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________________ वलिकागत विमानोंकी संख्या प्राप्त करनेको करण ] गाथा 107-108 [ 281 ACAanceARAARA * अवतरण-अब इस तरह त्रिकोण विमानका रक्षण कैसा है ? यह बताते हैं / . जत्तो वट्टविमाणा, तत्तो सस्स वेइया होइ / पागारो बोद्धव्यो, अवसेसेसुं तु पासेसुं // 107 // (प्र. गा. सं. 34) गाथार्थ-जिस दिशामें वर्तुल विमान हैं, उसके सम्मुख त्रिकोण विमानोंके वेदिका होती है / (कंगुरेसे रहित गढ) और शेष दिशाओं में कंगुरेके साथ गढ होते हैं / // 107 / / विशेषार्थ-सुगम है / (107) (प्र. गा. सं. 34) अवतरण-अब किसी भी कल्पमें आवलिकागत विमानोंकी (तथा पुष्पावकीर्ण) संख्या प्राप्त करनेको 'करण' दर्शाते हैं। पढमंतिमपयरावलि-विमाणमुहभूमि तस्समासद्धं / पयर गुणमिट्ठकप्पे, सम्बग्गं पुप्फकिन्नियरे // 108 // गाथार्थ-पहली प्रतर श्रेणीकी विमानसंख्या 'मुख' कहलाती और अन्तिम प्रतरोंकी विमान संख्या उसकी 'भूमि' कहलाती है। इन दोनों संख्याका जोड करके उसका आधा कर देना, फिर उसका इच्छित कल्पना प्रतरोंकी संख्याके साथ गुना करना जिससे सर्व आवलिकागत विमानसंख्या प्राप्त होगी और शेष संख्या वहाँके पुष्पावकीर्ण विमानोंकी जानें / // 108 // विशेषार्थ-यह गाथा जो करण बताती है वह इष्ट कल्पाश्रयी घटती है वैसे उपलक्षणसे समग्र निकायाश्रयी तथा प्रतिप्रतराश्रयी भी विमानसंख्या लानेको घट सकती है। क्योंकि मुख' और 'भूमि' संज्ञा संख्या २७४प्रतिकल्प तथा समुच्चयमें (बासठ प्रतराश्रयी) भी घटती है क्योंकि किसी भी प्रकारका विमानसंख्यत्व निकायस्थान, प्रतिकल्पस्थान और प्रतिप्रतरस्थान तीनों आश्रयी घट सकते हैं अतः यहाँ प्रथम उक्त करण उदाहरण द्वारा इष्टकल्पाश्रयी घटाते हैं / इष्टकल्पमें विमानसंख्याप्राप्तिका-उदाहरण-जिस तरह सौधर्म-ईशानकल्पगत प्रथम प्रतरमें 249 विमानसंख्या, उस देवलोकका 'मुख' कहलाए और सौधर्म-ईशान देवलोकके 274. कल्प अर्थात् क्या ? सामर्थ्य वर्णनायां च, कल्पने छेदने तथा / औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः // ' अधिवास' अर्थमें कल्पशब्दका प्रयोग किया गया है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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