________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार * पर 11.583 यो. , योजन का प्रत्येक प्रतरवर्ती अंतर मिलता है, जिस बात को ग्रन्थकार अगली गाथाओं में स्पष्ट करते हैं / [ 239] अवतरण-पूर्वगाथाओं में बताये हुए उपायों द्वारा प्राप्त रत्नप्रभादि पृथ्वीगत प्रतरों का अंतरमान अब ग्रन्थकार स्वयं ही बताते हैं / तेसीआ पंच सया, इक्कारस चेव जोयणसहस्सा / रयणाए पत्थडंतर-मेगो च्चिअ जोअणतिभागो // 240 // सत्ताणवइ सयाई, बीयाए पत्थडंतरं होइ / पणसत्तरि तिनि सया, बारस सहसा य तइयाए // 241 // छावट्ठसयं सोलस सहस्स पंकाए दो तिभागा य / अडढाइजसयाई, ‘पणवीस सहस्स धूमाए // 242 // बावन्न सड्ढ सहसा, तमप्पभापत्थडतरं होई / / एगो च्चिअ पत्थडओ, अंतररहियो तमतमाए // 243 // प्रक्षेप गा. 59-62 ] गाथार्थ-१. रत्नप्रभा में निर्धारित केन्द्र से 115831 योजन का अंतर प्रति प्रस्तर होता है। [240] 2. इस प्रकार शर्कराप्रभा के 15 प्रतर के 10 आँतरों में 9700 योजन का अंतर प्रतिप्रस्तर पर मिलता है। 3. वालुकाप्रभा के 9 प्रतर के आठ आँतरों के बीच 12375 योजन का अंतर प्रतिप्रस्तर होता है / [ 241 ] . 4. पंकप्रभा के 7 प्रतरों के छः आँतरों के बीच प्रतिप्रस्तर पर 161663 योजन का अंतर होता है। 5. धूमप्रभा के 5 प्रतरों के चार आँतरों में 25250 योजन का अंतर प्रतिप्रतर मिलता है। [242] 6. इस प्रकार तमःप्रभा के 3 प्रतरों के बीच दो औतरों में 52500 योजन का अंतर प्रतिप्रस्तर पर है। 7. और सातवीं तमस्तमप्रभा अंतर रहित है, क्योंकि वहाँ तो एक ही प्रस्तर होने के कारण अंतर संभवित रहता ही नहीं है / [ 243 ] विशेषार्थ-विशेषार्थ सुगम एवं सरल ही है। इसकी अधिक जानकारी आप को नीचे दिये गये यन्त्र से भी प्राप्त हो सकेगी। [240-243] (क्षेपक गा, 59 से 62 तक)