________________ देवोंका उपपात तथा च्यवनकी संख्या संबंधी समज ] गाथा-१४८ [319 cacacocacaracacacocaccia // देवोंका पाँचवाँ 'च्यवन विरह' और छठा-सातवाँ 'उपपात-च्यवन संख्या' द्वार // अवतरण-अब ग्रन्थकार उस उपपात-विरहकालको जघन्यसे दर्शाते पुनः जघन्य तथा उत्कृष्ट च्यवनविरहकालको अतिदेशसे कहनेके लिए पाँचवाँ द्वार समाप्त करते है / ____और पूर्वार्धवत् पश्वार्ध गाथामें संखं ' इगसमइयं' पदवाला छठा द्वार (एक समयमें एक साथ कितने जीव च्यवते हैं ? अथवा कितने उत्पन्न होते हैं ? वह ) जघन्योत्कृष्टरूपसे शुरू करके समाप्त करेंगे। सव्वेसिपि जहन्नो, समओ एमेव चवणविरहोऽवि / इगदुतिसंखमसंखा, इगसमए हुंति य चवन्ति // 148 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 148 // विशेषार्थ-सर्वका अर्थात् भवनपतिसे लेकर सर्वार्थसिद्ध तकके चारों निकायके देवोंका 'जघन्यसे उपपातविरह ' एक समयका होता है / ... पञ्चमच्यवनविरह काल द्वार-अब उपपातविरहवत् च्यवनविरहकाल कहते हैं / च्यवनविरह-अर्थात् देवगतिकी चारों निकायमेंसे कोई एक या अनेक देव न च्यवे तो कितने काल तक च्यवते नहीं है ? उस कालका नियमन, उसे च्यवनविरहकाल कहते हैं / . इस च्यवनविरहकालको उपपातविरहकाल द्वारमें जिस जिस निकायमें यथासंख्य जितना : : जितना और जहाँ जहाँ कहा है, उसे उसी तरह यथासम्भव विचारे / - अर्थात् प्रथमकी (भ. व्य. ज्यो.) तीनों निकायमें और सौधर्म-ईशान कल्पमें चौबीस मुहूर्त उत्कृष्ट च्यघनविरह / सनत्कुमारमें नौ दिन और 20 मुहूर्त, माहेन्द्रमें बारह * दिन और 10 मुहूर्त, ब्रह्मकल्पमें साढ़े बाईस दिन, लांतकमें 45 दिन, शुक्रमें 80 दिन, सहस्रारमें 100 दिन / आनत और प्राणतमें संख्याता मास / आरण-अच्युतमें संख्याता वर्ष / पहली अवेयकत्रिकमें संख्याता शत वर्ष, मध्यमत्रिकमें संख्याता सहस्र वर्ष, उपरितनत्रिकमें संख्याता लक्ष वर्ष, विजयादि चार विमानके लिए पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और सर्वार्थसिद्धमें पल्योपमका संख्यातवाँ भाग च्यवनविरहकाल होता है / इति उत्कृष्टच्यवनविरहकालः। जघन्य च्यवनविरहकाल एक समयका जाने। इति जघन्यविरहकालः। / // छठा-सातवाँ उपपात-च्यवन संख्याद्वार / / इस तरह उपपात तथा च्यवनविरहकाल कहा / अब एक समयमें जघन्य और उत्कृष्टसे कितने देव देवगतिमेंसे एक साथ ही च्यवन कर सके, वह च्यवनसंख्याद्वार और उस