________________ * नारकोंका उपपात तथा च्यवन सम्बन्ध समज . .55 . * सर्व नारकों की भवधारणीय शरीरकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग की होती है, क्योंकि उत्पत्ति के समय उतनी ही होती है और उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना अंगल के संख्यातवें भाग की होती है। इस अवगाहना को भी उत्पत्ति के समय की ही समझें। परंतु इसके बाद उस में वृद्धि होती ही जाती है / लेकिन कुछेक आचार्य उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना भी असंख्यातवें भाग की बताते है यह ठीक नहीं है, ऐसा श्री चन्द्रिया टीका में कहा है। क्योंकि इस का विरोध 'आगम' से ही होता आया है / [ 249] __ - इति अवगाहना द्वारम // चौथा उपपात और पाँचवाँ च्यवनविरह द्वार अवतरण-इस प्रकार तृतीय द्वार समाप्त हुआ / अब देववत् नारकों का चौथा उपपातविरह तथा पाँचवाँ च्यवनविरह द्वार बताते हैं / सत्तसु चउवीस मुहू, सग पनर दिणेगदुचउछम्मासा / उववाय-चवणविरहो, ओहे बारस मुहूत्त गुरू // 250 // लहुओ दुहाऽवि समओ-२५० // . विशेषार्थ-उपपात विरह अर्थात् एक जीव की ( नरकमें ) उत्पत्ति के बाद दूसरा जीव उत्पन्न होने में जो विलंब या अंतर रहता है तो कितना रहता है ! वह / अथवा एक जीव की ( नरक में ) उत्पत्ति के बाद दूसरे जीव की उत्पत्ति के बीच का जो अंतरमान रहता है उसे 'उपपातविरह ' कहा जाता है / और च्यवनविरह अर्थात् एक जीव का वहाँ से च्यवन होने के बाद, दूसरा पुनः कितना समय यावत् च्यवता नहीं है, यह / [ इस की अधिक जानकारी देव द्वार प्रसंग में दी गई है।] _सातों पृथ्वी में अनुक्रम से उपपातविरह तथा च्यवनविरह समान होने के कारण दोनों द्वार को बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि पहली रत्नप्रभा पृथ्वी में एक जीव उत्पन्न होने के बाद दूसरा जीव उत्पन्न होने में अथवा एक जीव का च्यवन होने के बाद दूसरा जीव च्यवने में, 24 मुहूर्त का उत्कृष्ट से विरह-अंतर रहता है ( उस के बाद कोई नया उत्पन्न होता है अथवा च्यवता है ही / ) इस प्रकार दूसरे नरक में 7 दिन .३७३-अनुयोग द्वार की हारिभद्रीय टीका में बताया है कि-तथाविध प्रयत्न होने पर भी नारकों की अंगुल के संख्येय भाग की ही उत्तरवैक्रिय स्थिति रहती है। .