________________ विमानोंका स्वामी कौन है ? वह ] गाथा 103-105 [ 279 . जे दक्खिणेण इंदा, दाहिणओ आवली मुणेयवा / जे पुण उत्तर इंदा, *उत्तरओ आवली तेसि // 103 / / (प्र. गा. सं. 30) गाथार्थ--दक्षिण दिशामें रहे आवलिकागत विमान उन दक्षिणेन्द्रोंके जाने और उत्तरदिशामें रहे आवलिकागत विमान उन उत्तरेन्द्रोंके जाने / // 103 // विशेषार्थ-सुगम है। इतना विशेष समझे कि-प्रत्येक प्रतरमें विमानोंकी चार पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण इस तरह चारों दिशाओंमें विभाजित है। उनमें जो पंक्ति दक्षिणदिशामें गई हो वह दक्षिणेन्द्रों (सौधर्म-सनत्कु० ) की ही जानें। इसी तरह उत्तरदिशामें गई सीधी पंक्ति वह दक्षिणदिशागत-समश्रेणिमें रहे ईशानादि ( ईशान-माहेन्द्र दो ही) उत्तरेन्द्रोंकी जाने / [103] (प्र. गा. सं. 30) अवतरण-अब शेष पूर्व-पश्चिम दिशाके आवलिकागत विमानोंका स्वामित्व .जणाते हैं। पुग्वेण पच्छिमेण य, सामण्णा आवली मुणेयव्या / जे पुण बट्टविमाणा, मज्झिल्ला दाहिणिल्लाणं / / 104 / / (प्र. गा. सं. 31) गाथार्थ-पूर्व तथा पश्चिम दिशाकी पंक्ति सामान्यतः जानें / उसमें प्रतरमध्यमें वर्तित गोल इन्द्रक विमानोंको उन दक्षिणेन्द्रोंके ही जानें / // 104 // विशेषार्थ-पूर्व और पश्चिमदिशामें गई विमानकी पंक्तियाँ सामान्यतः जानें, अर्थात् आधे विमान सौधर्मेन्द्रकी मालिकीके और आधे ईशानेन्द्रकी मालिकीके जानें / उसमें भी इतना विशेष समझना कि-प्रतरमध्यवर्ती गोलाकारमें वर्तित तमाम इन्द्रक विमान २७°दक्षिणेन्द्रोंके ही स्वामित्ववाले और बिचके गोल इन्द्रकविमान भी उनकी ही मालिकीके हैं। इसीलिए दक्षिणेन्द्रोंका वैशिष्टय है। [104] (प्र. गा. सं. 31) / अवतरण-- अब पूर्व और पश्चिम पंक्तिकी मालिकीमें थोड़ी विशेषता है उसे जणाकर पूर्वगाथाकी बातको स्पष्ट करते हैं / पुश्वेण पच्छिमेण य, जे वट्टा ते वि दाहिणिल्लस्स / तंस चउरंसगा पुण, सामण्णा हुंति दुण्हंपि / / 105 / / .. (प्र. गा. सं. 32) * पाठां. उत्तरावली मुणिय तेसि / 270. इन आवलिक और पुष्पावकीर्णविमान विषयक साक्षीरूप गाथाएँ यहाँ हम नहीं देते, क्योंकि देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरणकी ये गाथाएँ चालू संग्रहणीकी टीकामें हैं ही /