीमें भवनपति तथा व्यन्तरके लिए स्वतन्त्र गाथा नहीं कही गयी है, अतः उसकी २१५वीं गाथामें टीकाकारको उपरोक्त हकीकत बतानी पड़ी है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वासोच्छ्वासकी गिनती ] गाथा-१७८ [357 समाधान- इसके समाधानमें यह समझना कि-निःश्वास तो उच्छ्वासके अन्तर्गत आ ही जायेगा। क्योंकि निःश्वासके बिना उच्छ्वासका ग्रहण होता ही नहीं है। दूसरी महत्ता-मुख्यता तो ' उच्छ्वास 'की ही होती है, निःश्वासकी नहीं। प्रथम आहार मर्यादाको बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि दस हजार सालकी जघन्य आयुष्यको धारण करनेवाले जो ( भवनपति ) देव हैं, ये चतुर्थ भक्त ( इन्हें एक अहोरात्रवाचक माना जाता है, इसलिए )-एकांतर पर आहारको ग्रहण करते हैं। वे हमारी तरह कवलाहारी न होनेसे आहार मात्रकी अभिलाषा होते ही उपस्थित इच्छाके अनुकूल, मनोज्ञ सर्वेन्द्रियोंके आह्लादक ऐसे आहारके पुद्गलोंका परिणमन शुभ कर्मानुभावसे इन्हें हो जाता है। (इसका विस्तृत स्वरूप बादकी गाथाओंमें बताया जायेगा) और तृप्त होते ही परमानन्दकी अनुभूति करते हैं। उसके बाद वे स्वक्रीड़ादि कार्यमें मग्न हो जाते हैं। साथ ही ये देव सात स्तोक काल पूर्ण होनेके बाद एक बार ही उच्छ्वास लेते हैं। स्तोक कब बनता है ? तो कोई नीरोगी-स्वस्थ सुखी युवान जब सात बार श्वासोच्छ्वास लेनेकी क्रिया करता है तब एक स्तोककालप्रमाण होता है। ऐसे सात स्तोक (49 श्वासो०) पर ये देव एकबार ही श्वासोच्छ्वासकी क्रिया करते हैं। इसके बाद आनन्दके साथ निराबाधपनसे वर्तित पुनः एकांतर होने पर आहार ग्रहण करते हैं तथा मध्यमें सात स्तोक पूर्ण होते ही फिरसे उच्छ्वास ग्रहण होता रहता है। ... टिप्पणी:-'निसासूसास' शब्दसे टीकाकार निःश्वासोच्छ्वास लेनेका सूचन करते हैं। अन्य ग्रन्थकार भी यह अर्थ ही बताते हैं। लेकिन यहाँ पर श्वासोच्छ्वासका मतलब छातीमें उत्पन्न धड़कनयुक्त श्वासोच्छ्वास ही मानना है तो प्रस्तुत गिनतीमें इसका कोई भी मेल बैठता ही नहीं है। यह कथन तद्दन असंगत बन जाता है, क्योंकि एक मुहूर्त अर्थात् 48 मिनटमें 3773 बार श्वासोच्छ्वास मान कहा। इस हिसाबसे एक मिनटमें 78 से कुछ अधिक संख्या बनती है; जब कि एक मिनटमें कोई सशक्त मनुष्य अधिकसे अधिक पन्द्रह बार श्वास लेता है, जो प्रत्यक्षसिद्ध बाबत है। और यह संख्या बढ़कर एक मिनटमें २५....बनती है तो मनुष्यकी मृत्यु होती है, वह भी अनुभव सिद्ध घटना है। इसी कारण ग्रन्थकारके कथनका कोई भी मेल एवं अर्थ बनता न हो तब उनके आशयको सफल बनाने के लिए श्वासोच्छ्वासकी परिभाषाको अलग ही अर्थ या रीतिसे घटानेसे यथार्थ संगति निकाल सकते हैं। . इससे यहाँ श्वासोच्छ्वासको 'छातीकी धड़कन 'के अर्थमें न घटाते हुए हाथकी नाडीकी धड़कन 'के अर्थमें घटाएँ तब गिनती बराबर संगत बैठ जाती है, फिर भी इस बाबतमें अभ्यासी स्वयं अधिक सोचे-विचारें। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 179-180 'श्वासोच्छ्वास' संज्ञा 'नाडी' शब्दवाचक समझे अथवा उस शब्दका अर्थ लक्षणासे 'नाडी में घटाना उचित है। [ 178 ] ___ अवतरण-अब श्वास-उच्छ्वास किसे मानें ? इसे समझानेके लिए मनुष्यके एक अहोरात्रिगत श्वासोच्छ्वासका मान सवा दो गाथासे बताते हैं। आहिवाहिविमुक्कस्स, नीसासूसास एगगो / पण सत्त इमो थोवो, सोवि सत्तगुणो लबो // 179 // लवसत्तहत्तरीए, होइ मुहूत्तो इमम्मि ऊसासा / सगतीससयतिहुत्तर, तीसगुणा ते अहोरत्ते / / 180 // लक्खं तेरससहस्सा, नउअसयं–१८०३ गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 179-1803 // विशेषार्थ-आधि यह मनकी पीड़ा है तो व्याधि शरीरकी पीड़ा है। उन दोनोंसे विमुक्त / विशेष में 'वि' विशेषणसे चिंता, श्रम, खेद रहित, सुखी ऐसे समर्थ युवान पुरुषके एक-एक निःश्वास ( श्वास बाहर निकालना ) और उच्छ्वास (श्वास लेना)को अर्थात् दोनों मिलकर एक श्वासोच्छ्वास बनता है उसे एक 'प्राण' कहा जाता है। ऐसे सात 'प्राण' (अथवा श्वासोच्छ्वास) पर एक 'स्तोक' बनता है, ऐसे सात स्तोक (49 श्वासोच्छ्वास )से एक 'लव' बनता है। ऐसे सतहत्तर (77) लवसे एक मुहूर्त ( दो घडी-४८ मिनट ) बनता है (इस एक मुहूर्तमें 'एगाकोडी' गाथानुसार 16777216 आवलिकाएँ३२३ बनती हैं)। इस प्रकार सतहत्तर (77) लवमें 3773 उच्छ्वास आते हैं, जिसे एक मुहूर्तकी संख्या कही जायेगी। अब एक अहोरात्रकी संख्या लानेके लिए अहोरात्रको 30 (तीस ) मुहूर्तसे गुननेसे [ 3773 x 30] ११३१९०-इतनी उच्छ्वास संख्या एक अहोरात्रकी होती है। विशेषमें एक मासकी संख्या निकालनी हो तो उस संख्याको 30 अहोरात्रसे गुननेसे 3395700 की संख्या आती है। एक सालकी संख्या लानेके लिए बारहसे गुननेसे 40748400 संख्या आती है। यदि एक सौ सालकी संख्या लानेके लिए इसे सौसे गुननेसे 4074840000 संख्या आती है। इस प्रकार साल, हजारसे-लक्षसे-या कोटिसे भी उच्छ्वासकी संख्या निकाल सकते हैं। [ 179-5803 ] 323. इसका विशेष स्वरूप इसी ग्रंथके 26 वें पृष्ठ पर दिखाया गया है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंके श्वासोच्छ्वास तथा आहारका कालप्रमाण ] गाथा-१८१ [359 . // संक्षिप्त कालमान और श्वासोच्छवास संख्यायंत्र // गिनती उत्तर | उत्तरकी श्वासोच्छ्वास संख्या 1 स्तोक आधि-व्याधिसे मुक्त 1 प्राण 1 श्वासोच्छ्वास मनुष्यके एक निःश्वास उच्छवास पर ऐसे सात प्राण पर उसके 7 श्वासोश्वास ऐसे सात स्तोक पर 1 लव उसके 49 श्वासोश्वास ऐसे सतहत्तर लव पर 1 मुहूर्त ३२४इसके 3773 श्वास ऐसे तीस मुहूर्त पर 1 अहोरात्र इसके 113190 श्वासोश्वास ऐसे पन्द्रह अहोरात्र पर 1 पक्ष - इसके 1697850 श्वासोश्वास ऐसे दो पक्षसे . 1 मास इसके 3395700 श्वासोश्वास ऐसे बारह माससे 1 वर्ष (साल) | | 40748400 ऐसे असंख्य वर्ष पर 1 पल्योपम असंख्य ऐसे दस कोडांकाडी पल्योपम पर | 1 सागरोपम असंख्यगुण ऐसे दस कोडाकोडी सागरोपम पर 1 उत्सर्पिणी ऐसी एक उत्सर्पिणी और | अवसर्पिणी - अवसर्पिणीसे 1 कालचक्र अनन्ता कालचकसे 1 पुद्गलपरावर्त अवतरण-मनुष्याश्रयी श्वासोच्छ्वासका प्रमाण दर्शानेके बाद अब उस कथनको वैमानिक देवोंमें सीधा और सादा (सागरोपमकी संख्याके) उपाय द्वारा घटाते हैं / -अयरसंखया देवे / परखेहिं ऊसासो, वाससहस्सेहिं आहारो // 181 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 181 / / विशेषार्थ-अयर अर्थात् सागरोपम / उसकी संख्यानुसार ही देवमें उच्छ्वास और आहारका नियमन होता है / उदाहरणके तौरपर देखें तो वैमानिक निकायमें जिन देवोंका 324. श्वासोच्छ्वासका मतलब छातीकी धड़कन गिने तो एक मिनटमें पन्द्रहके हिसाबसे 1 मुहूर्त = 48 मिनटमें 720 ही होता है / Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 181-182 जितने सागरोपमकी संख्याका आयुष्य होता है उतनी पक्ष संख्यासे उच्छ्वास ग्रहण और उतने ही हजार सालकी संख्या पर आहार ग्रहण होता है / अर्थात् जिन देवोंकी आयु एक सागरोपमकी होती है, उन्हें एक ही पक्ष पर उच्छ्वास ग्रहण तथा एक ही हजार वर्ष पर आहारकी अभिलाषा होती है, उसी तरह दो सागरोपमवालेको दो पक्षपर उच्छ्वास ग्रहण तथा दो हजार साल पर आहारकी अभिलाषा होती है, यावत् अनुत्तरपर तैंतीस सागरोपमकी स्थिति होनेसे तत्रवर्ती देवोंका 33 पक्ष पर उच्छवास ग्रहण तथा 33 हजार वर्ष पर एक बार ही आहारकी अभिलाषा होती है और वे मनोज्ञ आहार पुद्गलोंसे तृप्ति पाते हैं / [ 181] ___ अवतरण-सम्पूर्ण दस हजार और सम्पूर्ण सागरोपमसे लेकर ऊपरि देवोंके लिए कहा गया है / लेकिन दस हजारसे ऊपर तथा सागरोपमसे न्यून आयुष्यवाले देवोंके लिए कुछ भी कहा गया नहीं है, अतः अब वही बात मध्यम आयुषी देवोंके लिए शेष निकायमें घटाते हैं। दसवाससहस्सुवरिं, समयाई जाव सागरं ऊणं / दिवसमुहुत्तपुहुत्ता, आहारुसास सेसाणं // 182 // गाथार्थ-दस हजार सालसे ऊपर तथा सागरोपमसे कुछ न्यून आयुष्यवाले ( अर्थात लाखों, करोडों, अरबों, संख्य या असंख्य यावत् पल्योपमवाले ) देवोंके लिए दिवस ३२५पृथक्त्वपर आहार तथा मुहूर्त पृथक्त्वपर श्वासोश्वास ग्रहण होता है / // 182 // पृथक्त्व-यह संख्यावाचक शब्द पारिभाषिक है, जैन आगमोंके कथनानुसार इससे दो से लेकर नौ तककी संख्याका सूचन होता है / विशेषार्थ- उपरोक्त बताये गये गाथार्थको निम्नानुसार संगत करनेका है, गाथार्थका सीधा अर्थ तो ऊपर गाथार्थमें जो बताया गया है वही होता है; लेकिन उसे अगर उतने ही मानमें स्वीकार किया जाये तो कुछ न्यून सागरोपमवालोंके लिए दिन पृथक्त्वपर आहारमान, तथा मुहूर्त पृथक्त्वपर उच्छ्वासमान और पूर्ण सागरोपमवालोंके लिए एक हजार वर्षपर आहार तथा एक पक्षमें उच्छ्वास, इसके अलावा कुछ न्यून सागरोपम और पूर्ण सागरोपमके बीच दिखायी देती मर्यादा अल्प, फिर भी दोनोंके बीचका मान एकदम इस तरह छलांग लगा दे - इतना बड़ा भेद एकाएक दिखायी पड़े यह सहजरूपसे बुद्धिगम्य कैसे लग सकता है ? 325. यहाँ दस हजार साल ऊपर एक दिन, मास या वर्षादिक आयुष्यवाले देवोंको तुरन्त ही पृथक्त्वपन मिल जाता है ऐसा नहीं है, लेकिन क्रमशः आगे आगे पल्योपमादिक स्थिति पर पहुँचते ही पृथक्त्वपन प्राप्त होता है। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंका श्वासोच्छ्वास तथा आहारका कालप्रमाण ] गाथा-१८२ [361 ___ * तभी सार्वभौम टीकाकार श्री मलयगिरिजी महाराजने नीचेकी तरह संगति ( अर्थ ) करनेको कहा है। दस हजार सालके जघन्यायुषी देवोंके लिए 178 वी गाथामें बताया गया है कि वे एक अहोरात्रि बीत जानेके बाद (एकांतर पर ) आहार तथा सात स्तोक बीत जाने पर उच्छ्वास लेते हैं। अब दस हजार सालसे आगे समय-मुहूर्त, दिन, मास, वर्षादिकी ज्यों ज्यों वृद्धि होती जाती है, त्यों त्यों ( उन-उन देवोंके लिए) उच्छ्वास—आहारमानमें (जिस दिन मुहूर्त पृथक्त्व है उसमें ) थोड़ी-थोड़ी वृद्धि करते जाना / __अब यह वृद्धि कहाँ तक करे ? तो काल आयुष्यवृद्धि युगपद् आहार-उच्छ्वास वृद्धि करते-करते जब एक अर्थात् हजारों, लाखों, करोडों, संख्य और असंख्याता वर्ष पर अर्थात् एक पल्योपम पर पहुंचते हैं, उसी तरह साथ-साथ एक अहोरात्रमें समय मुहूर्तकी वृद्धि करते-करते 2, 4, 5 ऐसे आहार दिनमान तथा सात स्तोकमें भी उसी तरह लव, घटिका मुहूर्तादिककी वृद्धि करते जाना। इससे क्या होगा कि एक पल्योपम स्थितिवाले देवोंके लिए दो से लेकर नौ दिन तकका आहार ग्रहण अन्तर तथा दो से नौ मुहूर्तका उच्छ्वास ग्रहण अन्तर बराबर आ मिलता है। . इसका भाव (अर्थ) यह निकला कि गाथामें जो मान कहा गया है वह एक पल्योपमकी स्थिति धारण करनेवाले देवोंके लिए है, इनसे उपरके लिए नहीं, तब ऊपरि लोगोंके लिए क्या ? तो इसके बाद 2-3-4 आदि पल्योपमवाले देवोंके लिए दिन और मुहूर्त पृथक्त्व कालमें अन्तर बढ़ाते जाना / इससे क्या होगा कि-सैकडों, हजारों, लाखों, करोडों पल्योपमोंकी एक ओर ज्यों-ज्यों वृद्धि होती जायेगी त्यों-त्यों युगपत् आहारमानमें दिनोंसे खिसककर मास पर, साल पर और सैकडों पर जा पहुंचेगा और उसी अनुसार जो उच्छ्वासकालमान मुहूर्त्तका था वहाँसे आगे बढ़कर प्रहरों और दिनों पर जायेगा / ऐसा करते-करते जब हम 10 कोडाकोडी पल्योपमका एक सागरोपम होनेसे बराबर पूर्ण एक सागरोपम पर पहुंचेंगे तब वैसी स्थितिवाले देवोंका पूर्व कथनानुसार एक हजार सालका आहारग्रहणमान और एक पक्ष पर उच्छ्वास ग्रहणमान अन्तर बराबर आ ही जाता है / [182 ] बृ. सं. 46 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१८२ // चतुनिकायमें श्वासोश्वास - आहार अन्तरमान यन्त्र // नाम 2 देवलोक | आयुष्यमान | श्वा० | मान 1 सौधर्ममें 2 सागरोपम | 2 पक्ष पर 2 ईशानमें 2 साधिक सा. | 2 . 3 सनत्कुमारमें, 7 सागरोपम ! 7 ,, 4 माहेन्द्र में |7 साधिक सा. 5 ब्रह्मकल्पमें 10 सागरोपम 6 लांतकमें 14 सागरोपम 14 7 शुक्रकल्पमें 17 सागरोपम 8 सहस्रारमें 18 सागरोपम 9 आनतमें 19 सागरोपम 10 प्राणतमें 20 सागरोपम 11 आरणमें 21 सागरोपम 12 अच्युतमें 22 सागरोपम 1 सुदर्शन ग्रैवे. 23 सागरोपम 2 प्रतिबद्धमें 24 सागरोपम 3 मनोरममें 25 सागरोपम 4 सर्वतोभद्रमें 26 सागरोपम 5 सुविशालमें 27 सागरोपम 6 सुमनसमें 28 सागरोपम 7 सौमनसमें 29 सागरोपम 8 प्रीतिकरमें 30 सागरोपम 9 आदित्यमें 31 सागरोपम 1 विजयमें 33 सागरोपम 2 वैजयन्तमें 33 सागरोपम 3 जयन्तमें 33 सागरोपम 4 अपराजित में 33 सागरोपम 5 सर्वार्थसिद्ध में 33 सागरोपम 33 आहारमान / शेष निकायमें ___ श्वासो० आहारमान / वर्ष पर दस हजार सालकी जघन्य आयुवाले भवनपति व्यन्तरोंको एक अहोरात्रि पर आहारकी इच्छा होती है तथा सात स्तोक पर एकबार श्वासोश्वास भी करते हैं। - दस हजार सालसे भी आगे समयादिककी वृद्धिसे अधिक बढ़ते-बढ़ते यावत् एक पल्योपमका आयुष्य हो उसे दिन पृथक्त्व पर आहार और मुहूर्त पृथक्त्वपर उच्छवास ग्रहण होता है। इससे आगे बढ़ते हुए आयुष्यवालोंके लिए दिन पृथक्त्व और मुहूर्त पृथक्त्वमें क्रमशः धीरे धीरे वृद्धि करते जाना / यह वृद्धि भी इस तरह करें कि एक सागरोपमपर पहुंचते ही एक हजार वर्षपर आहार इच्छा तथा एक पक्षपर उच्छ्वास ग्रहणका कालमान आ रहे / एक सागरोपमसे भी आगेकी गिनतीके लिए कोष्टकमें बताया गया ही है। ww Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन प्रकारका आहारका स्वरूप ] गाथा-२८३ [363 ___ अवतरण-पूर्व १७९-८०वीं गाथामें 'श्वासोश्वास की व्याख्या की थी, परन्तु आहारकी व्याख्या नहीं की थी। अब यह 'आहार' कौन-सी चीज है और इनके प्रकार कितने हैं ? यह बताते हैं। सरिरेणोया आहारो, तयाइ-फासेण लोम आहारो / पक्खेवाहारो पुण, कावलिओ होइ नायव्वो / / 183 // गाथार्थ-ओजाहारका ग्रहण शरीर द्वारा, लोमाहारका ग्रहण त्वचाके स्पर्श द्वारा तथा प्रक्षेपाहारका ग्रहण कवल रूपमें लिया जाता है / // 183 // विशेषार्थ-जीवका प्रयत्नसे औदारिकादि शरीरके लिए औदारिक पुद्गलोंका पाँचों प्रकारके शरीर द्वारा जिसे ग्रहण करता है उसे 'आहार' 32 कहा जाता है / ___उत्पत्तिक्षणके बाद (औदारिकादिकी अपेक्षासे ) प्रतिक्षण नष्ट होनेका जिसका स्वभाव बना रहता है, उसे 'शरीर' कहा जाता है / ये शरीर 1. औदारिक, 2. वैक्रिय, 3. आहारक, 4. तैजस और 5. कार्मण इत्यादि भेदयुक्त पाँच प्रकारके होते हैं। आहारग्रहण ओजस् , लोम और प्रक्षेप (कवलाहार ) इन तीन रीतोंसे होता है / ओजसूआहार-ओजस शब्दकी परिभाषा तीन प्रकारसे की गयी है। (1) ओजस् अर्थात् 32 उत्पत्तिप्रदेशमें रहे हुए आहार योग्य पुद्गल (2) तैजस शरीर और (3) तेजस शरीर द्वारा ग्रहण किया जानेवाला आहार / संक्षिप्त परिभाषामें देखा जाये तो उत्पन्न होनेके बाद पहली ही 3२८क्षणमें (एकेन्द्रिय शरीर नहीं है, इसलिए) सिर्फ तैजस (-कार्मण) शरीर द्वारा ही जिसे ग्रहण किया जाता है उसे ओजाहार कहते हैं। - किसी भी उत्पत्तिस्थानमें उत्पन्न होने के प्रथम समय पर (पाँच प्रकारी शरीरमेंसे सिर्फ) जीव तैजस-कार्मण आदि दो शरीरवाला ही होता है और इसके बादके दूसरे समयसे जीव 326. दिगम्बरीय तत्त्वार्थ राजवार्तिकमें औदारिक, वैक्रिय और आहारक ये तीन शरीरोंको तथा आहार अभिलाष आदिके कारणरूप छः पर्याप्तिके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण वह आहार ऐसा कहा है। 327. जोएण कम्मएणं, आहारेइ अणंतरं जीवो, तेण परं मीसेणं, जाव सरीरस्स निष्फत्ती // तेएण वा कम्मएणं इति पाठां. [ सूत्र कृ. नि.] - 328. लोकप्रकाश सर्ग 3, श्लो. 25 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-१८३ . जिस भवमें उत्पन्न हुआ है उस भवयोग्य शरीरकी रचना शुरू कर देता है तब वह औदारिक-वैक्रियादिसे मिश्रकाय योगवाला बनता है, अर्थात् मनुष्य या तिर्यचके रूपमें जनम धारण करनेवालेको औदारिकमिश्र और देव-नारकके रूपमें जनम लेनेवालेको वैक्रियमिश्रयोग होता है। ये दोनों ( तैजस-कार्मण ) शरीर कि जिन्हें इन्द्रिय या हाथ-पैर आदि अंगोपांग नहीं होते हैं, उत्पत्तिके समय पर ये ३२८अंगुलके 33°असंख्यातवें भाग जितने बड़े ही होते हैं / देहधारी जीव (प्रायः) प्रत्येक क्षण पर सतत आहार करता रहता है, अतः पूर्वभवके शरीरको छोड़कर ऋजु या वक्रागतिसे उत्पत्ति प्रदेशमें जहाँ वह उत्पन्न हुआ है उसी क्षणसे (ते. का.) दो शरीर द्वारा औदारिकादि शरीर योग्य पुद्गलोंका जो आहरण-ग्रहण करता है .. उसे ओजाहार करना कहा जाता है। साथ ही आहार तथा तद्भवयोग्य शरीरादिक पर्याप्तिओंका आरम्भ तो दूसरे समयसे ही शुरू होनेसे जीव दूसरे समयमें अमुक अंश पर औदारिकादि शरीरपन प्राप्त करता होनेसे, दूसरे समयसे दूसरे शरीरपर्याप्तिकी निष्पत्ति न हो अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव औदारिकादि मिश्र (तेजस-कार्मण सह औदारिक-वैक्रियादि) काययोगसे अपने शरीर योग्य जिन पुद्गलोंका ग्रहण करें उनको ओजाहार जानें / यह ओजाहार शरीर पर्याप्ति तक कार्यशील रहता होनेसे एक अन्तर्मुहूर्त्तकाल है। लोमाहार-त्वचा-चमड़ीके छिद्र द्वारा ग्रहण किया जानेवाला आहार है। यह आहार शरीर पर्याप्ति बाद (अथवा स्वयोग्य पर्याप्ति बाद) यावज्जीव हो सकता है / प्रक्षेपाहार-अर्थात् भोजनके रूपमें या कवलके 331रूपमें मुख द्वारा लिया जानेवाला आहार / अतः इसका दूसरा नाम ‘कवलाहार' भी है / यह आहार स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद लिया जा सकता है / [ 183] अवतरण--तीन प्रकारके आहारमेंसे कौन-सा आहार किस अवस्था में मिलता है ? इसे बताते हैं। 329. अंगुलकी लम्बाई और चौड़ाई दोनोंका असंख्यातवा भाग ले या नहीं ? 330. देहमुक्त अशरीरी आत्माके असंख्यातमानसे ( सशरीरी होनेसे ) इसे कुछ अधिक बड़ा समझना / 331. कवल 'प्रक्षेप' पूर्वक होता होनेसे इसे प्रक्षेप आहार कहा जाता है। जीभसे जो स्थूल आहार डाला जा सके, वह है प्रक्षेप / Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन प्रकारका आहारका स्वरूप ] ___गाथा-२८४ [365 ओयाहारा सब्वे, अपजत्त पजत्त लोमआहारो / सुरनिरयइगिदि विणा, सेस भवत्था सपक्खेवा // 184 / / गाथार्थ-अपर्याप्तावस्थामें सर्व जीव ओजाहारी और पर्याप्तावस्था में सभी लोमाहारी होते हैं / देवता, नारकी और एकेन्द्रियके अतिरिक्त शेष सभी जीव प्रक्षेपाहारी होते हैं / / / 184 // विशेषार्थ-'ओज' अर्थात् उत्पत्तिप्रदेशमें स्वशरीर योग्य पुद्गलोंका समूह अथवा ओजस् अर्थात् तैजस शरीर द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे 33२ओज-आहार कहा जाता है। यह ओजाहार एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सर्व जीवोंको 333अपर्याप्त अवस्थामें होता है / यहाँ * अपर्याप्त' शब्दसे शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो गई न हो वहाँ तक जीवमें अपर्याप्तपन लें, लेकिन पहली ही आहारपर्याप्ति पर अपर्याप्तापन मत समझ लेना, 332. जो नाक, आँख और कानों द्वारा उपलब्ध होकर धातुके रूपमें परिणत होता है वह है ओजस् और जो केवल स्पर्शेन्द्रिय द्वारा उपलब्ध होकर धातुके रूपमें परिणत होता है वह है लोम ऐसा सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा १७३की टीकामें इन्हें मतांतरपूर्वक दर्शाया गया है / ... 333. पर्याप्तिका अधिक वर्णन तो इस ग्रन्थके अन्तमें आयेगा ही, तथापि सामान्यतः पर्याप्ति अर्थात् जीवमें स्थित आहारादिक पुद्गलोंको ग्रहण करके शरीरादिरूप परिणमावनेकी विशिष्ट शक्ति अथवा जीनेके लिए जीवमें बनी रहीं जीवनशक्तियाँ / यह पर्याप्ति आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन आदि छः प्रकारकी होती हैं / हरेक जीव पूर्वभवमें पर्याप्तिनामकर्मके उदयसे यथायोग्य पर्याप्तिका नियमन करके अपने पूर्व शरीरको छोड़कर जब उत्पत्ति प्रदेशमें आता है, कि वहाँ तुरन्त ही आहारके पुद्गलोंको ग्रहण करके आहारपर्याप्तिको परिपूर्ण करता है / तदनन्तर अंगोपांग रूप शरीर पिंडका नियमन करनेके लिए वह जब शरीरपर्याप्ति, उसके बाद क्रमशः छः पर्याप्ति-शक्तिको प्राप्त करता है तब उसे पर्याप्त हुआ ऐसा माना जाता है / उसे इस कार्यको अपने जनमके बाद एक अन्तर्मुहूर्तमें ही करना पड़ता है / हरेक जीव छः पर्याप्ति पूर्ण करें ही, ऐसा नहीं होता है। एकेन्द्रियादिकको 4-5-6 तो यथायोग्य मानी जाती है / अपर्याप्त जीवोंमें भी हरेक जीवको आहार, शरीर तथा इन्द्रिय ये तीनकी पर्याप्ति तो पूर्ण करनी ही पड़ती है। - प्रथमकी आहारपर्याप्ति एक समयकी है, शेष छोटे-बडे अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकी है। तीन पर्याप्ति तककी अथवा स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण होनेके पूर्वकी जीवकी सभी अपर्याप्तावस्था गिनी जाती है और पूर्ण होनेके बाद ही इसे पर्याप्त हुआ माना जाता है / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१८४ क्योंकि यह आहारपर्याप्ति (एक समय रूप है और उसके ) पूर्वकी अपर्याप्त अवस्था पर वह अनाहारक है, क्योंकि उस समय जीव विग्रहगतिमें (मी) होता है / साथ ही ३३४स्वयोग्य सर्वपर्याप्ति पर अपर्याप्त (अपूर्णता ) पन भी न ग्रहण करें, क्योंकि शरीरपर्याप्ति बाद जीव किंचित् अंगोपांगयुक्त और स्पर्शेन्द्रियकी शक्तियुक्त बना होनेसे वह अंग-प्रत्यंगोंसे सम्पूर्ण रूपमें लोमाहारसे पुद्गल ग्रहण योग्य होता है। इसलिए जो लोग स्वयोग्य सर्व पर्याप्तिसे अपर्याप्ता जीव ओजाहारी होते हैं ऐसा जो कहते हैं यह सर्वथा अयोग्य है ऐसा संग्रहणी टीकाकारका कहना है / लौमाहार-शरीर पर्याप्ति पूर्ण होते ही लोमाहार ग्रहण योग्य शरीरशक्ति अमुक अंशमें खील उठती है, अतः वह शरीर पर्याप्ति पर पर्याप्त होनेके बाद जीव स्पर्शेन्द्रियसे ही लोमाहारका ग्रहण (जान-अनजानमें ) करते हैं / यह आहार पर्याप्त अवस्थामें प्राप्त होनेसे यावज्जीवपर्यंत सतत हो सकता है। साथ ही यह लोमाहार (रोम, रोयें, रोंगटे द्वारा. आहार.) शरीरपर्याप्ति पर. पर्याप्त और मतान्तर पर स्वयोग्य सर्व पर्याप्ति पर पर्याप्ता एकेन्द्रिय. नारक तथा देवोंको भी होता है, शेष सभी शरीरपर्याप्ति पर पर्याप्ता, स्वयोग्य सर्व पर्याप्ति पर पर्याप्ता विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय सभी जीव लोमाहारी तथा प्रक्षेपाहारी दोनों होते हैं / इनमें लोमाहारका सिलसिला बना रहता है और प्रक्षेपाहार अर्थात् कवलाहार कदाचित् हो अथवा न भी हो (अर्थात् प्रक्षेपाहारका ग्रहण काल भी लोमाहारवत् है)। , उपरोक्त कथनानुसार लोमाहार पर्याप्तावस्थामें सभी जीवोंको यावज्जीवपर्यंत समय समय पर शुरू ही रहता है / अगर तीनमेंसे एक भी आहार सतत न हो तो जीवको समय समय पर जो आहारी कहा गया है वे न रहे और इसलिए मध्य-मध्य (बीच-बीच )में अनाहारपन आ जाता है, जो कि यह अघटित है। . शंका-अब किसीसे अगर यह शंका हो कि देव-नारकादिको समय समय पर लोमाहारी जो कहा गया है तो देवादिकके आहारका जो विशिष्ट अन्तर पूर्व पर बताया गया है वह किस प्रकार घटेगा ? ___समाधान- 'मनोभक्षी' देवोंका लोमाहार जो सतत रहा है उसे सामान्यतः अनाभोग (अनिच्छा ) रूप जानें और अमुक दिन या पक्षान्तिक आहार जो मिलता है उसे विशिष्ट तथा आभोग (इच्छा)पूर्वक जानें (जिसे इसके बादकी गाथामें कहा जायेगा)। ये देव अपने महान् पुण्योदयसे मनसे कल्पित स्वशरीरपुष्टिजनक, इष्ट आहारके शुभ पुद्गलोंको समग्र स्पर्शेन्द्रिय कायासे ग्रहण करके शारीरिक रूपमें परिणमाते हैं / जब कि नारकोमें भी 334. सूत्रकृतांगवृत्ति पृष्ठ ३४३में—केचिद्व्याचक्षते... वाला पाठ देखिए / Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस किस प्रकारका आहार कौनसे जीवोंको ग्रहण योग्य हैं ?] गाथा 184-185 [ 367 उसी तरह ही लेकिन अपने महापापोंके उदयसे अशुभ पुद्गलोंका ग्रहणपरिणमन होता है / इस तरह एकेन्द्रियादिकके लिए भी आभोग-अनाभोगरूप सामान्य तथा विशिष्ट आहार ग्रहण सोच लेना / इस तरह देव, नारक, एकेन्द्रिय आदि प्रक्षेपाहारी नहीं होते हैं। प्रक्षेपाहार-देव-नारकी-एकेन्द्रिय जीव आदिको छोड़कर दोइन्द्रिय, तीइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, तिथंच-मनुष्य इन सर्व जीवोंको इच्छा जनमते ही प्रक्षेपाहार ( कवल) का ग्रहण हो सकता है। फिर भी इस नियमको निश्चित न समझें, क्योंकि ऐसा कदाचित् हो सकता है और नहीं भी हो सकता है; मगर ऐसी सम्भावना समझें / क्योंकि प्रक्षेपाहारका सिलसिला जारी ही रहता है ऐसा नहीं है / यहाँ पर देव, नारकी और एकेन्द्रिय जीवोंका निषेध इस लिए बताया गया है कि यह प्रक्षेप-कवलाहार जिन्हें मुख हों उन्हें ही अथवा भवस्वभाव पर घटित हो तब ही सम्भव बनता है / एकेन्द्रियोंको तो मुख ही नहीं है तथा देव और नारक वैक्रियशरीरी होनेसे मुख होते हुए भी महान् पुण्योदयके बल पर पाए गये भवके कारण मुँह द्वारा आहार ग्रहण करनेकी झंझट होती ही नहीं है / अतः वे सभी लोमाहारी ही है। [184] अवतरण-अब किस-किस प्रकारका आहार, कौन-से जीवोंको ग्रहणरूप है ? इसे बताते हैं। सचित्ताचित्तोभय-रूवो आहार सब्बतिरियाणं / सवनराणं च तहा, सुरनेरइयाण अच्चित्तो / / 185 // . गाथार्थ-सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त (मिश्र) ये आहारके तीन प्रकार हैं। इनमें सभी तिर्यंचों तथा सभी मनुष्योंके लिए तीनों प्रकारका आहार होता है, जबकि देवों तथा नारकीके लिए अचित्त आहार होता है / // 185 // विशेषार्थ-आहारके तीन प्रकार हैं / सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त / इनमें सचित्त वह सचेतनरूप (जीवयुक्त) आहार, अचित्त वह अचेतनरूप (जीवरहित) आहार और सचित्ताचित्त वह (जीवरहित तथा सहित) 33५मिश्रआहाररूप है / . 335. उत्पत्तिस्थानमें प्रथम समय पर (मिश्र) सचित्त आहार होता है, क्योंकि वह स्थान जीवरू। . है इसलिये सचेतनपन है / इसके सिवा जीवोंका जीवयुक्त फलफलादिक मध-मांस-मक्खन-वनस्पत्यादिक जो कुछ चीजोंका आहार है वह सचित्त हैं। इनमेंसे अमुक फलफलादिक वनस्पति द्रव्य कुछ काल पर कुछ रीतिसे (कारणोंसे) अचित्त बन जाते हैं और इसी समय उसका आहरण करना . वह है अचित्त, और जिन फलफलादिकमें सचित्तपन तथा सम्पूर्ण अचित्तपन भी पूर्ण हुआ न हो उस समय उसका अगर उपयोग किया जाये तो इसे ' सचित्ताचित्त आहारका उपयोग किया है' ऐसा कहा जायेगा / Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 185-186 एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सर्व जातिके तिथंच तथा सर्व मनुष्योंका उक्त तीनों प्रकारका आहार होता है / अतः वे कदाचित् अचित्त, तो कदाचित् सचित्त, अर्थात् कदाचित् सचित्ताचित्त आहार लेते हैं / परन्तु देव तथा नारक आदि जिस आहारका पुद्गल लेते हैं वह तो हमेशा अचित्त आहार ही होता है / [ 185 / अवतरण-अब जिस-जिस अवस्थामें जो-जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे हरेक समय पर जानकर या अनजानमें लिया जा सकता है क्या ? आभोगाऽणाभोगा, सव्वेसि होई लोमाहारो / निरयाणं अमणुन्नो, परिणमइ सुराण स मणुण्णो // 186 / / ... गाथार्थ-सर्व जीवोंमें लोमाहार आभोग अर्थात् जान-बूझकर और अनाभोग अर्थात् अनजानमें इन दोनों प्रकारसे परिणमता है / इनमें यह आहार नारकीमें अमनोज्ञ-अप्रियपन तथा देवोमें मनोज्ञ-प्रियरूपमें परिणत होता है / // 186 // विशेषार्थ-'आभोग' और 'अनाभोग' इन दो प्रकारसे आहार ग्रहण होता है / आभोग अर्थात् मुझे आहार करना है वैसी इच्छा प्रकट होनेसे जिसे ग्रहण किया जाता है और इससे विपरीत अर्थात् अनिच्छापूर्वक ही सहजभावसे आहार पुद्गलोंका जो ग्रहण होता है वह है अनाभोग / यह सब किस प्रकार होता है ? तो जिस तरह बरसात या शीतकी ऋतुमें बारबार लघुशंका करनेके लिए जाना पड़ता है तथा उसमें अत्यन्त मूत्रादिरूप दिखायी पड़ता पुद्गलरूप जो आहार है, वह है अनाभोगिक / सर्व जीवोंमें अपर्याप्त अवस्थामें अनाभोगरूपमें ही आहार ग्रहण होता है, क्योंकि आहारपर्याप्ति प्रथम है जब कि मनःपर्याप्ति छट्ठी और अन्तिम है। मनःपर्याप्तिकी प्राप्तिके बाद ही 'इच्छा' शक्ति प्रकट होती है और जो पर्याप्ति पर्याप्त अवस्थामें ही मिलती है / अतः अपर्याप्त अवस्थामें ही अनाभोगरूप आहार ग्रहण जो कहा-बताया गया है वह समुचित ही है। लोमाहार किसे प्राप्त होता है ? लोम अर्थात् रोम (रोयें-रोंगटे) द्वारा बनता आहारग्रहण जो आभोग तथा अनाभोग इन दोनों रीतिसे सर्व जीवोंमें होता रहता है / क्योंकि ग्रहण किये जाते आहारसे संवेदनकी अनुभूति कभी कभी होती है तो कभी कभी नहीं भी होती / जिस तरह मर्दन द्वारा हवा और तैलादिकका ग्रहण इच्छापूर्वक होता है, जब कि शीतोष्णादि पुद्गलोंका ग्रहण स्वाभाविक रूपमें अनिच्छासे भी प्राप्त बन सकता है / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष तीन गति आश्रयी आहारकालमान ] गाथा 186-187 [369 अपवाद परन्तु इतना विशेष समझना कि एकेन्द्रिय जीव- सम्मूछिम पंचेन्द्रिय मनुष्य जो (मनः पर्याप्तिको छोड़कर शेष) चार ही पर्याप्तिवाले होते हैं इससे उनका आहार ग्रहण अनाभोग निवर्तित ही है क्योंकि वे जीव अतिशय अल्प और अपटु ( अस्वस्थ ) मनोद्रव्यकी लब्धिवाले होते हैं अर्थात् उनमें स्पष्ट मनोशक्ति ही नहीं होती कि जिससे उनका आहार ग्रहण समजपूर्वकका संभवित बन सके / अपने प्रतिकूल-अशुभ कर्मके उदयके कारण नारकोंमें यह लोमाहार अमनोज्ञ अर्थात् अप्रियरूप बनता है। अतः वे हमेशा अतृप्त ही रहते हैं। इन्हें आहारजन्य (सुखकी प्राप्तिके बदले उल्टा) दुःख ही मिलता है। जब कि तथाविध शुभ कर्मोंके उदयके कारण यह आहार देवोंके लिए मनोज्ञ-प्रिय, रुचिकर तथा सुखद है और इसलिए उन्हें परमसंतोषरूप तृप्ति भी मिलती है। इसी कारण शास्त्रमें देवोंको 'मनोभक्षी के रूपमें पहचाने जाते हैं। क्योंकि सभी देव तथाविध शक्ति अनुसार अपने मनसे शरीरको पुष्ट कर सके वैसे मनोभक्षणरूप आहार पुद्गलोंको ग्रहण करके तृप्त बनते हैं। ओज आहार-देवोंको छोड़कर शेष जीवोंके लिए अनाभोगिक / .. लोम आहार-सर्व जीवों में आभोगिक तथा अनाभोगिक दोनों प्रकारसे / प्रक्षेप (कवल) और मनोभक्षणरूप आहार-द्विइन्द्रियोंसे लेकर पंचेन्द्रियों तकके सभी जीवोंमें आभोगिक ही मिलता है। जीव अनाभोगिकरूप आहार ग्रहण जीवनपर्यंत निरंतर करते ही रहते हैं, जब कि आभोगिकके लिए वैसा नहीं होता है। [186] . अवतरण-यहाँ पर इससे पहले हम देवगति आश्रयी आहारमान बता चुके हैं। अब आहारके प्रकरणमें ही प्रवर्तमान नरक, तिर्यच तथा मनुष्यगति आश्रयी आहारका कालमान जणाते हैं। तह विगलनारयाणं, अंतमुहत्ता स होई उक्कोसो / पंचिंदितिरिनराणं, साहाविय छ? अट्ठमओ // 187 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 187 / / विशेषार्थ-द्विइन्द्रिय, तीइन्द्रिय तथा चौरिन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय जीव तथा नारक आहारके सतत अभिलाषी (इच्छुक ) होनेसे एकबार आहार ग्रहण करने के बाद फिरसे दूसरी बार उन्हें उत्कृष्टतापूर्वक एक अंतर्मुहूर्तके अन्तर पर विशिष्ट आहारकी इच्छा होती है। बृ. सं. 4. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१८७-१८८ [ अन्यथा सामान्य आहार तो जीव मात्रको समय समय पर मिलता ही रहता है ] पंचेन्द्रिय तिर्यंचको आहारेच्छा स्वाभाविक 335 रूपसे उत्कृष्ट छठ पर अर्थात् दो अहोरात्रि (48 घण्टे )के अन्तर पर होती है, तथा पंचेन्द्रिय मनुष्यको तीन अहोरात्रि ( 72 घण्टे )के अन्तर पर आहारेच्छा होती है। परन्तु यह उत्कृष्ट आहार अन्तर यह सुषमसुषम कालमें भरत, ऐरवत, देवकुरु, उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती तीन पल्योपमायुषी मनुष्य-तिर्यचोंका जानें, लेकिन दूसरोंका नहीं। साथ ही छट्ठ, अट्ठम पर जो आहार ग्रहण कहा गया है, इसे स्वाभाविकरूपमें अर्थात् जब तप-रोगादिका अभाव हो तब ही समझना। लेकिन तपरोगादिक संभव हो तो अनेक दिनों तक आहार ग्रहण संभवित बनता ही नहीं है। वर्तमानके सामान्य तिर्यंच मनुष्योंको अंतर्मुहूर्त पर अथवा अनियतरूप भी. आहारकी इच्छा होती है, परन्तु तप रोगादि न हो तब, क्योंकि तपादि कारणसे तो छः छः मास' तक भी आहार ग्रहण होता नहीं है। पृथ्वीकायादिक एकेन्द्रिय लगातार आहाराभिलाषी होनेसे इनका कोई अन्तरमान होता ही नहीं है, अतः ग्रन्थकारने इस गाथामें बताया नहीं है। [ 187 / अवतरण-अब अनाहारक जीव कौन-कौनसे हैं तथा कौन-कौनसे जीवोंको कब-कब अनाहारकपन होता है ? उसे अब बताते हैं। विग्गहगइमावना, केवलिणो समूहया अजोगी य / , सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा // 188 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 188 / / विशेषार्थ-आहारक तथा अनाहारककी व्यवस्थाके लिए गाथामें 'विग्गहगई' शब्दका प्रयोग किया गया है अतः विग्रहगति किसे कहे ? और वह कब हो सकती है ? उसे अगर हम समझ लें तो ही प्रस्तुत बात स्पष्ट समझ सके इसलिए उसका कुछ स्वरूप यहाँ समझ लें / जब कि इसी ग्रन्थकी गाथा 329-31 में इसका विशेष रूपमें वर्णन करना उचित है, फिर भी प्रसंगोपात हम यहाँ पर उसकी कुछ स्पष्टता करते हैं। विवक्षित भवका आयुष्य पूर्ण करके दूसरे किसी भवमें ( अथवा मोक्ष पर ) पहुँचने के लिए अथवा एक शरीरको छोड़कर भवान्तरमें दूसरा शरीर ग्रहण करनेके लिए जीव दो प्रकारसे प्रस्थानगति करता है। ___ 336. संग्रहणी टीकाकारने यहाँ पर 'स्वाभाविक 'का अर्थ 'तप रोगादिकका कारण न हो तब' ऐसा बताया है। परन्तु युगलिक मनुष्य-तिथंचको तो तप या रोगका कारण होता ही नहीं है, तो उनका यह लेखन किस प्रबल कारणरूप होगा ? वह ज्ञानीगम्य / Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // चारों गतिमें आहार-अनाहारक व्यवस्था विषयक यन्त्र / जातिनाम जाहार लोमाहारा प्रक्षेपाहार सचित्त अचित्त मिश्र आभोग अनाभोग xxx 1 उसका काल आहार अनाहारक | (व्यवहार अन्तर समय | नयसे) सतताहारी | विग्रह गतिको | अधिकसे | पानेवाले जीव अधिक चार समय | 1 | 4 | 1 | 1 अंतर्मु. / केवली | 3-4-5 1 / 1 | 1 | . समुद्घातमें | ये तीन x | 1 | 2 अहोरात्र | १४वें गुण- समय | ठाणपर शैलेशी- अत्यन्त 3 अहोरात्र | करणमें | अल्प | अंतर्मुहूर्त पूर्वके यंत्र | सिद्धस्थानपर सादि अनंत | 1 | के अनुसार | वर्तित जीव | काल तक 1 1 1 एकेन्द्रिय अपर्याप्ताको / शरीर पर्या. ,, पर्याप्तावस्थामें यावत् | स्वभवपर्यंत 2 विकलेन्द्रिय अपर्याप्ताको 1 " x | 1 , पर्याप्ताको x भवपर्यत स्वभवपर्यंत 3 पंचे. तिथंच अपर्याप्ताको | 1 " , पर्याप्ताको भवपर्यत | भवपर्यंत 4 पंचे. मनुष्य अपर्याप्ताको | 1 " , पर्याप्ताको भवपर्यत भवपर्यंत 5 देव अपर्याप्ताको , पर्याप्ताको 6 नारक अपर्याप्ताको ___, पर्याप्ताको | भवपर्यत ܐ ~ x x x चारों गतिमें आहार-अनाहारक व्यवस्थाविषयक यन्त्र ] . . गाथा-२८८ [ 371 ܘ ܝ ܚ x x x x - - - - xxxxx ܚ भवपर्यंत X ܚ x x x x ~ X ܚ ܚ X 1 | 1 | 1 अन्तर्मु. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१८८ 3 1. ऋजु (सरल) और 2. वक्रा (कुटिल)। ये गतियाँ एक भवसे लेकर दूसरे भवके बीच आती होनेसे इसे 'अन्तराल' गति भी कहते हैं / 1. ऋजुगति-यह गति एक ही समयकी है, इसका दूसरा नाम 'अविग्रहा'3३७ भी है। इस गतिसे परभवमें जाता जीव मृत्यु पानेके साथ ही सीधी गतिसे उत्पत्ति स्थानमें सीधा एक ही समयमें उत्पन्न हो जाता है। इसे एकसे अधिक समय लगता ही नहीं है। इसका कारण यह भी है कि-संसारी जीवका मृत्यु स्थानका जो श्रेणिप्रदेश होता है उसकी समश्रेणिपर ही (छः दिशाओंमेंसे किसी भी एक दिशाकी) उत्पत्ति प्रदेश हो तो सूक्ष्म शरीरधारी जीव वक्रगतिसे न जाता हुआ सीधा ही अपने जन्म स्थान पर पहुँचता होनेसे अधिक समयका अवकाश रहता ही नहीं है। 2. वक्रागति-यह गति एकसे अधिक समयवाली है। अतः एकविग्रहा- दो समयवाली, द्विविग्रहा-तीन समयवाली, त्रिविग्रहा–चार समयवाली और चतुर्विग्रहा३३८-पाँच समयवाली; इस प्रकार वह चार प्रकारी है और इस गतिका 'विग्रहगति '338 ऐसा नामांतर भी हुआ है। वक्रगति ऐसा नामकरण क्यों किया गया है ? तो इसका समाधान इस प्रकार है कि-जीव एक शरीरको छोड़कर जब किसी दूसरे शरीरको ग्रहण करनेके लिए परभवकी ओर प्रस्थान (गति ) करता है, तब स्वोपार्जित कर्मवशकारण उसे कुटिल वक्रगतिकी ओर जाना पड़ता है अर्थात् उसके द्वारा वहाँ उत्पत्ति स्थान पर पहुँचता है। .. ___ इस तरह संसारी जीवोंका परलोकगमन ऋजु (सरल) और वक्रा (कुटिल)-इन दो गतियोंसे होता है। ऋजुकी बात तो ऊपर बतायी गई है / लेकिन वक्रगमन क्यों करना पड़ता है ? तो इसके समाधानमें यह बताते हैं कि-वक्रगतिसे जानेवाले जीवका मृत्युस्थान और उसका उत्पत्तिस्थान (ऋजुकी तरह ) दोनों जब समश्रेणिपर होते नहीं हैं, लेकिन वक्रगतिरूप विश्रेणिपर होते है, इसी कारण जीव सीधा या श्रेणीभंग करके तिरछा भी जा सकता नहीं है। यह एक अटल नियम है, अतः इसे प्रथम सीधा जाकर बादमें मोड़ लेकर ही उत्पत्तिकी श्रेणिपर पहुंचकर उत्पत्ति प्रदेश पर पहुंचना पड़ता है। इन्हीं मोड़को धारण करने का नाम ही वक्र गति है। ऋजुगति किसे प्राप्त होती है ?-कर्ममुक्त होकर मोक्ष पर जाते सभी जीवों में तथा संसारी जीवोंमें ऋजुगति मिलती है। इसमें मुक्तात्माका मुक्तिगमन (मोक्षगमन ) हमेशा 337. तत्त्वार्थभाष्यमें यह नाम है। 338. तत्त्वार्थभाष्यमें यह गति ही नहीं है / 339. विग्रहोवक्रितमवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्ति / Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋजु और वक्रागतिका स्वरूप ] गाथा-१८८ [373 उर्ध्व-समश्रेणिपर ही होता है। यह अटल नियम है, इसीसे यह रहस्य भी स्पष्ट होता है किं-जीवकी मूलगति तो ऋजु (सरल) ही है, लेकिन अपने कर्मवशवर्ती होकर उसे वक्राका अनुभव करना पड़ता है। वकागति किसे मिलती है ?-सिर्फ संसारमें जन्म धारण करनेवाले जीवोंमें ही वक्रागति मिलती है जब कि मुक्तिगामियोंमें यह नहीं मिलती है। ___ इसमें भी चार प्रकारकी इन विग्रहगतियोंमेंसे एकविग्रहा और द्विविग्रहा तो सिर्फ त्रस जीवों मरकर पुनः त्रस होनेवाले हैं उनके लिए ही होती हैं क्योंकि त्रसनाड़ीमें मरकर त्रसनाड़ीमें ही उत्पन्न होनेवाले जीवोंमें अधिक वक्राका संभव रहता ही नहीं है। जो जीव स्थावर है उनमें (ऋजु सहितकी ) पाँचों गतियाँ होती हैं, क्योंकि उन्हें सनाड़ीके बाहर भी जनम धारण करना पड़ता है। एक वक्रामें 1, दोमें 2, तीनमें 3, चारमें 4 (घुमाव ) मोड़ आते हैं। यहाँ शंका होती है कि इतने सारे वक्राकी जरूरत पड़ती है क्या ? तो इसका उत्तर है, हाँ / वस्तुस्थिति ऐसी है कि जीव तथा पुद्गलकी गति आकाशप्रदेशकी श्रेणिपंक्ति अनुसार ही होती है। इसकी स्वाभाविक गति ही छः दिशाओंमेंसे किसी भी दिशाकी समानान्तर दिशामें ही होती है तथा इसका स्वाभाविकगमन अनुश्रेणिपूर्वक ही होता है, लेकिन विश्रेणिपूर्वक कभी भी होता ही नहीं है। अतः जब उसे असमानान्तर अथवा विषमणिपर पहुँचना होता है तब अवश्य ही अनेक घुमाव परसे गुजरना पड़ता है जिसमें अपने पूर्वकृत कर्म भी कारणरूप बनते हैं। और इन घुमावोंके समय अनाहारकपनकी स्थिति होती है। अनाहारकपन कब-कब होता है ? __इस प्रकार जब विग्रहगतिको प्राप्त हुए जीवोंमें पाँच समयकी चतुर्विग्रहा होती है तब चार मोड़ आते होनेसे चार समय (व्यवहारनयसे 3) अनाहारीपन होता है, तो ऐसी ही दूसरी विग्रहागतियोंमें 3-2-1 (व्यवहारनयसे 2-1-0) अनुक्रमसे अनाहारीपन मिलता है। ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवालोंको अनाहारक बननेका अवसर मिलता ही नहीं है। उनका विशेष स्वरूप 329 से 331 तककी गाथाके विवरणसे ही समझ लेना। - केवलज्ञानी जब आठ समयके समुद्घात करते हैं तब (केवल कार्मणकाययोगमें वर्तित) उनका 3,.4, ५-ये तीन समय अनाहारक ही होता है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 189-191. अयोगी-चौहदवें गुणस्थानकपर स्थित अयोगी केवली जब शैलेषीकरण करते हैं तब उसी अवस्थामें वे अन्तर्मुहूर्त (अत्यल्प समयोंके ) काल तक अनाहारक होते हैं / सिद्धके जीव जो सकल कर्मका क्षय करके मुक्तावस्थाको प्राप्त होते हैं, वे सादिअनन्तकाल तक अनाहारक ही होते हैं / ऊपरि प्रसंगोंको छोड़कर शेष सभी जीव हरेक प्रसंग पर आहारक ही होते हैं / यहाँ अनाहारीपन वह एकान्त सुखका कारण है, जब कि आहारीपन वह दुःखका कारण है / इसलिए मुमुक्षुओंको अनाहारीपदकी प्राप्तिके लिए उद्यमशील बनना चाहिए। [188] अवतरण-अब देवोंकी तथाविध भवप्रत्ययिक सम्पत्तिका वर्णन करते हैं। . केसटिमंसनहरोम-रुहिरवसचम्ममुत्तपुरिसेहिं / रहिआ निम्मलदेहा, सुगंधिनीस्सास गयलेवा / / 189 / / अंतमुहुत्तेणं चिय, पज्जत्तातरुणपुरिससंकासा / / सव्वंगभूसणधरा, अजरा निरुआ समा देवा / / 190 // अणिमिसनयणा, मणक-ज्जसाहणा पुप्फदामअमिलाणा / चउरंगुलेण भूमि, न छिबंति सुरा जिणा बिति / / 191 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 189-191 / / विशेषार्थ-सभी देव अपने पूर्वभवके संचित शुभ कर्मोदयके प्रभावसे हमेशा शारीरिक आकृतिमें अतिशय सुन्दर, शरीर-मस्तक पर केश, हड्डियाँ, मांस, नाखून, रोंयें, रुधिर, चरबी, त्वचा, मूत्र, विष्टा (मल), (स्नायु) इतनी वस्तुओंसे रहित ३४°शरीरवाले होते हैं / ऐसी कलुषित वस्तुसे सर्वथा रहित होनेके कारण वे निर्मल देहधारी-उज्ज्वल शरीरी पुद्गलोंको धारण करनेवाले, कर्पूर-कस्तूरी आदि विशिष्ट सुगन्धी द्रव्योंसे युक्त सुगन्धी श्वासोश्वासवाले, जात्यवन्त सुवर्णके लेप जैसे, रज प्रस्वेद आदि उपलेपरहित होते हैं / वे प्रवालवत् रक्त अधरवाले, चन्द्र समान उज्ज्वल वैक्रियभावी दाँतोंवाले होते हैं / यहाँ वैक्रियभावी विशेषण देनेका कारण यह है कि केश-३४१ नाखूनादिका अस्तित्व औदारिकभावी है, जब कि देवों तो वैक्रियशरीरी ही होनेसे यह वस्तु स्वाभाविक रूपसे तो होती नहीं है, लेकिन अगर जरूरत पड़ी तो वे उत्तरवैक्रियसमान केश, नाखूनादि सर्व स्वरूप धारण कर 340. अर्थात् मनुष्य जनमके दुःख, त्रास और भयरूप मानी जानेवाली कोई भी चीज उनमें होती नहीं है। 341. उववाइसूत्रमें दन्त, केशादिका आस्तत्व बताया गया है / Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंकी उपपात समयकी स्थिति ] गाथा 189-191 [ 375 सकते हैं। इससे समझना कि अगर देवोंमें सप्तधातुका अभाव मिलता है तो शरीर किस पर आधारित (टिका हुआ) रहता है ? जिस तरह औदारिक शरीरमें बैठने-उठने या घुमनेकी क्रिया अस्थि, रुधिर, मांसादिककी मददसे ही सम्भवित बनती है, उस प्रकार देवोंमें तो यह नहीं होता; तो क्या उनका शरीर मांसके पिण्ड जैसा होगा क्या ? तो इसके उत्तरमें यह समझना है कि-देवोंमें संघयण नहीं मिलता अर्थात् अस्थिरचनाका बिलकुल अभाव होता है / तदनन्तर गाथामें बतायी गयी अन्य चीजें भी मिलती नहीं है, क्योंकि वैक्रियवर्गणाके पुद्गलोंसे ही देवोंका शरीर बना हुआ है, अतः औदारिकभावी सप्तधातुओंका अभाव जरूर है, लेकिन इसके अर्थमें उनका शरीर मांसके पिण्ड समान समझना नहीं है / लेकिन जहाँ जहाँ कठिनाई-कठोरता या कुछ-कुछ कोमलताकी जरूरत है वहाँ-वहाँ ये पुद्गल अधिक समूहमें सुव्यवस्थितरूपसे पाये जाते हैं। ____अतः देवोंका शरीर अत्यन्त स्वच्छ, तेजोमय-दसों दिशाओंको अत्यन्त प्रकाशित करनेवाला, सिर्फ सर्वोत्तम वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शादिसे उत्पन्न तथा शुभ वैक्रिय पुद्गलोंके समूहसे बना हुआ सौभाग्यादि गुणयुक्त होता है। 189) - देव-देवियाँ देवशय्यामें ही उत्पन्न होते हैं अतः उन्हें मनुष्यादिवत् योनिमें उत्पन्न होना या गर्भ-दुःखको सहन करना पड़ता नहीं है, परन्तु उत्पत्तिस्थान पर देवदूष्य वस्त्रसे आच्छादित विवृत्तयोनीरूप एक देवशय्या होती है / देवगतिमें जनम लेनेवाले जीव अपने पूर्वके महान पुण्योदयसे एक क्षणमात्रमें उपपातसभामें देवदूष्य वस्त्रके नीचे शय्या पर प्रथम समय पर अंगुलके असंख्यातवें भाग पर उत्पन्न होते हैं / जनमके साथ ही आहारादिक पाँच पर्याप्तियाँ एक ही अन्तर्मुहूर्तमें समाप्त करनेपूर्वक पूर्णपर्याप्तिवाले होते हैं और उत्पन्न होनेके साथ ही भवस्वाभाविक अवधि अथवा विभंगज्ञानको प्राप्त करके, यथायोग्य भोगयोग्य तरुण अवस्थावान् हो जाते हैं। इसी कारणसे अन्य गतिके जीवोंकी तरह देवोंमें गर्भधारण-कुक्षि जन्म-बाल्यवृद्धादि भिन्न अवस्थाएँ आती नहीं है / जब वे देवशय्यामें जनमते हैं उस समय स्वाभाविक सुन्दर रूपवाले वस्त्राभूषणरहित होते हैं, परन्तु इसके बाद ही वहाँ उपस्थित रहकर सत्कारनेवाले सामानिकादि देव-देवियाँ 'जय जय' शब्दपूर्वक नमस्कार करके, जिनपूजनसे प्राप्त अनेक लाभोंको स्वामीके मनोगत अभिप्रायसे बताकर उपपात सभाके पूर्वद्वारसे सभी आभियोगिकादि देव, स्वाभाविक विकुर्वित अनेक भाँतके समुद्र-जलौधिसे भरे हुए, उत्तम रत्नोंके महाकलशोंसे द्रहमें ले जाकर स्नान कराते हैं तथा बादमें अभिषेक सभामें स्नान कराते हैं / तदनन्तर उत्साही सभी देव अलंकार पभामें विधिपूर्वक ले जाकर, सिंहासन पर बिठाकर शरीर पर शीघ्र सुवर्णके उत्तम देव र वस्त्र, रत्नावलि आदि हार, अंगूठी (मुद्रिका ), कुण्डल, अंग-केयूरादि सुशोभित ' णोंको सर्वाग पर पहनाते हैं। इसके बाद व्यवसाय सभामें विधिपूर्वक (प्रदक्षिणादि ) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 189-191 पूर्वद्वारसे ले जाकर वहाँ पुस्तकादि दर्शाते हैं / जनमे हुए ये देव उस पुस्तकसे अपने लिए यथायोग्य अवसरके प्रसंगों तथा परंपरागत रस्म-रिवाजोंसे सुमाहितगार बनकर, नन्दननामक बावडीमें पूजाभक्ति निमित्त पुनः स्नानादिक करके ३४२जिनपूजादिकके उत्तम सभी कार्य क्रमशः विधिपूर्वक करके, बादमें विधिपूर्वक सुधर्मासभामें आरूढ़ होकर स्वकार्यमें तथा देव-देवीके विषयादिक सुखमें तल्लीन बनते हैं। साथ ही वे देव सर्वाग पर मस्तक, कण्ठ, हस्त, कर्णादि अवयवों पर आभूषणोंको धारण करनेवाले, 'अजरा' अर्थात् जरावस्थारहित, अर्थात् हमेशा अवस्थित यौवनवाले, 'निरूआ' अर्थात् निरोगी, खाँसी-श्वासादि सर्व व्याधिमुक्त, 'समा' अर्थात् समचतुरस्र संस्थानवाले हैं। [190] साथ ही सभी देव भवस्वभावसे ही लीलायुक्त सुन्दर अनिमेषनेत्रवाले. अर्थात् जिनके नेत्र कभी भी पलक मारते नहीं है अथवा बन्ध होते नहीं हैं, अपरिमित सामर्थ्यसे 'मनसे ही सर्व कार्यके साधक' अम्लानपुष्पमाला 43 अर्थात् खीली हुी (विकस्वर, सुगन्धयुक्त देदीप्यमान) सदा ही प्रफुल्लित कल्पवृक्षकी लम्बी पुष्पमालाको उत्पत्तिके बाद ( अलंकार सभामें ) धारण करनेवाले, साथ ही पृथ्वी पर आगमन करते समय पृथ्वीका 342. ये नियम सम्यग्दृष्टि देवके लिए ही समझें / मिथ्यादृष्टिदेव अपने आराध्य देवादिककी विधि ही उपयोगमें लाते हैं। 343. प्रश्न-देवोंके कण्ठवर्ती पुष्पमाला सचित्त होती है कि अचित्त ? अगर यह सचित्त है तो माला कल्पवृक्षमेंसे बनी होनेसे एकेन्द्रिय है और एकेन्द्रिय जीवोंका आयुष्य 10 हजार सालका है तो देवोंकी सागरोपम जितनी उम्र तक यह माला सचित्त-सचेतनपनसे हरी (खली हुई। कैसे रह सकती है ? __ और यदि उसे हम अचित्त माने तो यह माला देवोंके च्यवनान्त पर मुरझाने लगती है ऐसा सिद्धांतों में ' कहा है, तो अचित्त माला किस तरह मुरझा सकती है ? उत्तर-शास्त्रोंमें देवोंकी माला सचित्त होती है कि अचित्त इस विषयमें किसी भी ग्रन्थमें स्पष्ट उल्लेख देखनेको नहीं मिला है अतः अनेक तर्क-वितर्क संभवित बनते हैं, फिर भी सचित्त अथवा अचित्त दोनों रीतिसे माननेमें हरकत-शंका नहीं है। अगर इसे सचित्त माने तो जिस समय एक विवक्षित जीवका आयुष्य पूर्ण होता है अर्थात् उस स्थान पर वह जीव या कोई दूसरा जीव उस मालामें वनस्पति स्वरूप उत्पन्न / और यह माला अम्लान रहे, अथवा अचित्त माने तो ' म्लान' अर्थात्. कांति-तेज प्रथमावस्थासे कुछ होते जाते हैं ऐसा मानना अधिक उचित लगता है / तत्त्व ज्ञानीगम्य / Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन कारणोंसे देव मनुष्यलोकमें आते हैं ? ] गाथा-१९२ [ 377 स्पर्श न करके चार अंगुल ऊँचे रहनेवाले, महान् संपत्ति, सौभाग्य सुखको धारण करनेवाले (अर्धमागधी भाषा बोलनेवाले ) देव हैं ऐसा जिनेश्वर कहते हैं। | 191 ] अवतरण-देव किन कारणोंसे लेकर मनुष्यलोकमें आते हैं ? इसे बताते हैं / पंचसु ज्जिणकल्लाणे-सु, चेव महरिसितवाणुभावाओ / जम्मतरनेहेण य, आगच्छंती सुरा इहई // 192 / / गाथार्थ-जिनेश्वर देवोंके पाँचों कल्याणकोंमें, महर्षियोंके तपके प्रभावसे आकर्षित होकर तथा जन्मान्तरके कारण शेष किसी स्नेहवश देव यहाँ (आलोकमें ) आते हैं / // 192 // विशेषार्थ तद्भवमें तीर्थंकर परमात्मारूप होनेवाली व्यक्ति जब देवलोकादिक गतिमेंसे भरतादिक कर्मभूमिमें च्यवकर प्रकर्ष पुण्यशाली माताकी कुक्षिमें गर्भरूप उत्पन्न होती हैं, तब महानुभाव परमात्माका जीव जगज्जंतुके कल्याणार्थक मनुष्यलोकमें उत्पन्न हुआ है ऐसा अपने अवधिज्ञानसे जानकर देवगण उनका च्यवन कल्याणकका महोत्सव मनाते हैं। पुण्यात्माके गर्भके प्रभावसे माताको गर्भवेदना, उदरवृद्धि, जन्मादिक काल पर अशुचिपन आदि कुछ भी होता नहीं है। ___ अनुक्रम पर गर्भका यथायोग्य समय होते ही परमात्माका (अवधिज्ञानपूर्वक) जनम होता है, जो समग्र विश्वको तारकरूप होनेसे नारकीको भी क्षणके लिए सुखका कारणरूप बनता है। परमात्माका जनम होते ही सर्वत्र आनन्द तथा मंगल होता है / इस प्रसंग * पर इन्द्रादिक देव सुघोषा घण्ट द्वारा सभी देवोंको खबर (सँदेसा) करते हैं, तब सभी देव इकट्ठे होकर अपने-अपने विमान द्वारा इसी लोकमें जन्मगृह पर आकर, अपनी विद्याबलसे प्रभुके प्रतिबिंबको उनकी माताके पास रखकर, मूल शरीरको स्वयं ही ग्रहण करके अपना ही पंचरूप करनेपूर्वक मेरुपर्वत पर जाकर अभिषेकादि महाक्रियाएँ करते हैं / इस प्रकार देव-देवियाँ अनेक प्रकारसे और बड़ी धूमधाम (ठाट-बाट )से प्रभुके जन्मकल्याणकको मनाते हैं। ___ अनुक्रमानुसार वृद्धि पाते-पाते प्रभु अपने भोगावली कर्मक्षय पूर्ण होते ही, शाश्वत नियमानुसार लोकान्तिक देवोंके आचार पालन निमित्त जय जय शब्दरूप तीर्थप्रवर्तन करनेकी सूचना मिलते ही जगतको एक साल तक प्रचुर (बहुत, विपुल) मात्रामें धनादिकका दान देकर दारिद्रय दूर करके, जब दीक्षा लेनेके लिए तैयार होते हैं तब भी दीक्षाकल्याणक महोत्सवको मनानेके लिए सभी देव यहाँ आते हैं। इस प्रकार दीक्षा ग्रहण करनेके बाद सिर्फ जगत्जंतुके कल्याणार्थक शुद्ध मुक्तिमार्गका अ. सं. 48 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 192-194 आदर्श बतलानेके लिए उच्चतम, अहिंसा, उग्र तप-संयमका सेवन करते हुए, उपस्थित अनेक उपद्रवोंको समभावसे वेदते चार घातीकर्मका क्षय करके, वीतरागपन प्राप्त करके तेरहवें गुणस्थानक पर जब केवलज्ञानी बनते हैं तब उसी केवलज्ञान कल्याणककी महिमाको गानेमनानेके लिए देव यहाँ आते हैं। केवलज्ञानी तीर्थकर अपनी पैंतीस गुणयुक्त प्रभावित वाणी द्वारा विश्वके प्राणियोंको सच्चा मुक्ति-सुखका मार्ग दिखलाकर, अनेकोंका कल्याण करके या करवाके उसके द्वारा ही अपने बाकी (शेष) बचे चार भवोपग्राही कर्मोंका क्षय करके निराबाधरूपसे जब मोक्ष पाते हैं, उस समय उन महानुभाव परमात्माके मोक्ष कल्याणकको मनाने देव यहाँ आते हैं। इस प्रकार च्यवन (गर्भ)-जन्म-दीक्षा-ज्ञान और मोक्ष इन्हीं पाँचों कल्याणकोंको मनानेके लिए देव मनुष्यलोकमें आते हैं। इसके अतिरिक्त किसी महर्षि के महान् तपके प्रभावसे आकर्षित होकर उनका माहात्म्य बढ़ानेके लिए अथवा वन्दन-नमस्कारादिकके लिए, साथ ही जन्मांतरके स्नेहादिकके कारण अर्थात् मनुष्यादिककी स्त्री पर किसी रागवश अथवा द्वेषबुद्धिसे प्रेरित (संगमादिक जिस प्रकार आये थे वैसे ) इहलोकमें (इसी धरती पर) आना पड़ता है। इस तरह पूर्वभवके किसी स्नेहके बन्धनसे ग्रस्त बने देव अपने किसी मित्रके सुखके लिए अथवा तो किसी दुश्मनके दुःखके लिए नरकमें भी जाते हैं। [192] अवतरण-अब किन-किन कारणोंसे देव मनुष्यलोकमें आते नहीं हैं ? इसे बताते हैं। संकंतदिव्वपेमा, विसयपसत्ताऽसमत्तकत्तब्वा / अणहीणमणुअकज्जा, नरभवमसुहं न इंति सुरा // 193 / / चत्तारि पंचजोयण, सयाई गंधो य मणुअलोगस्स | . उड्दं वच्चइ जेणं, न उ देवा तेण आवन्ति / / 194 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 193-194 / / विशेषार्थ-जब देवलोकमें देव उत्पन्न होते हैं तब देवलोकवर्ती अत्यन्त सुन्दर देवांगनाओंमें नवीन-दिव्य प्रेम संक्रान्त (प्रवेश भावयुक्त) बनता है। अति मनोहर देवियोंके सुन्दर शब्द-रूप-रस-गन्ध तथा स्पर्शके विषय अति सुखकर और मनोज्ञ होनेसे देव उनमें अत्यन्त आसक्त बनते हैं, अतः इच्छा मात्रसे ही स्वर्ग सम्बन्धी अत्यन्त सुन्दर रूप-रसगन्ध-स्पर्श तथा शब्दोंमें उत्पन्न होनेके साथ ही प्रसक्त होते हैं / इसीलिए जिनका स्वकर्तव्य समाप्त नहीं हुआ अर्थात् उन्हें वहाँ ऐसा विषयादिक सुख मिलता है कि स्नान करके तैयार हो जायँ इतनेमें ही नाटकप्रेक्षणादिका मन होता है और यह सुख पूर्ण हुआ न हुआ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारों गतिके जीवोंका अवधिज्ञानका आकार ] गाथा 193-194 [ 379 यहाँ तो दूसरे अनेक सुखोंमें वे तल्लीन बनते जाते हैं / इस प्रकार वे ३४४देवांगनादिके प्रति अपूर्ण कर्तव्यवान् रहते हैं तथा मनुष्याधीन कुछ भी कार्य उन्हें करना पड़ता नहीं है, क्योंकि वे अनुपम सामर्थ्यवान् होनेसे स्वयमेव स्वकार्यके साधक हैं। इन्हीं सब कारणोंसे अशुभ गन्धयुक्त इस मनुष्यलोकमें देव आते नहीं हैं / [ 193] अशुभगन्धोपेतपन किस तरह होता है ? मनुष्यलोकके मनुष्य, तिर्यंचादिके मृत-क्लेवरोंमेंसे तथा मूत्र-पुरीषादिमेंसे उत्पन्न अशुभ गन्ध जब (श्री अजितनाथ भगवान आदिके समयमें मनुष्य जब अधिक होते हैं तब मृत कलेवरादिका प्रमाण (मात्रा) अधिक शक्तिशाली होता है तब गन्धका प्रमाण भी) अधिक बनती है ३४५तब पाँचसौ योजन तक अथवा तो चारसौ योजन तक ऊँची जाती है। तथा पृथ्वीकी चारों ओर दुर्गन्धयुक्त वातावरण हमेशा रहता होनेसे देव इसी मनुष्यलोकमें आनेका पसंद नहीं करते हैं। वे अपने स्वर्गीय सुखका आनन्द छोड़कर यहाँ आये भी क्यों ? सिर्फ उक्त गाथाओंमें बताए गए अनुसार कल्याणकादिके विशिष्ट प्रसंग पर सदा कालसे चले आते नियमानुसार परमात्माके पुण्यके प्राग्भारसे-प्रभावसे ही देव इस लोकमें आते हैं। [194] अवतरण-वैमानिक निकायकी समाप्ति करते देवोंमें भवप्रत्ययिक अवधिज्ञानका क्षेत्र किसमें कितना होता है ? इसे बताते हैं। तथा प्रसंगवश साथ-साथ ही नारकी, देव, मनुष्य और तिर्यचके अवधिज्ञानका संस्थान-आकार भी बताते हैं। . 344. वदाचित् वे देव अपने पूर्वजन्मके उपकारी कुटुम्ब-परिवार, गुरु आदिसे मिलने, अगर उन्हें अपनी सम्पत्ति भी बताना चाहे, परन्तु जन्मके बाद यहाँ तुरन्त आनेवाले देवोंको वे देवियाँ उपस्थित होकर उन्हें प्रेमयुक्त ताने मारकर (उपहास द्वारा ) लज्जित करके हावभावसे पुनः येन केन प्रकारेण अपनी ओर आकर्षित करती हैं, तदनन्तर देव वहाँ सुखमें लीन हो जाते हैं और यहाँ मनुष्यलोकमें आना भूल जाते हैं / 345. गन्धकी इन्द्रियों (घ्राणेन्द्रिय )के पुद्गल ऊँचे नौ योजन तक ही जाते हैं / परन्तु यहाँ जो पाँचसौ योजन प्रमाण बताया गया है तो उसके लिए इस तरह समझना है कि यहाँसे जो गन्धके मूल पुद्गल ऊपर गए हैं वे अपान्तरालसे ऊपर आये हुए अन्य पुद्गलोंको अपनी गन्धसे वासित करते हैं, तब वासित बने हुए ये नये पुद्गल और ऊपर जाकर अन्य पुद्गलोंको वासित करते हैं / इस प्रकार अन्यान्यवासित पुद्गलोंमें उतने योजन तक गन्ध जानेका सम्भव समझ लें / ... उपदेशमाला कर्गिका टीकामें तो 800 से 1000 योजन तक गन्ध जा सकती है ऐसा बताया है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 195-199 दो 34 पढमकप्पपढमं, दो दो दो बीअतइयगचउत्थिं / चउ उवरिम. ओहीए, पासंति अ पंचमि पुढविं // 195 / / छढि छग्गेविज्जा, सत्तमिमियरे अणुत्तरसुरा उ / किंचूणलोगनालिं, असंखदीवुदहि तिरियं तु / 196 / / बहुप्रयरं उवरिमगा, उड्ढे सविमाणचूलियधयाई / उणद्धसागरे संख-जोयणा तप्परमसंखा // 197 / / पणवीस जोयणलहू, नारय-भवण-वण-जोइकप्पाणं / गेविज्जणुत्तराण य, जहसंखं ओहिआगारा ||198 / / .. तप्पागारे-पल्लग,-पडहग-झल्लरी-मुईग-पुप्फ-जवे / तिरियमणुएसु ओही, नाणाविहसंठिओ भणिओ // 199 / / गाथार्थ-पहले दो कल्पके देवता अपने अवधिज्ञानसे प्रथम नरक पृथ्वी तकका क्षेत्र (अधो) देख सकते हैं, उसके बादके दूसरे दो कल्पके देव दूसरे नरक तक, बादके दो कल्पके देव तीसरे नरक तक, तदनन्तर दो कल्पके देव चौथे नरक तक और बादके चार कल्पके देव पाँचवीं नरकपृथ्वी तकके क्षेत्रको देख सकते हैं। // 195 // , तदनन्तर छः अवेयकके देव छट्ठवें नरक तक और उसके बादके ऊपरि तीन अवेयकके देव सातवीं नारक पृथ्वी तक, साथ ही अनुत्तर देव कुछ न्यून प्रमाण लोकनालिकाको देखते हैं। साथ ही सौधर्मादिक सभी देव तिच्छ असंख्याता द्वीप-समुद्रोंके क्षेत्रको देख सकते हैं / // 196 // यहाँ फर्क इतना है कि उनके उसी क्षेत्रके ऊपर-ऊपरके कल्पवाले देव, तिच्छ क्रमशः नीचे-नीचेके कल्पवाले देवोंसे अधिक विशुद्ध-विशुद्धतर अवधिज्ञानके प्रभावसे अधिक-अधिकतम और सर्वकल्पगत देव तो अपने-अपने विमानकी चूलिकाकी धजा तक ऊँचा देख सकते हैं। और इसमें भी आधे सागरोपमसे न्यून आयुष्यवाले तिच्छृ संख्य योजन क्षेत्रको देख सकते हैं और उससे अधिकायुष्यवाले देव असंख्य योजन तक देख सकते हैं / // 197 // लघु आयुष्यवाले देव तिच्छु 25 योजन तक देख सकते हैं / नारकी, भवनपति, 346 दो कप्पपढमपुढवि-इति पाठांतरं / Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारों गतिके जीवोंका अवधिज्ञानका आकार ] गाथा 195-199 [381 व्यन्तर, ज्योतिषी, बारह कल्प, अवेयक तथा अनुत्तर देवका यथासंख्य अवधिज्ञान क्षेत्रका आकार निम्नानुसार है / / / 198 / / ____ जहाज (जलयान ), प्याला, पटह, झालर, मृदंग, पुष्पचंगेरी और यव (जव ) अर्थात यव नालिकाकारका होता है। तिर्यचों तथा मनुष्योंका अवधिज्ञान छोटा-छोटा (विविध) प्रकारके संस्थानवाला बताया गया है / // 199 // विशेषार्थ-सिद्धान्तमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल ये पाँच ज्ञान बताए हैं / इन ज्ञानों में सभी ज्ञानोंका समाविष्ट हो जाता है। एक एक ज्ञान क्रमशः बढ़ियाबढ़तर है। इनमेंसे पहले दो ज्ञान हरेक जीवमात्रमें न्यूनाधिकपनसे होते ही हैं और इतनी भी ज्ञानचेतनाके कारण ही जीव, जीवरूप पहचाना जाता है; अन्यथा वह अजीव ही है। साथ ही अवधि आदि तीन ज्ञान विशिष्ट गुणकी भूमिका पर पहुँचनेके बाद ही प्राप्त होता है। इनमें अंतिम केवलज्ञान तो चौदह राजलोक तथा अलोकके सभी पदार्थों को आत्मसाक्षात् दिखलानेवाला है, अस्तु / अब यहाँ पर सिर्फ अवधिज्ञानका विषय ही जरूरी होनेसे अन्य चर्चाको छोड़कर उसे ही समझेंगे / ____ अवधिशान = अवधि अर्थात् मर्यादाशील जो ज्ञान है वह / अब मर्यादा किसकी ? तो रूपी और अरूपी इन दोनों प्रकारके पदार्थों से सिर्फ रूपी पदार्थका ही आत्मसाक्षात्कार * कराके वह मर्यादित बना है / यह ज्ञान अनुगामी आदि छः भेद अथवा असंख्य और अनन्त भेदोंसे प्राप्त होता है / इस ज्ञानका ज्ञानी (मालिक) अपने स्थान पर बैठकर ही जिस चीजको देखनेकी इच्छा है वहाँ उपयोग (ध्यान देना) करना पड़ता है। यह ज्ञान बहुत ही रहस्यमय (भेदयुक्त) और क्षेत्र सीमित तथा विभिन्न रीतिसे उत्पन्न होनेवाला है / यह ज्ञान भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक ऐसे दो प्रकारसे उत्पन्न होता है। देवोंमें भवप्रत्ययिक ज्ञान होता है, क्योंकि देवभवमें उत्पन्न होते ही उसका उदय होता है / यह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कौन-से देवोंमें ? किस प्रकार ? कितनी मात्रामें मिलता है ? उसे बताते हैं। - उत्कृष्ट अधौअवधिक्षेत्र-अब सबसे पहले उत्कृष्ट विषयके बारेमें कहना होनेसे प्रन्थकार प्रथम वैमानिक निकायाश्रयी अधःक्षेत्रमर्यादाको बताते हैं / प्रारम्भके दो कल्प - सौधर्म तथा ईशानकी ३४७उत्कृष्टायुषी देव-देवियाँ (तथा सामानिकादि देव ) अपने प्राप्त ज्ञानसे नीचे पहली रत्नप्रभा नरकपृथ्वीके अन्त तकके सभी रूपी पदार्थोंको देखनेके लिए शक्तिमान है / सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके उत्कृष्ट आयुष्यवाले ___347. जहाँ कल्पयुगल होता है वहाँ एकसे दूसरे कल्पके देव उसी क्षेत्रको विशुद्ध रूपसे देखते हैं ऐसा समझें / Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 195-199 इन्द्रादिक देव यावत् शर्कराप्रभापृथ्वीके अन्त तक, ब्रह्म-लांतक कल्पके देव वालुकाप्रभाके अन्त तक, शुक्र--सहस्रारके देव चौथी पंकप्रभाके अन्त तक और आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्पके देव पाँचवीं धूमप्रभाके अन्त तक देख सकते हैं / लेकिन इतना विशेष समझे कि उत्तरोत्तर कल्पके देव एक-दूसरेसे अधिक विशुद्धनर विशुद्धतमरूप क्रमशः पदार्थोंके बहुपर्यायोंको देख सकते हैं / [195] प्रारम्भके छः अवेयकके देव छठ्ठी तमःप्रभा पृथ्वी तक, बादके (ऊपरके) तीन ग्रैवेयकके देव सातवीं तमस्तमप्रभा तक और अनुत्तर कल्पके देव (अपनी धजाके अन्तसे ऊपर नहीं इसलिए) कुछ न्यून ऐसी लोकनालिका अर्थात् पंचास्तिकायसे पूर्ण चौदह राजप्रमाण क्षेत्रको देख सकते हैं / ऊपरि तीन प्रैवेयकके अतिरिक्त ये देव सातवीं नरक अधोवर्ती अलोकाकाश तकके विषयको भी जानते हैं। उ. तिर्यक् अवधिक्षेत्र-सौधर्मसे लेकर अनुत्तर तकके देव तिच्छ असंख्याता द्वीपसमुद्र तक (लेकिन उत्तरोत्तर एक-दूसरेसे अधिक असंख्य योजनरूप ) देख सकते हैं। अर्थात् असंख्यातामें असंख्य भेद पड़नेसे सौधर्म देव जिस असंख्य द्वीपसमुद्र देख सकते हैं, ईशान देवलोकवासी देव इससे भी अधिक असंख्य प्रमाण अधिक द्वीप-समुद्रोंके क्षेत्रको देख सकते हैं अथवा उसी क्षेत्रको अधिक स्पष्ट तथा सविशेष देख सकते हैं / इस तरह अधिक-अधिकतर-तमरूप अधिक उत्तरोत्तर कल्पके देवोंको अवधिज्ञानके प्रकाशमें विशुद्धतर-तमपनका सद्भाव होनेसे उसी तरह देखने में वे शक्तिमान हैं। उ. उर्ध्व अवधिक्षेत्र प्रत्येक कल्पके सौधर्मादिक सर्व देव ऊँचा तो भवस्वभावसे अपने अपने विमानकी धजाके अंत तक देख सकते हैं। लेकिन इससे भी उर्ध्वक्षेत्रमें देखनेमें वे अशक्तिमान है। [196-97 ] इत्युत्कृष्टोऽवधिः / सर्वजघन्य अवधि-इन देवोंका जघन्यअवधि विषय अंगुलके. असंख्यवाँ भागरूप (वह कोई एक सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान सहित उत्पन्न होती है अतः उस समय उतना ही बड़ा होता है इसी अपेक्षासे) जानें / यह अवधिविषय पारभविक सम्बन्धी कदाचित् प्राप्त होनेसे ग्रन्थकारने इसे मूलगाथामें बताया नहीं है / // इति वैमानिकानां जघन्योत्कृष्टमवधिक्षेत्रम् // शेष तीन निकायमें अवधिक्षेत्रमान बताते हैं उत्कृष्ट तिर्यगक्षेत्रम्-जिन देवोंका आयुष्य अर्ध सागरोपमसे न्यून हैं ऐसे भवनपतिकी नौ निकाय व्यन्तर, ज्योतिषी आदि सभी संख्य योजनका क्षेत्र देख सकते हैं अर्थात् उतने क्षेत्रके द्वीप-समुद्रोंको देख सकते हैं, और इससे अधिक अधिक आयुष्यवाले चमरेन्द्र, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष तीन निकायमें अवधिक्षेत्रमान ] गाथा 195-199 [383 बलिन्द्रादिक असुर असंख्य-असंख्य योजन अधिक-अधिकरूप देख सकते हैं / इस प्रकार ज्यों ज्यों आयुष्यकी वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों असंख्य योजनकी वृद्धि भी समझ लें। उत्कृष्ट उर्ध्वक्षेत्र-अपने अवधिके बलसे ही चमरेन्द्र उत्पन्न होते ही सौधर्मेन्द्रको देख सकता था, अतः भवनपति सौधर्मकल्प यावत् ऊपर देख सकते हैं। व्यन्तर और ज्योतिषी उत्कृष्टसे अधिकरूप संख्याता योजन तक ही ऊपर (ऊँचा) देख सकते हैं / उत्कृष्ट अधःक्षेत्र - सभी भवनपति असंख्य योजन (तीसरे नरकान्त ) तक और व्यन्तर-ज्योतिषी संख्याता योजन तक देख सकते हैं। जघन्यावधिक्षेत्र-भवनपतियों में प्रथम निकायका, उर्ध्वादि तीनों बाजुषाला जघन्य अवधिक्षेत्र विषय असंख्य योजन, शेष नौ निकायका संख्य योजन, इनमें भी जघन्य दस हजार सालकी आयुवालोंका निश्चे 25 योजन, व्यन्तरका संख्य योजन, इनमें भी दस हजार वर्षायुषो व्यन्तरोंका 25 योजन, ज्योतिषीका संख्य योजनका अर्थात् संख्याता द्वीप समुद्रका भी लघुके बजाय बड़ा संख्याता इससे अधिक द्वीप-समुद्रका जाने / [ 198 ] अवधिक्षेत्रका संस्थानाकार-नारकीका अवधिक्षेत्राकार तिरेंदाकार (तिरौंदा, तरणु) होता है। यह काष्ठके समूहसे बनाया हुआ सीधा-सरल तैरनेका त्रिकोण (त्रिभुज ) आकारकाजलयान साधन होता है। . भवनपतिका आकार 'पल्याकार' होता है, यह लाटदेशमें उपयोगी धान्य नापनेका प्याला-साधन विशेष है, जो ऊँचा होने के साथ साथ नीचेसे ३४८चौड़ाईवाला तथा ऊपरके भागसे कुछ सँकरा (संकीर्ण) होता है। व्यन्तरदेवका अवधिक्षेत्राकार पटहाकार होता है। यह एक प्रकारका लम्बा ढोल होता है जो ऊपर-नीचे दोनों भागों पर समान प्रमाणयुक्त और दोनों ओर गोल चमड़ोंसे जड़ा हुआ होता है जिसे देशी वाद्य बजानेवाले बजाते हैं वह / - ज्योतिष्कका अवधि३४४ क्षेत्राकार झल्लाकारमें (झल्लाकार ) अर्थात् दोनों ओर विस्तीर्ण वलयाकार चमड़ोंसे सुशोभित, बीचमेंसे सँकरा, जिसे 'ढक्का के उपनामसे पहचाना जाता है वैसा होता है। अतः यहाँ पाठशालामें उपयोगी कांस्यकी पतली घंटा (झालर) न समझकर, सँपेरे-मदारी जो डमरू या डुगडुगी बजाते है, वैसा ही समझे। कल्पोपपन्न (बारह देवलोक )का अवधिक्षेत्राकार मृदंगाकार होता हैं, जो एक देशी. 348. यह कथन 500 गाथाएँ युक्त संग्रहणीके आधार पर है, शेष अन्य स्थानोंमें यह प्याला नीचेसे विस्तीर्ण तथा ऊपरसे संकीर्ण होता है ऐसा लिखा हुआ है। 349. यहाँ कांस्यकी झालर न समझकर, 'डमरूकाकार' समझना अधिक योग्य है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 199-200 वाद्य है। इसका एक ओरका मुख गोलाकार विस्तीर्ण और दूसरी ओरका संकीर्ण लेकिन गोलाकार चमड़ेसे सुशोभित मुखवाला होता है, जिसकी पीठ बीचसे ऊँची होती है। . नौ-अवेयकका आकार 'पुष्पचंगेरी' जैसा अर्थात् गुंफित पुष्पोंसे शिखापर्यंत भरी हुई चंगेरी (परिधिसह छाब) होती है वैसा / ___ अनुत्तरदेवोंका अवधिक्षेत्र यवनालक अपरनाम कन्याचोलकका (प्राचीन कालमें पैरकी घुटी तककी बनावटका फ्रोक जैसा) आकारका है। अर्थात् कोई कन्या कंचुकी सहित अधोवस्त्र जिस प्रकारसे पहनी हुी होती है वैसा आकार उनके अवधिक्षेत्रका दिखायी पड़ता है। इससे यह साबित होता है कि इसमें स्त्रीके सिरका भाग छूट जाता है और गलेसे लेकर पैर तकका वस्त्र इसमें आ जाता है और यह उपमा भी जो दी गयी है वह यथार्थ है; क्योंकि अनुत्तरके देव पुरुषाकृति लोकके सिर-मस्तिष्कके स्थान पर हैं। वे देव वहाँसे लेकर अन्तिम सातवें नरकके तलवे तक देख सकते हैं / अब शेष रहा इसके ऊपरका एक मात्र सिद्धक्षेत्र स्थान (जिस प्रकार यहाँ मस्तिष्क शेष रहा है उसी प्रकार ) और जब इस समग्र क्षेत्रको चौदह राजलोकके चित्रमें देखेंगे तो ऊपर जो दृष्टांत कहा-बताया गया है वह आपको यथार्थ लगेगा। इस प्रकार जो आकार बताए गए हैं उन्हें चौदह राजलोकका चित्र अपने सम्मुख रखकर घटानेसे ठीक तरहसे समझ सकेंगे; क्योंकि क्षेत्राकार देखकर ही उपमाएँ दी हैं / यद्यपि ये सभी उपमाएँ सम्पूर्ण रीतिसे योग्य (यथार्थ ) न भी लगे ऐसा सम्भवित हो सकता है, लेकिन फिर भी करीबन मिलती आती है जरूर / इस प्रकार देवोंके अवधिक्षेत्रोंके आकार बताये हैं। शेष तिर्यंच तथा मनुष्यके अवधिज्ञानके क्षेत्राकार भी अनेक प्रकारी अनियत एवं भिन्न-भिन्न यथायोग्य होते हैं अर्थात् कि गोलाकार या स्वयंभूरमण समुद्रमें जैसे बहुत-से मत्स्याकार होते हैं वैसे नानाविध आकारसंस्थानवाले होते हैं / [199] अवतरण-संस्थानादि कहनेके बाद अब कौन-सी दिशामें किस देवका अवधिक्षेत्र अधिक होता है ? इसे बताते हैं। उड्ढे भवणवणाणं, बहुगो वेमाणियाण हो ओही / नारय-जोइसतिरियं, नरतिरियाणं अणेगविहो / / 20 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 20 // विशेषार्थ-भवनपति तथा व्यन्तर देवोंमें अवधिज्ञानक्षेत्र बहुत ऊँचा होता है / ( इसी Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन देवोंके कितना अवधिज्ञान होता है ? ] गाथा-२०० [385 उत्सर्पिणीमें चमरेन्द्रका सौधर्मकल्पमें जाना प्रसिद्ध है) तिरछे तथा नीचेके अवधिक्षेत्र बहुत अल्प होते हैं। वैमानिक निकायके देवोंका अवधिक्षेत्र अधिक नीचा होता है (कल्याणकादि प्रसंग पर अवधिसे तीर्थंकरका जन्मादिक देख आना प्रसिद्ध है) यह तिरछे, अल्प और ऊँचाईमें ( स्वविमान धजा पर्यंत होनेसे ) उससे भी अल्प होता है। साथ ही नारकी तथा ज्योतिषी देवोंका अवधिक्षेत्र तिरछा अधिक और ऊँचा तथा नीचा अल्प होता है। ____ मनुष्य और तिर्यचका क्षेत्र अनेक प्रकारका अर्थात् उर्ध्व, अधो, तिर्यक् छोटा-बड़ा विविध संस्थानाकार रूप विभिन्न रीतिसे होता है। [200 ] // चारों गतिके बारेमें अवधिक्षेत्रका आकार और दिशा आश्रयी अल्पबहुत्व व्यवस्था यन्त्र // ऊर्ध्व अल्प तिर्यगजाति नाम | अवधिक्षेत्राकार बहुत्व | अधोमान | मान अल्प भवनपतिका पल्याकार ऊर्ध्वविशेष अल्प व्यन्तरका पडहाकार ज्योतिषीका झाल (झालर) अधिक के आकारका बारह देवलोकका मृदंगाकार अधो अल्प अधिक नौ प्रैवेयकका | पुष्पचंगेरीके आकारका अनुत्तरका यवनालकाकार नारकीका अल्प अधिक मनुष्यका विविधाकार अनेकविध अनेकविध | अनेकविध -तियचका // इति देवगत्यधिकारः // तिरौंदाकार Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-२०० ता अंगुलके * योजन // चारों निकायमें अवधिज्ञानका जघन्य-उत्कृष्टप्रमाण यन्त्र // देवनाम जाति | .ऊवं उत्कृष्ट | अधः उत्कृष्ट | तिर्यक् उत्कृष्ट | तीनों प्रकारका अवधिविषय | अवधिविषय | अवधिविषय | जघन्यअवधि 1 असुर कु-नि. का || सौधर्मान्त तीसरे नरकांत | असंख्य योजन | 25 यो. से शेष नौ नि. का संख्य योजन | अधिक-तर-तम दस हजार वर्षायुषी 3 25 योजन संख्य यो. 2 व्यन्तरोंका || संख्याता योजन | संख्याता योजन 25 योजन . दस हजारीका संख्य यो. 3 ज्योतिषीका संख्याता योजन 1 सौधर्मका स्वविमान- प्रथम नरकांत | असंख्य योजन | असं. भागका धजा तक तलवे तक अधिक असंख्य 2 ईशानका 3 सनत्कुमारका दूसरे नरकान्त | इससे अधिक असं. योजन 4 माहेन्द्रका 5 ब्रह्मलोकका तीसरे नरकान्त | तीसरे चौथेके 6 लांतकका बजाय अधिक असं. योजन 7 महाशुक्रका 8 सहस्त्रारका चौथे नरकान्त | पाँचवें छठवेंके बजाय 9 आनतका अधिक असं. यो. 10 प्राणतका पाँचवें नरकान्त सातवें आठवेंसे 11 आरणका अधिक असं.यो. 12 अच्युतका नौवें-दसवेंसे अधिक असं.यो. 1 पहली ]. त्रिक पर छठे नरकान्त | ग्यारहवें-बारहवें से 2 दूसरी 3. त्रिक पर अधिक असं यो. 3 तीसरी ]. त्रिक पर सातवें नरकांत / दोनों त्रिकसे भी तलवे पर अधिक असं. यो. [ कुछ न्यून अधोलोकनालिका | स्वयंभूरमण 5 अनुत्तर पर लोकनालिका]| प्रान्त तक समुद्र यावत् " Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठ्ठवाँ परिशिष्ट और स्वर्गलोककी सिद्धि ] गाथा-२०० [387 ॥श्री कलिकुण्डपार्श्वनाथाय नमः / / Bamcenramcarcancercancarnampancarcane चौथे वैमानिकनिकायाश्रयी छट्ठवाँ परिशिष्ट (6) स्वर्गलोक क्या है सही ? वर्तमान युगकी सुशिक्षित मानी जानेवाली और बुद्धिप्रधान होनेका दावा करनेवाली मानव जाति जितना प्रत्यक्ष देख सकती है या अपने प्रयोगसे जितना भी साध्य बना सकती है मात्र उतना अस्तित्व ही माननेके लिए तैयार हैं। इसमें पश्चिमी शिक्षा-संस्कारोंने भी हिस्सा लिया है, लेकिन जितना प्रत्यक्ष दिखायी दे उतना ही सत्य (सच्चा) और शेष सर्व झूठ ऐसी मान्यताएँ तो, ऐसे माननेवालोंके लिए भी अनेक प्रसंगसे बाधक बन सकती है, फिर भी खास करके धार्मिक बाबतोंमें इन मान्यताओंको महत्त्वका स्थान देते हैं तथा इसकी आड़ करते हैं, लेकिन यदि गहरायीसे सोच-विचार किया जाये तो आत्महिताहितकी बाबतमें ये मान्यताएँ सच ही आत्मघातक ही दिखायी पड़ेगी। ___भारतीय जैन, वैदिक तथा बौद्ध इन तीनों परम्पराओं में परलोकके अस्तित्वका स्वीकार किया गया है। तो इन तीनों संस्कृतिके प्रणेता, उत्तराधिकारी और वाहक (प्रवर्तक) ये सभी विचारशून्य होंगे क्या ? कभी नहीं / वर्तमान दुनियाके लोग ही बुद्धिवान् हैं और भूतकालके लोग नहीं थे ऐसा कोई कह सकेंगे क्या ? हरगिज ( कभी ) नहीं। अस्तु / ... दूसरी बात वे यह करते हैं कि-नरक और स्वर्ग यह तो शास्त्रों या धर्मगुरुओं द्वारा उपस्थित की गयी मात्र कल्पित मान्यताएँ ही है। इन्होंने 'नरक' समझाते हुए लोगोंके सामने बड़ा हाऊ ( भयंकर भय ) उत्पन्न कर दिया है तो स्वर्ग दिखानेके लिए बड़ा प्रलोभन भी बताया। यह तो जनताको धर्ममें खींच लानेके लिए उनकी एक चाल . . मात्र है। वरना वास्तविक रूपमें देखेंगे तो स्वर्ग या नरक जैसी कोई चीज है ही नहीं / और जो कुछ भी है उसे आप अपनी आँखोंके सामने देख सकते हैं। इसके अलावा दूसरी सृष्टि है ही नहीं, अतः परलोक सम्बन्धी जो बाते हैं वे सब मिथ्या है एसी प्ररूपणा करते हैं। ___ परन्तु यह धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान या वास्तविक विचारणासे अनभिज्ञ तथा संसार रसिकोंकी कल्पना मात्र है। सर्वज्ञोंने चार गति बतायी हैं / 1. मनुष्य, 2. तिर्यंच, 3. देव तथा 4. नारक / इनमें प्रथमकी दो गतियाँ प्रत्यक्ष हैं और शेष दोनों परोक्ष। प्रथमकी दोनों गतियोंके लिए 'इहलोक' शब्दका प्रयोग किया जाता है और तदनन्तर दोनोंके लिए. 'परलोक' शब्दका प्रयोग किया जाता है। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२०० विश्वके प्राणियोंको तमाम प्रवृत्तियोंके अन्तमें सुख तथा दुःख इन दोनोंका अनुभव नजरके सामने आता है। और इन सुख दुःखके भी असंख्य प्रकार बन सकते हैं, लेकिन इन्हें सिर्फ दो या तीन विभागों में बाँटें तो जघन्य और उत्कृष्ट अथवा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-इस तरह बाँट सकते हैं। इनमें जघन्य सुखका स्थान तिर्यचोंमें, मध्यम मनुष्यों में और उत्कृष्ट देवलोकमें रहा है। __ अब चारों गतियोंके जीव हमेशा शुभाशुभ, पुण्य-पाप, धर्म या अधर्म, अच्छी या बुरी-दोनों प्रकारकी प्रवृत्ति कर रहे हैं तो उनका फल भुगतनेके स्थान भी चाहिए कि नहीं ? ( यहाँ नरक-सिद्धिकी बात नहीं है अतः उसे छोड़कर सिर्फ देवलोककी सिद्धिके / विषयमें ही विचार-विमर्श करेंगे।) जब किसी एक जीवने जघन्य या उत्कृष्ट शुभ एवं सुकृत कर्म किया है, तब उसका फल भुगतनेका स्थान भी अवश्य होना ही चाहिए; तो जघन्य फल भुगतनेका स्थान मनुष्य तथा तिर्यच गति है और प्रकृष्ट फल भुगतनेका स्थान देवगति है। प्रश्न-तो क्या इस लोकमें चक्रवर्त्यादिकी साह्यबी (वैभव ) भोगनेवालेको हम प्रकृष्ट सुखी नहीं मान सकते कि जिससे हमें किसी अदृष्ट ऐसे स्थानकी कल्पना करने तक दौड़ लगानी पड़ती है ? ____ उत्तर-चक्रवर्ती आदि मनुष्य भले ही सुखी है, फिर भी वह सर्वथा सुखी तो नहीं है। जब हमें तो प्रकृष्ट पुण्यका फल मात्र सुख ही हो ऐसा स्थल चाहिए, तब कोई चक्रवर्ती भी ऐसा नहीं मिलता है कि जहाँ दुःख रहा ही न हो। और मानवजाति इष्टानिष्ट द्वारा वियोग-संयोग, जरावस्था, रोग-शोकादिकसे कुछ न कुछ दुःखी होती ही है। वे आयुष्यको लेकर भी कंगाल स्थिति भुगतते हैं। तभी कहीं पर ऐसा योनि-जन्म या स्थान जरूर होना चाहिए कि जहाँ केवल सुख ही सुख वर्तित हो और वैसा स्थान तो एक मात्र देवयोनि ही है। जहाँ नहीं होते रोग, प्रायः नहीं होते प्रतिकूल संयोग, वहाँ तो अक्षय समृद्धि तथा विपुल वैभव भरे पडे मिलते हैं। वहाँ नित्य युवावस्था और पल्योपम तथा सागरोपम काल जितना दीर्घ आयुष्य भी है। मानवसुलभ तुच्छता और पामरताका जहाँ सर्वथा अभाव है और पौद्गलिक सुखकी पराकाष्टा (चरम सीमा) प्रवर्तमान है। इसी जगत में जिस प्रकारसे कोई एक पाई सुखी, दो पाई सुखी, एक आना सुखी या दो आने सुखी यों बढ़ते-बढ़ते सौ गुने, हजार गुने सुखी होते हैं वैसे पौद्गलिक सुखकी अन्तिम पराकाष्टावाले (चरम सीमावाले ) जीव भी होने ही चाहिए। और अगर इसे जब दृष्ट दुनिया में न देख सकें तब उनका कोई दूसरा स्थल तो मानना ही पड़ेगा और वैसा अगर कोई स्थल भी है, तो वह है देवलोक / Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा परिशिष्ट और स्वर्गलोककी सिद्धि ] गाथा-२०० [ 389 साथ ही सूरज, चन्द्र आदिको भी हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं, और वे क्या हैं ? तो वे हैं देवोंके तेजस्वी रत्नमय गमनशील विमान। और अगर विमान हैं तो उनके चालक भी जरूर होंगे ही और जो चालक हैं वे देव ही हैं। साथ ही कितने ही तपस्वियों एवं महर्षियोंके तपोबलके प्रभावसे देवों द्वारा प्रत्यक्ष बननेके कई प्रसंग भी हम सुन चुके हैं। विद्या मन्त्र-यन्त्रके प्रभावसे भी देव प्रत्यक्ष बननेके तथा उनके द्वारा अनेक कार्यसिद्धियाँ पानेके शतशः (सैंकड़ो प्रकारके) दृष्टांत (मिसाल) सुनते हैं और वर्तमानमें भी विशुद्ध अनुष्ठान-क्रियाके बलसे दैविक सहायता तथा सिद्धियाँ मिलनेके तथा स्वप्नमें दर्शन या बातचीत करनेके प्रसंग भी सुनते हैं। साथ ही हम मनुष्यमें भूत-प्रेत-जीन-झंड इत्यादि भूत बाधक व्यक्तियोंको (भूत या भूतोंके आवेशवाले ) देखते हैं; तो वह क्या है ? वह देव प्रवेश ही है। अन्यथा जिस चीजका मूल व्यक्तिको ज्ञान नहीं होता ऐसी अज्ञात चीजें और गुप्त रहस्योंको (अपने आवेशके बाद ) वे कहाँसे कह-बता सकते हैं ? इसके अलावा तप-ज्ञानादिक धर्मकी क्रियाका उत्कृष्ट फल भुगतनेके लिए भी ऐसी गतिके अस्तित्वका स्वीकार करना पडेगा ही और 'देव' यह 'घट' पदकी तरह व्युत्पत्तिमान विशुद्ध पद है। इस लिए 'देव' जैसी व्यक्तियाँ अदृष्टलोकमें होनी ही चाहिए। उपर्युक्त सभी कारणों पर विचार-विमर्श करनेवाले आस्तिक व्यक्तियों में अब देवगतिके अस्तित्वके विषयमें कुछ भी शंका रहेगी नहीं। वैमानिक निकायवर्ती नौ लोकान्तिक जो देव हैं वे पाँचवें ब्रह्मकल्पवर्ती तीसरे रिष्ट नामक प्रतरमें आयी हुी अष्टकृष्णराजियोंके मध्य-मध्य भागोंमें आए हुए विमानोंमें बसते हैं। उन्हें ३५°एकावतारी भी कहे गए हैं अतः उनका लोकान्तिक ' नाम भी सान्वर्थक माना जाता है। इसके अतिरिक्त विषय वासना रहित होने के कारण इन्हें 'देवर्षि ' शब्दसे भी सम्बोधित किया जा सकता है। इन देवोंमें छोटे-बड़ोंका व्यवहार न होनेसे सभी अहमिन्द्र हैं। वे सभी तीर्थंकरों द्वारा गृहत्याग करनेके समयसे पूर्व उनके पास आकर प्रभुको प्रणाम करके, धर्मतीर्थ प्रवर्तन३५१ करनेकी बिनती करते हैं, जो यह अपना शाश्वतिक आचार है। 350. मत-मतांतरसे सात-आठ भव / 351. बौद्धोंके विनयपिटकमें सहपति ब्रह्मा आकर बुद्धसे अपनी ज्ञानप्राप्तिके बाद लोककल्याणार्थक उपदेश करनेकी प्रार्थना करते हैं, ऐसा कहा गया है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 390 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२०० चारों निकायी देवोंके 198 भेद किस प्रकार हैं ? ऐसे तो देवका अर्थ 'सभी देव' ऐसा कर सकते हैं। और चार निकायाश्रयी देवोंके सिर्फ चार ही भेद हैं ऐसा भी मान सकते हैं, लेकिन हमें विशद ज्ञान-अनुभव हो इस लिए शास्त्रमें विभिन्न दृष्टिस्वरूप देवोंके प्रकार बताये हैं, फिर भी चारों निकायमें अन्तर्गत प्रकार गिनती करके बताये गए हैं। = 25 '- 26 कुल संख्या इसकी दस निकायके भवनपति. और वहाँ वर्तित परमाधार्मिकके व्यन्तर और वाणव्यन्तरके व्यन्तर और ३५२तिर्यजंभकसे जाने पहचाने ज्योतिषी चर ज्योतिषी स्थिर ज्योतिषी -कल्पोपपन्न१२ देवलोकके तद्वर्तित किल्बिषिकके वैमानिक ___ , लोकान्तिकके निकाय -कल्पातीतनौ वेयकके ___ = 38 अनुत्तर देवलोकके 99 देवोंके प्रकार भेद हुए। इन 99 को समयकी अपेक्षासे सोचने पर पर्याप्ता और अपर्याप्ता दोनों मिलाकर 198 भेद बनते हैं। 352. तीर्थंकरादि जैसे विशिष्ट पुण्यवान् आत्माओंके आवासमें धन-धान्यादिककी पूर्ति ये देव करते हैं। उनके अन्नज़ंभक, पानजुंभक, वस्त्रजुंभक ऐसे 10 प्रकार हैं और ये जो जो चीज देते हैं उसी नामसे पहचाने जाते हैं। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव सम्बन्धी संक्षिप्त समज ] गाथा-२०० [391 .३आठ कृष्णराजियोंके नाम 1. कृष्णराजी, 2. मेघराजी 3. मेघा 4. माघवती, 5. वातपरिघ, 6. वातपरिक्षोभ / 7. देवपरिघ, 8. देवपरिक्षोभ-ये आठ नाम हैं। ४-वैमानिकमें विमान–अवस्थित = शाश्वत, वैक्रिय तथा पारियानिक = अशाश्वत / (मनुष्यलोकमें आनेके लिए ) ऐसे तीन प्रकार हैं। ५-सौधर्म-ईशानके विमान कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र तथा शुक्ल ये पाँच वर्णो के, सनत्कुमार-माहेन्द्रके नील, लोहित, हारिद्र तथा शुक्ल इस प्रकार चार वर्णोंके, ब्रह्म-लांतकके विमान कृष्ण, नील, लोहित ऐसे तीन वर्णोके; महाशुक्र-सहस्रारके हारिद्र तथा शुक्ल ऐसे दो ही वर्णोके तथा इसके ऊपरि सभी कल्पोंके विमान सिर्फ श्वेत वर्णका ही हैं।। ६–सौधर्मावतंसक तथा ईशानावतंसक विमानोंका विष्कंभ ( लम्बाई-चौड़ाई ) 12 / / हजार योजन है। ___ चारों निकायाश्रयी लघुपरिशिष्ट 1. देवोंका जन्म, मनुष्य आदिके जन्मकी तरह गर्भावासमें रहकर होता नहीं है, लेकिन देवलोकमें देवोंका जो जन्मस्थान है जिसे ' उपपातसभा' नामसे शास्त्रकार संबोधते है; इसी सभामें वस्त्रसे आच्छादित विविध अनेक शय्याएँ होती हैं, जहाँ देव उत्पन्न होते हैं। इतना ही नहीं बल्कि मनुष्यकी तरह इन्हें बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था जैसी कोई भी अवस्था भुगतनी पड़ती नहीं है। लेकिन वहाँ उत्पन्न होनेके बाद एक ही अन्तर्मुहूर्तमें सभी पर्याप्ति पूर्ण करके युवा-तरुण अवस्थावाले बन जाते हैं। यह अवस्था उन्हें जीवनपर्यंत रहती है। जन्मके बाद पूर्वोत्पन्न देव उन्हें स्नान करानेके लिए 'अभिषेकसभा' (स्नानागार )में ले जाते हैं। स्नानादिक क्रिया पूर्ण होते ही तुरन्त ही उन्हें 'अलंकारसभा में ले जाते हैं, जहाँ देव सुन्दर-दिव्य वस्त्र तथा उत्तम एवं श्रेष्ठ अलंकार पहनते हैं। इस प्रकार वस्त्रालंकारसे सुशोभित बनकर चौथी 'व्यवसाय' सभामें ले जाते हैं, जहाँ विशाल पुस्तक भण्डार रहता है / इस भण्डारको इनके आगे खोल दिया जाता है और इसे पढ़कर देव देवलोकके योग्य विधि-नियम, आचार-परम्परा तथा स्वकर्तव्य एवं फर्जके ज्ञानसे सुमाहितगार बनते हैं। इसके बाद कायाकार्यके निर्णय तय करते हैं। व्यवसायसभामेंसे नन्दा बावडीमें जाकर स्नान करके पवित्र होकर, प्रचूर भक्तिपूर्वक जिनपूजा करते हैं। तदनन्तर जहाँ भोग-उपभोगकी अर्थात् अशनपानादिककी तथा मौज-शौककी और देवांगनाओंके योग्य विषयोपभोगकी सम्पूर्ण सामग्री तैयार होती है उसी 'सुधर्मसभा में वे जाते हैं और वहाँ देवलोक सम्बन्धी दिव्य भोगमें लीन (मग्न) होकर अपना समय व्यतीत करते हैं। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२०० उपर्युक्त पाँच प्रकारकी 343सभाएँ अनेक देवोंकी राजधानियों में होती हैं। तथा हरेककी अपनी अपनी बाह्य, मध्यम तथा आभ्यन्तर (भीतरी ) यों तीन-तीन प्रकारकी परिषद् भी होती है। विभिन्न देवोंकी ये त्रिपर्षदाएँ विभिन्न नामोंसे अलंकृत हैं। 2. भवनपति तथा वैमानिकके इन्द्रोंके पास अपने-अपने विमानकी रक्षाके लिए चार-चार लोकपाल होते हैं। ये सभी अपने-अपने देवके विमानकी चारों दिशाओं में प्रवर्तित (स्थापित) होते हैं। इन सभी लोकपालोंके नाम हरेकके विभिन्न श्रीस्थानांग सूत्रमें कहा गया है। व्यन्तर तथा ज्योतिषीमें तो इस लोकपालकी जाति ही नहीं है। इसलिए वहाँके इन्द्रोंके पास लोकपाल कहाँसे हो सके ? 3. भवनपतिसे लेकर ईशानेन्द्र तकके इन्द्रों, लोकपालोंकी पट्टरानियों ( महारानियों) 35488 ग्रहों तथा इन्द्रोंके सेनापतियोंके नाम श्रीस्थानांगसूत्रसे जान लें। 4. देव अपने च्यवनको अर्थात् मृत्युको छः मास पूर्व नीचेके कारणोंकी सहायतासे जान सकते हैं। जब मृत्युकाल निकट आता है तब ‘युवावस्था' भी परिवर्तित होती (बदलती) जाती है, इसी कारण बल तथा कांतिमें ह्रासका अनुभव होता है। कल्पवृक्ष: म्लान तथा कंपित होता है, स्वतेजोलेश्याहीन होती है, कंठकी अम्लान पुष्पमाला म्लान एवं मुरझाने लगती है, दैन्य तथा तन्द्राका आविर्भाव होने लगता है, बार-बार अरति होती है, जिन नये देवोंको देखकर हर्ष होता था इसके बजाय अब खेद होते देखकर वे शंकाशील बनते हैं तथा अवधिज्ञानके बलसे वे स्वायुष्य ( अपने आयुष्य )का अन्तिम काल भी जान सकते हैं। ___ यह जानकर वे बहुत उद्विग्न होते हैं / सतत चिंतातुर रहते हैं। अहो ! क्या यह लब्धि, विपुल वैभव, अपार सुख, दिव्य कामभोग आदिको छोड़कर मरना पड़ेगा ? अरे ! माताके उदरमें माताका ओजस तथा पिताका वीर्य-इन दोनोंका मिश्रित आहार करना पड़ेगा ? अहो ! अशुचि तथा महान् त्रासके स्थानरूप गर्भावासमें रहना पडेगा ! ऐसी चितासे व्यग्र होते हैं। 5. देवलोकमें सुन्दर देवांगनाओंका हरण करने आदि प्रसंग पर जब भी कोई नकोई भीषण संग्राम छेड़ा जाता है तब परस्पर बहुत ही ताड़न-तर्जन होती है, लेकिन देव ___353. यहाँ ' सभा' शब्द स्थानसूचक है, लेकिन परिवारसूचक नहीं; अतः सभा और परिषद् दोनों भिन्नार्थक समझें / परिषद्से परिवार सूचित है। .. 354. अठासी ग्रहोंके नामोंकी मौलिकताके लिए अब तक कुछ निर्णय नहीं हो सका है / Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव सम्बन्धी संक्षिप्त समझ ] गाथा-२०० [ 393 वैक्रिय शरीरी होनेसे (निरुपक्रमायुषी) उनकी मृत्यु नहीं होती, किन्तु पीड़ाका दुःखद अनुभव तो अवश्य होता ही है / 6. एक इन्द्र च्यवे-मरे और उसके स्थान पर तुरत ही दूसरा इन्द्र जो उत्पन्न न हो तो इन्द्र समान समृद्ध समझेजानेवाले सामानिक जातिके देव वहाँका शासन व्यवस्थित रूपसे चलाते हैं। ___5. सम्यगृहष्टि देव उत्तमकुलमें जन्म लेते हैं, और मिथ्यादृष्टि प्रतिकूल प्रवृत्तिके कारण नीच कुलमें जन्म लेते हैं। 8. वर्तमानमें देव-देवियोंकी जो आराधना होती है, उनमेंसे अधिकांश भवनपति, व्यन्तरनिकायके होते हैं / यक्ष-यक्षिणियाँ, दिक्कुमारियाँ, विद्यादेवियाँ, ही-श्री आदि षट् देवियाँ, सरस्वती, घन्टाकर्ण-क्षेत्रपाल आदि सभी इसी निकायके हैं। 9. व्यन्तर और भवनपतिके इन्द्रादिक देव-देवियों के स्वामित्वकी नगरियाँ, आनन्दप्रमोदके स्थल मनुष्यक्षेत्रके बाहिर द्वीपोंमें हैं / यह एक विशेष घटना है। 10, वर्तमान दृश्य पृथ्वीके नीचे एक दूसरी अनोखी सृष्टि स्थित है, जहाँ पर भवनपति और व्यन्तर देवों आदिके स्थान हैं। 11. देवशय्याके ऊपर जो देवदूष्य चादर और उसके ऊपर तथा नीचे रहे हुए पुद्गलोंको वैक्रियरूपमें परिणमित करनेको देव सम्बन्धी उपपात जन्म कहा जाता है। 12. इन्द्र, त्रायस्त्रिंशक, लोकपाल, अग्रमहिषियाँ पूर्वभवमें कौन थे, कैसे सुकृतकार्योंसे इन स्थानोंको प्राप्त किया, उनकी उत्पत्ति, विकुर्वरूप शक्तियाँ, उनकी पर्षदा और सभाका विद वर्णन, विषयसुखोंकी मादकता और भोगनेकी व्यवस्था, उनके विमानों और प्रासादोंकी रचना, उनके नाम, विमानोंका बाह्याभ्यन्तर स्वरूप, कल्याणकोंके प्रसंग पर कैसे आते हैं ? तथा इसी प्रकार उनकी आन्तरिक व्यवस्था और मर्यादाएँ इत्यादि स्वरूप अन्य ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिये। समाप्तं षष्ठं परिशिष्टम् / बृ, सं. 50 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 ] बृहत्संग्रहणी रत्न हिन्दी वाचकोंके लिए एक अगत्यकी स्पष्टता 'बृहत्संग्रहणी'-'संग्रहणीरत्न 'से जानेवाले ग्रन्थके गुजराती भाषान्तरसे कसया गया हिन्दी अनुवाद लगभग 100 फर्मों जितना हो गया। अब अगर प्रकाशनार्थ एक प्रेसमें दें तो यह काम कब पूरा हो ? इस बातको ध्यानमें रखते हुए यह निर्णय लिया कि इसे शीघ्र प्रकाशनार्थ दो प्रेसों में कार्यका बटवारा कर देना हितकर होगा। अतएव सीरिअल नंबर निश्चित करना सम्भव नहीं था। प्रारम्भके प्रथम फर्मेसे 50 फर्मों तकका काम सोनगढ़के कहान प्रेसमें और दूसरा एकसे पैंतालीस फर्मों तकका काम अहमदाबादके भरतप्रेसमें शुरू कराया / एक ही ग्रन्थ एक साथ दो प्रेसोंमें प्रारम्भ करवाने पर दूसरे विभागका भी पेज नंबर एकसे प्रारम्भ करना पड़ा है। तो इस प्रकार दूसरे नरकगति अधिकारसे शुरू होनेवाले पेजको एक नंबर देना पड़ा। पूर्वार्धके 50 फर्मे अर्थात् पेज नं. 1 से लगाकर 393 तक हुए और उत्तरार्धके 45 फर्मे अर्थात् पेज नं. 1 से लगाकर 360 हुए / दोनोंको मिलानेसे 50 + 45 = 95 फर्मोंके कुल मिलाकर 753 पृष्ठोंका मुद्रण हुआ / एक ही ग्रन्थमें दो विभाग करने पड़े, तद्हेतु यह खुलासा किया है। -प्रकाशक Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SESIZS292S2SZSZSZSUZSUZS2S2.SZSZSZNO श्री शQजय गिरिवराय नमः। बृहत् संग्रहणी हिन्दी भाषांतरका उत्तरार्ध विभाग - सूचनापूर्वार्धके पहले विभागमें भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक आदि देवगति विषयक तथा सूर्य, चन्द्र, ज्योतिषचक्र आदि अनेक विषयोंकी जानकारी आ गई है / और उत्तरार्धमें शेष तीन गति-नरक, मनुष्य और तिर्यञ्च गति आदि अनेक विषयोंकी आनकारी दी हैं / Dramasasasasarakasasasasasasaras Page #396 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थिति द्वार // अवतरण-इस प्रकार चारों निकाय के देवों के भवन, उन की स्थिति, अवगाहना (छानबीन करना; देखना; बिचारना; ग्रहण करना), उपपात विरह, च्यवन विरह, एकसमय उपपात संख्या, एक समय च्यवनसंख्या उनकी गति, आगति आदि नौ द्वारों का वर्णन और साथ ही साथ अन्य प्रकीर्णक स्वरूप तथा ग्रन्थांतर से कुछ विशेष स्वरूप भी बता दिया है। उसी देवाधिकार को समाप्त कर के अब नरकगति संबंधी स्थिति प्रमुख नौ द्वारों को पूर्वोक्त क्रमानुसार वर्णन करते हुए, देवनिकाय की तरह ही प्रथम द्वारमें प्रत्येक नरकों में बसते नारकों की उत्कृष्ट-आयुष्यस्थिति बताते हैं / इअ देवाणं भणियं, ठिइपमुहं नारयाण वुच्छामि / इग तिनि सत्त-दस-सत्तर, अयर बावीस-तित्तीसा // 201 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 201 // विशेषार्थ-अधोलोक पर सात नरकपृथ्वी हैं। जिनके नाम-गोत्रादि हम आगे बतलायेंगे / यहाँ पर ग्रन्थकार उन पृथ्वियों पर आये हुए नारकों का आयुष्यप्रमाण वर्णित करते हुए पहली रत्नप्रभापृथ्वी के नारकोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति एक सागरोपम की बताते है / दूसरी शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की तीन सागरोपम की, तीसरी वालुकाप्रभा की सात सागरोपम की, चौथी पंकप्रभा में दस सागरोपम की, पाँचवीं धूमप्रभामें सत्रह सागरोपमकी, छट्ठवीं तमः प्रभा में बाईस सागरोपम की और सातवीं तमस्तमःप्रभा में काल, महाकाल आदि नरकावास में तेतीस सागरोपम की आयुष्यस्थिति है / [201] अवतरण-अब उन प्रत्येक की जघन्यस्थिति जाननेके उपाय (तरीके) तथा मध्यमस्थिति कहते हैं। ___ सत्तसु पुढवीसु ठिई, जिट्टोवरिमा य हिपहवीए / / होइ कमेण कणिट्ठा, दसवाससहस्स पढमाए // 202 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 202 // विशेषार्थ-गत गाथा में सातों पृथ्वियों की उत्कृष्टस्थिति बता दी है। अब जघन्य .. स्थिति को वर्णित करते हुए कहते हैं कि-उपर्युक्त पृथ्वियों की जो उत्कृष्ट स्थिति है वही २४अहवाए। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . नीचे की पृथ्वियों की अनुक्रम में जवन्यस्थिति बनती है / लेकिन रत्नप्रभा से ऊपर एक भी नरक न होने से यह नियम रत्नप्रभा के लिए ज़रूरी बनता नहीं है / अतः ग्रन्थकार स्वयं ही प्रथम रत्नप्रभा के नारकों की जघन्यस्थिति दस हजार साल होती है ऐसा बता देते हैं। अब शर्कराप्रभा की जघन्यस्थिति भी जान लें / ऊपर रत्नप्रभा पृथ्वी की उत्कृष्ट स्थिति जो एक सागरोपम की बतायी है उसे ही नीचे आयी हुी शर्कराप्रभा पृथ्वी की जघन्य स्थिति (एक सागरोपम की) जानें / इसी प्रकार अनुक्रम से शर्कराप्रभा की तीन सागरोपम की जो स्थिति है उसे वालुकाप्रभा की जघन्यस्थिति समझें और पंकप्रभा की सात सागरोपम जघन्य, धूमप्रभा की दस सागरोपम. तमःप्रभा की सत्रह सागरोपम की तथा तमस्तमःप्रभा की बाईस सागरोपमकी जघन्यस्थिति जाने / [202] मध्यमस्थिति-तमाम नारकों में जघन्य तथा उत्कृष्ट के बीचको मध्यमस्थिति समझें। ॥सातों नारकी की जघन्योत्कृष्टस्थितिका यंत्र // ___ नरक के नाम / उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति . | 1 रत्नप्रभा 1 सागरोपम 10,000 साल 2 शर्कराप्रभा 1 सागरोपम 3 वालुकाप्रभा 4 पंकप्रभा 5 धूमप्रभा | 17 // 6 तम:प्रभा 7 तमस्तमःप्रभा | 22 " m 9 22 " अवतरण-प्रत्येक नारकी की समुच्चय-स्थिति को हम पहले बता चुके हैं। अब प्रत्येक नरक के प्रत्येक प्रतर में नारकों की स्थिति बताते हुए ग्रन्थकारश्री सबसे पहले रत्नप्रभापृथ्वी के प्रत्येक प्रतर पर प्रथम उत्कृष्टस्थितिका बयान करते हैं। नवइसमसहसलक्खा, पुवाणं कोडि अयर दस भागो। एगेगभागवुड्ढी, जा अयरं . तेरसे पयरे // 203 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 203 // विशेषार्थ-रत्नप्रभादिक पृथ्वी पर ही [वैमानिक कल्पवत् ] विभिन्न प्रतर संख्या आयी हुी है, जिसे ग्रन्थकार महाराज खुद ही आगे बतलानेवाले हैं। उनमें रत्नप्रभापृथ्वीपर ही तेरह प्रतर हैं, जिन के प्रथम प्रतर पर नारकों की उत्कृष्टस्थिति नब्बे हजार (90,000) Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार . . 3 . साल की, दूसरे प्रतरपर नब्बे लाख (90,00,000) साल की, तीसरे प्रतर के नारकों की उत्कृष्टस्थिति पूर्वकोटि वर्ष की, चौथे प्रतर पर एक सागरोपम के दसवें भाग के (एक दशमांश) सागरोपम की, पाँचवें पर दो-दशमांश सागरोपम की, छठे पर तीन दशमांश सागरोपम की, सातवें पर चार दशमांश की, आठवें पर पाँच दशमांश की, नववे पर छः दशमांश की, दसवें पर सात दशमांश, ग्यारहवें पर आठ दशमांश, बारहवें पर नौ दशमांश सागरोपम तथा तेरहवें प्रतर पर दस दशमांश अथवा एक सागरोपम की पूर्ण स्थिति आ जाती है। [203] अवतरण-अब रत्नप्रभा के उन्हीं प्रतरोंकी जधन्यस्थितिका वर्णन करते हैं- इयजिट्ट जहन्ना पुण, दसवाससहस्सलक्खपयरदुगे / सेसेसु . उवरिजिट्ठा, अहो कणिहा उ पइपुढवि // 204 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 204 // विशेषार्थ-इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति बताने के बाद अब उन प्रतरों की जघन्यस्थिति को वर्णित करते हुए बताया है कि-रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम दो प्रतरों में से प्रथम प्रतर की स्थिति दस हजार साल की और द्वितीय प्रतर पर [उसे सौ गुना कर के दस लाख साल की होती है, शेष प्रतरों के लिए तो ऊपर के प्रतर की जो उत्कृष्ट स्थिति है उसे ही उसके नीचे आयी हुश्री पृथ्वी की कनिष्ठा जघन्यस्थिति जानें / इसी नियमानुसार तीसरे प्रतर पर 90 लाख, चौथे पर पूर्वकोटि वर्ष, पाँचवें पर के सागरोपम, छठे पर , सातवें पर है, आठवें पर हैं, नौवें पर कर, दसवे पर कई, ग्यारहवें पर , बारहवें पर ई, तेरहवें पर के सागरोपम की जघन्यस्थिति जानें / [204] .. अवतरण-इस प्रकार रत्नप्रभागत प्रतराश्रयी जघन्योत्कृष्ट स्थिति बतलाकर अब शेष * पृथ्वीकी स्थिति प्रमाण जानने के लिए [वैमानिकवत् ] 'करण' को बताते हैं उवरिखिइठिइविसेसो. सगपयरविहत्तइच्छसंगणिओ / _____ उवरिमखिइठिइसहिओ, इच्छिअपयरम्मि उक्कोसा // 205 // गाथार्थ-ऊपर की पृथ्वी की स्थिति का विश्लेष कर के (नीचेकी इष्ट पृथ्वी की उत्कृष्ट स्थितिमें से कम करके) जो शेष बचे उसे, इच्छित अपने प्रतर की संख्या से भागने से या विभाज्य करने से जो संख्या आती है उस को इष्ट प्रतर की संख्या से गुनने से जो संख्या आये उसे, उस के (जिस इष्ट पृथ्वी के प्रतरों की स्थिति निकालते हैं, उस के) ऊपर की पृथ्वी की जो उत्कृष्ट स्थिति है उसके साथ जोडने से इच्छित प्रतर पर उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है / // 207 // Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 4 . . श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी भाषांतर . विशेषार्थ-वह इस प्रकार है रत्नप्रभा के तेरहों प्रतर की उत्कृष्ट स्थिति बतायी, अब दूसरी शर्कराप्रभा के प्रतरों की उत्कृष्ट स्थिति निकालने की होने से विश्लेष करने के लिए शर्कराप्रभाकी उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति में से पहली रत्नप्रभा की उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति का विश्लेष (कमी) करने से शेष दो सागरोपम रहते हैं / इन दोनों सागरोपम को शर्कराप्रभा के ग्यारह प्रतरों में बाँटने के लिए एक सागरोपम के ग्यारह हिस्से करते हुए दो सागरोपम के बाईस हिस्से बनते हैं। अब इन सभी को ग्यारह प्रतर में बाँटने से दो-दो भाग प्रत्येक प्रतर में आते हैं। अब इप्ट प्रथम प्रतर पर स्थिति निकालने की होने से उन्हीं दो भागों को एक प्रतर से गुनने से फिरसे दो ही भाग आते हैं, उसे ऊपर की रत्नप्रभा के तेरहवें प्रतर की एक सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति के साथ जोडने से एक सागरोपम तथा एक सागरोपम के ग्यारह में से दो भाग (1 सा. ३०)का उत्कृष्ट आयुष्य शर्करा प्रभा के प्रथम प्रतर पर आयेगा / इसी प्रकार दूसरे प्रतर के साथ गुनने से 242= आयेगा और उस में एक सागरोपम मिलाने से 11 सागरोपम द्वितीय प्रतर की उत्कृष्ट स्थिति है / इसी प्रकार तीसरे प्रतर पर दो भाग बढाने से (166) 1 सागरोपम , भाग, चौथे पर 16 सा., पाँचवें पर 116, छठवें पर 2 सा. , [क्यों कि ग्यारह भाग पूर्ण होते ही एक सागरोपम पूर्ण होता है / सातवें पर 2, आठवें पर 2, नौवें पर 2%, दसवें पर 26, और ग्यारहवें पर 231 अर्थात् बराबर तीन सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति (शर्कराप्रभा के ग्यारहवें प्रतर पर) आयी। इसी प्रकार अन्य पृथ्वियों के लिए भी इसी कारण की सहायता से सोचे-समझें / अधिक जानकारी पाने के लिए यन्त्र को देखें / इसी प्रकार अपनी अपनी आयुप्यस्थिति तक, नारक जीव हमेशा अविरत दुःखपीडाओं की अनूभूति करते हैं / क्षणमात्र के लिए भी शाता का अनुभव वे करते 355 अच्छिनिमीलणभित्तं, नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं / नरए नेरइआणं, अहोनिसिं पञ्चमाणाणं // [जीवा०] 326 यदि अपने पूर्वभव में अग्निस्नान या शरीरछेदन की मध्यम कोटि के संक्लिष्ट परिणामरूप मरा हुआ जीव नरक में उत्पन्न होता है उसी समय पर ही उसे शाता की अनुभूति होती है अथवा कोई मित्रदेव आकर शाता का अनुभव करा दें तब, अथवा कल्याणक आदि प्रसंग पर कुछ ही समय थोडी सी शाता मिल भी जाती है। ऐसे कोई क्षणिक प्रसंग के बिना सदा अशाता का ही अनुभव करते हैं। उववाएण व सायं, नेरइओ देवकम्मुणा वावि / अज्झवसानिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं // 1 // [श्रीचन्द्रिया टीका] Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार . . 5 . नहीं हैं। हरेक आत्माओं को वैसी दुर्गति में न जाना पड़े इसलिए पाप की प्रवृत्तियाँ बंद करके सदाचारी-संयमी और पवित्र जीवन जीने के लिए प्रतिपल जागृत रहना चाहिए / [205] // रत्नप्रभा के प्रति प्रतरपर जघन्योत्कृष्ट // शर्कराप्रभा के प्रतिप्रतर की आयुष्यस्थिति का यंत्र // आयुष्यस्थिति का यन्त्र / / प्रतर जघन्य स्थिति | उत्कृष्ट स्थिति प्रतर| जघन्य स्थिति | उत्कृष्ट स्थिति 1 | दस हजार वर्ष | नब्बे हजार वर्ष 1 | 1 सागरीपम | 1 सा० भाग 2 दस लाख वर्ष | नब्बे लाख वर्ष 2 | 1 सा. भाग | 1 ., के " नब्बे लाख वर्ष पूर्व को कोटि वर्ष म | 10 एक सा. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * // तीसरी वालुकाप्रभा की स्थिति // प्रतर| जघन्य स्थिति | उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम | 3 सा० भाग 3, है भाग // चौथी पंकप्रभा की स्थिति // प्रतर| जघन्य स्थिति | उत्कृष्ट स्थिति | | 7 सागरोपम |7 सा عوام به اه اه ewasan اه 15م ام عام هم اه or an ao s wa vimls 9 Maularl m wwww اه 19 M2 19 1999 مرام دام |९,६१०सा० کرم مام M // पाँचवीं धूमप्रभा नरक की स्थिति // प्रतर जघन्यायुष्यमान उत्कृष्टायुष्यमान 1 10 सागरोपम 11 सा० 2 भाग 11 सा० भाग 12 , , // छठवीं तमःप्रभा नरक की स्थिति // प्र० ज० आ० | उ० आयुष्य 1 | 17 सा० 182 सा० 2 | 18 सा०३ 203 सा. 3 | 203 सा० | 22 सा० // सातवीं तमस्तम प्रभामां // 1 / 22 सा०३३ सा० الهام مهم هم ام للأمم 15 , 3 , 17 सागरोपम // इति प्रथमं स्थितिद्वारम् // अवतरण-इस से पूर्व नारकी के प्रथम स्थितिद्वार को वर्णित करके दिखाया गया है। अब दूसरा भवनद्वार कहने से पहले नारकी के तथाविध वेदना का कुछ स्वरूप बताते हैं, जिस में प्रथम नरक क्षेत्रगत वेदना एवं पीड़ा के भयंकर प्रकार बताते हैं। सत्तसु खित्तजविअणा, अन्नोन्नकयावि पहरणेहि विणा / पहरणकयाऽवि पंचसु, तिसु परमाहम्मिअकया वि // 206 // Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिप्रसंग में द्वितीय भवनद्वार . ... गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 206 // विशेषार्थ-अपने पूर्वभव में किये गये अनेक दुष्ट और भयंकर पापाचरणों से क्रूरताभरी घोर हिंसाएँ, भयंकर झूठ बोलना, निर्दय चोरी करना, परस्त्री गमन, लक्ष्मी आदि पदार्थों पर अधिक मोह के कारण अनेक प्राणियों का घात इत्यादि करने से वे सभी आत्माएँ नरकगति योग्य आयुष्यका बन्द करके नरक में उत्पन्न होती हैं जिन्हें 'नारकी' के रूपमें पहचानी जाती है। अशुभ गति में उत्पन्न होनेवाले इन्हीं जीवों को अपने पूर्वकमोदय के कारण तीन प्रकारकी वेदनाओं का अनुभव करना पडता है। 1 'क्षेत्र' से उत्पन्न वेदना, 2 'अन्योन्य' (परस्पर) से उत्पन्न होती वेदना और 3 संक्लिष्ट अध्यावसायी पंद्रह 'परमाधामी' देवकृत वेदना / इन्हीं तीनों में से अन्योन्यकृत वेदना के पुनः दो भेद पडते हैं—१. शरीर से परस्पर उत्पन्न होती और 2. शस्त्र द्वारा परस्पर उत्पन्न होती वेदना / इन में क्षेत्रवेदना सातों नरक में है और अनुक्रम से नीचे-नीचे अशुभ, अशुभतर, अशुभतम मिलती है। अन्योन्यकृत वेदना में शरीर के माध्यम द्वारा होती अन्योन्यकृत वेदना सातों पृथ्वी में होती है और प्रहरणकृत वेदना प्रारंभ के पाँचों नरक में मिलती है तथा तीसरी परमाधामीकृत वेदना पहले तीन नरकों में मिलती है / [206] अवतरण-और अब सबसे पहले क्षेत्र नामक वेदना जो कि नारकीय जीवोंको अपने ही नरकक्षेत्र के स्वभाव से ही दस प्रकार के दुःख देनेवाले पुद्गल परिणाम रूप होती है, उसे बताते हैं। ... बंधण गइ संठाणा, भेया वन्ना य गंध-रस-फासा / अगुरुलहु सद्द दसहा, असुहा वि य पुग्गला निरए // 207 / / (प्रक्षे. गा. 45) गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 207 / / विशेषार्थ-१ बन्धन-नारकों की बन्धनावस्था तथा प्रत्येक क्षण उसी प्रकार के आहारयोग्य पुद्गल के सम्बन्ध-ग्रहणस्वरूप बन्धन परिणाम (नतीजा) यह मानो भीषण जलती अग्नि से भी अधिक भयंकर लगता है / 357. सत्तसु खेतसहावा अन्नोन्नोदीरिआय जा छट्ठी / तिसु आइमासु विअणा परमाहम्मि असुरकया य // 1 // यह गाथा अन्योन्यकृत वेदना को छठे नरक तक ही बताती है / तदाशय ज्ञानीगम्य समझें / Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 8 . * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . 2 गति--उन नारकों की गति रासभ (गधा) ऊँट आदि की कुगति के समान अत्यंत दुःखपूर्ण और वह भी तपे हुए लोह पर कदम रखने से भी अधिक कष्टदायक है। 3 संस्थान-उनका शरीर एकदम कुब्ज-हुंडक संस्थानवाला दिखायी पड़ता है। अतः कटे हुए पखोंवाले अंडजोत्पन्न पंछी के समान और देखते ही उद्वेग कराये ऐसे कुरूप दिखायी देते हैं। 4 भेद-कुण्डादि से (कुंभी इत्यादि से) नारकी के शरीर-पुद्गलों का विच्छेदन (विभाजन) यह शस्त्र की पैनी धारसे कोई हमारा शरीर काटे या खिंचे और हमें दुःख हो इस से भी अधिक दुःखदायी यह विमोचन (निकाल फेंकना, दूर करना ) लगता है। 5 वर्ण-इनका वर्ण एकदम निकृष्ट, अत्यंत भीषण (भयानक) और मलिन है / क्योंकि उनके उत्पन्न होने के नरकावास बिना कपाट-खिडकी तथा बिना जालीवाले, चारों दिशाओंसे भययुक्त और घने अंधकारमय, श्लेप्म (कफ), मूत्र, विष्टा, स्रोत, मल, रुधिर, वसा, भेद और पीब (मवाद) इत्यादि समान अशुभ पुद्गलों से पोते हुए भूतल . प्रदेशवाले, और श्मशान (मसान, मरघट) की तरह मांस, पूति-केश, अस्थि, नाखून, दाँत, चमडी इत्यादि अशुचि (अपवित्र, नापाक) तथा अप्रिय पुद्गलयुक्त आच्छादित भूमिवाले होते हैं। 6 गंध-इनकी गंध सडे हुए कुत्ते, लोमडी, बिल्ली, नेवलें, सर्प, चूहे, हस्ती, अश्व तथा गाय इत्यादि के मृत शरीर की जो दुर्गध होती है उससे भी अधिक अशुभतर होती है / 7 रस-नीमकी 'गणो' आदिसे भी अधिक कडुआ होता है / स्पर्श-इनका स्पर्शमात्र अग्नि, बिच्छू, कौवच इत्यादि के स्पर्श से भी अधिक भयंकर एवं दुखदायी होता है। वहाँ सातों पृथ्वियों का स्पर्श अमनोज्ञ है तथा वायु और वनस्पतियों का स्पर्श भी उनके लिए तो जलनरूप ही होता है / 9 अगुरुलघु-उनका नतीजा अगुरुलघु होनेपर भी तीव्र दुःख के आश्रय समान अति व्यथाकारक है। 10 शब्द-दुःख से पीडित एवं कुचले हुए होने के कारण अत्यंत दुःखद आक्रंदरूप विलाप करने से उन के शब्द करुणा उपजाते है / Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिप्रसंग में द्वितीय भवनद्वार इस तरह दस प्रकार के अशुभ पुद्गल अंजाम नारकी के लिए अवश्य होते ही हैं। [207] (प्रक्षेपक गाथा 45) अवतरण-क्षेत्रगत स्वाभाविक उत्पन्न होते दुःखदायी नतीजों को दिखानेके बाद अब नारकीय जीवों में अन्य दस प्रकार की वेदना का अनुभव बताते हैं तथा छट्ठी एवं सातवीं पृथ्वी के नारकों में कितने रोग होते हैं यह संख्या भी बताते हैं। नरया दसविहवेयण, सीओसिण -खुहा पिवास कंडूहि / परवस्स जरं दाहं, भयं सोग चेव वेयंति // 208 // पणकोडी अट्ठसठ्ठी लक्खा, नवनवइसहसपंचसया / चुलसी अहिया रोगा, छट्ठी तह सत्तमी नरए // 209 // [प्रक्षेपगाथा 46-47 ] गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 209 // विशेषार्थ क्षेत्रवेदना में दूसरी दस प्रकार की वेदनाओंका भी जो अनुभव नारकों को मिलता है उन्हें बताते हैं - 1. शीतवेदना—पौष ( पूष) या माघ महीने की रात में, हिमालय पर्वत पर, स्वच्छ आकाश में, बिना अग्नि, किसी वायु की व्याधिवाले किसी नग्न दरिद्री को, सतत पवन के जोरसे हृदय, हाथ, पैर, दांत और होठ कंपते हों और उस के ऊपर शीत जल के छटकाव से जो शीत-ठंडी वेदना उत्पन्न होती है, उससे भी अनंतगुनी शीतवेदना नरकावास गत नारकी के जीवों को होती है / __अगर उसे नरकावास से उठाकर माघ मास की किसी एक रात्री में पूर्ववर्णित ऐसे किसी भी स्थान पर लाकर रखें तो वह नारक जीव अनुपम सुख की प्राप्ति करता हो उसी तरह निद्राधीन हो जाता है अर्थात् नरक में उसने महाव्यथाकारक जिस शीत वेदना बरदाश्त ( सहन ) की है उसके हिसाब से तो यह वेदना उसे अधिक सुखदायी लगती है। 2. उष्णवेदना-गर्मी के दिनों में प्रचण्ड सूर्य का मध्याह तपता हो, अवकाश में छाया के लिए कोई बादल भी न हो, उसी समय बिना छत्र, पित्त की व्याधिवाले किसी पुरुष को चारों ओर से प्रज्वलित अग्नि के ताप से जो पीडा उत्पन्न हो, उससे भी अनंतगुनी उष्ण वेदना नरक में स्थित नारकीय जीवों को मिलती है / वृ. सं. 2 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ऐसी वेदना सतत सहन करनेवाले नारकियों को अगर वहाँ से उठाकर किंशुक (पलाश, पलाश का फूल) समान लाल-लाल जलते ऐसे खदिर (खैर) के अंगारों के ढेर पर बिठाये जाएँ और बाद में फिर से इन्हीं अंगारों को बहुत तपाये या फॅके जायें, तो भी ये जीव [चंदन से लिप्त और मसूण ( शीत ) पवन खाने से भी अनुपम सुख पानेवाले किसी पुरुष की तरह ] सुख पाते ही निद्रावश हो जाते हैं / अथवा. नरक की अनुपमेय गर्मी के अनुभव के आगे, ये खदिर के अंगारे तो ( महागर्मी से रीढ बनी हुई उसी काया को ) ठंडे लगते हैं / जरा सोचिए कि नारकजीवों को जो भुगतनी पडती है वह गरमी कैसी होगी ? नरकमें सिर्फ नारकों का अपना ( नरकावासोंका) उत्पत्ति स्थान ही हिम जैसा शीतल होता है / शेष समग्र भूमि खदिर के अंगारे से भी अधिक गर्म होने से उसकी तीव्र वेदना भुगतनी पडती है / - प्रथम रत्नप्रभा में उष्णवेदना अति तीव्र है, इस से अधिक उष्णवेदना अति तीव्ररूप से शर्कराप्रभा में, उससे अधिक अतितीव्रतम रूप से वालुकाप्रभा में हैं। चौथी पंकप्रभा में ऊपरितन भागपर वर्तित कुछ-कुछ नरकावासाओं में उष्णवेदना और नीचे के कुछ कुछ नरकावासाओं में शीतवेदनानुभव मिलता है, पाँचवीं धूमप्रभा में कुछेक नरकावासाओं में शीतवेदना और नीचे कुछेक में उष्णवेदना / इस वेदनाको चौथी पृथ्वी की अपेक्षा उत्तरोत्तर अनंतगुनी अर्थात् कि तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतमरूप जाने-समझें / छठी तमप्रभा में केवल महाशीत वेदना ही है जिसे पाँचवीं से अति तीव्रतर जानें, और सातवीं तमस्तमा पृथ्वी में महाशीतवेदना है जो इससे भी अतितीव्रतम है / / 3. क्षुधा-भूख तो प्रतिपल और प्रतिक्षण जागृत बैठी ही है। और नारकियों का जठरामि इतना तो तीव्र प्रदीप्त होता है कि बार-बार डाले गये सूखे काष्ठों से प्रज्वलित अग्नि की तरह, अतितीव्र क्षुधामि से सदा दसमान उदर-शरीरवाले रहते हैं। अगर वे समम जगतवर्ती अन्न-घृतादि पुद्गलों का आहार करें तो भी तृप्त होते ही नहीं हैं, लेकिन इससे विपरीत अपने अशुभ कर्म के उदय से अमनोज्ञ पुद्गल ग्रहण से उनकी क्षुधा बढती ही जाती है। 4. तृष्णा-इनकी तृष्णा तो हमेशा कंठ, ओष्ठ, तालु और जिह्वादिक को सुखानेवाली, सारे समुद्र के अगाध जलका पान करने से भी तृषा शान्त न हो वैसी होती है / 5. कंड-(खरज)-इन्हें दुःखदायी खरज की खुजली ऐसी होती है कि उसे आरी या छूरे से कुतरने पर भी शान्त नहीं होती है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार * 6. परवशता-(पराधीनता)-उनकी पराधीनता हमसे भी अनंतगुनी त्रासदायी होती है। 7. ज्वर-इनका ज्वर (बुखार) इतना जोरों का होता है कि अपने से अनंतगुना दुःखदायक और जीवनपर्यंत रहनेवाला होता है / ८-दाह-९-शोक-१०-भय--इस से शरीर पर दाह, शोक-विलाप और भय ये तीनों वेदनाएँ हमसे मी अनंतगुनी इन्हें होती है / साथ ही उन्हीं (मिथ्यादृष्टिवाले) नारकों को भवस्वभावगत प्राप्त होनेवाला विभंगज्ञान भी बडा दुःखदायी होता है, क्योंकि वह अशुभ जाति-स्थान का होने से उसी ज्ञान द्वारा चारों ओर से वे आनेवाले निरंतर दुःख के वैरी-शस्त्रादिक कारणरूप साधन देखते हैं। अभी आयेंगे ! ऐसा करेंगे ! ! वैसा करेंगे !!! इत्यादि भयरूप वे हमेशा डरते-कंपते ही रहते हैं। इस तरह दस प्रकार की क्षेत्रगत वेदना कह-सुनायीं [208] (क्षेपक गाथा 46-47) अन्योन्यकृत वेदना प्रथम अन्योन्यकृत प्रहरण-शस्त्र-वेदना नारक दो प्रकार के होते हैं। एक सम्यग्दृष्टि और दूसरे मिथ्यादृष्टि / इनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं उनकी दृष्टि मिथ्या होने से उनमें भेदज्ञान या अच्छे-बुरे का विवेकज्ञान होता नहीं है। दृष्टि के इसी विपर्यास के कारण वस्तु स्वरूप को जिस तरह देखनापहचानना चाहिए उसी प्रकार वे पहचानते नहीं है, उलटा विपरीत ढंग से या तो उल्टी रीति से मानते हैं; और इससे वे दुःख की तह की ओर न देखते हुए वर्तमान में दुःखका साधनों की ओर ही लक्ष्य करते हैं। इसी कारण से दुःख के निमित्त या प्रसंगों में वे-सामनेवाले व्यक्ति या चीज की ओर ही तीन-तीवतर-तीव्रतम क्रोधादिक कषाय करते हैं। तथा पुनः पुनः नया कर्मबंद उत्पन्न किये जाते हैं / असत् तथा असार दृष्टि के कारण कषायों को कटु विपाक कैसे-कैसे भुगतने पडेंगे इसका होश शायद उनमें नहीं हैं। तथा एकान्त दुःख देनेवाले की ओर लक्ष्यवान् बना होने से अपने विरोधी बल या जीवों के प्रति यकायक ताडन-तर्जनादिक के तुफानों में डूबा हुआ रहता है। अपने दोषों. का इन्हें दर्शन होता ही नहीं है और बाद में दोनों पक्षों को कदर्थना ही भुगतनी पडती है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 12. . श्रीनारल-हिन्दी भाषांतर . JP M . इसका नाम है जीव की श्वानवृत्ति ! श्वान अर्थात् कुत्ता--पत्थर फेंकनेवाला कौन है ! उसे न देखते हुए वह पत्थर को ही काटने दौडता है। नतीजारूप उसे कुछ भी मिलता नहीं है, सिवा अपने मुख की पीड़ा बढती है, और फिर वहाँ तो दूसरे पत्थर गिरने लगते हैं। इस प्रकार दुःखों का सिलसिला शुरु हो जाता है। . दूसरे, सम्यगदृष्टि नारकी जो होते हैं, उनकी दृष्टि मिथ्या न होकर सम्यग अथवा सत्-सच्ची-सुंदर बनी होने से उन्हें भेदज्ञान-सच्चा विवेक प्राप्त होता है। परिस्थिति तथा प्रसंगोंके यथातथ्य-सच्चे स्वरूप को अच्छी तरह समझता होने से, उनका साध्य बिन्दु जागृत होने से वह वर्तमान दुःख या उनके साधनों की ओर अप्रीति-अरूचि, रोष या गुस्सा करेगा नहीं, बल्कि यह सोचेगा कि ऐसे प्रतिकूल संयोग उन्हें क्यों प्राप्त हुए ? इस प्रकार उसके मूल की ओर दृष्टि डालेंगे। “जन्मान्तर में मैंने ही अपनी अशुभ अनेकविध पापवृत्तियों द्वारा विषैले बीजों को बोया है जिनके नतीजे में ही ये महाकटुफल आज उग आये हैं। इसमें दूसरों का दोष क्या है ? वे तो निमित्तमात्र हैं। उपादान कारण तो मैं स्वयं ही हूँ, इस लिए हाल अपनी ही अशुभ प्रवृत्तियों के इस विपाकों को यथाशक्ति समभावसे भुगत लें / अगर उसी प्रकार तू बरदाश्त करके और समभाव में न रहते हुए विषमभाव धारण करके क्रोध करनेवाले, गालियाँ बोलनेवाले या भयंकर हमलेवरोंपर बार-बार क्रोधित बनेंगे या उनका मुकाबला करेंगे तो ऐसे अति संक्लिष्ट नतीजों से पुनः जहरके बीज बोए जायेंगे और पुनः इसके नये विषैले फल पैदा होंगे जिनका पुनः भोग तुम्हें करना पडेगा / इस प्रकार दुःखोंका सिलसिलायुक्त विषचक्र घूमता ही रहेगा / दुःखोंके सिलसिले का अंत नहीं आयेगा और सच्ची आत्मिक शांति दूर सुदूर हटती भी जायेगी। इस लिए चेतन ! अपने आप का स्वभावधर्म सोच" / ऐसे विचारों से सम्यग्दृष्टि स्वयं जागृत बनती है जिसके फलस्वरूप वहाँ मार, कूट, भेदन तथा छेदन इत्यादिमें उचित संयम रखती है / वह पाप प्रवृत्तियोंको हेयरूप मानता होने से यहाँ पापाचरणका पश्चात्ताप सदा बना रहता है और ये सभी तर्कवितर्क तभी ही हो सकते हैं जब हमारा मन मूललक्षी बना हुआ होता है। इसका नाम ही है सिंहवृत्ति-अर्थात् प्रवृत्ति के मूल की ओर देखना / शेर के स्वाभावानुसार वह व्याघ्र के घातक तीर की ओर नजर भी नहीं डालेगा, बल्कि जिस दिशा से तीर आयेगा उसी और नजर उठाकर लपक पडेगा जिसकी वजह से दूसरे बानों के प्रहार से वह बच सके / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार * * 13 * इसी कारण समझदारी (बुद्धि, प्रज्ञा) के घर में सम्यग्दृष्टिवान् आत्मा निवास करती होने से उसे ही अधिक दुःख या कष्ट को बरदाश्त करना पडता है / इस लिए तो हम व्यवहार में भी यही बोलते हैं कि 'चतुर को चिन्ता, मूर्ख को क्या ?' ठीक इसी प्रकार 'ज्ञानी को ही सभी उपाधि ! अज्ञानी को क्या ?' यह बात यहाँ लागू पडती है / और इसी कारण ही मिथ्यादृष्टिवालों से अधिक सम्यग्दृष्टिवालों को मानसिक चिन्ता रहती हैं, जब कि मिथ्यादृष्टिवालों को कम चिंता रहती है / लेकिन सम्यग्दृष्टिवालों के पास दूसरों द्वारा दिये गये दुःखों सम्बन्धी तात्त्विक विचार होने से स्वयं दुःख बरदाश्त कर लेंगे, परंतु बदला (प्रतिकार) लेने के लिए सामनेवाले व्यक्ति को दुःख नहीं देंगे। इसी कारण उसे ( मिथ्यादृष्टिवालों से ) कम दुःख और कम कर्म बंद लगेगा, जब कि मिथ्यादृष्टिवालों के पास वैसी विचारधारा न होने के कारण वे क्रोधित होकर-सामनेवालों को मारकर-स्वयं दुःखी होकर दूसरों को भी दुःख पहुँचायेंगे / इसी कारण वे अधिक दुःखी तथा कर्मबंदी बनते है / लेकिन मानसिक दुःख की अपेक्षा सम्यग्दृष्टिवान् अधिक दुःखी होते हैं / वे दुर्गति के कटु विपाक को देखकर जन्मान्तर में की गई पापवृत्तियों का भारी अफसोस करते हैं। जिस प्रकार कोई एक कुत्ता नामान्तर के अथवा अन्य विभाग के इवानों को देखकर अत्यंत क्रोधित बनकर भौंकने-लडने लगता है तथा परस्पर पगादिकका प्रहार शुरु कर देते हैं, ठीक उसी तरह नारक जीव भी विभंग ज्ञान के बल से एक दूसरे को देखकर आँखें नीली-पीली करते हुए श्वानकी तरह वैक्रिय समुद्दघात से महा भयावह रूपों को धारण करके अपने-अपने नरकावास में क्षेत्रानुभाव जनित पृथ्वी परिणामरूप लोहमय त्रिशूल, शिला, मुद्दगर भाला, तोमर, असिपट्ट, खडग, यष्टि, परशु इत्यादि वैक्रिय जाति के शस्त्रों से तथा अपने हाथ पैर या दाँतों द्वारा परस्पर युद्ध-प्रहार करते हैं, जिसके कारण घायल होकर या विकृत रूपवाले होकर वे कसाईवाडे में पड़े हुए किसी भैंसे (महिष)की तरह महावेदनासे निःश्वास लेते हुए, खून भरे कीचड में लथपथ महा दुःख भुगतते हैं। . इस प्रकार अन्योन्यकृत प्रहरणवेदना समजें। ____ ऊपर बतायी गयी सभी वेदनाएं मुख्यतया शस्त्रप्रहार कृत होने से उनका स्थान प्रारंभ के पाँच नारकी में ही होता है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 14 * * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * दूसरी अन्योन्यकृत शरीर वेदना शेष छठे तथा सातवें नारकी में शरीर कृत अन्योन्यवेदना होती है इसलिए वहाँ रहनेवाले नारकी स्वयं, वज्रमय मुखवाले लाल रंग के कुन्थुओं तथा ‘गोमय कीटक आदि को ( शरीरसंबद्ध ) विकुर्वकर एक-दूसरे के शरीर को उससे कुतरवाते हैं तथा ईख (गन्ना) के कीटक की तरह शरीर छाननी ( छन्नी, छननी, चालनी) जैसा आरपार कराते हैं तथा शरीर के भीतर आगे-आगे बढाते महागाढ वेदनाओं को परस्पर भुगतते हैं। इस प्रकार अन्योन्यकृतवेदना बतायी / अब शुरु के तीन नरकों में 'परमाधार्मिक' वेदना बताते हैं संक्लिष्ट अध्यवसायवाले परमाधार्मिक जाति के देव पंद्रह प्रकार के हैं / अम्ब, अम्बरिष, श्याम, शवल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनु, कुम्भी, वालुक, वैतरणी, खरस्वर और महाघोष / वे सभी सान्वर्थ नामवाले हैं / वे नरकात्माओं को अतिदुःख देकर अपना आयुष्य पूर्ण होते ही अपने महापाप कर्म के वश होकर अंडगोलिक स्वरूप उत्पन्न होते हैं / इन्हीं अंडगोलिकों से नारकों को कैसी कैसी वेदनाएँ भुगतनी पडती हैं उसे बताते हैं। वे कभी-कभी गर्म लोहे के रस का पान कराते हैं, कदाचित् तपे हुए धधकते लोहे के खंभे के साथ बलपूर्वक आलिंगन करवाते हैं, कभी-कभी कंटकीय शाल्मलिवृक्ष ( सेमल का पेड ) पर चढाकर कष्ट एवं दुःख देते हैं, कभी-कभी लोहे के बडे हथौडे से कुचल (रौंद ) डालते हैं, कभी-कभी बांस को छुरी से छेदकर उस में क्षारयुक्त गर्म किया हुआ धधकता तैल डालते हैं, तो कभी-कभी लोहे के भाले पर पिरोते है, अमि की भट्ठी में भंजते हैं, तिलकी तरह चक्की में उल्टे मस्तिष्क या उल्टे शरीर 358 प्रथम 'अम्ब' नाम के परमाधामी लोग नारकों को ऊंचे उछालकर नीचे गिराते हैं, दूसरा इन्हें भठे में पका सके ऐसे छोटे-छोटे टुकडे करता है, तीसरा आंतर-हृदय को भेदता है, चौथा उनको काट-कूट करता है, पाँचवाँ भाला या बरछा में पिरोता है, छठा अंगोपांग को तोड डालता है, सातवाँ तलवार की धार जैसे तीक्ष्ण पत्तों का वन बनाकर नारकों को उसमें घुमाता फिराता है, आठवाँ धनुष्य से छोडे गये अर्धचन्द्राकार बाणों से बींधता है, नौवाँ कुंभी में पकाता है, दसवाँ कोमल मांस के टुकडों को कुटता है, ग्यारहवाँ कुंड में पकाता है, बारहवाँ उबलते हुए रुधिर और पीब (पीप, मवाद) से भरी हुई वैतरणी नदी बनाकर उसमें डालता है, तेरहवाँ कदम्ब पुष्प आदि के आकारयुक्त वेलु में पचाता है, चौदहवाँ दुःख से डरे हुए और इधर-उधर भागनेवाले नारकों को चिल्ला-चिल्लाकर, डरा-धमकाकर उन्हें Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिप्रसंग में द्वितीय भवनद्वार . . .15 . पीते हैं अथवा आरी से काटते हैं। इतना ही नहीं, अपनी वैक्रियशक्ति से श्येनादि (बाज पंक्षी) पशु-पक्षी—शेर, बाघ, तेंदुआ, लोमडी, गीध और कंक पक्षी (एक मांसाहारी पक्षी जिसके पंख बाण में लगाये जाते थे) तथा उल्लू आदि से अनेक प्रकार की कदर्थनाएँ (सताने-पीडा) करनेवाले जन्तुओं से पीडित करवाते हैं / गर्म की गई बालू पर तथा असिपत्र जैसे तीक्ष्ण धारवाले वन में प्रवेश कराते हैं / वैतरणी नदी में भी उतारते हैं, कुक्कुट की तरह आपस में लडा मारते हैं / युक्ति-प्रयुक्ति करके युद्ध भी कराते हैं। साथ ही ये परमाधामी लोग नारक के कान-नाक काटते हैं, आँखें फोडते हैं, हाथ-पैर काट डालते हैं, छाती जलाते हैं, कडाही में तलना, तीक्ष्ण त्रिशूल से भेदना और अमिमुखी भयंकर जानवरों के पास भक्ष्य करवाने का कार्य करते रहते हैं। इतना ही नहीं, नारकों को वे यमराज की कुल्हाडी से भी अधिक तीव्र धारदार तलवार से छेदते हैं। नारक अभी रुदन कर रहे हैं वहां तो इन्हें वे क्षुधातुर भयंकर विषैले बिच्छुओं से घेर लिए जाते हैं, उनके दोनों हाथोंको तलवार से काटकर तथा निर्बल करनेके बाद उनके समग्र बदनों को आरी से कटवाएं जाते हैं। साथ ही गर्म-गर्म उबला हुआ सीसा पिलाते हैं या शरीर सुलगाते हैं अथवा उन्हें कुंभी या मूषा अर्थात् धातु गालने-बनाने की भट्ठी में पकाते हैं। इन सब के कारण ये नारक चाहे जितना भी चिल्लाएँ, फिर भी प्रज्वलित खदिर (खैर का पेड) के ताप की ज्वाला में उन्हें मजे जाते हैं / साथ ही प्रज्वलित अंगारों के समान वज्र के भवनों में उत्पन्न होते हैं जहां विकृत शरीर वाले वे बडे ही दीन स्वरों में जब रुदन करते हैं वहाँ उन्हें फिर से जलाये जाते हैं / कर्म से पराधीन ये बेचारे या दीन जीव मदद के रोकता है तो अंत में पंद्रहवाँ परमाधामी वज्र के कंटकोंवाले शाल्मलीवृक्ष पर नारकों को चढाकर उस पर लौटाता. है / इस प्रकार वे सभी नारकों को सिर्फ अपनी मौज की खातिर दुःख देकर स्वयं अनंता पापकर्मों को संचित करके, अत्यंत दु.ख में मृत्यु पाकर अंडगोलिकरूप उत्पन्न होते हैं। . परमाधाभी लोग मरकर अंडगोलिकरूप में उत्पन्न होकर किस तरह पकडे जाते हैं, उस सम्बन्धी वर्णन नीचे दिया गया है / ___ जहाँ सिन्धु नदी लवण समुद्र से मिलती है उसी स्थान से दक्षिण की ओर पचपन (55) योजन दूर जंबूवेदिका से साडे बारह योजन दूर एक भयानक स्थल है, वहाँ 3 // योजन समुद्र की गहराई है और साथ ही 47 अंधकारमय गुहाएं भी आयी हुई हैं जिनके भीतर वज्रऋषभनाराच संघयणवाले महापराक्रमी, मांस-मदिरा और स्त्रियों के महालोलुप (आसक्त) ऐसे जलचर मनुष्य रहते हैं। वे बडे ही कुरूप, अप्रिय, स्पर्श से कठोर तथा देखने में अति भयंकर लगते हैं। वे साढे बारह हाथ ऊची कायावाले तथा संख्याता वर्षायुषी होते हैं। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 16 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * लिए चारों ओर देखते रहते हैं तब न तो कोई इनकी मदद करता है और न तो कोई उनका रक्षण करता है / धारदार तलवारें, भाले (बरछे) कुल्हाडियाँ चक्र, परशु, त्रिशल, मुद्दगर बाण, वांसले और हथौडे आदि से उनके तालु- मस्तिष्कको फोड डालते हैं हाथ, कान, नाक, होंठ आदि को छेदते हैं और हृदय, पेट, आँखें तथा अंतडियाँ : (अंत्र) भेद डालते हैं। ऐसे ऐसे दुःखोंको भुगतने वाले ये कर्मपटलांध, दीन नारक पृथ्वी पर गिरते-उठते हमेशा लौटते ही रहते हैं ! हा ! हा ! सत्य ही वहां उनका कोई भी रखवाला नहीं होता !!! . इससे भी अधिक कर देव उन सबको कुंभी में पकाते हैं तथा उन्हें 500 योजन तक ऊँचे उछाल-फेंकते हैं अथवा अति वेदना के कारण स्वयं भी उछल पडते हैं। कभी कभी ऊपरसे नीचे पृथ्वी पर गिरते समय उनके बदन में भाले . पिरो देते हैं- अगर वन समान भयंकर चोंचवाले वैक्रिय पखी उन्हें पकडकर चिर-फाड डालते हैं और शेष जो बचते भी हैं, उनका वैक्रिय शरीररूप व्याघ्रादि हिंसक जानवरों द्वारा सर्वनाश करवाते हैं"। ____ इस प्रकार नरकगतिके महान दुःखों को प्राप्त करना यदि आप नहीं : चाहते हों तो प्रत्येक जीव को अपना जीवन सुधारकर पापाचरणों को दूर करके प्रथम से ही सचेत होकर वीतरागकथित शुद्धमुक्तिदायक मार्गका पालन अवश्य करना चाहिए ! शंका--ये परमाधामी देव नारकोंको दुःख देते हैं इसका कारण क्या है और दुःख देने से उनको नया कर्मबंधन लगता है या नहीं ? इस सन्तापदायक स्थान से 31 योजन दूर समुद्रमध्य में अनेक मनुष्यों की आबादीवाला रत्नद्वीप नाम का एक द्वीप (जहाँ वर्तमानकाल में हम जा नहीं सकते) हैं / वहाँ के लोगों के पास वज्र (कठिन पत्थरों) से बनी हुई बडी-बडी चक्कियाँ होती हैं। वे लोग उन चक्कियों को मांस-मदिग से पोतते हैं और उनके मध्य में बहुत मद्य-मांस भरते हैं। इसके बाद वे सभी मद्य-मांस से भरे हुए लॅबडों से जहाज भरकर समुद्र में जाते हैं और उन्हीं (बडों (तूबों) को समुद्र में डालकर जलचर मनुष्यों को बहुत लुभाते हैं / लुब्ध ऐसे जलमनुष्य उन्हीं तूबों को खाते-खाते क्रमशः चक्की के पास आकर लुब्ध होकर उसमें गिरते हैं और अग्नि द्वारा पकाये गये मांस तथा मदिरा को दो-तीन दिन तक बडे सुख-चैन से खाते-पीते रहते है, इतने में मौका देखकर रत्नद्वीपवासी शस्त्रसन्न सुभट यंत्र से चक्की के ऊपरि पड (चक्कर) को संपूट करके उसी चक्की को युक्ति से चलाना शुरु करके उन्हें चारों ओर से घेर लेते हैं (क्योंकि ये जलमनुष्य बहुत शक्तिशाली होने से खूब सावधानी रखनी पडती है) ये बडी-बडी चक्कियों को बडी Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार * * 17 . समाधान-ये परमाधामी अपने पूर्व भव में क्रूर कर्मी, संक्लिष्ट अध्यवसायी, पापकर्म में ही आनंद का अनुभव करनेवाले होने से पंचामिरूप मिथ्या कष्टवाले जन्मान्तर के अज्ञान कायकष्टो, अज्ञानतप आदि धर्मों के फल स्वरूप इतनी आसुरी विभूति को प्राप्त करते हैं / वहाँ दूसरों को दुःख देने का ही उनका स्वभाव होने के कारण वे उक्त वेदनाएँ देते है। जिस प्रकार यहाँ मनुष्यलोक में सर्प, कुक्कुट, वर्तक (नर बटेर पक्षी), लावक (लवा पक्षी ) इत्यादि पंछियों को तथा हाथी, भैसे, परस्पर विरोधी तथा मुक्के बाजों ( Boxers ) जो द्वन्द्व युद्ध करते समय आमने-सामने प्रहार करते हुए देखकर राग-द्वेष से पराभव पानेवाले पापानुबन्दी पुण्यवान् मनुष्यों को जिस प्रकार बहुत आनंद मिलता है, उसी प्रकार सभी परमाधामी भी नारकी जीवों को एक-दूसरे पर गिरते और प्रहार करते देखकर अत्यंत खुश होते हैं और आनंद के अतिरेक में तालियाँ बजाकर अट्टहास करते हैं, वस्त्र उछालते हैं तथा धरती पर हाथ पटकते हैं, क्योंकि ऐसा आनंद तो उन्हें देवलोक में नाटकादि देखने पर भी मिलता नहीं है / ऐसे ये देव अधम कोटिके आनंद में राचनेवाले होते हैं। यद्यपि अपने पापों के फलस्वरूप ही नारकों को ये देव दुःख देते हैं. लेकिन दुःख दे देकर ही अपनी आत्मा को उस में लीन करके बड़े खुश होते हैं, बड़े आनंद के साथ उस में डूबे रहते हैं तथा उन्हें मारकर अति आनंद पाते हैं; अतः महा * पापी-निर्दय ऐसे ये देव महाकर्म बाँध कर अंडगोलकादि के समान अधम स्थानों में उत्पन्न होते हैं / // इति प्रकीर्णवर्णनं समाप्तम् / / कठिनाई से एक साल तक चलाते ही रहे फिर भी उन्हीं जलचरों की हड्डियाँ थोडी-सी भी टूटती नहीं है, ऐसे भयंकर दुःख को बर्दाश्त करते-करते एक वर्षान्तपर वे अवसान पाते है और मरकर नरक में उत्पन्न होते है / (जैसी करनी, वैसी भरनी।) इसके बाद उनके गुप्त भागों में आयी हुई अंडगोलियों को लेकर रत्न पाने के इच्छुक ये पुरुष चमरी गाय की पूच्छ के बाल से उन अंडगोलियों को गूथकर अपने दोनों कानों पर लटकाकर समुद्र में प्रवेश करते है / इन गोलियों के प्रभाव से उनको कुलीर मत्स्यादि अथवा महामत्स्यादि जंतु हानि करते नहीं है तथा वे समुद्र मे डूबते भी नहीं है / इतना ही नहीं, वे गोलियाँ जल में भी उद्योत मार्गदर्शक बन सकती हैं। इस प्रकार घोर कर्म बाँधकर अंडगोलिक रूप उत्पन्न होकर, ऐसी भयंकर चक्कियों मे पीसकर कठिन दुःखों को भुगतने पडते है / इस प्रकार महान् कर्म बाँधकर वे संसार में भटकते-फिरते रहते है / बृ. सं. 3 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . ___ अब ग्रन्थकार सिर्फ छठे तथा सातवें नारकीय जीवों में समय-समय पर कितने रोग होते हैं ? इसे लिखते हुए यह बताते हैं कि वे लोग पाँच करोड़ अडसठ लाख, निन्यान वे हजार, पाँच सौ और चौरासी५५ (5,68,99,284 ) जितने रोगों से .. संवृत्त होकर महादुःख एवं यातना को भुगतते रहते हैं / [209] (क्षेपक गाथा-४८). . // नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार // ... अवतरण-प्रथम स्थितिद्वार कहने के बाद अब नरकगति के अधिकार में द्वितीय भवन द्वार शुरु करते हैं / इस में सबसे पहले सातों नारकी के नामों के गोत्र बताते हैं / हरेक नारक अपने गोत्र के नाम से ही पहचाना जाता है। रयणप्पह सकरपह, वालुअपह, पंकपह य धूमपहा / तमपहा तमतमपहा, कमेण पुढवीण गोत्ताई // 210 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 210 // विशेषार्थ-द्वितीय भवनद्वार शुरु करने से पहले हम नारकी के 'गोत्रो 360 बताते हैं। प्रथम नारकी का नाम--१ रत्नप्रभा, 2 शर्कराप्रभा, 3 वालुकाप्रभा, 4 पंकप्रभा, 5 धूमप्रभा, 6 तमःप्रभा और 7 तमस्तमःप्रभा / ये सभी नाम सान्वय-सान्वर्थ हैं / 1 रत्नप्रभा-अर्थात् वज्रादि रत्नरूप धरती अथवा रत्न की प्रभा-बाहुल्य ( बहुतायत् ) जिस में है ऐसी पृथ्वी, इस प्रकार दोनों अर्थ हो सकते हैं / इसी कारण से उसे रत्नरूप-रत्नमयी अथवा रत्नबहुल कहा जाता है / ३५९-वर्तमान वैज्ञानिक दुनिया में देखे या सुने जाते इन चित्रविचित्र नये-नये रोगों के आगे यह बात जग भी आश्चर्यजनक लगती नहीं है / "शरीर रोग मंदिरम्" ऐसा जो सूत्र कहा गया है यह सार्थक ही है / बहुत से रोग पहले से ही विद्यमान ही हैं; लेकिन निमित्त ( कारण ) मिलते ही उसका प्रादुर्भाव होने लगता है / नरक में तो बहुत से अशुभ निमित्त उपस्थित ( हाजिर ) होते ही हैं अतः वहाँ दुःखों का अंतिम साम्राज्य प्रवर्तमान होने के कारण यह सब संभवित है। ३६०-गावस्त्रायन्ते इति गोत्राणि / Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * * 19 . इसी प्रथम पृथ्वी में जो रत्नबाहुल्य कहा-बताया गया है इसे आप खरकांड के पहले रत्नकांडकी अपेक्षा से जान सकते हैं / यह रत्नप्रभा (प्रथम) पृथ्वी तीन हिस्सों में बँटी हुी है / पहला खरकांड (खर-कठिन, कांड-विभाग ) कठिन भूमि भाग विशेष, दूसरा पंकबहुलकांड और तीसरा अपबहुलकांड / पंक कीचड़ विशेष, अप्=जल विशेष युक्त जो है वह / इस में पहला खरकांड सोलह विभागों में बँटा हुआ है / 1 रत्नकांड, 2 वज्र, 3 वैडूर्य, 4 लोहित, 5 मसारगल्ल, 6 हंसगर्भ, 7 पुलक, 8 सौगन्धिक, 9 ज्योतिरस, 10 अंजन, 11 अंजन-पुलक, 12 रजत, 13 जातरूप, 14 अंक, 15 स्फटिक और 16 रिष्टरत्न-इस प्रकार हरेक नाम अपनी अपनी जाति के रत्न विशेष भू भाग से गर्भित होने से सान्वर्थक हैं / प्रत्येक काण्ड एक हजार (1000) योजन मोटा तथा 16000 योजन ऊंचा होता है / यह नाप 'प्रारंभ के खरकाण्ड का है, दूसरा पंकबहुलकांड 84000 योजन मोटा और तीसरा अप्जल बहुलकांड 80000 योजन मोटा होता है / . इस प्रकार तीनों संख्याओं को कुल मिलाने से प्रथम धर्मा ( रत्नप्रभा) पृथ्वी का मोटापन 1,80,000 योजन का हुआ / इन काण्डों की चर्चा इसी प्रथम पृथ्वी में ही है, शेष पृथ्वी में नहीं है / दूसरी शर्कराप्रभा--इस में बहुत से कंकरों का बाहुल्य होने के कारण, तीसरी वालुका-इस में रेती ( बालू का ) प्राधान्य होने के कारण सान्वर्थक है / इस प्रकार चौथी पंक-में कीचड़ का भाग विशेष होने से, पाँचवीं धूम-में अधिक धुआँ होने से, छठी तमः में आम तौर पर अंधकार होने से तथा सातवीं तमस्तम पृथ्वी में अंधकार ही अंधकार अर्थात् सिर्फ गाढ़ अंधकार ही होने के कारण वह भी सान्वर्थक है / ये सातों गोत्र सान्वर्थक हैं / इस प्रकार अनुक्रम से प्रत्येक पृथ्वी के गोत्र तथा आदि शब्द से काण्ड व्यवस्था भी बताई गयी है / अवतरण--अब प्रत्येक नारकी के मुख्य नाम तथा उसके संस्थान के आकार मी बताते हैं / घम्मा वंसा सेला, अंजण रिट्ठा मघा य माधवई / नामेहिं पुढवीओ, छत्ताइच्छत्तसंठाणा // 211 // Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ--विशेषार्थवत् // 211 // विशेषार्थ-ये सभी नाम निरन्वय अर्थात् विना अर्थवाले हैं, इन में पहली पृथ्वी का नाम धर्मा, 2 वंशा, 3 शेला, 4 अंजना, 5 रिष्टा, 6 मघा और सातवीं पृथ्वी का नाम है माघवती / इस प्रकार सातों पृथ्वियों के नाम आप जानें / ये नाम सान्वर्थक नहीं हैं। ये सातों पृथ्वियाँ . 'छत्रातिछत्र' अर्थात् पहला छत्र छोटा ( वहाँ फिर से ) उसके नीचे का (आयाम-विष्कम्भसे.) बड़ा उसके नीचे का और भी अधिक विस्तार युक्त एवं बड़ा इस प्रकार क्रमशः महाविस्तारवाले सात छत्र हों उसी प्रकार इन सातों पृथ्वियों का आकार बना रहता है / अर्थात् पहली पृथ्वी अल्प छत्राकार युक्त तो दूसरी उस से भी अधिक छत्र-विस्तार युक्त, यों क्रमशः अंतिम सातवीं पृथ्वी को महाछत्र विस्तार युक्त जानें / [211] असीइ बत्तीसडवीस वीस अट्ठार सोल अडसहसा / लक्खुवरि पुढविपिंडो, घणुदहिघणवायतणुवाया // 212 // गयणं च पइट्ठाणं, वीससहस्साई घणुदहिपिंडो / घणतणुवायागासा, असंखजोयणजुआ पिंडे // 213 // गाथार्थ—यहाँ गाथा में बताया हुआ 'लक्खुवरि, पद प्रथम पंक्ति में बतायी हुी सभी संख्याओं के आगे जोडना होगा और प्रथम पंक्ति का अंतिम पद . ' सहसा' को हरेक संख्या के अंत में जोड़ना होगा, जिस के कारण क्रमशः पृथ्वीपिंड का प्रमाण ( नाप) आ मिलता है / इस प्रकार प्रथम पृथ्वी का पिंडप्रमाण एक लाख के ऊपर अस्सी हज़ार योजन, दूसरी का एक लाख बत्तीस हजार, तीसरी का पिंडप्रमाण एक लाख अट्ठाईस हज़ार, चौथी का एक लाख बीस हज़ार, पाँचवीं का एक लाख अठारह हजार, छठी का एक लाख सोलह हजार तथा सातवीं का एक लाख आठ हज़ार पिंडप्रमाण आप जानें / // 212 // ____प्रत्येक पृथ्वीपिंड घनोदधि-घनवात-तनुवात और आकाश इन्हीं से चारों ओर से घिरा हुआ होता है / इन में घनोदधिपिंड ( मध्य में ) बीस हजार योजन का और धनवात, तनुवात तथा आकाश ये तीनों असंख्य योजन युक्त पिंडवाले होते हैं // 21.3 // Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार * * 21 . विशेषार्थ-पहली रत्नप्रभा पृथ्विका पिंडबाहल्य–मोटापा एक लाख अस्सी हज़ार योजन का, दूसरी शर्कराप्रभा का एक लाख बत्तीस हजार योजन का, तीसरी वालुकाप्रभा का एक लाख अट्ठाईस हज़ार योजन का, चौथी पंकप्रभा का एक लाख बीसहज़ार योजन का, पाँचकी धूमप्रभा का एक लाख अठारह हज़ार योजन का, छठी तमःप्रभा का एक लाख सोलह हजार योजन का तथा सातवीं तमस्तमःप्रभा का एक लाख आठ हजार योजन का जाने / यह सभी पृथ्वी प्रमाण" प्रमाणांगुल से जानें / हरेक पृथ्वी घनोदधि, घनवात, तनुवात तथा आकाश इन चारों के आधार से टिकी हुी है, अतः प्रत्येक पृथ्वी का बाहल्य पूर्ण होते ही नीचे प्रथम घनोदधि, फिर घनवातादि इस प्रकार क्रमशः चक्रवाल अर्थात् चारों ओर से गोलाकार रूप में प्याले में प्यालों की तरह प्रतिष्ठित हैं / इन में घनोदधि पिंड का मोटापा बीस हजार योजन का, घनवात का असंख्य योजन का, तनुवात का इस से अधिक प्रमाणयुक्त असंख्य योजन का तथा आकाश का तनवात से भी अधिक प्रमाण असंख्य योजन का है। यहाँ घनोदधि अर्थात् ठोस घना ( बर्फ की तरह जमा हुआ) पानी / यह पानी तथाविध जगत् स्वभाव से चलता-फिरता नहीं है और न तो पृथ्वीयाँ उस में कभी डूबती हैं यह तो सदा-शाश्वत् है / घनवात अर्थात् ठोस ( घना) वायु, तनुवात अर्थात् पतला वायु और इस के बाद आकाश अर्थात् अवकाश केवल पोलापन; और यह तो सर्वत्र सर्वव्यापक रहा है ही / इस से क्या बना ? इस सम्बन्धी नीचे से ही सोच विचार करें तो प्रथम आकाश, उसके ऊपर तनुवात, उसके भी ऊपर घनवात और घनोदधि तथा सब से ऊपर नरक पृथ्वी आयी है / [ 212-13 ] . .' अवतरण : ये पृथ्वियाँ अलोक को स्पर्श करती हैं या नहीं ? इसे अर्ध गाथा में लिखते हैं न फुसंति अलोगं चउ-दिसिपि पुढवी उ वलयसंगहिआ // 2133 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 2133 / / ३६१-हमारे उत्सेघांगुलके जापसे भी चारसौगुना अथवा हज़ारगुना बड़ा नाप, जिसकी व्याख्या आगे दी जायेगी। ......... Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 22 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . - विशेषार्थ--प्रत्येक पृथ्वी की चारों ओर वलयाकार में घनोदध्यादि आये हुए हैं। ये मध्यभाग से अर्थात् तलवे के मध्यभाग से गत गाथा में कहे गये मानवाले होते हैं / उसके बाद प्याले की तरह ऊर्ध्वभाग पर जाते-जाते ये क्रमशः प्रदेश ( प्रमाण की ) हानि से हीन-हीनमानवाले बनते बनते अपनी-अपनी पृथ्वी के ऊपरी अंत-भाग पर अति अल्प एवं पतले होकर भी चारों और से वलयाकार में अपनी-अपनी पृथ्वियों को अच्छी तरह . से ढंकते हुए उपस्थित होने के कारण किसी भी दिशा से एक भी पृथ्वी अलोक का स्पर्श करती नहीं है। इस घनोदधि आदि वलयमान की ऊँचाई का स्वरूप अपनी-अपनी पृथ्वी की ऊँचाई के आधार पर सर्वत्र यथायोग्य ( यंत्र द्वारा ) सोंचे / [ 2133 ] अवतरण--इस से पहले जो पिंडप्रमाण (परिमाण, नाप, ) दिखाया गया था, वह अधोभाग से मोटापा का मान बताता था / और अब प्रत्येक पृथ्वी की दोनों ओर के ये पिंड कितने बड़े एवं विस्तार वाले होते हैं ? यह विष्कम्भमान बताते हैं। रयणाए वलयाणं, छधपंचमजोअणं सडूढं // 214 // विक्वंभो घणउदही-घणतणुवायाण होइ जहसंखं / सतिभागगाउअं, गाउअं च तह गाउअतिभागो // 215 // पढममहीवलएसुं, खिवेज एअं कमेण बीआए / दुति चउ पंचच्छगुणं, तइआइसु तंपि खिव कमसो / / 216 // गाथार्थ--विशेषार्थवत् / / / 214-15-16 // विशेषार्थ-रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरि छोर ( अंत ) की समश्रेणि पर चारों ओर से गोलाकार में उपस्थित घनोदधि, घनबात तथा तनुवातवलय के विष्कम्भ ( चौड़ाई ) को अब बताते हैं / प्रथम घनौदधि की चौड़ाई छः योजन, घनवात की साढ़े चार योजन तथा तनुवात की डेढ़ योजन है / इन तीनों को एक साथ मिलाने से ऊपर के भाग से बारह योजन दूर अलोक पड़ता है / इस प्रकार आप ठीक से समझ लीजिए कि घनोदधि, घनवात आदि गोलाकार रूप से पृथ्वी को चारों ओर से घिरे हुए आये हैं / [ 214 ] अब अन्य पृथ्वियों के विष्कम्भ जानने के तरीके बताते हैं / Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार * .23. - पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधि के उक्त मान में एक योजन का तीसरा भाग, घनवात में एक कोस और तनुवात में सिर्फ एक कोस का तीसरा भाग मिलाने से दूसरी शर्कराप्रभा के अन्तवर्ती घनोदधिका विष्कम्भ 63 योजन, घनवातका 4 / / योजन और तनुवातका 115 योजन ( अर्थात् एक योजन और एक योजन के बारहवें सात भाग) और इन तीनों विस्तार को कुल मिलाने से कुल 12 योजन 23 कोस दूर अलोक रहता है। शर्कराप्रभा में मिलाया हुआ घनोदधि आदि का जो विष्कम्भमान है उसे अनुक्रम से पुनः शर्कराप्रभा के मान में मिलाने से तीसरे नारकवर्ती घनोदध्यादिका नाप आता है / इस प्रकार क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छः गुना करके इसे मिलाने से अथवा उत्तरोत्तर पृथ्वी में एक ही मान मिलाने से उसी पृथ्वीका घनोदध्यादि विष्कम्भमान आता है, जो इस प्रकार है वालुकाप्रभा के घनोदधि का 63 योजन, घनवात का 5 योजन, तनुवातका 155 योजव विष्कम्भ आता है / अतः यहाँ पर कुल 13 योजन 13 कोस दूर अलोक, पंकप्रभा के घनोदधिका 7 योजन, घनवातका 51 योजन, तनुवातका 1 योजन और इस प्रकार कुल मिला कर 14 योजन दूर अलोक यहाँ से शुरु होता है / - पाँचवीं धूमप्रभा का घनोदधि 71 योजन-धनवात 53 योजन, तनुवात 133 योजन, इस प्रकार कुल मिलाकर 14 योजन 23 कोस दूर अलोक आता है / - छठी तमःप्रभा का घनोदधि 73 योजन, घनवात 56 योजन, तनुवात 133 योजन / इन सबको मिलाने से यहाँ से अलोक 15 योजन 11 कोस दूर शुरु होता है। ____ सातवीं तमस्तमःप्रभा का घनोदधि पूर्ण 8 योजन, घनवात 6 योजन और तनुवात 2 योजन कुल मिला कर तीनों का मान 16 योजन बन कर उतना दूर अलोक रहता है। [214-16] अवतरण-अब ग्रन्थकार यह सोचते हैं कि--पूर्व गाथा 212-13 में घनोदधि आदिका जो प्रमाण नाप वर्णित किया है तथा गाथा 215-16 में भी घनोदधि आदिका फिर से जो वर्णन किया है, इस से पाठकों को कुछ भ्रम होगा तो ! यह सोच कर उसी भ्रम का निवारण करने के लिए निम्न गाथा में समझाने का प्रयत्न करते हुए वे लिखते हैं Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 . श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . मझे चिय पुढवि अहे, घणुदहिपमुहाण पिंडपरिमाणं / भणियं तओ कमेणं, हायइ जा वलय परिमाणं // 217 // गाथार्थ--विशेषार्थवत् // 217 // विशेषार्थ--इस के पहले गाथा 212-13 में घनोदधि 62 प्रमुख सारे पिंडोंका जो परिमाण बताया गया है वह तो नरक के अधोभागवर्ती पिंडोंका मध्यवर्ती मोटापन का नाप है, परंतु उस से पुनः जो परिमाण बताया गया है वह तो मध्यपिंडका 20 हजार का मोटापन जहाँ होता है, वहाँ से क्रमशः दोनों ओर नाप में हानि होती होती जो यावत् वलयान्त आता है वह उससे आगे के घनोदध्यादि का है। [ 217 3. अवतरण-अब प्रत्येक नरकवर्ती नरकावासाओं की संख्या का प्रमाण बताते हैं / तीस पणवीस पनरस, दस तिन्नि पणूणएग लक्खाई / पंच य नरया कमसो, चुलसी लक्खाई सत्तसुवि // 218 / / गाथार्थ--विशेषार्थवत् / / 218 // विशेषार्थ--नारकी जीवों को उत्पन्न होने के जो भयंकर स्थानक होते हैं उन्हें नरकावासा कहा जाता है। [ जिन का विशेष वर्णन आगे बताया जाएगा। ] पहली धर्मा पृथ्वी के नरक में नारकों की उत्पत्ति के लिए तीस लाख नरकावासा आये हुए है, दूसरी वंशा नारक में पचीस लाख, तीसरी शैला. में पन्द्रह लाख, चौथी अंजना में दस लाख, पाँचवीं रिष्टा में तीन लाख, छठी मघा में एक लाख में पाँच (5) कम अथवा (99,995), जब सातवीं माधवती में सिर्फ पाँच ही नरकावास होता है / इस प्रकार सातों पृथ्वियों के कुल मिलाकर चौरासी लाख ( 84,00,000) नरकावासा बनते है। (218) ३६२-किसी. को अगर शंका हो कि घनोदधि, घनवात और तनुवात की कभी करते जाना ऐसा जो कहा है और प्रमाण भी सिर्फ तीनों का ही बताया है तो वहाँ अवकाश का प्रमाण क्यों नहीं बताया गया है ? तो इस के समाधान में यह कहना हैं कि आकाश द्रव्य तो सर्वत्र व्याप्त है ही / जहाँ घनोदधि, घनवातादिक है वहाँ भी वह तो है ही, क्यों कि अवकाश (खालीपन) देना ही उसका स्वभाव. है / सर्वत्र व्याप्त पदार्थ का वास्तविक नाप हो ही सकता नहीं है / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृ. सं. 4 [यंत्र संख्या-८१] साती नरक की पृथ्वीके नाम-गोत्र-प्रतर-नरकावासकी संख्या तथा पृथ्वीपिंडं घनोदध्यादि वलयोंकापरिमाण यन्त्र नरकके गोत्र | वेदना प्र.सं.नरकावास पृथ्वीपिंड घनोमान धनवात तनुवात आकाश धनवालय धनवलय तनुवलय कुल नाम संख्या १रत्न प्रभा क्षेत्रजा अन्योन्या| 13 ३०.लाख 1.80.000 20 हजार असंख्य असंख्य असंख्य 6 योजन आयोजन१३ | 12 और योजन | योजन | योजन | योजन धार्मिका योजन योजन परमा " " राजना पकप्रभा शर्करा वंशा | " | 11 |25 लाख 1.32,000 | प्रभा शेला | " | 9 15 लाख 1.28.000 प्रभा क्षेत्रा 9 | 10 लारव 1.20,000 अन्योन्या रिष्टा धमप्रभा " 5 3 लाख | 1,18,000 मधा | " 3 19995 | 1.16,000 " | थो० ४॥योजज 16, यो० 153 यो " | " यो० 5 यो०१६ यो०१३ यो , " 7 यो० // यो०१३ यो०१४ यो० " | " यो० 5 / यो०११ यो०१४३ योन " " यो० // यो०/१६२ यो०१५ योन " " " " " तमःप्रभा तमस्तमः माघवती प्रभा 1,08,000 " " | " | " 8 यो०६ यो०२ यो०१६ यो० re.8M Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 34 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अवतरण-अब प्रत्येक नरक में कितनी-कितनी प्रतर संख्या होती हैं ! उसे बताते हैं / तेरिकारसनवसग, पणतिनिगपयरसव्विगुणवन्ना / सीमंताई अपइ-ट्ठाणंता इंदया मज्झे // 219 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 219 // विशेषार्थ-देवलोक की तरह सातों नरक में भी प्रतर आये हुए हैं / इन में प्रथम रत्नप्रभा (धर्मा ) नरक पृथ्वी में तेरह प्रतर, [ इस के बाद दो-दो की संख्या कम करते जाने से ] दूसरी शर्कराप्रभा (वंशा) में ग्यारह, तीसरी वालुकाप्रभा (शेला) में नौ, चौथी पंकप्रभा ( अंजना ) में सात, पाँचवीं धूमप्रभा (रिष्टा ) में पाँच, छठी तमःप्रभा ( मघा ) में तीन, और सातवीं तमस्तमप्रभा ( माघवती) नरक पृथ्वी में एक प्रतर आया हुआ है / इस प्रकार कुल मिलाकर उनचास (49) प्रतरो सातों नरक में होते हैं / प्रत्येक नरक के मध्यभाग में इन्द्रक नरकावास आये हुए हैं, जिनमें सीमंत नाम: का नरकावास आदि प्रतर के मध्यभाग में है जब कि अप्रतिष्ठान नरकावास अंतिम प्रतर के मध्य में आया है / [ 219 ] अवतरण--इस के पहले, गाथाओं में यह बताया गया है कि प्रत्येक प्रतर के मध्य--मध्य भाग में इन्द्रक नरकावासा आये हुए हैं। और अब उन्हीं नरकावासाओं के नाम कौन-कौन से हैं ! तो दस गाथाओं द्वारा बताते हैं / सीमंतउत्थ पढमो, बीओं पुण रोरुअत्ति नायव्यो / भंतो उणत्थ तइओ, चउत्थओ होइ उन्भंतो // 220 // संभंतमसंभतो, विभतो चेव सत्तमो निरओ / अट्ठमओ तत्तो पुण, नवमो सीओत्ति णायव्वो // 221 / / वकंतमंऽवकतो, विकतो चेव रोरुओ निरओ। पढमाए पुढवीए, तेरस निरइंदयाँ एए // 222 // थणिए थणए य तहा, मणए वणए य होइ नायव्यो / घट्टे तह संघट्टे, जिन्भे अवजिब्भए चेव // 223 // . ३६३-पाठां.-नामेण / ३६४-इंदया एव बोधव्या / Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार . लोले लोलावत्ते, तहेव थणलोलुए य बोद्धव्वे / बीयाए पुढवीए, इक्कारस इंदया एए // 224 // तत्तो तविओ तवणो तावणो ये पंचमो निदाघो अ / छ8ो पुण पज्जलिओ, उज्जलिओ सत्तमो निरओ // 225 // संजलिओ अट्ठमओ, संपज्जलिओ य नवमओ भणिओ। तइआए पुढवीए, एए नव होति निरइंदा // 226 // आरे तारे मारे, वच्चे तमए य होइ नायवे / खाडखडे अ खडखडे, इंदय निरया चउत्थीए // 227 / / खाए तमए य तहा, झसे य अंधे अ तह य तमिसे अ / एए पंचमपुढवीए, पंच निरइंदया हुंति / / 228 // हिमवद्दललल्लके, तिन्नि य निरइंदया उ छट्ठीए / एको य सत्तमाए, बोद्धव्यो अप्पइट्ठाणो // 229 // [प्रक्षेपक गाथा-४७ से 56 ] गाथार्थ–१ रत्नप्रभा पृथ्वी के पहले नरक के प्रथम प्रतर मध्य में दिशा, विदिशागत नरकावासाओं की सर्व पंक्तियों के बीच मुख्य ‘सीमन्त' नामक नरकावास आया हुआ है, दूसरे प्रतर पर रोरुक, तीसरे प्रतर पर भ्रान्त, चौथे प्रतर पर उद्भ्रान्त, पाँचवें प्रतर पर संभ्रान्त, छठे प्रतर पर असंभ्रान्त, सातवें प्रतर पर विभ्रान्त नरकेन्द्र, आठवें प्रतर पर तप्त, नौवें प्रतर पर शीत, दसवें प्रतर पर वक्रान्त, ग्यारहवें प्रतर पर अवक्रान्त, बारहवें प्रतर पर विक्रान्त, और तेरहवें प्रतर पर रोरुक, नरकेन्द्र प्राप्त होता है / इस प्रकार प्रथम रत्नप्रभा में अप्रिय नामोंवाले ये तेरह नरकेन्द्र आवास आये हुए हैं / [ 220-222 ] 2 द्वितीय पृथ्वी के प्रतरों के बीच में अनुक्रम से 1 स्तनित, 2 स्तनक, 3 मनक, 4 वनक, 5 घट्ट, 6 संघट्ट, 7 जिह्व, 8 अपजिह्व, 9 लोल, 10 लोलावत और 11 स्तनलोलुप जाने / . इस प्रकार दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में स्थित दूसरे नरक के ग्यारह प्रतरों के बीच ये ग्यारह नरकेन्द्र आवास आये हुए हैं / [ 223-24 ] 365-- पंचमो य निट्ठिो / 366- ललक्के / 367- अप्पइट्ठाणो य नामेण / Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 3 तृतीय पृथ्वी के प्रतरों के बीच में अनुक्रम से 1 तप्त, 2 तपित, 3 तपन, 4 तापन, 5 निदाघ, 6 प्रज्वलित, 7 उज्ज्वलित, 8 संज्वलित, 9 संप्रज्वलित नरकेन्द्र हैं / इस प्रकार यहाँ तीसरी वालुकाप्रभा में ये नौ नरकेन्द्रावास आये हुए हैं / [225-26] 4. चौथी पृथ्वी के प्रतरों के बीच में अनुक्रम से 1 आर, 2 तार, 3 मार, 4 वर्च, 5 तमक, 6 खाडखड और 7 खडखड ये नरकेन्द्रावास चौथी पंकप्रभा में जाने। [227] 5. पाँचवीं पृथ्वी के प्रतरों के बीच क्रमशः 1 खाद, 2 तमक, 3 झष, 4 अन्धक, 5 महातमिस्र-इस प्रकार पाँचवीं धूमप्रभा में पाँच नरकेन्द्र जानें [228] 6. छठी पृथ्वी के प्रतरों के मध्य में अनुक्रम से 1 हिम, 2 वार्दल 3 लल्लक - इस प्रकार छठी तमःप्रभा के तीन इन्द्रकावास आये हुए हैं। 7. सातवीं पृथ्वी के प्रतर के बीच एक३६८ अप्रतिष्ठान नामक नरकेन्द्रावास जानें / [229] विशेषार्थ-नहीं हैं। [220-229] (प्रक्षेपक गाथा 47 से 56 तक) अवतरण-इन्द्रक नरकावासाओं के नाम कहने के बाद सातवीं नारकी के चार इन्द्रक की चारों दिशा में जो नरकावासा बताए हैं उनके नाम तथा दिशावासस्थान अब कहते हैं। पुव्वेण होइ कालो, अवरेण पइडिओ महाकालो / रोरो दाहिण पासे, उत्तरपासे महारोरो // 230 // [प्रक्षेपक गाथा 57] गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 230 // विशेषार्थ- इस सातवीं नारकी में आवलिकागत या पुष्पावकीर्णादिक की व्यवस्थादि न होने से ग्रन्थकार अलग गाथा के द्वारा प्रथम से ही उसकी लघु व्यवस्था बता देते हैं / दसरे ग्रन्थों में सातों पृथ्वीगत नरकेन्द्र के नामों में तथा उनके क्रम में कहीं-कहीं पर अंतर (भेद) मिलता है। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * . सातवीं नारक के प्रतर मध्य में एक लाख योजन का [जबू द्वीप के समान] गोलाकार में उपस्थित अप्रतिष्ठान नामक मुख्य इन्द्रक नरकावास आया है, जिसकी चारों दिशा में एक एक [अंतिम सर्वार्थसिद्ध पर ज्यों पाँच हैं उसी प्रकार यहाँ अंतिम नरक पर) नरकावास आया हुआ है। इन में पूर्वदिशावर्ती जो है उसका नाम है 'काल', अपर-पश्चिम दिशा में 'महाकाल', दक्षिण दिशावर्ती 'रौरव' और उत्तर दिशा में 'महारौरव' नाम का नरकावास है / [230] (प्रक्षेपक गाथा 57) अवतरण---अब प्रत्येक प्रतर पर उक्त इन्द्रक नरकावासा से कितनी-कितनी नरकावासाओं की पंक्तियाँ निकलती हैं ! तथा उन्हीं पंक्तियों में कितनी-कितनी संख्या में नरकावासा आये हुए हैं। यह समझाते हुए प्रथम पहले प्रतर की संख्या लिखते हैं कि तेहिंतो दिसि विदिसिं, विणिग्गया अट्ठ निरयआवलिया / पढमे पयरे दिसि, इगु-णवन्न विदिसासु अडयाला // 231 // गाथार्थ-वहाँ से ( इन्द्रक नरकवासाओं से ) दिशाओं में तथा विदिशाओं में आठ-आठ * नरकपंक्तियाँ निकली हैं। उनमें प्रथम प्रतर पर दिशागत उनचास (49) तथा विदिशागत अड़तालीस नरकावासा आये हुए हैं। विशेषार्थ-जिस प्रकार वैमानिक निकाय के प्रतरों में आवलिकागत पुष्पावकीर्णो की व्यवस्था का वर्णन किया था। उसी प्रकार यहाँ भी नरकावासाओं की व्यवस्था रही हुई है। गत गाथा में प्रत्येक प्रतर के मध्य में एक एक इन्द्रक नरकावास होता है यह बताया गया है। अब उस मध्यवर्ती इन्द्रक नरकावास से चारों मूल दिशाओं की चार तथा विदिशाओं की चार इस प्रकार कुल मिलाकर आठ नरकावासाओं की पंक्तियाँ विशेष प्रकार से हुई हैं। इन में प्रथम प्रतर में चारों दिशावर्ती प्रत्येक पंक्तियों में उनचास (49) नरकवासा होते हैं, जब कि विदिशाओं में विभाजित पंक्तियाँ अड़तालीस (48) नरकावासाओं से युक्त हैं। इस प्रकार प्रथम प्रतर में समझें / [231] अवतरण-शेष प्रतर में किस प्रकार सोचें ? उसके लिए एक नियम बताया है कि बीयाइसु पयरेसुं, इगइगहीणा उ हुंति पंतीओ। जा सत्तममहिपयरे, दिसि इक्किको विदिसि नस्थि // 232 // Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 38 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . गाथार्थ-दूसरे प्रतर से लेकर अन्य प्रतरों में, एक एक नरकावासा से हीन-न्यून युक्त पंक्तियाँ होती हैं, जिसके कारण एक एक हीन (कम) करते जाने से अंत में (यावत् ) सातवीं पृथ्वी के प्रतर में सिर्फ दिशागत एक एक नरकावासा ही रहता है, जब कि विदिशा में एक भी रहता नहीं है / [232] विशेषार्थ-अब द्वितीय प्रतर से लेकर प्रत्येक प्रतर में एक एक नरकावासा को आठों पंक्तियों के अंतिम-अंतिम भाग से कम करते जाने से, प्रथम प्रतर की दिशागत संख्या में से एक-एक संख्या कम करने से द्वितीय प्रतर पर दिशागत प्रत्येक पंक्ति में अड़तालीसअड़तालीस (48-48) नरकावासाओं की संख्या रहती है और विदिशा में से. एक-एक संख्या कम करते जाने से सैंतालीस-सैंतालीस (47-47) की संख्या रहती है / सातों नरक आश्रयी (पूर्वानुपूर्वी) प्रत्येक प्रतर पर इस प्रकार करने से अंतिम (यावत् ) सातवीं माघवती पृथ्वी के प्रतर पर पहुँचते-पहुँचते चारों दिशाओं में सिर्फ एक-एक नरकावासा रहता है, लेकीन विदिशा में एक भी नरकावासा मिलता नहीं है, क्योंकि प्रथम प्रतर पर ही दिशागत संख्या से एक कम संख्या विदिशा में थी जिसके कारण यहाँ विदिशा में वह प्राप्त न हुआ। अब पश्चानुपूर्वी अर्थात् उससे विपरीत ( उलटा ) क्रम से सोचने से अंतिम प्रतर के मध्य में अप्रतिष्ठान इन्द्रक तथा एक-एक आवास चारों ओर मिलता है / इसके बाद प्रत्येक प्रतर पर दो, बाद में तीन-चार-पाँच-छः इस प्रकार अनुक्रम से एक-एक संख्या की वृद्धि करने से तथा 48 वें प्रतर से विदिशा में भी एक-दो-तीन इस प्रकार स्थापित करते करते वहाँ तक पहुँचें कि प्रथम प्रतर पर दिशा-विदिशा में बतायी गयी उक्त संख्या आ जाए / [232 ] अवतरण—अब प्रत्येक प्रतर पर अष्टपंक्ति की मिली-जुली संख्या लाने के लिए सवा गाथा द्वारा 'करण' दिखाते हैं / और उस की सहायता से मिलनेवाली नरकवर्ती प्रथम प्रतर संख्या को भूमि और अंतिम प्रतर संख्या को मुख नाम से पहचाना जायेगा / इट्ठपयरेगदिसि संख, अडगुणा चउविणा सइगसंखा / जह सीमंतयपयरे, एगुणनउया सयातिनि // 233 / / अपइट्ठाणे पंच उ-२३३३ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * .39. * गाथार्थ-इष्ट प्रतर की एक दिशागत संख्या को आठ गुना करके उस में से चार की संख्या कम करने के बाद अवशेष संख्या को एक (इन्द्रक ) सहित करने पर [ इष्टवतर संख्या प्राप्त होती है / ] जिस प्रकार सीमंतक नाम के प्रथम प्रतर पर 389 नरकावास की संख्या और अप्रतिष्ठान नामक अंतिम प्रतर पर पाँच की संख्या प्राप्त होती है / विशेषार्थ-पिछले वैमानिकनिकाय में प्रतिप्रतराश्रयी, समग्र निकायाश्रयी और प्रतिकल्पाश्रयी ये तीनों प्रकार की संख्या [ विभिन्न तरीकों से ] ( 108 वी ) एक ही गाथा से बतायी गयी थी, जब कि यहाँ कही जानेवाली नरकावासा की संख्या 233234 इन दो गाथाओं से कही जायेगी / और वैमानिकनिकाय में तो 'समग्र निकायाश्रयी और प्रतिकल्पाश्रयी' ऐसे दो ही प्रकार की संख्या ग्रन्थकार ने मूल गाथा में बतायी थी और तीसरी 'प्रतिप्रतराश्रयी' विमान संख्या तो ऊपर से बतायी गर्या थी। ____ जब कि यहाँ पर इन नरकावासाओं की प्रति प्रतर संख्या को भी ग्रन्थकार स्वयं ही मूल गाथा में कहेंगे / क्यों कि विदिशा की पंक्तियाँ अधिक संख्या में होने के कारण प्रति प्रतर संख्या को जानना यहाँ अति कठिन है; अतः यहाँ प्रतिप्रतराश्रयी, समग्रनरकाश्रयी और प्रतिनरकाश्रयी यों तीन प्रकार से नरकावास संख्या कहते हैं। इन में यह गाथा 'प्रतिप्रतराश्रयी' संख्या को जो बताती है, वह इस प्रकार है - इष्ट नरक के इष्ट प्रतर के लिए संख्या प्राप्ति का उदाहरण एवं दष्टांत-यदि रत्नप्रभा पृथ्वी के इष्ट प्रथम सीमंतप्रतर की संख्या निकालनी हो तो वहाँ एक दिशागत पंक्ति के नरकावास की संख्या जो 49 है, उसे आठ से गुना करने से 392 होते हैं / [ अब विदिशा में दिशा की अपेक्षा से एक-एक आवास कम होने के कारण ] चारों विदिशाओं की चार संख्या को कम करने से दिशा-विदिशा के नरकावासाओं की कुल संख्या 388 आती है, इस में एक प्रतरवर्ती निकालने से उसी प्रतर की एक इन्द्रक नरकावास संख्या मिलाने से 389 की कुल संख्या इष्ट ऐसे प्रथम प्रतर पर आती है / इस प्रकार द्वितीयादि प्रतर पर करते-करते ( तथा संख्या को जानते ) जब अप्रतिष्ठान नरकावास पर पहुँचते हैं तब पाँच की कुल संख्या आती है, क्योंकि वहाँ एक-एक दिशावर्ती एक-एक नरकावास होने के कारण एक की संख्या को करण के नियमानुसार आठ से गुनने से 8 आते हैं, इन में से विदिशा के चार कम करने से शेष चार बचे रहते हैं, इन में इन्द्रकनरकावासा मिलाने से पाँच की कुल प्रतर संख्या आ मिलती है / Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . %3 मध्य के 47 प्रतर के आवलिकागत नरकावासा की संख्या जानने के लिए यत्र देखिये / आवलिकागत संख्या को छोड़कर शेष संख्या जो रहती है उसे. पुष्पावकीर्ण के प्रति प्रतर पर विचारें / प्रत्येक प्रतर पर पुष्पावकीर्ण की संख्या कितनी होती है ! इस सम्बन्ध में सच्ची हकीकत उपलब्ध हुी नहीं है / इति इष्टप्रतरे आवलिकागतावाससंख्याप्राप्त्युपायः / इस करण के अनुसार समग्र निकायाश्रयी को सोच-विचारने से प्रथम प्रतरवर्ती संख्या को मुख और अंतिम ( 49 वीं) प्रतरवर्ती संख्या को भूमि कहा जाता है। और प्रत्येक नरकाश्रयी को सोचें तो इष्ट नरक की प्रथम प्रतर सख्या जिसे. मुख और . करके मिलनेवाली संख्या को प्रथम प्रतर की संख्या में से कम करने के बाद जो शेष संख्या रहती है इस के उपरान्त दूसरे१६९ अनेक उपाय-करण हैं, जिन्हें ग्रन्थान्तर से देख लेना / [233] अवतरण-पूर्व की गाथा में प्रत्येक प्रतराश्रयी संख्या बताकर अब यह पौनी गाथा, समग्र नरकाश्रयी और प्रत्येक नरकाश्रयी आवलिकागत नरकावास संख्या को जानने का करण बताती है / इस में वैमानिक निकायवत् यहाँ भी ‘मुख तथा भूमि' के द्वारा प्राप्त होती दोनों प्रकार की संख्या बताते हैं / / 369-1. पहले तो पश्चानुपूर्वी पर (अंतिम-४९ वें प्रतर से ऊपर आना वह) भी यह करण ही पूर्वानुपूर्वी के नियमानुसार संख्या जानने के लिए उपयोगी बनता है। . ... 2. साथ ही एक दिशा तथा एक विदिशा इन दोनों की पंक्तिगत संख्याओं को कुल मिलाने के बाद उसे चार की संख्या से गुना करके फिर उस में एक इन्द्रक मिलाने से सर्वत्र प्रतरग्रत आवास संख्या प्राप्त होती है। 3. साथ ही द्वितीय प्रतरों में प्रत्येक प्रतर की मिलती हुई अंक-संख्या में से एक को न्यून (कम) करके मिलनेवाली संख्या को प्रथम प्रतर की संख्या में से कम करने के बाद जो शेष संख्या रहती है वह उस प्रतर पर प्राप्त होती है। 4. इस के अतिरिक्त चौथी रीत से पाँच (5) की संख्या को 'आदि' संज्ञा. 8 की संख्या को 'उत्तर' संज्ञा तथा 49 की संख्या को 'गच्छ' संज्ञा देकर पश्चात् गच्छसंज्ञक तथा उत्तरसंज्ञक संख्याओं को एक साथ गुनने पर आई हुई संख्या में से आदि संज्ञक संख्या कम करने से [ 4948%3D 392-5-389] अंतिम घनसंख्या प्रथम प्रतर पर 389 की प्राप्त होती है। इस प्रकार द्वितीयादि प्रतर पर भी यथायोग्य उपाय हैं। 5. साथ ही पाँचवीं रीति से इष्ट प्रतर की एकदिशि संख्या को आठ गुना करके उनमें से तीन कम करते हुए जो संख्या शेष रहती है उसे आवलिकागत की संख्या समझें / इसके सिवा अनेक करण होते हैं। अधिक जानकारी के लिए 'देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरण' में देखें / Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार . 33 -पढमो मुहमंतिमो हवइ भूमी / मुहभूमिसमासद्धं, पयरगुणं होइ सव्वधणं // 234 // गाथार्थ—प्रथम प्रतरसंख्या को मुख और अंतिम प्रतरसंख्या को भूमि कहा जाता है। दोनों संख्याओं को कुल मिलाकर उस का अर्ध (आधा-आधा) भाग करें, और जो संख्या मिले उस का सर्व प्रतरसंख्या के साथ गुणन करने से सर्वसंख्या प्राप्त होती है / [234] विशेषार्थ-वैमानिकवत् यहाँ भी यह एक ही गाथा समग्र नरकाश्रयी करण बताती है, तथा प्रतिनरकाश्रयी संख्याकरण भी बताती है; क्योंकि मुख तथा भूमि का ग्रहण सातों नरकाश्रयी तथा प्रत्येक नरकाश्रयी भी घटता है / १-समग्र नरकाश्रयी आवासों की संख्या प्राप्त करने का उदाहरण-प्रथम प्रतरवर्ती कुल 389 नरकावासों का समुदाय [पश्चानुपूर्वी प्रथम प्रतर का मुख होने के कारण] मुखसंज्ञक कहते है। और अंतिम प्रतर स्थानवर्ती 5, नरकावासाओं का कुल समुदाय (पश्चानुपूर्वी उसका आरंभ अथवा मूल होने से) भूमि संज्ञक से पहचाना जाता है / . इस मुख तथा भूमि की संख्या को एकसाथ मिलाने से [389+5=]394 संख्या मिलती है, जिसको गाथानुसार अर्ध करने से :197 संख्या बनती है। अब सर्व प्रतरों के आवलिकागत आवासों की कुल संख्या निकालनी है। इसलिए उस संख्या को 49 प्रतरों से गुणित करने से दिशा तथा विदिशावर्ती आवलिकागत [आवलिकाप्रविष्ट] नरकावासों की 9653 संख्या आती है, [अब कुल 84 लाख में से 9653 की संख्या कम करने से] 83,90,347 संख्या जो शेष रही, उसे सातों नरकाश्रयी पुष्पावकीर्ण की संख्या समझें, जिसे अब अगली गाथा में कही जायेगी / इस प्रकार समुच्चयरूप से करण-उपाय चरितार्थ हुआ। [ समुच्चय के लिए दूसरा उपाय यह है कि-४९ प्रतर की एक ही ओर की आवाससंख्या (वैमानिक समयवत् ) इकट्ठी करके चार से गुनने से 49 इन्द्रक आवासों मिलते ही उक्त 9653 की संख्या भी आयेगी / ] २-इष्टनरकाश्रयी आवाससंख्या की प्राप्ति का उदाहरण-अब प्रत्येक नरकाश्रयी . ३७०-इस के अतिरिक्त नरकावास संख्या की प्राप्ति के अन्य करण भी होते हैं, इनमें से कुछ देवेन्द्र-नरकेन्द्र प्रकरण में दिये गये हैं, उन्हें देख लेना। बृ. सं. 5 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 34 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * निकालना हो तो प्रत्येक नरकों के आदिम प्रतर की कुल संख्या को मुख संज्ञक और अंतिम प्रतरवर्ती संख्या को भूमि संज्ञक मान लेना, बाद में उपर्युक्त मतानुसार सर्व / गिनती करने से इष्ट नरक में आवाससंख्या प्राप्त होती है / ___उदाहरण—जिस प्रकार रत्नप्रभा में प्रथम प्रतर पर 389 यह मुख संख्या और. रत्नप्रभा के अंतिम तेरहवें प्रतर की 293 की संख्या यह भूमि है, इन दोनों का समास करने से अथवा मिलाने से 682 की संख्या मिलती है उसका आधा 341, इसे उन्हीं तेरह प्रतरों से गुनने से 4433 की संख्या आती है / इतनी आवलिकागत संख्या प्रथम नरक में समझ लें / इस संख्या को प्रथम नारकी की गाथा 217 में बताई गई 30 लाख नरकावासों की संख्या में से कम करने के बाद जो 29,95,567 की संख्या शेष रहती है इसे पुष्पावकीर्णों की समझें / [दोनों को पुनः मिलाने पर 30 लाख की संख्या मिल जायेगी। इस प्रकार सभी नरक पर दोनों प्रकार की आवाससंख्या सोच लेना / इति प्रतिनरकाश्रयी उदाहरणम् / . // प्रत्येक नरकाश्रयी तथा एकत्र आवलिका प्रविष्ट-पुष्पावकीण आवास संख्याका यंत्र।। नाम प्रतर पंक्तिबद्ध पुष्पावकीर्ण कुलसंख्या सातों नरकाश्रयी / 49 9653/8390347 84 लाख 1 रत्नप्रभा में 13, 4433/ 2995567 30 लाख 2 शर्कराप्रभा में 11 2695/ 2497305 25 लाख 3 वालुकाप्रभा में 1485/ 1498515/ 15 लाख 4 पंकप्रभा में 707 999293 10 लाख 5 धूमप्रभा में ___5 265 299735, 3 लाख 6 तम प्रभा में 42 21, 3 63 99932 99995 7 तमस्तमःप्रभा में सातों नरकाश्रयी मुख भूमि संख्याकरण [वैमानिकवत् | यहाँ पर नहीं दिया गया है लेकिन ग्रन्थ में देख सकते हैं। [दूसरी रीति से भी इसे अगर लाना हो तो प्रत्येक नरक की यथायोग्य प्रतर संख्या को तथा सर्व प्रतर की एक ही ओर (बाजू ) की आवास संख्या को एकत्रित Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * .35 करके, उसे चार की संख्या से गुनकर स्वनरकप्रतर संख्या जितने इन्द्रकावासों को प्रक्षेपने से (फिर से ऊपर से मिलाने से) प्रत्येक नरक में इष्ट संख्या प्राप्त होती है। सामान्य गणित में भी अनेक तरीके मिलते हैं ] [234] // प्रासंगिक आवासों का स्वरूप-परिशिष्ट नं. 7 // विशेष बात-यहाँ ग्रन्थकार ने वृत्त-त्रिकोणादि आवाससंख्या-प्राप्तिकरण, आवलिकाप्रविष्ट अथवा पुष्पावकीर्ण का विमानवत् अंतर-द्वार संख्या-संस्थानादि वर्णन लिखा नहीं है, परन्तु उपयोगी होने से ग्रन्थान्तर से उद्धृत कर नीचे दिया जाता है / . ोण इत्यादि का प्रति प्रतर पर संख्याकरण-सातों नरक में प्रत्येक प्रतर पर वृत्त-त्रिकोण (त्रिभुज) तथा चौकोन नरकावासों की संख्या आपको अगर जाननी हो तो वैमानिकनिकाय में बताया गया वृत्तादिकरण यहाँ योजना / 1. इसका मतलब यह कि यहाँ दिशा तथा विदिशा में पंक्तियाँ होने के कारण एक दिशा की तथा एक विदिशा की इस प्रकार दो पंक्तियों को लें। इसके बाद दोनों की आवास संख्या को तीन भागों में बाँट दें। और ऐसा करने से यदि शेष संख्या एक की बचे तो त्रिकोण में और दो बच जाय तो एक त्रिकोण में और दूसरी चौकोन में मिला दें। बाद में दोनों पंक्तिवर्ती अलग-अलग रूप से वृत्त-त्रिकोण और चौकोन संख्या को इकट्ठी करके उस संख्या का समास करके अर्थात् उन्हें एक साथ मिलाकर उसे चार से गुने [अथवा दिशा- विदिशा की संख्या को प्रथम अलग निकालनी हो तो चार-चार पंक्तियों की भिन्न-भिन्न संख्याओं को चार की संख्या से गुनें / ] जिसके कारण प्रथम प्रतर पर दिशा-विदिशा की एकत्रित हुई [अथवा दिशा-विदिशा की पृथक्-पृथक् ] वृत्तादि आवाससंख्या प्राप्त होती है। उदाहरण के तौर पर रत्नप्रभा की दिशागत पंक्ति की 49 की संख्या को तीन हिस्सों में बाँटने से 16-16-16 और शेष में (आवास) 1 बचता है, उस शेष को त्रिकोण में मिला देने से 17-16-16 संख्या बनती है। अब विदिशागत पंक्ति की कुल 48 की संख्या को तीन हिस्सों में बाँटने पर 16-16-16 संख्या बनती है। अब उस में दिशागत पंक्ति की आयी हुई संख्या को क्रमशः यथासंख्य रूप मिलाने से 33 त्रि०, 32 चौ० तथा 32 वृत्त की संख्या बनती है। अब चारों पंक्तियों की संख्या लाने के लिए उन्हें चार से गुनने से क्रमशः 132 संख्या त्रिकोण की, 128 चौकोन की तथा 128 वृत्ता की आयी। अब वृत्त की 128 की संख्या में इन्द्रकवृत्त होने से मिलाने पर उसकी 129 वृत्त की संख्या प्रथम प्रतर पर आयी। अब इन्हीं तीनों संख्याओं को एकत्रित करने से 389 की आवलिकागत उक्त संख्या आयेगी। इस प्रकार अन्य प्रतर के लिए यन्त्र देखिए / प्रतिनरकस्थानाश्रयी तथा समग्रनरकाश्रयी त्रिकोणादि संख्या लाने का करण वैमानिकवत् सोचें / अन्य भी करण हैं जिन्हें ग्रन्थान्तर से देख सकते हैं। आवलिक-पुष्पावकीर्ण नरकावासों का विशेष वर्णन नरकावास अंतर-आवलिकादि नरकावासों का परस्पर अंतर (वैमानिकवत् ) संख्य-असंख्य योजन संभवित है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .36. * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . प्राकारव्यवस्था-नरकावासों में उत्पन्न होनेवाले नारक पराधीन एवम् परवश होते हैं जो दुःख भोगने के लिए आये हैं। वहाँ कुछ भी अच्छी वस्तु या लंटनेलायक होता ही नहीं है, जिसके कारण नारकों के लिए प्राकारादि की व्यवस्था संभवित ही नहीं है / अतः वहाँ वह व्यवस्था नहीं है। ____ स्वामित्वभेद-वहाँ वैमानिक त्रिकोण, वृत्त, चौकोन में नरकावासों का मालिकी भेद जैसा कुछ भी नहीं है / साथ ही उन में बाँटने योग्य कुछ भी नहीं मिलता है। उच्च चीजों का मालिक सब कोई हो सकता है परन्तु ऐसे अशुभ एवं नरकावासों की आवलिकाओं में मालिक बनने के लिए कौन तैयार होगा ? अर्थात् कोई भी नहीं। ___उपरोपरि ( सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ ) स्थान-वैमानिक निकाय की तरह यहाँ भी वृत्त के ऊपर वृत्त, त्रिकोण के ऊपर त्रिकोण तथा चौकोन के ऊपर चौकोन नरकावासा सर्वत्र है ऐसा समग्र प्रतर में क्रमशः सोच लेना। _____ स्पर्शादिक-ये सभी नरकावासा अशुभ, अति दुर्गंधयुक्त स्पर्श करने के साथ ही महाहानि पहुँचानेवाले, '' अरूचि उपजानेवाले, अनेक मुर्दे इत्यादि की अति निन्द्य तथा दुर्गंध से भरे हुए, प्रकाशादि कुछ भी न होने के कारण और स्वयं अप्रकाशित होने से महा घनघोर अंधकारवाले होते हैं। . ___पुष्पावकीर्णाकार (संस्थान )-प्रत्येक पंक्तियों के आंतरों में बिखरे हुए-अलग-अलग फैलाये हुए. : (पुष्पावकीर्ण ) पुष्पवत् आवास रहे हैं। वे सब लोहयुक्त कोठे के आकार में, शराब के पीठ के आकार में, खाना पकाने के तवे के आकार में, थाली, तापसाश्रम, मृदंग (मुरज ) वाद्य, नन्दीमृदंग, सुघोषा घंटा, मर्दल ( मृदंग से मिलता-जुलता एक प्राचीन बाजा ), भाँडपटह ( ढोल, नगाडा, डुग्गी) भेरी- ढक्का (नगाड़ा, ढोल) झल्लरी (हुडुक-एक बाजा) कुस्तुम्बक इत्यादि विभिन्न आकारवाले होते हैं। इन्हें देखते . ही दर्शक के शरीर में कॅप-कँपी आ जाये ऐसे भयंकर होते हैं। ये सभी नरकावास भीतर से गोल और बाहर से त्रिकोण तथा नीचे से क्षुर प्रशस्त्र के (क्षुर छुरा-उस्तुरा) समान दृश्यवाले है। आवलिकाप्रविष्टावासाकार-आवलिकागत नरकावासविमान खास करके मध्य नरकेन्द्र के आवास की चारों दिशा की पंक्तियों में पहले त्रिकोण, बाद में चौकोन फिर वृत्त, इस प्रकार पुनः त्रिकोण, चौकोन इत्यादि क्रमानुसार पंक्ति के अंत तक आये हुए हैं। लेकिन उन त्रिकोणादि आवासों के पीठ का ऊपरि मध्यभाग ग्रहण करके देखा जाये तो उन आवलिका गत नरकावास पुष्पावकीर्ण आकारवत् भीतर से वृत्ताकार और बाहर से चौकोन और नीचे से घास काटने के नुकीले तीक्ष्णहँसिया जैसे दिखाई देते हैं / प्रत्येक प्रतरवर्ती सभी नरकेन्द्रावास गोल (वृत्त) ही होते हैं. लेकिन त्रिकोणादिक होते नहीं हैं। आवलिकागत नरकावासों के नामों की पहचान प्रत्येक नरक में यथासंख्य उपयुक्त कथनानुसार प्रतरों आये हुए हैं। प्रत्येक प्रतर तीन हजार योजन ऊँचा तथा चौड़ाई में असंख्य योजन लम्बा है। प्रत्येक प्रतर के बीच इन्द्रक नरकावास आये हुए हैं, जिनके आस-पास चारों दिशाओं में तथा चारों विदिशाओं में (अंतिम प्रतर वयं विदिशा), इस प्रकार आठ पंक्तियाँ नरकावासों की निकली हैं (जिनके आकारादिक का स्वरूप इसके पूर्व बताया गया है)। रत्नप्रभा पृथ्वी में आये हुए मध्यवर्ती -- सीमन्तेन्द्रक' आवास की चारों ओर प्रवर्तित दिशावर्ती आवासों में प्रथम पूर्व दिशा के नरकावास का नाम सीमन्तकप्रभ, उत्तर में सीमन्तकमध्य, पश्चिम में सीमन्तावर्त तथा दक्खिन में सीमन्तकावशिष्ट हैं। इसके बाद पूर्व दिशा में से शुरू होती पंक्ति में स्थित Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार . दूसरे से लेकर नरकावासा के नामों इस प्रकार बताते हैं / पहले का नाम है विलय, २-विलारमा, ३-स्तनित, ४-आघात, ५-घातक, ६-कलि, ७-काल, ८-कर्णि, ९-विद्युत, १०-अशनि, ११-इन्द्राशनि, १२-सर्प, १३-विसर्प, १४-मूञ्छित, १५-प्रमूछित, १६-लोमहर्ष. १७-खरपरुष, १८-अग्नि, १९-वेपिता, ( वेपित=कंपित ), २०-उदग्ध, २१-विदग्ध, २२-उद्वेजनक, २३-विजल (निर्जल, सूखा), २४-विमुख, २५-विच्छवि, २६-व्यधज्ञ (भेदनेवाला, चोट करनेवाला), 27- अवलान, २८-प्रभ्रष्ट, २९-रूष्ट ३०विरूष्ट, 31- नष्ट, ३२-विगत, ३३-विनय, ३४-मंडल, ३५-जिह्व, ३६-ज्वरक, ३७-प्रज्वरक, ३८अप्रतिष्ठित, ३९-खंड, ४०-प्रस्फटित, ४१-पापदंड, ४२-पर्पटकपाचक, ४३-घातक, ४४-स्फुटित, ४५काल, ४६-क्षार, ४७-लोल और 48 लोलपाक्ष / अब उत्तरवर्ती पंक्ति के से लेकर सभी नामों को जान लें / उक्त नामों को मध्य पद लगाइए। उदाहरण के तौर पर-विलयमध्य, विलात्मामध्य इत्यादि / साथ ही इन्हीं नामों में मध्यआवर्त शब्द नाम के अन्त में तथा आदि में जोडा (लगाया) जाता है, परन्तु चार-चार आवास के अंतर पर मध्यविलय इस प्रकार मध्य शब्द आदि में पहले लगाया जाता है। और पश्चिमवर्ती पंक्तियों के लिए उन्हीं नामों के साथ 'आवर्त' पद लगाना। जैसे कि विल्यात, विलात्मावर्त आदि। और मध्य आवर्त आदि जो पद लगाये जाते हैं वे प्रारम्भ में ऊपर बताये अनुसार विलयादि नाम के बाद लगाये जाते हैं लेकिन चार-चार आवास के अन्तर पर तो 'मध्य विलय पहले लगाया ही जाता है। चौथी दक्षिण दिशावर्ती पंक्तियों के लिए उक्त नामों को अवशिष्ट पद लगाइए अर्थात् 'विलयावशिष्ट, विलात्मावशिष्ट' इस प्रकार प्रत्येक नरक प्रस्तर पर प्रयोजित करें / इस आवास के देव अशुभ एवं अपवित्र होने से इनके नाम भी ऐसे ही अमंगलकारी तथा अप्रिय हैं। - उत्पत्ति-वेदना-विचार-ये सभी नरकावास गोल (वृत्त) झरोखे जैसे होते हैं, वहाँ उत्पन्न होकर पुष्ट शरीर वाले ये नारको बड़ी कठिनता से इसी मुँह से ( अर्थात नरकावास के द्वार में से ) बाहर निकलकर नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि गवाक्ष ( झरोखे ) के समान होने के कारण भीतर का भाग विस्तीर्ण तो होता है, लेकिन उसका मुँह अति संकीर्ण होता है। अतः कलश में प्रवेश करने वालों को छोटी नाली में से बाहर निकलते समय जैसा कष्ट पडता है वैसा उन्हें भी कष्टदायक लगता है, परन्तु अंत में परमाधामी इन्हें बड़े जोरों के साथ खींचकर जब बहार निकालते हैं / तब वे अति पीडित होकर बाहर निकलते हैं। उनका उत्पत्तिदेश (योनि-जन्मस्थल) हिमालय पर्वत के समान अतिशय शीतल है / इस प्रदेश को छोडकर शेष सारे प्रदेश की जमीन खर के अंगारों के समान अति गर्म और उष्णवेदनामय है, इसी कारण से शीतयोनि में जन्म लेनेवाले सभी नारकों के लिए यह उष्णक्षेत्र अग्नि के समान अधिक कष्टदायक है / अवतरण-अब उस करण की सहायता से प्राप्त समय निकायाश्रयी आवलिकागत और पुप्पावकीर्ण की संख्या को ग्रन्थकार स्वयं ही कहते हैं __ छन्नवइसय तिपन्ना, सत्तसु पुढवीसु आवलीनरया / सेस तिअसीइलक्खा, तिसय सियाला नवइसहसा // 235 // गाथार्थ—पूर्व कथित गाथा में कुछेक करण की सहायता से सातों नरक की कुल Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . मिलाकर 9653 की आवलिकागत नरकावास संख्या प्राप्त होती है / इसलिए 84,00,000 ( 84 लाख ) संख्या में से 9653 की संख्या कम करने से शेष 83,90,347 की संख्या पुष्पावकीर्ण की प्राप्त होती है // 235 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् [235] / // प्रत्येक नरकाश्रयी वृत्त-त्रिकोन-चौकोन नरकावासाओं की संख्या का यंत्र // * सातों की जाति नाम पाँचवीं सातवीं नरक। वृत्त संख्या पहली दूसरी तीसरी चौथी संख्या 1453 875 | 477 1508 2843332 1472 492 | 232 88 20. 03200 तीसरी ,, चौथी ,, सातों नरक की कुल पंक्तिबद्ध संख्या 4433 2695 1485 / 707 265 63 5 9653 अवतरण-इससे पूर्व आवलिक तथा पुष्पावकीर्ण नरकावासों की विभिन्न अवस्था बताने के बाद अब ग्रन्थकार यहाँ पर नरकावासों का प्रमाण कहते हैं तिसहस्सुच्चा सव्वे, संखमसंखिञ्जवित्थडाऽऽयामा / पणयाल लक्ख सीमंतओ अ लक्ख अपइठाणो // 236 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 236 / / विशेषार्थ—सातो नरक पृथ्वी में प्रवर्तित सारे नरकावास [ आवलिकागत और पुष्पावकीर्ण] तीन हज़ार (3000) योजन की ऊँचाईवाले तथा चौड़ाई और लम्बाई में कोई संख्य योजन तो कोई असंख्य योजन ऐसे दोनों प्रकार के हैं। उदाहरण के तौर पर प्रथम नरकातरवर्ती सीमन्त नामक इन्द्रक नरकावास [ ढ़ाई द्वीपप्रमाण ] प्रमाणांगुल से 45 लाख योजन का वृत्ताकार में और सातवी नारकी के मध्य में प्रवर्त्तमान अप्रतिष्ठान नरकावासा भी प्रमाणांगुल से [जंबू द्वीप प्रमाण ] एक लाख योजन का वृत्ताकार में आया हुआ हैं जिसके आसपास महारौरव, महाकाल, रौरव तथा काल-ये चारों असंख्य योजन के बिस्तारवाले नरकावासा आये हुए हैं। इस प्रकार संख्य और असंख्य योजन प्रमाण इन्हीं आवासों का आप समझें। [236] Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // प्रत्येक नारकीयं कृतादिनरकायासाओंका यंत्र || प्रथम रत्नप्रभा नरक। [यंत्रक्रमांक 82] | 1 प्रतर में - 2 प्रतर में | 3 प्रतर में | 4 प्रतरमें. 5 प्रतर में, | 6 प्रतर में 7 प्रतरमें 43-48 48-47 / 47-46 46-45 45-44 44-43 गो. त्रि. यो. गो. त्रि.चौ.गो. त्रि.चौ. गो. त्रि० चौ. जो. नि. चौ. गो. त्रि. चौ० दि.१६-१७-१६ 16-16-16 | 15-16-16 / 65-16-15 / | 15-15-15 | 14-15-25 वि०१६-१६-१६ / 95-16-15 25-15-15 94-95-15 14-15-14 43.42 गो. त्रि. चौ. 14-15-14 14-14-14 +32-33-32 44 4 4 4 4 4 30-32-39 |44 4 4 30-31-30 x4 4 4 25-30-30 | 44 4 4 28-30-23 x4 4 4 28-23-28 44 4 4 1. 123-133-1281125-128-128929.928-124|121-124-120197-120-120/113-120-116 सह- कुन 389 | = फुल 389 | = कुल 313 | = पुल 365] =कुल 357] = कुल 349 | 113-196-112 - कुल 341 * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार . 8 प्रवरमें 3 प्रतर में | 11 प्रतरमें | 12 प्रवरमें | 13 प्रतरम पहली नारफीयो 42-41 | 41-40 / 40.39 33-38 गो. त्रि.चौ. गो. त्रि.चौ. गो. नि. चौ० | गो. त्रि.चौ. गो. नि. चौ० | गो. त्रि. चौ० दि.१४-१४-१४ 13-14-14 | 13-14-13 13-13-13 12-13-13 12-13-12 वि०१३-१४-१४ 13-14-13 / 13-13-13 12-13-13 | 12-13-12 12-12-12 नेरडा प्रतरपुर गोळ.चिौ . 1453-1508-1472 तीनों मिलकर पुन 4433 +27-28-28 | 26-28-27 | 26-27-26 4 4 4 4 | 4 4 4 | 44 4 4 25-26-26 24-26-25 44 4 4 24-25-24 44 4 4 0 109.192-112/105-112-108105-608-104|106-904-104/ 90-104-100/97-100-16 सह % फुल३३३ / कूल 325 | पृल३१७ | =कुल 309 | कुल३०१ = कुन२३३ शेष पुष्पावकीण 2635567 %3 कुल 30 लाख. .39. - Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | दूसरी शर्करा प्रभामें॥ 1 प्रतरमें 2 प्रतरमें 3 प्रतरमे 4 प्रतरमे 5 प्रतरमें प्रतरमे 7 प्रतरमें | दिशा-विदिशाकी 36 35 | 35-34 | 34 33 | 33 32 / 32,31 / 31-30 | 30-29 संख्या उसके गो त्रि. चौगो त्रि चौगो त्रि चौ. गो.त्रि.चौ. गो. त्रि चौ.गो.त्रि.चौ.गो.त्रि.चौ. | तीन भाग करनेसे / दि.|१२-१२-१२|११-१२-१२ | 11-12-11/11-11-11 20. 11-11|10-11-10/10-10-10 वि.|११-१२-१२/११-१२ 11/11-11-19|10-11-11|10-11-10|10-10 -10|8-10-10 | दानाका एकसाथ मिलानसं२३-२४-२४/२२-२४-२३/२२-२३-२२/२१२२-२२/२०-२२-२१|२०-२१-२०१९-२०-२० | चार(सगुन से और Xx4 4 4 4 4 4|44 4 4|44 4 4]x4 4 4|44 4 4|44 4 4 शोलमें एक इन्द्रक 92.96-9688-96 12/88.92-88/84 88-8880-88-84/80-84-8076-80-80 मिलानेसे + +1 +1 +1 +1 +1 +1 +1 13-96-9689-96-928992-8885-88-8881-88-84/81-84-80]99-80-80 प्रति प्रतर पर कुल संख्या कुल 285 कुल 279 कुल 269 कुल 261 कुल 253 कुल २४५]कुल 237 प्रतरखानेकी पहचान 8 प्रतरमें 9 प्रतरमें | 10 प्रतरमें 11 प्रतरमें दूसरे नरकके कुल आवास | दिशा-विदिशाके नरकावासा२९-२८ 28-27 / 20-26 | 26-25 / केतीन भाग करनेसे गो.त्रि.चौ. गो. त्रि चौ. गो त्रि.चौ.गो. त्रि.चौ. दि. 9 10 109-10.1999 / 8, 9.9 वि. |110 99 9 9 9 9 9. / दूसरे नरकम ग्यारह प्रतश्के मिलकर गोल त्रिकोण चौकोन टोनोंको एकसाथ मिलाने से+१८-२०-१९१८-१९-१८१७ 18 1816 १८-१थ 2 |चारसेगुनने से और 9 24 . 896 xx8 xxxxx 4 . | ८०-9819२-७६-७२/६८-9२-७२६४-७२-६८.पक्तिबद्धतीनांका एकाइन्द्रकमिलानसं + I+1 +1 . एक साथ मिलानेसे.२६१५ +1 1 73-80-98|73-76-92/69-72-25-268 पुष्यावकोणशंष- 2499305 / प्रतिप्रतरपर कुल संख्या कुल 221 कुल 22 कुल 213 कूल 205 दोनों मिलकर कुल नरकावास २५लाख * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . 924 . 275 9 x 4 . +1 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृ.सं.६ | 9 / तीसरे वालुका प्रभा जरक में वृत्तादि नरकावासाओंका यंत्र // / 3 4 . 5 . | कुल पतरमें | प्रत्तर में प्रतरमें | प्रतरमें | प्रत्तरमें | प्रत्तरमें | प्रतरमें | प्रत्तरमें प्रतरमें| सरव्या 25-24 | 24-23 | 23-22 /22-21 | 21-20 | 20 -19 | 19 -18 | 18 -17 /17 -16 | गोल - 477 जत्रिकोण -516 | गो.त्रि.चौ. जो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ गो.नि.चौ गो.त्रि.चौ गो.नि.चौ गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ 8-9.88-8- 8 |7-8-87-8-9/0-9-9|6-9-9|6-9-6|6-6-65-6.6 8-8-8/9-8-8/9-8-9/9-9-98-9-9|6-9-66-6-6|5-6-6|5-6.5 कुल.पं.सं. 16-17-16|15-16-1614-16-15/14-15-14|13-14-14 12-14-13 12-13-12|11-12-12|10-12-19| 1485. 44 पुष्यावकीर्ण 4 4 4 4 4 4 4 44. 44 1498515 64-68-64/60-64-64/56-64-6056-60-56/52-56-56/48-56-5248-52-48/44-48-48/40-48-44 कुल +1 +1 +1 +1 / +1 +1 +1 +1 | 15 लारव. ક૬૮-૬૪ ૬૬-૬૪-૬૬૫૭-૬૪-૬૦૫૭-૬૦-પપ૩-૫૬-૫૪૬-પ-પર ઇ-પુર-કકપ-૪૮-૪૮૪૬-૮-કઇ कुल 197 कुल १८९|कुल 181 |कुल १७३|कुल १६५/कुल 157 कुल 149 कुल 141 कुल 133 * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार . Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 42. चाकान // चौथे पंकप्रभा नामक नरक में वृत्तादि नरकावासाओंका यंत्र // चौपंकशामें प्रत्तर | प्रतर | प्रत्तर | प्रतर | प्रतर | प्रतर | प्रतर | कुल 5 6 7 संख्या दिशा-विदिशाके 16-15 |15-14|14-13 |13-12 | 12-11 |11-10 | 10 - 1 | गोल 223 तीन भागकरनेसे त्रिकोण गो:त्रि:चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ.] 252 दि. 5-6-5/5-5-5/4-5-5|4-5-4|4-4-4|3-4-4|3-4-3 | . वि.H 232 |5-5-5/4-5-5/4-5-4|4-4-4|3-4-4|3-4-3|3-3-3 दोनोंका योगफल+ करक चारकी |10-11-10/8-10-10/8-10- 98-9-87-8-86-8-7/6-9-6| पंक्तिबद्ध संख्यासेगुननेसे |xx xx xx x 4 4 909 4 4 44 / 40-44-4036-80-80|32-40-36/32-36-3228-32-32/24-32-2824-28-24). पुष्यावकीर्ण +1 +1 +1 +1 919293 एक इन्द्रक मिलानेसे दोनों मिलकर 41-44-4037-40-40|33-40-36|33-36-32/29-32-3225-32-28/25-28-24|" प्रतिप्रतर पर कूल कुल संख्या कुल 125 कुल 117 |कुल 109 कुल 101 कुल 13 |कुल 85 कुल 99 |10 लारव. श्री बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी भाषांतर * + 8 +1 +1 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक गतिविषयक द्वितीय भवनद्वार . * 43 . 43 // पाँचवें धूमप्रभा नरकके प्रत्येक प्रत्तर में वृत्तादिसंख्याका यंत्र॥ +9 | प्रतश्पर | प्रतर पर | प्रतर पर प्रतरपर | प्रतर पर | कुल संख्या 8-9 | 7.6 6-5 / 5- 4 मोल - 9 गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. | गो.त्रि.चौ. | त्रिकोण- 100 3-3-3 2 -3-3 2 -3-2|2.2-2|1-2-2 चौकोन. 88 2-3-3 2-3-2 2-2- 1-2-21-2-1 पंक्तिबद्ध कुल५-६-६४-६५४-५-४३-४-४२-४-३ __ *265 x4 |44 xxxx xx पुष्पावकीर्ण२०-२४-२४१६-२४-२०१६-२०- 112.16-168-16-12 *299735 +1 +9 | 21-240241-24-2017-20-16/16-16-16|9 -16-12 कुल संख्याकुल 6 कुल- 61 कुछ- 53 कुल- 45 कुल- 37 ३कारव // छठे नमःप्रभा नरक तथा सातवें तमस्तमाः प्रभा नामक -- नरक के प्रत्येक प्रतरमे वृत्तादिसंख्याका यंत्र // छठेत्तमःप्रभा | प्रतर | प्रतर | प्रत्तर | कल सातवे समस्तमः नामक नरकम | 1 | 2 | 3 | संख्या पथम पतरपर रा6 -3 - 3.2. 2-1 | गाल-१५। तीन भागों में "गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. गो.त्रि.चौ. | त्रिकोण-२८ पंक्तिबद्ध |1.2- 11-1- 10-1-1 चौकोन-२०/ दिशागत त्रिकोण बॉरने पर 1.1-10-1-10-1-0 विसान-४ इन्द्रक -1 पुनः मिलानेसे |2-3.21-2-20-2-1 (योगफल) | xxxxxx चारकीसंख्यासेज 8-12- 84-8-80-8-4 गुननेसे +1 | +1 +1 99932%3D नरकावासा इन्द्रक मिलानेपर | 8 - 12-85-8-81-8-4| कुल | नहीं है। प्रतिप्रतर संख्या कुल 29 कुल 21 कुळ-१३ 99995 प्रभा जामकनरक पंक्तिबह 8. पावक पुष्यावकीर्ण Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *44 . श्रीबृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अवतरण-अब नरकावास की तीन हजार योजन की ऊँचाई तथा उसकी व्यवस्था समझाते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि हिट्ठा घणो सहस्स, उप्पि३७१ संकोयओ सहस्सं तु। मज्झे सहस्स झुसिग, तिनि सहस्ससिआ निरया // 237 // [प्र. गा. 58] गाथार्थ-नीचे के हिस्से में एक हजार योजन का ठोस (घनीभूत ) भाग होता है और ऊपर के हिस्से में भी एक हजार योजन का ठोस भाग होता है। सिर्फ ऊपरि भाग ही बाहरी दिखावे में धीरे-धीरे ऊपर जाते शिखर की तरह सकुचित बनता जाता है। और बीच का भाग जो एक हजार योजन का है वह एकदम खोखला होता है। और इसी भाग में ही नरक के जीवादि रहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक नरकावास तीन हजार योजन का होता है। // 237 // . विशेषार्थ-जिस प्रकार मकान की प्लीन्थ होती है उसी प्रकार हरेक 'नरकावास' की भी प्लीन्थ होती है अर्थात् ठोस ( मजबूत ) भाग होता है / यह कितना होता है ? तो वह गाथा में बताये गये मतानुसार एक हजार योजन का होता हैं। इसके बाद नारकी जीवों को जहाँ त्रास, दुःख और वेदना का परमाधामीयों के द्वारा अनुभव होता है वह भाग आता है। वह हिस्सा भी एक हजार योजन का खोखला होता है। परमाधामी लोग नारकी जीवों को 500 योजन ऊँचा उछालकर भयंकर नुकीले भालों पर उठा लेते हैं यह सब इसी हजार योजन के पोले हिस्से में ही बनता है, और उसके बाद नरकावास का ऊपरि हिस्सा भी नीचे की तरह ही बिलकुल पृथ्वीकायरूप ठोस एव घनीभूत ही होता है। यहाँ सिर्फ इतनी विशेषता है कि-उपरि भाग अंत में किसी मंदिर के शिखर की तरह ऊपर की ओर बढ़ता हुआ संकुचित बनता जाता है। इस प्रकार तीन हजार योजन के ये आवास रत्नप्रभा के प्रतरों में आये हुए हैं। इन तीन हजार योजन के नरकावासाओं के बीच में एक हजार योजन के पोले भाग की भीतरी ( अंदर की) भित्तियों में वज्रमय अशुभ वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय शरीर के साथ उत्पन्न होते हैं। यह उत्पत्तिस्थान तो बड़ा होता है, लेकिन उसमें से बाहर निकलने का छिद्र छोटा होता है / इस प्रकार किसी घट (घड़ा) या गवाक्ष (झरोखा) के समान अतिशय सकीर्ण ( सकुचित ) मुखवाले और बड़े पेटवाले आवास 371 पाठां संकुयसहस्समेन ! Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार, . में उत्पन्न होते हैं। इसके बाद वहाँ से बाहर निकलने के लिए तुरंत प्रयत्नशील बनते हैं / लेकिन आवास का मुँह (द्वार ) संकीर्ण होने के कारण वे बड़ी कठिनता से या बड़ी जबरदस्ती के साथ शरीर तो निकाल लेते हैं परन्तु इतने में तो कुचले जाते, दवे जाते, पीडाते ये नारक महाकठिन ऐसे नरक के तलवे पर धड़ाम से गिर पड़ते हैं। इस प्रकार वे स्वयं बाहर आते हैं / लेकिन कई बार नारक अपनी उत्पत्ति के बाद वहाँ से बाहर निकलने के लिए उसी छोटे से छिद्र में मुँह डालकर बाहर का भाग, जो कि पोला है उसे देखते हैं, इतने में वहाँ उपस्थित यमराज जैसे परमाधामी लोग इन्हें चोटी अथवा गरदन एकड़कर से बड़ी जबरदस्ती के साथ बाहर खींचते हैं, लेकिन बदन बड़ा एव मोटा तथा निर्गमन द्वार छोटा एवं संकीर्ण होने के कारण किस प्रकार खिंचकर बाहर आ सकता है ! अतः परमाधामी लोग अपने पैने शस्त्रों से उनके शरीर के टुकड़े कर डालते हैं। उस वक्त नारक असह्य. वेदना का अनुभव करते हैं / इस प्रकार परमाधामी उनके सारे बदन को बाहर निकालते हैं, परन्तु वैक्रिय शरीरी होनेके कारण वे पुद्गल फिर से एक हो जाते हैं और शरीर मूल स्थितिवत् बन जाते हैं। नरकावासाओं के बाहर आनेके बाद भी इन्हीं बेचारे नारकी जीवों को पलभर भी शांति कहाँ प्राप्त होती है ! फिरसे परमाधामीकृत क्षेत्रजन्य या अन्योन्यकृत वेदना एवं पीड़ा सहने का कार्य नारक जीवों में शुरू हो जाता है / इस प्रकार से नरकावासा की ऊंचाई घटानी चाहिए / [237] (प्र. गा. 58) अवतरण-नरकावासों का प्रमाण दर्शाने के बाद ग्रन्थकार अब उक्त पृथ्वीपिंड - स्थान में नरकावास सर्वत्र होते हैं या कुछ ही भागों में होते हैं ? इसके संबंध में बताते हैं / छसु हिट्ठोवरि जोयणसहसं बावन्न सड्ढ चरमाए / पुढवीए नरयरहियं, नरया सेसम्मि सव्वासु // 238 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 238 // विशेषार्थ-प्रारभिक रत्नप्रभादि छ पृथ्वियों में हरेक पृथ्वी के यथायोग्य पिंडप्रमाण में से ऊपर और नीचे के एक हजार योजन पृथ्वीपिंड में नरकावास, नारक या प्रतर कुछ भी होता नहीं है अर्थात् यह ऐसा ही रिक्त सघन पृथ्वीमाग है / लेकिन शेष 1,78,000 योजन के सर्व भागों में नारकोत्पत्ति योग्य नरकावास यथायोग्य स्थान पर (उन-उन प्रतरों में) आये हुए हैं क्योंकि उसी पृथ्वी के बाहल्यानुसार प्रतर का अंतर रहता है इसलिए अगली गाथाओं में जिस-जिस पृथ्वी में प्रतरों का जितना-जितना Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * - अंतर बताया है, उतने-उतने अंतर पर नरकावास स्थान भी समझ लेना चाहिए / ] जब अंतिम पृथ्वी माघवती में ऊपर तथा नीचे दोनों स्थानों से साढ़े बावन हज़ार योजन का क्षेत्र छोड़ना पडेगा, क्योंकि वहाँ नरकावासा होते नहीं है; सिर्फ शेष तीन हजार योजन में ही नरकावास आये हुए हैं क्योंकि वहाँ एक ही प्रतर है / वह प्रतर 3000 योजन की ऊँचाई पर मिलता है, क्योंकि वहाँ नरकावासों की ऊँचाई भी उतनी ही होती है। [238] अवतरण-अब उन पृथ्वीवर्ती प्रतरों का अंतर जानने के उपाय बताते हैं। बिसहस्रणा पुढवी, तिसहसगुणिएहिं निअयपयरेहिं / ऊणा रुखूणणिअपयरभाइआ पत्थडंतरयं // 239 // गाथार्थ-अपने (इष्ट नरक के) प्रतर की संख्या से तीन हजार (पीढा प्रमाण) की संख्या को गुनने से जो संख्या मिलती है उसे दो हजार न्यून ऐसे उस-उस पृथ्वीपिंड में से कम करने पर जो संख्या शेष रहती है उसे एकरूप न्यून प्रतर की संख्या से (क्योंकि प्रतर की संख्या से आंतरा एक संख्या न्यून होता है) भागने से पीढे का अंतर मिलता है // 239 // विशेषार्थ-इस गाथा का उपयोग छः पृथ्वी तक ही हो सकेगा क्योंकि सातवीं पृथ्वी पर तो प्रतर एक ही होने के कारण वहाँ अंतर कहाँ से पैदा हो सकेगा ? इसलिए यहाँ पर छः पृथ्वियों के विषय में क्रमशः कहा जायेगा। अतः यहाँ प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के लिए उदाहरण देकर उपाय बताते हैं / __ उदाहरण-रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी का पिंडबाहल्य एक लाख अस्सी हजार योजन है / उस पिंड प्रमाण को ऊपर से तथा नीचे से एक-एक हजार योजन कम करने पर 1 लाख 78 हजार का पिंड शेष रहता है। अब इसी पृथ्वी की प्रतरसंख्या तेरह की है तथा प्रत्येक प्रतर तीन-तीन हजार योजन ऊचे हैं, अतः सबसे पहले केवल तेरह प्रतरों द्वारा रोके गये क्षेत्रप्रमाण को अलग निकालने के लिए तेरह को तीन हजार से (1343000) गुनने पर 39 हजार योजन तो मात्र प्रतरक्षेत्र ही आया है, अब इसे उक्त 1 लाख 78 हजार योजन के पिंड में से कम करने से 1 लाख 39 हजार का पृथ्वीक्षेत्र तेरह प्रतरों के बीच का अंतर लाने के लिए शेष बचता है। ___अब [चार उँगलियों के आँतरे तीन ही होते हैं वैसे तेरह प्रतर के आँतरे बारह होने से 1 लाख 39 हजार योजन के शेष बचे अंतरक्षेत्र के बारह भाग करने ३७२-पाठां-सगा(निय)पयरेहि, तिसहस्सगुणिएहिं / Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार * पर 11.583 यो. , योजन का प्रत्येक प्रतरवर्ती अंतर मिलता है, जिस बात को ग्रन्थकार अगली गाथाओं में स्पष्ट करते हैं / [ 239] अवतरण-पूर्वगाथाओं में बताये हुए उपायों द्वारा प्राप्त रत्नप्रभादि पृथ्वीगत प्रतरों का अंतरमान अब ग्रन्थकार स्वयं ही बताते हैं / तेसीआ पंच सया, इक्कारस चेव जोयणसहस्सा / रयणाए पत्थडंतर-मेगो च्चिअ जोअणतिभागो // 240 // सत्ताणवइ सयाई, बीयाए पत्थडंतरं होइ / पणसत्तरि तिनि सया, बारस सहसा य तइयाए // 241 // छावट्ठसयं सोलस सहस्स पंकाए दो तिभागा य / अडढाइजसयाई, ‘पणवीस सहस्स धूमाए // 242 // बावन्न सड्ढ सहसा, तमप्पभापत्थडतरं होई / / एगो च्चिअ पत्थडओ, अंतररहियो तमतमाए // 243 // प्रक्षेप गा. 59-62 ] गाथार्थ-१. रत्नप्रभा में निर्धारित केन्द्र से 115831 योजन का अंतर प्रति प्रस्तर होता है। [240] 2. इस प्रकार शर्कराप्रभा के 15 प्रतर के 10 आँतरों में 9700 योजन का अंतर प्रतिप्रस्तर पर मिलता है। 3. वालुकाप्रभा के 9 प्रतर के आठ आँतरों के बीच 12375 योजन का अंतर प्रतिप्रस्तर होता है / [ 241 ] . 4. पंकप्रभा के 7 प्रतरों के छः आँतरों के बीच प्रतिप्रस्तर पर 161663 योजन का अंतर होता है। 5. धूमप्रभा के 5 प्रतरों के चार आँतरों में 25250 योजन का अंतर प्रतिप्रतर मिलता है। [242] 6. इस प्रकार तमःप्रभा के 3 प्रतरों के बीच दो औतरों में 52500 योजन का अंतर प्रतिप्रस्तर पर है। 7. और सातवीं तमस्तमप्रभा अंतर रहित है, क्योंकि वहाँ तो एक ही प्रस्तर होने के कारण अंतर संभवित रहता ही नहीं है / [ 243 ] विशेषार्थ-विशेषार्थ सुगम एवं सरल ही है। इसकी अधिक जानकारी आप को नीचे दिये गये यन्त्र से भी प्राप्त हो सकेगी। [240-243] (क्षेपक गा, 59 से 62 तक) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // हरेक पृथ्वीवर्ती प्रतरों का परस्पर अंतर // पृथ्वीयों के नाम रत्नप्रभा शर्कराप्रभा / वालुकाप्रभा पंकप्रभा / धूमप्रभा - तम प्रभातमस्तमःप्रभा प्रतर संख्या पृथ्वी पिंडमान / 180000 | 13 000 128000 | 120000 118000 116000 108000 दो-दो हजार की कमी करने के बाद 178000 130000 126000 / 198000 24000 106000 श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . पृथ्वीगत सिर्फ सर्व / 39000 | 27000 21000 प्रतरमान कम करने परप्रतरमान पर न्यूनमान / 139000 / 97000 | 99000 / 101000 एक संख्या | बारह से / दस से आठ से छः से चार से . न्यून प्रतर पर | भागने पर | भागने पर | भागने पर भागने पर | भागने पर संख्या से भागने पर / 11583 यो. 9720 यो० | 12375 यो० 161663 यो० | 25250 यो० 105000 भागने पर | नहीं है। 52000 51500 यो० Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नारकों का तीसरा अवगाहना द्वार * .49. नारकों का तीसरा अवगाहना द्वार अवतरण-भवनद्वार कहने के बाद अब ग्रन्थकार नारकों का भवधारणीय तथा उत्तरवैक्रियादि शरीर का अवगाहना स्वरूप तृतीय द्वार शुरु करते हैं, जिसमें सबसे पहले भवधारणीय अवगाहना का प्रत्येक नारकी में ओघ से-समुच्चय तक का वर्णन करते हैं। पउणट्ठधणु छ अंगुल, रयणाए देहमाणमुक्कोसं / सेसासु दुगुण दुगुणं, पणधणुसय जाव चरिमाए // 244 // गाथार्थ-रत्नप्रभा में उत्कृष्ट देहमान पौने आठ धनुष और छः अंगुल समुच्चय होता है और शेष पृथ्वीमें [समुच्चय ] जानने के लिए उसी प्रमाण को दो-गुना दो-गुना करने से यावत् अंतिम पृथ्वी में पाँचसौ धनुष होते हैं / // 244 // विशेषार्थ-भवधारणीय शरीर किसे कहा जाता है ! इसकी व्याख्या तो हमने अपनी पूर्व गाथाओं के प्रसंगमें की है, फिर भी जीवनपर्यंत रहनेवाला स्वाभाविक जो शरीर होता है उसे भवधारणीय (वैक्रियशरीर) समझा जाता है / पहली रत्नप्रभा नरक पृथ्वीमें नारकियों का उत्कृष्ट देहमान पौने आठ धनुष [ 31 हाथ ] और ऊपर छः अंगुल का होता है, और शेष शर्कराप्रभादि में क्रमशः दो-गुनी वृद्धि करनी होनेसे दूसरी नरक में 15 // धनुष और 12 हाथ का, तीसरे नरकमें नारकों का भवधारणीय उत्कृष्ट देहमान 31 / धनुष, चौथे नरकमें 62 // धनुष, पाँचवें नरकमें 125 धनुष, छठे में 250 धनुष तथा सातवें नरकमें 500 धनुष का उत्कृष्ट देहमान है / इस प्रकार पश्चानुपूर्वी से अथवा उलटे क्रम से सातवें नरक से सोचना हो तो भी अर्ध-अर्ध कम करते-करते ऊपर जाने से मी यथोक्तमान आता है / [244] -- अवतरण-इस प्रकार ओघ से दर्शाकर प्रत्येक पृथ्वी के प्रत्येक प्रतर के देहमान को उत्कृष्ट से बताने के इच्छुक ग्रन्थकार प्रथम रत्नप्रभा के ही प्रत्येक प्रतर के लिए कथन करते हैं / रयणाए पढमपयरे, हत्थतियं देहमाणमणुपयरं / छप्पणंगुल सड्ढा, वुड्ढी जा तेरसे पुणं // 245 // गाथार्थ-रत्नप्रभा के प्रथम प्रतर पर तीन हाथ का उत्कृष्ट देहमान होता है / इसके बाद प्रत्येक प्रतर पर क्रमशः साढे छप्पन अंगुल की वृद्धि करें, जिससे तेरहवें प्रतर पर पूर्णमान [7|| धनुष छः अंगुल का ] आ सके // 245 // Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .50. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी भाषांतर . विशेषार्थ-रत्नप्रभा पृथ्वी के तेरह प्रतरमें से पहले प्रतर पर तीन हाथ का . उत्कृष्ट भवधारणीय देहमान होता है, इसके बाद द्वितीयादि प्रतर के लिए प्रथम प्रतर के तीन हाथ में 56 // अंगुल की ( अथवा दो हाथ-८॥ अंगुल) की क्रमशः वृद्धि करने से दूसरे प्रतर पर [3 हाथ + 2 + 8 // अंगुल, 5 हाथ - 8 // अंगुल ] 1 धनुष, 1 हाथ और 8 // अंगुल मिलता है / तीसरे प्रतर पर 1 धनुष, 3 हाथ और 17 अंगुल, चौथे प्रतर पर 2 धनुष, 2 हाथ और 1 // अंगुल, पाँचवें पर 3 धनुष, 10 अंगुल, छठे पर 3 धनुष, 2 हाथ और 18 // अंगुल, सातवें पर 4 धनुष, 1 हाथ और 3 अंगुल, आठवें पर 4 धनुष, 3 हाथ, 11 // अंगुल, नवे पर 5 धनुष, 1 हाथ, 20 अंगुल, दसवे पर 6 धनुष, 4 // अंगुल, ग्यारहवें प्रतर पर 6 धनुष, ..2 हाथ, 13 अंगुल, बारहवें पर 7 धनुष, 21 / / अंगुल तथा अंतिम तेरहवें प्रतर पर 7 धनुष, 3 हाथ और 6 अंगुल देहमान पूर्वोक्त कथनानुसार आता है / [245] ___अवतरण-अव उसी उत्कृष्ट देहमान को शेष शर्करादि सातों पृथ्वी में इस प्रकार बताते हैं / जं देहपमाण उवरि-माए पुढवीए अंतिमे पयरे / तं चिय हिटिम पुढवीए, पढमे पयरम्मि बोद्धव्वं // 246 // तं चेगूणगसगपयर-भइयं बीयाइपयखुड्ढि भवे / तिकर तिअंगुल कर सत्त, अंगुला सद्विगुणवीसं // 247 // पण धणु अंगुल वीसं, पणरस धणु दुनि हत्थ सड्ढा य / बासहि धणुह सड्ढा, पणपुढवीपयरखुड्ढि इमा // 248 // गाथार्थ- ऊपर आई हुई पृथ्वी के अंतिम प्रतर पर जो देह प्रमाण मिलता है वही देह प्रमाण नीचे आयी हुई पृथ्वी के प्रथम प्रतर पर अवश्य जानें / // 246 // इन शर्करादिक छः पृथ्वियों के प्रथम प्रतर के लिए यह उपाय बताया गया है / अव शर्करादिक छहों पृथ्वियों के अन्य प्रतरों के लिए ऐसा करें कि हरेक पृथ्वी में प्राप्त प्रथम प्रतरवर्ती देहमान को अपनी अपनी पृथ्वी में प्राप्त प्रतर की संख्या में से एक की संख्या कम करके भाग दें, भाग देने के बाद जो रकम या संख्या आती है वह उसी पृथ्वी के द्वितीयादि प्रतरों में वृद्धिकारक बनें / ऐसा करते करते अनुक्रम से (शर्करा में वृद्धि अंक) तीन हाथ और तीन अंगुल, तीसरी के लिए 7 हाथ और 19 // अंगुल, चौथी के लिए 5 धनुष, 20 अंगुल, पाँचवीं नरक के लिए 15 धनुष, Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शेष पृथ्वीका प्रत्येक प्रतर पर देहमान 2 // हाथ और छठी नरक में वृद्धिरूप अंक 62 // धनुष / इस प्रकार मध्यकी पाँ) नरक पृथ्वियों में भी इसी वृद्धि अंक के समान ही वृद्धि करें / [ 247-248 ] विशेषार्थ—प्रथम रत्नप्रभा में देहमान तो पूर्व की गाथाओं में बता दिया है, अब 246 वीं गाथाके अर्थानुसार ऊपरि रत्नप्रभाके अंतिम प्रतर पर उत्कृष्ट देहमान 7 धनुष, 3 हाथ और 6 अंगुल होता है जो नीचेकी दूसरी शर्कराप्रभा के प्रथम प्रतर पर होता हैं / २–उसके बाद उसी नरकके द्वितीयादि प्रतरों में जानने के लिए प्रथम उसके अंगुल कर दें / चार हाथ का एक धनुष होने से सात धनुष के 28 हाथ बनते हैं। अब उन में तीन हाथ ओर मिलानेसे 31 हाथ-छः अंगुल हुए / अब फिर से उन्हीं 31 हाथों के अंगुल बना लें [ 24 अंगुल का एक हाथ होने से ] चौबीस से गुनने पर 744 अंगुल आये; जिनमें शेष 6 अंगुल मिलाने से कुल 750 अंगुल देहमान आया / उसी देहमान को शर्कराप्रभा के 11 प्रतर होने से गाथार्थ अनुसार एक न्यून (कम) करके भागना होने से, 10 प्रतर से भागने से 75 अंगुल प्रत्येक प्रतर वृद्धि करने के लिए हरेक के हिस्से में आता है / अर्थात् 75 अंगुल के हाथ करने पर तीन हाथ और तीन अंगुल का वृद्धि अंक आता है। अब इसे प्रारंभ के अथवा पूर्वके देहमान में मिलाने से 8 धनुष 2 हाथ और 9 अंगुल का देहमान शर्कराप्रभा के द्वितीय प्रतर पर आता है / पुनः उसी वृद्धि अंक को उस में मिलाने से तीसरे प्रतर पर 9 धनुष 1 हाथ 12 अंगुल, चौथे पर 10 धनुष 15 अंगुल, पाँचवे पर 10 धनुष 3 हाथ 18 अंगुल, छठे पर 11 धनुष 2 हाथ 21 अंगुल, सातवें पर 12 धनुष 2 हाथ, आठवें पर 13 धनुष 1 हाथ 3 अंगुल, नौवें पर 14 धनुष 6 अंगुल, दसवें पर 14 धनुष 3 हाथ 9 अंगुल और ग्यारहवें पर 15 धनुष 2 हाथ और 12 अंगुल का उत्कृष्ट देहमान आकर रहता है। . ३-अब शर्कराप्रमा के अंतिम प्रतर का 15 धनुष 2 हाथ और 12 अंगुल का मान तीसरी वालुकाप्रभा के प्रथम प्रतर पर मिलता है / दूसरे प्रतर के लिए उसी मान के रत्नप्रभा की तरह अंगुल कर के एक न्यून आठ प्रतर से भागने से गाथार्थ अनुसार सर्व प्रतर के लिए '7 हाथ और 19 // अंगुल का वृद्धि अंक ' आता है / इस अंक को प्रथम प्रतर के उक्त मान में मिलाने से तीसरे नरक के दूसरे प्रतर पर Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 17 धनुष 2 हाथ 7|| अंगुल का उत्कृष्ट देहमान मिलता है / तीसरे प्रतर पर उस वृद्धि अंक को मिलाने से 19 धनुष 2 हाथ 3 अंगुल का, चौथे पर , 21 धनुष 1 हाथ 22 / / अंगुल का, पाँचवें पर 23 धनुष 1 हाथ 18 अंगुल का, छठे पर 25 धनुष 1 हाथ 13 // अंगुल का, सातवे पर 27 धनुष 1 हाथ और 9 अंगुल का, आठवें पर 29 धनुष 1 हाथ 4 // अंगुल का तथा नौवें प्रतर पर उत्कृष्ट भव० मानं 31 धनुष और 1 हाथ का आ जाता है / [ 247 ] ४-अब वालुका के अंतिम प्रतर में जो देहमान मिलता है वही 31 धनुष 1 हाथ का मान चौथी पंकप्रभा के प्रथम प्रतर पर भी जान लें, उसी * मान में से एक कम कर के पंकप्रभा के 6 प्रतरों से भागने से प्रत्येक प्रतर के लिए '5 धनुष और 20 अंगुल का वृद्धि अंक' निकल आता है / अब इस 5 धनुष और 20 अंगुल को प्रथम प्रतर के देहमान में मिलाने से द्वितीय प्रतर पर 36 धनुष 1 हाथ 20 अंगुल का देहमान आ मिलता है / इस प्रकार तीसरे पर 41 धनुष- 2 हाथ 16 अंगुल, चौथे पर 46 धनुष 3 हाथ 12 अंगुल, पाँचवें पर 52 धनुष 8 अंगुल, छठे पर 57 धनुष 1 हाथ 4 अंगुल तथा सातवें प्रतर पर 62 धनुष और 2 हाथ का देहमान जाने / / 5- अब चौथी नरक के अंतिम प्रतर का यह मान पाँचवीं धूमप्रभा के प्रथम प्रतर पर 62 धनुष, 2 हाथ का मिलता है / यहाँ भी उसी प्रकार ही मान में से एक कम ऐसी इस पृथ्वी का चार प्रतर से भाग करने से प्रत्येक प्रतर में '15 धनुष और 2 // हाथ का वृद्धि अंक' आता है / अतः इसी अंकमान को प्रथम प्रतर के मान में मिलाने से दूसरे प्रतर पर 78 धनुष 0 // हाथ (एक वहेत) का, तीसरे प्रतर पर 93 धनुष 3 हाथ, चौथे पर 109 धनुष 1 // हाथ तथा पाँचवे प्रतर पर 125 धनुष का देहमान आता है / ६-यही 125 धनुष का देहमान नीचे की छट्ठी तमःप्रभा पृथ्वी के प्रथम प्रतर पर मिलता है। अब द्वितीयादि प्रतरों के लिए ठीक ऊपर की तरह ही उसी मान में से एक कम कर के उसे दो प्रतर संख्या से भागने से 62 // धनुष का वृद्धि अंक' आकर मिलता है / अब उसे 125. धनुष के अंक में मिलाने से तमःप्रभा के दूसरे प्रतर पर 187 / / धनुष का तथा तीसरे प्रतर पर 250 धनुष का देहमान आ मिलता है. / Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नारकियों के देहमान का उत्कृष्ट या // 3 वालुकाप्रभा में // // सातों नरक के 'प्रत्येक प्रतर में नारकियों के देहमान का उत्कृष्ट यन्त्र // प्रतर धनुष मान- हस्त मान- अंगुल मान 7 // // 1 रत्नप्रभा में // धनुष हस्त अगुल मान- मान-मान ErrMano 22 // 10AGmgana // 4 पंकप्रभा में // 18 // प्रतर धनुष हस्त अंगुल मान- मान- मान | G Mms com ... 3 امہ م س 412 20 0 momso >> |o cm 220 0 57 0 0 21 // // 5 घूमप्रभा में // ml .. // 2 शर्कराप्रभा में // 78 0 धनुष हस्त अगुल मान- मान- मान 0 س // 6 तमःप्रभा में // ع م ه 125 س 187 war move له | 250 سم مع deg mu // 7 तमस्तम प्रभा में // Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ७-अब सातवीं पृथ्वी में एक ही प्रतर होने से वहाँ बँटवारा करने की जरूरत नहीं पड़ती / अतः वहाँ 500 धनुष का उत्कृष्ट भवधारणीय देहमान समझें / 248 ] अवतरण-इस प्रकार प्रत्येक प्रतर पर भवधारणीय शरीर की व्याख्या एवं परिभाषा करके ग्रन्थकार हरेक प्रतरोंमें उत्तरवैक्रिय शरीर का उत्कृष्ट देहमान कहने के साथ साथ शेषार्ध गाथा से पुनः दोनों शरीर का जघन्य रुप देहमान कितना होता है ? यह भी बताते हैं / इअ साहाविय देहो, उत्तरवेउव्विओ य तद्गुणो // दुविहोवि जहन्न कमा, अंगुलअस्संख संखेसो // 249 // गाथार्थ-इस तरह स्वाभाविक - भवधारणीय शरीर का मान बताया / अब प्रत्येक नरक में उत्तरवैक्रिय का शरीरमान जानने के लिए जिस जिस नरक में जो जो भवधारणीय मान बताया है, वहाँ वहाँ उसी मान को दो गुना-दो गुना करने से उसी पृथ्वी के नारकों का उत्तरवैक्रिय देहमान आता है / और दोनों शरीरों का जघन्यमान भी अनुक्रमें अंगुल के असंख्य तथा संख्य भागका होता है। यह जघन्यमान नारक की उत्पत्ति के समय का ही समझें // 249 // विशेषार्थ-उत्तरवैक्रिय अर्थात् मूल वैक्रिय शरीर से, दूसरे वैक्रिय ,शरीरों की रचना वह / ( इस के अधिक अर्थ इस से पहले बताये गए हैं) उत्तरवैक्रिय की यही शक्ति नारकों में तथाविध भवस्वभाव से ही प्राप्त होती है, भवधारणीय वैक्रिय तथा उत्तरवैक्रिय-ये दोनों देह (शरीर) अस्थि इत्यादि की रचना रहित केवल वैक्रिय पुद्गलों से बने होते हैं। इसमें देवोंका उत्तरवैक्रिय शुभ-मनोज्ञ. और उत्तम पुद्गलों से बना हुआ होता है, तव नारकों का अशुभ-अमनोज्ञ और अनुत्तम पुद्गलों का होता है / हालाँ कि वे नारक उत्तरवैक्रिय रचना से भी अधिक सुखद तथा शुभ विकुर्व सके ऐसा चाहते भी है, लेकिन तथाविध प्रतिकूलता अपने कर्मोदय के कारण दुःखद तथा अशुभ होकर सामने आकर खड़ी हो जाती हैं / और रचे हुए उसी उत्तरवैक्रिय को टिकने काल उत्कृष्ट से लेकर अन्तर्मुहूर्त का होता है / पहले नरकमें उत्तरवैक्रिय मान 15 धनुष 2 हाथ और 12 अंगल का, दूसरे नरकमें 31 धनुष 1 हाथ का, तीसरे नरक में 62 धनुष 2 हाथ का, चौथे में 125 धनुष, पांचवें में 250 धनुष का, छठे में 500 धनुष तथा सातवें में 1000 धनुष का होता है / Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नारकोंका उपपात तथा च्यवन सम्बन्ध समज . .55 . * सर्व नारकों की भवधारणीय शरीरकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग की होती है, क्योंकि उत्पत्ति के समय उतनी ही होती है और उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना अंगल के संख्यातवें भाग की होती है। इस अवगाहना को भी उत्पत्ति के समय की ही समझें। परंतु इसके बाद उस में वृद्धि होती ही जाती है / लेकिन कुछेक आचार्य उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना भी असंख्यातवें भाग की बताते है यह ठीक नहीं है, ऐसा श्री चन्द्रिया टीका में कहा है। क्योंकि इस का विरोध 'आगम' से ही होता आया है / [ 249] __ - इति अवगाहना द्वारम // चौथा उपपात और पाँचवाँ च्यवनविरह द्वार अवतरण-इस प्रकार तृतीय द्वार समाप्त हुआ / अब देववत् नारकों का चौथा उपपातविरह तथा पाँचवाँ च्यवनविरह द्वार बताते हैं / सत्तसु चउवीस मुहू, सग पनर दिणेगदुचउछम्मासा / उववाय-चवणविरहो, ओहे बारस मुहूत्त गुरू // 250 // लहुओ दुहाऽवि समओ-२५० // . विशेषार्थ-उपपात विरह अर्थात् एक जीव की ( नरकमें ) उत्पत्ति के बाद दूसरा जीव उत्पन्न होने में जो विलंब या अंतर रहता है तो कितना रहता है ! वह / अथवा एक जीव की ( नरक में ) उत्पत्ति के बाद दूसरे जीव की उत्पत्ति के बीच का जो अंतरमान रहता है उसे 'उपपातविरह ' कहा जाता है / और च्यवनविरह अर्थात् एक जीव का वहाँ से च्यवन होने के बाद, दूसरा पुनः कितना समय यावत् च्यवता नहीं है, यह / [ इस की अधिक जानकारी देव द्वार प्रसंग में दी गई है।] _सातों पृथ्वी में अनुक्रम से उपपातविरह तथा च्यवनविरह समान होने के कारण दोनों द्वार को बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि पहली रत्नप्रभा पृथ्वी में एक जीव उत्पन्न होने के बाद दूसरा जीव उत्पन्न होने में अथवा एक जीव का च्यवन होने के बाद दूसरा जीव च्यवने में, 24 मुहूर्त का उत्कृष्ट से विरह-अंतर रहता है ( उस के बाद कोई नया उत्पन्न होता है अथवा च्यवता है ही / ) इस प्रकार दूसरे नरक में 7 दिन .३७३-अनुयोग द्वार की हारिभद्रीय टीका में बताया है कि-तथाविध प्रयत्न होने पर भी नारकों की अंगुल के संख्येय भाग की ही उत्तरवैक्रिय स्थिति रहती है। . Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 56 . ........ श्री बृहत्सग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * का, तीसरे नरक में 15 दिन का, चौथे में 1 मास का, पाँचवें में 2 मास का,, छठे में 4 मास का तथा सातवें नरक में 6 मास का विरह-अन्तरमान रहता है / अतः अपना-अपना समय-काल पूर्ण होते ही अपनी-अपनी पृथ्वी में अवश्य ही कोई दूसरा जीव उत्पन्न होता है अथवा च्यवता मी है / सिर्फ इतना ही नहीं लेकिन प्रत्येक नरक में जघन्य उपपात-च्यवनविरह एक ही समय का रहता है / इन्हीं नारकों में सातवें नरक को छोड़कर शेष नरकों में प्रायः नारको सतत उत्पन्न होते ही रहते हैं तथा च्यवते ही रहते है / कभी कभी ही पूर्वोक्त विरह-अन्तर पडता है / तथापि " लहुओ दुहावि" इस पद के अनुसार (सातों पृथ्वियों में आये हुए) भी सातों नरक में जघन्य विरहमान ओघ-सामान्य से एक समय का रहता है और उत्कृष्ट से ओघ-सामान्यतः बारह मुहूर्त का रहता है / - इति चतुर्थ-पञ्चम उपपात-च्यवन विरह द्वारम् // [2501] // छट्ठा तथा सातवाँ एक समयगत उपपात-व्यवन संख्याहार // अवतरण-अब छट्ठा 'उपपातसंख्या' तथा सातवाँ 'च्यवनसंख्या' नामक द्वार कहते हैं / संखा पुण सुरसमा मुणेअव्वा // 250 // विशेषार्थ-नरक में उत्पन्न होनेवाले तथा च्यवनेवाले जीवों की एक समय में कितनी संख्या होती है ? तो इस के उत्तर में अनुक्रमसे उपपात-च्यवन संख्या देवों के समान ही जानें / ___ अर्थात् एक ही समय में नारकों नरक में जघन्य से एक-दो-तीन यावत् उत्कृष्ट संख्य, असंख्य तक उत्पन्न हो सकते हैं तथा एक-दो यावत् संख्य-असंख्य तक च्यवी भी सकते हैं / देवों के लिए भी ऐसा ही कहा गया है / [ 2503 ] नरकाधिकार में आठवाँ गतिहार अवतरण-अब कौन-कौन से जीव नरक में जाते हैं, उन्हें इसी आठवें गतिद्वार में बताते हैं। संखाउपजत्तपणिदितिरिनरा जंति नरएसु // 251 // ... विशेषार्थ-संख्याता वर्ष की आयुवाले पर्याप्ता पंचेन्द्रिय तिर्यचो तथा मनुष्यों नरक में उत्पन्न होते हैं / इस से यह स्पष्ट होता है कि असंख्य वर्षायुषी युगलिको ने Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भिन्न भिन्न कारणाश्रयी से होती हुई गति * अतिक्रूर अध्यवसाय ने दयालु होने के कारण नरक योग्य कर्म बंद होता नहीं है, अतः वे नरक में उत्पन्न होते नहीं है / तिर्यंचों में से भी सिर्फ पंचेन्द्रिय लिए गये हैं / अतः यहाँ एकेन्द्रियादि चार का निषेध हुआ है / पंचेन्द्रियों में भी देव-नारकी नहीं, क्योंकि देव मरकर नरक में नहीं जाते हैं तथा नारकी भी मरकर पुनः नरक में नहीं जाते हैं, इसलिए / लेकिन तथाविध रौद्राधिकअतिकर अध्यवसायादिक से नरक आयुष्य के बंध हेतु उत्पन्न होने से, इन्हीं से ही उनका आयुष्यबंध होने के कारण वे वहाँ जाते हैं / वे बिना कारण, या बिना बंधन उत्पन्न होते नहीं है / अतः नरक गमन में मनोयोग की प्राधान्यता रहती है / इस के उपरांत महारंभी, महापरिग्रही जीव भी नरकमें जाते हैं / इस में भी अध्यवसाय की जितनी मलिनता होती है, उतना निम्न कोटि के नरकों में जाना पडता है / यही बात अब बादकी क्षेपक गाथाओं में बतायी जायेगी। [ 251 ] ___ अवतरण-कौन-से जीव नरकायुष्यको बाँधते है-उसी अध्यवसायाश्रयी गति अब बताते हैं / मिच्छद्दिट्ठि महारंभ-परिग्गहो तिव्वकोह निस्सीलो / नरयाउअं निबंधइ, पावरुई [मई ] रुद्दपरिणामो // 252 // [प्रक्षेपक गाथा-६३] गाथार्थ-विशेषार्थ के अनुसार- // 252 // विशेषार्थ-मिथ्यात्वी-'मिथ्यादृष्टि' अर्थात् जिनेश्वरकथित तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा करनेवाला, शुद्धमार्ग की अरुचिवाला और उसी कारण महापाप की प्रवृत्ति में आसक्त रहनेवाला और अनेक अधर्मबहुल प्रवृत्तिओं का वह उपासक होता हैगोशालादिक की तरह / महारंभी–महापाप के आरंभ-समारोह का करनेवाला, अनेक जीवों की हानि जिस में रही हो ऐसे दुष्ट-भयंकर धंधे-रोजगार आदि कार्यों का आरंभ करनेवालाकोलसौकरीकादि चंडालवत् / ३७४–गोशालो-प्रभु महावीर को महान पीडा देनेवाला, स्वमत स्थापित करके स्वयं खोटा सर्वज्ञ बनकर भगवान को इन्द्रजालिक कहनेवाला, -जिसकी कथा प्रसिद्ध है / / ३७५-यह महाचंडाल श्री महावीर प्रभु के समय में हुआ है, जो हमेशा 500 भैंसे को मारता था / बड़ी बड़ी मिलें, कारखाने, जंगल के व्यापारी, मटन के व्यापारी-ये सब महारंभी की कोटि में गिने जाते हैं। __ . सं. 8 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *58 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * महापरिग्रही-विपुल धन-कंचन-स्त्रियाँ आदि महान परिग्रह के रखनेवाले / इन में मम्मण सेठ, वासुदेव, वसुदेवादि मंडलिक राजा, सुंभम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्त्यादिक समझ लेना / तीवक्रोधी-तीव्र- महान क्रोध के करनेवाले बात बात में लडनेवाले दुर्वासा. जैसे अत्यंत क्रोधी पुरुष तथा व्याघ्र सर्वादिक पशु / निःशील-किसी भी प्रकार के व्रत-नियम रहित, चारित्रहीन तथा शील चारित्रब्रह्मचर्यादिक से रहित अर्थात् परस्त्री लंपटादि हों, अनेक परनारियों के पवित्र शील को लूटनेवाले हों / वेश्या जैसी स्त्रियों का तथा उनके यहाँ गमन करनेवाले पुरुष आदि प्रमुखों का इस में समावेश हो सके / पापरुची-पाप की ही रुचिवाला हो, पुण्य के कार्यों में जिसे प्रेम ही न होता हो, पुण्य कार्य को देखकर जो जलता हो, जिसे धर्म के कार्य देखने या सुनने भी पसंद न हों, जहाँ तहाँ पाप के ही कार्य करने में मशगूल हों ऐसे निठल्ले बहुत से लोग होते हैं, इस में उदाहरण देने की जरुरत नहीं है, असंख्य लोग देखने को मिलते हैं। रौद्रपरिणामी–रौद्र अर्थात् महा भयंकर परिणामी / अंतर में हिंसानुबंधी आदि रौद्रध्यान चलता ही हो / इन में छिपकली-बिल्ली-तंदुलीय मत्स्यादिक प्राणी तथा मनुष्य, जिन की सारा दिन अशुभ विचारधाराएँ ही चलती हों, अनेकों का अहित ही करते हों, घोर प्राणीवध तथा मांसाहारादिक करनेवाले हों ऐसों को गिने जा सकते हैं / ऐसे जीव अशुभ परिणति के योग से अतिक्रूर-दुर्ध्यान में प्रविष्ट' होकर, नरकायुष्य को बांधते हैं और नरक में उत्पन्न होते हैं / दुःखी दुःखी होकर कष्ट में मरते हैं / अहोनिश दुःख में डूबे नारकों को ( अमुक काल छोडकर ) नरक में निमिषमात्र भी सुख का समय नहीं है / दुःख के परंपरा की श्रेणी सतत चालू ही होती है / तो फिर सुख कब होता है ! 1 उववाएण व सायं, नेरइयो 2 देवकम्मुणा वावि 3 अज्झवसाण मिमित्तं अहवा 4 कम्माणुभावेणं // 1 // मात्र कदाचित् नीचे वताए जन्मकाल आदि प्रसंग में कुछ सुख होता है लेकिन वह स्वरुप मात्र और स्वल्पकाल टिकनेवाला होता है। 376 सुभूम चक्रवर्ती परिग्रहकी प्रमाणातीत आसक्ति से छः खंड के ऊपरांत सातवाँ खंड साधने का प्रयत्न करने पर मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ है, जो कथानक प्रसिद्ध है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भिन्न भिन्न कारणाश्रयी से होती हुई गति * . जिस जीवने पूर्वभवमें अग्निस्नान ( जल मरना) किया हो अथवा उसका किसीने खून किया हो, छेद किया हो ऐसे जीव नरकायुप्य पाकर कुछ कम संक्लिष्ट परिणाम स्वरूप उत्पन्न होते हैं। ऐसे जीवों को उपपात समय पर जन्मान्तर से प्राप्त अशाताकर्म उदय प्राप्त नहीं करता, साथ ही उस समय क्षेत्रकृत, परमाधामिक कृत या अन्योन्यकृत अशाता भी विद्यमान नहीं होती अतः उस समय शाताका अनुभव करते हैं। दूसरा, किसी मित्रदेवकी सहाय से, जैसे नरक में दुःखी होते कृष्ण को देवलोक में गए हुए बलरामने देखकर पूर्व के प्रेमवश उनकी पीडा का शमन किया था, उसी तरह कोई मित्रदेव पीडा का शमन करके शाता समर्पित करता है, किन्तु पीडा में मिली यह शान्ति अल्पकालीन ही होती है, अधिक समय नहीं टिकती; क्यों कि ये देव अति बीभत्स तथा अशुभ स्थान में अधिक समय नहीं टिकते। शाता पूर्ण होने पर तत्रवर्ती पीडाओंका पुनः प्रादुर्भाव होता है। तीसरा, कुछ हलुकर्मी नारक तथाविध शुभ निमित्त को प्राप्त करके जब सम्यक्त्व पाते हैं तब उन्हें, पूर्वभव में क्षायिक सम्यक्त्वादि विशिष्ट गुण को साथ में लेकर आए हों, इनको जिनेश्वरदेव आदि विशिष्ट पुरुषों के गुणों की अनुमोदनासे शुभअध्यवसाय होनेसे, महानुभाव जिनेश्वरदेवके जन्म, दीक्षादिक पांचों कल्याणकों के प्रसंग में, और साताकर्म के उदय से भी ये नारक जातिअंधको चक्षु मिलने से जैसा सुख प्राप्त हो, वैसा सुख स्वल्पकाल पाते है। इतना ही नहीं लेकिन साथ ही कोई कोई उत्तम नरकजीव सम्यक्त्व प्राप्त होने के वाद, पाप का पश्चात्ताप करके अध्यवसाय की विशुद्धि में बढते तीर्थकरनामकर्म भी उपार्जन करते हैं। सचमुच आत्मा की शुभाशुभ भावना की ही बलिहारी है। [252 ] (प्रक्षेपक गाथा 63) अवतरण-अलग अलग जीवों के अध्यवसाय की विचित्रता से होती गति का नियमन बताते हैं। '. असन्नि सरिसिव-पक्खी-सीह-उरगित्थि जंति जा छट्ठी। कमसो उक्कोसेण, सत्तम पुढवीं मणुअ-मच्छा // 253 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 253 // ... विशेषार्थ-असंज्ञी ( मन रहित ) समूच्छिम (गर्भधारण किये बिना उत्पन्न होते) / / 13 / / Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . पंचेन्द्रिय तिर्यच नरक के योग्य अध्यवसाय को प्राप्त करके नरक में जाए तो अवश्य पहले ही नरक में जाए, उससे आगे आनेवाले नरक में जाते ही नहीं हैं। उस में भी वहाँ वे उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग के आयुष्य को लेकर अथवा जघन्य से दस हजार वर्ष के आयुष्य को लेकर उत्पन्न होते हैं। पहले नरक में और साथ ही न्यून आयुष्य लेकर उत्पन्न होते, होने से उन्हें पूर्वभव में नरकायुष्य के बन्ध के समय अधिक क्रूर अध्यवसाय होते नहीं हैं अतः ही वे अल्प दुःख के स्थानक में उत्पन्न होते हैं। इतनी विशेषता है। __दूसरे गर्भज भुजपरिसर्प वे चंदनगोह, पाटलागोह नेवला आदि प्रमुख जीव, गर्भावास में मृत्यु को पाते शायद नरक में अगर जाए तो यावत् दूसरे नरक तक ( अर्थात् . कोई पहले में, कोई संक्लिष्ट अध्यवसायी दूसरे में इस तरह दोनों में जा सकते हैं। गीध, बाज आदि मांसाहारी गर्भज पक्षी पहले से लेकर यावत् तीन नरक तक जा सकते हैं। सिंह, चीता व्याघ्र इत्यादि हिंसक गर्भज चतुष्पद पहले से लेकर यावत् चौथे नरक तक जा सकते हैं। उरपरिसर्प अर्थात् पेट से चलनेवाले हरएक जाति के आसीविषदृष्टि विषादिक सर्पकी गर्भज जातियाँ लें, ये यावत् पाँचवें नरक तक जा सकते हैं। ___ महारंभी और अत्यंत कामातुर ऐसा चक्रवर्तीका स्त्रीरत्न आदि स्त्रियां पहले से यावत् छठे नरक तक ही जाती हैं। ___ महापाप का आचरण करनेवाले, महारंभ, महापरिग्रह युक्त गर्भज मनुष्य और गर्भज ऐसे तंदुलमत्स्यादिक जलचर जीव अति क्रूर-रौद्र अध्यवसाय को प्राप्त होते उत्कृष्ट से सातवें नरक तक भी जाते हैं। इस तरह उत्कृष्ट गति कही। जघन्य से वे रत्नप्रभा के प्रथम प्रतर में उत्पन्न होते हैं, और मध्यम गति सोचें तो जिन के लिए जिस जिस नरकगति का नियमन बताया उससे पूर्व और रत्नप्रभाके प्रथम प्रतर से आगे किसी भी प्रतर में उत्पन्न हो यह समझना। [253 ] अवतरण-प्रायः नरक से आए पुनः नरकगति योग्य जीव कौन हों? यह कहते हैं। 377- समूर्छिम मनुष्य तो अपर्याप्तावस्थामें ही मृत्यु पाते होने से उन्हें नरकगति का अभाव होने से 'असन्नि' पदसे मात्र तिर्यंच ही अपेक्षित हैं। 378 पापिनी स्त्री चाहे जितने कुकर्म करे परंतु जातिस्वभाव से पुरुष को जो सातवें नारकी प्रायोग्य अध्यवसाय प्राप्त होते हैं वैसे तो उसे होते ही नहीं हैं जिससे 'स्त्री की अपेक्षा पुरुष. का मन अधिक संक्लिष्ट हो सकता है' यह सिद्ध होता है। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अध्यवसाय की विचित्रता से होती हुई गति * / 61. वाला दाढी पक्खी, जलयर नरयाऽऽगया उ अइकूरा / जति पुणो नरएK, बाहुल्लेणं न उण नियमो // 254 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 254 // विशेषार्थ-क्रोध से भरे, अनेक की हानि करनेवाले व्याल अर्थात् सर्प-अजगर आदि जीव, दाढवाले ये व्याघ्र-सिंहादिक हिंसक जीव, गीध-चील आदि मांसाहारी पक्षी, मत्स्यादि जलचर जीव; -नरकगति में से आए होने पर भी, पुनः हिंसक प्रवृत्ति से अति क्रूर अध्यवसाय उत्पन्न होने के कारण नरकायुष्यका बन्ध करके नरक में यथायोग्यता से उत्पन्न होते हैं; परंतु इसका कोई निश्चित नियम नहीं है। मगर प्रायः पुनः नरक में जाते हैं। साथ ही कोई जीव तथाविधजातिस्मरणादिक के निमित्त को पाकर सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त करके सद्गति को भी पाता है। [ 254 ] उपपातविरह // सातों नरक में च्यवनविरह-उपपातसंख्या-च्यवनसंख्या और उनके . गतिद्वार विषयक यन्त्र - ज० उ० नरकनाम उत्कृष्ट ज०उ०उप० / गतिद्वार-जाति-संघयणाश्रयि विरह उ०च्य०वि० च्य० सं० गति का नियमन 1 रत्नप्रभा में 1 समय 24 मुहूर्त | जघन्यसे | अ०समु०५०प० तिर्यंचो पहले ही... एक दो -नरक में छेवट्टा सं. वाला आवे 2 शर्कराप्रभा में 7 दिवस यावत् भुजपरिसर्प दो नरक तक.... उत्कृष्टसे ___-छेवट्टा सं.. वाला आवे 3 वालुकाप्रभा में संख्य पक्षी-खेचर....तीन नरक तक.... असंख्य ___ कीलिका संघयणवाला 4 पंकप्रभा में 1 मास उपपात सिंहादि चौपाये....चार नरक तक च्यवनसंख्या -अर्द्धनाराचवाला 5 धूमप्रभा में 2 मास हो सकती है। उरपरिसर्प....पांच नरक तक - नाराचवाला 6 तमःप्रभा में 4 मास सातों नरकमें स्त्री आदि....छः नरक तक ऋषभनाराचवाला 7 तमस्तमप्रभा में 6 मास [ देववत् ]] मनुष्य-मच्छो ....सात नरक तक वज्रऋषभना० वाला सातों नरकाश्रयी ओघ से' उत्कृष्ट उपपात-च्यवनविरह 12 मुहूर्त और ज०से 1 समय जानें 5 दिवस Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . __अवतरण-अध्यवसायाश्रयी गति कहकर अब संघयणाश्रयी गति को कहते हैं साथ ही नरक में कितनी लेश्या हो? यह भी बताते हैं। दो पढमपुढवीगमण, छेवढे कीलि आइ संघयणे / इकिक्क पुढविवुड़ ढी, आइतिलेसा उ नरएसु // 255 // गाथार्थ-छेवट्ट संघयणवाला पहली दो पृथ्वी तक गमन करता है, बाद के कीलिकादि संघयण में एक एक पृथ्वी की वृद्धि करें / प्रथम के तीन नरक में आदि तीन लेश्याएँ होती हैं। / / 255 // विशेषार्थ-छेवढ अथवा तो सेवा संघयण के बलवाले जीवों का पहले और दूसरे. इन दो 375 नरकों में गमन हो सकता है। कीलिका संघयणवाले का पहले से लेकर तीसरे तक, अर्धनाराचसंघयणवाले का यावत् चौथे तक, नाराचसंघयणवाले यावत् पाँचवें तक, ऋषभनाराचसंघयणवाले यावत् छठे तक और वज्रऋषभनाराच संघयणवाले यावत् सातवें नरक तक भी जाते हैं। __उक्त संघयणवाले शुभ प्रवृत्ति करनेवाले हाँ तो, शुभ अध्यवसायके योग से उत्तरोत्तर देवादिक उत्तम गति को भी प्राप्त करें और प्रथम संघयणवाले तो उत्कृष्ट आराधना के योग से मोक्ष में भी चले जाएँ, जबकि वे ही अगर अशुभ प्रवृत्ति करें, तो उत्तरोत्तर अशुभस्थान को पाते ही प्रथम संघयणवाले भवांतर में सातवें नरक में भी जाने के योग्य बनते हैं। यह तो संघयण द्वारा नरकगति आश्रयी उत्कृष्ट गति कही। ___अब जघन्य से तो, सारे संघयणवाले, मन्द अध्यवसाय के योग से रत्नप्रभा के प्रथम प्रतर में उत्पन्न होते हैं और मध्यम अध्यवसायवाले जघन्य से आगे और उत्कृष्ट उपपात से अर्वाक् (पहले अर्थात् मध्य में ) उत्पन्न होते हैं। सातों नरक में समुच्चयमें प्रथम की कृष्ण-नील-कापोत ये तीन अशुभ लेश्या होती हैं, क्योंकि वे महादुर्भागी जीवों महामलिन अध्यवसायवाले होते हैं। [ 255] अवतरण-अब वे तीन लेश्याएँ कहाँ ? किन्हें ? कौन कौनसी लेश्याएँ होती हैं यह बताते हैं। दुसु काऊ तइयाए, काऊ नीला य नील पंकाए। धूमाए नीलकिण्हा, दुसु किण्हा हुंति लेसा उ // 256 // 379 वर्तमान में छेवडा संघयण का मन्दबल होने से अध्यवसाय मी अति क्रूर न होने से. मुख्यतया मन्दानुभाववाले होने से वर्तमान जीव ज्यादा से ज्यादा दो नरक तक जाते हैं। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सातों नारकों में लेश्या का विभाग . गाथार्थ-विशेषार्थ अनुसार। विशेषार्थ-लेश्या किसे कहते हैं ? उसका विशेष स्वरूप अगर कि बहुत गहन है, तथापि किंचित् स्वरूप देवद्वार में दिया है अतः यहाँ अधिक लिखना मुलतवी रखा है। पहले दो नरक में एक कापोतलेश्या होती है परन्तु पहले में जितनी मलिन रूपमें होती है, उससे भी अधिक मलिन दूसरी शर्करप्रभा के जीवों में वर्तित होती है, तीसरी वालुकाप्रभा में कापोत और नील ये दो लेश्याएँ होती हैं। [ इनमें जिनका साधिक तीन पत्योपमका आयुष्य है उन्हें कापोत और उससे अधिकवालोंको नील होती है ] चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में एक नीललेश्या ही होती है, पांचवीं धमप्रभा में नील और कृष्ण ये दो लेश्याएँ होती हैं। [ परन्तु उस नरक में जिन का साधिक दस पल्योपम का आयुष्य हो उन्हें नील और उनसे अधिकायुषी जीवों के कृष्ण लेश्या होती है। और अन्तिम तमः और तमस्तमःप्रभा इन दोनों नरकों में एक कृष्णलेश्या ही होती है। परन्तु पाँचवें से छठे की कृष्णलेश्या अति मलिन और उससे भी सातवें में तो केवल तीव्रतर संक्लिष्ट-मलिन होती है। [256 ] अवतरण-देव, नारकों के द्रव्यलेश्या का अवस्थितपन फिर भी भावलेश्या का जो बदलपन होता है वह इस गाथा द्वारा ग्रन्थकार महर्षि बताते हैं : सुरनारयाण ताओ, दव्वलेसा अवडिआ भणिया। . भावपरावत्तीए, पुण एसिं हंति छल्लेसा // 257 // - गाथार्थ—सुर और नारकों की द्रव्यलेश्या अवस्थित कही है, साथ ही भावना परावर्तनपने से उनके छः लेश्याएँ कही हैं। [ 257 ] ' विशेषार्थ—पूर्वगाथा में प्रथम दो नारकी में कापोतलेश्या, तीसरी में कापोत तथा नीललेश्या इस तरह यावत् सातवी नारकी में केवल कृष्णलेश्या बताई हैं / देवों के वर्णन प्रसंग में भी ‘भवणवणपढमचउले सजोइसकप्पदुगे तेऊ ' इत्यादि गाथा से अमुक देवों के अमुक लेश्याएँ होती हैं ऐसा कहा है। देव और नारकों के कही लेश्याएँ अवस्थित हैं, अर्थात् जिन देवों के तथा जिन नारक जीवोंके जो जो लेश्याएँ कही हैं, वे लेश्याएँ अपने उपपात-जन्म से आयुष्य समाप्ति यर्यंत (तथा दो अन्तर्मुहूर्त अधिक) तक रहनेवाली होती हैं। उन लेश्याओं में मनुष्य तथा तिर्यंचों की लेश्या की तरह परावर्तन नहीं होता। शंका-जब देवों के तथा. नारकजीवों के ऊपर बताये अनुसार अवस्थित लेश्याएँ होती हैं तो फिर सातवीं नारकी में भी सम्यक्त्व की प्राप्ति कही है वह किस तरह Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * संभवित है ? क्योंकि ऊपर के कथन के अनुसार सातवीं नरक में वर्तित नरक जीवों के सदाकाल कृष्णलेश्या ही होती हैं और सम्यक्त्व की प्राप्ति तो तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या हो तो ही संभवित हो सकती है। साथ ही देवों में संगमाधिक अधम देवों के सदाकाल तेजोलेश्या होने पर भी जगज्जंतु के उद्धारक परमात्मा महावीरदेव के. समान संसारोदधिनिर्यामक को छः छः महीने तक भयंकर उपसर्ग करने के फलरूप कृष्णलेश्या के परिणाम हुए वह भी किस तरह संभवित हो ? कृष्णलेश्या के सिवाय परमात्माको उपद्रव-उपसर्ग करने के परिणाम होते ही नहीं। समाधान-ऊपर की शंका वास्तविक है और उस शंका के समाधान के लिए ही यह 'सुरनारयाण ताओ' इत्यादि पदवाली गाथा को रचने की ग्रन्थकार महर्षि को जरूरत्त दीखी है। कहने का आशय यह है कि-लेश्या दो प्रकार की है। एक द्रव्यलेश्या और दूसरी भावलेश्या। इनमें देवों के तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या तथा नारकजीवों के कापोत नील और कृष्णलेश्या जो अवस्थितपन से रहनेवाली कही हैं वे द्रव्यलेश्या की अपेक्षासे कही हैं, परंतु भावलेश्या की अपेक्षा से नहीं। भावलेश्या की अपेक्षा से तो देवों के और नारकों के उन अवस्थित द्रव्यलेश्याओं के साथ छहों भावलेश्याएँ होसकती हैं। शंका-देव, नारकों को भी मनुष्य-तिर्यचों की तरह भावलेश्याएँ छहों होने का बताया जाता है। इस तरह भावलेश्या में समानता कही इस प्रकार तो मनुष्य-तिर्यंचोंकी द्रव्यलेश्या के समय की तरह, उनकी द्रव्यलेश्या का काल अन्तर्मुहूर्त क्यों नहीं ? समाधान-मनुष्य, तिर्यचों के द्रव्यलेश्या के परिणाम तो अन्य लेश्या परिणाम उत्पन्न होने पर, पूर्वलेश्या परिणाम का उसमें संपूर्ण रूपान्तर हो जाता है, वैसा देव, नारक में बनता नहीं है। अतः उसे अन्तर्मुहूर्त का काल कहाँ से हो ही सके ! उन्हें तो स्वभाववर्ती लेश्या में अन्य भावलेश्या का परिणाम आ जाए तो वह मात्र स्पष्ट अस्पष्ट प्रतिविम्बत्व को ही प्राप्त करता है। और वह भी ज्यादा समय तक टिकता नहीं हैं। साथ ही जितना समय टिका हो उस समय तक अवस्थित लेश्या के मूल स्वरूप में कुछ परिवर्तन करता नहीं है, यही बात दृष्टांत से अधिक समझाते हैं। मनुष्यो, तिर्यचों के जिस समय जो लेश्याएँ होती हैं उस समय वैसे आत्मप्रयत्न से उस विद्यमान लेश्या के पुद्गलों को अन्य लेश्या के पुद्गलों (द्रव्यों) का संबंध होते ही विद्यमान लेश्या पलट जाती है, अर्थात् सफेद वस्त्र को लाल रंग का संबंध होते ही सफेद वस्त्र Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सात नरक में लेश्याओं के विभाग . 65. अपना . सफेदपन छोड़कर, लाल वस्त्र के स्वरूप में जिस तरह पलट जाता है उस प्रकार विद्यमान कृष्णलेश्या के द्रव्यों को (आगन्तुक) तेजोलेश्या के द्रव्यों का संबंध होने पर तेजोलेश्या के द्रव्यों का परिबल अधिक होने से कृष्णलेश्या के द्रव्य तेजोलेश्या रूपमें परिणत होते हैं और इस तरह कारण सामग्री को पाकर मनुष्यों, तिर्यचो को अन्तर्मुहूर्त में लेश्याओं का परावर्तन होता है / जब कि देवों को लेश्या के विषय में इस तरह नहीं होता, अर्थात् देव, नारकों के जो अवस्थित विद्यमान लेश्याएँ होती हैं उन लेश्याद्रव्यों को अन्य लेश्याद्रव्यों का संबंध होता है सही, परंतु मनुष्य, तिर्यंचों के लेश्याद्रव्यों की तरह इन देव, नारकों के लेण्याद्रव्य रंगे हुए वस्त्र की तरह एकाकार रूप परिणत नहीं होते, परंतु इन आगन्तुक लेश्याद्रव्यों का आकार प्रतिबिंब सिर्फ विद्यमान लेद्रिव्य पर पड़ता है, अर्थात् स्फटिक स्वयं निर्मल होने पर भी लाल, पीली वस्त्रादि की उपाधि से लाल अथवा पीला दीखता है, परंतु वस्त्र और स्फटिक दोनों स्वयं अलग ही हैं; अथवा निर्मल दर्पण में वस्तु की विकृति के कारण विकारवाला प्रतिबिंब पड़ता है, लेकिन वस्तुतः वह वस्तु और दर्पण अलग ही हैं। इस तरह यहाँ विद्यमान लेश्याद्रव्यों के पर अन्य (आगन्तुक) लेश्याद्रव्यों का आकार प्रतिबिंब पड़ता है, परंतु तात्त्विक रीत से दोनों अलग हैं। इसे ही अर्थात् इस आकार अथवा प्रतिबिंब को ही देव, नारकों के लिए भावलेश्याएँ गिननी हैं / यह प्रतिबिंब अथवा मात्र आकार स्वरूप भावलेश्या जिस अवसर पर उत्पन्न होती है, उस अवसर पर नारक जीवों के कृष्णादि दुष्ट लेश्या विद्यमान होने पर भी (पूर्वोक्त भावलेश्या से तेजोलेश्यादि के संभववाली) सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है / और प्रतिपक्षी घटना में संगमादि को तेजोलेश्या अवस्थित होने पर भी; कृष्णलेश्या के फलरूप प्रभुको उपसर्ग करने के दुष्ट परिणाम भी होते हैं / इस पर से भावना परावर्तन से प्रतिबिंब स्वरूप भावलेश्याएँ आने पर भी, अवस्थित लेश्याओं के मूल स्वरूप में कुछ फरक नहीं होता / और ऊपर बताए अनुसार छ हो भावलेश्याओं को मानने में भी विरोध नहीं आता [ 257] ३८०-लेश्या क्या है ? उसकी उत्पत्ति किस में से होती है ? उसकी वर्णगंधादि चतुष्क के साथ घटना, उसका अल्प बहुत्व, उसकी काल व्यवस्था, उसके अध्यवसाय स्थानक आदि वर्णन श्री उत्तराध्ययन, पनवणा, लोकप्रकाशादिक ग्रन्थ के द्वारा समझ लें / वृ. 9 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . // नरकगति में नववाँ (9) आगतिद्वार // अवतरण-इस तरह आठवें गतिद्वार को कहकर, अब नववाँ आगतिद्वार अर्थात् नारक स्वआयुष्य पूर्ण करके कहाँ कहाँ उत्पन्न होते हैं ? और उत्पन्न होने के बाद कहाँ से निकलने वाले को क्या क्या लब्धियाँ प्राप्त हों ! यह कहते हैं। निरउव्वट्टा गम्भे, पजत्तसंखाउ लद्धि एएसि / चक्की हरिजुअल अरिहा, जिण जइ दिस सम्म पुह विकमा // 258 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 258 // विशेषार्थ-नरक गति में से निकले जीव-अनन्तर भव में पर्याप्ता-संख्याता वर्षायुषी-गर्भज (तिर्यंच मनुष्य) रूप में ही उत्पन्न होते हैं। इनके सिवाय संमू च्छिम मनुष्य, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, मनुष्य देवो नारको लब्धि अपर्याप्ता में और असंख्य वर्षायुपी युगलिक में उत्पन्न होते नहीं है / / अब जब वे, गर्भज मनुष्य-तिर्यंच रूप में उत्पन्न होते हैं तब उनके उत्पन्न होने के बाद क्या क्या लब्धि किन किन को प्राप्त होती है ? यह कहते हैं / इस लोक में चक्रवर्ती स्वरूप अगर नरक में से आकर उत्पन्न होनेवाला जीव हो तो वह, तथाविध भवस्वभाव से पहले ही नरक में से निकला होता है, मगर दूसरे किसी नरक में से नहीं, यह बात नरक की अपेक्षा से समझना / / बलदेव और वासुदेव-(यह हरि युगल) होनेवाले जीव, अगर नरक में से निकलकर होनेवाले हो तो पहले दूसरे ऐसे दो नरक में से निकलने वाले होते हैं, परंतु शेष नरकों में से नहीं / अरिहा-कहने से अरिहंत-तीर्थकर होनेवाले प्रथम के तीन नरक में से ही निकले होते हैं / शेष में से नहीं ही / जिन अर्थात् केवली होने वाले जीव, वह प्रथम के चार में से ही निकले हो सकते हैं, शेष में से नहीं ही / 381. प्रश्न-तीर्थकर और केवली में क्या फरक है ? तीर्थकर धर्ममार्ग के आद्य प्रवर्तक माने जाते हैं। शासन पर उनकी ही आज्ञा वर्तित है। जब कि केवली इस प्रकार नहीं होते / साथ ही तीर्थकर राजा है, अतः अतिशयादिक की विशिष्टताएँ हैं / जब कि केवली प्रजा में से है, अतः ये विशेषताएँ नहीं हैं / तथापि दोनों के ज्ञान में तुल्यता ( साम्य) जरूर है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नारकों को अवधिज्ञान * यति-अर्थात् सर्वविरति (सर्वथा गृह-संसार ममता पापादिक के त्यागरूप) चारित्र को ग्रहण करनेवाले जीव पहले पांच नरक में से आए होते हैं / .. दिसि-अर्थात् देश से विरति (सर्वथा त्याग नहीं वह) को अर्थात् आंशिक त्याग को धारण करनेवाले प्रथम के छ हों नरक के जीव होते हैं, क्यों कि छठे नरक में से आये जीव अनन्तर भव में क्वचित् मनुष्य रूप में उन्पन्न होते हैं / अगर वहाँ अतिमलिन अध्यवसाय होते होने से अशुभ कर्मबंधन अधिक होता है जिस से यकायक मनुष्य भवप्राप्ति योग्य अध्यवसाय आते नहीं हैं तो भी कदाचित् किसी किसी नरकात्मा को प्राप्त शुभ परिणामों आ जाता है और मनुष्यायुष्य का बंध करता है / लेकिन बहुलता से तो तिर्यचरूप में ही उत्पन्न होता है / तथापि तथाविध विशुद्धि से मनुष्य हों तो मी तथाविध पुण्याई की विशुद्धि के अभाव में सर्वविरतिपन तो पा नहीं सकते परंतु देशविरतिपन को. पा सकते हैं / और सम्यक्त्व तो सातों नरकों में से आए जीवों को प्राप्त हो सकता है / परंतु सातवें में से आए हुये को देशविरतिपना प्राप्त नहीं हो सकता साथ ही वे मनुष्यत्व न पाकर निश्चितरूप से तिर्यच योनि में ही उत्पन्न होते हैं / अगर वे गतभव में नरकायुष्य वांधा जाने से यहाँ नरक में उत्पन्न हुए होते हैं, परंतु गतभव में ही किए गए पुण्य के दूसरे संचय से, नरक में से निकलकर वे जीव उक्त लब्धियाँ प्राप्त करते हैं, परंतु जिन्हों ने पूर्वभव में कुछ भी महान सुकृत्यो नहीं किये हैं, तप-त्याग-संयम स्वरूप सद्वर्तन का सेवन नहीं किया हैं / भगवद्भजन आदि मंगल प्रवृत्तियाँ नहीं की हैं केवल भयंकर पापाचरण का सेवन करके नरक में उत्पन्न हुए होते हैं वे तो अनन्तर भव में उक्त लब्धियों को पा ही नहीं सकते / साथ ही जो अरिहा-तीर्थकर होते हैं वे भी तीर्थकर भव की अपेक्षा से पूर्व के तीसरे भव में, विंशति स्थानक में बताए उत्तम स्थान पदों की सर्वोत्तम कोटि की आराधना द्वारा तीर्थकरनामकर्म बांधने से अगाऊ अगर उन्हें वैसी प्रवृत्ति द्वारा उनके नरकायुष्य का बंध कर दिया हो तो उन्हें नरकगति में अवतार लेना पड़ता है / और वहाँ का काल पूर्ण करके अनन्तर भव में ही (श्रेणिकादिक की तरह ) तीर्थकरनामकर्मकी की निकाचना, तीसरे अथवा उनके अंतिम मनुष्य भव में विपाकोदयरूप में उदयमें आता है / यह नियम न समझना / लेकिन जो बद्धनरकायुषी होकर फिर तीर्थकर Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी भाषांतर . नामकर्म वांधते हों उनके लिए ही यह समझना / परंतु अबद्धायुषी तो देव, मनुष्यगति में ही जाते हैं / [ 258 ] अवतरण-अब आठवें द्वार में नारकों के अवधिज्ञान विषयक क्षेत्रमान के बारे में कहते हैं। रयणाए ओही गाउअ, चत्तारट्ठ गुरुलहु कमेणं / पइ पुढवी गाउअद्धं, हायइ जा सत्तमि इगद्धं // 259 / / गाथार्थ--रत्नप्रभा में [ उत्कृष्ट से ] अवधिज्ञानका क्षेत्र चार कोस का और [ जघन्य से ] साढे तीन कोस का होता है, तत्पश्चात् प्रत्येक पृथ्वी के दोनों मान में आधा कोस हीन करते जाइए, यावत् सातवें में उत्कृष्ट से एक कोस और जघन्य से आधे कोस का रहे // 259 // विशेषार्थ-अवधिज्ञान शब्द का अर्थ और उसकी व्याख्या देवद्वार प्रसंग में कही गई है। प्रथम रत्नप्रभा के नारकों का अवधिक्षेत्र उत्कृष्ट से मात्र चार कोस का और जघन्य से साढे तीन कोस का, दूसरे नरक के नारकों का उत्कृष्ट से 3 // कोस का और जघन्य से 3 कोस का, चौथे में उ० 3 कोस और ज० 2 // कोस का, पांचवें में उ० से 2 कोस और ज० से 1 // कोस, छठे में उ० से 1 // कोस और ज० से 1 कोस, सातवें में उत्कृष्ट से अवधि-दृश्यक्षेत्र 1 कोस और ज० से 0|| कोस का होता है / नारक जीवों को यह 'अवधिज्ञान' कहा उस में मिथ्यादृष्टि नारकों को तो वह ज्ञान विभंग-विपरीतरूप से होता होने से उनका वह ज्ञान उन्हें देखने में दुःखदायी है, क्योंकि इस से वे अपने को दुःख देनेवाले परमाधार्मिक जीवों को तथा अशुभ पुद्गलों को प्रथम से ही समीप आते हुए देखा करते हैं, अतः वे बेचारे लगातार चिंता और भय के बीच भारी कदर्थना पा रहे हैं। [ 259 ] इति नवमगतिद्वारम् / Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति अधिकार में आठवाँ परिशिष्ट . . // सातों नरकवर्ती लेश्या, अनन्तर भव में होती लब्धिप्राप्ति तथा उनका अवधिज्ञान क्षेत्रविषयक यन्त्र // कौनसी अनन्तर भव में मनुष्यतिर्यच रूप में क्या | ज० / उ० नरकनाम लेश्या ? क्या लब्धि पावे? अवधि अवधि 1. रत्नप्रभा | कापोत | अरिहंत-चक्री-हरि-बलदेव-केवली-यति 3 // कोस| 4 कोस वाले को -देशविरति-सम्यक्त्व 2. शर्कराप्रभा / मात्र चक्रीत्व कम कर के शेष 7 लब्धियाँ | 3 कोस 3 / / कोस वाले को पा सके" 3. वालुका- कापोत, पुनः यहाँ हरि-बलदेव / कुल 3] कम | 2 // ,, प्रभा वाले को नील कर के 5 कहें" 4. पंकप्रभा नील यहाँ अरिहंतादिक आदि की चार कम वाले को करके शेष 4 (चार) करे" 5 धूमप्रभा नील-कृष्ण यहाँ आदि की पांच दूर करके यति, | 1 / / वालेको देशविरति, सम्यक्त्व ये 3 करे" 6. तमःप्रभा कृष्ण आदि की छः निकालकर देशविरति | वाले को सम्यक्त्व ये दो ही कहे" 7. तमस्तम-." | यहाँ एक सम्यक्त्व ही अनन्तर भवमें | 0 // 0 // 1 , प्रभा वाले को पावे" // श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथस्वामिने नमः // // नरकगति अधिकार में आठवाँ परिशिष्ट // नारकों की सिद्धि शंका-देवो प्रत्यक्ष न होने पर भी मानव जाति में उन विषयक देखे जाते चमत्कारों से, उनके साथ संबंध रखनेवाले विद्या-मन्त्रों की साधना द्वारा इष्टफलसिद्धि होती होने से अनुमान से अदृष्टदेवों का अस्तित्त्व भले स्वीकार करें, लेकिन नरकगतिवर्ती नारकों की सिद्धि में तो ऐसा कोई अनुमान नहीं लगता और प्रत्यक्ष तो दीखते ही नहीं तो फिर उनकी सत्ता कैसे मानी जाप? समाधान-देवों के पास तो दैविकशक्ति है और इसलिए उनकी उपासनाएँ होती हैं, जिस से वे अपनी दिव्यशक्ति का उपयोग उपासक के लिए करते हैं लेकिन नारक जीवों के पास तो ऐसा कुछ है ही नहीं इसलिए उनकी उपासना नहीं है और उपासना Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . चनारक। द्वारा देखे जाते चमत्कारों का भी प्रसंग रहता नहीं अतः नरक के अस्तित्व के लिए देवसिद्धि के जैसा अनुमन भले नहीं हो सकता; फिर भी अनुमान जरूर है / वह इस तरहजैसे विश्व में जघन्य-मध्यम पापकर्म फल के भोक्ता देखे जाते हैं वैसे उत्कृष्ट-प्रकृष्ट पापफल के भोक्ता भी होने ही चाहिए / तो वे कौन ? तो जिस तरह जघन्य, मध्यम कर्मफल के भोक्ता स्वरूप तीर्थकर और मनुष्य हैं, उस तरह उत्कृष्ट कर्मफल भोक्ता स्वरूप दूसरे कोई नहीं, लेकिन नारक ही हैं। शंका-क्या तिर्यच, मनुष्य में अत्यन्त दुःखी जो हो वह प्रकृष्ट पापकर्मफल का भोक्ता न माना जाए? ____समाधान-जिस तरह सुख की पराकाष्टा देवों में है उस तरह दुःख की पराकाष्टा तिर्यंच, मनुष्य में नहीं देखी जाती, इतना ही नहीं किन्तु सर्वथा दुःखी हो ऐसा कोई तिर्यच, मनुष्य, देखा नहीं जाता, अतः प्रकृष्ट दुःख के भोक्ता स्वरूप तिर्यच, मनुष्य से भिन्न कोई जाति माननी ही रही और वे ही ये नारक / __ साथ ही जैसे अत्यन्त अल्पांशी दुःखवाले व्यक्ति हमें देखने को मिलते हैं, मध्यम दुःखवाले जीव भी हम देखते हैं वैसे सबसे अधिकाधिक अन्तिम प्रकार के दुःख भोगनेवाले भी अवश्य होने ही चाहिए और वे हैं नारक, जो बात हम ऊपर कह गए / इस तरह अनुमान से नारकों का अस्तित्त्व साबित होता है। शंका-क्या आँख से और प्रयोग से सिद्ध हो उसे ही प्रत्यक्ष कहा जाए.? समाधान-इस चराचर विश्व में एक वस्तु स्वयं न देखी तो उसे अप्रत्यक्ष मान लेना यह क्या बुद्धिगम्य है सही ? हरगिज नहीं / लोक में स्वप्रत्यक्ष के सिवाय दूसरा आप्तप्रत्यक्ष भी है / आप्त अर्थात् विश्वसनीय विशिष्ट शानियों का प्रत्यक्ष / यह आप्तप्रत्यक्ष स्वप्रत्यक्ष जितना ही आदरणीय माना जाता है। जैसे सिंह, अष्टापद, जिराफ आदि दूर दूर के जंगल के प्राणियों का प्रत्यक्ष दर्शन सर्व को नहीं होता, फिर भी अगर वे उन्हें अप्रत्यक्ष कहे तो योग्य है क्या? नही, अगर थोड़ा भी बुद्धिशाली होगा तो खुद ने नहीं देखा इसलिए उसका अभाव है ऐसा कभी नहीं कहेगा / वह सोचेगा कि मैंने नहीं देखा, मगर मुझ से बडे आप्त हैं उन्हों ने देखकर हमें कहा है अतः उसका अस्तित्व जरूर है / साथ ही इस देश के तथा विदेश के गाँव, नगरों नदी-समुद्रों आदि स्थलों तथा दूसरी अनेकानेक बाबतें सृष्टि पर विद्यमान होने पर भी जिसे हमने अपनी खुद की आँखों से कदापि नहीं देखा लेकिन दूसरे व्यक्तियों ने प्रत्यक्ष की है और फिर उसकी जानकारी हमें की है, ऐसा समझकर भी हम उसका स्वीकार नहीं करते क्या ? अमेरिका का न्यूयॉर्क शहर स्वप्रत्यक्ष नहीं है, फिर भी नकशा द्वारा अमुक जगह पर है ऐसा बिना दलील हम सीधा ही स्वीकार क्या नहीं करते? अवश्य करते ही हैं, तो फिर अपने आप्त जो सर्वज्ञ हैं, जिन्हों ने नारकों को स्वप्रत्यक्ष किये ही हैं , और बाद में ही हमें बताया है अतः नारकों का अस्तित्त्व अचूक मानना ही चाहिए / Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति अधिकार में आठवाँ परिशिष्ट . साथ ही इन्द्रियप्रत्यक्ष वही प्रत्यक्ष कहा जाए यह भी एक मिथ्याभ्रम है / वस्तुतः इन्द्रियप्रत्यक्ष तो उपचार से ही प्रत्यक्ष कहा जाए / अन्यथा तत्वदृष्टि से वह भी परोक्ष ही है / अतः यह बात नक्की हो जाती है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष वही वास्तविक रीत से प्रत्यक्ष कहा जाए, क्योंकि जिन्हें विशिष्ट शान लब्धि प्राप्त होती है उन्हें यह दृश्यमान इन्द्रियों से कुछ भी प्रत्यक्ष करने का प्रयोजन नहीं रहता, वे शानद्वारा ही सब कुछ आत्मप्रत्यक्ष कर सकते हैं / अतः जिस ज्ञान प्रानि में अन्य निमित्त की अपेक्षा रहे वह शान प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता अर्थात् जिस ज्ञान में इन्द्रियों की मदद निमित्तरूप बने उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कैसे कहा जाए ? नहीं ही कहा जाए / केवलशानी को विश्व के चराचर सारे पदार्थों शान से आत्मप्रत्यक्ष होते हैं / उन्हें देखने के लिए बीच में इन्द्रियादि किसी निमित्त की जरूरत नहीं पड़ती, अतः अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष वही सच्चा प्रत्यक्ष है और वह अतीन्द्रिय शानियों से ही साध्य है। इस से यह हुआ कि इन्द्रियप्रत्यक्ष वह तात्त्विक रूप से वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं है ऐसा निश्चित होता है। केवलशानियों ने देखी हुई और तत्पश्चात् उन से प्ररूपित हकीकतों का संपूर्ण सत्य रूप में स्वीकार करना चाहिए उसका क्या कारण ? तो केवलज्ञानी वही हो सकता है कि जो असत्य बोलने के राग-द्वेष-मोहादि हेतुओं को नष्ट करके वीतराग सर्वश बने हों / अतः ऐसा व्यक्ति ज्ञान से जो देखे वही कहे, असत्य प्ररूपणा कदापि न करते। तथा नरक और नरक के जीवों का प्रतिपादन इन्होंने ही किया होने से नारको हैं और इनके होने के कारण उनके रहने के आधाररूप नरकस्थान भी हैं। . इस तरह सामान्य चर्चा से उभय की सिद्धि की गई। तक से नरकसिद्धि दूसरी रीत से बौद्रिक या तार्किक दृष्टि से विचार करें. (1) इस मानवसृष्टि पर एक मनुष्यने एक व्यक्ति का खून किया तो उसे विश्व की कोई भी राजसत्ता अधिकाधिक सजा करे तो एक ही बार फांसी की सजा करे जब कि दूसरी एक व्यक्ति ने असंख्य खून किये हों तो उसे भी वही एक बार फांसी की * सजा करे, तो दोनों के अपराध में पेसिफीक महासागर जैसा विशाल अंतर होने पर भी सजा समान ही, यह न्यायपूर्ण माना जाए क्या ? हरगिज नहीं / (2) दूसरे एक दुष्ट मनुष्य ने सैकडों, हजारों बल्कि लाखों के पालक, पोषक, रक्षक यावत योग-क्षेम करनेवाले व्यक्ति का खून किया, तो क्या उसे देहांतदंड की सजा पर्याप्त है सही ? (3) तीसरे एक भयंकर युद्धखोर मनुष्य ने महाविश्वयुद्ध जगाया, समग्र दुनिया को यातना, दुःख, त्रास और मांस की भयंकर ज्वालाओं में धकेल दिया, लाखों के करुण संहार सरजाए, समग्र विश्व को त्राहि त्राहि (बायस्व प्रायस्व ) की पुकार करवाई लेकिन अंत में उसका ही करूण अंजाम आया, स्वयं ही पराजित हुआ / कैद करके उसे लश्करी अदालत के समक्ष खड़ा किया, उसके अपराध के लिए न्यायाधीश फैसला दे तो, वो क्या देगा ? एक बार की फांसी या दूसरा कुछ ? तो इतनी सजा योग्य है क्या ? Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *72. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * . (4) अरे ! इस दुनिया में खुले रूप में या छिपकर, अनेक जीवों की हिंसा करना, असत्य और झूठ, डींग मारना, धोखाबाजी, दगा-कपट, प्रपंच, विश्वासघात, चोरियाँ करना, अब्रह्म, परस्त्री-धेश्या गमन करना, विकारी नजरें करना, अति मोह, ममत्व और मूर्छा में आसक्ति रखना, अन्य को त्रास देना, अनेक पापाचरण करना, महाआरंभसमारंभवाले असंख्य पापों का आचरण करना ऐसे अनेक पाप-अपराध हुआ ही करते हैं जो कायदे के अनुसार अपराध नहीं गिने जाते, उन्हे तो मानव जाति की तरफ से सजा हो या न हो, कोई बार सबूत के अभाव में खूनी होने पर भी मुक्त हो जाए तो क्या उन्हें अपराध की सजा कुछ भी नहीं होगी ? जवाब-ऊपर के चारों प्रश्नों का जवाब एक ही और वह यह कि अपराध के अनुसार (प्रमाण में) अगर सजा न हो तो सजा न्यायी कैसे मानी जाए? और अपराधी होने पर भी सजा न हो तो यह भी कैसे चल सकता है ? राजसत्ता में चाहे जैसा चलता हो लेकिन कर्मसत्ता' नाम की एक अदृश्य महासत्ता बैठी है कि जहाँ पुन्य-पाप सबका अद ल इन्साफ अवश्य होनेवाला है / इस में से इस दुनियाका कोई भी मनुष्य छटक नहीं सकेगा। अस्तु / तब मानवजाति के पास तो मात्र अंतिम कोटि की सजा अगर कोई भी हो तो देहांत दंड या फांसी की ही है। उस से अधिक है नहीं / एकबार फांसी हुई फिर उस देह का चैतन्य नष्ट हो जाता है / अंदर रहा हुआ सजा भोगनेवाला जीव अन्य योनि में जन्म लेने दौड़ पडता है; क्यों कि मानव (और पशु )जातिका शरीर औदारिक प्रकार के अणुओं का बना है और ये अणु एक बार चैतन्य विहीन बने कि फिर उस देह के अणु वहाँ चैतन्यवाले बनते नहीं हैं कि जिस से पुनः फांसी की सजा हो सके / यह स्थिति तो नरक के देह की ही है, अतः वहाँ पर्याप्त सजाओं के पात्र बन सकता है / तब पुनः प्रश्न यह होता है कि ऐसे भयंकर पापों की सजा है ही नहीं क्या? इसका जवाब यह है कि-सजा है / जरूर है। अगर न हो तो यह सृष्टि भयंकर पापों और भयंकर मानवीओं से खदबदने लगे, यावत् उजड बन जाए | तब सजा कहाँ और कैसी है ? तो इसका जवाब भारत की संस्कृति के बहुतेरे धर्मशात्रों एक ही देते हैं कि-सजा भोगने के लिए एक स्थान जरूर है / भले वह दृश्य नजर से अदृश्य हो, मगर वह है ही और वह भूगर्भ-पाताल में ही है, इसे 'नरक' शब्द से पहचाना जाता है / पापी मनुष्यों के पापों का भार ही उन्हें स्वयं वहाँ खींच जाता है अर्थात् कर्मसत्ता उन्हें नरक के जेलों में सीधा ही धकेल देती है। ऐसे जेलो एक नहीं लेकिन सात हैं / हरेक जेल की सुविधा-व्यवस्था भिन्न-भिन्न है। प्रथम नरक से दसराभयंकर. दूसरे से तीसरा भयंकर, वहाँ अधिक दुख, कष्ट, त्रास, यातनाएँ भोगने का इस तरह उत्तरोत्तर सातों नरको-जेलो अधिक भयंकर और त्रासदायक हैं इन सातों नरकों को 'भूगर्भ जेल' से संबोधित किया जा सकता है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरकगति अधिकार में आठवाँ परिशिष्ट * .73. प्रथम के तीन जेलों में उत्पन्न होनेवाली कोठरियाँ भयंकर दुःखद, साथ ही वहाँ 'परमाधामी असुर' जेलरो के रूप में होते हैं, वे भयंकर स्वरूपो धारण करते हैं, नरक के जीवों को अगाऊ बताये अनुसार किये अपराधों की भयंकर सजा करते हैं / हर क्षण दिये जाते दुःखों, त्रास-वेदनाएँ, उनके भयंकर चीत्कार, अपार यातनाएँ सुनकर कंपन पैदा होता है / भले इस सृष्टि पर के भयंकर अपराधों को शायद कोई न जाने, भले उनके लिए सजाएँ न हों, अथवा हों तो कम भी हों, भले यहाँ शायद छूट जाएँ लेकिन अपराधों की पर्याप्त सजा भोगने के लिए इन भूगर्भ जेलों में गए बिना कभी चलनेवाला नहीं है। कुदरत के घरका इन्साफ अटल और अदल होता है, यह हिसाब संपूर्ण चूकते ही करना पडता है / वहाँ विनतियाँ, माँस या लांच-रिश्वत कुछ भी चलता नहीं है / __ शेष चार नरक जेलों में परमाधामी कृत वेदना नहीं है लेकिन परस्पर शस्त्रजन्य, अन्योन्य खून-खराबी करने रूप तथा स्थानजन्य वेदनाएँ अकथ्य और अनंत हैं / जो वर्णन आगे किया गया हैं। इस जेल की सजा मर्यादा हजारों-लाखों, करोडों नहीं बल्कि अरबों सालों की है। अतः मानवजाति स्वयं सुझ बनकर, 'पाप के फल अवश्य भोगने ही पड़ते हैं, ऐसा समझकर पापमार्ग से लौटे। महाआरंभ-समारंभों को एक छोटीसी जिंदगी के खातिर, बित्ते भर के पेट के खड़े को भरने के खातिर छोड दे / अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग करे या संयम रक्खे ! मानव या पशु पक्षी आदि सजीव सृष्टि पर दया रक्खे / उसकी दया का पालन करे, सबका रक्षण करे, सबका भला करे / मूर्छा-ममत्व के भावों को मर्यादित करे और धर्म से परिपूत जीवन, जीए। जिससे अति दुःखद नरकगति का भोग होने का न बनने पाए। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तीसरा मनुष्यगति अधिकार।। ___अन्तर्गत पञ्चमगति [मोक्ष] अधिकार मनुष्याधिकारमें प्रथम और द्वितीय स्थिति, अवगाहनाद्वार अवतरण-इस तरह लगभग 59 गाथाओं से नरक-गति अधिकार में नवों . ' द्वारों का वर्णन कर के अब तीसरे मनुष्यगति अधिकार में 'भवन' सिवाय आठ द्वारों का वर्णन करते हैं, उनमें से ग्रन्थकार प्रथम ‘स्थिति' और दूसरा 'अवगाहना' इन दो द्वारों को कहते हैं / गन्भनरतिपलिआऊ, तिगाउ उक्कोसतो जहन्नेण / मुच्छिम दुहावि अंतमुहु, अंगुलाऽसंखभागतणू // 260 // . गाथार्थ-गर्भज मनुष्य की उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति तीन पत्योपम की और उनकी देह विषयक अवगाहना उत्कृष्ट से तीन कोस की होती है / उनका जघन्य से तथा संमूर्छिम मनुष्यों का जघन्य तथा उत्कृष्ट से भी आयुष्य अंतर्मुहूर्त का और जघन्य से गर्भज मनुष्य की अवगाहना (उत्पत्ति कालाश्रयी ) तथा संमूछिम मनुष्य की उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकार की अवगाहना असंख्यातवें भाग की है // 260 // विशेषार्थ-यहाँ से मनुष्यगति का अधिकार शुरू होता है / उस में मनुष्यों के दो प्रकार हैं / संमूच्छिम और गर्भज / इन दोनों को पंचेन्द्रिय समझना / सिर्फ संमूर्छिम को मन न होने से शास्त्र की परिभाषा में ' असंज्ञी' कहा जाता है / जब कि गर्भजों के मन वर्तित होने से 'संज्ञी' (पंचेन्द्रिय) नाम से परिचित है / संमृच्छिम जन्म अर्थात क्या ? कुल तीन प्रकार से जीवमात्र के जन्म होते हैं। 1. संमूर्छिम, 2. गर्भज, 3. उपपात. 1. संमूर्छिम गर्भ की सामग्री के बिना ही जिस की उत्पत्ति हो वह / अर्थात् स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही उत्पत्तिस्थान में वर्तित औदारिक पुद्गलों को शरीररूप में परिणत करना उसे (उन जीवों के लिए) संमूछिम जन्म कहा जाता है / 382. गर्भज से यह अंतर्मुहर्त अंगुलासंख्य भाग से लघु जाने / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समूच्छिम और गर्भज मनुष्य का स्वरुप * दूसरी व्याख्या ऐसी भी है कि तीनों लोक में तमाम बाजुओं से देह के अवयवों की रचना हो उसे संमूच्छिम जन्म कहा जाता है / दो शरीरों के संबंध से आत्मा की जो परिणति होती है उसे ही 'जन्म' कहा जाता हैं / यहाँ बाह्य और आध्यात्मिक पुद्गलों के उपमर्दन से जो जन्म हो वह संमूर्च्छन जन्म कहा जाए / ___काष्ठ की त्वचा, फल आदि पदार्थों में उत्पन्न होते कृमि आदि प्रकार के जो जीव हैं वे, उन्हीं काष्ठ, फल आदि में वर्णित पुद्गलों को शरीर रूप में परिणत करें उन्हें बाह्य पुद्गल के उपमर्दनरूप जानें / इस तरह जीवित गाय आदि के शरीर में उत्पन्न होते कृमि आदि जीव. उसी जीवित गाय आदि के शरीर के अवयवों को ग्रहण करके, अपने शरीररूप परिणाम को प्राप्त करे, उसे आध्यात्मिक पुद्गल के उपमर्दन रूप संमूर्च्छन जन्म समझना / गर्भजन्म-( पुरुष का) शुक्र और (स्त्री का) शोणित दोनों के मिलन के आश्रय रूप प्रदेश को 'गर्भ' कहा जाता है / और उस स्थान में उत्पन्न होनेवाला जीव 'गर्भज' कहा जाता है / इसे ही जरा अधिक स्पष्ट करें / स्त्री-पुरुष के मिथुन संयोग के बाद स्त्री की योनि में कोई जीवात्मा शीघ्र उत्पन्न होकर, तुरंत ही प्रथम क्षण में शुक्र और शोणित को -- माताने खाए हुए आहार को आत्मसात् करनेवाला, अर्थात् स्वशरीररूप में परिणत करनेवाला वह 'गर्भज' जीव कहा जाता है / .. उपपातजन्म-परस्पर के मैथुन संयोग के बिना, उस उस क्षेत्र-स्थान निमित्त को पाकर एकाएक अंगुल के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होकर, शीघ्र मूल शरीरावगाह को धारण करना वह / ___ यह जन्म देवों तथा नारको के होता है / देव देवशय्या में तथा नारक वनमय .. भीत में रहे भयंकर आवासों में उत्पन्न होते है / . शंका-संमूच्छिम तथा उपपात दोनों के जन्म में स्त्री-पुरुष के संयोग की अपेक्षा नहीं है तो फिर दोनों को अलग अलग क्यों माने ? संमूछिन में ही समावेश किया जाय तो क्या ? 383. देखिए तत्त्वार्थ राजवार्तिक || 384. देखिए तत्त्वार्थ पृवृत्ति // Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *76. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . समाधान-अगर ये शंका व्याजबी है लेकिन दोनों में भिन्नता यह हैं किसंमूर्छन जन्म में औदारिक पुद्गलों का तथा उपपात में वैक्रिय पुद्गलों का ग्रहण है। अन्यथा वास्तव में तो तीन प्रकार के बदले एक संमूर्छन प्रकार मानकर अवशिष्ट दो . संमूर्च्छन के ही विशिष्ट स्वरूप मानें तो अनुचित नहीं है / संमृच्छिम जीव कौन कौन से ? ___एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय - ये सारे जीव संमूच्छिम ही होते हैं / पंचेन्द्रिय के चार भेदों में से मनुष्य और तिर्यचों में भी संमूच्छिम पंचेन्द्रियो हैं / संमूच्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? ____ यहाँ पर चालू गाथा में संमू च्छिम तथा गर्भज मनुष्य के विषय में विचार चलता होने से संमूच्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में समझना कि - वे अढाईद्वीप-समुद्र में वर्णित 56 अन्तरर्दीप, 15 कर्मभूमि और 30 अकर्मभूमि के 101 क्षेत्रों में वर्तित गर्भज मनुष्य के ही विष्टा, मूत्र (पेशाव) लेप्म, कफ, वमन, पित्त, वीर्य, रुधिर, मृतकलेवर, स्त्री-पुरुष के मिथुन संयोग में, शहर की मोहरी-गटरों में तथा तमाम प्रकार के उच्छिष्ट, अशुचि और अपवित्र-गंदे स्थानों में औदारिक पुद्गल के साथ तथाप्रकार के जल-वायु का संयोग होने से ही शीघ्र, अल्प अथवा सैकडों से लेकर लाखों, करोडों तथा अरबों यावत् असंख्य तथा अनंत प्रमाण में उत्पन्न हो जाते हैं। क्षण के पहले जहाँ कुछ भी न था वहाँ हजारों मक्खियाँ, मच्छर, खटमल, तिड्ड तथा अन्य जंतु एकाएक उभर जाते हैं, ये संमूच्छिम जीव होने के कारण ही बनता है / कुल चौदह अशुचिस्थानों में संमृच्छिम मनुष्यों के जन्ममरण सतत होते ही रहते हैं / ये जीव असंज्ञी (मन रहित ) मिथ्यादृष्टि और अपर्याप्त ही होते हैं / गर्भज मनुष्यों के आश्रित उत्पन्न होने के कारण उनका उत्पत्ति क्षेत्र अढाईद्वीप समुद्र अर्थात् संपूर्ण मनुष्य क्षेत्र है, जो अगाऊ कहा जा चूका है / ____ गर्भज मनुष्यो-'गर्भे जायन्ते इति गर्भजाः' गर्भ में जो उत्पन्न हों वे गर्भज कहे जाते है। गर्भज मनुष्य मी, 15 कर्मभूमि, 30 अकर्मभूमि और 56 अन्तर्वीप में उत्पन्न होते हैं। वो अपर्याप्त-पर्याप्त दोनों प्रकार के होने से उनके कुल 202 भेदो हैं / 385. अपरे वर्णयन्ति, सम्मूर्च्छनमेवैकं सामान्यतो जन्म / तदि गर्भोपातताभ्यां विशेष्यत इति // [तत्त्वार्थ पृ. वृत्ति Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संमूच्छिम और गर्भज मनुष्य का स्वरुप * - 'कर्मभूमि में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के पुनः आर्य-अनार्य इस तरह दो भेद हैं / आर्यों-त्याग करने लायक का त्याग करके उपादेय गुणों को पाए हुए हों वे आर्यों कहलाते / दूसरी तरह दुर्लभ मानव जीवन को प्राप्त करके कर्तव्य का आचरण और अकर्तव्य का अनाचरण करके प्राप्त मानवता को सफल करने को प्रयत्नशील हो / विभावदशा को छोड़कर स्वभावदशा सम्मुख हो वह भी आर्य कहलाता है / ये आर्यों जहाँ रहते हों वे देशो भी आर्य कहलाते हैं / इस भूमि में धर्म के तमाम सद्संस्कारों की प्राप्ति के सुंदर साधन तथा योग वर्तित हैं, जिसके द्वारा मुक्ति की साधना साध्य की जा सकती है। . - ये आर्यो मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं : 1. ऋद्धिप्राप्त 2. अऋद्धिप्राप्त / ऋद्धिप्राप्त में तीर्थकरो, चक्री, वासुदेव, बलदेव, पवित्र विद्यावंतों और लब्धिवंतों का समावेश होता है। और अऋद्धिप्राप्त क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, शिल्प, भाषा इस तरह ये आर्य छः विभागों में हैं / अनार्यो-ईस से विपरीत लक्षणवाले वे अनार्यों अर्थात् पापी प्रकृतिवाले, घोर कर्म करनेवाले, पाप की धृणा से वंचित और पाप का पश्चाताप नहीं करनेवाले होते हैं / शक, यवन, पर्वर, शवर, गौड, द्रविड, औंध, पारस, मलय, मालव, अरव, हूण, रोमक, मरह आदि अनेक जातिओं की गणना अनार्य में की है। यह कथन एकान्तिक नहीं समजना / . इस तरह गर्भज मनुष्यों की प्रसंगवश पहचान दी। . इन मनुष्यों के आयुष्य और देहमान देश-काल के अनुसार भिन्नभिन्न होते हैं, लेकिन यहाँ इस गाथा में तीन पल्योपम जितना विशाल आयुष्य और तीन कोस के देहमान की जो विशालता बताई है वह, उस उस देश-क्षेत्रवर्ती युगलिकोंकी है, परंतु ये युगलिको अवसर्पिणी के पहले और उत्सर्पिणी के अंतिम आरा के समय विद्यमान हों वे ही समझना / (तथा देवकुरु-उत्तरकुरु के युगलिकों का आयुष्य कायम तीन पश्योपम होता है / ) अन्यथा सामान्य (युगलिक भाव रहित ) मनुष्य का तो किसी काल में अधिकाधिक पूर्वक्रोड का आयुष्य और पाँचसौ धनुष्य का देहमान होता है / 386. आरात् सर्वधर्महेयधर्मेभ्यो यातः प्राप्तगुणैरित्यार्थः / [:प्रज्ञा 1, पद टीका] 'कर्तव्यमाचरन् कार्यमकर्तव्यमनाचरन् / तिष्ठति प्रकृताचारे, स वा आर्य इति स्मृतः // ' 385. इन सब प्रकारों का वर्णन ग्रन्थान्तर से जानें // 388. पावा- य चंडकम्मा अणारिया णिग्धिणा गिरनुतावी / Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .78. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जघन्य से तमाम मनुष्यों का अंगुल के असंख्यातवें भाग का देहमान होता है। उत्तरवैक्रिय की रचना संमूच्छिमों के होती ही नहीं है / गर्भज मनुष्य के वह उत्कृष्ट साधिक लाख योजन और जघन्य से अंगुल के असंख्य भाग की होती है / मनुष्यों के भवनो-गृहो, अशाश्वत-अनियमित होनेसे उनकी वक्तव्यता हो नहीं सकती, अतः भवनद्वार का निषेध किया है / इसलिए यहाँ आठ ही द्वारों की प्ररुपणा कही जाएगी / [ 260 ] तीसरा और चौथा उपपात-च्यवनविरह तथा पाँचवाँ, छठा संख्याहार // अवतरण-अब तीसरे और चौथे उपपात और च्यवनविरह द्वार के और पांचवें तथा छठे उपपात तथा च्यवन संख्याद्वार के विषय में कहते हैं / बारस मुहुत्त गम्भे, इयरे चउवीस विग्ह उक्कोसो। जम्ममरणेसु समओ, जहण्णसंखा सुरसमाणा // 261 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् सुगम हैं / // 261 / / / विशेषार्थ-अब तीसरा उपपात-च्यवनविरह अर्थात् गर्भजमनुष्यके उपपातच्यवन ( जन्ममरणाश्रयी) विरहकाल उत्कृष्ट से बारह मुहूर्त का पड़ता है। अर्थात् एक जीव के उपपात (जन्म ) या च्यवन (मरण ) के बाद उक्त अंतर पर दूसरा उत्पन्न हो-जन्म हो अथवा च्यवन हो-मरण हो / इतर-समूच्छिम मनुष्य को उत्कृष्ट से चौबीस मुहूर्त का उपपात तथा च्यवनविरहकाल पड़ता है / दोनों के जघन्य से एक समय का उपपात तथा च्यवनविरहकाल होता है। अब दोनों की उपपात और च्यवन संख्या देवसमान-वह एक, दो यावत् उत्कृष्ट रुप से संख्य-असंख्य होती है / इस तरह छः द्वारों का वर्णन किया / [261 ] मनुष्याधिकार में सातवाँ गतिद्वार // अवतरण-अब सातवाँ ‘गतिद्वार' उस मनुष्यगति में आनेवाले जीवो कौन कौन से होते हैं, यह बताता है / सत्तममहिने रइए. तेऊ-वाऊ असंखनरतिरिए / मुत्तूण सेसजीवा-उप्पज्जंती नरभवंमि // 262 // Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अरिहंतादि कौन सी गति में से आये हुए होते है ? . *79 . गाथार्थ—सातवे नरक पृथ्वी के नारको, तेऊ (अमि)काय के, वायु ( पवन ) काय के जीवो, असंख्य वर्षायुषी ( युगलिक ) मनुष्य-तिर्यंचो अनन्तर भव में मनुष्य होते न होने से उनके सिवा, शेष सर्व दंडक के जीव [ उन छः नारकों के जीवो, देवो, तिर्यचो ] मनुष्य भव में उत्पन्न होते हैं। // 262 / / विशेषार्थ-सुगम है / [ 262 ] अवतरण-इस गतिद्वार में ही विशेष स्पष्टीकरण करने पर मनुष्यलोकमें होनेवाले बहन चक्रवर्ती आदि महापुरुष कहाँसे च्यवन पाकर आनेवाले होते हैं ? इस की विशेषता बताते हैं / सुरनेरइएहिं चिय, हवंति हरि-अरिह-चकि-बलदेवा / चउविह सुर चक्किबला, वेमाणिअ हुंति हरिअरिहा // 263 // गाथार्थ-वासुदेव, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, मनुष्यो निश्चयपूर्वक देव-नरकगतिमें से ही आए होते हैं / उनमें चक्रवर्ती तथा बलदेव हैं वे चारों प्रकारके देवनिकायों में से आए हुए और वासुदेव तथा अरिहंत वैमानिकनिकाय में से ही आए हुए होते हैं / // 263 // विशेषार्थ-गाथा में बताया कि अरिहंतादिक महापुरुषो अवश्य देव तथा नरक में से आए होते हैं उनमें किस नरक में से कौन कौन होते हैं ! यह तो नरकगति अधिकार में कहा है। अब देवलोक के किस किस स्थान से कौन कौन होते हैं ! तो - भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिषी और वैमानिक, इन चारों निकायों में से च्यवन हुए हों वे बलदेव या चक्रवर्ती (दो ही) होते हैं। जिनेश्वर-अरिहंत होनेवाले, एक वैमानिक निकाय में से ही च्यवन पाकर आए होते हैं। और इसी तरह वासुदेव भी ( फक्त अनुत्तर वर्य) वौनिकनिकाय में से ही आए होते हैं / परंतु तिर्यच-मनुष्य में से च्यवन पाये जीव अनन्तर भव में उक्त विभूतियाँ नहीं पाते हैं / [ 263 ] _____ अवतरण-पूर्वोक्त बात पुनः कहकर वासुदेवो तथा चक्रवर्त्यादिक के मनुष्यरत्नो मी कहाँसे च्यवन ( आए हुए ) पाये हो? यह कहने के साथ विशेष हकीकत कहते हैं। हरिणो मणुस्सरयणाई, हुंति नाणुत्तरेहिं देवेहिं / जहसंभवमुववाओ, हयगयएगिंदिरयणाणं // 264 // 389. प्रशापना में नागकुमारनिकाय से वासुदेव हुए ऐसा कहते हैं // ' 390. मनुष्य में से निकले हुए चक्रवर्ती होते हैं ऐसा भी कथन 'आवश्यकनियुक्ति' में है / Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . __गाथार्थ-वासुदेव रुप में और चक्रवर्ती के मनुष्यरत्नरुप में अनुत्तर देव (च्यवन पाकर ) अवतरते नहीं हैं और शेष हाथी, अश्व और एकेन्द्रिय सात रत्नों का उपपात यथासंभव जाने / / 264 / / विशेषार्थ-वासुदेवो वैमानिकनिकाय तथा नरक में से ही आए होते हैं / जब वैमानिकनिकाय में से निकला जीव वासुदेव होवे तो अनुत्तर विमान के देवों को वर्जित करके शेष चार वैमानिकनिकायों में से आया हुआ जाने / प्रतिवासुदेव की गति वासुदेववत् समझना / चक्रवर्ती के आगे कहे जानेवाले महासुख-संपत्तिदायक उत्तमोत्तम चौदह रत्नों में से चक्रादिक सात रत्नों एकेंद्रिय स्वरुप में होते हैं, जब कि शेष पुरो. हितादि सात रत्नो पंचेन्द्रिय रूपमें हैं / इन सात पंचेन्द्रिय में पुनः हस्ति और अश्व . . ये दो रत्नो तिर्यचरूप में होते हैं और शेष पांच रत्नो मनुष्यरूप में होते हैं। ये पांच मनुप्यरत्नरूप में, सातवें नरक में से निकले जीव, तेऊ. वाऊकाय के जीव और असंख्य वर्ष आयुषी तिर्यंच-मनुष्यों ( अनन्तर भव में ) जन्म नहीं लेते, क्योंकि उनके लिए मनुष्यभव प्राप्ति का 262 गाथा में ही निषेध किया गया है / अतः उसे वर्जित करके शेष दंडकों में से पुरोहितादि पांचो पंचेन्द्रिय मनुष्य रत्नो [ तथा मंडलीक राजा भी ] रुप में अवतरते हैं / परंतु इतना विशेष कि-यदि वैमानिक में से पांच मनुप्यरत्नरूप में अवतरें तो अनुत्तरकल्प वर्ण्य शेष देवलोक में से ही समझना / अब पंचेन्द्रिय में शेष हस्ति-अश्व दो तिर्यंच रत्नों का यथासंभव उपपात अर्थात् जिस दंडक में से निकले तियेच पंचेन्द्रियो होते हों उस उस स्थान से समझना, अर्थात् सातों नरक से संख्य वर्षायुषी नर-तिर्यंच तथा भवनपति से लेकर सहस्रार तक के देवो उस रत्नरूप में अवतार ले सकते हैं, क्योंकि तब तक के देवों की तिर्यंच में गति पहले कही जा चुकी हैं। साथ ही चक्रादि शेष सात एकेन्द्रिय रत्नरुप में, संख्य-वर्षायुषी तियेच, नर और भवनपति से लेकर ईशानकल्प तक के देवो निश्चय रूप से उत्पन्न हो सकते हैं, अतः आगे के देवों के लिए तो वहाँ उत्पन्न होने का निषेध है / [ 264 ] अवतरण-अब चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के नाम तथा प्रत्येक का मान कहते हैं / वामपमाणं चकं, छत्तं दंडं दुहत्थयं चम्मं / बत्तीसंगुल खग्गो सुवण्णकागिणि चउरंगुलिया // 265 // चउरंगुलो दुअंगुल, पिहुलो य मणी पुरोहि-गय-तुरया / . सेणावइ, गाहावइ, वड्ढइ त्थी चक्कि : रयणाई. // 266 // Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के प्रमाण और वर्णन . 81 माथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 265-266 / / विशेषार्थ-द्रव्यदेवादि पांच प्रकारके देवोंमें चक्रवर्ती नरदेव के रूप में परिचित है / जिस तरह देवलोक में प्रधानस्थान इन्द्रका, उस तरह सर्व मनुष्योंमें चक्रीका स्थान सर्वोच्च है और इसीलिए उन्हें देव शब्दसे संबोधित किया है / वे छः खंडके अधिपति बनते हैं / इसके सिवाय भरत के छहों खंड के कोटानुकोटी मानवों के रुप का संचय उसमें होता है अर्थात् वह सबसे सर्वोत्तम रुपवान होता है / उनके शरीर श्रेष्ठ सुवर्णवर्णी सुकोमल होते हैं / अन्य बहुत ऋद्धि-सिद्धियाँ होती हैं। इन सर्व ऋद्धिमें भी चक्रादि चौदह रत्नों की प्रधानता होती है / उन चौदह रत्नोंका स्वरुप इस तरह है। 1. चक्र, 2. छत्र और 3. दंड ये तीनों रत्नो व्यमि-वामप्रमाण अर्थात् प्रसारित उभय बाहुवाले पुरुष के दो हाथकी अंगुलियों के दोनों छोर के बीचका भाग [ = 4 हाथ ] प्रमाण सोच लेना / 4. चर्मरत्न केवल दो हाथ दीर्घ-लंबा है / 5. खड्ग रत्न बत्तीस अंगुल दीर्घ, 6. श्रेष्ठ सुवर्णकाकिणी रत्न चार अंगुल प्रमाण दीर्घ और दो अंगुलं विस्तीर्ण, 7. मणिरत्न चार अंगुल दीर्घ और दो अंगुल विस्तीर्ण, मध्यमें वृत्त और विस्तीर्ण, तथा छः कोनोंसे शोभित है / - इन सातों एकेन्द्रिय रत्नोंका माप चक्रवर्ती के औत्मांगुल से अर्थात् उसके अपने अंगुलमानसे जानें / ___ आठवाँ पुरोहितरत्न, 9 गजरत्न, 10 अश्वरत्न, 11 सेनापतिरत्न, 12 गाथापतिरत्न, 13 वार्द्धकीरत्न, 14 स्त्रीरत्न / इन सातों पंचेन्द्रिय रत्नोंका मान तत्काल वर्तित पुरुष, स्त्री और तियंचका जो मान उत्तम और प्रशस्त गिना जाता हो उस तरह होता हैं / इस तरह चक्रवर्ती के चौदह रत्नोंकी बात जानना / यहाँ सारे रत्नों का विस्तार, मोटाई अन्य ग्रन्थों से उपलब्ध न होनेसे मुख्यतया लंबाई ही बताई है / [265-266 ] ___388, व्यामो बाह्योः सकरयोस्ततयोस्तिर्यगनन्तरम् इत्यमरः // 389. यह मान मध्यम लिया है। अन्यथा अन्यत्र तो 50 अंगुल लंबा, 16 अंगुल चौडा और अर्धअंगुल बडा कहा है; और जघन्यमान 25 अंगुल का कहा है / अतः उक्त मान को मध्यम गिनना योग्य है। यहाँ जंबू०प्र०अनु० द्वार, वृहत्संग्रहणी वृत्तिकारादि मणि-काकिणी को, प्रमाणांगुल, आत्मांगुल और उत्सेधांगुल से मापने का कहते हैं, और प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रन्थो सातों एकेन्द्रिय रत्नों को आत्मांगुल से मापने का कहते हैं। तत्त्व ज्ञानीगम्य / बृ. सं. 11 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 82 . .. श्री बृहत्त्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अवतरण-अब ये रत्न किस किस स्थान में उत्पन्न होते हैं ? यह कहते है / चउरो आउह-गेहे, भंडारे तिन्नि दुन्नि वेअड्ढे / . एगं रायगिहम्मि य, नियनयरे चेव चत्तारि // 267 // .. [ क्षेपक गाथा 64 ] गाथार्थ-चार रत्न आयुधशाला में, तीन भंडारमें, दो वैताढ्य में, एक राजा के गृहमें और शेष चार अवश्य निजनगर में उत्पन्न होनेवाले होते हैं // 267 / / विशेषार्थ-१. चक्ररत्न-चक्रवर्ती का जन्म उत्तम जाति और गोत्रमें, उत्तम राज-भोग कुलमें ही होता हैं / वो सर्वांग सामुद्रिकशास्त्रों कहे उत्तमोत्तम 108 लक्षणयुक्त होते हैं / महान् देदीप्यमान पुण्य के पुंजरुप होते हैं / चक्रवर्ती योग्यावस्था पाने पर राजगद्दी पर आता है / आनेके बाद यथायोग्य काल पर अपना महान् उदयारंभ होनेका योग्य समय होने पर प्रथम चक्राकार में वर्तित, जगमगाता, महान् , विविध प्रकार के मणि-मोतियों की मालाओं, घंटिकाओं तथा पुष्पमालाओंसे अलंकृत, चक्रीको सदा आधीन, सूर्य जैसे दिव्य तेजसे दिशाओं को प्रकाशमय करनेवाला, हजार देव-यक्षोंसे अधिष्ठित ऐसा चक्ररत्न शस्त्ररुप होनेसे अपने पूर्वजोंकी आयुधशालामें उत्पन्न होता है / सर्व रत्नों में और आयुधों में श्रेष्ठ होनेसे, तथा चक्रवर्ती के प्राथमिक दिग्विजय करानेवाला होनेसे, सबसे प्रथम यह उत्पन्न होता है / सर्वायुधों में सर्वोत्तम प्रभाववाला और दुर्जय, महारिपुओं पर विजय पानेमें सदा ही अमोघ शक्तिवाला यह रत्न, चक्रीसे शत्रओं पर छोडने के बाद सैकडों वर्ष पर भी उसे मारकर ही [ चक्री के स्वगोत्रीय को वर्ण्य ] चक्री के पास आनेवाला होता है / यह रत्न प्रायः आयुधशाला में जब उत्पन्न होता है तब हर्षित ऐसा शाला-रक्षक स्वयं ही प्रथम चक्ररत्न का वंदनादिकसे सत्कार करके स्वनृपति [ जो अभी भावि चक्रीरुप है उन्हें ] को हर्षानंदसे हृष्ट-पुष्ट वह सेवक राजसभा में खबर देता है / भावि चक्री और वर्तमान के महानृपति उस बात को सुनते ही महाआनन्द पाकर सात-आठ कदम चक्ररत्न के सम्मुख चलकर स्तुति-वंदनादिक करके, खबर देनेवाले शालारक्षक को प्रीतिदान में, मुकुट को वयं पहने हुए सर्वाभूषण अर्पण करके तथा आजीविका का .. 390. प्रायः शब्द इसलिए है कि भावि चक्री सुभूम को मारने के लिए दानशाला के अस्थि प्रसंग में जब परशुरामने परशु रक्खा कि तुरंत ही वह परशु महापुण्यशाली सुभूम को कुछ भी न कर सका / उस समय रुष्ट बने सुभूम के हाथ में रहा अस्थि-थाली उसी समय सुभूम के विजय के लिए ही स्वयं चक्ररूप बन गई और उस चक्र से उसने परशुराम को मरण शरण किया। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चक्रवर्ती के चौदह रत्न और उसका वर्णन * प्रबंध करवाकर रवाना करते हैं / फिर नगर की अठारह आलमको खबर देकर, नगरशुद्धि कराके धूमधाम से प्रजा सहित नृपति पुप्प-चंदन, सुगंधी द्रव्योंकी विपुल सामग्रीपूर्वक शालामें जाकर चक्ररत्न की यथार्थ विनयपूर्वक पूजादिक विधिर्या करते हैं / फिर चक्ररत्नकी महिमा फैलाने अष्टाह्निकादि महा महोत्सव करके, प्रजाको दान देकर, ऋणमुक्त करके आनंदानंद बरताते हैं / देवाधिष्ठित ये रत्न, छः खंडोंको जीतनेको जाते चक्रीको प्रथमसे ही स्वयं मार्गदर्शक और विजेता के रूप में चक्रीके आगे आगे चलते हैं और चक्री उनके पीछे चलता है और जब चले तब प्रमाणांगुल एक योजन चलकर खड़ा रहता है / 2. छत्ररत्न-यह भी आयुधशाला में ही उत्पन्न होता है / यह रत्न छातेकी तरह गोलआकारका, मस्तक पर धारण करने योग्य अति मनोहर होता हैं अतः शरद ऋतु के पूर्णचन्द्र जैसा मनोहर, चित्र-विचित्र और ऊपर 99 हजार [ छातेमें होते हैं इस तरह ] सुवर्ण की सलाइयोंसे अंदर के भाग में देखने पर पंजराकार जैसा शोभता, अन्तभाग में चारों तरफ मोती-मणिरत्न की मालाओंसे मंडित और छत्र के बाहर के ऊपरितन भाग में-चोटी पर अर्जुन सुवर्ण के शरच्चन्द्र जैसा स्वच्छ और उज्ज्वल शिखरवाला होता है। देवाधिष्ठित यह रत्न वामप्रमाण होने पर भी चक्री के हस्तप्रभाव मात्र से ही [चर्मरत्न को ढंकने के लिए साधिक बारह योजन विस्तीर्ण बनकर मेघादिक के उपद्रव से रक्षण करने को समर्थ होता है / जिस तरह भरतचक्री छः खंडोंको जीतने को जाते वक्त उत्तर भरतार्ध में युद्ध करते म्लेच्छ लोगों के आराधित मेघकुमार देवने चक्री सैन्य को कष्ट देने के लिए जब सात दिन तक वृष्टि की तब चक्री ने छत्र और चर्मरत्न को अद्भुत * संपुट बनाकर समग्र सैन्य का रक्षण किया था / यह रत्न वृष्टि-ताप-पवन-शीतादि दोषोंको हरनेवाला, शीतकाल में गरमी और उष्णकाल में शीतलता देनेवाला और पृथ्वीकायमय होता है / 3. दंडरत्न-आयुधशाला में उत्पन्न होनेवाला यह रत्न, चक्री के कंधे पर रहता है / चक्री का आदेश होने पर मार्ग में आती अनेक ऊँची-नीची विषन भूमि आदि सर्व को दूर करके समतल-सरल मार्ग कर देनेवाला, शत्र के उपद्रवां को हरनेवाला, इच्छित मनोरथों का पूरक, दिव्य और अप्रतिहत होता है / और जरूरत पड़ने पर यत्न . 391. तीर्थंकर के जन्मकी खुशहालीमें, उनके पिता जिस प्रकार करते हैं उस तरह / Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .84. * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पूर्वक उपयोग करने पर [ सगरचक्री पुत्रवत् ] एक हजार योजन गहरी अधोभूमि में अद्भुत वेगसे प्रवेश करके, जमीन खोदकर मार्ग कर देनेवाला, गुफाओंके द्वार खोलने में उपयोगी, वज्र का बना हुआ, तथा बीच में तेजस्वी रत्नोंकी पांच रेखा-पट्टियों से शोभित है / 4. चर्मरत्न-चमडे का बना हुआ यह रत्न, चक्री के लक्ष्मीभंडार में उत्पन्न होता है / यह रत्न श्रीवत्सादि आकारवाला, अनेक प्रकार के चित्रोंसे चित्रित, शत्रुसे दुर्भेद्य, चक्रवर्ती की सेना बैठ जाए तो भी झके नहीं ऐसा होता है / इस. रत्न का उपभोग यह है कि-जब चक्री छः खंडोंको जीतने जाते सेनापति रत्न को गंगा-सिंधु के निप्कूटों [प्रदेश ] को साधने को भेजता है तब सेनापति समग्र चक्री सैन्यको उसके पर बिठाकर गंगा-सिंधु जैसी महान नदियों को जहाज की तरह शीघ्र तैर जाता है, फिर भी लेशमात्र झकता नहीं है / साथ ही समुद्रादिक तैरनेमें भी उपयोगी होता है / इसीलिए वामप्रमाण होने पर भी चक्री के स्पर्शमात्र से साधिक 12 योजन विस्तीर्ण होता है, जरूरत पड़ने पर गृहपति-मनुष्य रत्ने उस चर्मरत्न पर बोये धान्य-शाकादिक को शाम को ही काट लेने योग्य करनेवाला और वैताढ्य पर्वत की उत्तर दिशा में बसे : म्लेच्छ राजाओं के साथ युद्ध होने पर, चक्री को परास्त करने को म्लेच्छ अपनेसे आराधित किये मेघकुमार असुरों के पास मेघवृष्टि करवाते हैं, उस प्रसंग पर उस वृष्टि से बचने को ऊपर के भाग में ढक्कन सम छत्र रत्न और नीचे चर्मरत्न विस्तृत करके उस चर्मरत्न पर चक्री की महासेना को स्थापित करके, चारों बाजु से संपुट बना दिया जाता है, फिर प्रस्तुत छत्र रत्न के साथ बीचमें मणिरत्न बांधा जाए, जिससे 12 योजन के संपुट में सर्वत्र सूर्यवत् प्रकाश पड़ता है, जिससे संपुट के गमनागमन सुखरूप हो सकता है / इस तरह एक विराट तंबू जैसा दृश्य हो जाता है / 5. खड्गरत्न-तलवार जैसा यह रत्न भी आयुधशाला में उत्पन्न होता है / युद्ध में अप्रतिहत शक्तिवाला है / तीक्ष्ण धारवाला, श्यामवर्णका, पर्वत-वज्रादिक जैसी दुर्भद्य वस्तु को, चर या स्थिर प्रकार में पदार्थ को भेदनेवाला, अद्भुत वैडूर्यादि रत्नलतासे शोभित, सुगंधमय, तेजस्वी होता है / ____392. यह रत्न पृथ्वीकायमय है, तो भी वह चर्म-चमडे के जैसा मजबूत तलवेवाला और देखनेवाले को मानो चमडा ही बिछाया हो वैसा आभास उत्पन्न करनेवाला होनेसे उसका 'चर्म' शब्दसे व्यपदेश किया जाता है। अन्यथा सचमुच चमडा नहीं है / चमडा तो पंचेन्द्रिय जीवका संभवित है, जबकि ये रत्न एकेन्द्रिय हैं इसी तरह दण्डरन के लिए समझना, सातों रत्न पार्थिव स्वरूप में समझना / Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चक्रवर्ती के चौदह रत्न और उसका वर्णन * * 85 . .6. काकिणीरत्न-यह रत्न पहाडों को भी छिद सके ऐसा चक्रीके कोशलक्ष्मीभंडार में उत्पन्न होता है / वह विषहर, अष्टजाति सुवर्णों का बना है, छः दिशाओं में छः तिलोंवाला अतः ही पासे की तरह समचतुष्कोणाकार, 12 हाशिया और 8 कर्णिकावाला, 8-7-6 इत्यादि अनियमित तोले के जितने सुवर्ण प्रमाण का सुनार की एरण (लोहे का औजार ) जैसा होता है। चक्री दिग्विजय करने जाए तब उत्तर भरतमें जाने आनेमें बीच में आये वैताढ्य पर्वत की गुफाओंमें सूर्य-चन्द्र के प्रकाश के प्रवेशहीन, घोर अंधकारमय गुफा के मार्ग को सदाकाल प्रकाशमय करने महा-गुफाओं की पूर्व-पश्चिम दोनों बाजूकी दीवारों पर वृत्त अथवा गोमूत्राकार में इस काकिणी रत्न की अनीसे 49 मंडलों का आलेखन करने में इस रत्न का उपयोग होता है / इस रत्नसे आलिखित ( उत्कीर्ण ) मंडल दिव्य प्रभावसे प्रकाशित होनेके कारण चक्रवर्ती के अस्तित्व पर्यन्त अवस्थित प्रकाश देनेवाले बनते हैं जिससे लोगोंका गमनागमन का मार्ग सुखरूप बनता है / साथ ही स्कन्धावार-छावनी में रहने के कारण, उसके हस्त स्पर्श से 12 योजन तक प्रकाश देकर रात्रि को भी दिवस बना देता है / तदुपरांत सब बटरवरों [ मापने के घाट ] के ऊपर का आलेख काकिणीसे किया जाता है, तब. ही वह प्रमाणभूत गिना जाता है। 7. मणिरत्न-यह भी कोशागाररूप लक्ष्मी भंडार में उत्पन्न होनेवाला, निरुपम कान्तियुक्त, विश्व में अद्भुत, वैडूर्य मणि के प्रकार में सर्वोत्तम, सर्वप्रिय, मध्य में वृत्त और उन्नत छः कोनोंवाला, दूर तक प्रकाश देनेवाला शोभित होता है। इसका उपयोग जब सैन्य रक्षण के लिए चर्मरत्न और छत्ररत्न का संपुट बनाना हो तब संपुट में उद्योत करने के लिए छत्ररत्न के तुम्ब के साथ बांधा जाता है / अथवा तमिस्रागुफामें प्रवेश करते समय हस्ति पर बैठा चक्री, हस्ती के दक्षिण कुम्भस्थल में देवदुर्लभ ऐसे मणिरत्न को रखकर प्रकाश को 12 योजन तक फैलाता, अपने आगे और दोनों बाजू की तीनों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ गुफा लांघ सकता है और उत्तर भरत की विजय यात्रा में सफलता पाता है / ... साथ ही वह रत्न मस्तक पर तथा हाथ में बांधा हो तो, सर्वोपद्रव हर कर, सुख-संपत्ति देनेवाला, सुरासुर-मनुष्य तिर्यंचादिक के, सर्व शत्रओंके उपद्रवोंको हरनेवाला है / मस्तकादि अंग पर बांधकर संग्राम में प्रवेश करनेवाला पुरुष, शत्रु के शस्त्रसे .... 393. तीन दिशाओं में इसलिए कि पीछे आते सैन्य के लिए तो मंडल प्रकाश सहाय है।' Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अवध्य और भयमुक्त बनता है / मतांतरसे हाथ पर बांधने से सदा तरुणावस्था रहती है, और उसके नख-केश की वृद्धि भी नहीं होती। इति एकेन्द्रिय रत्नानि / / ___ इस तरह सात एकेन्द्रिय रत्नोंकी व्याख्या की / अब सात पंचेन्द्रिय रत्नोंके बारेमें कहते हैं / 8. पुरोहितरत्न-जरूरत पड़ने पर चक्री को शान्तिक-पौष्टिक आदि विविध कर्मानुष्ठान कराकर सफलता देनेवाले, महापवित्र, संपूर्ण गुणोपेत, चौदह विद्या में पारंगत, . प्रवेश निर्गमन में मंगलकार्य करानेवाला, कवि-कुशल पुरोहित का काम करनेवाला / 9. गजरत्न-यह गज महान् वेगवाला, सात अंगोंसे प्रतिष्ठित ऐरावण गज जैसा पवित्र, सुलक्षण, महापराक्रमी, अजेय ऐसे किल्लादिक को भी तोड़ डालनेवाला होता है / चक्री इस हस्ति पर बैठकर सदा विजययात्रा पाता है। यह रत्न देवाधिष्ठित होता है / 10. अश्वरत्न–चक्री का यह घोडा महान् वेगवाला, स्वभावसे ही सुंदर, आवर्तादि लक्षणवाला, सदा यौवनवाला, स्तब्धकर्णवाला, लंबाईमें 108 अंगुल लंबा, और 80 अंगुल ऊँचा, कुचेष्टारहित, अल्पक्रोधी, शास्त्रोक्त सर्व लक्षणयुक्त, किसी भी जलाशय, अग्नि या पहाडोंको बिना परिश्रम उल्लंघन करनेवाला-महान् वेगवाला अजेय होता है / 9-10 यह दोनों तिर्यचरत्नो वैताढ्यपर्वत की तलहटी में उत्पन्न होते हैं और छः खंडोंकी विजय यात्रा में पराजित हुआ व्यक्ति उस समय चक्रीको भेंट स्वरूप देते है। 11. सेनापति रत्न-यह पुरुष हस्त्यादि सर्वसेना का अग्रसर, चक्री का युद्ध मंत्री, यवनादिक अनेक भाषा-शास्त्र, तथा विविध लिपि-शिक्षा-नीति, युद्ध-युक्ति, चक्र, व्यूहादि विषयों का जानकार, समयज्ञ, विजय करने के क्षेत्र के जमीनादिक मार्ग का ज्ञाता, वफादार-परमस्वामिभक्त, तेजस्वी, प्रजाप्रिय, चारित्रवान, पवित्र गुणोंसे सुलक्षण होता है, और दिग्विजय में चक्री साथ में ही होता है / चक्री की आज्ञा होते ही चक्री की सहायके बिना ही चर्मरत्नसे गंगा-सिंधु के अपर तट पर जाकर, महाबलिष्ठ म्लेच्छ राजाओं के साथ, भीषण-खूखार युद्ध करके सर्वत्र विजय पाकर चक्री का शासन स्थापित करता है / 12. गृह [गाथा ] पतिरत्न-अन्नादिक के कोष्ठागारका अधिपति, चक्रीके महल-गृह के तथा सैन्य के भोजन, वस्त्र, फलफूल जलादिक आवश्यक तमाम वस्तुओं Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चक्रवर्ती के चौदह रत्न और उसका वर्णन . की चिंता करनेवाला-पूरा करनेवाला, सुलक्षण, रूपवंत, दानशूर, स्वामिभक्त, पवित्रादि गुणवाला होता है / साथ ही दिगविजयादि प्रसंग पर जरुरत होने पर अनेक प्रकार के धान्य तथा शाक को चर्मरत्न पर सुबह बोकर शाम को उगानेवाला होता है, [ चर्मरत्न इस धान्योत्पत्ति के योग्य क्षेत्रतुल्य काम देनेवाला और गृहपति का कृषिकार की तरह समझना ] जिससे सैन्य का सुखपूर्वक निर्वाह होता है / / 13. वार्धकी रत्न-अर्थात् महान् स्थपति, शिल्पकार, समग्र बढई में श्रेष्ठ, चक्री के महलों, प्रासादों गृहों तथा सैन्य के लिए निवासस्थानों, गाँव, नगरोंको तैयार कर देनेवाला तथा पौधशाला को एक ही मुहूर्त में वास्तुशास्त्र के नियम अनुसार, यथार्थ रूपमें व्यवस्थित बनानेवाला होता है। बांधकाम विभाग का अधिष्ठाता यह पुरुष होता है / साथ ही जब चक्री तमिस्रा-खंड प्रपात गुफामें जाए तब समग्र सैन्य को सुखरूप उतरने के लिए उन्ममा तथा निमग्ना नामकी महानदियों के पर महान् सेतु-पुलों को बांधनेवाला / 14. स्त्रीरत्न—वह महान् विद्याधरों तथा अन्य नृपतियोंके उत्तम गृह में उत्पन्न होता है / उसमें छः खंडों की नारियोंके एकत्रित तेजपुंज जितना तेज, दिव्यरूपादिक होता है / सामुद्रिकशास्त्र में कहे संपूर्ण स्त्रीलक्षण युक्त, मानोन्मान प्रमाणयुक्त, महादेदीप्यमान और सर्वांगसुंदर होता है / सदा अवस्थित यौवनवाला, रोम नख न बढे ऐसा, भोक्ता के बल की वृद्धि करनेवाला, देवांगना जैसा, स्पर्श करने पर सर्व रोगोंको हरनेवाला और कामसुख के धामसमान महाअद्भुत होता है / इस स्त्री ( रत्न ) को चक्री मूल ' शरीरसे भोगे तो कदापि गर्भोत्पत्ति नहीं होती / गर्भाशय की गरमी के कारण गर्भ ही नहीं रह सकता / गरमी के उदाहरण में-कुरुमती नाम की स्त्रीरत्न का स्पर्श होते ही लोहे का पुतला भी द्रवीभूत हो गया था यह उदाहरण प्रसिद्ध है / इति पंचेन्द्रिय रत्नानि || इस तरह 8-11-12-13-14 की संख्यावाले सेनापति आदि पांच मनुष्य रत्नो अपने अपने नगर में उत्पन्न होते हैं और वे स्वकालिक उचित देह प्रमाणवाले होते हैं। - 394. पौष धत्ते इति पौषधः-जो धर्मकी पुष्टि करे वैसी क्रिया / ‘पौषध चार प्रकारका होता है / तप करना, शरीर सत्कार त्याग, ब्रह्मचर्यपालन और पापमय आचरणका त्याग, संक्षिप्तमें जिसमें साधुजीवन के स्वादका अनुभव हो वह / जैनो पर्वके दिनोंमें धर्मगुरु के पास जाकर इसकी आराधना करते हैं / 395. यह कार्य वार्धकीरत्न का है ऐसा आवश्यकचूर्णि बताता है / . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . इस तरह ये सजीव चौदह रत्न सदाशाश्वत, हरेक चक्री को प्राप्त होनेवाले, प्रत्येक एक एक हजार यक्षोंसे अधिष्ठित होते हैं / अतः उसके कार्यकी सहायमें उतने सहायक होते हैं / इसीलिए ये रत्न सर्वत्र विजय दिलानेवाले, सर्वत्र महासुख देते हैं परंतु पापयोगसे चक्री दूर खिसक जाए तो देव प्रभारहित ऐसे ये रत्न [ सुभूम का जिस तरह देवसे पकडा हुआ चर्मरत्न छोड देनेसे नाश हुआ था वैसे ] हानिकारक भी बनता है / चक्रवर्ती इन रत्नों को बहुमानपूर्वक संभालते हैं-रक्षा करते हैं- सेवन करते हैं और काम पडने पर यथेष्ट उपयोगमें लेता है / जैर्धन्य से जंबूद्वीप में एक साथ चार चक्री हो सकते इस दृष्टि से उस समय 4414=56 रत्न और उत्कृष्ट काल में महाविदेह के 28 विजयोंमें 28, भरत-ऐश्वत के एक एक इस तरह 30 चक्री वर्तित हों, तब समकाल में 60x14420 रत्न हो सकते हैं / [267 ] ( प्रक्षेपगाथा 64 ) // चक्री के चौदह रत्नोंकी दीर्घता-उत्पत्तिस्थान-उपयोग विषयक यंत्र // उद्भव | उपयोग / रत्ननाम | उद्भव उपयोग रत्ननाम दीघता उदभव रत्ननाम | ਉੱਭ 1. चक्ररत्न | वाम चक्रीकी आकाशमें चलने- | 8. अश्वरत्न 108 | वैताढय | युद्ध में विजयदाता प्रमाण आयुध वाला शत्रु अं० | तलहटी शालामें | विजयकारी 2. छत्ररत्न वृष्टि-वायुसे रक्षा | 9. गजरत्न तत्काल करनेवाला योग्य , | महापराक्रमी युद्धमें विजयदाता 3. दंडरत्न भूमिसमकारक 18. पुरोहित, स्वस्व : पुरोहितका काम करनेवाला शान्तिक कर्मकृत् नगरे 4. खड्गरत्न 320 , पहाडादि भेदक 11. सेनापति , युद्ध संचालक और निष्कूट जीतनेवाला 5. चर्मरत्न हाथ लक्ष्मी | धान्य बोनेमें भडारमें | उपयोगी 12. गृहपति | , , भोज्य सामग्री तैयार करनार 6. काकिणी 4 अं० , मंडल प्रकाशकृत् 13. वार्धकी | , , पुल-गृहादिककृत् 7. मणिरत्न 2 अं० .. दिव्य प्रकाशकृत् 14. स्त्रीरत्न | , / राजगृहमें चक्री के भोग्य चौदह रत्नों का विस्तार-मोटाई मान खास लब्ध न होनेसे यहाँ नहीं दिया है। 396. अधिक वर्णन जंबू० प्रज्ञ० लोकप्रकाशादिकसे जाने / Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चक्रवर्तीको प्राप्त होते नवनिधि * अवतरण- अब चक्री के नवनिधि की हकीकत प्रक्षेपक गाथासे कही जाती है / णेसप्पे पंडुए पिंगलए, सव्वरयणमहापउमे / काले अ महाकाले, माणवगे तह महासंखे // 268 // [ क्षे. गा. 65] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 268 // . विशेषार्थ- चक्रवर्ती के जिस प्रकार चौदह रत्न होते हैं उसी प्रकार नवनिधान भी प्राप्त हुए होते हैं / जिस अवसर पर चक्रवर्ती भरतक्षेत्र का विजय पाते पाते गंगानदी के मुख के पास अर्थात् समुद्र में जहाँ गंगा का संगम होता है, उस स्थान पर आवे, उस वक्त चक्रवर्ती के प्रबल पुण्य से आकर्षित देवाधिष्ठित देव संचालित नवों निधान पातालमार्गसे होकर चक्रवर्ती की राजधानी में आते हैं। ये नवों निधान बडी मंजूषा-पेटी के रूप में होते हैं / वह हरेक मंजूषा आठ योजन ऊँची, नव योजन चौडी और बारह योजन लंबी होती है। प्रत्येक मंजूषा के नीचे रथ के पहिये की तरह आठ आठ चक्र (पहिये ) होते हैं और उनके मुख वैडुर्यमणिसे आच्छादित होते हैं / तथा वे सुवर्णमय, रत्नोंसे भरपूर और चक्र, चन्द्र और सूर्य के लांछनसे युक्त होते हैं। चक्रवर्ती जब 6 खंडों को साध्य करके गंगा के पास विजय पाकर आता है तब गंगा के पास रहे इन निधानों को चक्री अठ्ठम तप के द्वारा आराधता है। उन निधियों के देव शरण में आने के बाद, चक्री की सेवा में सदा हाजिर रहने के वचनो देते हैं / फिर चक्री जब उनका सत्कार करके राजधानी की और मुडता है तब वे निधि पातालमार्ग से परंतु चक्री के पीछे पीछे आते हैं / और राजधानी के समीप आने के बाद वे निधिए राजधानी के बाहर ही रहते हैं; क्योंकि प्रत्येक निधि चक्री की नगरी जितना मानवाला होनेसे नगर में कहाँसे समा सके ? इस तरह चक्री की गज-अश्व-रथपदाति आदि सेना भी नगर के बाहर ही रहती है / नवनिधान के जो जो नैसर्पादि नामो हैं उस उस नामवाले मुख्य नागकुमार देवो उस उस निधान के अधिष्ठायक हैं / वे पत्योपम आयुष्यवाले हैं / यहाँ किन्हीं शास्त्रकारों का ऐसा कथन है कि- इन निधानों में उस उस वस्तु की प्राप्ति को जणानेवाले शाश्वता-दिव्य ' कल्पग्रन्थो' हैं। उनमें अखिल विश्व का सर्व विधि 397. देखिए त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र 'इत्यूचुस्ते वयं गंगामुखमागधवासिनः / आगतास्त्वां महाभाग ! त्वद्भाग्येन वशीकृताः || 398. अधिक जानकारी के लिए जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-स्थानांग-प्रवचनसारोदारादि ग्रन्थ देखें / ब. सं. 12 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * लिखा होता है / जब कि किन्हीं शास्त्रकारों का ऐसा कथन है कि- उन कल्पग्रंथों में बताए सर्व पदार्थ ही दिव्य प्रभावसे उस प्रत्येक निधानमें से [ अथवा निधिनायक द्वारा ] साक्षात् प्राप्त होता है / इन नवनिधानोंमें से किस निधान में क्या वस्तुएँ ( अथवा जो विधियाँ बताई हों) होती हैं, इसका संक्षिप्त में नाम के साथ वर्णन किया जाता है। 1. नैसर्प निधिः- ईस निधि के कल्पों में खान-ग्राम-नगर-पत्तन, निवेशन, मडंवक, द्रोणमुख, छावनी, हाट-गृहादि स्थापन का समग्र विधिविषय जो अब वर्तमान वस्तुशास्त्र में भी दीखते हैं उस विषयक विषयो [ पुस्तक वा साक्षात् वस्तु ]. इस प्रथम निधिसे प्राप्त होता है अथवा उन उन स्थानों का निर्माण होता है। . 2. पांडुकनिधिः-इस निधि के कल्पों में सुवर्णमुद्राएँ आदि की गिनती, धनधान्य आदि का प्रमाण, उसे उत्पन्न करने की पद्धति, रुई, गुड, चीनी आदि सर्व का मान, उन्मान करने की सर्व व्यवस्था होती है / धन-धान्य की उत्पत्ति, बीजोत्पत्ति तथा हरेक प्रकार का गणित भी इस निधिसे हो सकता है। 3. पिंगलनिधिः- इस निधि के कल्पों में पुरुषों तथा स्त्रियों के तथा हाथी, घोडे आदि के गहने-आभूषणो इत्यादि आभरण बनाने विषयक सारी व्यवस्था इस तृतीय निधान के आधीन है / 4. सर्वरत्ननिधिः- चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय रत्नो तथा सात पंचेन्द्रिय रत्नो ये सर्व इस निधि के प्रभावसे उत्पन्न होते हैं / इस निधान के प्रभावसे चौदह रत्न बहुत कान्तिमय होते हैं ऐसा कुछ लोग कहते हैं / / 5. महापानिधिः-सर्व प्रकार के वस्त्र आदि की उत्पत्ति, रंगने-धोनेकी व्यवस्था का ज्ञान इस निधि के द्वारा होता है / 6. कालनिधिः--अतीत, अनागत और वर्तमान विषयक सकल ज्योतिषशास्त्र विषयक काल ज्ञान, कृषि बनिजादि कर्म तथा कुंभकार, लोहार, चित्रकार, बुनकर, नापित इत्यादि मूलभेद 20 और उत्तरभेदवाले सौ प्रकार के शिल्पो, साथ ही जगत के तीर्थकरचक्री–बलदेव-वासुदेव के वंशों का शुभाशुभपन इस कालसंज्ञक निधि द्वारा होता है / ___399. हैमकोष में तो लोकप्रचलित इस प्रकार नवनिघि दर्शाये हैं / हिन्दु धर्मशास्त्र में भी इसी प्रकार बताए हैं / महापद्मश्च पद्मश्च मकरकच्छपौ। मुकुन्दकुन्दनीलाश्च, चर्चाश्च निधयो नव // [ का. र. श्लो. 107 ] Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नवनिधानका स्वरुप . .7. महाकालनिधिः-लोहा तथा सोना-चांदी आदि धातुएँ और उनकी खाने तथा मणि-मोती-प्रवाल-हीरे-माणिक-चन्द्रकान्तमणि आदि रत्न ये सर्व वस्तुएँ इस निधि द्वारा प्राप्त होती हैं अथवा उनकी उत्पत्ति इस निधि में कही है / 8. माणवकनिधिः-योद्धे, उनके पहनने के बख्तर, हाथ में धारण करनेके शस्त्र, युद्ध की कला, व्यूहरचना, सात प्रकार की दंडनीति आदि सर्व विधि इस निधान द्वारा जान सकते हैं / 9. महाशंखनिधिः-नाटक, विविध काव्य, छंद, गद्य-पद्यात्मक चंपू, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और संकीर्ण इस तरह चारों प्रकार के काव्य-भाषाएँ इस नवम निधिसे जान सकते हैं / इस तरह चक्री के अपने परम पुण्योदय से मनुष्य जाति तथा मानवस्वभाव को उपयोगी तमाम साधन-सामग्री इन निधियों द्वारा प्राप्त होती है / [ 268 ] (क्षेपक गाथा 65) // नौ निधियों के नाम तथा तद्विषय प्रदर्शक यन्त्र // निधि नाम निधिगत क्या क्या है ? | निधि नाम | निधिगत क्या क्या है ? 1. नैसर्पनिधि | गाँव-नगर-गृहादि स्थापन | 6. कालनिधि | 63 शलाकाचरित्रो-ज्योतिष विधि शिल्पादि शास्त्र की विधि 2. पांडुकनिधि | धन-धान्य-मान की तथा 7. महाकालनिधि मणि-रत्न-प्रवालादि उत्पत्ति की विधि - धातु खानोंकी विधि 3. पिंगलनिधि | स्त्री-पुरुष गजाश्वादि . माणवकनिधि, सर्व शस्त्रोत्पत्ति-बख्तर आभरण विधि नीति की विधि 4. सर्वरत्ननिधि | चक्रादि चौदह रत्नोत्पत्तिकी 9. शंखनिधि गायन-नाट्य काव्य वादित्रादिक की सर्व विधि विधि 5. महापद्मनिधि वस्त्रोत्पत्ति-रंगने की विधि बताई गई है। अन्य मतसे तो, इन वस्तुओं को ही साक्षात् निधिगत समझना / प्रत्येक निधिमान 12 योजन दीर्घ, 9 यो० विस्तार, ८यो * ऊँचाई का जाने / अवतरण-अब सारे जंबूद्वीप में समकाल में उत्कृष्ट तथा जघन्यसे कितनी रत्न संख्या होती है? यह कहते हैं / Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जंबूदीवे चउरो, सयाइ वीसुत्तराई उक्कोसं / रयणाइ जहणं पुण, हुंति विदेहमि छप्पन्ना // 269 // [प्रक्षेपक गाथा 66] गाथार्थ-जंबूद्वीप में उत्कृष्टसे. 420 और जघन्यसे 56 रत्न महाविदेह के अंतर्गत होते हैं / / / 269 / / विशेषार्थ- उत्कृष्टपद में जंबूद्वीप में कुल 30 चक्रवर्ती एक साथ हो सकते हैं, अतः महाविदेह की बत्तीस विजयोंमेंसे 28 विजयों में अठाइस क्योंकि शेष चार विजयों में वासुदेवों का संभव है और एक भरतक्षेत्र में, एक ऐरवतक्षेत्र में इस तरह कुल 30 चक्रवर्ती होते हैं / एक एक चक्रवर्ती के 14 रत्न होनेसे 30x14=420 कुल रत्न होते हैं / जबकि भरत, ऐर वत में और विदेह की अन्य 28 (अठाइस ) विजयों में चक्रवर्ती नहीं होते, अंत में मात्र पुष्कलावती, वत्स, नलिनावती, वा इन चार विजयों की नगरी में जघन्यसे चार चक्रवर्ती होते हैं / (चार से न्यून चक्रवर्ती जंबूद्वीप में नहीं होते ) तब कुल ( 4414= )56 रत्न जघन्यसे जंबूद्वीप के महाविदेह में होते हैं / जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी यही बात कही है / [ 269 ] ( क्षेपक गाथा 66) अवतरण-अब 'युद्धशूरा' वासुदेवों के कितने शस्त्रो-रत्नो हों? यह कहते हैं / चकं धणुहं खग्गो, मणी गया तह य होइ वणमाला / संखो सत्त इमाई, रयणाई वासुदेवस्स // 270 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / विशेषार्थ–१, सुदर्शन चक्र, 2. नंदक नाम का खड्ग तथा 3. मणि इन तीनों रत्नों का वर्णन पहले 267 वी गाथा में कहा गया है उसके अनुसार समझ लेना / मात्र चक्र को सुदर्शन नामसे पहचाना जाता है / / 4. धणुहं-धनुष, इसे शार्ङ्ग धनुष नाम का शस्त्र समझें / दूसरे किसीसे उठाया न जा सके वैसा यह धनुष बड़ा भारी, अद्भुत शक्तिवाला, जिसके टंकार मात्रसे शत्र सैन्य त्रस्त होकर पलायमान हो जाए ऐसा होता है / 5. गया-गदा, यह गदा चक्री के दंड रत्न जैसी महाप्रभावशाली, दूसरे किसीसे न उठाई जा सके ऐसी, अभिमानी शत्रुओं की भुजा के मद को तोड़ डालनेवाली और वलीष्ठ होती है / Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मनुष्याधिकारमें आठवाँ आगतिद्वार * 6. वणमाला-इस नाम की माला वासुदेव की छाती पर निरंतर लटकती होती ही है / वह माला कभी कुम्हलाती नहीं है / वह सर्व ऋतु के पुष्पोंसे सुंदर तथा अत्यंत सुगंधी होती है, तथा देवसमर्पित होती है / ____7 शंख-पांचजन्य, इस शंख को वासुदेव के सिवाय (तीर्थकर वर्ण्य ) दूसरा कोई भी बजा नहीं सकता / उसकी आवाज होते ही शत्रु सैन्य भयभीत होकर भाग जाता है / इस शंख की आवाज 12 योजन तक सुनी जाती है / इस तरह सदा देवाधिष्ठित सात रत्न वासुदेव के होते हैं और बलदेवें' के तीन रत्न होते हैं, जिसकी हकीकत आगे अलग कही जाएगी / [270] . // मनुष्याधिकार में आठवाँ आगतिद्वार // अवतरण-सातवें गतिद्वार को पूर्ण करके, अब आठवाँ आगतिद्वार बताया जाता है / संखनरी चउसु गइसु, जंति पंचसु वि पढमसंघयणे / इग दु ति जा अट्ठसयं, इग समए जति ते सिद्धिं // 271 // गाथार्थ-संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले मनुष्य मर कर चारों गति में जाते हैं, परंतु उन में जो प्रथम संघयणवाले हैं वे पांचों गति में जाते हैं / वे एक ही समय पर एक, दो, तीन यावत् एकसौ आठ तक सिद्धि पद को पाते हैं // 271 / / विशेषार्थ- संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले पुरुष-स्त्री नपुंसकवेदी मनुष्य, देव-नरकतिर्यंच और ( पुनः ) मनुष्य इन चारों गतियों में उस उस गति योग्य परिणाम को प्राप्त होने पर उत्पन्न हो सकते हैं / [ असंख्य वर्षायुष्यवाले युगलिक का निषेध किया ] इन संख्यवर्षायुषी में जो प्रथम वज्रऋषभनाराच संघयणवाले हैं, ( अन्य संघयण का निषेध हुआ) वे ही तद्भव में शुभ अध्यवसाय प्राप्त होते ही चार गति के उपरांत पांचवीं गति अर्थात् मोक्षगति में भी जाते हैं / --- अर्थात् जब जीव संक्लिष्ट अध्यवसायवाला, हिंसा में आसक्त, महारंभी, महापरिग्रही, रौद्र परिणामी आदि पापाचरणवाला हो तब नरकायुष्य योग्य कर्मोपार्जन कर के नरकमें जाता है / ... 400. यहाँ तीर्थकर-चक्री-वासुदेव-प्रतिवासुदेव-बलदेव [ नारद-रुद्र ] आदि उत्तम पुरुषों का संक्षिप्त स्वरूप तथा उनके जीवन की संक्षिप्त हकीकत देने का ग्रन्थविस्तार हो जानेके कारण मुलतवी रखा है / 401. नर शब्द जातिवाचक होनेसे स्त्री-पुरुष-नपुंसक तीनों लेने के हैं। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * -जब जीव माया-कपट-छल में अधिक तत्पर हो, छोटे बडे व्यसनों में रत रहता हो, अधिक खाया करता हो तो प्रायः तिर्यच गति योग्य कर्मोपादान करके तिर्यंचगति में जाता है। -----साथ ही मार्दव-आर्जवादि सरल गुण युक्त हो, शल्यवाला हो वह मनुष्यगति में आता है। -तथा हिंसा, मृषा, स्तेय, मैथुन, परिग्रहादि पापों के त्यागी, गुणग्राही, बालतपादिक करनेवाले, दानरुचि, अल्पकषायी, आर्जवादि गुणोंवाले जीव परिणाम की विशेषता से देवगति योग्य कर्मोपार्जन करके देवगति में जाते हैं / ___-और जब प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्तिरूपंप्रकटनरूप-सम्यक्त्व अर्थात् सत्श्रद्धारूप परिणाम, सम्यकज्ञान परिणाम और प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पांचों महापाप की निवृत्ति-त्यागरूप चारित्र परिणाम उत्पन्न हो-अर्थात् सम्यग्-श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के सहयोगसे जीवको विशिष्ट प्रकार का, सर्वोत्तम निर्मल कोटिका परिणाम उत्पन्न हो तब, विशुद्ध कोटिकी उग्र तपसंयमादि की आराधना द्वारा जीवन में सर्वोत्तम चारित्र, सर्वोत्तम ज्ञान-दर्शन और सर्वोत्तम शक्ति प्राप्ति के आडे आनेवाले ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चारों घातीकर्मों का क्षय करके श्रेष्ठ कोटिका वीतरागभाव-चारित्र, सर्वोत्तम शक्ति तथा संपूर्ण लोकालोक को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त करता है / यह ज्ञान प्राप्त होनेके बाद जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त (छोटे बडे अनेक अन्तर्मुहूर्तो समझना ) उत्कृष्टसे कुछ न्यून पूर्वकोटि वर्ष पर्यंत केवलीपन में ही रहकर, शेष रहे भवोपग्राही ( वेदनीय, आयुप्य, नाम, गोत्र ) चार कर्मों को यथाकाल खपाकर, सकल कर्मसे मुक्त होकर, आत्मिक सुख में निमग्न वे आत्माएँ ऋजुगति से एक ही समय में मुक्ति सुख को प्राप्त करती हैं / अर्थात् चौदह राजलोक के अन्त में आई मुक्तात्माओं के रहने के लिए स्थानवर्ती जो सिद्धशिला है वहाँ पहुँच जाती हैं / वहाँ सादिअनंत स्थिति प्रमाण के अव्याबाध, अनंत आत्मिक सुखका उपभोग करता हैं / संसार की कारणभूत कर्मसत्ता नष्ट होनेसे, उसका कार्यभूत संसारभ्रमण दूर होनेसे, फिर से इस विश्व में उन्हें आने या अवतार लेने जैसा कुछ भी होता ही नहीं है / ये जीव एक ही समय में एक, दो, तीन इस प्रकार यावत् किसी काल में एक साथ 108 तक मोक्ष में जा सकते हैं / [ 271 ] Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मनुष्यगति आश्रयी अष्टद्वार व्यवस्था प्रदर्शक यंत्र * *9 . // मनुष्यगति आश्रयी अष्ट द्वार व्यवस्थाप्रदर्शक यन्त्र // आठों द्वारके नाम ग० उत्कृष्टमान | ग० जघन्यमान स० उत्कृष्टमान स० जघन्यमान 1. स्थितिमान 3 पल्योपम अंतर्मुहूर्त का | अंतर्मुहूर्त का / अंतर्मुहूर्त का 2. देहमान 3 कोसका अंगुल असंख्य | अंगुल असंख्य 'अंगुल असंख्य भाग भाग भाग 3. उपपातविरह 1 समय 24 मुहूर्त 1 समय 4. च्यवनविरह यावत् संख्य 5. उपपातसंख्या एक-दो-तीन यावत् असंख्य एक-दो-तीन 6. च्यवनसंख्या 7. गतिद्वार / तेउकाय, वायुकाय इन दंडकों को छोड़कर शेष 22 दंडकों के जीव मनुष्य गति में उत्पन्न हो सकते हैं, परंतु इतना विशेष कि सात नारकी के एक ही दंडकमेंसे सातवीं नारकी कम करना, और इस तरह पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यच के दडकमेंसे असंख्यवर्षायुषी युगलिक मनुष्य-तिर्यंच कम करेः हरि-अर्हन्-बलदेव-वासुदेव और चक्री के पांच मनुष्य रत्नो देव-नरक से ही आए होते हैं / हस्ति तथा अश्व रत्न तिर्यच वर्जित करके तीनों गतिमेंसे आए होते हैं और सात एकेन्द्रिय रत्न भव० वैमा० से आए होते हैं / 8. आगतिद्वार संख्यवर्षायुषी मनुष्य चारों गतिमें जा सकते हैं. और उनमें जो वज्रऋषभ नाराच संघयण से युक्त होते हैं वे तो मोक्ष सहित पांचों गतिमें जघन्यसे एक, दो यावत् उत्कृष्टसे एक समय में 108 जाते हैं। अवतरण-अब आगतिद्वार में मनुष्यों की वेद-लिंगाश्रयी गति की विशेषता . ' कहते हैं / वीसित्थी दस नपुंसग, पुरिसट्ठसयं तु एगसमएणं / सिज्झइ गिहि अन्न सलिंग, चउ दस अट्ठाहिअसयं च // 272 // गाथार्थ-स्त्रियाँ उत्कृष्टसे एक समय में बीस मोक्ष में जाएं, नपुंसक उत्कृष्ट दस और पुरुष उत्कृष्ट से एक ही समय में एकसौ आठ मोक्ष में जाते हैं / लिंगमें- गृहस्थ 402. अन्य दर्शन के तापसादि वेषरुप में भी मोक्ष में जा सकते हैं, क्योंकि वे सद्गुरु के योगसे वा तथाविध अन्य जिन धर्म के अनुमोदनादिक का आलंबन मिलने पर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र पाकरप्राप्त करके उत्तरोत्तर शुभ भावनो के योगसे केवली होकर मोक्ष में जाते हैं, परंतु तापस के धर्मसे तो नहीं ही, क्योंकि वेषलिंग चाहे वह हो परंतु जीवन में धर्म तो सम्यग्दर्शनादि मोक्ष में जाने के लिए होना ही चाहिए। साथ ही इसी प्रकार भले ही वेष गृहस्थ का हो परंतु जन्मान्तरीय संस्कारोंसे स्वाभाविक बैराग को पाकर, सम्यक चारित्र को प्राप्त करके अन्तकृत् केवली होकर मोक्ष में जाता है। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * लिंग में एक समयमें चार, अन्य लिंग में ( अर्थात् अन्य धर्म के तापसादिक लिंग में ) दस और स्वलिंग में ( स्व = अपने साधु लिंग में ) उत्कृष्ट एक समय में एक-सौ और आठ मोक्ष में जाते हैं / // 272 / / विशेषार्थ-यहाँ लिंग अथवा वेदाश्रयी गति बताई हैं अगर चे यों तो वेदों का अस्तित्त्व सर्वत्र है लेकिन यहाँ तो मनुष्यजाति आश्रयी वर्तित त्रिवेदका प्रसंग है अतः इसकी ही बात यहाँ समझानेकी है / पुरुषको पुरुष ही, स्त्रीको स्त्री ही तथा नपुंसकको नपुंसक ही इस तरह किस लिए पहचानते हैं ? तो इसका कारण (कर्मग्रन्थ की भाषा में ) 'वेद': ( साहित्यिक भाषा में ) 'लिङ्ग' तथा लोकवाणी में 'जाति' कहो वही है / यहाँ. वेद लिंग या जाति ये समानार्थक शब्द हैं / इस वेद के हरेक के दो दो प्रकार हैं। वे 1. द्रव्यवेद और 2. भाववेद के नामसे हैं। द्रव्यवेद-अर्थात् पौद्गलिक आकृति-आकार, यह 'नामकर्म' की विविध प्रकृतियों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त होता है / भाववेद-अर्थात् चित्त में उत्पन्न होता मानसिक विकार-अभिलाष उस मोहनीय कर्म के उदय के फलस्वरूप है / * इस द्रव्यवेद और भाववेद के बिच साध्य-साधन तथा पोष्य-पोषक का संबंध रहा है / इस वेद के पुरुषवेद, स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद ये तीन प्रकार हैं। स्वस्व कर्मानुसार नामकर्म की विविध प्रकृतियों के उदयसे प्राणी पुरुषाकृति, स्त्री आकृति और नपुंसकाकृतिको प्राप्त करता है। इससे यह द्रव्यवेद कहा जाता है जिस की पहचान बाह्यलिंग या चिह्नसे ही आसानीसे हो जाती है। ____ अब भाववेद-जिसे तात्त्विक रीत से वेद कहना है, क्योंकि यहाँ भावका अर्थ ही इच्छा, अभिलाष-विकार करना है / यह वेद मोहनीयकर्म के उदय के फलरूप होता है, जो बात ऊपर कही भी है / 403. विशेषतः उक्त दोनों लिंग में मोक्ष कहा वह, उनका शेष आयुष्य अन्तर्मुहूर्त शेष रहा हो और केवलज्ञान हो तथा मोक्ष में चले जाए तदाश्रयी समझना / परंतु यदि अन्तर्मुहूर्त अधिकायुष्य हो तो जैन साधु का यथार्थ वेष अवश्य स्वीकार करना पड़ता है और फिर वैसे मोक्ष में जानेवाले स्वलिंग सिद्ध कहलाते हैं, गृहस्थ केवली स्वरुप कूर्मापुत्र का एक ही अपवाद है, जिसे केवलज्ञान होनेके बाद सकारण छः मास होने पर भी साधुवेष प्राप्त नहीं हुआ, और इसीलिए यह एक ही अपक्मद आश्चर्यरुप कहा गया है। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन वेदकी स्थिति और उनके लक्षण * * 97 . यहाँ भावपुरुष वेद के उदयसे जीवको स्त्रीके (विषयोपभोगरूप ) संसर्गसुख की इच्छा होती है / भावस्त्रीवेद के उदयवाले जीवको पुरुष के संसर्गसुखकी इच्छाअभिलाषा होती है, और भावनपुंसक वेद के उदय से स्त्री-पुरुष दोनों के संसर्गसुख की कामना होती है / इस तरह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के वेद का स्वरूप कहा / विकारमें अल्पबहुत्व-पुरुषवेद का विकार सबसे कम समय तक टिकता है / स्त्रीवेद का विकार उससे अधिक समय स्थायी रहता है और नपुंसक वेदका विकार स्त्रीवेदका विकार से भी अधिक विशेष समय तक टिकता है। ___ इन तीनों भाववेद की विकारस्थिति को शास्त्र में तीन उपमाओंसे समझाई है / अर्थात् पुरुषवेद तृणाग्नि के समान, स्त्रीवेद गोमय-अग्नि के समान और नपुंसकवेद नगरदाह-अमि के समान / तृणाग्नि-तृण अर्थात् घास की आग जैसा / जिस तरह घास शीघ्र सिलग पड़ती है और बुझ भी जल्दी जाती है, उसी तरह पुरुषवेदवाले पुरुष का-स्त्री संसर्गरूप विकार-पुरुष की अपनी तथाप्रकार की विशिष्ट रचना और वेदके कारण सत्वर उत्थान पाता है और वह विकार जल्दी से शांत भी हो जाता है, स्त्रीवेद का विकार उपले की अग्नि जैसा या अंगारे जैसा है, जो उसकी विशिष्ट और गहन शारीरिक रचना के कारण (स्त्री को वह ) जल्दी प्रकट नहीं होता, तथा प्रकट होनेके बाद ( पुरुष संसर्ग होने पर भी) जल्दी शांत भी नहीं होता / और नपुंसक वेदका विकार तो नगर दाह के समान तप्त ईन्ट के जैसा होनेसे बहुत ही लंबे समयके बाद शांत होता है। नपुंसक को कामविकार प्रकट होने में कितना समय लगे इस संबंध में उल्लेख नहीं मिला अतः मध्यम समय की कल्पना ठीक लगती है / पुरुष में कठोर भाव मुख्य होनेसे उसे कोमल तत्त्व का आकर्षण रहा करता है / स्त्री में अति मृदु-सुकोमल भाव का प्राधान्य होनेसे कठोरत्व (पुरुष) की अपेक्षा रहती है / जबकि नपुंसक में दोनों भावों का मिश्रण होनेसे दोनों तत्त्वों के उपभोग की झंखना. रहा करती है। क्रमशः तीनों वेद के लक्षण बताती श्री स्थानांग तथा पनवणासूत्रकी टीकामें से गाथाएँ नीचे उद्धत की हैं / 404. दिगम्बरीय मतानुसार / बृ. सं. 13 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . मेहनं खरता दाढयं शोण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता / स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्तपुंस्त्वे प्रचक्षते // अर्थ-पुरुषका गुप्त लिंग-चिह्न, कठोरता, दृढता-मक्कमता, पराक्रम, दाढी, धृष्टता और स्त्री संसर्ग की कामना ये सात पुरुषवेद के लक्षण हैं। योनिर्मदुत्वमस्थैर्य मुग्धता क्लीबतास्तनौ, पुस्कामितेति लिङ्गानि सप्तस्त्रीत्वे प्रचक्षते // अर्थ—गुप्तांग चिह्न-योनि, कोमलता, चपलता, मुग्धता ( भोलापन), सामर्थ्यहीनता, स्तन का सद्भाव और पुरुष संसर्गकी कामना-ये सात स्त्रीत्व-स्त्रीवेदके लक्षण हैं / स्तनादि-श्मश्रुकेशादिभावाऽभावसमन्वितम् / . नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् // . अर्थ-स्तन आदि स्त्री योग्य चिह्न, पुरुष योग्य दाढी-केश आदि चिह्न हों अथवा न भी हों अर्थात् पुरुष-स्त्री दोनों के संमिश्र लक्षण न्यूनाधिक अंशमें विद्यमान हों और उभय लिंग के संसर्ग की इच्छा का मोहाग्नि अत्यन्त प्रदीप्त रहता हो, उसे सुज्ञो०८ नपुंसक कहते हैं। इस तरह तीनों वेद के लक्षण कहे / इन वेदों का चारों गति में यथाविध अस्तित्त्व है, अर्थात् देवों में मात्र पुरुष-स्त्री दो ही वेद हैं, नपुंसकवेदी वहाँ कोई नहीं हैं। सातों नरको और तमाम संमूछिमें जीवो मात्र एक नपुंसकवेदवाले हैं। अवशिष्ट मनुष्य तथा तिर्यंच दो गति के शेष मनुष्यों तथा तिर्यचों में तीनों वेद होते हैं। [ 272 ] 405. यहाँ दाढी का उल्लेख किया 'मूंछ' चिह्न नहीं लिया गया, यह वास्तविक भी है, क्योंकि अल्प मूंछवाली स्त्रियाँ हो सकती हैं लेकिन दाढीवाली स्त्रियाँ (प्रायः) नहीं मिल पाती / 406. क्लीबता इति पाठः विशेषोचितः अन्येषु कोषेषु वान्तपाठदर्शनात् क्लीबोऽपौरुषषण्ढयोः ( अने० संग्रहे 2/532 ) यह सामर्थ्यहीनअविक्रम अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। 407. स्तनकेशवतीस्त्री स्याद् रोमशः पुरुषः स्मृतः / उभयोरन्तरं कच, तदभावे नपुंसकम् // (स्थानांगवृत्ति) 408. महिलासहावो सरवन्न मेओ, मोहो महंतो महुया य वाणी / ससद्दयं मुत्तमफेणय च, एयाणि छ पंडगलक्खणाणि // (रत्नसंचय) / 409. अन्य भेद भी हैं उन्हें लोकप्रकाश, विशेषावश्यक भाष्यादिकसे जानें // 410. कतिपय संमूछिम पंचेन्द्रियों को पुरुष-स्त्रीचिह्न सद्भाव कर्मग्रन्थ तथा सप्ततिका भाष्य में कहा है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भिन्न शरीर अवगाहना तथा स्थानाश्रयी सिद्ध संख्या. * 99. अवतरण-भिन्न भिन्न शरीर अवगाहना तथा स्थानाश्रयी सिद्ध होती संख्या जणाते हैं। गुरु लहु मज्झिम दो चउ. अट्ठसयंउड्ढऽहोतिरिअलोए / चउबावीसहसयं, दु समुद्दे तिन्नि सेस जले // 273 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 273 // विशेषार्थ-उत्कृष्ट अवगाहनावाले जीव, उस उस काल में पांच सौ धनुष की ऊंची कायावाले जीव, एक समय में युगपत् दो ही संख्या में मोक्ष में जाते हैं, परंतु उससे अधिक नहीं जाते / साथ ही जघन्यसे दो हाथ की अवगाहना तक के जीव ही मुक्ति के योग्य हैं / दो हाथसे न्यून देहवाले तद्भव में मुक्ति योग्य नहीं होते, अतः उस जघन्य अवगाहनावाले जीवो एक समय में अधिकाधिक चार संख्या तक सिद्ध हो सकते हैं, जब कि जघन्य दो हाथसे आगे तथा 500 धनुष के अंदर ( अर्थात् जघन्य उत्कृष्ट के बीच ) की मध्यम अवगाहनावाले उत्कृष्ट से एक ही समय में 108 सिद्ध हो सकते हैं। ऊर्ध्वलोक से एक समय में उत्कृष्टा चार ही सिद्ध होते हैं। यहाँ ऊर्ध्वलोकसे देवनिकाय नहीं समझना परंतु एक लाख योजन ऊँचे ऐसे मेरुपर्वत पर आये नंदनवनमें से जानेवाले समझना, अर्थात् कोई लब्धिधारी विद्याधरादि मुनि, वैक्रियादि गमनशक्ति के द्वारा नंदनवन पर रहे श्री जिनचैत्यादिक को नमस्कारादि करने के हेतु गये हों और उस समय पर उनका आयुष्य पूर्ण होने का प्रसंग आ गया हो, इसलिए वे महात्माएँ अनशनादिक तपपूर्वक शुभध्यानाराधना करनेपूर्वक केवलज्ञान पाकर, अष्टकर्म का क्षय करके मुक्ति प्रायोग्य बनकर कालधर्म प्राप्त करें तब वे वहाँसे सीधे ही मोक्ष में जाते हैं, उस अपेक्षा से सोचना / यहाँ ऊर्ध्वलोक में भेद कर के सोचने पर * पांडुकवनाश्रयी दो मोक्ष में जाते हैं / - इस तरह अधोलोक में एक समय में उत्कृष्ट से बोईस मोक्ष में जाते हैं / यहाँ - 411. यहाँ अधोलोककी संख्यामें दूसरे दो मत हैं / संग्रहणीका एक मत जोडने पर तीन मत होते हैं। संग्रहणी के सिवाय दूसरे जो दो मत हैं वे. 1. उत्तराध्ययनका और 2. सिद्धप्राभूतग्रन्थका / उत्तराध्ययनके जीवाजीव विभक्ति अध्ययनमें 'बीसमहेतहेवेति' इस पाठसे 20 संख्या ग्राह्य होती है / जबकि सिद्धप्राभृत में 'बीसपुहुत्तं अहोलोए'-एतत्टीका च विंशतेः पृथक्त्वं द्वे विंशती / यहाँ पृथक्त्वका अर्थ दो किया अतः दो बार बीस (और एक बीस ) अर्थात् 20 + 20 = 40 की संख्या हुई / यह बात श्री चन्द्रिया टीकाकारने तथा श्री मलयगिरिजी (संग्रहणी के) टीकाकारने बताई है। इसमें चन्द्रिया टीकाकार श्री देवभद्रसूरिजी कहते हैं कि-इस संग्रहणी गाथा में चउबावीससट्टसयम् पदमें चउद्दोवीससटुसयम् यह पाठ रक्खा जाए तो ऊपर के दोनों मतों का समाधान हो जाए, मात्र एक श्री उत्तराध्ययन का ही मत अलग रहता है / इस तरह दो ही मतांतर रहते हैं / Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 100. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . भी अधोलोक शब्दसे नरक न समझकर ‘अधोग्राम ' स्थान समझना / अर्थात् मेरुपर्वत की पश्चिमदिशा की तरफ समभूतला से क्रमशः नीचे उतरता हुआ एक भूभाग आता है / वह पृथ्वी नीची नीची होती 42,000 हजार योजन पर एक हजार योजन गहरी होती हैं और वह भूमिभाग महाविदेहक्षेत्रमें आया है जिसे कुबडीविजय कहा जाता है / वहाँ तीर्थकरादिक का सद्भाव होता है और उस समय तीर्थकर आदि आत्माएँ मोक्ष में जानेवाली होती हैं / / और तिर्यगलोकमें से उत्कृष्टा एक समय में 108 मोक्ष में जाती है। तिर्यगलोकमेंसे सामान्यतः एक समय में 108 मोक्ष में जाए ऐसा कहा, परंतु हरेक स्थानसे 108 जाए ऐसा नहीं होता। तिर्यग्लोकमें भी कर्मभूमिसे आये; पुल्लिंग वैमानिक निकायसे आए, मध्यम अवगाहनावाले, साधुवेष [ जैनमुनिवेष-स्वलिंग] वाले और वे भी पुरुष ही होने चाहिए, कालसे उत्सर्पिणीका तीसरा और अवसर्पिणी हो तो चौथा आरा अवश्य हो; इस तरह संपूर्ण आठ विशेषणवाले ही, क्षपित कर्मवाले होकर एक समय पर 108 मोक्ष में जाते हैं। तिर्यगलोक में भेद करके सोचने पर कोई उत्तम जीव देवादिक के संहरणादिकसे लवणादिक समुद्र में फेंका जाए और उसी समय जलमें स्पर्श होने के पहले अन्तरालमें अति उत्कृष्टवीर्योल्लास के द्वारा त्वरित घाती कर्मों का क्षय करके अन्तकृत् केवली होकर, जलमें डूबते ही शेष कर्मों का क्षय करके तुरंत ही मोक्ष में जाए वैसे, अथवा किसी केवली जीव को भरतादिकक्षेत्रमेंसे उठाकर, दुश्मनदेव समुद्रमें फेंके और इतने में आयुष्य का अन्त आया हो और यदि मोक्षमें जाए ऐसे, इन दोनों प्रकारसे मोक्षमें जानेवाले जीव एक समयमें दो ही जाए। ____ अब शेष जलाशयोंमेंसे-उन गंगादि नदियोंमें तथा द्रहादिक जलस्थानोंमें स्नान आदि हेतु गए जीव, जहाजादिकमें बैठे हों वैसे जीव किसी भी विशुद्ध और उत्तम निमित्तसे वहीं केवलज्ञान पाकर मोक्षमें जाए तो एक ही समयमें तीन (मतांतरसे चार) सिद्ध होते हैं ! [ 273] ____अवतरण-पूर्वोक्त मनुष्य किस गतिसे आये एक समयमें कितने मोक्षमें जाए ? यह कहते हैं और साथ ही [ वेद-गति-से आए हुओंके भेदके विना ] प्रथम ओघसे-सामान्यतः चारों गति आश्रयी बताते हैं। तत्पश्चात् ढाई गाथा पदसे विशेष स्पष्ट करके बताएँगे। 412. अवसर्पिणी के चौथे आरा के बदलेमें तीसरे आरे में ही श्री ऋषभदेवप्रभु 108 जीवों के साथ मोक्ष में गये ऐस / उल्टा बननेसे ही इसे आश्चर्य माना गया है। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * किस गतिसे आये मनुष्य एक समय में कितने मोक्ष जाए * * 101 . नरयतिरियागया दस, नरदेवगईओ वीस अट्ठसयं // 2733 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 2733 // विशेषार्थ-नरक और तिर्यंचगतिसे निकलकर मनुष्य बने हुए जीव यदि मोक्षमें जानेके योग्य बनकर मोक्षमें जाए तो उत्कृष्टा एक समयमें दस ही जाए। मनुप्यगतिसे मरकर पुनः मनुष्यगति पाये हुए ऐसे एक समयमें 20, देवगतिमेंसे निकलकर मनुष्य बने हुए एक समयमें 108 मोक्षमें जाते हैं। [ 2733] अवतरण-अब किसी भी वेद के नाम ग्रहण बिना ही नारकादि प्रत्येक गतिमेंसे आये हुओं की सामान्य-विशेष से होती सिद्धि के बारेमें कहते हैं / दस रयणासकरवालुयाउ, चउ पंकभूदगओ // 274 // * छच्च वणस्सइ दस तिरि, तिरित्थि दस मणुअवीसनारीओ / असुराइवंतरा दस, पण तद्देवीओ पत्ते // 275 // जोइ दस देवी वीस, विमाणि अट्ठसय वीस देवीओ // 2753 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 274-2753 / / विशेषार्थ--अब गत गाथामें जिस तरह 'नरकगति' ऐसे सामान्य शब्द का प्रयोग किया जिससे सातों नरक का ग्रहण न हो जाए इसलिए सर्व भ्रमको टालनेको यह गाथा बताती है कि-'नरक शब्द ' से प्रथम के चार ही समझना, जिनमें रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा इन तीन नरकोंसे आए मनुष्य होकर एक समय पर दस सिद्ध हो जाए और चौथे पंकप्रभा से चार जीव मोक्षमें जाते हैं, परंतु धूमप्रभादि अंतिम तीन नरकसे आये हुओंको अनन्तर भवमें सर्वविरतिका उदय नहीं होनेसे उनका निषेध किया है / - अब तियंचगतिमे भी पृथ्वीकाय और अपकायमें से निकलकर आये एक समय पर उत्कृष्टसे चार, तेउ-वाउकाय के लिए तो अनन्तर भवमें ( 264 गाथा में ) मनुष्य प्राप्ति का निषेध बताया होनेसे वे सिद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि सिद्धिगमन मनुष्यके सिवा अन्य गतिसे नहीं है / अब वनस्पतिकायसे आये 6, और ( त्रसकायमें ) पंचेन्द्रिय * पुरुष तिर्यचमेंसे या स्त्री तिर्यचमें से आये मनुष्य होकर 10 जाते हैं / (यहाँ विकले 413. सिद्धप्राभृत में तो देवगतिसे आये हुओं को वर्ण्य शेष तीनों गतिसे आए दस दस मोक्षमें जाए ऐसा कहा है। सत्य तो बहुश्रुत या केवलि भगवंत जाने / Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .102. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . न्द्रियसे आये, अतः भवस्वभावसे ही सिद्धि प्राप्तके योग्य सामग्री नहीं मिलती, जो आगे बताया जाएगा / ). तीसरी मनुष्यगतिसे आये पुनः मनुष्य होकर 20 जीव एक समय पर मोक्षमें जाएँ / मनुष्य की स्त्रियाँ पुनः मनुष्यत्व पाई हों तो वे भी 20 संख्या पर सिद्ध होती. हैं, इसमें खास कोई भेद नहीं है / ___चौथी देवगतिमें विशेषरुपसे कहते हुए बताते हैं कि-असुरकुमारादिक भवनपतिके दसों निकायोंसे और व्यन्तर निकायमें से निकलकर आये एक समय पर 10 और उन्हीं दोनों निकायोंकी देवियाँ च्यवित होकर मनुष्य बनकर सिद्ध हों तो 5, ज्योतिषी. निकायसे आए 10, और उनकी देवियाँ आई हों वे 20 और चौथे वैमानिकनिकायसे आये उत्कृप्टा एक समयमें 108 और वैमानिककी देवीसे आये मनुष्य होकर एक ही समय पर 20 सिद्ध होते हैं / [ 2753 ] // नरक आदि गतिसे आये जीवोंकी एक ही समयमें ओघ और विशेषसे सिद्ध संख्याका यन्त्र // . गति विभाग नाम 1 समय सिद्धि निर० समय गति विभाग नाम 1 समय सिद्धि समय 1. नरकगतिसे आयेकी ओघमें |10 पहले तीन नरकसे आये चौथे पंकप्रभासे आये शेष 5-6-7 इन तीन न०से आये 2. तिथंच गतिसे आये ओघमें पं. तिर्यचसे निकलकर आये पं. तिर्यचिणी स्त्रीसे आये पृथ्वीकायसे निकलकर आये अप्कायसे निकलकर आये वनस्पतिकाय से निकलकर आये | 3. मनुष्यगतिसे आये ओघमें 4 मनुष्यसे मनुष्य बने मनुष्यनी-स्त्रीसे आये देवगतिसे आये ओघमें x | 1. भवनपतिकी प्रत्येक निकायमेंसे | भव० प्रत्येक निकी देवीसे आ० 4 | 2. व्यन्तरकी प्रत्येक निःसे आ० 4 | व्य० प्रत्येक नि०की देवीसे आ० 5 |3. ज्योतिषीनिकायसे आये ज्योतिषी देवीसे आये 4. वैमानिक प्रत्येक कल्पसे आये 1 वैमानिक देवीसे आये | 4 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरुषादि वेदसे आये हुओंकी समयसिद्धि * अवतरण- इस तरह नारकादि गति से आये हुओं की सामान्य-विशेषसे सिद्धि कहने के बाद अब पुरुषादि वेदसे आये हुओं की समय सिद्धि कहते हैं / तह पुंवेएहितो, पुरिसा होऊण अट्ठसयं // 276 // सेसट्ठभंगएसु, दस दस सिझंति एगसमयम्मि // 2763 // गाथार्थ- इस तरह पुरुषवेदसे उद्धार पाये हुए पुरुष होकर एकसौ आठ मोक्षमें जाते हैं और शेष आठ मांगोंमें दस दस एक समयमें सिद्ध होते हैं // 2763 // विशेषार्थ-वेद द्वारा होती सिद्धिसंख्याका प्रकार बताते हुए बताते हैं कि-यहाँ वेद द्वारा कुल नव भांगमें सिद्धिसंख्या विचारनेकी है अर्थात् (1) पुरुष वेदवाले देवों, मनुष्यों तथा तिर्यंचोंमेंसे निकले जीव (1) कुछ पुरुषरुपमें जन्म लेते हैं (2) कुछ स्त्रीरुपमें और .(3) कुछ नपुंसक रुपमें जन्म लेते हैं। इस तरह तीन भांगे। इसी तरह स्त्री वेदवाली देवियाँ, मनुष्यनीयाँ ( नारियाँ ) और तिर्यचिनियाँ मरकर (4) कुछ पुरुष (5) कुछ स्त्रियाँ और (6) कुछ नपुंसको होते हैं। इस तरह दूसरे तीन भांगे / ( कुल छः हुए ) इस तरह नपुंसक ऐसे नारकों, मनुष्यों तथा तिर्यचोंमें से निकलकर (7) पुरुष (8) स्त्री और (9) नपुंसक रुपमें जन्मते हैं। इस तरह नौ भांगे हुए। इन नौ भांगों से सिद्धि किस तरह हो सके यह समझाते हैं। प्रथम त्रिभंगमें-पुरुषवेदी देव मरकर पुरुष-नररूपमें जन्म लेकर मोक्षमें जाए एक समयमें एक साथ अधिकाधिक 108 जीव जा सकते / वे देवो मनुष्य-स्त्री रूपमें जन्म लेकर मोक्षमें जाएँ तो एक समयमें दस जाएँ और वे देवो अगर नपंसक रूपमें जन्म लेकर मोक्षमें जाएँ तो भी दस ही मोक्षमें जाएँ / द्वितीय त्रिभंगमें-स्त्रीवेदी देवियाँ मरकर पुरुषो होकर मोक्षमें जाएँ तो दस ही जायँ और वे ही देवियाँ स्त्री-नपुंसक रूपमें जन्म लेकर मोक्षमें जायँ तो भी दस ही जायें। तृतीय त्रिभंगमें इसी तरह नारकादि गतियों के नपुसको पुरुष, स्त्री या नपुंसक रूपमें मोक्षमें जाए तो दस ही जायें / शंका-यहाँ पर आप देवीसे आए दस ही सिद्ध हों ऐसा कहते हैं लेकिन गत गाथा में तो 'वैमानिकों, ज्योतिष्क देवियों और स्त्रीमें से आएँ बीस सिद्ध होते हैं ' ऐसा कह चुके हैं तो क्या समझना ? - 414. देवलोकमें नपुंसकवेदी नहीं होते अतः उनका नामोल्लेख नहीं किया गया / और नरकमें केवल नपुंसकवेद ही है, दूसरा वेदोदय है ही नहीं। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 104. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * समाधान-ऊपरके प्रश्नका समाधान यह है कि इस गाथामें प्रत्येक भांगेमें अलग अलग व्याख्यान कहा है और गत गाथामें समुच्चयमें व्याख्यान किया है जिससे कुछ विरोध नहीं आता अर्थात् जिस तरह इस गाथामें केवल पुरुष होकर जाय तो. कितने ? स्त्री होकर जायँ तो कितने इस तरह अलग अलग रीतसे कहा है / जब कि गत गाथाकी व्याख्यामें तो द्विसंयोगसे-त्रिसंयोगसे मिलकर मोक्षमें जायें तो बीस जायँ ऐसा कहा है / अर्थात्- पुरुष-स्त्री होकर सिद्ध हो, पुरुष-स्त्री-नपुंसक तीनों एकत्र होकर एक समयमें सिद्ध हों तो बीस हो सकते हैं / यह विशेषता समझना / इस पद्धतिके अनुसार सर्व भंगों के बारेमें सोचें / यहाँ गति-जाति-वेदादि आश्रयी बात की। ___ ग्रन्थान्तरसे खास जानने योग्य बाबत बताई जाती हैं / उसमें क्षेत्राश्रयी विशेष कहते हैं / मेरुपर्वत के नंदनवनमें से अगर मोक्षमें जाएँ तो एक समय में चार. पंडकवनमें से जाएँ तो दो, महाविदेहकी एक विजयमेंसे जायँ तो बीस, प्रत्येक अकर्मभूमिमें से संहरण किये गये मोक्षमें जाएँ तो दस, प्रत्येक कर्मभूमिमेंसे जायें तो 108, कालाश्रयी विशेष कहते शास्त्रमें बताया है कि-उत्सर्पिणी के तीसरे तथा अवसर्पिणीके चौथे आरेमें 108 मोक्षमें जाएँ और अवसर्पिणीके पाँचवें आरेमें 20 मोक्ष जायें और शेष " पहले, दूसरे और छठे आरेमें और प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें संहरणसे दस मोक्षमें जायें। [276-3] नवभंग यन्त्र 1. पुरुषसे पुरुष होकर 108 / 4. स्त्रीसे पुरुष होकर 10 7. नपुंसफसे नपुंसक होकर 10 2. पुरुषसे स्त्री होकर 10 / 5. स्त्रीसे स्त्री होकर 10 8. नपुंसकसे स्त्री होकर 10 3. पुरुषसे नपुंसक होकर 10 / 6. स्त्रीसे नपुंसक होकर 10 / 9. नपुंसकसे पुरुष होकर 10 अवतरण-अब सिद्धिगति आश्रयी उपपातविरहकाल तथा च्यवनाभावको बताते हैं। विरहो छमास गुरुओ, लहु समओ चवणमिह नत्थि // 277 // 415. यह मत सबको मान्य है अतः पश्चिमविदेहकी अंतिम दो विजयोंमें होकर चालीस मोक्षमें जायें / 416. परन्तु चालु अवसर्पिणी के ( चौथे आरेमें न जाकर ) तीसरे आरेके अंत में ही उत्कृष्ट अवगाहना. वाले ऋषभदेव सहित 108 - जीव मोक्षमें गये वह नहीं होने योग्य घटना अनंता कालमें हुई अतः उसे आश्चर्यरूप मानी है। 417. चौथे, पाँचवें आरेमें तीर्थ होनेका कहा है। 418. महाविदेहमें केवलज्ञान पाये केवलीको अगर भरतादि क्षेत्रमें कोई बैरी देव लावे, तो वहाँसे वह मोक्षमें जाय इस अपेक्षासे (इस भरत-ऐरवतमें ) किसी भी आरेमें मोक्ष समझना / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सिद्धिगमनमें अंतर कब और कितना? . . विशेषार्थ-सिद्धिगतिमें जघन्यविरह एक समयका ही पड़ता है / समय पूर्ण होने पर पुनः समय समय पर असंख्य जीव मोक्षमें बहा करते हैं / अब उत्कृष्ट विरहकाल कितने समयका ? वह कहते हैं कि छ: मासका, अर्थात् किसी कालमें कोई भी जीव मोक्षमें न जाए ऐसा विरहकाल उत्कृष्टसे छः मासका भी आ जाता है / सिद्धिगतिमें गए जीवोंका च्यवनविरह होता ही नहीं है, क्योंकि वे शाश्वतसादिअनंत स्थितिवाले होनेसे उनका च्यवन नहीं हो सकता, साथ ही च्यवन-अवतरण के हेतुभूत कर्मोंको उन आत्माओंने निर्मल कर डाला है / दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाडुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे, नारोहति भवाङ्करः // "जिस तरह बीज अत्यन्त जल जाने पर उसमेंसे नये अंकुर प्रकट नहीं होते उसी तरह कर्मरूपी बीज अत्यन्त दग्ध होने पर भवरूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होते"। अतः कारणभूत कर्म नष्ट होते ही, उसके कार्यरूप संसार स्वतः नष्ट होता ही है / [ 277 ] अवतरण-इस तरह मर्यादित कितनी कितनी संख्या पर कितने कितने समय यावत् मोक्षमें जाने पर विरहकाल प्राप्त हो ? यह कहते हैं / अड सग छ पंच चउ तिनि, दुन्नि इको य सिज्झमाणेसु / बत्तीसाइसु समया, निरंतरं अंतरं उवरिं // 278 // बत्तीसा अडयाला, सट्टि बावत्तरी य अवहीओ / चुलसीई छन्नउई, दुरहिअमटुत्तरसयं च // 279 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 278-279 // विशेषार्थ--एक समयमें ही एक, दो, तीनसे लेकर बत्तीसकी संख्या तकके जीव निरंतर सिद्ध हों अर्थात् बिना अंतरके सतत मोक्षमें जायँ तो आठ समय तक ही जाय / बाद में नौवें समयमें कोई भी जीव मोक्षको प्राप्त ही नहीं करता, इस एक समयका अंतर अवश्य पड़ता ही है / तत्पश्चात् दसवें समयसे भले ही पुनः बत्तीस-बत्तीस सिद्ध होते जायँ परंतु वह प्रक्रिया आठ आठ समय तक ही चालू रहती है / फिर जघन्यसे एक समयका अंतर अवश्य पडता ही है / - बत्तीस के बाद तेंतीससे लेकर अडतालीस तकके जीव समय समय पर सिद्ध होते जायँ तो सात समय तक, फिर समयादिकका अंतर पड़ता है, .49 से प्रारंभ करके 60 तक के ( अर्थात् किसी समय 49, दूसरे समय 50-53-59, किसी समय अंतमें 60) बृ. सं. 14 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .106. ग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जीव समय समय पर सिद्ध होते जायँ तो छः समय तक मोक्षमें जायँ, फिर समयादिकका अंतर अवश्य पड़ता है, 61 से 72 तककी संख्या सिद्ध होती जाए तो पांच समय यावत् पुनः समयादिकका अंतर, 73 से लेकर 84 तककी संख्या चार समय यावत् .. सतत सिद्ध हो, फिर अंतर पड़ता है, 85 से 96 तककी संख्या तीन समय यावत् पुनः अंतर, 97 से 102 तककी संख्या दो समय यावत् पुनः अंतर पड़ता है, और 103 से आरंभ करके 108 तककी संख्या सिद्ध हो तो एक ही समयमें सिद्ध हो / फिर दूसरे ही समयसे समयादिकका अंतर अवश्य पडे ही / आठ समय सिद्ध प्रकारमें दूसरे दो प्रकारान्तर भी हैं। इन्हें श्री स्थानांगसूत्रवृत्ति और संग्रहणीकी मलयगिरि टीकासे जान लें / [ 278-279 ] अवतरण-अब ये जीव सिद्ध तो होते हैं लेकिन वह सिद्ध स्थान कैसा, कितना और कहाँ है ? यह भी कहते हैं, क्योंकि सांख्यमतानुयायी ऐसा मानते हैं कि 'मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत् तापवर्जिताः' अर्थात् संसारके तापसे रहित ऐसी मुक्तात्माएँ आकाशकी तरह सर्वत्र रहती हैं / अतः उस एकांगी मतका निराकरण करनेके लिए : मुक्तात्माके विशिष्ट क्षेत्र प्रमाणको कहते हैं / पणयाललक्खजोयण-विक्खंभा सिद्धसिल फलिहविमला / तदुवरिंग जोअणते, लोगतो तत्थ सिद्धट्टिई // 280 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 280 // विशेषार्थ-वैमानिक निकायके अंतिम अनुत्तर के मध्यवर्ती सर्वार्थसिद्ध नामके महाविमानसे ऊपर बारह योजन जाने पर वहाँ ही 45 लाख योजनके विष्कम्भवाली, (वृत्त होनेसे आयाम भी उतना ही) स्फटिक समान निर्मल, ईषत्प्रागभारा नामकी सिद्धशिला आई हैं / इस शिलासे ऊपर उत्सेधांगुल प्रमाणवाले एक योजनके अंतमें लोकका अंत आता है, वहाँ तक सिद्ध के जीवोंकी स्थिति-अवगाहना है / / _ विशेषतः ये जीव लोकके अंतभागमें स्पर्शकर रहे हैं, उन जीवोंका कभी पुनरागमन नहीं होता / यह शिला सिद्ध भूमि, ईषत्प्रागभारा आदि बारह नामोंसे परिचित श्वेत, सुवर्णमय और कुछ पीतवर्ण संयुक्त, ऊर्ध्व ( सीधा ) छत्रके आकारमें संस्थित, घीसे भरे कटोरेके समान, प्राण-भूत-जीव-सत्त्वोंको सुख देनेवाली तथा हिम-गौक्षीर जैसी उज्ज्वल है / अन्य आचार्य सर्वार्थसिद्ध विमानसे बारह योजन दूर (सिद्धशिला नहीं लेकिन ) लोकका अन्त है, ऐसा कहते हैं / तत्त्व केवली जाने / [ 280 ] Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सिद्ध हुए जीवोंकी उत्कृष्ट तथा मध्यम अवगाहना * 107. अवतरण- उस सिद्धशिलाकी मोटाई कितनी ? यह कहते हैं / बहुमज्झदेसभाए, अट्ठव य जोयणाई बाहल्लं / चरिमंतेसु य तणुई, अंगुल संखेज्जई भागं // 281 // [प्रक्षेपक गाथा 67] गाथार्थ-यह सिद्धशिला बराबर मध्यमें, लंबाई चौडाईमें आठ योजन जितने घेरेके भागमें ऊपरसे नीचे तक आठ योजन मोटी है / तत्पश्चात् उस मोटाईको सर्व दिशा-विदिशाओं में एक एक प्रदेशमें (और योजनान्तमें अंगुल पृथकत्व प्रमाण ) हीन करते करते यावत् शिलाके अन्तिम भागमें पहुंचने पर अंगुलके असंख्यातवें भाग जितनी पतली हो / अर्थात् मक्खीके पंखसे भी अधिक पतली होती है / // 281 // विशेषार्थ:-सुगम है / [ 281 ] ( क्षेपक गाथा 67) अवतरण-सिद्ध हुए जीवोंकी उत्कृष्ट तथा मध्यम अवगाहना कहते हैं / .तिनि यो तित्तीसा, धणुत्तिभागो य कोसछन्भागो / जं परमोगाहोऽयं, तो ते कोसस्स छन्भागो / / 282 // [प्रक्षेपक गाथा 68] गाथार्थ-तीनसौ तेतीस धनुष और एक धनुषका तीसरा भाग, यह प्रमाण एक कोसके छठे भागरूप होनेसे, दूसरे शब्दमें एक कोसके छठे भागकी सिद्धोंकी उत्कृष्ट अवगाहना है / विशेषार्थ-सिद्धगतिमें जानेवाले जीव मनुष्यभवमें उत्कृष्ट से 500 धनुषकी * अवगाहनावाले ( अतः "अधिक शरीरी नहीं) और जघन्यसे दो हाथकी अवगाहनावाले (अतः न्यून शरीरी नहीं) तथा जघन्यसे आगे और उत्कृष्टसे अर्वाक्-अंदरके सर्व . 419. यह गाथा संग्रहणी टीकामें दी है / 420. कोई उत्कृष्टसे 525 धनुष अवगाहना मानता है क्योंकि सिद्धप्राभूतमें भी उ० अवगाहना सिद्धोंकी 500 धनुष पृथकत्वमें कही है, वहाँ पृथक्त्व शब्द बाहुल्यवाची होनेसे यहाँ 25 धनुष अधिक गिनते हैं / 421. शंका-५०० धनुषकी ही कायावाला मोक्षमें जाए तो 525 धनपकी कायावाली मरुदेवा माता कैसे मोक्षमें गई। . समाधान-उत्तम संस्थानवाली स्त्रियों के लिए सामान्य स्थिति ऐसी होती है कि वह उस कालके योग्य संस्थानवाले पुरुषसे कुछ न्यून प्रमाणकी होती है / इस हिसाबसे जब मरुदेवाके पति नाभिकुलकर 525 धनुष थे, तब मरुदेवा को कुछ न्यून प्रमाण मानें तो 500 धनुषके ही वास्तवमें समझना चाहिए। दूसरा खुलासा भाष्यकारने यह किया है कि- मोक्षमें गई तब मरुदेवा हाथीके स्कंध पर थीं अतः कुछ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .108. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * %3 मध्यम अवगाहनावाले जीवो कहलाते हैं / सामान्य ऐसा नियम है कि-अन्तिम समयमें मनुष्य के मूलशरीरकी जो अवगाहना हो उसके तीसरे भागकी हीन अवगाहनामें वे जीव मोक्षमें उत्पन्न होते हैं, अतः 500 धनुषकी उत्कृष्ट कायावाले जीव चौदहवें गुणस्थानकमेंअयोगी अवस्थामें शैलेशीकरणके समय, सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती ध्यानके बलसे अपने शरीरके मुख-उदरादि सारे पोले भागोंको स्वात्म प्रदेशोंसे पूरा करते हैं / और सर्व आत्म प्रदेशोंको एकत्र करनेपूर्वक प्रदेशघन करनेसे ( जो शरीर विस्तृत था, उसके पोले भाग पूरित हो जानेसे तीसरे भागसे हीन हुआ, क्योंकि प्रायः स्वशरीरमें तीसरे भागका पोलापन होता है / ) 500 धनुषकी कायाका मान तीसरे भागसे हीन होनेसे 333 धनुष और एक धनुषका तीसरा भाग-अथवा एक कोसका छठा भाग इतना हुआ / इसी अवगाहनामें ये जीव लोकान्तमें आए सिद्धस्थानमें उत्पन्न होते हैं, अतः इस सिद्धस्थान पर पहुँचने के बादकी परम-उत्कृष्ट अवगाहना एक कोसके छठे भाग ( 3333 ध० ) की जाने / // इति उत्कृष्टावगाहना // मध्यमअवगाहना, वह सात हाथके शरीरवाली आत्मा ( जिस तरह प्रभु महावीर) सूक्ष्म ध्यान बलसे पूर्वोक्त रीतसे प्रदेशघन करनेपूर्वक तीसरे भागसे हीन होनेसे सिद्ध में उत्पन्न हो तब 4 हाथ और 16 अंगुलकी होती है ऐसा शास्त्रमें कहा है / सचमुच तो जघन्यसे आगे और उत्कृष्टसे अर्वाक, वह सर्व मध्यम अवगाहना ही कहलाती है / फिर भी आगममें निश्चितरूपसे ( 4 हाथ-१६ अं० ) कही है अतः इस प्रकार यहाँ कहा है। // इति मध्यमावगाहना // सिमटी कायावाली थीं अतः उस समय 500 धनुष जितनी ऊँचाईवाली थीं। [भाष्यकार मत ] संग्रहणी वृत्ति (श्री चन्द्रियाकी गाथा 207 ) कारने तो स्पष्ट अभिप्राय देते हुए बताया है कि 'आगममें जघन्यमान सात हाथ और उत्कृष्ट पांचसो धनुष कहा है वह प्रायः वैसा होता है ऐसा समझना लेकिन एकांत नियम न समझना' अर्थात् जघन्यमें अंगुल पृथक्त्व और उत्कृष्टमें धनुष पृथक्त्वसे न्यूनाधिक भी हो सकता है / और इसके लिए 'सिद्धप्राभत' का प्रमाण दिया है। सिद्धप्राभूतमें-"...पंचेव धणुसयाइं, धणुह पुहुत्तेण अहिआइं” एतत्टीकाव्याख्या च"पृथकत्व शब्दो बहुत्ववाची, बहुत्वं चेह पञ्चविंशतिरूपं द्रष्टव्यमिति" इससे यह सिद्ध हुआ कि सिद्धप्राभूतकारने पृथक्त्वका अर्थ 25 धनुष अधिक किया है / इस तरह खुलासे किये हैं / 422. इस अवगाहनाको मध्यम अवगाहना कही इसे उपलक्षणवाली जाने अर्थात् जघन्य-उत्कृष्टके बीचकी तमाम अवगाहनाओंका ग्रहण समझ लें / यहाँ शंका उपस्थित होगी कि ऊपर निश्चितरूपसे मध्यम अवगाहनाका प्रमाण कैसे कहा जा सके ? तो खुलासा यह है कि-तीर्थकर जसे विशिष्ट व्यक्तिको उद्देश्य करके मध्यम अवगाहना बतानेकी इच्छासे यह प्रस्ताव रखना पडा है, परंतु वास्तविक रूपमें वैसा न समझना / अन्य केवलिओंकी अनेक रीतसे अवगाहना हो सकती है / Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सिद्ध हुए जीवोंकी जघन्य अवगाहनाका वर्णन * वे सिद्ध होनेवाले जीव मृत्युके समय सोते-बैठे-खडे, सीधे-उलटे या संक्षिप्तमें जिस जिस अवस्थामें रहकर काल पाए, वैसे ही संस्थानमें, उसी आकारमें, सिद्धस्थानमें उत्पन्न होते हैं / साथ ही अंतिम समयमें पोलापन पूरित होनेसे अनिश्चित आकृतिवाला प्रदेशघन होता होनेसे उस संस्थानको ( घटाकाशकी तरह ) निश्चित नाम दिया नहीं जा सकता, इसीलिए सिद्ध के जीवोंको दीर्घ-हस्व संस्थान नहीं है, साथ ही अशरीरी होनेसे वृद्धित्व नहीं है / [ 282 ] (क्षेपक गाथा 68) अवतरण—अब सिद्धोंकी जघन्य अवगाहनाका वर्णन करते हैं / एगा य होइ रयणी, अद्वेव य अंगुलेहिं साहीया / एसा खलु सिद्धाणं, जहन्न ओगाहणा भणिया // 283 // ___(प्रक्षेपक गाथा 69) गाथार्थ-एक हाथ और आठ अंगुल अधिक जितनी सिद्धोंकी जघन्य अवगाहना कही है // 283 // विशेषार्थ-दो हाथ की कायावाला संसारी जीव पूर्वोक्त गाथामें कहे नियम अनुसार शुषिर भागोंको पूर कर प्रदेशघन करे तब दो हाथका तीसरा भाग हीन होनेसे शेष 1 हाथ और 8 अंगुल अवगाहनावाला रहता है / और फिर तुरंत सिद्ध हो तव ( तेज अवगाहनामें सिद्धात्माएँ सिद्धस्थानमें उत्पन्न होनेसे) 1 हाथ अधिक 8 अंगुल 'सिद्धोंकी जघन्य अवगाहना निश्चयरुपमें होती है / [ 283 ] (क्षेपक गाथा 69) // इति मनुष्याधिकारः समाप्तः, तस्मिन् समाप्ते तस्य अष्टद्वाराण्यपि पूर्णानि // 423. भिन्न भिन्न आकार ग्रहणमें कारणभूत कर्म है / अब मुक्तिगामी आत्मा कर्महीन हुई होनेसे नया आकार ग्रहण करानेवाली कर्मसामग्री रही नहीं है अतः अंतिमभवमें अन्तसमयमें जिस आकारमें मरे उसी आकारवाले आत्मप्रदेशोंसे सिद्धस्थानमें स्थिर हो जाए / 424. कूर्मापुत्रवत् अथवा सात हाथके मानवाले यन्त्रपीलनसे संकुचित हुए हों उनकी / Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // सिद्धस्थानाश्रयी यंत्र // त्रिवेद लिंग अवगाहना समयसिद्धि ऊर्वलोके अधोलोके तिर्यक्लोके संकान्तवेद उ०विरह च्य०वि० कालाश्रयी सिद्ध शिलामान सिद्धावगाहना 108 भाग 2 / / / / 2 हाथ मध्यमा स्त्री न० / नन्दनवनमें प्रतिविजय | अकर्मभूमि उ० जघ० जघन्मान मध्यमें 2010 ज० I म० 20 / 10 6 मास 1 समय अंगुल 8 योजन पुलिंग 108 कर्मभूमि असंख्य मोटी पांडुकादिसे च्यवन हेतु 500 | ध० नो भांगेमें नहीं है उत्कृष्ट अधो| ग्राम सादि अनंत उत्कृष्ट मान | पुरुष से पुरुष शेष 8 भागमें स्थिति है। 45 लाख योजन अर्धचन्द्राकार 22 40 108 अर्जुनसुवर्णमय गृहस्थ० अन्यलिंगमें उत्सर्पिणीकालमें | अवसर्पिणीकालमें 4 / 10 समुद्रसे शेषजलाशयोंसे स्वलिगमें शेष चौथेमें शेष आरेमें 108 तीसरे आरेमें आरेमें 8 स०-७स०-६स०-५समय ४समय-३स०-२स०-१समय समय पर 10 जवन्यमान | मध्यममान 108 संख्या 10 संख्या संख्या 2 हाथ ४हाथ १६अं० 1 से 32 103 से 108. 1 समयमें 1 समयमें | 20 संख्या 8 अंगुल या मध्यम संख्या जीव सर्वस्थिति जीव संख्या 108 जीवकी संख्या . उत्कृष्टमान 33 से 48 97 से 102 3333 धनुष 49 से 60 'सूची :- सिद्धस्थान भी उपचारसे गतिरूप होनेसे प्रासंगिक उसके भी भवन, च्यवन 85 से 96 विरह संख्या,आगति इन तीन द्वारोको छोड़कर सर्व द्वारोंका वर्णन किया, इनके सिवायके अधिक - 61 से 72-73 से 84 भेदोंका तथा अन्य वर्णन ग्रन्थान्तरसे देख लेना / Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेरिसामंडन श्री लोढण (सेरिसा) पार्श्वनाथाय नमः / // मनुष्यगतिके अधिकार प्रसंग पर परिशिष्ट सं-९ // इस ग्रन्थमें देव, नरक, मनुष्य और तिर्यच इन चार गति और पंचमगति मोक्षका और उसके लिए उपयोगी अनेक विषयोंका वर्णन किया है, उसमें सर्वप्रथम ऊर्ध्व-अधोस्थानमें रहे देवलोकका वर्णन किया, जिसमें प्रासंगिक खगोल विषयक हकीकत भी बताई। तत्पश्चात् अधोवर्ती देवलोकके साथ ही शुरु हुई नरकगतिका वर्णन भी किया / अब तिर्छालोकवर्ती रही मनुष्यगतिकी कतिपय हकीकतोंका संक्षिप्त वर्णन करनेका है। मनुष्यगतिमेंसे ही किसी भी जीवका मुक्तिगमन होता होनेसे इस मनुष्यगति वर्णन प्रसंगके साथ ही साथ सिद्ध शिला और मुक्तात्मा विषयक हकीकत भी दसवें परिशिष्ट द्वारा कहेंगे। ___ अगरचे मनुष्यगति विषयक हकीकत जीवविचार, दंडक प्रकरणमें आ ही गई है और इस ग्रन्थका अध्ययन इन ग्रन्थोंके अध्ययनके बाद ही (प्रायः) होता होनेसे उस हकीकतको पुनः बतानेकी ज्यादा अगत्य नहीं है, लेकिन शायद कोई सीधे ही इस ग्रन्थके अध्ययन करनेवाले जैन-जेनेतर व्यक्तियोंके लिए उसका पुनरावलोकन करना समुचित मानकर संक्षिप्त जरूरी समालोचना कर लें। प्रथम तो चौदह राजलोक प्रमाण गिनी जाती विराट दुनियामें सबसे कम निवासक्षेत्र मनुष्योंका है / अर्थात् वे तिज़लोक पर रहे असंख्य द्वीप-समुद्रमेंसे सिर्फ अढाईद्वीप क्षेत्रमें ही रहे हैं, जिसके अंदर हम भी रहते हैं वह जंबूद्वीप, ( लवणसमुद्रके बादका) दूसरा धातकीखंड द्वीप और तत्पश्चात् ( कालोदधिसमुद्र के बाद आए पुष्करवरद्वीपका अर्ध भाग होनेसे ) अर्धपुष्करद्वीप- इस तरह अढाईद्वीप जितनी ही जगह मनुष्योंके रहनेके लिए हैं / जंबूद्वीप 1 लाख योजनका और तत्पश्चात् आए एक एक समुद्र-द्वीपद्विगुणद्विगुण प्रमाणवाले हैं। ___ इस अढाईद्वीपमें बसते मनुष्य दो प्रकारके हैं / 1. आर्य और 2. म्लेच्छ / आर्य कर्मभूमिमें उत्पन्न होते हैं तथा अनार्य अकर्मभूमि और अन्तर्वीपमें उत्पन्न होते हैं। कर्मभूमि-अर्थात् जहाँ कर्म कहलाते क्रिया-व्यापार वर्तित हों, असि, मसी, कृषि अर्थात् शस्त्र, विद्या, कला, शिल्प, कृषि आदिकी अनेक प्रवृत्तियाँ चलती हों, तथा ज्ञान और चारित्रकी जहाँ उपासनाएँ होती हों वे / ऐसी भूमियाँ कुल पंद्रह हैं / जिनमें पांच भरत क्षेत्रों, पांच ऐरवत क्षेत्रों और पांच महाविदेह क्षेत्रोंका समावेश है / जंबूद्वीपमें एक भरत, एक ऐरवत और एक ही महाविदेह है। जबकि धातकी खंड और अर्धपुष्कर, ये द्वीप तो वलयाकार होनेसे दोनों बाजू पर उन क्षेत्रोंका स्थान होनेसे, एक ही नामके दोनों बाजूके होकर दो दो क्षेत्र रहे हैं / / ___ अकर्मभूमि-किसे कहा जाए ? कर्मभूमिसे विपरीत अर्थात् जहाँ असि, मसी, कृषि आदि किसी भी प्रकारकी क्रिया या व्यापार सर्वथा नहीं है, साथ ही श्रुत और चारित्र धर्मकी भी प्राप्ति नहीं है और जहाँ आर्योंसे भिन्न अनार्यों-म्लेच्छोंका निवास होता है वह / इस भूमिमें उत्पन्न होनेवाले युगलिक ही होते हैं / अतः वे भोगभूमि अथवा युगलिक Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * (जुगलीआ) क्षेत्रों के रूपमें प्रचलित हैं / युगलिक अर्थात् युगलरूपमें जो जन्म लें और तत्भूमि योग्य व्यवहार करें वे / इस भूमिकी स्त्रियाँ मृत्युके लिए छः मास शेष रहे तब एक ही बार प्रसूता होती हैं / और उस समय नर-नारीका एक ही युगल प्रसूत होता है / और वही बड़ा होने पर पति-पत्नी बनता है / इस भूमिका ऐसा ही परापूर्वसे व्यवहार प्रवर्त्तमान है / इस भूमिमें दस प्रकारके कल्पवृक्ष हैं / और वे वृक्ष ही युगलिकोंकी इच्छा अनुसार पहनने-ओढने, खाने-पीने, सोने-बैठने, प्रकाश-संगीत आदि भोग उपभोगके सारे साधन देते है; जिससे वो परम आनंदमें समय बिताते हैं / दूसरा कोई वहाँ उद्यम . नहीं है / वहाँ क्लेश-कलह जैसा कुछ भी नहीं होता / बाह्यदृष्टिसे वे सब तरह सुखी होते हैं / तीव्र राग-द्वेष न होनेसे इस युगलिक मनुष्यको कर्म बंध कम होता है। युगलिक मरकर देवगतिमें ही जाते हैं। तीस अकर्मभूमि कौनसी ? –तो अढाईद्वीपवर्ती, पांच हैमवंत, पांच हरिवर्ष और पांच देवकुरू, पांच उत्तरकुरू, पांच रम्यक्, पांच हैरण्यवंत ये सब क्षेत्र मिलकर तीस होते हैं। छप्पन अन्त:पके मनुष्य- जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रकी उत्तरमें आए हिमवंत पर्वतके पूर्व• पश्चिम छोर लवण समुद्र में विस्तरित हैं / हरेक छोर दंतुशलके आकार में उत्तर-दक्षिणकी तरफ विस्तृत होकर रहे हैं जिन्हें (दंष्ट्राएँ) 'दाढ़ें' कहा जाता है / इसी तरह ऐरवत क्षेत्रकी दक्षिणमे शिखरी पर्वतके दोनों छोर समुद्र में गए हैं और उनके दोनों छोरमेंसे दो दो 'दाढ़े' निकली है / इस तरह एक पर्वतकी चार दाढोंके हिसाबसे दो पर्वतोंकी आठ दाढ़ें हुई, हरेक दाढ पर सात सात अंतीपो हैं / आठ दाढोंके मिलकर 56 अन्तद्वीप होते हैं / तमाम द्वीपोंमें अकर्मभूमिकी तरफ युगलिक मनुष्य ही बसते हैं / इस तरह कर्मभूमि 15, अकर्मभूमि 30, अन्तर्वीप 56 इन तीनों मनुष्य क्षेत्रोंका जोड 101 होता है / इतने भेद मनुष्यके हुए / इन क्षेत्रों में ही मनुष्य उत्पन्न होते हैं / मनुष्य गर्भज तथा संमूच्छिम इस तरह दो प्रकारके होते हैं। साथ ही गर्भज पर्याप्ता और अपर्याप्ता दो प्रकारके हैं और संमूच्छिम मात्र अपर्याप्ता ही होते हैं क्योंकि वे अपर्याप्ता ही मृत्यु पाते हैं। इससे 101 गर्भज पर्याप्ता और अपर्याप्ता मिलकर 202 भेदो और समूच्छिमके 101 भेदो मिलकर 303 भेदो होते हैं। संमूच्छिम मनुष्य गर्भज मनुष्यके विष्टा, मूत्र, बलगम, नासिकाका मैल, वमन, मवाद, खून, वीर्य आदि चौदह अशुचि स्थानकों में उत्पन्न होते हैं / समाप्तं नवमं परिशिष्टम् / Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // पत्तन [ पाटण ] मंडन श्री पंचासरापार्श्वनाथाय नमः / / // सिद्ध, उनका स्थान और परिस्थिति विषयक परिशिष्ट सं. 10 // जैन शास्त्रमान्य चौदह राजप्रमाण विश्व में अनंतानंत जीवात्माएँ हैं / चैतन्य स्वरूपमें वे सब समान हैं / अनंता जीवोंको सुविधाके लिए शास्त्रकारोंने दो विभागोंमें बांट डाला है। 1. संसारी 2. सिद्ध / इनमें एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके देव, नरक, मनुष्य और तिर्यच इन चार गतिमें वर्तित जीव 'संसारी' कहलाते हैं / द्रव्यबंध और भावबंधसे होता अन्य जन्मोंका संसरण-भ्रमण शेष होनेसे उन्हें 'संसारी' रूप में पहचाना जाता है। इन जीवोंके 563 भेद हैं / इन भेद-प्रभेदोंकी गिनती किस तरह है। इसे 'जीवविचार' नामके प्रकरण ग्रन्थसे अभ्यासियोंको जानना योग्य है। दूसरे प्रकार में आते हैं 'सिद्ध। जैसे संसारी, ये भी जीव हैं उसी तरह सिद्ध भी जीव ही है। यहाँ शंका जरूर हो सकती है कि, संसारी जीवोंके तो इन्द्रियादि दस प्राण हैं लेकिन सिद्धोंके तो 'सिद्धाण नत्थि देहो, न आउ कम्मं न पाणजोणिओ' इस कथनानुसार इन्हें प्राण हैं ही नहीं फिर उन्हें जीव कैसे कहे जाएँ? क्योंकि जीवकी व्याख्या 'जीवति प्राणान् धारयतीति जीवः' / जो प्राणोंको धारण करता है वह जीव / जबकि यहाँ पर तो एक भी प्राण नहीं है तो क्या समझना ? इसका समाधान यह है कि, 'प्राणको जो धारण करे वह जीव' इसमें प्राणके आगे कोई भी विशेषण नहीं रक्खा गया, अतः यहाँ प्राणोंसे बाह्य दस प्राणोंको ही समझना नहीं है परंतु प्राण तो दो प्रकारके हैं / 1. द्रव्यप्राण 2. भावप्राण / पांच इन्द्रियोंके पांच प्राण, मनःप्राण, वचनप्राण, कायप्राण, भाषाप्राण और श्वासोच्छ्वास प्राण ये दस-द्रव्य या बाह्य प्राण हैं, और ज्ञानप्राण, दर्शनप्राण और चारित्रप्राण ये तीन भावप्राण हैं / कर्मसंगजन्य द्रव्यप्राण भले ही सिद्धोंके नहीं है, परंतु कर्मसंगके अभावमें संपूर्णतया प्रकट हुए भावप्राण तो जरूर है ही, भावप्राण ही सच्चा चैतन्य है। इस तरह संसारी और सिद्ध दोनों प्राण धारण करनेवाले हैं। ___ अब सिद्ध अथवा मोक्ष कब और कैसे हो अथवा मोक्ष किसे कहा जाए ? इसके लिये उसकी पूर्वभूमिका समझानी जरूरी है। ... जगतमें जीवो अनंता हैं अतः उन जीवोंकी कर्म-प्रवृत्तियोंके प्रकारो भी अनंता है। उनके असरो असंख्याती हैं, परंतु उन असंख्य अनंतकी अनंत व्याख्याएँ क्या कम हो सकती हैं ? अतः उन तमाम प्रवृत्तियों का विभाजन करके उन कर्माको आठ प्रकारमें बाँटे गये हैं। . (1) विशेष-ज्ञान-बोधगुणका आवरण करे वह ज्ञानावरणकर्म / (2) सामान्यज्ञानबोधको आच्छादित करे वह दर्शनावरण / (3) सुख या दुःखका अनुभव करावे वह वेदनीय / (4) आत्माको मोह-असमंजस, व्यथा, विकलताएँ पैदा करावे वह मोहनीय / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . (5) भवधारण स्थिति-मर्यादा उपस्थित करावे वह आयुष्य / (6) अलग अलग गति, जाति, विविध शरीर आदिका निर्माण करनेवाला नामकर्म / (7) उच्च और नीचका व्यवहार उत्पन्न करनेवाला गोत्रकर्म / (8) लेन-देन में या वस्तुके उपभोगमे या शक्तिके उपयोगमें विघ्न करनेवाला अंतरायकर्म / ____ इन अष्टकर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये कर्म घाती हैं; शेष चार अघाती हैं। 'घाती' अर्थात् आत्माके शान-दर्शन-चारित्रादिक मूलगुणोंका घात करे वह धाती और जो मूलगुणोंका नाश न करे वह 'अघाती' रूपमें पहचाना जाता है। आठों कौमें राजा, सेनापति या सरदारका स्थान रखनेवाला मोहनीय कर्म है। संग्राममें सेनापतिकी पराजय न हो तब तक शेष लश्कर जीता नहीं जा सकता, वैसे यहाँ भी कर्म शत्रुके साथके संग्राममें मोह महाराजा या सेनापतिकी पराजय न हो तब तक शेष सातों कर्मीका बल नहीं तूटता / सेनापतिकी मृत्यु होने पर या शरण में आने पर, लश्कर अपने आप भाग जाए या शरणमें आवे, वैसे मोह सेनापति पर विजय होनेसे शेष कम स्वयं शीघ्र पराजित हो जाते हैं। दूसरी तरहसे मोहनीयको शरीरकी धोरी नसकी भी उपमा दी जा सके। वो तुटने पर मनुष्यकी मृत्यु जलदी हो जाती है। ___ऊपरकी भूमिका इसलिए की कि- यहाँ 'मोक्ष' तत्त्व और उसकी प्राप्तिके लिए बात करनेकी है, यह मोक्ष प्राप्ति उसे ही होती है जिसे केवलज्ञान-सर्वज्ञत्व और केवलदर्शन-सर्वदर्शित्व प्राप्त हुआ हो। क्योंकि प्राप्तिके पहले इन दोनोंकी जरूरत अनिवार्य मानी गई है। और यह केवलज्ञान तथा केवलदर्शन तब हो सकता है, जब उनके प्रतिबंधक स्वरूप चार घातीकोका नाश हो / यहाँ एक वस्तु समझ लेना जरूरी है कि इस विश्व में जैन परिभाषामें ‘कार्मण वर्गणा' के नामसे परिचित अनंतानंत जड परमाणु-पुद्गलो सर्वत्र ठांस ठांस कर भरे पडे हैं। ये परमाणु हमारे दृश्य चक्षुसे अदृश्य होते हैं / हम देख नहीं सकते / प्रत्येक आत्मा क्षण क्षण पर (1) मिथ्यादर्शन (असत् , विचार-श्रद्धा), (2) अविरति (अत्याग) (3) प्रमाद, 4 कषाय ( क्रोध-मान-माया-लोभ) और (5) योग, (मन-वचन-काय) कर्म बंधन. इन पांच हेतओं द्वारा जब जब शभ या अशुभ प्रवृत्ति करती है उसी समय आत्मा उक्त कार्मण वर्गणाके पुद्गलों अपनी तरफ खिंचती है और उसी समय (उन अणुओंमें कर्म परिणाम उपस्थित होता है / ) उन परमाणुओंका आत्मप्रदेशोंके साथ मिलन होता है, जिस समय मिलन हुआ उसी समय उन अणुओंमें शुभाशुभ फल, उसे देनेकी समयमर्यादा आदि साथ ही साथ निश्चित हो जाता है / इस तरह कर्मका बंध होता है / जबकि उससे प्रतिपक्षी सम्यक् दर्शन, विरति (त्याग), अप्रमाद, कषायत्याग (क्षमा, नम्रता, सरलता और संतोष) इत्यादि हेतुओंसे कर्मबंधके हेतुओंका अभाव होनेसे नवीन कर्मबध होना बद हो जाता है। यहाँ साधक आत्माके लिए साधनक्रम ऐसा है कि, प्रथम तो उसे प्रतिक्षण आत्मामें आते हुए कर्मोको रोकने का कार्य करना पड़ता है इसके लिए ऊपर कहे गए प्रतिपक्षी चारित्रादिक गुणों के द्वारा कर्मका संवरण-रुकावट कर दे / इस तरह नयोंको तो रोके / अब क्या करना? तो अब सत्तामें रहे पूर्वसंचित अनंतकर्मों हैं उनकी तप-स्वाध्याय-ध्यानादिक Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सिद्ध गति विषयक दसवाँ परिशिष्ट * * 115 * द्वारा निर्जरा-क्षय कर डालते हैं / इस तरह बंधे कर्मोको नष्ट करनेकी सामान्य स्थूल प्रक्रिया. समझाई। इसी तरह सर्वश होनेवाली आत्मा आठ कर्मो से चार घाती कर्मों के बंद-हेतुओंका अभाव और निर्जरा इन दो पुरुषार्थ द्वारा सामान्य नहीं लेकिन आत्यन्तिक क्षय कर देता है। इन चारमें ऊपर कहा गया वैसे मोह सबसे अधिक बलवान कर्म है। अतः सबसे प्रथम उसका सर्वथा विनाश हो। तत्पश्चात् ही शेष घातीकर्मीका नाश शक्य और सुलभ बन जाता है / अतः साधक प्रथम अध्यवसायोंके ऊर्धमान विशुद्ध परिणामसे, राग-द्वेषादि स्वरूप मोह योद्धेको सख्त शिकस्त-पराजय देकर* पश्चात् अंतर्मुहूर्त में ही शेष तीन घाती कर्मोंका शीघ्र सर्वथा नाश करता है / अर्थात् आत्मप्रदेशमेसे हमेशाके लिए विदाय लेते हैं / प्रतिबंधकोंके कारण नष्ट होते ही उस उस कार्यरूप आवरण भी नष्ट हुए और उसी समय विश्वके त्रैकालिक समस्त द्रव्य पदार्थ और उनके पर्याय अवस्थाओंको आत्मसाक्षात् करनेवाले अथवा प्रकाश फैलानेवाले अनंत ऐसे केवलज्ञान-केवलदर्शन, दूसरे शब्दों में सर्वशत्व और सर्वदशित्वको प्राप्त करते हैं। इतनी सीमा पर पहुँचने पर भी अभी जीवको मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ, क्योंकि आठमें से चार घाती कर्म नष्ट हुए लेकिन वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन चार कर्मोंका उदय चालू है और 'मोक्ष' तो संपूर्ण कर्मके क्षयको ही कहा जाता है, जिसे आत्यन्तिक कर्मक्षय कहना है। सामान्यतः तो प्रतिसमय नये नये कर्मों का बंध और बद्धकर्मका अनेकशः क्षय तो हुआ ही करता है। लेकिन नवीन कर्मबंधको रोके बिना अनुदयमान सत्तागत पडे पुराने कर्मों का सर्वथा क्षय अशक्य होनेसे, आत्यन्तिक क्षयकी योग्यता अभी उपस्थित ही नहीं हुई और मोक्ष प्राप्ति तो कृत्स्नकर्मके क्षयके बिना शक्य ही नहीं है / अर्थात् उदयमान, अनुदयमान कर्मकी निर्जरा और नये कर्म बांधनेकी योग्यताका अभाव होना चाहिए / यहाँ सर्वशत्व और वीतरागत्व दोनों वर्तमान हैं फिर भी चार पंगु अघाती कर्म जिनसे आत्मा देहके द्वारा अन्यान्य प्रवृत्तियाँ कर सकती है वह तो विद्यमान है अतः उन कर्मोंका भी आत्यन्तिक क्षय जब कर डालती है अर्थात् आठों कर्म आत्मप्रदेशोंमेंसे सर्वथा क्षीण हो जाय तब ही संपूर्ण कर्मक्षय' हुआ कहा जाए / आगे किसी कालमें नया कर्म बंधन होनेवाला नहीं है अतः संसार नहीं है। संसार नहीं है अतः 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं' की परंपरा भी नहीं है। . जिस तरह बीजके जल जानेसे अंकुर नहीं उगता उसी तरह कर्मबीज जल जानेसे जन्मांकुर नहीं उगता / जसे दग्ध काष्ठकी अग्नि उपादान कारणरूप काष्ठसमूहके अभावमें स्वयमेव निर्वाण पाता है, उसी तरह सर्व कर्मके क्षयसे कर्मरूप काष्ठसमूहके अभावमें वह आत्मा स्वयमेव निर्वाण (मुक्ति) पाती है। ____सर्व कर्मसे मुक्त होनेपर आत्माके अन्तिम समयका कर्म जिस समय क्षीण हो, उसीके साथ उस देहमेंसे आत्मा निकल जाती है / अन्तिम प्रस्तुत शरीरका त्याग करता है। जिस आकाशप्रदेश पर रहकर मृत्यु हुई उस प्रदेशकी समश्रेणी में ही सीधा ही चौदह राजलोकके ऊर्ध्वभागमें अन्तिम स्थल पर वर्तित सिद्धशिला पर आए लोकान्त में जहाँ _* यहाँ तक आत्मा सिर्फ छद्मस्थ वीतराग दशावाला है, अभी सर्वश नहीं हुआ / Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अनंतानंत सिद्धात्मा रहते हैं, वहाँ उत्पन्न हो जाती है और वहाँ सदा ही-अक्षय-अचलअव्याबाध अनंत सुखकी भोक्ता बन जाती है। ___आत्मागत जन्मके मृत्यु स्थानसे ऊर्ध्वलोकान्तमें जब गति करती है तब एक साथ एक ही समय पर तीन कार्य होते हैं / 1. शरीरका वियोग, 2. सिद्धयमानगति और 3. लोकान्त प्राप्ति / यह एक असाधारण घटना है, तथा चिंतनीय सी वैज्ञानि रहस्यपूर्ण है। औदारिक शरीरका वियोग होने पर आत्मा विदेही-अदेही बनती है, इससे अनादिकालके अनर्थकारक देहसंगसे छूटनेसे हमेशाके लिए दुःखमुक्त बनता है। इस ऊर्ध्वगतिको सिद्धयमानगति कही है / यह गति ऊर्ध्व ही कैसे हो? इसके लिए क्या हेतु हैं ये दृष्टांतके साथ शास्त्रमें दिये हैं। सिद्धयमानगतिके चार हेतु 1. पूर्वप्रयोग हेतु, 2. असंग हेतु, 3. बन्धछेद हेतु 4. ऊर्ध्वगौरव हेतु। पूर्वप्रयोग हेतु दृष्टान्त-पूर्वबद्ध कर्म छूट जानेके बाद भी, उस कर्मके छूटने पर आया वेग-आवेश अथवा आगेके कार्य में सहायक होनेवाली पूर्वकी क्रिया वह / यहाँ इसे समझने कभकारके चक्रका दृष्टांत उपयोगी है। जिस तरह कुम्हार हाथ में रखी लकडीसे चक्र-चाक घुमाता है और फिर उस लकड़ी और हाथ दोनोंको उठा लेता है। लेकिन इस पूर्व क्रिया-प्रयत्नसे जो वेग आता है उसके बलसे चाक जैसे स्वतः घूमता है, वैसे सर्वथा कर्ममुक्त बना जीव भी पूर्व कर्म-संस्कार जनित आवेगके कारण स्वस्वभावानुसार ऊर्ध्वगति ही करता है और उस गतिका कार्य लोकान्तमें पहुँचते ही पूर्ण होता है, क्योंकि उससे आगे अलोक है, और वहाँ धर्मास्तिकायके 425 अभावमें जीव या पुद्गल किसीकी गति नहीं होती / प्रथम हेतु पूर्वप्रयोग दृष्टांतसे४२६ समझाया। 2. असंग हेतु दृष्टांत-इसमे प्रसिद्ध तुम्बेका दृष्टांत दिया जाता है। जिस तरह घास-मिटीके अनेक थरो-लेपो चढाकर भारी बना, पानीमें डुबोया, तुम्बा लेपके भारसे पानीमें ही तलमें नीचे पडा रहता है लेकिन जब उसके परके माटीके थर-लेप पानीके संसर्गसे जब संपूर्णतः धुलकर-साफ हो जाते हैं तब तत्क्षण तुम्बा अपनी सतह पर ही रहने के स्वभावसे पानी पर तैर आता है / आठ प्रकारकी कर्मरूप माटी के थरों या लेपोंसे 425. यह कहनेका कारण यह है कि लोकके बाद उसके आसपास अलोक है और उसमें जीवाजीवादि छः द्रव्योंमेंसे मात्र एक आकाश द्रव्य ही है। शेष पांचमेंसे एक भी द्रव्य नहीं है, अतः गति या स्थिति सहायक धर्मास्तिकाय या अधर्मास्तिकायके अभावमें एक प्रदेश जितनी भी गति अलोकमें संभवित नहीं है / बिलकुल निर्जीव प्रदेश है और वह विश्व-मूलक चौदह राजलोकसे अनंत गुण है / 426. इस पूर्व प्रयोगमें हिंडोले (झूले) और बाण प्रयोगके भी दृष्टांत दिये जाते हैं / हिंडोलेको हाथ या पैरसे पीछे धकेलकर फिर हाथ पैरका प्रयत्न बंद हो जाए तो भी किये हुए पूर्व प्रयत्नके बलसे वह झूला फिरसे आगे फँस जाता है इस प्रकार यहाँ समझना / धनुर्धारी बाणको इष्ट स्थान पर पहुँचाने प्रथम पीछे खिंचनेका प्रयोग करके फिर बाण छोड़ता है, तब पीछे खिंचनेके प्रयत्नका अवलंबन लेकर आगे लक्ष्यस्थान में पहुँच जाता है, इस प्रकार समझना / Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सिद्ध गति विषयक दसवाँ परिशिष्ट * .117. % 3D लिप्त जीव संसार- रूप जलमें डुबा रहता है, परंतु सम्यग्दर्शनादिके रत्नत्रयी रूप जलके संसर्गसें प्रतिबंधक कर्मरूपी माटी द्रव्य का संग दूर होते ही ऊर्ध्वगति करता है / / 3. बन्धछेद हेतु-बन्धनके छेदसे समझाया जाता दृष्टांत बन्धछेद हेतु है / जिस तरह परंडके कोश-संपुट-(फली में रहा एरंडबीज 27 आतापके-शोषणादिक हेतुसे, बन्ध संपुटका उच्छेद होते ही ऊर्ध्व उड़कर, शीघ्र बाहर निकलकर दूर पडता है, उसी तरह अहिंसा, संयम, तपादिकके उच्च धर्माचरणसे कर्मरूपी बन्धन छिद जाने पर मुक्तिगामी आत्माकी भी उसी प्रकार सहसा ऊर्ध्वगति ही होती है। इस तरह होने पर आत्मा अपने असल घरमें जा पहुँचती है और फिर कभी घर बदलने का रहता ही नहीं है और वहाँ अनंतकाल तक, अनंत सुखोंका उपभोग करता है / 4. ऊर्ध्वगौरव अथवा तथागति परिणामहेतु-जीव तथा पुद्गल ये दोनों द्रव्य स्वाभाविक तौर पर गतिशील हैं / दोनोंमें फर्क इतना ही है कि-जीव ऊर्ध्वगौरवधर्मा (अर्थात् ऊँचे जानेके स्वभाववाले) तथा पुद्गल स्वभावसे ही अधोगौरवधर्मा (नीचे जानेके या तिर्यक् जानेके स्वभाववाले) हैं / जिस तरह पाषाणकी अधोगति, वायुकी तिर्यक्गति तथा अग्निज्वालाकी ऊर्ध्वगति स्वभावसे ही साहजिक है उस तरह इन जीवोंकी ऊर्ध्वगति स्वभावसे ही है, फिर भी इनका गतिवैकृत्य अर्थात् कभी गति न करनी, टेढा-मेढा -तिरछा परिभ्रमण जो कुछ देखा जाता है वह प्रतिबन्धक कर्मद्रव्य के संगके कारण और अन्य की प्रेरणासे ही / तात्पर्य यह हुआ कि-कर्मजन्यगति ऊर्ध्व, अधो, तिर्यक तीनों रीतसे होती है और कर्मरहित मुक्तात्माकी सिर्फ ऊर्ध्वगति ही हो सकती है, दूसरी नहीं ही / तब जीवके ऊर्ध्वगमनका साहजिक स्वभाव यह चौथा हेतु हुआ। चारित्रवान ऐसे मुनिमहात्माकी आत्मा मोक्षमें जाते वक्त२८ सर्वांगसे निकलती है। - देह मेंसे आत्मा निकलकर मोक्षमें जाए तब 29 अस्पृशद्गतिसे अर्थात् बीचके या आजूबाजूके किसी भी आकाश प्रदेशोंको स्पर्श किये बिना ही ऋजुगतिसे सीधा ही एक समय पर मोक्षमें जाता है क्योंकि तब ही एक समयमें सिद्धि हो सके / जहाँ एक सिद्ध है वहीं अनंत सिद्ध हैं / सामान्यतः सिद्धके संस्थान नहीं हो सकता तो भी पूर्वभव की अपेक्षासे औपाधिक आकारका स्थूलसे व्यपदेश किया जा सकता है / अरूपी द्रव्य होनेसे वास्तविक रूपमें नहीं दी। सिद्ध आत्माके अष्टकर्म क्षय होनेसे अष्ट महागुणोंकी प्राप्ति होती है। इनमें 1. ज्ञानावरणीय कर्मक्षयसे अनन्तशान / 2. दर्शनावरणीय कर्मक्षयसे अनन्तदर्शन। 3. वेदनीय कर्मक्षयसे अनन्तसुख / 4. मोहनीय कर्मक्षयसे शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व तथा क्षायिक चारित्र / 5. आयुष्य कर्मक्षयसे अक्षयस्थिति / 6. नामकर्मक्षयसे अरूपीपन / 7. गोत्रकर्मक्षयसे अनन्त अवगाहना। 8 अंतराय कर्मके क्षयसे अनन्तवीर्यशक्ति / ___427. यहाँ यन्त्रबन्धन, काष्ठ. और पैडाच्छेदका दृष्टांत भी घटाते है / 428. मृत्युकाल पर तमाम आत्मप्रदेशो पगमें जमा हो जाते हैं और अंतमें वहाँसे आत्मा निकले तो नरकमें, जंघासे निकले तो तिर्यच योनिमें, छातीसे निकले तो मनुष्यमें, मस्तकमेंसे निकले तो देवगतिमें जाता है। [-स्थानांग सूत्र. 5.] 429. यहाँ उववाई, महाभाष्य और पंचसंग्रहकी वृत्तिके मतांतर भी हैं। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 118 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * सिद्ध होने पहलेकी (अंतिम भवकी) अवस्थाको उद्देशित करके सिद्धके पंद्रह प्रसिद्ध भेदो हैं, जो नवतत्त्वप्रकरण में आ गये हैं / 1. जिनसिद्ध (तीर्थकर रूपमे सिद्ध होता है) 2. अजिन सिद्ध (तीर्थकर पद रहित) 3. तीर्थसिद्ध (तीर्थ स्थापनाके बाद जानेवाले) 4. अतीर्थसिद्ध (तीर्थ स्थापनाके पहले जानेवाले) 5. गृहलिंगसिद्ध (गृहस्थ वेषमें मोक्ष में जानेवाले) 6. अन्यलिंगसिद्ध (43 °संन्यामी, तापसादि अतीतके वेषमें रहकर मुक्तिमें जानेघाले) 7. स्वलिंगसिद्ध (जैन मुनिके वेषमें ही जानेवाले) 8. स्त्रोलिंगसिद्ध (बीजातिके चिह्नवाले देहसे मोक्षमे जानेवाले )9. पुरुषलिंगसिद्ध (पुरुषके चिह्नवाले देहसे जानेवाले) 10. नपुंसकलिंगसिद्ध (नपुंसकसूचक देहाकृतिसे मोक्षमे जानेवाले) 11. प्रत्येकबुद्धसिद्ध (गुरुके उपदेशके बिना बैरागका कोई निमित्त पाकर संजम लेकर मोक्षमें जानेवाले) 12. स्वयंबुद्धसिद्ध (गुरू उपदेशके बिना भी स्वकर्म कमजोर पडते ही वैराग्योदभव होनेसे दीक्षा लेकर मोक्षमें जानेवाले) 13. बुद्धबोधितसिद्ध (गुरुका वैराग्योपदेश पाकर संजम लेकर मक्तिमे जानेवाले) 14. एकसिद्ध (एक समय में एक ही मोक्ष जावे) और 15. अनेक सिद्ध (पक समय में अनेक मोक्षमें जाएँ वे) इन भेदोंको संक्षिप्त भी किये जा सकते हैं। जो मनुष्य गतिशील, पंचेन्द्रिय, त्रस, भव्य, संज्ञी, यथाख्यात * चारित्री, क्षायिक सम्यकत्वी. अनाहारी. केवलशान तथा केवलदर्शनी हो वही मोक्षमें जा सकता है। अर्थात कथित मार्गणामेंसे ही मोक्ष होता है। समय समय पर मुक्तिगमन चालू ही होनेसे सिद्ध के जीवो अनन्ता हैं / वे लोकके असंख्यातवें अर्थात् पहले कहा है वैसे सिद्ध शिला पर 1 कोसके छठे भाग जितने आकाशक्षेत्र में रहते हैं / ये सब आत्माएँ समान सतह पर उपरसे लोकान्तको स्पर्श करके. रही हैं, लेकिन हरेक आत्माके आत्मप्रदेश लंबाई में समान रूपमे सज्ज नहीं होते परंत ऊँची नीची अवगाहना पर रहे होते हैं / अतः ऊपरसे समान दीखे लेकिन नीचेके भागमें समान पंक्तिमें न हों। ये जीव विषमावगाही-समावगाही होनेसे ज्योतिमें ज्योति मिल जाए इस तरह परस्पर अन्तर बिना व्याप्त होकर रहे हैं, अतः जहाँ एक सिद्ध है वहीं दूसरे अनंत सिद्ध हैं। सिद्ध होने के बाद उन्हें मृत्यु या जन्म कुछ भी नहीं होता / शाश्वत काल वहीं रहनेवाले हैं, जो बात पहले बताई गई है। साथ ही सिद्ध के जीव अयोगी, अलेशी, अकषायी, अवेदी है। सिद्धोका सुख कितना है ? सिद्ध परमात्माओंका जो सुख है वैसा सुख देव या मनुष्यको कदापि होता ही नहीं। देव, मानवके सुख अपूर्ण, अशाश्वत तथा दुःखमिश्रित हैं जबकि मुक्तिका सुख संपूर्ण, शाश्वत तथा दुःखके मिश्रण रहित अखंड-अमिश्रित सुख है / इस सुखका प्रमाण समझानेके लिए शास्त्रमें उदाहरण दिया है कि-तीनों कालमें उत्पन्न हुए चारों निकायके देव जो सुख भोग गये उसका, वर्तमानमें भोग रहे हैं उसका तथा भविष्यमें भोगेंगे उसका जोड करने पर अनंत प्रमाणका सुख होता है / इस अनंत सुखको एकत्र करके अनंत वर्गोसे वगित-गुणित किया जाने पर भी मोक्ष सुखके प्रमाणकी तुलनाके पात्र नहीं होता। 430. भावचारित्रकी स्पर्शना हुए समझना / Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सिद्ध गति विषयक देशव परिशिष्ट . इस सुखकी अनिर्वचनीय अपूर्वमधुरताको शानसे जानने पर भी वे-जिस तरह मूंगा आदमी गुड आदि मधुर पदार्थकी मिठासको नहीं कह सकता उसी तरह नहीं कह सकते। जैसे कोई ग्रामीण जन, राजवभवके सुखका उपभोग करनेके बाद अपने गाँवमें जाए और भोगा हुआ सुख कैसा था ? ऐसा किसीके पूछने पर गाँवमें प्रस्तुत सुखकी उपमा दी जा सके वैसी वस्तु के अभावमें कहनेकी इच्छा होने पर भी उदाहरण देकर भी समझाया न जा सके ऐसा इस सुखके बारे में है। सिद्ध जैसा सुख दूसरे किसी स्थान पर है नहीं, अतः फिर किसकी उपमा दी जा सके / प्रश्न-मोक्षमें कंचन, कामिनी, वैभवविलास, खानापीना आदिका कुछ भी सुख नहीं है, तो फिर वहाँका सुख अनंता कहा जाए तथा उस सुखको असाधारण विशेषणोंसे अलंकृत किया जाए, तो यह कथन बराबर होगा क्या ? उत्तर-हाँ, शानियोंका कथन संपूर्ण सच है। संसारके पौद्गलिक-मायावी सुख तो क्षणिक, दुःखमिश्रित तथा नश्वर है। साथ ही सुख तो कर्मोदय जन्य है / कर्मके उदयसे भूख लगती है, काम-भोगोंकी इच्छा होती है और अंतमें उसका उपभोग होता है। लेकिन जिसके ये कर्म ही क्षीण हो गये हों उसे संसारके कामभोगों में क्या आनंद आनेवाला था ? अर्थात् कुछ भी नहीं / संसारके तमाम पदार्थो स्त्री-पुत्र, धन, आवास, अन्न यह सब कब तक मीठा लगता है ? जब तक वे अनुकूल रहे, सुखके कारणभूत रहे तब तक, लेकिन जब वे दुःखोंके कारणभूत बन जाए तब वे सुख ही कटु लगते हैं। तब हुआ क्या कि इन्द्रियजन्य पौद्गलिक भाव के सुख सच्चे सुख ही नहीं है। परंतु आत्मामेंसे उत्पन्न हुआ सम्यग् ज्ञानादि रत्नत्रयीजन्य सुख ही सच्चा सुख है। पौद्गलिक सुख पर पदार्थजन्य है इसीलिए वह स्वाधीन सुख नहीं है। आत्मिक सुख स्वजन्य है, अत: अंतरके आनंदमेसे उत्पन्न होनेवाला है अतः स्वाधीन सुख है, सिद्धात्माओंको स्वज्ञानसे देखने में, स्वदर्शनसे जानने में, स्वचारित्रसे स्वगुणमें रमनेमें जैसा अनंत आनंद-सुख होता है वैसा दूसरे किसीको नहीं होता। यहाँ योगियों को या ज्ञानपूर्वक त्यागी जीवन जीनेवालों को कभी कभी आनंदकी अद्भुत लहरियाँ आ जाती है, उस समय उन्हें समस्त दुनियाके सुखों बिलकुल फीके, निस्तेज लगते है। सांसारिक सुख खुजली जैसे है जिसे खुजली हो वही खुजलाता है, उसे ही खुजलानेका सुख मिलता है। लेकिन जिसे वह दर्द ही नहीं उसे खुजली जन्य सुख क्या होता है ? बिलकुल नहीं। छोटा बालक रूपयेका मूल्य समझता नहीं है अतः लेनेका इन्कार करके पतासा ही पसंद करता है ऐसा ही मुक्ति सुख के लिए है। भोग-विलासमें मोहांध बने हुए को पतासे जैसे संसारके सुखों का ही मूल्य होता है। परंतु अमूल्य मुक्ति सुखका मूल्य नहीं होता। मुक्तिका सुख कैसा है? उस विषयक उदाहरण मनुष्य और देवों को जो सुख नहीं है, वह सुख सिद्धात्माओंके है। तीनों कालमें उत्पन्न हुआ अनुत्तर विमानवासी देवोंसे भूतकालमें भोगा हुआ, वर्तमान में भोगनेका और भविष्यमें भोगा जानेवाला- इन तीनों कालके सुखको एकत्र करके अनंत वर्गसे वर्गित (अनन्ताबार वर्ग गुना) करें तो भी मोक्षसुखकी तुलना न पाई जा सके / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .120. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * यह सुख किसी भी इन्द्रियसे ग्राह्य नहीं है,४३१ वचनगोचर नहीं है, मनोग्राह्य नहीं है; तर्क ग्राह्य भी नहीं है; लेकिन सूक्ष्म बुद्धिसे अर्थात् सर्वज्ञसे ग्राह्य है / तप-ध्यान से महासाधना करनेवाला इसका साक्षात्कार कर सकता है / ___अन्यथा इस सुखकी मधुरताको केवली भगवान ज्ञानसे जानने पर भी-गुडको खानेवाला मूंगा आदमी गुडके स्वादको जानने पर भी उसकी मिठास नहीं बता सकता-कह सकता वैसे स्वमुखसे नहीं कह सकते / जैसे मन यथेप्सित अन्न-पानीका भोजन करने के बाद पुरुष अपनेको तृप्त हुआ समझता है वैसे ही सिद्धात्माएँ स्वात्मगुणसे तृप्त हुई होनेसे वे कभी अतृप्त होती ही नहीं हैं अतः वे सदा सुखी ही होती हैं। साथ ही वस्तुतः तीनों जगतमें मोक्षकी उपमा देने लायक कोई दृष्टांत है ही नहीं। वह तो उपमाके लिए अगोचर ही है। उसके लिए उववाईसूत्रमें एक दृष्टांत भी दिया है / ____एक जंगलमें एक म्लेच्छ भील निराबाध रूपसे रहता था। एक बार उसी अटवीमें उलटी चालके घोडेके कारण मार्गभ्रष्ट होकर पासमें रहता एक राजा वहाँ आ पहुँचा / म्लेच्छने उसे देखा / उसने राजाका यथोचित सत्कार किया और मार्ग भूले हुए राजाको मार्ग बताकर उसे अपने देशमें पहुंचा दिया / अब वह म्लेच्छ प्रतिगमन करने की तैयारी करता है लेकिन राजाने देखा कि इसने मुझ पर उपकार किया है अतः उसका बहुत आतिथ्य करना चाहिए / राजाने उसे रहनेके लिए विशाल महल दिया। राजाका माननीय था अतः प्रजाका भी वह माननीय बन गया / यह गरीब म्लेच्छ जन ऊँचे महलकी अटारीमें मनहर बाग-बगीचे में सुंदर त्रियोंसे परिवृत्त अनेक प्रकारके विषय सुखोंको भोगता है। इतने में वर्षाऋत आ गई / आकाशमें मेघाडम्बर हए. मदंगके जैसी मधर गर्जनाएँ होनेसे मयूर केकारव करते नाच उठे, यह देखकर उसे अपना अरण्यवास याद आया तथा वहाँ जानेकी तीव्र अभिलाषाके कारण, अंतमें राजाने उसे रजा दी, अतः वह अपने अरण्यवासमें आ पहुँचा / वहाँ उसे अपने परिवारजन, मित्रोंने पूछाः भाई, आप जहाँ रह आए वह नगर कैसा था? वहाँ कैसा आनंद भोगा? परंतु जंगलमें नगरकी वस्तुओंके समान, वस्तुओंके अभावके कारण कहनेकी अत्यन्त उत्कंठा होने पर भी वह म्लेच्छ एक भी वस्तुको समझा नहीं सका। इसी तरह उपमाके अभावमें सिद्ध परमात्माका सुख नहीं कहा जा सकता / भिन्न भिन्न दर्शनकारोंकी मुक्ति विषयक मान्यतामें तफावत भले ही हो लेकिन एक बाबत पर सब संमत हैं कि मुक्तिसुख सद, चिद्, आनंद स्वरूप है। इससे अधिक चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है। ___समाप्त दशमं परिशिष्टम् / - 431. भगवानने कहा है कि वह सुख वाणी, बुद्धि, मति किसीसे ग्राह्य नहीं है / तर्ककी भी गति नहीं, वह दीर्घ, हस्व, गोल या त्रिकोण भी नहीं है, कृष्णादि वर्णरूप भी नहीं है / वह कोई जाति भी नहीं है अर्थात् उसकी उपमा देने लायक कोई पदार्थ विश्वमें है ही नहीं / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SADHODHKDHDSCHENNERSHEGDSEEDS 3> >> > > > > चौथा तिर्यंचगति अधिकार > > > > तिर्यंच शब्दसे - सूक्ष्म-स्थूल एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियपशुपक्षी, जलचर, स्थलचर, खेचर आदि जीव सृष्टि समझें / >>>KKHADKKHEDHKDEKHED >KHEDEEDS मलHESHKSHKD4CSEKSEE बृ. सं. 16 K Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. प्रगटप्रभावक श्री अजाहरा पार्श्वनाथाय नमः // // तिर्यंच जीवोंकी संक्षिप्त पहचान। परिशिष्ट सं. 11 // . सूची - यहाँसे चौथी तिर्यच गतिका संक्षिप्त अधिकार शुरु होता है। उसके पहले तिर्यच जीवोंका परिचय देना चाहिए। यद्यपि श्वेताम्बर संघमें अध्ययनका वर्तमान क्रम ऐसा है कि प्रथम जीवविचारादि प्रकरण पढकर बाद में ही संग्रहणी जैसे ऊपरके ग्रन्थ पढे जाते है, इससे लाभ यह होता है कि-प्रस्तुत प्रकरणोंमें चारों गति तथा मोक्ष विषयक प्राथमिक उपयोगी हकीकतें होनेसे उसका उसने अध्ययन किया होता है, फिर इस ग्रंथको पढनेसे बहुत सरलता और आनंद होता है। अतः ऊपरके इस ग्रंथमें सर्व बाबतों का पुनरावर्तन नहीं होता, फिर भी पढे, न पढे सबके लाभके लिए तिर्यच जीवों का संक्षिप्त परिचय देता हूँ, जिससे सविशेष रस, आनंद और सुलभता बढने पावे। जगतवर्ती संसारी जीव दो प्रकारके हैं। एक स्थावर और दूसरा प्रस। स्थावर-तापादिकसे पीडित होनेसे स्वइच्छापूर्वक गमनागमन कर न सके वह / स-इच्छापूर्वक [तापसे पीडित होने के कारण छायामें तथा ठंडीसे पीडित होनेके कारण तापमें] गमनागमन करनेवाले वह। यहाँ जीवोंका मूलस्थान अनादिकालसे 'निगोद' है जो एकेन्द्रिय जीवका ही भेद है। और इस तरह एकेन्द्रियके भवों का परिभ्रमण करने के बाद त्रसस्वरुप विकलेन्द्रिय के भवमें जीव क्रमश: आते है। प्रथम स्थावर-एकेन्द्रिय के भेद कहें जाते है। __ स्थावर जीव एकेन्द्रिय कहलाते है, क्योंकि उसे एक ही इन्द्रिय ( स्पर्शमात्र ) होती है और वह पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय और वनस्पतिकायके भेदसे पांच प्रकार रूप है। पुनः वनस्पतिकाय, साधारण तथा प्रत्येकसे दो भेदवाली है। पुनः [प्रत्येक वनस्पति भेद वय॑ ] पांचों स्थावरों के 'सूक्ष्म' और 'बादर' इस तरह दो भेद पडते है, अतः कुल 10 भेद हुए। और प्रत्येक वनस्पति तो बादर ही होनेसे उसका सिर्फ एक भेद जोडनेसे कुल 11 भेद स्थावर जीवों के है। उसे पुनः पर्याप्ता-अपर्याप्ता विभागमें सोचने पर कुल बाईस भेद एकेन्द्रिय-स्थावरोंके होते है। सूक्ष्म स्थावर-अर्थात् अनंता सूक्ष्म जीवोंका समुदाय एकत्र हो तो भी [ सूक्ष्मनामकर्मके उदयसे अत्यंत सूक्ष्मत्व रहता होनेसे ] हमारे चर्मचक्षुसे देखा न जा सके वह। ये पांचों पृथिव्यादि सूक्ष्म स्थावर चौदह राजलोकमें काजलकी डिबियाकी तरह ठाँस ठाँस कर अनंतानंत भरे हैं, पौद्गलिक पदार्थोंसे कोई भी स्थल मुक्त नहीं है, तथा ये जीव मारने पर भी मरते नहीं हैं, हनने पर हन्यमान नहीं। उसमें भी सूक्ष्म साधारण वनस्पति सूक्ष्म निगोदके नामसे भी परिचित है / [ जिसका कुछ स्वरूप वर्णन 301 वीं गाथा आएगा।] ये जीव भी अनंता हैं। इन सब सूक्ष्म जीवोंकी भव-आयुष्य स्थिति अंतर्मुहर्त की है। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तिर्यच जीवोंकी संक्षिप्त पहचान .. बान्द्र स्थावर-एक अथवा असंख्य-बहुत एकत्र हों तब चर्मचक्षुसे देखा जाए वह बादर कहलाता है। बादर स्थावर प्रत्येक भेद सहित पृथिव्यादि छः प्रकारसे है। प्रथम बादर पृथ्वीकायमें-पृथ्वीके दो भेद हैं। एक कोमल और दूसरा कर्कश। उनमें कोमल पृथ्वी सात रंगवाली होनेसे सात भेदवाली है। काली, हरी, पीली, लाल, श्वेत, पांडु आदि रंगकी। नचादिकके पानीकी बाढ उतरनेसे अत्यन्त भापवाले प्रदेशकी कोमल-चीकनी-पंकरूप माटी वह कोमल पृथ्वी, जबकि कर्कश पृथ्वी चालीस भेदवाली है। उनमें 18 भेद स्फटिक, नीलम, चंदन, वैडूर्यादि मणिरत्नोंके और शेष 22 भेद, नदी तटकी माटी, बडी-सूक्ष्म रेती (रेत), छोटे पत्थर, बडी शिलाएँ, उस, लवण, सुवर्ण, सोना, चांदी, सीसा, तांबा, लोह, जसत, वज्र [सप्त धातुए], हरताल, हिंगुल, मनशील, प्रवाल, पारद, सौवीर, अंजन, अभ्रक पड, अभ्रक मिश्रित रेत आदिके हैं। ये सर्व वस्तुए प्रथम सजीवरूपमें होती हैं। परंतु उत्पत्तिस्थानसे अलग होने के बाद अग्नि आदि के संयोगसे तथा हस्तपादादि साधनोंसे मर्दन होनेसे निर्जीव बनती हैं। फिर उन पदार्थों में हानि होती है लेकिन वृद्धि नहीं होती। बादर अपकाय-बरसात का शुद्ध जल, स्वाभाविक हिम, बर्फ, ओले, ओस, कुहरा, घनोदधि, ओसकण, कुआँ, समुद्र आदि सर्व प्रकारका जल वह / बादर तेउकाय-चालू शुद्ध अग्नि, वज्रकी अग्नि, ज्वालाका, स्फुलिंग का अंगार, विद्युत, उल्कापात, चिनगारियाँ, कणकी, सूर्यकान्तमणिकी, उपलादिककी, काष्ठ-कोयले आदि सर्व जातिकी अग्नि वह / बादर पाउकाय-दिशावर्ती-ऊर्ध्व-अधो-तिर्यक् वायु, झंझावातका, गुंजार करता, गोलाकारमें घूमता घनवात, तनुवात आदि अनेक भेदोंमें / . बादर वनस्पतिकाय-वह प्रत्येक और बादर साधारण। उसमें एक शरीर में एक ही जीववाली वह प्रत्येक, वृक्षके फल, फूल, त्वचा, काष्ठ, मूल, पत्र, बीज आदिमें एक एक जीव है। अत: वह प्रत्येक के प्रकार में गिना जाता है। साथ ही सारे वृक्षका सर्वव्यापी अन्य एक. स्वतंत्र जीव अलग होता है। वह प्रत्येक वनस्पतिके वृक्ष-गुच्छादिक जातिसे 12 भेद हैं। अतः आगे ही कहे जाते साधारण वनस्पतिके भेद को वर्ण्य शेष धान्य, अनेकविध पुष्पकी जातियों के पुष्प-फल, पत्र-लताएँ-कमल, शाकादिक द्रव्योंवाले सर्व प्रकारके वृक्ष इन्हें बादर प्रत्येक वनस्पतिमें सोच लेना। बादर साधारण वनस्पतिकाय-इन बादर साधारण वनस्पतिके जीवोंकी उत्पत्ति, तत्पश्चात् आहार, श्वासोच्छ्वास ग्रहण आदि क्रियाएँ सर्व एक साथ ही होती हैं। यह अनंतकायस्वरूप बादर वनस्पति अनेक भेदोंमें है। कंद, [अदरक, आलू, लहसुन, प्याज तमाम प्रकारके कंदकी जातें / ] पाँचों रंगकी फुनगी, काई, बिलारी के छाते के आकारके टोप, अदरक, हरी हलदी, गाजर, मोथ, थेग, पालक, कोमल फल, थुहर, गुग्गुल, गिलोय, सिंघाडे आदि प्रसिद्ध बत्तीस अनंतकायादि सर्व प्रकारसे अपने घटित लक्षणोंवाली जो जो हों उन्हें समझ ले। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * - लक्षण क्या है ? तो जिनकी नसें, जोड, गांठें गुप्त हों साथ ही जिनके टूट जानेसे समान सुंदर हिस्से हो जाते हों, छिद जानेसे फिरसे उगें वैसी हों आदि मुख्य छः लक्षणोंसे परिचित, अनेक प्रकारोंवाली साधारण वनस्पति समझना। वस्तुतः सर्व वनस्पतियाँ उगते समय तो साधारण स्वरूपमें ही होती हैं। फिर अमुक समय होने के बाद कतिपय प्रत्येक नाम कर्मवाली प्रत्येक स्वरूपमें परिवर्तित होती हैं। और साधारण नाम कर्मके उदयवाली कतिपय साधारण रूपमें रहती हैं। इति स्थावर जीव व्याख्या। __ त्रस जीय-(एकेन्द्रिय सिवायके शेष ) दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव वे। दो इन्द्रियके भेदोंमें-कुक्षिमें ( पेट ) तथा गुदा द्वारमें होते कीडे, काष्ठमें उत्पन्न होनेवाले कीडे (धुने), गंडोले, केंचुएँ, जलौकाएँ, क्षुद्र, कीटक, शंख, छोटे शंख, कौड़ियाँ छीपे, चंदनादि जीव। जिनके चमडी और जिह्वा दो ही इन्द्रियाँ हैं वे दो इन्द्रिय। तेइन्द्रियो-सर्व प्रकार की चींटियाँ, घृतेली, उद्देही, लीख, जूं, खटमल, इंद्रगोप, इल्लियाँ, सावा, कानखजूरे, गोबरके धान्यके कीडे, चोर कीडे, पाँचों प्रकार के कुंथुए आदि / इन जीवोंके शरीर, जिह्वा और नासिका ये तीन इन्द्रियाँ हैं। ___ चउरिन्द्रियाँ-बिच्छू, मकडी, भ्रमर, भ्रमरी, कसारी, मच्छर, तिड्ड, मक्खी, मधुमक्खी, पतंगे, डाँस, खद्योत विविध रंगके पंखवाले कीडे-जीव, घासमकडी इन जीवोंके शरीर, जिह्वा, नासिका तथा आँख ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। एकेन्द्रियसे लेकर चउरिन्द्रिय तक के सर्व जीव समूच्छिम ही (वह नर-मादाके संयोगके बिना स्वजातिके मललार, मृतकादिके संयोगसे-स्पर्शसे उत्पन्न होनेवाले) होते हैं, परंतु गर्भज नहीं होते। पंचेन्द्रिय-देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यच इस तरह चार प्रकार हैं। उनमें देव 198 भेदोंमें, नारकी 7 भेदोंमें, मनुष्य 303, तिर्यच 48 भेदोंमें हैं। प्रथम तीन का वर्णन किया गया है और अंतिम तिर्यच पंचेन्द्रियका अब कहने का है। तिर्य व पंचेन्द्रियके मुख्य तीन भेद हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर। 1. 'जलचर' मख्यतया जल में रहकर जीनेवाले हैं। उनके मत्स्य.कछए, ग्राह-मगर, शिशमार इस तरह मुख्यतया पांच प्रकार हैं। 2. 'स्थलचर' जमीन पर चलनेवाले, उनके तीन भेद हैं। 1. चतुष्पदजीव वे एक-दो खुरवाले, नाखूनवाले गाय, भैंस, बाघ, हाथी, सिंह, बिल्ली आदि चार पैरवाले / 2. उरपरिसर्प-पेटसे चलनेवाले-फन वाले-फनरहित सर्प आसालीक, महारग, अजगरादि / 3. भुजपरिसर्प-भुजासे चलनेवाले नेवले, छिपकली, गिलहरी, गिरगीट, चंदनगोह, पट्टगोह आदि। 3. 'खेचर' वह आकाशमें विचरनेवाले, ये दो प्रकारके हैं। रोये के पंखवाले तथा चमडेके पंखवाले। रोमज पक्षी हंस, सारस, बगुले, उल्लू, चील, तोते, कौवे चिड़ियाँ 432. अपेक्षासे गतिमान होनेसे तेउ और वाउके जीवोंको 'गतित्रस' भी कहे जाते हैं। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तिर्यच जीवोंकी संक्षिप्त पहचान * / 125 आदि। ये. सब रोयेके पंखवाले 'रोमज' पक्षी होनेके कारण कहे जाते हैं और चर्मज पक्षी-चमगादड आदि चमडेके पंखवाले होनेसे चर्मज पक्षी कहलाते हैं। साथ ही मनुष्यलोकके बाहर बंद तथा विस्तृत पंखवाले समुद्गक तथा वितत पक्षी इस तरह चार प्रकारके पक्षी हैं। ये तिर्यक् पंचेन्द्रियवर्ती जलचर, स्थलचर तथा खेचर सर्व समूच्छिम और गर्भज इस प्रकार दो भेदवाले हैं। इस तरह एकेन्द्रिय जीवोंके 22 भेद, विकलेन्द्रियके पर्याप्ता अपर्याप्ता होकर 6 भेद, कुल 28 हुए। तिर्यक् पंचेन्द्रियमें जलचरका एक स्थलचर-चतुष्पद, उरपरिसर्प और भूजपरिसर्प इस तरह 3 भेद, और एक खेचर, इस प्रकार कुल पांच भेद (इनमें सूक्ष्मबादरत्व नहीं होता) ये संमूच्छिम-गर्भज दो भेदमें गिननेसे 10 भेद हुए। इससे पर्याप्ता अपर्याप्ता होकर 20 भेद तिर्यक्पंचेन्द्रिय जीवोंके जाने। पूर्वके 28 + 20 जोडनेसे कुल 48 भेद तिर्यक् जीपोंके जाने / वाचकोके लिये एक ज्ञातव्य बात / " यह संग्रहणी या संग्रहणीरत्न ग्रन्थ जैनधर्मका एक आदरणीय, विचारणीय, माननीय और अत्युपयोगी ग्रन्थ है / इस ग्रन्थमें ऊर्ध्व-आकाशके अन्तसे लेकर अधो आकाशके अन्त तक (प्रायः) दृश्य-अदृश्य जो विश्व है उसका वर्णन और इस विश्व में ऊर्ध्वाकाशके अन्त भागमें जो सिद्धशिला है जिस स्थानको मोक्ष कहा जाता है / वहाँसे लेकर देवलोक, ज्योतिषलोक, मनुष्यलोक और उसके बाद निम्न निम्न भागमें रही हुई सात नरक पृथ्वियाँ और उनमें रहे हुए पकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सूक्ष्म और स्थूल जीवोंका विविध प्रकारसे वर्णन किया गया है / जैनधर्मकी कतिपय महत्त्वपूर्ण जानने योग्य बाबतोंका उसमें संग्रह किया गया है। इस ग्रन्थको पढनेसे तीनों लोक, भूगोल, खगोल आदि विषयोंकी जानकारी उपलब्ध होती है / ___ यह ग्रन्थ हिन्दी भाषी जनता के लिए, जैन-अजेन जिज्ञासुओंकी ज्ञानवृद्धिके लिए आनंद और संतोष हो इसी कारणसे हमने अनेक उपयोगी चित्रोंके साथ छपवाया है। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . // अथ तिर्यक्गति अधिकारे प्रथम स्थितिद्वार // अवतरण-जिस तरह मनुष्यगतिमें भवनके बिना आठ द्वार कहे, उसीके अनुसार तिर्यंचगतिके मी आठ द्वारोंका वर्णन करनेसे पहले 'स्थितिद्वार ' को स्थूल रूपमें कहते हैं। बावीस-सग-ति-दसवाससहसऽगणि तिदिण बेंदिआईसु / बारस वासुणुपण दिण, छ मास तिपलिअढिई जिट्ठा // 284 // गाथार्थ-पृथ्वीकाय जीवोंकी उत्कृष्ट आयुष्य-स्थिति 22 हजार वर्षकी, अप्कायकी 7 हजार वर्ष, वाउकायकी 3 हजार वर्ष, वनस्पतिकायकी 10 हजार वर्षकी, अग्निकायकी 3 अहोरात्र, दोइन्द्रियकी 12 वर्ष, त्रिइन्द्रियकी 49 दिवस, चउरिन्द्रिय जीवोंकी 6 मास और तिर्यंच पंचेन्द्रियोंकी 3 पल्योपमकी उत्कृष्ट स्थितियाँ- जानें / / 284 // विशेषार्थ-अव चतुर्थ तिर्यंचगतिके अधिकारमें आठ द्वारों के बारेमें कहते हैं / यहाँ तियेच पांच प्रकारके हैं / एक इन्द्रियवाले, दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय / इनमें एकेन्द्रिय पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पतिके भेदसे पांच प्रकारके हैं। अर्थात् पांच भेद एकेन्द्रियके तथा दोइन्द्रियसे पंचेन्द्रिय तकके चार, कुल नौ भेद तिर्यचके हैं / इनमें आठ भेद तो संमूच्छिमपनेमें हैं / तथा पंचेन्द्रिय गर्भज और संमूछिम दो प्रकारसे है / यहाँ गर्भज तथा संमूच्छिमके भेदकी अपेक्षा बिना ही सामान्यतः नौ प्रकारके तिर्यंचोंकी स्थिति-आयुष्यको बताते हैं / ___ भिन्न-भिन्न स्थिति आगे कहेंगे / यहाँ जो स्थिति कही वह वादर स्थावरोंकी समझना, साथ ही बादर साधारण वनस्पतिकी स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी जाने / सूक्ष्म स्थावरोंकी तो उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकी, जघन्य क्षुल्लक भवकी है / ___यहाँ गाथार्थमें जो उत्कृष्ट स्थिति कही वह प्रायः निरुपद्रव स्थानमें वर्तित जीवोंकी समझना, कि जहाँ उनके आघात प्रत्याघातोंके निमित्त बनते न हों अन्यथा प्रायः मध्यमकक्षाके आयुष्यवाले जीव ही अधिक समझना / [ 284 ] अवतरण-अब पृथ्वीकायके भेदोंमें सूक्ष्म स्थिति बताते हैं / 433. प्रश्न-सिद्धगिरि पर वर्तित रायण वृक्ष जो सदाकालसे शाश्वत माना जाता है उसके दस हजार वर्ष होने पर नाश होना चाहिए उसके बजाय अब तक सजीव चलता आया है तो इसका समाधान क्या? उत्तर-उस वृक्षके जीव चालू आयुष्य पूर्ण होने पर पुनः वहीं उत्पन्न होते हैं अथवा अन्य जीव उस स्थलमें आकर उत्पन्न होते हैं तथा वृक्ष हमेशा सजीव रहा करता है। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तिर्यचोकी स्थितिविशेषका वर्णन * . सहा य सुद्ध-वालुअ, मणोसिल सकराय खरपुढवी / इग-बार चउद-सोलस-ऽठारस-बावीससमसहसा // 285 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 285 / / विशेषार्थ-गत गाथामें ऊपर बताये गए भेदमें पृथ्वीके कोमल तथा कर्कश दो मेद बनाये थे उनमें सात रंगवाली मरु आदि स्थलकी मृदु-कोमल पृथ्वीकी उत्कृष्ट भवस्थिति एक हजार वर्षकी है / पृथ्वीके 40 भेद हैं। उनमें गोशीर्षचंदनादिक जैसी शुद्ध-कुमार सुकोमल मिट्टीकी बारह हजार वर्षकी, वालुका-उस नदी प्रमुख रेतकी चौदह हजार वर्षकी, मनःशिला और पाराके सोलह हजार वर्षकी, शर्करा अर्थात् थोडे टुकडे-कंकड ( सुरमादिक )की अठारह हजार वर्षकी, तथा खर अर्थात् शिला पाषाणरूप कठिन पृथ्वीकी 22 हजार वर्षकी होती है / शेष भेद अन्तर्गत सोच लेना / [ 285 ] __ अवतरण-अगाऊ तीन पल्योपमकी स्थिति सामान्यतः कही है, अब पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके मेदमें जो स्थितिविशेष है उसे कहते हैं। गब्भभुअजलयरोभय, गब्भोरग पुवकोडि उक्कोसा / . गम्भचउप्पयपक्खिसु, तिपलिअपलिआअसंखेसो // 286 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार / / 286 / / विशेषार्थ-गर्भज भुजपरिसर्प ( भुजासे चलनेवाले ) नेवले, चूहे, गिलहरी, छिपकली आदिकी तथा गर्भज और संमूच्छिम जलचर मत्स्य, मगर-व्हेल, कछुओ तथा दूसरे अन्य जीवोंकी, गर्भज उरपरिसर्प (पेटसे चलनेवाले) अजगर, गोह, सादिककी करोडपूर्वकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति है / तथा गर्भज चतुष्पद गाय, सिंह आदिकी उत्कृष्ट 3 पल्योपमकी, गर्भज-खेचर मोर, हंस, उल्लू, कौए, चिडियाँ आदि पक्षियोंकी पल्योपमके असंख्यातवें भागकी होती है ! यहाँ उत्कृष्ट स्थिति जिनकी कही है, वे सारे जीव उस स्थितिवाले हों ऐसा न समझना, लेकिन उससे न्यून स्थितिवाले भी बहुत होते हैं / साथ ही यह उत्कृष्ट स्थिति और आगे कहे जाते तिर्यचोंकी स्थिति प्रायः निरुपद्रव स्थानोंमें वर्तित हों उनकी समझना / ऐसा निरुपद्रव स्थान तो अढाईद्वीपके बाहरका गिना जाता है / [ 286 ] अवतरण—गत गाथामें पूर्वकोटी आयुष्य कहा तो पूर्व किसे कहा जाए ? . .पुवस्स उ परिमाणं, सयरि खलु वासकोडिलक्खाओ / छप्पन च सहस्सा, बोद्धव्वा वासकोडीणं // 287 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 287 // Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 128 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर विशेषार्थ-पहले, पृष्ठ २३-२७में 'समयसे' लेकर पुद्गल परावर्त तकका स्वरूप और कोष्ठक दिया गया है। उसके अनुसार चौरासी लाख वर्षका एक 'पूर्वीग' होता है, उस पूर्वोगके साथ पूर्वाग संख्याको गुना करने से ( 84 लाखको 84. लाखसे ) पूर्वका परिणाम आता है / उसकी वर्ष संख्या सत्तर लाख करोड-छप्पन हजार करोड सालकी [ 7056,00,00,000,000 ] जाने / [ 287 ] अवतरण-गर्भजकी स्थिति बताकर, अब संमूच्छिम तियेच पंचेन्द्रिय स्थलचरादिककी स्थिति बताते हैं / ___ सम्मुच्छपणिदिअथलखयरूरगभुअग जिठिइ कमसो / वाससहस्सा चुलसी, बिसत्तरि तिपण्ण बायाला // 288 // गाथार्थ तिर्यच पंचेन्द्रियमें संमूच्छिम स्थलचर गाय-भैंस आदि चतुष्पद जीवोंकी अनुक्रमसे उत्कृष्ट स्थिति 84 हजार वर्षकी, संमूच्छिम खेचर-हंस-मोर-चिड़ियाँ आदि पक्षियोंकी 72 हजार वर्षकी, संमूच्छिम ( स्थलचर ) उरपरिसर्प सादिककी 53 हजार वर्षकी तथा (स्थलचर ) संमूच्छिम भुजपरिसर्पकी 42 हजार वर्षकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। सबकी जघन्यस्थिति आगे कहेंगे / // 288 // विशेषार्थ–सुगम है / [ 288 ] अवतरण-सर्व तिर्यचोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति कही / अब उन दोनोंकी स्थितिका साम्यत्व होनेसे उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति कहते हैं / एसा पुढवाईणं, भवदिई संपयं तु कायदिई / ' चउएगिदिसु नेया, ओसप्पिणिओ असंखेज्जा // 289 // गाथार्थ-इस तरह पृथ्वी आदि जीवोंकी भवस्थिति कही / अब कायस्थितिको बताते हुए ग्रन्थकार चार एकेन्द्रियों के बारेमें असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीका कायस्थितिकाल-प्रमाण कहते हैं / यहाँ 'ओसप्पिणिओ' यह पद परवाची होनेसे उपलक्षणसे पूर्व वाची उत्सर्पिणीका भी ग्रहण हो जाता है / // 289 // विशेषार्थ-कायस्थिति अर्थात् क्या ? पृथ्व्यादिक किसी भी प्रकारके जीव अपनी अपनी ही पृथ्वी आदि काया ( स्थानमें ) में मरकर, पुनः जन्म लेकर, फिर पुनः मरकर, साथ ही उसी स्थानमें पुनः जन्म लेकर इस प्रकार बार बार उत्पन्न हो तो कितने काल तक. उत्पन्न हो ? उसका नियमन वह / 434. भामा कहनेसे सत्यभामाका ग्रहण होता है इस प्रकार / .. Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संमूर्छिम तिर्यचोकी उत्कृष्ट कायस्थिति * यहाँ एकेन्द्रिय जीवोंमें एक वनस्पतिकायको वर्जित करके शेष पृथ्वी, अप् , तेउ और वाउकायकी उत्कृष्टसे असंख्य अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी प्रमाण स्वकायस्थिति है। यहाँ पृथ्व्यादिक चारकी यह स्थिति ग्रन्थकारने ओघसे अर्थात् सामान्यतः [ सूक्ष्म वादरकी विवक्षाके विना ] समुच्चयमें बताई, परंतु वस्तुतः यह काल स्थितिमान सूक्ष्म पृथ्वी-अप-तेउ-वाउ इन चारकी है / लेकिन बादरकी नहीं है, लेकिन सूक्ष्ममानके अंदर बादरका समावेश हो जाता है। इससे पृथक् विचारणामें सूक्ष्म पृथ्वी-अप-तेउ-वाउकी कालसे असंख्य उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी कायस्थिति और क्षेत्रसे लोकाकाश जितने असंख्य लोकके असंख्य आकाशके प्रदेशोंमेंसे, प्रत्येक क्षणमें एक एक आकाशप्रदेश अपहरते, उन प्रदेशोंको हर लेने में जितना काल जाए उतने समयकी है / ये आकाशप्रदेश संपूर्णतया हर लेनेमें उसका काल असंख्य कालचक्र [ लेकिन सादिसांत ] जितना होता है, क्योंकि कालसे क्षेत्र अधिक सूक्ष्म है / चार एकेन्द्रियोंके ओघसे जो असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी स्थिति कही थी उसमें उसे सूक्ष्म-वादर प्रकारसे पृथक् करके, सूक्ष्म पृथ्वी आदि चारकी कायस्थिति तो कही / अब बादर पृथ्वी-अप-तेउ तथा वाउकाय इन प्रत्येककी सत्तर कोटानुकोटी सागरोपमकी [3 / / कालचक्र जितने कालकी ] है / इन चारों पृथ्वी आदि चार बादरोंकी ओघसे भी उतनी ही स्थिति समझना / [ संख्याका अल्पत्व होनेसे ] बादरमें क्षेत्रके द्वारा पृथक गणना नहीं होती, अतः बादर पृथ्वी आदिकी कायस्थिति सूक्ष्मसे न्यून होती है। [ 289 ] - अवतरण- एकेन्द्रियमें पृथ्व्यादि चारकी स्थिति कही / अब शेष वनस्पतिकायकी कहनेके साथ दोइन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय जीवोंकी कायस्थिति बताते हैं / ताउ वणम्मि अणंता, संखिज्जा वाससहस विगलेसु / पंचिंदितिरिनरेसु, सत्तट्ठभवा उ उक्कोसा // 290 // 435. पृथ्वीकायादि जीवोंकी पर्याप्तपनकी कायस्थिति आयुष्यस्थिति जितनी होती है, अत: वे जीव __ अपनी उस संपूर्ण स्थितिका उपभोग स्वस्थानमें ही आंतर आंतर पर उपजनेसे सात आठ भवसे करते हैं क्योंकि उनके पर्याप्ता भव इतने होते हैं / फिर नौवें भवमें उसी योनिमें पर्या'तपन प्राप्त न करे परंतु * स्थानांतर हो, ऐसी जब पृथ्वीकाय एक भवाश्रयी 22 हजार वर्षकी कायस्थिति है तो आठ भवकी 176 हजार वर्षकी होती है / इस तरह 4 पर्याप्ता अप्कायकी 56 हजार वर्ष, अग्निकाय की 24 दिवस, वायुकायकी 24 हजार वर्ष, वनस्पतिकायकी 80 हजार वर्षकी है / इसमें भी लब्धि अपर्याप्तत्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी होती है / यह स्थिति बारबार अपर्याप्तावस्थामें भवांतरमें बारवार जाए और उसके अन्तर्मुहूर्त्तके कतिपय जन्म होते उसका जोड करें तो उक्त मान हो / बृ. सं. 17 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 130 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ-वही कायस्थिति वनस्पतिमें भी अनंता [ उत्स० अवस०] समझना / विकलेन्द्रियमें संख्याता वर्ष सहस्रकी तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचमें उत्कृष्ट सातसे आठ भवकी जानना। // 29 // विशेषार्थ-एकेन्द्रियके पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय तथा वनस्पतिकाय इस तरह पांच भेद हैं। इनमें प्रथमके पृथ्वी आदि चारों जीव सूक्ष्म और बादर ये दो प्रकारके हैं। पुनः इस पांचवीं अंतिम वनस्पतिकायको दो जाते हैं, एक प्रत्येक वनस्पति और एक साधारण वनस्पति / प्रत्येक वनस्पति एक शरीरमें एक जीववाली है जबकि साधारण यह एक शरीरमें अनंता जीववाली है। इस साधारण वनस्पतिके जीवोंका शरीर इसे ही दूसरे शब्दोंमें अनंतकाय अथवा निगोद रुपमें पहचाना जाता है। इसमें प्रत्येक वनस्पति बादर ही होती हैं जबकि साधारण वनस्पति [अथवा निगोद ] वह सूक्ष्म [निगोद ] और बादर [ निगोद ] इस तरह दो भेदमें है। गाथामें कही सांव्यवहारिककी कायस्थिति यहाँ ग्रन्थकारने गाथामें जो अनंती उत्सर्पिणीकी-अवसर्पिणीकी स्थिति बताई है वह सामान्यतः ओघसे पाँचवीं वनस्पतिकायकी [ वह प्रत्येक साधारण, सक्ष्म या बादरकी विवक्षाके बिना ही ] बताई है, तथा उसे सांव्यवहारिक निगोद जीव आश्रयी बताई है [ क्योंकि प्रायः सर्वत्र सांव्यवहारिकाश्रयी ही वर्णन आता है] तथा वही स्थिति सूक्ष्म सांव्यवहारिकको घटती है। इसी स्थितिको क्षेत्र तुलनासे घटित करें तो अनन्ता लोकाकाशका आकाश प्रदेशप्रमाण [ अर्थात् प्रति समय एक एक आकाश प्रदेश अपहरते जितने समयमें वह निर्मूल हो उतना समय वह ] और वह असंख्य पुद्गल परावर्तकाल प्रमाण है और उस पुद्गल परावर्तका असंख्यत्व एक आवलिकाके असंख्य भागके समयकी संख्या तुल्य है / यहाँ कालसे अनादि अनंत अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, क्षेत्रसे अनन्ता लोकाकाश-प्रदेश-असंख्य पुद्गलपरावर्त [ जो आवलिकाके असंख्य भागके समय तुल्य है ] इन चारोंकी व्याख्या तुल्य कालको सूचित करनेवाली हैं। असांव्यवहारिक अर्थात् क्या ? अर्थात् जो जीव अनादिकालसे सूक्ष्म निगोदमें पडे हैं, किसी भी समय तथाविध सामग्रीके अभावमें बाहर निकलकर व्यवहार राशि-[ वह 436. इसीलिए मरुदेवा माता के लिए विरोध उपस्थित नहीं होगा, क्योंकि वह तो अनादि [असांव्य०] निगोदसे आए थे / जबकि मूल गाथा तो मर्यादित समय बताती है अतः आदि हो सके वैसा है और यदि यह कथन असांव्यवहारिक (अव्यवहारिक राशि) को लागू करे तो मरुदेवा माताके लिए दोष उपस्थित हो, यह न हो इसलिए सांव्यवहारिककी समझना। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवोंकी कायस्थिति * सूक्ष्म-चादर पृथ्वीकायादिपनसे विविध व्यवहार ] में आए नहीं हैं वे असांव्यवहारिक / ये असांव्यवहारिक जीव दो प्रकारके हैं। एक तो अनादि अनंत स्थितिवाले और दूसरा अनादिसान्त स्थितिवाले / अनादि अनंत स्थितिवाले असांव्यवहारिक जीव कदापि व्यवहार राशिमें नहीं आए और आनेवाले भी नहीं हैं। [ और उनकी स्थिति अनंत पुद्गल परावर्त जितनी है ] और अनादिसान्त कायस्थितिवाले असांव्यवहारिक जीव अब तक व्यवहारराशिमें आए नहीं लेकिन आनेवाले हैं। [ उनकी स्थिति अनंत पुद्गल परावर्तनकी, लेकिन पूर्वापेक्षया न्यून है। ] इन दोनों प्रकारके जीव अनन्ता हैं। सांव्यवहारिक अर्थात् क्या ? जो जीव अनादि निगोदमें से तथाविध सामग्रीके योगसे पृथ्व्यादिक [ सूक्ष्म या बादर ] के व्यर्वहारमें एक बार भी आए हों वे सांव्यवहारिक / ये जीव भी अनन्ता हैं और वे सादिसान्त स्थितिवाले हैं। ___ असांव्यवहारिक निगोद सूक्ष्म ही होता है क्योंकि वहाँ व्यवहारपन नहीं होता। जबकि सांव्यवहारिक निगोद सूक्ष्म तथा बादर दोनों होते हैं। सूक्ष्मनिगोदकी कायस्थिति तीन प्रकारसे है। 1. अनादिअनंत, 2. अनादिसान्त, 3. सादिसान्त / इनमें प्रथमकी दो स्थिति असांव्यवहारिक सूक्ष्मको घटती है। और अंतिम सांव्यवहारिक सूक्ष्म-वादर दोनोंको घटती है। 1. इनमें अनादिअनंत कायस्थिति है वह, असांव्यवहारिक जीव कि जो अनादि सूक्ष्म निगोदसे निकले नहीं हैं और निकलनेवाले भी नहीं है उनकी हैं। और वह कालसे अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है। और वह असंख्य नहीं परंतु अनन्त पुद्गलपरावर्त प्रमाण है। 2. अनादिसान्त यह भूतकालमें जो कभी भी सूक्ष्म निगोदसे बाहर आए नहीं परंतु भविष्यमें आनेवाले हैं वैसे असांव्यवहारिक निगोदकी अनादिसान्त कायस्थिति है। .. यह स्थिति भी अनन्त पुद्गलपरावर्त जितनी है, क्योंकि बीता काल तो अनन्ता हैं और भविष्यमें अगरचे व्यवहारमें आनेवाले हैं तो भी कतिपय का तो भाविकाल अब भी 437. अस्थि अणंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइ परिणामो। ते वि अणंताणता निगोअवासं अणुवसंति // [विशेषणवती] 438. यह पृथ्वीकाय, यह अपकाय, इत्यादि व्यवहार जिसका हो सके वह / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 132 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अनन्ता है। लेकिन विशेष यह कि-अनादिअनंत स्थितिकी अपेक्षासे न्यून है, अतः मर्यादित है और इसीलिए ये जीव वर्तमानमें असांव्यवहारिक गिना जाए, तथापि भावि सांव्यवहारिक रूपमें संबोधित किया जा सकता है। __सूक्ष्म-बादर सांव्यवहारिककी कायस्थिति-सादिसान्त-तीसरे प्रकारमें सादिसान्तकी कायस्थिति कहते हैं-उसमें प्रथम जो जीव सूक्ष्मनिगोदमेंसे निकलकर एक बार भी बादरपृथ्वी आदिमें उत्पन्न हुए हैं वे सांव्यवहारिक कहे जाते हैं। इस सांव्यवहार राशिमें आनेके बाद, पुनः कर्मयोगसे वे जीव सूक्ष्मनिगोदमें उत्पन्न हों तो भी वे सांव्यवहारिक ही कहलाते हैं, परंतु इस तरह सांव्यवहार राशिवाले सूक्ष्म निगोदकी कायस्थितिमें तथा अनादि सूक्ष्म निगोदकी कायस्थितिमें बहुत ही तफावत है। प्रथम कह गए उस अनुसार / अनादि ( असांव्यवहारिक) सूक्ष्म निगोदकी कायस्थिति अनादिअनंत तथा अनादिसांत है। जबकि इस सांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोदकी कास्थिति सादिसांत है। अतः अनादि सूक्ष्म निगोदमेंसे बादरपृथ्वी आदिमें आनेके बाद पुनः सूक्ष्म निगोदमें जाए तब सूक्ष्म निगोदत्वका आदि हुआ, तथा अधिकाधिक असंख्य उत्सर्पिणो अवसर्पिणी रहकर फिर अवश्य पुनः बादर पृथ्वीकाय आदिमें आने पर सूक्ष्म निगोदत्वका अंत हो, इस अपेक्षासे सांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोदकी कायस्थिति सादिसान्त समझना। . जितने जीव सांव्यवहारिक राशिमेंसे मोक्षमें जाएँ उतने ही जीव असांव्यवहारिकमें से निकलकर सांव्यवहारिक राशिमें उत्पन्न हो वे सांव्यवहारिक कहलाते। ये सांत्यवहारिक जीव पहले कहे अनुसार सूक्ष्म-वादर दो भेदमें हैं अतः जब सूक्ष्मनिगोदमें [ वह चौदहराज लोकवर्ती असख्य गोलेमें ] वर्तित हो तब सांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोदीया, तथा जब बादर निगोद [वह काई फूल आदि तत्प्रायोग्य वनस्पति ] में हो तब सांव्यवहारिक बादर निगोदीया कहलाता है / इस सादिसान्त सांव्यवहारिक सूक्ष्मनिगोदकी कायस्थितिका प्रमाण कितना है ? यह कहते हैं। सूक्ष्म सांव्यवहारिक निगोदकी स्थिति - ___ सांत्यवहारिक सादिसान्त सूक्ष्म निगोदकी कायस्थिति कालसे असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, क्षेत्रसे असंख्य लोकाकाशका आकाशप्रदेश प्रमाण, [ अर्थात् उसमेंसे प्रत्येक क्षणमें एक एक प्रदेश हरनेमें जो समय लगे वह / ] उसका समय असंख्य कालचक्र जितना होता है और असंख्य कालचक्र के समय अंगुलीप्रमाण आकाशश्रेणीमें रहे हुए आंकाशप्रदेश Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * असांव्यवहारिक और सांव्यवहारिक अर्थात् क्या? . . 133 . प्रमाण हैं। और वे प्रदेश गिनतीमें असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणीके समय जितने हैं, क्योंकि कालसे भी क्षेत्रको अधिक सूक्ष्म गिना है। यह स्थिति केवल सांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोदाश्रयी जाने और ओघसे सांव्यवहारिक निगोदकी [ सूक्ष्म-वादर विवक्षा रहित ] स्थिति पहले वताई गई है। बादर सांव्य० निगोदकी स्थिति अब बादर सांव्यवहारिक साधारण निगोद [ वनस्पति की कायस्थिति कालसे सत्तर कोटाकोटी सागरोपमकी है। अल्प स्थितिपनसे क्षेत्रकी स्थिति घटती नहीं है / बादर प्रत्येक वनस्पतिकी कायस्थिति 70 कोटानुकोटी सागरोपमकी है। यहाँ मी क्षेत्रगणना नहीं है। बादर वनस्पतिकी अर्थात् बादर प्रत्येक अथवा बादर साधारण वनस्पतिके भेदके बिना दोनोंकी एकत्र अर्थात् केवल बादर वनस्पतिकी कायस्थिति सोचें तो कालसे अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तथा क्षेत्रसे ढाई पुद्गलपरावर्त जितनी बढ जाए, क्योंकि बादर प्रत्येकसे बादर साधारणमें, बादर साधारणसे बादर प्रत्येकमें इस तरह बारबार जाने आनेसे अढाई पुद्गल परावर्त तक बादर वनस्पतिमें घूमे, बादमें स्थानांतर हो। सबकी ओघसे कायस्थिति. समग्र एकेन्द्रियपनकी जातिके रूपमें ओघसे कायस्थिति कालसे अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, क्षेत्रसे असंख्य पुद्गलपरावर्त जितनी अथवा आवलिकाके असंख्य भागके समय जितनी, सूक्ष्म पृथ्वीकायादिक चारकी ओघसे भी असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालप्रमाण, बादर पृथ्व्यादिक चारको ओघसे 70 कोटानुकोटी साग०, बादर प्रत्येककी 70 को० को० साग० की, बादर साधारण निगोदकी भी ओघसे 70 कोटानुकोटी साग० की, सूक्ष्म निगोदमें अनादिअनंत स्थितिवाले असांव्यवहारिक निगोदकी अनंता तथा अनन्त पुद्गलपरावर्त तथा अनादिसान्त स्थितिवाले असांव्यवहारिक निगोदकी कायस्थिति अनंती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी मी आखिरमें मर्यादित तो सही और सांव्यवहारिक सादिसान्त स्थितिवाले सूक्ष्म निगोदोंकी मसंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अथवा असंख्य पुद्गलपरावर्त प्रमाण जानें, और सांव्यवहारिक केवल निगोदकी अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण जाने / सबकी जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तकी है जो आगे कही जाएगी। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 134 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . यह सारी पृथ्व्यादिककी स्थिति पर्याप्ता-अपर्याप्ताकी विवक्षा रहित समझना। पर्याप्ता अपर्याप्ताकी पृथक् पृथक् समझ गत गाथाकी टिप्पणीमें दी है। . विकलेन्द्रियकी कायस्थिति दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय तथा चउरिन्द्रिय इन तीनोंकी ओघसे स्थिति सोचें तो संख्यात सहस्त्र वर्षों की है। अब यदि प्रत्येककी पृथक् पृथक सोचें तो पर्याप्ता दोइन्द्रियकी उत्कृष्ट संख्याता वर्षकी [ संख्याता हजार वर्ष नहीं क्योंकि दोइन्द्रियकी उत्कृष्ट भवस्थिति ही 12' वर्षकी है और जब लघुमान-प्रमाणवाले उसके अमुक भव सतत हों तो संख्याता वर्षोंकी ही ] कायस्थिति है / त्रिइन्द्रियकी संख्याता दिवसोंकी तथा चउरिन्द्रिय जीवोंकी संख्याता मासकी [ क्योंकि पूर्वोक्त रीतसे दिवस-मासकी न्यून प्रमाणवाली भवस्थिति होनेसे भव-.. संख्या आश्रयी ] कायस्थिति सोचना। पंचेन्द्रियकी कायस्थिति पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा पंचेन्द्रिय मनुष्योंकी भी उत्कृष्ट कायस्थिति सात अथवा आठ भवकी होती है। इन भवोंके वर्ष कितने हों ? तो सात आठ भवका काल. एकत्र करें, तो तीन पल्योपम और [ पूर्वकोटी पृथक्त्वसे अधिक ] सात पूर्व कोटी वर्ष अधिक हो इसलिए उतनी कायस्थिति भी कहलाए / [क्योंकि संख्याता वर्षके आयुष्यवाले गर्भज मनुष्य तथा तिर्यचोंमें जीव पूर्व कोटीके आयुष्यमानमें उत्कृष्ट सात बार उत्पन्न हो और आठवीं बार उत्पन्न हो तो युगलिकपनसे ही उत्पन्न हो, तत्पश्चात् अन्य योनिमें भवका परावर्तन होता है, अतः पूर्वोक्त कायस्थिति संभव होती है।। और आठवाँ भव कहा तो वह आठवाँ भव, सातके बाद होता है सही, परंतु वह संख्यवर्षका नहीं लेकिन अवश्य असंख्य वर्षके आयुष्यवाला युगलिक-मनुष्य अथवा तिर्यच पंचेन्द्रियको और वहाँ उतना आयुष्य पूर्ण करके नवें भवमें देवरुपमें अवश्य उत्पन्न होता है। अतः आठवें भवकी असंख्य वर्षायुष्यस्थिति उन तीन पश्योपमके मानवाली ही होनेसे तीन पल्योपम वे, और उसके पहले पूर्वकोटी वर्षके मानवाले सात भव करें, दोनों स्थिति एकत्र होने पर तीन पल्योपम तथा सात पूर्वकोटी वर्षकी कायस्थिति आ जाए। संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति [पूर्वकोटी पृथक्त्व ] सात पूर्व करोड वर्षकी है, क्योंकि संमूच्छिम मर मरकर पुनः पुनः संमूच्छिम तिर्यचमें उत्पन्न हों तो पूर्वकोटी प्रमाण कायस्थितिवाले यावत् सात भव तक उत्पन्न होते हैं। [ परंतु अगर आठवाँ भव करना हो तो गर्भज रूपमें तथा असंख्य वर्षकी स्थितिवाले तिर्यंचमें करें और फिर देवभवमें जाएँ।] Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कायस्थिति तथा भवस्थितिका वर्णन * * संम् 0 पंचे० मनुष्यकी अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व [ २से 9 मु० ]की कायस्थिति है। देव-नारककी कायस्थिति होती नहीं है। क्योंकि देव मरकर तुरंत देव हो नहि सकता। यहाँ प्रसंग होनेसे तिर्यंच तथा मनुष्यकी भी कायस्थिति कही, परंतु देवों तथा नारकोंके तो कायस्थिति ही नहीं होती; क्योंकि देवको मरकर पुनः देवरूपमें या नारकीको मरकर पुनः नारक रूपमें अनन्तर भवमें उत्पन्न होना ही नहीं पडता / विचमें अन्य योनिमें अवश्य जाना पडे, अतः उनकी कायस्थिति नहीं कही। परंतु अपेक्षासे उनकी भवस्थिति वही उनकी कायस्थिति औपचारिक रूपमें मात्र बोली जाए, वास्तवमें तो नहीं ही। अब पंचेन्द्रियमें ही जीव [ पंचेन्द्रियपनमें ही चारों गतिमें ] भ्रमण करे तो साधिक हजार सागरोपमकालकी कायस्थिति हो [ पंचेन्द्रियके पर्याप्तपनकी ही स्थिति सागरोपम पृथकत्व होती हैं। ] और दोइन्द्रियादि सर्व त्रसजीवोंमें भ्रमण करे तो एक साथ यावत् , संख्याता वर्षाधिक दो हजार सागरोपमकी कायस्थिति हो / तत्पश्चात् भवपरावर्तन हो ही। इन जीवोंको पर्याप्त-अपर्याप्त आदिकी स्थिति ग्रन्थान्तरसे जाने। [290] अवतरण-अब अर्धगाथासे जघन्यमें भव-आयुष्य स्थिति तथा कायस्थिति कहते हैं। - सव्वेसिपि जहन्ना, अंतमुहुत्तं भवे अ काए य // 2903 // गाथार्थ—पूर्वोक्त गर्भज संमूच्छिम-सूक्ष्म या बादर सर्व पृथ्वीकायादिकसे लेकर सर्व . तिथंच तथा मनुष्योंकी भवस्थिति [ आयुष्य ] जघन्यसे अन्तर्मुहूर्तकी [ देव-नारककी * 10 हजार वर्षकी ] और कायस्थिति भी [ पर्याप्त अपर्याप्तकी ओघसे या पृथक् ] जघन्य अन्तर्मुहर्तकी ही जाने, तत्पश्चात् जीवका अनन्तर भवमें परावर्तन होता है / [2903] - विशेषार्थ–सुगम है / [2903 ] ज Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वकीज. // चारों गतिके जीवोंका कायस्थिति प्रदर्शक यन्त्र // पर्याप्ता प्रत्येकाश्रयी ओघसे तिर्यचभेद / | अपर्याप्ता कालसे - क्षेत्रसे | कालसे क्षेत्रसे | / पर्याप्ताकी पृथक् सूक्ष्मपृथ्वीकाय | मिश्ररुपमें असंख्य उ०अ०-असंख्य लोकाकाश | अ० उ०अव०अ०लोका० प्रत्येक पृथ्वी अनुसार सूक्ष्मअपकाय सूक्ष्मतेउकाय सूक्ष्मवायुकाय स०सा०वनस्पति अनंत उ०अव. अनंत लोकाकाश प्रत्येकवत् . प्रत्येकवत् बादरपृथ्वीकाय 70 को०कोटी साम्गणना नहीं है। / 70 को० कोटीसागरो० [सं०सह वर्ष०२लाख७६ह. बादरअपकाय 56 हजार वर्ष बादरतेउकाय 24 दिवस बादरवायुकाय 24 हजार वर्ष बादरसा वनस्पति सं० सहस्र वर्ष बा०प्रत्येक बन० 80 हजार वर्ष दोइन्द्रिय संख्याता सहस्रवर्ष 'संख्याता सहस्रवष संख्याता वर्ष त्रिइन्द्रिय संख्याता दिवस चडरिन्द्रिय संख्याता मास संमू० तिर्यंचपंचे. सात पूर्व कोटी वर्ष / एक हजार सागरोपम पृथक्त्वशतगतिर्यचपंचे 3 पल्योपम 7. पूर्व कोटी वर्ष / संख्याता वर्ष , सागरोपम स०मनुष्यकी अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व उतनी ही ग०मनुष्यकी 3 पल्यो० 7 पूर्व कोटी / देषनरककी कायस्थिति नहीं है अपेक्षासेभवस्थिति . पर्याप्ताकी जघन्य, अपर्याप्ताकी जघन्य या उत्कृष्ट अथवा सर्वकी-ओघसे जवन्यस्थिति [छोटे या बड़े भी] अंतर्मुहूर्त्तकी है। * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * " |. xx mobai Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // तिर्यंचोंका द्वितीय अवगाहना द्वार / अवतरण-कायस्थितिपूर्वक तिर्यचोंका स्थितिद्वार कहकर अब अवगाहना द्वारको ओघ [सामान्य अथवा समुच्चय ] से कहते हैं / जोअणसहस्समहि, एगिदिअदेहमुक्कोसं // 291 // बितिचउरिदिसरीरं, बारस जोअणतिकोसचउकोसं / जोअणसहस पणिदिअ, ओहे वोच्छं विसेसं तु // 292 // गाथार्थ-एकेन्द्रियका उत्कृष्ट देहमान कुछ अधिक ऐसे हजार योजन, दोइन्द्रिय जीवोंका शरीर बारह योजन, त्रिइन्द्रियका तीन कोस, चउरिन्द्रियका चार कोस (1 यो०), तिर्यंच पंचेन्द्रियका हजार योजनसे कुछ अधिक, यह सर्वमान ओघसे अर्थात् समुच्चयमें कहा। विशेषसे अर्थात् भिन्न भिन्न भेद करके आगे कहेंगे / // 291-292 // विशेषार्थ-एकेन्द्रिय शब्दसे मुख्य किसे ग्रहण करें ? वह आनेवाली गाथामें कहनेवाले हैं। यहाँ तो समुच्चयमें एकेन्द्रियकी साधिक हजार योजनकी अवगाहना कही है / इस तरह यावत् पंचेन्द्रियकी भी यहाँ ओधसे (समुच्चयसे) ही अवगाहना कही है, परंतु आनेवाली गाथामें अवगाहनाके पृथक् पृथक् नाम ग्रहणपूर्वक क्रमशः कहेंगे। [291-292] अवतरण-अब विशेषसे अवगाहना कहते हुए प्रथम एकेन्द्रियके बारेमें कहते हैं / अंगुलअसंखभागो, सुहुमनिगोओ असंखगुण वाउ / तो अगणि तओ आऊ, तत्तो सुहुमा भवे पुढवी // 293 // तो बायरवाउगणी, आऊ पुढवी निगोअ अणुकमसो / ... पत्तेअवणसरीरं, अहि जोयणसहस्सं तु // 294 // .. गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 293-294 // विशेषार्थ-यहाँ स्थावर में पृथ्वी-अप-तेउ-वाउ-वनस्पति ये पांच भेदो हैं / इनमेंसे वनस्पतिके दो भेद हैं / 1 प्रत्येक और 2. साधारण / [ इसमें साधारणके तीन नाम है, निगोद कहिए, अनन्तकाय कहिए या -साधारण कहिए / तीनों समानार्थक हैं ] अतः पृथ्व्यादि चार और साधारण वनस्पति इन पांचोंके सूक्ष्म तथा बादर ऐसे दो भेद हैं इनमें सूक्ष्मनिगोदको साधारण वनस्पति जाने / जबकि प्रत्येक वनस्पति केवल बादर स्वरूपमें ही है, लेकिन सूक्ष्म नहीं / बृ. सं. 18 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 138. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . यहाँ प्रथम सूक्ष्मनिगोद [ सूक्ष्म साधारण वनस्पति ]का शरीर अंगुलका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण, उससे असंख्यातगुना एक सूक्ष्म वायुकाय जीवका, उससे असंख्यातगुना एक सूक्ष्म अग्निकायका, उससे असंख्यातगुना बड़ा सूक्ष्म अप्कायका, उससे असंख्यातगुना सूक्ष्म पृथ्वीकायका समझना। उससे भी असंख्यातगुना एक वादर वायुकायका, उससे असंख्यातगुना एक बादर अग्निका, उससे असंख्यातगुना बादर अप्कायका, उससे असंख्यातगुना बादर पृथ्वीकायका, उससे भी असंख्यातगुना बड़ा अनुक्रमसे बादर निगोदका जाने / यहाँ असंख्याताके असंख्याता भेदो होनेसे उत्तरोत्तर अंगुलका असंख्यभाग, असंख्यातगुना बड़ा सोचें / ___और प्रत्येक वनस्पतिकायका शरीर साधिक हजार योजनका होता है। ऐसी बड़ी. अवगाहना, गहरे जलाशयोंकी कमल आदि वनस्पतिमें ही मिलेगी। परंतु पृथ्वी पर अन्य किसी वृक्षपंक्तिकी नहीं मिलेगी। इस तरह एकेन्द्रियकी अवगाहनाका वर्णन किया / ____ इन जीवोंके देहमानके अल्पबहुत्वमें उत्तरोत्तर असंख्यगुण शरीर बताया है तो अंतिम बादर निगोदका बहुत बड़ा हो जाएगा क्या है इसका उत्तर यह है कि-उत्तरोत्तर अपेक्षासे भले बड़ा हो, लेकिन अंतमें तो अंगुलके असंख्य भागका ही होता हैं, स्वस्वशरीर स्थानमें तमाम जीव अंगुलके असंख्येय भाग प्रमाण ही जाने / [293-294 ] __ अवतरण-यहाँ शंका होती हो कि पूर्वोक्त जीर्वोके देहमान उत्सेधांगुलसे बताये; जबकि समुद्र तथा पद्मद्रहादि जलाशयोंके मान तो प्रमाणांगुल. मानवाले [ अर्थात् उत्सेधांगुलसे चारसौ गुने बडे ] हैं, तो उत्सेधांगुलके मानवाले वनस्पत्यादिकके हजार योजनका मान प्रमाणांगुलसे निष्पन्न हजार योजन गहरे, समुद्र-द्रहादिकमें कैसे घटेगा ? क्योंकि द्रहमान तो शरीरमानसे चारसौ गुना गहरा होता है, तो फिर उसमें हजार योजनसे अधिक मानवाली वनस्पतिकाय रूप वनस्पतिका संभव किस तरह हो सके ! उसके समाधानके लिए ग्रन्थकार जणाते है कि 439. यह अभिप्राय श्री चन्द्रिया संग्रहणीका है और उसके टीकाकार देवभद्रसू रिजीने उसके समर्थनमें भगवतीजी श० 19, उ. तीसरेका पाठ भी प्रस्तुत किया है। जब कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी ऊपरके विधानसे अलग पडते हैं / वे तो उनकी संग्रहणीकी वणंतसरीराणं एगं निलसरीरगं पमाणेणं (गा० 311) इस गाथाका 'अनन्त शरीरी साधारण वनस्पतिकायके जीवोंका जो शरीर प्रमाण वही प्रमाण वायुकायके शरीरका ऐसा स्पष्ट कहते हैं / और उसकी टीका कहते हुए सार्वभौम टीकाकार श्री मलयगिरिजी 'यावत्प्रमाणं साधारणवनस्पति शरीरं तावत्प्रमाणमेव वायुकायिकैकजीवशरीरमिति' ' इस तरह निश्चयात्मक रीतसे स्पष्ट व्याख्यान करते हैं / .. . Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .139. * पन्न, द्रह और वनस्पतिका मान किस तरह घटे ? . उस्सेहंगुलजोअण-सहस्समाणे जलासए नेयं / तं वल्लि पउमपमुह-अओ परं पुढवीरूवं तु // 295 // गाथार्थ-उत्सेधांगुलसे हजार योजन मानवाले जलाशयोंमें वह वेल, पद्म-कमल प्रमुख [ प्रमुख शब्दसे वैसे वनस्पतिरूप अन्य कमलादिक ] जानें / इससे [ अधिक मानवाले जहाँ हों वे ] दूसरे सर्व पृथ्वीकायरूप जानें / // 295 // विशेषार्थ-यहाँ उत्सेधांगुल क्रमशः साथमें रक्खे आठ नौ के बिचके भागकी जितनी लंबाई हो वह / और उस उत्सेधांगुलको चारसौ गुना करने पर एक ही प्रमाणांगुल होता है / इस उत्सेधांगुलमें हजार योजन गहराईवाले वे-समुद्र, द्रहादिगत आए हुए ४४°गोतीर्थादि जलाशयोंमें ये साधिक हजार योजन प्रमाणवाले प्रत्येक वनस्पतिस्वरूप लता, कमल आदि सोचें / [पूर्व गाथा के 'अहियं जोयणसहस्सं' इस पदसे अधिकत्व कितना ले ! तो ( हजार योजन जलकी गहराई और ) जलसे कमल जितना ऊँचा रहे उतना ] जहाँ उत्सेधांगुलसे नहीं लेकिन प्रमाणांगुलसे निष्पन्न हजार योजन गहरे समुद्रादि स्थानोंमें कमलोंका अस्तित्व हो वहाँ उन कमलोंको (पृथ्वीकायके जीवोंसे ) पृथ्वीकाय स्वरूप ही सोचें / आकार तो सारा कमल जैसा होने पर भी वे वनस्पतिकायरूप नहीं होते अर्थात् वे पृथ्वीकायके जीवोंके शरीरसे ही बने होते हैं / जैसे प्रमाणांगुल निष्पन्न 10 योजन गहरे पद्मद्रहमें श्रीदेवीका कमल पृथ्वीकायस्वरूप है वैसे / क्योंकि शरीरका माप उत्सेधांगुलसे नापनेका कहा है / समुद्रमें उत्सेधांगुलसे हजार योजन गहराईवाले स्थलमें गोतीर्थादि [ हजार योजन गहराईवाले ]. स्थान भी आए हैं। तत्रवर्ती कमलो पृथ्वीकाय तथा वनस्पतिकाय इस तरह दोनों प्रकारके सोचें, अतः इस शेष गोतीर्थादि स्थानकमें मी पूर्वोक्त गाथामें कहा गया ४७'वल्ली-पद्मप्रमुख प्रत्येक वनस्पतिका साधिक हजार योजनका अवगाह सोचें। साथ ही अढाईद्वीपके बारह हजार योजन जितनी बड़ी बड़ी लताएँ भी हैं / [295] ___ अवतरण-एकेन्द्रियकी अवगाहना कहकर, अब दोइन्द्रियसे लेकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवोंके नामग्रहणपूर्वक क्रमशः देहमानके बारेमें कहते हैं / 440. गोतीर्थ-अर्थात् जलमें रहा ऊँचा ऊँचा चढता तालाबकी तरह ढालवाला (बैठी हुई गायके आकर जैसा) भाग। 441. जोयणसहस्समहिअं और उस्सहंगुलओ० इत्यादि 'विशेषणवती' की गाथाएँ साक्षी देती हैं। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . बारसजोषण संखो, तिकोस गुम्मी य जोयणं भमरो। . मुच्छिमचउपयभुअगुरग, गाउअधणुजोअणपुहुत्तं // 296 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 296 // विशेषार्थ-अढाईद्वीपके बाहर स्वयंभूरमणादि समुद्रमें उत्पन्न होते शंख आदि प्रकारके दोइन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट देहमान बारह योजनका, त्रिइन्द्रिय-कानखजूरे, मकोडे आदि की लंबाई तीन कोसकी, चउरिन्द्रिय-भ्रमर, विच्छू, मक्खी आदि का देहमान एक योजनका होता है / तिर्यच पंचेन्द्रियमें संमूच्छिम चतुष्पद [अढाईद्वीपके बाहर जो होते हैं। वो हाथी आदिका उत्कृष्ट देहमान कोस पृथकत्व अर्थात् [दो से नौ कोस तककी संख्या पृथकत्व कहलाता है] दो से नौ कोस तकका, संमूछिम भुजपरिसर्प नेवले आदि का धनुष पृथक्त्व दो से नौ धनुष तक, और संमूच्छिम उरपरिसर्प सादिकका योजनपृथक्त्व दो से नो योजन तक में यथायोग्यरूपमें होता है / ऐसी बृहत् अवगाहनावाले जीव प्रायः अढाईद्वीपके बाहर जहाँ मनुष्योंकी तो बसती ही नहीं है, केवल तिर्यच ही वहाँ होते हैं, परंतु मनुष्य क्षेत्रमें तो जीव अल्प अवगाहनावाले होते हैं / [296] अवतरण-प्रस्तुत कथन समूच्छिम गर्भजमें उतारते हैं / गन्भचउप्पय छग्गाउआई भुअगा उ गाउअपुहत्तं / जोअणसहस्समुरगा, मच्छाउभए वि अ सहस्स // 297 // गाथार्थ-गर्भजचतुष्पद हाथी आदिका [देवकुरु-उत्तरकुरुमें ] उत्कृष्ट देहमान छ: कोसका, गर्भज भुजपरिसर्प नेवले आदिका गव्यूतपृथक्त्व [ दो से नौ कोसका ] सर्पअजगरादिक गर्भज उरपरिसोका एक हजार योजनका है [ यहाँ स्थलचर जीवोंका वर्णन पूर्ण हुआ / ] तथा जलचरमें स्वयंभू रमण समुद्रवर्ती संमूच्छिम तथा गर्भज दोनों ___442. किसी किसी स्थान पर (जीवविचारादिककी वृत्तिमें) 'उरगाभूयगा य जोयणपुहुत्तं' पाठसे योजन पृथक्त्व जणाते हैं लेकिन वह घटित नहीं लगता / ___443. प्रायः कहनेका कारण,-अन्तर्मुहूर्त्तके आयुष्यवाले, जन्म होते ही शीघ्र 12 योजन जितनी कायावाले होकर तुरंत मृत्यु पाने पर, पृथ्वीमें बारह योजन जितना बडा गड्ढा पडता है। चक्रीकी-सेना-नगर भी समा जाए, ऐसी जातिके आसालिक सर्प भी जो दोइन्द्रिय ( मतांतरसे तिर्यंच पंचेन्द्रिय ) जातिके हैं, वैसे महाकाय प्राणी उक्त कथनसे अढाईद्वीपमें ( कर्मभूमिमें ही ) भी हो सकते हैं और वे मिथ्याष्टि तथा अन्तर्मुहूर्त्तके आयुष्यवाले होते हैं / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तिर्यचोंका जघन्यमान और उपपात, च्यवनविरहकाल * .14.. जलचर . मत्स्योंका भी एक हजार योजनका देहमान होता है / [ यहाँ जलचर भी पूर्ण हुए। ] / / 297 // विशेषार्थ- सुगम है / [297] अवतरण-उसी खेचरके बारेमें कहकर सर्वका जघन्यमान कहते हैं। पक्खिदुगधणुपुहत्तं, सव्वाणंगुलअसंखभाग लहू- // 2973 // गाथार्थ-खेचरमें हंस, तोते, चमगादड आदि प्रकार के संमूच्छिम तथा गर्भज पक्षियोंका धनुष पृथक्त्व [ २से 9 ध० ] का देहमान है। [ इति तिरश्चामुत्कृष्टावगाहना ] एकेन्द्रियसे लेकर यावत् पंचेन्द्रिय तकके सर्व तिर्यचोंकी अवगाहना [ उपपातसमयाश्रयी ] जघन्यसे अंगुलके असंख्यातवें भागकी जानें / // 2973 // विशेषार्थ-वैक्रिय शरीरकी लब्धिवाले तिर्यच जीवों दो हैं / एक पर्याप्तबादर वायुकाय और दूसरा पर्याप्ता संख्यातावर्षायुषी गर्भज पंचेन्द्रिय / इनमें तथाविधि लब्धिप्रत्ययिक वैक्रियशरीरी वायुकायकी अवगाहना जघन्योत्कृष्ट दोनों प्रकारसे, अंगुलके असंख्यातवें भागकी ही होती है। जब कि उक्त प्रकारके तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवोंकी जघन्य अवगाहना अंगुलके संख्य भागकी हैं जबकि उत्कृष्ट अवगाहना तो योजनशतपृथक्त्व [200 से 900 यो० तक ] की है / [2973] [इति जघन्यावगाहना] - - तीसरा-चौथा उपपात-च्यवन विरहकाल तथा पाँचवां-छठा उसका संख्याद्वार // अवतरण-अवगाहना के द्वारको बताकर, तीसरे, चौथे उपपात च्यवनविरह द्वारको कहनेपूर्वक, पाँचवें छठे संख्याद्वारमें उपपात तथा च्यवन संख्या जघन्यसे कहते हैं। एकेन्द्रिय का उत्पात और च्यवन प्रतिसमय चालु होनेसे उसे इन दो द्वारोंका संभव नहीं है, अतः इन्हें छोड़कर दोइन्द्रियादिक जीवोंमें द्वार घटना कहते हैं / विरहो विगलासनीण, जम्ममरणेसु अंतमुहू // 298 // गब्भे मुहुत्त बारस, गुरुओ लहुओ समय संख सुरतुल्ला // 2983 // गाथार्थ-विकलेन्द्रिय अर्थात् दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंका तथा 4 पाठां०-तणु / Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 142 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर .. असंज्ञीसे संमूच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रियका जन्म-मरणके बिचका उपपात तथा च्यवनविरहकाल उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त्तका जाने / गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यंचका उत्कृष्ट उपपात तथा च्यवनविरह बारह मुहूर्तका जाने / ___अब उपपात तथा च्यवनसंख्याको जणाते शेष दोइन्द्रियादिसे यावत् पंचेन्द्रिय तकके सर्व जीवोंकी एक समय उपपात तथा च्यवनसंख्या देव तुल्य [ वह एक, दो, तीन . यावत् संख्य असंख्य ] जाने / एकेन्द्रिय जीवोंकी संख्या आगे कहते हैं। // 2983 / / विशेषार्थ—यहाँ सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय जीवोंका उपपात तथा च्यवन विरहकाल नहीं है / इसी लिए ग्रन्थकारने कहा भी नहीं है / इसका कारण यह हैं कि-पृथ्व्यादिक चार तथा [परस्थान-स्वस्थानाश्रयी ] निगोदके जीवोंकी उत्पत्ति और मरण संख्या असंख्य और अनंता प्रमाणमें प्रतिसमय होती है, जिससे विरहकालका नियमन ही घटता नहीं / यही खुलासा गाथा 300 के अर्थ ग्रन्थकार खुद ही देनेवाले है। इति विरहकालमानम् // 2983 // अवतरण---अब एकेन्द्रियका उपपात-च्यवनविरह नहीं है, इसे बताकर उन जीवोंकी उपपात-त्यवनविरह संख्याको विशेष प्रकारसे जणाते हैं / . अणुसमयमसंखेजा, एगिदिअ हुंति अ चवंति // 299 // वणकाइओ अणंता, एक्केकाओ वि जं निगोआओ / / निच्चमसंखो भागो, अणंतजीवो चयइ एइ // 300 // गाथार्थ - विशेषार्थवत् // 299-300 // विशेषार्थ- यहाँ ग्रन्थकारके 'एगिदिय' शब्द व्यवहारसे पांच प्रकारके एकेन्द्रियमेंसे प्रथमके चारको ग्रहण करें। जिससे पृथ्वी, अप, तेज, वायुकायके जीवो, सामान्यतः समय समय पर असंख्याता उत्पन्न होते हैं और असंख्याता च्यवीत होते हैं; परंतु कमी भी एक, दो या संख्याताकी संख्या नहीं होती / वनस्पतिकायके जीव तो हमेशा स्वस्थानकी अपेक्षासे अनन्ता उत्पन्न होते हैं और अनन्ता च्यवित होते हैं / [ परस्थानकी अपेक्षासे लें तो असंख्य जीवोंका उत्पन्न होना-मरना होता है / क्योंकि ( सूक्ष्म या बादर ) निगोदकी वय॑ शेष चारों निकायों तथा त्रसकायके जीवोंकी संख्या ही असंख्याती है / ] ___ अब स्वस्थानकी अपेक्षासे अनन्ता किस तरह उत्पन्न होते हैं ! इसका समाधान यह हैं कि-एक एक निगोदमें विवक्षित समय पर जो अनंत जीव हैं, उनमें से एक ही अर्थात् निश्चित किये समय पर ( सूक्ष्म या वादर ) निगोदका (अनंतजीवात्मक) असंख्या Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * निगोदका गोलेका स्वरुप . तवाँ भाग ही एक एक समयमें मरता है / ( च्यवित होता है ) और पुनः उसी समय पर अनंत जीवात्मक एक असंख्यातवाँ भाग परभवमेंसे आकर उत्पन्न होता है / [ एक निगोद में अनन्ता जीव च्यवन-उत्पत्तिमें प्राप्त होते हैं तो सर्व निगोदोंकी बात करें तो तो पूछना ही क्या ? ] इस तरह प्रतिसमय एक एक असंख्यांश घटते घटते विवक्षित निगोदके सर्व जीवो मात्र अन्तर्मुहूर्तमें ही परावर्तन पाते हैं, जिससे अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने पर दूसरे समय पर देखें तो विवक्षित निगोदोंमें सर्व जीव नये ही आए होते हैं, और पूर्वका एक भी जीव विद्यमान नहीं होता; इस प्रकार जैसे एक निगोद अन्तर्मुहूर्त मात्रमें सर्वथा परावर्तन पावे वैसे जगतकी हरेक निगोद मी अन्तर्महुर्त मात्रामें परावर्तन पाती है, इस तरह सदाकाल निगोद प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमें सर्वथा नई नई उत्पन्न होती हैं। परंतु वह निगोद कभी भी जीवरहित नहीं होती और इसी लिए इन जीवोंका जन्ममरणका विरहकाल भी नहीं होता / [299-300] ___ अवतरण-निगोद गोलकरुप है; तो उस गोलेकी संख्या कितनी? आदि स्वरूपके बारेमें कहते हैं / गोला य असंखिज्जा, अस्संखनिगोअओ हवइ गोलो / एक्ककम्मि निगोए, अणंतजीवा मुणेयव्वा // 301 // - गाथार्थ—गोले असंख्यात हैं, असंख्य-असंख्य निगोदोंका एक गोला होता है और एक एक निगोदमें अनंता जीव जाने // 301 / / विशेषार्थ-समग्र लोकाकाशमें गोले भरे होनेसे निगोदके सर्व गोले असंख्यात हैं। एक एक निगोदके गोले में निगोदिये जीवके साधारण शरीर असंख्य असंख्य हैं, [ समावगाही असंख्य निगोदोंका नाम ही गोला है ] साथ ही एक एक निगोदमें ज्ञानी महर्षियोंने अनंत अनंत जीव कहे हैं, इस एक एक निगोदाश्रयी जीवो तीनों कालके सिद्धके जीवोंसे अनंतगुने आज हैं और अनंतकाल जाने पर भी अनंतगुने ही रहनेवाले हैं। जिसके लिए कहा हैं कि 'जइआइ होइ पुच्छा जिणाणमग्गंमि उत्तर तइया / इक्कस्सय निगोयस्स अणंतभागो अ सिद्धिगओ // 1 // स्पष्ट है। इसीलिए कहा है कि ... “घटे न राशि निगोदकी, बढे न सिद्ध अनंत / " . पुद्गलोंसे सर्व लोक जैसे व्याप्त हैं वैसे जीवोंसे भी यह लोक सर्वत्र व्याप्त है अर्थात् निगोदादि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव अंजनचूर्णसे भरी डिवियाकी तरह ठोस ठांस कर .: 445. पाठां निगोयगोलओ भणिओ / Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .144. श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर लोकमें सर्वत्र रहे हैं; उन सूक्ष्मजीवोंका मनुष्यादि जीवोंको हलचलसे, शस्त्रादिकसे, अमिसे भी नाश नहीं होता / ये जीव किसी भी कार्यमें अनुपयोगी तथा शस्त्रादिकके घातसे अविनाशी चर्मचक्षुसे अदृश्य होनेसे 'सूक्ष्म' कहलाते हैं, इनसे विपरीत लक्षणवाले जीव 'वादर' कहलाते हैं / इस निगोदके जीव दो प्रकारके हैं / 1 सांव्यवहारिक, 2 असांव्यवहारिक / जो . जीव अनादि सूक्ष्म निगोदसे एक बार भी निकलकर शेष सूक्ष्म-बादर पृथ्व्यादि जीवोंमें उत्पन्न होते दृष्टिपथमें आते हैं वहाँ वे पृथ्व्यादि विविध नामके व्यवहार (अनादिकालसे 'सूक्ष्म निगोद' रूपका सूक्ष्मत्व नष्ट करके अन्य नामसे व्यवहार होना वह) के योगसे सांव्यवहारिक गिना जाता है / साथ ही सांव्यवहारिककी छाप पाये हुए जीव दुर्भाग्य, . योगसे पुनः निगोदमें जाए तो भी एक बार व्यवहारमें आ गये होनेसे, वहाँ भी उनका व्यवहार सांव्यवहारिक रूपमें ही होता है / __असांव्यवहारिक वे कहलाते जो जीवो अनादिकालसे गुफामें जन्म लेते और गुफामें मरे की तरह सूक्ष्म निगोदमें ही रहे हैं, कदापि बाहर निकलकर बादरत्व या त्रसादिकपन पाये नहीं हैं। [मतांतरसे कदापि सूक्ष्म निगोद वर्जित करके अन्य पृथ्वी आदि सूक्ष्म : या बादरके व्यवहारमें नहीं आये हैं वे ] जितने जीवो सांव्यवहारिक राशिमेंसे मोक्षमें जाएँ, उतने ही जीवो असांव्यवहारिक राशिमेंसे निकलकर सांव्यवहारिक राशिमें आते हैं / जिससे व्यवहारराशि हमेशा समान रहे, जबकि असांव्यवहारिक राशि हर समय घटती जाए, ( परंतु कदापि अनंत मिटकर असंख्य न ही हो।) इस निगोदमें भव्य तथा अभव्य जीवो सदाकाल अनंत-अनंत ही होते हैं / ऐसे मी अनंतभव्य जीवो हैं कि जो सामग्रीको पानेवाले नहीं हैं और मुक्तिमें जानेवाले भी नहीं हैं। - निगोद अर्थात् 'अनंत जीवोंका साधारण एक शरीर ' जो स्तिबुकाकार ( पानीके बुलबुले) समान है। इस निगोदमें वर्तित जीव समकालमें उत्पन्न होनेवाले होते हैं, अनंतजीवोंकी शरीर रचना, उच्छ्वास, निःश्वास, आहारादि योग्य पुद्गलोंका ग्रहण विसर्जन आदि, एक साथ ही समकालमें होता है, और इसीसे साधारण ( समान स्थितिवाले ) रूपमें पहचाने जाते हैं। ये सूक्ष्म निगोद जीव बादर निगोदसे असंख्य गुना होनेसे अनंत हैं, अनंत जीवोंका औदारिक शरीर एक ही होता है ( तेजस्-कार्मण प्रत्येकके अलग ही होते हैं) और उसका देहमान अंगुलके असंख्यातवें भागका मात्र है, इतनी एक सूक्ष्म शरीरावगाहनामें Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असांव्यवहारिक जीवका मान अनंत जीव किस तरह समा जाए ? ऐसी शंका होती है, परंतु जिस तरह लोहेके गोलेमें अग्नि, एक कमरेमें वर्तित दीपकके तेजमें अन्य सैकडों दीपकका तेज, एक तोले पारेमें 100 तोले सोनेके औषधिबलका समावेश इत्यादि रूपी पदार्थका अवगाहन (प्रवेशसंक्रान्त ) होता है, वैसे एक, दो यावत् अनंत जीवो भी एक दूसरेमें प्रवेश करके-संक्रमण करके एक ही शरीरमें समान अवगाहनामें रहें, उसमें द्रव्यों के परिणाम-स्वभावकी विचित्रता देखने पर कुछ मी आश्चर्य नहीं है / एक शरीरमें रहे अनंत निगोदके जीव अव्यक्त ( अस्पष्ट) वेदनाका जो अनुभव करते हैं वह सातवीं नरक पृथ्वीसे भी अनंतगुनी दुःखदायक है। भले प्रकटरूपमें वेदना नरककी है किन्तु अप्रकटरूपमें तो इन जीवोंकी ही वेदना बढ जाती है। इस निगोदकी 37 प्रकारसे व्याख्या होती है जो श्री लोकप्रकाश ग्रन्थके तीसरे सर्गसे जाने / - इस निगोदका संस्थान सामान्यतः हुंडक है, परंतु वास्तवमें तो अनियमित आकारका है। निगोदका देहमान अंगुलके असंख्यातवें भागका है। निगोदके जीव संघयण रहित हैं। बादर निगोदका किंचित् अधिक स्वरूप जीवके 563 भेदके वर्णनमें से देखना / निगोद गोलक, उत्कृष्ट पद, जघन्य पद तथा समावगाही-विषमावगाहीपन तथा अवगाहनादि सर्व स्वरूप निगोद छत्तीसी तथा आगमशास्त्रोंमें से देखें / [301] अवतरण-असांव्यवहारिक जीवो कितने हैं ! उसका मान कहते हैं / . अत्थि अणंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो / उप्पज्जति चयंति य, पुणोवि तत्थेव तत्थेव // 302 // ... गाथार्थ-ऐसे अनंत जीव हैं कि जो जीव सादिक लब्धिपरिणामको पाये नहीं है, क्योंकि वे (असांव्यवहारिक जीव) वहीं पर बारबार उत्पन्न होते हैं तथा (बारबार) मरते हैं। // 302 // विशेषार्थ-पूर्व गाथामें इसका स्वरूप कहा गया है कि जो जीव कदापि सूक्ष्म वनस्पतिपन वय॑ सूक्ष्म पृथ्वीकायादि, वादर निगोद-पृथ्वीकायादिपन पाये ही नहीं हैं, परंतु सूक्ष्म निगोदमें ही पुनः पुनः जन्म-मरण करते हैं, वैसे अव्यवहारराशिवाले अनंतानंत हैं / [302] अवतरण-अब प्रत्येक वनस्पतिमें अनंतकायका संभव कब हो ? बृ. सं. 19 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . सव्वोऽवि किसलओ खलु, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। सो चेव विवडढतो, होइ परित्तो अणंतो वा // 303 // गाथार्थ-सर्व किसलय भी [प्रारंभकी उद्गम अवस्था-कोमल पोके समय ] अर्थात् प्रथम उद्गम अवस्थावाली वनस्पतियाँ उगते समय निश्चित अनंतकाय होती हैं, ऐसा श्री तीर्थंकर तथा गणधरभगवंतोंने बताया है तथा पश्चात् वृद्धि पाते वे ही वनस्पति किसलय, प्रत्येक होनेवाले हों तो प्रत्येक होते और साधारण वा अनंतकाय [बादर निगोदस्वरूप] होनेवाले हों तो अनंतकाय होते हैं / // 303 // विशेषार्थ-यहाँ भावार्थ ऐसा समझना कि-कोई बीज भूमिमें बोया हो तो, मृत्तिका और जलके संयोगसे उसी बीजका जीव मृत्यु पाकर उसीमें पुनः उत्पन्न होकर अथवा उसी बीजका जीव मरकर अन्य स्थानमें जाए तो दूसरा कोई पृथ्वीकायादिकमेंसे मरा हुआ जीव इस बीजमें उत्पन्न होकर प्रथम उस बीजकी विकस्वर अवस्था करे तथा विकस्वर अवस्था करके स्वयं मूलरूपमें परिणत हो और प्रथम विकस्वर अवस्था होनेके बाद उसमें तुरंत ही अनंत जीव उत्पन्न होकर किसलय अवस्था रचते हैं / ये उत्पन्न हुए अनंत जीव मरनेके बाद, उस मूल स्थानमें उत्पन्न हुआ जीव उस किसलयमें व्याप्त हो जाता है / प्रत्येक वनस्पतिके इन किसलयोंका अनंतकायत्व (अवस्था) अन्तर्मुहुर्त टिकता है। तत्पश्चात् वे किसलय प्रत्येक (एक एक शरीरमें एक एक जीववाला) होते हैं, क्योंकि निगोदकी उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्तकी ही है। जबकि प्रत्येक हों तब अन्य अनंत जीव मर जाते हैं। ___ हजारों वनस्पतियोंके जीवोंके अनेक गहन रहस्य, उनकी अकल समस्याएँ तथा अद्भुत विचित्रताओंसे भरे हैं / उनके अभ्यासके लिए अनेक जिंदगियाँ देनी पडे वैसा है। मानवकी बुद्धिमें समझमें न आवे वैसे रहस्य उनमें देखनेको मिलते हैं, लेकिन मानव स्थूल बुद्धिवाला प्राणी है, उससे सूक्ष्म रहस्योंके भेदो थोडे ही सुलझनेवाले हैं ! वहाँ श्रद्धावादका ही समादर करना पडेगा / [303] __ अवतरण- अब यह एकेन्द्रियत्व जीव किस [कर्मके] कारणसे प्राप्त करता है ? यह कहते हैं। 446. पृथ्वीकायादिकको साधारण या अनंतकायत्व नहीं है। इसका कारण उसमें अनंत जीवात्मकत्व नहीं है वह है / परंतु उन्हें प्रत्येक नामकर्मका उदय होनेसे प्रत्येक वनस्पतिकी तरह हरेकके आगे 'प्रत्येक' शब्द लगानेमें हरकत नहीं है / Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147. . * तिर्यचोंका गतिद्वार * जया मोहोदओ तिव्वो, अन्नाणं सुमहब्भय / पेलवं वेअणीयं तु, तया एगिदिअत्तणं // 304 // गाथार्थ-जब मोहोदय अर्थात् मैथुनाभिलाषकी अत्यन्त गाढ-तीव्रता वर्तित हो / अच्छी तरह अनाभोगरूप-महाभयानक [ क्योंकि अज्ञान वस्तु सचेतन ऐसे जीवको भी कठिनाईमें डालकर अचेतनरूप करता है उस अज्ञानसे कौन डरता नहीं ? अर्थात् सर्व कोई डरता है / ] ऐसा अज्ञान वर्तित हो, असार–अशातारूप वेदनीय कर्म उदयमें आया हो, तब जीव महादुःखसे ऐसा एकेन्द्रियत्व प्राप्त करता हैं अतः मैथुनाभिलाष, अज्ञानको दूर करनेके लिए शील-संयम तथा ज्ञानोपासनामें उद्यमशील बनना / // 304 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम है / [304] . // तिर्यंचोंका सातवाँ गतिद्वार // अवतरण--उपपात, च्यवन, विरहकाल तथा उसकी संख्याके द्वारों इस तरह चारों द्वार बताकर अब कौनसे जीव तिर्यचमें जाए ? वह गतिद्वार कहलाता है। तिरिएसु जंति संखाउ-तिरिनरा जा दुकप्पदेवा उ / पज्जत्तसंखगब्भय-बादरभूदग परित्तेसुं // 305 // तो सहसारंतसुरा, निरया य पज्जत्तसंखगब्भेसु // 3053 // गाथार्थ—संख्याता वर्षायुषी तिथंच तथा मनुष्य तिर्यंचमें जाते हैं और यावत् दो कल्प तकके देव, पर्याप्त संख्यातायुषी गर्भज, तिर्यंच तथा पर्याप्ता बादर पृथ्वीकाय, अपकाय और प्रत्येक वनस्पतिमें जाते हैं और उससे ऊपरके [सनत्कुमारसे लेकर] सहस्रारान्त तकके देव तथा सर्व नारको, पर्याप्ता संख्याता वर्षायुषी गर्भज तिर्यचमें जाते हैं। // 3051 / / . विशेषार्थ-गाथाके तिर्यच शब्दसे सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय-दोइन्द्रिय-त्रिइन्द्रियचउरिन्द्रिय तथा संख्यातायुषी पंचेन्द्रिय तिर्यंच लेना तथा मनुष्योंसे संमूच्छिम तथा संख्य वर्षायुषी गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य, वे सर्व स्वभवमेंसे मरकर [ नरक-देव-युगलिकत्व वयं ] तिर्यंचमें जाते हैं / अर्थात् पर्याप्ता वा अपर्याप्ता ऐसे एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय तिर्यचमें जाते हैं / ___साथ ही गाथाके 'यावत् दो कल्प' शब्दसे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक निकायके सौधर्म, ईशान इस कल्प तकके देव लेने हैं। ये देव मरकर पर्याप्ता Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 148 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . संख्यातावर्षायुषी गर्भज तिर्यंचमें और पर्याप्ता ४७वादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिमें जा सकते है / उससे आगेके सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार तकके देव तथा सर्व नारक पर्याप्ता संख्यवर्षायुषी गर्भज तिर्यंचमें जाते हैं, उससे ऊपरके कल्पके देव मरकर तिर्यंचमें नहीं आते / [3051] // तिर्यंचोंका आठवाँ आगतिद्वार / / अवतरण-अब तिर्यच स्वभवसे मरकर कहाँ जाते हैं ! वह आगतिद्वार तथा किस लब्धि-शक्तिको प्राप्त करे ? यह कहते हैं। संखपणिदिअतिरिआ, मरिउं चउसु वि गइसु जति // 306 // . थावर विगला नियमा, संखाउअ तिरिनरेसु गच्छंति। . विगला लभेज्ज विरई, सम्मपि न तेउवाउचुआ // 307 // गाथार्थ—संख्यातायुषी पंचेन्द्रियतिथंच जीव मरकर चारों गतिमें जाते हैं। स्थावरविकलेन्द्रिय मरकर निश्चित रूपसे संख्यातवर्षायुषी तिथंच तथा मनुष्यमें जाते हैं / वहाँ विकलेन्द्रिय [सर्व] विरतिको प्राप्त करते और तेउ तथा वायुकायके जीव मरकर सम्यक्त्वको भी नहीं पाते / // 306-307 // विशेषार्थ-संख्यातावर्षायुषी पंचेन्द्रियतिथंच जीव मरकर एक मोक्षको छोड़कर शेष 44 देव-"नरक-तिर्यच-मनुष्य इन चारों गतिमें जाते हैं / स्थावरोंसे सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय-दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय तथा चउरिन्द्रिय, स्वभावसे च्युत होकर अनन्तरभवमें निश्चित एकेन्द्रियसे लेकर संख्यात वर्षायुषी तिर्यचपंचेन्द्रियमें तथा मनुष्यमें ही जाता है, परंतु असंख्य वर्षायुषी तियेच मनुष्यों तथा देव नारकीमें नहीं जाते और वहाँसे आते भी नहीं / 447. देव, नारकी और असंख्य आयुषी तिर्यच-मनुष्य, सूक्ष्ममें गमन नहीं करते वैसे वहाँसे आते भी नहीं हैं / 448. संग्रहणी ग्रन्थकारके टीकाकारने-अन्यभवसे विवक्षित भवमें आवे उसे गति कही तथा विवक्षित भवसे अन्यगतिमें जाए उसे आगति कही है / यहाँ विवक्षा भेद प्रमाण है / अन्यथा अन्य स्थल पर विपरीत रीतसे अर्थात् विवक्षित भवसे अन्यत्र जाए उसे गति तथा अन्यभवसे उसमें-विवक्षित भवमें आवे उसे आगति कही है / 449. संमू० पंचेन्द्रिय तिर्यच नरकमें जाए तो पहले नरक तक ही / 450. संख्य वर्षायुषी देवलोकमें यावत् आठवें कल्प तक जाता है, तथा असंख्य आयुषी गर्भज तिर्यच स्वभव तुल्य अथवा उससे न्यून स्थितिवाला देवत्व प्राप्त करे लेकिन अधिक स्थितिवाला नहीं / साथ ही असंख्य आयुषी खेचर तथा अन्तर्वीपोत्पन्न पंचेन्द्रिय तिर्यंच भवनपति-व्यन्तर तक ही जाता हैं क्योंकि इससे आगे तो पल्योपमके असंख्यातवें भागवाली स्थिति नहीं है, इससे असंख्यायुषी ईशानसे आगे नहीं जाते / जो बात देवद्वारमें आई गाथा परसे समझमें आ सकती है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तिर्यच जीवोंका आगतिद्वार और लब्धिका वर्णन. इनमें जो विकलेन्द्रिय मरकर अनन्तरभवमें मनुष्यत्व पाए हों तो वहाँ सर्व विरतिपनेको पा सकते हैं. परंतु सर्व "विरतिपन पाकर उसी भवमें सिद्ध होते नहीं हैं। साथ ही तेउ तथा वायुकायके जीव अनन्तर भवमें तथाविध भवस्वभावसे मनुष्यरूपमें उत्पन्न नहीं होते, परंतु शेष तिर्यंचमें ही उत्पन्न होते हैं, और भारी कर्मके उदयसे भवस्वभावसे ही सम्यक्त्वके लाभसे भी वंचित ही रहते हैं। विकलेन्द्रिय तथा तेज, वायुकायके सिवाय शेष रहे संमूच्छिम-गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य और सूक्ष्म वादर पृथ्वीअप-वनस्पतिके जीव तो अनन्तरभवमें मनुष्यत्व पाकर मुक्तिको भी पाते हैं। [306-307] अवतरण-इस तरह आठों द्वार समाप्त करके, अब तिर्यंचोंकी लेश्या कहनेके पूर्व मनुष्यगति अधिकारमें मनुष्याश्रयी लेश्या नहीं कही गई थी, लाघवार्थ उसे भी तिर्यंचोंकी व्याख्याके प्रसंग पर यहाँ कहते हैं / 451. सम्यक्त्व अर्थात् क्या ?-निश्चय दृष्टि से सर्वशभाषित तत्वों परका यथार्थ श्रद्धान, जड -चैतन्यका सच्चा विवेक करनेवाली दृष्टि / व्यवहारदृष्टिसे सुदेव, सुगुरु, सुधर्मका स्वीकार तथा कुदेव, कुगुरु, कुधर्मका अस्वीकार / __ अनादिकालसे मिथ्याज्ञान तीव्रमोह-अविद्याके कारण जीवको सदसत् वस्तुका विवेक जागृत होता नहीं, अतः सत्में असत् और असत्में सत्बुद्धि धारण करके, तदनुसार स्वीकार करके, तदनुकूल आचरण करता है / परिणाम स्वरूप असत्का स्वीकार उसे असत् मार्ग पर-अधोगतिमें ले जाता है। और इसलिए उसका संसारचक्र कभी भिदता नहीं और संसारसे मुक्त होकर, मुक्तिकी मंजिल पर कभी पहुँच नहीं सकता / ... अनादिकालसे जीवनमें उपस्थित की गई रागद्वेषकी तीव्र मोहग्रन्थी किसी पुण्योदयसे यदि भेदी जाए तो मिथ्याबुद्धि टले, अज्ञान कम हो और सद्बुद्धि पैदा हों तथा सदसत्का सच्चा विवेक प्रकट हो जाए / इसके प्रकट होने के बाद ही जीवनका प्रारंभ होता है / तब तककी अनेक भवकी प्रवृत्ति शून्य तुल्य है अर्थात् आत्मकल्याणके लिए नहीं केवल संसारवर्धक के लिए ही होती है / .. अतः हरेक आत्माको मिथ्यात्व दूर करके जिन-प्रणीततत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा करनी चाहिए जिसे हम / सम्यगदृष्टि. कहते हैं। देशविरति-सम्यक्त्वकी प्राप्ति चौथे गुणस्थानकमें होती है / . श्रद्धान होनेके बाद परमात्माके सिद्धान्तोंको श्रवण करनेके बाद अमुक अंशमें पापप्रवृत्तिका त्याग करे तब समझना कि उस आरमाने देशसे उतने अंशमें विरति कहते त्याग किया कहा जाता है / ____ यह त्याग हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह इत्यादिका समझना / यह चौथी सम्यक्दृष्टिके गुणस्थानक बाद के पांचवें गुणस्थानकमें होता है / सर्वविरति-सर्व अर्थात् सर्वथा-संपूर्ण, विरति कहनेसे त्याग। देशविरतिमें आंशिक त्याग होता है, वह गृहस्थाश्रमियों के लिए है / जब जो आत्मा संसारकी मोहमायाका अर्थात् घर-कुटुंब, परिवार, दौलत तमाम प्रकारका त्याग करके साधु-मुनि-श्रमण बन जाती है तब उसे मन, वचन, कायासे सर्वथा हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह इत्यादि पापोंका हृदयके भावसे, प्रेमसे त्याग करनेका होता है / यह व्याग करनेवाले साधु ही होता है, और वह आत्मा इस छठे गुणस्थानकवाला गिना आता है / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 150 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पुढवीदग परित्तवणा, बीयरपज्जत्त हुंति चउलेसा / गब्भयतिरिअनराणां, छल्लेसा तिन्नि सेसाणं // 308 // गाथार्थ-चादरपर्याप्ता पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकायमें प्रथमकी [कृष्ण-नील-कापोत तथा तेजो] चार लेश्याएँ होती हैं। गर्भज, तिर्यंच और मनुष्यों के. छहों [कृष्ण-नील-कापोत-तेजो-पद्म और शुक्ल ] लेश्याएँ होती हैं / और शेष बादरपर्याप्त तेजस्काय, वायुकाय, सूक्ष्म तथा अपर्याप्ता पृथ्व्यादि स्थावर साधारण वनस्पति, अपर्याप्त प्रत्येक, विकलेन्द्रिय, संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्योंके प्रथमकी [कृष्णनील-कापोत] तीन लेश्याएँ होती हैं / // 308 // विशेषार्थ-लेश्या किसे कहा जाए ? यह विषय आगे देवद्वारमें आ गया है। यहाँ वादर पर्याप्त पृथ्व्यादिमें चार लेश्याएँ कही तो चौथी तेजो लेश्याका संभव किस तरह हो ? इसका समाधान गाथा 310 के विवरणमेंसे मिलेगा। तिर्यंचमनुष्यके छः लेश्याएँ कही हैं, क्योंकि ये जीव अनवस्थित परावर्तित लेश्यावाले हैं, जो बात गाथा 311 के विवरणसे ही समझमें आएगी / [308] ___अवतरण-अब लेश्याका परिणाम जीवको किस गतिमें कब परावर्तन पाए ? यह ओघसे कहते हैं। अंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव / ' लेसाहिं परिणया हिं, जीवा वचंति परलोय // 309 // [प्रक्षेपक गाथा 70] गाथार्थ-अंतर्मुहूर्त्त जाने पर तथा अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर, लेश्यामें परिणमन भाववाले होने पर जीव परलोकमें जाते हैं / // 309 // विशेषार्थ–सुगम है / अन्यथा इस विषयक अधिक समझ अगली गाथामें ही कहते हैं / [309] [प्रक्षेपक गाथा 70] अवतरण-उक्त गाथाके दो प्रकारके नियमनमें, क्या क्या जीव हो सकते हैं ! यह स्पष्ट करते हैं। तिरिनरआगामिभवल्लेसाए अइगए सुरा निरया / पुन्वभवलेससेसे, अंतमुहुत्ते मरणमिति // 310 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 310 // 452. यहाँ 'बादर' ऐसा विशेषण स्वरूपदर्शक है / Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तिर्यंच तथा मनुष्यों की लेश्या-स्थिति . . 151 . * विशेषार्थ-तिर्यंचों तथा मनुष्योंको आगामी भवकी लेश्याके परिणमनका अन्तर्मुहूर्त काल व्यतिक्रमसे तथा देव, नारकोंके पूर्वभवकी (अन्यभव अपेक्षासे) अर्थात् स्वभवकी चलती लेश्या, अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर मरणको पाती है। ___ अतः ही यहाँ याद रखना जरूरी है कि कोई भी लेश्या नवीन उत्पन्न हो तव [नर-तिरि-अपेक्षासे ] उसके आद्य-प्रथम स्वरूपमें किसी भी जीवका परभवमें उपपात नहीं होता, साथ ही कोई भी लेश्या जो परिणत हुई चलती हो उसके चरमसमयमें भी [देवनारक-अपेक्षासे] किसी भी जीवका पारभविक उपपात-जन्म नहीं लेता / इसीलिए गत गाथामें ग्रन्थकारने जणाया है कि किसी भी नवीन लेश्या के परिणमनका [ नर-तिरि] अन्तर्मुहूर्त्तकाल व्यतिक्रमसे तथा साथ ही [ देव-नारकके स्वभवकी ] परिणत लेश्याका अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहे तब जीव परलोकको प्राप्त करता है। . तात्पर्य यह हुआ कि-आगामी भवके आद्यसमय पर जीवोंको अन्य लेश्याके परिणाम नहीं होते। (क्योंकि नर-तिरिको स्वभवका अन्तिम अन्तर्मुहूर्त शेष रहे तब ही भविष्यमें होनेवाली गतिके लायक लेश्याका विपर्यास होता है तथा बादमें उसी लेश्यामें उत्पन्न होता है और देव नारकको स्वभवकी लेश्यामें ही उत्पन्न होना है / ] साथ ही पाश्चात्य भवके चरम समय पर मी उससे अलग लेश्या परिणाम होते नहीं हैं / अतः नियमन यह हुआ कि " जीव जिस लेश्यामें मरें उसी लेश्यामें आगामी भवमें उत्पन्न होता है / इसीलिए कहा जाता है कि देव-नरकके भवमेंसे लेश्या आगामी भवमें रखने आती है तथा तिर्यच-मनुष्यके भवमें लेश्या लेनेके लिए आती है"। ____ 308 वी गाथा बादर पर्याप्त पृथ्व्यादिकको जो चौथी तेजो लेश्या भी कही वह इसी नियमके बल पर ही, अर्थात् भवनपतिसे लेकर ईशानान्त तकके तेजोलेश्यावाले देव मरकर जब बादर पर्याप्त पृथ्वी, अप् तथा प्रत्येक वनस्पतिमें उत्पन्न हो तब एक अंतर्मुहूर्त जितनी तेजोलेश्या सहित उत्पन्न होते होनेसे उतना काल वहाँ तेजो लेश्याका संभव है, अपेक्षासे तेजो सहित चार लेश्याएँ कहीं हैं / [310] अवतरण-अब तिर्यंच तथा मनुष्यकी लेश्याका स्थितिकाल कहते हैं / अंतमुहुत्तठिईओ, तिरिअनराणं हवंति लेसाओ। चरमा नराण पुण नवं-वासूणा पुव्वकोडी वि // 311 // गाथार्थ-पृथ्वींकाय आदि तिर्यचोंकी तथा संमूच्छिम और गर्भज मनुष्यकी यथायोग्य जो लेश्याएँ होती हैं वह जघन्यसे और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त्तकी स्थितिवाली होती है, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .152. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * परंतु विशेष यह है कि, मनुष्योंकी [गर्भज मनु० ] अंतिम लेश्याकी अर्थात् शुक्ललेश्याकी उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष न्यून [देशोन नौ वर्ष न्यून ] पूर्व करोड वर्षकी होती है। // 311 // विशेषार्थ-यहाँ मूल गाथामें 'नववासूणा' नौ वर्ष न्यून ऐसा पद है परंतु इस गाथाके टीकाकारने उस शब्दकी व्याख्या करते 'नववासूणा' शब्दसे ऐसा विशेष स्पष्टार्थ बताया है कि नौ वर्ष न्यून नहीं लेकिन कुछ न्यून ऐसे नौ वर्ष न्यून पूर्व करोड वर्षकी स्थिति शुक्ल लेश्याकी भी है, और उतने प्रमाणवाली उत्कृष्ट स्थिति [पूर्व करोड वर्ष उपरान्तके आयुष्यवालोंको संयम प्राप्तिका अभाव होनेसे ] पूर्व करोड वर्षके आयुष्यवाले मनुष्योंने कुछ अधिक आठ वर्षकी उम्र होनेके बाद ["साधिक आठ वर्षकी वयमें ] केवलज्ञान उत्पन्न किया हो वैसे केवलीकी शुक्ललेश्या आश्रयी [वह उत्कृष्ट स्थिति] 'जोनें / इसके सिवाय शेष मनुष्योंकी शुक्ललेश्या तो उत्कृष्टसे भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाली ही है / [311] अवतरण-गतिआगतिद्वारको पूर्ण किया, अतः ही तिर्यचद्वारकी समाप्तिको बताते हुए ग्रन्थकार प्रथम चारों गतिकी नहीं कही गई अलग अलग व्याख्याका संबंध जोडते हैं। तिरिआण वि ठिइपमुह, भणिअमसेसं वि संपयं वोच्छं / अभिहिअदारभहिअं, चउगइजीवाणं सामन्नं // 312 // गाथार्थ-तिर्यंचोंके भी स्थिति प्रमुख आठों द्वार कहे / अब शेष रही वक्तव्यताके बारेमें कहेंगे / उसमें कहे गए द्वारोंसे प्रासंगिक उपयोगी जो अधिक वर्णन, उसे चार गतिके जीव आश्रयी सामान्यसे कहेंगे / // 312 // 453. लोकप्रकाशकारने द्रव्यलोकमें 'नववासणा का अर्थ श्रीउत्तराध्ययन, पन्नवणाकी वृत्तिका आधार लेकर नौ वर्ष न्यून पूर्व करोड ऐसा किया और उसी संग्रहणीकी गाथाकी टीकाका अर्थ अलग करके दो कथन ये उपस्थित किये कि 'न्यून ऐसे नौ वर्षमें न्यून पूर्व करोड वर्ष और कुछ अधिक आठ वर्षमें न्यून पूर्व करोड वर्ष इस प्रकार दो तथा प्रथम बताया वह नौ वर्ष न्यून पूर्व करोड वर्ष इस तरह तीन कथन जणाकर बहुश्रुतके पास समन्वय करने जणाया है / _ 454. किंचिद् न्यून नौ वर्ष अथवा साधिक आठ वर्ष ये दो वाक्यो लगभग समान अर्थदर्शक समझने चाहिए। ____लोकप्रकाशकारने तीन कथन भिन्न भिन्न दिखाये, उसके अनुसार गर्भाष्टम, जन्माष्टम तथा जन्माष्टमकी दीक्षा सिद्ध होगी / इससे गर्भाष्टमसे अनुत्तरका जघन्य अंतर तथा मोक्षगमनका जघन्यायुष्य भी अच्छी तरह मिल जाएगा। 455. श्री द्रव्यलोकप्रकाशमें कहे अनुसार उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति और प्रज्ञापनावृत्तिमें नौ वर्ष न्यन पूर्व करोडकी उत्कृष्ट स्थिति कही है, 'वह आठ वर्षकी उम्र में दीक्षा लेनेके बाद एक वर्षके चारित्रपर्यायके बिना केवलज्ञान उत्पन्न न हो' इस हेतुको दिखाकर कही है और जहाँ उस हेतुकी अपेक्षा नहीं है वहाँ साधिक आठ वर्षमें चारित्र पाकर शीघ्र क्षपक होकर केवलज्ञान पा सकता है इस अपेक्षासे देशोंके नौ वर्ष अथवा साधिक आठ वर्ष न्यून पूर्व करोड वर्ष प्रमाणकी वह स्थिति हो सकती है / Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // तिर्यंच जीवोंके भेदनाम भवस्थिति जघन्य - अवगाहना - उत्कृष्ट उत्कृष्ट | जघन्य | सूक्ष्म पृथ्वीकाय. क्षुल्लक भव ___ अन्तर्मु० अंगुलासंख्य भाग अंगुलासंख्य भाग क्षुल्लक भव , ཟླ ཟླ ཟླ ཟླ ཀྐཱ ཀྐཱ ཀྐཱ ཀྐཱ अन्तर्मुहूर्त सूक्ष्म अपकाय सूक्ष्म तेउकाय सूक्ष्म वायुकोय सूक्ष्म सा. वन बादर पृथ्वीकाय बादर अपकाय बादर तेउकाय बादर वायुकाय बा० सा० वन० | बा० प्रत्येक वन० . 22 ह० वर्ष 7 हजार वर्ष तीन दिवस तीन ह० वर्ष ____ अन्तर्मु० दस ह० वर्ष साधिकसहस्रयो० दोइन्द्रिय त्रिइन्द्रिय चउरिन्द्रिय 12 वर्ष 49 दिवस छः मास 12 योजन 3 कोसका 1 योजन पूर्व करोड वर्ष | , 1 ह० योजन संमू० जलचर म. जलचर संमू० चतुष्पद ग. चतुष्पद संमू० उरपरि० ग० उरपरि संमू० भुजपरि० ग० भुजपरि० संमू० खेचर |ग० खेचर 84 ह० वर्ष 3 पल्योपम 53 ह० वर्ष पूर्व करोड वर्ष , 42 ह० वर्ष , पूर्व करोड वर्ष , 72 ह० वर्ष ,, पल्यो० असं० भागमें |., कोस पृ० छः कोसका पृथकत्व 1 ह० यो० धनु:पृथक्त्व 2 से नौ कोस धनु:पृथकत्व 2 से नौ धनुः० ब. सं.२० Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 समय विरह नहीं है-विरह नहीं है 12 मु. अन्तर्मु० of 4 1 अन्तर्मु० 12 मुहूर्त जघन्य उप० च्य० वि० - उत्कृष्ट | जघ०-उ० उ० च्य० सं० आठ द्वारका यंत्र // असंख्य तक असंख्यानंत असंख्य यावत् 1 से लेकर संख्यवर्षायुषीपर्याप्ता अपर्याप्ता एके० से लेकर पंचेन्द्रिय तकके सं० गर्भज तिर्यंच तथा मनुष्य एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके तिर्यचोंमें जाते हैं। और भवनपतिसे लेकर दो कल्प तकके देव उस पर्याप्ता संख्यवर्षायुषी गर्भज तिर्यचमें और पर्याप्ता अपर्याप्ता संख्यात वर्षायुषी एकेन्द्रिय से लेकर बादर पृथ्वी, अप और प्रत्येक वनस्पति में जाते हैं उससे उपर के सहस्रार तकके देव तथा नारक पर्याप्ता संख्यवर्षायुषी गर्भ में ही तिर्यच रूपमें उत्पन्न होते हैं / संख्यवर्षायुषी पंचेन्द्रिय तियेच जीव मरकर चारों गतिमें जाते हैं / साथ ही एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय मरकर निश्चित संख्यवर्षायुषी सर्व तिर्यच-मनुष्यमें जाते हैं / सिर्फ तेउ-वाउ एक मनुध्यमें न जाकर तिर्यचमें जाते हैं, यह विशेष है। Mmmmmmm आद्य 4 आद्य तीन अन्तर्मु० आगति | लेश्या स्थिति Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 * चारों गति आश्रयी वेदकी व्याख्या और अंगुलका प्रकार * विशेषार्थ--सुगम हैं / [ 312 ] // अथ सर्वसाधारण अधिकार // अवतरण-अब चारों गति आश्रयी वेदकी व्याख्या कहते हुए, किसे किसे क्या / क्या वेद हो ? इसे कहते हैं / देवा असंख नरतिरि, इत्थी'वेअ गब्भनरतिरिआ / संखाउआ तिवेआ, नपुंसगा नारयाईआ // 313 // गाथार्थ-देव तथा असंख्यवर्षके आयुष्यवाले [ युगलिक ] मनुष्य-तिर्यंचोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेद इस प्रकार दोनों वेद हैं, साथ ही संख्यवर्षके आयुष्यवाले गर्भज मनुष्य और तिर्यच स्त्री, पुरुष और नपुंसक इस तरह तीन वेदवाले होते हैं। तथा नारक और 'आइ' शब्दसे एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संमूच्छिम तिर्यंच, मनुष्य ये सर्व एक नपुंसक वेदवाले ही होते हैं / // 313 // ___ विशेषार्थ-वेद यह पुरुषको स्त्री तथा स्त्रीको पुरुष विषयक संबंधकी अभिलाषारूप, देहाकृतिरूप तथा नेपथ्यरूप [ नाटक करनेवालेकी अपेक्षासे ] इस तरह तीन प्रकारका है। शेष अधिक व्याख्या देवद्वारमें कही है / [ 313 ] ...' अवतरण-पूर्व कही गई वस्तुएँ, देह, पृथ्वियाँ, विमानादिकका माप किस किस अंगुलसे नापा जाता हैं ! यह कहते हैं / आयंगुलेण वत्थु, सरीरमुस्सेहअंगुलेण तहा / नगपुढविविमाणाई, मिणसु पमाणंगुलेगतु // 314 // - गाथार्थ-आत्मांगुलसे वास्तु [अर्थात् कूप-तालाबादि], उत्सेधांगुलसे जीवोंके शरीर और प्रमाणांगलसे पर्वत, पृथ्वी, विमानादि नापे जाते हैं। / / 314 // विशेषार्थ-प्रथम आत्मांगुल अर्थात् क्या ? तो आत्मांगुलका शब्दार्थ-अपना अंगुल यह / अपना अर्थात् किसका ? तो जिस जिस कालमें (उस उस समयकी अपेक्षासे) शास्त्रमान्य ऊँचाईसे जो जो पुरुष प्रमाणोपेत गिने जाते हों, उनका आत्मीय-अपना जो अंगुल उसे ही यहाँ आत्मांगुल समझना / और वह उत्तम पुरुषोंके अंगुलके मापसे निर्णयभूत होती वस्तुएँ आत्मांगुलके प्रमाणवाली गिनी जाती हैं / जिस तरह भरत-सगरचक्रीके समयमें भरत तथा सगरके आत्मांगुलसे आगे कही Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जातीं जो जो वस्तुएँ मापी जाएँ वे आत्मांगुल प्रमाणवाली गिनी जाएँ क्योंकि उस समय उचित मानवाले वे गिने जाते हैं / इस तरह श्री वीर भगवानके समयमें उन कालोचित परमात्मा श्री महावीरदेवके आत्मांगुलसे वह वस्तु मापी जाएँ / यह आत्मांगुल उस उस कालके पुरुषोंके आत्मीय अंगुलाधीन होनेसे, कालादि भेदसे अनवस्थित होनेसे यह माप अनियत है। आत्मांगुलसे क्या क्या वस्तु नापी जाए ? आत्मांगुलसे वस्तु नापनेका कहा वह वस्तु तीन प्रकारकी है / (1) खात, (2) उच्छ्रित और (3) उभय प्रकारकी। इनमें खात= अर्थात् खोदकर तैयार किये कुएँ, कंदरा, तालाब आदि / उच्छित अर्थात् ऊँचाईवाले पदार्थ घर-प्रासादादि धवलगृह / उभय अर्थात् खात और उच्छित दोनों प्रकारकी वस्तुएँ जिसमें हों वे, वैसी वस्तुमें कंदरा सहितके प्रासाद, गृहो समझना / __अधिक स्पष्टतासे कहें तो नगरों तथा जंगलके सर्वप्रकारके जलाशय, कुएँ, भाँति भाँति की बावडियाँ, सरोवर, तालाब, नदियाँ, समुद्र, द्रह, गुफाएँ, अशाश्वत पर्वत, खदानों, वृक्षो, उद्यान, उपवन, नगरमार्ग, राजभवन, लोकगृह, दुकाने, वाहन, पशु, शरीरादिकके मानो इत्यादि वस्तुएँ उस उस कालमें श्रेष्ठ माने जाते पुरुषके अंगुलसे मापा जाए उसका माप निश्चित होता है, ऐसा लगता है। __लेकिन इतना विवेक समझना ठीक लगता है कि, आत्मांगुलसे नापी जाती वस्तुएँ अशाश्वत और प्रमाणांगुलसे मापी जाती वस्तुएँ शाश्वत समझना / ऊपर बताई गई वस्तुएँ आत्मांगुलसे इसलिए नापनेकी है कि, ये वस्तुएँ उस उस कालके लोगोंके शरीरानुसारी मापके साथ मेल रखती ही होनी चाहिए / यदि ऐसा न करें तो उत्सेधांगुल या प्रमाणांगुलकी गिनतीसे माप दिखाए जाएँ तो गोटाले या भ्रम उपस्थित हों और व्यवहार चलना मुश्किल हो जाए। उदाहरण स्वरूप श्री ऋषभदेव भगवानके अस्तित्व कालमें उत्सेधांगुलसे 200 हाथ गहरा कुआँ हो तो क्या उस कुएँको 200 हाथका यह कुआँ है' ऐसी प्रसिद्धि जरूरी ___456. जिस कालमें जो पुरुष अपने अंगुलप्रमाणसे 108 अंगुल ऊँचे हों उनका अंगुल ही आत्मांगुल कहा जाए / परंतु इससे न्यूनाधिक प्रमाणवाले पुरुषोंका जो अंगुल है उसे आत्मांगुल नहीं लेकिन आत्मांगुलभास कहा जाए, ऐसा प्रवचनसारोद्धार वृत्ति कहती है / और प्रज्ञापनावृत्तिकार कहते हैं कि जिस कालमें जो मनुष्य हों उनके अंगुलका जो प्रमाण हो उसे यहाँ आत्मांगुल समझना / इस तरह दोनों के बीच तफावत-फर्क रहता है, क्योंकि प्रवचनसारोद्धार वृत्तिकार 108 अंगुलकी ऊँचाईका नियमन करता है जब कि प्रज्ञापना वृत्तिकार वैसा नियमन नहीं करते / अतः वे इस अंगुलको अनियत गिनाते हैं / Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अंगुलका प्रकार और माप पद्धति. सही ? नहीं / इस तरह लिखे तो लोगोंको अपने हाथका हिसाब मन पर सतत वर्तित होनेसे यह गिनती भ्रमोत्पादक हो जाए / अतः उस उस समयके लोगोंके (अपने) आत्मांगुलसे माप कर उसी तरह उसकी प्रसिद्धि हो सके। और इसके लिए अंगुल किसका पसंद करे ? हर किसीका ? तो नहीं, क्योंकि एक ही समयके लोगोंमें भी अंगुलकी दीर्घताका अल्पांशमें न्यूनाधिकत्व होता है, अतः उस कालमें सशक्त, नीरोगी और लक्षणोंसे जो पुरुष श्रेष्ठ मान्य हो उसका माप लेनेका, क्योंकि वही सच्चा-बराबर अंगुल होता है। उसके आधार पर ही अंगुल, पाद, बित्ता, हाथ यावत् योजन तकके मापो प्रवर्तमान होते हैं / उस कालमें श्री ऋषभदेवस्वामी या भरतचक्रवर्ती युगश्रेष्ठ पुरुष समान गिने जाते थे, इसलिए उनका अंगुल ग्रहण किया गया है / उनका अंगुल ही प्रमाणांगुल भी निश्चित हुआ है, क्योंकि वह अंगुल उत्सेधांगुलसे चारसौ गुना दीर्घ है / ___अब इस युगश्रेष्ठ व्यक्ति के अंगुलानुसारी हाथके मापसे 200 उत्सेधांगुलवाला कुआँ कितने हाथका गिना जाए ! तो बराबर 12 हाथका गिना जाए। और उसी रीतसे प्रसिद्ध किया जाए / और इस रीतका व्यवहार ही अनुकूल, उचित तथा माफिक रहे और ऐसा व्यवहार ही लोकमान्य बने / 1. अब उत्सेधांगुल किसे कहा जाए ? उत्सेध अर्थात् ( परमाणुसे प्रारंभ करके ) क्रमशः ऊर्ध्ववृद्धि द्वारा प्राप्त होता अंगुल / यह किस तरह वृद्धि होने पर प्राप्त होता है, यह बात अब पीछेकी 316 और 317 वी गाथामें कहेंगे। 2. उत्सेधांगुलसे क्या वस्तु मापी जाए ? देव आदि जीवोंके शरीरोंका प्रमाण शास्त्रमें जो कहा है वह इस अंगुलके हिसाबसे ही समझना। ... 3. प्रमाणांगुल किसे कहा जाए ? प्रमाणांगुल शब्दका अर्थ क्या ? युगकी आदिमें हुए श्री ऋषभदेव भगवान अथवा तो भरतचक्रवर्ती जिसमें प्रमाण रूप है और इसलिए उनका जो अंगुल वह प्रमाणांगुल कहलाता है। यह अंगुल कितना बड़ा होता है ? इसके लिए (गाथा 318 अनुसार) बताया है कि, उत्सेधांगुलसे चारसौ गुना लंबा और मात्र अढाई गुना अथवा 2 / / उत्सेधांगुल चौडा, इसे 'प्रमाणांगुल' कहा जाता है। श्रीऋषभदेव भगवानका तथा भरतचक्रीका अंगुल इतना ही था। जिनभद्रीया संग्रहणी (गा० 350) आदि स्थल पर उत्सेधांगुलसे हजार गुना प्रमाणांगुल 457. भगवान उत्सेधांगुलसे 500 धनुष ऊँचे थे और आत्मांगुलसे 120 अंगुल ऊँचे थे / 500 ध० के अंगुल 48 हजार होते हैं। उसे 120 आत्मांगुलसे बटा करें तो 400 उत्सेधांगुलका 1 ऋषभांगुल आ जाए। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .158. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * कहा है, लेकिन इससे विसंवाद न समझना / वहाँ यह अपेक्षा है कि 400 गुनी लंबी और 2 // गुनी चौडी उत्सेधांगुलकी श्रेणिको 2 // के बदले एक ही अंगुल चौडी रखकर शेष 1 // अंगुल रहती चौडाईको ४००के साथ जोड दी जाए तो 400+400+ 200=1000 उत्सेधांगुल लंबी और एक उत्सेधांगुल चौडी ऐसी सीधी श्रेणि हो / अथवा लंबाई और व्यास को गुना करे 400x2 // तो मी हजार अंगुल हो / इस प्रमाणागुलका क्षेत्रफल हुआ / इस प्रमाणांगुलसे जो वस्तुएँ नापनी हैं, उनमें तीन प्रकारका प्रमाणांगुल उपयोगमें लिया जाता है / कुछ कहते हैं कि प्रमाणांगुलकी मात्र दीर्घतासे ही पृथ्वी, पर्वत नापना लेकिन विष्कम्भ-चौडाई एकत्र न लें अर्थात् सूची अंगुलसे ही नापें / दूसरे ऐसा कहते हैं कि नहीं, ऐसा नहीं। लेकिन प्रमाणांगुल के क्षेत्रफलसे ( अर्थात् हजार उत्सेधांगुलरूप ) मापना / जबकि तीसरा पक्ष कहता है कि दीर्घता न लें क्षेत्रफल न लें / मात्र विष्कम्भ अर्थात् 2 // उत्सेधांगुल विस्तारसे ही मापना / ___ यहाँ प्रथम पक्षमें प्रमाणांगुलीया एक योजनमें उत्सेधांगुल प्रमाणवाले 400 योजन, दूसरे पक्षमें एक हजार योजन और तीसरे पक्षमें 182 // योजन ( अर्थात् दस कोस ) आते हैं। प्रमाणांगुलसे क्या वस्तुएँ नापी जाती हैं ?—मेरु आदि शाश्वत पदार्थ धर्मादि नरक पृथ्वियाँ, सौधर्मावतंसकादि सर्व विमानो और गाथामें कहे 'आई' शब्दसे 'अन्य शाश्वत भवन-नरकावास-द्वीप-समुद्रो आदि शाश्वत पदार्थ ले लें / प्रमाणांगुलसे अचल और शाश्वत गिने जाते पदार्थ नापनेके हैं इसे ध्यानमें रखना / [314] अवतरण-गत गाथामें किस अंगुलसे क्या वस्तु नापी जाए इतना ही कहा था परंतु ये तीनों अंगुल किसे कहा जाए इस बाबतमें ग्रन्थकारने कहा नहीं था / ( अलबत्त विशेषार्थमें इस बातका इशारा किया है। ) अब गाथाद्वारा ही उत्सेधादि अंगुलकी गिनती परमाणुसे आरंभ की जाती है अतः ‘परमाणु' किसे कहा जाए ? उसकी व्याख्या करते हैं। ४पसत्येण सुतिक्षेण वि, छित्तं भित्तुं व जं किर न सका / तं परमाणु सिद्धा, वयंति आइ पमाणाणं // 315 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 315 // 458. अनुयोगद्वार तथा अंगुलसित्तरीमें तीसरे पक्षको ही योग्य गिना है और यह माप जघन्य होनेसे पृथ्व्यादिके मापमें ठीक अनुकूल रहता है / तत्त्वं तु केवलीगम्यं / 459. क्वचित् अन्वय अनुसार शब्दार्थक्रम रखा है। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * परमाणु तथा उत्सेधांगुलका मान * विशेषार्थ-उत्सेधांगुलकी व्याख्यामें कहा गया है कि वृद्धि पाता अंगुल वह उत्सेधांगुल / इस उत्सेधांगुलकी वृद्धिकी शुरुआत परमाणुसे होती है। यह परमाणु दो प्रकारका है, एक सूक्ष्म परमाणु तथा दूसरा व्यावहारिक परमाणु / इसमें सूक्ष्म परमाणुकी व्याख्या बताते ज्ञानी महर्षि कहते हैं कि सूक्ष्म परमाणु एक आकाशप्रदेश जितने प्रमाणवाला, जिस प्रमाणके दो विभाग केवलज्ञानी भी बुद्धिसे न कर सके ऐसा अविभाज्य, साथ ही अप्रदेशी तथा सर्वसे सूक्ष्म हैं। ऐसे सूक्ष्म अनन्त परमाणु एकत्र हों तब [निश्चयनयसे अनंत सूक्ष्म परमाणुओंसे बना हुआ सूक्ष्मस्कंध होता है और व्यवहारनयसे ] एक व्यवहार या व्यावहारिक परमाणु बना कहा जाए / ____ अति तीक्ष्ण ऐसे खड्गादि शस्त्रसे जिस अणुको छिदनेको, छिद्र करने या भिदनेके लिए अर्थात् दो भाग करने के लिए कोई भी शक्तिमान नहीं है / उस अणुको परमाणु [घटादिकी अपेक्षासे सूक्ष्म अणु] कहा जाए, ऐसा सिद्ध-सर्वज्ञ पुरुषो अपने ज्ञानचक्षुसे निश्चयपूर्वक हमसे कहते हैं। और उसे सर्व प्रमाणोंका आदिभूत अंश कहते हैं। - सूक्ष्म परमाणुकी अपेक्षासे व्यावहारिक परमाणुके भी बुद्धिसे ज्ञानी अनंत भाग करते हैं और व्यावहारिक परमाणु भी अनंत प्रदेशी होते हैं। [315] ___अवतरण-अब परमाणुकी शुरुआत करके उत्सेधांगुलका मान बताते हैं / परमाणू तसरेणू, रहरेणू वालअग्ग लिक्खा य / जूअ जवो अट्ठगुणो, कमेण उस्सेहअंगुलयं // 316 // अंगुलछकं पाओ, सो दुगुण विहत्थी सा दुगुण हत्थो / चउहत्थं धणु दुसहस, कोसो ते जोअणं चउरो // 317 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् सुगम है / // 316-317 // यहाँ ग्रन्थकारने गाथालाघवकी बुद्धिसे परमाणुसे सीधा त्रसरेणुका प्रमाण कहा, लेकिन परमाणु और त्रसरेणुके बिचके उत्श्लक्षणश्लक्ष्णिका आदि प्रमाण नहीं कहे, फिर भी हम तो वह भी ग्रन्थान्तरसे समझ लें। .. विशेषार्थ-पूर्वगाथामें व्यावहारिक परमाणुका स्वरूप कहा / गत गाथामें कहे गए ऐसे "अनन्तव्यावहारिक परमाणुसे एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ( यह भी अत्यन्त सूक्ष्म . 460. अनंत सूक्ष्म परमाणु विस्त्रसा परिणामसे संघातविशेषको जब पाए तब उसका एक 'व्यावहारिक परमाणु' बना कहा जाए / 461. श्री मलयगिरिजी संग्रहणीकी टीकामें आठ व्यावहारिक परमाणुसे एक उल्लक्ष्णश्लक्ष्णिका कहते हैं / उन्होंने कहाँका प्रमाण देखकर लिखा होगा वह ज्ञानीगम्य है, क्योंकि अन्य आगमग्रन्थोंमें बहुधा उपरोक्त कथन ही देखा जाता है, तो भी इस गाथाके 'अट्टगुणो' इस शब्दसे उनका भी आठ आठ गुना करनेका उद्देश हो तो वह ज्ञानीगम्य / Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * प्रमाण) होती है, वैसी 46 आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकासे पुनः एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है, आठ लक्ष्णलक्ष्णिकासे एक ऊर्ध्वरेणु होती है, आठ ऊर्ध्वरेणुसे एक 'त्रसरेणु' होता है, आठ त्रसरेणुका एक रथरेणु होता है, आठ रथरेणु मिलकर देवकुरु-उत्तरकुरुक्षेत्रके जीवोंका एक बालाग्र बालके अग्रभाग जितना प्रमाण होता है, और उसी बालाग्रको आठ गुना करनेसे एक रम्यकक्षेत्रके युगलिकका बालाग्र होता है, उसे आठ गुना करनेसे हैमवन्त और हैरण्यवन्त क्षेत्रके युगलिकका बालाग्र होता है, उससे आठ गुना मोटा पूर्वविदेह तथा पश्चिमविदेहके मनुष्योंका वालाग्र तथाविध क्षेत्र प्रभावसे होता है, उससे आठ गुना मोटा बालाग्र भरत, ऐरवत क्षेत्रके मनुष्योंका होता हैं और वैसे आठ बालाग्र एकत्र होनेसे एक ""लीखका माप होता है / आठ लीखें मिलकर एक जू (मस्तककी ज) प्रमाण होता है, आठ जू की मोटाई मिलकर एक यव (जौ) के मध्य भागकी मोटाईका माप आता है और आठ 'यवमध्य' मिलकर एक "उत्सेधांगुल [ अपना एक अंगुल] होता है। इस व्याख्यासे स्पष्ट होता है कि, अंगुलमाप अपनी उंगलीकी चौडाइका ही समझना है / व्यवहारमें भी चार-छः अंगुल प्रमाण कपडा मापनेका होता है तब अंगुलीकी चौडाइसे ही मापा जाता है। अतः जो लोग उत्सेधांगुल खड़ी उंगलीके पहले ___462. जीवसमासके सूत्रकार, प्रारंभसे ही अनंत परमाणु मिलकर एक उत्श्लक्ष्णलक्ष्णिका कहते हैं ये अनंत परमाणु व्यावहारिक या सूक्ष्म लेना इसे स्पष्ट नहीं करते / साथ ही अनंत उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका मिलकर एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका कहते हैं और उस प्रलक्ष्णप्रलक्ष्णिका को ही पुन: व्यावहारिक परमाणु कहते हैं। इस तरह दोनों रीतसे उनका कथन भिन्न पडता है / कुछ स्थल पर उत्प्रलक्ष्ण और लक्ष्णप्रलक्ष्णिका माप गिनतीमें ही नहीं लिया ये विवक्षाभेद हैं / 463. मलयगिरि सं. टीकामें आठ त्रसरेणु कहनेके बाद 'आठ त्रसरेणुसे एक बालाग्र, आठ बालाग्रसे लीख' इस तरह व्याख्या की है / 464. यह बालाग्र जन्मावस्थाका लेना या अन्यावस्थाका गिनना इसका स्पष्ट खुलासा नहीं मिलता। परंतु पल्योपमादिककी गिनतीमें मस्तक मुंडानेके बाद सात दिन तक बालाग्रका ग्रहण किया है, तदनुसार यहाँ भी सोचना उचित लगता है। 465. एक ही बालाग्रमें सूक्ष्मता और स्थूलताकी भिन्नता उस क्षेत्र तथा उस उस कालके प्रभावको आभारी है। अनुक्रमसे शुभ कालकी हानि होने पर केशगत स्थूलता विशेष बढती है / 466. यह अभिप्राय-संग्रहणी वृत्ति, प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, अनुयोगद्वार आदिका है / जबकि जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिके वृत्तिकार पूर्व-पश्चिम विदेहके आठ बालाग्रसे एक लीख होती हैं वैसा कहते हैं / 467. अनुयोग द्वारमें-'पाद' के बाद अंगुलकी संख्याके द्विगुण द्वारा अन्य माप भी दर्शाये हैं, लेकिन शलीभेद है परंतु तत्त्वसे वह एक ही है / 'भरतनाटय' में नीचे अनुसार प्रकार है। अणवः अष्टौ रज: प्रोक्तो तान्यष्टौ बाल उच्यते / बालास्त्वष्टौ भवेल्लिक्षा यूकालिक्षाष्टकं भवेत् // यूकास्त्वष्टौ यवः प्रोक्तः यवास्त्वष्टौ तथाङ्गुलम् / अङ्गुलानि तथा हस्तश्चतुर्विशतिरुच्यते // [भरतनाटय०, 2, 14-15] Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुलकी व्याख्या . . 16. . वेढ तक.होना समझते हैं यह उनका भ्रम ही सूचित करता है। और अंगुल गिनतीके साथ वेढेका कुछ ही संबंध नहीं हैं और यह माप व्यावहारिक भी बन नहीं सकता, फिर भी खड़ी अंगुली मापकर 'उत्सेधांगुल' निश्चित ही करना हो तो आडे आठ जौ रखकर उसकी विचकी मोटाईकी श्रेणीसे खुशीसे कर सकते हैं / यहाँ एक बात खास ध्यानमें रखनी कि 'प्रमाणांगुल' के मापमें लंबाईके साथ चौडाईकी गिनती भी बताई है, जबकि उत्सेधांगुल और आत्मांगुलमें यह नहीं बताई / अतः इन दोनों अंगुलोंको सूचीश्रेणिकी तरह, एक ही दीर्घ मापसे समझनेके और उसी तरह मापनेके हैं / __छः उत्सेधांगुलसे एक पाद (पगका माप) होता है, दो पादसे एक बित्ता, दो वित्तेसे [विसस्ति] एक हाथ, चार हाथसे एक धनुष, दो हजार धनुषसे एक कोस, चार कोससे एक योजन होता है। आज कल इस देशमें इसी मापका व्यवहार चलता है / __परमाणुकी व्याख्या कह चुके हैं / अब उत्श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका, लक्ष्णश्लक्ष्णिका यह मी अत्यन्त सूक्ष्म होती है परंतु परमाणुकी अपेक्षासे उत्तरोत्तर अधिक मानवाला माप कहा जाए / तत्पश्चात् ऊर्ध्वरेणु-वह स्वतः अथवा पर-वायु आदि के प्रयोगसे ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् गति करता अथवा जाली, छप्परके छिद्रमें सूर्यके किरणोंमें उडती दीखती रजका एक कण [रजकण] वह / 'त्रसरेणु'-परप्रयोगसे अर्थात् नगरादिकके वायुप्रयोगसे गति करनेवाला रजकण / 'रहरेणु'-रथके चलनेसे उसके पहियेसे उडनेवाली धूलका रजकण वह / यह रजकण कुछ अधिक स्थूल है। [316-317 ] - अवतरण-उत्सेधांगुलमानको बताकर, मूल गाथाके द्वारा प्रमाणांगुलकी व्याख्या करते हैं / . चउसयगुणं पमाणं-गुलमुस्सेहंगुलाउ बोधव्वं / उस्सेहंगुल दुगुणं, वीरस्सायंगुलं भणियं // 318 // गाथार्थ-उत्सेधांगुलसे चारसौ गुना बड़ा प्रमाणांगुल जाने और उत्सेधांगुलसे द्विगुण भगवान महावीरका एक अंगुल कहा है। 318 // विशेषार्थ- इस गाथामें उत्सेधांगुलसे प्रमाणांगुल 400 गुना दीर्घ कहा लेकिन चौडा कितना यह बताया नहीं है, तो ( अन्य ग्रन्थानुसार) उसकी चौडाई 2 // उत्सेधांगुल समझना / अर्थात् 400 उत्सेधांगुल लंबा और 2 // उ० अंगुल चौडा हो उसे प्रमाणांगुल कहा जाता है। ऐसा अंगुल श्रीऋषभदेव भगवान अथवा भरत चक्रब. स. 21 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 162 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * वर्तीका था, अतः एक दूसरी वस्तु सिद्ध हुई कि श्री ऋषभदेव या भरतका आत्मांगुल वही प्रमाणांगुल भी होता था / लेकिन यह मेल उसी कालमें देखनेमें आता है, लेकिन उसके बादके कालके लिए नहीं। फिर तो आत्मांगुल तथा प्रमाणांगुलका मेल नहीं मिलता। अतः आत्मांगुलप्रमाण हमेशा अनियमित होता है। जब कि प्रमाणांगुल प्रमाण, उसकी व्याख्या अनुसार हमेशा नियत ही है। ___* यहाँ अंगुल विषयक कुछ चर्चा उपयोगी होनेसे दी गई है। - 1. प्रथम शंका-उत्सेधांगुलसे प्रमाणांगुल हजारगुना है, और यह हजारगुना प्रमाणांगुलमान, उस भरतचक्रीके एक आत्मांगुल. बराबर कहा जाता है। इससे भरतचक्री श्री महावीरस्वामी से पांचसौ गुना बड़े शरीरवाले होंगे। क्योंकि ‘श्रेष्ठ पुरुषो स्वात्मांगुलसे 108 अंगुल ऊँचे होते हैं ' इस वचनसे भरतचक्री भी आत्मांगुलसे 108 अंगुल ऊँचे हुए। इन हजारगुने उत्सेधांगुलसे एक प्रमाणांगुल-वही भरतचक्रीका स्वात्मांगुल है, जो बात पहले कह गये / अतः भरतचक्रीके एक स्वात्मांगुलके हजार उत्सेधांगुल तो 108 स्वात्मांगुलके उत्सेधांगुल कितने ? तो त्रिराशिगणितके हिसाबसे १०८०००-एक लाख आठ हजार इतने भरतशरीरके उत्सेधांगुल आए / अब भगवान वर्धमानस्वामी जिनके मतसे उत्सेधांगुलकी ही अपेक्षासे 216 अंगुल [ और आत्मांगुल 108] थे उनके मतसे ही 108000 को बटा करने पर, महावीरकी अपेक्षासे भरतचक्री पांचसौ गुने बड़े, अथवा तो भरतकी अपेक्षासे श्री महावीर पाँचसौवें अंशमें छोटे बनते हैं। ये 500 गुने बड़े या उतने अंशमें छोटी श्री वर्धमान प्रभु की देह किसीको इष्ट नहीं है, क्योंकि महावीरकी कायाके मापकी अपेक्षासे भरत 400 गुने ही बड़े अथवा उनसे श्री महावीर चारसौवें अंशमें छोटे होने चाहिए, और होते हैं 500 गुने बड़े इसका क्या कारण ? [ यह 500 गुनापनकी प्रथम शंका ] 2. दूसरी शंका-अब उस्सहंगुलदुगुणं वीरस्सायंगुलं भणियं' इस गाथाके उत्तरार्धचरणसे उत्सेधांगुलसे द्विगुण वीरपरमात्माका स्वात्मांगुल [अपना अंगुल] कहा है, तो यहाँ ऊपरकी शंकामें श्री महावीर महाराजा को 108 अंगुल उँचे कहे वैसा कैसे ठीक होगा ? क्योंकि उक्त गाथाके अर्थानुसार भगवान स्वात्मांगुलसे 84 और उत्सेधांगुलसे 168 अंगुल होते हैं। वह इस तरह-भगवान स्वयं उत्सेधांगुलसे प्राप्त होती सात हाथकी [ स्वात्मांगुलसे 3 // ]. कायावाले थे, अब 24 अंगुलका एक हाथ होता होनेसे, सात हाथके अंगुल गिननेसे [7424=168] अंगुल आए। ऐसे दो उत्सेधांगुलसे एक वीरविभुका आत्मांगुलः . Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रमाणांगुलकी व्याख्या और अंगुल संबंधी चर्चा . . . 163 . होनेके कारण 168 उत्सेधांगुलको दो से बटा करनेपर अर्थात् उसका आधा करनेसे 84 स्वात्मांगुल श्री वीरका शरीर होता है तो फिर भगवान स्वात्मांगुलसे 108 अंगुल और उ० से० 216 अंगुल ऊँचे थे ऐसा दूसरे लोग क्यों कहते है ? और अगर उनका यह कथन यथार्थ हो तो वीर प्रभुकी सात हाथकी ऊँचाई किस तरह होगी ? क्योंकि 'द्विगुण उत्सेधांगुलसे वीरका एक आत्मांगुल' होता होनेसे 108 आन्मांगुलके उत्सेधांगुल 216 होंगे / इनके हाथ बनाने को [24 अंगुलका एक हाथ होने से 24 अंगुलसे वटा करनेसे नौ हाथ प्रमाण श्री वीरकी काया होगी, और यह कायाप्रमाण यथोक्त अंगुलसे विसंवादी होनेके कारण कोई सम्मत नहीं है / और 108 स्वात्मांगुल लेनेसे 'उस्सेहंगुलदुगुणं' इत्यादि कथन असत्य होता है, तो 108 स्वात्मांगुलका समाधान क्या ? यह शंका जिनके मतसे श्री महावीर 108 अंगुल ऊँचे हैं ऐसा कहनेवालोंकी हैं, क्योंकि 108 आत्मांगुलके कथनसे गाथाका नियम निभता नहीं है / 3. तृतीय शंका–साथ ही जो लोग श्री वीरको स्वात्मांगुलसे 120 अंगुल मानते हैं, उनके मतसे 'दो उत्सेधांगुलसे एक वीरात्मांगुल' यह नियम कैसे निभेगा ! . इस तरह तीन शंकाएँ उपस्थित हुई / एक तो वीरप्रभुके 108 आत्मांगुली अनुसार वीर प्रभुसे 'भरतचक्री 500 गुने' होते हैं वह, दूसरी श्री वीरप्रभुको स्वात्मांगुलसे 108 अंगुल ऊँचे कहते हैं वह / और तीसरी प्रभु श्री वीरको 120 आत्मांगुलसे कहते हैं वह / यहाँ श्री वीरको एकमतने 108 आत्मांगुल (216 उ०) कहा, अतः वास्तवमें प्रथम 500 गुने भरत बडे' की शंका हुई, क्योंकि 108 प्रमाण लेनेसे 'उस्सेहंगुलदुगुणं' यह नियम निभता नहीं है। हमें इस कथनकी पुष्टि के लिए नियम तो निभाना है। और जो लोग वीर को 120 आत्मांगुलीय कहते हैं उनके मतसे एक रीतसे समचतुष्क क्षेत्रफलके हिसाबसे, और 84 आत्मांगुल प्रमाण वीर कहलाते हैं वह, इन दोनों मतसे उस्सेहंगुल' कथन घटित होता है / मात्र १०८का कथन अलग पड़ता है, अतः उसी बात अब सोचें / . प्रथम शंका निरास-पूर्वोक्त शंकामें एक हजार उत्सेधांगुलमें एक प्रमाणांगुल कहा और अंगुल को उसी भरत का आत्मांगुल कहा वह तो मानो योग्य है / परंतु उक्त शंकामें “श्रेष्ठ पुरुष स्वात्मांगुलसे 108 अंगुल ऊँचे होते हैं और इस वचनानुसारसे Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . भरतचक्री को भी श्रेष्ठ पुरुषमें गिनकर उसकी 108 आत्मांगुल ऊँचाई मानकर वीर प्रभुसे 500 गुने कहे / " परंतु वहाँ भरतचक्रीको 'श्रेष्ठ पुरुष गिनकर 108 आत्मांगुली' गिनती स्वीकार की वही प्रथम भूल है क्योंकि 'अनुयोगसूत्रकार चक्री वासुदेव तथा तीर्थकर स्वात्मांगुलसे 120 अंगुल और शेष अधिक प्रधान पुरुष 108 अंगुल ऊँचे होते हैं। ऐसा कहा है, अब जब भरतचक्री स्वात्मांगुलसे 120 ऊँचे अंगुल बने, तब 120 स्वात्मांगुलका [96 अंगुल का एक धनुष इस हिसावसे] भरतका स्वात्मांगुली एक धनुष आया। इससे हमारे उत्सेधांगलसे भरतचक्री 500 धनुष ऊँचे हुए। अब एक आत्मांगुलके धनुष निकालने त्रैराशिकका उपयोग करें, इससे भरत आत्मांगुलीय सवा धनुषसे उत्सेधांगुलके 500 धनुष हों तो (भरतके ही) एक आत्मांगुलमें कितने धनुष हों ? त्रिराशि स्थापना 11-500-1 इस तरह होता है / प्रथमकी राशि अंशसहित [अपूर्ण] है, अतः गुण्य गुणककी रकमको समान करनी पडेगी, इसलिए हरेकके हाथ बना दें। जिससे सवा धनुष के [1 / 44] भरतांगुलीय 5 हाथ और मध्यमराशिके 500x4=2000 हाथअन्त्यराशिके 1444 हाथ / अब तीनों स्कमकी पुनः त्रिराशि स्थापित करें=५-२००० -4 इसमें अन्त्य की 4 राशिसे मध्यकी 2000 राशि को गुननेसे 8000 होते हैं, उसे प्रथमकी 5 राशिसे वटा करनेसे 1600 हाथ, एक स्वात्मांगुल [जैसे बृहत्] धनुषके आए, उस हाथकी संख्याके उत्सेधांगुलीय धनुष करने [चार हाथका एक धनुष होनेसे] चारसे बटा करनेसे 400 धनुष आए / जवाब यह निकला कि आत्मांगुलके एक धनुष में उत्सेधांगुलके 800 धनुष समा जाए, इस नियमानुसार आत्मांगुलके एक हाथसे उत्सेधांगुलके 400 हाथ, एक आत्मांगुलमें उत्सेधांगुल 400 और एक आत्मांगुलीय योजनमें [हमारे] 400 उत्सेधांगुलीय योजन समा जाए। इस तरह एक श्रेणी प्रमाणांगुल मापमें 400 उत्सेधांगुल होते हैं, ऐसा साबित हुआ। यहाँ पाठकोंको शायद शंकाका आविर्भाव होगा कि-पहले तो एक प्रमाणांगुलमें 1000 उल्सेधांगुल कहे थे उसका क्या ! उसका समाधान यह है कि-एक हजार उत्सेधांगुलकी जो गिनती होती है वह तो 400 उत्सेधांगुलकी चौडाईवाली दीर्घश्रेणीकी अपेक्षासे अर्थात् एक प्रमाणांगुलके 400 उत्सेधांगुलको विष्कम्भ सहित गिननेसे 400 अंगुल दीर्घ और 2 // अंगुल मोटी ऐसी एक अंगुलप्रमाण विस्तारवाली श्रेणीकी लंबाई [.40042 // ] 1000 अंगुलकी आवे इस दीर्घश्रेणीकी अपेक्षासे कहा है; बाकी तो वास्तविक '100 उत्सेधां Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अंगुल संबंधी चर्चाका समाधान * गुलसे एक प्रमाणांगुल' होता है। _इस तरह अपेक्षासे हजार उत्सेधांगुलसे अथवा विष्कम्भयुक्त ऐसे प्रमाणांगुलसे [400 उ०] शाश्वत पृथ्वी-पर्वत-विमानादिक प्रमाण मापनेके कहे हैं उसे मापें / इस बाबतमें मतांतर है उसे गाथा 314 के विशेषार्थमें बताया हैं / दूसरी शंकाका समाधान-अब ग्रन्थकारने 'उस्सेहंगुलदुगुणं' नियम बांधा है उस नियमसे भगवानकी सात हाथकी कायाके हिसाबसे वीर भगवान स्वात्मांगुलसे 84 अंगुल होते हैं उसमें तो शंकाको स्थान नहीं हैं / लेकिन जिनके मतसे भगवान 108 आत्मांगुल [स्वहस्तसे 3 // हाथ] ऊँचे हैं वे तो इस ग्रन्थकारके 'उस्सेहंगुलं' मतसे अलग ही पड़ते हैं, क्योंकि उनके मतसे दो उत्सेधांगुलसे एक वीरात्मांगुल नहीं किन्तु त्रिराशिके हिसाबसे 12 उत्सेधांगुलसे एक वीरात्मांगुल होते हैं, अतः स्पष्ट मतांतर ही मानना पड़ेगा। तीसरी शंकाका समाधान-जिनके मतसे भगवान 120 स्वात्मांगुल हैं उनका मत भी देखनेसे अलग ही पडता है, परंतु समचतुष्क क्षेत्रफलके हिसाबसे 'उस्सेहंगुलदुगुणं' नियम चरितार्थ होता है / वह इस तरह भगवान स्वात्मांगुलसे 120 अंगुल हैं उसे 24 से बटा करने से (120 अंगुलके) पांच हाथ आए, उसे समचतुरस्र बाहा प्रतिबाहारूप क्षेत्रगणितसे उतनेसे (545=) गुननेसे 25 होता है / अब श्री महावीरका देह सात हाथ हैं, उसका क्षेत्रफल [747] 49 हाथ आता है / हाथ, पण्हि, एडीकी किंचित् वृद्धि करनी चाहिए इससे 50 हाथ होते हैं / इन पचासका आधा करनेसे 25 हाथ आवें, २५का क्षेत्रफल 5 हाथ आनेसे प्रथम कहे अनुसार 120 आत्मांगुल होनेसे दो उत्सेधांगुलसे एक वीर आत्मांगुल प्राप्त हुआ। - परंतु बाहा गणित उस समचतुरस्र क्षेत्रफलकी अपेक्षासे विचारेंगे तो तो भगवंतका एक आत्मांगुल, 1 उत्सेधांगुल और दूसरे उत्सेधांगुलके पाँचवें दो भाग अर्थात् 13 उत्सेधांगुल प्रमाणका होगा क्योंकि भगवंतको उत्सेधांगुलसे 168 अंगुल तो कायम रखने हैं ही, परंतु आत्मांगुलसे जो 120 अंगुल कहने हैं उसके लिए आत्मांगुल 120 और 168 उत्सेधांगुलके बिच बँटवारा करना पडेगा अर्थात् 120 आत्मांगुलके 168 उत्सेधांगुल, तो एक आत्मांगुलके कितने ? इसके जवाबमें 13 प्रमाण वीरात्मांगुल होंगे। इस तरह समझने योग्य हकीकतें कहीं, इसकी अधिक चर्चा अंगुलसित्तरीसे समझना / [318] .. अवतरण-अब चार गति आश्रयी जीवोंकी योनिसंख्या कहते हैं / Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 166 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . // परमाणुसे आरंभ करके अंगुल-योजन तकके प्रमाणका यन्त्र // अनन्त सूक्ष्म परमाणुका. अनन्त व्य० परमाणुकी 8 उत्प्रलक्ष्णप्रल०की ( হত্যঙ্গ স্কা 8 ऊर्ध्वरेणुका 8 त्रसरेणुका 8 रथरेणुका 8 कुरुवालाग्रका 8 ह० रम्यकावलान 8 है. है० बालाग्रका 8 पूर्वापर विदेहवा०का 8 भरतैरवतवा० की 8 लीखकी 1 व्यवहार परमाणु 8 युकासे 1 यवमध्य 1 उल्लक्षणश्लक्षिणका 8 यवमध्यका 1 उत्सेधांगुल 1 प्रलक्ष्णप्रलक्षिणका | 2097152 परमाणुसे , " 1 ऊर्ध्वरेणु 400 उत्से० 1 प्रमाणांगुल 1 त्रसरेणु 2 उत्से 1 वीरांगुल 1 रथरेणु 1 कुरुयुगलिकवालाग्र | 6 उत्सेधांगुलसे 1 पाद. 1 हरि० रम्यक्वालाग्र 2 पादका 1 बित्ता 1 हैम० हैर० बालाग्र || 2 बित्तका 1 हाथ 1 पूर्वापरविदेहवा० 2 हाथकी 1 कुक्षी 1 भरतरवतबालाग्र 2 कुक्षी या वामसे / 1 दंड, 1 अथवा 4 हाथसे धनुष 1 लीख या वामसे वा 96 / एक युग 1 युका अंगुलसे या मुसल नालिकादि 2000 धनुषसे 1 कोस 4 कोसका 1 योजन पुढवाइसु पत्ते, सगवगपत्ते अणत दस चउदस / विगले दु दु सुरनारयतिरि. चउ चउ चउदस नरेसु // 319 / / जोणीण होति लक्खा, सव्वे चुलसी इहेव घिप्पंति / समवण्णाइसमेआ, एगत्तेणेव सामन्ना // 320 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् सुगम है / / / 319-320 // विशेषार्थ—यहाँ प्रथम जीवोंकी योनिसंख्या कहकर फिर दूसरी गाथाके अर्थसे योनि की व्याख्या करते हैं / ..पृथ्व्यादिमें-अर्थात् पृथ्वी, अप, तेउ और वायुकाय इन प्रत्येककी सात सात लाख प्रमाण योनिसंख्या ज्ञानीपुरुषोंने ज्ञानचक्षुसे देखकर कही है। प्रत्येक वनस्पतिकायकी दस लाख योनि,, अनन्त [साधारण] वनस्पतिकायकी. चौदह लाख, विकलेन्द्रिय अर्थात् Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योनिकी व्याख्या तथा कुलकोटीका वर्णन . . 167 . दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय इन प्रत्येककी दो-दो लाख, देवता, नारक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रत्येककी चार चार लाख, मनुष्यकी चौदह लाख योनिसंख्या है। सर्व मिलकर बीवायोनिकी संख्या “चौरासी लाख होती है, जो प्रसिद्ध है। ... "योनि किसे कहे ! तो तैजस और कार्मण शरीरधारी जीव जिस स्थानमें औदारिक, बैक्रिय शरीरके योग्य पुद्गल स्कंधोंके साथ (तप्तलोहवत्) जुडे उसे योनि' कहते हैं। अथवा एक जन्ममेंसे मृत्यु पाकर दूसरा जन्म धारण करने को दूसरे जन्मके योग्य देहकी रचनाके लिए ग्रहण किये पुद्गल, सहवर्ती कार्मण शरीरके साथ जहाँ तप्तलोहजलवन् एक बन जाए उसे भी योनि कहते हैं / योनि आधार है और जन्म आधेय है। अगरचे व्यक्तिभेदसे वे योनियाँ असंख्य प्रकारकी हो जाती हैं, क्योंकि सर्व जीवोंके *शरीरकी संख्या उतनी है और प्रत्येकको व्यक्तिगत गिननेसे वर्णादि भेदसे उतनी होती ही है, परंतु यहाँ व्यक्तिभेदसे गिनती नहीं करनी है, साथ ही उस तरह गिनती भी अशक्य है, अतः समान वर्ण, गंध, रस, स्पर्शवाली संख्य-असंख्य जितनी योनि हों [वे भी] उन उन समान वर्णादिवाली सर्वयोनिकी एकत्र एक जाति हुई कहलाती है, जैसे समान संगवाले सैकों या हजारों घडे भी जातिभेदसे एक ही जातिके गिने जाते हैं वैसे, और इस तरह करें तो ही प्रति जीवराशिमें लाखकी संख्यामें होती योनिकी गिनती मिल जाएगी। [319-320] . अवतरण–योनि विषयक व्याख्या कहकर अब किस जीवनिकायमें कितनी कुलकोटी है ! उसे कहते हैं / एगिदिएसु पंचसु, बार सग ति सत्त अट्ठवीसा य / विअलेसु सत्त अड नव, जलखहचउपयउरग भुअगे // 321 // अद्धतेरस बारस, दस दस नवगं नरामरे नरए / बारस छवीस पणवीस, हुंति कुल कोडि लक्खाई॥ 322 // इग कोडि सत्तनवई, लक्खा सडढा कुलाण कोडीणं // 3223 // 468. संग्रहणीकी लघु टीकामें व्यक्तिभेदके लिए अनन्त शब्द प्रयुक्त है तो वहाँ जीवकी विवक्षासे समझना / शरीरकी विवक्षासे तो असंख्य शब्दका ही प्रयोग होता है। एक ही प्रकारके वर्णवाली या गंधवाली अलग अलग योनि है वह व्यक्तिभेदसे / उदाहरण स्वरूप एक समान रंगवाले 100 घोडे व्यक्तिभेदसे में ही माने जाते हैं। 469. योनिकी संख्यावाली गाथाएँ कहकर 3223 से लेकर 3.25 वीं गाथाओंका स्वरूप समाप्त करके फिर ये गाथाएँ प्रस्तुत होती तो ? 470. एक ही समान रंगवाले 100 घोडे. भी. बातिभेद से एक ही जातिके गिने जाते हैं, वैसे अलग अलग असंख्य योनियाँ भी समान वर्णादिककी अपेक्षासे... संख्यासे एक ही योनि गिनी जाती है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 168 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ—विशेषार्थवत् / // 321-3223 // विशेषार्थ-कुलकोटी अर्थात् क्या ?-तो जिनकी उत्पत्ति योनिमें ही हो वे कुल कहलाते / अनेक प्रकारके जीवोंके एक ही योनिमें भी बहुत कुल उत्पन्न होते हैं। उदाहरण स्वरूप एक ही उपलेके पिड़के अंदर कृमि, बिच्छु, कीडे आदि अनेक प्रकारके क्षुद्र प्राणियों के अनेक कुल होते हैं / उनमें पृथ्वीकायकी बारह लाख कुलकोटी, अपकायकी सात लाख, तेउकायकी तीन लाख, वायुकायकी सात लाख, वनस्पतिकायकी अठाइस लाखकी है / [यहाँ सूक्ष्मबादरकी भिन्न भिन्न नहीं बताई / ] दोइन्द्रियकी सात लाख, त्रिइन्द्रियकी आठ लाख, चउरिन्द्रियकी नौ लाख है, तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव में जलचर जीवोंकी साढे बारह लाख, खेचरोंकी बारह लाख, चतुष्पद जीवोंकी दस लाख, उरपरिसर्पकी दस लाख और भुजपरिसर्पकी नौ लाख कुलकोटी है / / और मनुष्यकी बारह लाख, देवताकी छब्बीस लाख और नारकीकी पचीस लाख कुलकोटी है। कुल "सर्व जीवोंकी कुलकोटीकी सर्व संख्या मिलकर एक करोड , साढे सतानवे लाख [197 / / लाख] है / [321-3223]. अवतरण–अब पूर्वोक्त [आभ्यन्तर] योनिके ही संवृतादि भेद कहे जाते हैं। संवुडजोणि सुरेगिदिनारया, विअड विगल गभूमया // 323 // गाथार्थ-संवृत्तयोनि देव-एकेन्द्रिय-नारक जीवोंकी. और विवृत्तयोनि विकलेन्द्रियकी और गर्भज जीवोंकी उभय [संवृत-विवृत] योनि है / // 323 // विशेषार्थ-संवृत-अर्थात् अच्छी तरह ढंकी हुई। विवृत-खुली हुई और संवृतविवृत अर्थात् पूर्वोक्त दोनों प्रकारकी अर्थात् मिश्र / _ चारों प्रकारके देव, एकेन्द्रिय वे पृथ्वी-अप-तेउ-वायु और वनस्पति तथा सातों नारकोंकी संवृत योनि है / संवृत योनि किस तरह ?-देवलोकमें देव दिव्य शय्याओंमें उत्पन्न होते हैं / ___471. इस कुलकोटीकी संख्याके बारेमें आचारांगादि ग्रन्थोंका कथन अलग पडता है / साथ ही लोकप्रकाशमें भी देवताकी कुल संख्या बारह लाख कही है आदि संख्याकी बाबतमें मतांतर हैं / कुलकोटीकी . ऊपर बताई व्याख्यासे अधिक संतोषजनक व्याख्या देखनेको नहीं मिलती / ... .. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आभ्यन्तर योनिका विविध स्वरूप... * 169 येः शय्याएँ देवदुष्य वस्त्रोंसे आच्छादित होती हैं। यह देवशय्या और आच्छादित देवदुष्यः वस्र, दोनों के अंतरमें देवोंका उपपात होता होनेसे वे आच्छादित रूपमें उत्पन्न होते हैं, अतः वह संवृतयोनि कहलाती है। इस तरह एकेन्द्रियोंकी संवृतयोनि तो स्पष्टं पहचानी नहीं जाती, अतः अस्पष्टयोनि भी संवृत ही गिनी जाती है / सातों नरकोंकी संवृतयोनि ऊपरसे अच्छी तरह आवृत्त गवाक्षकी कल्पनासे समझमें आ सकता है, क्योंकि नारको गवाक्षके अंदर ही (नरकावासमें) उत्पन्न होते हैं अतः ऊपरसे आच्छादित योनिवाले हैं / विवृतयोनि किस तरह ? विकलेन्द्रिय अर्थात् दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय इन तीनोंकी विवृतयोनि हैं। जलाशयादिके स्थानोंकी तरह वह स्पष्ट खुली दीखती ही है। . १७२संवृत-विवृत किस प्रकार ?-आच्छादित और प्रकट अथवा स्पष्ट-अस्पष्ट रुपमें हो उसे मिश्रयोनि भी कह सकते हैं, / वह गर्भज पंचेन्द्रिय तिथंच तथा मनुष्योंकी संवृतविवृत योनि है, जब ये जीव उदरमें गर्भरूप में उत्पन्न होते हैं तब गर्भ दीखता नहीं है, अतः गर्भ संवृत होता है, परंतु बाहर उदर वृद्धि आदि द्वारा अनुमान हो सके इसलिए वह विवृत है। इन्हें आभ्यन्तर योनियाँ समझना / बाह्य लिंगाकार योनिस्वरूप तो ग्रन्थकार आगे कहनेवाले हैं। [ 323 ] / अवतरण- अब चारों गतिमें से कौनसी जीवायोनि सचित्त, अचित्त या मिश्र तथा शीतोष्णादिपनसे है ? यह कहते हैं। यहाँ कहा जाता स्वरूप आभ्यन्तर योनिका समझना / बाह्य योनिका स्वरूप गाथा 325 में कहेंगे / * अचित्तजोणि सुरनिरय, मीस गम्भे तिभेअ सेसाणं / ' .. सीउसिण निरय सुरगन्भ, मीसे ते उसिण सेस तिहा // 324 // गाथार्थ-देवों और नारकोंकी अचित योनि, गर्भज जीवोंकी मिश्रयोनि तथा शेष जीवोंकी सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त इन तीन भेदोंसे तथा पुनः मिश्रयोनि, शीतयोनि तथा उष्णयोनि इस तरह तीन प्रकार स्पर्शकी दृष्टिसे है। इनमें नारकों, देवों तथा गर्भज जीवोंकी मिश्र [शीतोष्ण ], तेउकायकी उष्णयोनि तथा शेष जीवोंकी शीत, उष्ण और शीतोष्ण इस तरह तीनों प्रकारकी है / // 324 // .. . .... 472. तीसरी योनिसे उत्पन्न हुए जीव अल्प, दूसरोसे असंख्यगुने उनसे अयोनिज-अर्थात् सिद्धके जीव अनन्तगुने, और उनसे प्रथम योनि उत्पन्न अनन्तगुने हैं। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 170 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . - विशेषार्थ-सचित्तयोनि अर्थात् जीवके प्रदेशोंके साथ एक हो गए जीवंत आत्माके शरीरका जो भाग, जिसमें जंतु उत्पन्न हों तब वह सचित्त योनिप्रदेश गिना जाता है / अथवा जीवप्रदेशके साथ संबंध रखनेवाली योनि वह सचित्तयोनि / अचित्तयोनि-जीवप्रदेशसे सर्वथा रहित सूखे काष्ठ जैसी अथवा जीवप्रदेशके साथ संबंध न रखती योनि वह / प्रश्न यहाँ किसीको शंका हो कि तीनों लोक सूक्ष्म जंतुओंसे खचाखच भरा है, तो फिर अचित्तयोनि [ अजीव ] पन कैसे संभवित हो ? साथ ही अचित्तयोनि कदाचित् सचित्तत्व प्राप्त करे या नहीं ? उत्तर-अचित्तयोनि तथाविध स्वभावसे सूखे काष्ठ जैसी होनेसे ही सूक्ष्म जन्तु सर्वत्र व्याप्त होने पर भी, अचित्तयोनिके उपपातस्थानके पुद्गलो, उन सूक्ष्म जीवप्रदेशोंसे अन्योन्य संबंधवाले नहीं होते, अतः अचित्तयोनि को कभी भी सचित्तपन नहीं होता। मिश्रयोनि- [सचित्ताचित्त ] किस प्रकार हो ? –सचित्त और अचित्त पुदगलों के संबंधवाली होती योनि वह / अतः मनुष्यको तिर्यचकी योनिमें शुक्र [ वीर्य ] तथा शोणित-रुधिर पुद्गल रहे होते हैं। उनमें से जो पुद्गल आत्माके साथ जुड़े हुए हैं वे सचित्त और जो नहीं जुड़े हुए हैं वे अचित्त [ क्योंकि आत्मा सजीव है ] / इस सचित्ताचित्तका संबंध जिसमें होता हो वैसी योनिको मिश्रयोनि कही जाती है / / - वह इस तरह-स्त्रियोंके शरीरमें, नाभिके नीचे विकस्वर पुष्पोंकी मालाके जैसी लगती, दाई तथा बायीं दोनों बाजू पर दो नसें रही हैं। ये दोनों नसें जहाँ जुडती हैं वहीं, उन नसोंके साथ जुडी अधोमुखी अमरुद अथवा तो कमलके गोटेके आकार जैसी योनि पदार्थकी रचना है। यहाँ आभ्यन्तर योनिकी बात होनेसे योनि अर्थात् गर्भाशय समझना, कि जहाँ गर्भकी उत्पत्ति होती है / इस योनि या गर्भाशयके बाहरके भागमें आम्रमंजरी जो मांसकी बनी मंजरीयाँ होती हैं। ये मंजरीयाँ रुधिर झरनेके स्वभाववाली है, अतः सामान्यतः (प्रायः) हर मास रुधिरको झरती हैं। (तब स्त्री रजस्वला, अडचनवाली या एम. सी. वाली कहलाती है / ) इस रुधिरके कतिपय बिन्दु-कण अमरुदाकार गर्भाशयमें नसोंद्वारा दाखिल हो जाते हैं और वहाँ टिके रहते हैं। तब पुरुषके साथ सम्बन्ध होनेसे पुरुषवीर्यके अमुक विन्दुएँ भी उसी गर्भाशय के स्थानमें प्रवेश करने पर वहाँ स्त्री-रज या रुधिर और पुरुष वीर्यका मिश्रण हो जाता है। इन शुक्र मिश्रित शोणित पुद्गलोंमें से जिन पुद्गलों को योनिने आत्मसात् किये हों वे पुद्गल .. Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योनि संबंधी विविध समज .. *.171 सचित्त अर्थात् सजीव हैं और शेष जो रहते हैं वे अचित्त माने जाते हैं। इस तरह मानवी स्त्रीकी योनिका मिश्रपन समझना / जीव जब वहाँ उत्पन्न हो तब प्रथम समय यही मिश्र आहार करता है / ___कुछ आचार्य ऐसा कहते हैं कि-रुधिर सचित्त है और वीर्य अचित है / कुछ महर्षि रुधिरको भी अचित्त कहते हैं। और योनिगत आत्मप्रदेशोंको ही सचित्त कहते हैं, और इस तरह मिश्रयोनिपन घटाते हैं / ____ पहले देव, नारकोंकी अचित्तयोनि और गर्भज नर, तिर्यंचोंकी मिश्रयोनि कही। अब शेष जीवोंमें सर्व संमूच्छिम अर्थात् एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय, समूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य, उन्हें सचित्त, अचित्त और मिश्र यों तीनों प्रकारकी हैं / वह किस तरह हो ? जीवित गाय आदि जीवोंके शरीरमें पडते कृमि आदि जंतुओंकी सचित्त योनि / [ जीवके संबंधवाली होनेसे ] अचित्त सूखे काष्ठमें उत्पन्न होते धुने आदिकी अचित्त योनि / अर्धसूखे [ हरा-सूखा ऐसा ] लकडे तथा गाय आदिके शरीरके क्षत-घाव वगैरह स्थानमें उत्पन्न होते, धुने तथा कृमि आदि जंतुओंकी मिश्रयोनि समझना। यह हकीकत स्पष्ट समझमें आ सकती है। .. योनिके शीतादिक स्पर्श प्रकार और उसके अधिकारी-स्पर्शकी दृष्टिसे योनिस्थानों का विचार करें तो योनि तीन प्रकारकी है। 1 शीत, 2 उष्ण, 3 शीतोष्ण / अर्थात् जिसका स्पर्श ठंडा लगे, या गरम लगे, या तो ठंडा, गरम दोनों प्रकारका अनुभव करावे वैसा / . किस प्रकारकी योनि कहाँ है ? अथवा उसके अधिकारी जीव कौनसे हैं ? तो प्रथमकी तीन नरक पृथ्वियोंमें नारकोंके जो उपपात क्षेत्र हैं वो शीत योनिवाले हैं / शेष . क्षेत्र उष्णस्पर्शी हैं। जिससे शीत योनि ही उष्णक्षेत्रमें आवे तब नारकों को वहाँकी उष्णवेदनाका कटु अनुभव होता है। जैसे युरोप जैसे ठंडे प्रदेशमें उत्पन्न हुए मनुष्यको उप्ण कटिबंध जैसे देशकी गरमी असह्य लगे वैसे। चौथी पंकप्रभाके ऊपरके भागमें बहुत उप्ण वेदनावाले नरकावासियोंकी शीत योनि और थोडे शीत वेदनावाले जीवोंकी उप्णयोनि, इस पृथ्वीमें उपपात क्षेत्रोंके सिवायके स्थल दोनों प्रकारके ( शीत-उष्ण ) स्पर्शवाले होनेसे दोनों प्रकारकी वेदनाका अनुभव होता है / पाँचवर्षी पृथ्वीमें बहुत शीत वेदनावाले आवासोंकी उष्णयोनि, थोडे उष्णवेदनावाले आवासोंकी शीत अर्थात् छठी तथा Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .172. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * सातवीं इन दोनों नरक पृथ्वियोंमें शीतवेदनाका अनुभव करनेवाले नारकोंकी उष्णयोनि है और इन शीत योनिवाले नारकोंकी वेदना अत्यन्त दुःसह है, और उष्णयोनिकी वेदनाका अनुभव करनेवाले नारकोंकी शीत योनि है। ये नारको तीव्र असह्य उष्णवेदनाका अनुः भव करते हैं। ..यहाँ प्रतिकूल कर्मोदयसे योनिके प्रकारसे उलटा ही वेदका. क्रम समझाया है / कुछ आचार्यों आद्यकी तीन पृथ्वीमें उप्णयोनि, चौथीमें शीत और उष्ण दो और अंतिम तीनोंमें एक शीतयोनि कहते हैं। इस मतको उपेक्षणीय माना है। . . साथ ही तमाम देवोंकी तथा गर्भज तिर्यच, पंचेन्द्रिय और मनुष्योंकी मिश्र अर्थात् शीतोष्णरूप स्वभाववाली योनि है, क्योंकि उनके उपपात क्षेत्रो. वैसे ही स्पर्शवाले हैं। तेउकायकी केवल उप्णयोनि स्पष्ट हैं। शेष पृथ्वी, अप, वायु, वनस्पति, विकलेन्द्रिय, संमूच्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्योंकी तीनों प्रकारकी हैं अर्थात् उनमें अमुक शीतयोनि, अमुक उष्ण तथा अमुक मिश्रयोनियाँ हैं। [ 324 ]. : अवतरण-अब मनुष्यकी स्त्रीको योनिका बाह्य ( ऊपरका ) आकार भिन्न भिन्न जीवाश्रयी कैसा कैसा होता है यह कहते हैं। हयगम्भ संखवत्ता, जोणी कुम्मुन्नयाइ जायंति / , अरिहहरिचकिरामा, वंसीपत्ताइ सेसनरा // 325 // गाथार्थ-शंखावर्ता योनि वह हतगर्भा है। अरिहंत, चक्री, बलदेव, वासुदेव, कूर्मोन्नतामें उत्पन्न होते हैं और अवशेष नरो-मनुष्यो, वंशीपत्रामें उत्पन्न होते हैं। // 325 // विशेषार्थ-मनुष्योंकी बाह्य लिंगाकाररूप योनि तीन प्रकारसे है। 1. शंखावर्ता योनि, 2. कूर्मोन्नता, 3. वंशीपत्रा। शंखावर्ता-यह शंख जैसी भ्रमीवाली होती है अर्थात् इस योनिमें शंख जैसे आवर्त-आंटे होनेसे शंखावर्ता कहलाती है। यह योनि निश्चयसे 'हतगर्भा' होती है, अतः इस योनिमें जीव उत्पन्न होता है और देहरचना भी करती है, लेकिन अंतमें अंदरकी अत्यन्त गरमीके कारण शरीर नष्ट हो जाता है और जीव दूसरी जगह चला जाता है, जिसे गर्भहत हुआ कहा जाता है। कभी भी वह गर्भ शरीरकी संपूर्ण रचना करके माताके गर्भमें से बाहर आकार जन्मधारी बने वैसा होता ही नहीं है, क्योंकि शंखावर्त 473. दिगम्बर तत्त्वार्थ-राजवार्तिकके मतसे कुछ देवोंकी शीत और कुछकी उष्ण है।.. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बाह्ययोनिका स्वरूप . . 173 . योनिवाली स्त्रियाँ अत्यंत प्रबल कामामिवाली होनेसे उनमें इतनी सारी उष्णता रहती हैं कि उत्पन्न हुए गर्भके जीवका विनाश ही हो जाता है। यह योनि चक्रवर्तीकी मुख्य पटरानीरूप स्त्री रत्नके होती है / अतः ही कहा जाता है कि ब्रह्मदत्त चक्रीकी कामातुर बनी स्त्रीरत्न कुरुमतिके हस्तस्पर्शसे लोहेका पुतला भी द्रवीभूत हो गया अर्थात् गल गया। कूर्मोन्नता-कछुएके पीठकी तरह उपसी-उन्नत भागवाली योनि / इस योनिमें ही अरिहंत परमात्मा, वासुदेव चक्रवर्ती और बलदेव [ अर्थात् प्रतिवासुदेवको छोडकर शेष शलाका पुरुष ] निश्चिय उत्पन्न होते हैं / - वंशीपत्रा-जो योनि बांसके जुड़े दो पत्र समान आकारवाली हो वह / इस योनिमें शेष सर्व प्रकारके मनुष्य ही [ तिर्यंच नहीं, क्योंकि इन तीनों प्रकारका योनिकथन मनुष्यकी स्त्रीका ही है। ] उत्पन्न होते हैं, तिर्यच पशु-पक्षियोंकी योनियोंका बाह्याकार अनियत है, इसलिए कहा नहीं है। मनुष्य स्त्रीकी बाह्ययोनिका यह स्वरूप भी कहा / ____इस तरह योनिके संवृतादि भेद, आभ्यन्तर योनिके सचित्ताचित्तादि भेद और बाह्ययोनिके शंखावर्तादि भेद-प्रकार दर्शाये। इसके सिवाय शुभयोनि कौनसी और अशुभयोनि कौनसी ! वह भी आगमग्रन्थों में बताया है। शुभयोनि किसे कही जाए और अशुभयोनि किसे कही जाए, उसे वाचको स्वयं समझ सकते हैं। क्योंकि व्यक्तिकी उत्तमता और अधमता देखकर शुभाशुभपनका निर्णय सुखपूर्वक किया जा सकता है / [ 325] . . अवतरण-यहाँसे ग्रन्थकार बारह गाथाओं द्वारा आयुष्यकी मीमांसा प्रस्तुत करते हैं। 'आयुष्य या जीवन' यह एक ऐसी वस्तु है कि जो संसारके प्राणीमात्रको प्रिय . है। जीना किसे नहीं भाता ? अर्थात् सबको भाता है। मरना किसीको भी प्रिय नहीं , है, फिर भी सबको अप्रिय ऐसी मृत्यु को भेंटना ही पड़ता है। यह जीवन जो जिया .. जाता है, उसमें कारण आयुष्य नामका कर्म है। यह कर्म जिस प्रकारका हो वैसे जिया जाए। तब यह कर्म किस किस जातिका कैसे प्रकारका है ? उसका वर्णन सबको जानना आवश्यक होनेसे यहाँ से शुरू किया जाता है। इसमें प्रथम गाथामें आयुष्यमें उत्पन्न होती सात स्थितियोंको जैन सिद्धान्तकी शैली और परिभाषाद्वारा वर्णित करते हैं। - 474. कामातुर होकर स्पर्श करे तो ही लोहपुतलेका द्रवीभूतपन लें / सारा दिन हमेशा ऐसी उष्णता : नहीं रहती, वरना सुवर्ण-रत्नके आभूषण पहनती हैं उन्हें पहननेका असंभव ही हो जाए / Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * आउस्स बंधकालो, अबाहकालो अ अंतसमओ य / अपवत्तऽणपवत्तण उवकमऽणुवकमा भणिया // 326 // गाथार्थ-आयुष्यका (1) बंधकाल, (2) अबाधाकाल, (3) अंतसमय, (4) अपवर्तन, (5) अनपवर्तन, (6) उपक्रम और (7) अनुपक्रम आदि सात स्थान यथायोग्य कहे हैं। // 326 // विशेषार्थ-१. बंधकाल-बंधकाल अर्थात् बंध योग्य काल / अब शंका हो कि बन्ध काहेका ? तो जवाबमें परभवायुष्यका / . एक ऐसा नियम है कि, हरेक आत्माको एक गतिमें से दूसरी गतिमें कोई भी देह धारण करनी हो, फिर चारों गतिमें से किसी भी नामरूप हो तो उसका, उसे चाल भवमें ही निर्णय करना पडता है। यह निर्णय न हो तब तक इस देहमें से आत्मा छूट नहीं सकती। तात्पर्य यह कि, परभवके आयुष्यको चालू भवमें ही बंध करना पडता है। : यह बन्ध कब करना चाहिए ? उसका निर्णय करना वह बन्धकाल / यह निर्णय कालसमय अबके बादकी ही गाथामें ग्रन्थकार जणाएगा। ___ प्रस्तुत भवके गतिमान आयुष्यमें प्रथम बन्धकाल आता है / बन्धकालके समय उसके साथ साथ ही अवाधाकालकी मर्यादा जीव निश्चित कर ही डालता है। अतः दूसरी व्याख्यामें अबाधाकाल अर्थात् क्या ? तो उस विषयक विशेष व्याख्या तो गाथा 329 में करेंगे, लेकिन संक्षिप्त व्याख्या यह कि 2. अबाधाकाल-चालू भवमें बन्धकाल समय पर जीवको परभवके-जिस गतिमें जिस जाति स्थानमें उत्पन्न होना हो वहाँ के-आयुष्यका बन्ध किया, यह बन्ध करनेके बाद वह बद्घायुष्य उदयमें न आवे अर्थात् जब तक निश्चित किये जन्ममें उत्पन्न नहीं होता। इन (बंध-उदय ) दोनोंके बिचका जो अंतर-काल जितना हो, उसे अवाधाकाल कहा जाए / 3. अंतसमय-अनुभूत ( द्रव्य-काल ) दोनों प्रकारका गतिमान आयुष्य पूर्णताको पाए वह / जिसे 'मृत्यु' शब्दसे भी पहचाना जाता है। ऊपरकी तीनों स्थितिका अनुभव जीव मात्रको अवश्य करनेका ही होता है, अतः तीनोंकी व्याख्या साथमें की और अब पश्चात् की चार स्थितियोंका अनुभव जीव मात्र के लिए वैकल्पिक है। अतः उसका वर्णन बादमें लिया है / Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आयुष्यमीमांसा और उसका सात प्रकार * चार स्थितिमें प्रथम स्थिति ( अपवर्तन) आयुष्यकी कमी हो उसको सूचित करता है / दूसरी स्थिति ( अनपवर्तन ) चाहे कैसे भी प्रतिकूल संयोगोंमें आयुष्य-समय मर्यादाका जरा भी हास न हो उसे सूचित करता है। ____ अब यह कमी किस कारणसे होती है और किससे नहीं होती ? इसके दो कारण बताये हैं। एकका नाम 'उपक्रम' दिया है और दूसरेका नाम 'अनुपक्रम' दिया है। उपक्रम अपवर्तनका कारण है और अनुपक्रम अनपवर्तनका कारण है। इस तरह यहाँ कार्यकारण भावकी व्यवस्था समझना। यहाँ दोनों कारणोंकी व्याख्या भी जणाते हैं। 4. अपवर्तन-लंबे अरसे तक क्रमशः वेदने-भोगने योग्य बंधी आयुष्य स्थिति को, तथाप्रकारके उपद्रवादि अनिष्ट निमित्तो मिलनेसे परावर्तन हो अर्थात् दीर्घ स्थितिको हस्व-अल्पस्थिति करके भोगे वैसे आयुष्यको अपवर्तन जातिका कहा जाए / _ एक सिद्धान्त समझ रखना कि, जन्मान्तरकी बद्धआयुष्य कभी संभवित है; लेकिन उसमें वढावा तीनों कालमें नहीं हो सकता। अर्थात् 100 बरसका आयुष्य बांधकर जन्मा 100 बर्षसे उपरांत, एक घण्टा तो क्या, एक पल भी अधिक नहीं जी सकता, उलटा 100 वरसायुषी पांच वर्षमें या यावत् गर्भमें उत्पन्न होते तुरंत ही मृत्य पा ले यह संभवित है / 5. अनपवर्तन-अपवर्तनसे विपरीत, जन्मान्तरसे प्रस्तुत भवमें भोग्यमान जितना आयुष्य बांधकर आया हो उतना अवश्य भोगता ही है। अर्थात् जिसमें परिस्थितिका जरा भी हास हुए बिना संपूर्णरूपसे भोग सके वह / 6. उपक्रम-आयुष्यका अपवर्तन-फेरफार-हास करनेवाले कारण / 7. अनुपक्रम-उपक्रमसे उलटा अर्थात् आयुष्यका हास करनेवाले कारणोंका अभाव, उसके पर आयुष्य के साथ संबंध रखनेवाली बावतें बताई / आयुष्यकर्म विचारणा अब हम आयुष्य के बारेमें थोडी समीक्षा सोचेंगे। इसमें प्रथम आयुष्य अर्थात् क्या ! जिसके द्वारा जीव विवक्षित किसी भी भवमें, अथवा उस विवक्षित भवके देहमें अमुक काल पर्यंत रह सके उस शक्ति-साधनका नाम आयुष्य अथवा जिससे जीव परभवमें जा सके उसका नाम भी आयुष्य / अपनी देहमें अपनी आत्मा जितना समय रह सके, वह इस आयुष्य शक्तिके वलसे ही। तब यह शक्ति क्या है ! इस प्रश्न उत्तरमें यह आयुष्य कोई दृश्य विद्युतादि शक्ति, पदार्थ या रसायनादि नहीं है, परंतु यह एक Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 176 . .. श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * प्रकारका कर्म ही है। और जैनोंने कर्मवादकी नींव रूप माने स्थूल आठ प्रकारके कर्मों में से यह आठवाँ कर्म है, जिसे 'आयुष्यकर्म' ऐसे नामसे पहचाना जाता है / कर्म हुआ अर्थात् जैनसिद्धांतके अनुसार वे कर्म एक पदार्थरूपसे हैं, जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श रहे हैं, लेकिन अत्यन्त सूक्ष्मभावको पाये होनेसे वे चर्मचक्षुसे दृश्य नहीं होते, लेकिन ज्ञानदृष्टिसे ज्ञानी जरूर देख सकते हैं। पदार्थ हुआ अतः वह पुद्गल-परमाणु के समूहरूप है। इस आयुष्यके पुद्गल जिस आत्माने जिस प्रकार के जितने एकत्र किये हों उस तरह उतना समय यह जीव शरीरमें रह सकता है। इन पुद्गल-परमाणुओंका जीव भोगद्वारा क्षय कर दे कि तुरंत ही, उसी क्षण, आत्मा वर्तमान देहमें से निकलकर अन्य जीवायोनिमें प्रवेश कर देता है और वहाँ उत्पन्न होकर तद्भवयोग्य देहकी रचना करता है / . इससे तात्पर्य यह निकला कि-इस आयुष्यके पुद्गल जीव को अमुक काल या वर्षों तक देहमें टिकानेवाले हैं। यह आयुष्य पुद्गलके समूहरूप है। इसके पर ही जीवन या मरणका आधार होता है / ... इस आयुष्यके पुद्गलोंके साथ कालका भी संबंध है अर्थात् इन पुद्गलोंको जिस जन्मान्तरसे जीव बांधकर लाया वह कितने समयमें भोगनेके होते हैं ? इसके लिए कालका नियमन भी होता है। इससे जीवको भवांतरमें जाना हो तब, पुद्गल और काल दोनोंका क्षय करना पडता है; अतः ही शास्त्रीय शब्दमें आयुष्यके दो भेद करके समझाया है / (1) द्रव्यआयुष्य और (2) कालआयुष्य। 1. द्रव्य अर्थात् पुद्गल तथाप्रकारके कर्म पुद्गलोंके द्वारा जिया जाय वह द्रव्यायुप्य / तेलके बिना दीपक जल नहीं सकता वैसे इस आयुष्य कर्मके पुद्गलोंके बिना आत्मा ( देहमें ) जी ही नहीं सकती। ये पुद्गल वही ही द्रव्यायुष्य / इसकी मददसे ही यथायोग्य काल जीवित रहा जाता है। प्रत्येक आत्मा विवक्षित भवमें जो आयुष्य पुद्गलों का उपभोग करता रहता है उसके लिए एक अटल नियम समझ लेना कि भूतकालके-गतजन्मके बंधे कर्म उदयमें आए भोगते हैं। और वर्तमान जन्ममें बंधे हुए आयुष्य पुद्गल उसके भावि जन्ममें भोगनेके होते हैं। इससे समझना कि आज़ वर्तमानमें जो आयुष्य पुद्गल भोगता होता है, वे पुद्गल जन्मांतरके बन्धे जितने हे उतनोंका संपूर्ण क्षय न हो जाए तब तक जीव कभी भी वर्तमान देहमेंसे छूट सकता। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * द्रव्य और काल मायुष्यकी समज .. * 177 . नहीं। प्रत्येक परमाणु भोगा जाना ही चाहिए। तत्पश्चात् ही जीव की मृत्यु होती है और गत्यन्तरमें आत्मा चली जाती है। यह नियम द्रव्यायुष्यके लिए है / 2. अब दूसरा प्रकार कालायुष्यका है / द्रव्यायुष्यके जैसा इस आयुष्यके लिए नियम नहीं हैं। अर्थात् जितना बांधकर लाया हो उस सारे कालका अनुभव या भोग करना ही पडे अर्थात् उतने बरस तक जीना ही चाहिए ऐसा नहीं है, इसमें विकल्प है इसलिए भोगना पडे अथवा न भी पडे / इस कालायुप्यको जरा विस्तारसे समझ लें / द्रव्य आयुष्यकी मददसे जीव-आत्मा (जघन्य अंतर्मुहूर्तसे लेकर उत्कृष्ट सागरोपम तक ) जी सकता है अथवा उस उस देहमें टिक सकता है। इसीका नाम काल आयुष्य / काल अर्थात् समय / फिर उस समयसे लेकर अंतर्मुहूर्त, घडी, प्रहर, दिवस, मास, वर्ष कुछ भी समझना / - इस कालायुष्यकी व्याख्या द्रव्यायुष्यसे भिन्न है। अर्थात् जीव गतजन्ममें द्रव्यायुण्यके बन्धके समय, कालायुष्यका बन्ध भी एकत्र कर देता है। लेकिन जैसे द्रव्यायुष्यका अपवर्तन होता ही नहीं है और इसलिए उसका पूर्ण क्षय ही करना पड़ता है लेकिन कालायुष्यका संपूर्ण क्षय करना ही पडे ऐसा एकांत नियम नहीं है अर्थात् उसमें अपवर्तन मतलब कि हास मी हो जाए। . उदाहरण स्वरूप गत जन्ममें सौ सालके वर्षके आयुष्यकी मर्यादा निश्चित करके फिर यहाँ वर्तमानकालमें मनुष्य रूपमें जन्मे तो वह जीव सौ साल तक जीएगा ही ऐसा निश्चित न कहा जा सके / बिचमें कोई उपद्रव या अकस्मात आवे तो अंतर्मुहूर्तमें ही मृत्यु पा जाए। और आज बहुत उदाहरण देखते हैं जिसे व्यवहारमें अकाल मृत्यु के रूपमें पहचाना जाता है। इससे मथितार्थ यह निकला कि, द्रव्य आयुष्यमें अपवर्तन नहीं है / वह अनपवर्तनीय है जबकि कालायुष्यमें विकल्प होनेसे वह अपवर्तन तथा अनपवर्तन दोनों प्रकारसे भोगा जाता है / शंका-द्रव्यायुष्य पूर्ण भोगा जाए तो तत्सहचारि कालायुष्य न भोगा जाए ऐसा कैसे बने ? यह बात तो विचित्र लगे ! ..... समाधान-आयुष्यकी स्थिति या लयमें प्रधान कारण आयुष्य कर्मके : पुद्गल ही हैं। पुद्गल ऐसी वस्तु है कि धीरे धीरे भोगी जाए और शीघ्र मी भोगी जाए। इसका "आधार आत्माके मन्द-तीव्र अध्यवसाय पर है / बृ. सं. 23 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 178 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . . ऊपर उदाहरण दिया उसके अनुसार, एक जीव सौ साल तक चल सके उतने आयुष्यके पुद्गल बांधकर अवतरित हुआ और पांच वर्षकी उम्र होने पर किसी उपद्रव या अकस्मातकी वजहसे हार्टफेल हुआ और पाँच वर्षमें ही मृत्यु हुई; तब इस जीवने कालायुष्य पूर्ण न किया, कालके 95 वर्ष पडे रहे, लेकिन इस तरह 95 वर्ष भोग सके इतने पुद्गल उस समय पडे रहते क्या ! हरगिज नहीं। आयुष्यका एक मी पुद्गल या परमाणु शेष रहता ही नहीं, संपूर्ण भोगा ही जाता है, क्योंकि प्रथम ही कह दिया कि ट्रयायुष्यका अपवर्तन अर्थात् फेरफार हो सकता है / .लेकिन एक ख्याल निश्चितरूपसे समझ रखना कि आयुष्यमें हानिका फेरफार शक्य है लेकिन वृद्धिका नहीं / ____ अब कालायुष्यमें कोई उपद्रव या अकस्मात रुकावट न करे तो तो सौ वर्ष पूरा करके ही मृत्यु पाए और उस समय व्यायुष्य सौ वर्ष तक भोगा जाए तथा कालायुष्य भी उतने ही वर्ष तक भोगा जाए, इस कालायुष्यको अनपवर्तन कहा जाए। __शंका-आयुष्यके पुद्गलोंका क्षय हुआ और स्थिति-समयका क्षय न हुआ तो सौ वर्षकी स्थिति तक चले इतने पुद्गलों को जीव पांच वर्षमें, अरे ! अंतर्मुहूर्तमें किस तरह भोग डाले ! : समाधान-ऊपरकी शंकाका समाधान यह कि, जैसे एक दीपमें तेल भरा हो, ज्योति धीरे धीरे जलती हो तो, वह दीपक यथासमय जलना पूर्ण कर दे लेकिन कोई मनुष्य उस दीपककी लौ को अधिक प्रज्वलित करे तो दीपकका जलना शीघ्र पूर्ण हो जाता है तथा तेलका संपूर्ण क्षय हो जाता है। उस समय तेल संपूर्ण उपयोगमें आ जाने पर मी दीपक जल्दी जल गया ऐसा बोलते हैं। और दूसरा दृष्टांत यह कि एक 100 हाथ लम्बी डोरी सीधी सारी रक्खी है। इस डोरी को कोई एक छोर पर जलावे तो वह धीरे धीरे जलती हुई उसके नियमानुसार योग्य समय पर जल जाए, लेकिन उसी 100 हाथकी डोरीको अगर गोल लपेटकर जलाया जाए तो तो बहुत कम समयमें जलकर खत्म हो जाए / ___ ऊपरके दृष्टांतोंके अनुसार आयुप्यमें घटा लेना चाहिए कि- सौ बरसका अनपवर्तनीय आयुष्य बांधकर आया जीव समय समय पर क्रमशः आयुष्यके कर्म पुद्गलोका क्षय 475. यहाँ भिगोई दो धोतीका तथा बंधी और अलग ऐसी घासकी गंजीका भी दृष्टांत घटाया जाता है। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . परभवायुष्यका बंधकाल .. करता जाए और विचमैं उस आयुष्य कर्मको कुछ मी उपक्रम न लगे-अर्थात् अनुपम स्थिति रहे-तो तो पूरे सौ वर्ष पर ही मृत्यु पाए। लेकिन जन्मांतरमें / सालका आयुष्य बांधते समय साथमें ऐसे प्रकारके शिथिल मनोभाव जुडे कि जिससे वह आयुष्य बांधा तो था सौ सालका ही लेकिन शिथिलभावका बांधा, तो वैसे जीवको ( आगे गाथा 337 में जणाये अनुसार ) अलग अलग प्रकारके उपद्रव, आघात, प्रत्याधात लगते कि सौ वर्ष तक चले. ऐसे आयुष्य पुद्गलोंको बडे बडे समूहमें शीघ्र भोगकर क्षय कर डाले, तो थोडे. वर्षों में ही जीवनदीपक बूझ जाए / अरे ! भयंकर कोटिका रोग, अकस्मात, शस्त्रादिकका घात या भय आदि हो. तो अंतर्मुहूर्तमें मी जीवनज्योत खत्म हो जाए, जिसे व्यवहारमें अकाल मृत्यु कहते हैं / इस तरह आयुष्य विषयक भूमिका बताई / [ 326 ] अवतरण-अब इन सातों आयुष्यद्वारोंका क्रमशः विस्तारसे वर्णन करते हैं जिसमें प्रथम बंधकाल जो जीवोंके जितना होता है उसे घटाते हैं। बंधंति देव-नारयअसंखनरतिरि छमाससेसाऊ / ... परभवियाउ सेसा, निरुवक्कमति भागसेसाऊ // 327 // सोवकमाउआ पुण, सेसतिभाये अहव नवमभागे / सत्तावीसहमे वा, अंतर्मुहुत्तं तिमे वा विं // 328 // .... गाथार्थ-( निरुपक्रमायुषी ), देव-नारक, असंख्यवर्षायुषी युगलिक मनुष्य तथा तिर्यच ( अपने चलते भवका) छः माँस. आयुष्य बाकी रहे तब परभवका आयुष्य बांधते हैं / तथा शेष जीवोंमें निरूपनमायुषी निश्चयसे, अपने आयुष्यका शेष तीसरा भाग बाकी हो तब, और जो सोपक्रमायुषी हैं वे अपने आयुष्यके शेष तीसरे भागमें परभवायुष्य बांधते हैं। लेकिन निश्चयसे नहीं। इसीलिए स्वआयुष्यके बाकीके नौवें भागमें. सत्ताईसर्व भागमें, ( इस तरह तीसरे तीसरे भागमें) आखिर स्वआयुष्यके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें मी परभव विषयक आयुष्य जरूर बांधते हैं / // 327-328 // :- विशेषार्थ-गत गाथामें आयुष्यके साथ संबंध रखनेवाली सात वावतें बताई और . 'साथ साथ ग्रन्थान्तरसे आयुष्य विषयक मीमांसा की / अब सात वाक्तोंमें से पहली बाबत 476. यह वचन 'प्रायिक समझना, क्योंकि ठाणांग सूत्र में अध्याय छठेकी "टीकामें छः मास शेष रहने परं आयुष्य न बांधे तो घटाते हुए यावत् अन्तर्महूर्तमें भी बांधे ऐसा कहा है। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.180 . * भी एहतूसंग्रहणीरल-हिन्दी भाषांतर * बंधकालकी है। प्रस्तुत भवके अंदर परभवके आयुष्यका बंध चारों गति से किन जीवोंका किस समय हो ! यह बात यह युग्म-दोनों गाथामें कहते हैं / ... बंधकाल विषयक थोड़ी दूसरी हकीकत समझ लेनी जरूरी है। वह यह कि अभ्यासीको एक सिद्धान्त समझ लेना कि, किसी भी जीवात्माका परभवमें उत्पन्न होनेके भाविस्थानका सर्वागी निर्णय उसके वर्तमानभवमें ही निश्चित होता है। और वह निर्णय होनेके बाद ही वर्तमान देह-चोला छोडता है। जब तक यह निश्चय न हुआ हो तब तक कोई भी शक्ति नहीं है कि इस देहमेंसे निकल सके / क्योंकि जैन सिद्धांत के अनुसार जीव (मुक्ति न हो तब तक ) सूक्ष्म शरीरधारी तो हमेशा रहता ही है, लेकिन स्थूल शरीरधारी भी हमेशा होता है, मात्र तफावत इतना कि एक भवमेंसे दूसरे भवमें जाते उत्पन्न होनेका स्थान सीधा न हो तो ज्यादासे ज्यादा पांच समय स्थूलदेहके बिना रहता है। अन्यथा किसी न किसी गति-योनि योग्य शरीरको पा ही लेता है। और उसे पानेके लिए उसे पूर्वभवमें ही निर्णय करना पड़ता है। शरीर यह तो जीवने कर्मराजासे लिया भाडेका घर है / उसकी मुद्दत पूरी होने पर खाली कर देना है लेकिन उसके पहले पुराना घर बदलकर नये घरमें जाना है, उस घरकी निश्चितता अगाऊसे कर ही लेता है, जिससे एक देह छोडनेके बाद तुरंत ही दूसरी देहमें जीव प्रवेश कर देता हैं। यहाँ जीवोंका बन्धकाल तीन प्रकारका है। 1. छः मास शेष रहे तव, २.अवश्य तीसरा भाग शेष रहे तव और 3. तीसरे त.सरे भागसे / / गाथामें निरुवकम=निरुपक्रम और सोवक्कम-सोपक्रम शब्द प्रयुक्त किया है। उसका अर्थ संक्षिप्तमें गत गाथामें ही आ गया है / विस्तृत अर्थ आगे कहेंगे / यहाँ उसका संक्षिप्त अर्थ ऐसा है कि, निर्गतानि उपक्रमाणि यस्मात्-इति निरुपक्रमम् / जो आयुष्य उपक्रमोंका निमित्त बननेका नहीं है वह निरुपक्रम आयुष्य / जिसे गत गाथामें 'अनपवर्तन' शब्द द्वारा कहा गया है। दोनों एकार्थक वाचक है और उपक्रमैः सह वर्तमानमायु: तत् सोपक्रमम् / अर्थात् उपक्रमोंके आघात-प्रत्याघातका भोग होनेवाला वह। जिसे गत गाथामें 'अपवर्तन' शब्द कहा गया है / कतिपय गति और स्थानो ही ऐसे हैं कि, जहाँ उत्पन्न होनेवाले जीवका आयुष्य निरुपक्रमी अथवा अनपवर्तनीय ही होता है। ऐसे जीव कौनसे ! तो देवगतिमें उत्पन्न होने 477. कुछ धर्मवाले मृत्युके बाद आत्मा आकाशमें ऊँची रहती है, अमुक समय देह रहित रहता है आदि कथन करते हैं, लेकिन वह जनदर्शनसंमत नहीं है / Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आयुष्यका अबाधाकाल और अंतसमयकी व्याल्या. .181 . वाले तमाम प्रकारके देव, नरकगतिमें उत्पन्न होनेवाले नारक और असंख्य वर्षायुषी मनुष्य और तिर्यच समझना। इन जीवोंको चाहे ऐसे उपद्रव या संकट आवे तो भी उनकी अकाल मृत्यु होती ही नहीं / पीडाएँ होनी हों तो भले हों, लेकिन प्राणत्याग तो संपूर्ण आयुष्य पूर्ण होने पर ही होता है / . इन चारों प्रकारके निरुपक्रमी जीवोंके लिए एक ही नियम कि उनके बंधे आयुष्यके छः मास बाकी रहे कि तुरंत ही उसी समय नारकोंके लिए परभवायुष्यका बन्ध करे, फिर मी एक मत ऐसा है कि छः मास उत्कृष्टरूपसे समझना। लेकिन तब बंध न करे तो जघन्य मृत्युके बिच अंतर्मुहूर्त शेष रहे तव मी वह करे / ___दूसरे संख्यात वर्षके आयुष्यवाले एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जो निरुपक्रमायुषवाले हैं, वे अपने आयुष्यका तीसरा भाग शेष रहे तव अवश्य परभवायुष्यका बंध करते हैं / यह निरुपक्रमायुषीका बंधकाल कहा / इनमें सोपक्रमायुषवाले एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपने अपने आयुष्यका तीसरा भाग शेष रहे उस समय परभवके आयुष्यका बंध करते हैं। अथवा नवाँ भाग ( अर्थात् तीसरे भागके त्रिभाग) शेष रहे तब बंध करें, उस वक्त बंध न करें तो फिरसे सत्ताइसवाँ ( अर्थात् त्रिभाग-त्रिभाग-त्रिभाग) भाग शेष रहे तव अवश्य बंध "करें / सत्ताइसवें भागमें बंध न कर सकें तो अंतमें मृत्यु समयके अंतिम अन्तर्मुहूर्तमें तो अवश्य करें ही करें / क्योंकि अब अंतिम बंधसमय वही है / कुछ आचार्य मतांतरसे ऐसा कहते हैं कि सताइसवें भागमें बंध न हो तो फिर अंतिम अन्तर्मुहूर्त समय पर हो ऐसा भी नहीं है, लेकिन सताइसवें भागसे क्रमशः त्रिभागमें बंधकाल होता ही हैं। 478. कोई आचार्य युगलिकके लिए पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग शेष रहे तब परभवायुष्यका बंध मानते हैं / 479. पन्नवणादि सूत्रमें सिर्फ तीसरे, नवें भागमें' परभवायुष्य बांधे ऐसा कहा है, लेकिन उसका अर्थ तो 99 वर्षवाला 33 3 वर्षमें बांधे ऐसा भी हो जाए, लेकिन वह इष्ट नहीं है, अतः तीसरे भागसे नहीं, लेकिन तीसरा भाग शेष रहे, ऐसा समझना यह कथन सर्वको संमत है। 480. सिभत्तिभागे सिअत्तिभागे सिअत्तिभागत्तिभागतिभागे [प्रज्ञापना ] शेष त्रिभागमें अर्थात् 3, 9, 27, 81, 243, 729, 2187 इत्यादि जो अंक तीन तीन गुने हो उस रकमरूप भागकी कल्पना, उसे त्रिभाग कल्पना कहते हैं / 481. देखिए, भगवती श. 14 उ०१. / Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 182 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अब त्रिभागकी घटना सोचे-जिस जीवका आयुष्य 99 बरसका हो, उस जीवको तीसरे भागसे परभवायुष्यका बन्ध पडे तो कव ? तो समझना कि 99 वर्षके दो भाग कम करें तो 66 वर्ष पूरे होने पर या 67 वें वर्षके प्रारंभके दिनोमें किसी भी क्षण बंध पडे / अब उस समय बन्ध न पडा तो शेष 33 वर्ष रहे, उसके नवे भागमें अर्थात् निन्यानबे वर्षमें 3 वर्ष 8 मास शेष रहे तब, परभवायुष्यका बंध पडता है, तब भी न बांधे तो फिरसे 3-8 महीनेमें 27 वें भागसे बांधता है / / - ऊपर परभवायुष्यके कालका जो सिद्धान्त या मर्यादा है, उसे स्थूल और सामान्य कक्षाके लिए जणाई है। सर्वथाके लिए यह नियम न समझना तथा यह अफर है ऐसा. भी न समझना.। [327-328 ] - अवतरण-इस तरह बंधकालके बारेमें कहकर अबाधाकाल और अंतसमय तथा प्रसंगोपात ऋजु तथा वक्रा गति कितने समयकी हो ? उसका स्वरूप भी कहते हैं / ' ‘जहमे भागे बंधो, आउस्स भवे अबाहकालो सो / / 3, अंते उजुगइ इग समय, वक्क चउपचसमयंता // 329 // गाथार्थ-जितने भागसे आयुष्यका बंध हुआ हो वहाँसे लेकर ( उस परभवायुष्य उदयमें न आवे तब तकका) अबाधाकाल कहलाता है। अन्तसमय अर्थात् मरणंसमय, उस अन्तसमयमें [ परभवमें जाते जीवको ] एक समयकी ऋजुगति तथा चार-पांच समयकी वक्रागति होती है / // 329 // . विशेषार्थ-जिन जीवोंने अपने आयुष्यके छः मास शेष रहे अथवा स्वायुष्यके त्रिभागसे-सत्ताइसवें या किसी भी भागमें परभवायुष्यका बंध किया हो, उस परभवायुष्यके बंधकालसे लेकर, जब तक वह बद्ध परभवायुष्य उदयमें न आवे, तब तकका अनुदय अवस्थारूप-अपान्तरालकाल (बिचका काल) उस जीवके आयुष्यका अबाधाकाल कहलाता है। जैसे कि देव-नारक या युगलिक अपने आयुष्यान्तके छः मास शेष रहे तब ही परभवायुष्यका बंध करते हैं। उस बंधकालके बाद छः मास व्यतीत होने पर मरण पानेसे उस बद्धायुष्यका उदय होता है। यहाँ बंधकाल और उदयकालके बिच छः मासका ही स्पष्ट जो अंतर पडा वही, उन जीवोंके लिए अबाधाकाल कहलाता है / . वैसे अन्तिम अन्तर्मुहुर्तका परभवायुष्य बांधे तो उसे अपान्तराल काल अन्तर्मुहूर्तका ही होनेसे उतना अबाधाकाल गिना जाए। ऐसा सर्वत्र समझ लेना। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दोनों गतिमें परभवायुष्यका उदय और आहार कब हो?.। . 183 . अन्तसमय-चालू भवके आयुष्यकी समाप्ति होना, और फिर तुरंत ही परभवायुष्यका उदयमें आना, इसे मृत्यु भी कहा जा सके। . ऋजुवकागति-जीव अन्त समय पर आयुष्य पूर्ण करके परभवमें जाता है,, तब जीवको एक समयकी ऋजुगति तथा चार-पांच समय तककी अर्थात्--एक वक्रा, द्विवक्रा, त्रिवक्रा और चतुर्वक्रा, ये दो-तीन-चार और पांच समयवाली वक्रागतियाँ उदयमें आती हैं / ____अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाणकी अति सूक्ष्म मानवाली संसारी आत्मा तैजस -कार्मण नामके सूक्ष्म शरीरको धारण करके परभवमें उत्पन्न होनेके स्थान पर दो गतिसे पहुँचता है। एक ऋजु और दूसरी वक्रा / ऋजुगति एक ही समयकी है, क्योंकि जीवका मृत्युस्थान और उत्पत्तिस्थान दोनों समश्रेणिसे अथवा समांतर पंक्तिसे व्यवस्थित हो तो, मृत्युसमय वादके एक ही समयमें जीव उत्पन्न हो जाता है। इसे दूसरा समय लगता ही नहीं है। इसीलिए इस गतिका ऋजु यह नाम अन्वर्थक है। ऋजु अर्थात् सरल-सीधी गतिको समश्रेणिसे न हो लेकिन तिर्छ-विदिशामें सीधा न हो तो जीवको ( आकाश प्रदेशकी श्रेणिमें ) काटकोन करके बढना पडता है। आत्माकी गति हमेशा सीधी ही दिशागत होती है किन्तु तिरछी या चाहे उस रीत से जानेकी नहीं होती। वह तो प्रथम सीधी जाकर फिर मुडे तो उसके मोडोंके काटकोन होते रहते हैं। जितने मोड लेने पडे उतने समय रास्तेमें बढते हैं। ऐसे मोड संसारी जीवोंको ( चतुर्विग्रहामें ) ज्यादा से ज्यादा तीन और किसी समय ( पंचविग्रहागतिमें ) चार होते हैं। [329] अवतरण-पूर्वोक्त दोनों गतिके ही विषयमें निश्चय और व्यवहार से परभवा• - युष्यका उदय और परभव विषयक आहार कब हो? उस संबंधों कहते हुए ऋजुगतिमें आहार और उदय तथा वक्रामें मात्र आयुष्यका उदय समय कहते हैं / उज्जुगइ पढम समए, परभवि आउअं तहाऽऽहारो। वक्काए बीअसमए, परभविआउं उदयमेइ // 330 // गाथार्थ-ऋजुगतिके प्रथम समय पर परभवके आयुष्यका उदय तथा प्रथम समयमें ही आहार और वक्रागतिमें द्वितीय समय पर परभवायुष्यका उदय होता हैं / // 330 // विशेषार्थ-गाथा १८८में ऋजु और वक्रागति विषयक ठीक ठीक समझ दी है, फिर मी थोडी अधिक स्पष्टताके साथ कुछ नई समझ मी जाननी जरूरी है।' . Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // चारों गतिभाश्रयी वेद-योनि-कुलकोटी संख्या तथा योनिमेदों और प्रकारोंका यन्त्र // चतुर्गति भेद | वेद योनिसं० कुलकोटी | योनि भेद | योनिस्पर्शत्व नपुंसक | 7 लाख 12 लाख संवत | शीत-उष्ण-शीतोष्ण . AA 7 लाख 3 लाख पृथ्वीकाय अपकाय तेउकाय वायुकाय सावनस्पति बा. प्रत्येक० . उष्ण शीत-उष्ण-शीतोष्ण | 7 लाख 14 लाख २८लाख लाख Naam | दोइन्द्रिय " IN 7 लाख 8 लाख त्रिइन्द्रिय | चउरिन्द्रिय , | 9 लाख . 4 tra . 444 12 // लाख 10 लाख 10 लाख 18 लाख संवृत-विवृत | संमू० जलचर संमू० चतुष्पद संमू० उरपरि० संमू० भुजपरि० संमू० खेचर ग० जलचर ग. चतुष्पद ग० उरपरि० | ग. भुजपरि० ग० खेचर स्त्री-पुं.न तीनों वेद| अ. अ 12|| लाख | 10 लाख | 10 लाख | 9 लाख 12 लाख 4 ख 4 *देव स्त्री०पुं०२/४ लाख | 26 लाख | नपुंसक | , | 25 लाख | * नारक , शीत-उष्ण : मनुष्य ग. मनध्य " तीनों वेद विवृत | शीत-उष्ण-शीतोष्ण १४ला०१२ लाखा विवृत-संवृत " : शीतोष्ण Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .सं. 24 सचित्ताचित्त [मिभ] सचित्त-अचित्त-मिश्र सचित्ताचिंत्त अचित्त सचित्त-अचित्त-सचित्ताचित्त योनिका जीवाजीवपन // ऋजु-वक्रागतिमें परभवायुष्यके उदय समयमें आहारक और अनाहारक समय निर्णयका यन्त्र // गतिनाम अनाहारीपन कितने परभवायुष्य उदय आहारीपन समयकी ? व्यवहारनयसे-निश्चयनयसे | व्यवहारनयसे-निश्चयनयसे | व्यवहारनयसे-निश्चयनयले अनाहारीपन नहीं है . 0 अनाहारीपन नहीं है .1 समय ऋजुगति 1 समयकी प्रथमसमयमें प्रथमसमयमें | प्रथमसमयमें प्रथमसमयमें एकवक्रा द्वितीयसमयमें , पहले-दूसरेसमयपर, दूसरेसमयपर द्विवक्रा पहले-तीसरेसमयपर, तीसरेसमयपर त्रिवत्रा पहले-चौथेसमयपर, चौथेसमयपर | चतुर्वक्रा पहले-पाँचवेंसमयपर, पाँच-समयपर | . * इस विषयकी गाथाओंके पहले यहाँ यन्त्र दिया, वह सुविधाके कारण है / द्वितीयसमयपर 2. दूसरे-तीसरे 3 समय तीसरे चौथे पाँचवें-४ समय / Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 186 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जीव पुनर्जन्म लेने या अपुनर्जन्म (मोक्ष) अवस्था प्राप्त करने जाए तब उसे दो गति द्वारा जाना पडता है। एक ऋजु और दूसरी वक्रा / .... ऋजुगति तो उस शब्दके अर्थसे ही समझी जाती है। वह सरलगति है / मोक्षमें जानेवाला जीव सर्व कर्मसे मुक्त होनेसे उसकी मृत्यु तथा उत्पत्ति दोनों स्थान सीधी - समश्रेणिमें ही होते हैं, जिससे वह मुक्तात्मा एक ही समय पर स्थूल या सूक्ष्म दोनों प्रकारकी देहका त्याग करके सीधी ही, एक ही समयमें प्राप्य स्थानप्रदेश पर पहुँच जाती है, अतः उसे एक ही समयवाली, इष्ट स्थान पर पहुँचानेवाली ऋजुगति ही होती है। लेकिन संसारी जीव तो देहधारी हैं अतः उन्हें ऋजुके उपरांत वक्रागति भी होती है, अतः वक्राके प्रकार, उसका काल, इस अंतराल गतिमें आहारकी व्यवस्था आदि बाबतें यहाँ कही जाती हैं। वक्रागति नाममें ही वक्र शब्द पड़ा है, अतः उसकी व्याख्या भी मुश्किल है / गतगाथामें कहा वैसे जीवको वक्रागतिमें उत्पन्न होना हो तो उसे स्वकर्मोदय मोड अर्थात् मार्गमें काटकोन करके बढना पडता है / ऐसे मोड या काटकोन ज्यादासे ज्यादा चार तक करनेके प्रसंग बनता हैं। उससे एक भी मोड अधिक नहीं होता, चौथा मोड पूर्ण होने पर स्थूल देहधारी बनने परजन्म धारण कर ही लेता है / इससे यह हुआ कि जिस संसारी जीवको 'एकवका गति' से उत्पन्न होनेका निर्माण हो तो एक मोड लेकर उत्पन्न हो जाए। 'द्विवक्रा' वालेको दो मोड-काटकोन करने पडते, 'त्रिचक्रा' वालेको तीन और 'चतुर्वक्रा' वालेको चार मोड होते हैं। इन वक्राओंमें कितना समय जाए ? तो हरेक वक्रामें एक संख्या बढाकर कहना / अर्थात् एकवक्रामें दो समय, द्विवक्रामें तीन, त्रिवक्रामें चार और चारवक्रामें पांच समय मृत्युसे उत्पन्न होनेके विच होते हैं / दो गतिकी जरूरत है क्या ? हाँ / चेतन और जड कहो, अथवा जीव और पुद्गल कहो, ये पदार्थ गतिशील हैं। ये गतिशील पदार्थ स्वाभाविक रूपमें ही निश्चित नियमपूर्वक ही गति करनेवाले हैं, और उसकी स्वाभाविक गति तो आकाशप्रदेशकी समश्रेणिके अनुसार ही होती है (जिस आकाशप्रदेश श्रेणिको हम तो देख ही नहीं सकते।) अर्थात् दिशाओंकी समानान्तर होती है। अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधो इन छ: में से किसी भी दिशामें समश्रेणिमें होती है / लेकिन दिशासे विदिशामें या विदिशामेंसे दिशामें सीधी सीधी नहीं होती। अतः विश्रेणीगमन नहीं होता। लेकिन Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •वकागति किस तरह ? और एक, द्विवक्राकी समज. . 187 . सब जीवोंके लिए समश्रेणी गति संभवित मी नहीं है। इसलिए जो जीव उस कर्मवशवर्ती हैं उन्हें तो विश्रेणीसे मी गति करनी पड़ती है, जिसे हमें वक्रागति कहनी है / तब जैसे मोड आया कि गतिमें एक समयका काल ज्यादा जाएगा ही इसीलिए ऊपर कह आएँ कि एकवक्राको एक समय, दो वक्राको दो समय जाएँ आदि / वक्रागति किस तरह बनती है ? ___ ऊर्ध्वलोककी किसी भी दिशामेंसे अधोलोककी उलटी दिशामें, अधोलोककी दिशामेंसे ऊर्ध्वलोककी विरुद्ध दिशामें अथवा विदिशामेंसे दिशामें या दिशामेंसे विदिशामें किसी भी भागमें उत्पन्न होना हो तो मोड होते हैं और इससे वक्रागति बनती है। एकवक्रा किस तरह ? एक जीव ऊर्ध्वलोकमें पूर्वदिशामें मृत हुआ, उत्पन्न होनेका स्थान अधोलोकमें (उलटी) पश्चिम दिशा में है, तो प्रथम पूर्वमेंसे सीधा मृत्यु प्रदेशकी समश्रेणिसे अधोलोकमें उतरे, वह कहां तक उतरे ? तो अधोलोकमें पश्चिमदिशामें जिस श्रेणि प्रदेश पर उत्पन्न होना है वह श्रेणी पूर्वमें जहाँ तक जाती हो वहाँ तक, यहाँ तक तो सीधा आया। अब यहाँ पूर्वमेंसे मोड लेकर, सीधी ही श्रेणीसे पश्चिमदिशामें उत्पत्ति स्थानमें पहुँच जाता है / यहाँ ऊपरसे नीचे पश्चिमदिशाके उत्पत्ति स्थानका अनुसंधान करनेवाली श्रेणी ( अथवा समश्रेणी सतह ) स्थान पर आया उसका एक समय और वहाँसे मोड लेकर उत्पत्ति स्थान पर पहुँचा वह दूसरा समय / इस प्रकार दो समयवाली 'एकविग्रहा' वक्रा बनती है। द्विवक्रा किस तरह ? यह गति तीन समयकी है / एक जीव त्रसनाडी गत ऊर्ध्वलोककी विदिशा-अमि कोनेमें मर गया, उसे उत्पन्न होनेका स्थान अधोलोककी विदिशा-वायव्य कोनेमें है। अतः विदिशामेंसे मृत्यु पाकर विदिशामें ही उत्पन्न होना है। जीव समश्रेणीमें ही गति करनेवाला है। इस सिद्धान्तके अनुसार, अमि कोनेमें जो श्रेणि ऊपर है उसी श्रेणिके प्रदेशोंकी लाइनको स्पर्श करता हुआ सीधा पूर्व दिशामें प्रथम समयमें आ गया। दूसरे समयमें मोड लेकर पूर्वमें से सीधा ही नीचे अधोलोककी पश्चिम दिशामें, अग्नि दिशाके उत्पत्तिस्थानकी जो श्रेणी है उसी श्रेणी पर आया और वहाँसे तीसरे समय मोड-काटकोन, होकर वसनाडीकी ही अमिदिशाके उत्पत्तिस्थानमें पहुँच गया। इस तरह अमिसे पूर्वमें एक समय. पूर्वसे पश्चिममें नीचे उतरने पर एक वक्रा होने पर दूसरा समय हुआ और पश्चिम Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 18 . .श्री रहदसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . से अमिमें जाने पर दूसरा मोड और तीसरा समय हुआ। इस तरह तीन समयकी द्विवक्रा गति समझना। . सनाडीवर्ती जो त्रस जीव मरकर पुनः त्रस होनेवाले हैं उन जीवोंको वक्रामें एक वक्रा और द्विवका ये दो गतियाँ ही होती हैं। बादकी दो वक्रा होती ही नहीं, क्योंकि त्रसनाडीमें मरे और पुनः त्रसनाडीमें जन्म लेनेवाले त्रस जीवोंमें अधिक वक्रामोड करनेके होते ही नहीं अतः उन्हें ऋजुगति तो है ही। जो स्थावर जीव हैं, जो मरकर पुनः स्थावर होनेवाले हों उनके ऋजुगतिके उपरांत चारों वक्रागति होती हैं। उन्हें तमाम गतियाँ प्राप्त होती हैं। इन स्थावरोंके त्रिवक्रा और चतुर्वक्रा दो अधिक कहीं तो कैसे ? त्रिवक्रा किस तरह ? ___स्थावर जीव तो चौदह राजलोकमें सर्वत्र ठांस ठांस कर व्याप्त भरे हैं। वह त्रसनाडीमें भी है और त्रसनाडीके बाहर भी है। जब त्रस जीव तो मात्र विचकी त्रसनाडीके स्थानमें ही होते हैं। इसलिए स्थावरोंका क्षेत्र सर्वव्यापक है। . किसी स्थावरजीवकी सूक्ष्मदेहधारी आत्मा, बाई वाजूकी त्रसनाडीके बाहर अधोलोककी विदिशामें मर गयी है। और उसे उत्पन्न होना है त्रसनाडीकी दाहिनी बाजू पर ऊर्ध्वलोककी दिशामें, तब वह प्रथम तो बसनाडीके बाहर प्रथम समय पर विदिशामें से दिशामें चलती है, दूसरे समय पर (प्रथम काटकोन करके) दाहिनी बाजूसे त्रसनाडीके अंदर दाखिल होती है, तीसरे समय पर (दूसरा काटकोन करके) सनाडीके अंदर ही ऊँची जाती है और चौथे समय पर सीधी ही-तीसरे समयमें जहाँ थी वहींसे-उसी श्रेणीसे (बाई बाजू पर) त्रसनाडीके बाहर निकलकर उत्पत्तिस्थानमें जाकर खडी रहे / इस तरह अधोलोककी दिशामें से ऊर्ध्वलोककी विदिशामें जाना हो अथवा ऊर्ध्वमेंसे अधोमें आना हो तो यही क्रम समझ लेना / इस तरह दिशामें से विदिशामें या विदिशामें से दिशामें जानेके लिए स्थावरोंकी चार समयकी त्रिवका कही। चतुर्वक्रा किस तरह ? त्रिवक्रामें दिशा-विदिशाकी बात थी। इसमें इतनी अधिक कि यह गति विदिशामें से (दिशा नहीं लेकिन ) विदिशामें ही उत्पन्न होनेवाले के लिए होती है। ऊपर विदिशामेंसे ऊर्ध्वलोकमें त्रसनाडीके बाहर दिशामें जाकर अटका था। यहाँ त्रसनाडीके बाहर विदिशामें जानेका एक स्टेशन बढा, अतः दिशामेंसे फिरसे विदिशाके उत्पत्ति स्टेशन पर Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऋजु और वकागतिमें मायुष्योदय और आहार कब?. .189. - - पहुँचता है अतः वहाँ एक मोड बढे और एक समय मी बढे। इस तरह "पांच समयको चतुर्वका गति हुई। इस तरह वक्रागतिका स्वरुप कहा। ___ अब मूल गाथाका अर्थ कहा जाता है। यह गाथा निश्चयनय से और व्यवहारनय से (अथवा सूक्ष्मदृष्टि या स्थूलदृष्टि) इस गतिमें परभवके आयुष्यका ! उदय और आहार कब होता है यह बताते हैं। ऋजुगतिमें तो जो संसारी जीव हैं उनके लिए तो प्रथम समय पर ही आयुष्योदय और प्रथमसमय पर ही आहार कहा / अतः इन दोनों बातोंमें एक भी समयका अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि समयांतर हो तो आहार लेना पडे लेकिन इस गतिचालेको तो एक ही समयमें उत्पन्न होनेका अर्थात् जिस समय मृत्यु हो उसके दूसरे ही समय पर उत्पन्न हो जाए। साथ ही पूर्वभवके शरीर द्वारा अंतिम समय पर आहार ग्रहण किया है और उसके बादके समय पर ही उत्पन्न होते ही वहाँ उत्पत्तिस्थानमें योग्य आहार कर लेता है। अर्थात् इस गतिवाले संसारी जीव सदा आहारी ही होते हैं / यह वात व्यवहारनयसे घटित है / निश्चयनयसे अर्थात् अधिक सूक्ष्मता और चौकसाईसे सोचे तो परभवके प्रथम समयमें ही पूर्वशरीरका परिशाट-त्याग होता है। जिस समय पर सर्वात्मप्रदेशों द्वारा पूर्व शरीरका परित्याग हो उसी समय जीवकी परभव गति होती है और उसी आद्य क्षणों परभव के आयुष्यका उदय होता है। अतः शरीरान्त और नूतन शरीर प्राप्तिका कार्य उसी समय युगपत् होता है। ... चक्रागतिमें आयुष्य उदय और आहार कब ? . ऋजुगतिकी बात की, अब वक्रगतिमें जाते जीवको परभवायुष्यका उदय कब हो ? तो द्वितीय समयमें होता है ऐसा गाथाकार कहते हैं। . परंतु यह कथन स्थूल व्यवहारनयसे है अर्थात् इस नयसे कथन करनेवाले पूर्व भवके अन्तसमयको ( अभी शरीर त्यागका जो एक समय बाकी है, जो वक्रामें गया नहीं है तो भी ) वक्रागतिका प्रारंभ हो गया होनेसे और वक्रागतिके परिणामाभिमुख हुआ होनेसे उस अन्तसमयको ही कुछ लोग व्यवहारसे वक्रगतिका आदि समय मान लेते हैं और इसीलिए उनके मतसे भवान्तरके आद्य समय पर अर्थात् [ पूर्वभवके अन्त समयकी ___482. यह पांच समयवाली वक्रा बहुत अल्प जीवाश्रित होनेसे बहुत स्थल पर उसकी विवक्षा नहीं की जाती। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .1900 * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अपेक्षासे ] वक्रागतिके दूसरे समयमें [ वस्तुतः प्रथम समय है ] परभवायुष्यका उदय है ऐसा जो कहते हैं उसे वे व्यवहारनयसे-स्थूलदृष्टि से कहते हैं, परंतु उसे वास्तविक सूक्ष्मदृष्टिस्वरूप निश्चयनयसे नहीं कहते / . निश्चयनयसे सोंचे तो वक्राके प्रथम समय पर ही परभवायुप्यका उदय कहा जाए .. क्योंकि चालू जन्मके अन्तिम समयको कहीं वक्राका प्रथम समय नहीं कहा जाएगा / [ बाकी व्यवहार निश्चयवाले दोनोंका परभवायुष्यका उदय कथनका समय तो जो है वही आता है / विवक्षा मात्र ही समझनी है / ] - आत्मा अन्तसमयमें गतिके सम्मुख बनती है / अभी पूर्वभवके अन्तसमयमें रही होनेसे वहाँ शरीरके प्रदेशोंका संघात (ग्रहण) परिशाट (त्याग) चालू है, जिसके कारण यह अन्त समय निश्चयसे अभी पूर्वभवका ही है लेकिन परभवका नहीं, क्योंकि अभी पूर्वभवका शरीर अन्तसमय पर भी विद्यमान है, इस शरीरका सर्वथा त्याग न हो तब तक अपांतरालगतिका उदय ही कहाँसे होनेवाला था ! अतः देहत्याग तो प्रस्तुत भवके अन्तिम समयान्त पर और आगामी भवके ( या वक्राके ) स्पष्ट प्रथम समयमें ही होता है। साथ ही पूर्वशरीरका, पुद्गलोंका संघात या परिशाट नहीं होता, उसी समय आयुप्यके साथ गति मी उदयमें आती है, अतः परभवके आयुष्यका उदय वक्रागतिमें निश्चयनयसे आद्यक्षणमें ही गिना जाता है / [330] अवतरण-गत गाथामें वक्रामें आयुष्योदय कहा लेकिन आहार समय नहीं कहा था अतः इस गाथामें अधिक समयवाली वक्रागतिमें जीव कितना समय आहारी या अनाहारी हो ! ये दोनों बातें नयाश्रयी कहते हैं / इगदुतिचउवक्कासु, दुगाइसमएसु परभवाहारो। दुगवक्काइसु समया, इग दो तिनि अ अणाहारा // 331 // गाथार्थ-एक, दो, तीन और चार समयकी वक्रागतिमें द्वितीयादि समयोंमें परभवका आहार जानें, अर्थात् अनुक्रमसे द्विवक्रागतिमें एक समय, त्रिवक्रागतिमें दो समय और चतुर्वक्रागतिमें तीन समय अनाहारक होते हैं / // 331 // विशेषार्थ-गत गाथामें वक्राका स्वरुप कहा था। अब इस गाथामें वक्रागतिमें ही व्यवहार और निश्चय दोनों नय दृष्टिसे आहार और अनाहारकका समय कहते हैं। व्यवहारनयकी दृष्टिसे हरेक वक्रामें जीव पहले समय और अंतिम समयमें आहारक ही होता है। तात्पर्य यह निकला कि, दो से अधिक समयवाली वक्रामें ही यथायोग्य अनाहारपन मिलता है। यहाँ प्रथम एक वक्राका विचार करें तो वह दो ही समयकी HUDHHHEL Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वकागतिमें जीव कितने समय माहारी या अनाहारी होते है? . . 191 . है, अतः व्यवहारनयमें उसके दोनों समय आहारक ही होते हैं। एक मी समय अनाहारक नहीं होता, क्योंकि जब शरीर छोडता है उसी समयमें औदारिकादि पुद्गलोंका लोमाहार करके शरीर छोडकर प्रथम समयमें एक वक्रामें दाखिल हुआ और उसी वक्राके दूसरे समय पर तो उत्पत्ति प्रदेशमें पहुँच मी गया। जिस समय पर पहुँचा उसी समय पर कार्मण काययोग द्वारा तद्भवयोग्य ओजाहार स्वरुप परमाणुओंका आहार ग्रहण करता है। इसलिए एक वक्रामें दोनों समयोंको व्यवहारनयसे आहारी समझना / तीन समयकी द्विवकागतिमें एक वक्रागतिवत् व्यवहारनयसे प्रथम समय आहारी, दूसरा समय अनाहारी और तीसरा समय [ परभव विषयक ] आहारी। कुल 2 ( दो ) समय आहारक और एक समय अनाहारकपनेके समझना / त्रिवकागतिके चार समयमेंसे व्यवहारनयसे पूर्ववत् पहला [प्रस्तुत भवाश्रयी] और अंतिम [परभवाश्रयी ] चौथा समय आहारी और दूसरा-तीसरा ये दो मध्यके समय अनाहारी / अर्थात् यहाँ दो समय आहारक तथा दो समय अनाहारक / चतुर्वक्रागतिके पांच समयमेंसे व्यवहारनयसे आदि और अंतिम इन दो समयको आहारी और विचके तीन समयको अनाहारक जानें। - इस व्यवहारनयाश्रयी कथनमें विचके समय अनाहारक और पहले, अंतिम समय आहारक हैं। अव निश्चयनयकी अपेक्षासे जणाते है। ऊपरका सारा कथन व्यवहारनयसे गाथानुसार कहा, लेकिन निश्चयनयसे सोचे तो [ एकवकागतिमें व्यवहारनयसे दोनों समय आहारी जनाने पर भी] एक समय निराहारी मिलेगा, क्योंकि जीव पूर्व देहमेंसे छूटा तव उस परभवके प्रथम समयमें पूर्व शरीरके साथ जीवका सम्बन्ध रहा न होनेसे और ग्रहण करनेके परभवके शरीरकी अभी प्राप्ति हुई न होनेसे उस समय आहार नहीं लेता और दूसरे समय अपना उत्पत्तिस्थान पाकर आहार करता है इसलिए एक वक्रागतिमें भी एक समय अनाहारी है। 483. इस पंच समयवाली वक्रागति जीवको क्वचित् संभवित है, क्योंकि मूलसूत्रमें चार समयवाली गति तकका उल्लेख है, परंतु भगवती, स्थानांग वृत्तिकार वक्रगतिमें अनाहारककी चिंता-प्रसंगमें "एको द्वौ वाऽनाहारकः' कहकर एक समय, दो समय अनाहारकपन बताते हैं और 'वा' शब्द ग्रहणसे तीन समय भी अनाहारक गिनते हैं / यहाँ परभव जाते जीवको बेलकी नथके अनुसार इष्टस्थल पर पहुँचानेमें उदयमें आता आनुपूर्वीका उदय उत्कृष्ट चार समयका कहा है और उस चार समयका उदय सहचारी यांच समयकी वक्रागतिसे जाए तो ही संभवित है, अतः विरोध न समझना / Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 192. .. श्री गृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * तत्पश्चात् द्विवक्रामें निश्चयनयसे ऊपर अनुसार दो समय अनाहारी, त्रिवक्रामें तीन समय अनाहारक और चतुर्वक्रामें चार समय अनाहारी होते हैं, क्योंकि सर्व वक्रागतिमें अंतिम एक समय आहार सहित होता है। - यहाँ निश्चयनयाश्रयी अंतिम समय आहारक तथा शेष. अनाहारक हैं अता, व्यवहारनयमें उत्कृष्टसे तीन समय और निश्चयनयमें उत्कृष्टसे चार समय अनाहारकरुप. समझना / // 331 // . अवतरण-अब चौथा अपवर्तन किसे कहा जाए और आयुष्यमें वह क्या कार्य करता है, यह कहते हैं। बहुंकालवेअणिज्ज, कम्म अप्पेण जमिह कालेण / वेइज्जइ जुगवं चिअ, उइन्नसव्वप्पएसग्गं // 332 // अपवत्तणिज्जमेयं आउं, अहवा असेसकम्म पि / बंधसमए वि बद्धं, सिढिलं चिअ तं जहा जोग्गं // 333 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 332-333 // विशेषार्थ-इस विश्वमें तिर्यच या मनुष्य बहुत लंबे काल तक वेदी-भोगा जा सके ऐसे दीर्घ स्थितिवाले आयुष्यकर्मको या उसके दलिकों (प्रदेश-परमाणुओं) को भी अपवर्तना नामके एक करण (प्रयत्न) से, भविष्यमें क्रमशः उदयमें आनेवाले सत्तागत रहे आयुष्य पुद्गलोंको एक साथ ही उदयमें लाकर अल्पकालके अंदर ही वेद-भोग डालें, अर्थात् अनुभव करके क्षीण कर देते हैं / इसलिए सौ साल तक जी सकनेवाला अंतमुहूर्तमें भी प्राणत्याग कर सकता है / इस प्रकारके मूलस्थितिमेंसे परावर्तन पानेवाले आयुष्यको अपवर्तनीय आयुष्य कहा जाता है। गत भवमें वंधकालमें मन्द अध्यवसाय आनेसे प्रस्तुत आयुष्य शिथिल बंधसे बांधा था / किसी समय प्रतिकूल उपक्रमादि निमित्त मिलते ही दीर्घकालीन स्थितिमें धक्का लगनेसे अनुदित आयुष्य प्रदेश 'आत्मप्रयत्नसे सतह पर आ जाएँ और उसे जीव भारी वेगसे शीघ्र भोग डाले और भोगै" पूरा होने पर शरीरसे आत्मा अलग होकर गत्यन्तरमें जन्म लेने चली जाती है / 484. यहाँ अर्थान्वयके अनुसार शब्दक्रम रक्खा है / 485. यहाँ बंधकालकी स्थितिसे भोगकालकी स्थिति बहुत कम होती है / सामान्य कालसे युद्धकालमें भयंकर रोगका तांडव. चलता हो तब, आश्चर्यजनक अकालमृत्युकी जो घटनाएँ बनती हैं, वे प्रायः अपवर्तनीय प्रकारके आयुष्यके कारण हैं / : Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... * भायुष्यमें मपवर्तनका कार्य * * अमर कोई शंका करे कि दीर्घ स्थितिको संक्षिप्त करनेका विचित्र परावर्तन इस एक ही कर्ममें बनता है या दूसरेमें भी होता है ! तो यह अपवर्तनाकरण हरेक कर्ममें होता है। और समस्त प्राणियोंमें ऐसे परावर्तन बनते ही रहते हैं, और दीर्घकाल भोग्य कर्मोंका हास करके स्वल्पकाल भोग्य बना देते हैं। शंका-विद्यार्थी, आयुष्य कर्मादिककी अपवर्तनीय घटना जानकर कहता है कि आपका यह कथन यथार्थ नहीं है क्योंकि इससे तो 'कृतनाश' और 'अकृतागम' नामका दोष खड़ा होता हैं, जबकि शास्त्रवचन तो निर्दोष होना चाहिए। - तब प्रथम तो यह दोष क्या है ? यह समझ लें, सैद्धान्तिक और दार्शनिक ग्रन्थों में ऐसे दोषका निरूपण आता है। उसका अर्थ यह हैं कि, जो कार्य हो वह स्वयोग्य फल दिये बिना ही अगर नष्ट हो जाए तो कृतनाश (कियेका नाश) दोष कहलाए / और जो कार्य किया ही नहीं है, फिर भी उस कार्यका जो फल हो उसे भोगने का बने, यह 'अकृतागम' (नहीं कियेका आगमन) दोष कहलाता है। अर्थात् कारण होनेसे कार्यनाश. और कारणके अभावमें कार्योत्पत्ति / उक्त दोषको घटाते हुए वे कहते हैं कि, गतजन्ममें आयुण्यकर्म जितनी स्थितिका बांधा हो, उतनी स्थितिका भोगा जाना ही चाहिए लेकिन अपवर्तनमें तो हास होता होनेसे क्रमशः पूर्णकाल जितना भोगा नहीं जाता, अतः ‘कृतनाश' बनता है। और अपवर्तनमें दीर्घकालीन कर्म पुद्गलोंको स्वल्पकालमें ही भोग लेनेकी क्रिया होती है लेकिन उतने अल्पकालका तो वह कर्म नहीं बांधा, तो फिर उस तरह कैसे क्रिया संभवित हो सके ! इससे * अकृतागम' होता है। समाधान-इसका समाधान ऊपर आ गया है, फिर भी ग्रन्थकारका ही जवाब समझ लें / वे 328 वीं गाथाके उत्तरार्धमें 'बंधसमएऽवि बद्धं सिढिलं' यह जवाब देकर उक्त दोषका इन्कार करते हैं। इसका अर्थ यह है कि गत जन्ममें आयुष्य बांधा तब . उसके परिणाम ही मन्द कोटिके थे। अतः ग्रहण किए गए आयुष्य पुद्गल मजबूत रूपसे जत्थावंद ग्रहण नहीं हुए जिससे वे निर्बल रहे और इस लिए प्रवल प्रयत्नसे मेव बन गये। इस लिए आयुष्यकर्मबंध शिथिल ही बांधा गया था, ऐसे शिथिल बंध पर देश-काल अर्थात् किसी क्षेत्र या किसी कालकी अपेक्षा पाकर, स्नेह भयादि जन्य अध्यवसायादि उपक्रम लगे इसलिए आयुष्यकी अवश्य अपवर्तना हो सकती है। इससे हुआ क्या कृ. सं. 25 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 194 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * कि नये जन्ममें एकाएक शिथिलबन्ध नहीं हुआ है, गतजन्ममें ही उसका कारण कार्य भाव हो गया है इतना उक्त दोनों दोषका असंभव है / / __" अपवर्तन और अनपवर्तनमें तफावत अगाऊ बताया है फिर भी पुनः दृष्टांतसे सोचे तो समान भिगोई गई दो धोतीमेंसे एकको बराबर खुली करके सुखाई और दूसरीको सिमटी हुई भीगी रख दी। खुली की हुई जल्दी सूख जाती है और सिमटी हुई विलंबसे सूखती है। यहाँ जलका प्रमाण दोनोंमें समान है। शोषण "क्रिया सम ही-समान परिस्थितिमें ही चलता है फिर भी समयमें न्यूनाधिकपन कैसे हुआ ? तो वस्त्र विस्तार और संकोचके तफावतके कारण ही। यहाँ जीव आयुष्यकर्मके पुद्गलोंको,. अपवर्तन या अनपवर्तनमें समान ही भोगते हैं। ( समान प्रमाण हो वहाँ) मात्र अपवर्तनमें आत्मा एक साथ भोगकर क्षय करते है और अनपवर्तनमें क्रमशः भोगा 'जाता है। यह अपवर्तनीय आयुष्य सोपक्रमी ही होता है अर्थात् इस आयुष्यका क्षय बाह्य उपक्रमों के निमित्तसे ही होता है। जब कि अनपवर्तनीयमें उपक्रम नहीं आते ऐसा नहीं है। आवे भी सही, लेकिन वहाँ वे उपक्रम अपना कुछ भी बता नहीं सकते। जो बात. आनेवाली गाथामें ही कहते हैं। [332-333 ] अवतरण-अब पांचवें अनपवर्तन आयुष्यकी व्याख्या कहते हैं। जं पुण गाढ निकायणबंधेणं पुव्वमेव किल बद्धं / तं होइ अणपवत्तण जोग्ग कमवेअणिजफलं // 334 // गाथार्थ-विशेषार्थ के अनुसार / // 334 / / / विशेषार्थ-शिथिल बंधवाले अपवर्तनीय आयुष्यकी बात कही, अब गाढ बंधवाले और इसी कारण अनपवर्तनीय कहे जाते आयुष्यकी बात करते हैं। इस जीवको गत जन्ममें आयुष्यके बन्धकालमें तथाप्रकारके तीव्रकोटिके परिणाम आ जाए तो उस समय जन्मान्तरके लिए ग्रहण किए जाते आयुष्यके पुद्गल बडे प्रमाणमें और मजबूत जत्थेमें पिंडित करके ग्रहण करता है अतः इस आयुष्यका बन्ध बहुत ही गाढ-मजबूत पडता है, जिसे निकाचित-निरूपक्रमी और इस गाथाके शब्दानुसार अनपवर्तनीय बन्ध कहा जाता है / ऐसे आयुष्यको कोई उपक्रम ही नहीं लगता, लगे तो आयुष्य स्थितिके एक समय जितना भी हास करने शक्तिमान नहीं बनता, ऐसा आयुष्य जीवका जन्मान्तरमें उदय आवे तब क्रमशः ही भोगा 486. बिजलीके चूल्हे और देशी चूल्हे. पर समान प्रमाण पानीकी शोषण क्रियाफा दृष्टांत भी घटाया जा सकता है। इसके बारेमें तो अनेक दृष्टांत मिलेंगे / Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयुवाला जीवोंकी समज . * 1950 . जाता है, अर्थात् जितने वर्षका बंधा हो उतने वर्ष तक पूरा पूरा भोगकर सर्वायुष्यदलिकोंका क्षय करके बादमें ही मृत्यु पाता है। ___ इसमें 48 अपवर्तनको कोई स्थान नहीं है। इस आयुष्यका भोगकाल, बंधकालकी स्थितिमें हास नहीं करता। ___ यहाँ पाठकोंको ख्यालमें रखना कि शुभ कर्मके अच्छे परिणामका तीव्र आनंद होता है और वैसे कर्मका अनपवर्तनीय बंध पडे तो उसकी हरकत नहीं लेकिन अशुभ कर्म करते उसके तीव्र परिणाम, खोटी मस्ती और उच्छृखल आनंद आ गया तो उस कर्मका गाढ बंध पडेगा और उसके उदयके समय जीवको उसके तीव्र कटु फल अवश्य भोगने पडेंगे, जो रोने पर भी नहीं छूटेंगे, अतः अशुभ, पाप, हिंसा, क्रोध, मान, माया, लोभ और विषय वासनाओंकी अनिष्ट-विकारी प्रवृत्तियाँ करनी पडती हों तो भी उस समय उनमें तल्लीन नहीं बनना, संसारी प्रवृत्तियोंका सर्व व्यवहार अनासक्तपनसे करना / अपवर्तनमें तीव्र आरंभ समारंभकी प्रवृत्तिसे किसी अशुभ गतिका आयुष्य निकाचितपनसे बंध गया, और फिर आप चाहे वैसी निष्पाप प्रवृत्ति करें, सुकृतके कार्यों करें लेकिन निकाचित बना आयुष्य एक बार तो दुर्गतिमें घसीदे बिना नहीं रहता जिसके लिए श्रेणिक आदिके उदाहरण प्रसिद्ध हैं। श्रेणिकको गर्भवती मृगीके शिकारकी क्रूर हिंसक प्रवृत्ति करनेसे जिस समय आयु. प्यका बंधकाल आया तव नरकायुष्यका निकाचित बंध गिरा दिया और उसके बाद खुद तरण-तारणहार, भुवनगुरु, अहिंसा और क्षमामूर्ति भगवान महावीरका महापुण्ययोग हुआ, जिसके कारण तीर्थकर नामकर्म भी बांधा, लेकिन मरकर उसे नरकमें तो जाना ही पड़ा। हमारा भी बन्धकाल कब आ जाएगा उस क्षणका ज्ञान नहीं है, अतः सद्गतिके अभिलाषीको हमेशा शुभभाव, यावत् शुद्धभावमें तन्मय रहना / [334] . 487. यहाँ एक आपवादिक बाबत शास्त्रमें नजर आती है वह भी कहनी चाहिए / विशेषार्थमें कहा कि अनपवर्तनीय आयुष्य हो उसका कभी हास नहीं होता / लेकिन एक उल्लेख ऐसा मिलता है कि “अकर्मभूमिके तीन पल्योपमायुषी युगलिक तिर्यच-मनुष्य अंतर्मुहूर्तकाल प्रमाण आयुष्यको छोडकर शेष अन्तर्मु० न्यून तीन पल्योपम आयुष्यकी अपवर्तना-हास करते हैं / " जिससे शंका हो कि इस तरह होनेसे तो सिद्धान्तभंग होता है। अगर अनपवर्तन हो तो उस आयुष्यको निरुपक्रम या निकाचित कैसे कहा जाए? निकाचित हो तो वैसे बनना ही न चाहिए। इसका समाधान संक्षिप्तमें यही कि आयुष्यके निकाचित बंध योग्य अध्यवसायमें प्रत्येक स्थितिके अनुक्रमसे असंख्यगुण असंख्यगुना है / इससे यह आयुष्य एक समान ही नहीं लेकिन असंख्य भेदवाला है अतः कोई कोई आयुष्य अपवर्तनाको भी पा सकता है। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 196 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . अवतरण-यहाँ अपवर्तनीय जीव कौन और अनपवर्तनीय आयुष्यवाले कौन इसे कहते हैं। उत्तम-चरमसरीरा, सुरनेरइया असंखनरतिरिआ / हुति निरूवकमाऊ, दुहा वि सेसा मुणेअव्वा // 335 // गाथार्थ- विशेषार्थवत् / // 335 // . विशेषार्थ-उत्तम शब्दसे मनुष्य जातिमें उत्तम प्रधान गिने जाते पुरुषोंको लेने होनेसे, हरेक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकालमें अनादि नियमानुसार होनेवाले बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव प्रतिवासुदेव, नव बलदेव और 'चरमशरीरी' अर्थात् जिसे शरीर धारण 'चरम' कहते अंतिम ही है, फिरसे उसे सूक्ष्म या स्थूल एक भी देह धारण करनी ही नहीं रही अर्थात् उसी भवमें जो मोक्षमें जानेवाले हैं वैसी आत्माएँ, जिसमें तीर्थकर, गणधर, केवली आदिका समावेश होता है, इसके उपरांत देव गतिके सर्व देव, नौरंक, असंख्य वर्षके आयुष्यवाले युगलिक मनुष्य-तिर्यच ये सब अनपवर्तनीय आयुष्यवाले हैं। शेष सर्व मनुष्य-तियेच जीव दोनों प्रकारके ( अथवा तीनों प्रकारके) अर्थात् निरुपक्रम अनपवर्तनीय, सोक्रेम अपवर्तनीय (और सोपक्रम अनपर्तनीय) आयुष्यवाले जाने / [335] अवतरण-अब अपवर्तनीय और अनपवर्तनीयका हेतुभूत. उपक्रम तथा अनुपक्रम ( अथवा निरुपक्रम ) प्रकार और उसकी व्याख्याको कहते हैं। . जेणाउमुक्कमिज्जइ, अप्पसमुत्थेण इयरगेणावि / सो अन्झवसाणाई, उवक्कमोऽणुवकमो इयरो // 336 // 488. कोई प्रतिवासुदेवका शलाकापुरुषमें ग्रहण नहीं करता, कोई उत्तम शब्दसे तीर्थकर, गणधर, वासुदेव, बलदेव ग्रहण करता है / 489. लोकप्रकाश सर्ग 3, श्लो० 90, चरम शरीरी तथा शलाका पुरुष इस तरह अलग अलग उल्लेख किया है / 490. तत्त्वार्थ हवृत्तिमें देवो, तीर्थकरों तथा नारकोंको ही निरुपक्रमायुषी कहते हैं / शेषको सोपक्रमी और निरुपक्रमी दोनों कहते हैं। इससे उक्त युगलिक सोपक्रमी हो जाते हैं, लेकिन यह बहुधा इष्ट नहीं है / साथ ही कोई तो देव और असं० युगलिकको अनपवर्तनीय निरुपक्रमी कहते हैं, जबकि चरमशरीरीको अलग करके उसे सोप० निरुप० अनपवर्तनीय आयुषी कहते हैं और शेषको उपरोक्तवत् कहते हैं / [जिसका प्रतिघोष कर्मप्रकृति ‘अद्धाजोगुकोसं' गाथाकी टीकामें भी पडा है / ] 491. जो अकाल मृत्यु होती है उसे कालायुष्यसे जानें, क्योंकि प्रदेशायुष्य तो संपूर्ण भोगना ही पड़ता है / Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उपक्रम, अनुपक्रमका प्रकार और उसकी व्याख्या. गाथार्थ-अपनी आत्मासे समुत्पन्न हुए आन्तरिक जो अध्यवसायादि हेतु विशेषसे अथवा इतर अर्थात् दूसरे विष-अग्नि-शस्त्रादिकके बाह्य जिन निमित्तोंसे आयुष्य उपक्रम पाए-अर्थात् दीर्घकाल पर वेदने योग्य आयुष्य स्वरूप कालमें वेद कर पूर्ण किया जा सके वैसा व्यवस्थित कर दे वह अपवर्तन हेतुभूत उपक्रम कहलाता और दूसरा उससे - विपरीत अनुपक्रम ( अथवा निरुपक्रम ) जानें / // 336 // विशेषार्थ-उपक्रम-अनुपक्रमकी ब्याख्या अगाऊ से ही विशेषार्थमें बता दी है / लेकिन यहाँ तो ग्रन्थकार स्वयं ही उपक्रम किसे कहा जाए, इसे गाथाके पूर्वार्धमें दोनों प्रकारके हेतु प्रस्तुत करके समझाते हैं / उस हेतुका उत्तरार्धमें उल्लेख भी किया है और साथ साथ उपक्रमसे विपरीत अर्थात् जिसमें उपक्रमका अभाव है वह अनुपक्रम या निरुपक्रम है यह भी बताया है, जिसे अर्थापत्तिसे स्वाभाविक रीतसे समजा जा सके वैसा है। यहाँ एक दूसरी बात भी समझ लेनी चाहिए कि अपवर्तनीय आयुष्य तो मानो सोपक्रमी ही होता है, परंतु अनपवर्तनीय आयुष्य तो निरुपक्रमी ही होता है. ऐसा हम / दृढतापूर्वक समझ चुके हैं, लेकिन उसमें भी अपवाद है। सर्वथा ऐसा नहीं है / इसका इशारा गाथा 334 की टिप्पणीमें किया है, तथा वहाँ बताया है कि क्वचित् उपक्रम भी लगता है / इसके उपरांत दूसरा समझना यह है कि इस आयुष्यमें क्वचित् उपक्रम खड़ा होता है। प्रत्यक्ष दीखता भी है, लेकिन वह निश्चित बनी आयुष्यकी डोरी को संक्षिप्त करनेका कार्य लेश मात्र नहीं करता, लेकिन वह तो मात्र वहाँ निमित्त-कारणरूप ही प्रस्तुत हुआ होता है / नहीं कि उपादानरूपमें या आयुष्यका क्षय करने के लिए / अलवत्त स्थूल ज्ञान या दृष्टिवालेको ऐसा भास होता है, लेकिन वास्तवमें सूक्ष्म दृष्टिवालेको वैसा भास नहीं होता। क्योंकि जितना आयुष्य था वह प्राकृतिक रूपमें / क्रमशः ही क्षीण होता जाता है / इसमें बराबर अन्तकाल पर ही कोई उपक्रम हाजिर हो जाए और अंतिम दो चार घण्टेका जो आयुष्य हो वह उपक्रमकी वेदनाके साथ पूर्ण भोग डाले (लेकिन जरा भी हास न ही हो) और दृश्य उपक्रमसे मृत्यु सरजी ऐसा देखनेवाला कहे, लेकिन वास्तवमें ऐसा नहीं होता, सिर्फ वह तो सहयोगरूपमें ही रहता है। अतः आयुष्यके नीचे अनुसार भी प्रकार हो सकते। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * आयुष्य अपवर्तनीय अनपवर्तनीय सोपक्रम सोपक्रम निरुपक्रम [गाथा 336 ] अवतरण-वह उपक्रम जीवको सात प्रकारसे लगता है उसे कहते हैं। अवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाए / फासे आणापाणू , सत्तविहं झिज्झएँ आउं // 337 // गाथार्थ-सुगम है / // 337 / / विशेषार्थ-यहाँ सात प्रकारके उपक्रमोंके नाम बताते हैं / अगरचे विश्वमें अनंता उपक्रम हैं लेकिन यहाँ अवान्तर भेदोंको दूर करके, इन सबका वर्गीकरण करके उन्हें सात प्रकारमें ही समा देते हैं, अर्थात् अनंताका मूल ये सात ही हैं ऐसा समझना / ये सात कौनसे ? तो- 1. अध्यवसान, 2. निमित्त, 3. आहार, 4. वेदना, 5. पराघात, 6. स्पर्श, 7. आनप्राण / अब इन सातोंकी विशेष व्याख्या करते हैं / 1. अध्यवसान-उपक्रम, अध्यवसान कहो या अध्यवसाय कहो, दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं। अधि-आत्मनि अवतिष्टति इति–जो औत्मामें उत्पन्न हो वह / हरेक ( संज्ञी) आत्माके अंदर 'मन' हृदय या अंतःकरणसे पहचाना जाता एक एक पुद्गल द्रव्य रहा है / जो द्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओंका बना होता है। और वह समग्र देहव्यापी है, परंतु दिगम्बरोंकी मान्यतानुसार मात्र हृदयव्यापी नहीं है तथा नैयायिकोंकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं है / यह 'मनोद्रव्य' विश्वमें एक ऐसी अदृश्य, अद्भुत, अगम्य और विचित्र वस्तु है कि अणु, हाइड्रोजन या कोबाल्ट बॉम्ब को ढूंढनेवाले या कृत्रिम ग्रहों को बनानेवाले अच्छे-अच्छे वैज्ञानिक भी इसे देखजान सकें ऐसा नहीं है तो फिर उसका पृथक्करण करने की तो बात ही कहाँ रही ? उसके अप्रतिहत और अकल्प्य वेगको मापसे समझनेको एक सर्वज्ञके सिवाय कौन शक्तिमान है ! कोई भी नहीं। 492. यह गाथा आवश्यक नियुक्तिकी है / 493. सिज्जए, भिज्जए। इति पाठां. / 494. जैन और नैयायिक अध्यवसायको आत्माका धर्म मानते हैं लेकिन सांख्य बुद्धिका धर्म मानते हैं / Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बंधे हुए आयुष्य किस सात कारणोंसे खंडित होता है ? वह * * 199 . * यह मन-हृदय मनुष्यके उपरांत (अमुक) पशु पक्षियोंको भी मिला है। वह पुद्गल द्रव्य होनेसे पुद्गलके संकोच, विकोच स्वभावके कारण छोटी देहमें, बड़ी देहमें 15 देहको व्याप्त होकर रहा है। मन शरीरमें अमुक जगह पर ही रहा है ऐसी मान्यता बराबर नहीं है। उदाहरणके तौर पर कोई कहे कि मन हिया-हृदयके भागमें जमकर रहा है तो यह बात बराबर नहीं है। क्षणभर मानो कि अगर ऐसा ही हो तो हृदयके सिवायके शरीरके किसी भी भागको किसी चीजका स्पर्श हो, उष्ण या शीत पदार्थका हो तो कुछ स्पर्श हुआ है उसका अथवा वह शीत है या उष्ण है उसका कुछ ख्याल आता ही नहीं। पैरमें कांटा लगे तो भी दुःखका कुछ अनुभव नहीं होना चाहिए। जबकि सच्ची परिस्थिति यह है कि शरीरके किसी भी भागमें किसी भी चीजका स्पर्श हो या सुई भोंकी जाए तो तुरंत ही उसके स्पर्शका और साथ साथ स्पर्शजन्य वेदनाका जो अनुभव होता है वह होता ही नहीं। हाँ ! इतना सही कि हरेक वस्तुके मर्मस्थान अवश्य होते हैं, इस कारणसे मनका मर्मस्थान (मर्म अर्थात् मुख्य-महत्त्वका) हृदयका भाग है इतना जरूर कहा जा सकता है / ___ एक बात ध्यानमें रखना कि 84 लाख जीवायोनिरूप संसारमें 58 लाख योनिगत जीव संकुलमें जन्म लेनेवाले अनंता जीवोंके तो मन ही नहीं होता। तत्पश्चात् जीवके विकास क्रमके अनुसार पंचेन्द्रिय जीवोंवाली योनिमें मनकी शुरुआत होती है / इसमें भी दो भाग हैं। एक मनवाले पंचेन्द्रिय और दूसरे मन रहित / जिसे तत्त्वज्ञानकी परिभाषामें (मनवालों को) संज्ञी और (मन रहितोंको) असंज्ञी कहे जाते हैं। अब गाथाके मूल अर्थको देखें ' .. (1) अध्यवसान-अध्यवसाय आत्मामें या मनमें उत्पन्न होते असंख्य विचारों में से, आयुष्य क्षयमें तीन प्रकारके विचार मृत्युको आमंत्रित करते हैं। तीन प्रकार इस तरह हैं। 1. रागदशामेंसे जो राग उत्पन्न हुआ हो वह राग अनेक संकल्प-विकल्पों द्वारा पुष्ट होता है और जिसके प्रति आपका राग अथाग, अविहड और रोम रोम उत्पन्न हुआ हो तब वह व्यक्ति या वस्तु प्राप्त नहीं होती, अनेक युक्ति-प्रयुक्तियाँ, छलप्रपंच, लोभलालच और अनेक रीतसे मेहनत करने पर भी जब न मिले तब, वह रागवाली व्यक्ति या वस्तुके अलाभमें जीव झुर झुर कर ऐसा बन जाए कि अंतमें जब ज्वर-बुखार 495. यहाँसे लेकर यह गाथा पूर्ण हो तब तकका भाषांतर, छपे पुराने फरमे सं. २०२०में गूम हो जानेसे फिरसे सं. 2036 में लिखा गया है। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 2000 * श्री वृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . आवे, उसका शरीर क्षीण होता जाए, ( क्षय) तपेदिक रोग हो या तो हार्टफेल होनेसे वह आयुष्यकी डोरीको तोड डालता है। इनमें दूसरे सब रागसे विजातीय-स्त्री-पुरुषके विचका राग किसी अलग परिस्थितिका निर्माण करनेवाला है। मानव जीवनमें स्त्री-पुरुषके विचके रागने सैकडों मनुष्योंको आत्महत्याएँ करवाई हैं। इनमें भी स्त्रीसे पुरुषका प्रमाण अधिक होता है / स्त्रीसे पुरुषका मन ऐसी बावतमें अधिक ऊमिशील, आवेशमय, उतावला तथा राग जागने पर विचार और विवेकशून्य बन जाता है। खुद कौन है उस परिस्थितिको और जिस स्थानमें या जिस स्थितिमें हैं वह वहाँ शक्य है या नहीं ? उसका सान-भान विसर जाता है। इस विषयमें एक घटनाको सोचें / रागदशासे जल्दी होती मृत्युके बारेमें एक उदाहरण . जैसे कि-किसी युवान-पुरुषको किसी युवती-स्त्री पर आकर्षण होनेसे राग जन्मा, फिर उस रागमें वासनाकी विकृति जुड गई, अनादिकालजन्य संस्कारको लेकर कामाग्नि प्रज्वलित हुई। लौटतंकी कोई शक्यता न रही, इसलिए अमिने दावानलका रूप लिया / ऊँघ-भूख, प्यास, आनंद सब खतम हुआ। वह स्त्री किसी भी संयोगमें मिलनेवाली नहीं थी। अंतमें उसे याद कर करके, उसे अनुलक्ष्य भांति-भांतिके मनोरथोंके महलो बांधता ही रहा, इसमें उसे असफलता मिलनेसे शीघ्र हताश होनेसे मन भंग हो गया, ऐसा व्यक्ति टी. बी.-तपेदिक, हार्टफेल या तो आत्महत्याको आमंत्रण देता है, बांधी हुई मृत्युकी-आयुष्यकर्मकी मर्यादाको तोड देता है। काम शास्त्रादिकमें कामीजनकी दश दशाएँ "बताई हैं, उसमें भी अंतमें मृत्यु ही लिखी गई है। इस तरह किसी युवतीको किसी युवानके प्रति राग हो गया। इस देशकी नारी जातिके लिए युवानको पाना यह तो अति अशक्य वावत होती है। फिर वह कामविह्वल नारी कामानिमें जलती हुई मृत्युके किनारे पर पहुँचती है / इस तरह दोनों दृष्टांत घटा लेना। 496. चिंतइ दुट्ठ मिच्छइ, दीहं निससह तह जरे दाहे / भत्त-अरोयण-मुर्छा, उम्माय-नयाणई मरणं // 1 // प्रथम रागवाले व्यक्तिके लिए सतत चिंता-ध्यान, फिर रागीको देखनेकी इच्छा, उसके न मिलने पर दीर्घ निःश्वास / फिर तनमनके इस श्रमके कारण बुखार-तापका प्रारंभ होता है, फिर जलन होती है, इससे जठराग्नि मंद पडनेसे भोजन पर अरुचि होती है / खाना नहीं भाता, अशक्ति आती है इससे हीस्टीरीया-चक्कर, मूर्छा जनमते हैं, फिर उन्माद होता है, शरीर धीरे धीरे घिस जानेसे अन्तमें मृत्युकी शरण हो जाता है। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •बंधे हुए आयुष्य किन सात कारणोंसे संडित होते हैं वह. .2010 ... लोगोंके या अखबारों के द्वारा प्रेममें असफल बने कितने ही युवान-युवतियोंकी आत्महत्याके किस्से आपने पढे-सुने हैं। सयाने और समझदार जीवोंको तो शुरुआतसे ही इस दिशाकी ओर मनको लगाना ही नहीं चाहिए / कदाचित् लग गया तो मनकी लगामको खिंचकर पूर्ववत् जोरसे स्थिर कर देना और सामनेवाले व्यक्तिको तुरंत भूल जाना, याद ही नहीं करना। इस तरफ पराजमुख हो जाना / यह इस घटनाका बोधपाठ है। धर्मोपदेश और सद्विचारोंका सहारा लिया जा सके, विद्यार्थी अगर अपेक्षा रक्खे कि एकाध छोटासा उदाहरण दीजिए न / तो पढिए- . रांग पर पानीकी प्याऊवाली स्त्रीका दूसरा उदाहरण ___कहीं युवान पहल करता है तो कहीं युवती पहल करती है / लेकिन यहाँ जो दृष्टांत देता हूँ. वह एकपक्षीय अर्थात् एकतरफा जन्मी रागदशाका है। . गरमीकी ऋतुमें प्रवास करता एक स्वरूपवान, सुंदर, सशक्त युवान मार्ग पर पानीकी प्याऊ होनेसे पानी पीने आया। इस प्याऊमें पानी पिलानेका काम एक सुंदर युवान स्त्री करती थी। यह स्त्री युवानका सौंदर्य आदि देखकर उसके पर मुग्ध मोहित बन गई, उसके सामने वह तिरछी नजर से देखती ही रही। नारीजाति किस तरह अपने हिये में जन्मे रागकी आगको बता सके ! वह युवान पुरुष संस्कारी, खानदान था इसलिए उसने तो नीची आँख रखकर पानी पिया और चला गया। अनजाने भी उस स्त्रीके हृदयको हर लिया। इस बाजू पर यह युवती दूर दूर तक उस युवानको देखती ही रही। उसके हृदयमें तो स्नेहका सागर उमड पडा, वह तो अत्यन्त रागासक्त दशामें और विरह व्यथाके भारी पंजे में फँस गई। मन और मस्तककी समतुला गँवाती चली। शीघ्र जमीन पर पटक गई। हार्ट पर बहुत दबाव बढ गया। उस पुरुषमें लयलीन बनी युवती अंतमें मुरणकी शरण हुई। स्त्री कामातुर बनी हो या न बनी हो लेकिन दोनों स्थितिमें वासना रहित रागदशा भी दस प्राणकी मारक बन सकती है / ___(2) स्नेहदशा के कारण भी मृत्यु होती है। अर्थात् जिसके प्रति जिसे अत्यन्त अकल्पनीय स्नेह हो, उस स्नेहमें जोरदार प्रतिकूलता खडी हो जाए, तथा अति स्नेहमय व्यक्तिकी मृत्युके अशुभ समाचार सुने जाए, इसलिए स्नेहीजन, इस स्नेहमें पडा फाट या मृत्युका आघात सहन नहीं कर सकता और एकाएक हार्ट पर अंतिम कोटिका दबाव आनेसे लहूकी गति छिन्नभिन्न हो जानेसे, हार्टकी नसोंमें से पसार होता रुधिरबृ. सं. 26 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .202. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . . लहू एक क्षणके लिए रूक जाने पर उसी क्षणमें उस व्यक्तिका आयुष्य पूर्ण हो जाता है। इस तरह स्नेहदशाके कारण बहता आयुष्यका प्रवाह खतम हो जाता है। स्नेहके बारेमें भी शास्त्रमें एक दृष्टांत दिया है, उसे यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। स्नेहदशाके कारण होती मृत्यु पर एक उदाहरण एक पति-पत्नीके विच अत्यन्त आत्मीयता थी। पत्नी बहुत ही पतिव्रता और प्रेमी थी। पतिको व्यापार-बनिजके लिए बाहर जाना हुआ। गाँवके मसखरे युवान इन दोनों पति-पत्नीके बिच कितनी गाढ़ मित्रता-प्रेम है इसे जानते थे / मसखरे युवानोंको हुआ कि आज प्रवासी पतिकी पत्नीके प्रेमकी थोडी परीक्षा और मजाक करें। उस पतिके मित्रको ज्ञात हुआ कि अपना मित्र आज अमुक समय पर घर लौटनेवाला है, यह बात उसने ... उन युवानोंसे की। उन्हें मसखरी-मजाक करनेकी जो ख्वाहिश थी उसके लिए मौका मिल गया। पैदल चलकर आता हुआ पति गाँवसे थोडी दूर था तब वे युवान उसके घर पर दौडे जाकर उसकी पत्नीको बराबर विश्वास आ जाए इस तरह मुँहका दिखावा और वाणीसे करुण शब्द कहकर बोले कि 'तुम्हारा पति कल गाँवमें चल बसा है।' तुम्हें खबर देने हम आए हैं। यह बात सुनते ही निराधार दशाका अनुभव करती वह स्त्री, असाधारण गहरे स्नेहके कारण पतिके वियोगका भारी आघात लगनेसे मूछित होकर गिर पडी। तुरंत ही उसका प्राण-पक्षी उड़ गया। प्रेमकी परीक्षा करने आए वे युवान तो अपनी मसखरीका ऐसा भयानक परिणाम देखकर भाग गए। थोड़ी ही देरमें उसका पति हर्ष भरा उत्साह-आनंदके साथ घर आया। घरमें पैर रखते ही पत्नीको मरी देखकर-जानकर, सार्थवाह पतिके भी पत्नी परके अनन्य-अपार हार्दिक स्नेह-प्रेम के कारण अपनी नजर समक्ष पत्नीकी मृत्यु सह न सका, उसे भी प्रचंड आघात लगा और उसका भी हार्ट फेल होनेसे वहीं गिर पडा और मर गया। ___परस्परके गाढ स्नेह-प्रेमके कारण दोनोंकी जीवन-दोरी एकाएक तूट गई। इन दोनोंकी मृत्यु स्नेह-परिणाम से हुई। ऐसा दूसरी अनेक बाबतोंसे बन सकता है। प्रश्न-राग और स्नेहमें क्या तफावत है ? ऐसा प्रश्न कदाचित् हो तो उसका उत्तर दोनों दृष्टांतोंसे समझमें आवे वैसा है फिर भी उसकी सामान्य व्याख्या यह है कि अपरिचित व्यक्ति पर जो भाव हो जाय वह 'राग' और परिचित व्यक्ति पर जो भाव हो जाए वह 'स्नेह' / राग या स्नेह द्विपक्षीय या उभयपक्षीय भी हो सकता है। संसारमें ऐसी घटनाएँ दिन-प्रतिदिन हजारों बनती रहती हैं। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बंधे हुए आयुष्य किन सात कारणोंसे खंडित होते हैं वह * * 203 . (3) भारी भय-डरसे भी मृत्यु होती है उस पर दृष्टान्त . किसी भी प्रकारका, भयंकर कोटिका भय होने पर भी व्यक्तिको हार्टफेल होनेसे मर जाता हैं, उसका दृष्टांत देखिए हिन्दु जनता जिन्हें भगवान सम पूजते हैं। हमारे यहाँ भी जो भावि उत्सर्पिणीमें अमम नामके तीर्थकर होनेवाले हैं वे श्रीकृष्ण जब वासुदेवरूपमें भगवान श्री नेमिनाथजी के कालमें (इ. स. पूर्व तीन हजार वर्ष पर) थे तब वे जैनधर्मी थे और ( 22 वें तीर्थकर ) श्री नेमिनाथजी भगवानके भक्त-श्रावंक थे / श्रीकृष्ण वासुदेवके एक पुत्र गजसुकुमार थे। उनका लग्न वासुदेवने सोमिल नामके ब्राह्मणकी कन्याके साथ किया था। बादमें भगवानकी देशना-प्रवचन सुनकर गजसुकुमारको बैराग होने पर दीक्षा ली। दीक्षा लेनेके बाद वे उत्कृष्ट कोटिके त्याग तपमें लग गए / एकांत जंगलमें विशुद्ध ध्यान अधिक निराबाधपनसे हो इस हेतुसे द्वारिका नगरीके बाहर जंगलमें ध्यान करने गये। इसकी सोमिलको खबर हुई। दीक्षा ली तबसे सोमिलको अपने जमाई गजसुकुमार पर बहुत ही रोष हुआ था। उसका बदला लेनेका मौका नहीं मिलता था। जमाई जंगलमें अकेले खडे हैं यह मालूम होते ही मौका मिल गया। सोमिल अपने जमाईको कुशलतासे मारनेको उपयोगी सामग्री लेकर जंगलमें पहुँचा। ध्यानस्थ गजसुकुमार मुनिके मस्तक पर माटीकी पालि बांधी, और फिर उसमें खैरके अंगारे भरे और आग जला दी। लेकिन कदाचित् किसीको खबर हो जाए तो ? अतः तुरंत ही शीघ्र शहरमें लौटा.। दरवाजेमें दाखिल हुआ, कि सामनेसे श्रीकृष्णजी गजसुकुमारको वंदन करने जा रहे थे। सोमिलने ज्यों ही कृष्णको देखा त्यों ही नाहिंमत हो गया। अरे ! बाप अब मेरी बारी आ गई। ऐसा प्रचण्ड भय पैदा हुआ कि उस भयके आघातसे सोमिलका हार्ट वहीं पर फट गया-बैठ गया और मृत्यु पाई। इस तरह कराल-भयंकर कृत्यके परिणामके भयसे कितने ही लोग मृत्युको भेंटते हैं। ... इस तरह राग, स्नेह और भय से होते मरणका वर्णन समाप्त होनेसे पहले “अध्यवसान' नामके प्रकारकी व्याख्या पूर्ण हुई। .... 2. निमित्त उपक्रम-जीवकी मृत्युमें हजारों निमित्त कारण बनते हैं। निमित्तमें तो सैकडों बावतोंका उल्लेख किया जा सकता है। संक्षिप्तमें बतायें तो-विषपान, शरीर पर लगती बंदूककी गोली, चाबुक, लकडी, कुल्हाडी आदि विविध शस्त्रों-हथियारों के प्रहार, बम्बमारी, आंधी, जलकी ज्वार - लहरे, अमिस्नान, गलेमें फंदा, अचानक गिर Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 204 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * जाना, किसी वस्तुका अकस्मात् माथे या शरीर पर पडना, सर्पादिक जहरीले जीवोंके उपद्रव, रेल्वे आदिके अकस्मात् , ऐसे अनेक कारणोंसे जब अकस्मात् मृत्यु हो तब उनमें 'निमित्त' नामका उपक्रम कारण गिनाता है। 3. आहार उपक्रम-देहको जिलानेवाला आहार-खुराक है। खुराककी बाबतमें प्रजामें अब भी बहुत अज्ञान प्रवर्तमान हैं। शरीर-शास्त्र और आहारशास्त्रका आवश्यकअनिवार्य ज्ञान भी न होनेसे प्रजा-लोग भांति-भांतिके रोगोंका भोग बनती रही है। खुराकसे मृत्यु किस तरह होती है ! तो लंबे अरसे तक खुराक न लेनेसे, अति अल्प या अधिक खुराक लेनेसे, शुष्क, अति स्निग्ध या अहितकारी भोजन लेनेसे आयुष्य घट जाता है। लंबे अरसे तक आहार न लेनेसे आयुष्य कम हो जाता है। इसमें एक बात और ध्यानमें रखनी कि यह नियम सबके लिए सर्वथा लागू ही पडे ऐसा न समझना। क्योंकि अपने यहाँ छः छः महीनेसे उपवासी होने पर भी ऐसा कुछ भी बनने नहीं पाता / बहुत कम खुराक लेनेसे शरीर कृश-क्षीण हो जाने से जैसे मृत्यु हो जाती है, वैसे अधिक खुराक लेनेसे भी मृत्यु हो जाती है। इसलिए हमारे यहाँ राजा संप्रतिके अगले ही जन्मका उदाहरण बहुत प्रचलित है। .. खुराकमें पथ्य क्या और अपथ्य क्या? ऋतुकालके आहार क्या ? आरोग्य निभाव के नियम क्या ? इस बाबतका जिसे ज्ञान हो उसे आहार विषयक उपक्रम. ( प्रायः ) हरकत नहीं करते। 4. वेदना उपक्रम-शरीरमें एकाएक भयंकर रोगकी वेदना उत्पन्न होने पर आयुष्यको धक्का लगनेसे आयुष्य भंग हो जाता हैं। इस वेदनामें शूल, धनुर्वा जैसे रोग गिने जा सकते / 5. पराघात उपक्रम-भयंकर अपमान सहन करना पड़ा, किसीने अधिक अनिष्ट किया, अथवा किसी गहरे गड्ढे-खाँईमें गिरनेसे या पर्वत पर से झंपापात होनेसे आघात, पछाड लगी, ऐसे कारणोंसे जो मृत्यु पाए वह / 6. स्पर्श उपक्रम—इसमें जहरीली हवा, विजलीके करंट, भयंकर विषका स्पर्श, जिसका शरीर ही जहरमय हो, स्पर्श मात्रसे ही शरीरके छिद्रों द्वारा जहर प्रवेश करके Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बंधे हुए आयुष्य किन सात कारणोंसे खंडित होते हैं वह * * 205 . पाणका विनाश कर डाले तथा विषकन्याका स्पर्श ऐसे कारणोंसे प्राणका विनाश हो वह / 7. आणप्राण उपक्रम-आणप्राण अथवा प्राणापान प्राण अर्थात् उच्छ्वास और अपान अर्थात् निःश्वास / तात्पर्य यह कि श्वास लेना और छोडना वह श्वासोच्छ्वास / शरीरमें चेतना-जीव है या मर गया है ! इसे जाननेका यह अतिमहत्त्वका साधन है, वह शरीरमें रहा हुआ एक प्राण ही है / इस श्वासोच्छ्वास से मृत्यु कब हो? तो जब जहरीली हवा श्वासोच्छ्वास द्वारा अंदर जाए तब उसकी धीरे धीरे मृत्यु होती है। रातको कमरेमें लालटेन जलती हो और फिर कमरा बंद करके सो जानेसे लालटेन के मिट्टीके तेलके जलनेसे निकलता मृत्यु हो जाए ऐसा जहरीली कार्वन गैस भरनिंदमें श्वासोच्छ्वास द्वारा अंदर जाती रहे तो सुबह होते ही जितने सोये हों वे सब (प्रायः) मृत्यु पाते हैं। वैसे ही एक जेहलके अंदर पांच कैदी रह सके ऐसी कोठरीमें 50 जनोंको बंद करके दरवाजे बंद किये जाएँ, और बाहरका प्राणवायु मिलता बंद हो जाए तो सब मृत्युकी शरण होते हैं। ( कलकत्ताकी काली कोठरीका उदाहरण प्रसिद्ध है) इसके उपरांत दम, श्वासके भयंकर रोगों के कारण * श्वास सँध जानेसे भयंकर अकुलाहट - घबराहट होनेसे शीघ्र आयुष्य समाप्त हो जाता है। __ऊपरके मुख्य-महत्त्वके सात प्रकारके उपक्रम-धक्के लगनेसे धीरे धीरे भोगे जा सकें ऐसे आयुष्यके पुद्गलोंके उपक्रमके समय जीव तीव्रातितीव्र गतिसे भोग डालता है। जीवन जीनेमें उपादान कारणभूत आयुष्यकर्मके दलिये पूरे हो जाने पर जीव उस शरीरमें एक समय-क्षण भी नहीं रहता, देहमेंसे निकलकर परलोकमें सिधाव जाता है। . ये उपक्रम अपवर्तनके योग्य ऐसे आयुष्यमें फेरफार कर सकते हैं लेकिन अनपवर्तनीय आयुष्यमें तो कुछ फेरफार नहीं कर सकते / . यों तो विवक्षित (मनुष्य-तिर्यचके) किसी भी भवमें जन्मे तब से ही जीव आयुष्य कर्मके दलिये-पुद्गलोंको प्रति समय खपाता ही रहता हैं, उसमें जात जातके उपक्रम ___ 497, प्राचीनकालमें शत्रुराजाको मालूम न हो इस तरह मार डालनेको, ऐसी विषकन्याएँ तैयार की जाती थीं। इस स्त्रीका समग्र शरीर कातिल जहरीला बन जाए इसलिए उसे छोटी उम्रसे ही शरीरमें खुराकके साथ या औषधद्रव्यके साथ थोडा थोडा जहरीला द्रव्य दाखिल किया जाता है / लम्बे अरसेके बाद उसकी सातों धातुएँ जहरीली बन जाती हैं / ऐसी कन्या-स्त्री विषकन्याके नामसे पहचानी जाती है / फिर जरुरत पड़ने पर उस कन्याका शत्रुके साथ कपटसे संबंध जुडवाते हैं और विषकन्याकी देहका स्पर्श होनेसे राजाकी मृत्यु होती है और इस तरह किसने मार डाला यह पकडा नहीं जाता / Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 206 . . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . लगते हैं, आघात-प्रत्याघात लगते हैं, तब वह आयुष्य पुद्गलोंको अवश्य अधिक खपा देता है। और अति जोरदार अकस्मात् या उपक्रम लगे तो देखते ही देखते आयुष्यके पुद्गलोंको अकल्पनीय ऐसे तीव्रवेगसे-कर्मकी उदीरणासे उदयमें लाकर जीव भोग लेता है, अर्थात् समाप्त कर देता है / जीवन जीनेका यह अनिवार्य उपादान-साधन खलास होनेसे फिर जीव किस तरह जी सके ? प्रश्न-किसी भी प्रकारका उपक्रम-उपद्रव हो. तब अगर तत्काल उचित उपाय किए जाएँ तो बहुत बच जाते हैं, तो इसमें क्या समझना ! उत्तर-इस प्रश्नके खुलासे के लिए इसी पुस्तककी गाथा 336 का अर्थ देखिए। जो जीव सोपक्रमी अनपवर्तनीय आयुष्य बांधकर आया हो उसे चाहे उतने उपक्रम भले लगे लेकिन उसका आयुष्य खत्म नहीं होता। उपक्रमके उपायोंके आयोजनसे अच्छा हो जाए और ज्यादा जीए इससे आयुष्य बढ गया ऐसा न समझना। ये सारे उपक्रम अपवर्तनीय सोपक्रम प्रकारके आयुष्यका ही अपवर्तन-हास करते हैं। लेकिन अनपवर्तनीय निरूपक्रम प्रकारके बंधे आयुष्यका कभी अपवर्तन नहीं कर सकते / 335 वीं गाथामें चरमशरीरी आदि जिन जिन जीवोंको निरूपक्रमी (उपक्रमका असर हो ऐसे) आयुष्यवाले जनाये हैं। वहाँ समझमें थोडा विवेक रखनेका कि इन जीवों को कभी उपक्रम लगते, पीडा भी देते, पीडासे मृत्यु भी पाते दीखते / यहाँ जीवके सामने उपक्रमकी उपस्थिति जरूर है लेकिन अगाऊ बताया है वैसे, उसं आयुष्यका अपवर्तन अर्थात् दीर्घायुषीको अल्पायुषी नहीं कर सकता। मृत्यु उपजावे वसा उपक्रम-घटना बने तब इन जीवोंके लिए ऐसा ही समझना कि सहजपनसे भोगे जाते आयुष्यकी पूर्णाहुति आ पहुँची हो तब ही उसे मृत्यु योग्य उपक्रम लगता है, कुदरती रीतसे ही परस्पर ऐसा योग बन पाए / हाँ, उपक्रम निमित्त रूपमें जरूर दीखे और मानो कि इस उपक्रमसे ही मर गया ऐसा दीखे भी सही, परंतु हकीकतमें ऊपर कहा वैसा समझना। आयुष्यकी घटनाके साथ संबंध रखनेवाली जो बाबतें अगाऊ कह गए उनका पुनः तात्पर्य यहाँ दिया है। * 1. बंधकाल-परभवका आयुष्य बांधनेका समय भोगे जाते आयुष्यकालमें कच होता है उसका निर्णय वह बंधकाल / देवों-नारकों असंख्याता वर्षवाले मनुष्यों, तिर्यचोंके Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बंधे हुए आयुष्य किन सात कारणोंसे खंडित होते हैं वह * * 207 . लिए नियम कि, भोगे जाते आयुष्यके छः महीने शेष रहे तब परभवका आयुष्य बांधे। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और अनपवर्तनीय आयुष्यवाले तिर्यंचमनुष्य अपने निश्चित हुए आयुष्यके तीसरे भागका परभवायुष्य बांधे / लेकिन अपवर्तनीय आयुष्यवाले तिर्यच-मनुष्य अपने निश्चित किए गए आयुष्यके तीसरे भागका परभवायुष्य बांधे। एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रियवाले तियेच-मनुष्य हैं वे अपने आयुष्यके तीसरे तीसरे भागका बांधे / अगर पहला तीसरे भागका न बांधे तो उसके बादका तीसरे तीसरे भागका बांधे अर्थात् नवे भागका, सताइसवें भागका बांधे। इस तरह आगे समझ लेना। 2. अबाधाकाल-परभवका आयुष्य बांधनेके बाद वह बंधा आयुष्य जब तक उदयमें न आया हो तब तक वह बंध-उदयके बिचका अपान्तरकाल। 3. अंतसमय -आयुष्यकी पूर्णाहुतिका अन्तिम (निष्ठा ) समय वह / 4. अपवर्तन - लम्बे काल पर वेदने-भोगने योग्य आयुष्य कम कालमें भोगने योग्य बने वह / यह आयुष्य सोपक्रम भावका ही होता है। 5. अनपवर्तन-जो आयुष्य कभी अल्प न बने। जितना बांधा हो उतना पूरा हो ही वैसा आयुष्य। 6. उपक्रम -दीर्घ आयुष्यको चाहे उस प्रकारसे संक्षिप्त-अल्प करे वह / ऐसे उपक्रम अनेक होने पर भी उनका वर्गीकरण करके उपक्रमोंका सातमें समावेश. करके यहाँ बताये हैं। इन उपक्रमोंका वर्णन ऊपर हो गया है। 7. अनुपक्रम -जिस आयुष्यको कभी उपक्रम अर्थात् किसी भी प्रकारसे धक्का-हरकत न पहुँचे और पूरा पूरा भोगा जा सके वह / इसमें कभी उपक्रमका प्रसंग बन जाए लेकिन वह सिर्फ उपस्थित होने के लिए होता है। परंतु वह आयुष्यकी जीव-डोरीको कभी अल्प नहीं कर सकता / [337] . अवतरण-किसी भी जीवको जीवन जीनेके लिए छः शक्तियोंकी आवश्यकता होती है। जनमते ही अल्प समयमें अपने अपने कर्मानुसार अपने अपने योग्य शक्तियोंका प्रादुर्भाव हो जाता है। यह शक्ति वही पर्याप्ति / पर्याप्ति या शक्ति एक ही शब्दके वाचक शब्द हैं। अब . यहाँ गाथामें छः पर्याप्तिओंके नाम बताकर किस किस जीवको अपने कर्मानुसार कितनी कितनी पर्याप्तियाँ-जीवन शक्तियाँ प्राप्त होती हैं यह भी कहेंगे। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .208. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . आहार सरीरिदिअ, पजत्ती आणपाणभासमणे / चउ पंच पंच छप्पिअ, इग-विगला सन्निसन्नीणं // 338 // गाथार्थ-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इस नामकी छः पर्याप्तियाँ हैं। उनमें एकेन्द्रियके चार, विकलेन्द्रियके पांच, असंज्ञि पंचेन्द्रियके पांच और संज्ञी पंचेन्द्रियके छः होती हैं। // 338 // विशेषार्थ-गाथाका विशेषार्थ यहाँ विस्तारसे प्रस्तुत करता हूँ। क्योंकि पर्याप्ति खास महत्त्वकी समझने जैसी बावत है। इसे अगर विस्तारसे न समझाया जाए तो उसका यथार्थ रहस्य समझमें नहीं आ सकता। इन पर्याप्तिओंकी व्याख्या शुरु करने पहले उस विषयक कुछ भूमिका. अगर प्रस्तुत करूँ तो विद्यार्थीओं तथा पाठकोंको रसदायक लगेगा और रहस्य अधिक स्पष्ट होगा। नामकर्मके उदयके कारण औदारिकादि (तीन) शरीररूपमें परिणत हुए पुद्गलोंमें से उस उस शरीरके योग्य ऐसे मस्तक, छाती, पेट, पीठ, दो हाथ और दो जंघाएँ (पग) ये आठ अंग और उन अंगोंमेंसे निकलती उनके ही अवयवरूप अंगुलियाँ तथा नाक, कान आदिरुप उपांग, पुनः उनके ही अवयवरूप रोमराजी, बाल, पलके, हाथ-पगकी रेखाएँ आदि अंगोपांग रूप स्पष्ट विभागो बनते हैं / अर्थात् वैसी परिस्थिति प्राप्त होती है। उपरांत उसी तरह श्वासोच्छ्वासके योग्य ऐसा श्वासोच्छ्वास नामका नामकर्म यह पर्याप्ति नामकर्म के उदयसे प्राप्त होती है / भाषा पर्याप्ति नामकर्मके कारणसे भाषा वर्गणाके पुद्गल ग्रहणसे भाषायोग्य लब्धि तथा मनःपर्याप्ति नामकर्मके कारण मनोवर्गणाके पुद्गलोंसे मनोलब्धि अर्थात् चिंतनशक्ति प्राप्त होती है। लेकिन इन तीनों शक्तियोंकी क्रियाव्यापार या उपयोग तो अनुक्रमसे श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन पर्याप्तिके कारण ही शक्य बनता है। ये पर्याप्तियाँ पर्याप्त नीमकर्मके उदयसे जीवको प्राप्त होती हैं / पर्याप्तियोंका स्वरूप सुचारु रूपसे समझमें आवे इसलिए कुछ बाबतें स्थूल रूपमें संक्षिप्तमें बताई। 498. पर्याप्तिका सूक्ष्म और विस्तारपूर्वक विवेचनके लिये 339 गाथाके बाद दिया हुआ बारहवाँ परिशिष्ट देखिये / 499. नामकर्मकी अनुकूलता या प्रतिकूलता पर अंगोपांगकी न्यूनाधिकता, अनुकूलता या प्रतिकूलताका आधार होता है / 500. नामकर्म अर्थात् क्या ? नामकर्म यह ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकारके कर्मके प्रकारों से एक प्रकार है। इस नामकर्मके 93 या 103 जो भेद हैं, उनमें पर्याप्त नामकर्म भी एक भेद है / वह नामकर्ममें होनेसे यह विशेषण प्रयुक्त है / / Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पर्याप्तिका स्वरुप और आठ प्रकारकी वर्गणा * .209. .प्राथमिक रीतसे उपयोगी थोडी अन्य बाबतें भी समझ लें / ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक्लोकसे युक्त चौदहराजलोक प्रमाण जितना महाविराट विश्व, चर्मचक्षुसे अदृश्य तथा दृश्य (इन्द्रिय ग्राह्य और अग्राह्य ) ऐसे अणु-परमाणु या उनके स्कंधो-समूहोंसे सर्वत्र व्याप्त हैं / खचाखच भरे हैं। इन अणु-परमाणु आदि को शास्त्रीय परिभाषामें पुद्गल या पुद्गल स्कंधोंसे पहचाने जाते हैं। ये पुद्गल दो प्रकारके हैं / जो पुद्गल स्कंध जीवोंको आहार, शरीर आदिके उपयोगमें आवें वे ग्रहण प्रायोग्य वर्गणाओंके रूपमें पहचाने जाते हैं / और जो अणुपरमाणुओंसे सभर पुद्गलस्कंध जीवोंको आहार-शरीर आदिके उपयोगमें नहीं आ सकते उन्हें अग्रहण प्रायोग्य वर्गणाओंके रूपमें पहचाना जाता है / त्रिकालज्ञ-सर्वज्ञोंने ज्ञानचक्षुद्वारा देखीं ग्रहण प्रायोग्य पुद्गल वर्गणाएँ आठ प्रकारसे बताई हैं / उनके नाम इस तरह है ___ आठ प्रकारकी वर्गणाएँ 1. औदारिकवर्गणा 2. वैक्रियवर्गणा 3. आहारकवर्गणा 4. तैजसवर्गणा 5. श्वासोच्छवासवर्गणा' 6. भाषावर्गणा 7. मनोवर्गणा और 8. कार्मणवर्गणा। ___ आठ प्रकारके कार्योंके लिए आठों वर्गणाओंकी जरूरत पड़ती है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण इन पांचों वर्गणाके पुद्गल पांच शरीरोंके लिए उपयोगी है। श्वासोच्छ्वास वर्गणा श्वास लेने छोड़ने के कार्यमें और वचन-व्यवहार अथवा भाषा बोलनेके कार्यके लिए भाषावर्गणा और विचार करनेके लिए मनोवर्गणा उपयोगी है / . संक्षिप्तमें विश्वके तमाम जीवोंकी देह तथा इन्द्रियोंकी रचना, श्वासोच्छ्वास क्रिया, भाषा-वचन-व्यवहार और विचार करना आदिमें ये वर्गणाएँ महत्त्वका-मुख्य भाग लेती हैं। - औदारिक ५०'वर्गणाके जो पुद्गल हैं वे, औदारिक शरीर तथा उसके योग्य अंगोपांग तथा इन्द्रियोंकी रचनामें, वैक्रिय वर्गणाके पुद्गल, वैक्रिय शरीर और उसके योग्य इन्द्रियाँ आदिकी रचनामें, आहारक वर्गणाके पुद्गल, आहारक शरीर और उसके योग्य इन्द्रियाँ आदिकी रचनामें उपयोगी बनते हैं। मनुष्य और तिर्यच गतिमें भव प्रायोग्य शरीर औदारिक है और देव तथा नरक गतिमें भव प्रायोग्य शरीर वैक्रिय है। जबकि औहारक शरीर तो मात्र भाव चारित्रवान् 501. वर्गणा अर्थात् दृश्य अदृश्य विश्वमें विविध प्रकारके वर्तित परमाणुओंके बने स्कंधोंके समुदाय / 502. इस शरीरका विशेष वर्णन 344 वीं गाथाके विवरणमें देखना / बृ. सं. 27 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 210. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * मनुष्य ही रच सकता है। अर्थात् उत्तमोत्तम कोटिका संयमी साधु ही रच सकता है / किसी संसारी गृहस्थोंको यह शरीर उपलब्ध होता ही नहीं। केवल तेजस और कार्मण शरीरको स्वतंत्र अंगोपांग या इन्द्रियाँ नहीं होती। लेकिन जो औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरके लिए तथा इन्द्रियोंके लिए पर्याप्तियाँ की हैं। वे ही पर्याप्तियाँ तैजस और कार्मण शरीरके लिए औदारिक आदिके साथ समझ लेनी है। इतनी भूमिका बताकर अब पर्याप्तिका स्वरूप शुरू करते हैं। . पर्याप्ति विषयक निवेदन __जीव एक भवमें मृत्यु पाकर देहका त्याग करके अन्य गतिमें जन्म लेता है। उस समय उसे उत्पन्न होनेके साथ ही (प्रथम समयसे ही) अपनी जीवनयात्रामें उपयोगी हों ऐसी कम से कम चार और ज्यादा से ज्यादा छः प्रकारकी शक्तियाँ प्राप्त कर लेनी चाहिए। अगर इन शक्तियों या साधनोंको प्राप्त न करे तो जीवनका अस्तित्व भी न रहे / इन शक्तियोंकी सहायता होने पर ही जीवन जीना शक्य बनता है। देहधारियोंके लिए जिंदगी : तक जीने के लिए शक्तिकी अनिवार्य जरूरत होती है। खूबी तो यह हैं कि ये शक्तियाँ जन्मके बाद एक अंतर्मुहूर्त (एक मुहूर्त अर्थात् 48 मिनटसे कम काल) में जीव प्राप्त कर लेती हैं। ये शक्तियाँ विविध प्रकारके पुद्गलोंके समूहमें से उत्पन्न होती होनेसे विविध पुद्गलों का यथायोग्य संचय करने लगती हैं। इन पुदगलोंको अथवा तो उनसे उत्पन्न होती ( आहारादि क्रिया कर सकें वैसी) शक्तिको पर्याप्ति कहा जाता है। ___ यह संचय जीव करता होने से जीव कर्ता है। पुद्गलोपचय द्वारा जो शक्ति पैदा हुई उस शक्तिसे ही जीव आहार ग्रहणमें और शरीरादि कार्यों के निवर्तनमें समर्थ बनता है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि यह शक्ति ही जीवनका करण है। 503. तैजस और कार्मण ये दो शरीर, संसारी जीवोंकी औदारिक वगैरह शरीरादि कारणसे जैसी आकृति होती है वैसी आकृतिका अनुसरण करते हैं / क्योंकि ये दो शरीर दूधमें शक्करकी तरह मिले रहते हैं / अतः उन्हें स्वतंत्र अंगोपांगका संभव नहीं है जब कि औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन शरीरोंकी आकृतिओं को जीवात्मा अनुसरण करता होनेसे उसे अंगोपांग घटमान है और वे अंगोपांग छठे 'नामकर्म' नामकी एक कर्मसत्ताके उदयसे होते हैं / तेजस, कार्मण दोनों शरीर हमसे प्रत्यक्ष देखे नहीं जाते / मात्र अनुमान से ग्राह्य हैं / 504. पुद्गल अर्थात् जिनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हो वैसे परमाणु, अणु प्रदेश या स्कंध / Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पर्याप्तिओंका स्वरुप और छः पर्याप्तिकी व्याख्या . .211. इस पर्याप्ति करणसे ही आहारादिकका स्वस्व विषयमें परिणमन-शरीर निवर्तन आदि क्रिया होती है। हम जान आए कि पर्याप्तियाँ देहधारी जीवोंको, जीवन जीनेकी शक्तिको प्रगट करनेमें या जीवन जीनेमें प्रबल कारणभूत हैं। और जीवन जीने के लिए वे असाधारण रूपमें आवश्यक और अनिवार्य साधनरूप है / पर्याप्तिकी सरल-स्पष्ट व्याख्या इस तरह है। पर्याप्ति अर्थात् शक्ति-सामर्थ्यविशेष / यह शक्ति पुद्गल द्रव्यके संचयसे प्रकट होती है। अब इसे स्पष्टतासे समझें / जीव किसी भी योनिमें उत्पन्न हो तब उत्पत्ति स्थानमें रहे जिन पुद्गलोंको प्रथम बार ही ग्रहण करे उन पुद्गलोंका शाश्वत नियम अनुसार जीव समय समय पर जिन पुद्गलोंको ग्रहण करता रहता है उनके साथ योग होता है, यह योग होनेसे एक विशिष्ट शक्ति–कार्यका निर्माण होता है। यह शक्ति जीव जिन जिन पुद्गलों को ग्रहण करता रहे, उन पुद्गलोंको दो विभागमें बाँटनेका कार्य बराबर बजाता है / अर्थात् गृहित पुद्गलोंमें से खल-मलादि प्रकारके योग्य पुद्गलोंको अलग कर देता है और रस प्रायोग्य हों उन्हें उस रूपमें अलग करता है। ऐसी पर्याप्तियाँ-शक्तियाँ छः हैं। वे इस तरह छः पर्याप्तियोंकी व्याख्या 1. आहार पर्याप्ति-उत्पत्ति प्रदेशमें आये हुए जीव जिस शक्तिसे उत्पत्ति स्थानमें रहे बाह्य ( ओजाहार) आहारके पुद्गलोंको ग्रहण करे और उन पुद्गलोंको खल और रसरूपमें परिणत करे उस शक्तिका नाम आहार- पर्याप्ति है। . खल अर्थात् आहार परिणमन (पाचन)की क्रिया द्वारा आहारमेंसे मल-मूत्रादि रूपसे तैयार हुआ असारभूत पुद्गलोंका समूह और रस अर्थात् खुराककी पाचनक्रियामें से ही सात . 505. जिस गतिमें जीवने जो शरीर धारण किया हो, उस शरीरका मृत्यु के बाद वियोग और विनाश हो जाता है और उस स्थूल शरीरमें रहा जीव जब परलोकमें विदाय लेता है तब उसके साथ 'तेजस' और ' कार्मण' के नामसे परिचित दो सूक्ष्म शरीर होते ही हैं / ये दो शरीर तो अनादिसे जीवके साथ रहे ही हैं / और मोक्ष न हो तब तक वे रहनेवाले हैं / जन्मस्थानमें जीव इन दोनों शरीरों के साथ उत्पन्न हो तब प्रथम जिस आहारका ग्रहण होता है वह मुख्यतया तैजस कार्मण काययोग द्वारा होता है / आहार पर्याप्ति उस समय अवान्तर कारणरूप होती है, परंतु आहार पर्याप्तिका प्रधान कार्य तो औदारिक नामकर्मसे ग्रहण किये आहारके पुद्गलों से उपर बताया वैसी योग्यतावाला बनाना यही है। 506. अपने शरीरमें मुखादि द्वारा जो खुराक जाती है वह प्रथम पेटमें जाती है और वहाँ जानेके बाद शारीरिक क्रियाएँ होती हैं इससे उसमें विभाग पड जाते हैं, एक खल रूपमें अर्थात् मल-मूत्र रूपमें और दूसरा रस रूपमें / Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 212. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * धातुरूपमें परिणत वैसे सारभूत पुद्गलोंका जैल जैसा। खुराकमेंसे निष्पन्न होता प्रवाही रस / इस रसमेंसे ही रुधिर (खून-लहू ) मांस आदि सात धातुएँ बनती हैं और यह कार्य अभी जिसकी व्याख्या करनी है उस शरीर पर्याप्ति द्वारा होता है। - ऊपरकी व्याख्या वास्तवमें तो मात्र औदारिक देहकी आहार पर्याप्तिको ही लागू पड़ती है लेकिन वैक्रिय या आहारक देहकी आहार पर्याप्तिको लागू नहीं पड़ती / क्योंकि इन दो शरीरोंमें विष्टा, मूत्र और सात धातुएँ होती ही नहीं। यह फक्त औदारिक शरीरमें ही होती हैं / अतः इसका सर्वसामान्य अर्थ इस तरह होता है 'ग्रहण किये आहारमेंसे शरीर रच सके वैसी योग्यतावाले आहारको शरीर रच सके वैसी योग्यतावाला करे और शरीर रचनामें उपयोगी न हो सके वैसी अयोग्यतावाले आहारको उससे अलग कर दे' उसका नाम 'आहार पर्याप्ति' / ___ इस प्रकारका अर्थ तीनों शरीरकी आहार पर्याप्तिमें घटेगा / यह पर्याप्ति एक ही समयमें पूर्ण होती है / 2. शरीर पर्याप्ति-जीव पुद्गल समूहमेंसे प्राप्त हुई जिस शक्तिसे औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरके योग्य रसीभूत-रसरूपमें बने आहारके सूक्ष्म पुद्गलों को सात धातु रूपमें अथवा शरीर रूपमें यथायोग्यपनसे परिणत करता हैं वह इस शरीर शक्ति (पर्याप्ति )के प्रभावसे ही। सात धातुओंसे शरीरके अंदर रहे रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र (वीर्य) ये सात वस्तुएँ समझना / रस अर्थात् खाई हुई खुराक पेटमें जाने पर उसमें से रस बने-मोटे प्रवाही रूपमें बने, रसरूपमें बने आहारमेंसे (सात धातु प्रायोग्य उन पुद्गलोंमेंसे ) लहू बनता है, लहूमेंसे मांस और उसमेंसे मेद ( चरबी) और उसमें से अस्थि अर्थात् हड्डियाँ बंधती हैं, फिर उसमें से मज्जा बननेका कार्य शुरू होता है और अंतमें शुक्र (वीर्य) नामकी धातुका निर्माण होता है। तात्पर्य यह कि खाई हुई खुराकमेंसे ही वह पर्याप्ति उपरोक्त सात धातुओं-द्रव्योंको बनाती है। यह औदारिक देह सात धातुओं से बनी है और इसलिए शरीरकी गति, प्रगति, वृद्धि-पोषण, रक्षणादिकमें उपयोगी बनते है। . 507. प्रथम जल प्रवाही रस हो वह रस धातुकी प्रारंभिक अवस्था है / अतः उस अपक्व रसको रसधातु रूप न समझना / वह तो उसके बाद तैयार होता है / 508. रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा ( अस्थिके अंदर रहा चीकना पदार्थ) और वीर्य, ये सातों धातुके रूपमें परिचित होनेसे ये सात धातुएँ कहलाती हैं / मूल वैक्रिय शरीरमें ये सात धातुएँ नहीं होतीं। उत्तर क्रियमें अन्तिम धानुमें विकल्प संभवित हो सके / आहारक शरीर तो सातों धातुओंसे रहित होता है। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * छः पर्याप्तिओंकी व्याख्या . यहाँ शरीर काययोगकी प्रवृत्तिमें समर्थ हो तब तक शरीरकी रचना हो जाती है। यह रचना शरीर पर्याप्तिने की। एक अंतर्मुहूर्त तक शरीर पर्याप्तिने शरीर रचना योग्य पुद्गलोंका ग्रहण-संचय करनेसे शरीर-शक्ति निर्माण होने लगी। मात्र शरीर बना अर्थात् इन्द्रियोंसे रहित ढांचा-आकार तैयार हुआ। 3. इन्द्रिय पर्याप्ति-शरीर पर्याप्तिके समय सात धातु रूपमें परिणत आहार ( या सात धातुरूप द्रव्य ) में से जिस जीवको जितनी इन्द्रियाँ प्राप्त करनेकी हों उन उन इन्द्रियोंके योग्य पुद्गल तुरंत ही ग्रहण करके इन्द्रिय रूपमें परिणत करनेसे इन्द्रियोंकी रचना हो जाए। फिर वे इन्द्रियाँ अपने अपने विषयज्ञानमें समर्थ बन जाएँ। इससे इन्द्रिय पर्याप्तिकी परिसमाप्ति हो जाए। इस रचनामें एक अंतर्मुहूर्त काल लगता है। शरीर रचनाके साथ सुसम्बद्ध ऐसे आहार, शरीर और इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तिओं का वर्णन समाप्त हुआ। तत्पश्चात् तीन पर्याप्तियाँ, शरीरसे बाहर रहे और भिन्न भिन्न प्रकारकी वर्गणाओं जन्य पुद्गलोंके द्वारा तैयार हो सकती हैं, जिन्हें अब समझेंगे। 4. श्वासोच्छ्वास-विश्वमें कतिपय जीव नासिका द्वारा, जबकि कतिपय जीव अपने शरीरके रोम-छिद्रों द्वारा प्राणवायु (Oxygen ) ग्रहण करता है। इस श्वासोच्छवासकी क्रिया जीव किस शक्ति-बलसे कर सकनेमें समर्थ बने ? तो आद्य प्रारंभ तो श्वासोच्छ्वास नामकी क्रिया द्वारा प्राप्त शक्तिसे होता है / इस क्रियाके लिए उसे आकाश या अवकाशमें रहे एक प्रकारके सूक्ष्म पुद्गलोंका आलंबन (सहारा) लेना पडता है। . अब इस क्रियाकी प्रक्रिया और उसका क्रम देखें ___अखिल ब्रह्मांडमें सर्वत्र अर्थात् अवकाश और सर्व पदार्थों के अंदर विविध प्रकार के अनंत पुद्गल स्कंध अनादि अनंतकालसे विद्यमान है। ये स्कंध आठ प्रकारकी कर्मवर्गणाओंके होते है। इस संसारके संचालनके मूलमें ये वर्गणाएँ कर्मों ही होते है / इन वर्गणाओंमें एक श्वासोच्छवास नामकी स्वतंत्र वर्गणा है / जो वर्गणा या उसके पुद्गल स्कंध श्वासोच्छवासकी क्रियाके लिए ही सहायक-उपयोगी है। उत्पत्ति स्थानमें आए जीवको श्वासोच्छ्वासकी क्रियाके विना नहीं चलता, क्योंकि जीवको जीनेके लिए शुद्ध प्राणवायुकी 509. डॉक्टरो या सायन्स कहता है कि, यह क्रिया तो कुदरती है। जब कि जैन तत्त्वज्ञान कहता है, नहीं, कुदरती जरा भी नहीं है। इसके पीछे तथाप्रकारका पूर्वसंचित कर्म ही कारण है / यह कर्म जैसा बांधा हो वैसे श्वासोच्छ्वासकी अनुकूलता-प्रतिकूलता मिलती है। विश्वके या विश्ववर्ती पदार्थोके संचालनके पीछे जैन तत्वज्ञानने बताई हुई कर्मकी अत्यन्त सुव्यवस्थित प्रक्रिया-थियरी पडी है। इसके आधार पर ही गति-स्थिति या प्रगतिकी क्रियाएँ होती है। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 214 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अविरत जरूरत होती है, इसे लेकर अशुद्ध बने प्राणवायुको फिरसे बाहर निकालना पडता है। यह क्रिया नासिका द्वारा होती है, लेकिन इस क्रिया में ताकात वह श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति खड़ी करती हैं। अतः जीव-आत्मा तुरंत ही यह ताकात प्राप्त करनेको आसपास या अवकाश-आकाशमें रहे श्वासोच्छ्वास प्रायोग्य दलिकों-स्कंधोंको खिंचकर श्वासोच्छवासकी क्रियाके रूपमें परिणत करता है। फिर श्वास-अवलंबन ले या ग्रहण करे-रोके और फिर तुरंत ही उसका उच्छ्वासन करे अर्थात् श्वासका विसर्जन करे-छोड दे, इससे ग्रहण किये गए पुद्गल फिरसे आकाश-अवकाशमें दाखिल हो जाएँ, फिरसे ले-छोडे, इस तरह चलता रहे / अन्तर्मुहूर्त तकमें जीव इस क्रिया के लिए समर्थ बन जानेसे यह चौथी पर्याप्ति पूर्ण हो जाए। कर्मपुद्गल ऐसे सूक्ष्म-सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं कि सर्वज्ञ-त्रिकालज्ञानी जीवके सिवाय कोई जीव प्रत्यक्ष देख जान नहीं सकता। . 5. भाषा-श्वासोच्छवासकी तरह आठ प्रकारकी वर्गणाओंमें एक भाषावर्गणा है। यह वर्गणा भाषा अर्थात् बोलनेमें उपयोगी दलिकों ( अणु-परमाणु ) वाली है। जीवको जब जब बोलनेकी इच्छा हो तब तब, अखिल ब्रह्मांडमें रहे भाषा बोलनेमें ( शब्दात्मक या ध्वन्यात्मक ) उपयोगी भाषावर्गणाके पुद्गलोंको ग्रहण करके भाषारूपमें परिणत किये। बोलना हो तब तक अवलंबन लेकर फिर (बोलनेका बंद होने पर) उन पुद्गलोंका अवकाशमें विसर्जन कर देते हैं अर्थात् उन पुद्गल स्कंधोंका त्याग कर देते हैं। ____ इस शक्तिको उत्पत्ति समय ही जीव एक अन्तर्मुहूर्तमें ही प्राप्त कर लेता है। फिर वह शक्तिको 'भाषा पर्याप्ति' इस नामसे संबोधित की जाती है। यह शक्ति प्राप्त कर लेनेसे जीव हमेशाके लिए बोलनेकी क्रियामें समर्थ हो गया। अब जब जब बोलनेकी इच्छा होती है तब तब जीव तुरंत ही आकाशमेंसे पुद्गलोंको अकल्पनीय गतिसे ग्रहण करके वाणी रूपमें परिणत करके वचनरूपमें छोड़ता है। उसके बाद उन पुद्गलोंका अकल्पनीय समयमें अपने आप विसर्जन हो जाता है। चेतन या जड द्वारा उत्पन्न होते हरेक आवाजके पुद्गल एक सैकंडके करोडवें भागमें ब्रह्मांड व्यापी बन जाते हैं। वे तुरंत पुनः अवकाशमें मिल जाते हैं। 6. मनःपर्याप्ति-विचार भी ऐसे वैसे नहीं किया जा सकता। इसके लिए भी एक प्रकारकी अगम्य शक्ति-बलकी जरूरत पड़ती है। उस बलका सहारा-मदद मिले तो ही व्यक्ति विचार और बादकी कक्षाका चिंतन-मनन भी कर सके। . . Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मनःपर्याप्ति और इसकी जीवके बिच वितरण . .215 . . इस शक्ति-बलका नाम मनपर्याप्ति है। यह विचार करनेके लिए जिन पुद्गलोंकी जरूरत पड़ती है, वे ऊपरकी तरह आठ वर्गणामेंसे मनोवर्गणाके दलिक-स्कंध हैं। जीवकी उत्पत्तिके समय विचारकी ताकात प्राप्त करनेके लिए अन्तर्मुहुर्त तक अवकाशवर्ती मनोवर्गणाके पुद्गलोंको आहरण ग्रहण करता रहता है, आवश्यक पुद्गलोंका संचय होने पर उन पुद्गलोंको विचारके रूपमें बदलता-परिणत करता-संस्कारी बनाता रहता है, फिर विचार करना हो तब तक अवलंबन रूपमें रखकर, विचारधारा पूर्ण होने पर उन स्कंधोंका विसर्जन करता है / यह क्रिया पूर्ण होनेसे मनःपर्याप्ति प्राप्त हो चुकती है। अब जब जब विचारोंका ग्रहण, परिणमन और विसर्जन करना हो तब ऊपरोक्त प्रक्रिया होती रहेगी। अब किस जीवको कौनसी पर्याप्ति हो ? एकेन्द्रिय जीवोंको आहार-शरीर-इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास, ये प्राथमिक चार पर्याप्तियाँ होती हैं। विकलेन्द्रिय अर्थात् दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चउरिन्द्रियके पांच पर्याप्तियाँ, असंज्ञी पंचेन्द्रियके [ संमू० ] मनःपर्याप्तिके सिवायकी वे ही पांच पर्याप्तियाँ और संज्ञी पंचेन्द्रिय अर्थात् जिन्हें मन है वैसे [ गर्भज ] जीवोंके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। पर्याप्ति विषयक विशेष विचारणा _ विशेष विचारें तो लब्धि अपर्याप्ता जीवकें तीन पर्याप्तियाँ होती हैं, अर्थात् सर्व अपर्याप्ता संमूर्छिम पंचेन्द्रिय, तिर्यंच तथा मनुष्य और अपर्याप्ता एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके प्रथमकी तीन पर्याप्तियाँ हैं। लाब्ध अपर्याप्ता गर्भजसंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्यके भी वे ही तीन पर्याप्तियाँ हैं। . लब्धि पर्याप्ता एकेन्द्रियके चार पर्याप्तियाँ, लब्धि पर्याप्ता विकलेन्द्रियके तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय [वे संमूर्छिम तिर्यच ] के पाँच पर्याप्तियाँ हैं। संमूर्च्छिम मनुष्य लब्धि पर्याप्त न होनेसे उनकी बात यहाँ नहीं की है। ___लब्धि पर्याप्ता मनुष्य, गर्भज तिर्यच, देव और नारकी इनके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। क्योंकि लब्धिपर्याप्त तिर्यंच मनुष्य अपूर्ण पर्याप्तिमें मरते नहीं और देव, __510. संज्ञा या मन एक नहीं फिर भी उनकी आहारादिककी प्रवृत्ति आहार संज्ञाके कारण समझनी / अथवा असंज्ञीको भी अल्पमनोद्रव्योंका ग्रहण (क्षयोपशमरूप भावमन ) है और इसीसे वह इष्टकार्यमें प्रवृत्ति तथा अनिष्टमें अप्रवृत्ति करता है। परंतु इससे उसे मनःपर्याप्ति नहीं समझें / Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 216 . * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * नारकी लब्धि अपर्याप्ता नहीं होते, लेकिन लब्धि पर्याप्ता ही होते हैं। अतः वे इष्ट पर्याप्ति पूर्ण करते ही हैं / . लब्धि और करण पर्याप्ता और अपर्याप्ताके भेद पर्याप्ति समाप्त होनेके कालके लिए जीवके भी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद पडते हैं। वहाँ जो जीव स्वयोग्य [ जिसे जो हो वह ] पर्याप्तियाँ पूर्ण करके मृत्यु पाए तो जीव पर्याप्ता कहा जाता और दरिद्रने किये निष्फल मनोरथकी तरह जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण किये बिना मरे, तो वह जीव अपर्याप्ता कहा जाए, पर्याप्तपन प्राप्ति होना वह पर्याप्त नाम कर्मक उदयसे होती है और अपर्याप्तपन अपर्याप्त नाम कर्मके उदयसे जीवको होता है, इस तरह जीव के पर्याप्ता और अपर्याप्ता दो भेद मुख्य हैं। और इन भेदोंमें पुनः अवान्तर भेद भी है और ऐसे भेद चार हैं, वे इस तरह 1. लब्धि अपर्याप्ताकी व्याख्या-जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियोंको पूर्ण किये बिना ही मृत्यु पाएँ वे जीव पूर्वभवमें बांधे गए अपर्याप्त नाम कर्मके उदयसे, जब लब्धि अपर्याप्त हों तब एकेन्द्रियके पर्याप्ति चार, फिर भी चार पूर्ण न करके तीन पूर्ण करके ही [चलती चौथीमें ] मरण पा जाए। उसे लब्धि अपर्याप्त एकेन्द्रिय कहा जाता है / यहाँ इतना समझना कि तीन" पर्याप्तियोंको तो कोई भी जीव पूर्ण करता ही है लेकिन चौथी (एके० को) अथवा चौथी, पाँचवीं [विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचे० को ] अथवा चौथी, पांचवीं, छठी ये तीन पर्याप्तियाँ [ संज्ञी पंचे० को] अधूरी ही रह सकती हैं। __2. लब्धि पर्याप्ताकी व्याख्या- जो जीव स्वस्वयोग्य जो जो पर्याप्तियाँ हों, उन्हें पूर्ण करके ही मृत्यु पाए उन जीवोंको [पर्याप्ति पूर्ण करनेके बाद या पहले भी] लब्धि पर्याप्ता कहा जाता / वे पूर्वभवबद्ध पर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे ही स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण कर सकनेको समर्थ बनते हैं। 511. प्रथमकी तीन पर्याप्तियोंको सर्व जीव अवश्य पूर्ण करते हैं और शेष पर्याप्तियोंको करें या न करें / इसका कारण यह है कि जीव भवमें वर्तित हो वहाँसे परभवका आयुष्य बांधनेके बाद अन्तर्मुहूर्त उसी भवमें रहकर फिर मृत्यु पाकर परभवमें उत्पन्न होता है। क्योंकि परभवायुष्य प्रस्तुत भवमें ही बंधता और इसीसे उस परभवका स्थान यहाँ नियत करके ही जीवकी मृत्यु होती है / अब आयुष्यका बंध इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण करनेके पहले होता ही नहीं, इस कारणसे प्रथमकी तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण करनेके बाद चौथी अधुरी रहे तब (अन्तर्मुहूर्त तक आयुष्यका बंध करके उसका अन्तर्मुहूर्त अबाधाकाल भोगने जितना जी कर ) मरण पाता है अतः चौथी पर्याप्ति अधूरी ही रहती है, इसलिए / सूचना-५११. के बाद सीधा टिप्पण नं. 521 समझना, बिचके 10 के टिप्पण नंबर रद समझना। क्योंकि अगाऊ 24 पन्ने जो छपे थे वे गूम हो जानेसे नया लिखना पडा, जिससे पुरानेमें दूसरे क्या टिप्पण मैने किये थे, वे याद नहीं हैं। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लब्धि और करण पर्याप्त-अपर्याप्ताकी व्याख्या * _ * 217 . - 3. करण अपर्याप्ताकी व्याख्या-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण अभी तक नहीं की है, परंतु वह उसे पूर्ण करेगा ही, लेकिन वहाँ तक वह करण अपर्याप्ता ही कहा जायेगा। इसका तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति स्थानमें समकाल पर स्वयोग्य पर्याप्तिकी रचनाका जो प्रारंभ हुआ है वह जहाँ तक समाप्त नहीं होता वहाँ तक जीव करण अपर्याप्ता माना जाता है। ___पूर्वोक्त लब्धि अपर्याप्त-पर्याप्त- इन दोनों जीवोंमें करण अपर्याप्तापन होता है, अर्थात् लब्धि-अपर्याप्ता जीवोंके लिए बहता था, अर्थात् मृत्यु और उत्पत्तिके बीचके समय पर और इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण न हो वहाँ तक उन्हें करण अपर्याप्ता कहा जाता है। .. इसी प्रकार लब्धि पर्याप्ता जीव एक भवमेंसे दूसरे भवमें जब पसार होता है वहाँसे लेकर छः पर्याप्तिकी पूर्ण प्राप्ति नहीं कर सकता है वहाँ तक उसे करण अपर्याप्ता माना जाता है। इसमें लब्धि पर्याप्ता जीव तो प्रथम करण अपर्याप्ता होनेसे जब भी वह पर्याप्तिको पूर्ण करेगा तब करण पर्याप्ता तो बनेगा ही, जबकि लब्धि अप. र्याप्ताके लिए तो करण पर्याप्ताका सवाल उठता ही नहीं है। 4. करण पर्याप्त-समकालमें प्रारंभकी हुई स्वयोग्य सर्व पर्याप्तियोंको पूर्ण करने के बाद ही जीव करणपर्याप्ता कहा जाता है। यह सब देखते हुए हमें यह जरूर लगता . हैं कि लब्धि पर्याप्ता ही करण पर्याप्ता हो सकता है। - लब्धि, करण, पर्याप्त-अपर्याप्तकी काल विवक्षा 1. जीवका लब्धि अपर्याप्तापनका काल, भवके प्रथम समयसे [जीव पूर्वभवसे छूटता है उसी समयसे लेकर ] उत्पत्ति स्थानमें आकर इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं करता वहाँ तक का अर्थात् कुल मिलाकर अन्तर्मुहूर्त्तका होता है। जिससे रास्ते पर चलते समय अर्थात् मृत्यु और उत्पत्ति (जन्म)के बीचके समयमें भी जीव लब्धि अपर्याप्त होता है। इस समय इसका भी जघन्योत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त्तका होता है। 2. लब्धि पर्याप्तपनका काल उत्पत्तिके समयसे लेकर अर्थात् पूर्वभवसे छूटता है वहाँसे लेकर नये जन्मके अन्त्य समय तक अर्थात् जीव जहाँ तक जिन्दा रहता है वहाँ तक का रहता है। इसमें यहाँ देवोंके लिए उत्कृष्टकाल तेंतीस सागरोपमका तथा मनुष्यों के लिए तीन पल्योपमका समझें / अतः राह पर चलता हुआ जीव अर्थात् मृत्यु और उत्पत्ति बृ. सं. 28 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 218 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * के वीचके समयका जीव भी लब्धि पर्याप्ता कहा जाता है। शास्त्रमें भी जहाँ जहाँ पर्याप्ता जीव बताया गया है, उन्हें लब्धि पर्याप्ता ही समझें / और जहाँ अपर्याप्ता कहा है वहाँ इन्हें प्रायः लब्धि अपर्याप्ता ही जानें। क्योंकि क्वचित् करण अपर्याप्ताकी अपेक्षा रखकर भी विवक्षा की गयी है इसलिए यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है। लब्धि पर्याप्ताका उत्कृष्टकाल व्यापक दृष्टि से सागरोपम शतपृथक्त्व कहा गया है, जबकि जबन्य अन्तर्मुहूर्त्तका होता है। 3. करण अपर्याप्तापनका काल भवके प्रथम समयसे लेकर स्वयोग्य सर्व पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता वहाँ तक अर्थात् कुल मिलाकर अन्तर्मुहूर्त्तका रहता हैं। इतना ही नहीं, अपनी राह पर चलता हुआ जीव भी करण अपर्याप्ता माना जाता है इसका भी ध्यान रखें। . 4. करण पर्याप्तपनका काल अन्तर्मुहूर्त न्यून अपने-अपने आयुप्यके प्रमाण जितना ही समझा जाना चाहिये / क्योंकि जीव विवक्षित भवमें आकर अन्तमुहर्तके बाद पर्याप्तियाँ पूर्ण करने पर करण पर्याप्ता बनता है। इसलिए लब्धि पर्याप्ताके आयुष्यमेंसे पर्याप्ति पूर्ण करनेका अन्तर्मुहूर्त काल छोड़कर शेष पूर्ण जीवन तकका काल [ देवोंमें जिस प्रकार अन्तर्मुहूर्त न्यून 33 सागरोपम तथा मनुष्यमें अन्तर्मुहूर्त न्यून 3 पश्योपम रहता है इसे ] करण पर्याप्ता समझना चाहिए। लब्धि अपर्याप्त भवके प्रथम समयसे अंतर्मुहूर्त तक / लब्धि पर्याप्त भवके प्रथम समयसे स्व आयुष्य तक। करण अपर्याप्त भवके प्रथम समयसे अंतर्मुहर्त यावत् / करण पर्याप्त अंतर्मुहूर्त न्यून स्व आयुष्य पर्यन्त / चारों प्रकारोंमें समकाले एक साथ कितने संभवित हो सकते हैं ? 1. जीव लब्धि अपर्याप्त होता है उसी समय तो ठीक है कि वह लब्धि अपर्याप्त तो है ही, लेकिन उस समय करण अपर्याप्तपन भी घट सकता है। इन्द्रिय पर्याप्ति पर पर्याप्ताकी अपेक्षा करण पर्याप्तपन भी घटे / 2. लब्धि पर्याप्ताके समय लब्धि पर्याप्त तथा करण अपर्याप्त होते हैं / ___3. करण अपर्याप्तामें करण अपर्याप्तके साथ लब्धि अपर्याप्ता और लब्धि पर्याप्ता होते हैं। 4. करण पर्याप्तामें करण पर्याप्त लब्धि पर्याप्ता पूर्ववत् अपेक्षासे लब्धि .अ. प. भी होता है। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .219. .. पर्याप्ति संबंधी विशेष स्वरुप * पर्याप्त लब्धि पर्याप्त लब्धि अपर्याप्त करण अपर्याप्त करण अपर्याप्त करण पर्याप्त पर्याप्तिका प्रारंभ समकाल पर और समाप्ति अनुक्रम पर जीव उत्पत्ति स्थानमें आनेके बाद स्वयोग्य सर्व पर्याप्तिका प्रारंभ [एक साथ] समकाल पर ही करने लगता है, परंतु उसकी समाप्ति अनुक्रमसे करता है, क्योंकि तैजस, कार्मण शरीरके सहकारसे आत्माने उत्पत्ति स्थानमें प्रथम समय पर शुक्र, रुधिरादि जो जो पुद्गल ग्रहण किये, उनके द्वारा ग्रहण किये और अन्य ग्रहण किए जाते और अबसे ग्रहण होनेवाले पुद्गलोंको भी, खलरसपनसे अलग करनेकी शक्ति प्राप्त हो गई। अतः आहार पर्याप्तिकी परिसमाप्ति हुई सही, परन्तु प्रथम ग्रहण किए गए उन पुद्गलोंने शरीर आदिकी रचना कुछ अंशमें प्राप्त की परन्तु संपूर्ण नहीं, अर्थात् प्रथम समयगृहीत पुद्गलोंमेंसे कतिपय खलपनसे, कतिपय रसपनसे [सात धातुपनसे ], कतिपय इन्द्रियपनसे, कतिपय श्वास उच्छ्वास कार्यमें, कतिपय भाषाके कार्यमें और मनःकार्यमें सहायकपनसे परिणत हुए हैं और उतने अल्प अल्प पुद्गलों द्वारा आत्माको उस उस कार्यमें कुछ अंशमें शक्ति प्राप्त हुई है उस कारणसे सर्व पर्याप्तियाँ समकाल पर शुरु होती हैं ऐसा कहा जाता है, लेकिन हरेककी समाप्ति तो अनुक्रमसे ही होती है। पर्याप्तियाँ क्रमशः समाप्त क्यों होती हैं ? . छहों पर्याप्तिओंका समकाल पर प्रारंभ होने पर भी अनुक्रमसे पूर्ण होनेका कारण आहारादिक पर्याप्तियोंके पुद्गल अनुक्रमसे सूक्ष्म-सूक्ष्मतर परिणामवाले रचने पड़ते हैं तब, अर्थात् पहली आहार पर्याप्ति स्थूल, दूसरी शरीर पर्याप्ति उससे सूक्ष्म, इस तरह यावत् छठी पर्याप्ति अधिक अधिक पुद्गलोपचयसे सूक्ष्मतर होता है और अधिक अधिक पुद्गल प्राप्त करनेमें काल भी अधिक लगता है / . उदाहरणके तौर पर-जिस तरह सेर रुई कातनेको छहों कातनेवाली समकाल पर कातने लगे, तो मी मोटा सूत कातनेवाली अंटा जल्दी पूर्ण करती है और उससे सूक्ष्म सूक्ष्मतर कातनेवाली क्रमशः अंटा विलंबसे पूर्ण करती है, वैसा पर्याप्तियोंकी समाप्तिमें समझना है। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 220 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * % 3E चारों गति आश्रयी पर्याप्तिक्रम। ___ औदारिक शरीरी मनुष्य और तिर्यच इन दो गतिके तमाम जीवोंकी प्रथम आहार पर्याप्ति एक समयमें ही पूर्ण होती है और उसके बाद अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त्तकाल पर अनुक्रमसे शेष शरीर-इन्द्रिय आदि पांचों पर्याप्तियाँ पूर्ण होती हैं / सबका सामूहिक काल भी अन्तर्मुहर्त होता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त-काल के माप-प्रकार असंख्य हैं। वैक्रिय शरीरी ऐसे देव, नारक आहार पर्याप्ति प्रथम समयमें पूर्ण करते हैं, शरीर पर्याप्ति एक अन्तर्मुहूर्तमें, और शेष चार अनुक्रमसे एक एक समयके अन्तरमें समाप्त करते हैं। यहाँ सिद्धान्तमें देवको भाषा तथा मनकी पर्याप्ति समकाल पर एक साथ समाप्त होनेका बताया है, उस अपेक्षासे देवको छः नहीं लेकिन, पांच पर्याप्तियाँ बताई हैं। जीव उत्तर-वैक्रिय शरीर बनावे तब और कोई चौदहपूर्वधर आहारक शरीर रचे तब पर्याप्तिका क्रम देवकी पर्याप्तिकी व्याख्या अनुसार समझना / उत्तरदेहके लिए पर्याप्तिकी भिन्न रचना कोई लब्धिवंत जीव उत्पत्तिस्थानमें आकर अपने मूल शरीरकी रचनाके समय पर स्वयोग्य चार अथवा छः पर्याप्तियोंको ही समाप्त करता है। उन पर्याप्तियोंसे वह जीव सारे भव पर्यन्त पर्याप्ता गिनाता है / परन्तु वैक्रियादि लब्धिवाला वह जीव प्रस्तुत पर्याप्तावस्थामें जिस नूतन शरीर अर्थात् वैक्रिय शरीरको बनावे, तब उसी शरीर योग्य चार अथवा छः पर्याप्तियाँ जो रचनी पडें उन्हें फिरसे नये सिरेसे ही रचता है / उत्पत्तिके समय पर रची पर्याप्तियाँ उत्तमशरीरके लिए उपयोगी नहीं होतीं / जिन लब्धि पर्याप्ता बादर वायुकाय जीवोंमेंसे कतिपय वायुकाय जीव वैक्रिय शरीर रचनेमें समर्थ हैं, उन्होंने उत्पत्तिके समय पर औदारिक शरीर विषयक जो चार पर्याप्तियाँ रची थीं वे विद्यमान होने पर भी दूसरा नूतन उत्तरवैक्रिय शरीर रचते समय फिरसे नई ही चार पर्याप्तियोंको रचनी पड़ती हैं / __इसी तरह आहारक शरीरकी लब्धिवाला लब्धिवन्त *चौदह पूर्वधर महात्माको आहारक शरीर रचने पर उत्पत्ति समयकी औदारिक विषयक छः पर्याप्तियाँ शरीर रचनामें काम नहीं आती इसके लिए तो उन्हें आहारक देहके योग्य नयी छः पर्याप्तियोंकी रचना करनी ही पड़ती है। * आहारक शरीर चौदह पूर्वधरकी लब्धिवाला ही रच सकता है / Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * छः पर्याप्तिका पुद्गल स्वरुप और व्याख्या . * 221. . तात्पर्य यह कि वैक्रियलब्धिवंत मनुष्योंके मूलदेहकी छः पर्याप्तियाँ अलग और उत्तर वैक्रिय देहकी छः पर्याप्तियाँ भिन्न होती हैं / पर्याप्ति विषयक पुद्गल कौनसे मानना? छहों पर्याप्तियोंके पुद्गल औदारिक शरीरीको औदारिक वर्गणाके, वैक्रिय शरीरीको वैक्रिय वर्गणाके और आहारकको आहार वर्गणाके होते हैं। प्रथम समय पर ग्रहण किये जाते आहार पर्याप्तिके पुद्गलोंमें तीनों ही वर्गणाओं से होते हैं / आहारक शरीर और मनः पर्याप्ति के पुद्गल शरीरमें सर्वत्र व्याप्त हैं। उच्छ्वास, भाषा पर्याप्तिके पुद्गलका स्थान अकथ्य है। इन्द्रिय पर्याप्तिका स्थान शरीरके नियत किये गए ( शरीरके ऊपर और अंदर) भागमें है। विशेषमें जीभ-जिह्वा इन्द्रियके पुद्गल बाह्याकारमें दीखती जीभके स्थानवर्ती ही होते हैं। लेकिन समग्र शरीरमें नहीं। . छहों पर्याप्तियाँ पुद्गल स्वरूप हैं वह पर्याप्ति पुद्गल स्वरूप है और वह कर्तात्माके करण-साधनरूप है। तथा उस करणसे, संसारी आत्माको आहार ग्रहणादि सामर्थ्य-शक्ति पैदा होती है और वह करण -शक्ति जिन पुद्गलों द्वारा रची जाती है वे आत्मासे ग्रहण किये गए पुद्गल जो तथाविध परिणतिवाले हैं [कारण कार्यभावसे ] उन्हें ही पर्याप्त शब्दसे बोला जाता है और इस हेतुसे ही ये सारी जीव-शक्तियाँ पुद्गल जन्य हैं क्योंकि जीवके सर्व कुछ पौद्गलिक व्यापार उस पुद्गल समूहको अवलंबित ही हैं। अगरचे जीवकी स्वयं शक्ति अपार और अवाच्य है, परंतु वह सिद्धावस्थामें है, जबकि संसारीमें वह शक्ति पुद्गल द्वारा प्राप्त होनेके कारण वह पौद्गलिक है। 'व्य निमित्तं हि संसारीणां वीर्यमुपजायते' इस प्रमाणसे / .. प्राणका कारण पर्याप्ति-पुनः इन पर्याप्तिओंकी रचना होनेसे उसमें से अगली गाथामें कहे जाते जीवके दस प्राण उत्पन्न होते हैं / अतः कारणरूप ऐसी पर्याप्तिका कार्य प्राण ही है। इस तरह पर्याप्तियाँ और उन सम्बन्धित बावतोंका वर्णन पूर्ण हुआ। .. पर्याप्तिके अनुसंधानमें कुछ कहने लायक दृश्य अदृश्य अखिल (चौदहराजलोकरूप) विश्वमें दो प्रकारके जीव हैं। एक सिद्ध और दूसरे संसारी / सिद्धात्माएँ इस संसारसे (देव, मनुष्य, नरक, तिर्यच गति रूप) सर्वथा मुक्त हुई होती हैं। अब पुनः वे कभी जन्म नहीं लेती ऐसी आत्माओंको सिद्धात्माएँ या मुवितगामी आत्माएँ कहते हैं। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 222. . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * % 3D - इन जीवोंका स्थान कहाँ है? इसके समाधानमें जणानेका यह कि ये जीव जो मोक्ष पाकर सिद्ध बन गए वे इस ब्रह्मांडमें चौदह राजलोकमें असंख्य आकाशको बेधकर ऊर्ध्वातिऊर्ध्व-अकल्पनीय इतनी दूर-सुदूर जाएँ ( शास्त्रदृष्टिसे सातराज दूर) तब अखिल विश्वके चरम भाग पर पत्थरकी बनी 45 लाख योजनकी गोलाकार विराट् शिला आकाशमें ऊँची रही हैं, उसके पर अनंतानंत, सदाके लिए विदेही-देहरहित असंख्य प्रदेशरूप प्रमाणवाली, विविध आकारकी, आत्माएँ अनंत काल तक एक ही स्थानमें रहनेवाली बनी रहती हैं। वहाँ पहुँची हुई को कभी किसी कालमें वहाँसे जन्म लेनेको इस संसारमें अवतार नहीं लेना पड़ता। शरीर है तब तक ही संसार है। तब तक सारे बंधन और दुःख है। संसार है इसलिए कर्म है। जहाँ कर्म है वहाँ चारों गतियाँ -स्थान देव, मनुष्य, नरक, तिर्यंचमें परिभ्रमण है / और तब तक बंधनों और विविध दुःखोंकी प्राप्ति है। आत्मा सत्प्रयत्नों, सत्कौद्वारा जिस भवमें-जन्ममें कर्मका सर्वथा अन्त ला दे तब वह सीधी मोक्षमें पहुँच जाती है। और सिद्धशिला पर, शिलासे थोडी दूर रहे आकाशवर्ती स्थानमें जहाँ अनंतानंत आत्माएँ अनंता कालसे ज्योतिमें ज्योति समा जाए उस प्रकार रही हैं उसमें वे समा जाती हैं। फिर भी प्रत्येक सिद्धात्माको व्यक्तिरूपसे तो सदाकाल स्वतंत्र रूपमें ही समझना। हम देख आए कि जो कर्मसे लिप्त हैं। वे ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक्लोकमें (त्रसनाडीमें ) तथा उसके बाहर घूमा करते हैं। शक्ति दोनों प्रकारमें है। एकमें चैतन्य शक्तिका पुज है। दूसरेमें पौद्गलिक शक्ति है। यह शक्ति पुद्गल द्रव्य के सहारे या निमित्तसे प्राप्त होती है। संसारी जीव मात्र वह सूक्ष्म हो ,या स्थूल, स्थावर हो या बस वह जहाँ जहाँ जन्म ले वहाँ वहाँ जीवन निर्वाहके लिए, भावि जीवन निभानेके लिए, जीवनके आवश्यक कार्य करनेके लिए पुद्गल जन्य शक्ति-बल प्राप्त करनेकी उसे अनिवार्य जरुरत पड़ती है, अर्थात् उस उस जन्मके योग्य शक्तियाँ जन्मनेके साथ ही प्राप्त करनी पड़ती हैं। अगर उन्हें प्राप्त न करे तो वह उन कार्योंको कदापि नहीं कर सकता, और कुछ मी व्यवहार चला नहीं सकता / इन शक्तियोंको प्राप्त करनेका प्रारंभ पर्याप्तिओं द्वारा होता है / जैसे कि-जीव आहार पर्याप्तिकी शक्ति प्राप्त न करे तो आहार करनेको समर्थ न बने, उस तरह शरीर या इन्द्रियोंको न बना सके, श्वासोच्छ्वास न ले सके, बोल न सके, Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पर्याप्तियाँ पूर्ण होने पर क्या शक्तियाँ प्राप्त होती है? * * 223 * विचार न कर सके। इन सब कार्योंके लिए जीव जिन जिन बलोंको उपस्थित करे उसीका दूसरा नाम *पर्याप्ति / इस पर्याप्ति रूप करण-साधन विशेषकी मददसे जीव इन ताकतोंको खड़ी करने में समर्थ बना। ये शक्ति-ताकत पुद्गल द्रव्यके निमित्तसे ही प्रकट होती हैं। पर्याप्ति एक प्रकारके कर्मका ही प्रकार है / कारण के विना कार्य नहीं होता / जीव कारण रूपमें कर्मको ही मानता है। पाठकोंको यह मुद्दा खास ध्यानमें रस्वना चाहिए / पर्याप्तियाँ पूर्ण होने पर क्या क्या शक्तियाँ प्राप्त हों ? ऊपर बताया कि उन उन पर्याप्तिओं द्वारा उस उस प्रकारके बल प्राप्त करता है तो वह किन किन शक्तियोंको प्राप्त करता है और उन शक्तियोंसे क्या क्या कार्य बजाता है. इसे विस्तारपूर्वक देखें। 1. आहार पर्याप्ति पूर्ण होने पर आहार ग्रहण करनेकी शक्तिके साथ ग्रहण किये गए आहारके परिणमनके साथ उसे खल (अर्थात् विन जरुरी मलमूत्रादि भाग और) रस (और जरूरी भाग) रूपमें अलग करनेकी क्रिया में जीव समर्थ बनता है। 2. उसके बाद तुरंत शरीर पर्याप्ति पूर्ण करने पर क्या हो ? उससे शरीरकी विविध क्रियाएँ, देह के योग्य और पोषक ऐसे रोमराजी द्वारा ग्रहण किए जाते लोमाहारको और मुख द्वारा लिए जाते कवल आहार रूप पुद्गलोंको शरीररूपमें परिणत करनेकी अर्थात् बनानेकी क्रियामें जीव समर्थ बन जाता है। 3. इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने पर पांचों इन्द्रियों के विषय बोधमें जीव समर्थ बनता है अर्थात् स्पर्श किस प्रकारका है ! उसका स्वाद कैसा है ? उसकी गंध कैसी है ! विषय दर्शन कौनसा है ? और श्रवण ध्वनि काहेकी है ! इन पांचों विषयोंका ज्ञाता बन सकता हैं। 4. श्वासोच्छवास पर्याप्ति पूर्ण होने पर श्वासोच्छवास लेनेकी ( तत्प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण-परिणमन और विसर्जन-लेने छोड़नेकी) क्रियामें जीव समर्थ बनता है और यह * रोजबरोजकी अविरत होतीं शारीरिक क्रियाओंके लिए जिन शक्तियोंकी जरूरत पडती है उसका दूसरा नाम पर्याप्ति है। दूसर। अर्थ कारणमें कार्योपचार करके शक्तिको उत्पन्न करनेमें कारणभूत पुद्गलोपचय भी पर्याप्ति है। तत्त्वार्थभाष्य-वृत्तिकी व्याख्या यह है कि शक्तिमें निमित्तभूत पुद्गलोपचय सम्बन्ध क्रियाकी परिसमाप्ति / इस तरह शक्ति-सामर्थ्य, शक्तिके जनक पुद्गल और उस क्रियाकी परिसमाप्ति इस तरहं तीन अर्थ फलित होते हैं। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , 224 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * होते ही श्वासोच्छवास 'प्राण' नामके भेदका सर्जन होता है इसीलिए पर्याप्तिको कारणरूप और प्राणोंको उसके कार्य रूप माने हैं। जो बात आगेकी गाथामें आनेवाली ही है। ___5. भाषा पर्याप्ति पूर्ण होने पर जीवको बोलनेकी सामर्थ्य प्रकट हो जाती है / 6. मनःपर्याप्ति पूर्ण होने पर विचार, चिंतन, मनन आदि मनके व्यापार करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है और परिणाम स्वरूप 'मनोबल' नामका ( दस प्राणमेंसे एक) प्राण जन्म लेता है / शरीर पर्याप्तिसे 'कायबल' नामका प्राण / इन्द्रिय पर्याप्तिसे पांच इन्द्रिय रूप पांच प्राण। भाषा पर्याप्तिसे 'वचनबल' रूप प्राण और मनः पर्याप्तिसे 'मनोबल' रूप प्राण पैदा होते हैं। 'आयुष्य' नामका प्राण उत्पन्न करने कोई शक्ति प्राप्त करनेकी जरुरत न होनेसे कारणरूपसे किसी नई पर्याप्तिकी अगत्य नहीं रहती फिर भी आहार पर्याप्ति आयुष्य प्राणको टिकाने में मुख्य कारण रूप होनेसे उसे सहकारी कारण रूपमें मानी जा सकती सही। तत्त्वार्थभाष्य वृत्तिके आधार पर छ: पर्याप्तिओंकी विशिष्ट समझ 1. एक घर बनाना हो तो प्रथम ईंटें, लकडे, माटी, चूना आदि सामग्री एक साथ एकत्र की जाती है / यह सारी सामग्री घरके दलिक अर्थात् साधन रूपमें है। इस सामग्रीमेंसे कोनसी कहाँ उपयोगमें लेना वह क्रमशः निश्चित किया जाता है / __ इस तरह यहाँ उत्पत्ति स्थानमें उत्पन्न होता जीव प्रथम समय पर उस उस योग्यतावाले विविध रीतसे उपयोगी पुद्गलोंको सामान्यरूपमें ग्रहण करे उसका नाम आहार पर्याप्ति। इस पर्याप्तिके समय अनेक कार्योंका प्रारंभ होता है। 2. अब जैसे घरके लिए एकत्र की गई उस सामग्रीमेंसे जो लकडा था उसमें से इसका पाट, इसका स्तंभ, इसकी बारी बनेगी ऐसा सोचा जाता है, वैसे प्रथम समय पर ग्रहण किए गए पुद्गलोंमेंसे अमुक पुद्गल शरीर वर्गणा योग्य होनेसे उन पुद्गलोंसे शरीर बनता होनेसे जीव शरीरको बनानेमें समर्थ बनता है। परिणाम स्वरूप उस समय घरकी लंबाई, चौडाई, ऊँचाई, मोटाई निश्चित होती है, इस तरह यहाँ शरीरका स्वरूप निश्चित होता है। 3. उसके बाद घरमें कितने दरवाजे रखना ? कहाँ रखना ! निर्गमनके दरवाजे कहाँ रखना इसका निर्णय किया जाता है। साथ ही इन्द्रिय पर्याप्ति द्वारा प्रवेश करना, निकलना आदि मार्ग निश्चित होते हैं। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पर्याप्ति संबंधमें विशेष स्वरुप . .225. .4-5. उच्छवास, भाषामें भी तत्प्रायोग्य पुद्गलोंका गमनागमन होता ही है। अतः उसकी घटना इन्द्रिय पर्याप्तिके साथ घटित होनेसे उस प्रकार समझ लेना / 6. मुकाम तैयार होनेके बाद दीवानखाना, बैठकका कमरा, सोनेका, भोजनका स्थान कहाँ रखना आदि हिताहितकी दृष्टि से सोचकर जैसे निश्चित किया जाता है वैसे पांच पर्याप्ति रचकर फिर अपने हिताहितकी दृष्टिसे किस प्रकार चलना, किस तरह सारा व्यवहार करना इसके लिए विचारशक्ति रूप मनःपर्याप्तिकी जरूरत पड़ती है। इस तरह पर्याप्तियोंकी घरके साथ घटना बताकर समझ दी गई। क्या मन पर्याप्तिरूप नहीं है? तत्त्वार्थग्रन्थमें मनः पर्याप्तिको इन्द्रिय पर्याप्तिमें गिनकर पांच पर्याप्तियोंका वर्णन किया है। व्यवहारमें भी मनको छठी इन्द्रिय संबोधित की जाती है। शंका हो कि मन तो अनिन्द्रिय है तो उसे इन्द्रिय कैसे गिना जाए ? इसका जवाब यह है कि इन्द्रियोंकी तरह मन साक्षात् किसी विषयका ग्राहक नहीं है अतः उसे स्पष्ट रूपसे इन्द्रिय नहीं कहा जाता, लेकिन सुखादि वगैरहका साक्षात् अनुभव वह करता होनेके कारण उस अपेक्षासे और साथ ही मन, इन्द्र अर्थात् आत्मा और उसका लिंग-लक्षण होनेके कारण इस अर्थकी दृष्टिसे इन्द्रिय कही जाती है। इस दृष्टिसे इन्द्रिय पर्याप्तिमें समावेश किया जा सकता है। आहार पर्याप्तिकी दूसरी व्याख्या- तत्त्वार्थभाष्यकारने की आहार पर्याप्तिकी व्याख्या अलग रीतसे है। वे बताते हैं कि शरीर, इन्द्रिय, भाषा आदि सारी पर्याप्तियोंके योग्य दलिक द्रव्योंको ग्रहण करने रूप क्रियाकी समाप्ति वह आहार पर्याप्ति / सबका प्रारंभ साथमें, अन्त साथमें नहीं-छः पर्याप्तियोंमें प्रथमकी तीन पर्याप्तियों-शक्तियोंका कार्य तो प्रथम समयसे ही शुरु हो जाता है जबकि उच्छवासादि अन्तिम तीन पर्याप्तियोंका कार्य उन उन वर्गणाओंके ग्रहण, उन उन पुद्गलोंकी रचनाके बाद होता है। परंतु तीनोंका प्रारंभ तो प्रथम समयसे ही शुरु हो जाता है। प्रथम समय पर सामान्य स्वरूपमें ग्रहण किए जाते पुद्गलोंमेंसे जीव कुछको शरीर रूपमें उपयोगमें लेता है, कुछका इन्द्रियोंकी रचनाके काममें उपयोग करता है, कुछको उच्छ्वास करण, भाषाकरणरूपमें और कुछको मनःकरणरूपमें उपयोगमें लेता है। पुद्गल बृ. सं. 29 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 226 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ग्रहणके समय छः रचना या कार्योंके लिए उपयोगी पुद्गलोंको उपयोगमें लेता जाता है और बिन उपयोगी हों उन्हें साथ साथ ही छोड़ता जाता है। इस तरह छहों पर्याप्तियोंके पुद्गलोंकी रचनाका प्रारंभ तो प्रथम समयसे ही शुरु होता है। लेकिन समाप्ति साथमें नहीं होती इसे ध्यानमें रखना चाहिए / [338] अवतरण-यह गाथा पर्याप्तिके अर्थ रहस्यका प्रतिपादन करता है। अगरचे इसके पहलेकी गाथाओंमें पर्याप्तिके बारेमें बहुत ही चर्चा हो गई है। लेकिन वह टीका या ग्रन्थान्तरसे भाव द्वारा की। लेकिन संग्रहणीकर्ता को तो संग्रहणी की मूलगाथा द्वारा पर्याप्तिका अर्थ कहना था, जो इस गाथाके पहले कहा ही नहीं गया था / वह अर्थ कुछ विशेषरूपमें मूलगाथा द्वारा बताते हैं। आहारसरीरिंदिय, ऊसासवउमणोभिनिव्वत्ति। होइ जओ दलियाओ, करणं पइ सा उ पज्जत्ती // 339 // - गाथार्थ- दलियारूप पुद्गल समूहसे आहारादि छः कार्यों की रचना होती है उन दलिकोंका अपने अपने विषयरूप जो परिणमन और उस परिणमनके प्रति शक्तिरूप जो करण वह पर्याप्ति। इनमें जीव कर्ता, पुद्गलोपचयोत्पन्न शक्ति वह करण तथा. आहारादि परिणमन वह क्रिया है। यह गाथा क्लिष्टार्थक है। // 339 // विशेषार्थ-गाथा के अर्थसे यह स्पष्ट होता है कि कर्त्तारूप 'जीव' है। पुद्गलोपचय शक्ति वही 'करण' है और आहारादिका परिणमन वह 'क्रिया' है। ग्रन्थान्तरगत बताए गए पर्याप्तिके विभिन्न अर्थ 1. आहार आदि पुद्गलोंको ग्रहण करनेमें और तद्प परिणाम लानेमें पर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे पुद्गलोपचय द्वारा उत्पन्न हुई जीवकी जो शक्ति वह / 2. शक्तिके आलंबन-कारणरूप जो पुद्गल वे। 3. शक्तिकी और शक्तिके कारणभूत पुद्गल समूहकी निष्पत्ति वह / 4. उन उन शक्तियोंके कारणभूत पुद्गल समूहकी क्रियाकी परिसमाप्ति / यह पर्याप्ति अर्थात् (अपेक्षासे ) एक प्रकारकी आत्मशक्ति / वह शक्ति पुद्गल समहके आलंबनसे होती है। आत्मा विवक्षित भवमें उत्पन्न हुई कि कोयलेमें प्रक्षिप्त अग्निकी तरह जीव तुरंत ही प्रतिसमय : आहार और शरीरादिके निर्माणके योग्य पुदगलोंको ग्रहण करने लगता है। और फिर वह कार्य जीवन पर्यंत चालू रहता है। लेकिन उस अग्निकी तरह जीवा तुरंत ही प्रतिसमय आहार Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •पर्याप्ति संबंध बारहवाँ परिशिष्ट. .227. आहारादि पुद्गल समूहके ग्रहण द्वारा प्रत्येक आत्मा साथ साथ यथायोग्य समयमें ही आवश्यक अन्य जो कार्यों "उन्हें भी करनेके लिए छः प्रकारकी शक्तियोंको (अग्निपावर ) तैयार कर लेती है। और इन छः शक्तियों के द्वारा ही छः क्रियाओंका कार्य आजीवन शक्य बनता है। इन छः प्रकारकी शक्तियोंको (पावरोंको) उत्पत्तिके एक ही अंतर्मुहूर्तमें तैयार कर लेती है। जो जिंदगी तक कार्यरत रहती ही हैं। [339] श्री भीडभंजनपार्श्वनाथाय नमः ... पर्याप्ति विषयक स्पष्ट तारण-परिशिष्ट नं. 12 टिप्पणी-पर्याप्तिके विषय में बहुत विशद् विवेचन दिया जा चुका है। परंतु उसका तारण करके स्पष्टतापूर्वक और सरल करके दिया जाए तो इस विषयको समझना अधिक सुगम हो जाए। अतः छूट पूट तात्पर्यों द्वारा यहाँ प्रस्तुत किया है। पर्याप्ति* और नामकर्मकी प्रकृतिमोंका क्या सम्बन्ध है वह भी समझमें आएगा। कोई भी जीव एक भवमेंसे च्यवित होकर (मरकर ) एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय यावत् संशि पंचेन्द्रियके भवमेंसे किसी भी भवमें उत्पन्न हो कि तुरंत ही वह भवप्रायोग्य, महारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच् वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति इन छहों पर्याप्तियोंका अथवा जिस भवमें जितनी पर्याप्तियाँ हों उतनी पर्याप्तियोंका उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे ही उस जीवको प्रारंभ होता है। आत्मा जिस क्षण उत्पत्तिस्थानमें आती है उसी क्षणसे किन किन पुद्गलोंका किस किस कारणसे उसे ग्रहण होता है और ग्रहण होनेके बाद उन पुद्गलोंमें जीवन पर्यंत जिनसे जिया जा सके और जीवका कार्य व्यवहार चल सके ऐसी क्या क्या जीवन शक्तियाँ-पर्याप्तियाँ प्रकट होती हैं उस बाबतका व्यवस्थित क्रम इस तरह है। ___ इस क्रमके निरूपणका प्रारंभ हो उसके पहले कतिपय मुख्य हकीकतें बताई जाएँ तो मका निरूपण समझनेमे बहुत सुलभता हो। 1. कोई भी संसारी जीवात्मा किसी भी गतिमें से च्यवकर (मरकर ) आयुष्यकर्म तथा गतिकर्मके बंधके अनुसार निश्चित हुए उत्पत्तिस्थानमें ऋजुगतिसे अथवा वक्रगतिसे 521. प्रतिसमय आहारग्रहण, यथायोग्य धातुरूप शरीर रचना, इन्द्रियोंकी रचना, श्वासोच्छ्वास ग्रहण, वचनोच्चार, मनन-विचार, जीवन निर्वाह के ये छः आवश्यककार्य गिने जाते हैं / अलग अलग जीव आश्रयी इन कार्योंमें न्यूनाधिकपन होता है। . * शरीरपर्याप्ति, काययोग, कायबल, शरीरनामकर्म वे चारों क्या है ? उनका परस्पर सम्बन्ध है क्या ? कार्य कारणभाव है ? या भिन्न भिन्न कार्यके वाचक हैं ? इसी तरह श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, श्वासो० प्राण और श्वासो० नाम कर्म ये क्या क्या हैं ? इत्यादि बाबतोंको समझना भी जरूरी है। / / . Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .228. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जिस क्षण पर आता है उस क्षण पर उस आत्माके कार्मण काययोग अवश्य होता है। किसी भी प्रकारका योग अगर न ही हो तो आत्मा अक्रिय गिनी जाती है और अक्रिय आत्मा किसी भी प्रकारके पुद्गलोंको ग्रहण नहीं करती। कार्मण काययोग अथवा औदारिक काययोग आदि कोई भी काययोग हो तो ही आत्मप्रदेश चलित अवस्थावाले होते हैं और ऐमी चलित अवस्थाके कारण ही आत्मा शरीरादि योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करती है। ...2. उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे ही प्रत्येक जीवके उस उस भवप्रायोग्य औदारिक शरीर +लब्धि, (देव-नारकीके वैक्रिय शरीर लब्धि ) इन्द्रियलब्धि, श्वासोच्छ्वासलब्धि, (दोइन्द्रियसे असंशि पंचेन्द्रिय तक) भाषालब्धि और (संक्षि पंचेन्द्रियके) मनोलब्धि होनेके साथ उस लब्धिके कारणभूत औदारिक शरीर नामकर्म, वैक्रिय शरीर नामकर्म, श्वासोच्छ्वास नामकर्म, मतिज्ञानावरण-श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम विशेषतः अवश्य होता है। 3. आहारपर्याप्तिका कार्य ग्रहण किए जाने पर शरीर योग्य पुद्गलोंको बल और रसके विभागमें बांटनेका है। रसरूपमें वर्तित पुद्गलोंको सात धातुमय शरीररूपमें परिणत करना शरीरपर्याप्तिका कार्य है। सात धातुरूपमें परिणत हुए पुद्गलोंको उन उन विषयोंको ग्रहण करनेमें और जानने में असाधारण कारणरूप वर्तित अभ्यन्तर द्रव्येन्द्रिय (उपलक्षणसे बाह्य द्रव्येन्द्रिय) रूपमें परिणत करना इन्द्रियपर्याप्तिका कार्य है। . ' 4. आहारपर्याप्तिकी अपेक्षा शरीरपर्याप्तिका कार्य सूक्ष्म होनेसे अधिक समयकी जरूरत पड़ती है, शरीरपर्याप्तिकी अपेक्षा इन्द्रियपर्याप्तिका कार्य सूक्ष्मतर होनेसे उससे भी अधिक समय चाहिए। __5. इन तीनों पर्याप्तिओंमें औदारिक अथवा वैक्रिय पुद्गलोंका (आहारक शरीर प्रसंग पर आहारक वर्गणाके पुद्गलोका) ही ग्रहण और परिणमन है, परंतु बादकी तीन पर्याप्तियोंकी तरह पुद्गल भिन्न भिन्न नहीं हैं। 6. उच्छ्वासलब्धि अर्थात् श्वासोच्छ्वासकी योग्यता संसारी सर्व जीवोंके अवश्य होती है और उसमें कारणभूत श्वासोच्छ्वास नामकर्म भी सर्व संसारी जीवोंके होता है, परंतु श्वासोच्छ्वासकी शक्ति हरेक संसारी जीवमें नहीं होती। (श्वासोच्छ्वास) पर्याप्त नामकर्मके उदयवालोंके ही श्वासोच्छ्वास की शक्ति (और कार्यरूप प्रवृत्ति) होती है। लेकिन (श्वासोच्छ्वास) अपर्याप्त नामकर्मके उदयवालोंके उच्छ्वास लब्धि और उसमें कारणभूत उच्छवास नामकर्म होने पर भी श्वासोच्छवासकी शक्तिका अभाव होता है। भाषकलब्धि और मनोलब्धि ( विचारलब्धि ) इसमें नामकर्मकी तथा अन्य अघातिकर्मकी कोई भी प्रकृति कारण नहीं है, लेकिन ज्ञानावरण-दर्शनावरणका क्षयोपशम इस उभय लब्धिमें कारण हो, ऐसा मानना अधिक उचित लगता है। इन दोनों प्रकारकी लब्धियोमेसे भाषकलब्धि दोइन्द्रियसे समिपंचेन्द्रिय तकके सर्व जीवों में होती है और मनोलब्धि + योग्यता। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पर्याप्ति संबंधी बारहवाँ परिशिष्ट . .229 . संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही हो सकती है। फिर भी दोहन्द्रिय आदि जीवोंमें भाषापर्याप्ति नामकर्मकी अनुकूलता हो और संक्षिपंचेन्द्रिय जीवोंमें मनःपर्याप्ति नामकर्मकी अनुकूलता हो तो ही भाषक-बोलनेकी शक्ति और विचार करनेकी शक्ति प्रकट होती है। बोलनेकी भाषकशक्तिमें भाषायोग्य पुदगलोंका ग्रहण, परिणमन, आलंबन और विचारशक्तिमें मनोयोग्य पुद्गलोका ग्रहण, परिणमन, आलंबन और विसर्जन है। 8. प्रथमकी आहार, शरीर और इन्द्रिय इन तीनों पर्याप्तियों में ग्रहण किये गए और उन उन रूपमें परिणत हुए औदारिक आदि पुद्गल औदारिक आदि शरीरके साथ संबद्धरूपसे रहते होनेसे इन तीनों पर्याप्तियों में ग्रहण और परिणमन ये दो क्रियाएँ थीं। लेकिन श्वासोच्छवास, भाषा और मन इन तीनों पर्याप्तियों में ग्रहण किये गए और उन उन रूपमें परिणत हुए श्वासोच्छ्वासके, भाषाके और मनके पुद्गलोंका औदारिक आदि शरीरके साथ अधिक समय संबंध रहता नहीं है / परंतु निःश्वासरूपमें, वचन रूपमें या विचार रूपमें उन उन पुद्गलोंका विसर्जन होता होनेसे और विसर्जनकी क्रिया आलंबनपूर्वक ही होती होनेसे बादकी तीनों पर्याप्तियोंमें ग्रहण, परिणमन, आलंबन और विसर्जन इस तरह चार क्रियाएँ अवश्य होती हैं। 9. आहार, शरीर और इन्द्रियपर्याप्तिके कार्य करते हुए श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन तीनों पर्याप्तियोंका कार्य उत्तरोत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होनेसे बादकी पर्याप्तियों में अधिक समय लगता है। 10. ऊपर बताये कारणसे ही उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे ही उस उस भवकी अपेक्षासे वर्तित छः, पांच या चार सारी पर्याप्तियोंका आरंभ समकाल में होता है, परंतु समाप्ति अनुक्रमसे होती है। 11. आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मनकी लब्धि यह भिन्न वस्तु है / जबकि आहार, शरीर, इन्द्रिय यावत् मनकी शक्ति अर्थात् पर्याप्ति यह भिन्न वस्तु है, और लब्धि तथा शक्तिके कारणरूप कर्म भी भिन्न भिन्न हैं। 12. निगोदमें पतित भव्य जीवको मोक्षकी लब्धि अर्थात् मोक्षकी योग्यता है, लेकिन मोक्ष पानेकी शक्ति नहीं है। यह शक्ति तो मनुष्यत्व, सम्यग्दर्शन, शान, चारित्र आदि बाघ अभ्यन्तर अनुकूलता मिले तब ही प्रकट होते हैं। उसी तरह श्वासोच्छ्वास भाषक-मनोलब्धि उन उन जीवोंमें यथायोग्य अवश्य होती है, परंतु उन लब्धियोंका शक्तिरूप प्राकट्य उसे पर्याप्ति नामकर्मकी अनुकूलता हो तो ही होता है। इतने तात्पर्योको ध्यानमें रखनेके बाद अब पर्याप्ति विषयक क्रमशः निरूपण प्रस्तुत होता है / / .. उत्पत्तिस्थानमें पहुँचनेके साथ प्रथम क्षणमें ही जीव कार्मण काययोगकी मददसे औदारिक आदि नाम कर्मोदयके कारणसे औदारिक आदि शरीर योग्य पुद्गलोंको तथा श्वासोच्छवास योग्य पुद्गलोंको (और दोइन्द्रियसे असंशि पंचेन्द्रिय तकका उत्पत्तिस्थान हो तो भाषायोग्य पुद्गलोंको तथा संज्ञि पंचेन्द्रियका उत्पत्तिस्थान हो तो मनोवर्गणाके पुद्गलोंको) ग्रहण करता है। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .230 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पुद्गलोंको ग्रहण करनेवाला कर्ता स्वरूप जीव है, ग्रहण होनेवाले औदारिकादि पुद्गल कर्म हैं / कार्मण काययोग करण है। औदारिक आदि प्रति विशिष्ट पुद्गलोंका ही ग्रहण हो उसमें औदारिक आदि प्रति विशिष्ट नामकर्मका उदय कारण है। इन पुद्गलोंके आहरण-ग्रहण करनेको आहार पर्याप्ति गिनी जाती है। उपरांत ग्रहण किये गए उन उन पुदगलोंमेंसे निःसार भाग दूर करना और सारभूत विभाग अलग करनेका नाम भी आहार पर्याप्ति है। इन पुद्गलोंके उपचय द्वारा जो जो शक्तियाँ भविष्य में प्रकट करनी हैं, उन शक्तियोंको निःसार पुद्गलोंको दूर करके सारभूत पुद्गलोंमेसे. प्रकट करनी हैं। रोटी या रोटा बनाना हो तब आटा लेनेके बाद छलनीसे छानकर थूले जैसा नि:सार भाग निकालकर जो बारीक आटा छलनीसे नीचे पडता है उसका कणक बांध नेके बाद क्रमशः रोटी बनती है। उस तरह औदारिक योग्य पुद्गल हों या श्वासोच्छवास भाषा किंवा मनोयोग्य पुद्गल हों उन हरेक प्रकारके ग्रहण किए जाते पुद्गलोंमें अमुक भाग निःसाररूप और अमुक भाग साररूप होता है। उन दोनोंका विभाग करना यह कार्य भी आहार पर्याप्तिका है। सिर्फ दूसरी पर्याप्तिकी अपेक्षा आहार पर्याप्तिमें एक विशेषता है कि उत्पत्तिके जिस-प्रथम क्षणमें पुद्गलोंका ग्रहण हुआ उसी क्षणमें : उस आहार पर्याप्ति नामकी शक्तिने ग्रहण होते पुद्गलों में सार और निःसार (रस और खल) ऐसे दो विभाग किए इतना ही नहीं परंतु प्रकट हुई उस आहार पर्याप्तिरूप शक्तिने उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे जीवनके अंतिम समय तक प्रत्येक समय पर अथवा. जब जब जरुरत लगी तब तब उसके कार्य योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करनेका तथा साथ साथ उसमें खल और रसका विभाजन करनेका कार्य भी चालू रखा। आहार पर्याप्ति नामकी शक्ति प्रकट होनेका क्षण उत्पत्तिका प्रथम समय और उस शक्तिका कार्य प्रथम क्षणसे लेकर जीवनके अंतिम समय तक है। आहार पर्याप्ति कारण है और जीवनपर्यंत ग्रहण होते पुद्गलोंमें खल और रसका विभाजन कार्य है। इस अपेक्षासे ही आहारपर्याप्ति (खल और रसको अलग करने की शक्ति) प्रकट होने में एक समयका ही काल है। जिस क्षणमें आत्मा उत्पत्तिस्थानमें आई उसी क्षण में ऊपर बताए अनुसार औदारिक आदि पुदगलोंको ग्रहण करनेका तथा उनमें खल और रसका विभाग करने का कार्य हुआ। उत्पत्ति के प्रथम क्षणसे ही सार भाग (रस) रूपमें विभक्त हुए औदारिक आदि पुदगलोंको सात धातुरूपमें अर्थात् शरीररूपमें परिणत करनेका कार्य भी शुरु किया। लेकिन ग्रहण किए गए पुद्गलोंमें खल और रसका विभाग करना उस कार्यकी अपेक्षा रसीभूत पुद्गलोंको सात धातुरूपमें-शरीररूपमें परिणत करनेका कार्य सूक्ष्म होनेसे एक दो समयमें उन पुद्गलोंको सात धातुरूपमें परिणत करनेकी शक्ति प्रकट न हुई परंतु अंतर्मुहूर्त तक प्रत्येक समयमें शरीर पर्याप्ति नामकर्मके उदयका असर उन रसीभूत पुद्गलों पर चालू रहने के बाद उन पुद्गलों में ही एक ऐसी शक्ति पैदा हुई कि उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण किए गए औदारिक आदि पुद्गलोंमें आहार पर्याप्तिने जो सारभूत भाग अलग किया था उसमें तो सात धातुरूपमें-परिणमन हुआ। परंतु आगे Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पर्याप्ति संबंधी बारहवाँ परिशिष्ट * भी जीवनपर्यंत-ग्रहण किए जानेवाले औदारिक आदि पुद्गलोंमें आहार पर्याप्ति द्वारा खल और रसरूपमें विभाजन होनेके बाद सात धातुरूपमें उन पुद्गलोंका परिणमन उस शक्ति द्वारा होता रहे। इस शक्तिका नाम शरीर पर्याप्ति। शरीर पर्याप्तिरूप शक्ति प्रकट करनेका काल उत्पत्तिके प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्त तकका है। और प्रकट हुई शक्तिके फल स्वरूप ग्रहण होते आहार योग्य पुद्गलोंको सात धातुरूपमें परिणत करनेका कार्य उत्पत्तिके बाद अन्तर्मुहूर्त पश्चात् जीवनपर्यंत है। ___ इसी तरह इन्द्रिय पर्याप्ति नामकर्मके उदयका असर उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे दो अन्तर्मुहूर्त तक पहले क्षणसे ग्रहण होते और खल-रसरूपमें अलग पडे हुए तथा सात धातुरुपमें परिणत औदारिक पुदगलों पर इस प्रकार चालू रही कि अंतर्मुहूर्त पूर्ण होने पर सात धातुरूपमें परिणत और आगे जीवनपर्यंत सात धातुरूपमें परिणमन प्राप्त करनेवाले पुद्गलोंका अभ्यन्तर द्रव्येन्द्रियरूपमें परिणमन हो ऐसी शक्ति उन पुद्गलोंमें प्रकट हुई। इस शक्तिका नाम इन्द्रिय-पर्याप्ति। इसी तरह उत्पत्ति के प्रथम समयसे उच्छ्वास लब्धिके साथ उच्छवास नाम कर्मोदयके कारण श्वासोच्छवास वर्गणाके पुदगलोंका ग्रहण तो चालू ही था / साथ साथ उच्छवास पर्याप्ति नामकर्मका उदय भी चालू था। आहार पर्याप्तिका एक समय, शरीर पर्याप्तिका एक अन्तर्मुहूर्त और इन्द्रिय पर्याप्तिका दूसरा एक अन्तर्मुहूर्त पसार होनेके बाद तीसरा एक अन्तर्मुहूर्त-इतना काल पसार हुआ तब उच्छवास पर्याप्ति नाम कर्मोदयके कारण ग्रहण किए गए तथा आगे होनेवाले उच्छ्वास वर्मणाके पुद्गलोंमें उच्छवासरूप परिणमन, बादमें अवलंबन लेकर, निःश्वास रूपमें विसर्जन करनेकी जो शक्ति प्रकट हई उसका नाम श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति। ___ पाँचवीं भाषा पर्याप्ति और छठी मनःपर्याप्तिमें इसी तरह व्यवस्था समझनेकी है। फक्त शरीर. पर्याप्तिमें एक अन्तर्मुहूर्त्तका काल, इन्द्रिय पर्याप्तिका उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे दो अन्तर्मुहूर्त, श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिके लिए उत्पत्तिके प्रथम समयसे तीन अन्तर्मुहूर्त, इस तरह भाषा पर्याप्ति के लिए चार अन्तर्मुहूर्त और मनःपर्याप्तिके लिए उत्पत्तिके प्रथम समयसे पांच अन्तर्मुहूर्त जाने। . इस तरह ‘पर्याप्तियों की विशिष्ट समझ पूर्ण होती है। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 232 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अवतरण-पर्याप्तिकी व्याख्या बताई। अब इन पर्याप्तियोंमेंसे ही प्राणोंकी निष्पत्ति होती है। अर्थात् पर्याप्ति यह प्राणका कारण और प्राण यह कार्य है। अतः इस गाथामें प्राण कितने हैं यह बताकर, किसे कितने प्राण हैं ? यह बताते हैं। पण इंदिअ ति बलूसा, आउ अ दस पाण चउ छ सग अट्ठ / इग दु ति चउरिंदीणं असनि सन्नीण नव दस य // 340 // गाथार्थ- पांच इन्द्रिय, मन, वचन और काय ये तीन बल, उच्छवास और आयुष्य इन दसको प्राण कहते हैं। इनमें एकेन्द्रियके चार, दोइन्द्रियके छः, त्रिइन्द्रियके सात, चउरिन्द्रियके आठ, असंज्ञिपंचेन्द्रियके नौ और संज्ञिपंचेन्द्रियके दस प्राण होते हैं। // 340 // विशेषार्थ-यह गाथा 'प्राणोंको' जणानेवाली है। अतः पहले प्राण अर्थात् क्या ? इसे समझ लें। 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'अण'-प्राणने धातु परसे घन प्रत्यय लगनेसे 'प्राण' शब्दका निर्माण होता है / और 'प्राणिति-जीवति अनेनेति प्राणः '-इस व्युत्पत्तिसे जिसके द्वारा जीवित रहा जाए उसे 'प्राण' कहा जाता ऐसा स्पष्टार्थ निष्पन्न होता है। यह प्राण एक ही प्रकारका है या अनेक प्रकारका ! यह प्राण दो प्रकारका है / 1. द्रव्य (प्राण) और 2. भाव (प्राण ) / द्रव्य प्राण किसे कहा जाए ? 1. जिस संयोगमें यह जीवित है ऐसी प्रतीति हो या व्यवहार किया जाए वह। 2. अथवा जिसका वियोग होने पर यह मर गया' ऐसी प्रतीति या व्यवहार हो। 3. अथवा यह जीव है लेकिन अजीव नहीं है। यह जीव है लेकिन मरा हुआ नहीं है। ऐसी प्रतीति करानेवाले बाह्य लक्षण / 4. जिसके योगसे आत्माका शरीरके साथ सम्बन्ध टिक सके, उसे अथवा उसके योगको प्राण कहा जाए इत्यादि / ऐसे द्रव्य प्राणोंकी संख्या दस है। ये प्राण जीवोंके ही होते हैं। जीवके सिवा अन्य किसीमें नहीं होते। इस कारणसे द्रव्य प्राणोंको जीवके बाह्य लक्षणों के रूपमें भी पहचाने जा सकते हैं। जीवके बाह्य लक्षण कौनसे ! इसके जवाबमें दस प्राण ऐसा कहा जा सकता है। संक्षिप्तमें किसी भी जीवके संयोग संबंधसे रहे द्रव्यप्राण उसी जीवके बापमाण या बाह्यलक्षण हैं। इस कारणसे प्राणको उसके दूसरे पर्यायवाचक शब्दमें 'जीवन' भी कहा जा सकता है। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रन्थान्तरगत दर्शाते हुए पर्याप्तिका विभिन्न अर्थ * * 233 . भावप्राण-जीवके साथ तादात्म्य विषयक ज्ञानादि जो गुण रहे हैं उन्हें भी प्राण कहे जाते हैं। और उन्हें 'भाव' विशेषण लगाकर 'भावप्राण 'के रूपमें पहचाने जाते हैं। इन भावप्राणोंसे ही जीव जीवके रूपमें पहचाना जाता है लेकिन द्रव्यप्राणसे नहीं। द्रव्यसे जो पहचाना जाता है वह तो औपचारिक है। ये भाव प्राण कौनसे ? ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य ये चार आत्माके भाव प्राण हैं, ये प्राण न्यूनाधिकरूपमें प्राणीमात्रमें होते हैं। ज्ञानादि भावप्राणकी मात्रा अल्पांशमें भी विलकुल अविकसित ऐसे निगोदादिक सूक्ष्मतम जीवोंमें होती है। अगर इतनी मात्रा भी न मानें तो जीव जैसी वस्तुका अस्तित्व ही न हो सके। और उसे अजीव कहनेका समय आ जाए। लेकिन ऐसा कभी बना नहीं है और बननेवाला मी नहीं है / अक्षरके अनंतवें भाग जितनी ज्ञानमात्राका प्रकाश, सत् पुरुषार्थसे बढ़ता बढ़ता अनंत गुना हो जाए अर्थात् अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य प्राप्त हों, तो वैसी आत्माएँ सर्वज्ञ, वीतराग अथवा ( अपेक्षासे) मुक्तात्मा कहलाती हैं। और वास्तवमें तो सच्चे प्राण वे ही हैं। द्रव्यप्राण तो संयोगाधीन हैं, मृत्यु होनेके साथ ही ( एकको छोड़कर शेष ) वियोगी बननेवाले हैं। अलबत्ता मोक्षके लक्ष्यसे 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् / यह शरीर धर्मका साधन रूप होनेसे उसका योग्य रक्षा-पालन जरूरी है, परंतु भाव प्राणको हानि न हो इस तरह ही। क्योंकि द्रव्यप्राणसे भावप्राणकी कीमत असाधारण है। मोक्ष प्राप्तिके समय इन भावप्राणोंका अनंत उद्घाटन ही काम आनेवाला है / द्रव्यप्राण तो सदाके लिए छोड़ देनेका हैं। क्योंकि वे शारीरिक या पौद्गलिक धर्म हैं। और मोक्षमें उनका अभाव होता है। अतः सबको भावप्राणके विकास और रक्षाके लिए सतत सचिंतपनसे प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस पाठ्य प्रथमें इतना इशारा ही पर्याप्त है / इन ज्ञानादि आभ्यन्तर प्राणोंको जीवके आभ्यन्तर लक्षण कहे जा सकते / समग्र संसारी जीवोंको यथायोग्य इन्द्रियादि द्रव्यप्राण और ज्ञानादि भावप्राण अवश्य होते हैं। जबकि सिद्ध जीवोंके मात्र भावप्राण ही होते हैं / 522.. सम्यग् या मिथ्यात्व ऐसी अपेक्षा यहाँ नहीं बताई है / 523. आजकल 'शरीरमाद्यं खलु भोगसाधनम् ' ऐसा नास्तिकताका पोषक ऐसा अनिच्छनीय उलटा प्रचार शुरु हुआ है / वह बहुत दु:खद है / यह आर्यप्रजाको शोभता नहीं / बृ. सं. 30 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 234 . . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * संसारी जीव इस द्रव्यप्राणके आधार-वलसे ही उस उस जीवायोनिका जीवन जी सकते हैं और इसी लिए पहले जणाया है कि प्राण ही जीवन है। जिन जिन जीवोंके जिस जिस संख्यामें प्राण कहे हैं, वे प्राण विद्यमान हों तो ही जीव जीवित रहता है, अथवा 'जी रहा है। ऐसा कहा जाता है। ये प्राण समय मर्यादा या अकस्मात आदि कारणसे नाश होने पर 'जीवकी मृत्यु हुई ' कहा जाता है। सारांश जीवन मरणकी संक्षिप्त व्याख्या 'उस उस भव विषयक द्रव्य प्राणोंका योग वह ( आत्माका) जीवन और विवक्षित भवके प्राणोंका वियोग वह मरण / ' यद्यपि आत्माका जन्म नहीं और मृत्यु भी नहीं। ____ वह तो अजन्मा और अमर है, शाश्वत है। किसी समय कोई 'आत्मा मर गई' ऐसा वाक्य बोल देता है। लेकिन वह सच्ची परिस्थितिके अज्ञानके कारण, किंवा स्थूल व्यवहारसे बोलता है। लेकिन उसके पीछेकी ध्वनि तो 'प्रस्तुत भव प्रायोग्य प्राणोंका त्याग करके औत्मा परलोकमें गई' यही व्यक्त होती है। द्रव्य प्राण कितने हैं ? द्रव्यप्राणोंकी संख्या दस है। वह इस तरह-पांच इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और कर्ण / तीन बल-मनोबल, वचनवल और कायबल / श्वासोच्छ्वास और आयुष्य / यहाँ क्रमशः उसका विस्तृत वर्णन दिया जाता है। प्रथम पांच इन्द्रियोंकी व्याख्या दी जाती है। __ जैसे वैज्ञानिक यांत्रिक साधनों और रसायणों द्वारा एक एक पदार्थका सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, और पदार्थके विविध पहलुओंका ख्याल देते हैं, वैसे अर्हन् तीर्थकर 524. आत्माके द्रव्यप्राणको नुकसान पहुँचाना या उसका वियोग करना उसका नाम हिंसा / द्रव्यप्राणोंके रक्षणके साथ जीवका रक्षण करना उसका नाम अहिंसा। हिंसा अहिंसाकी ऐसी व्याख्या की जाती है और उसमें 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा, तदऽभावेऽहिंसा' इस सूत्रकी साक्षी दी जाती है। अलबत्ता अपेक्षासे यह बात बराबर है परंतु यह स्थूल व्याख्या है। लेकिन सच्ची व्याख्या यह है कि सिर्फ अन्य जीवके द्रव्यप्राणोंको ही नहीं परंतु अपने ज्ञानादि भावप्राणको हानि पहुँचाना भी हिंसा है / इतना ही नहीं लेकिन अपनी आत्माके सम्यग्ज्ञानादि गुणोंके विकासके लिए पुरुषार्थ न करना, प्रमादाधीन बनकर उपेक्षा या उदासीनता दिखाना वह सच्ची हिंसा है। और उसका विकास या रक्षण करना सच्ची अहिंसा है। अतः ही 'प्राणव्यपरोपणं०' उमास्वातीय सूत्र में प्राणके आगे द्रव्य या भाव ऐसा कोई विशेषण नहीं लगाया। अतः प्राणसे द्रव्य ऊपरांत भावप्राण लेने ही हैं / मुख्यको गौण और गोणको मुख्य समझा गया, माना गया, परिणाम स्वरूप भावप्राण तरफकी दृष्टि गौण बन गई / परंतु उसका विचार विकास प्रत्येक आर्यके लिए स्वाभाविक धर्म बनना चाहिए / 525. उपलब्धि अर्थात् जाननेकी शक्ति, कर्मावरणका अभाव होनेसे आत्मा सर्व वस्तुओंको जान सकती है / Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पांचों इन्द्रियोंका स्वरुप . * 235 . भगवंत तप और संयमकी सर्वोच्च कोटिकी साधनाके अन्तमें प्राप्त किये गए केवलज्ञान द्वारा प्रत्येक द्रव्यों-पदार्थों को आत्म प्रत्यक्ष करते हैं, तब सूक्ष्म परमाणुसे लेकर अनेक पदार्थों का अद्भुत विज्ञान और रहस्य उनकी वाणीमें प्रकट होते हैं। उस शास्त्रवाणीमेंसे इन्द्रिय विषयक उपलब्ध माहितीमेंसे सर्वज्ञ कथित आवश्यक रसप्रद माहिती दी जाती है / इन्द्रियोंके साथ संसारी प्राणी मात्रका अविनाभावि संबंध है। क्योंकि जहाँ जहाँ इन्द्रियाँ हैं वहाँ वहाँ जीव है। इन्द्रिय अर्थात् क्या ? तो इसके लिए प्रथम इन्द्रिय-शब्दका अर्थ समझना चाहिए 'इदि-या इदुपरमैश्वर्य' इस धातु परसे रक् प्रत्यय लगाकर 'इन्दैनात् इति इन्द्रः' अर्थात् सर्व उपलब्धि या सर्व उपभोगके परमेश्वर्यसे शोभित वह इन्द्र / वह कौन ? तो देवलोक के इन्द्र नहीं लेकिन यौगिक अर्थसे 'आत्मा' ही लेना है। और सच्ची तरहसे लोकोत्तर पस्मैश्वर्यवान् वही है। सर्व पदार्थोकी जानकारी और विविध भावोंके उपभोगका ऐश्वर्य आत्माको ही होता है। इन्द्रस्य लिङ्ग-चिह्नमिति इन्द्रियम्, इन्द्रन सृष्टमिन्द्रिटम् इस व्युत्पत्तिसे 'इन्द्र' अर्थात् आत्मासे सर्जित वस्तु वह इन्द्रिय / फलितार्थ यह कि आत्माका परिचायक जो चिह्न अथवा जिससे आत्मा जैसी वस्तुकी सिद्धि हो उसे 'इन्द्रिय' कहा जाता है। . इन्द्रियोंसे आत्मा किस तरह साबित हो सकती है ? तो इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और कर्ण ये पांच हैं। इनमें स्पर्शन ( त्वचा या चमडी) द्वारा गरम या ठंडा, कोमल या कठोर, रसनाके द्वारा खट्टा-खारा, मीठा-कडुआ, घ्राणके द्वारा सुगंध -दुर्गध, चक्षुके द्वारा रूप-रंगका और कर्णके द्वारा शब्द या आवाजके जो जो विषय हैं उन्हें जाननेवाली और अनुभव करनेवाली आत्मा ही है। इन्द्रियोंके उन उन विषयोंका अंतिम अनुभव आत्मा ही करती है। यद्यपि आत्मा अपूर्ण स्थितिमें होनेसे उसे सीधा सीधा अनुभव नहीं होता लेकिन इन्द्रियों द्वारा होता है। लेकिन वह होता है आत्माको ही, नहीं कि इन्द्रियोंको और अगर इन्द्रियोंको होता है ऐसा माने तो 526. परलोकमें अपान्तराल गतिमें मात्र आयुष्यप्राण होता है और वह प्राण आगामी भवका समझना / आयुध्यप्राण के लिए पर्याप्तिकी जरूरत नहीं होती क्योंकि उसे किसी शक्ति-बलकी जरूरत नहीं होती / एक दूसरे भवके आयुष्य नामके प्राण प्राणके बिच कोई अंतर नहीं पडता, एक पूर्ण होते ही दूसरा हाजिर ही होता है / इसके बिना संसारी जीवकी गति ही रुक जाए / 527. उपयोग अर्थात् आत्माको होता विविध प्रकारके भावोंका अनुभव / 528. इन्द्रेणाऽपि दुजयं तत् इन्द्रियम् / इन्द्र अर्थात् आत्मा / आत्मासे भी मुश्किलसे जीती जा सके वह / ऐसी भी व्युत्पत्ति हो सकती है। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 236 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 1. मृत्युके बाद मृतकमें पांचों इन्द्रियाँ विद्यमान हैं, तो मृतकको भी इन्द्रियजन्य बोध होना चाहिए, लेकिन वैसा नहीं दीखता / उस वक्त एक मी विषयका अनुभव-अवबोध नहीं होता। अतः विषयोंका भोक्ता या दृष्टा अगर कोई है तो चैतन्यवान ऐसी 'आत्मा ही है। 2. उपरांत किसी विशिष्ट आत्माके मोहादिकके आवरण अमुक प्रमाणमें दूर होने पर आत्मप्रत्यक्ष अवधि आदि ज्ञान पैदा हो तब वह आत्मा इन्द्रियोंकी सहायके बिना ही विषयोंको जानती है, अनुभव करती है। अतः इन्द्रियाँ ही जानती हैं, ऐसा कहना बरावर नहीं है। ___साथ ही एक सामान्य नियम ऐसा है कि, जिस मनुष्यने जिस वस्तु या विषयका अनुभव किया हो, भविष्यमें वही वस्तु या विषयका स्मरण वही मनुष्य कर सकता है, परंतु इन्द्रियाँ नहीं। और अगर इन्द्रियाँ ही जानती हैं, ऐसा कहेंगे तो-अमुक समयके बाद इन्द्रियोंका नाश हो जाने पर भूतकालमें इन्द्रियजन्य जो स्मरण उपस्थित हुए थे उनका मी नाश हो जाना चाहिए, लेकिन वह तो नहीं होता। अतः विषयावबोध करनेवाली इन्द्रियाँ नहीं लेकिन आत्मा ही है और यही युक्तियुक्त और संगत है / यह इन्द्रिय कैसे प्राप्त होती है ? जातिनामकर्म, अंगोपांग नामकर्म और निर्माण / नामकर्मके उदयसे प्राप्त होती है। पांच प्राण रूप पांच इन्द्रियोंके प्रकार ___पांच इन्द्रियोंके नाम (1) चमडी (2) जीभ (3) नाक (4) आँख और (5) कान है। इन्द्रियोंके मुख्य दो भेद हैं। (1) द्रव्येन्द्रिय और (2) भावेन्द्रिय / प्रथम द्रव्येन्द्रियके चार उपप्रकार द्रव्येन्द्रियके पुनः दो भेद पड़ते हैं। निवृत्ति और उपकरण / अर्थात् निवृत्ति इन्द्रिय और उपकरण इन्द्रिय / दोनोंके पुनः वाह्य और आभ्यन्तर अर्थात् बाह्य निवृत्ति इन्द्रिय और आभ्यन्तर निवृत्ति इन्द्रिय / वाह्य उपकरण और आभ्यन्तर उपकरण इन्द्रिय ऐसे उपभेद हैं। - 529. अन्य स्थल पर दस इन्द्रियोंका उल्लेख आता है / लेकिन वहाँ पर ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियोंके हिसाबसे वे गिनी गई हैं / उपरोक्त पांच ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। और वाक्, हाथ, पग, मुदा और लिंग ये क्रियाकारक होनेसे इन्द्रियोंके रूपमें मानकर भेद दर्शन कराया है / 530. द्रव्येन्द्रियाँ न हों तो * 'यह एकेन्द्रिय यह दोइन्द्रिय' ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता / इस व्यवहारमें भावेन्द्रियको कारण मानें तो तो लब्धिहन्द्रियसे हरेक जीव पंचेन्द्रिय होता है। और फिर तो जातके सारे जीवौको पंचेन्द्रिय ही कहने पड़ते। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इन्द्रियोंका भेद . .237 . भावेन्द्रियके दो उपप्रकार * पुनः भावेन्द्रियके दो प्रकार हैं / लब्धि और उपयोग अर्थात् (1) लन्धि भावेन्द्रिय (2) उपयोग भावेन्द्रिय / इस तरह प्रकार बताकर, उसकी व्याख्या करते हुए प्रथम द्रव्येन्द्रियके प्रकारोंका स्वरूप कहते हैं। प्रथम हरेकका संक्षिप्त शब्दार्थ देखें / / द्रव्येन्द्रिय- जड़ पुद्गलोंकी बनी हो वह / 'निवृत्ति' अर्थात् आकृति आकाररचना वह / 'बाह्य' अर्थात् बाहरके दृश्य भागमें वर्तित / 'आभ्यन्तर' अर्थात् अंदरके भागमें वर्तित / 'उपकरण' विषय ग्रहण करनेमें उपकार करनेवाली शक्ति विशेष वह / यह शक्ति 'बाह्य' और 'आभ्यन्तर' दो प्रकारसे है। . दो प्रकारकी निवृत्ति इन्द्रियाँ बाह्य निवृत्ति इन्द्रिय-निर्माणनाम कर्मसे रचित और अंगोपांग नाम कर्मसे निष्फल बनी, पुद्गैलस्कंधोसे दीखती, बाह्यरचना विशेष / हरेक जीवोंके उन उन इन्द्रियोंके स्थान पर अथवा शरीरके अमुक स्थानमें इन्द्रिय सूचक बाह्य आकृति-रचना विशेष हो वह / जिसे देखकर यह कान है, यह आँख है, ऐसा समझा जा सके वह / जैसे कान पपडीसे कानको, अंडाकार जैसी आकृतिसे आँखको, अमरुद जैसी आकृतिसे नाकको पहचान लेते हैं। लेकिन यह बाह्य निवृत्ति बाह्यरचना हरेक जीवोंके समान नहीं होती। मनुष्यकी वाह्य इन्द्रियोंके आकारोंमें न्यूनाधिक भिन्नता मालूम पड़ती है। पशु पक्षी आदिके नाक, कान आदिमें भिन्नता होती है। सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रियके लिए बाह्य निवृत्तिकी आवश्यकता स्वीकार्य नहीं है, इस बाह्य निवृत्तिके भिन्न भिन्न जीवाश्रयी आकार भिन्न होनेसे, उसके आकारोंका नियत वर्णन अशक्य होनेसे उसके आकार नहीं कहे हैं। आगे जो आकार _ कहे जाएँगे वे आभ्यन्तर निवृत्ति नियताकार होनेसे उन्हें अनुलक्षित करके ही कहेंगे / आभ्यन्तर निवृत्ति इन्द्रिय-इन्द्रियोंके अन्दरके भागकी रचना / यह रचना दिखाई देती इन्द्रियोंके वाह्य आकारके अंदर, अथवा तो आकारके अंतर्गत देहके अवयवरूप भिन्न भिन्न आकारमें रचित, विषय ग्रहण करनेकी शक्तिवाले, अपनी आँखसे अगोचर 531. पुद्गल विपाकी निर्माणनामकर्मरूपी सुतारसे आयोजित और अंगोपांगनामकर्मसे निष्पन्न, इन्द्रिय ऐसे शब्दसे परिचित, आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त, कर्णशकुलि ( कान पपडी, गोलक ) इत्यादि आकार विशेष वह बाह्य निवृत्ति, और उत्सेधांगुलके असंख्यातवाँ भागप्रमाण शुद्ध आत्मप्रदेशोंकी निश्चित स्थानमें चक्षु आदि इन्द्रियोंके आकारमें रचित जो रचना, वह आभ्यन्तर निवृत्ति / यह अर्थ आचारांग वृत्तिकारका है। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 238. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . ऐसे स्वच्छ पुदगलोंकी बनी है। अथवा उस उस आकारमें रचित शुद्धआत्मप्रदेश जैसे कि चक्षुमें पुतली, कानमें कानका परदा आदि / यह आभ्यन्तर निवृत्ति ही सच्ची इन्द्रियाँ है। विषय ग्रहण शक्ति इसमें होती ही है। यहाँ एक बात स्पष्ट समझाई कि, इन्द्रियोंके बाह्य आकार भिन्न भिन्न प्रकारके हो सकते हैं, जिसे बाह्य निवृत्तिसे पहचाना जाता है। परंतु अंदरके भागमें रही, पुद्गलोंकी रचनाके रूपमें रही वास्तविक पांचों इन्द्रियोंकी रचना, तमाम जीवोंमें एक समान ही निश्चित आकारोंवाली ही है, लेकिन भिन्न भिन्न नहीं है। आगे इन्द्रियोंके आकार जो कहे जाएँगे वे भी इस आभ्यन्तर निवृत्तिके आधार पर ही। और इसी लिए चारों इन्द्रियोंमें दोनों निवृत्तियाँ घटित बनती हैं, लेकिन स्पर्शेन्द्रियमें दो भेद ही घटित हैं। चारों इन्द्रियाँ देहावयव रूपमें और स्पर्शेन्द्रिय देहाकार स्वरूपमें ही समझना। . .. . बाह्य निवृत्तिको तलवार मानें, तो स्वच्छ पुद्गलके समूहरूप आभ्यन्तर निवृत्तिको उसी तलवारकी धार रूप समझना चाहिए / वस्तुतः तलवार या धार एक दूसरेसे भिन्न नहीं है फिर भी कार्य करनेकी उपयोगिता दोनोंमें भिन्न है। इस दृष्टिसे यह भेद है फिर भी दोनों के सहयोग से ही तलवारका कार्य होता है। इस तरह यहाँ भी दोनों के सहयोगसे ही विषयज्ञान होता है। दोनों प्रकारकी उपकरणेन्द्रियाँ वास्तविक रूपसे देखें तो निवृत्ति और उपकरणमें खास सफावत नहीं लगता। लेकिन आभ्यन्तर निवृत्तिको पुद्गलरूप मानें तो आभ्यन्तर उपकरणको उन इन्द्रियों के पुद्गलमें रही शक्तिरूपमें समझना चाहिए। दोनों प्रकारकी निवृत्तिको उपकार करे उन्हें उपकरण इन्द्रियाँ कही जाती हैं। ये उपकरणेन्द्रियाँ अर्थात् इन्द्रियोंके अपने विषयोंका अर्थबोध करानेवाली एक प्रकारकी सहायक या उपकारक शक्ति / इसके भी बाह्य आभ्यन्तर दो भेद हैं। 'बाह्य उपकरण' अर्थात् इन्द्रियोंके बाह्य आकारकी स्वस्थ रचना और 'आभ्यन्तर उपकरण' अर्थात् आभ्यन्तर निवृत्तिके पुद्गलोंमें रही जो शक्ति विशेष वह / बाह्य उपकरण आभ्यन्तर निवृत्तिकी पुद्गल रचनाका उपकारक है। और आभ्यन्तर उपकरण आभ्यन्तर निवृत्तिकी पुद्गल शक्तिका उपकारक है / शायद आभ्यन्तर निवृत्ति हो लेकिन उसमेंसे विषयबोध करानेवाली शक्ति नष्ट हो गई हो तो आभ्यन्तर निवृत्तिकी हाजिरी 532. यह अभिप्राय पन्नवणा सूत्रका है। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भावेन्द्रियका वर्णन . * 239 . होने पर भी विषयबोध न होने दे। इस बोधके लिए वह शक्ति उपकारक है। अतः उसे उपकरणेन्द्रिय कही गई है। अतः आभ्यन्तर उपकरणके बिना केवल निवृत्ति इन्द्रिय बोध करानेमें समर्थ नहीं है। उदाहरण स्वरूप-निवृत्तिरूप चक्षुइन्द्रिय विद्यमान हो लेकिन अगर बाह्योपकरण स्वरूप बाहरके भागमें पत्थर आदि लगनेसे, बाहरके भागको नुकसान पहुँचे तो आँखसे बरावर देखा नहीं जाता। उसी तरह बाहरके आघात प्रत्याघातका असर निवृत्ति इन्द्रिय (जिसे पुतलीके अंदरका आँखका परदा ) को नुकसान पहुंचने पर पुद्गलगत जो शक्ति होती है वह नष्ट हो जानेसे परदा होने पर भी वह इन्द्रिय निरुपयोगी बन जाती है। इस तरह यह बात स्पष्ट होती है। इससे हुआ क्या कि प्रत्येक इन्द्रियमें स्पर्श-रसादि विषयग्रहण तब ही हो * सकता है जब उन पुद्गलोंमें उस उस विषयकी ग्रहण शक्तिका अस्तित्व हो। इस तरह उपकरणेन्द्रियकी सार्थकता समझना। . भावेन्द्रियका वर्णन भाव ,अर्थात् आत्मिक परिणाम / इन्द्रिय अर्थात् आत्मिक स्वरूप इन्द्रिय / / यह भावेन्द्रिय दो प्रकारकी है। 1 लब्धि और 2 उपयोग / 1. लब्धि अर्थात् इन्द्रियोंकी शक्तियाँ 2. उपयोग अर्थात् विषय ग्रहण अथवा विषय व्यापार / विशेष व्याख्या नीचे अनुसार है। लब्धि भावेन्द्रिय- उन उन इन्द्रियोंके स्पर्श-रसादि विषयोंके ज्ञानकी प्राप्तिमें अवरोधक ( मतिज्ञानावरणादि ) कर्मोंका ( आत्माके परिणाम स्वरूप ) जो क्षयोपशम विशेष वह / अथवा जीवको इन्द्रियों द्वारा उन उन विषयोंका बोध पानेकी जो शक्ति वह / उपयोग भावेन्द्रिय- अपनी अपनी ज्ञान-दर्शनावरणीयके क्षयोपशम रूप लब्धि अनुसार, उन उन विषयोंमें आत्माका जो ज्ञान प्रवृत्ति रूप व्यापार-उपयोग वह। अर्थात् आत्मा जिस समय जिस इन्द्रियके उपयोगमें वर्तित हो, उस समय वह उपयोग भावेन्द्रिय कहा जाता है। संक्षेपमें कहें तो स्पर्शादि विषयोंको जाननेकी क्षायोपशमिक शक्ति वह लब्धि इन्द्रिय और विषयज्ञानमें प्रवृत्ति वह उपयोग इन्द्रिय / - 533. इस तरह नासिकाकी आभ्यन्तर निवृत्ति अखंड है, लेकिन अगर नाकमें प्रलेष्म या मैल जमा हो तो गन्धशान जल्दी नहीं होता / 534. इसकी दूसरी तरहसे भी व्याख्याएँ होती हैं / 535. उपयोग यह आत्माका परिणामविशेष है / और वह ज्ञानदर्शन स्वरूप है / 536. लब्धि, निवृत्ति और उपकरण तीनों द्वारा उन उन विषयोंका सामान्य या विशिष्ट बोध हो वह भी उपयोग भावेन्द्रिय कहलाए / Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पांच इन्द्रियाँ (29 भेद) द्रव्येन्द्रिय (19) भावेन्द्रिय (10) निवृत्ति उपकरण लब्धि (5) उपयोग (15) आभ्यन्तर (5) बाह्य (4) आभ्यन्तर (5) बाह्य (5) ___ अपेक्षासे सर्व जीव एकेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय कैसे ? सर्व संसारी जीवोंके उपयोग-भावेन्द्रिय ( अर्थात् विषयावबोध व्यापार ) एक समय पर एक ही होता है, उस अपेक्षासे * सर्व संसारी जीव एकेन्द्रिय कहलाते / क्योंकि पंचेन्द्रिय जीवोंमें पांचों इन्दियोंका क्षयोपशम होता है, पांचों द्रव्येन्द्रियाँ विद्यमान हों और पांचों इन्दियों के विषय उपस्थित हों फिर भी उपयोग तो एक समय पर एक ही इन्द्रियका प्रवर्तित हो सकता है। परंतु एक समयमें दो इन्द्रियोंका उपयोग कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जिस समय पर चक्षु इन्द्रियका उपयोग हो तब शेष चारका उपयोग नहीं ही होता। जिस इन्द्रियके साथ जीवका मन जुड़े वह एक ही इन्द्रिय अपना विषय ग्रहण करनेको प्रवृत्त होती है। आत्माके साथ मन, मनके साथ इन्द्रिय और इन्द्रियके साथ उसका विषय जुड़ता है। उपयोग भावेन्द्रियकी अपेक्षासे सर्व जीवोंको एकेन्दिय रूपमें भी सूचित किये / यद्यपि उपयोगकी दृष्टिसे एकेन्द्रिय है परंतु लब्धि इन्द्रियकी अपेक्षासे एक इन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके किसी भी जीवको एक समय पर पांचों इन्द्रियोंकी लब्धि हो सकती है। क्योंकि सर्व संसारी छद्मस्थ जीवोंके मतिज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशमरूप लब्धि पांचों इन्द्रियोंकी होती है, अतः इस अपेक्षासे सर्व संसारी जीवोंको पंचेन्द्रिय रूपमें पहचाने जा सकते हैं। 537. पांचों इन्द्रियों के विषय भले विद्यमान हों, लेकिन तब उपयोग तो एक ही विषयका होता है, तो फिर किस विषयका, किस इन्द्रियका प्रथम उपयोग हो ? जवाब यह कि, जीवका अभिलाष. अथवा जिस इन्द्रियके क्षयोपशमकी प्रबलता अथवा जिस इन्द्रियके उत्तेजक साधनोंकी जैसी प्रबलता हो, उस इन्द्रियके विषयका ज्ञान प्रथम होता है / Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भावेन्द्रियका वर्णन . * 241. तो फिर दोइन्द्रिय त्रिइन्द्रियका व्यवहार किस तरह होता है ? तो वह व्यवहार तो द्रव्येन्द्रियकी अपेक्षासे किया जाता है।। शंका-आपने एक ही समय पर एक ही उपयोग बताया, लेकिन एक दृष्टांत ऐसा है कि जिसमें एक ही समय पर पांचों इन्द्रियोंका उपयोग या ज्ञान होता है उसका क्या ? और इसके लिए एक दृष्टांत भी है। जैसे कि सिर पर बाल न हो ऐसा कोई गंजा मनुष्य, मध्याह्नके समय, खुले सिर, खुले पैर, सुगंधमय, कडक, मधुर और सुंदर ऐसी लम्बी तिलपपडी मुखमें खाता खाता नदी पार कर रहा हो तब एक साथ पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभव होता रहता है। क्योंकि दोपहरकी धूपसे खुले गंजे सिरमें उष्णस्पर्श और खुले पैर पानीमें चलता होनेसे शीतलस्पर्शका अनुभव होता है, यह स्पर्शानुभव स्पर्शेन्द्रियका विषय है / तिलपपडी मीठीमधुर लगनेसे मधुरताका अनुभव रसना-जिह्वाका विषयानुभव है / तिलपपडीमें इलायची आदि सुगंधी द्रव्य होनेसे घाणेन्द्रियका विषयानुभव, तिलपपडी लम्बी होनेसे खाते खाते आँखसे उसके रुप रंगको देखनेसे चक्षुइन्द्रियका विषयानुभव और कडक होनेसे खाते वक्त कचर-कचर आवाज होती है, वह श्रोत्रन्द्रियका विषयानुभव, इस तरह एक साथ पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका अस्तित्त्व है। तो फिर यदि कोई पूछे कि पांचोंका उपयोग क्यों न हो ? __ समाधान-इस दृष्टांतको ऊपर ऊपरसे देखने पर बराबर लगे, लेकिन वस्तुतः परिस्थिति ऐसी नहीं है। अपने छानस्थिक-अपूर्ण ज्ञानके कारण, या बुद्धिकी परिमितताके कारणसे अनेक समयोंमें होता कार्य एक ही समयमें हुआ ऐसा भ्रम होता है। और हमेशा भ्रमज्ञान असत् है और इससे उसका अनुभव मी असत् है। हमेशा इन्द्रियजनित ज्ञान क्रमिक ही हो सकता है। लेकिन अपनी ग्रहण शक्तिकी पामरताके कारण, 'समय' मानके सूक्ष्मकालको देखनेकी या जाननेकी शक्तिके अभावमें अनेक समयमें होता कार्य समकालमें या एक ही समय पर हुआ ऐसा आभास होना स्वाभाविक है। उदाहरण स्वरूप सौ कमलके पौँको कोई वीरपुरुष भालेसे वींधे, तब प्रतिपत्र वींधनेकी क्रिया क्रमशः ही बनी है। हरेक पत्रका भेदन समय अलग ही है। एक के बाद ही दूसरा भेदा जाता है, यह निश्चित-ठोस हकीकत है। फिर भी देखनेवाला स्थूल नजरके कारण ऐसा ही कहेगा कि, नहीं एक साथ ही, एक ही समयमें मैंने छेद डाले। लेकिन यह अनुभव गलत है। उपयोग ज्ञान एक साथ एक ही इन्द्रियका होता हैं। पांचोंका कभी नहीं होता / बृ. सं. 31 .., . , .... .. ... .. Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 242 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . आभ्यन्तर निवृत्तिरूप पांचों इन्द्रियोंके स्थान प्रमाण आकारादि 1. स्थान- (1) स्पर्शेन्द्रिय-मात्र ऊपरकी दीखती चमडी स्पर्शेन्द्रिय है ऐसा नहीं, परंतु चमडीके भागके साथ ही ओतप्रोत बनकर रहा चक्षुसे देखा न जा सके ऐसा पुद्गलोंका बना एक विलकुल पतला स्तर है, वही स्पर्श नामकी इन्द्रिय है। यह इन्द्रिय समग्र शरीरके तमाम प्रदेशोंमें व्याप्त होकर रही है। दूसरी इन्द्रियाँ जहाँ जहाँ हैं वहाँ भी स्पर्श तो अवश्य होता ही है। साथ ही यह इन्द्रिय अंदरके भागमें भी ऊपरकी तरह व्याप्त होकर स्वशरीराकारमें रही है। और इसी लिए ऊपरकी चमडीको स्पर्शन इन्द्रियके प्रभावसे स्पर्शानुभवजन्य शीतोष्णादिका ज्ञान होता है। वैसे ठंडा जल या गरम चाय पीने पर अंदरके भागमें भी शीतोष्णादिका अनुभव होता है। (2) रसनेन्द्रिय-दीखती हुई ऊपरकी जीभ वह नहीं है / वह तो इन्द्रियको रहनेका स्थान-साधन है। इन्द्रिय तो जिह्वाके ऊपर और नीचेके भागमें जिह्वाके पुद्गल प्रदेशके विच ओतप्रोत होकर रही है। लेकिन वह सिर्फ जीभके विचके भागमें नहीं होती। (3) घाणेन्द्रिय-दिखाई देती नासिका घ्राणेन्द्रिय नहीं है। परंतु उसके अंदरके पोलेपनमें, ऊपरके भागमें नासिकाके मापके अनुसार रही इन्द्रिय ही घ्राणेन्द्रिय है। (4) चक्षुइन्द्रिय-दिखाई देता चक्षु या पुतली इन्द्रिय नहीं है। परंतु उसके अंदर पुतलीके मापके अनुसार व्याप्त वस्तु ही इन्द्रिय है। (5) श्रोत्रेन्द्रिय-कानका ऊपरका भाग कर्णइन्द्रिय नहीं है। परंतु कानके अंदरके परदेमें व्याप्त होकर रहा पौद्गलिक पदार्थ श्रोत्र इन्द्रियरूपमें है / पांचों इन्द्रियाँ अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे अपने चर्मचक्षुसे देखी नहीं जातीं / 2. प्रमाण-माप- कलश पर चढाया हुआ सोनेका गिलट कितना पतला होता है ? वैसे इन पांचों इन्द्रियोंके पौद्गलिक स्तर अत्यन्त पतले परमाणुओं (-स्कंधों) के बने हैं। उन सबकी मोटाई एक अंगुलके असंख्यातवें भागकी है। __चौडाई और लंबाई सबकी एक समान नहीं हैं। नासिका, नेत्र और कर्ण इन तीन इन्द्रियोंकी लंबाई-चौडाई एक अंगुलके असंख्यातवें भागकी है। जीभकी अंगुल पृथक्त्व अर्थात् दो से नौ अंगुलकी हैं / और स्पर्शेन्द्रियकी स्वस्व देहाकार प्रमाण समझनेकी है। स्पर्शेन्द्रियका माप-प्रमाण उत्सेधांगुलसे और शेष चारोंकी लंबाई-चौडाईका माप आत्मांगुलसे समझना और मोटाईका माप उत्सेधांगुलसे गिननेका है / Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आभ्यंतर निवृत्तिरुप पांचों इन्द्रियों के स्थानप्रमाण आकारादि . . 253 . 3. आकार- स्पर्शेन्द्रियका आकार, जीवित देहोंका जैसा जैसा आकार हो वैसा वैसा समझना। रसनेन्द्रियका अस्त्र या खुरपा जैसा। प्राण (नासिका) इन्द्रियका अतिमुक्त नामके पुष्प या काहल नामके वाद्य जैसा। नेत्र इन्द्रियका मसूरकी दाल जैसा गोल और श्रोत्रेन्द्रियका कदंब पुष्पके जैसा है। 4. इन्द्रियाँके विषय- स्पर्श, रस-स्वाद, गंध, वर्ण-रंग और शब्द। ये स्पर्शादि एक एक इन्द्रियों के उत्तरोत्तर विषय हैं। सारांश तात्त्विक रीतसे सोचें तो ये विषय एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न नहीं हैं और मूलद्रव्यरूपमें नहीं हैं। एक ही द्रव्यके या पदार्थके ही अलग अलग अंश हैं और इस कारणसे इन विषयोंका अलग अलग स्थान भी नहीं है। इन सबका उनके अंशोंमें सहअस्तित्त्व होता ही है / क्योंकि एक ही पदार्थके ये सब अविभाज्य अंग हैं / फिर भी इसकी भिन्नता या अवस्थाएँ इन्द्रियों द्वारा समझमें आ सकती हैं। ___अगर कोई शंका करे कि प्रत्येक पदार्थमें तमाम विषय होते हैं, तो स्पर्शेन्द्रियसे सबका ज्ञान क्यों नहीं होता है इसका उत्तर यह है कि क्षायोपशमिकभावसे वर्तित इन्द्रिय-ज्ञाम हमेशा मर्यादित होता है / अतः जिस समय जितने विषय उत्कट हों उतनोंका बोध इन्द्रिय कर सकती हैं। मगर अनुत्कट विषयोंका नहीं कर सकतीं। और यह बोध होनेमें भी इन्द्रियोंकी पूर्णता, पटुता, शक्ति इन पर भी आधार रहता है / अन्यथा अमुक अमुक लब्धियाँ ऐसी हैं कि अगर वे प्राप्त हों तो एक ही इन्द्रियसे पांचों विषयोंका बोध ग्रहण किया जा सकता है। यह शास्त्रीय कथन उपरोक्त बातका समर्थन करता है। इतनी भूमिका समझाकर उन उन इन्द्रियोंके विषयोंको समझें / / . स्पर्शन इन्द्रियकी विषय मूर्त ऐसे पौद्गलिक पदार्थमें रहे स्निग्ध-रूक्ष, शीत-उष्ण, मृदु-कर्कश, भारी-हलके इन आठ प्रकारके स्पशौंको बतानेका है। रसनाका विषय मूर्त पदार्थमें रहे तीखे, कडुए, मधुर ( मीठा ), खट्टे और खारे इन पांचों प्रकारके रसोंस्वादोंको बतानेका है / घ्राण इन्द्रियका विषय सुगंध या दुर्गध बतानेका ‘और आँख इन्द्रियका विषय मूर्त पदार्थोंमें रहे काले, भूरे (या हरे), पीले, लाल, सफेद इन पांच प्रकारके रंगों या वर्गों को बतानेका है। कर्णेन्द्रियका विषय सचित्त ( सजीव वस्तुमेंसे निकला, जैसेकि घोडेकी आवाज), अचित्त (वह पत्थरादि अजीव द्रव्योंमेंसे निकलता, जैसेकि यंत्रोंकी आवाज) और मिश्र (वह जीव - अजीव दोनोंके सहयोगसे निकलता, जैसेकि-बंसी वादन) प्रकारके शब्दोंको सुननेका है। पांच इन्द्रियोंके कुल विषय 23 हैं। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 244. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 5. विषयग्रहण-क्षेत्रमर्यादा-स्पर्श, रसन और नासिका, ये तीनों इन्द्रियाँ सामान्यतः नौ योजन (36 कोस) दूर रहे पदार्थोंका ज्ञान पा सकती हैं, अर्थात् उतनी दूर रहे पदार्थों से आए हुए पुद्गलोंका स्पर्श ग्रहण कर सकती हैं, उससे अधिक दूर रहे पुद्गलोंका स्पर्श नहीं कर सकतीं। चक्षु एक लाख योजन दूर रहे ( निस्तेज ऐसे पहाड आदि) पदार्थाको देख सकते, कर्णेन्द्रिय बारह योजन दूर होते शब्दको सुन सकती है। ____ जघन्यसे चक्षुइन्द्रिय. अंगुलके संख्यातवें भाग पर दूर रही वस्तुको और शेष चार अंगुलके असंख्यातवें भागमें रहे विषयोंका अवबोध कर सकती है। जिस तरह दूरसे मेघगर्जनाकी आवाज कर्णेन्द्रिय सुन सकती है। और वर्षाऋतुमें पहली वृष्टि होने पर दूरसे 'पृथ्वीमें रही गंध घाणसे ग्रहण कर सकते हैं उसी तरह . गंधमें तीखापन है या कडुआहट उसका अनुभव रसनेन्द्रिय कर सकती है। और समुद्र, नदी आदि जलाशयोंको स्पर्श करके दूर दूरसे आते ठंडे पवनसे शीत स्पर्शका अनुभव स्पर्शेन्द्रियको होता है। 6. प्राप्याप्राप्यपन- चक्षु और मन, ये दोनों अपनेको प्राप्त नहीं हुए ऐसे विषयोंको जानते हैं और शेष इन्द्रियाँ स्वप्राप्त विषयोंका ही मानो ध्यान करती हैं। सामान्यतः सवसे सूक्ष्म इन्द्रिय चक्षु और सबसे बड़ी स्पर्श कहलाती है। दूसरी एक बात अधिक समझनेकी कि-एक इन्द्रियका काम सामान्यतः दूसरी इन्द्रियसे नहीं हो सकता, लेकिन तपश्चर्यादि द्वारा विशिष्ट लब्धि-शक्ति प्राप्त की हो ऐसे संभिन्नश्रोत लब्धिवाले मुनि एक ही इन्द्रियसे अनेक इन्द्रियोंका काम कर सकते हैं। इस तरह पांच इन्द्रिय विषयक विवेचन यहाँ पूर्ण होता है / / तिबल - तीन बल भूमिका-प्राणियोंमें जो ताकत होती है, वह इन तीन बलमेंसे होती है। यहाँ तीन बलसे मन, वचन और काया, इन तीनका बल लेनेका है। विश्वमें ऐसे भी मनुष्य और तिर्यच हैं कि जिनके ये तीनों बल होते हैं। यों तो तीनों बल धारण करनेवाले जीव चारों गतिमें हैं। मनका बल मिला हो तो जीव मनन, चिंतन या विचार, वचन आदि वचन बलकी प्राप्तिसे वाणी या उच्चार और कायाका बल मिला हो तो हलचल या बर्ताव आदिका बल, इस तरह जीव तीनों वलसे विचार, वाणी और वर्ताव करनेकी लब्धि अथवा शक्ति प्राप्त करता है। ये तीनों शक्तियाँ शरीरधारी जीवमें ही रही होती हैं। इसमें मनो Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तिबल-तीन बलकी व्याख्या . .245. बलकी शक्ति से जीव जब मनन, चिंतन या विचार करे तब उसे 'मनोयोग' वाला कहा जाता है। इस तरह उच्चार करनेकी शक्ति या लब्धि वह वचनबल / और उच्चार करना या बोलनेका व्यापार करना उसे 'वचनयोग' कहा जाता है। उस तरह हिलना, चलना, खाना, पीना आदि कार्यजन्य व्यापारोंकी शक्ति उसे कायवल कहा, लेकिन उसका व्यापार चले तब 'काययोग' कहा जाता है। बल शक्ति है और योग शक्तिका व्यापार है, अर्थात् बल कारणरूप और योग कार्यरूप है। बल हो वहाँ योग हो ही ऐसी व्याप्ति नहीं है, लेकिन योग हो वहाँ बल अवश्य हो यह व्याप्ति घट सकती है। बल हो फिर भी अन्य कारणों से अवरोध खडे हों तो बल व्याप्त नहीं हो सकता। ___आत्मामें अनंत वीर्य-शक्ति या सामर्थ्य भरी है। यह शक्ति सामर्थ्य वीर्योतराय नामके ( अंतराय नामका घातीकर्मका भेद ) अशुभ कर्मके उदयसे दवा हुआ है। इस कर्मका जितना जितना क्षयोपशम होता जाए उतने उतने अंशमें आत्माकी सामर्थ्य प्रकट होती जाए। और उसका सर्वथा विनाश होने पर अर्थात् आत्मप्रदेशोंसे अलग हो जाए तब आत्माकी अनंत शक्ति प्रकट हो जाती है। फिर ऐसी आत्माएँ केवली अथवा सिद्ध कहलाती हैं और फिर उन्हें अन्य पौद्गलिक शक्ति-सहायकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहती। . परंतु जो संसारमें अभी हैं ऐसी आत्माओंकी सामर्थ्य कर्मसत्ता द्वारा न्यूनाधिकरूपमें दबी हुई है, ऐसी आत्माएँ कर्मसे पराधीन होनेसे निर्बल हैं, पंगु हैं और निर्बल मनके मनुष्यको चलनेकी शक्ति होने पर भी, चलनेके लिए लकडी आदि आधार या सहारेकी जरूरत रहती है। इस तरह आत्माने अमुक कोटि तक सिद्धि प्राप्त न की हो तव तक अपनी शक्ति प्रकट करनेके लिए उसे मन, वचन, कायाके पुद्गलोंका आलंबन लेना पड़ता है। उसके आधारके बिना वह किसी व्यापार या शक्तिका प्रवर्तन नहीं कर सकती, ऐसा सामान्य सिद्धांत है / संसारी जीवोंके सर्व व्यापार पुद्गलोंके आलंबनसे ही हो सकते हैं / हम जो विचार करते हैं वे यों ही नहीं कर सकते। हम जो बोलते हैं वह मी यों ही नहीं बोल सकते। हमारी हिलने चलनेकी या बैठने उठनेकी सारी क्रियाएँ भी आत्मा स्वयं नहीं कर सकती / लेकिन उन सबके पीछे आत्मा उनके लायक पुद्गल परमाणुओंके स्कंधों-समूहोंके ग्रहणकी एक क्रिया करती है.। ग्रहण किए गए उन पुद्गलोंके वल या सहारे द्वारा तीनों बलोंकी क्रियाओंका योग-व्यापार प्रवर्तन हो सकता Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .246 * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * है। अलबत्ता इन पुद्गल ग्रहण परिणमनादि क्रियाओंको प्रत्यक्ष देख सकनेकी अपनी ज्ञान शक्तिके अभावसे देख नहीं सकते लेकिन ज्ञानी उन्हें अवश्य देख सकते हैं। विश्व पर कुछ प्राणी ऐसे हैं जो शरीरके साथ बोलनेका तथा विचारनेका बल रखते हैं। जबकि कुछ शरीरबलके साथ बोलनेका बल धारण नहीं कर सकते और कुछ विचारवल मी धारण नहीं कर सकते। अस्तु ! 1. मनोबल-भूत भावीका यथोचित विचार कर सके वैसी शक्ति / अब इस बलका उपयोग किस तरह होता है वह देखें / जब विचार, मनन या चिंतन करना हो तब आत्मा, काययोग (जिसे जो शरीर हो उस शरीरका समग्र भाग ) के आलंबन प्रयत्न द्वारा आकाशमें स्वात्म प्रदेशोंको अवगाहन करके रहे, मनन चिंतनमें उपयोगी (शास्त्रीय भाषामें मनोवर्गणाके) पुद्गल परमाणुओंके स्कंधों-समूहोंको खिचे, फिर जैसा विचार करना हो वैसे विचाररूपमें उसका परिणमन करे-आयोजित करे, जिससे उन पुद्गलोंके आलंबन द्वारा जीव इष्ट विचार करे, इसे मनोयोग कहा जाता है। अब किया हुआ एक विचार पूर्ण होने पर तुरंत ही उन पुद्गलोंको आत्मा काययोग द्वारा ही पुनः छोड देती है और दूसरे विचारोंके लिए पुनः पूर्वोक्त प्रकारके नये पुद्गलोंको पूर्वोक्त रीतसे ग्रहण करती है। छोडे गये वे पुद्गल परमाणु शीघ्र या देरसे पुनः विश्वके वातावरणमें फैल जाते हैं। यहाँ काययोग द्वारा पुद्गल ग्रहण होते हैं और मनोयोग द्वारा मनके पुद्गलोंका परिणमन, आलंबन, व्यापार और विसर्जनकी क्रियाएँ होती हैं। तीनों बल-योगमें पुद्गल ग्रहण काययोग द्वारा ही होता है। फिर वे योग अपने कार्यके लिए अपनी रीतसे उन पुद्गलोंका उपयोग-प्रक्रियाएँ करते हैं। यह मन दो प्रकारका है। 'द्रव्य' और 'भाव' / चिन्तन-मननकी विचारणाके लिए ग्रहण किये गए, अनुकूल ( जिसे विचार करना हो उसके अनुरूप ) आकार रूपमें परिणत, मनोवर्गणाके जो पुद्गल द्रव्य उन्हें 'द्रव्यमन' कहते हैं। और ग्रहित पुद्गलोंकी मददसे जो विचार उत्पन्न हुआ अर्थात् जो मनोविज्ञान हुआ उसे 'भावमन' कहा जाता है। द्रव्यमनके आलंबनके बिना जीव स्पष्ट विचार नहीं कर सकता। ऐसे दोनों प्रकारके मन गर्भज पंचेन्द्रिय तियेच मनुष्यों के होते हैं। और ऐसे जीव शास्त्रमें 'संज्ञी' नामसे. परिचित हैं। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वचन बलका स्वरूप. .247. मन रहित होनेसे 'असंज्ञी' कहे जाते ऐसे संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, तथा एकेन्द्रियसे लेकर चउरिन्द्रिय तकके जीव इन सबके द्रव्यमन नहीं होता लेकिन अल्प ऐसा भावमन जरूर होता है। मनःपर्याप्ति नामकर्मके उदयसे जीव यह क्रिया करनेकी ताकत रखता है। तीर्थकर-सर्वज्ञोंके मात्र द्रव्य मन ही होता है। अब उन्हें भावमनकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि तब तो वे कृतकृत्य हुए होनेसे उन्हें अखिल विश्व त्रैकालिक भावसे आत्मप्रत्यक्ष हुआ होनेसे, अब कुछ मी जाननेके लिए उन्हें विचार करनेरूप रहा ही नहीं। विचार करनेमें उपयोगी कर्म नष्ट हो गया है। सिर्फ दूसरेको जवाब देना हो, तब ही 'द्रव्यमन'को (मनोवर्गणाके पुद्गलोंको) भेजनेकी आवश्यकता पड़ती है। तत्हेतु उसका अस्तित्त्व स्वीकृत है। साथ ही यह मन शरीरके अमुक भागमें ही रहता है ऐसा नहीं है, परंतु समग्र शरीरमें व्याप्त है, इतना सही कि हृदय भागमें उसका प्रमाण विशेष है। 2, वचनबल-वचन विषयक व्यापार किया जा सके ऐसी शक्ति / अब शक्तिके बलसे ही, जीव वचनयोग अर्थात् वचनका व्यापार कर सकता है। बल और योग दोनोंके कारण कार्यभाव द्वारा भाषा प्रवर्तन होता है। वचनबल कारण है, जब वचनयोग ( बलका) कार्य है। अब वह वचनबल या वाणीका वल किस तरह उपयोगी वनता है वह देखें / __जीवको जब बोलना हो तब आकाशके अंदर रहे स्वात्मप्रदेशावगाही, भाषा बोलनेमें उपयोगी ऐसे भाषावर्गणाके पुद्गल स्कंधोंको अपने काय ( शरीर ) योग द्वारा ग्रहण करे अर्थात् खिंचे, फिर जैसा बोलना हो, वैसा वाणीरूपमें परिणत करे अर्थात् उस प्रकार संस्कारित करे, फिर परिणत पुद्गलोंके आलंघनसे वचनका व्यापार करे-बोले -वाणीका उच्चार करे (जिसे वचनयोग कहा जाता है) और तत्पश्चात् साथ साथ उच्चारित या व्याप्त बने भाषाके पुद्गलोंका विसर्जन करे / यहाँ काययोगसे भाषा वर्गणाके पुद्गलोंका ग्रहण और परिणमन तथा वचनवलसे भाषा बोलनेका और विसर्जनका कार्य होता है। वचनबल श्रेष्ठ हो तो तीव्रोच्चार, मंद 538. बलवत्तर कोटिका-विचार समर्थ-मन भले ही न हो, लेकिन सूक्ष्मकोटिका द्रव्यमन-अर्थात् अस्पष्ट मनोविज्ञान-मूछित मनुष्यकी तरह जरूरत होती है। ऐसा कोई कोई ग्रंथकार मानते हैं / 539. दिगम्बर सिर्फ हृदयकमल व्याप्त, और नैयायिक मात्र 'अणु' प्रमाण और अन्य दर्शन विभिन्न रीतसे मानते हैं। लेकिन श्वेताम्बर मान्यता ऊपर कही वह है। 540. 'गिण्हइ य काइएणं, निसिरह तह चाइएणजोएणं / ' [ आ० नि.] Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '.248. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * हो तो मंदोच्चार होता है / लेकिन यह संभाषण बलसे ही शक्य बनता है। पहले समय पर पुद्गलग्रहण, दूसरे समय पर परिणमन और फिर अवलंबन लेने पूर्वक विसर्जनका कार्य होता है। भाषाका व्यापार या बोलनेकी प्रवृत्ति जीवके ही होती है। अजीवके होती ही नहीं / 84 लाख जीवायोनिमेंसे 52 लाखको तो भाषाका योग ही नहीं है, इन जीवोंके मात्र एक 'स्पर्श' इन्द्रिय ही है, रसना-जीह्वा इन्द्रिय ही नहीं होतीं। शेष 32 लाखमेंसे 6 लाख (दो, तीन या चार इन्द्रियवाले ) की भाषा अस्पष्ट है। शेष 26 लाख (लगभग )की स्पष्ट भाषा हो सकती है। यह स्पष्ट भाषा भी भाषापर्याप्तिनामकर्मका तथा अंगोपांगनामकर्मका स्पष्ट उदय वर्तित हो उसे ही होता है / वरना मनुष्य होने पर, जीभके रहने पर भी मंगापन, तोतलापन आदि प्रकारकी क्षतियोंके कारण बोल नहीं सकता, स्पष्ट वद नहीं सकता, न तो व्यवस्थित संभाषण कर सकता / _ भाषाके बारेमें अन्य थोडी विचारणा करें भाषाका व्यवहार मुख द्वारा होता है। इसमें देखनेवालेकी दृष्टिसे तो सहायक रूपमें मुखसे कंठ तकके अवयव दीखते हैं। शायद हम ऐसा समझते हैं कि बोलनेकी क्रियामें मात्र वर्ण, शब्द और मुखादि स्थान ही साधनरूप हैं, और दूसरा नहीं है, तो वह बात बराबर नहीं है। पूर्वोक्त दोनों वस्तुएँ, ऊपरांत जिसके बिना भाषा वन ही न सके वह वस्तु तो है भाषा बोलनेमें उपयोगी, विश्व व्याप्त एक प्रकारके (भाषा योग्य) पुद्गल परमाणु-स्कंध / जैन सिद्धान्तकारोंने समग्र विश्वके संचालनमें आठ प्रकारके परमाणु माने हैं। इन परमाणुओंसे ( अर्थात् उसके स्कंधोंसे ) समस्त विश्व भरा है। और इससे ही विश्वका प्रच्छन्न या प्रकट रूपमें संचालन हो रहा है। इन आठ प्रकारोंमें एक 'भाषा' में उपयोगी हो सके ऐसे परमाणु हैं। ये परमाणु अखिल ब्रह्मांडमें (स्वर्ग-मृत्यु और पाताल आदि ) सर्वत्र व्याप्त हैं। कोई भी जीव जब शब्द बोलनेको तैयार होता है तब तुरंत ही लोहचुंबक जैसे लोहेको ही खिंचता है (अन्यको नहीं) वैसे वह अपने आत्मप्रदेशोंको अवगाहन करके रहे पुद्गलोंको अत्यन्त वेगसे ग्रहण कर लेता है और जिस प्रकारसे बोलना हो उस प्रकारसे ( काययोग द्वारा ) परिणत करता है, और फिर वचनयोगके वलसे गृहीत पुद्गलोंके सहकारसे भाषाका उद्गम होता है। अर्थात् उच्चार करता है। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भाषा द्रव्य है-पुद्गल पदार्थ है . * 249. इससे तात्पर्य यह निकला कि हरेक जीवोंको बोलनेके लिए भाषा पुद्गलोंकी अनिवार्य आवश्यकता है। काययोग द्वारा पुद्गल ग्रहण और परिणमन तथा वचनयोग द्वारा भाषा पुद्गलोंका वचनरूपमें निर्गमन समझना। यह बात ऊपर कही गई है / यहाँ बोलती है आत्मा, बोलनेका स्थान है शरीरवर्तीमुख, बोलनेका मुख्य साधन (माध्यम) है भाषावर्गणाके पुद्गल, बोलनेकी शक्ति या व्यापार करानेवाला है वचनयोग, इस व्यापारको व्यक्त करनेका साधन वर्ण-अक्षर हैं। यहाँ यह बात भी समझ लेना कि पुद्गल शब्दकी बात जहाँ आई वहाँ पुद्गलसे एक द्रव्य पदार्थ समझना और उसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अर्थात् रंग, गंध, स्वाद और स्पर्श होते हैं। जैन शास्त्रोंने पुद्गलोंसे क्षीर-नीरकी तरह संमिश्रित भाषाको द्रव्य-पदार्थरूप मानी है। और इस बातका सबूत आजके विज्ञानने साक्षात् करा दी हैं। उसी बात पर हम आवें / भाषा पुद्गलका ही पिण्ड है / इस पिण्डमेंसे भाषाका आविष्करण होता है। अतः ही वैह मूर्त-रूप या आकारवाला है। जैसे शब्द ऐसे पुद्गलके आकार / जो वस्तु पुद्गल रूपमें होती है उसके अनेक स्वभाव होते है। जैसेकि ग्रहण-विसर्जनउपघात, अधः, ऊर्ध्व, तिर्यक्, प्रसरण, वायु और अग्निके संयोगसे ह्रस्व दीर्घ प्रसरण, अल्पाधिक प्रवर्तन आदि आदि / ___ अब जैन शास्त्रोंने शब्दको पुद्गल पदार्थ माना / पदार्थ माना इसलिए कोई चीज-वस्तु बनी। और तब ही उसे फोनोग्राफके रिकार्डमें, टेपरिकार्डमें और बिजलीके तारमें, रेडियोमें, ( मेग्नेट और इलेक्ट्रीसिटी आदिकी मददसे) पकडा जा सका और बोले गए शब्दोंका बरसों तक अस्तित्त्व टिक सका / अस्तु / . भाषाके लिए जैन दर्शन ऐसा कहता है कि भाषा ज्यों ही बोली जाती है कि 541. वर्णके पांच, गंधके दो, रसके छः और स्पर्शके आठ प्रकार हैं / 542. न्यायशास्त्र शब्दको आकाशके गुणरूप मानता है। आकाश अमूर्त-अरूपी है। अतः उसका गुण भी अमूर्त-अरूपी है / ऐसा प्रतिपादन करता है। अगर यह बात सच हो तो, वह आकाशकी तरह सर्वत्र व्याप्त होना चाहिए। लेकिन वैसा देखनेमें नहीं आता। शब्द सर्वत्र नहीं है / श्रोत्रेन्द्रिय दीवार आदिसे उपघात पाती है (रूकती है) और पुद्गलके स्वभाव उसमें देखनेको मिलते हैं / अतः उसे आकाशका गुण मानना असत् है। साथ ही शब्द तो रूपी ही है। अर्थात् आकारवाला. है और रूपीका जन्म अरूपीमेंसे कभी नहीं हो सकता। ऊपरांत शब्दके प्रतिघोष पडते हैं यह बात भी शब्द रूपी है उसे सूचित करता है। बृ. सं. 32 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 250. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . तुरंत ही उसके पुद्गल चार ही समयमें (एक सैकन्डके अरबोंवें भागमें) समग्र लोकविश्वके ब्रह्मांडमें व्याप्त हो जाते हैं। लेकिन यहाँ इस प्रश्नको अवकाश मिलता है कि-जो शब्द लोकके एक छोरसे. दूसरे छोर तक (अरबों अरबों मील) में फैलते हैं। वे क्या मूल पुद्गल ही हैं ! शास्त्र कहता है कि नहीं। मूल पुद्गलोंकी गति-बारह योजन (अर्थात् 48 कोस) से अधिक नहीं होती। लेकिन फिर अपनी आवाजकी गतिकी समश्रेणीमें वर्तित पुद्गलोंको मूल पुद्गल स्वयं ही वासित करते जाएँ अर्थात् अपने शब्द संस्कार देते जाएँ और बहुधा तो उन वासित पुद्गलोंके ही शब्द अन्योंको सुनने मिल सकते हैं / रेडियोके द्वारा हजारों मील दूरसे बोले जाते शब्द हजारों मील दूर, जो सुने जाते हैं वे वासित किए पुद्गलोद्भव शब्द ही सुनाई देते हैं। हजारों मनुष्योंके या पशुओंके मुखसे निकलते शब्दोंके पुद्गल विश्वमें सर्वत्र देखते देखते प्रसारित होते ही हैं, अग्नि और वायु दोनों पदार्थ, उन्हें पकडकर ध्वनिरूपमें इच्छित स्थल में, इष्ट दिशामें प्रसारित कर सकते हैं / आजके वैज्ञानिकोंने शब्द ध्वनिकी तरंगोंके रूपमें फेंके जाते हैं यह अनेक रीतोंसे स्पष्ट साबित कर दिया है। अरे ! आज मात्र शब्द ही नहीं, लेकिन इसके ऊपरांत अंधकार, प्रकाश, प्रभा, छाया ये सभी द्रव्य रूपमें हैं। और वे पुद्गल द्रव्य स्वरूप ही है। अर्थात् सभी पदार्थ है / और उन सबमेंसे लहरें या किरणे निकलती ही हैं। भाषा यह एक अद्भुत चीज है। समग्र जगतका व्यवहार इससे ही चलता है / वों के न होने पर शब्द नहीं बनते, शब्द न हो तो वाणी नहीं बनती, अच्छा या बुरा करनेमें प्रायः भाषा ही निमित्त बनती है / अतः प्राप्त हुई बोलनेकी शक्तिका विना कारण दुर्व्यय न करें, अच्छा बोलिए, सत्य बोलिए, पथ्य बोलिए, परिमित बोलिए, जूठे मुँहसे न बोलिए। वाणी तो वशीकरण है / अतः स्वपरके हितमें उसका उपयोग करें। भाषा पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन पाठय ग्रन्थमें इतना पर्याप्त हैं। .अंधकार, प्रभा किस तरह पुद्गल रूप है ! उसके विशेष विवेचनको यहाँ स्थान नहीं है / 543. शास्त्रीय शब्दोंमें-अरबोवों नहीं लेकिन असंख्यातवाँ भाग / 544. कुछ लोग अंधकारके लिए तेजका अभाव उसका नाम अंधकार ऐसा कहते हैं / कोई उसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श है ऐसा मानते भी नहीं हैं। लेकिन जैन दर्शनने उसे स्वतंत्र पुद्गल द्रव्यपदार्थ माना है / ऑलीवर लोज नामके वैज्ञानिकने प्रयोगोंके द्वारा निश्चित किया था कि अंधकार द्रव्य-चीज है / अगर इन प्रयोगोंमें बड़े पैमानेमें सफलता मिलेगी, तो दिनमें भी मैं किसी भी शहरको अंधकारमय कर दूंगा। इस परसे जैन मान्यताएँ सर्वश कथित ही हैं इसकी इससे अधिक प्रतीति क्या हो सकती है? Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्वासोच्छ्वासका स्वरुप और उसका पदार्थपन * * 251 . .. ऊसा-उच्छवास- नवे उच्छ्वास प्राणकी व्याख्या देता है। इसका पूरा नाम 'श्वासोच्छ्वास' है। लेकिन गाथा छंदका मेल करने अथवा तो उच्छवास ऊर्ध्वगमनशील है। श्वासोच्छवासमें लेने-छोड़नेकी दोनों क्रियाएँ अन्तर्गत होने पर भी लेनेकी क्रियाका विशेष प्राधान्य है। मनुष्य जीवित है या नहीं ? इसका स्पष्ट और शीघ्र ख्याल यह सब उच्छ्वासके ही आभारी होनेसे 'उसा' का किया गया संक्षिप्त प्रयोग गलत नहीं कहलायेगा। और उच्छवास लिया तो छोड़नेका तो है ही अतः उच्छवासके बाद निःश्वास तो अर्थापत्ति न्यायसे स्वयं आ ही जाती है / . श्वास और उच्छवासकी दिखाई देती जो क्रिया है उसे प्राण ही कहा जाएगा। उसकी प्रक्रिया ऐसी है कि श्वासोच्छ्वास लेनेमें उपयोगी ऐसे (श्वास वर्गणाके ) पुद्गलोंको ग्रहण करने, ग्रहण के बाद श्वासोच्छ्वासरूपमें परिणत करने (या अनुकूल करने) फिर जरा अवलंबन लेकर उस श्वासोच्छवासको लेने छोड़नेके व्यापारके द्वारा विसर्जन करनेको प्राण कहा जाता है / . यह सब कैसे बनता है ! तो आठ कर्मों से छठे नाम कर्ममें श्वासोच्छ्वास नामका एक गौण कर्म है। इस कर्मके उदयसे जीवोंके उच्छवासकी लब्धि शक्ति प्राप्त होती है। यह उच्छ्वास लब्धि या शक्तिसे जीव श्वासोच्छ्वासके पुद्गलोंको उच्छ्वास रूपमें परिणत करके श्वासोच्छ्वास लेकर छोड सके वैसे प्रकारकी योग्यतावाले बना सकते हैं। अब उस योग्यता प्राप्त पुद्गलों या शक्तिको उपयोगमें लेनी है। क्योंकि उसका उपयोग उच्छवास-निःश्वासरूपमें करनेका है, और यह व्यापार अन्य बल-शक्तिकी सहायके बिना नहीं होता। इसके लिए जीवको श्वासोच्छवास पर्याप्ति-शक्तिकी अनिवार्य जरूरत पड़ती है। इस तरह लब्धि और पर्याप्ति दोनोंके सहयोगसे 'प्राण' (श्वासोच्छ्वासकी क्रिया) उत्पन्न होती है। . श्वासोच्छवास लब्धि न होने पर श्वासोच्छवास लेनेकी शक्ति या योग्यता होने 545. छलांग या कुदान लगानी हो तो प्रथम कमरके द्वारा शरीरको जरा पीछे खिंचकर शरीर संकोचनके द्वारा नया बल जागृत करनेके बाद ही छलांग लगाते हैं, सामान्यतः रेलगाडी भी पीछे धक्का लगानेके बाद ही आगे बढ़ती है। बाणको प्रक्षिप्त करना हो तो उसे प्रथम कानकी तरफ पीछे खिंचकर ही बादमें छोडा जाता है / उस तरह श्वासोच्छ्वासके पुद्गलोंको भी तथाप्रकारके प्रयत्न द्वारा अवलंबन लेकर उन पुद्गलोंके अवलंबनके द्वारा ही उत्पन्न हुई विसर्जन योग्य शक्तिके द्वारा श्वास छोडनेके साथ साथ उन पुद्गलोंका विसर्जन हो जाता है। विसर्जनको अगर साध्य मानें तो अवलंबनको साधन कहा जा सकता। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .252 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पर भी उसका व्यापार नहीं हो सकता। इसके लिए पर्याप्तिका बल मिलना ही चाहिए, तब धौंकनी क्रियाशील बन सकती है। जैसेकि-एक सैनिकने स्वकर्मके प्रतापसे स्वतः वाण छोड़नेकी शक्ति तो प्राप्त की है। परंतु धनुषग्रहणादि क्रियाका सहारा न ले तो शक्ति होने पर भी शक्तिका व्यापार नहीं कर सकता। इस तरह श्वासोच्छ्वास नामकर्मके प्रतापसे श्वासोच्छ्वास ले सके ऐसी लब्धि-शक्ति (श्वा०लब्धि) पाई है। लेकिन श्वासोच्छवास पर्याप्तिके सहकारके बिना श्वास प्राण (लेने-छोड़नेकी क्रिया) रच नहीं सकते, उनके मिलनसे ही प्राण प्रकट होते हैं। इसमें श्वासोच्छ्वास नामकर्म, लब्धि, पर्याप्ति और प्राण चारोंके कार्य बताये। इनमें सामान्यतः कर्म साधन, लब्धि-पर्याप्ति ये सब सहकारणरूप हैं, और प्राण कार्य है। शंका- श्वासोच्छवासके पुद्गलोंको जीव क्या घ्राण-नासिका द्वारा ही ग्रहण करके, नासिकाके द्वारा ही छोड़ता है ? समाधान- नहीं, ऐसा नहीं है। इसमें विकल्प है। एक इन्द्रिय, दो इन्द्रियवाले जीव जिनके नासिका होती ही नहीं, उन्हें अपनी तरह नासिकाके द्वारा श्वास लेने छोड़नेका न होनेसे अन्य देखनेवालेको बाह्य श्वासोच्छवास क्रिया प्रत्यक्ष दीखती नहीं, लेकिन श्वासोच्छ्वास प्राण उन्हें जरूर होते हैं / अब है तो किस तरह ! तो समझना कि समग्र शरीरके प्रदेशोंके द्वारा वे श्वासोच्छ्वासके पुद्गलोंको ग्रहण करके, समग्र शरीरमें ही उन पुद्गलोंको श्वासोच्छ्वासके रूपमें परिणत करके, अवलंबन लेकर सर्व शरीर प्रदेशसे विसर्जन करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ये जीव मात्र नासिकासे ही नहीं लेकिन सर्वात्मशरीर प्रदेशके द्वारा श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते होनेसे उन्हें आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास होता है। __जबकि नासिकावाले जीवोंके तो स्पष्ट रूपसे नासिकासे ही ग्रहण होता है। यह बाहरसे दीखता है अतः उसे बाह्य श्वासोच्छ्वास कहा जाता है / लेकिन प्राण रचनेके लिए होता पुद्गलोंका ग्रहण तो सर्वात्म शरीर प्रदेशके द्वारा ही होता है / लेकिन अपनी सूक्ष्म नजरसे वह दीखता नहीं है / इसे आभ्यन्तर श्वासोच्छवास कहा जाता है। उन्हें इस तरह दोनों प्रकारके श्वासोच्छ्वास घटाये जाते हैं। यहाँ एक बात ख्यालमें रखनी कि श्वासोच्छ्वासमें पुद्गलोंका ग्रहण, परिणमन और विसर्जन सब एक ही काययोग अर्थात् समग्र शरीरसे ही होता होनेसे उस (श्वासो० ) नामका अलग योग न मान कर उसका काययोगमें ही समावेश किया है। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्वासोच्छ्वास और आयुष्यका स्वरुप * * 253 * . कोई ऐसा मानता हो कि मनुष्यादि जो श्वास ग्रहण करते हैं उसमें मात्र नासिका साधन, और आयुःका सहकार यही कारण है, तो वह बात सर्वथा बराबर नहीं है। इस प्राणमें मुख्य हिस्सा पुद्गलोंका ही है। लेकिन अल्पज्ञ उसे प्रत्यक्षं न देख सकनेके कारण अन्यथा वोलें तो उनकी बात यथार्थ नहीं हो जाती / इस श्वासोच्छ्वाससे यह जीवित है या मृत ? इसकी परीक्षा भी आयुष्यके अंतिम क्षणमें की जाती है। वह जल्दी चले तो आयुष्यके दलियेका जल्दी क्षय माना जाता है और मनुष्यकी मृत्यु नजदीक लाता है / ___सामान्यतः जिनका शरीर स्वस्थ और जिनका संसार शांत और सुखी, उनका श्वासोच्छवास व्यापार स्थिर, दीर्घ और निराबाध होता है। जैसे कि देव। वे अत्यन्त स्वस्थ और सुखी हैं। तो उनमें ( सबसे छोटा ) देव 96 मिनटके अंतर पर एक बार श्वास लेता है। __ और जिसका शरीर अस्वस्थ और जिसका संसार अशांत और दुःखी हो उसका श्वास चंचल, गतिशील और कष्टप्रद होता है। जैसे कि नरकके जीव / उनकी श्वास क्रिया प्रतिक्षण अतिशीघ्र चलती होती है। - तात्पर्य यह कि सामान्यतः सुखी जीवोंको श्वासकी अनुकूलता और दुःखी जीवोंको प्रतिकूलता रहती है। आउ०- आयुष्य / यह दसवाँ प्राण है। इस विषयक विस्तृत विवेचन तो इसी ग्रन्थके पन्ने 175 से 178 तकमें दिया है। जिससे यहाँ तो संक्षेपमें ही दिया जाता है। जिंदगी, जीवन, आयु या आयुष्य ये प्राणके ही पर्याय हैं। आयुष्य एक प्रकारके पुद्गलोंका समूह रूप ही है। इन पुद्गलोंके आधार पर वह किसी भी एक देहमें शरीरधारी बनकर रह सकता है / किसी भी प्राणीके जीवन-दीपको जलता रखनेवाला आयुष्य कर्मके पुद्गल रूप ही है / इसलिए उसे प्राणसे संबोधित किया है / उसके रहनेकी काल मर्यादा, पुद्गलके समूहका प्रमाण यह सब गत जन्मके कर्म पर आधार रखता है। इसलिए उसके द्रव्यायुष्य और कालायुष्य ऐसे दो भेद पड़ते हैं। कालायुष्यके अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय ऐसे दो भेद है। और अनपवर्तनीयके सोपक्रम और निरुपक्रम ऐसे दो भेद हैं। अपवर्तनीय आयुष्य सोपक्रम ही होता है। 546. अतीन्द्रिय ज्ञानका विषयभूत होनेसे / 547. यहाँसे होते भेद-प्रभेद तथा आयुष्य संबंधित अन्य हकीकतोंके लिए देखिए पृष्ठ 175 से / Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 254. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ... द्रव्यायुष्य अर्थात् जितने कर्म पुद्गलोंको जीव लेकर आवे उतने पूर्ण करके ही मरे। यह एक निश्चित बात है। लेकिन कालायुष्यमें अर्थात् अमुक बरस जीनेकी मर्यादामें परावर्तन जरूर हो सकता है। इसी लिए अकालमें भी जीवन दीपक बुझ जाता है। उस समय भी आयुष्यके सर्व पुद्गल तो अवश्य क्षय पाते हैं, परंतु उसमें सर्व काल स्थितिका क्षय नहीं होता। लेकिन वह स्थिति संक्षिप्त हो सकती है। यह स्थिति सात प्रकारके उपक्रमोंसे तूटनेकी संभावना है। आयुष्य घटनेके असंख्य निमित्त कदम कदम पर खड़े होते हैं। लेकिन बढ़नेका कोई निमित्त विश्वमें अस्तित्वमें नहीं है / और इसका कारण यही है कि आयुष्य गत भवमेंसे नियत होकर बादमें ही जीव आगामी भवकी देह धारण करता है। एक भवका आयुष्य पूर्ण होने पर ही दूसरे भवका उदित होता है / एक देह छोड़कर दूसरी देह धारण करनेमें एक से चार समय तकका समयांतर रहता है। लेकिन नये भवके आयुष्य कर्मका उदय तो उस समय चालू हो गया ही होता है। लेकिन शरीर संयोग उत्पत्तिके प्रथम समयसे ही पर्याप्ति बनाते शुरु हो जाती है। समग्र .. संसारमें अन्य प्राणोंके अस्तित्वमें विरह पड़ता है लेकिन आयुष्य प्रणिका विरह एक समय भी नहीं पड़ता। क्योंकि दूसरे प्राण तो उत्पत्ति स्थानमें उत्पन्न होनेके बाद इन्द्रिय 548. एकेन्द्रिय आदि जिस जीवके जितने प्राण होते हैं, उन प्राणों में आयुष्यके सिवाय दूसरे प्राणोका एक भवसे दूसरे भवके बिच अंतर पडता है / लेकिन आयुष्यका जरा भी अंतर नहीं पडता / पांच इन्द्रिय रूपी प्राण एक भवमेंसे दूसरे भवमें उत्पत्ति स्थानमें पहुँचनेके बाद इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद इन्द्रियप्राण तैयार होता है / शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद शरीरबल नामका प्राण तयार होता है / श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति होनेके बाद श्वासोच्छ्वास प्राण तैयार होता है / भाषा पर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद वचन बल और मनः पर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद मनोबल नामका प्राण तैयार होता है / इस तरह एक भव पूर्ण होनेके बाद दूसरे भवकी शुरुआतसे ही सारे प्राणकी हाजिरी नहीं होती / बिचमें अंतर्मुहूर्त आदिका आंतर पडता है / परंतु आयुष्य प्राणमें एक समयका भी अंतर नहीं पडता / एक भवका आयुष्य जिस क्षणमें संपूर्ण भोगा गया इससे अनंतरक्षणमें आते भवके आयुष्यका भोग शुरू हो जाता है। वक्रागतिसे एक भवमेंसे दूसरे भवमें उत्पन्न होनेवाले जीवको वाटमें बहते ( अपान्तरालगतिमें ) दूसरे कोई प्राण नहीं होते लेकिन आयुष्यप्राण तो आगामी भवके आयुष्यके भोगकी अपेक्षासे अवश्य होते हैं। मृत्युका समय नजदीक आने पर इन्द्रियाँ, वचनबल, मनोबल आदि प्राण प्रायः क्षीण हो जाते हैं परंतु आयुष्य नामका प्राण तो जीवनके अंतिम समय तक अवश्य होता है / विश्वमें कोई भी संसारी जीव ऐसा नहीं मिलेगा जिसे आयुष्यप्राणका भोग वर्तित न हो, इन्द्रियादि दुसरे प्राणोंके लिए तो ऊपर बताए अनुसार अंतर पडता है। लेकिन आयुष्यप्राणका अंतर एक समय भी नहीं पडता / दूसरे प्राण के सिवा जीवन टिक सकता है, लेकिन आयुष्यके बिना जीवन टिक नहीं सकता अतः सारे द्रव्य प्राणों में आयुष्यप्राण मुख्य है / ये सारे इन्द्रियादि दस प्राण अलग अलग कर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाले होनेसे द्रव्यप्राणसे पहचाने जाते हैं। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * किस जीवके कितने प्राण है? . पर्याप्ति पूरी करे तब प्राप्त होते हैं। अतः दूसरे प्राणोंको उत्पन्न होनेमें अंतर्मुहूर्तका समय चाहिए। आयुष्यप्राण पूर्ण होने पर शेष सारे प्राण (मृत्युके साथ) खत्म हो जाते हैं / आगामी भवमें अपने शुभाशुभ कर्मके हिसाबसे जिस जन्ममें जितने प्राण मिलनेके हों उस जन्ममें उतने प्राप्त कर लेता है। किस जन्ममें किस जीवके कितने प्राण हों ? यह बात करके गाथाका विशेषार्थ पूर्ण किया जाएगा। किस जीवके कितने प्राण हैं ?–एकेन्द्रियोंके पांच इन्द्रिय प्राणोंमेंसे मात्र एक ही स्पर्शन इन्द्रिय, तीन बलमेंसे कायबल, श्वासोच्छवास और आयुष्य ये चार ही प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवोंके उन्हीं चारके उपरांत रसना (जीभ ) इन्द्रिय और वचनबल अधिक होनेसे छः, त्रिइन्द्रियोंके वे ही छः, उपरांत एक घ्राणेन्द्रिय (नासिका) अधिक होनेसे सात, चउरिन्द्रियके वे ही सात, उपरांत चक्षुइन्द्रिय एक बढनेसे आठ, असंज्ञि पंचेन्द्रियके आठके उपरांत एक श्रोत्रेन्द्रिय अधिक होनेसे नौ और संज्ञि पंचेन्द्रियके मनोबल अवश्य होता है अतः उसे दसों प्राण होते हैं। जीवका सामान्यतः विकासक्रम भी ऐसा है कि वह धीरे धीरे अधिक प्राण प्राप्त करता हुआ आगे बढता है। लेकिन प्राणका विकासक्रम शरीरमें नीचेसे ऊपर जाता हो। शरीरके बाद रसना ही, रसनाके बाद ही नासिका इस तरह / दूसरी बात ध्यानमें यह रखनी कि मनोवल और मनोयोग अलग चीज है। बल अर्थात् शक्ति और योग अर्थात् व्यापार, ऐसा अर्थ होता है। अर्थात् मनोयोग तब कहा जाए जब जीव विचार कर सके ऐसा बल या शक्ति प्राप्त की हो। यह जो मननशक्ति है उसे ही मनोवल कहना है। अर्थात् अगर मनोवलको साधन कहें तो मनोयोगको साध्य कहा जा सकता है। इस तरह 340 वी गाथाका सुविस्तृत अर्थ पूर्ण हुआ। [340] अवतरण- स्थानांग आदि सूत्रमें प्रारंभकी आहारादि चार संज्ञाएँ भगवतीजी आदिमें दस और आचारांग आदिमें सोलह संज्ञाएँ दर्शाई हैं। यहाँ दो गाथाओंके द्वारा दस और सोलह संज्ञाओंको बताते हैं। इनमें प्रथम चारों गतिके प्राणीमात्रमें देखने मिलती दस संज्ञाओं (चेष्टाओं-इच्छाओं)को बताते हैं। 549. आहारभयपरिग्गह...[ आचा. सू.-१-नि. गा. 38-39] Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 256 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * आँहारे भय - मेहुण-परिग्गहा कोह माण माया य / लोमे ओहे लोगे दस सण्णा हुति सव्वेसिं // 341 // [प्र. गा. सं. 71] गाथार्थ - विशेषार्थवत् / / / 341 // विशेषार्थ- संज्ञा दो प्रकारकी है। 1 ट्रॅव्यसंज्ञा और 2. भावसंज्ञा / पुनः भाव-.. संज्ञा दो प्रकारकी है। 1. मतिज्ञानादिज्ञानरूप और 2. अनुभवरूप। यहाँ द्रव्यसंज्ञा या ज्ञानरूपसंज्ञाका विषय नहीं है। यह गाथा तो अनुभव रूपमें दीखती संज्ञाओंको जणाती है। ये संज्ञाएँ स्वस्व कर्मोदयसे प्राणीमात्रके होती हैं। वे कुल 16 प्रकारकी हैं। इनमें दस तो प्राणीमात्रमें होती हैं / लेकिन आगे आनेवाली गाथामें बताई 6 . संज्ञाएँ तीन गतिमें नहीं होती, मात्र मनुष्योंके ही होती हैं। अर्थात् मनुष्योंके 16 संज्ञाएँ घटित होती हैं। अनुभवरूप संज्ञाओंकी व्याख्याः१. आहारसंज्ञा- आहारके अभिलाषरूप जो चेष्टा वह / यह आहारेच्छा जीवके वेदनीय कर्मके उदयसे होती है। 2. भयसंज्ञा - जीवनमें अनेक प्रकारसे अनुभव किया जाता त्रास वह. / यह संज्ञा भय मोहनीयकर्मके उदयसे प्रकट होती है। 3. मैथुनसंज्ञा- पुरुषको स्त्रीके प्रति और स्त्रीको पुरुषके प्रति, तथा पुरुष-स्त्री उभयके प्रति कामाभिलाषकी जो इच्छाएँ जागे वह / . 4. परिग्रहसंज्ञा- पदार्थ परकी मूर्छा-ममता। यह लोभ कषाय मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होती हैं। 5. क्रोधसंज्ञा - चेतन या जड़ द्रव्यादिके प्रति अप्रीतिका भाव उत्पन्न करे वह। क्रोध. गुस्सा, रोषादि होता है वह इस संज्ञाके कारण है / यह क्रोध मोहनीयकर्मके उदयसे होता है। 6. मानसंज्ञा - गर्व, अभिमान या अकड़पन आदि इस संज्ञाके प्रतापसे उत्पन्न होता है। यह मान मोहनीयकर्मके उदयसे जन्म पाता है। 7. मायासंज्ञा - माया, कपट, प्रपंच करनेके परिणाम स्वरूप है / और वह माया मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है। 550. तुलना करें-आहारभयमथुनानि तथा क्रोधमानमायाश्च / लोभो लोक ओघसंज्ञा दश सर्वजीवा-- नाम् // ( भ. श. 7, टीका ) 551. दव्वे सचित्ताइ भावेऽणुभवण जाणणा... Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 257. * दश संशामोंका वर्णन . 8. लोमसंज्ञा - पदार्थों परकी अत्यन्त आसक्ति और उसके प्रतापसे पदार्थादि संचयका शौक बढ़ता जाए। यह लोभ मोहनीयकर्मके उदयके कारण होता है। 9. ओघसंज्ञा - इस संज्ञाके दो अर्थ अलग अलग ग्रन्थकार करते है। वह इस तरह 1. मतिज्ञानावरण कर्मके स्वल्पक्षयोपशमसे शब्द और अर्थ विषयक सामान्य बोध हो वह / और इस अर्थसे यह संज्ञा दर्शनोपयोग रूप हुई / 2. अथवा "अव्यक्त उपयोग स्वरूप वह / जिसे सहजभाविनी भी कह सकते / और इस संज्ञाके कारण ही लताएँ स्वयं अपना आश्रय ढूंढकर दीवार पर या वृक्ष पर स्वतः चढती हैं। इत्यादि जो कार्य अमनस्कोंके होते हैं वे ओघसंज्ञाके ही सूचक हैं। 10. लोकसंज्ञा- इस संज्ञाके भी ग्रंथकार दो अर्थ करते हैं / 1. *मतिज्ञानावरणीय कर्मके स्वल्पक्षयोपशमसे शब्दार्थ विषयक जो बोध हो वह / और इस अर्थसे यह संज्ञा 'ज्ञानोपयोग' रूप है। 2. दूसरा अर्थ यह है कि * जनताने अपनी अपनी कल्पनाओंसे निश्चित किये निर्णयोंका आदर करना वह। जैसे कि " अपुत्रकी सदगति नहीं होती। ब्राह्मणपुत्र देवतुल्य हैं। कुत्तेके या यमराज है। कुत्ते यमराजको देखते हैं। मयूरोको स्वपंखोंके वायुसे गर्भ रहता है / कर्णका जन्म कानमेंसे हुआ था / अगस्त्य ऋषि समग्र समुद्रपान कर गए।" ऐसी ऐसी अनेक मान्यताओं-संज्ञाओंको ज्ञानावरणीयके क्षयोपशम और मोहनीयके उदयवाले लोग खड़ी करते हैं और प्रचार करते हैं। * यह प्रवचनसारोद्धार टीकाका अभिप्राय है / 552. यह आचारांग नि० गा० 33 की वृत्तिके अभिप्रायसे / 553. वैदिकादि इतर ग्रन्थोंमें एक सुप्रसिद्ध वचन है कि 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति मोक्षो नैव च नैव च' (म० स्मृ०). अर्थात् अपुत्रकी गति नहीं होती और मोक्ष तो नहीं ही नहीं है। अर्थात् उसका स्वर्ग-मोक्ष नहीं होता / 554. 'ब्राह्मणाः भूदेवाः' ब्राह्मण पृथ्वी परके देव हैं / 555. यमराजा कुत्तका रूप लेकर आते हैं और जीवको परलोकमें ले जाते हैं / 556. अथवा दूसरी एक सुप्रसिद्धि है कि मृत्यु क्षण पर मृतकको लेने यमराज आते हैं। उन्हें कुत्ते देख सकते हैं। इसीलिए कुत्ते रोते हैं और इसी लिए लोग भी रोते कुत्तोंको अमंगल मानकर भगाते हैं। 557. दूसरा मानना यह भी है कि मयूरका अश्रु बिंदु मयुरी चाखे तो भी उसे गर्भ रहता है। घृ. सं. 33 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *258 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * - ये पैसों संज्ञाएँ सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके जीवोंके होती हैं और चारों गतिके जीवमात्रमें होती हैं। _चारों गति आश्रयी मौलिक चार (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) संज्ञाओंके स्वामीकी संख्याका स्थूल विचार करें तो, नरकगतिमें मैथुन संज्ञावाले जीव अल्प, तियेचमें परिग्रह संज्ञावाले अल्प, मनुष्योंमें भय संज्ञावाले अल्प और देवोंमें आहार संज्ञावाले अल्प हैं / किस संज्ञाका कहाँ प्राधान्य ! इसका भी स्थूल विचार करें तो, देवोंमें लोभ संज्ञाका प्राधान्य, मनुष्योंमें मान दशाका, तियेचोंमें मायाका और नारकोंमें क्रोध कषायका प्राधान्य है। वर्तमानमें परिग्रह संज्ञाका प्रावल्य अधिक दीखता है। और इसके बल पर अन्य संज्ञाओंका प्रावल्य बढता है। चारों संज्ञाएँ संसारवर्धक हैं / इनसे अनेक अनिष्ट, दुःख, क्लेश और अशांतिकी आगे जलती हैं। इन चारों आगोंको बुझानी हों और संसारका नाश करना हो तो, उसके प्रतिपक्षी स्वरूप दान, शील, तप और भाव इन चारों धर्मका नितान्त सेवन करना चाहिए। दानधर्मके सेवनसे परिग्रह संज्ञाका नाश, शीलसे मैथुनवासना संज्ञाका, तपसे आहार संज्ञाका और भावसे मनकी चंचलताकी कमी होती है। इस तरह चारों भावनाएँ अनादिकालसे उत्पन्न हुई बीमारीको दूर करनेका रामबाण उपाय 558. क्या एकेन्द्रिय जीवोंमें दस संज्ञाएँ घट सकती हैं ? 1. वृक्षोंका जलाहरण 'आहार संज्ञा' को सूचित करता है / 2. लज्जावन्ती आदि वनस्पतिके स्पर्श करने पर भयसे संकुचती है वह ' भय संशा'। 3. स्त्रीका आलिंगन या उसका श्रृंगारिक वचनोंसे कुरबक आदि वृक्षका उर्वर होना / तथा श्रृंगारसज्ज स्त्रीको देखकर कुएँका पृथ्वीकायिक पारा हर्षावेशमें आकर उछले वह 'मैथुन संज्ञा' / 4. लताएँ वृक्षके आसपास आवृत्त होती हैं वह 'परिग्रह संज्ञा'। 5. कोकनद नामका रक्तकमलका कंद, कोई उसके नजदीक जाए तब अप्रसन्नतासे हुंकार करे वह 'क्रोध संज्ञा'। 6. सोना सिंदिके लिए उपयोगमें आती रुदन्ती नामकी लता जो रस वर्षा करती है, वह ऐसा जाहिर करती है कि मैं जीती जागती इस सृष्टि पर बैठी हूँ, फिर भी यह जगत् क्यों मेरा उपयोग करके दरिद्रता दूर नहीं करता, यह 'मानसंज्ञा'। 7. बेलें -लताएँ अपने ही फलोंको पत्रादिकसे ढंककर छिपा देती हैं, यही 'माया संज्ञा' / 8. बिल्वपलाशादि वृक्ष अपनी जड़ें पृथ्वीमें जिस स्थान पर निधान हो उसके पर ही बिछाते हैं यह 'लोभ संज्ञा'। 9. लताएँ फैलती फैलती स्वयं वृक्ष या दीवारका आश्रय पा लेती हैं और ऊपर चढने लगती हैं यह 'ओघ संज्ञा' है। 10. रात्रि पडने पर कमलादि पुष्प बंद हो जाते हैं, सकुच जाते हैं, यह 'लोक संज्ञा'। यहाँ स्थूल 10 संज्ञाएँ कहीं लेकिन क्षुद्रजंतु, पक्षी, पशु, और यावत् मनुष्यका भी शिकार करती हिंसक वनस्पतियाँ भी इस सृष्टि पर विद्यमान हैं। अलग अलग संगीतके नादसे प्रसन्न होती अनेक प्रकारके आकारों, विचित्रताओं, तरह तरहकी खासियतों और चमत्कारोंके स्वभावोंवाली हजारों वनस्पतियाँ हैं / इन वनस्पतियों का भी एक महा विज्ञान है। इनके अभ्यासके लिए अनेक जिंदगियाँ पूरी नहीं पडतीं। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शेष छः संज्ञाओंका वर्णन * * 259. है। संसारवर्धक इन चारों संज्ञाओंको तोड़ने, मोक्षप्रापक चारों धर्मका आराधन करने सतत जागृत रहना मानव जीवनका अनिवार्य कर्तव्य हैं / [341] (प्र. गा. सं. 71) 'अवतरण-दस संज्ञाएँ कहकर मात्र मनुष्योंमें 10 उपरांतकी अधिक छः संज्ञाओंको कहते हैं। सुह-दुह मोहा सन्ना, वितिगिच्छा, चउदसा मुणेयव्वा / सोए तह धम्मसन्ना, सोल सन्ना हवइ मणुएसु // 342 // [प्र. गा. सं. 72] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 342 / / विशेषार्थ११. 1. सुख- शातारूप सुखका अनुभव हो वह। यह शातावेदनीयके उदयसे होता है। 12. 2. दुःख-अशातारूप दुःखका अनुभव / यह अशातावेदनीय कर्मोदयसे होता है। 13. 3. मोह- यह मिथ्या दर्शनरूप है, अर्थात् सत्में असत् और असत्में सत्की बुद्धि होना। 14. 4. विचिकित्सा-चित्तकी चपलता-विह्वलता या उछाला / यह मोहनीय और ज्ञाना . वरणीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है / 15. 5. शोक- रुदन, खेद, बेचैनी और वैमनस्यभावको उत्पन्न करनेवाला। 16. 6. धर्मसंज्ञा-क्षमा, मृदुता, सरलता, सत्य, तप आदि धर्मोके आसेवनरूप है। ___यह मोहनीयकर्मके क्षयोपशमसे उदयमें आता है। ये संज्ञाएँ सम्यग् या मिथ्या दोनों दृष्टिवाले मनुष्योंके संभवित हैं / इस तरह छः संज्ञाएँ पूर्ण हुई। इनके सिवा प्रकारान्तरसे जीवोंमें दीर्घकालिकी, हेतुवादिकी और दृष्टिवादिकी ये तीन संज्ञाएँ भी होती हैं / 24 दंडकके द्वारमें इसका वर्णन आएगा / [342] (प्र. गा. सं. 72) ___ अवतरण- यह संग्रहणी लघु है या बृहत् ! इसके कर्ता कौन? यह क्यों बनाई ? इसका खुलासा ग्रन्थकार स्वयं करते हैं। संक्षुित्ता संधैर्यणी गुरुत्तर संघयणी मज्झओ एसा / सिरिसिरि चंदमुर्णिदेण, णिम्मिया अत्तपढणत्था // 343 // 559. जिनभद्रीया संग्रहणीमें क्षमाश्रमणने ग्रंथका नाम नाणमणंतमणत्थं ता संगहणित्ति नामेणं // 1 // यह आद्य गाथामें ही सूचित किया है। जब कि श्री चन्द्रमहर्षिने 'संग्रहणी' नाम इस अंतिम गाथामें सूचित किया है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 260 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ- प्रथम श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणने संक्षिप्त संग्रहणी रची थी / अभ्यासियोंने अन्यान्य गाथाएँ जोड़कर संक्षिप्त या मूल संग्रहणीको ही गुरुतर-बहुत बड़ी बना दी। इस विस्तृत संग्रहणीमेंसे ही उपयोगी हकीकतोंको ग्रहण करके, सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्ररूपी श्री से युक्त, मुनिओंमें श्रेष्ठ ऐसे 'श्रीचन्द्र' मुनिने अपने अध्ययनार्थ पुनः इस (संक्षिप्त) संग्रहणी निर्माण की अर्थात् रची। // 343 // विशेषार्थ- आठवीं सदीमें हुए महान भाष्यकार भगवान श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण पूज्यने, अपनी बुद्धिरूपी मथनीसे श्रुतशास्त्र रूप सागरका मंथन करके, अज्ञान विषसे मूर्छित बने भव्य जीवोंको, पुनर्जीवन देनेमें अमृतके समान एक 'संखित्तासंगहणी' संक्षिप्त संग्रहणी उद्धृत की। अर्थात् जो आत्माएँ अधिकारकी दृष्टिसे, बुद्धिमन्दताके कारणसे या समयके अभावसे, बडे शास्त्रोंका अध्ययन कर सकनेवाले नहीं थे, उन जीवोंको भी अखिल विश्वके अंदर रहे पदार्थों से यत्किंचित् पदार्थोंका बोध सुगम रीतसे हो, इसलिए महत्त्वकी गाथाओंको आगमादिक ग्रन्थोंमेंसे अलग करके, अथवा. तो महत्त्वके विषयोंको संक्षिप्त रूपमें गाथावद्ध करके संग्रहरूपमें नवीन गाथाएँ तैयार हुई जिन्हें 'संग्रहणी' (-यो संग्रहणि ) शब्दसे पहचानी गई / प्रस्तुत संग्रहणी श्री चन्द्रीया टीकाके उल्लेख अनुसार संक्षिप्त अर्थात् अनुमानतः 273 गाथा आसपास (270 से 2801) की थी परंतु इसके पैरै मूल टीका 560. जिनभद्रीया संग्रहणीमें क्षमाश्रमणजीने आदि या अंतमें कहीं भी स्वनाम सूचित नहीं किया है। लेकिन टीकाकार श्री मलयगिरिजीने यामकुरुत 'संग्रहणी' जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यः' इस उल्लेखसे इसके कर्ता भाष्यकार श्री जिनभद्रगणिजी है, ऐसा स्पष्ट हो जाता हैं। 561. कृतिभेदका ख्याल रहे इसलिए जिनभद्रीया कृतिको ‘संग्रहणी', श्री चन्द्रमहर्षिकी कृतिको ‘संक्षिप्त संग्रहणी' और 344-45, इन दोनों गाथाओंको ‘संक्षिप्ततर संग्रहणी' के रूपमें पहचानें तो अयोग्य नहीं हैं / 562. शास्त्रान्तरेषु प्रज्ञापनादिषु विस्तरेणामिहिता अर्थाः संक्षिप्य गृह्यन्ते प्रतिपाद्यत्वेनाभिधीयन्तेऽस्यामिति [सं० गा० 272 टीका ] पन्नवणादि आगमादि शास्त्रोंमें प्रतिपादित किये अर्थोको (शब्दों द्वारा ) संक्षिप्त करके जिसके अंदर प्रतिपादित किए गए हों वैसी रचनाको 'संग्रहणी' शब्दसे पहचानी जाती है। ...अभिधीयन्ते यया ग्रन्थपदत्या सा [ मलयगिरिकृत सं० टीका ] 563. प्रहेरणि [ उ० 638 ] रित्यौणादिकेऽणि प्रत्यये संग्रहणिः इतोऽक्त्यर्थादिति [ सि. 2-4-32] विकल्पेन डी. प्रत्यये च संग्रहणी। 564. इयं पूर्व भगवता जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन...उद्धृता...संक्षिप्ता संग्रहणी / 565. मूलसंग्रहणी 270 से 280 लगभग मानवाली थी इसका प्रमाण क्या ? तो संग्रहणी टीकाकारने किया " ननु यदि संक्षिप्तया प्रयोजनं तर्हि मूलसंग्रहण्येवाऽस्तु किं पुनः प्रयासेन प्रायस्तस्या अप्येतावान्मात्रत्वात् " यह उल्लेख / यहाँ श्री चन्द्रीया संग्रहणीके टीकाकार श्री देवभद्रसूरिजीने जिनभद्रीया संग्रहणीको प्रायः शन्दसे लगभग 275 आसपासके Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इस ग्रन्थका कर्ता कौन और संग्रहणीका गाथामान कितना 1 * * 261 * अर्थात् प्रथम टीका जो रची गई उस टीकामें साक्षीभूत या उपयोगी जो गाथाएँ दी थीं उनमेंसे और अन्यान्य प्रकरणादिक ग्रन्थोंमेंसे कतिपय गाथाओंको उठाकर अभ्यासकोंने श्री जिनभद्रीया संक्षिप्त संग्रहणीके साथ जोड़ना शुरु किया और फिर कंठस्थ करने लगे, फिर स्वाध्यायके लिए कागजके पन्नों पर लिखी जाने लगी, परिणाम स्वरूप उन लिखित प्रतियोंमें लगभग चारसौ और पांचसौ दोनों मानवाली संग्रहणियोंका जन्म हुआ, और गाथामानवाली बताई। उस अरसेके सार्वभौम टीकाकार श्री मलयगिरिजी. जो जिनभद्रीया संग्रहणीके टीकाकार हैं, उनकी मुद्रित की गई, पं. श्री दानविजयजी संशोधित प्रतिमें जो टीका की है वह 367 गाथा की है। लेकिन उसी प्रतिमें टीका पूरी होने पर तुरंत ही मूल गाथाएँ छापी हैं, ये 353 गाथाएँ छापी हैं और टीका 367 की है फिर भी मूल 353 क्यों छापी ? इसके समाधानके रूपमें संस्कृतमें टिप्पण दिया है। उसमें बताया है कि " कुछ प्रतियाँ हमें 500, 575, 400 से कुछ अधिक इस तरह भिन्नभिन्न प्रमाणवाली मिलीं इससे लगा कि प्रक्षिप्तताका कोई नियम ही नहीं रहा, अतः मूल कर्ताने स्वयं ही 353 गाथाएँ बनाई थीं और 14 गाथाएँ (353+14-367) तो प्रक्षिप्त थीं। उन्हें हमने मूल संग्रहमें न छापी" लेकिन सवाल यह है कि टिप्पणकार पन्यासजीने किस आधार पर यह निश्चित किया ? लेकिन मान लें कि उन्होंने किसी प्रबल आधार पर लिखा होगा, तो फिर दूसरा प्रश्न यह होता है कि श्री टीकाकार श्री देवभद्रजीने लगभग 300 गाथाएँ अर्थात् अभी मुद्रित हुई 275 गाथाओंका उल्लेख क्यों किया होगा ? साथ ही दूसरी बात यह भी है कि प्रक्षेप गाथासे तो प्रमाण श्री देवभद्रजीके कहने अनुसार तो 375 से 490 तकका है, तो उतना कहना चाहिए। इसके बदले पं. श्री दानविजयजीने चौदह गाथाओंको ही प्रक्षिप्त क्यों कहीं ? क्या मलयगिरिजीने टीकामें 14 गाथाओंको ही प्रक्षिप्त रूपमें मानी होगी 1 ( मैं यह निश्चित नहीं कर सका / ) दोनों संग्रहणीकारोंकी मुद्रित गाथाएँ भिन्नभिन्न संख्यावाली मिलती हैं / जिसके कारण एक बडी अराजकता संग्रहणी ग्रन्थक्षेत्रमें सर्जित हुई है। इस विषयक चौकस निर्णय लेनेके लिए विशिष्ट प्रयत्न अपेक्षित है। शक्य होगा तो प्रस्तावनामें परामर्श करूँगा। 566. मूलटीका (आद्य) किसकी थी ? तो श्री हरिभद्रसूरिजीकी, उसका प्रमाण क्या ? तो श्री मलयगिरिवरने जिनभद्रीया (367 गाथाकी) संग्रहणीकी स्वकृतटीकामें और श्री देवभद्रसूरिजीने श्री चन्द्रीयाकी टीकामें किये हुए उल्लेख / 1. अथेयं प्रक्षेपगाथेति कथमवसीयते ? उच्यते, मूल्टीकाकारेण हरिभद्रसूरिणा लेशतोऽअस्या असूचनात् ! [गा० 73 टीका ] इसके सिवाय श्री हरिभद्रसूरिजीका नामोल्लेख 6, 65, 102, 153, 156, 186, 191, 325 इन गाथाओंकी टीकामें भी किया है। 2. तथा च मूल टीकायां हरिभद्रसूरिः / [गा० 269 टीका] 567. 'मलटीकागता भिरन्यान्याभिश्च प्रक्षेपगाथाभिवृद्धिं नीयमानाऽधुना यावत् किञ्चिन्न्यून चतुःशतीमाना पञ्चशतीमाना च गुरुतरा संजाता।' ग्रन्थका नाम जो “संग्रहणी' है, उस शब्दका अर्थ इतना ही कि जिसमें संग्रह किया गया हो वह -- संग्रहणी'। यह अर्थ सदाके लिए निश्चित होनेसे श्री चन्द्रमहर्षिके समयमें, गाथामानमें जितनी अराजकता न थी उससे अनेक गुनी बीसवीं सदी तकमें अभ्यासी वर्गने कर डाली है। जिन्हें जिन्हें आगमोंमें या टीकाओंमें जो जो गाथाएँ अपनी अपनी दृष्टिसे कण्ठ करने योग्य या जानने योग्य लगी, उन्होंने अपनी प्रियगाथाओंको मलकृतिमें जोडकर पढना शुरु कर दिया, फिर वे लिखी जाने लगीं। विद्यार्थियोंके मनको ऐसा भी हुआ होगा कि यह तो 'संग्रह' कृत है अतः यथेष्ट जोड किया जा सकता है। परिणाम स्वरूप हमें तरह तरहसे मानवाली Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 262 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * उन्होंने कायमी स्थान ले लिया / आज दोनों प्रकारकी संख्या भरपूर हस्तप्रतियाँ उप-- लब्ध होती हैं यह उसका सबूत है / बारहवीं सदीमें जन्मे श्री चन्द्रमुनीश्वरने देखा कि “विद्यार्थियोंने तो मूलसंग्र-. हणीको बहुत विस्तृत कर दी है, और इसी कारणसे कंठस्थ करनेमें श्रम भी अधिक पड़ता है, साथ ही कुछ अर्थहीन दीर्घता दीखती है, इसलिए उसका पुनरुद्धार करना . अर्थात् संक्षिप्त बनानी चाहिए” अतः उन्होंने क्या किया कि प्रथम लगभग 400, या 500 गाथामानवाली जो संग्रहणियाँ थीं उनमेंसे, साथ ही उस वक्तकी विद्यमान दो टीकाओंमें जो अर्थ था उसे सोच-विचार कर, उसमेंसे तारतम्य निकालकर, तथा शब्दोंकी भरमारसे अर्थहीन गाथा विस्तार था अर्थात् जो अर्थ दो गाथाओंसे कहा जा . सके उसे उससे अधिक गाथाओंसे व्यक्त किया गया हो उसे संक्षिप्त कर डालनेका निश्चय किया। साथ ही सामान्य बाबतोंको छोड़कर, साथमें कुछ नवीन हकीकतोंको जोडा, इन सारे प्रयत्नोंके अंतमें गंभीरार्थक शब्दों और भाषा रचनाके कौशल्य द्वारा 271 गाथा प्रमाणरूप इस श्री चन्द्रीया संग्रहणीकी रचना जन्मी / तात्पर्य यह कि लगभग 400, 500 गाथाओंवाली कृतियोंके हिसाबसे इसमें 150, 200. गाथाओंकी भारी कमी होने पाई। शंका-यदि आपको संक्षिप्तका ही प्रयोजन था तो, मूलसंग्रहणी जो स्वयं संक्षिप्त ही थी, उससे स्वोद्देश पार पड़ जाता, तो फिर यह प्रयत्न क्यों किया ? समाधान-इसका जवाब टीकाकार श्री देवभद्रसूरिजी जो प्रस्तुत संग्रहणीके टीकाकार हैं और संग्रहणीकार महर्षिके शिष्य हैं, वे 271 वी गाथा-टीकामें खुलासा करते हैं कि-"गुरुश्रीने स्वकृत संग्रहणीमें जितना अर्थ संग्रह किया है उतना संग्रह मूलसंग्रहणीमें नहीं ही हैं, संक्षिप्तरूपमें समान है लेकिन 'थोडे शब्द और संग्रहणीकी प्रतियाँ जैन भंडारों से उपलब्ध होती हैं। दूसरी दृष्टिसे देखें तो ऐसी अराजकता एक अति महत्त्वपूर्ण सूचन कर देती है कि इस ग्रन्थका अध्ययन-अध्यापन जैनसंघमें कितनी हद तक रुचिकर बना होगा ? आजके ज्ञानभंडारोंमें प्रायः संग्रहणीकी सचित्र या अचित्र प्रतियाँ कम-ज्यादा प्रमाणमें जो प्राप्त होती हैं वे उसके व्यापक प्रचारके कारण हैं। 568. 'किञ्चित्तदुभयवृत्तिगतस्य' 'श्री चन्द्रीया टीकाकार (गा० 271) के उल्लेखसे उस समय दो टीकाएँ थीं / एक तो हरिभद्रसूरिजीकी और दूसरी क्या लेवें ? क्या 1939 में रची गई शीलभद्रीया वृत्ति हो सकती है ? 569. एक ही अर्थके लिए शब्द क्रियापद, विशेषण आदिका विशेषतः उपयोग किया जाए तो गाथामान बढ जाए। इसी अर्थको सूत्ररचनाके नियमानुसार जरूरी शब्दोंसे संक्षेपमें प्रस्तुत किया जाए तो अर्थ लगभग वही रहने पर भी गाथामान कम किया मा सके। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इस ग्रन्थका कर्ता कौन और संग्रहणीका गाथामान कितना ?. .263 . अधिक अर्थ, उसमें नहीं हैं, वे इसमें हैं, अतः हमारे कृपालु गुरुदेवका प्रयास सप्रयोजन और सफल है / पुनः कोई तर्क करे कि इतना अधिक अर्थसंग्रह करके विशिष्ट क्यों बनाई ! उसका जवाब संग्रहणीकार (गुरु) स्वयं ही मूलगाथामें देते हैं कि, 'अत्तपढणत्था' [ गा०२७१ ] मेरे अपने स्वाध्यायार्थ बनाई। ऐसा उल्लेख करके सचमुच ! उन्होंने एक जैनश्रमणमें जो होनी चाहिए ऐसी निरभिमानता और सरलताका ही परिचय कराया है। उत्तम, गुणज्ञ और कुलीन आत्माएँ कभी भी अपने परोपकारकी या कार्यकी बधाई गानेके बजाय स्वोपकारको ही आगे धरते हैं। क्योंकि ये महामतिमहर्षि समझते हैं कि स्वोपकारमें परोपकार अपने आप समाया होता ही हैं। ' लघुतामें प्रभुता समझना' इसका नाम / . श्रीचन्द्रमहर्षिके शिष्य वास्तविक बातको प्रस्तुत करते हैं खुद संग्रहणीकारके शिष्य श्री देवभद्रसूरिजी जो सत्य हकीकत जानते थे, वे स्वयं ही इसी संग्रहणीकी टीकामें बताते हैं कि " हमारे पूज्य गुरुदेवश्री जिन्होंने मानकषायको संपूर्ण क्षीण कर डाला था, वे गंभीर मनवाले हमारे तारक गुरुदेवश्री उदंडता व्यक्त हो ऐसे शब्द प्रयोग करना कभी पसंद नहीं करते थे। इसी लिए उन्होंने अत्तपढणत्था अर्थात् अपने अभ्यासके लिए की, ऐसा बताया लेकिन सचमुच हकीकत यह थी कि उनका यह सफल प्रयत्न नवदीक्षितों और अल्प बुद्धिधना आत्माओंके लिए ही था और यह बात हम उनके सब शिष्य स्पष्ट और अच्छी तरह जानते हैं। टीकामें मैंने जब यह बात लिखी तब मेरे अन्य साथी मुनिवरोंने बताया कि-' ऐसे महामतिमान, श्रुतज्ञानके भंडारसमान और करुणाहृदयी ऋषीने 'अत्तपढणत्था'-अपने अभ्यासके लिए ऐसां अत्यल्प लघुतासूचक वाक्य बोलना नहीं चाहिए था / __. इसके जवाबमें टीकाकारने स्वगुरुकी लघुताको न्याय देने, प्रस्तुत उद्गारोंको अंकित करते हुए बताया कि “यह लघुता ही उनकी श्रुतसंपत्ति तथा महत्ताकी सूचक है। कैसा सुंदर खुलासा!" - साथ ही टीकामें ऐसा बताया है कि, संक्षिप्त रचना, परस्परश्रुतका और स्व-पर शास्त्रका स्वाध्याय और अनुचिंतन करनेवाले, तथा अपने अपने गच्छ और श्रीसंघके कल्याण आदि व्यापारमें अग्रगण्य सेवा देनेवाले महामुनियों के शीघ्रपाठ और अर्थचिंतन आदि करनेमें अवश्य अत्यन्त उपकार करनेवाली है / और इस उपकारबुद्धिकी बात हमारे गुरुदेवने Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 264 . __ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * हम सबके समक्ष की है। इसी लिए मैंने उपरोक्त उल्लेख किया है। अगर मेरी मतिकल्पनासे मैं करूँ तो खुलेपनसे गुरुआशातनाका में भागीदार बनें / इस तरह टीकाकारने स्वगुरुदेवकी उपकारशीलता और अनुग्रहबुद्धिकी रसिक हकीकत प्रस्तुत करके स्वगुरुगौरव और भक्ति दिखाई है। धन्य हो ! ऐसे गुरु-शिष्योंके जोडेको ! हमारा उन्हें अनंत वंदन / श्री चन्द्रीया संग्रहणी यहाँ पूर्ण होती है / अबके बादकी गाथाएँ पुनः प्रक्षेप रुपमें दी हैं। और अंतिम गाथा उनके किसी अनुरागी विद्यार्थीने बनाई होगी। [343 ] ॐ अह नमः श्रीधरणेन्द्रपद्मावतीपूजिताय-श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः। अवतरण- यह 'श्रीचन्द्रीया' संग्रहणी उत्कृष्टकी अपेक्षा जघन्य है ही लेकिन उससे मी अत्यंत संक्षिप्त संग्रहणी है, जो सिर्फ दो गाथाके मानवाली और प्रख्यात है, तथा जो मात्र 24 द्वारों के नाम मात्रका ही निर्देश करनेवाली है। ये सुप्रसिद्ध गाथाएँ श्रीचन्द्रमहर्षिकृत नहीं हैं, आगमोक्त हैं। यहाँ उन्हें उद्धृत समझना / संखित्तयरी उ इमा संरीरमोगाहणा य संघयणा / सन्ना संठोण काय लेस इंदिअ दु समुग्धाया // 344 // , "दिद्विदसणाणे जोगवओ"गोवाय-चवण-ठिई"। पज्जत्ति किमाहारे सन्नि-गई-आगइ-एँ // 345 // 570. जिनभद्रीया संग्रहणीमें उपरोक्त गाथाएँ (तफावतयुक्त) नीचे अनुसार दी हैं। सरीरोगाहणसंघयणसंठाणकसाय हंति सणाओ / लेसिदिअसमुग्घाए सन्नी वेए अ पज्जत्ति // 365 // दिट्ठि-दसण-नाणे जोगुवओगे तहा किमाहारे / उववाय-ठिइ-समुग्घाय-चवणं गईरागई चेव // 366 // इस गाथामें 24 द्वारोंसे युक्त संक्षिप्त संग्रहणी जिस क्रमसे दर्शायी है उससे जिनभद्रीया संग्रहणी की गाथाओंके क्रममें अंतर (फर्क) आ गया है। वहाँ शरीरोगाहणसंघयणसंठाणकसायं...इस प्रकार क्रम है। इसके उपरान्त श्रीचन्द्रीयाकारने गाथा 272 (अपची चालू गाथा 344 ) के दु समुग्माया पदकी टीका करते हुए 'समुद्घात का द्वार एक नहीं लेकिन दो है ऐसा सूचित किया है। क्योंकि समुद्घात के दो प्रकार हैं / इसलिए दोनोंके लिए अलग-अलग द्वार समझना चाहिए। और यही बात योग्य है ऐसी प्रतीति इनकी पूर्वकालीन जिनभद्रीया संग्रहणीकी कुछ परिवर्तनयुक्त संक्षिप्त संग्रहणी स्वरूप गाथाएँ ही कराती है। वहाँ गाथा 365 में समुग्घाए तथा गाथा 366 में समुग्धाय ऐसा दोनों समय समुद्घात पदका उपयोग करके समुद्घात के द्वार दो गिनने हैं, ऐसी स्पष्ट रूपसे मुहर लगा दी है। दोनोंके टीकाकार भी इसी प्रकार ही संमत हुए हैं / लेकिन वर्तमानमें जो प्रकरण ‘दंडक' शब्दसे प्रसिद्ध है उनके कर्ता-रचयिता उपर्युक्त मतसे अलग पडते हैं। यह नीचे दी गयी हकीकत से स्पष्ट हो जायेगा। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चौबीस द्वारोंके विस्तृत वर्णन ... .265 . .' * गाथार्थ- 1. शरीर, 2. अवगाहना, 3. संघयण, 4. संज्ञा, 5. संस्थान, 6. कषाय, 7. लेश्या, 8. इन्द्रिय, 9. जीव समुद्घात, 10. अजीव समुद्घात, वर्तमानमें हमारे यहाँ जीवविचारादि प्रसिद्ध चार प्रकरणोंके अंदर एक दंडकका प्रकरण आता है। अलबत्ता उसका असली नाम क्या है ? यह तो रचनाकार ही. जाने ! क्योंकि उसे आदि या अंतमें कहीं पर भी सूचित किया नहीं है। लेकिन सत्रहवीं सदीके टीकाकार श्री रूपचन्द्रमुनिजी इसके तीन नाम सूचित करते हैं / पहला लघुसंग्रहणी, दूसरा विचारषदर्चिशिका और तीसरा षत्रिंशिका / इनमें पहला नाम टीकाके मंगलाचरणमें, दूसरा अंतिम ४४वीं गाथाकी. टीकामें और तीसरा टीकाकी प्रशस्तिमें है। अंतिम दोनों नाम तो लगभग एक समान ही है, इस लिए 'लघुसंग्रहणी' और 'विचारषद् त्रिशिका' ये दोनों नाम ही प्रमुख हैं। फिर भी सोचने पर एक ही नाम टीकाकारको अभीष्ट है ऐसा समझमें आता है। उनके कारणोंको जानना यहाँ पर ठीक नहीं है इस लिए नीचे जो विषय प्रस्तुत है उसे ही देखते हैं। ___ संग्रहणीसूत्र जिसको आज-कल सभी लोग 'बृहत्संग्रहणी' अथवा 'बडी संघयणी' (अथवा संग्रहणी) के नामसे पहचानते है। इसमें संक्षिप्ततर संग्रहणीके रूपमें ऊपर जो दो गाथाएँ छपी हुी है उसी गाथाको ही उसी आनुपूर्वी पर इसी दंडक प्रकरणके प्रारंभमें ही गाथा 2 और 3 के रूपमें दी है। गाथाओंमें संपूर्ण समानता होने पर भी अर्थकी दृष्टिसे 'दंडक' के रचयिता स्वयं संग्रहणी मूल और टीकाके आशयसे अलग पडते हैं। संग्रहणीकी दोनों गाथाएँ (और उनके सभी टीकाकार भी) समुद्घातका द्वार एक नहीं लेकिन दो माननेका सूचन करती हैं, जब कि दंडक प्रकरणके रचयिता गजसारमुनिजी दोनों समुद्घातोंका एक ही द्वार मनाते हैं। इसका सबूत दंडककी 20 वीं गाथा ही है। मत्यादि तीनों अज्ञानोंको जो चौबीस दंडकोमें दिये गये हैं, वही इसी गाथामें मिलते हैं। यदि 24 द्वारोंमें उस द्वारकी गिनती न होती तो दंडकमें उसका स्वतंत्र स्वरूप वे करते ही नहीं, लेकिन गजसारमुनिजीने प्रस्तुत दोनों गाथाओंमें अज्ञान द्वार शब्द द्वारा सूचित नहीं किया है तो किस आधार पर उन्होंने ऐसी प्ररुपणा की ? तो इसके उत्तरमें 24 द्वारोंको संग्रहरूप गाथाओंकी टीका करते हुए ग्रन्थकारने लिखा है कि ". ज्ञानसाहचर्यादत्राऽप्यनुक्तमपि त्रिधाऽज्ञान...। एतत्सूत्रे नोक्तं बहिर्गम्यम् / और अज्ञान द्वारकी व्याख्या करते 20 वीं गाथाकी टीकामें वे लिखते हैं कि-'अथ गाथान्तर्भूतं त्रयोदशमद्वारं निरुप्यते / शानद्वारान्तोऽशानद्वारमन्तर्भूतं तच्च प्रादुष्कृतम् // इत्यादि / वे प्राचीन प्ररूपणासे अलग क्यों पडते है ? तो हमें लगता है कि इस प्ररूपणाका कोई प्राचीन आधार जरूर होना चाहिए और उसके लिए आगमस्थ दोनों गाथाओंका विवरण जाँचना जरूरी बनता है / इसके अतिरिक्त भावनगरकी प्रसारक सभाकी ओरसे वि. सं. 1991 की सालमें प्रकाशित क्षमाश्रमण कृत संग्रहणीकी अनुवादयुक्त पुस्तिकामें पीछे दिये गये यंत्र संग्रहमें 36 वा जो यंत्र दिया गया है, वहाँ ज्ञान तथा अज्ञान इस प्रकार दो द्वार बताये हैं और समुद्घातका एक ही द्वार बताया है / . इसके उपरान्त इस ग्रन्थकी प्रथमावृत्तिमें मैंने भी जल्दीमें अनुवाद पूर्ण करनेकी धूनमें तथा अपने फर्जके प्रति बेपरवाह रहनेके कारण दंडक प्रकरणके मतानुसार 24 द्वार ही बताये हैं। और अब इस समय मैंने अपनी गलती सुधार ली है / ब. सं.३४ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 266 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 11. दृष्टि, 12. दर्शन, 13. ज्ञान, 14. योग, 15. उपयोग, 16. उपपात संख्या, 17. च्यवन संख्या, 18. स्थिति आयुष्यमर्यादा, 19. पर्याप्ति, 20. किमाहार, 21. संज्ञी, 22. गति, 23. आगति, 24. वेद / इस तरह 24 द्वारकी यह संक्षिप्त संग्रहणी है / // 344-345 // विशेषार्थ-ये दोनों गाथाएँ अमुक आगमग्रन्थोंमें तथा उनके अंगभूत ग्रन्थों में प्रसंगोपात देखने मिलती हैं। हमारे यहाँ वर्तमानमें प्रारंभके पाठयक्रममें पंच प्रतिक्रमणके बाद जीवविचार, नवतत्त्व और दंडक आदि प्रकरणोंका जो अभ्यास करवाया जाता है, इनमें दंडक प्रकरणमें ये ही गाथाएँ (उद्घत् करके ) दी गयी हैं। पन्नवेणी सूत्र-टीका तथा लोकप्रकाश आदि ग्रन्थोंमें संसारी जीवोंका विस्तृत * स्वरूप 36-37 द्वारों द्वारा वर्णित किया है। जबकि जिनके नाम लेने लायक (योग्य) हैं ऐसे मूलगाथाके 24 द्वारोंका विस्तृत वर्णन प्रत्येक द्वार पर संग्रहणीके टीकाकारोंने यहाँ किया है। इसके तथा अन्य ग्रन्थोंके आधार पर प्रस्तुत द्वारोंकी जानकारी अब यहाँ दी जाती है। इसी दृश्य-अदृश्य विश्वमें सूक्ष्म या स्थूल, दृश्य या अदृश्य प्रकारके एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके अनंत जीव रहते हैं। इन्हीं जीवोंकी जीवनस्थिति और जीवन विकास कैसा होता है ! यह समझनेके लिए संलग्न अनेकानेक विषयोंका ज्ञान जरूरी होता है / इस संपूर्ण ज्ञानके अभाव के कारण हम सारी बातोंको जाननेके लिए असमर्थ है / इस लिए शास्त्रकारोंने ग्राह्य एवं जरूरी बातोंका जो संग्रह किया है, उसे यहाँ समझाया जाता है। इसमें सबसे पहले 'शरीरद्वार' समझाया जायेगा। क्योंकि यह मुख्य चीज है। विना शरीर कोई संसारी जीव हो सकता ही नहीं है। सारे विश्वमें ऐसे शरीरधारी जीव अनंत हैं। ये सभी जीव पाँच प्रकारके शरीरोंमें बँटे हुए (विभाजित) हैं। और आठ प्रकारकी ग्राह्य पुद्गल वर्गणामेंसे पाँच प्रकारकी विभिन्न वर्गणा द्वारा इन्हीं पाँचों विभिन्न शरीरोंका निर्माण होता है। 1. सरीर [शरीर] द्वार-शरीर' शब्दकी व्युत्पत्ति सोचने पर लगता है-शीर्यतेविशीर्यते तच्छशीरं / अर्थात् शीर्ण-विशीर्ण अथवा विखराव अथवा विनाशयुक्त स्वभाववाला अथवा पूरण-गलन स्वभाववाला जो होता है, उसे शरीर कहा जाता है। 571. पन्नवणा ठाणाई बहुवत्तव्वं छिई विसेसाय। [पन्नवणासूत्र गा० 4 से . ] 572. भेदास्थानानि पर्याप्तिः / / (सर्ग 3, इलो. 2 से 6] Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रथम शरीर द्वार . .267 . . यह बात भी सही है / कोई भी शरीर पुद्गल अथवा परमाणुओंके समूहसे बना है और इन्हीं पुद्गल परमाणुओंका यह स्वभाव है कि वे एक ही स्थितिमें हमेशा रहते नहीं है, इनमें आंशिक अथवा सर्वथा संयोग-वियोग अथवा पूरण-गलनादि होता ही रहता है / इसी कारणसे ही हमारे शरीरमें अच्छे-बुरेपनकी स्थितियाँ खड़ी होती है। और किसी एक समय पर इसका सर्वथा अंत भी होता है / अर्थात् धारण किये गये शरीरके परमाणुओंकी भस्म भी हो जाती है। ऐसी विनाशी और औदयिक भावसे (-कर्मोदयसे) प्राप्त होती शरीरोंकी भिन्न भिन्न स्थिति, स्वभाव तथा कर्तव्यके कारण पाँच प्रकार बताते हैं। 1. औदारिक, 2. वैक्रिय, 3. आहारक, 4. तेजस और 5. कार्मण। 1. औदारिक शरीर-'उदारैः पुद्गलैर्जातम्' अर्थात् उदार पुद्गलोंसे जो बना है, वह है औदारिक / यहाँ उदार शब्द उत्तम, स्थूल और प्रधान इन तीनोंका वाचक है। अर्थात् उत्तम पुद्गलोंका जो बना हुआ है वह / स्थूल पुद्गल स्कंधोंसे ( परमाणुओंके बाहुल्यसे) जो बना हो वह अथवा पाँचों शरीरमें जो प्रधान स्थान भुगतता है वह / धर्मसाधना तथा मोक्षकी प्राप्ति, अपने जैसे ही औदारिक शरीरकी मदद मिलती है, अतः इसे उत्तम पुद्गलोंयुक्त कहा गया है। हमारे शरीरके पुद्गल स्कंध दूसरे चार शरीरके पुद्गल स्कंधोंकी अपेक्षा बडे होनेसे 'स्थूल' कहा है। अथवा औदारिक शरीरकी अवगाहना अन्य शरीरोंकी अपेक्षासे बड़ी अर्थात् एक हजार योजनसे भी अधिक होनेके कारण भी स्थूल कहा है तथा तीर्थकर, गणधर तथा चक्रवर्ती इत्यादि इस शरीरको ही धारण करते हैं / सभी शरीरोंमें प्रधान माना जाता है इस लिए 'प्रधान' कहा है। यह शरीर चौकस प्रकारके (औदारिक वर्गणाकी जातिके) पुद्गल स्कंधोंसे रचाया जा सकता हैं। यह शरीर रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि-हड्डियाँ, मज्जा तथा वीर्य इत्यादि सात धातुओंसे बनता है। लेकिन हरेक जीवमें ये सातों धातु होनी ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है, इसमें न्यूनाधिकपन भी हो सकता है। क्योंकि इसका संबंध जीवकी विकास स्थितिके साथ है। - 573. जव कि सभी परमाणु एक समान होते है, परंतु परमाणुओंके स्कंध और स्कंधों की वर्गणाएँ तथा इनमें परमाणुओंकी जो संख्या होती है इनके कारण उसके कार्योंमें भिन्नता .सर्जाती है / Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 268 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ___ यह विभिन्न प्रकारके वर्ण-रंग, गंध, रस-स्वाद और स्पर्शयुक्त होता है, और शरीरधारी सूक्ष्म निगोदके जीवोंसे लेकर तमाम मनुष्यों तथा तिर्यचोंमें होता है, जिसे आगे बताया जायेगा। यह शरीर संपूर्ण जन्मपर्यंतका ही होता है। इस लिए बीचमें न तो इसे नया औदारिक बनाया जा सकता है और न तो पुराना समझकर छोड़ा जा सकता है। 2. वैक्रिय शरीर-वि-क्रिया। वि अर्थात् विविध / क्रिया अर्थात् क्रिया। ये विविध क्रिया जिसमें हो सकती है उसका नाम है 'वैक्रिय' / दूसरे शब्दोंमें समझें तो विविध या विशिष्ट प्रकारकी रूप-क्रिया करनेमें जो समर्थ होता है, उस शरीरको वैक्रिय कहा जाता है। इस शरीरको हम अपनी ग्रामिक भाषामें बहुरुपी अथवा जादुगरी शरीर कह सकते हैं। क्योंकि यह शरीर अमुक-चौकस प्रकारके वैक्रिय पुद्गल स्कंधोंका बन सकता है। ये वैक्रिय स्कंध इसी औदारिक जातिके स्कंधोंसे सूक्ष्म होते हैं। और इन्हीं स्कंधोंका स्वभाव पारा जैसा है। इसके कारण एक शरीरमेंसे अनेक शरीर, समान अथवा असमान असंख्य रूप तथा असंख्य रूपमेंसे एक बना सकते हैं। इसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म सूईका भाग जितना या बडेसे बड़ा हजारो भील जितना बना सकते हैं, पतलेसे मोटा या मोटेसे पतला, किसी भी अवस्थावाला, किसी भी जातिके रूपवाला बना सकते हैं, आकाशगामीमेंसे पृथ्वीगामी, पृथ्वीगामीमेंसे आकाशगामी, हलकेसे भारी या भारीसे हलका, दृश्य अदृश्य रूप बन जाता है, ऐसे यथोचित मर्यादानुसार जो-जो जातिके रूप-आकार बनाना चाहते हैं, यह सब इसी शरीरसे शक्य बनता है / इस प्रकार यह शरीर विचित्र प्रकारका अथवा अद्भुत हम मान सकते हैं। ___ वैक्रिय शरीर औदारिक शरीरमें आयी हुई सात धातुओंसे रहित होता है। उसमें वैक्रिय लब्धिसे शोभाके लिए उत्पन्न किये हुए कृत्रिम दाँत, नाखून, केशादिक हो सकते हैं। देवोंके वैक्रिय शरीरमें दाँत, नाखून, केश और अस्थि-हड्डियाँ जैसे सख्त ( कठिन ) भाग अवश्य हो सकते हैं, लेकिन वे औदारिक शरीरके दाँत, अस्थि इत्यादिकी तरह अश्लील अथवा कुरूप लगते नहीं हैं। _ यह शरीर (वैक्रिय) भवप्रत्ययिक तथा लब्धिप्रत्ययिक दो प्रकारका होता है। समग्र जन्माश्रयी देवलोकके देव और नरकगतिके नारकी जीवोंके लिए भवप्रत्ययिक वैक्रिय होता Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पांच शरीरोंके विवेचन * .269 . है। और लब्धिप्रत्ययिक-वह तपश्चर्यादिक गुणों द्वारा प्राप्त हो सकता है / यह लब्धिप्रत्ययिक शरीर गर्भज मनुष्य, तिर्यंच और कितनेक बादर पर्याप्ता वायुकायके लिए होता है। लब्धिसे उत्तर वैक्रिय करना हो तब अथवा भवप्रत्ययिक वैक्रिय शरीरको उत्तर वैक्रिय रचना हो तव वैक्रिय समुद्घात नामकी एक विशिष्ट क्रिया करनी पड़ती है। और उसके द्वारा तत्प्रायोग्य पुद्गल ग्रहण करनेके बाद ही शरीरकी रचना कर सकते हैं। 3. आहारक शरीर-यह शरीर समग्र भवपर्यत नहीं रहता है। साथ ही इस शरीरको मनुष्य जरूरत पड़ने पर बना भी सकते हैं। मनुष्यमें सभी मनुष्य नहीं, लेकिन चारित्रको लेकर चौदह पूर्वधर, मनःपर्यव आदि ज्ञानको प्राप्त करनेवाले ज्ञानी तथा यथायोग्य लब्धि-शक्ति प्राप्त करनेवाले ही ऐसा शरीर अमुक कारण उपस्थित होने पर बना सकते हैं। इतना जरूरी स्पष्टीकरण करके मूल बात पर आते हैं। चौदह पूर्व जितने विशाल ज्ञानकी प्राप्ति करनेवाले तथाविध लब्धि-शक्तिधारी, श्रुतकेवलीके नामसे प्रसिद्ध मुनिराजों इत्यादिके द्वारा जो आहीयते-गृह्यते अर्थात् ग्रहण किया जाता है अथवा केवलज्ञानीके पास जीवादिक सूक्ष्म पदार्थोंके संदेहोंका समाधान जिस शरीर द्वारा ग्रहण किया जा सकता है, उसे आहारक शरीर कहा जाता है / . इस शरीरको कौन धारण कर सकता है ? तो इसका उत्तर है कि-श्रुतकेवली (चौदह पूर्वधर) भगवंत तथा चौदह पूर्वका अवगाहन तथा तपश्चर्या आदिके द्वारा उत्पन्न आमाँषधि (आमर्ष असहिष्णुता, क्रोध अथवा कोप) आदि लब्धिवाले मुनिवर, मनःपर्यवज्ञानी तथा आहारक लब्धिवाले जंघाचरण तथा विद्याचरण आदि मुनिवरगण इस शरीरको धारण करते हैं। .. आखिर वे क्यों रचते हैं ! तो इसके विषयमें ऐसा बताया गया है कि किसी समय पर द्रव्यानुयोगादिके तात्त्विक चिंतनमें संदेह पडता हो और उसका समाधान स्वयं मिलता न हो, तथा समाधानकी आतुरता और आवश्यकता असाधारण हो, तब उस समाधानकी प्राप्तिके लिए वे इसे रचते हैं। इसके लिए उस समय सेवा-तपश्चर्या के द्वारा अपने आपको आहारक शरीरमें परिवर्तन कर सके ऐसी लब्धि-शक्ति या गुण जिस आत्मामें उत्पन्न हुए हैं, वे इसी शक्ति द्वारा इसे रच सकते हैं। अर्थात् अपने मनसे अपना वीर्य घुमा देते हैं। जल्दीसे आहारक शरीर रच सके ऐसे जगतमें वर्तित पुद्गल स्कंधोंको (समुद्घात नामक आहारक एक विशिष्ट क्रियासे ) ग्रहण करके, अपने एक हाथकी बंद मुट्ठी प्रमाण छोटा-सा शरीर बना लेते हैं / फिर अपने आत्मबलसे वे Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 270 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . इस नूतन शरीरको पास (नजदीक, समीप) ही विचरण करते केवली तीर्थंकर या केवली भगवंतके पास पहुंचाते हैं। केवली तो अपने केवलज्ञानके बलसे आये हुए उस शरीरको देखते हैं और आहारक शरीरी मुनिके संदेहका समाधान केवली भगवंत बराबर करते हैं। यह समाधान हो जानेके बाद शरीर वापस चला जाता है। तथा ग्रहण किए गये आहारक शरीर प्रायोग्य पुद्गल परमाणुओंका विसर्जन कर देते हैं / जिस प्रकार किसी समाधानके लिए शरीर ग्रहण करते हैं उसी प्रकार जिनेश्वरदेवकी समवसरणकी ऋद्धि देखनेके लिए अथवा कोई जीवदया आदिके महान् लाभके लिए मी यह शरीर रचते हैं / इसी शरीरसे अंतर्मुहूर्तमें ही सर्व कार्य निपटाना ( समेट लेना ) पड़ता है। यह शरीर अनुत्तर विमानके देवोंके महान् शरीरसे भी अधिक मनोहर तेजस्वी, स्फटिक रत्नके समान अति निर्मल और स्वच्छ होता है / इस आहारक शरीरकी लन्धि एक जीवको अपने संसारकाल दरमियान भिन्न भिन्न भवकी अपेक्षासे अधिकमें अधिक चार बार प्राप्त होती है / यहाँ एक बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि उत्तर वैक्रिय शरीर, गुणप्रत्ययिक वैक्रिय शरीर तथा आहारक शरीर रचना हो तब शरीर द्वारा (वैक्रिय तथा आहारक) समुद्घात नामकी आत्माकी एक विशिष्ट क्रिया होती है। इसी क्रियाके द्वारा ही वे उसी विभिन्न शरीरके वर्गणायोग्य पुद्गलोंका अपने आत्मप्रदेशों द्वारा अवगाहित क्षेत्रमेंसे ग्रहण करता है तथा उससे ही इन्हीं विभिन्न उत्तर शरीरोंकी रचना कर सकते हैं / एक ही व्यक्ति चाहे कितने ही शरीरोंकी रचना क्यों न करें, लेकिन मूल शरीरमें आये हुए आत्मप्रदेशोंका उत्तरशरीरके आत्मप्रदेशोंके साथका सम्बन्ध जंजीरकी समान अटूट रहता है। 4. तैजस शरीर-जगतमें तैजस जातिके उप्ण पुद्गल स्कंध रहा है। इसी जातिके पुद्गल स्कंधोंसे जो शरीर बनता है उसे तैजस शरीर कहा जाता है। यह शरीर बहुत ही सूक्ष्म शरीर है / जिस प्रकार ऊपरि तीनों शरीरोंमें इन्द्रियाँ होती है, उस प्रकार इस शरीरमें इन्द्रियाँ होती नहीं है। इसका सामान्य आकार भले ही हो, लेकिन अमुक जातिका विशिष्ट आकार जो मिलता है ऐसा भी नहीं है / यह शरीर अति अविकसित ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म (निगोद) जीवसे लेकर अतिविकसित हर किसी संसारी जीवमें रहा है। यह हमारी सामान्य छानस्थिक दृष्टिसे अगोचर है / (प्रायः) यह शरीर अन्य शरीर (औदारिक, वैक्रिय) के साथ ही रहता है / यह शरीर अनादिकालसे लेकर मोक्ष जानेके अतिम Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पांच शरीरोंके विवेचन * समय तक अविरहरूप आत्माके साथ हरेक जीवमें एकरूप होकर रहता है। अपने अपने शरीरसे व्याप्त होकर वह रह सकता है / इतना ही नहीं, यह शरीर जीवके साथ साथ जन्मजन्मान्तर रहता भी है। अगर यह न होता तो जनमके साथ ही जीव जो आहार ग्रहण करता है, उसका पाचन नहीं होता और शरीरका गठन भी नहीं होता। इस शरीरके कार्य कौन-कौनसे हैं ? उन्हें देखिये - इस शरीरके कारण ही हमारे शरीरमें उष्णता (गरमी, ऊष्मा) रहती है। दूसरे शब्दोंमें देखें तो हमारे शरीरमें जो गरमी होती है वह मुख्यतः इसके प्रभावसे ही होती है। आयुर्वेदमें 'जठराग्नि' के रूपमें जो पहचाना जाता है, वह इसी शरीरका ही अग्नि है। शरीरमें आहारादिकको पचानेके लिए यह गरमी ही शरीरको मदद करती है। यह शरीर निग्रह तथा अनुग्रह भी करता है। अर्थात् तपश्चर्या आदि शुभ प्रवृत्तियोंके द्वारा तैजस लब्धि या शीत लब्धिकी प्राप्ति हुई हो तो जीव तैजस लब्धिके प्रभावसे अपने शरीरके बाहर तैजसगरमी निकाल सकता है अथवा जो बुखार आता है। वह तैनस शरीर जठरके स्थानमें अधिक मात्रामें रहता है, जिसकी गरमी समग्र शरीरमें फैल जानेसे शरीर गरम गरम हो जाता है, इसे हम बुखार कहते हैं / वे तेजोलेश्या द्वारा सर्वत्र गरमी फैलाकर अनुग्रह बुद्धिपूर्वक हिमसे होनेवाले भयंकर नुकसानको रोक सकते हैं अथवा विद्वेष बुद्धि जागने पर (तैजस समुद्घातसे) शरीर बाहर निकाले गये तैजस ( अति उष्ण ) पुद्गल स्कंधोंसे सामनेवालेको भस्म कर डालते हैं। यह तैजस शरीर किसी भी चीजको भस्मीभूत करनेके लिए समर्थ होता है। . इतना ही नहीं, यह लब्धि जिसमें होती है, उसमें इससे विपरीत शीत लब्धि भी साथ साथ ही होती है। अतः अनुग्रह या उपकारक बुद्धिसे प्रज्वलित किसी चीजको बुझाते हैं अथवा जलनेवालोंको शांत करनेके लिए शीत परमाणुओंके किरणोंको छोड़कर सामनेवालोंको शांत करते हैं। अगर अपना शरीर जला हुआ बताना चाहते हैं अथवा तेजोमय बताना चाहते हैं, तब वैसा उपयोग भी कर सकते है, तथा बर्फसे भी अधिक शीत बनाना हों तब वैसा भी कर सकते हैं। 574. इसी तैजस लब्धिके प्रभावसे ही ऋषिगण शाप देकर भस्मीभूत करते हैं / इस प्रकार शाप तथा अनुग्रह (कृपा ) और उष्ण तथा शीतलेश्या में तेजस शरीर कारणभूत है / इस लिए ही तत्त्वार्थराजवार्तिकमें तैजस शरीरके निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक ऐसे दो भेद बताये हैं। एक भीतर रहकर तथा दूसरा बाहर नीकलकर कार्य करता है / Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 272 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * इस प्रकार जलाने तथा बुझानेको दोनों प्रक्रियाएँ करनेकी विशिष्ट लब्धिशक्ति यह शरीर धारण कर सकता है। 5. कार्मण शरीर- संसारमें आत्मा और कर्म ये दोनों चीजे मुख्यं है / जिसे पुरुष तथा प्रकृति भी कहा जाता है। आत्मा यह एक स्वतंत्र द्रव्य है / उसका अपना मूल स्वभाव अनंत ज्ञानमय-दर्शनमय एवं चारित्रमय है। वह अरोगी, अकषायी, अनामी तथा अविनाशी इत्यादि है। लेकिन 'कर्म' नामक द्रव्य अनादिसे साथ होनेके कारण उसका अपना मूल स्वभाव या स्वरूप दब गया है। कर्म क्या है ? इसका प्रत्युत्तर है कि वह एक प्रकारके विश्व व्यापी कर्मयोग्य पुद्गलस्कंध ही है। ये पुद्गलस्कंध अपने आप दूसरोंको निग्रह या अनुग्रह, सुख. या .. दुःखके करण बनते नहीं है, लेकिन आत्मा जब शुभ या अशुभ, अच्छी या बुरी, विचार-वाणी या वर्तन द्वारा प्रवृत्ति करती है तब उस शरीरधारी आत्माकी अवगाहनामें आये हुए कर्मके स्कंध स्वयं खींचकर जीवके आत्मप्रदेशोंके साथ जुड़ जाते हैं / और जुडानेके साथ ही उन पुद्गल स्कंध?में सुख-दुःख आदि देनेकी एक ही शक्ति-स्वभाव आविर्भाव पाता है। उसी शक्तिके आविर्भावके साथ साथ ही उस शक्तिका प्रकार, उसकी कालमर्यादा, उसका प्रभाव तथा प्रमाण भी तय (मुकरर) होता है। अब आत्माकी साथ क्षीरनीरके (दूध-पानीके) समान एकरूप बने हुए कर्म यथायोग्य समय पर परिपाक (पूर्ण विकसित) होते ही उन कर्मोकी सुख-दुःख देनेकी शक्तियाँ खुली हो जाती है। और जीवको इसका यथायोग्य अनुभव करना पड़ता है। जहाँ तक संसारमें परिभ्रमण रहता है वहाँ तक उसका अस्तित्व भी रहता ही है। जीवोंके विचार, वचन तथा वर्तन अनंत प्रकारके होनेसे कर्म भी अनंत प्रकारके हैं, लेकिन इन्हीं अनंत प्रकारोंको व्यक्त करना, सुनना या समझना असंभवित होनेसे सर्वज्ञ भगवंतोंने इसका वर्गीकरण दिया है। इस प्रकार उनको 158 प्रकारोंमें समाविष्ट किया है। बादमें 158 का फिरसे वर्गीकरण करके उसे आठ प्रकारोंमें संक्षिप्त किया है। इस प्रकार सामान्य रूपसे मुख्य कर्म आठ है, लेकिन उनकी उत्तर प्रकृतियाँ ( प्रकार ) 158 होती है। इन्हीं 158 प्रकारके कर्म-प्रदेशों या परमाणुओंका जो समूह पिंड है उसे ही 'शरीर' शब्द लगाकर 'कार्मण शरीर' इस नामसे शास्त्रकारोंने 575. जिस प्रकार शीतल ऐसे समुद्रमें से ( वडवानल नामक ) अग्निका तथा जलसभर बादलमेंसे बिजलीका उद्भव होता है। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पाँच शरीगेके विवेचन * * 273 . पहचान करवायी हैं। इसका मतलब यह कि यह शरीर कर्मका समूहरूप है। यह शरीर प्रत्येक जीवात्माओंके असंख्य आत्मप्रदेशोंके साथ तैजस शरीरकी तरह अनादिकालसे जुड़ा हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं, लेकिन मोक्षप्राप्तिके अन्तिम समय तक अविरहरूप रहता भी है। लेकिन इतना विशेष समझें कि कर्मकी 158 की संख्या अंत तक रहती ही है ऐसा नहीं होता, इसमें परिवर्तन हो सकता है / नामकर्म के अंदरकी कार्मणशरीर नामकर्मकी प्रकृतिके द्वारा कार्मणवर्गणाओंका ग्रहण-विसर्जन होता रहता है / यह कर्मशरीर अथवा कार्मणशरीर दूसरे सभी शरीरोंकी और खुद अपनी मी उत्पत्तिमें मूल कारणभूत है। अरे ! सारे संसारको खड़ा करनेवाला यह कार्मणशरीर ही है। यह शरीर स्वयं किसी सुख या दुःखकी अनुभूति नहीं कर सकता है। अथवा कर्म का बंध या निर्जरा इसे होती नहीं है। वह स्वयं कर्म रूप जरूर है, फिर भी उसे कर्मबंध लगता नहीं है, इस लिए उससे कर्मका उपभोग भी नहीं हो सकता है तथा क्षय भी नहीं हो सकता है। इस प्रकार सुख हो या दुःख इसका भोग ( उपभोग ) शेष चार शरीरोंसे ही होता है। तेजस कार्मण बावतमें कुछ-एक बातका यहाँ पर खास ध्यान रखना है कि प्रत्येक आत्मा जब एक गतिमेंसे दूसरी गतिमें जाती है तब अर्थात् वर्तमान दृश्य शरीर अवसान पानेके बाद जब नया शरीर धारण करता है, तब इसी बीचके अति सूक्ष्मकाल दरमियान आत्माकी साथ और दो शरीर अर्थात् तैजस और कार्मण भी जुड़े हुए होते ही है। और बादमें इन्हीं दोनों शरीरोंका अस्तित्व समग्र विवक्षित जन्म दरमियान ही नहीं लेकिन समग्र संसार पर्यन्त रहता है। लेकिन जीवको जन्म जन्मान्तरके लिए भटकानेवाला शरीर तो एक मात्र कार्मण ही है, तैजस नहीं। लेकिन बिना तैजस कार्मण अकेला कभी भी होता ही नहीं है यह बात भी उतनी ही निश्चित है। - अब कार्मणके साथ उष्णतामानयुक्त तैजस शरीर होनेसे इलेक्टीकसीटी (विजली) के समान आत्माको गति सहायक बन सकता है / : अगर किसीको यह शंका हो कि जीव, मृत्युके समय दोनों शरीरोंके साथ ही दृश्य शरीरमेंसे बाहर नीकलता है तथा जन्मके समय दोनों शरीरोंके साथ ही उत्पत्ति स्थानमें प्रवेश करता है तो फिर वे दोनों शरीर हमें क्यों नहीं दिखायी पडते हैं ! 576. कुछ आचार्य सिर्फ एक कर्मिणको ही अनादिवालसे जीवके साथ जुड़ा हुआ मानते है और तेजस तो लन्धिसे प्राप्त होता है ऐसा कहते हैं। '; बृ. सं. 35 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 274. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * तो इसका समाधान इस प्रकार है कि-शरीर वे पौद्गलिक द्रव्य हैं। इन्हें आकारादि होता है, फिर भी ये शरीर इतने तो अति सूक्ष्म होते हैं कि हमारे चर्मचक्षुसे वे नहीं दिखायी देते हैं। और साथ-साथ आत्मा भी हमें नहीं दिखायी पड़ती है। लेकिन इससे वस्तुका अस्तित्व ही नहीं है ऐसा कभी भी समझना नहीं चाहिए / ____प्रारंभके तीनों शरीरोंकी गमनागमनकी मर्यादा अंकुशित है। जब कि अंतिम दो शरीर समग्र लोकमें हर जगह आ-जा सकते हैं। तैजस-कार्मण शरीर तथा आत्मा इतने तो सूक्ष्ममानवाले होते हैं कि दीवारों, घरों, पर्वतों तथा पृथ्वी आदि किसीसे भी पराभव या प्रतिघात पाते नहीं है। ये वायुकी तरह हर किसी जगहसे पसार हो सके ऐसे अति सूक्ष्मातिसूक्ष्म नतीजा होते हैं। साथ ही परभवमें जाकर जो तुरंत ही आहार ग्रहण करते हैं यह इसी शरीरके कारण ही हो सकता है। औदारिक शरीरसे उत्तरोत्तरके शरीर क्रमानुसार सूक्ष्म-सूक्ष्मतर होते जाते हैं / इस शरीरयोग्य पुद्गलस्कंधोंमें उत्तरोत्तर परमाणुओंका बाहुल्य अधिक होता है, जिसके कारण उसका स्वरूप भी उत्तरोत्तर सूक्ष्म बनता जाता है। ये पाँचों शरीर भिन्न-भिन्न वर्गणासे बने होनेसे हरेक शरीर अलग-अलग विशेषताओंको धारण करते हैं। ये हरेक स्वतंत्र हैं। इनमें प्रारंभके तीनों शरीरोंको इन्द्रियादि अंगोपांग होते हैं, जब कि शेष दो शरीरोंमें इसका अभाव होता है। वे पाँचों शरीरोंका वर्णन करनेके बाद अब इन्हीं शरीरोंसे संबंधित अन्य दस बावतोंका स्वरूप कहा जाता है। 1. कारण भेद-अगर किसीको यह शंका हो कि पाँचों शरीरोंकी रचना तथा कार्यमें भिन्नता क्यों होती है ? वे सभी एक ही प्रकारके एक समान कार्य क्यों नहीं करते हैं ! तो ऐसी शंकाके समाधानके लिए 'कारण' प्रस्तुत करना चाहिए। इस लिए यहाँ प्रथम कारणकृत भेद दर्शाया है। ____ जब कि पांचों शरीर पुद्गल परमाणुओंके ही बने हुए हैं। लेकिन परमाणुओंके स्कंध द्वारा तैयार होती वर्गणा तथा परमाणुओंका संख्याप्रमाण ये दोनों कारणोंसे परमाणुओंके स्कंधोंके कार्यमें भिन्नता आती है। परमाणुओंके जातिभेदसे ही कार्यभेद जनमता है। विश्वमें प्रवर्तित औदारिकादि आठ प्रकारकी प्राय वर्गणामेंसे ( अमुक-अमुक प्रकारके पुद्गल) पांच शरीरोंके लिए उपयोगी, विभिन्न पाँच वर्गणाओंमेंसे पांच शरीर बनते हैं। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पाँच शरीरोंके विवेचन * .275 . - ये पाँच शरीर क्रमशः सूक्ष्म-सूक्ष्मपरिणामी आदि पुद्गलोंसे बने हैं। अतः औदारिक शरीर अन्य चारों शरीरोंसे स्थूल पुद्गलोंका बना हुआ है। उसीसे वैक्रिय शरीरके पुद्गल अधिक सूक्ष्म, यों उत्तरोत्तर शरीर क्रमशः अधिकाधिक सूक्ष्मतर सूक्ष्मतम पुद्गलके बने होते हैं। इसके अतिरिक्त ये आठों वर्गणाएं, जिन पर समस्त जगत का आधार है, इन्हीं आठों वर्गणाओंमें पहली वर्गणा भी औदारिक ही है। इससे भी यह कल्पना हो सकती है कि वह स्थूल पुद्गलोंका ही होगा तथा आठवीं अंतिम वर्गणा कार्मण नामकी है, जिसमेंसे कार्मण शरीर बनता हैं। वह सबसे सूक्ष्म वर्गणा है / पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा सूक्ष्म जंतु, पशु-पक्षीगण, मनुष्यों इत्यादिके शरीर औदारिक अर्थात् (प्रायः) स्थूल होते हैं। इसका मतलब यह कि इन्हें हम ( स्कंध बने तब) अपने चर्मचक्षसे देख सकते हैं। शेष समी सूक्ष्म-सूक्ष्मतर होनेसे हम उन्हें देख सकते नहीं हैं। ___ यहाँ स्थूल तथा सूक्ष्म शब्द पारिभाषिक रूपमें समझना चाहिए। वर्गणाओंमें परमाणुओंका बाहुल्य ( ढेर ) ज्यों ज्यों बढ़ता जाता है त्यों त्यों नतीजा ( स्वरूप) सूक्ष्मातिसूक्ष्म होता जाता है। इसी स्थूल तथा सूक्ष्म नतीजोंको समझनेके लिए दोनोंकी मिसाल देखनी चाहिए। . एक बेंत लम्बी-चौड़ी सोनेकी एक संदूकची है और इससे दोगुने नापकी रूईके चिथडोंमेंसे बनायी हुई दूसरी संदूकची मी है। फिर भी वजनमें (तौलमें) अधिक सोनेकी ही होगी और दूसरी तो एकदम हलकी होती है। एकमें क्षेत्रप्रमाण कम, परंतु प्रदेशपरमाणुओंका. गुच्छा अधिक ज्यादा और इससे सघनता अधिक होती है। जब कि रूईकी संदूकचीका क्षेत्रप्रमाण अधिक सही, लेकिन प्रदेश कम होता है। सुवर्णके पुद्गलोंमें सूक्ष्मता अधिक है। इसलिए थोड़ी सी जगहमें अधिक समा जाते हैं और वह वजनदार बनता है, अर्थात् चीज ( सुवर्ण) कम फिर भी वजन अधिक / जब कि रूईमें सूक्ष्मता कम है। इसलिए चीज (रूई ) अधिक होने पर भी वजन कम-हलका लगता है। अब यहाँ आप औदारिक शरीर रूईके स्थान पर और कार्मण सुवर्णके स्थान पर घटा सकते हैं। इस प्रकार पाँचों शरीरोंके बीच भी परस्पर ऐसी स्थूलता सूक्ष्मता होती है। इन्हें स्वयं सोच लें। 2. प्रदेशसंख्याकृत भेद-इन्हीं पाँचोंमेंसे सबसे कम प्रदेश औदारिकके है। तथा उसके बादके शरीरोंमें संख्याकी दृष्टिसे क्रमशः वृद्धि होती जाती है। पहला औदारिक शरीर अल्प परमाणुवाले पुद्गल स्कंधोंका ( अनंत होने पर भी अन्य चारकी अपेक्षा), Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 276 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * उसके प्रदेशोंसे असंख्यगुने प्रदेश वैक्रिय शरीरमें, उससे असंख्यगुने प्रदेश आहारक शरीरके पुद्गल स्कंधोंमें, आहारककी संख्यासे अनंतगुने प्रदेश तैजसमें और तैजससे अनंतेगुने प्रदेश कार्मण शरीरमें होते हैं। ___ यहाँ एक बात अचरजभरी यह है कि उत्तरोत्तर शरीरका आरंभक द्रव्य परिमाण पूर्व पूर्व शरीरोंसे अधिक है, फिर भी शरीरकी सूक्ष्मता उत्तरोत्तर बढती जाती है, इसका कारण परमाणुओंके नतीजेकी विचित्रता ही है। . दूसरी बात यह भी समझना जरूरी है कि एक परमाणु वह स्कंध (द्रव्य ) नहीं है, लेकिन दो परमाणु इकट्ठे होनेके बाद ही उन दोनोंको 'स्कंध से पहचाना जाता है। इस प्रकार दो से लेकर अंतिम असंख्य तथा अनंत परमाणुओंके अनंतानंत स्कंध विश्वमें होते हैं / उन हरेक शरीरके योग्य अनंत वर्गणाएँ मी है तो कोई भी एक वर्गणामें अनंत स्कंध भी हो सकते हैं। तथा एक-एक स्कंधमें अनंत परमाणु भी होते हैं / / - 3. स्वामिकृत भेद-पहला औदारिक शरार संमूच्छिम, गर्भज ऐसे सभी तिर्यच और सभी मनुष्योंमें होता है। दूसरा वैक्रिय देवों तथा नारकके जीवोंमें तथा कुछ-कुछ लब्धि प्राप्त वायुकायके (बादर पर्याप्ता) जीव तथा संज्ञि पंचेन्द्रिय-तिर्यच-मनुष्योंमें भी होता है / आहारकशरीर वह तो कोई विशिष्ट लब्धिवंत आहारक लब्धिधारी चौदहपूर्वधरोंको ही प्राप्त होता है। तैजस और कार्मण शरीरको सभी संसारी जीव धारण करते हैं। अतः यह शरीर चारों गति के समी जीवोंको होते ही हैं। ये दोनों शरीर अनादिकालसे जीवके साथ ही है। और जीव जिस-जिस गतिमें जाता है वहाँ ये साथ-साथ ही होते हैं / अर्थात् जब तक जीवका मोक्ष नहीं होता है, तब तक एक पलके लिए भी इन्हीं शरीरोंका विरह सहना पड़ता नहीं है। ये सभी आत्मप्रदेश और कार्मणशरीरके सभी प्रदेश क्षीरनीरकी तरह परस्पर मिलजुलकर एक रहते हैं। इसी कारणसे कोई भी जीव (शरीर पर्याप्तिके बाद) तीन शरीरोंसे कम शरीरवाला नहीं माना जाता है। औदारिक शरीरी जीव कौन कौनसे हैं ? ऐसा तर्क मनमें उठता है तब हमारी स्थूल दृष्टि सजीव मनुष्य-पशु-पक्षीगण तक जाकर ही रूक जायेगी। लेकिन दृष्टिको विशाल बनाइए और सोचिए तो तुरंत समझमें आयेगा कि पाताल, पृथ्वी तथा स्वर्गआकाशमें चलते-फिरते-उड़ते करोड़ों प्रकारके जंतु, पृथ्वी, जल, अमि, वायु, वनस्पति ये समी जीव औदारिक शरीरी है / मानव जातिके उपयोगमें आती समी भोगोपभोगकी 577. इस अनंत संख्या भी अनंत प्रकार बनते हैं। पूर्वसे परका अनन्त अनन्तगुण समझना / Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चौबीश बारोंके विस्तृत वर्णन * 277. चीजें औदारिक जीवोंके सप्राण-निष्प्राण कलेवरों (शरीरों) से ही बनी हुई है। ये समी चीजें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पतिसे ही होती है। कुछ द्रव्य सजीव होते हैं और उपयोगी बनते हैं तो कुछ जीव निर्जीव होनेके बाद उपयोगमें लिए जाते हैं। जैसे कि रहनेके मुकाम, खाने-पीने-पहनने-ओढ़नेकी चीजें, तमाम प्रकारके वाहन, शस्त्र, धातु, रत्न या पत्थर, लक्कड ये सभी औदारिक हैं / एक प्रकारसे देखा जाये तो सारा विश्व जंतुमय है। और ‘जीवो जीवस्य जीवनम् ' (अथवा 'भक्षणम्') जीवका, जीवन जीव ही है, इसी न्यायसे सब चल रहा है। यहाँ पर साथ-ही साथ यह बताना जरूरी है कि एक जीवमें एक साथ कितने शरीर हो सकते हैं ? . जीव ( मृत्यु पाकर) एक भवके शरीरका त्याग करके दूसरे भवका शरीर धारण करने जाता है तव, प्रयाण और प्राप्तिके बीच अत्यल्प (बहुत ही कम) समयमें सिर्फ (बिना इन्द्रियादि अंगोपांग) तैजस, कार्मण ये दोनों शरीर होते हैं। इसी शरीरके साथ ही जीवका जन्म-मरण होता है। इसलिए उत्पन्न होनेके बाद तथा शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद स्वभव प्रायोग्य (औदारिक या वैक्रिय) शरीर रचना जब हो गयी हो तव मरण पर्यन्त तीन शरीरवाला अवश्य होता है। मनुष्यों और तियेचोंमें अविच्छिन्नरूप औदारिक, तैजस, कार्मण तथा देव नारकोमें भी तीन शरीर होते हैं। सिर्फ वहाँ औदारिककी जगह पर वैक्रिय समझ लेना। सामान्य रीतसे ऊर्ध्व और अधो ये दोनों स्थान ऐसे हैं कि जहाँ वैक्रिय शरीर प्राप्त हो सकता है। जन्मान्तरके कर्मसे ऐसे शरीर पानेके अधिकारी जीव ही वहाँ उत्पन्न होते हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट समझ लें कि कोई मुनिराज, तपश्चर्यादि द्वारा प्राप्त लब्धिसे 'आहारक. शरीर जब बनाते हैं तब औदारिक शरीरी मुनिके चार शरीरवाले समझना चाहिए। वैक्रिय तथा आहारक इन दोनों शरीरोंको समकालमें कभी भी रच सकते नहीं है। इस लिये कमसे कम दो (मतांतरसे सिर्फ एक ही) और अधिकसे अधिक जीव चार शरीरधारी हो सकते हैं। तैजस, कार्मण ये दोनों शरीर भव्य जीवों (जो मोक्षमें जानेवाले होते हैं वे ) के लिए अनादिसांत होते हैं। जहाँ तक शरीर है वहाँ तक संसार है। इन शरीरोंका 578. आहारक शरीरी मुनिमें वैक्रिय शरीर रचनेकी शक्ति होती है, लेकिन एक साथ दो दो लन्धिका उपभोग हो सकता नहीं है। इसलिए चार शरीर कहे हैं। लेकिन सत्तोकी अपेक्षासे पाँचों शरीर बनानेकी शक्ति उनमें होती हैं। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .278. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * संग जब छूट जाता है तब ही जीवका मोक्ष होता है। क्योंकि मोक्षमें कोई भी शरीर साथ साथ नहीं होता / कर्म है वहाँ शरीर है / कर्मका संपूर्ण नाश होनेके बाद कारण जानेसे कार्य भी नष्ट हो जाता है / अभव्य जीव किसी भी काल पर मोक्षमें जाते ही नहीं है। इस लिए उन जीवों के लिए दोनों शरीर अनादि अनंतकालके और भव्य जीवों (जो मोक्षमें जानेवाले होनेसे) के लिए अनादि सांत होते हैं। गर्भज जीव सर्व प्रथम गर्भमें आता है और उसके बाद ही जन्म धारण करता है। जब कि संमूच्छिम जीवोंमें गर्भ धारण करना न होनेसे पृथ्वी, वायु, जलादिके योगोंसे उनका प्रारंभसे ही एकाएक जन्म हो जाता है। ___4. विषयकृत भेद- यहाँ विषय शब्दका अर्थ 'क्षेत्र' समझना है। इसलिए उसी हरेक शरीरकी हरेक क्षेत्राशयी गति कहते हुए यह समझना है कि औदारिक शरीरकी उत्कृष्ट गति लाखों योजन दूर आये हुए तेरहवें रुचक द्वीपके रुचक पर्वत तक होती है। कोई कोई औदारिक शरीरी मुनिगण - जिन्होंने तपश्चर्यादि द्वारा जंघाचरण जैसी विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त की है उनका शरण लेकर 'इस' गतिको समझें और विद्याचारण मुनिगण - विद्याधरोंकी गति आठवें नंदीश्वर द्वीप तक तथा ऊर्ध्वगति मेरुके पांडुकवन तक ही समझें / वैक्रिय शरीरी जीवोंका गमनागमन तिर्यक् असंख्य द्वीप-समुद्र तक और ऊर्ध्वाधोगमन देव आश्रयी (देवाश्रित) चौथी नरकपृथ्वीसे लेकर अच्युत देवलोक तक होता है। आहारक शरीरी महाविदेह क्षेत्र तक और कार्मणका गति विषय समग्र चौदह राजलोकमें होता है। क्योंकि जीवका उत्पत्तिस्थान सर्वत्र होता है / इतना ही नहीं, ये दोनों शरीर संसारी जीवोंके साथ संसार हो तब तक अविनाभावीपन होते हैं। इसके सिवा समुद्घातकी अपेक्षासे भी व्याप्ति ले सकते हैं। 5. प्रयोजनकृत भेद- 1. औदारिक शरीरका प्रयोजन धर्म अधर्मका उपार्जन, सुख-दुःखका अनुभव तथा केवलज्ञान अथवा मोक्षादिककी प्राप्ति है। इस शरीरके ये सब कार्य-लाभ हैं। और अगर यह लाभ प्राप्त होता है तो सिर्फ इसी शरीरवालोंको ही होता है। 2. एकसे अनेक और अनेकसे एक, सूक्ष्मसे स्थूल और स्थूलसे सूक्ष्म, अवकाश-- मार्गसे स्वशरीर द्वारा गमनागमन तथा श्रीसंघके अथवा अन्य किसीके भी कार्यमें मदद करना आदि वैक्रिय शरीरके प्रयोजन हैं। Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चौबीश द्वारोंके विस्तृत वर्णन . .279 . .3. शास्त्रके सूक्ष्म अर्थका बोध पानेके लिए अथवा उसके संशयके समाधानके लिए अथवा जिनेश्वरदेवकी समवसरणादिककी ऋद्धि आदि देखनेके कार्यमें आहारक शरीर उपयोगी बनता है। ___4. भोजनको पचानेका, तेजो और शीत लेश्याको छोडनेका तथा जरूरत पड़ने पर किसीको शाप अथवा अनुग्रह वरदान देनेका कार्य तैजस शरीरके प्रभावसे ही शक्य बनता है। 5. खास तौर पर अन्यान्य भवमें गमन करनेका कार्य कार्मण शरीरका नतीजा है। संक्षिप्तमें कहे तो पाँचों शरीरका मुख्य प्रयोजन उपभोग है। 6. प्रमाणकृत भेद-मनुष्य, पशु, पक्षी, दोइन्द्रिय आदि क्षुद्र जंतु तथा वनस्पति इत्यादिका शरीर औदारिक होता है। यह शरीर अधिकसे अधिक कितना विराट (बड़ा) हो सकता है ! तो इसके प्रत्युत्तरमें शास्त्रोमें बताया है कि कुछ अधिक ऐसे एक हजार योजन / यह मान प्रत्येक वनस्पतिआश्रयी कहता है। प्रमाणांगुलसे एक हजार योजन गहरे समुद्रादि जलाशयोंमें, जिस भागमें उत्सेधांगुलसे एक हजार योजनकी गहराई हो वहाँ खीलते कमल आदि वनस्पतिका है। यहाँ पर अधिकता जो बतायी है उसे सिर्फ जलकी सपाटीसे जितना ऊपर रहता है उतनी ही समझें और स्वयंभूरमणके मत्स्योंका शरीर भी हजार योजन होता है। - - वैक्रिय शरीरकी ऊँचाई एक लाख योजनसे कुछ अधिक होती है। यह मान देवोंके उत्तर वैक्रिय तथा मनुष्यके लब्धिप्रत्ययिक वैक्रिय शरीराश्रयी समझें / यह वैक्रिय शरीर देव तथा मनुष्य दोनों कर सकते हैं। उस समय सिर्फ देव ही चार अंगुल जमीनसे ऊपर और मनुष्य जमीनस्पर्शी रहते हैं। जिसे 'कुछ अधिक' की सफलता मनुष्याश्रयी समझें - तैयार बने हुए आहारक शरीरकी ऊँचाई एक हाथकी ही होती है। तैजस और कार्मणका मान चौदहराजलोक प्रमाण होता है और लोककी चारों ओर व्याप्त होकर रहता है। यह प्रमाण कोई जीव केवली समुद्घात करता है और अपने आत्मप्रदेशोंको समग्र लोकव्यापी बनाता है तब ये आत्मप्रदेश तैजस कार्मणसे संनद्ध होता है / इसी कारणसे उक्त मान घटमान बनता है। 579. तत्त्वार्यसूत्रमें 'निरुपभोगमन्यत्' सूत्र द्वारा अमुक अपेक्षासे कार्मणको निरूपभोगी कहा है। 580. एक हाथकी अपेक्षासे एक हजार योजनका क्षेत्र 32 कोटिगुना होता है इसलिए संख्यातगुना क्षेत्र माना जाता है। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . 7. अवगाहनाकृत भेद- अवगाहनाका अर्थ होता है किसी भी चीजको लेकर नापनेकी बाबत अथवा दूसरे शब्दोंमें देखें तो किसी भी वस्तुको लेकर नापनेकी प्रक्रियाको अवगाहना कहते हैं। यहाँ तो सिर्फ पाँच शरीर अपने लिए कितना अवकाशक्षेत्र रोकता है, इतना ही काफी (पर्याप्त) समझना है। व्याख्या एवं परिभाषाकी सरलताके लिए आहारक शरीरसे ही शुरु करते हैं। आहारक शरीर सब (पांचों शरीरकी अपेक्षा) से अल्प अवकाश प्रदेशोंको अवगाहता ( रोकता ) है / क्योंकि उसका मान एक ही: हाथका होता है, क्योंकि उसका यह निश्चितमान हैं। इसी कारणसे संख्यातगुण अवकाश प्रदेशमें औदारिक शरीर अवगाह कर रहता है। क्योंकि औदारिक शरीर छेवटपर एक हजार योजन प्रमाणयुक्त है। इससे भी संख्यातगुना क्षेत्रावगाह वैक्रिय शरीरका होता है, जो एक लाख योजन तक फैल सकता है / इस वैक्रियावगाहसे भी असंख्यगुने अवकाश. प्रदेशावगाही तेजस कार्मण ये दोनों शरीर हैं। केवली-समुद्घातके समय उतना अवकाशक्षेत्र, परिबद्ध (संलग्न, घेरा हुआ) होनेसे तैजस कार्मणकी अवगाहना मरण समुद्घातादिके प्रसंग पर गति-आगतिके नियमानुसार विभिन्न मानकी भी हो सकती है। इसे ग्रन्थान्तरसे भी जान सकते हैं। 8. स्थितिकृत भेद-औदारिक शरीरका स्थिति ( टिकाव ) काल जघन्यसे लेकर अंतर्मुहुर्त तक और उत्कृष्टसे लेकर तीन पत्योपम ( युगलिक मनुष्य-तिर्यचोंकी अपेक्षासे), देवों तथा नारकोंको लेकर जन्मसिद्ध भवप्रत्ययिक वैक्रियका काल 33 सागरोपम है / उत्तर वैक्रिय अथवा कृत्रिम वैक्रियका स्थितिकाल लगभग कह चुके हैं फिर भी पुनः याद करें तो देवोंके उत्तर वैक्रियके पंद्रह दिन, नारकोंका अंतर्मुहूर्त, मनुष्य तिर्यच तथा लब्धि प्रत्ययिक वैक्रियका अंतर्मुहूर्त होता हैं। आहारकका (उ.) स्थितिकाल अंतर्मुहूर्त तथा तैजस कार्मणका जघन्योत्कृष्ट स्थितिकाल भव्याश्रयी अनादिसांत और अभव्याश्रयी अनादिअनंत है। अंतिम दो के सिवा शेष तीनों शरीरोंका जघन्य स्थितिकाल अंतमुहूर्त होता है / ... 9. अल्पबहुत्वकृत भेद- इन्हीं पाँचोंमें आहारक शरीर सबसे अल्प संख्यामें है। क्योंकि उसका सृजन कभी - कमी ही होता है / जघन्यसे तो वह एक या दो होते हैं और उत्कृष्टसे कोई काल पर नौ हजार भी हो सकते हैं। इससे भी असंख्यगुने वैक्रिय शरीर होते हैं, क्योंकि उसके स्वामी देव-नारक असंख्य होते हैं इसलिए। और Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रथम शरीर द्वार . .281. इससे मी असंख्येने औदारिक शरीर हैं। यद्यपि साधारण वनस्पतिके जीव अनंत हैं। अनंत होनेके कारण औदारिक शरीर अनंता क्यों नहीं है ! इस प्रश्नका समाधान यह है कि अनंत जीवोंका शरीर पुनः एक होता है / इस अपेक्षासे साधारण वनस्पति के जीव अनंत होने पर भी उसके शरीर तो असंख्याता ही होते हैं / इस प्रकार तिर्यचोंको मी अनंता मानते हैं फिर भी हरेकके शरीरका हिसाब लगाये तो उपर्युक्त मतानुसार असंख्यातका ही होता है / शास्त्रोंने भी इस प्रकार की विवक्षा की है। इससे मी तैजसकार्मण शरीर अनंतगुने हैं। क्योंकि वे हरेक संसारी जीवोंमें अलग-अलग अवश्य होते ही है जो परस्पर संख्यासे समान है। 10. अन्तर (विरहकाल) कृत भेद-किसी एक जीवको लेकर औदारिक शरीरका विरहकाल सोचें, तो जघन्यसे लेकर एक समयका और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त्ताधिक 33 सौंगरोपमका होता है / इस प्रकार वैक्रियका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिका कॉयस्थितिमान अनुसार समझें / आहारक शरीरका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्धपुद्गलपरावर्त और तैजस कार्मणके लिए तो अन्तर ही नहीं है। इस प्रकार यह एक जीवाश्रयी घटना कह सुनायी / अनेक जीवोंकी अपेक्षासे सोचे तो चारों शरीरमेंसे किसीको भी विरहकाल होता ही नहीं है / इस प्रकार शरीरद्वार पूर्ण हुआ / . . 2. अवगाहना-जघन्योत्कृष्ट द्रष्टिसे कौनसे जीवमें कौनसे शरीरकी ऊँचाई ' आदि मान (प्रमाण) कितना होता है ? इसे बताना अवगाहना है / और यह अवगाहना मान तो इसी ग्रन्थमें ही अनेक जगह पर बताया गया है / इस लिए उसके पुनरावर्तनकी ' अब जरूरत नहीं है। 3. संघयण-इसका संस्कृत पर्याय है संहननम् / इसके दो अर्थ हैं। इसमें 581. असंख्यातके भी असंख्य प्रकार हैं / 582. वर्तमान औदारिक शरीरका आयुष्य पूर्ण होनेके बाद ऋजुगतिसे तिर्यच अथवा मनुष्यगतिमें जनमनेवाला उत्पत्तिके प्रथम समय पर औदारिक शरीरयोग्य आहारके पुद्गल ग्रहण करता है / इसी. अपेक्षासे उसे एक समझें, लेकिन शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेकी अपेक्षासे सोचने पर तो अंतर्मुहूर्त समझना चाहिए / 583. कोई चारित्रवान् जीव भवान्तमें वैक्रिय शरीर रचकर तथा अन्तर्मुहूर्त तक जाकर आयुष्य क्षय होते ही ऋजुगतिसे अनुत्तरमें उत्पन्न होता है, उस आश्रयी (संबंधमें) सोच लें / 584. आवलिकाके असंख्यातवें भाग जितने पुद्गलपरावर्त वो, पुनः पुनः वहाँ ही उत्पन्न होते हैं इसी द्रष्टिसे / 585. पुनः चारित्रप्राप्तिके लिए उतना काल ही होनेसे / बृ. सं. 36 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 282 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पहला अर्थ है 'अस्थिनिचय' माने हड्डियोंका संचय अर्थात् अमुक रीतसे एकत्र होना अथवा रचनाविशेष वह / और दूसरा अर्थ है शक्तिविशेष अर्थात् शरीरके पुद्गलोंको जो मजबूत बनाता है वह / इस संहननके छः प्रकार हैं। इसके वर्णनके लिए देखिए गाथा 159-60 / 4. संज्ञा-आहारादि संज्ञाओंके वर्णनके लिए देखिए गाथा 341-42 का विवेचन / 5. संस्थान संस्थान अर्थात् शरीरका अकारविशेष अर्थात् पुद्गलकी अमुक प्रकारकी रचनाविशेष वह / ये संस्थान समचतुरस्रादि छः प्रकारके होते हैं जिनका वर्णन गाथा 163-65 के विवेचन प्रसंगमें कहा गया है। संस्थानके विषयमें जानने योग्य जो हकीकत इससे पूर्व नहीं बतायी है उसे यहाँ जानकारीके लिए दी जाती है / संस्थान अर्थात् आकार / ये आकार अनेक प्रकार के विश्वमें प्रवर्तमान हैं / ये आकार जीव, अजीव दोनोंमें होता है / जो शरीरधारी होता है उसे सामान्यतः जीव शब्दसे और अशरीरीको आत्मा शब्दसे पहचाननेका नियम है। आत्माके लिए तो कोई भी संस्थान है ही नहीं, इस लिए उसे अनित्यसंस्थानवाला कहा जाता है / जीवके देहधारी आकारोंके लिए शास्त्रमें, पृथ्वीके शरीरके लिए मसूरकी दाल, पानीके लिए बुलबुला, अग्निके लिए सूई अथवा उसका समूह तथा वायुके लिए धजा कहा है। इसके अतिरिक्त मीतर ही भीतर अनेक चित्रविचित्र आकृतियाँ मी होती हैं। ये आकृतियाँ पुद्गलरूप शरीरकी ही होती हैं। दो इन्द्रियसे लेकर चार इन्द्रियवाले जीवोंके लिए 'हुंडक' संस्थान कहा है जो श्लाघनीय (प्रशंसनीय) और रुचिकर नहीं है / इसमें अनेक आकार मिल आते हैं / पंचेन्द्रिय जीवों में मनुष्य-देव, नारक, तिर्यच, तिर्योंमें-पशु, पक्षी, जलचर, स्थलचर, उरपरिसर्प, भूजपरिसर्प, चार पैरवाले इत्यादिमें भाँतभाँतके रूप, आकार, चित्रविचित्र और अद्भुत लगे वैसे शरीर होते हैं। उन सभीका समाविष्ट पूर्वोक्त समचतुरस्रादि छः संस्थानोंमें किया जाता है / / 586-587. संघयणमठिनिचओ / संहननम्-अस्थिनिचयः शक्तिविशेष इत्यन्ये / [स्था० 6, ठा० 3, उ० 3] दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत् / / . . . . 588. सदसलक्षणोपेतप्रतीकसन्निवेशजम् / शुभाशुभाकाररूपं षोढा संस्थानमङ्गिनाम् // [लो. प्र.] Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संस्थानद्वारका विवेचन * .283. रुपी ऐसे अजीव पदार्थोंके पाँच संस्थान परिमण्डैले, 2. वृत्त (गोलाकार). 3. त्रिकोण (त्रिभुज), 4. चतुष्कोण-चौकोन आयत ( लम्बा, विस्तृत)-दीर्घ / परिमंडल-जो बीचमें पोला और गोल होता है उसे परिमंडल कहते हैं / जैसे चूडी / वृत्त अर्थात् विना पोलापन वृत्ताकार प्रतरकी तरह ठोस (धन) गोल / मिसालके तौरपर कुम्हारका चक्र, भोजनकी थाली, रूपया इत्यादि / त्रिकोणमें सिंघाडा, चौकोन (चतुष्कोण) में पादपृष्ठ-कुंभी आदि और आयत ( लम्बा, विस्तृत ) में दंड, लकडी इत्यादि। ... ये सभी आकार घन और प्रतरसे दो भेदवाले हैं / और इनमें परिमंडलको छोड़कर शेष चार पुनः ओजप्रदेशसे तथा युग्मप्रदेशसे दो-दो भेदवाले हैं। ओजप्रदेशी संस्थान उसे कहा जाता है जो विषमसंख्यावाले ( अर्थात् एकी अंककी संख्यावाले ) प्रदेशोंसे बनता है / और जो समसंख्या ( अर्थात् दो की संख्यावाले ) प्रदेशसे बनता है उसे युग्मप्रदेशी कहा जाता है। जबकि परिमंडलमें तो प्रतर और धने ये दो ही विभाग हैं। अब हम उन्हीं सभी प्रकारोंको क्रमशः समझ लेते हैं। १-परिमंडल प्रतरपरिमंडल-यह बीस प्रदेशी बीस प्रदेशावगाही होता है। पूर्वादि चारों दिशाओंमें चार-चार अणु तथा विदिशामें एकैक अणु स्थापनेसे यह आकार बनता है। . सबसे आद्य-जघन्य से जघन्य प्रतर यह है। इससे छोटा कमी भी होता ही नहीं है। .. धनपरिमंडल-ये चालीस प्रदेशी चालीस प्रदेशावगाही होते हैं / पूर्वोक्त बीस प्रदेशोंके ऊपर बीस प्रदेश रखनेसे वह घन बनता है। घनपरिमंडलका यह आद्य आकार है। ... ओजप्रदेश प्रतरवृत्त-यह संस्थान पाँच अणुसे निप्पन्न, पाँच अवकाश प्रदेशावगाढ है / यह आकार एक अणुमध्यमें और चारों दिशामें संलग्न चार स्थापनेसे छोटेसे छोटा पंचप्रदेशी वृत्ताकार बनता है। युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त—यह प्रतरवृत्त बारह प्रदेशका तथा बारह प्रदेशावगाही होता है / चार आकाशप्रदेशोंके ऊपर चार अणु स्थापनेसे तथा उसके चारों ओर वृत्ताकारमें आठ अणु स्थापनेसे बारह प्रदेशी प्रतराकार बनता है। 589. परिमंडले य वट्टे तसे चउरंस आयए चेव, घनवयरपढमवजं ओयवएसे य जुम्मे य // [उत्तरा. नियुक्ति] 590-591. प्रतर अर्थात् समतल और घन अर्थात् ठोस लड्डू जैसा / Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 284. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ओजप्रदेश धनवृत्त-प्रतरकी बात पूर्ण करनेके बाद अब घन समजाते हैं / यह घन सप्तप्रदेशी सप्तप्रदेशावगाही होता है। पूर्वोक्त पंचप्रदेशी प्रतरवृत्त के मध्यके अणु के ऊपर तथा नीचे एक एक अणु स्थापनेसे (रखनेसे) 5+2=7 प्रदेशी संस्थानका निर्माण होता है। युग्मप्रदेश धनवृत्त-यह प्रदेशवृत्त बत्तीस प्रदेशी और बत्तीसावगाही है। पूर्वोक्त बारह प्रदेशी प्रतरवृत्त बनाकर उसके ऊपर दूसरे बारह प्रदेश रखनेके बाद उन्हीं हरेकके मध्यमें चार और इन्हीं सभी के नीचे फिरसे चार अणु स्थापनेसे घनवृत्ताकार बन जाता है / ३-ज्यस्र (त्रिकोण, त्रिभूजाकार) ओजप्रदेशी प्रतरत्र्यस्र-यह संस्थान त्रिप्रदेशी और त्रिप्रदेशावगाही होता है। तिरछे (वक्र) अंतररहित दो अणु पहले रखिए / इसके बाद पहलेके नीचे एक अणु रखनेसे त्रिप्रदेशी संस्थान बन जाता है / युग्मप्रदेशी प्रतरत्र्यस-यह संस्थान छः प्रदेशी और छः प्रदेशावगाही है। अंतर-.. रहित तिरछे तीन अणु पहले रखिए। इसमें पहले तिरछे अणुके ऊपर तथा नीचे दोदो अणु रखनेसे तथा दूसरे तिरछे अणुके नीचे मी एक अणु स्थापनेसे इष्टाकार बन जायेगा। ओजप्रदेशी घनव्यस्र-यह संस्थान 35 प्रदेशी तथा इतने ही प्रदेशावगाही है / इसकी रचना करनेके लिए सबसे पहले अंतररहित-संलग्न ऐसे ऐसे तिरछे पाँच अणुकी स्थापना करें / उसके बाद इसी हरेकके नीचे तिरछे ही क्रमशः चार, तीन, दो और एक ऐसे पाँच प्रदेशोंकी स्थापना करें, इस प्रकार पंद्रहप्रदेशी प्रतर हुआ। अब इसके ऊपर हरेक पंक्तिके अन्त्याणु ( अंतिम अणु ) को छोड़कर छः, इसी प्रकार तीन और एक अणु रखें / इस प्रकार अब कुल मिलाकर 35 प्रदेशात्मक घनव्यस्र बन जायेगा। युग्मप्रदेशी घनत्यत्र-यह संस्थान चार प्रदेश तथा चार प्रदेशावगाढ है / प्रतरके समय हमने जिस प्रकार त्रिप्रदेशात्मक त्रिकोणप्रतर बनाया था उसी प्रकार बनाकर उसके ऊपर तथा नीचे एक-एक अणु स्थापनेसे घन आकार बन जाता है / ४-चतुरस्त्र ओजप्रदेशी प्रतरचतुरस्र-यह संस्थान नौ प्रदेशी नौ प्रदेशावगाही है / इसमें तिरछी संलग्न तीन-तीन प्रदेशात्मक तीन पंक्तियाँ स्थापनेसे नौ प्रदेशी आकृतिका निर्माण होता है। युग्मप्रदेशी. प्रतरचतुरस्र-यह चार प्रदेशी और चार प्रदेशावगाही है। यह तिरछे दो-दो प्रदेशकी दो पंक्तियाँ बनानेसे होता है / Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संस्थानद्वारका विवेचन * ओजप्रदेशी घनचतुरस्र—यह संस्थान 27 प्रदेशी तथा 27 प्रदेशावगाही है। पूर्वोक्त प्रतर चतुरस्रके समय स्थापित नौ प्रदेशात्मक प्रतरके ऊपर तथा नीचे नौ-नौ अणु स्थापित करनेसे यह रचना बनती है / युग्मप्रदेशी धनचतुरस्र—यह अष्टप्रदेशी तथा अष्टप्रदेशावगाही है। इसमें चारप्रदेशके प्रतर चतुरस्रके ऊपर तथा नीचे चार अणु स्थापनेसे बनता है। ५–आयत (लम्बा, विस्तृत) आयतके दो प्रकार हैं----१. ओज और 2. युग्म / लेकिन इन दोनोंके घन तथा प्रतर के अतिरिक्त श्रेणि प्रकार भी इस संस्थानमें निष्पन्न होता है / इस प्रकार यह संस्थान तीन-तीन प्रकारकी स्थापना बताते हैं / ओजप्रदेशी श्रेणिआयत—यह संस्थान त्रिप्रदेशी-त्रिप्रदेशावगाढ है। इसकी रचना तिरछे अंतररहित तीन प्रदेश रखनेसे होती है / युग्मप्रदेशी श्रेणिआयत—यह तिरछे संलग्न दो अणु स्थापनेसे होता है / ____ओजप्रदेशी प्रतरायत-पंद्रह प्रदेशी तथा पंद्रह प्रदेशावगाही यह संस्थान है। इसमें पहलेकी तरह तीन पंक्तियोंमें पाँच पाँच अणु प्रस्थापित किये जाते हैं / .. युग्मप्रदेशी प्रतरायत—यह छः प्रदेश तथा छः प्रदेशावगाही है / यह संस्थान मी पहलेके समान दो पंक्तियोंमें तीन-तीन-अणु रखनेसे बनता है। ___ ओजप्रदेशी घनायत-इसमें 45 प्रदेश तथा 45 प्रदेशावगाढ मिलते हैं / पूर्वोक्त पंद्रह प्रदेशका प्रतरायत जिस प्रकार बनाया था उसी प्रकार बनाकर उसके नीचे तथा ऊपर पंद्रह-पंद्रह अणु प्रस्थापित किये जाते हैं। . युग्मप्रदेशी घनायत—यह बारह प्रदेशी तथा बारह प्रदेशावगाही संस्थान है / यहाँ मी पूर्वोक्त छः प्रदेशके प्रतरायत पर उसी प्रकार ही बारह प्रदेश रखनेसे घन आकृति हो जायेगी / इस प्रकार इससे छोटे आकार असंभवित है / यहाँ पर सबसे छोटी आकृतियाँ ऊपर बता दी है / इससे बढते-बढते उत्कृष्टपनसे संख्य-असंख्य यावत् अनंत प्रदेशी आकार बनते हैं / इन आकृतियोंकी संभवित झाँकी (छाया) उसके चित्रोंके माध्यमसे बता सकते हैं। इन्हीं आकृतियोंके अतिरिक्त पाँच संस्थानोंके सहयोगसे दूसरे असंख्य संस्थान-आकार अथवा आकृतियाँ निष्पन्न होते हैं। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .286. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ६-कैसाय (कषाय) ___ इसका अर्थ साँचे तो कप अर्थात् संसार और आय का अर्थ होता है लाभ / इसका अर्थ यह हुआ कि जिससे संसारवृद्धि-भवभ्रमणका लाभ हो उसे कषाय कहते हैं / यह कषायका अति प्रसिद्ध अर्थ है / ___कषाय विषय पर तो बहुतसे पन्नें लिख सकते हैं, लेकिन यहाँ तो संक्षिप्तरूपसे ही 24 दंडक की व्याख्या करनी है इसलिए महत्त्वका जरुरी विवेचन ही कहा जायेगा। ये कषाय कि जिनके कारण इस संसारका परिश्रमण चलता ही रहता है, उनके मूल प्रकार चार है-१. क्रोध, 2. मान, 3. माया और 4. लोभ / यहाँ एक बात यह ध्यानमें रखनी है कि आम तौर पर कुछ लोगोंके मनमें ऐसा गलत ख्याल घर कर गया है कि कषाय माने मात्र रोष, गुस्सा और द्वेष आदि होता है / लेकिन ऐसा नहीं हैं / कषाय तत्त्वमें तो जीवके सैंकडो भाव रहता है / इसमें क्रोधके अतिरिक्त दूसरे तीन-मान, माया तथा लोभ और उसके उपप्रकार भी आ जाता है / इसी कारणसे कषायका अर्थ विस्तृत होता है। अब इन्हीं चारों प्रकारोंका अर्थ सोचें / क्रोध-यह कषाय मैत्री-दोस्ती, प्रेम, स्नेह और प्रीतिका नाश करता है। और जब मी क्रोध, गुस्सा या रोष आ जाता है तब इसके चिह शरीर पर दिखायी पड़ते हैं / अर्थात् चेहरा लाल लाल हो जाना, आँखें भयंकर हो जाना, होठोंका कोपना तथा शरीरमें कंप उत्पन्न होना इत्यादि / इतना ही नहीं आगे चलकर कठोर और असभ्य शब्द वचन (वाणी) के द्वारा तथा शारीरिक चेष्टाओं द्वारा व्यक्त होते हैं। ये सभी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ क्रोध नामक कषाय कर्मसे ही उत्पन्न होती हैं / कोई क्रोधित व्यक्ति क्रोध करते समय ली गयी अपनी किसी तस्वीरको एकदम शांत होनेके बाद जब देखता है तब क्रोध अपने चेहरेको कितना विकृत बना सकता है ? उसका सच्चा ख्याल आ सकता है। - ... 592. 'कषाय' शब्दकी विभिन्न व्युत्पत्तियाँ विभिन्न आगमोंकी टीकाओंमें देखनेको मिलता है। जैसेकि कृषन्ति विलिखन्ति कर्मक्षेत्र सुखदुःखफलयोग्यं कुर्वन्ति कलुषयन्ति वा जीवमिति अथवा कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः। अथवा कल्पयन्ते बाध्यन्ते प्राणिनोऽनेनेति कषं कर्म भवो वा तदायो लाभ एषां यतः / कष्यन्तेऽस्मिन्प्राणी पुनः पुनरावृत्तिभावमनुभवति कषोपलकष्यमाणकनकवदिति / कषः संसारः तस्मिन्नासमन्तादयन्ते गच्छन्त्येभिरसुमन्त इति / यद्वा कषाया इव कषायाः // इत्यादि / Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कषायद्वारका विस्तृत वर्णन .. - मान–इस कषायका उदय प्रवर्तमान होता है तब मानी स्वभावके कारण दूसरोंकी अथवा दूसरोंके कार्यकी इर्षा और अपनी महत्ता, श्रेष्ठता या उत्कर्ष बतानेकी इच्छा हरदम जागृत रहा करती है। और इसकी ताकत जब बढती है तब यह वाणीबरताव (व्यवहार, आचरण) के द्वारा भी व्यक्त होता है / इन्हीं कारणोंसे ऐसी व्यक्ति अभिमानी, गर्वित (गर्वीला), अकड़, अहंकारी उन्मत्त ( मतवाला, पागल, सनकी ), उद्धत, स्वच्छन्दी आदि विशेषणोंके योग्य बन जाती है / ऐसी मानदशा उत्पन्न करनेवाले कर्मको मान कषायकर्म कहा जाता है / - माया-इस कषायकर्मकी उत्पत्तिके साथ ही जीव दूसरोंको छलनेका प्रयत्न करेगा ही / माया नामक. यह कषाय कुटिलता, वक्रता, छल, कपट तथा सच्चा जुठा, दूसरोंको छलनेकी अथवा फँसानेकी वृत्ति इत्यादि भाव हमारे मनमें उत्पन्न करता है / लोगोमें ऐसी व्यक्तिको ‘मायावी' शब्दसे संबोधन किया जाता है / माया नामक कषायकर्मके उदयके कारण ही जीव इस प्रकार व्यवहार करता है / लोभ-चेतन-अचेतन पदार्थोके संग्रहकी अथवा उससे संचय-वृद्धिकी प्रवृत्ति, दूसरे पदार्थों की लालसा और तृष्णा, ममत्वभाव, किसीका हड़प कर लेनेकी बुद्धि, " आ जा-फंसा जा, घर जा-भूल जा" का व्यवहार, अति प्रारंभिक प्रवृत्तियाँ यह सब करानेवाला लोभ कषाय नामक कर्म ही है। अपेक्षासे चारों कषायोंमें लोभ ही मुख्य कर्ताहर्ता कषाय है / क्योंकि लोभ नामक यह कषाय ही प्रेम, विनय और मैत्री तीनोंको खत्म कर डालता है / इसीलिए उसे 'पापका बाप' के रूपमें पहचाना जाता है / सर्व दोषोंकी खान यही है / इस लिए इसे सभी अनर्थोंका मूल कहा गया है / चारों कषायोंको उद्देशकर आगममें कहा है कि_____ कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो।। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सध्वविणासणो // . [दशवकालिक] क्रोध प्रेमका सर्वथा नाश करता है। मानसे विनय (नम्रता) का, मायासे मित्रताका ( अथवा सरलताका) और लोभसे सर्वका अर्थात् प्रेम, विनय, मित्रता सभीका विनाश होता है। इसलिए शास्त्र कहते हैं कि कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं / बमे चतारि दोसाई, इच्छंतो हियमप्पणो // .. आत्माका हित चाहनेवाला मनुष्य पापवर्धक ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार दोषोंका वमन कर देता है, जिसके कारण आत्मा निर्मळ बनती है। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .288 . .श्री बृहदसंग्रहणीरल-हिन्दी भाषांतर * - अब इन्हीं दोषोंको किस प्रकार वम कर सकते हैं ! तो इसका भी छोटासा और सरल उपाय बताता हुआ उपकारी महर्षिगण कहता है कि उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे / मायं चज्जवभावेणं, लोभं संतोसओ जिणे // हे आत्मन् / क्रोधका उदय होनेके साथ ही उपशान्त (संतुष्ट) बनकर, क्षमा रखकर क्रोधके उदयको विफल बना दे, मृदुता (कोमलता)-नम्रतासे मान स्वरूप दुश्मनको तथा मायाकपट (छलना) करनेकी मनोवृत्तिके जागने पर सरलहृदयी बनकर मायाको जीत ले और लोभवृत्तिके जागने पर निःस्पृह बनकर संतोषभाव या अनासक्त भाव धारण करके लोभ पर विजय पा ले / इन चारों कषायोंको राग और द्वेष नामक दो विभागोंमें विभाजित किये जाते हैं। इसमें क्रोध और मानका द्वेषके अंतर्गत तथा माया और लोभका रागके अंतर्गत समावेश होता है। मतांतरसे मान, माया और लोभ तीनोंका समावेश रागमें होता है / हम तीर्थंकरको संक्षिप्तमें राग-द्वेषरहित जो मानते हैं उसका अर्थ वे चारों कषाय रहित भगवान हैं ऐसा फलित होता है / ये कषाय क्षमा-नम्रतादि गुण स्वरूप सम्यक् चारित्रमार्गका आवरण करते हैं / इससे आगे बढकर वे क्रोधादिकके भाव उत्पन्न करके असभ्य बरताव भी करवा सकते है / और आगे बढता क्रोध तो ऐसा है कि अगर वह अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया तो नये कर्म बांधनेका अनंत सीलसीला मानो शुरु हो जायेगा / क्रोधादि चारों कषायकी बदनसीबी तो ऐसी है कि क्रोधके समय बँधा हुआ कर्म फिरसे क्रोध हो ऐसा ही बंधेगा और बंधा हुआ कर्म फिरसे जब उदित होता है तब वह तीसरी बार भी वैसा ही बाँधेगा !....इस प्रकार अनंत सीलसीला जारी ही रहेगा। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों के तरतम ( न्यूनाधिक्य अथवा तारतम्य) भावयुक्त विभिन्न भाव हजारों होते हैं / इर्षा, द्वेष, निंदा इत्यादि / ये कषाय मोहनीयकर्मजन्य हैं। इनका उदयमें निजगुणरमणीयता अथवा स्वभावदशामें अस्थिरता उत्पन्न कर देता है, जिसके कारण आत्मा अपना मूल स्वभाव प्रकट नहीं कर सकती है, उलटा परभावमें रमणीयता उत्पन्न करवाकर, दूसरोंकी चीजोंको अपनी मनवानेकी भूल करवाकर, आत्मासे पर मानी जाती चीजोंमें मोह उत्पन्न करवाकर तथा उनमें मेरा-मेरी का भाव पेदा करवाता है / Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कषायद्वारका विस्तृत वर्णन * * 289 . अनंत जीवोंकी विविध प्रवृत्तियों के कारण इनकी भावनाओं तथा विचारोंमें अनंत तारतम्य पडते हैं। और इसके कारण ही इनके कषायोंके नतीजेमें भी उतनी ही तरतमताएँ खडी हो सकती है। लेकिन इन अनंत वर्गोंको वाणीसे अथवा लेखनसे व्यक्त करना असंभवित होनेसे इनका वर्गीकरण करके शास्त्रकारोंने मन्द, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम ऐसे मूल चार भेदोंको फिरसे चार प्रकारोंमें बाँट दिये हैं तथा अर्थानुसार इनके चार नाम भी इस प्रकार दिये गये हैं-(१) अनन्तानुबंधी (2) अप्रत्याख्यानी (3) प्रत्याख्यानी और (4) संज्वलन / (1) जिस कारणसे तीनों जगतमें जीव अनंत संसारका अनुबन्ध करते हैं, उसके कारण उसे अनंतानुबंधी क्रोधादि कहा जाता है। यह कषाय सच्चा विवेक होने ही नहीं देता। (2) सच्ची समज होनेके बावजुद भी कषायके उदयके कारण जीव थोडा-सा भी त्याग नहीं कर सकता है, इस लिए उसे अप्रत्याख्यानी कषाय कहा जाता है। यह कषाय संसारके कामभोगके प्रति जीवको आसक्त रखता है। (3) इस प्रकार जिस कषायके उदयसे जीव सर्वाशसे सावध :योग ( अशुभ योग ) का जो त्याग नहीं कर सकता है उसे प्रत्याख्यानी कषाय कहा जाता है और (4) जिस कषायके उदयसे त्यागी बैरागी ऐसे महात्माओंको भी इष्टकी प्राप्तिमें आनंद तथा अनिष्टकी प्राप्तिमें खेदादिक होता है और मन कुछ कुछ अशांत बन जाता है इसे संज्वलन कषाय कहा जाता है। मूल कषायके 16 भेद जो इस प्रकार हैं 1. अनंतानुबंधी - क्रोध / 1. अप्रत्याख्यानी - क्रोध 2.. , - मान - मान - माया 3. . - माया 4.. - लोभ | 4. . - लोभ 1. प्रत्याख्यानी - क्रोध | 1. संज्वलन - क्रोध 2. , - मान | 2. - मान --- माया - लोभ / 4. - लोभ ___ इस लिए क्रोध चार प्रकारका है। इसी प्रकार मान आदि भी चार-चार प्रकारके हैं। अब उनमें भी पुनः जीवभेदके कारण अनेक वर्गों की रचना होती है। इस लिए उन बृ. सं. 37 / / / / / / / / Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 299 . * श्री वृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 16 कषायोंको पुनः चार-चार प्रकारसे विभाजित करने पर 16 कषायके 64 १९७भेद बनते हैं। इन भेदोंका वर्णन ग्रन्थविस्तारके भयसे यहाँ दिया नहीं है। .. कषायका काल-ये कषाय उत्पन्न होने के बाद वैसे ही वैसे रूपमें कितने समय तक टिक सकते हैं ? जिज्ञासुके इस प्रश्नका उत्तर शास्त्रोंने इस प्रकार दिया है कि ज्ञानदृष्टिसे असंख्य जीवोंके नतीजोंका विश्लेषण और उनकी मर्यादाओंको देखनेके बाद ऐसा लगता है कि संज्वलन कषायका उदय होनेके बाद अगर जल्दीसे शमन होता नहीं है तो अधिकसे अधिक 15 दिन तक टिक सकता है। इस अवधि ( अरसा, काल ) को पूर्ण होते ही वह किसी भी प्रकारसे जरूर उपशान्त हो जायेगा / प्रत्याख्यानी प्रकारका कषाय अधिकसे अधिक चार मास, अप्रत्याख्यानी एक साल तक और अनंता- ' नुवन्धी जिन्दगीपर्यंत टिकता है। यहाँ पर विवेकदृष्टि रखकर यह समझना है कि सभी कषायोंकी अपनी अपनी समय मर्यादा पूर्ण होते ही आत्मा शांत हो ही जाती है ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं है। अगर रागद्वेषकी उग्रता बढ भी जाती है तो बादके अथवा आगेके कषायमें जीव चला जायेगा ही, जिस प्रकार संज्वलन युक्त आत्मा पंद्रह दिन होने पर भी शान्त नहीं होती है तो उसे प्रत्याख्यानीके उदययुक्त बनते देर नहीं लगेगी। और इस प्रकार अगर उत्तरोत्तर बढता भी गया तो अनंतानुबंधीमें भी चला जायेगा। और अनंतानुबंधीवाला कार्यफल (कार्यपरिणाम) की सुंदरता बढने पर संज्वलनवान् भी बन सकता है। इस प्रकार कषायकी वासना-परिणामका कालमान बताया गया है। कषायोंकी समिसाल (मिसालके साथ, दृष्टांतके साथ) घटना-कषायोंकी कालमर्यादा अथवा उनकी मन्दता-तीव्रतादि समझनेके लिए ज्ञानीजनोंने अनेक दृष्टांत खोजकर कषायोंके साथ तुलना करके जिज्ञासुओंको तृप्त किया है / इसमें संज्वलनका क्रोध जलकी लकीर जैसा, प्रत्याख्यानीका क्रोध धूलकी लकीर जैसा, अप्रत्याख्यानीका पृथ्वीकी दरार जैसा और अनंतानुबंधीका पहाडकी फूट ( दरार) 593. ये 64 भेद भी बहुत जरूरी है। यदि ऐसे चित्रविचित्र भेदोंको न समझें तो कर्मतत्त्व व्यवस्थामें अवरोध (विघ्न ) आ जाता है। जिस प्रकार अनंतानुबंधीका उदय हो ऐसी ही आत्मा नरकायुष्य बाँधकर नरकमें जाती है। अब कृष्ण वासुदेव क्षायिक सम्यग्दृष्टिवान् थे जो अनंतानुबंधीके क्षयवाले और अप्रत्याख्यानीके उदयवाले थे, तो वे तीसरे नरकमें क्यों गये 1 इसका समाधान 64 भेदोंमेंसे ही दे सकते हैं। इसलिए श्री कृष्णवासुदेवका जो अप्रत्याख्यानी कषाय था, वही कषाय अन्त समयपर उग्र बनकर अनंतानुबंधी जैसा बन गया था। श्रेणिकके लिए भी इस प्रकार ही सोचना चाहिए / बाहुबली मुनिमें संज्वलन मान कषाय पंद्रह दिनके बदले एक साल तक टिका था। वहाँ भी संज्वलनकी उग्रता. अप्रत्याख्यानीके कषाय जैसी थी, इस प्रकार समाधान सोचना चाहिए। Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कषायद्वारका विस्तृत वर्णन * जैसा है। ये मिसाल तो इस बातको सूचित करते हैं कि हम जलमें अपनी उँगलीसे लकीर खींचकर ( पानीमें ) भेद करनेका प्रयत्न तो करते हैं, लेकिन यह भेद कितना समय टिकता है ? पलभर ही। ज्यों-ज्यों उँगली आगे बढती जाती है त्यों-त्यों भेदल. कीर (भेदरेखा) नष्ट होकर पुनः पानी अभेद हो जाता है / इसके बादके दृष्टांतोंमें उत्तरोत्तर भेदलकीरोंका अस्तित्वमान बढता ही जाता है / ___ अब संज्वलनका मान बेत जैसा, प्रत्याख्यानीका लकडीके स्तंभ जैसा, अप्रत्याख्यानीका हड्डीके स्तंभ जैसा और अनंतानुबन्धीका मान पत्थरके स्तंभ जैसा है / यहाँ पर प्रथम बेतका प्रकार यह सूचित करता है कि मान प्राप्त होते हुए भी साधु पुरुष कभी भी झुकनेमें देर नहीं लगाते है और काष्ठके स्तंभको इससे अधिक देर लगती है, इस प्रकार उत्तरोत्तर समझ लीजिए / व्यवहारमें भी मानी मनुष्यको कड़े ( सस्त ) स्तंभ जैसा है, ऐसा बोलते हैं। यहाँ दृष्टांतमें (मिसालके तौरपर) स्तंभ ही लिया है / ___संज्वलन माया बाँसकी छाल अथवा छिलका जैसी ( नरकट अथवा नडके मीतर पतले और वक्र तंतु जो होते हैं वे ), प्रत्याख्यानीकी माया उलट-पुलट गोमूत्र-गायकी मूत्रधार जैसी, अप्रत्याख्यानीकी माया भेड़ (मेढा) के सिंग जैसी और अनंतानुबंधीकी माया बाँसके मूल जैसी है। यहाँ नरकटके तंतुका बाल एकदम सीधा हो जाता है। बादमें तो उत्तरोत्तर अधिक से अधिक वक्र होनेके कारण बड़ी विलंबके साथ साध्य होता है। ____ संज्वलनका लोभ हलदीके रंग जैसा, प्रत्याख्यानीका रंग बैलगाडीकी कीट (काजल) जैसा, अप्रत्याख्यानीका नगर ( शहर )की नाली (मोरी )के कीचड़ जैसा और अनंतानुबन्धीका किरमिज रंग जैसा लगता है। संज्वलनका लोभ हलदी जैसा होनेसे जल्दी दूर होता है। और उत्तरोत्तर रंग अधिक पक्के होनेके कारण अधिक श्रम साध्य है ऐसा समझना चाहिए। _किस कषायसे कौनसा लाभ मिलता नहीं है ?- संज्वैलनका उदय रहता है वहाँ तक यथाख्यात चारित्रका गुण अथवा वीतराग अवस्था, प्रत्याख्यानीके उदयसे सर्वविरति सर्वसावद्यके त्यागस्वरूप चारित्र परिणाम, अप्रत्याख्यानीके उदयसे देशविरति अर्थात् आंशिक त्यागस्वरूप चारित्र परिणाम और अनंतानुबंधीके उदयसे सम्यगदर्शनरूप श्रद्धापरिणामका उदयमान होता नहीं है। - 594. सं =अल्प, थोडा, ज्वलन-जलानेवाला / Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 292 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * किस कषायसे कौनसी गति मिलती है ? -संज्वलन कषायवालोंको (साधुत्वनेकी-पवित्रता-सज्जनतावाले साधु इत्यादि) मरकर देवगति, प्रत्याख्यानीवालोंको . मनुष्यगति, अप्रत्याख्यानीवालोंको तिर्यंचगति और अनंतानुबंधीवालोंको नरकगति प्राप्त होती है। आखिर ये सभी कषाय जन्मते क्यों है ? -ये कषाय मोह, माया, ममता, आसक्ति, अज्ञानभावके कारण भूमि, घर-वंगला इत्यादि, शरीर, उपधि (छल धोखेबाजी) और धन-धान्य-वस्त्रादि परिग्रहोंमेंसे जनमता है। एकेन्द्रियोंमें भी कषायभाव प्रच्छन्नरूप होता है। अल्पबहुत्व- इनमें बिना कषायवाले जीव सबसे कम, इससे अनंतगुने मानकषायी जीव, इससे अधिक क्रोधकषायवाले, इससे भी अधिक मायाकषायीवाले और सबसे अधिक लोभ कषायीवाले जीव होते हैं। इन चार मुख्य कषायोंके अतिरिक्त कषायके दूसरे सहचारियोंमें हास्य, रति, अरति ( विरक्ति-असंतोष-क्रोध-चिंता ), भय, जुगुप्सा, शोक और तीन वेद इत्यादि नौ कषाय भी हैं। ये नौ सहचारी कषाय मुख्य चार कषायोंको उद्दीप्त करते हैं। तात्पर्य यह कि हँसना, खुश होना, नाखुश होना, भय, ऊबना, नफरत पैदा होना और शोकात दशा बनी रहना तथा स्त्रीका पुरुषसंगाभिलाष और वेदन, पुरुषका स्त्रीसंगाभिलाष और वेदन तथा स्त्री-पुरुष दोनोंमें परस्पर अभिलाष और वेदन ये सभी भावनाएँ अंतमें तो रागद्वेष ही उत्पन्न कराती है। * कषायोंकी गुणस्थानक मर्यादा- इसमें अनंतानुबंधीका उदय दूसरे गुणस्थानक तक, दूसरे कषायका चौथे तक, तीसरेका पाँचवे तक और चौथेका दसवें गुण स्थानक तक उदय होता है। लेकिन ( अधिकारसे ) सत्तामें तो चारों कषाय ग्यारहवें गुणस्थानक तक होते हैं। अनंतानुबंधी क्रोधके उदयके समय शेष तीन कषाय भी उदयमान होते ही है। उसी प्रकार मान, माया इत्यादिके उदयके प्रसंगमें भी शेष तीनोंका अस्तित्व होता है ही। इन कषायोंके विषयमें यद्यपि बहुत कुछ जानने-समझने योग्य बाकी है लेकिन इस पाठ्यग्रन्थमें तो उतना विस्तार हम कहाँ कर सकते हैं ! . ये कषाय मोहनीय कर्मके हैं। ये जीवमें मोहदशा-विकलता उत्पन्न करते हैं। इनमें से ही राग-द्वेषका जनम और परंपरा (सिलसिला) पेदा होती है, जो पुनः संसार परंपराको जनम देती है। इसी कारणसे ही आठों कर्ममें मोहनीयको सेनापति जैसा अथवा मुख्य Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लेश्याद्वारका स्वरुप . * 293 . नब्ज (नाडी) जैसा कहा है। शेष सातों कौके मेलमिलाप ( संयुक्ति, संयोग) तथा उसके कटु विपाकमें मोहनीय कर्मकी राग-द्वेषकी अनुभूतियाँ ही मुख्य और महत्त्वपूर्ण हिस्सा लेती हैं। इसलिए अगर उसका नाश पहले हो गया तो शेष सभी कर्मोंका क्षय भी जल्दीसे हो सकता है। इन्हीं कारणोंसे इन कषायोंसे तथा नौ नोकषायोंकी भावनाओंसे सदा बचकर रहना ही इस विषयकी जानकारी पानेका वास्तविक फल है / ७-लेश्या [लेश्या] लेश्या आखिर क्या चीज है, इस विषयमें आगमोंकी टीकाओंमें तथा अन्य ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है, फिर भी 'लेश्या 'के विषयमें कुछ कुछ जानकारी गूढार्थक भी रही है / लेकिन यहाँ पर तो संक्षिप्तमें ही लेश्याके विषयमें बताना है। आलिंगन अथवा मिलनके अर्थमें संबंधित ‘श्लिष् ' धातु परसे 'लेश्या' शब्द बनता है। इससे जिस* चीजके कारण जीव कर्मके साथ जुड़ता है, बंधनग्रस्त होता है, उसका नाम है लेश्या अथवा कृष्णादि विविधरंगी द्रव्योंके संबंधसे उत्पन्न होते आत्माके शुभाशुभ परिणामविशेषको लेश्या कहा जाता है। जिस प्रकार स्फटिक रत्नके मणकेमें जिस रंगका धागा पिरोयेंगे तो उसी रंगका ही वह दिखायी देता है, उसी प्रकार आत्मामें जिस-जिस प्रकारके लेश्या द्रव्य उत्पन्न होते हैं; आत्मफल भी उसी प्रकारका ही प्राप्त होगा। यह नतीजा पैदा करनेवाला - पुद्गल द्रव्य ही है। यह लेश्या द्रव्य और भाव ये दो प्रकारकी होती है। इनमें द्रव्यलेश्या पुद्गल स्वरूप होनेके कारण वर्ण, गंध, रस और स्पर्शयुक्त है। द्रव्य लेश्याके आलंबनसे. ही जो आत्मपरिणाम उत्पन्न होता है उसे भाव लेश्या कहा जाता है / यह लेश्या अनंत वर्गणा और अनंत प्रदेशयुक्त है। लेकिन यह वर्गणा किस+ प्रकारकी है इसकी जानकारी मिली नहीं है, लेकिन द्रव्यलेश्याके पुद्गल योगान्तर्गत है इस लिए जब तक योग है तब तक उसका अस्तित्व भी है / ये लेश्या द्रव्य कषायोंको उद्दीप्त करनेमें महत्त्वपूर्ण हिस्सा रखते हैं / - अब यहाँ पर वर्णकी प्रधानताको लक्षित करके स्पष्ट रूपसे समझनेके लिए वर्ण= रंगके छः प्रकारके नामोंके साथ संकलित करके लेश्याकी कक्षाओंको छः प्रकारमें विभक्त कर दिया है। जिनके नाम अनुक्रमसे इस प्रकार है-.१. कृष्ण (काला ), 2. नील, __* श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनयेति लेश्या / + बादर परिणामी स्कंधयुक्त होनेसे औदारिक अथवा वैक्रिय वर्गणाके प्रकारकी संभवित है / Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 294 . . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . 3. कापोत (धूसर अथवा कपोत वर्णका), 4. तेजो, 5. पद्म और 6. शुक्ल / ये सभी लेश्याएँ छः प्रकारके जीवोंके अध्यवसायों (प्रयत्न, उद्यम, कोशिश )को दिखाती हैं / इसलिए इन्हीं लेश्याओंसे उस हरेक जीवकी अधमता-उत्तमताकी कक्षा तय होती है। शुरुकी लेश्या एकदम अशुद्ध और अधम कोटिकी है। उसके बादकी दो अशुद्ध होने पर भी प्रारंभिक तीनोंकी एक-दूसरेकी दृष्टिमें पूर्वसे अधिक विशेषतायुक्त उत्तरकी है और अंतिम तीन तो शुभ होनेसे उत्तरोत्तर विकसित होती शुद्ध, शुद्धतर और शुद्धतम प्रकारकी बनती जाती है अर्थात् उत्तरोत्तर वे शुभ प्रकारकी हैं। 1. वर्ण-कृष्णलेश्या अति काले रंगकी, नीललेश्या तोतेके पीच्छके रंग जैसी हरी अथवा कापोत या मयुरके कंठ जैसी "नीले रंगकी, कापोत-लाल और नीले रंगके / मिश्रणसे उत्पन्न कावरे-चितकबरे रंगकी, तेजो लालचटक धुंधची (चिणोठी )के रंग जैसी, पद्मलेश्या चंपा के फूल जैसी पीले रंगकी और शुक्ललेश्या उज्ज्वल दूधसे भी अधिक श्वेतरंग जैसी होती है। 2. गंध-इनमें पहली लेश्या अत्यन्त दुर्गधयुक्त एवम् बदबूसे भरपूर, बादकी उससे कुछ कम, तीसरी उससे भी अधिक कम दुर्गधयुक्त होती है। फिर भी एक प्रकारसे ये तीनों दुर्गधयुक्त है ही और शेष तेजोलेश्या सुगंधयुक्त और उत्तरोत्तरकी लेश्या अधिकाधिक सुवासयुक्त होती है / 3. रस-कृष्णलेश्याका स्वाद अति कडुआ, नीलका अत्यंत तीखा, कापोतका खट्टा, तेजोका सुगंधित सुंदर आमके रसके स्वाद जैसा, पद्मका अंगुरके रस जैसा और शुक्ललेश्याका सक्कर-गुड़ जैसा मधुर है। 4. स्पर्श-पहली तीन लेश्याओंका स्पर्श शीत और रुक्ष है, जो चित्तके लिए अप्रसन्नकारक है। और अंतिम तीनका स्पर्श स्निग्ध उष्ण है जो चित्तके लिए परमसंतोपोत्पादक है। इन्हीं छः लेश्याओंमें प्रथम तीन लेश्याओंका वर्णादि चतुष्क अशुभ है। लेकिन उत्तरोत्तर यह प्रमाण कम होता जाता है। इस प्रकार तेजो इत्यादि अंतिम तीनोंका वर्णादि चतुष्क उत्तरोत्तर शुभ, शुभतर-तम प्रकारका समझना चाहिए। क्योंकि प्रारंभिक तीन लेश्याएँ मलिन और अप्रशस्त (निंदनीय) है इसलिए अशुभ होनेके कारण आत्माके 595. नील- शन्द प्राचीनकालमें खास तौरपर भूरे रंगके अर्थमें अधिक उपयोगी था। बाद में उसमें अनेक विकल्प आ गये हैं। साथ ही कुछ लोग नीलका अर्थ हरा और श्याम भी करते हैं / Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लेश्यावारका स्वरुप . * 295 . शुभ अध्यवसाय फलमें असहायक है, जब कि अंतिम तीन निर्मल और प्रशस्त है जो आत्माके शुभ अध्यवसाय फलमें ( नतीजेमें ) सहायक है। इस प्रकार पहली तीन दुर्गति करनेवाली और शेष तीनों "सैद्गति करनेवाली हैं। चौदहवाँ गुणस्थानक छोड़कर शेष सभी गुणस्थानक पर सर्व संसारी जीवोंमें द्रव्य और भाव ये दोनों लेश्याएँ होती है। लेकिन इतना विशेष है कि देवगण तथा नारकोंकी द्रव्य लेश्या हमेशा एक ही होती है। लेकिन आत्मपरिणाम स्वरूप भाव लेश्याएँ सभी ५००(छः) होती है, जिससे इनके नतीजे बदलते रहते हैं। और सर्वज्ञको छोड़कर शेष मनुष्य तथा तिर्यंचोंकी शुक्लको छोडकर शेष द्रव्य और भाव लेश्या जघन्योत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्तमानयुक्त है। यहाँ शुक्ल लेश्याकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट नौ वर्ष न्यून पूर्वक्रोड सालकी है / 1. कृष्ण लेश्यावाले जीव वैर लेनेमें निर्दय, अतिक्रोधी, कठोर मनके, आत्मधर्मसे एकदम विमुख, महारंभी और क्रूर होते हैं। 2. नील लेश्याके स्वभाववाले जीव माया दभमें कुशल (प्रविण), चंचलस्वभाववाले, अति विषयी, असत्यवादी तथा रिश्वतखोर होते हैं / . 3. कापोती पाप जैसी चीजको न माननेवाला, मूर्ख और क्रोधी होता है। 4. तेजो लेश्यावान् सरल, दानेश्वरी, सदाचारी, धर्मबुद्धिवान् और अक्रोधी होता है। . 5. पद्मलेश्यावाला धर्मिष्ठ, दयावान् , स्थिर स्वभावी, गंभीर, सभीको दान देनेवाला, अतिकुशल बुद्धिवाला और मेधावी होता है। ". 6. जब कि शुक्ललेश्यावाला जीव अतिधर्मिष्ठ, पापरहित प्रवृत्ति करनेवाला और अत्यंत निर्मल मनवाला होता है। जामुनके दृष्टांत छः लेश्यावाले जीवोंकी आत्माकी कक्षा समझनेके लिए हमारे यहाँ जामुनके पेड़वाली घटना सुंदर रूपसे समझायी है। ( इससे हरेक लेश्या कैसे अभिप्राय अथवा स्वभावयुक्त होती है उसका खयाल आयेगा।) जो इस प्रकार है कि 596. सामान्यतः ऐसा नियम है कि जिस लेश्यामें जनम होनेवाला है उसी लेश्यामें ही पूर्व जन्ममें अवसान होता है / 'जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे (सो) उववज्जइ / ' , 597. इसलिए सातवें नारकी जीवोंको सम्यक्त्वप्राप्ति संभवित हो सकती है। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 296 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * कोई छः यात्री चलते-चलते जंगलमें जा पहुँचे / वे अधिक परिश्रम और थकानके कारण भूख और तृषासे दुःखी-दुःखी होने लगे। उन्होंने थोडी दूरी पर सुंदर जामुनके गुच्छोंसे भरा हुआ एक जामुनका पेड़ देखा। इसलिए ये छः यात्री वहाँ पहुँच गये और जामुन खानेकी इच्छासे उसे लेनेके लिए सोचने लगे। उनमें से एक यात्री बोला-"बोलिए भाई ! कच्चे पक्के हरेक प्रकारके जामुन के बहुत-से गुच्छ लटकते हैं। इसलिए जामुन तो बहुत-सारे हैं, लेकिन खानेवाले हम सिर्फ छः लोग ही है। क्या करेंगे ?" यह सुनकर छःमेंसे एक यात्री बोल उठा-"अरे! यार इसमें अधिक सोचना कैसा ? कुल्हाडी मारकर पेड़ को ही जल्दी नीचे गिरा दें, ताकि स्वेच्छानुसार. खा सकें ! " उसकी बात सुनकर नासमझका प्रमाण अधिक होने पर भी पूर्वकी अपेक्षासे जो कुछ अधिक समझदार था उसने कहा-" भाईओं ! ऐसा किस लिए ? थोडे-से जामुन खानेकी खातिर सारे पेडका मूलसे ही नाश क्यों ? नहीं ! नहीं !! इसके बदले फलोंसे लदी हुयी बडी-बडी डालोंको ही क्यों न तोड़ दें ! बादमें जितना चाहे जामुन खा सकेंगे !" तब तीसरा मुसाफिर बोला-" अरे भाईओं ! ऐसा क्यों ? फलोंके गुच्छोवाली छोटी-छोटी टहनियाँ ही बहुत-सी हैं, इसलिए बडी-बडी डालोंका विनाश नहीं करना चाहिए ! और बडी-बडी डाल फिर कब उगेगी ? इसलिए हम छोटी-छोटी टहनियोंको ही तोड दें।" तब उनमेंसे चौथा बोल उठता है-"अरे ! भाई ! आपके सभी विचारोंमें जल्दबाजी है। हम टहनियाँ भी तोडे तो आखिर क्यों ? हमें जरूरत है जामुनकी, डालियोंकी नहीं; इसलिए डालियोंमें जो गुच्छ है उन्हें ही तोड दे / " तब उससे भी अधिक जो बुद्धिशाली था उसने कहा-" भाईओं ! ऐसा क्यों करते हैं ? गुच्छोंको तोड़नेके बदले हममेंसे एक पेड पर चढकर फलोंको ही तोड़कर ले आये उसमें बुरा ( गलत ) क्या है ? हमें खाना है जामुन, गुच्छे नहीं।" इस प्रकार वे सभी एकमत हुए इतनेमें अंतिम छट्ठवाँ यात्री जो मौन धारण करके खडा था, जिसे पहले पाँचों यात्रियों के विचार नापसंद थे। वह अति चतुर बुद्धिशाली था। उसने कहा-“देखिए भाईओं ! मेरा अभिप्राय ( मत ) आपसे भिन्न है। यह आपको पसंद हो या न हो, मैं नहीं कह सकता। लेकिन जिसे मानव हृदय मिला है, उसे मानवताकी दृष्टिसे थोडा-सा सोचना चाहिए और कोई भी कार्यमें अपनी विवेक बुद्धिका उपयोग करना चाहिए ! आप सबको भूख लगी है यह बात सच है, लेकिन उसको तृप्त करनेके लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। हमारी आर्य संस्कृति और मानवता ऐसा कार्य करनेसे Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समुद्घात कषायद्वारका विवेचन. .297 . इन्कार करती है। इस लिए दूसरोंकी हिंसा करके, कष्ट अथवा दुःख देकर पेट भरना नहीं चाहिए / और एक प्रकारसे बोलूं तो सजीव ऐसे पेड़का स्पर्श भी करनेकी आपको जरूरत ही नहीं है। क्योंकि जरा (तनिक-थोड़ा) धरती पर तो देखिये ! खाने लायक सैंकडो सुंदर जामुन कैसे बिखरे पडे है। उन्हें खाकर हम अपनी भूख मिटा सकेंगे ! बिना वजह सजीव ऐसे पेडका छेदन-भेदन करके जीवहिंसा करनेका पाप क्यो मोल लेना चाहिए ? इसके अतिरिक्त शास्त्रमें छः चोरोंका दूसरा द्रष्टांत भी आता है। . ८-इंदिय [इन्द्रिय ] इस द्वारका वर्णन 340 वी गाथाके विवेचनके प्रसंग पर सविस्तार कहा गया है। इस लिए अब यहाँ पुनरुक्तिकी जरूरत नहीं है। - 9-10 - दुसमुग्धाय [ द्वि-समुद्धात] नौवाँ और दसवाँ ये दोनों द्वार समुद्घातके ही है / नौवाँ द्वार जीव समुद्घात का और दसवाँ अजीव समुद्घातका है। इसमें सबसे पहले जीव समुद्घातकी व्याख्या करते है। समुद्घात शब्दका अर्थ ऐसा है कि सम् अर्थात् एक साथ और घात अर्थात् नाश / इस प्रकार अर्थ बना कि-आत्मा जिस क्रियाके द्वारा एक साथ बहुतसे कर्मोंका क्षय करती है, उस क्रियाको समुद्घात कहा जाता है। .. यह बात कुछ ऐसी है कि जब बँधे हुए कर्म उदित होते है तब जीव उन्हें क्रमशः भुगतता है ही। लेकिन क्रमशः भुगतनेका यह कार्य अपनी कालमर्यादा पूर्ण होने तक पूरा हो जाता है, लेकिन कभी-कभी ऐसी परिस्थितियोंका निर्माण होता है कि भुगतनेका 'कर्म जो अवशेष (बाकी) हो उनमें कुछेक कोकी नियत कालमर्यादाकी अपेक्षाको तोड़कर कुछेक कर्माको अल्प समयमें ही भुगत लेना पड़ता है। और उस स्थितिका निर्माण करनेके लिए जीव आगामी कुछ कर्मोंकी उदीरणाकरण द्वारा उदीरणा करता है अर्थात् आगामी काल पर अथवा अधिक कालमें भुगतने योग्य कर्मोंको उदयावलिका अर्थात् वर्तमान समयमें उदयप्राप्त भुगतता कर्मों के साथ प्रबल आत्म-प्रयत्नसे शीघ्र भुगतकर आत्मप्रदेशसे अलग कर देता है। ऐसा महाप्रयत्न स्वाभाविक रूपसे अथवा आत्म प्रयत्न द्वारा सात प्रसंग पर होता है। और इस प्रकार समुद्घातके सात प्रकार बनते हैं। 1. वेदना, 2. कषाय, 3. मरण, 4. वैक्रिय, 5. तेजस, 6. आहारक और 7. केवली / वृ. सं.-३८ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .298. . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * जीव समुद्घात 1. वेदना समुद्घात-तीसरे वेदनीय नामक कर्ममें अशाता वेदनीय कर्मसे (अर्थात् दुःख-अशांतिसे ) पीड़ित आत्मा, कभी कमी अति आकुल-व्याकुल बनती है, तब अनंतानंत स्कंधोंसे परिवृत्त (आवृत्त) अपने अपने आत्मप्रदेशोंको शरीरके बाहर निकालकर उन्हीं प्रदेशोंसे शरीरके मुख, जठरा, कर्णादिकके छिद्रोंको तथा कंधेके भागोंको ( कंधेसे मस्तक तक ) कैद करके स्वशरीर जितने क्षेत्रमें सघन रीतसे व्याप्त होकर ( समचोरस जैसा ) अन्तर्मुहूर्त तक उसी स्थितिमें टिका रहे, और उसी समय दरमियान उदीरणाकरण द्वारा दीर्घकाल तक भुगतने योग्य कुछेक कर्म पुद्गलोंको उदित करके नाश करता है, उस हरेक कर्मक्षयके साथ साथ नये कौका ग्रहण होता हैं और जीवके प्रति नहीं भी होता / 2. कषाय समुद्घात-कषायसे राग या द्वेषकी अति तीव्रतासे आकुल बनी हुई आत्मा वेदना समुद्घातके समय उसी प्रक्रिया स्वरूप दीर्घकाल तक भुगतने योग्य कुछेक कषाय मोहनीय कर्मोको चालू उदयके साथ ही भुगतकर नष्ट कर देते हैं। यहाँ भविष्यके कर्मोंको वे वर्तमानमें ज्यों ज्यों भुगतते हैं, त्यों त्यों उस प्रकारके नये नये कर्मीको ग्रहण भी करते हैं। और अगर ग्रहण नहीं करते हैं तो. जीवका मोक्ष ही हो जायेगा। इस कषाय समुद्घा तमें चार प्रकारका समुद्घात होता है-क्रोध, मान, माया और लोभका। 3. मरण समुद्घात-यह समुद्घात आयुष्यकर्मी है। इस लिये वह अवसानके पूर्व ऐकें अंतर्मुहूर्त शेष रहता है तब ही होता है। मरणान्तसे व्याकुल बनी हुई आत्मा मरणान्तके पूर्व एक अंतर्मुहूर्तायुष्य शेष रहता है तब अपने ही आत्मप्रदेशोंसे स्व. शरीरके छिद्रवाले-रिक्त भागोंको भरकर, स्वशरीरकी चौड़ाई जितने स्थूल और लम्बाईमें जघन्यसे अंगुलासंख्य भाग और उत्कृष्टसे एक ही दिशामें समश्रेणीमें उत्पत्ति स्थान तक, आत्मप्रदेशों द्वारा असंख्य योजन प्रमाण व्याप्त हो जाय और आयुष्यकर्ममें भी अनेक पुद्गलोंका शीघ्र नाश (क्षय) करता है, उसे मरण समुद्घात कहा जाता है / ( यहाँ नये पुद्गलोंका ग्रहण होता नहीं है / ) * जिस प्रकार खंधक अणगारादि लोगोंके लिए / 598. हरेक जीव मरण समुद्घात करके ही मृत बनता है ऐसा नहीं है। क्योंकि मरण तथा मरण समुद्घात ये दोनों भिन्न भिन्न चीज है। साथ ही मरण समुद्घात भगवतीजीके अभिप्राय से एक भवमें दो बार हो सकता है। लेकिन मरण तो दूसरे समुद्घातमें अवसान के पूर्व एक अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब ही होता है। Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समुद्घात कषायद्वारका विवेचन . * 299 . 4. वैक्रिय समुद्घात-वैक्रिय लब्धिवान् जीव कर्म युक्त ऐसे अपने आत्मप्रदेशोंको शरीरके बाहर निकालकर उन्हें लम्बाई-चौड़ाईमें स्वशरीर तुल्य, तथा लम्बाईमें संख्याता योजन दीर्घ लम्बाकर दंड आकार स्वरूप फैलाकर पूर्वोपार्जित वैक्रिय नामकर्मके अनेक प्रदेशोंको उदीरणा द्वारा उदयमान् कराके विनाशके साथ, रचना करनेके लिए निश्चित नये उत्तर वैक्रिय शरीर योग्य पुद्गल स्कन्धोंको ग्रहण करके वैक्रिय शरीर जो बनाता है वह वैक्रिय समुद्घात है / नया वैक्रिय शरीर बनाना हो तब जीवको ऐसा प्रयत्न करना पड़ता है। इसकी सहायतासे ही शरीर बनता है अथवा तैयार होता है। 5. तैजस समुद्घात- तेजोलेश्याकी लब्धियुक्त जीव स्वशरीरके आत्मप्रदेशोंको प्रबल प्रयत्नोंसे शरीरके बाहर निकालकर, उन्हें उत्कृष्टसे संख्यात योजन दीर्घ तथा स्वदेह प्रमाण लम्बा-चौडा दंडाकार रचकर, पूर्वोपार्जित तैजस नामकर्म के प्रदेशोंको प्रबल उदीरणाकरणसे उदित करके क्षय ( नाश ) करनेके हेतुसे, नये तैजस पुद्गलोंको ग्रहण करके तेजोलेश्या अथवा शीतलेश्या छोड़ते हैं। किसीके ऊपर तेजो अथवा शीतलेश्या छोड़नी हो तब आत्माको उक्त प्रक्रिया करनी पड़ती है। / 6. आहारक समुद्घात-आहारक लब्धिधारी चौदह पूर्वधर मुनि महात्मा अथवा जिनेश्वरदेवकी समवसरणकी ऋद्धि आदि देखनेके लिए अथवा कोई प्रश्नके समाधानके लिए अपने आत्मप्रदेशोंको अपने शरीरके बाहर निकालकर, उनका उत्कृष्टसे संख्यात योजन दीर्घ तथा स्वदेह प्रमाण युक्त मोटा-सा दंडाकार रचकर, पूर्वोपार्जित आहारक नामकर्मके पुद्गलोंको प्रबल उदीरणा द्वारा शीघ्र उदयमें लाकर, निर्जरा करनेके हेतु नये आहारक शरीर योग्य पुद्गल ग्रहण करके आहारक शरीर बनाते हैं। 7. केवली समुद्घात-जिन्हें केवलज्ञान ( त्रिकालज्ञान ) प्राप्त हुआ है, वे ही इस समुद्घात करनेके अधिकारी है / यहाँ केवलज्ञानीने आठ कर्मों मेंसे चार घाती कर्मों को दूर किये हैं जरूर, लेकिन वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य ये चार अघाती कमौका उदय रहता है / इनमें आयुष्य कर्मकी स्थितिके अलावा शेष तीन कर्मोकी स्थिति अगर अधिक रहती हो तो ऐसा बनेगा कि आयुष्य तो पूर्ण हो जायेगा लेकिन कर्मका भोग रह जायेगा। अगर कर्मको भुगतना रह भी गया तो केवली भगवंत अशरीरी. बनकर मोक्षमें जा नहीं सकते और फिर केवलज्ञानीको तो दूसरा जन्म धारण करना Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 300 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पड़ता ही नहीं है, अगर होता तो वे अपने जन्मान्तरमें कर्मका भोग जरूर कर सकते। लेकिन अब भवभ्रमणका तो अंत ही हो जाता है / इन सब कारणोंसे चारोंकी स्थिति इस प्रकार एक समान हो जानी चाहिए कि आयुष्यकी पूर्णाहुतिके साथ-साथ शेष तीन कर्म भी सर्वथा निर्जरी सके अथवा क्षय हो सके। और ऐसी स्थितिका सर्जन समुद्घात जैसे आत्मप्रयत्नोंसे ही संभवित हो सकेगा। यह क्रिया आठ समयकी होती है / केवली भगवान तीन कर्मोकी दीर्घ विषम स्थितिका क्षय करके, उन्हें सुव्यवस्थित बनानेके लिए अपने आत्मप्रदेशोंको अपने शरीरके बाहर निकालकर पहला समयमें ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशाके अन्त तक अर्थात् चौदेहराजलोक प्रमाण लम्बा और. अपने शरीरके प्रमाण जितना लम्बा-चौड़ा आत्मप्रदेश दंडाकारमें रचते हैं। द्वितीय ( दूसरा ) समयमें पूर्वसे पश्चिम लोकान्त तक वे अपने आत्मप्रदेशोंको विस्तृत करते हैं जिससे आत्मप्रदेशोंका आकार आलमारी जैसा बन जाता हैं। तीसरे समयमें वे अपने आत्मप्रदेशोंको उत्तर-दक्षिण लोकके छोर तक बड़ा कर देते हैं जिसके कारण ये आत्मप्रदेश मथानी जैसा आकार धारण करते हैं। - इस प्रकार आत्मप्रदेश व्याप्त हो जानेके बाद चौथा समयमें मन्थान-मथानीके बीच जो अंतर है अर्थात् अमी भी आत्मप्रदेश रहित लोकाकाश रहा है उस रिक्त जगहकी पूर्ति स्वात्मप्रदेशोंसे करते हैं / इतना करनेसे केवलज्ञानी भगवंतके असंख्य आत्मप्रदेश लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर चार ही समयमें व्याप्त हो जानेसे उनकी आत्मा लोकव्यापी बन जाती है / क्योंकि एक आत्माके तथा लोकके प्रदेश समान हैं / तदनन्तर पाँचसे आठ तकके चार समोंमें आत्मप्रदेशोंका लोकव्यापी जो विस्तार हुआ है उसे पुनः समेट लेते हैं अर्थात् पाँचवे समयमें वे रिक्त जगहमें व्याप्त आत्मप्रदेशोंको पुनः वापस खींच लेते है, छठे समयमें मथानीके (उ.द.) दो पांखों (पक्षों) को, सातवें समयमें पूर्व - पश्चिममें रचित आलमारी आकारके प्रदेशोंको तथा आठवें समयमें ऊर्ध्वाधो ( ऊपर - नीचे )रचित दंडाकार प्रदेशोंको संहर ( सिमट ) कर अपनी आत्माको पुनः पूर्ण रूपसे मूल देह जैसा बना देते हैं। 599. आँखको बन्द करके खोल दें इतनेमें असंख्य समय लगता है / 600. 'एक ही समय ' अर्थात् सेकण्डका असंख्यातवाँ भाग, इतने ही कालमें सैकडो ऐसे अरबों मील गति कर सकते हैं। चैतन्य रूपकी यह विलक्षण (अद्भुत) और विराट ताकत कहाँ ? और उसके आगे वामन अर्थात् छोटी ( सीमाबद्ध ) लगती आजके उपग्रहों अथवा रॉकेटकी ताकत कहाँ ? Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समुद्घात तथा अजीव समुद्घातका विवेचन * *301 . यहाँ इस क्रियाकी सहायतासे उदीरणाकरण करना असंभवित होनेसे 'अपवर्तना' नामक करण द्वारा पूर्वोक्त तीन कर्मोकी दीर्घस्थितिका विनाश करके अपने योग्य स्थितिवाले बनते हैं। जिस प्रकार कोई गीला (भीगा) कपड़ा यों ही पड़ा. रहता है तो उसके पानीको सूखनेमें कई घण्टे बीत जाते हैं, लेकिन यदि उस गीले कपडेको ठीक तरहसे चौड़ा करके रखें तो उसमेंसे पानी जल्दी सूख जायेगा। ठीक इस प्रकार ही केवली समुद्घातमें मी आत्मप्रदेशोंको सारे लोकमें विस्तृत कर देनेसे दीर्घकर्मीका जल्दीसे क्षय हो सकता है। सातोंका प्रकीर्णक अधिकार - केवली समुद्घात आठ समयका और शेष छः अन्तर्मुहूर्तकालमानके होते हैं / इनमेंसे 1, 3 और 7 ये तीनोंमें पूर्वकर्मका विनाश और नये कर्मग्रहणका अभाव मिलता है जरूर, लेकिन शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण होता है। जब कि दूसरेमें नये कर्म पुद्गलोंका ग्रहण अधिक और पुरानेका क्षय (नाश) अल्प मात्रामें और 4, 5, 6 में पूर्वोपार्जितका विनाश तथा नया कर्मग्रहण होता है। 1, 2, 3 समुद्घात अनाभोगिक है इस लिए वह ऐच्छिक स्वरूप बनता नहीं है लेकिन अतिवेदनासे आत्मामें एकाएक आवेग आ जाता है और स्वाभाविक हो जाता है। और बाकीके चार आभोगिक है इस लिए सोच-विचारकर बुद्धिपूर्वक जान-बुझकर ग्रहण किया जाता है / अनेक जन्माश्रयी जीव इनमें से आहारक और केवली ( अथवा जिन ) ये दो समुद्घातोंको 'छोडकर शेष पाँचोंका उपयोग अनंत बार करते हैं। इसके बाद आहारक अधिकसे अधिक चार और केवली समुद्घात भवचक्रमें एक ही बार होता है। ., शुरुके तीन समुद्घात हरेक वेदनाकषाय अथवा अवसानके प्रसंग पर होते ही है ऐसा- नियम नहीं है। इस लिए हरेक जीवोंके लिए वे अनिवार्य बनते हैं ऐसा नहीं है। ___अचित्तमहास्कन्धरूप-अजीवसमुद्घातः अब हम यहाँ ‘अजीव समुद्घातः ' की परिभाषा इस प्रकार करते हैं कि-अनंत परमाणुओंसे बना हुआ अनंत प्रदेशी कोई स्कंध तथाप्रकारके विस्रसा (क्षीणता-अशक्तता) फलस्वरूप (अथवा स्वाभाविक रूपसे) केवली समुद्घातमें दंडाकार तथा आलमारी आकारमें जिस प्रकारसे बताया गया है उस प्रकारसे ही चार समयमें संपूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त होकर फिरसे बाकीके चार समयमें उन सभी अवस्थाओंको समेटकर मूल अवस्थाचान् अथवा अंगुलके असंख्यात भागरूप बन जाता है, उसे 'अजीव समुद्घात' कहा Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 302. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जाता है / संपूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त (विस्तृत) होनेकी योग्यतावाले अथवा व्याप्त बने हुए पुद्गलस्कन्ध अनंत है, जिन सबको अचित्त महास्कंधसे पहचाना जाता है / यहाँ यह प्रयत्न जीवद्रव्यका नहीं लेकिन अजीवद्रव्यका है। 11 - दिहि- [द्रष्टि] विश्वमें पदार्थ दो जातिके हैं-जड और चेतन / ये पदार्थ अथवा उनके स्वरूपके प्रति सबकी समान श्रद्धा हो अथवा बन सके ऐसा बनता नहीं है। अगर किसीको कोई पदार्थके प्रति सत्-सच्ची श्रद्धा हो तो कोई दूसरेको उसी पदार्थके प्रति असत् कोटिका भाव भी पैदा हो सकता है। तो कुछेक ऐसे भी जीव हो सकते हैं कि जिसमें उस पदार्थके प्रति न तो सत्का भाव मिलेगा और न तो असत् का, लेकिन सत्-असत् अर्थात् सदसत् द्रष्टिका मिश्रण मिलेगा। यद्यपि जीवोंकी समझके प्रकार यों तो हजार हैं, लेकिन उन सबको तीन वर्गोंमें समाविष्ट किया है। ___आखिर ऐसा बनता है क्यों ? तो जीवोंकी ज्ञान शक्ति अथवा समझ शक्तिकी विभिन्न कक्षाओंके कारण ऐसा बनता है। इन विभिन्न कक्षाओंके सृजनमें निमित्त कौन ? तो इसका उत्तर है-हमारे अनेक शुभाशुभ कर्म / - उपर्युक्त तीन कक्षा भेदको शास्त्रीय शब्द देकर विशेष प्रकारसे समझाते हैं। सबसे पहले यहाँ 'द्रष्टि ' शब्द एक प्रकारकी मान्यताके अर्थमें समझना है / जीवको अनादिकालसे मिथ्याद्रष्टि प्राप्त हुई है इसलिए मिथ्या, सम्यग् और मिश्र इस क्रमसे विवेचन अब करते हैं। 1. मिथ्यादृष्टि - कोई पदार्थ जिस स्वरूपमें होता है उसका उसी स्वरूपमें ही . स्वीकार करना चाहिये वो सत्य समझ है, लेकिन मिथ्या दृष्टिका उदय होता है तब कोई शराबी जिस प्रकार अपनी माताको पत्नी अथवा पत्नीको माता समझ बैठता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टिवाला धर्मको अधर्म, अधर्मको धर्म, सत्को असत् , असत्को सत्, हेयको उपादेय और उपादेयको हेय स्वरूप स्वीकारता है। यह दृष्टि आत्माको आत्माका ज्ञान होने देती नहीं है और परस्पर विमुख रखती है। ऐसी दृष्टि अनादिकालसे हरेक जीवमें रहती है जो जीवकी विवेकदृष्टिका विनाश तथा आत्माका नितान्त अहित भी करती है। यह दृष्टि मिथ्यात्व मोहनीय नामके एक प्रकारके कर्मोदयसे प्राप्त होती है। परंतु सत् प्रयत्नों अथवा साधनोंसे उसका अंत लाकर Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '* दृष्टिद्वारका विवेचन * * 303. सत् दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन सभी जीव ऐसा अंत ला सकते हैं ऐसा बनता नहीं है, अगर ऐसा बनता तो सारा संसार अनोखा ( अद्भुत, सुंदर) बन जाएँ। 2. सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दृष्टि अर्थात् पदार्थके प्रति सच्ची श्रद्धा / सत्को सत् स्वरूप और असत्को असत् स्वरूप ही जो मानते हैं वह / यह दृष्टि धर्मको धर्म, अधर्मको अधर्म, हेयको हेय और उपादेयको उपादेय ही मानती है। इतना ही नहीं, इसके अतिरिक्त यह दृष्टि आत्माको आत्मसम्मुख करती है जिसके कारण यह सत्यसे परिपूत (पूर्ण रूपसे शुद्ध, अति पवित्र) दृष्टि है। ___अनादिकालसे रागद्वेषकी तीव्र चिकनाहटसे मिथ्यादृष्टि - चतुर आत्मा किसी समय कोई विशिष्ट प्रकारके आध्यात्मिक प्रयत्नसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्मोंको अमुक समयके लिए उपशान्त करती है तब उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है, इस लिए मिथ्यात्वका उपशम जहाँ तक प्रवर्तित होता है वहाँ तक उसकी विवेकदृष्टि टिकी रहती है, लेकिन आत्मा जब फिर से निर्बल बन जाती है तब मिथ्यादृष्टि पुनः उदयमान होती है। इस प्रकार उन मिथ्यात्व मोहनीय कोमें अमुकका क्षय और अनुदित कर्मका उपशम जब प्रवर्तित रहता है तब वैसी आत्माको क्षयोपशम दृष्टिवाली आत्मा कही जाती है और जब भिथ्यात्व मोहनीय कर्मका सत्तामेंसे सर्वथा क्षय होता है, उसके क्षयसे कारण उत्पन्न दृष्टिको क्षायिक दृष्टि कही जाती है। . यहाँ उपर्युक्त तीनों दृष्टियाँ अपने-अपने उदयकालपर सम्यग् (सम्यग् दृष्टि) होती है। इनमें उपशम क्षयोपशम दृष्टि ऐसी है कि जो आनेके बाद वापस चली मी जाती है, लेकिन. क्षायिक एक ऐसी दृष्टि है कि जो एकबार मिल जाने पर अनंतकाल तक टिकती है। क्योंकि मोहनीयकर्मकी मलिनताका सर्वथा विनाश हुआ है, जिससे उन जीवोंमें सत् पदार्थके प्रति श्रद्धामें अंश मात्र निर्बलता (अश्रद्धा) नहीं होती। 3. मिश्रदृष्टि-शुद्ध और अशुद्ध प्रकारके मिथ्यात्वमोहनीय ( अर्थात् मिश्रमोहनीय) कोके उदयवाले जीव मिश्रदृष्टिवाले होते हैं / अर्थात् वे सम्यगधर्म और मिथ्या धर्म दोनों तरफ आकर्षित होते हैं। यह मिश्रदृष्टि उसके मनमें यह धर्म भी अच्छा है और अन्य धर्म भी अच्छा है ऐसा मिश्रभाव पैदा करवाती है / फलस्वरूप सर्वज्ञोक्त तत्त्वमें राग मी नहीं करवाती है और द्वेष भी नहीं / - ये तीनों दृष्टियाँ दर्शनमोहनीयके घरकी ही है। इस कर्मके मलीन और तीव्र रसवाले दलिये उदयमें होते है तब इन्हीं दलियोंमेंसे मिथ्यादृष्टि ( जीवके कुछ उत्तम Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .304. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * फल स्वरूप होनेसे ) कुछ दलिक एक प्रकारसे शुद्ध बन जाते हैं, और उसका उदय होता है इसे मिश्रदृष्टि कहते हैं, और जब इतने दलिये अतिशुद्ध बन जाते हैं तथा उनका उदय होता है तब सम्यग्दृष्टि कहा जाता हैं। इस संसारमें मिश्रदृष्टिवाले जीव बहुत ही कम, सम्यग्दृष्टिवाले जीव इससे अनंतगुने तथा इससे भी अनंतगुने जीव मिथ्यादृष्टिवाले हैं। इन दृष्टियोंका अभ्यास करके अथवा उनको समझकर मिथ्या तथा मिश्रदृष्टिका त्याग करना चाहिए और सम्यग्दृष्टिको प्राप्त करनी चाहिए ! बिना सम्यग्दृष्टि. ज्ञानक्रिया अथवा चारित्रयका कोई मूल्य नहीं है / मोक्षका मूलबीज मी यही है। सच्ची दृष्टि अथवा सच्ची श्रद्धा-यह जीवनकी मूलभूत जरूरत है, जिस बातका स्वीकार हरे / कोई करेगा ही। इस विषयमें बहुत कुछ जानने योग्य है, जिसे ग्रन्थान्तरसे देखना चाहिए। शंका-सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि ये दोनों एक ही चीज है कि अलग-अलग ? समाधान-यों तो एक प्रकारसे दोनों चीज लगभग एक सी है फिर भी दोनों के बीच बहुत अल्प भेद भी रहता है। क्योंकि दोनोंकी कक्षा तथा कारणोंमें भेद है / इनमें छद्मस्थ ही सम्यगदर्शनी और केवली सम्यगदृष्टि ही होते हैं / क्योंकि मोहनीय कर्मके दलिये जिनके उदयमान होते हैं और अपाय स्वरूप मतिज्ञान ,जिनमें होता है उनको ही सम्यगदर्शन संभवित बनता है / लेकिन इन दोनोंका जिसने सर्वथा विनाश किया है ऐसे केवलीको सम्यग्दृष्टि ही संभवित बनती है / इस प्रकार दर्शनके बजाय दृष्टि अनेकगुना महान् है / सिर्फ इतना ही नहीं, सम्यगदर्शन और सम्यग्दृष्टिके काल तथा क्षेत्रके बीच भी बहुत-सा अंतर ( भेद, फरक ) है / 'दर्शन' में तो पौद्गलिक असर मौजूद (उपस्थित) होती है, जब कि 'दृष्टि में उसका सर्वथा अभाव है और जो स्पष्ट आत्मिकगुण स्वरूप उदयमान होता है। १२-दंसण (दर्शन) इस शब्दके सम्यक्त्व, श्रद्धान, चारित्र, अभिप्राय, उपदेश, सामान्य बोधग्रहण, निराकार बोध इत्यादि अनेक अर्थ, शास्त्र और उनके अंगोपांगोंमें बताये हैं। लेकिन यहाँ तो 'दर्शन' शब्द सिर्फ सामान्य अथवा निराकार बोधके अर्थमें समझना है / 601. जेन शास्त्रीने तो 'सम्यग्दर्शन' नामके चैतन्य (आत्मिक) गुण की भूरिभूरि प्रशंसा की है तथा उसको अत्यधिक महत्त्व भी दिया है / मनुस्मृति जसे जैनेतर (अजैन ) ग्रन्थकारने भी जैन मान्यताको ही प्रतिध्वनित करते जो कहा है-सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न बध्यते / दर्शनेन विहीनस्तु संसारः प्रतिपद्यते // (मनु. अ. 6) वह अपेक्षासे ठीक ही है / Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 305 . * दर्शन द्वारका विवेचन * हरेक चीज मात्र सामान्य और विशेष इन दोनों प्रकारके गुणधर्मयुक्त होती है / यद्यपि वस्तुके बोधमें आपको खयाल आये या न आये फिर भी दोनों प्रक्रियाका उपयोग (समयान्तर) होता ही है। ___सामान्य धर्म-सामान्य धर्मके पर्यायवाची शब्दोंमें सामान्य रूप, सामान्य बोध, निराकार दर्शन, निर्विकल्प दर्शन, सामान्यार्थ ग्रहण इत्यादि हैं / और विशेष धर्मकेविशेष स्वरूप, विशिष्ट बोध, साकारदर्शन, सविकल्पदर्शन, विशेषार्थग्रहण इत्यादि पर्यायवाची शब्द हैं / जो कि वास्तविक रूपमें गहराईसे सोचे तो 'दर्शन' यह भी एक प्रकारका ज्ञान ही है। इस ज्ञानको हम दो विभागोंमें बाँट सकते हैं। एक तो साकारोपयोग रूप ज्ञान और दूसरा निराकारोपयोग रूप ज्ञान। यह दूसरा ज्ञान ही 'दर्शन' कहलाता है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह भी है 'यह घट है' इतना सामान्यज्ञान तत्त्वसे तो साकार स्वरूप होनेसे ज्ञान है ही लेकिन आगे मिलनेवाले विशेष ज्ञानोंकी अपेक्षासे सामान्य स्वरूपयुक्त होनेसे ज्ञानमें दर्शनका उपचार किया है। यह दर्शन उस ज्ञानगुण रूप होनेके विविध प्रकारका बोध इत्यादि करानेके लिए इसको अलग किया गया है / - मिसालके तौर पर देखें तो- घटको ( कुंभको ) देखने पर 'यह घट है' ( लेकिन पट-वस्त्र, परदा, नहीं है) इतना ही जो बोध होता है उसे 'दर्शन' कहा जाता है। यह पहली ही नजरसे होता वोध है। तदनन्तर घट (कुंभ)के विषयमें जो आगे चिंतन किया जाता है तो वह चिंतन विशेष ( विशेषण ) रूपसे विविध पर्यायोंके स्वरूपमें प्राप्त होनेसे वह ज्ञानकी कक्षामें आता है। वह किस प्रकार आता है ? तो उस घटको देखनेके बाद हमारे मनमें द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव स्वरूप विचार उठते हैं। इसका अर्थ यह है कि कुंभको देखनेके बाद हमारे मनमें ये विचार उठते हैं कि यह घट किस चीजमेंसे बनाया है ? द्रव्यसे - मिट्टीसे / अगर मिट्टीसे....तो मिट्टी भी किस प्रकारकी होगी ? और अगर घट धातुसे बनायी गयी हैं तो धातु मी किस प्रकारकी है ?....इत्यादि-इत्यादि 'द्रव्य' सम्बन्धी विचार उठते हैं। और 'क्षेत्र' से सोचें तो यह घट किस क्षेत्र (प्रदेश)का होगा ! यह घट पाटणका है, अहमदाबादी है या कश्मिरी ! यह 'क्षेत्र' (स्थल)के रूपमें सोचा गया / 'काल' को लेकर सोचें तो 602. इसमें व्यवहार और निश्चय नयकी विविध अपेक्षाएँ है जिन्हें ग्रन्थान्तरसे देख लें। 7. सं. 39 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 306 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * यह घट किस ऋतुमें उपयोगी हो सकता है ! अथवा किस ऋतुमें किस समय वना होगा ! यह काल सम्बन्धी विचार-चिंतन हुआ / और अब भावसे-आकारसे घट सम्बन्धी सोचें कि-घटका आकार कैसा है, रंग कैसा है, लम्बा है, छोटा है, गोल है कि लम्बगोल है ? इत्यादि चिंतन 'भाव' चिंतन हुआ / उपर्युक्त सभी (विशेषों) विशेषणोंको जानना ही वास्तवमें 'ज्ञान' कहलाता है। 'दर्शन'को स्पष्टार्थ समझानेके लिए ही यहाँ पर ज्ञानको समझाया है / ___अब इस दर्शनके भी चार भेद हैं। 1. चक्षु, 2. अचक्षु 3. अवधि, 4. केवल / 1. इनमें चक्षुदर्शन अर्थात् नेत्रवाले प्राणियोंको अपने चक्षु ( आँख) से पदार्थका जो निराकार अथवा सामान्यदर्शन होता है वह / 2. चक्षुके सिवाकी शेष चार इन्द्रियाँ और मन द्वारा वस्तुका जो सामान्य बोध होता है, वह है अचक्षुदर्शन / 3. इन्द्रियों तथा मनकी सहायताके बिना रुपी द्रव्योंका (चीजोंका) जो सामान्यदर्शन होता है, वह है अवधिदर्शन। 4. और तीनों कालके पदार्थीको सामान्य भावसे सर्व प्रकारोंसे देखना केवलदर्शन कहलाता है। यहाँ एक बात खास ध्यानमें रखें कि छद्मस्थोंको प्रथम दर्शनोत्पत्ति और बादमें ज्ञानोत्पत्ति होती है, लेकिन केवलज्ञान प्रकट होनेके साथ ही सबसे पहले समयमें ही ज्ञानापयोग प्रकट होता है और बादमें दर्शनोपयोग होता है / इस प्रकार वह अनंतकाल तक उसी क्रमसे ही टिके रहते हैं। इस लिए वहाँ केवल एक ही संख्या पर ज्ञान और दो की संख्या पर दर्शन समझ लेना चाहिए। 13. नाण-(ज्ञान) अनेक आगमों तथा उनके टीकादि अंगों और कर्मग्रन्थादिक तथाविध प्रकरणों में विभिन्न प्रकारोंसे 'ज्ञान' शब्दकी परिभाषाएँ तथा उसकी व्युत्पत्तियाँ दर्शायी है। लेकिन इन सबसे अगर सरल तथा शीघ्रग्राही परिभाषा पेश करनी हो तो यह है कि "जिससे पदार्थका ज्ञान अथवा बोध होता है उसका नाम है ज्ञान / 603. इसलिए ही भगवतीजी, नमुत्थुणं आदि में सव्वन्नूणं-सव्वदरिसीणं ऐसा क्रम देखा जाता है। 604. ज्ञायते परिच्छद्यते वस्त्वनेनेति / Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शान द्वारका विवेचन . हम अच्छी तरह जानते है कि अचेतन अथवा निर्जीव पदार्थ अपना या निर्जीव -सजीव वस्तुओंका बोध न तो करता है और न तो करवाता है / क्योंकि उसमें आत्माका अथवा चैतन्यका अस्तित्व है ही नहीं / और जहाँ चैतन्य-आत्मा नहीं है, वहाँ ज्ञान भी नहीं है। ज्ञान तो आत्माका अपना स्वाभाविक गुण है / यह गुण भी अविनाभावी है। इस गुणका न तो आदि भी है, और न तो अंत भी। अगर आत्माका आदि-अंत होता तो उसका भी आदि-अंत संभवित बनता ही, लेकिन उसका आद्यन्त ( आदि-अंत ) नहीं है / ज्ञान आत्माका सहभावी गुण होनेके कारण ही नैयायिकोंकी प्रसिद्ध यत्र-यत्र धूमः तत्र-तत्र वह्निः व्याप्ति पैदा हुई है। इस प्रकार जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्निका अस्तित्व है ही, इस न्यायसे जहाँ- जहाँ ज्ञान है, वहाँ-वहाँ आत्माका अस्तित्वं अवश्य होगा ही / लेकिन यहाँ एक बात विशेष रूपसे समझनी है कि-जहाँ-जहाँ अग्नि वहाँ-वहाँ 'धूम-धुआँ ' ऐसी व्याप्ति कभी होती नहीं है। लेकिन जहाँ-जहाँ आत्मा, वहाँ-वहाँ ज्ञान ऐसी व्याप्ति यहाँ पर जरूर होती है ही। इस प्रकार एकके बिना दूसरा कभी भी हो ही नहीं सकता है, ऐसा निश्चित हुआ। छोटे-से छोटा अति सूक्ष्म निगोदके जीवसे लेकर पृथ्वी-जल-वनस्पति तथा इससे भी बड़े से बड़े महाकाय हाथी तकके हरेक सजीव देहोंमें (शरीरोंमें) ज्ञानमात्रका अस्तित्व निश्चित हुआ है। लेकिन इसमें फ़र्क सिर्फ इतना है कि किसीमें इसकी मात्रा न्यून ( कम ) तो किसीमें अधिक होती है। इस प्रकार न्यूनाधिकके अनंत प्रकार बनते हैं। इन्हीं सब कारणोंसे जीवका लक्षण हुआ-चेतनालक्षणो जीवः। अतः सबसे अल्पशरीरी तथा एकदम अविकसित 'निगोद' नामसे . पहचाने जाते जीवमें भी एक अक्षरके अनंतवें भाग जितना ज्ञान होता तो है ही। उससे ही 'यह जीव है ' ऐसा विधान करके पहचाना जा सकता है। और अगर ऐसा निकृष्ट आत्यन्तिक कोटिका भी चैतन्य मी न मानें तो जीव और अजीवमें कोई भेद रहता ही नहीं है। प्रश्न-ज्ञान तो आत्माका अपना गुण है / फिर उसमें न्यूनाधिकरूप भेद किस लिए ! उत्तर-वास्तवमें ज्ञानका एक ही रूप है। उसमें कोई भेद ( अंतर ) नहीं है। लेकिन यह कब ! जब कि ज्ञान पूर्ण मात्रामें पैदा हुआ हो तव / लेकिन उसे अपूर्ण .. 605. एक के बिना दूसरा जो न हो सके वह / 606. इतनेसे अल्पज्ञानको भी कोई कर्मपुद्गल अपने वशमें नहीं कर सका है / जिस प्रकार क्लोरोफॉर्म अथवा उसकी सूई ( इन्जेक्शन ) से दर्दी (मरीज़) को बेहोश कर दिया जाता है तब उसमें कुछ भी होश नहीं होता / किसी जडकी तरह शून्यता दिख पडती है, फिर भी उसमें अव्यवत चैतन्य नहीं है ऐसा हम नहीं कह सकेंगे। उस प्रकार यहाँ भी समझना। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * रखनेमें कर्मसत्ता बीचमें आकर विविध भेद उत्पन्न करती है। सुवर्ण (सोना) और उसके पीले रंगकी तरह ज्ञान भी हरेक जीवमें अनादिकालसे आत्मामें व्याप्त होता है। इस प्रकार साथ ही साथ कर्म भी अनादिकालसे जुड़े हुए हैं। इनमेंसे एक कर्म (जो सूक्ष्म होते हुए भी द्रव्य पदार्थ रूप है ) जिसे शास्त्रीय परिभाषामें 'ज्ञानावरणीय ' ऐसा नाम दिया है, उसी कर्मके विविध और विचित्र प्रकारके उदयके कारण ही यह तारतम्य उत्पन्न होता है / प्रस्तुत कर्मका प्रगाढ उदय हो तो ज्ञानमात्रा अत्यन्त अल्प, कर्मका उदय अल्प हो तो ज्ञानप्रकाश अधिक और यदि कर्मका सर्वथा विलय ( नाश, लुप्त ) हो तो ज्ञानप्रकाश संपूर्णरूपसे प्रकाशमान होता है / ____ आत्मा नामक चैतन्य द्रव्य ही सब कुछ जाननेवाला ( अथवा देखनेवाला) द्रव्य है जो कि हरेकके तन-मनमें दूध घी की तरह व्याप्त रहता है। यह आत्मा असंख्यप्रदेशी है / इसकी ऊपर हलके ( वजन रहित ), भारी ( वजनदार), अल्प या अधिक कोकी पर्त ( तह, स्तर ) जमी हुई होती है। जिसके कारण आत्माका ज्ञानप्रकाश न्यूनाधिक रूपसे तिरोहित ( आच्छादित, ढका हुआ ) रहता है / पदार्थके बोधमें सरलता या विषमताकी विचित्र स्थितियाँ अथवा मूर्खता या विद्वत्ताके बीचकी कक्षाएँये सब कारण कर्मके ही आभारी है / प्रश्न-आत्मामें ज्ञानप्रकाश कितना होता है ? उत्तर-यों तो आत्मामें सत्ता स्वरूप ज्ञानप्रकाश अनंत है लेकिन वह ज्ञानावरणके विविध प्रकारके कर्मों द्वारा विविध रूपमें दबा हुआ है। कर्मके ये सब स्तर ( पर्त ) पूर्ण रूपसे उखड़ जाये अथवा आवरणके सभी परदे हमेशके लिये हट जाये तो ही दवा हुआ अथवा छुपा हुआ ज्ञानप्रकाश पूर्ण रूपसे आलोकित हो उठेगा और तब ही आत्माको लोकालोकके तीनों कालका सचराचर ( विश्व ) जड या चैतन्य पदार्थ अथवा उनकी कालिक अनंत अवस्थाएँ-इन सबका क्रमशः नहीं लेकिन एक ही साथ और एक ही समय पर ज्ञान हो जायेगा। और ऐसा ज्ञानप्रकाश एकबार आत्मामें प्रकट भी हो गया तो फिर उसमें न तो घट-बढ होता है और न तो कभी नष्ट होता है। यह उदय होनेके बाद तो अनंतकाल तक टिका रहता है / जैन परिभाषामें इसी प्रकाशको खास तौरपर 'केवलज्ञान', 'सर्वज्ञ' इत्यादि शब्दोंसे पहचाने जाते हैं। यह ज्ञान साक्षात् आत्मप्रत्यक्ष है / साथ ही इसी ज्ञानगुणको जैनशास्त्रोंने स्वमात्र अथवा. परमात्र प्रकाशक न कहकर उभय अर्थात् स्वपरप्रकाशक कहा है। इस लिए ही तार्किक भाषामें Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान द्वारका विवेचन * ज्ञानको ‘स्वर व्यवसायि' रूप पहचाना गया है। जो स्व और परको जाननेमें समर्थ है ऐसे ही ज्ञानको प्रमाणरूप ठहराया है। ऐसा ही ज्ञान प्रवृत्ति-निवृत्तिमें उपयोगी बनता है / प्रश्न-आज (वर्तमानमें) कोई अनंतज्ञानप्रकाशी अथवा केवली या सर्वज्ञ है कि नहीं ? उत्तर- नहीं, इसी भरतक्षेत्रमें आजसे करीवन् 2427 साल पहले भगवान महावीरदेवकी पट्ट-परंपरामें जंबूस्वामी नामके एक महामुनि हो गये / वे ही अंतिम केवली या सर्वज्ञ थे। इसके बाद इस कलियुगकी विषम ऐसी अशुभ परिस्थितियाँ बढ़ती ही गयी कि तथाप्रकारकी अति उच्च पवित्रता-निर्मलताकी प्राप्तिके अभावसे ज्ञानावरणीय कर्मका पूर्ण रूपसे क्षय ( नष्ट ) करनेकी योग्यता ही नहीं रही / प्रश्न-यह ज्ञानप्रकाश जब तक प्रकट नहीं होता है तब तक जीवोंमें कौन-सा ज्ञान होता है ! उत्तर-प्रत्येक आत्मामें केवलज्ञानका अनंत प्रकाश पहलेसे ही सत्ताके रूप में तिरोभूत होकर उपस्थित रहता ही है / और हमने पहले ही बता दिया है कि कर्मरूपी परदोंके कारण वह प्रकाश प्रच्छन्न रहता है / यह अनंतप्रकाश भले ही प्रकट न हो, लेकिन न्यून-तरतम प्रकाश हरेक जीवोंमें जरूर होता ही है / हरेक जीवको लेकर सोचें तो आत्मा पर मोटे-पतले अनेक प्रकारके आवरणके परदे गिरे पड़े मिलते हैं। यह परदा जितना बारीक (पतला), होता है तो प्रकाश उतना तीव्र ( अधिक ), और परदा ज्यों-ज्यों मोटा होता जाता है, त्यों-त्यों प्रकाश कम होता जाता है अर्थात् अंधकार बढता जाता है। इस प्रकार जीवमें ज्ञानकी क्षमताकी अनेक कक्षाएँ होती हैं / पुनः इन अनंत वर्गोंके दो प्रकार पड़ते हैं-(१) प्रत्यक्ष और (2) परोक्ष / फिरसे उन दो प्रकारके ज्ञानके असंख्य वर्ग बनते हैं / इनमें अवधि, मनःपर्यव और केवल-ये तीनों प्रत्यक्ष ज्ञानके प्रकार हैं / यद्यपि इतना विशेष रूपमें समझें कि यहाँ अवधि और मनःपर्यव आंशिक रूपमें प्रत्यक्ष भी है, जब कि केवल संपूर्णतः साक्षात् आत्मप्रत्यक्ष है / इस लिए ही इसी ज्ञानको प्रमाणरूप माना गया है। और मति तथा 607. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानम् / न्याया० स्वार्थव्यवसायात्मिकं ज्ञानम् / चिरं० * स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् / रत्न सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् / प्र० मी० टी० Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * श्रुत ये दोनों परोक्ष ज्ञान है / इन्द्रियोंकी सहायतासे प्राप्त ज्ञानको 'परोक्ष ' और इन्द्रियोंकी सहायताके बिना, आत्मामेंसे ही सीधे प्रकट होते ज्ञानको 'प्रत्यक्ष' शब्दसे पहचाना जाता है। तात्त्विक रूपसे पाँच ज्ञानके दो प्रकार बनते हैं-(१) छाद्मस्थिक और (2) क्षायिक / इनमें प्रारंभके चार ज्ञानको 'छाद्मस्थिक' और अंतिम केवल एकको 'क्षायिक' कहा जाता है / छाद्मस्थिक ज्ञानको कर्मशास्त्रकी भाषामें अगर कहा जाये तो वह 'क्षायोपशमिक' ज्ञान हैं और यह ज्ञान कर्मसे आच्छादित हैं। इसमें सिर्फ क्षायिक ज्ञान ही एक मात्र विना कर्मावरण होता है / और उत्तरोत्तर ये ज्ञान अधिकाधिक विकासप्रकाशवाले हैं। . मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल इन पाँचों ज्ञानमें से पाँचवाँ केवलज्ञान आजसे करीब 2427 सालोंसे ( जंबूस्वामी मोक्षमें जाते ही) विच्छेद हुआ है। अब इस कलियुगमें वह किसीको प्राप्त होगा ही नहीं। इतना ही नहीं, चौथा मनःपर्यव. भी करीवन् 2427 सोलोंसे लुप्त हुआ है। शेष तीन ज्ञानोंमेंसे अवधि भी अब तो प्रायः लुप्त-विच्छेद जैसा है, फिर भी उसका थोड़ा-थोड़ा प्रकाश जरूर विद्यमान है, जो कुछ ही व्यक्तियोंमें क्वचित ही देखा जाता है। आज कल बिना कोई दैविक शक्ति दूरके पदार्थका जिसे ज्ञान होता है, यह सब ऐसे ज्ञानबलसे ही संभवित होता है। मतिज्ञान-इन्द्रिय, अनिन्द्रिय अथवा दोनों संयुक्त रूप निमित्तोंसे उत्पन्न तथा योग्य प्रदेशमें आये हुए पदार्थादिकका अपनी शक्तिके अनुसार ( अर्थरहित ) बोध करानेवाला जो ज्ञान है उसे मतिज्ञान कहा जाता है। शास्त्रमें इसी ज्ञानको ‘आभिनियोधिक' शब्दसे दर्शाया गया है / मतिसे ही बुद्धि, स्मृति प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता, अनुमानका ग्रहण होता है। बुद्धिकी सहायतासे हम सब हिताहितका अथवा प्रवृत्ति-निवृत्तिका विचारादि जो कर सकते हैं उसमें मन और (कम-अधिक मात्रामें ) इन्द्रियाँ भी कारणभूत है ही / यह ज्ञान आत्माको सीधा प्राप्त होता नहीं है, लेकिन बीचमें इन्द्रियाँ और मन रूप दलाल ( माध्यम )की जरूरत रहती है / इस प्रकार ज्ञाता और ज्ञेय इन दोनोंके बीच संबंध 608. इसमें उस अपेक्षासे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भेद है जरूर, लेकिन वह इन्द्रियादि सापेक्ष है, आत्मप्रत्यक्ष नहीं है / 609. दैविक शक्तिसे या उपासना बलसे ज्ञात होता है लेकिन उपर्युक्त कारणसे नहीं होता / 610. इसका विग्रह सीधा होता नहीं है लेकिन मतिश्च सा शानं च इति मतिज्ञानम् / पाँचों नामोंमें इस प्रकार करें / Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शान द्वार-मतिक्षान * जोड़नेवाली इन्द्रियादि हैं जिनके द्वारा पदार्थका अवबोध शक्य बनता है। अतः जिसका मन और इन्द्रियाँ निर्बल होता है उसे तो अस्पष्ट और अधूरा ख्याल ही आयेगा। विषयके साथ मन और इन्द्रियोंका सम्बन्ध होते ही मतिज्ञान हो जाता है और यह बात निश्चित रूपमें समझ लेना कि जिसका जहाँ भी मतिज्ञान हुआ कि तुरंत ही उसका वाचक शब्द सामने आ जानेसे उस विषयका अथवा 'कुछ है ऐसा अक्षरानुसार वह श्रुतज्ञान भी उपस्थित हो ही जाता है / इस प्रकार मति और श्रुत ये दोनों अन्योन्य अर्थात् पारस्परिक संबंधवाले ज्ञान हैं। यहाँ शास्त्रका एक सुवर्ण वाक्य है कि-' जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं' अर्थात् जहाँ-जहाँ मतिज्ञान है वहाँ-वहाँ श्रुतज्ञान है और जहाँ-जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ-वहाँ मतिज्ञान है / यह वाक्य यहाँ पर कितना सुसंगत लगता है। क्योंकि जिस-जिस विषयका मतिज्ञान पूर्ण होता है, उस हरेकके वर्णात्मक शब्दोंकी उत्पत्ति हो ही जाती है। और यह शब्दज्ञान है वही श्रुतज्ञान है। साथ साथ उसी श्रुतमें फिरसे मति अपना कार्य अगर जारी ( शुरु ) रखती है, तो उसमेंसे फिरसे अनेक विकल्पयुक्त मतिज्ञान मिलता जाता है। इतना ही नहीं, उस हरेक विकल्प पूर्ण होते ही पुनः अनेक श्रुतज्ञान भी प्रकट होते जाते हैं / इसे स्पष्ट शब्दोंमें कहे तो मति वह श्रुतका कारण है और श्रुत यह कार्य है। चार अनंतानुबन्धी कषाय तथा दर्शन मोहनीयत्रिक मिलकर 'दर्शन सप्तक' कर्मका उपशम और क्षयोपशम होनेसे यह मतिज्ञान जीवमें अवग्रहादिकके प्रकाररूप अपायात्मकनिश्चयात्मक वोधरूपमें प्रकट होता है। - कोई भी पदार्थके मतिज्ञानमें, ज्ञाता स्वरूप उसकी आत्माको इन्द्रिय या मन द्वारा जब कोई विषय अथवा कोई एक पदार्थका निकट या दूरवर्ती संबंध होता है तब उत्तरोत्तर अवग्रह (रुकावट-बाधा), ईहा ( इच्छा-उद्यम ), अपाय ( नाश-हानि-खतरा -विपत्ति) और धारणा नामकी चार प्रक्रिया असाधारण गतिसे पसार हो जाती है तब विषय अथवा पदार्थका ज्ञान या बोध पैदा होता है। इन्हीं चार क्रियाओंके नाम हैंअवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा / इनमें अवग्रहके दो प्रकार हैं'-"'व्यंजनअवग्रह और अर्थअवग्रह / अब हम इन सबको संक्षिप्तमें समझ लें / 611-612. मन तथा चक्षु अप्राप्यकारी होनेसे उनका व्यंजनावग्रह होता ही नहीं है, अगर होता भी तो अग्निको देखते ही आँखें जल जाती। इस लिए इसका सीधा (सरल) अर्थावग्रह ही होता है। . Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 312 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * विषय अथवा पदार्थका इन्द्रिय अथवा मनके साथ संबंध होते ही आत्मामें अव्यक्त ज्ञानोपयोग शुरु हो आता है, लेकिन इससे उसे अति अव्यक्त-अस्पष्ट बोध ( जिस प्रकार बेहोश स्थितिमें पडे हुए मनुष्यको जैसा अनुभव होता है वैसा ) होता है। इसे १२व्यंजन' अवग्रह कहा जाता है। वहाँ विषय तथा इन्द्रियोंका संयोग पुष्ट होकर ज्ञानोपयोग आगे बढता है तब 'कुछ' है ऐसा ख्याल होता है, उसे अर्थ अवग्रह कहा जाता है। ___अब 'कुछ है' तो वह क्या है ? इसके विचार या तर्क-वितर्क जो हमारे मनमें उठते हैं उसे ईहा कहा जाता है। इस प्रक्रियाके बाद हमारा मन अब किसी एक निर्णयकी ओर बढ़ता है और अंतमें 'कुछ है' का कोई पक्का निश्चय कर लेता है। कि 'यह अमुक ही है, तब ऐसे निर्णयको 'अपाय' (निर्णय) कहा जाता है। और उसी निर्णयके बाद उस पदार्थको अपने मनमें याद रखना या धारण करना उसे धारणा कहा जाता है। ___इसी धारणाके संस्कारसे फिरसे अविच्युति, वासना तथा स्मृति-ये तीन भेद उपस्थित होते हैं / कोई कोई व्यक्तिमें पूर्व या उससे भी पूर्वके जन्मका जो ज्ञानजिसे शास्त्रीय शब्दोंमें जातिस्मरण ( जन्म स्मरण ) ज्ञानसे पहचाना जाता है वह जो उत्पन्न होता है, यह भी इस (धारणाभेद अनुसार बताये गये ) स्मृति-मतिज्ञानका ही प्रकार है। जिसमें बहुत साल पुराना स्मरणका संस्कार निमित्त (कारण) मिलते ही अथवा योग्य समय पर प्रकट हो जाता है और अपना पूर्वभव देखता है / यह ज्ञान हालमें अधिकतर चढती उम्रमें अधिक देखा जाता है / यह अनिन्द्रिय अर्थात् मनोनिमित्तक मतिज्ञान है। इस मतिज्ञानके अनेक प्रकार हैं। इन सभी प्रकारोंको वर्गीकृत करके इन्हें 28 6 12. देखिये फूटनोट 611, पेज नं. 311 / 613. मिट्टीसे बने किसी छोटेसे दियेमें ( कोडिएमें ) 99 बूंद सोख जाते हैं और १००वा बूंद जब गिरता है तब वह टिक जाता है और पात्र भीग जाता है। यहाँ 99 बुंदकी हम व्यंजनावग्रहके साथ तुलना कर सकते हैं और १००वें बूंदको अर्थावग्रहके स्थानपर समझ सकते हैं। यहाँ 99 बूंद १००वें बदके सहायक ही थे; जिसके कारण, 100 वाँ बूंद टिक सका था। यह परिभाषा तो स्थूल है, सूक्ष्म परिभाषा दूसरे प्रकारकी है / 614. 1. अवग्रह-Perception. (प्रंसेप्शनः प्रत्यक्ष ज्ञान, बोध, अवगम) 2. ईहा-Conception. ( कन्सेप्शनः अवधारण, संकल्पन ) 3. अपाय - Judgment. (जजमेन्टः निर्णय, न्याय, फैसला ) 4. धारणा - Retention. ( रिटेन्शनः अवधारण, स्मरण, अवरोधन) 615. अनिन्द्रिय यह मनका वाचक शब्द है / देहधारी आत्माकी प्रवृत्ति-निवृत्तिमें इन्द्रियाँ और मन ये दोनों चीज मुख्य हैं। मन इन्द्रिय नहीं है इस लिए उसे उक्त शब्दसे दर्शाया गया है। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .शानद्वार-मतिशान * 'वर्गमें .ही जो समाविष्ट कर दिया है वे इस प्रकार हैं-अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा। इन चार प्रकारको पाँच इन्द्रिय तथा छठे मनके साथ गुननेसे 24 बनते हैं और व्यंजनावग्रह मनचक्षुका बनता न होनेसे अथवा इसकी सिर्फ चार इन्द्रियाँ होनेसे इसके चार भेद अर्थात् 24+4=""28 भेद कुल मिलाकर हो गये। साथ साथ बुद्धिवैशद्यके लिए तथा मतिज्ञानकी विशेषताएँ कैसी कैसी होती है इसकी झलक दिखानेके लिए मिसालके तौरपर दूसरे बारह प्रकार भी बताये हैं / 1-2 बहु-अबहु, 3-4 बहुविध-अबहुविध, 5-6 क्षिप्र-अक्षिप्र, 7-8 निश्चित-अनिश्चित, 9-10 संदिग्धअसंदिग्ध, 11-12 ध्रुव-अधूव / इसका विवरण ग्रन्थान्तरोंसे जान लें। इन सब भेदों परसे 'अवधान' क्या चीज होती है उसका ख्याल आयेगा / यह अवधान भी मुख्यतः मतिज्ञानका ही एक प्रकार है। सारे विश्वमें जितनी भी बुद्धियाँ काम कर रही है, उन सबको चार विभागमें वर्गीकृत कर दिया है। 1. औत्पातिकी, 2. वैनयिकी 3. कार्मिकी और 4. पारिणामिकी / . 1. औत्पातिकी-अन देखी या अन सुनी बातें जब यकायक हमारे सामने आ जाती है जिसके बारेमें इससे पहले हमने कभी थोड़ा भी सोचा न हो, ( फिर भी) उसे देखते या सुननेके साथ ही उभयलोक अविरुद्ध, तत्काल, यकायक, फलोपधायक सच्चा निर्णय करनेवाली गतिशील जो बुद्धि है वह / 2. वैनयिकी - गुरु, बुजर्ग अथवा गुणीजन ( संत-महात्मा ) से विनय करनेसे प्राप्त जो विशिष्ट बुद्धि होती है वह / 3. कार्मिकी- अर्थात् किसी भी शिल्पकार्यमें या किसी कर्ममें प्रवृत्त रहकर उस कर्ममें ऐसा अनुभवी या निष्णात बन जाता है कि फिर अल्प ही मेहनत (श्रम-परिश्रम) में वह कार्य बडी सुंदरतासे और सफलतासे कर दिखाता है तथा अनेक कार्यमें प्रावीण्य ( कुशलता, निपुणता) प्राप्त करता है। 4. पारिणामिकी-जो बुद्धि उम्र गुजरते, स्वानुभवसे गहरी कल्पना, चिंतन तथा मननके बाद एक ऐसी वेधक दृष्टि आ जाती है कि अमुक विचार, प्रवृत्ति या विषयका 616. इस ज्ञानके भेदोंमें भी बहुत-सी अपेक्षाएँ होनेसे 2, 4, 28, 168, 336 और 340 इस तरह विभिन्न प्रकार भी हैं। ये 28 भेदको विभिन्न ढंगसे भी घटाते हैं / 617. भगवतीजी आदिमें अपेक्षा रखकर उपर्युक्त 28 भेदोंमें से छः प्रकारके अपाय और छः प्रकारकी धारणाको मतिज्ञानके रूपमें और ईहा अवग्रहमें शेष 16 भेदकी दर्शनके रूपमें विवक्षा की है। 7. सं. 10 Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 314 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . नतीजा (फल) अमुक ही आयेगा, ऐसा समझनेके बाद हिताहितकी प्रवृत्ति-निवृत्तिमें जो बुद्धि जुड़ जाती है वह / ये चारों बुद्धि मतिज्ञानके ही प्रकार स्वरूप हैं। व्यंजनावग्रहका कालमान जघन्य आवलिकाके असंख्यातवें भागका और उत्कृष्टसे श्वासोच्छ्वास पृथक्त्व, अर्थावग्रहका कालमान निश्चयनयसे एक समय और व्यवहारनयसे अन्तर्मुहूर्त तक, ईहा तथा अपायका कालमान अन्तर्मुहूर्त तक और धारणाका संख्याताअसंख्याता भव तक होता है / इससे यह साबित होता है कि धारणाका संस्कार सैंकडों-हजारों साल तक टिक सकता है। कुछेक घटना या प्रसंगों द्वारा इस बातकी. प्रतीति हमें होती है। यह मतिज्ञान एक या एकसे अधिक इन्द्रियोंसे तथा मनसे अथवा मन और इन्द्रियाँ इन दोनोंके संबंधसे होता है। सिर्फ इन्द्रियनिमित्तक मतिज्ञान ही 'मन' की प्राप्तिके बिना जन्मते एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञीपंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें होता है। और अनिन्द्रियनिमित्तक अर्थात् जिसमें इन्द्रियोंका नहीं लेकिन सिर्फ मनका ही व्यापार होता है ऐसा ज्ञान ‘स्मृति' नामकी मतिके प्रकारके अंतर्गत आता है। लेकिन जिसमें मन अथवा इन्द्रियाँ इन दोनोंमेंसे किसी एकका भी व्यापार न होने पर भी लता या वल्लरी किसी पेड़, दीवार अथवा दालान ( बरामदा) पर चढ़ जाती है। यह अस्पष्ट ओघज्ञान सिर्फ मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके कारणसे ही है / वनस्पति जगतमें मनुष्य जैसी भावनाएँ अथवा विविध प्रकारके लक्षण जैसे कि शरमाना, गुस्से होना, हँसना, दूसरे जीवको मारना, मान, माया, लोभ, शंगारिकभाव इत्यादि देखा जाता है / ये सभी ओघसंज्ञाएँ इसी ज्ञानके ही आभारी है। जागृत रहकर मनका विवेकपूर्वक उपयोग अपनी प्रवृत्तिमें करनेवाले हम सबमें इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) निमित्तक मतिज्ञान होता है। ____ आत्माको इन्द्रियके विषयोंका अथवा पदार्थका जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह दो प्रकारसे होता है-१. श्रुतनिश्रित और 2. अश्रुतनिश्रित / एक बार अन्योपदेश अथवा श्रुत-शास्त्रग्रन्थके अध्ययन अध्यापन द्वारा पदार्थ अथवा शब्दोंके वाच्यवाचक भावके संकेतका ज्ञान हो जानेके बाद, फिर जब किसी पदार्थ अथवा शब्दका हृदय अथवा बुद्धिमें यथार्थ मतिज्ञान किया जाता है तब वैसा मतिज्ञान भूतकालीन श्रुतानुसारि, दूसरे शब्दोंमें श्रुतपरिकर्भित होनेसे श्रुतनिश्रित मति कहा जाता है। जिन्हें हम जानते हैं ऐसे अनेक पदार्थ जब हमारी आँखोंके सामने आ जाते हैं Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान द्वार-श्रुतशान * * 315 . अथवा वैसे पदार्थीके शब्द सुनते ही उनके रूप तथा गुणादिकका जो शीघ्र ख्याल आ जाता है, यह सब एकवार 'श्रुतनिश्रित' बनी हुई मतिके कारण ही है / परोपदेश अथवा शास्त्र आदिके किंचित् मात्र अभ्यासके बिना जन्मान्तरके स्वाभाविक रूपसे उत्पन्न मतिज्ञानावरणीय कर्मके विशिष्ट क्षयोपशमसे पैदा होती यथार्थमतिको अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहा जाता है। अन देखे-अन जाने पदार्थों के बारेमें बुद्धि पूर्वसे ही तुरंत जो यथार्थ रीतिसे कार्य कर देती है वह / जिसे दैवी उपहार (भेंट)के रूपमें पहचाना जाता है / उपर्युक्त चारों प्रकारकी बुद्धि इसके अंतर्गत आ जाती है / 2. श्रुतज्ञान-इस शीर्षकके पूर्वार्धका 'श्रुत' शब्द किससे बना है ? यह ठीक तरहसे सोचे तो उसके गर्भित अर्थका ख्याल हमें आयेगा / यह श्रुत 'अ' श्रवण (सुनना) धातु परसे बना है, जिससे इसकी व्युत्पत्ति होती है-श्रूयते तत् श्रुतम् अर्थात् जो सुना जाता है वह है श्रुत / तो क्या सुनते है ! इसका उत्तर है अक्षर, शब्द, वाक्य अथवा कोई भी ध्वनि-आवाज / इसलिए एक बात तो तय हो गयी है कि जो शब्दादि है वही श्रुत है। इस शब्दादिका श्रवण कर्णेन्द्रिय ( कान ) द्वारा ही होता है और मनकी सहायतासे उसे जानते है, समझते है / यद्यपि लेवटपर तो समझनेवाला मीतर आत्मा है / इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्णेन्द्रिय तथा मन द्वारा प्राप्त श्रुत ( शब्द ) ग्रन्थानुसार जो बोध होता है वही श्रुतज्ञान है। शंका-तो फिर जिसे कर्ण अथवा श्रोत्रेन्द्रिय नहीं होती, जिसके कारण वह कुछ मी सुन सकता नहीं है, तो क्या उसे श्रुतज्ञान नहीं मिलेगा ? . समाधान-उपर्युक्त परिभाषा तो एकदम सरल तथा सर्व सामान्य है / लेकिन इसकी दूसरी परिभाषाएँ जाननेसे इस प्रश्नका समाधान हो जायेगा / दूसरी परिभाषा-श्रोत्र और नेत्र स्वरूप निमित्तोंसे उत्पन्न श्रुत-ग्रन्थानुसारी जो बोध होता है वह / इस परिभाषासे बधिर (बहरा) न हो और नेत्र या आँखें (दृष्टि) हो तो श्रुतज्ञान हो सकता है / अर्थात् आँखोंसे ( पढ़कर ) ही शास्त्रादि ग्रन्थों द्वारा श्रुतज्ञान प्राप्त हो सकता है। , तीसरी परिभाषा-इस श्रुतज्ञानके दो प्रकार हैं। एक स्वमति प्राप्त और दूसरा परोपदेश प्राप्त अर्थात् बाह्य इन्द्रियोंकी सहायताके बिना जन्मान्तरके क्षयोपशमसे भी मति सह श्रुत हो जाती है। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 316 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * चौथी परिभाषा-'श्रुत' का एक अर्थ 'शास्त्र' होता है। इसलिए शास्त्र भी एक प्रकारसे श्रुतज्ञान ही है। और इसके कारण ही कार्तिक शुक्ल पंचमीके दिन धर्मशास्त्रपोथियाँ पधराकर ज्ञान स्थापनाकी रचना की जाती है। और इसके कारण ही इस पंचमीको ज्ञानपंचमी तथा दिगम्बरमें इसे 'श्रुतपंचमी' शब्दसे पहचाना जाता है / श्रुतोपासक, श्रुताराधना, श्रुतभक्ति, श्रुतालेखन इत्यादि शब्दोंका निर्माण भी इसके कारण हुआ है। पाँचवीं परिभाषा-'श्रुत' शब्दका संस्कृत 'श्रुतम् ' तथा उसका अर्थ होता हैसुना हुआ। इस लिए सुना हुआ ज्ञान मी 'श्रुत' है। यह किस प्रकार ! .. तो शास्त्रोंका अर्थ होता है शब्दोंका भण्डार / इन शब्दोंका निर्माण सुननेसे ही हुआ है / तो प्रश्न होता है कि किस प्रकार ! तो तीर्थकर-अरिहंत-परमात्माने केवलज्ञान ( सर्वज्ञता) प्राप्त करनेके बाद विश्वके स्वरूपको प्रत्यक्ष देखा और लोकहितार्थके लिए उस स्वरूपका प्रतिपादन सबसे पहले श्रोताओंके बीच किया / उस समय उनके प्रमुख पट्टशिष्योंकी ओरसे ग्रहण की गयी त्रिपदीके आदेशानुसार समीने मिलकर जो विशाल ग्रन्थ रचना की है जिसे 'द्वादशांगी' (बारह अंग-शास्त्र ) कहा जाता है उसे, तथा उसके सिवा स्वयं भगवंतने जो देशना-प्रवचन जीवनपर्यंत दिये हैं उन्हें, उनको धारण करके जो कण्ठारूढ किया है उन्हें, और बादमें पत्रारूढ बने उन्हें, साथ ही उन्हीं शास्त्रोंको केन्द्रमें रखकर उनके आधार पर जो अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं उन्हें तथा जो आज लिखे जाते हैं तथा भविष्यमें जिन्हें लिखे जायेंगे उन तमामको 'श्रुत' कहा जाता है। इन सब कारणोंसे श्रुत शब्द शास्त्रका एक पर्याय ही बन गया है और उस अर्थमें रूढ ( प्रचलित ) हो गया है / श्रुत, सूत्र, सिद्धान्त, प्रवचन, आगम ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। शंका-शब्दों ही श्रुतज्ञान है क्या ? समाधान-ठीक तरहसे देखा जाये तो ये शब्द सीधे रूपमें श्रुतज्ञान नहीं है। यह श्रुतज्ञान तो शब्दके वाच्यार्थ ज्ञानको ही ( अर्थ ज्ञानको ही) कहा जाता है / 618. सुय सुत्त गंथ सिद्ध सासणे आणवयण उवऐसो। पण्णावणामागम इय एगठा पञ्जवा सुत्ते // [देखिए-विशे. आ. स्था. दश. बृ. छे. इत्यादि ] इसमें शास्त्रके 10 पर्यायवाचक नाम दिये हैं। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शानद्वार-श्रुतज्ञान . * 317 . फिर भी प्रस्तुत वाच्यार्थका वाचक शब्द ही होता है। अतः शब्द स्वयं वाच्यार्थ रूप जो कार्य होता है उसके कारण रूप बनता है। अगर शब्द ही न हो तो ज्ञान किससे प्राप्त करें ? इस कारणसे शब्द कारण रूप होने पर भी उसकी महत्ताके लिए कारणको कार्यरूप ( औपचारिक ) मानकर हमारे यहाँ शब्दको भी 'श्रुतज्ञान' की महोर लगायी गई है। बाकी सीधे रूपमें तो शब्द 'द्रव्यश्रुत' है। और उस परसे उत्पन्न होता अर्थबोधरूप आत्मफल अथवा सच्ची समझ यह 'भावश्रुत' है / संक्षिप्तमें कहे तो वाच्यवाचक (शब्द और अर्थके) संबंधसे जो बोध उत्पन्न होता है इसे श्रुतज्ञान कहते हैं / एक शब्द सुनकर मतिज्ञान जो विस्तृत हुआ तथा उससे उसके अर्थका ज्ञान भी हुआ, और . फिर यथार्थ पदार्थ बोध जो हुआ उसे भी श्रुतंज्ञान कहा जाता है / अब इसे उलटाकर देखें तो एक वाच्य पदार्थको देखते मतिज्ञान होते ही इसके साथ साथ ही उसके वाचक शब्दका जो ज्ञान होता है यह भी श्रुतज्ञान है। इस प्रकार वर्ण शब्द श्रुतज्ञानमें मुख्य रूपमें होता है। अभी श्रुतज्ञानकी छट्ठी प्रधान परिभाषा कहने के लिए शंका-समाधान करते हैं। शंका-उपर्युक्त परिभाषाओंसे तो ऐसा आभास ( भ्रम ) पैदा होता है कि मानो प्राणीमात्रको शब्दबोध एक समान ही होता होगा ! तो वह बात ठीक है क्या ? समाधान-नहीं, एक समान बोध कदापि नहीं होता। क्यों नहीं होता है तो इसके लिए जो मौलिक और मुख्य कारण भाग स्वरूप है उसे बताते हैं / इसी कारणमें ही छट्ठी परिभाषा समा जायेगी। - छट्ठी परिभाषा-एक कर्म जिसका नाम श्रुतज्ञानावरणीय है / इस कर्मके क्षयोपशमसे ( अमुक कर्मका नाश और अमुकका उपशम ) उत्पन्न होते शब्द-लिपि आदि द्रव्य श्रुतका अनुसरण करनेवाला पदार्थबोध-आत्मविचार-नतीजा ही श्रुतज्ञान कहा जाता है। इस परिभाषासे जन्मान्तरके शुभाशुभ अनेक कर्मों के द्वारा इस जन्ममें प्राप्य कर्म 619. यहाँ शब्दश्रवण यह है मतिज्ञान और इस परसे मिलता पदार्थ बोध श्रुतज्ञान है / उसी प्रकार धुआँ देखकर जो ज्ञान मिलता है वह है मतिज्ञान, और धुआँ परसे अग्मिका जो अनुमान होता है वह है श्रुतज्ञान / ___ मतिज्ञान द्वारा देखे, जाने या सोचे हुए पदार्थ-भावोंके भेद-प्रभेदोंका ज्ञान ही श्रुतज्ञान है। इस प्रकारसे भी हम सोच सकते हैं / Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 318. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * स्थितिके अनुसार बोधमें न्यूनाधिकरूप असंख्य तारतम्य जो प्राप्त होता है वह बात स्पष्ट होती है। दूसरी एक बात सिद्धान्तके रूपमें समझ लें कि मतिके बिना श्रुत कभी उत्पन्न होता ही नहीं है। 'मइपुवं सुर्य' चुतंमतिपूर्व इत्यादि वचनके अनुसार श्रुत मति- . पूर्वक ही होता है। यह श्रुतज्ञान मनोनिमित्तक है उस प्रकार अन्य इन्द्रिय निमित्तक भी है। इसलिए यह ज्ञान हित-अहितके क्षेत्र में प्रवृत्ति-निवृत्ति करानेमें शक्तिशाली ( सामर्थ्यवान् ) है / . शंका-मति तथा श्रुत, इन दोनों के कारणरूप यदि (श्रोत्र इन्द्रियाँ तथा मन ही) है तो फिर ऐसे दो प्रकारके ज्ञानकी जरूरत ही क्या है ? क्या हम एक ही ज्ञान नहीं रख सकते ? समाधान-दोनोंके बीचका यह अलगाव अथवा अंतर इनके अलग अस्तित्वकी स्वीकृति देता है। मतिज्ञानका कार्य पदार्थके वर्तमानकालके सामान्य भावोंको जणानेका है, जब कि श्रुतज्ञानका कार्य त्रैकालिक तीनों कालके पदार्थोंको जणानेका है / इसका विषयक्षेत्र मतिसे भी बड़ा है। यद्यपि मतिज्ञान जीवमात्रको सर्वत्र अविरत विद्यमान रहता है इसलिए शाश्वत है, जब कि श्रुत अविरत रहता नहीं है इसलिए अशाश्वत ( नाशवंत) है / फिर भी वह मतिसे भी अधिक सूक्ष्म अर्थीका अनेक प्रकारसे बोध करता है। इस ज्ञानका सामर्थ्य इतना महान् भी है कि श्रुतके बलसे प्रस्तुत ज्ञान व्यक्तिमें ऐसा अनोखा क्षयोपशम प्रकटाता है कि सर्वज्ञया केवली भगवान किसी भी पदार्थकी जैसी परिभाषा करते हैं वैसी ही परिभाषा करनेमें (सर्वज्ञ न होने पर भी) समर्थ होता है। और ऐसे मुनि 'श्रत-केवली' के नामसे पहचाने जाते हैं / यह केवली' विशेषण छाद्मस्थिक चार ज्ञानमेंसे सिर्फ श्रुतको ही प्राप्य होता है। इन सब कारणोंसे मति-श्रुत ज्ञानोंके बीचका अंतर स्पष्ट होता है / इसलिए दोनोंका अस्तित्व अलग-अलग होना बहुत जरूरी है। 620. यह वचन सापेक्ष है / इसका भाव गुरुगमसे जान लेना / 621. श्रतकेवली जब प्रवचन करते हैं तब यह कोई भी नहीं जान सकता कि ये सर्वज्ञ नहीं है। क्योंकि वे पदार्थोकी वैसी गहरी या अर्थभरी परिभाषा देते हैं। 622. यद्यपि सन्मतिकार तथा उपा० श्री यशोविजयजी महाराजने ज्ञानबिन्दुमें श्रुतज्ञान यह एक प्रकारका मतिज्ञान ही है ऐसा साबित किया है। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान द्वार-श्रुतज्ञान . •श्रुतज्ञानके अनेक प्रकार हैं। लेकिन उन सभीको वर्गीकृत करके चौदह या बीस भेदोंमें समाविष्ट किया गया है। इस परसे अवांतर (मध्यवर्ती-अंतर्गत) प्रकार कैसे कैसे विचित्र (अद्भुत) हो सकते हैं इसकी कल्पना स्वयं कर लेना। श्रुतज्ञानके व्यापक विचार यदि मंद-तीव्र बुद्धिवालोंको मिले तो उनकी विविध कक्षा और स्थानका ज्ञान पुष्ट होता है, इसलिए इनके प्रकार तथा अर्थ ग्रन्थान्तरसे जान ले / फिर भी यहाँ पर शुरुके ( प्रारंभके ) श्रुतज्ञानके अक्षर, और अनक्षर नामके दो जरूरी भेदोंका अर्थ समझाकर बाकीके प्रकारोंके सिर्फ नाम बताए जायेंगे। 1. अक्षरश्रुत-इसके तीन प्रकार हैं। 1. संज्ञाक्षर 2. व्यंजनाक्षर और 3. लब्ध्यक्षर / संज्ञा शब्दसे दुनियाकी हरेक लिपियाँ अथवा किसी भी लिपिके अक्षररूप आकार समझें / ये हरेक आकार उस हरेक वर्णकी संज्ञाका संकेत करते हैं, जिससे हमें बोध मिलता है / इस लिए ये आकार श्रुतके साधनरूप होनेसे संज्ञाक्षर श्रुत कहा जाता है। अक्षर तथा पदार्थके बीच वाच्यवाचक संबंध है। शब्द वाचक है। इसलिए उसका ज्ञान मतिज्ञान है और उसके निमित्त प्राप्त वाच्यका ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाता है। 2. व्यंजनाक्षर-अ से ह तकके अथवा जिस-जिस भाषामें जो-जो वर्ण हैं, वे सभी मुख द्वारा उच्चारित होनेसे व्यंजनाक्षर कहलाते हैं। 3. 'लैब्ध्यक्षर-हमें अक्षरका ज्ञान जो मिलता है, वही लब्ध्यक्षर है / इस प्रकार शब्द सुननेके साथ ही जिस-जिस अर्थकी प्रतीति होती है उस हरेकके अर्थानुरूप अक्षर-ज्ञानकी प्राप्ति ही लब्ध्यक्षर है। इसमें दूसरों के उपदेशकी जरूरत नहीं होती है। . दूसरे प्रकारसे संक्षेपमें कहे तो-लिखे जाते अक्षर वह है संज्ञाक्षर / बोले जाते अक्षर वह है व्यंजनाक्षर और मनमें सोचे जाते या आत्माके बोधस्वरूप मनमें उत्पन्न अव्यक्त अक्षर रचना ही लब्ध्यक्षर है। 2. अनक्षरश्रुत-श्वासोच्छ्वासकी क्रिया, थूकना, खाँसना, छींकना, चुटकी-ताली बजाना, सीटी बजाना इत्यादि / आवाजयुक्त चेष्टाएँ तथा दूसरे मतानुसार नीरव लेकिन 623. श्रुतके प्रत्येक अक्षर तथा उसके संयोग के बारेमें यदि सोचें तो अनुनासिक, अननुनासिक, हुस्व, दीर्घ, प्लुत तथा उदात्तादि भेदोंसे इनके अनंत भेद होते हैं। 624. अगर तत्त्वदृष्टिसे सोचें तो 'शब्द' सुनकर उसे हेयरूप हो तो हेयरूपमें अथवा उपादेयरूप हो तो उपादेयरूपमें अर्थग्रहण करना अक्षरश्रुत है। ... - 625. इसका एक अर्थ-जिसका नाश न हो वैसी क्षायोपशमिक शक्ति' भी है। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 320. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * बोधक क्रियाएँ-मस्तक हिलानेसे, हाथ-पैरकी चेष्टाओंसे अथवा आँखोंके इशारोंसे जो बोध-ज्ञान या समझ प्राप्त होती है वही अनक्षरश्रुत है। - इन दोनों भेदोंमें ही समग्र श्रुतके प्रकार समा जाते हैं फिर भी अभ्यासियोंकी समझ-ज्ञानको विशद बनानेके लिए चौदह या बीस प्रकार दिखाए गए हैं। यहाँ पर . शेष 12 तथा प्रकारांतरसे किए गये बीस भेदोंकी व्याख्या विना नाम मात्र बतायी गई हैं। शेष बारह भेद-३-४, संज्ञि-असंज्ञि, 5-6, सम्यक्-मिथ्या, 7-8, सादिअनादि, 9-10, सान्त-अनंत, 11-12, गमिक-अगमिक, 13-14, अंग-अनंग / बीस भेद-१-२, पर्याय-पर्यायसमास, 3-4, अक्षर-अक्षरसमास, 5-6, पद- . पदसमास, 7-8, संघात-संघातसमास, 9-10, प्रतिपत्ति-प्रतिपत्तिसमास, 11-12, अनुयोग-अनुयोगसमास, 13-14, प्राभृतप्राभृत-प्राभृतप्राभृतसमास, 15-16, प्राभृतप्राभृतसमास, 17-18, वस्तु-वस्तुसमास, 19-20, पूर्व-पूर्वसमास / . इस प्रकार मति और श्रुतकी व्यवहार तथा निश्चययुक्त अन्य परिभाषाएँ अनेक प्रकार बनती हैं। इन्हें शास्त्र या गुरुगमसे जान लें। मति-श्रतके बगैर ( विना) किसीको भी केवलोत्पत्ति प्राप्त नहीं होती / 3. अवधिज्ञान-पहले 'अवधि' शब्द किस प्रकार बना है तथा इसकी अलगअलग कैसी व्युत्पत्तियाँ होती है यह देखते हैं, जिससे मूल शब्दका रहस्य समजानेसे उसके अर्थका स्पष्ट खयाल आ सके / 1. अवधानं अवधिः-अवधानका अर्थ होता है निर्णय / तो निर्णय किसका ? तो इसका उत्तर है रूपी पदार्थके साक्षात्कारका / कौन करेगा ? तो आत्मा करेगा / अब इसका भावार्थ यह होता है कि- रूपी पदार्थका आत्म साक्षात् रूप निर्णय अथवा साक्षात्करणरूप जो अर्थ व्यापार है उसका नाम अवधिज्ञान है। 2. 'अव'- अव्ययपूर्वक ‘धि' धातु परसे मी 'अवधि ' शब्द बनता है। वहाँ 'अव' अधो अर्थका वाचक होनेसे जो वस्तुको नीचे ही नीचे अधिक और अधिक विस्तृत बता सकते हैं वह / ( यद्यपि यह परिभाषा वैमानिक देवोंके लिए अधिक घटित होती है / फिर भी वैमानिकोंकी अवधिको अधिक महत्त्व देनेके लिए ही यह परिभाषा की गयी होगी।) 626. देखिए-उत्तरा०, स्था०, सम०, प्र० सा० इत्यादि / Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शानद्वार-अवधिशान * * 321 . 3. अवधि-यह शब्द मर्यादाके अर्थमें भी प्रयुक्त किया जाता है / विश्वमें प्रवर्तमान रूपी-अरूपी द्रव्योंमेंसे सिर्फ रूपी द्रव्योंको ही बतानेकी मर्यादायुक्त होनेसे उसे 'अवधि' शब्दसे पहचाना गया है। ____ यह ज्ञान अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे ही होता है / इस ज्ञानका शाश्वत और दीर्घकालीन अस्तित्व देवलोक तथा नरकमें हैं। जब कि दूसरे नंबरमें मनुष्य तथा तीसरे नम्बरमें क्वचित् तिर्यच आते हैं। यह ज्ञान सम्यगदृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि दोनोंमें होता है। सम्यग्दृष्टिमें सदसत् बुद्धि विवेकपूर्ण होता है इसलिए उसके ज्ञानको 'अवधि' शब्दसे पहचाना जाता है और मिथ्यादृष्टिमें असत् अज्ञान बुद्धिके कारण सदसत्का विवेक नहीं होता, जिसके कारण उसमें प्रस्तुत प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर भी 'विभंग' शब्दसे पहचाना जाता है। . - यह ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनके निमित्तके बिना रूपी पदार्थमें द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादासे युक्त प्रत्यक्ष बतानेवाला होता है / .... यह ज्ञान विभिन्न आत्माओंके क्षयोपशमकी अनेक विचित्रताओंके कारण अनेक प्रकारकी विचित्रताओंसे युक्त प्राप्त होता है / इसके असंख्य प्रकार हैं। लेकिन इन असंख्य प्रकारोंका वर्णन करना असंभवित होनेसे उनके संक्षेपमें मुख्य प्रकार करके पुनः उनके छः उपभेदोंका वर्णन किया जायेगा। - प्रथम इसके दो प्रकार बनते हैं। 1. मैं(प्रत्ययिक और 2. गुणप्रत्ययिक। जो अमुक भवस्थलकी ( देव नारककी) प्राप्तिके कारणसे ही जन्म लेनेके साथ ही अवश्य प्राप्त हो जाता है, वह भवप्रत्ययिक है और जो विशिष्ट तप-संयमादि गुणोंकी आराधनाके प्रभावसे प्राप्त होता है वह गुणप्रत्ययिक है। भवप्रत्ययिकके लिए कोई दृष्टांत देना चाहते हैं तो पशु-पक्षीका ही दे सकते हैं। जिस तरह पशु अपने भवस्वभावसे एक बार पानी पीते हैं, पक्षीगणको आकाशमें 627. सत्में असत् तथा असत्में सत् की जो बुद्धि होती है वह / 628. भवप्रत्ययिक वास्तवमें तो गुणप्रत्ययिक ही होता है / क्योंकि वहाँ भी क्षयोपशम हेतु उपस्थित है ही जो जनमके साथ ही कारणरूप बनता है / इस लिए देव नारक का भव भी क्षयोपशममें कारणरूप माना जाता है। 629. प्रायः ऐसा देखा गया है / Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 322 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . उड़नेके लिए सिर्फ उनका जन्म ही जिस प्रकार निमित्त स्वरूप हैं, उसी प्रकार देवलोक तथा नरक एक ऐसा योनि जन्म स्थल है कि वहाँ जो लोग पैदा होते हैं उनमें पैदा होनेके साथ ही अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो ही जाता है। फिर उसमें कुछ भी हानि पैदा न होनेसे यह मृत्युपर्यंत वैसा का वैसा ही टिका रहता है। देवलोकके इसी अवधि' में हानि, वृद्धि या क्षयका पूर्ण अभाव होनेसे इसके कोई भी प्रकार नहीं है। ___ अवधिज्ञानका संबंध देवगतिके साथ और इसमें भी वैमानिकके साथ तो विस्तृत तथा महत्त्वरूप होनेके कारण ही ऊपर दूसरे क्रमकी व्युत्पत्ति उससे आश्रित दिखानी पड़ी है / वरना अवधिका संबंध तो चारों गतिमें हैं। ___ गुणप्रत्ययिक अवधिके असंख्य प्रकारोंको छः प्रकारोंमें ही विभक्तकर दिए गये हैं। 1-2 अनुगामी-अननुगामी, 3-4 वर्धमान-हीयमान, 5-6 प्रतिपाति-अप्रतिपाति। 1. अनुगामी-अर्थात् पीछे-पीछे अनुसरनेवाला अथवा व्यक्तिके साथ साथ ही रहनेवाला। जिसमें जितने क्षेत्रका ज्ञान उत्पन्न हुआ हो, तो वह व्यक्ति जहाँ भी जाती है, ज्ञान उसके साथ साथ ही जायेगा। जिस प्रकार मनुष्यके साथ मनुष्यकी आँखें अथवा हाथमें पकड़ा हुआ लालटेन भी साथ ही आता है और जहाँ कहीं भी जाता है वहाँ वहाँ प्रकाश भी करता है उसी प्रकार / 2. अननुगामी-जो जीवकी साथ साथ नहीं जाता है वह। जिस प्रकार स्तंभ परका कोई दीप, जिस क्षेत्रमें होता है उसी क्षेत्रको ही प्रकाशित करता है, अन्य क्षेत्रको नहीं, उसी प्रकार कोई व्यक्ति जिस क्षेत्रमें उत्पन्न हुई हो उसी क्षेत्रगत पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त कर सकती है, लेकिन दूसरी जगह जाने पर वह ज्ञान साथ साथ नहीं जाता, जिसके कारण वह वहाँ पदार्थका बोधज्ञान नहीं प्राप्त कर सकती। 3. वर्धमान-अर्थात् शुरूमें अंगुलासंख्येय भाग अर्थात् जो अत्यंत सूक्ष्म प्रमाणसे प्रारंभ होता है और कार्यफल ( परिणाम ) की विशुद्धि अथवा पवित्रता बढ़ने पर शुक्ल पक्षकी चंद्रकलाकी तरह उत्तरोत्तर वृद्धि करते एकदम अलोकाकाश तक भी पहुँच जाता है वह / 630. अधो विस्तारीभावेन धावतीत्यवधिः / 631. नन्दीसूत्र और तत्त्वार्थभाष्यमें 5-6 प्रकारोंको अनवस्थित, अवस्थित ऐसा नामांतर दर्शाते कुछ अर्थान्तर. भी बताया गया है / Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञानद्वार-मनःपर्यवशान . .323 . 4. हीयमान-द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव चारों प्रकारसे विस्तृत अवधिज्ञान अपने कार्य फलकी क्रमिक मंदताके कारण दीपकमें तेल कम होने पर जिस प्रकार चिराग निस्तेज होता जाता है (कृष्णपक्षकी चन्द्रकलाकी तरह), उसी प्रकार धीरे धीरे जो ज्ञान कम होता जाता है वह / 5. प्रतिपाति-जिस प्रकार पवनके थपेडोंसे चिराग तुरंत बुझ जाता है उस प्रकार यह ज्ञान भी अत्यंत सूक्ष्म स्वरूप उत्पन्न होकर लोकाकाशको (अरवों मील) प्रकाशित करके प्रमादादिके प्रतिकूल कारणोंसे शीघ्र प्रतिपात होता है अथवा लुप्त हो जाता है। 6. अप्रतिपाति-जो ज्ञान आगे बढ़कर प्रतिपातिकी तरह सिर्फ लोकाकाश तक ही नहीं, लेकिन उससे भी आगे बढ़कर अलोकाकाशके सिर्फ एक आकाश प्रदेशका विषय बनता है वह / यद्यपि अलोकमें रूपी पदार्थ न होनेसे देखनेलायक कुछ है ही नहीं, लेकिन शक्तिकी दृष्टि से यह बात बतायी है। और यह ज्ञान केवलज्ञानकी प्राप्ति पर्यंत रहता है। __ ऐसे ज्ञानीमें निर्मलता-पवित्रता बढ़नेसे शक्तिके प्रादुर्भावकी दृष्टिसे अलोकमें असंख्य लोकाकाश जितने क्षेत्रका विषय यदि बनता है तो, इस अवधिको 'परमावधि' कही जायेगी। ऐसे ज्ञानीको अंतर्मुहूर्तमें अवश्य केवलज्ञान प्राप्त होता है। इतना ही नहीं वे परमाणुओंको भी प्रत्यक्ष देख सकते हैं। - परमावधिवाला प्रतिपाति अवश्य होता है, लेकिन अप्रतिपातिवालेमें परमावधिज्ञान होता ही है ऐसा नियम नहीं है। 4. मैनःपर्यवज्ञान-यह चौथा ज्ञान है। यह नाम दो शब्दोंसे बना है मन और पर्यव। इनमें 'मन' अथवा 'मनु' धातु परसे 'मन' शब्द बना है। इसका अर्थ मनन, चिंतन, विचार, संकल्प होता है। यह मन भी अमुक प्रकार-आकारवाले मनोद्रव्य पुद्गलोंसे बना है। 'पर्यवे' का अर्थ होता है 'समग्र (संपूर्ण) रूपमें जानना' अर्थात् जीव द्वारा ग्रहण किए गए मनोवर्गणाके द्रव्योंको संपूर्ण रूपमें जाननेका नाम ही 'मनःपर्यव' है। और यही ज्ञान रूपी होनेसे 'मनःपर्यव' ज्ञान कहा जाता है। दूसरा पर्यव 632. पर्यव अथवा पर्याय, भिन्न-भिन्न धातु परसे बने हैं फिर भी एक ही अर्थके वाचक हैं। 633. 'मन' ज्ञाने 'मनु' बोधने // मननं मन्यते वाऽनेनेति मनस्तेन मनः / / - 634. पर्यव-इसमें परि-अवन परसे पर्यवन बनता है / और बादमें पर्यव बनता है / इसमें गत्यादि अर्थका अव धातु है / 'पर्याय' शब्द 'अय' नामकी दण्डक धातु अथवा 'इण' धातु परसे 'अयन' बनकर. परि उपसर्ग जोड़नेसे बनता है। इसमें मनःपर्यव शब्द अधिक प्रचलित है / Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .324. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अथवा पर्याय का अर्थ 'अवस्था' मी होता है। मनके विचारोंकी विभिन्न अवस्थाएँ जिस ज्ञानसे हम जान सकते हैं उस ज्ञानका नाम मनःपर्यव है। यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादासे युक्त अन्य पुरुषके मन द्वारा सोचे गये रूपी पदार्थोंको इन्द्रिय अथवा मनके निमित्त विना ही प्रत्यक्ष कर दिखाता है। ___इस संसारमें जितने जीवोंमें 'मन' हैं उतने जीवोंको शास्त्रमें "संज्ञी' शन्दसे संबोधित किया गया है। और जिसमें 'मन' नहीं होता उनका परिचय 'असंज्ञी' कहकर दिया है। एकेन्द्रियसे लेकर चौरिन्द्रिय तकके समूच्छिम जीवोंमें मन सर्वथा होता ही नहीं है। इसके कारण उनमें सोचनेकी शक्ति ही नहीं होती। इससे उन्हें असंज्ञी कहा. जाता है। बादमें आते हैं पंचेन्द्रिय जीव / लेकिन सभी पंचेन्द्रियोंमें मन नहीं होता / इन्हीं पंचेन्द्रियोंमेंसे संमूर्छिम पंचेन्द्रिय असंज्ञी अर्थात् बिना मनके हैं। देवों, नारकों तथा गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्योंमें ही मन होते हैं / अब मन कौन-सी चीज है ? क्या इससे ही सोच मनन कर सकते हैं ? मन दो प्रकारी होता है-१. द्रव्य और 2. भाव / इनमें द्रव्यमन पुद्गलरूप होता है अर्थात् वह एक पदार्थ स्वरूप है जिसे वर्ण, गंध, रस, (स्वाद) तथा स्पर्श होता है। यह मन पदार्थ विश्वमें प्रवर्तमान मननयोग्य अमुक प्रकारके अणुओंसे बनता है। अर्थात् शास्त्रमें बताये गए 'मनोवर्गणा' नामक परमाणुओंसे ही यह बनता है / दो परमाणु संख्यासे लेकर अनंत संख्यावाले परमाणुके इसी समूहको 'स्कंध' कहा जाता है। जिससे शास्त्रीय परिभाषामें आत्मा जिसे ग्रहण करते हैं, इसका पूरा नाम कहना हो तो 'मनोवर्गणाके स्कंध' कहा जाता है / भावमन क्या है ? मनके पुद्गलोंको ग्रहण करके जीव जिसे विचारके रूपमें प्रस्तुत करता है वही भावमन है। इस प्रकार अनेक विचारों अथवा शब्दादि आकारोंका नाम 635. 21 वें द्वारमें तीन संज्ञाओंका वर्णन किया जायेगा / उसमें 'दीर्घकालिकी संज्ञा' की बात भी कही जायेगी / जिसमें यह ‘संज्ञा' होती है उसे 'संज्ञी' कहा जाता है। 636. चार गतिमें जनम तीन प्रकारसे बताए हैं-१. सम्मूर्छन, 2. गर्भ, 3. उपपात / इनमें देव नारकोंमें उपपात, तिर्यंच मनुष्यों में गर्भ तथा सम्मूर्छन दोनों भेद लागु पडते हैं / इनमें सम्मूर्छन जन्मको गर्भधारणादिक होता नहीं है / ऐसे जीव तो जन्मलायक कारण-सामग्री हवा-जल, विष्ठामलादिका संयोग होते एकदम पैदा हो जाते हैं / वे कौन कौन-से हैं यह तो कह चुके हैं। 637. समन्ततः मूर्च्छनमिति / अर्थात् चारों ओर कहीं भी शरीरोंका उत्पन्न होना वह / 638. तिथंच तथा मनुष्य दोनोंको लेना / Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शानद्वार-मनःपर्यवज्ञान * * 325 . ही भावमन है अथवा व्यक्ति द्वारा किया गया विचार ही भावमन है। अब इसे अधिक स्पष्टता तथा सरलतासे समझ लें / यों तो विचार करनेवाला मुख्यतः जीव अथवा आत्मा है। यह आत्मा मन नामके पदार्थकी मददसे कोई भी बाबतका विचार करनेमें शक्तिमान होती है। विचार आनेके साथ ही उसी विचारके अनुरूप चर्म चक्षुसे अदृश्य 'मनोवर्गणा' नामकी जातिके (एक प्रकारके अणुके बने हुए गुच्छे) विश्वव्यापी पुद्गलोंमेंसे स्वदेहावगाह क्षेत्रमेंसे जिस प्रकार लोहचुंबक लोहेको खींचता है उसी प्रकार जीव पुद्गलोंको खींचता है अथवा ग्रहण करता है / इतना ही नहीं, किए गए विचारके अनुरूप उन्हें प्रस्तुत भी करता है। मतलब यह कि उन्हीं विचारके अनुरूप अक्षर-शब्दोंसे लिख सके वैसे अक्षर अथवा शब्दाकारके रूपमें वे पुद्गल क्रमबद्ध सज जाते हैं / इस प्रकार तैयार हुए पुद्गलके आलंबन-सहारेसे ही जीव योग्य रूपसे यथोचित विचार कर सकता है। एक विचार पूर्ण हुआ कि इस विचारके लिए ग्रहण करके संस्कारित किए गए पुद्गलोंको वह बादमें छोड देता है। और ये पुद्गल पुनः वातावरणमें ( वायुमंडल ) मिल जाते हैं। दूसरा विचार करना-बनाना हो तब फिरसे इसी प्रकार पुद्गल ग्रहण परिणमनादिकी क्रिया करनी पड़ती है और आत्मा प्रस्तुत मनके द्वारा विचार करने समर्थ बनती है। - पुद्गलग्रहण, परिणमन, आलंबन, विसर्जन इत्यादि प्रक्रिया जन्मजातसे प्राप्त मनःपर्याप्ति ( काययोगसह )के बलसे होती है / .. अब पुद्गलोंसे लिखित अक्षरोंकी तरह कोई तथाप्रकारके आकारोंको देखकर जो भाव समझमें आता है उसे भावमन कहते हैं। कोई भी मनःपर्यवज्ञानी इस मनन व्यापाररूप भावमन को प्रत्यक्ष देख सकता नहीं है। इसका अर्थ इतना ही कि भावमन तो ज्ञानरूप है, जो ज्ञान अमूर्त-अरूपी है जिसका साक्षात्कार छद्मस्थको भी न होकर सिर्फ केवलीको ही होता है। - इस प्रकार अब द्रव्यमन तथा भावमनकी परिभाषा यहाँ पूर्ण हुई। अब जिस ज्ञानकी बात चलती है उस 'मनःपर्यवज्ञान'का कार्य अथवा फल क्या है ? उसे देखते हैं। 639. उस वर्गणाके पुद्गल 14 राजलोकमें सर्वत्र होते हैं / लेकिन विचार करते समय मन जिन पुद्गलोंको खींचता है उन्हें तो स्वदेहावगाढ वर्गणासे ही ग्रहण करता है / Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . ऊपर हम यह जानकर आये हैं कि-जीव अपने-अपने विचारके लिए इन्हीं विचारोंके अनुरूप आकार-प्रकारमें विचित्र रीतिसे प्रतिबिंबित बने गृहीत पुद्गलोंको देखकर वे जो कुछ सोच रहे हैं, इसके साथ साथ भूतकालमें उन्होंने क्या सोचा था और भविष्यमें वे क्या सोचेंगे ? ऐसा ज्ञानके बलसे जो देख सकता है या जान सकता है और दूसरोंको कह भी सके ऐसा जो ज्ञान है इसे मनःपर्यवज्ञान कहा जाता है। जिस प्रकार एक आम आदमी भी दूसरेका मुख तथा आँख आदिके भाव परसे उसके विचारों को समझ सकता है, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञानी मुनिगण भी अक्षरोंकी तरह सजे धजे मनके विचार स्वरूप आकारोंको देखकर, कौन क्या क्या सोच रहे हैं उन्हें जान सकता है। ___ यह ज्ञान दूसरी गतिमें नहीं होता, सिर्फ मनुष्यमें ही मिलता है / मनुष्यमें सातवें गुणस्थानक-अप्रमत्त गुणस्थानक पर विराजमान ऋद्धिप्राप्त दीक्षित बने हुए और निरतिचारपनसे अत्यन्त उच्च चारित्रका पालन करनेवाले सुविशुद्ध परिणामी मुनियोंको ही प्राप्त हो सकता है। यह ज्ञान दो प्रकारका है। 1. जुमति और 2. विपुलमति / जिसमें अंतर (हृदय )की शुद्धि कुछ कम ( न्यून ) होती है उसे 'ऋजुमति मनःपर्यव' और जिसमें विशुद्धि इससे अधिक होती है उसे 'विपुलमति मनःपर्यव' प्राप्त होता है। इस प्रकार ऋजुमति जब विचारोंको तथा उनकी अवस्थाओंको मर्यादित रूपमें जानते हैं, तब विपुलमति उनसे भी अधिक रूपमें जानते हैं। आगे यही बात कही जायेगी। __ऋजुमति-यहाँ पर ऋजुका अर्थ सरल न समझते हुए सामान्य समझना है और मतिका अर्थ मनन-चितन अथवा संवेदन करता है। अर्थात् सामान्य विचार प्राहिणी शक्ति वह ऋजुमति है। इसका ज्ञानप्राप्तमुनि द्रव्यगत प्रवर्तमान आकारोंको देखकर, अमुक मनुप्यने जो घट (पानी भरनेका पात्र ) दिखाया है, वह अमुक रंगका है अथवा अमुक प्रकारका सोचता है ऐसी वस्तु अथवा वस्तुकी अल्प अवस्था मात्रसे जान सकते हैं / विपुलमति-शब्दसे ही अर्थ स्पष्ट हो जाता है / ( विस्तृत ) विपुल विचार प्राहिणी शक्ति वह विपुलमति है। यह मति ऋजुमतिसे अधिक उच्चतर है। ऋजुमति-ज्ञानीने जिस घटके बारेमें तथा उसकी विशेषताओंके बारेमें जो कुछ भी जाना है, उसी घटके बारेमें विपुलमति ज्ञानी अधिक रूपमें जान सकते हैं, अर्थात् सामनेवाले मनुष्यने घटको 640. प्रतिपात तथा अप्रतिपात अवस्थाओंके कारण संजम-चारित्रका परिणामके दो भेद पड़ते हैं / Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानद्वार-केवलज्ञान .327 . लेकर जो कुछ सोचा है कि-घट किस जातिका है ! कहाँका है ! किसीकी मालिकीका है कि नहीं ? रिक्त है कि भरा हुआ ? कितना पुराना है ? चित्रित अथवा रंगा हुआ है कि नहीं ? इत्यादि अनेक विचारोंको स्पष्ट रूपसे अधिक व्यापकतासे जान सकते हैं। ___यह विपुलमतिज्ञान ऋजुमतिसे अधिक निर्मल है। ऋजुमतिज्ञान केवलज्ञान तक टिका रहता है ऐसा नियम नहीं है। यह ज्ञान आकर चला भी जा सकता है। लेकिन विपुलमतिज्ञान केवलज्ञानके पूर्ववर्ती समय तक अवश्य उपस्थित रहता है। सर्वोत्तम ऋद्धिवंत सच्चे मुनि ही इस प्रकारका ज्ञान धारण कर सकते हैं / और वे सिर्फ मनुष्यलोकवर्ती तथा सिर्फ ढाई द्वीपकेवासी संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यचोंके ही द्रव्यमनको ( मनोद्रव्यसे) जान सकते हैं। इस ज्ञानका मुख्य हेतु मनके विचारोंको सिर्फ जानना ही है। लेकिन वे जब जाननेकी ईच्छा करें (ज्ञानका उपयोग करें) तब ही देख-जान सकते हैं / ये केवलीकी तरह सर्वथा आत्म-प्रत्यक्ष नहीं होते। 5. केवलज्ञान-यहाँ केवलका अर्थ परिपूर्ण, एक ही इत्यादि होता है। यह ज्ञान प्राप्त होनेके साथ ही पूर्ण रूपमें प्रकट होनेसे और श्रतादि दूसरे किसी भी ज्ञान अथवा इन्द्रियादिक सहायकी अपेक्षा रहती न होनेसे पूर्ण है। इस प्रकार पूर्ण होनेके कारणसे ही 'एक ही' तथा 'परिपूर्ण' दोनों अर्थ उपयुक्त बनते हैं। केवलज्ञानका विशेष स्वरूप प्रारंभमें मत्यादि ज्ञानोंको धारण करनेवाली कोई भी आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र अथवा तपादिककी निर्मल तथा श्रेष्ठ कोटिकी आराधनासे आत्मिक विशुद्धिमें बढती वीतराग अवस्थाकी पूर्णताकी ओर जब बढती रहती है तव, और जब वह चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब, आराधनाके प्रतापसे ज्ञानावरणीय कर्मके अवशेष मोहादि कर्मों के आवरणों (परदों)को सर्वथा चीर डालती है। अर्थात् सृष्टिके सर्वभावोंको जानने के कार्यों अब कोई भी अवरोध या आवरण विद्यमान नहीं रहता। ऐसे समय पर ऐसी व्यक्तिमें संपूर्णज्ञान प्रकट होनेसे ही इसे 'केवलज्ञान' कहा जाता है / इस प्रकार केवलज्ञान प्राप्त करनेवाली व्यक्ति 'केवली' अथवा सुप्रसिद्ध शब्दमें 'सर्वज्ञ' के रूपमें पहचानी जाती है / __ आत्मा अरूपी अर्थात् निराकार है और ऐसी एक आत्माके प्रदेश असंख्य होते हैं जो प्रदेश किसी एक शंखलेकी तरह एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। ये कभी एकदूसरेसे अलग नहीं होते, यह इसकी विशेषता है / इनमें रूचक' ऐसे सांकेतिक शब्दसे परिचित आत्माके आठ रूचक प्रदेशोंके सिवा अन्य तमाम प्रदेशों पर प्रत्येक आत्माने Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 328 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * स्वयं ही अपनी शुभाशुभ प्रवृत्ति द्वारा कार्मण वर्गणाके अनन्तानन्त स्कंधोंके स्तर जमाए हैं। इन्हीं अत्यंत सूक्ष्म स्कंधोंके फलस्वरूप उन्होंने अपने केवलज्ञानके प्रकाशको ढंक दिया है। इस प्रकार इतना ढंक देने पर भी चार ज्ञानोंका प्रकाश खुला रहता है। फिर मी अगर केवलज्ञानको सागर कहे तो (ये भले ही चार ज्ञान हैं फिर भी) इन्हीं छामस्थिक ज्ञानोंको विन्दु अथवा धुंद मात्र (मुश्किलसे) कह सकते हैं / इन ज्ञानावरण-दर्शनावरण कार्मण वर्गणा के स्तर ऊपर कहनेके मुताविक सर्वथा नष्ट हो जाते हैं तव एकएक प्रदेशमेंसे अनंत-अनंत ज्ञानप्रकाश आलोकित हो उठता है, जिसके प्रभावसे अखिल विश्वमें व्याप्त रूपी-अरूपी सभी द्रव्य तथा उनके तीनों कालके समस्त पर्यायों-अवस्था ओंका साक्षात्कार (आत्मप्रत्यक्ष ) एक साथ एक ही समय पर होता है। प्रारंभमें प्राप्त यह साक्षात्कार ( अंतिम ) भवकी पूर्णाहूति तक रहता है ऐसा नहीं हैं, लेकिन केवलज्ञानी आत्मा मोक्षमें जाती है तब वह प्रकाश भी साथ साथ ही जाता है और अनंत काल तक टिका रहता है / बीज नष्ट होने पर जिस प्रकार अंकुर फूटते नहीं है, इस प्रकार ये बाधक कारण हमेशके लिए नष्ट होते ही निष्पन्न कार्य कायम बना रहता है। ....यहाँ ज्ञानप्राप्तिके आरंभिक समयमें आत्माकी भीतर उसके प्रदेश स्वरूप आयनेमें विश्वके रूपी-अरूपी अनेक द्रव्य तथा उनके त्रैकालिक पर्याय अवस्थाओंके अनंतानंत प्रतिबिंब पड़ने पर भी जिस प्रकार "दैर्पणमें अनेक प्रतिबिंब पड़ने पर भी आयनेके शीशेको जफा ( नुकशान ) पहुँचती नहीं है, उसी प्रकार केवलीके लिए कुछ मी जाननेमें किसी कठिनाईका सामना करना पड़ता नहीं है। इस ज्ञानकी प्राप्तिके बाद समग्र विश्वके रूपी-अरूपी किसी द्रव्य पर्याय या अंश शेष रहता नहीं है, जिन पर यह ज्ञान प्रकाश नहीं डाल सकता। इसलिए ही इस ज्ञानको लोकालोक प्रकाशक कहा है। विश्वमें ज्ञेय पदार्थ अनंत है। उन्हें जाननेके लिए ज्ञानकी मात्राएँ (ज्ञानांश ) भी अनंत ही होनी चाहिए, इसलिए इसे सन्तुलित (Balance) करनेके लिए आत्माके 641. इसका तात्पर्य यह कि न्यूनाधिकरूपसे इन्हीं चारों ज्ञान प्राप्तिके अधिकार उपस्थित होते ही है। 642. दूसरा कोई पूर्ण अनुरूप द्रष्टांत न मिलनेके कारणसे ही यहाँ पर स्थूल व्यवहारसे समझानेके लिए आयनेका द्रष्टांत दिया गया है / एक प्रकारसे तो यह एकदेशीय हुआ / वरना आयना और प्रतिबिंबित पदार्थ-दोनों रूपी है तो आत्मारूप आयना अरूपी और प्रतिबिंबित पदार्थ रूपी-अरूपी दोनों है / दृश्यमान प्रतिबिंबोंकी घटना शब्दसे अकथ्य है तो छानस्थिक बुद्धिसे भी अगम्प है / यह एक विलक्षण और अद्भुत बाबत ( जरीया) है / जिसमें ज्ञान होता है वही इसे समझ सकता है / विराट (महान् ) को विराट ही समझ सकते हैं, हम जैसे वामन नहीं, उसी न्यायसे / Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानद्वार-केबलबान . प्रति प्रदेशपर अनंत झानांश ( मात्राएँ ) प्रकाशमान होते हैं। एक प्रदेशमें अगर अनंत ज्ञानांश हैं तो ( आत्माके) असंख्य प्रदेशमें कितने होंगे इसकी कल्पना कर लेना। इस प्रकार केवलज्ञान अनंत पदार्थ प्रकाशक होनेसे उसे जो 'अनन्तु' कहा है, वह सान्वर्थक है / इसके समान दूसरा कोई ज्ञान ही नहीं है / इसीसे उसे शास्त्रों ' असाधारण' (अलौकिक) विशेषणसे सम्मानित किया गया है। ऐसी अनेक उपमाओं द्वारा इस ज्ञानका महिमा शास्त्रोंमें दिखाया गया है। आत्माकी मूलभूत साहजिक शक्तिके रूपमें यह ज्ञान होता है। किसीके मनमें अगर ऐसी शंका उत्पन्न होती है कि ऐसा ज्ञान धारण करनेवाले (केवलज्ञानी) क्या सचमुच हो सकते हैं ? यदि हाँ, तो उसका प्रमाण (सबूत) क्या ? तो इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि दुनियामें जो चीज अल्प मात्रामें होती है तो उसकी मात्राका अंतिम छोर भी होता है। जिस प्रकार कोई एक कुआँ पानीका छोटा-सा स्थान है तो इसका अंतिम छोर सागर स्पष्टरूपसे विद्यमान है। अथवा अल्प अवकाश (गगन)का अंतिम विराट आकाश है जो हमारे सामने है। उस प्रकार जो हम ज्ञानकी अल्प स्थिति सामान्य वर्गके जीवोंमें देखते हैं तो बादमें उत्तरोत्तर बढते ज्ञानांशोवाले जीव भी इस सृष्टि पर देखे जाते हैं। यह देखकर मनुष्यके मनमें कई बार ये तर्क उठते है कि यदि ऐसे ऐसे गहरे और महान् बुद्धिवाले विद्वान इस संसारमें देखे जाते हैं तो बुद्धि कितनी विराट (महान् ) होगी ? कितनी विशाल और असीम होगी ? (और इस प्रकारकी शंका मात्र ही केवलज्ञानके सबूतका सबसे बड़ा प्रमाण है। ) तो इस प्रकार उत्तरोत्तर आगे बढती बुद्धिका पर्यवसान भी ज्ञानकी कोई अंतिम विराट या असीम स्थितिमें होना ही चाहिए। तो इसका पर्यवसान केवल ' ज्ञानमें होता है जो ज्ञानकी पूर्ण अवस्था अथवा चरम सीमा है। यही ज्ञानका अंतिम छोर है इसलिए अब यहाँ अधिक ज्ञानके लिए अल्पांश भी जगह बचती नहीं है। निगोदके जीव (एक सूक्ष्म साधारण वनस्पति)का ज्ञान यह ज्ञानकी अत्यंत अल्पावस्था है। और केवलज्ञान ज्ञानकी अंतिम अवस्था है। इन दोनोंके बीच ज्ञानकी स्थितियाँ अनंत तारतम्ययुक्त समझ लें। इस ज्ञानके अस्तित्वकी सिद्धिमें दूसरा समाधान यह है कि-अनुमान भी सामने प्रत्यक्ष बनी हुई चीजोंका ही होता है। अर्थात् परोक्ष माने गए अनुमानगम्य पदार्थों के ____ 643. यहां सामान्यकक्षासे लेकर लब्धि अपर्याप्ता तक सूक्ष्म साधारण वनस्पतिका जीव ले सकते हैं। वृ. सं. 42 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 330 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * लिए नियम है कि उन पदार्थोंको किसी एक व्यक्तिने मी प्रत्यक्ष रूपमें देखें हैं ही। अगर किसीको आत्मा, कर्म, परलोक आदि पदार्थ गम्य ( प्रत्यक्ष ) बने हैं तो यह सब केवलज्ञानके वलसे ही होता है। ऐसी व्यक्तियाँ सर्वज्ञ ही हो सकती हैं जिनसे आम जनताको उन सभी नामों और पदार्थोंका बोध मिलता है। ज्योतिषके अनेक शास्त्र संहिताएँ तथा उनके अंगरूप हस्त सामुद्रिकादिक जो तीनों कालकी यथोचित घटनाओंका ज्ञान देते हैं उनके सर्वोच्च कोटिके ज्ञानको अथवा उनके प्रमुख प्रवक्ता जो है उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है। ये केवलज्ञानी अपनी ज्ञानशक्तिसे प्रवचनोंके माध्यमसे अन्य आत्माओंको विश्वके पदार्थोंका स्वरूप, इस संसारमें उपादेय (प्रशस्त, ग्रहण करने योग्य ) क्या है ! हेय ( बुरात्याज्य ) क्या है ? संसार अथवा मोक्ष क्या चीज है ! आत्मा और कर्म क्या है ! और दोनोंके बीच कौन-सा संबंध है ! दुःख-सुखके कारण कौन-से हैं ! इत्यादि असंख्य विषयोंकी स्पष्ट समझ देते . हैं। संसारकी असारताका बोध देते हैं जिन पर मोह अथवा आसक्ति रखनेसे भुगतने पड़ते अनेक दुःखों, वैराग्य, अनासक्तभाव तथा पापकी प्रवृत्तिसे दूर रहनेसे प्राप्त शांति तथा सिद्धि आदिके बोध सुनकर हजारों आत्मा दीक्षा अथवा उच्चतम श्रावकपन (गृहस्थधर्म ) स्वीकारकर कल्याणमार्गकी आराधना करते हैं। इस प्रकार - पाँचों ज्ञानका स्वरूप संपूर्ण हुआ। ___ अब पाँचों ज्ञानकी जानने लायक कुछ हकीकतोंका संक्षिप्तमें निर्देश करते हैं।' कुछ लोग मति और श्रुतको अलग-अलग मानते हैं तो कुछ लोग श्रुतको ही मतिके अन्तर्गत मानकर श्रुतके अलग विभागको मानते नहीं है / तो कुछ लोग मनःपर्यव ज्ञानको अवधिका ही एक प्रकार रूप मानते हैं। केवली विश्वमें प्रवर्तमान अभिलोप्य ( कथन योग्य ) और अनभिलाप्य ( कथनके अयोग्य ) दोनों प्रकारके भावोंको जानते हैं। लेकिन कथन अभिलाप्य भावका ही कर सकते हैं। और इसमें भी अभिलाप्य भावके अनंतवाँ भाग ही सुना सकते हैं। क्योंकि कथन तो अक्षरो द्वारा ही होता है और इन अक्षरोंको कहनेवाली तो भाषा है जो क्रमानुसार व्यक्त होती है। इसके सामने आयुष्य परिमित होता है। इसलिए केवली भगवंत पाससे भी हमें अत्यल्प ज्ञान प्राप्त होता है। यद्यपि यह अत्यल्प ज्ञान भी हमारे लिए तो असाधारण है ही। 644. अनभिलाप्य भाव अभिलाप्य भावोंसे अनंतगुने हैं / Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञानद्वार-ज्ञानकी विविध माहिती . * 331. जीवको एक ही समयमें मति अथवा केवलकी अपेक्षासे एक अथवा मति, श्रुत दो अथवा तीन या चार ज्ञान एक साथ मिल सकते हैं। लेकिन इनमेंसे उपयोग तो एक ही समयपर एक ही ज्ञानका हो सकता है। इसके सिवा पाँचों ज्ञानका परस्पर साधर्म्य, वैधर्म्य तथा अन्य स्वरूप ग्रन्थान्तरसे जान लेना। 'ज्ञान' तो समग्र विश्वके प्राणियोंके कार्य कारणभावमें जो अविनाभावी संबंधसे जुड़ा हुआ है, और जो सम्यक् अथवा मिथ्याके कारण सुख-दुःखमें निमित्तरूप बनता है और सम्यक् विश्वके संचालनमें मुख्यरूपमें भाग लेता है। यदि इस ज्ञान जैसी चीज ही न होती तो विश्व कैसा होता ! इसकी तो कल्पना ही करनी पड़ेगी। लेकिन न हो' ऐसा बनेगा नहीं। ये 'दर्शनगुण' और 'ज्ञानगुण' एक है या विभिन्न ? तो अपेक्षासे एक प्रकारसे एक है और अपेक्षासे भिन्न भी है। यद्यपि इस विषयमें बहुत वक्तव्य है जिसे ग्रन्थान्तरसे जान सकते हैं। समग्र विश्वमें ज्ञान ही एक सच्चा प्रकाश और जीवनका सच्चा राहबर है। यही जीवनके सर्व सुखों तथा शान्तिका मूल है। इसलिए ज्ञान तथा उसके साधन और ज्ञानकी आशतिना दूर करें। और इसके साथ ही इसकी कठोर ( प्रचण्ड ) औराधनाउपासना करें कि कोई न कोई जनममें हमारा प्रस्तुत पुरुषार्थ ज्ञानके भेदप्रभेदसे रहित ऐसे एक अभेद स्वरूप माने जाते केवलज्ञानकी प्राप्तिमें परिणमित हो। . 14. जोग (योग)-योगकी परिभाषा करनेसे पहले हम यह दिखाना चाहते हैं कि अलग अलग ग्रन्थ 'योग' शब्दका अर्थ कौन-सा करते हैं। 645. ज्ञानकी आशातना आज-कल प्रचण्ड रूपमें बढ़ी है / विज्ञानकी सहायतासे बनाए गए साधनसुविधाओंके कारण ज्ञानकी आशातना सरलतासे हो जाए ऐसी परिस्थितियोंका निर्माण हो गया है / एक प्रकारसे अखबार भी ज्ञान ही है / इसलिए कपडे, खानेकी चीजें अथवा अन्य सांसारिक कार्योंके लिए उसका उपयोग नहीं करना चाहिए / इसलिए उसमें न तो विष्ठा (मल) करना चाहिए और न तो उससे * विष्ठा साफ़ करना चाहिए / इसी प्रकार पुस्तकोंका भी वैसा ही दुरूपयोग हो रहा है / इसके कारण बड़े-बड़े पाप बँधते हैं / लेकिन दुर्भाग्य तो यह है कि इसके कारण पाप होता है ऐसा प्रजा जानती भी न हो, वहाँ वह बेचारी करे भी क्या ? अरे ! जैन भी जानते नहीं हैं / और जो जानते भी हैं वे पूरा अमल करते भी नहीं है / इसलिए इसका प्रचार करके प्रजाको पापकी राहसे बचाना चाहिए / 646. ज्ञान जाननेकी शक्ति होने पर भी ज्ञान न जानना वह भी ज्ञानशक्तिका गुनाह होनेसे शानावरणीय कर्म बँधता है / Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 م س ه م م م م م ه ه * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 1 योग अर्थात् व्यापार कर्म क्रिया / अप्राप्त इष्ट चीजका लाभ / कर्मके अंतर्गत कौशल्य / / मन, वचन और काय योग्य प्रवर्तक द्रव्य / मन, वचन, कायाका परिस्पंदन कर्ता / वीर्य, उत्साह, सामर्थ्य पराक्रमादि / ___ आत्माका अध्यवसाय विशेष / मोक्षके साथ संबंध बँधा देनेवाले / चित्तवृत्ति निरोध / मानसिक स्थिरता। मानसिक बंध / मानसिक व्यापार। मोक्ष प्रापक व्यापार / इस प्रकार अनेक अर्थोंमें 'योग' शब्दका प्रयोग हुआ है। लेकिन यहाँ तो खास करके नं. 1, 4, 5 और 6 के अर्थ ही विशेष रूपसे अभिप्रेत है / इस प्रकार ऊपर भावार्थ अथवा शब्दार्थ बतानेके बाद अब उसकी पूर्ण परिभाषा विभिन्न स्थलों पर कहनेके बाद मी अत्यंत जरूरी बननेसे यहाँ दी जाती हैं। परिभाषाएँ 1. गमनागमनकी जो क्रिया है वह, अथवा गमनागमनकी क्रियामें जो उपयोगी बनता है उसका नाम है योग / 2. अथवा चलना, बैठना आदि हररोजकी क्रिया जीव जिनकी सहायतासे करता है उसका नाम योग है। 3. वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न जीवका परिणाम विशेष / 4. आत्माका पुद्गलके आलंबनयुक्त व्यापार / 5. आत्मामें वीर्य-शक्ति-ताकृतका स्पंदन / इस योगको प्रथम दो प्रकारमें बाँटते हैं (1) द्रव्य और (2) भाव। द्रव्ययोग अर्थात् मन, वचन और कायाके योग प्रवर्तक जो द्रव्य है वे / अथवा तीनोंको परिस्पंदन करानेवाला मन, वचन तथा कायाका जो बाह्य व्यापार है वह / और भावयोग अर्थात् Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगद्वार * * 333 . बाथ व्यापारमें कारणभूत जो अध्यवसाय, विचार या परिणाम ( नतीजा ) जो हैं वह अथवा उत्साह, वीर्य, पराक्रम आदि जीवके कार्य ही योग है। आत्मामें उत्पन्न होती यह योग-वीर्य शक्ति जिस जिसके साथ जुड़ जाती है, तब यह शक्ति उसी नामसे युक्त अथवा प्रसिद्ध बनती है। यह शक्ति किसके साथ जुड़ जाती है ? तो मन, वचन और काया इन्हीं तीनोंके साथ जुड़ती है, / क्योंकि प्रस्तुत शक्तिका उपयोग तो ये तीनों चीज ही करती हैं। अर्थात् इस शक्तिका उपयोग मन जब सोचनेके लिए करता है तब मनोयोग नामसे, बोलनेके लिए जब उपयोग करता है तब वचनयोग नामसे तथा शारीरिक क्रिया के साथ जुड़ता है तव काययोग नामसे पहचाना जाता है / उपर्युक्त तीनों क्रिया करनेवाली आत्मा ही है। लेकिन वह पुद्गल द्रव्यरूप कर्मको पराधीन होनेसे घूमनेके लिए वृद्धकी लकड़ीके आधारकी तरह अगर योगकी सहायता हो तो ही वह कार्य करनेमें समर्थ बनती है / अथवा तीनों शक्तियाँ उस समय ही कार्यशील बनती है। ____ वस्तुतः देखा जाए तो वाणी अथवा मनके द्रव्योंका ग्रहण काययोगसे ही होता है। इसके कारणसे ही इन्हीं तीनों क्रियाओंमें काय व्यापार प्रधान रूप है। इसकी सहायतासे ही गमनादि क्रिया तथा वाचिक, मानसिक आदि व्यापार समर्थ बनते हैं। इसी 'अपेक्षासे तो मन, वचन और कायाको काययोगके ही प्रकार के रूपमें पहचाना जाता है। जिस समय आत्माका काया-शरीर द्वारा व्यापार शुरु हुआ कि तुरंत ही शरीरके जिस व्यापारसे पुद्गलोंका ग्रहण होता है वह अथवा इसी व्यापारको 'काययोग' कहते है। अब यह शरीर व्यापार युक्त जिन शब्द पुद्गलोंको बोलनेके लिए बाहर निकालते है तब वचनयोग और जब शरीर व्यापारसे मनके पुद्गलोंका चितन होता है तब 'मनोयोग' बनता है। . अब तीनों योगकी व्यवस्था समझाते हैं। 1. मनोयोग-मनःपर्याप्ति नामकर्मके उदयसे स्वकाययोग द्वारा द्रव्य स्वरूप मनोयोग्य वर्गणाको ग्रहण करके, मन रूप परिणमित करके, अवलंबन लेकर ( उसके द्वारा चिंतन-मनन करके ) विसर्जन करनेका जो व्यापार है वह मनोयोग है। .2. वचनयोग-भाषापर्याप्ति नामकर्मके उदयसे स्वकाययोग द्वारा द्रव्य स्वरूप भाषा वर्गणाको ग्रहण करके भाषा रूप परिणमित करके (जो कुछ कहना है उसे बोलकर ) अवलंवित होकर विसर्जन करनेका जो व्यापार है वह वचनयोग है / 647. यह बात तो व्यवहारनयसे है / निश्चयनयसे तो ये तीनों स्वतंत्र हैं / Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहतूसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . 3. काययोग-शरीरकी हलन-चलनादि क्रियाओंका जो व्यापार है वह / अब . तीनों योगकी समझ अधिक रूपसे प्राप्त हो इसके लिए इसके प्रकार संक्षिप्त अर्थाके साथ बताते हैं। _ चार प्रकारका मनोयोग-सत्य, असत्य, मिश्र और असत्यमृषा (अथवा व्यवहार)। 1. सत्को सत्रूपमें और असत्को असत्रूपमें दिखलाना ही सत्य मनोयोग है। 2. सत्को असत् और असत्को सत् रूपमें दिखलाना ही असत् मनोयोग है / 3. सत् वस्तुको सदसत् रूपसे अर्थात् कुछ अंशमें सत् और कुछ अंशमें असत् अथवा कभीकभी सत्में सत् और सत्में असत् रूपसे सोचना ही मिश्र मनोयोग है। 4. जिसमें सत्-असत् जैसी विचारणाका कोई स्थान ही न हो ऐसी सर्व सामान्य विचारणाको असत्यमृषा. अथवा व्यवहार मनोयोग कहा जाता है। चौथे योगमें मिसालके तौर पर देखें तो-अरे! ओ भाई, तू यहाँ आ, तू जायेगा क्या ? तू जरूर जाना ! इस प्रकार प्रश्न, आज्ञा (हुकम ) अथवा संकेतवाचक भावोंका चितवन जिसमें होता है वह। चार प्रकारका वचनयोग-इस वचनयोगको भी मनोयोगके चार प्रकारोंके अनुसार ही समझना। उनमें पूर्वमें चिंतनके रूपमें बात की है तो उसे यहाँ बोलनेके रूपमें घटा लेना। जैसे कि-सत्को सत् रूपसे और असत्को असत् के रूपसे बोलना / ' सात प्रकारका काययोग-१. औदारिक, 2. औदारिक मिश्र, 3-4. वैक्रिय, वैकिय मिश्र, 5-6. आहारक-आहारक मिश्र और 7 तैजैस-कार्मणः / . एक शरीरके साथ अन्य शरीरका व्यापार चलता है तब मिश्रता विद्यमान होती है। यह कब-कब होती है ? उसे ग्रन्थान्तरसे जान लेना / ये तीनों योग शुभाशुभ कर्मके बंधमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं / इनके ऊपर ही सुख-दुःख सद्गति-दुर्गति यावत् मुक्ति-मोक्षका आधार रहता है। इसलिए अगर सुख-शांति-सद्गति और मुक्तिकी ओर आगे बढ़ना हो तो प्रस्तुत तीनों योगोंको शुभ मार्गमें प्रवर्तमान (प्रबल) करनेके लिए सतत जागृतशील बनें जिसके कारण नया कर्मबंधन रुकेगा और पुराना प्रायः नष्ट होता जायेगा। इससे पुण्य बल बढ़ेगा। संवर (संयम-मनोनिग्रह) तथा निर्जराका उद्गम होगा और अंतमें इष्ट लक्ष्य पर पहुंचेंगे। यदि तीनोंका अशुभ मार्गमें प्रचलन करेंगे तो चिंता, दुःख, वेदना, व्याधि, अशांति 648. यह भेद अपेक्षासे 'कार्मणयोग'से भी पहचाना जाता है / Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उवओग-उपयोगद्वार * और अंतमें दुर्गति तथा बंधनके दुःख आपके सामने ही उपस्थित होकर आपका स्वागत करेंगे! ____ इसलिए हे मेरे प्यारे वाचक ! आपको कौनसा मार्ग अधिक पसंद है ! इसे आप स्वयं ही सोच लीजिए ! और फिर उसी मार्गपर आगे प्रयाण करनेका पुरुषार्थ कीजिए / सुज्ञेषु किं बहुना ! 15. उवओग [उपयोग]-वस्तु स्वरूपको जाननेमें जो उपयोगी बनता है, अथवा जिसकी सहायतासे पदार्थका स्वरूप समझमें आता है, अथवा पदार्थके ज्ञानमें आत्मा जिससे जुड़ जाती है वह / ये सभी 'उपयोग 'की ही परिभाषाएँ हैं। साथ ही ज्ञान, संवेदन, प्रत्यय आदि शब्द ज्ञानके पर्याय हैं। यह उपयोग जीवको ही लक्षण है। और इसके कारण ही जीव द्रव्यमें ही होता है। जीवको छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्यमें वह नहीं होता। यह जीव-चेतन द्रव्य तो जड द्रव्यसे सर्वथा भिन्न द्रव्य है जो जीवके उपयोग रूप असाधारण लक्षणोंसे सिद्ध होता है। .इस उपयोगके दो प्रकार हैं। 1. साकारोपयोग और 2. अनाकारोपयोग / वस्तुके आकार आदि विशेष स्वरूप पर जब उपयोग विद्यमान होता है तब इसी उपयोगके साथ ज्ञान शब्द संलग्न करनेसे उसे 'ज्ञानोपयोग' अथवा 'साकारोपयोग' कहा जाता है। और जब वह वस्तुके निराकार स्थूल-सामान्य धर्मकी ओर हो तब वह 'दर्शन' शब्दसे युक्त 'दर्शनोपयोग' अथवा 'निराकारोपयोग' कहा जाता है। दूसरे शब्दोंमें कहे तो ज्ञान साकारोपयोग स्वरूप है और दर्शन निराकारोपयोग स्वरूप है। .... इससे साकारोपयोगरूप ज्ञानके आठ और निराकारोपयोग रूप दर्शनके चार प्रकार हैं / ज्ञानके आठ भेदोंमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल-ये पाँच प्रकार है, और तीन 1. मति अज्ञान, 2. श्रुत अज्ञान और 3. ( अवधिके स्थानपर अवधि अज्ञान बोलते नहीं है लेकिन) विभंगज्ञान-अज्ञानमें आते हैं। इस प्रकार ये आठ प्रकाहैं। इन्हीं भेदोंके अंतमें 'उपयोग' शब्द लगानेसे ज्ञानोपयोगके आठ प्रकार समझमें आ 649. देखिए- उपयोगो लक्षणम् ' [त. अ. 2. ] नाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा ' वीरियं उवओगोय, एवं जीअस्स लक्खणं // [ नवतत्त्व मूल] 650. अनेक पदार्थोमेंसे अलग करनेवाले किसी एक हेतुको ‘लक्षण' कहते हैं / 651. आकार शब्दसे यहाँ सिर्फ लम्बाई, चौडाई आदि अभिप्रेत नहीं है, लेकिन जो पदार्थ जिस प्रकारका होता है वह उसी प्रकारसे अपने ज्ञानमें भासमान होता है ऐसा समझें / Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहमीरत्व-हिन्दी भाषांतर * जाते हैं। दर्शनसे चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल लेना है। इसके हरेकके पीछे 'उपयोग' शब्द लगानेसे चक्षु उपयोग आदि शब्द बनते हैं। ये बारह प्रकारोंका स्वरूप ग्यारहवें तथा बारहवें द्वारमें बताया गया हैं। सर्व सामान्य संसारी जीव कर्माधीन होनेसे इनका उपयोग अविरत और पूर्ण रूपसे वर्तित होता नहीं लेकिन त्रुटक त्रुटक और अल्पांशसे होता है, जब कि तीर्थंकरों, सर्वज्ञों तथा सिद्धोंमें तो अपूर्णता अथवा खण्डितताके प्रतिबंधक कर्मरूप कारणोंका क्षय होनेसे उनमें अविच्छिन्न तथा सर्वोशसे होता हैं। 16. उववाय [उपपात]-इसका शब्दार्थ तो–'उत्पन्न (पैदा) होना' इतना ही होता है, लेकिन उपलक्षणसे इसकी संख्या तथा विरहकी बात भी इसी द्वारमें कहनेका. अभिप्रेत है। इसलिए कौन-सी गतिमें एक ही समय पर ( समकालमें ) कौन-सी गतिके, कितने जीव संख्यासे पैदा होते हैं अर्थात् जन्म लेते हैं ! इसके अतिरिक्त विरहकाल प्रमाण कहनेका उद्देश्य भी है कि कौन-सी गतिमें एक जीव उत्पन्न होनेके वाद दूसरे जीवको उत्पन्न होनेमें कितना समय लगता है ? 17. चवण [च्यवन]-इसका अर्थ होता है क्षय होना अथवा अवसान होना / : उपपातकी तरह इस द्वारको भी उपलक्षणकी द्रष्टिसे दो प्रकारसे कहना अभिप्रेत है। अर्थात् किस गतिमेंसे समकाले एक ही कालमें, कितने जीवोंका अवसान होता है और विवक्षित कोई भी गतिमें एक जीवकी मृत्यु होनेके बाद, दूसरे जीवकी मृत्यु होनेके बीच कितना समय व्यतीत है ! इस कालनियमको दर्शाना ही च्यवन बिरह है। 18. ठिई [स्थिति]-अर्थात् आयुष्य मर्यादा कथन / जीवोंके जघन्योत्कृष्ट आयुष्यकी विविध काल मर्यादाको दिखलाना ही 'स्थिति' कहा जाता है। 19. पजत्ति [पर्याप्ति]-अर्थात् जीवन जीनेकी शक्ति / उपर्युक्त 16 से 19 तकके चारों द्वारकी परिभाषा इस ग्रन्थमें अच्छी तरहसे की गई है। इसलिए उन्हें यहाँ फिरसे दोहराना ठीक नहीं है। 20. किमाहारे [ किमाहारकः 1] इस प्राकृत शब्दका संस्कृत रूपांतर है किमोहारकः। किमाहारमें दो शब्द हैं- किम्+आहार / इसमें किम्का अर्थ होता है 'क्या' और प्राकृत आहारका अर्थ होता है, 'खानेवाला' / अब ये दोनों अर्थ संकलित करनेपर प्रश्नार्थक वाक्य बन जाता है कि जीव आहारक है या अनाहारक ? इसका 652. 'किमाहारे' त्ति-आहारयतीत्याहारकः ततः किमाहारको अनाहारको वा जीवः / / Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * किमाहारद्वार * * 337 . एक अर्थ यह हुआ। अब किमाहार शब्दको सौमासिक मानकर दूसरा अर्थ निकाले तो जीव किस शरीरसे आहार ग्रहण करता है ? और तीसरा अर्थ निकलता है कि कौनसे जीव कितनी दिशाओंमेंसे आये हुए द्रव्योंका आहार करते हैं ? इत्यादि व्याख्या इस द्वारमें कही जायेगी। इसमें पहले और दूसरे अर्थकी परिभाषा इसी ग्रन्थकी 331 वी गाथाके विवे. चनमें (पृष्ठ 190) कही गयी है / ___इसलिए अब यहाँ तीसरे अर्थकी परिभाषा करते हैं। अलबत्ता संग्रहणी ग्रन्थके वाचकोंके लिए यहाँ परिभाषा देना अत्यावश्यक नहीं है फिर भी किमाहारमें यहाँ जरूरी होनेसे दी गयी है। इसी तीसरे अर्थका अनुसरण करके आगमादि ग्रन्थान्तरोंमें इसका दूसरा-'दिगाहार' ऐसा नाम भी दिया गया है। जैन दर्शनका विश्व चौदह जेलोक प्रमाण है, जिसमें दृश्य विश्व (वर्तमान भारतक्षेत्रवर्ती वर्तित पाँच खण्ड प्रमाण ) तो सागरके सामने बँद जितना भी नहीं है तो अदृश्य विश्व-ब्रह्मांड कितना असीम-विराट होगा ? इसकी तो कल्पना ही करनी पडेगी। और यह विश्व सूक्ष्म-स्थूल, स्थिर-अस्थिर, गतिमान-अगतिमान, अति अल्पायुषी-अति दीर्घायुषी इस प्रकार विविध जातिके जीवोंसे व्याप्त हैं, उनसे ठसाठस भरा हुआ है। स्थूल या सूक्ष्म . पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति रूप अनेक जीव वह और स्वर्ग, मृत्यु, पातालवासी सभी देव, पृथ्वी पर विद्यमान सभी मनुष्य-पशुपक्षीगण तथा क्षुद्र जन्तुरूप तिर्यंच तथा पृथ्वीके गर्भमें विद्यमान नारक इन सब जीवसृष्टिसे विश्व भरा पड़ा है। इनमेंसे कुछ पृथ्व्यादि सूक्ष्म जीव हवा-अवकाशमें भी रहते हैं। ये जीव लोगोंके बीच भी हैं और लोकके छोर पर या कोने-बोनेमें भी होते हैं। इसी लोकमें सूईकी नोकका अरबोंवा जितना भाग भी ऐसा नहीं है जहाँ सूक्ष्म जीव नहीं होते ! .. उपर्युक्त तमाम जीवोंके आहारके तीन प्रकार सोचनेपर मिले हैं। ओज, लोम और कवल / इनमें यहाँ लोमाहारको लेकर मुख्यतः सोचा गया है। इनमें ओज तथा कवल आहारके लिए क्षेत्र तथा काल मर्यादित है जबकि इसके दोनों अमर्यादित है। 653. केन वा शरीरेणाहारोऽस्येति किमाहार इत्यपि / (संग्र० टीका) 654. के जीवाः कतिभ्यो दिग्भ्यः आगतानि द्रव्याण्याहस्न्तीति / देखिए जीवाभिगम, लोकप्रकाशादि। 655. एक राजमें असंख्य योजन-अरबों मील होते हैं / 'राज' यह जैन गणितका क्षेत्रका नाप दिखलानेवाला शब्द है। .656. आहार वर्णनके लिए देखिए गाथा 183 से 185 तकका अनुवाद / बृ. सं. 43 Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 338 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . प्रत्येक जीव मात्र अपनी त्वचा के छिद्रोंसे लोमाहारको अविरतरूपसे ग्रहण करता ही रहता है। अब प्रश्न तो यह है कि हवा अथवा आकाशमें विद्यमान पुद्गलोंका जो ग्रहण होता है, यह अमुक दिशासे होता है कि विभिन्न दिशाओंसे होता है ? और दूसरा सबकी ग्रहण दिशा एक समान होती है या न्यूनाधिक होती है ! अब इन प्रश्नोंका उत्तर यह है कि आहार्य पुद्गलोंके लिए निर्व्याघातपन हो तो आहार ग्रहण छः दिशाओंसे होता है / व्याघात अर्थात् रोकनेवाला, निर्व्याघात अर्थात् नहीं रोकनेवाला / अब यहाँ ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है कि हवा अथवा अवकाशी आहारको कोई रोकनेवाला है क्या ! इसका उत्तर है हाँ, -तो किस प्रकार रोकते हैं ! हमारे चौदहराज स्वरूप अनंत विश्वका आकार कटिपर हाथ देकर दोनों पैरोंको चौड़ा करके सीधा खड़े किसी पुरुषाकार जैसा लगता है। पैरसे सिर तक चारों ओरसे चौदहराज प्रमाण है, लेकिन चौड़ाईमें अनेक परिवर्तन है। इस चौदहराजको 'लोक' शब्दसे पहचाना जाता है / इसकी चारों ओर परिवृत्ताकारमें लोकसे भी अनंतगुना अलोक रहा है। इसी अलोकके. आगे तो लोक एक मात्र बिन्दु-बूंदके समान है। इस लोकमें त्रस (जीवोंका एक प्रकार ), स्थावर इत्यादि हरेक जातिके जीव हैं, संक्षिप्तमें समी प्रकारके (छः प्रकारके) ;य हैं। लेकिन अलोकमें कोई पुद्गलद्रव्य नहीं है, वहाँ सिर्फ जड़ आकाश-अवकाश-रिक्तता है। अब चौदहराजलोकके निष्कूट भागमें अर्थात् अंतिम छोर पर विदिशामें तीक्ष्णवालाग्र जितनी जगहमें कोई सुक्ष्म एकेन्द्रिय (सिर्फ शरीरधारी) जीव मिसालके तौरपर अग्निकोणमें उपस्थित होता है तब उसे तीन ही दिशाओंसे आहार ग्रहण होता है / क्योंकि पूर्व, दक्षिण तथा अंधोमें अलोक है। लेकिन अलोकमें आहार पुद्गल होते ही नहीं हैं, इसलिए वह दिशा बंध है। शेष पश्चिम, उत्तर तथा उर्ध्वदिशामेंसे आहार ग्रहण होता है, क्योंकि वहाँ लोक है। (इसके लिए देखिए चित्र नं. 72) 657. पुरुषाकारकी उपमाको सर्वदेशीय नहीं समझना चाहिए। क्योंकि इससे लोक चिपटा हो जायेगा लेकिन लोक वैसा नहीं है / 658. ये छः द्रव्य जीव, अजीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गल और काल समझें / 659. पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर वायु पर्याप्ता अथवा अपर्याप्ता कोई भी लें। 660. उत्तर, दक्षिण दिशा होने पर भी ऊर्ध्व अधो दिशाकी कल्पना भी हो सकते हैं। * इस वस्तु सचमुच चित्रसे भी ज्ञानी गुरुगमसे प्रत्यक्षमें बहुत सरलतासे समझाते हैं। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संशाद्वार. * 339 . दूसरा कोई जीव थोड़ा पश्चिम दिशाकी ओर रहा हो तो पूर्व दिशा खुली हो जानेसे (अलोक दूर होते ही) उस दिशामेंसे आहार प्राप्तिकी संभावना (शक्य) बनते ही (सिर्फ अधो तथा दक्षिण दोनों दिशाओंको छोड़कर) चार दिशाओंमेंसे आहार प्राप्त कर सकता है। चौदहराजलोकके उर्ध्व भाग पर तथा अधो भाग पर विद्यमान अंतिम प्रतरको लक्षित करके यह बात कही गयी है। लेकिन भीतरके दूसरे-तीसरे प्रतर पर हो तो इसका क्या ? अगर जीव वहाँ विद्यमान है तो इसको पाँचों दिशाओंसे आहार मिलता है, क्योंकि नीचेसे ऊपर अथवा ऊपरसे नीचेकी ओर (उर्ध्वाधो दोनों आश्रयी) गया इसलिए (प्रतरका व्यवधान आते ही) ऊर्ध्व अथवा अधो दिशा खुली हो जानेसे उन्हीं दिशाओंमेंसे आहारकी दिशा बढ़ती है। अब ऊपरके प्रतरोंमें बीचमें जितने भी जीव हैं, उन्हें सभी दिशाओंमें लोक ही होनेके कारण छः दिशाओंसे आहार मिल सकता है। जिस प्रकार उबलते हुए तेलके बीच पुआ अथवा पूरी तथा जलमें उपस्थित स्पंजका टुकड़ा छः दिशाओंसे क्रमानुसार तेल और जल ग्रहण करता है। त्रस जीवोंको सर्वत्र छः दिशाओंसे आहार ग्रहण होता है। क्योंकि वे चौदहराजलोकके मध्यभाग (सनाडी )में होते हैं। और उस जगह पर चारों ओरसे परिवृत्त लोकाकाश है जिसमें आहार योग्य पुद्गल द्रव्योंका सदा अस्तित्व रहता है। इस प्रकार किमाहार द्वार पूर्ण हुआ। अनंत प्रदेशी, असंख्य आकाश प्रदेशावगाही, एक समयसे लेकर असंख्य काल तक आहार स्वरूप रहनेवाले, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शवाले, स्वात्म प्रदेशावगाही ऐसे पुद्गलोंका आहार जीव ग्रहण करते हैं। - 21. "सैन्नि ["संझी]-जिसे संज्ञा वर्तित होती है उसे 'संज्ञी' कहा जाता 661. तीन, चार या पाँच दिशाओंका आहार, लोकके पर्यंत भाग पर विद्यमान जीवोंके लिए ही होता है / ___662. गाथामें 'सन्नि' ऐसा उल्लेख क्यों किया है वह सोचनीय है / क्योंकि शेष सभी द्वार उस हरेक चीज अथवा गुणके नामयुक्त हैं, नहीं कि उस हरेक वस्तु अथवा गुणके नामयुक्त व्यक्तिके, यह देखते हुए इसमें भी दूसरीषार -- सन्ना' शब्दका प्रयोग कर सकते थे / इस विषयमें सोचनेपर ऐसा लगता है कि एकबार सन्ना शब्द आ ही गया है इसलिए दूसरीबार फिरसे समानार्थी शब्दका प्रयोग करनेसे कोई द्विधा उत्पन्न न हो ऐसे कोई कारणसे ही किया होगा अथवा दीर्घादि संज्ञावाला संज्ञी शब्द ही खरा है ऐसा बतानेके कोई हेतुसे ताच्छिल अर्थमें संज्ञी शब्दका उपयोग किया होगा / 663. संज्ञाऽस्यातीति संशी। Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 340. . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * है। इसी 24 द्वारकी गाथामें सन्ना और संज्ञी ये दोनों शब्द दो द्वार के सूचक है / उनमें प्रथम 'सन्ना' शब्द संज्ञाका द्योतक है और दूसरा शब्द संज्ञा नहीं, लेकिन 'संज्ञी' है। इसलिए प्रथम शब्द सिर्फ गुणवाचक (-अथवा दर्शक) है और दूसरा संज्ञा जिनमें हो वैसी व्यक्तियोंका सूचक है। यहाँ कौनसी संज्ञा परसे संज्ञी समझें ? तो इसका उत्तर है कि जो विचार करनेका बल धारण करती है। तो विचार कौन कर सकता है ? इसका उत्तर है जिसके पास मन है वह / तो मन किसके पास होता है ? तो पांचों इन्द्रियवाले जीवोंके पास होता है। तो क्या सभी पंचेन्द्रियोंके पास होता है क्या ? नहीं, जो मनःपर्याप्तिसे पर्याप्ता है उन्हें ही होता है। तात्पर्य यह कि मनःपर्याप्तिसे पर्याप्ता ऐसे पंचेन्द्रियोंको ही 'संज्ञी' कहा जाता है और पृथ्वीकायसे लेकर संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें स्पष्ट मन न होनेसे ऐसे जीवोंको ‘असंज्ञी' कहा जाता है। शंका-शास्त्रमें तो आहार, भय, मैथुनादि दस प्रकारकी संज्ञा एकेन्द्रियादि जीवोंमें कही है, तो आप उन्हें भी संज्ञी क्यों नहीं कहते हैं ! समाधान-आहारादि संज्ञाएँ भले ही हो लेकिन वे सब सामान्य प्रकारकी है। साथ ही वे सब मोहोदयसे उत्पन्न होनेके कारण महत्त्वपूर्ण और शोभनरुप नहीं है। जिस प्रकार 'सो' रुपयेकी मुडीवाला धनवान नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार सामान्य संज्ञाओंसे युक्त हर किसीको 'संज्ञी' नहीं कहा जा सकता है। इसलिए उसको यहाँ ग्रहण करना नहीं है। लेकिन यहाँ तो विशिष्ट ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न मनःपर्याप्तिसे पर्याप्ता मनोज्ञानवाले जीवकी जो संज्ञा है वही महत्त्वपूर्ण और सुंदरतम है। इसलिए उसका ही ग्रहण यहाँ उचित है। तो मनवाले जीवोंके लिए कौनसी संज्ञा है ! तो इनके लिए त्रिकाल विषयक दीर्घकालिकी संज्ञा है। शास्त्रमें जीवोंको संज्ञी –असंज्ञी जो कहे जाते हैं वह इसी महान् संज्ञाको लक्षित करके ही। आहारादि सामान्य संज्ञाको लेकर नहीं। अब गाथामें तो मूल पद संज्ञी है। उसे ध्यानमें रखकर अर्थ करें तो संजीके प्रकार कितने हैं ! इसे समझना चाहिए। 664. अन्य ग्रन्थोंमें 'संज्ञी' के लिए 'समनस्क' और असंजीके लिए 'अमनस्क ' शब्दका प्रयोग हुआ है। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संज्ञाद्वार . . .. 1. "दीर्घकालिक्युंपैदेश 2. हेतुवादोपदेश और 3. द्रष्टिवादोपदेश / इन्हीं तीन संज्ञाओंसे जो युक्त होता है उसे 'संज्ञी' कहा जाता है। लेकिन एक ही जीवमें ये तीनों एक साथ होनी ही चाहिए ऐसा नियम न समझें। 1. दीर्घकालिकी - जिसमें दीर्घकालका स्मरण होता है, अर्थात् जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिंता, विमर्श इत्यादिकी विचारणा की जाती है, उसे दीर्घकालिकी कहते हैं। ___ जिस प्रकार 'ईहा' अर्थात् सदर्थकी समीक्षा, बादमें 'अपोह' अर्थात् करनेका निर्णय, वादमें 'मार्गणा' अर्थात् अनुकूल संयोग क्या है ? उसका विचार करना, बादमें 'गवेषणा' अर्थात् प्रतिकूल धर्म कौन-कौनसे हैं ? इनकी विचारणा, तत्पश्चात् 'चिन्ता' अर्थात् ऐसा क्यों हुआ ? अब अभी इसका क्या किया जायँ तथा भविष्यमें उसके विषयमें क्या-क्या सोचें आदि त्रैकालिक पर्यालोचन किया जाता है। ये प्रस्तुत संज्ञाके धर्म हैं। उत्तरोत्तर उक्त विचारोंको सर करनेके बाद अब 'विमर्श' अर्थात् निर्णय करता है कि "यह चीज इस प्रकारकी ही हो सकती है, यह चीज भूतकालमें अमुक प्रकारकी ही थी और भविष्यमें उसका ऐसा ही होगा" यह जिस प्रकार कोई आँखोंवाला मनुष्य चिराग आदिकी रोशनीके सहायसे पदार्थका ज्ञान स्पष्ट रूपसे प्राप्त कर सकता है, उसी प्रकार यह विमर्श, मनोलब्धिसम्पन्न ऐसे मनोद्रव्यके आलम्बनसे उत्पन्न होता है। जिससे पूर्वापर अनुसंधान करने यथावस्थित अर्थनिर्णय कर सकता है / 1. इसकी संक्षिप्त परिभाषा यह है कि कोई भी चीजक अतीत, वर्तमान तथा अनागत ये तीनों काल संबंधी अर्थका अपने क्षयोपशमके अनुरूप सोचनेवाली जो शक्ति है, उसे 'दीर्घकालिकी' संज्ञा कहा जाता है। ऊपरके कथनानुसार ऐसी संज्ञावाला जीव कुछ साल पहले अमुक कार्य अमुक रीतसे किया था, इसका नतीजा अमुक आया था, अब आज उस प्रकारसे करनेपर कौनसा नतीजा सामने आयेगा और भविष्यमें भी इसका नतीजा क्या आयेगा ? इस प्रकारकी दीर्घ, लम्बा, गहरा, साधक-बाधक संयोगोंका ख्याल करनेपूर्वक वैचारिक शक्ति रखता है। यह संज्ञीकी बात हुई। .. 665: दीर्घवर्जीको सिर्फ 'कालिकी' शब्दसे भी पहचाना जा सकता है / दीर्घकालका जिसमें स्मरण हो वह। . 666. उपदेशः कथनम्-इस प्रकार उपदेश शब्दका अर्थ 'कथन' भी कर सकते हैं। 667. संज्ञानं संज्ञा, सम्यगजानातीति संज्ञा / Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 342. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अब जो लोग ईहासे लेकर विमर्श तककी विचारणा करनेमें अशक्त है उसे 'असंज्ञी' कहा जायेगा। इसमें समूच्छिम पंचेन्द्रियसे लेकर पृथ्वीकाय तकके जीव आ जाते हैं। यद्यपि इन्हीं संमूच्छिम पंचेन्द्रियोंको मनोद्रव्यग्रहणाभावके कारण स्पष्ट द्रव्यमन न होनेसे असंज्ञी कहा है, लेकिन इनमें सर्वथा समझ नहीं होती है ऐसा नहीं समझना चाहिए। स्वल्पतर मनोलब्धिका ( भावमनका) अस्तित्व तो इनमें भी होता है जिसके कारण वे उत्तरोत्तर अस्फुट अर्थको समझ सकते हैं। इसलिए उनके लिए भी अव्यक्त और अतीव अल्पतर कुछ भावमन स्वीकारना ही पड़ेगा। एकेन्द्रिय वनस्पत्यादिमें अव्यक्तरूपसे (अस्पष्टरूपसे) आहारादि दस संज्ञाएँ जो देखी जाती हैं ये सब इसी भावमनके कारणसे हैं। शास्त्रोंमें 'संज्ञी-असंज्ञी' जीव इत्यादि जो शब्द आते हैं, वहाँ सामान्य कक्षाकी अहिारादि संज्ञावाले जीवोंको छोड़कर विशिष्ट प्रकारकी समझदारी रखनेवाले सिर्फ दीर्घकालिकी संज्ञायुक्त जीवोंको समझना चाहिए। इस बातका खयाल हमेशा रखें। यह दीर्घकालिकी संज्ञा मनःपर्याप्तिवाले गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य, तिथंच, देव तथा नारकोमें देखी जाती है। 2. हेतुवादोपदेश (हेतुवादिकी)-'हेतुका अर्थ है-कारण अथवा निमित्त'। इस प्रकारसे हेतुका जिसमें कथन होता है उसे हेतुवाद कहा जाता है और उसी वादका उपदेश (प्ररूपणा) जिसमें होता है उसे हेतुवादिकी संज्ञा कहा जाता है। यह इसका शब्दार्थ हुआ। अब इसका भावार्थ यह है कि अपने शरीरके परिपालनके लिए जो जीव बुद्धिपूर्वक इष्ट पदार्थमें या कार्यमें प्रवृत्ति तथा अनिष्ट पदार्थ या कार्यसे निवृत्ति रखते हैं वैसे जीव हेतुवादिकी संज्ञावाले हैं। - ऐसे जीव धूप लगते ही मनसे सोचकर धूपसे छाँवमें और ठंड लगते ही उससे बचनेके लिए धूपमें लाभ लेनेके लिए दौड जाते हैं। यद्यपि उनके सुख-दुःखका यह 668. आहारादि संज्ञाएँ तो है लेकिन वे ओघरूप सामान्य प्रकारकी और अत्यल्प तथा मोहोदयजन्य है। इसलिए उनका ग्रहण यहाँपर अनुचित और असंगत है। अतः यहाँ तो शुभ मानी जाती ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमजन्य दीर्घकालिकी आदि संज्ञाओंका ग्रहण ही समझें / 669. 'संप्रधारण' संज्ञा यह इसका दूसरा नाम है। 670. कोई-कोई ग्रन्थमें कोई अपेक्षासे पहले हेतुवादोपदेश और बादमें दीर्घकालिकी ऐसा क्रम है। लेकिन सिद्धान्तकारोंको यह क्रम मान्य नहीं है। वे तो इसका समाधान इस प्रकार करते हैं कि शास्त्रसिद्धान्तमें संशी-असंज्ञी जीवोका ग्रहण होना यह कोई दूसरी या तीसरी संज्ञासे नहीं, लेकिन पहली 'कालिकी' संज्ञासे संज्ञी हो उनका ही ग्रहण होता है / इसकी प्रतीति करानेके लिए उक्त क्रम योग्य है। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संशाद्वार . तर्क प्रायः वर्तमानकाल तक ही सीमित होनेसे कईबार ऐसा भी बनता है कि वर्तमान समयके दुःखसे ऊबकर उससे छुटकारा पानेके लिए सुखका मार्ग खोजते हैं। लेकिन भूत-भविष्यको परस्पर संकलित विचार करनेकी विशिष्ट बुद्धिके अभावसे कईबार सुखके लिए की गयी प्रवृत्ति दुःखका कारण बन जाती है और अतीतके अनुभवोंकी स्मृति भी रहती नहीं है / और भावि सोच-विचार करनेकी तीव्र शक्ति न होनेसे वे धूपको छोड़कर छाँवमें चले तो जाते हैं लेकिन यह जगह दूसरे प्रकारसे अधिक कष्टदायक हो जायेगी इस बातका ध्यान नहीं रखेंगे। क्योंकि यह संज्ञा विशेष करके वर्तमान समयका ही बोध कराती है। यह संज्ञा दो इन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके समस्त समूच्छिम जीवोंमें होती है इसलिए उन्हें भी 'संज्ञी' तो मानना पड़ेगा ही। दूसरी एक बात यह भी समझ लीजिए कि-पृथ्व्यादि पाँच एकेन्द्रिय जीवोंको मी इसी संज्ञासे 'असंज्ञी' माना जाता है। ये जीव भी बुद्धिपूर्वक इष्टानिष्ट प्रवृत्ति-निवृत्ति करते नहीं हैं। यद्यपि आहारादि संज्ञा होनेसे इन्हीं जीवोंके लिए भी 'संज्ञी' विशेषणका प्रयोग क्यों न करे ऐसा तर्क हो सकता है, लेकिन ऊपर देख आये हैं उस प्रकार अत्यंत अव्यक्त रूप होनेसे उसे यहाँ छोड़ दिया है। .... 3. द्रष्टिवादोपदेश ( द्रष्टिवादोपदेशिकी )-प्रथम शब्दार्थ-भावार्थको देखते हैं। द्रष्टि दर्शन और वाद-उसका कथन, अर्थात् द्रष्टिवादका कथन उपदेशकी अपेक्षाको बतानेवाली जो संज्ञा है वह। ..दूसरा अर्थ सम्यग्दर्शनादि संबंधक कथनकी अपेक्षायुक्त अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्श्रुतज्ञानकी अपेक्षायुक्त जो संज्ञा है उसे द्रष्टिवादोपदेशिकी कहा जाता है। . इन समीका संकलित अर्थ यह हुआ कि-जो जीव निश्चित सम्यग्दृष्टि होते हैं और अपने विशिष्ट श्रतज्ञानके क्षयोपशमवाले और योग्य रूपसे हिताहितमें प्रवृत्ति-निवृत्ति करनेवाले हैं उन्हें दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञावाले जीव कहे जाते हैं। यों तो यह संज्ञा सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे चारों गतिमें होती है, लेकिन यहाँ पर . मुख्यतः विशिष्ट श्रुतज्ञान तथा विशिष्ट चारित्रको लक्षित करके ही कथन किया जाता है, इसलिए मनुष्योंको लेकर ही यह संज्ञा घटित की जाती है। जिन मनुष्योंमें सम्यगदर्शन इत्यादि गुण होते हैं उन्हें ही यह संज्ञा प्राप्त हो सकती है। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 344 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * इनमें प्रथम संज्ञा त्रिकालविषयिकी, दूसरी वर्तमानविषयिकी तथा तीसरी मोक्षमार्गाभिमुखी है। इन सबमें तीसरी संज्ञा सर्वोत्तम प्रकारकी है। इसलिए इस संज्ञाका आविर्भाव हो ऐसी भावना-आकांक्षा रखनी चाहिए। 22. गई (गति)-इसका अर्थ होता है गमन / अथवा जीव कहाँ कहाँ उत्पन्न होते हैं यह / इसकी व्याख्या हमने इसी ग्रन्थके प्रारंभमें ही बता दी है। 23. आगई (आगति)- किन-किन गतियोंसे जीव किस-किस गतिमें आते हैं उसे बताना ही आगति है। इसकी व्याख्या भी अनुवादमें इससे पूर्व आ गयी है। 24. वेए (वेद)-इस पदके अनेक अर्थ हैं। लेकिन यहाँ पर इसका एक ही अर्थ 'मैथुनाभिलाष' अभिप्रेत है। यह अभिलाष पुरुष (वेद) स्त्री (वेद) तथा नपुंसक (वेद) इत्यादि तीन प्रकारसे प्रख्यात है। 1. पुरुषवेद-जिस प्रकार श्लेष्मके रोगीको खट्टी चीजोंके प्रति स्वाभाविक आकर्षण रहता है, उसी प्रकार इस वेदकर्मके उदयसे पुरुषोंके लिए विजातीय रूप मानी जाती स्त्रियोंके प्रति दर्शन, स्पर्शन तथा समागम आदिकी जो इच्छाएँ-वासनाएँ पैदा होती है उसे पुरुषवेद कहा जाता है / इस प्रकारका वेदोदय पुरुषों में मिलता है। यह वेद घासमें अग्नि समान है। अर्थात् जिस प्रकार कोई घासको जलाता है तो घास एकदम धधककर बादमें तुरंत बुझ जाता है, उसी प्रकार स्त्री दर्शनसे प्रारंभ होता हुआ वेदोदय स्पर्शनादिसे आगे बढ़ता हुआ स्त्रीके साथ समागम (मैथुनक्रीड़ा) हो जानेके (प्रायः) बाद तुरंत शम जाता है। ___2. स्त्रीवेद-पित्त प्रकोपवालोंको जिस प्रकार मधुर द्रव्यके प्रति स्वाभाविक रूपसे अभिलाषा जनमती है, उसी प्रकार इस वेदके उदयसे स्त्रियों में विजातीय पुरूषके प्रति दर्शन, स्पर्शन तथा यावत् समागम तककी अभिलाषा-इच्छा प्रकट होती है। - इसका वेदोदय स्त्रियोंमें मिलता है। इसे उपलेकी अग्निकी उपमा दी गयी है। अर्थात् जैसे उपलेका अग्नि एक छोरसे सुलगकर बादमें धीरे धीरे आगे बढ़ता हुआ पूरे उपलेको ही जला देता है तथा लम्बे अरसे तक जलता ही रहता है, वैसे पुरुषके ' दर्शनादिकसे यह वेदाग्नि प्रकट होकर स्पर्शनादिकी आहूतिसे बढ़ता हुआ अंतमें समागम तक पहुँचकर शमन होनेके बाद भी टिका रहता है, अर्थात् यह शीघ्र उपशान्त होता नहीं है। 671. जातीय विज्ञानवादी और वैज्ञानिक इस विधानके साथ सहमत नहीं है। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २४वाँ वेदवार . .345 . .3. नपुंसकवेद-जिस प्रकार पित्त तथा श्लेष्म (कफ)के दरदीको मज्जिकके प्रति सहजरूपसे रूचि-आकर्षण प्रकट होता है, उसी प्रकार नपुंसकवेद कर्मके उदयसे स्त्रीपुरुष दोनोंके प्रति मैथुनादि सेवनकी स्वाभाविक इच्छा प्रकट होती है। प्रकट होनेके बाद यह इच्छा इतनी तो प्रबल बनती है कि इसका शमन जल्दी होता नहीं है और लम्बे काल तक सेवनके बाद ही तृप्त होता है। इसलिए इस वेदकी इच्छाको 'नगरकी आग'की उपमा दी गयी है। जिस प्रकार नगरकी आग एक साथ-संलग्न वसवाटवाले–बस्तीवाले घरोंको एकके बाद एक सुलगाती जाती है और बहुत लम्बे कालके बाद बुझ जाती है। यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि पुरुष, स्त्री या नपुंसकको पहचाननेके लिए कोई चिह्न (लिंग) है क्या ? तो उत्तर है-हाँ है। पुरुषलिंग-शरीरमें विद्यमान सात धातुओंमेंसे 'शुक्र' (वीर्य) धातुके साथ साथ चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ, सीना तथा पैर पर बाल, शारीरिक कठोरपन, ताकत, पराक्रम, निडरता, लज्जाशीलताका अभाव, गंभीरता तथा धैर्य इत्यादि होता है। और स्पष्ट मूत्र द्वार युक्त पुरुष चिह्न अर्थात् लिंगाकार गुप्तेन्द्रिय होती है, उसे पुरुष-नर कहा जाता है। . स्त्रीलिंग-इसमें यहाँ सात धातुओंमेंसे शुक्रके स्थान पर 'रज' होती है। योनि, शारीरिक सुकोमलता, दाढ़ी-मूंछका पूर्ण अभाव, छाती-पैर पर मी वालका बहुधा अभाव, शारीरिक सुकोमलपन, नाजुकता, शिथिल मनोबल, लज्जा, तुच्छता तथा चपलता ( चांचल्य) आदि अनेक गुण होते हैं। साहजिक चपलता, साहस, माया, कपट, विना वजह असत्य बोलनेकी बुरी आदत, शारीरिक शृंगारमें अधिक आसक्ति इत्यादि गुण जिसमें होते हैं उसे स्त्री-नारी कहते हैं। नपुंसकलिंग-इसमें पुरुष और स्त्री दोनोंके चिह्नोंका अस्तित्त्व-नास्तित्त्व देखा जाता है। अर्थात् इसमें कुछ चिह ( लक्षण ) पुरुषके मिलते भी है और नहीं भी मिलते हैं। उसी प्रकार स्त्रीके भी कुछ लक्षण मिलते भी है तो कुछ नहीं भी मिलते हैं। अर्थात् इसमें दोनोंकी मिश्रता देखी जाती है। यद्यपि नपुंसकलिंगके मी अनेक भेद हैं। लेकिन यहाँ दो भेदोंका ही दिग्दर्शन पर्याप्त है। -- योनि-स्तनके साथ साथ पुरुषका चिह्न तथा मूंछ भी हो तो उसे 'स्त्री-नपुंसक' और योनिकी जगह पर अगर पुरुष चिहके साथ दाढ़ी-मूंछ तथा स्त्री लक्षण स्वरूप डरपोक ब. सं.४४ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .346 * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * स्वभाव, कमर पर हाथ रखकर रास्तेमें लटक-मटककर बोलना-चलना, संक्षिप्तमें स्त्री जीवन प्रधान गुणोंका प्राधान्य हो ऐसा पुरुष नपुंसक कहलाता है। इसलिए उसे 'पुरुषनपुंसक'के रूपमें पहचानते हैं। इस प्रकार तीन वेदके साथ तीन लिंगका भी संबंध होनेसे उनका स्वरूप यहाँ समझाया गया है। [345] इस प्रकार चौबीस द्वारोंका वर्णन समाप्त हुआ अवतरण-प्रथम '343' गाथा पूर्ण होते ही ग्रन्थ समाप्त तो हो ही गया था लेकिन तदनन्तर ग्रन्थकारने ही लघुतर संग्रहणीकी दो गाथाएँ जो बतायी थीं वे मी पूर्ण. हो गयी है। इनमें '343 ' गाथाओंमें तो 72 गाथाएँ प्रक्षेपात्मक थीं। आगमोक्त सुप्रसिद्ध लघुतर संग्रहणी स्वरूप दो (344-345) गाथाएँ. मी सविस्तारसे कह चुके हैं। लेकिन अब कुल चार गाथाओंका अर्थ कहते हैं। ये गाथाएँ श्रीचन्द्रमहर्षिका संतानोंने अथवा अन्य किसीने क्षेपकके रूपसे रख दी है। यद्यपि यहाँ पर वे गाथाएँ प्रस्तुत भी नहीं है, लेकिन पहली आवृत्तिमें दी गयी थी इसलिए पुनः देता हूँ। इस : गाथामें अठारह भावराशियोंके नाम मिलते हैं। तिरिआ मणुआ काया, तहाऽगवीआ चउक्गा चउरो। देवा नेरइया वा, अट्ठारस भावरासीओ // 346 // [प्र. गा. सं. 73 ] गाथार्थ-१. तिर्यंच, 2. मनुष्य, 3 काय और 4. अग्रबीज आदिके चार चतुष्कोंको निम्नानुसार समझें। 1. तिर्यच चतुष्कमें-दोइन्द्रिय, तीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीव / 2. मनुष्य चतुष्कमें-कर्मभूमि, अकर्मभूमि, अंतर्वीप तथा संमूच्छिम जातिके / 3. काय चतुष्कमें-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस (तेउ)काय तथा वायुकायका ग्रहण करें / 4. अग्रबीजोंमें-मूलबीज, स्कंधबीज, अग्रबीज तथा पर्वबीज / इस प्रकार कुल 16 भेद हुए। अव देव तथा नरकको मिलाकर कुल 18 भेद भावराशिके समझें / // 346 // . 672. नपुंसक अनेक प्रकारके होते हैं। पुरुषके रूपमें जन्म लेनेके बाद पीछेसे वह स्त्री रूप तथा स्त्री रूपमें जन्म लेनेके बाद पीछेसे वह पुरुष रूप भी बन जाते है। इस प्रकार पीछेसे- भी नपुंसक बन जाते हैं। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अठारह भावराशि और भावना किस प्रकारसे व्यक्त करें ? वह * *347 . * विशेषार्थ-यहाँ पर गाथाके क्रमानुसार ही अर्थका क्रम लिखा गया है, लेकिन आत्मिक विकासकी प्रारंभिक दृष्टिसे तो अग्रबीज, काय, तिथंच तथा मनुष्य इस प्रकार मी क्रम रखा जाये तो भी गलत नहीं होगा। ये भावराशियाँ क्यों बनायी होगी? तो अध्यात्म भावना व्यक्त करनेके लिए ही बनायी होगी ऐसा लगता है। भावना किस प्रकारसे व्यक्त करें ? / . तो सुबहमें उठकर, स्वस्थ बनकर यह चिंतन करे कि मैं कौन हूँ ? इसका उत्तर है-मैं आत्मा हूँ / कहाँसे आयी हूँ ! तो मैं अपने आप यों ही पैदा नहीं हुआ अथवा अपने आप आकाशमेंसे पैदा नहीं हुआ हूँ, लेकिन अन्य किसी जन्ममेंसे में आया हूँ। और जब तक मुक्त दशा-मोक्ष नहीं मिलेगा, तब तक मरकर अन्यान्य जन्मोंमें चौरासीके चक्करमें घूमता ही रहूँगा, इत्यादि / .. ___सबसे . पहले 18 भावराशियोंमें उपर्युक्त तीनों प्रश्नोंको सोच लेना है। जैसे कि, मेरी आत्मा अनादिकालसे कहाँ थी ? तो आत्माके जीवनका मूलस्थान निगोद (साधारण वनस्पतिकाय ) जो अत्यन्त अविकसित दशायुक्त है वहाँ थी और वहाँ अव्यक्तरूपसे महाकष्टोंको भुगतकर तथा भव्यताके योगसे बादर निगोदमें आयी और वहाँसे प्रत्येक वनस्पतिमें आती हुई अग्रवीज चतुष्कमें उत्पन्न हुई। वहाँ सृष्टिकी सभी वनस्पतियों के रूपमें जनम धारण किया और इस प्रकार करते-करते अकाम निर्जराके योगसे कायचतुष्क पृथ्वी, जल, तेउ, तथा वायुकायके भवोंमें परिभ्रमण किया / फिर वहाँसे भी ऊपर उठनेके योग प्राप्त होते ही क्रमशः तिर्यच चतुष्क अर्थात् दोइन्द्रिय, तीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय अर्थात् पशु-पक्षी आदिके भवोंको धारण किया, तदनन्तर मनुष्य चतुष्कमें अर्थात् अकर्मभूमि, कर्मभूमि तथा 56 अंतीपमें मनुष्यरूप जन्म धारण किए। इतना सोचनेके बाद वह स्वयं मूल बात पर आ जाये कि, हालमें मैं संज्ञीपंचेन्द्रिय मनुष्यके रूपमें इस भवमें हूँ। वर्तमानमें मुझमें बुद्धि, शक्ति, विवेक, समझ ये सब यथायोग्य है, तो फिर अब मेरा कौन-कौनसा फर्ज रहता है ? इत्यादि सोचें / इतना ऊपर उठनेके बाद अब मुझे किस प्रकारका जीवन जीना चाहिए, उसे सोचना चाहिए। श्री तीर्थकर देवोंने जिस प्रकारका जीवन जीनेको कहा है उसी प्रकारका त्याग और वैराग्ययुक्त जीवन अगर नहीं जीऊँगा तो मेरा क्या होगा ? इतना ऊपर उठने के Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 348 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . बाद तथा इतनी विकासशील दशा प्राप्त होनेके बाद फिरसे पुनः तु जो नीचे पटक जायेगा, तो पुनः एकदमः अविकसित दशायुक्त भवमें फिरसे चला जायेगा। इसलिए चेतन ! आरंभ, समारंभ, पापकी प्रवृत्तियाँ छोड़ दे। निर्मल तथा पवित्र जीवन जीना सीख लें ! सर्वथा चारित्रकी प्राप्ति न कर सके तो देशविरति चारित्रका स्वीकार कर लें; और इतना एक नियम बना ले कि कमसे कम हिंसासे अगर जीवन निर्वाह हो सके तो अधिक हिंसा नहीं करेगा तथा कमसे कम जरूरतसे चल सके तो अधिक जरूरत कमी भी न रखें / ये दो सामान्य नियम भी होंगे तो भी जीवन बहुत उन्नत, सुखशान्तियुक्त तथा धर्ममय बन जायेगा ! जीवनमें अहिंसा, संयम तथा तपका प्रकाश फैल जायेगा / इसके फलस्वरूप उत्तरोत्तर अनेक मानसिक, वाचिक, कायिक दुःखों तथा क्लेशोंका अंत हो जायेगा और जीवन धन्य बन जायेगा। जीवन मुक्त दशाके पथ पर तु आगे बढता ही जायेगा और परंपरासे अनंत सुखका स्थान स्वरूप मुक्तिसुखका अधिकारी बन जायेगा / [346] ( प्र. गा. सं. 73 ) ___ अवतरण-अब यहाँ अप्रस्तुत गाथा दी जाती है जो कितनी आवलिकाओंसे एक मुहूर्तकालमान बनता है ? यह बात बताती है / एगाकोडी सतसट्ठी-लक्खा सत्तहत्तरी सहस्सा य। दोय सया सोलहिआ, आवलिया इगमुहुत्तम्मि // 347 // (प्र. गा. सं. 74) गाथार्थ-एक करोड़, सडसठ लाख, सतहत्तर हजार, दो सौ सोलह [1, 67, 77, 216 ] आवलिकाओंका एक मुहूर्त बनता है अर्थात् उतनी आवलिकाओंसे एक मुहूर्त कालमान होता है। // 347 // विशेषार्थ-अन्य भारतीय संस्कृतियोंमें कालमान वाचक मुहूर्त, घड़ी ( घटी), पल, विसल आदि अनेक शब्द हैं / पाश्चात्य देशोंमें घण्टा, मिनट, सेकण्ड आदि शब्द हैं। यद्यपि भारतीय जैन संस्कृति यह सर्वज्ञमूलक है, इसलिए इसमें उनसे भी अधिक सूक्ष्मतर कालमान वाचक अनेक शब्द हैं। इसी जैन संस्कृतिमें सूक्ष्मतम मानके लिए समय शब्दका प्रयोग किया जाता है। इस समय शब्दके बाद तुरंत ही आवलिका नामसे पहचाने जाते कालमान है, तदनन्तर मुहूर्त मान आता है। इस मानकी सूची (तालिका ) इसी ग्रन्थके पृष्ठ 28 से 31 तक दी गयी है / Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एक मुहूर्तमें कितने जन्म हुए? . .349 . * जब असंख्य समय [चतुर्थ जघन्य युक्त असंख्याताके जितना ] एक साथ मिलते हैं तब एक आवलिका बनती है और ऐसी 16777216 आवलिकाएँ पसार होती है तब एक मुहूर्त होता है। यह मुहूर्त वर्तमानकालमें प्रचलित अंग्रेजी कालमानके साथ नापनेसे 48 मिनटका बनता है। दूसरे अर्थमें देखें तो 24 मिनटकी एक घडी, ऐसी दो घड़ी अथवा 48 मिनटका एक मुहूर्त बनता है। प्रिय वाचकगण ! जरा कल्पना तो कीजिए कि एक मिनटकी आवलिकाएँ कितनी हुई ! तो करीबन साडेतीनलाख / तो कहिए कि कितने सूक्ष्म कालमान सर्वज्ञकथित जैन दर्शनमें दिखाए गए हैं। तब समय मान कितना सूक्ष्म होगा इसे कल्पनासे सोच लें। ____ आजके आविष्कारक (वैज्ञानिक ) एटम तथा स्पुतनिक (कृत्रिम-मानव सर्जित उपग्रह) रॉकेटोंकी आश्चर्यजनक खोज भले ही करें, लेकिन तीर्थकर सर्वज्ञके चैतन्यविज्ञानको तथा उनकी अंतिम सूक्ष्मताओंको वे कदापि लाँघ नहीं सकेंगे, यह एक निर्विवाद हकीक़त है। तीर्थकर सर्वज्ञ तो अणुको भी देख-जान सकते थे। आजके वैज्ञानिक उसी अणुशक्तिसे एक सेकण्डके अरबोंवें भागको मी नापनेमें जो समर्थ बने हैं और अभी तो आगे बढ़ते ही जाते हैं, फिर भी वे असर्वज्ञ छद्मस्थ ज्ञानद्रष्टि ‘परमाणु'को खोज नहीं सकेंगे। अरे ! 'समय'को मी नाप सकेंगे नहीं। क्योंकि 'परमाणु' ही सबसे अंतिम पदार्थमान है तो 'समय' सबसे अंतिम कालमान है। ( एक सेकण्डके असंख्यातवें भाग पर समय मान आता है ) इन दोनों मानों-प्रमाणोंको सर्वज्ञके विना देखनेमें कोई समर्थ नहीं है, और इस मानको जाननेके लिए यांत्रिकशक्तिका सहकार कमी भी सफल हो सकेगा ही नहीं। . पदार्थ तथा कालकी सूक्ष्मता और स्थूलताके अंतिम रहस्यको भी आजका विज्ञान भले ही नहीं लाँघ सकता, फिर भी आजका भौतिक विज्ञान ही सर्वज्ञकथित सत्योंकी सहायताके लिए एकदम ही साथ साथ आगे बढ़ रहा है। शास्त्रोंकी कुछ बातोंको आजका बुद्धिमान वर्ग अथवा अल्पश्रद्धालु या अश्रद्धालु वर्ग हँसकर जो टाल देता था तथा उसका मजाक उड़ाता था और अशक्य कहकर असत् मानता था उन्हीं अनेक शास्त्रीय कथनोंको विज्ञान आज तादृश कर रहा है। ( मैं इसकी सूची तथा तुलना आमुखप्रस्तावनामें करना चाहता हूँ।) 673. संख्य, असंख्य तथा अनंतकाल किसे कहते हैं ? इसका विस्तृत स्वरूप जाननेके लिये मेरी लिखी हुई 'गृहत्संग्रहणी सूत्रके पांच परिशिष्टों' नामक पुस्तिका पदिए / Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * यद्यपि विज्ञान ज्यों ज्यों आगे बढ़ता जायेगा त्यों त्यों नये नये चमत्कारिक आविष्कार देखनेको जरूर मिलेंगे और तब काल तथा नापकी सूक्ष्म गिनती तथा कुछेक सर्वज्ञकथित सिद्धान्तोंकी त्रैकालिक सत्यता सामने आती जायेगी। अभी-अभी ही 'अमेरिकन रीपोर्ट ' में यह प्रकट हुआ है कि " अमेरिकामें एक ऐसी अणुघड़ी तैयार हुई है जो एक ही सेकण्डमें 24 अरबों बार 'टिक-टिक' अवाज करेगी। इसके अतिरिक्त एक मिनटमें छः करोड़ तस्वीर खींच सके वैसा एक कॅमेराका भी संशोधन हुआ है," आदि / यद्यपि यह बात शास्त्रके किसी पन्ने पर लिखी हुई मिलती तो आजका मनुष्य उसे गलत या असंभव कहकर मजाकमें उड़ा देता, लेकिन यह बात वैज्ञानिकोंने कही है. इसलिए निःशंक होकर तथा बिना कोई तर्क उठाये माननेको तैयार हो जायेगा। हमारे शास्त्रोंमें यह बात मिलती है कि एक निमेष मात्र ( आँखका एक ही पलकभरमें ) असंख्य समय गुजर जाते हैं। कुछ समयके बाद आजका विज्ञान इसी बातका समर्थन करता हुआ कोई एलान जरूर करेगा ही। हे प्रिय वाचकगण। यदि जड़विज्ञान सेकण्डके अरबोंवें भागका संशोधन कर सकता है तथा पदार्थके एक इंचके दस करोडवें अथवा उनसे भी अधिक भागोंका नाप वता सकता है, तो फिर आत्माका यह चैतन्यविज्ञान पदार्थके सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुको तथा कालके समयको बता सके इसमें कौनसा आश्चर्य रहता है ? [347] (प्र. गा. सं. 74) अवतरण-अब पूर्वोक्त आवलिकाओंके कालमें अथवा एक मुहूर्तकालमें जीव अधिकसे अधिक कितने भव कर सकता है ! उसे बताते हैं / पणसहि सहस पणसय, छत्तीसा इगमुहुत्त खुडुभवा / दोय सया छप्पन्ना, आवलिआ एगखुडभवा // 348 // (प्र. गा. सं. 75) गाथार्थ-एक मुहूर्त अथवा 1,67,77,216 आवलिका जितने समयमें जीव (निगोदावस्थामें) 65536 क्षुद्र-अल्पातिअल्प भव करते हैं। इस प्रकार एक क्षुल्लक भव 256 आवलिका प्रमाण हुआ। // 348 // विशेषार्थ-चार गति और उनकी 84 लाख जीवायोनिमें ज्यों सागरपम जितने बड़े बृहद्काल प्रमाणके भव है, त्यों साल, दिवस, मुहूर्त अथवा घड़ी इत्यादि मानवाले Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विविध यंत्र. * 351 . 'मी अनेक भव हैं। लेकिन इनमें सबसे अल्पतम मानवाला भव कौनसा है ! ऐसा कोई प्रश्न करें तो इसका उत्तर एक ही है-२५६. आवलिकाओंका / इस लिए इसको क्षुल्लक भवरूप पहचानवाया जाता है। इससे कम आवलिकाका भव कभी होता ही नहीं है / इस जीवका लघुतम संसार 256 आवलिकाका है। ___ महानुभाव ! संसारकी विषम विचित्रताएँ और आयुष्यकी क्षणभंगुरताका विचार तो कीजिए ! हम भी ऐसे अल्पतम मानवाले भवोंमें अनेकवार जन्म-मरण कर चुके हैं। अब फिरसे उसी महादुःखदायी यात्रा पर पहुँच न जाय इस लिए आप सबको आरंभ समारंभोंको तथा पापाचरणोंको छोड़कर, पवित्र अहिंसामय धर्माचरणमें और आगे बढ़नेके लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। [348] (प्र. गा. सं. 75) / / ऋजु-वक्रागतिमें आहारमान यन्त्र // [गाथा-३३०] गतिप्रकार व्य, नयसे कालमान निश्चय नयसे कालमान 1 समय अनाहारीपन नहीं है 1 समय एकवक्रा द्विवक्रा त्रिवक्रा चतुर्वक्रा . // पर्याप्त-अपर्याप्त मेद व्यवस्था यन्त्र // [ गाथा-३३८ ] जीव अपर्याप्त पर्याप्त लन्धि अपर्याप्त करण अपर्याप्त करण पर्याप्त (मतांतरसे) करण अपर्याप्त लब्धि अपर्याप्त लब्धि पर्याप्त लब्धि अपर्याप्त करण अपर्याप्त करण पर्याप्त करण- ___करण पर्याप्त अपर्याप्त लन्धि पर्याप्त लन्धि अपर्याप्त ( मतांतरसे) Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // पाँच प्रकारके शरीरों में अनेक विषय स्थापना प्रदर्शक यन्त्र // [गाथा-३४४] उपयुक्त द्वार | औदारिक शरीर | वैक्रिय शरीर | आहारक शरीर | तैजस शरीर कार्मण शरीर 1. कारणकृत विशेष स्थूल पुद्गलोंका। औदारिकसे सूक्ष्म वैक्रियसे सूक्ष्म आहारकसे सूक्ष्म | तैजससे सूक्ष्म 2. प्र.सं. कृत वि.] अति अल्प | औ. से असंख्यगुना वै. से असंख्यगुना आहा.से अनंतगुण | तै. से अनंतगुण 3. स्वामिकृत | सर्व तिर्यंच, मनुष्य / / देव-नारक ग. तिरिनरो कुछ 14 पूर्वधरको | सर्व संसारी जीवोंको | सर्व संसारी जीवोंको विशेष बा. प. वायुकायको 4. विषयकृत विशेष| ऊर्ध्वपंडुकवन, तिर्यक् | असंख्य द्वीप-समुद्र महाविदेह तक लोकान्त [और परभव लोकान्त [विग्रह रूचकद्वीपके रूचकपर्वतपर जाते ] तक गतिमें ] 5. प्रयोजनकृत धर्माधर्म - मोक्षप्राप्ति | एक-अनेक, स्थूल बादर सूक्ष्मसंशय छेदनेके लिए | आप-वरदान-तेजोलेश्या अन्न | अन्य भवमें गतिमान विशेष संघसहायादिक निमित्तक जिनऋद्धि दर्शनादि पाचनादि 6. प्रमाणकृत भेद | साधिक 1000 योजन | साधिक एक लाख योजन 1 मुण्डा हाथ | संपूर्ण लोकाकाश | संपूर्ण लोकाकाश 7. अवगाहनाकृत | आहार से संख्यगुना औदा. से संख्य गुना असंख्य अवकाश | वैक्रियसे असंख्यगुण प्रदेशोंमें | तैजस तुल्यप्रदेश भेद प्रदेशमें आकाश प्रदेशमें प्रदेशोंमें 8. स्थितिकृत भेद | जघ, अन्तर्मु., उ. | ज. 1000 साल,उ.३३ सा. | जघन्य अन्तर्मुहूर्त भव्य और अनादि सान्त | तैजसकी परिभाषाके 3 पल्योपम उ. वै. चार अंतर्म. उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अभव्य और अनादि अनंत | अनुसार उ. अर्धमास 9. अल्पबहुत्व भेद वै. से असंख्य गुना असंख्य .. | 9000 [उ. कालपर ] ! अनंत . अनंत 10. . अंतर एक | साधिक 33 सागरोपम | आवलिका के असंख्य भाग, | अर्धपुद्गल परावर्त | अन्तर ... नहीं है | अन्तर नहीं है जीवाश्रयी पुद्गल परावर्तके समय जितने ११.अनेकजीवाश्रयी अन्तर नहीं है अन्तर पड़ता ही ज. समय, उ. 6 मास | अन्तर नहीं है अनंत कभी भी। होता ही नहीं है। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब. सं..४५ नील " < // षड् लेश्यावर्णादि विषयकयंत्र // [ गाथा-३४४] लेश्यानाम - वर्ण / गंध ___रस | स्पर्श जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति . | कृष्णलेश्या कृष्ण दुरभिगंध कटुक | शीत-ऋक्ष | अन्तर्मुहूर्त / 2 अन्तर्मुहूर्त अधिक 33 सागरोपम 2 नीललेश्या तीखा पल्योपमासंख्येय भागाधिक 10 सा० कापोतलेश्या कपोत वर्ण तूरा पल्योपमासंख्येय भागाधिक 3 सा. तेजोलेश्या रक्त वर्ण सुरभिगंध मिष्ट स्निग्ध-उष्ण पल्योपमासंख्येय भागाधिक 2 सा० पद्मलेश्या पीत वर्ण मिष्टतर दो अन्तर्मुहूर्त अधिक 10 सागरोपम शुक्ललेश्या श्वेत वर्ण मिष्टतम दो अन्तर्मुहूर्त अधिक 33 सागरोपम // सप्तसमुद्घातमें सप्तविषय स्थापना यन्त्र // [ गाथा--३४४] ... कितनीबार समुद्घातके नाम . स्वामि कौन कालमान व्याप्ति क्षेत्र कानस, | आकार | फल प्राप्ति की 1 | वेदना समु० / वेदनासे व्याकुल जीवको | अन्त- | स्वदेह प्रमाण | अशाता वेदनीय | देह दंडाकार | वेदनीय कर्मकी | सर्व भवमें मुहूर्त. अतिनिर्जरा 2 | कषाय समु० कषायसे अति व्याकुल कषाय मोहनीय | " कषायका अ कषायकी अतिनिर्जरा | अनंतबार आत्मा समु० अयोगीको छोडकर सभी दीर्घ-उत्पत्ति आयुष्य दंड कुहनी-हल- आयुष्यकी अति | जीवोंमें अन्तम० आयु क्षेत्र तक गोमूत्रिका शीघ्र निर्जरा शेष रहता है समु० | उत्तर वैक्रिय रचयिताको संख्येय योजन वै. शरीर नामकर्म | दण्डाकार |0 कर्मनिर्जरा, ग्रहण | एक भवमें दो बार | तैजस समु० तेजोलेश्या छोडनेवाले , , तेजस शरीर | दीर्घ दण्डाकार | तैजस कर्मनिर्जरा, | अनंत बार जीवको नामकर्म ग्रहण | आहारक समु० लब्धिवंत चौदह पूर्वधरको | , | महाविदेह तक | आहा० देह नाम- | , आ० कर्मनि० ग्रहण | भव चक्रमें कर्म 4 बार केवली समु० सयोगी केवलीको 8 समय | संपूर्ण लोकाकाश | नाम-गोत्र वेदनीय | दंड कषाय- नाम-गोत्र-वेदनीय स्थिति सर्व भवमें नामकर्म से मंथन लोकाकार आयुः जितनी होती है। एक बार Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // पाँचौ इन्द्रियोंके विषय सम्बन्धी भिन्न भिन्न विषयोंका स्थापना यन्त्र // [ गाथा-३४४] नव प्रकार 1. स्पर्शनेन्द्रिय 2. रसनेन्द्रिय | 3. घाणेन्द्रिय | 4. चक्षुरिन्द्रिय५. श्रोत्रेन्द्रिय 1. | दीर्घ प्रमाण अंगुलका असंख्यातवाँ | अंगुलका असंख्यातवाँ अंगुलका असंख्याभाग भाग तवा भाग भाग भाग विस्तार प्रमाण / स्वदेह प्रमाण आत्मांगुल पृथक्त्व आन्गांगुलका असंख्या- आत्मांगुलका असंख्या- आत्मांगुलका असंतवाँ भाग तवाँ भाग ख्यातवाँ भाग उ. विषय ग्रहण अंतर नव योजन (आत्मां- | नवयोजन पूर्ववत् | नव योजन पूर्ववत् | साधिक 1 लाख योजन 12 योजन (आत्मांगुल पर) गुलसे) ज० से विषय ग्रहण | अंगुलासंख्य भाग | अंगुलासंख्य भाग | अंगुलासंख्य भाग | अंगुलासंख्य भाग | अंगुलासंख्य भाग प्राप्यकारी प्राप्यकारी प्राप्यकारी अप्राप्यकारी प्राप्यकारी प्राप्यकारी या अप्राप्यकारी या | बद्धस्पृष्ट बदस्पृष्ट बदस्पृष्ट . अस्पृष्ट स्पृष्ट 6. बदस्पृष्ट-स्पृष्ट अस्पृष्ट ? 7. | प्रमाण अल्पबहुत्व | रसनेन्द्रियसे असंख्य- | घ्राणेन्द्रियसे असंख्य- | श्रोतसे संख्येयगुना | | सर्वसे अल्लावगाहना | चक्षुसे संख्येयगुना गुना गुना वक्षसे संख्येयगुना 8. कितने प्रदेशवाली है?] रसनेन्द्रियसे असंख्य- | घ्राणे०से असंख्यगुना | श्रोतसे असंख्येयगुना अनंत प्रदेशी गुना द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रन्थकर्ताका परिचय और 'संग्रहणीरत्न'का उल्लेख * अवतरण-श्रीचन्द्रीयाके कर्ता सूरिवरकृत यह गाथा नहीं है / परंतु उनके गच्छके या परंपराके अथवा तो उनके प्रति आदर-सम्मान रखनेवाले किसी व्यक्तिने बनाकर जोड दी है / श्रीचन्द्रमहर्षिने तो मूलगाथा 271 में ही मात्र स्वनामोल्लेख कर दिया है, परंतु वहाँ पर गच्छ या गुरुजीका नाम बताया नहीं है, अतः उसका निर्देश करने के लिए अथवा भविष्यमें प्रस्तुत महर्षि अन्य किसी गच्छके होंगे, ऐसा कोई मान न लें इस उद्देश से यह नूतनगाथा बनाकर जोड दी हो तो असंभव नहीं है / अपितु जो कुछ भी हो। यह गाथा एक नई वस्तुका भी सूचन कर देती है / वह यह कि-इस गाथा रचयिताने इस श्रीचन्द्रीया संग्रहणी को 'संग्रहणीरत्न' के नामसे परिचित किया है / मलधारिहेममरीण सीसलेसेण विरइयं सम्म / संघयणिरयणमेयं नंदउ जा वीरजिणतित्थं // 349 // गाथार्थ-मलधारिगच्छके श्री हेमचन्द्रसुरीश्वरजीके बालशिष्य श्री चन्द्रमहर्षिसे श्रेष्ठ रूपमें विरचित यह संग्रहणीरत्न अर्थात् इस नामका यह ग्रन्थ श्री श्रमण भगवान महावीरजिनका तीर्थ जब तक विद्यमान हो तब तक विद्यमान रहें ! // 349 // . . विशेषार्थ-विक्रमकी बारहवीं शताब्दीमें विद्यमान महाराजा कर्णदेवसे संप्राप्त 'मलधारि' बिरुदधारी श्री हर्षपुरीय गच्छके भूषणरूप श्रीमद् अभयदेवसूरि महाराज (तीसरे ) के पट्टरत्न श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी और उन्हींके पाट पर आये हुए उन्हींके शिष्य 'श्रीचन्द्र' नामके महर्षि हुए / उन्होंने यह सुंदर और श्रेष्ठ 'संग्रहणीरत्न' का निर्माण किया। इस गाथामें 'संग्रहणीरयण' शब्द प्रयोजित है / अतः इस ग्रन्थको 'संग्रहणीरत्न' ऐसा नाम. अर्पण करनेका लालच हमको भी हो जाए यह स्वाभाविक है और अमुक प्रकारसे. योग्य भी है, परंतु ऐसा साहस तब ही किया जा सके जब मूलक" या टीकाकारने वैसा नाम सूचित किया हो। तो प्रश्न अब यह रहा कि क्या मूलकर्ता या टीकाकारने वैसा नाम सूचित किया है ? तो उत्तर हैं-नहीं / इस ग्रन्थ की ही अन्तिम मुद्रित गाथामें स्वकृतिको स्पष्ट रूपसे सिर्फ संग्रहणी नाम ही दिया है। टीकाकारने मी 674. नवांगी टीकाकारसे भिन्न / 675. कलिकालसर्वज्ञसे भिन्न / 676. अलबत्ता पंद्रहवीं शताब्दी या उसके पूर्व तथा पश्चात् की संग्रहणीकी मूलगाथाकी संख्येय हस्तप्रतियोंमें संग्रहणी की गाथाएँ समाप्त होने पर 'इति श्री चन्द्रसूरिविरचित संग्रहणीरत्न समाप्त इस प्रकारकी या लगभग इससे मिलती जुलती पंक्ति लिखकर सर्वने इस संग्रहणी को 'संग्रहणीरत्न' शब्दसे परिचित की है तथा असल गाथामान 274 का पाया गया है। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 356 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * वही नाम प्रस्तुत किया है। अतः आधार हीन 'रत्न' शब्द जोडनेके प्रलोभनमें आकृष्ट होना मुझे उचित नहीं लगा / साथ ही क्षेपक गाथाके रचयिताने श्रीचन्द्रमहर्षि के कृतिके प्रति प्रस्तुत आदरभावसे लोकवर्ती पदार्थीको रत्नकी तरह प्रकाशित करनेवाली होनेसे, स्वतंत्र नाम देकर, गर्भित रूपमें यह कृति 'रत्न' जैसी तेजस्वी तथा कीमती है ऐसे आर्थिक उद्देशसे अथवा तो जिनमेंद्रीया से इसे भिन्न कही जा सके ऐसे किसी हेतुसे क्या इस शब्दका प्रयोग किया होगा! ___ इस संग्रहणीको बृहत् ऐसा विशेषण लगाकर बृहत्संग्रहणी अथवा बड़ीसंग्रहणी इस नाणकी प्रसिद्धता कैसे हुई ! इसके लिए एक संभावित अनुमान यह किया जा सके कि इसी संग्रहणी ग्रन्थकी मूल 272-273 तथा चाल सिर्फ 34 4 और 345 वी इन दो गाथाओंको ही टीकाकारोंने 'लघुसंग्रहणी' शब्दका विरुद दिया / अतः फिर सैकडों गाथाओंके संग्रहवाली संपूर्ण कृतिको, अभ्यासियोंने बृहद् विशेषण देकर प्रसिद्धि दी हो। साथ ही हस्तलिखित प्रतिके अन्तमें “त्रैलोक्यदीपिका अथवा बृहत्संग्रहणी" ऐसा नाम भी मिलता है / अतः प्रथम आवृत्ति के प्रसंग पर मैंने भी इसी नामको प्रसिद्धि दी थी / यद्यपि उस समय पिछला विभाग शीघ्र पूर्ण करने का फर्ज पड़नेसे इस विषयमें विशेष संशोधन या विचार करनेका समय ही नहीं लिया था / साथ ही यह रचना तीनों लोक के पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली तो है ही / अतः नामकी यथार्थता समझकर मैंने भी प्रस्तुत नामको ग्रन्थके मुख्य नामके रूपमें छपवाया था / ___ वर्तमानमें प्रचलित 'दंडक' नामके प्रकरणको भी उसके टीकाकार रूपचंद्र मुनिजीने दंडक प्रकरणकी टीका करते हुए किये गये " लघुसंग्रहणीटीका, करिष्येऽहं मुदा" के उल्लेखसे दंडक प्रकरणको लघुसंग्रहणी शब्दसे सूचित करने लगते हैं। इसका कारण यह संभाव्य है कि भले ही ग्रन्थका नाम 'दंडक' है तथा चौबीसों दंडकोंकी गिनती सिर्फ एक ही गाथा में पूर्ण होती है लेकिन 24 द्वारोंवाली संग्रहणी रूप तीसरी 677. यदि इस कृतिका संग्रहणीरत्न' ऐसा नामकरण करें तो जिनभद्रीयासे स्पष्ट रूपमें अलग परिचय सरल हो जाए / यद्यपि आज तो दोनों कृतियाँ 'संग्रहणी सूत्र' अथवा 'बृहत्संग्रहणी' या बडी संघयणी (-या संग्रहणी ) शब्दसे ही श्रीसंघको परिचित है / अतः नाममें सुधार करना या नहीं इसे सोचेंगे / संग्रहणी 'सूत्र' रूपमें भी प्रचलित होनेकी प्रबल प्रथा होनेसे मैंने भी इसी तरह परिचय दिया। लेकिन 'प्रकरण' कहना अधिक उचित है। Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रन्थकर्ताका परिचय और 'संग्रहणीरत्न'का उल्लेख * तथा चौथी ये दो गाथाएँ ही हैं, 24 दंडकमें इन्हीं गाथाओंका अवतरण महत्त्वपूर्ण रहा है। इन्हीं दो गाथाओंका प्राधान्य ध्यानमें रखकर समग्र कृतिको पूर्वाचार्योंने भी इसी नामसे सूचित की हो यह संभाव्य है / दंडकके टीकाकार भी दंडकको ‘लघुसंग्रहणी' नाम देनेको लालायित हुए हो तो असंभाव्य नहीं है। इस तरह यहाँ 'संग्रहणीरत्न,' व्यवहारमें बड़ी संग्रहणीके नामसे परिचित, अनेक विषयोंके भण्डार जैसा इस रोचक बोधक, महान् ग्रन्थका भाषांतर पूर्ण हुआ। अन्तमें देव-गुरु कृपासे शरीरके अत्यन्त प्रतिकूल संयोगोंके बिच भी पूर्णता प्राप्त यह अनुवाद पाठकोंके सम्यक ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की पुष्टि, वृद्धिके लिए हो तथा सर्व के मंगल तथा कल्याण का निमित्त बनो ! यही एक अभ्यर्थना / प्रान्तमें मतिमंदता, शीघ्रता, अनुपयोग आदिके कारण श्री सर्वज्ञकथित कथनसे कोई भी विपरीत प्ररूपणा हुई हो तथा मुद्रणकी जो कुछ अशुद्धियाँ रह पाई हों उसका श्रीसंघके समक्ष त्रिविध रूपमें क्षमायाचनाके साथ मिच्छामिदुक्कडं चाहता हूँ और मेरी अपनी क्षतियोंका निर्देशन करनेकी पाठकोंसे विनम्र बिनती करता हूँ / [349 ] ... ( मूल गाथा २७४-प्रक्षेप गाथा 75, संपूर्ण गाथामान=३४९) . यहाँ महान् संग्रहणी ग्रन्थका भाषान्तर समाप्त होता है जैन जयति शासनम् / Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 358 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जैन गणितानुसार एक अंगुलके इंच तथा एक योजनके मील कितने होते हैं ? जैन शास्त्रोंमें गणितकी एक स्वतंत्र पद्धति है / इसमें मापके विशिष्ट पारिभाषिक शब्द भी आयोजित हैं। उस पारिभाषिक गणितानुसार अंगुल या योजन आदि मापके इंच, योजन आदि कितने होते हैं इसकी समझ यहाँ दी गई है / यद्यपि योजन किसे कहा जाए ! इसके बारेमें अनेक विसंवाद प्रवर्तित हैं / वर्तमान विश्वमें विदेशी विद्वानों-विज्ञानियोंने पिछले सैकड़ों सालोंसे भौगोलिक तथा खागोलिक पदार्थोकी ऊँचाई-नीचाई की कक्षा निश्चित करनेको समुद्री तल अर्थात सी-लेवल को ध्रुव बनाया। क्योंकि माप निश्चित करनेको कोई भी एक स्थान निश्चित न हो तो गिनती किससे सम्बन्धित करें ? जिस तरह आम तौर पर सी-लेवल निश्चित हुआ है उसी तरह जैन शास्त्रकारोंने अपने त्रैलोक्यवर्ती पदार्थों के मापके लिए (प्रायः शाश्वता) समभूतला शब्दसे परिचित स्थानको ध्रुव मध्यविन्दु निश्चित किया है यह स्थान हमारी इस धरतीके नीचे है, परिचय हेतु इस ग्रन्थके पृष्ठ 100 से 103 देखिये / - इस युगमें अति तीव्र गतिसे आगेकूच करते हुए विज्ञानके मापके साथ अपनी गणनाकी तुलना करनेकी तीव्र जिज्ञासा अभ्यासियोंको होती है अतः अत्यावश्यक सूचि नीचे दी गई है। जैन गणितके हिसाबसे 400 कोस का एक योजन निश्चित हुआ है / वर्तमान गणितकी परिभाषामें इस योजनका विभाजन मीलोंमें करें तो सूक्ष्म गणनाके हिसाबसे 3636.36 मील होते हैं और स्थूल गणना करें तो 3600 मील हों। ज्योतिषचक्र के मापोंको मीलमें परिवर्तित करना हो तो सूक्ष्म गणना के लिए 3636.36 से तथा स्थूलके लिए 3600 से गुननेसे इष्ट संख्या प्राप्त होती है। ज्योतिषचक्रके माप, मीलोंके हिसावसे किस प्रकार हैं इसे प्रथम देखें व्यवहारमें चार कोसका 1 योजन होता है / शास्त्रीय व्यवहारमें 400 कोसका 1 योजन होता है / ऐसे एक योजन की मीलोंके हिसाबसे सूक्ष्म गिनती करें तो 3636.36 मील होते हैं और स्थूल गिनती करें तो 3600 मील होते हैं / ज्योतिषचक्रके मापों के मीलकी सूक्ष्म गिनती 3636.36 से तथा स्थूल गिनती ३६००से गुननेसे इष्ट संख्या उपलब्ध होती है / Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन गणितानुसार इंच, मीलोंकी गिनती क्या हैं ? वह * * 359 . सूर्यकी नक्षत्रोंकी तारेकी ऊँचाई 790 यो मील प्रमाण 28,44,000 800 यो० 28,80,000 चंद्रकी 31,68,900 884 यो० 31,82,400 बुधकी 888 यो० 31,96,800 शुक्रकी 891 यो० 32,07,600 गुरुकी , 894 यो० 32,18,400 मंगलकी ,, 897 यो० 32,29,200 शनिकी ,, 900 यो० 32,40,000 स्थूल गणितकी गणनासे (लगभग ) 3600 मील का एक योजन प्रमाण निश्चित किया जाता है, यह ऊपर बताया गया है। लेकिन अगर सूक्ष्म गणना अनुसार चौकस माप निकाला जाय तो 3636.36 मील प्रमाण होता है। इस प्रमाणानुसार गिननेसे तारे के 2,87,272/4 0 मील, सूर्यके 29,09,088/00 मील, चंद्रके 31,99,960/80 मील होते हैं / इस तरह अन्य गणना भी कर लें ! .. शास्त्रीय मापोंकी इंच, मील आदि में तुलना सूचि–जैन गणितशास्त्रमें महत्त्वपूर्ण तीन माप बताये हैं। 1. उत्सेधांगुल 2. प्रमाणांगुल और 3. आत्मांगुल। इन शास्त्रीय मापोंकी वर्तमान प्रचलित मापके साथ किस प्रकार तुलना की है यह नीचे बताया है / . उत्सेधांगुलसे तुलना 1 उत्सेघांगुल अर्थात् लगभग 13 इंच 1. उत्सेधांगुल हाथ अर्थात् लगभग 17 से 18 इंच 1 , कोस , , 23 मील 1 , योजन , , 9 मील प्रमाणांगुलसे तुलना - 1 प्रमाणांगुल अर्थात् 400 उत्सेधांगुल . 1 प्रमाणांगुल योजन अर्थात् 1600 कोस . 1600 कोसके मील लगभग 3600 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 360 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * * 500 धनुषके हाथ एक हजार होते हैं / नियमानुसार दो हजार हाथके 48 हजार अंगुल होते हैं / * भगवान श्री महावीर प्रभु की काया 120 अंगुलकी थी / भगवान आत्मांगुलसे अर्थात् अपनी कायाके अंगुलके मापसे पाँच हाथके थे / इन पाँच हाथके अंगुल (5424 अंगुलसे गुननेसे ) 120 होते हैं / इस तरह 120 का मेल हो जाता है। __ दिगम्बर जैन ग्रन्थका आधार क्या कहता है ? * हम श्वेताम्बर शास्त्रके माननेवाले हैं / लेकिन अन्य दिगम्बर ग्रन्थोंमें श्वेताम्बरसे थोडा फर्क है / हम 400 गुने उत्सेधांगुलको एक प्रमाणांगुल मानते हैं जबकि दिगम्बर 500 गुने उत्सेधांगुलको एक प्रमाणांगुल मानते हैं। उनकी सूक्ष्म गणनामें 1 योजनके 4545.45 मील होते हैं / * दिगम्बर मतसे भगवान महावीरकी काया आत्मांगुलसे 4 हाथकी अर्थात् (4424=96) अंगुलकी होती है / श्वेताम्बर मतसे स्थूल गणनासे उपर बताया गया है कि एक योजनके मील 3600 होते हैं जबकि दिगम्बर मतकी स्थूल गणना से 1 योजनके 4500 मील होते हैं / लेकिन इस मापकी वरावर सूक्ष्म गणना करें तो 4545.45 मील होंगे / -समाप्तश्री शत्रुजयगिरिवराय नमः मुद्रण समाप्त वि. सं. 2046 CAT