________________ 320 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 148 एक ही समयमें अन्यगतिसे कितने जीव देवगतिमें जघन्योत्कृष्ट संख्यामें उत्पन्न होते हैं वह उपपात संख्याद्वार। चारों निकायसे कोई भी निकायमें अथवा चारों निकायमें सामान्यतः समुच्चयमें जघन्यसे एक, दो, तीन इस तरह उत्कृष्टसे यावत् संख्याता-असंख्याता भी उत्पन्न होते हैं, तथा एक, दो यावत् असंख्याता एक ही समयमें च्यवते भी है। यहाँ इतना विशेष समझे कि-भवनपतिसे लेकर सहस्रार तकके देवोंको तो उपरोक्त नियम योग्य है। क्योंकि सहस्रार तक तो तिथंचोंकी भी गति है और तिर्यच असंख्याता है। अतः यावत् असंख्याती उपपात संख्या योग्य ही है तथा उतनी संख्या पर च्यवते मी है, क्योंकि उनकी धरती (पृथ्वी)-अप्-वनस्पति-मनुष्य-तिर्यच इन पाँचों, दंडकोंमें गति होती हैं। विशेषमें सौधर्म-ईशान तक पाँचों दंडकोंमें और तीसरेसे आठवें कल्प तकके देवोंकी गति मनुष्य-तिर्यच यह दो दंडकमें ही होती है। अब नौवें सहस्रारकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्ध तकके देवोंकी उपपात तथा च्यवन संख्या जघन्यसे 1-2-3 है और उत्कृष्टसे संख्याती ही होती है; क्योंकि सहस्रारसे सर्वार्थसिद्ध तक तथाविध शुभ अध्यवसायवाले गर्भज मनुष्य ही उत्पन्न हो सकते हैं और उनकी संख्या संख्याती ही है और च्यवन संख्या भी संख्याती ही होती है, क्योंकि वे कल्पगत देव मरकर गर्भज मनुष्यमें ही उत्पन्न होते हैं और उन गर्भज मनुष्योंकी संख्याती संख्या हैं। [ 148] इति देवानां चतुर्थ पञ्चमं च षष्ठं-सप्तमं च द्वारं समाप्तम् // // देवलोकमें प्रत्येक कल्पमें उत्कृष्ट ' उपपात व्यवनविरह' काल संबंधी यंत्र // निकाय-कल्पनाम उ. विरहमान| कल्प नाम | उ. विरहमान | जघ. भवनपति व्यन्तरमें | 24 मुहूर्त सहस्रार कल्पमें | 3 मास १०दि. ज्योतिषी निकायमें | , | आनत-प्राणतमें संख्याता मास. सौधर्म-ईशानमें | , आरण-अच्युतमें। संख्याता वर्ष सनत्कुमार कल्पमें ९दि.२० मु०/ 10 प्रथमत्रिकमें संख्या. वर्षशत माहेन्द्र कल्पमें १२दि.१० . द्वितीयत्रिकमें सं. हजार वर्ष ब्रह्म कल्पमें | 22 // दिन ]. तृतीयत्रिकमें सं. लाख वर्ष अद्धा. पल्यो. लांतक कल्पमें 45 दिन | अनुत्तर चार विमानमें | असंख्या. भाग शुक्र कल्पमें 80 दिन | सर्वार्थसिद्ध पर / संख्या. भाग सर्वत्र जघन्य विरहकाल एक समयका च्यवन विरह पर-विरहवत् यथासंभव समझे। जानें।