________________ * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ७-अब सातवीं पृथ्वी में एक ही प्रतर होने से वहाँ बँटवारा करने की जरूरत नहीं पड़ती / अतः वहाँ 500 धनुष का उत्कृष्ट भवधारणीय देहमान समझें / 248 ] अवतरण-इस प्रकार प्रत्येक प्रतर पर भवधारणीय शरीर की व्याख्या एवं परिभाषा करके ग्रन्थकार हरेक प्रतरोंमें उत्तरवैक्रिय शरीर का उत्कृष्ट देहमान कहने के साथ साथ शेषार्ध गाथा से पुनः दोनों शरीर का जघन्य रुप देहमान कितना होता है ? यह भी बताते हैं / इअ साहाविय देहो, उत्तरवेउव्विओ य तद्गुणो // दुविहोवि जहन्न कमा, अंगुलअस्संख संखेसो // 249 // गाथार्थ-इस तरह स्वाभाविक - भवधारणीय शरीर का मान बताया / अब प्रत्येक नरक में उत्तरवैक्रिय का शरीरमान जानने के लिए जिस जिस नरक में जो जो भवधारणीय मान बताया है, वहाँ वहाँ उसी मान को दो गुना-दो गुना करने से उसी पृथ्वी के नारकों का उत्तरवैक्रिय देहमान आता है / और दोनों शरीरों का जघन्यमान भी अनुक्रमें अंगुल के असंख्य तथा संख्य भागका होता है। यह जघन्यमान नारक की उत्पत्ति के समय का ही समझें // 249 // विशेषार्थ-उत्तरवैक्रिय अर्थात् मूल वैक्रिय शरीर से, दूसरे वैक्रिय ,शरीरों की रचना वह / ( इस के अधिक अर्थ इस से पहले बताये गए हैं) उत्तरवैक्रिय की यही शक्ति नारकों में तथाविध भवस्वभाव से ही प्राप्त होती है, भवधारणीय वैक्रिय तथा उत्तरवैक्रिय-ये दोनों देह (शरीर) अस्थि इत्यादि की रचना रहित केवल वैक्रिय पुद्गलों से बने होते हैं। इसमें देवोंका उत्तरवैक्रिय शुभ-मनोज्ञ. और उत्तम पुद्गलों से बना हुआ होता है, तव नारकों का अशुभ-अमनोज्ञ और अनुत्तम पुद्गलों का होता है / हालाँ कि वे नारक उत्तरवैक्रिय रचना से भी अधिक सुखद तथा शुभ विकुर्व सके ऐसा चाहते भी है, लेकिन तथाविध प्रतिकूलता अपने कर्मोदय के कारण दुःखद तथा अशुभ होकर सामने आकर खड़ी हो जाती हैं / और रचे हुए उसी उत्तरवैक्रिय को टिकने काल उत्कृष्ट से लेकर अन्तर्मुहूर्त का होता है / पहले नरकमें उत्तरवैक्रिय मान 15 धनुष 2 हाथ और 12 अंगल का, दूसरे नरकमें 31 धनुष 1 हाथ का, तीसरे नरक में 62 धनुष 2 हाथ का, चौथे में 125 धनुष, पांचवें में 250 धनुष का, छठे में 500 धनुष तथा सातवें में 1000 धनुष का होता है /