________________ * छः पर्याप्तिओंकी व्याख्या . यहाँ शरीर काययोगकी प्रवृत्तिमें समर्थ हो तब तक शरीरकी रचना हो जाती है। यह रचना शरीर पर्याप्तिने की। एक अंतर्मुहूर्त तक शरीर पर्याप्तिने शरीर रचना योग्य पुद्गलोंका ग्रहण-संचय करनेसे शरीर-शक्ति निर्माण होने लगी। मात्र शरीर बना अर्थात् इन्द्रियोंसे रहित ढांचा-आकार तैयार हुआ। 3. इन्द्रिय पर्याप्ति-शरीर पर्याप्तिके समय सात धातु रूपमें परिणत आहार ( या सात धातुरूप द्रव्य ) में से जिस जीवको जितनी इन्द्रियाँ प्राप्त करनेकी हों उन उन इन्द्रियोंके योग्य पुद्गल तुरंत ही ग्रहण करके इन्द्रिय रूपमें परिणत करनेसे इन्द्रियोंकी रचना हो जाए। फिर वे इन्द्रियाँ अपने अपने विषयज्ञानमें समर्थ बन जाएँ। इससे इन्द्रिय पर्याप्तिकी परिसमाप्ति हो जाए। इस रचनामें एक अंतर्मुहूर्त काल लगता है। शरीर रचनाके साथ सुसम्बद्ध ऐसे आहार, शरीर और इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तिओं का वर्णन समाप्त हुआ। तत्पश्चात् तीन पर्याप्तियाँ, शरीरसे बाहर रहे और भिन्न भिन्न प्रकारकी वर्गणाओं जन्य पुद्गलोंके द्वारा तैयार हो सकती हैं, जिन्हें अब समझेंगे। 4. श्वासोच्छ्वास-विश्वमें कतिपय जीव नासिका द्वारा, जबकि कतिपय जीव अपने शरीरके रोम-छिद्रों द्वारा प्राणवायु (Oxygen ) ग्रहण करता है। इस श्वासोच्छवासकी क्रिया जीव किस शक्ति-बलसे कर सकनेमें समर्थ बने ? तो आद्य प्रारंभ तो श्वासोच्छ्वास नामकी क्रिया द्वारा प्राप्त शक्तिसे होता है / इस क्रियाके लिए उसे आकाश या अवकाशमें रहे एक प्रकारके सूक्ष्म पुद्गलोंका आलंबन (सहारा) लेना पडता है। . अब इस क्रियाकी प्रक्रिया और उसका क्रम देखें ___अखिल ब्रह्मांडमें सर्वत्र अर्थात् अवकाश और सर्व पदार्थों के अंदर विविध प्रकार के अनंत पुद्गल स्कंध अनादि अनंतकालसे विद्यमान है। ये स्कंध आठ प्रकारकी कर्मवर्गणाओंके होते है। इस संसारके संचालनके मूलमें ये वर्गणाएँ कर्मों ही होते है / इन वर्गणाओंमें एक श्वासोच्छवास नामकी स्वतंत्र वर्गणा है / जो वर्गणा या उसके पुद्गल स्कंध श्वासोच्छवासकी क्रियाके लिए ही सहायक-उपयोगी है। उत्पत्ति स्थानमें आए जीवको श्वासोच्छ्वासकी क्रियाके विना नहीं चलता, क्योंकि जीवको जीनेके लिए शुद्ध प्राणवायुकी 509. डॉक्टरो या सायन्स कहता है कि, यह क्रिया तो कुदरती है। जब कि जैन तत्त्वज्ञान कहता है, नहीं, कुदरती जरा भी नहीं है। इसके पीछे तथाप्रकारका पूर्वसंचित कर्म ही कारण है / यह कर्म जैसा बांधा हो वैसे श्वासोच्छ्वासकी अनुकूलता-प्रतिकूलता मिलती है। विश्वके या विश्ववर्ती पदार्थोके संचालनके पीछे जैन तत्वज्ञानने बताई हुई कर्मकी अत्यन्त सुव्यवस्थित प्रक्रिया-थियरी पडी है। इसके आधार पर ही गति-स्थिति या प्रगतिकी क्रियाएँ होती है।