________________ कौनसे देवलोकमें कौनसी लेश्या और देवोंके देहका वर्ण ] गाथा-१७६-१७७ [ 355 है। प्रत्येक लेश्या अलग-अलग वर्ण तथा रसोंकी उपमायुक्त है। इनमें प्रारम्भकी तीन लेश्याएँ अप्रशस्त, मलिन एवं दुर्गंधयुक्त हैं। स्पर्शसे ये स्निग्धोष्ण शीत-ऋक्ष हैं अतः वह क्लेश-कषाय कराकर दुर्गति प्रदानरूप बनती है। जबकि अंतिम तीन लेश्याएँ उत्तरोत्तर अत्यन्त सुवासित, प्रशस्त, निर्मल, शुभ स्पर्शी, शान्ति तथा सद्गति करनेवाली हैं। इसके अलावा कईवार लेश्याएँ वैडूर्यरत्न या रक्तवस्त्रकी तरह तद्रूप हो जाती है / देव तथा नारकोंकी लेश्याएँ भवान्त तक अवस्थित है। ( तदुपरांत उत्पन्न होनेसे पूर्वका तथा च्यवन होने के बादका ये दो अन्तर्मुहूर्त अधिक समझे।) जो कि अन्य द्रव्यके संसर्गसे अन्य रूप परिवर्तित होता जरूर है, परन्तु जिस प्रकार स्फटिक रत्न अथवा दर्पण धागेसे बँधा हुआ होने पर भी तथा जासुद पुष्पादिकका संसर्ग होने पर भी अपने स्वभावके अथवा मूल रंगको छोड़ता नहीं है, उसी प्रकार देवों तथा नारकोंकी मूल लेश्या कभी भी परिवर्तित होती नहीं है, जब कि तिर्यच मनुष्यकी लेश्या अन्तर्मुहूर्त पर (भी) परिवर्तित होती है। प्रत्येक लेश्याकी जघन्योत्कृष्ट स्थिति देव-नारकोंके जघन्योत्कृष्ट आयुष्यानुसार होनेसे उसी अनुसार स्वयं सोच लेना। [176-1763 ] अवतरण-यहाँ पर पहले चारों निकायाश्रयी लेश्या संख्या बता दी थी। और अब शेष रहे वैमानिक निकायके देवोंके देहका वर्ण आधी गाथासे बताते हैं। कणगाभपउमकेसर-वण्णा दुसु तिसु उपरि धवला // 177 // . गाथार्थ-प्रारम्भके दो देवलोकमें३२२ रक्त-सुवर्णकी कान्ति-छायावाले देव रहते हैं। क्यों करे ? इसके बजाय जिस पर जामुन है उसी डालको ही क्यों न तोड़े ? तब पाँचवाँ कहता है कि हमें सिर्फ फलोंकी ही इच्छा. है तो अच्छे-अच्छे फल ही ले लें / यह सुनकर छठेने बड़ी विनम्रतासे कहा कि भाईयों ! ऐसे पापके कुविचार करके नष्ट करनेके बदले यहाँ नीचे ही अच्छे फल गिरे हुए हैं, चलो इन्हें ही खा लें। - इस दृष्टांतमें पहलेका विचार कृष्ण लेश्याके, दूसरे अनुक्रमसे नील, तेजो आदि लेश्याके भाव जाने / पूर्वके पुरुषोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर पुरुषोंके विचार शुभ-शुभतर और शुभतम दिखायी पड़ते हैं। अतः उनमें संक्लेषकी न्यूनता तथा सुकोमलताकी अधिकता देखने मिलती है। लेश्याओंका विशेष स्वरूप प्रज्ञापना, आवश्यक आदि सूत्र, लोकप्रकाशादिक ग्रन्थ, दिगम्बरीय ग्रन्थ, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, बौद्धग्रन्थ दीघनिकायादिमें है / महाभारत, पातंजल योगदर्शनादिमें भी इनकी अमुक कल्पना मिलती है। 322. जीवाभिगमसूत्रकी व्याख्यासे इस कथनको सोचनसे यह कथन उसके विरुद्ध जाता दिखायी पड़ता नहीं है, क्योंकि श्री मल्यगिरि महाराजने संग्रहणी टीकामें एक दूसरे वर्णके साथ सुमेल करके दोष टाल दिया है।