________________ अजनगिरिका वर्णन ] गाथा-७० [ 145 होती हैं। इन बावलियोंकी चारों दिशाओं में 500 योजन दूर जाने पर एक लाख योजन लम्बा एक वन आता है, अर्थात् एक बावलिके चारों बाजू पर चार वन होनेसे एक अजनगिरिकी चारों दिशाओं में रहीं चार बावलियोंके 16 वन होते हैं, और चार चार अजनगिरिकी सोलह बावलियोंके 64 वन होते हैं। इस बावलिके मध्यकूपके ऊपर स्फटिक रत्नमय उज्ज्वल वर्णके 64000 योजन ऊँचे, 1000 योजन गहरे और धान्यके प्यालेकी तरह वर्तुलाकारमें रहे 'दधिमुखगिरि' आए हैं। कुल सोलह बावलियाँ होनेसे 'दधिमुख' पर्वत भी सोलह होते हैं और प्रत्येकके ऊपर एक-एक शाश्वत् 'जिनचैत्य' होता है / इति 16 दधिमुखचैत्यानि / ___ इस अजनगिरिकी चारों दिशाओं में जो बावलियां कहीं उनमें एक बावलिसे दूसरी बावलि तक पहुँचते बिचके भागमें दो दो "रतिकर' पर्वत आए हैं। 16 बावलियोंके आंतरेके 32 ‘रतिकर' होते हैं। प्रत्येकके ऊपर एकएक शाश्वत् 'जिनचैत्य' है। 'इति 32 रतिकरशाश्वजिनचैत्यानि / ' इस तरह 4 अञ्जनगिरि, 16 दधिमुख, 32 रतिकरचैत्यानि / इस प्रकार (बावन ) शाश्वत् जिनालय शाश्वती जिनप्रतिमाओंसे सुशोभित आए हैं, जिसका वर्णन सिद्धान्तमें सुन्दर रीतिसे दिया गया है। . प्रति संवत्सर पर आती शाश्वती अट्ठाइयोंके महामांगलिक प्रसंग पर अथवा कल्याणकका महोत्सव मनानेका हो उस अवसर पर सौधर्मदेवलोकका स्वामी सौधर्मेन्द्र सुघोषा घण्टेके द्वारा सर्व देवोंको उत्सव प्रसंगका समाचार जणाकर इकट्ठा करता है। पश्चात् एक लाख योजनका ‘पालक' नामका विमान रचकर आत्मकल्याणकी आकांक्षा रखनेवाले अनेक देवदेवियों सह परिवृत्त इन्द्रमहाराज नन्दीश्वरद्वीपमें आते हैं। वहाँ शाश्वतचैत्यों में विराजमान परमतारक श्रीजिनेश्वरदेवोंकी अनुपम प्रतिमाओंको तन-मन-धनके अत्यानन्दसे, हृदयोल्लास• पूर्वक अनेक प्रकारकी भक्ति-सेवा करके स्वयं तथा अन्य परिवार भावना करते हैं कि अविरतिवन्त-अत्यागी ऐसे हमें ऐसे अवसर सचमुच किसी पूर्व पुण्यके प्रतापसे ही प्राप्त होते हैं और अब भी प्राप्त हों। इत्यादि भावनाएँ करके वे आत्माएँ कृतकृत्य होती हैं / व्रत पच्चख्खाणादिकी विरति (नियम )को तथाविध भवमें ही नहीं पानेवाले ऐसे देव जब भक्तिभावनाके ऐसे सुरम्य और दुर्लभ अवसरको पाकर उस जगद्वन्द्य परमात्माओंकी भक्तिमें कोई कमी नहीं रखते, तो फिर हम अपने पूर्वके पुण्य प्रतापसे चौदह गुणस्थानकोंके अधिकारवाले हुए हैं, अतः हमेशा शक्य न हो तो भी मुख्य मुख्य अवसरोंके प्रसंगों में अनेक प्रकारका धर्मानुष्ठान करने में पुण्यात्माओंको जरा भी कमी न रखना, यह सचमुच महापुण्यके प्रतापसे प्राप्त हुई सर्वानुकूल सामग्रीको, बिना * सदुपयोग किये ही निष्फल बृ. सं. 19