________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार . 33 -पढमो मुहमंतिमो हवइ भूमी / मुहभूमिसमासद्धं, पयरगुणं होइ सव्वधणं // 234 // गाथार्थ—प्रथम प्रतरसंख्या को मुख और अंतिम प्रतरसंख्या को भूमि कहा जाता है। दोनों संख्याओं को कुल मिलाकर उस का अर्ध (आधा-आधा) भाग करें, और जो संख्या मिले उस का सर्व प्रतरसंख्या के साथ गुणन करने से सर्वसंख्या प्राप्त होती है / [234] विशेषार्थ-वैमानिकवत् यहाँ भी यह एक ही गाथा समग्र नरकाश्रयी करण बताती है, तथा प्रतिनरकाश्रयी संख्याकरण भी बताती है; क्योंकि मुख तथा भूमि का ग्रहण सातों नरकाश्रयी तथा प्रत्येक नरकाश्रयी भी घटता है / १-समग्र नरकाश्रयी आवासों की संख्या प्राप्त करने का उदाहरण-प्रथम प्रतरवर्ती कुल 389 नरकावासों का समुदाय [पश्चानुपूर्वी प्रथम प्रतर का मुख होने के कारण] मुखसंज्ञक कहते है। और अंतिम प्रतर स्थानवर्ती 5, नरकावासाओं का कुल समुदाय (पश्चानुपूर्वी उसका आरंभ अथवा मूल होने से) भूमि संज्ञक से पहचाना जाता है / . इस मुख तथा भूमि की संख्या को एकसाथ मिलाने से [389+5=]394 संख्या मिलती है, जिसको गाथानुसार अर्ध करने से :197 संख्या बनती है। अब सर्व प्रतरों के आवलिकागत आवासों की कुल संख्या निकालनी है। इसलिए उस संख्या को 49 प्रतरों से गुणित करने से दिशा तथा विदिशावर्ती आवलिकागत [आवलिकाप्रविष्ट] नरकावासों की 9653 संख्या आती है, [अब कुल 84 लाख में से 9653 की संख्या कम करने से] 83,90,347 संख्या जो शेष रही, उसे सातों नरकाश्रयी पुष्पावकीर्ण की संख्या समझें, जिसे अब अगली गाथा में कही जायेगी / इस प्रकार समुच्चयरूप से करण-उपाय चरितार्थ हुआ। [ समुच्चय के लिए दूसरा उपाय यह है कि-४९ प्रतर की एक ही ओर की आवाससंख्या (वैमानिक समयवत् ) इकट्ठी करके चार से गुनने से 49 इन्द्रक आवासों मिलते ही उक्त 9653 की संख्या भी आयेगी / ] २-इष्टनरकाश्रयी आवाससंख्या की प्राप्ति का उदाहरण-अब प्रत्येक नरकाश्रयी . ३७०-इस के अतिरिक्त नरकावास संख्या की प्राप्ति के अन्य करण भी होते हैं, इनमें से कुछ देवेन्द्र-नरकेन्द्र प्रकरण में दिये गये हैं, उन्हें देख लेना। बृ. सं. 5