________________ 174 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * आउस्स बंधकालो, अबाहकालो अ अंतसमओ य / अपवत्तऽणपवत्तण उवकमऽणुवकमा भणिया // 326 // गाथार्थ-आयुष्यका (1) बंधकाल, (2) अबाधाकाल, (3) अंतसमय, (4) अपवर्तन, (5) अनपवर्तन, (6) उपक्रम और (7) अनुपक्रम आदि सात स्थान यथायोग्य कहे हैं। // 326 // विशेषार्थ-१. बंधकाल-बंधकाल अर्थात् बंध योग्य काल / अब शंका हो कि बन्ध काहेका ? तो जवाबमें परभवायुष्यका / . एक ऐसा नियम है कि, हरेक आत्माको एक गतिमें से दूसरी गतिमें कोई भी देह धारण करनी हो, फिर चारों गतिमें से किसी भी नामरूप हो तो उसका, उसे चाल भवमें ही निर्णय करना पडता है। यह निर्णय न हो तब तक इस देहमें से आत्मा छूट नहीं सकती। तात्पर्य यह कि, परभवके आयुष्यको चालू भवमें ही बंध करना पडता है। : यह बन्ध कब करना चाहिए ? उसका निर्णय करना वह बन्धकाल / यह निर्णय कालसमय अबके बादकी ही गाथामें ग्रन्थकार जणाएगा। ___ प्रस्तुत भवके गतिमान आयुष्यमें प्रथम बन्धकाल आता है / बन्धकालके समय उसके साथ साथ ही अवाधाकालकी मर्यादा जीव निश्चित कर ही डालता है। अतः दूसरी व्याख्यामें अबाधाकाल अर्थात् क्या ? तो उस विषयक विशेष व्याख्या तो गाथा 329 में करेंगे, लेकिन संक्षिप्त व्याख्या यह कि 2. अबाधाकाल-चालू भवमें बन्धकाल समय पर जीवको परभवके-जिस गतिमें जिस जाति स्थानमें उत्पन्न होना हो वहाँ के-आयुष्यका बन्ध किया, यह बन्ध करनेके बाद वह बद्घायुष्य उदयमें न आवे अर्थात् जब तक निश्चित किये जन्ममें उत्पन्न नहीं होता। इन (बंध-उदय ) दोनोंके बिचका जो अंतर-काल जितना हो, उसे अवाधाकाल कहा जाए / 3. अंतसमय-अनुभूत ( द्रव्य-काल ) दोनों प्रकारका गतिमान आयुष्य पूर्णताको पाए वह / जिसे 'मृत्यु' शब्दसे भी पहचाना जाता है। ऊपरकी तीनों स्थितिका अनुभव जीव मात्रको अवश्य करनेका ही होता है, अतः तीनोंकी व्याख्या साथमें की और अब पश्चात् की चार स्थितियोंका अनुभव जीव मात्र के लिए वैकल्पिक है। अतः उसका वर्णन बादमें लिया है /