________________ 356 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी - [गाथा-१७८ बादके तीन कल्पमें देवोंका शरीर कमलकेसरके वर्णयुक्त और ऊपरके अन्य सभी देव उज्ज्वल वर्णयुक्त होते हैं। // 177 // विशेषार्थ-विशेष इतना ही कि कमलकेसर अर्थात् कमलके बीचके केसरका वर्ण जैसा होता है वैसा गौरवर्णीय / लांतकादिसे ऊपर उज्ज्वल वर्णवाले जो बताये गये हैं उसमें इतना विशेष समझे कि उत्तरोत्तर अधिकसे अधिक ( शुक्ल, शुक्लतर एवं शुक्लतम ) उज्ज्वल वर्णयुक्त जानें / [177] ॥चारों निकायमें लेश्या तथा वैमानिकमें देहवर्ण स्थापनाका यन्त्र॥ निकाय नाम | लेश्या नाम | कल्प नाम | लेश्या / वै. देहवर्ण भवनपतिकी | कृष्ण, नील, | सौधर्म- तेजो / रक्त सुवर्ण / | कापोत, तेजो | | ईशानकी परमाधामीकी एक मात्र सनत्कुमार पद्म - पद्म केसर कृष्ण लेश्या ही माहेन्द्र, ब्रह्मकी व्यंतरकी कृष्ण, नील, | लांतकसे शुक्ल उज्ज्वल वर्ण कापोत, तेजो | अच्युत तक ज्योतिषीकी तेजो लेश्या ग्रेवेयक शुक्ल उज्ज्वल वर्ण | अनुत्तरकी . // उपसंहारप्रसंगपर देवगतिमें चार निकायाश्रयी आहारोच्छ्वासमान व्याख्या / / अवतरण-अब देवोंका आहार तथा उच्छ्वासकालमान कहते हैं। यहाँ प्रथम दस हजार वर्षायुषी देवोंके विषयमें कहते हैं। दसवाससहस्साई, जहन्नमाउं धरति जे देवा / तेसिं चउत्थाहारो, सत्तहिं थोवेहिं ऊसासो // 178* // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 178 / / विशेषार्थ-ग्रन्थकार अब चारों निकायके देवोंका आहार तथा उच्छ्वास सम्बन्धी अंतर मर्यादाको कहते हैं। शंका-यहाँ पर एक शंका होती है कि श्वासोच्छ्वास मानके बदले यहाँ सिर्फ उच्छ्वासमान शब्दका प्रयोग क्यों किया गया है ? * जिनभद्रीया संग्रहणीमें भवनपति तथा व्यन्तरके लिए स्वतन्त्र गाथा नहीं कही गयी है, अतः उसकी २१५वीं गाथामें टीकाकारको उपरोक्त हकीकत बतानी पड़ी है।