________________ * मनःपर्याप्ति और इसकी जीवके बिच वितरण . .215 . . इस शक्ति-बलका नाम मनपर्याप्ति है। यह विचार करनेके लिए जिन पुद्गलोंकी जरूरत पड़ती है, वे ऊपरकी तरह आठ वर्गणामेंसे मनोवर्गणाके दलिक-स्कंध हैं। जीवकी उत्पत्तिके समय विचारकी ताकात प्राप्त करनेके लिए अन्तर्मुहुर्त तक अवकाशवर्ती मनोवर्गणाके पुद्गलोंको आहरण ग्रहण करता रहता है, आवश्यक पुद्गलोंका संचय होने पर उन पुद्गलोंको विचारके रूपमें बदलता-परिणत करता-संस्कारी बनाता रहता है, फिर विचार करना हो तब तक अवलंबन रूपमें रखकर, विचारधारा पूर्ण होने पर उन स्कंधोंका विसर्जन करता है / यह क्रिया पूर्ण होनेसे मनःपर्याप्ति प्राप्त हो चुकती है। अब जब जब विचारोंका ग्रहण, परिणमन और विसर्जन करना हो तब ऊपरोक्त प्रक्रिया होती रहेगी। अब किस जीवको कौनसी पर्याप्ति हो ? एकेन्द्रिय जीवोंको आहार-शरीर-इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास, ये प्राथमिक चार पर्याप्तियाँ होती हैं। विकलेन्द्रिय अर्थात् दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चउरिन्द्रियके पांच पर्याप्तियाँ, असंज्ञी पंचेन्द्रियके [ संमू० ] मनःपर्याप्तिके सिवायकी वे ही पांच पर्याप्तियाँ और संज्ञी पंचेन्द्रिय अर्थात् जिन्हें मन है वैसे [ गर्भज ] जीवोंके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। पर्याप्ति विषयक विशेष विचारणा _ विशेष विचारें तो लब्धि अपर्याप्ता जीवकें तीन पर्याप्तियाँ होती हैं, अर्थात् सर्व अपर्याप्ता संमूर्छिम पंचेन्द्रिय, तिर्यंच तथा मनुष्य और अपर्याप्ता एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके प्रथमकी तीन पर्याप्तियाँ हैं। लाब्ध अपर्याप्ता गर्भजसंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्यके भी वे ही तीन पर्याप्तियाँ हैं। . लब्धि पर्याप्ता एकेन्द्रियके चार पर्याप्तियाँ, लब्धि पर्याप्ता विकलेन्द्रियके तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय [वे संमूर्छिम तिर्यच ] के पाँच पर्याप्तियाँ हैं। संमूर्च्छिम मनुष्य लब्धि पर्याप्त न होनेसे उनकी बात यहाँ नहीं की है। ___लब्धि पर्याप्ता मनुष्य, गर्भज तिर्यच, देव और नारकी इनके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। क्योंकि लब्धिपर्याप्त तिर्यंच मनुष्य अपूर्ण पर्याप्तिमें मरते नहीं और देव, __510. संज्ञा या मन एक नहीं फिर भी उनकी आहारादिककी प्रवृत्ति आहार संज्ञाके कारण समझनी / अथवा असंज्ञीको भी अल्पमनोद्रव्योंका ग्रहण (क्षयोपशमरूप भावमन ) है और इसीसे वह इष्टकार्यमें प्रवृत्ति तथा अनिष्टमें अप्रवृत्ति करता है। परंतु इससे उसे मनःपर्याप्ति नहीं समझें /