________________ 262 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 योजन भाग उन 510-48 मेंसे - 13-47 कम करनेसे 497-01 = 4976, भाग चौदह अन्तरका कुल विस्तार, प्रत्येक अन्तरप्रमाण लाने के लिए१४) 497 (35 यो० 42 077 07 यो० शेष। उसके इकसठवें भाग करनेके लिए 461 427 भाग आए / उनमें पूर्वका 1 इकसठवाँ भाग आया है उसे जोड़नेसे 428 कुल अंश आए; उन्हें प्रत्येक अन्तरमें बाँट लेने के लिए१४)४२८ (30 भाग इकसठवें 42 008 शेष यो० भाग प्रतिभाग अर्थात् कुल 35 -3 - भाग एक अन्तरक्षेत्र प्रमाण * आया / // इति अन्तरक्षेत्रमानद्वितीय प्ररुपणा // पहले चन्द्रमण्डलोंका कुल चारक्षेत्र तथा प्रत्येक चन्द्र मण्डलका अन्तरक्षेत्र निकालनेकी रीति बताई गई / अब 'अबाधा' (विषय) कहा जाता है। सूर्य मण्डलवत् चन्द्रमण्डलोंकी भी 'अबाधा' तीन प्रकारकी है / उनमें प्रथम मेरुकी अपेक्षासे 'ओघतः अबाधा', दूसरी मेरुकी अपेक्षासे प्रत्येक मण्डल अबाधा', तीसरी प्रतिमण्डलमें 'चन्द्रचन्द्रकी परस्पर अबाधा' इस तरह तीन प्रकारकी है / उनमें प्रथम ‘ओघसे अबाधा' कहलाती है। 3. मेरुके आश्रित ओघसे चन्द्रमण्डल अबाधाका निरूपण-१ सूर्य मण्डलवत् चन्द्र मण्डलोंका अन्तर मेरु पर्वतसे चारों बाजू पर ओघसे 44820 योजन दूर होता है / यह सारी व्याख्या सूर्यमण्डलके ओघतः अबाधा प्रसंग पर कही है उस प्रकार यहाँ विचार लें / इति ओघतोऽबाधा / /