________________ 54 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 // बादर-'भाव'-पुद्गल-परावर्त // 7 // संयमके असंख्यात स्थानकोंसे तीव्र मंदादिभेदोंसे 'रसबंध के अध्यवसायस्थानक ( अध्यवसाय = उद्यम, उत्साह ) असंख्यातगुने [ असंख्य लोकादेशप्रदेशप्रमाण ] हैं, उनमें प्रत्येक अध्यवसाय-स्थानकमें मरता हुआ जब रस-बन्धके सर्व-अध्यवसायोंको बिना क्रमके मरणसे जीव स्पर्शित हो जाए तब ‘बादर-भाव-पुद्गल-परावर्त' होता है। ॥सूक्ष्म-'भाव'-पुद्गल-परावर्त / / 8 // पूर्व, क्रमके बिना मरण-स्पर्शन अध्यवसायोंकी गणना करते हुए काल वक्तव्यता बताई गई, परंतु सूक्ष्म-भाव-पुद्गल-परावर्तकालमें तो जिस समय जीवको प्रथम सर्वमन्द ( सर्वजघन्य ) अध्यवसाय-स्थानकमें मरण हुआ था, पुनः कालांतरमें वह उससे अधिक कषायांशवाले ( दूसरे अध्यवसाय ) स्थानकमें मरता है। ऐसे कुछ कालांतरमें उससे अधिक कषायांशवाले तीसरे अध्यवसायमें वह मरता है। ऐसे क्रमशः रसबन्धके अध्यवसायस्थानकोंको ,मरणसे स्पर्श करे उनकी गणना करें। (आगे-पीछे अध्यवसायमें मरे उनकी गणना न करें) ऐसा करते हुए सर्व-अध्यवसाय-क्रमश: स्पर्श कर लें तब ‘सूक्ष्म-भावपुद्गल-परावर्त हो। ये पुद्गलपरावर्त अनन्त ८७उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण समझें, परन्तु अनन्तमें अनन्त भेद होनेसे बादर पुद्गलपरावर्त से सूक्ष्मपुद्गलपरावत्त अनन्तगुणादिक समझे। ( अर्थात् बादर-द्रव्य-पुद्गल-परावर्त की अपेक्षा सूक्ष्म-द्रव्य-पुद्गल-परावर्तकी अनन्ती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी पूर्वसे अनन्तगुनी समजना।)। ऊपर क्या क्या वस्तुस्वरूप कह गये हैं ? उसके संग्रहरूप गाथा 'समयावलि य मुहुत्ता, दिवसमहोरत्त-पक्ख-मासा य / संवच्छर-जुग-पलिया-सागर-ओसप्पि-परियट्टा // 1 // ' इस तरह समयसे प्रारंभ करके पुद्गल-परावर्त तकके कालका संक्षिप्त विवेचन किया गया / ... // इति समयादिकं पुद्गल-परावर्तान्तं कालस्वरूपं समाप्तम् // अवतरण-अब व्यंतर देव-देवियों की जघन्य और उत्कृष्ट आयुःस्थिति कहकर ज्योतिषी देवदेवियोंका जघन्योत्कृष्ट आयुष्यका वर्णन करता है-... 87. 'उस्सप्पिणी अणंता ! पुपालपरियट्टओ मुणेयब्वो / तेऽणताती-अद्धा, अणागयद्धा अणंतगुणा // 1 // ' [ नवतत्त्व ]