________________ 292 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 111-112 . समाधान-उन देवलोकवर्ती देवोंको स्वस्थानसे बाहर जाना नहीं होता है, शक्ति है लेकिन प्रयोजनाभावसे तथा कल्पातीत होनेसे गमनागमन नहीं है, अतः किसी भी प्रकारके व्यवहारमें वर्तित नहीं होनेसे उन्हें पहचाननेका प्रसंग होता ही नहीं है / अतः चिह्नोंकी आवश्यकता भी नहीं है / [111] (प्र. गा. सं. 35) अवतरण-चिह्न दिखाकर प्रत्येक कल्पगत इन्द्रोंकी सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या कहते हैं। चुलसि असिइ बावत्तरि, सत्तरि सही य पन्न चत्ताला / तुल्लसुर तीस वीसा, दस सहस्सा आयरक्ख चउगुणिया // 112 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 112 // विशेषार्थ-पहले (अगाऊ ) तीनों निकायोंमें जैसे सामानिक तथा आत्मरक्षक बताए हैं, उसी तरह वैमानिक निकायमें पहले सौधर्मकल्पमें 1. सौधर्मेन्द्र के चौरासी हजार सामानिक देव (84000), 2. ईशानेन्द्रके अस्सी हजार देव ( 80,000 ), 3. सनत्कुमारेन्द्रके बहत्तर हजार (72,000), 4. माहेन्द्रके सत्तर हजार (70,000), 5. ब्रह्मेन्द्रके साठ हजार (60,000), 6. लांतकेन्द्रके पचास हजार (50,000), 7. महाशुक्रेन्द्रके चालीस हजार (40,000), 8. सहस्रारेन्द्रके तीस हजार (30,000), 9. आनत-प्राणतमेंप्राणतेन्द्रके बीस हजार (20,000), 10. आरण-अच्युतमें-अच्युतेन्द्रके दस हजार (10,000) / इस तरह दसों इन्द्रोंके सामानिक (इन्द्र समान ऋद्धिवाले) देवोंकी संख्या कहीं। जब प्रत्येक इन्द्रके इनसे चारगुने आत्मरक्षक माने / अर्थात् सौधर्मेन्द्रकी 84 हजारकी सामानिक संख्याको चार गुनी करनेसे उसके 3 लाख, 36 हजार (3,36,000) आत्मरक्षक, ईशानेन्द्रके 3 लाख, 20 हजार (3, 20,000), सनत्कुमारेन्द्रके 2 लाख, 88 हजार (2,88,000), माहेन्द्रके 2 लाख, 80 हजार (2,80,000), ब्रह्मेन्द्रके 2 लाख, 40 हजार (2.40,000), लांतकेन्द्रके 2 लाख (2,00,000), महाशुक्रेन्द्रके 1 लाख, 60 हजार ( 160,000), सहस्रारेन्द्रके 1 लाख, 20 हजार (1,20,000), आनत-प्राणतेन्द्रके 80 हजार (80,000), आरण-अच्युतेन्द्र के 40 हजार (40,000) आत्मरक्षक देव होते हैं। नव ग्रैवेयकमें तथा अनुत्तरकल्पमें सर्व अहमिन्द्र देव हैं अतः वहाँ कल्पव्यवहारादि निभानेके कार्याभावमें वहाँ सामानिक तथा आत्मरक्षकादि देव नहीं हैं। [112]