________________ [ गाथा 17 76 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी // नव अवेयकमें // प्र. उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति 1. 23 सागरो० 22 सागरो० 2. 24 , 3. 25 , 24 , . // अनुत्तर देवलोकमें // . उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति ज. 32 सागरो० 31 सागरो० वि. 32 , 31 " ज. 32 , 31 . , 6. 7. 8. 27 28 29 30 , , , , 26 27 28 29 , ,, , , [ यह गाथा चन्द्रिया संग्रहणीमें नहीं है अत: ‘प्रक्षेपक गाथा' समझें ] अवतरण-बारह देवलोकके इन्द्रोंके रहने के स्थल बताऐ हैं कप्पस्स अन्तपयरे, नियकप्पवडिंसयाविमाणाओ। इन्द निवासा तेसिं, चउदिसि लोगपालाणं / / 1-7|| [प्रक्षे. गा. सं. 1] गाथार्थ-प्रत्येक देवलोकके अंतिम प्रतरमें अपने-अपने नामवाले कल्पावतंसक विमान होते हैं, उनमें इन्द्रके निवासस्थान होते हैं, और उनके चारों ओर लोकपाल देवोंके निवासस्थान होते हैं // 17 // विशेषार्थ-देवलोकमें प्रतर सम्बन्धी जो व्यवस्था है वह वैमानिक निकायमें ही है, 10 परंतु अन्य निकायोंमें नहीं है। वैमानिक निकायके प्रत्येक देवलोकमें कितने-कितने प्रतर होते हैं यह पहले बताया गया है। इस कल्पोपपन्न देवलोकक अंतिम प्रतरके अर्थात् जिस देवलोकके जिस प्रतरमें इन्द्रनिवास है, उस उस विभागके प्रतरके दक्षिण-विभागके मध्यभागमें अपने अपने कल्पके 106. अन्य निकायोंमें प्रतर न हों यह आसानीसे समझा जा सकता है, क्योंकि भवनपति और व्यन्तरोंको रहनेके लिए तो भवन और नगर हैं / और वे सर्व विप्रकीर्ण (बिखरे हुए) अर्थात् अलग अलग हैं। और ज्योतिषीके विमान भी पृथक् पृथक् हैं /