________________ 344 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 166-168 ऐसे मनुष्य-तिथंच तथा पर्याप्ता बादर ऐसे पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकायमें जाता है // 166 // ____उनमें भी सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार देवलोक तकके देव एकेन्द्रियमें जाते नहीं हैं और आनत प्रमुख उपरितन (ऊपर ऊपरके ) कल्पका देव च्यवकर निश्चित रूपमें मनुष्यलोकमें ही जाते हैं // 167 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम है। देव मृत्यु पाकर कहाँ कहाँ जाते हैं ? उसका जो नियमन स्थान है उसे आगतिद्वार कहते हैं। अधिकमें देव सूक्ष्म पृथ्वी, पानी, सूक्ष्म बादर साधारण वनस्पति, अपर्याप्त बादर पृथ्वी, अपूकाय, प्रत्येक वनस्पतिमें, अग्नि, वायु, विकलेन्द्रिय, असंख्य आयुष्यवाले और संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यच-मनुष्यमें तथा देव और नरकमें उपजते (जनमते) नहीं हैं। सनत्कुमारसे उपरि-उपरि देवोंका पुण्य बढ़ता होनेसे क्रमशः वे देव च्यवकर निम्न गतिमें जाते नहीं है। | 166-167 ] // आगति द्वार पर चारों निकायके देवोंका यन्त्र // भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिषी सौधर्म | पर्याप्त ग. मनुष्य-तिर्यच, पर्याप्त ईशानवर्ती देव बादर पृथ्वी-अप्-प्रत्येक वनस्पतिमें / जाते हैं। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार तकके देव | संख्याता आयुष्यवान् पर्याप्ता गर्भज मनुष्य-तिर्यचमें ही जाता है। आनतादिसे लेकर अनुत्तर तकके देव | निश्चय संख्याता आयुष्यवाले गर्भज | मनुष्यमें ही जाते हैं। // इति नवमागति द्वारम् // // वैमानिकनिकायके लिए प्रकीर्णकाधिकार // अवतरण-प्रस्तुत आगतिद्वारमें प्रकीर्णकाधिकार कहा जायेगा। इसमें प्रथम देवोंके विभिन्न प्रकारके मैथुन सम्बन्धी विषयसुखकी चर्चा-व्याख्या करते हुए जिन देवोंका देवियोंके साथ जिस प्रकारसे उपभोग है उसे बतायेंगे। दो कप्प कायसेवी, दो दो दो फरिसरूवसद्देहिं / --चउरो मणेणुपरिमा, अप्पवियारा अणंतसुहा // 168 / / गाथार्थ-प्रारम्भके दो देवलोक मनुष्यवत् शरीर धारण करके सेवा करनेवाले, उनके बादके दो-दो कल्पगत देव क्रमशः स्पर्श-रूप-शब्दसे, उनके बाद चार कल्पगत देव