________________ * 214 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अविरत जरूरत होती है, इसे लेकर अशुद्ध बने प्राणवायुको फिरसे बाहर निकालना पडता है। यह क्रिया नासिका द्वारा होती है, लेकिन इस क्रिया में ताकात वह श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति खड़ी करती हैं। अतः जीव-आत्मा तुरंत ही यह ताकात प्राप्त करनेको आसपास या अवकाश-आकाशमें रहे श्वासोच्छ्वास प्रायोग्य दलिकों-स्कंधोंको खिंचकर श्वासोच्छवासकी क्रियाके रूपमें परिणत करता है। फिर श्वास-अवलंबन ले या ग्रहण करे-रोके और फिर तुरंत ही उसका उच्छ्वासन करे अर्थात् श्वासका विसर्जन करे-छोड दे, इससे ग्रहण किये गए पुद्गल फिरसे आकाश-अवकाशमें दाखिल हो जाएँ, फिरसे ले-छोडे, इस तरह चलता रहे / अन्तर्मुहूर्त तकमें जीव इस क्रिया के लिए समर्थ बन जानेसे यह चौथी पर्याप्ति पूर्ण हो जाए। कर्मपुद्गल ऐसे सूक्ष्म-सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं कि सर्वज्ञ-त्रिकालज्ञानी जीवके सिवाय कोई जीव प्रत्यक्ष देख जान नहीं सकता। . 5. भाषा-श्वासोच्छवासकी तरह आठ प्रकारकी वर्गणाओंमें एक भाषावर्गणा है। यह वर्गणा भाषा अर्थात् बोलनेमें उपयोगी दलिकों ( अणु-परमाणु ) वाली है। जीवको जब जब बोलनेकी इच्छा हो तब तब, अखिल ब्रह्मांडमें रहे भाषा बोलनेमें ( शब्दात्मक या ध्वन्यात्मक ) उपयोगी भाषावर्गणाके पुद्गलोंको ग्रहण करके भाषारूपमें परिणत किये। बोलना हो तब तक अवलंबन लेकर फिर (बोलनेका बंद होने पर) उन पुद्गलोंका अवकाशमें विसर्जन कर देते हैं अर्थात् उन पुद्गल स्कंधोंका त्याग कर देते हैं। ____ इस शक्तिको उत्पत्ति समय ही जीव एक अन्तर्मुहूर्तमें ही प्राप्त कर लेता है। फिर वह शक्तिको 'भाषा पर्याप्ति' इस नामसे संबोधित की जाती है। यह शक्ति प्राप्त कर लेनेसे जीव हमेशाके लिए बोलनेकी क्रियामें समर्थ हो गया। अब जब जब बोलनेकी इच्छा होती है तब तब जीव तुरंत ही आकाशमेंसे पुद्गलोंको अकल्पनीय गतिसे ग्रहण करके वाणी रूपमें परिणत करके वचनरूपमें छोड़ता है। उसके बाद उन पुद्गलोंका अकल्पनीय समयमें अपने आप विसर्जन हो जाता है। चेतन या जड द्वारा उत्पन्न होते हरेक आवाजके पुद्गल एक सैकंडके करोडवें भागमें ब्रह्मांड व्यापी बन जाते हैं। वे तुरंत पुनः अवकाशमें मिल जाते हैं। 6. मनःपर्याप्ति-विचार भी ऐसे वैसे नहीं किया जा सकता। इसके लिए भी एक प्रकारकी अगम्य शक्ति-बलकी जरूरत पड़ती है। उस बलका सहारा-मदद मिले तो ही व्यक्ति विचार और बादकी कक्षाका चिंतन-मनन भी कर सके। . .