________________ 304 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 129-135 सुदंसण-सुप्पडिबद्धे, मणोरमे चेव होइ : पढमतिगे / तत्तो य सवओभद्दे, विसाले य सुमणे चेव // 134 // सोमणसे पीइकरे, आइच्चे चेव होइ तइयतिगे / सव्वट्ठसिद्धिनामे, सुरिंदया एव* बासहि // 135 / / [प्र. गा. सं. 37-43 ] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 129-135 // विशेषार्थ-६२ प्रतरके कुल 62 इन्द्रक हैं। उन प्रत्येक इन्द्रकों के नाम यहाँ बताए जाते हैं। सौधर्मके प्रथम प्रतरमें स्थित इन्द्रक विमानका नाम १-'उडु' है / द्वितीयादिक प्रतरमें अनुक्रमसे २-चन्द्र, ३-रजत, ४-वल्गु, ५-वीर्य, ६-वरुणं, ७-आनन्द, ८-ब्रह्मा, ९-कांचन, १०-रुचिर, ११-वंच (चंच), १२-अरुण, १३-दिश, १४-वैडूर्य, १५-रुचक, १६-रुचिर, १७-अंक, १८-स्फटिक, १९-तपनीय, २०-मेघविमान, २१-अघ, २२-हारिद्र, २३-नलिन, २४-लोहिताक्ष, २५-वज्र, २६-अंजन, २७-वरमाल, २८-अरिष्ट, २९-देव, ३०-सौम, ३१-मंगल,२८६ ३२-बलभद्र, ३३-चक्र, ३४-गदा, ३५-स्वस्तिक, ३६-नंदावर्त, ३७-आभंकर, ३८-गृद्धि, ३९-केतु, ४०-गरुड, ४१-ब्रह्म, ४२-ब्रह्महित, ४३-ब्रह्मोत्तर, ४४--लांतक / [टिप्पणी :-इनमें १ली गाथामें कथित् 13 विमान सौधर्मईशान देवलोकके तेरह प्रतरमें योजनेका हैं / तथा १४से 25 तकके बारह विमान तीसरे-चौथे देवलोकके प्रतरवर्ती समझे / 26 से 31 तक पाँचवे देवलोकमें, 32 से 36 तकके छठे देवलोकमें, 37 से 40 तकके सातवें देवलोकमें और 41 से 44 तकके विमान आठवें देवलोकमें जाने।) ४५-महाशुक्र, ४६-सहस्रार, ४७-आनत, ४८-प्राणत, ४९-पुष्प, ५०-अलंकार, ५१-आरण, ५२-अच्युत, ५३-सुदर्शन, ५४-सुप्रबुद्ध, ५५-मनोरम, ५६-सर्वतोभद्र, ५७विशाल, ५८-सुमन, ५९-सौमनस, ६०-प्रीतिकर, ६१-आदित्य, ६२-सर्वार्थसिद्ध, इस तरह 62 इन्द्रकविमान वैमानिक निकायमें हैं। [टिप्पणी :-45 से 48 तकके विमान नवें-दसवें देवलोकके, 49 से 52 तकके आरण-अच्युतके, 53 से 61 तकके नवग्रैवेयक और ६२वाँ अनुत्तर देवलोकका प्रयोजे / इस तरह इन्द्रकविमानोंके नाम बताए गये हैं।] - बोद्धव्वे // $ विसालए सोमणे इय // * एते // 286. इस विषयमें नाममें कई मतांतर है, अतः वे संग्रहणी टीकाएँ तथा देवेन्द्र-नरकेन्द्र. प्रकरणमेंसे देख ले।