________________ 280 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 105-106 गाथार्थ-पूर्व और पश्चिम दिशागत पंक्तियों में रहे जो गोल विमान हैं वे दक्षिण दिशामें वर्तित इन्द्रोंके होते हैं / और शेष त्रिकोण और चौकोन विमान सामान्यतः दोनोंके भी होते हैं / // 105 // विशेषार्थ-पूर्व और पश्चिमदिशाकी पंक्तिमें रहे गोल विमानों में वे कल्पयुगलवर्ती दक्षिणेन्द्र ही अधिकारी हैं, उसमें २७'उत्तरेन्द्रोंका कुछ अधिकार नहीं होता / साथ ही उन्हीं दोनों दिशाओंकी पंक्तिमें रहे त्रिकोण-चौकोन विमानोंकी जो संख्या है उसमें विमानोंकी आधी संख्या दक्षिणेन्द्रके ताबेकी और आधी उत्तरेन्द्रके ताबेकी है। यह व्यवस्था प्रथमके दो कल्पयुगलों में ही (सौ. ई. सनत्कु. माहेन्द्र ) भावनाकी है, क्योंकि दोनों युगलोंमेंसे प्रत्येक युगलमें उस उस दिशामें दोनों इन्द्रोंका स्वामित्व संकलित है। उसमें भी पुनः अमुक पंक्तिगत अमुक प्रकारके विमानों पर स्वामित्व अमुकका ही होता है। _और आनत-प्राणत, तथा आरण-अच्युत ये कल्पयुगल ही हैं, परन्तु तत्रवर्ती सर्व प्रतरोंमें स्वामित्व तो एक ही इन्द्रका होता है जिससे वहाँ किसी विचारको अवकाश नहीं है। [105] (प्र. गा. सं. 32) अवतरण-अब उक्त विमानोंके रक्षणार्थ क्या है ? यह बताते हैं। पागारपरिक्खित्ता, वट्टविमाणा हवंति सम्वे वि। चउरंसविमाणाणं, चउद्दिसिं वेइया . होइ / / 106 // . (प्र. गा. सं. 33 ) गाथार्थ-आवलिका प्रविष्ट सर्व वर्तुल विमान चारों बाजू पर गढसे आवृत्त होते हैं / चौकोन विमानोंकी चारों बाजू पर वेदिका होती है / // 106 // विशेषार्थ सुगम है / इतना विशेष कि-गोलविमानके जो गढ बताया वह शीर्षभागमें (छोर पर) 272 कंगुरेवाला-सुशोभित दिखावेवाला होता है। और चौकोन विमानके जो वेदिका बताई वह बिना कंगुरेकी सादी २७३भित्तीरूप समझना / अतः उस गढको वेदिका कही जाती है / [ 106 ] (प्र. गा. सं. 33) 271. जिस तरह किसी राजाकी हदमें दूसरे किसी राजाके ताबेके भी ग्राम-नगरादि होते हैं, साथ ही कुछ ऐसे ग्राम-नगर भी आते हैं कि उस गाँवके अमुक भागके मालिक अमुक हो और अमुक विभागकी सत्ता अन्यकी हो, वैसा यहाँ सोचें / 272. बहुतसे जीर्णनगरके किले विविध प्रकारके कंगुरोंके महित होते हैं, यह जगप्रसिद्ध है। 273. काठीआवाड ( सौराष्ट्र )में मुकामोंके रक्षणार्थ ही जो की जाती है उसे 'वंडी' कहते हैं जबकि गुजरातमें 'ढोरो' भी कहते हैं / इस तरह अलग अलग देश आश्रयी विविध तरहसे पहचाने जाते हैं।